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________________ णाकार ग्रंप ३८१ व्यापने लगी। महाराज कनककेतु ने एक समय मुनिराज से पूछा- "भगवान् ! मेरे मन में एक चिता उत्पन्न हुई है कि मेरो पुत्री रयणमंजूषा का वर कौन होगा, सो मुझ पर कृपा कर मुझे चिन्तासागर से निकाल सुखी कीजिए जिससे मेरा संशय दूर हो।" तब वे परम दयालु मुनिवर बोले-"राजन् ! जो सहस्रकूट चैत्यालय के कपाट अाने कर कमलों से खोलेगा वहीं निश्चय करके तेरी पुत्रो का स्वामी होगा।" तब राजा प्रसन्न हो नमस्कार कर अपने घर पर पाया और आते ही अपने नौकरों को प्राज्ञा दी कि-"जानो तुम लोग सहस्त्रकूट चत्यालय के द्वार पर पहरा दो और जो पुरुष प्राकर वहाँ के कपाट खोले उसी समय पाकर हमको खबर दो और उस पुरुष का भली प्रकार सम्मान करो।" राजा की आज्ञा पर नौकरों ने उसी समय से वहाँ पर पहरा देना प्रारम्भ कर दिया तथा उसी समय धवल सेठ के जहाजों के साथ श्रीपाल जी का शुभागमन हुप्रा । यहाँ की शोभा और इसे व्यापार के लिए उत्तम स्थान देखकर जहाजों के संगर डाल दिए गए तथा नगर के निकट डेरा डाला गया। धवल सेठ प्रादि पुरुष व्यापार की खोज में बाजार की हलचल देखने के लिए नगर में गए और श्रीपाल जी भी गुरु वचन को स्मरण करके कि जहाँ जिन मन्दिर हो यहाँ पर प्रथम ही जिन दर्शन करके सारे कार्य करना और नित्य षट् आवश्यक कार्यों को यथाशक्ति पूर्ण करना'- यह विचार कर जिनमन्दिर की खोज में गए । वे अनेक प्रकार की शोभा देखते और मन को आनन्द युक्त करते हुए एक अति ही रमणीक स्थान में पाए और वहाँ अति विशाल व उतंग स्वर्ग सा बना हुआ सुन्दर मन्दिर देखा। उसे ही प्रानन्दित हो मन्दिर के द्वार पर जाकर देखा कि दरवाजा वज. मयी किवाड़ों से बन्द था। तब वे पहरेदार विनय सहित कहने लग __"हे स्वामिन् ! यह श्री जिन मन्दिर है । वज्र के कपाटों से बंद कराया गया है । इसमें और कुछ विकार नहीं है परंतु आज तक ये किवाड़ किसी से नहीं खोले गए हैं । अनेकों योद्धा आये और अपना-२ बल लगाकर थक गए परंतु ये कपाट नहीं खुले हैं।" श्रीपाल जी द्वारपालों के वचन सुनकर चुप हो गए तथा मन में हर्षित हो सिद्धचक्र की प्राराधना कर ज्यों ही उन किवाड़ों पर हाथ लगाया त्यों ही वे किवाड़ खट से खुल गए। श्रीपाल ने हर्षित होकर ___'जय निःसही, जय निःसही, जय निःसही, जय, जय, जय' इत्यादि शब्दों का उच्चारण करते हुए मन्दिर के मध्य प्रवेश किया और श्रीजिन के सन्मुख खड़े होकर मधुर स्वर से स्तुति पाठ पढ़ने लगे । तदनंतर सामायिक, वन्दना, मालोचना, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग आदि षट् मावश्यक कार्य कर स्वाध्याय करने लगे और वे द्वारपाल जो पहरे पर थे ऐसे विचित्र शक्तिधर पुरुष को देख कर पाश्चर्यान्वित हुए । उनमें से कुछ तो वहाँ ही रहे और कुछ राजा के पास गए । उन्होंने जाकर सम्पूर्ण बृतान्त राजा से कह सुनाया। राजा यह समाचार सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ और समाचार देने वालों को बहुत कुछ परितोषिक दिया । पश्चात् पाप बड़े उत्साह से मंत्रीगणों को साथ लेकर समारोह के साथ सस्कट चैत्यालय पहुंचे तथा सानन्द भक्ति पूर्वक प्रदक्षिणा देकर नमस्कार किया। पश्चात् भगवान की स्तुति करने लगे। ___ स्तुति करने के पश्चात् श्रीपाल के निकट प्राये और यथायोग्य अभिवादन आदि के पश्चात् कुशलक्षेम पौर प्रागमन का कारण पूछने लगे-"हे कुमार ! पापका देवा कौन-सा है ? किस कारण यहां तक मागमन हुमा?" इत्यादि प्रश्न राजा ने किए । तब श्रीपाल जी मन में विचारने लगे 'यदि में अपने मुख से प्रपना बतात कहूंगा तो राषा को निश्चय होना कठिन है क्योंकि इस समय मेरे कपन को
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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