SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 323
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०. णमोकार नष इस प्रकार दूत के मुख से भगवान ने जब तीर्थंकरों के जन्म और मुनिराज के मोक्ष पधारने का वतान्त सना, तब ही उन्हें वैराग्य हो पाया। वे विचारने लगे कि-'धन्य हैं कि ये मोह जाल को तोड़कर प्रात्महित की साधक जैनेन्द्री दीक्षा के द्वारा पविनश्वर मोक्ष महल के भोक्ता हुए हैं । मैंने भी अद्यावधिसंसार की लीला से परिचित होते हुए जनसाधारणवत शरीर इन्द्रियों को संतुष्ट किया और कभी अपने हित को प्रोर ध्यान नहीं दिया। पर खैर जो हुआ । अब भी मुझे अपना कर्तव्य पालन करने के लिए बहुत समय है जिस प्रकार मैंने विषय सुख भोगा उसी प्रकार अब कठिन तपश्चरण कर इनको विषयों की ओर से हटाकर उन्हें प्रात्मशक्ति के बढ़ाने में सहायक बनाऊँ। यदि इनकी अब भी उपेक्षा न की गई तो नियम करके संसार भ्रमण करना पड़ेगा। प्रतएव प्रब इन विषयों के जाल से अपने प्रात्मा को छुटाकर अविनाशी सुख के देने वाली जिन दीक्षा ग्रहण कर पंचाचार प्रादि मुनिश्रतों का निरतिचार पालन करू।' इस प्रकार सांसारिक विषय कषायों से विरक्त होकर भगवान वैराग्योत्पादक बारह भावना का चितवन करने लगे। तत्समय ही पंचम स्वर्ग के अन्त में रहने बाले लौकान्तिक देवों ने प्राकर भगवान के वैराग्य की प्रशंशाकर अपना नियोग पूरा किया। तदन्तर स्त्रों के देवों ने पाकर भगवान को क्षीरोदधि के जल से भरे हुए सुवर्णमय कलशों से स्नान कराया और चन्दनादि उत्तम सुगंधित वस्तुत्रों का शरीर में विलेपन कर अनेक प्रकार के दिव्य वस्त्राभूषणों से विभूषित किया । तदनन्तर देवों द्वारा लाई हुई विमला नामक पालकी में भगवान को आरूढ़ कर पहले तो सात पेंड भूमि गोचरी लेकर चले। पश्चात सात ही पंन्ड विद्याधर तदनर इन्द्रादिक देव लेकर उन्हें काशी के अश्वनामक वन में ले गए। भगवान ने वहाँ वटवृक्ष के नीचे सब वस्त्राभूषणो का परित्याग कर अपने मस्तक के केशों का लोंच किया। उन केशों को लकर ले जाकर इन्द्र ने क्षीर समुद्र में जा क्षेपण किया। पश्चात भगवान के वाह्याभ्यंतर परिग्रह का त्याग कर सिद्ध भगवान को नमस्कार करके मात्महित की साधक पावन जिन दोक्षा स्वीकार की। उनके साथ और भी ६०६ मुकुट बद्ध राजाओं ने जिन दीक्षा को स्वीकार किया। उस दिन पौष कृष्ण ११ और प्रातःकाल का समय था । दीक्षा लेने से तीन दिवस पर्यन्त भगवान ध्यानारूढ रहे। पश्चात काश्यकृत पुर में ब्रह्मदत्त राजा के यहां निर्दोष निरंतराय प्राशक प्रहार किया। अनन्तर वन में जाकर पंचाचार प्रादि मनिवतों का निरतिचार पालन करते हुए कठिन तपश्चरण करने लगे। न उन्हें शीत की बाधा होती थी और न आतप की। और न क्षुधा तृषा की ही। यदि किंचित होती भी तो वे उसकी कुछ उपेक्षा न रखकर सदा आत्मध्यान में लीन रहते। इस प्रकार शीतोष्मादि जनित बाधा को सहते हुए भगवान योग निरोध कर चार मास पर्यन्त धर्म ध्यान में लीन रहे। एक दिन की बात है कि वे निज तपोबन (जहाँ दीक्षा ली थी उसी वन) में खड़े हुए ध्यान कर रहे थे कि उसी समय वह कमठ का जीव जो भगवान का नाना होकर प्रायु के अंत में गत प्राण हो संबर नामक ज्योतिषी देव हुआ था, आकाशमार्ग से उधर होकर निकला पर भगवान के प्रभाव से विमान अटक गया। अर्थात भगवान के प्रभाव से उनको उल्लंघन कर आगे न जा सका मोर ऊपर छत्र वप्त स्थिर हो गया। अकस्मात बिना कारण विमान को रुका देखकर उसने अवधिज्ञान के बल से जान लिया कि यह वही मेरे पूर्वजन्म का अपमान करने वाला शत्रु है जिसने पंचाग्नि तप तपते हुए विनय प्रमाण करने के प्रतिकुल मेरे तप को प्रज्ञान तप कह कर निन्दा की थी और अब भी मेरे विमान के चलने में ये हो प्रतिबंधक है । यह समझकर उन पर नाना प्रकार के उपद्रव
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy