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णमोकार ग्रंथ
ॐ ह्रीं महं अजाताय नमः ॥६२७॥ माप उत्पत्ति रहित होने से मजात हैं ।। ६२७।। ॐ ह्रीं पहँ सुप्रताय नमः ।।६२८।। पाप अहिंसा आदि उत्तम प्रतवान् होने से सुबत हैं ॥६२८।
ॐ ह्रीं महं मनुबे नमः ॥६२६॥ कर्मभूमि की रचना का पथवा मोक्ष मार्ग का स्वरूप बतलाने से प्राप मनु हैं ।।६२६।।
ॐ ह्रीं अहं उत्तमाय नमः ।। ६३०।। सबसे श्रेष्ठ होने से प्राप उत्तम कहलाते हैं ।। ६३०।।
ॐ ह्रीं महं प्रभेशाय नमः ॥६३१।। किसी से भी भापका भेद नहीं हो सकता इसलिये प्राप प्रभेछ हैं ॥६३१॥
ॐ ह्रीं अहं प्रनत्याय नमः ।। ६३२॥ पाप नाश रहित होने से अनत्य हैं ।।६३२।।
ॐ ह्रीं पह अनाश्वानाय नम: ।।६३३॥ पाप भनशन प्रादि तपश्चरण करने से मनाश्वान है ।।६३३।।
ॐ ह्रीं महं अधिकाय नमः ।।६३४॥ सबमें अधिक अर्थात् पूज्य होने से पाप अधिक
____ *ली अहं अधिगुरवे नमः ॥६३५॥ आप सबसे उत्तम उपदेश को देने से प्रधिगुरु
ॐ ह्रीं मह सुगिरे नमः ५:३६ आ
ज सबके लिये राणकारी है इसलिये माप सुगी कहलाते है ।।६३६॥
ॐ ह्रीं मह सुमेधे नमः ॥६३७॥ पाप सम्पश्चाती होने से सुमेधा है ।। ६३७॥
ॐ ह्रीं पई विक्रमिणे नमः ।। ६३८।। महापराक्रमी होने से पाप विक्रमी हैं ।। ६३८।। . *हीं पह स्वामिणे नमः ।।६३९॥ सबके स्वामी होने से अथवा सब पदार्थों के यथार्थ ज्ञानी होने से प्राप स्वामी है ।।६३६।
___ॐ ह्रीं पहँ दुराधर्षाय नमः ।।६४०।। किसी के द्वारा निवारण नहीं किये जाने से प्राप दुराधर्ष हैं।६४०॥
ॐ ली अहं निरुत्सुकाय नमः ॥६४१।। अभिलाषा रहित होने से अथवा स्थिर भाव होने से प्राप निरुत्सुक हैं ॥६४१||
ॐ ह्रीं महं विशिष्टाय नमः ॥६४२।। विशेष रूप होने से प्राप विशिष्ट हैं ॥६४२।।
* ह्रीं ग्रहं शिष्टभुजे नमः ॥६४३।। आप शिष्ट पुरुषों का पालन करने से शिष्टभुक है ॥६४३॥
ॐ ह्रीं अहं शिष्टाय नमः ।।६४४।। राग, द्वेष, मोहं प्रादि दोषों से रहित होने से माप शिष्ट हैं ॥४॥
ॐ ह्रीं अहं प्रत्याय नमः ॥६४५।। विश्वास रूप होने से अथवा ज्ञान रूप होने से माप प्रत्यय है ।।६४५६
ॐ ह्रीं पहं कामनसे नमः ।।६४६॥ माप मनोहर होने से कामन हैं ।।६४६।। * ह्रीं मह मनद्याय नमः ।।६४७॥ पाप पाप रहित होने से अनद्य है ॥६४७।। *ह्रीं पई क्षेमिणे नमः ।।६४८॥ पाप मोक्ष प्राप्त करने से क्षेमी है ।। ६४८।। ॐ ह्रीं महं क्षेमंकराय नमः ॥६४६।। सबका कल्याण करने से भाप कमंकर हैं ॥६४६।।