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________________ २९४ णमोकार मंच सच है-कुल दीपक पुत्र की प्राप्ति से कौन खुशी नहीं मनाता! राजा ने पुत्र का नाम अपने नाम से सम्बन्ध रखते हुए बानाभि रख दिया । बाल कुमार शुक्ल द्वितीया के चन्द्रमा की तरह दिनों दिन बढ़ने लगा। बंधु वर्ग रूपी कमल उसे देखकर प्रफुल्लित होते थे । जब उनकी पठन करने के योग्य उमर हुई तब महाराज बच्चवीरज ने अच्छे-अच्छे विद्वान अध्यापकों को रख कर उन्हें पढ़ाया । इनकी बुद्धि बड़ी तीक्ष्ण थी दूसरे इन पर गुरुपों की कृपा हो गई। इससे थोड़े ही दिनों में पढ़ लिखकर अच्छे धर्मश पौर नीति निपुण विद्वान बन गए । कुछ दिनों पश्चात् राजा बन्नबीरज ने पुत्र को यौबन सम्पन्न होते देखकर इनका विवाह समारंभ किया। उसमें उन्होंने खूब द्रव्य व्यय कर बड़े वैभव के साथ अनेक सुन्दर राजकुमारियों से उनका विवाह कर दिया । और कुछ समय के अनन्तर इनको राज्याधिकार भी दे दिया गया। बजनामि प्रब राजा हो गये। प्रजा का शासन ये भी अपने पिता की भांति न्याय नीति पूर्वक प्रेम के साथ करने लगे। कुछ समय के पश्चात् इनके यहां परम प्रकर्ष पुण्योदय से प्रायुधशाला में चक्ररत्न प्राप्त हो गया जो सब सुखों का परा गामा - पाकर पल सदा विनिधि भी इनके यहाँ प्रकट हो गयी थी। प्रतः उन्होंने भनेक देशों को जीतकर अपने अधीन कर लिया और निष्कंटक होकर षखंड का राज्य करने लगे जिससे वज्रनाभि के नाम से संसार में प्रख्यात हो गए । एक दिन बननाभि क्षेमकर 'पक्रवर्ती मुनिराज के दर्शनार्थ गए। उनकी भक्ति से पूजा स्तुति कर उनसे धर्म का पवित्र उपदेश सुना। मुनिराज के वैराग्य पूर्ण उपदेश का उनके हृदय पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। वे उसी समय संसार के विषय भोगों से विरक्त हो गये और राज्यभार को छोड़कर बहुत से राजाओं के साथ प्रात्महित की साधक जैनेंद्री दीक्षा ग्रहण कर ली और महातप तपने लगे। एक दिन बन में खड़े कायोत्सर्ग ध्यान कर रहे थे कि इसी समय इनसे जन्मान्तर शत्रुता रखने वाला कमठ का पीय जो कि पहले मजगर की पर्याय को छोड़कर छठे नर्क का वासी हुमा पा स्थिति पर्यन्त मनेक प्रकार के कष्ट भोगकर वहां से निकल कर इसी वन में महाधिकराल भयानक रूप का धारक भील हमा और शिकार के लिए धनुषवाण लेकर भ्रमण करता हुमा इस मोर पा निकला जहाँ मुनिराज ध्यान में निमग्न थे। उसमे दिगम्बर मुनिराज को देखकर पूर्व जन्म की शत्रुता क संस्कार वश शिकार मिलने के लिए उन्हें विघ्न रूप समझकर उनके शरीर को तीरों से बेध दिया। मुनिराज को बड़ा दुस्सह कष्ट हुमा पर उसे उन्होंने बड़ी धीरता से सहा । सच है-जिनका शरीर से रत्ती भर मोह नहीं उनके लिए तो कष्ट कोई बीज ही नहीं । अन्त में समाधि से मरण कर मध्य अवेयक में महर्मित्र हुए और वह भील मुनि-हिंसा पी पाप के फल से सप्तम मरक में गया' सब है-पापियों को कहीं स्यान नहीं मिलता । एक नरक ही की उन पर कृपा दृष्टि होती है जो उनको रहने के लिये स्थान प्रदान कर देता है । पचात् वह वेव मध्यम वेयक में सत्ताईस सागर पर्यन्त उत्तमोत्तम सुख भोग पायुपूर्ण हए वहाँ से पपकर जंबूढीप के भरतक्षत्र में कीपल देश के अन्तर्गत प्रयोध्या नाम की नगरी में तस्याधिपति इक्वाकु वंशोद्भव सजावणबाहुकी रानी प्रभाकरी के गर्भ से मानव कुमार मामक राजपुत्र हुमा।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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