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करना (बनाना) स्थापित भद्रमुख नामक शिल्पिरत्न का कार्य है ।१०। चक्रवर्ती के गृह सम्बन्धी कार्य का सावधानी पूर्वक प्रबन्ध करना रक्षा करना-कामवृद्धि नामक गृहपति रत्न का कार्य है 1१११ चक्रवर्ती को मन की इच्छानुसार सुन्दर गति से सवारी देना-विजय र्द्ध गिर नामक हस्तीरत्न का कार्य है ।१२। चक्रवर्ती के चित्त को सुखदायक पवन के समान शीघ्रगामी मनोहर गति से सवारी देना पवनंजय नामक प्रश्वरत्न का कार्य हैं ।१३।।
सुकुमार व सुगंधित शरीर वाली स्वर्ग की देवांगनाओं से अधिक सुन्दर बुद्धिमती चतुर चक्रवर्ती की प्राशाकारिणी, सती विदुषी अपने कर कमलों से रत्न चूर्ण करने वाला महाबलवान चौदह्वां सुभद्रा नामक स्त्री रत्न है ।१४।।
__ ये सात रत्न चेतन जानने चाहिए । सब चेतन-अचेतन मिलाकर गौदह रत्न हुए। अब इनका उत्पत्ति स्थान लिखते हैं।
चक्र, छत्र, असि और दंड-ये चार प्रायुधशाला में, चरम कांकणी और चूड़ामणि ये तीन श्रीगह में, हस्ती, घोटक और स्त्री-ये तीन विजया पर्वत पर और शिल्पि, प्रोहित, सेनापति तथा गृहपति-ये चार निज-निज नगरी में उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार चौदह रत्नों का सामान्य स्वरूप कहा ।
प्रम मागे नवनिधियों के नाम और गुण कहते हैं: -
चौपाई प्रथम काल निधि शुभ प्राकार सो अनेक पुस्तक दातार । महाकाल निधि दूजी कही, याकी महिमा सुनियो सही ॥ मसि मसि आदिक साधन जोग, सामग्री सब देय मनोग। तीजी निधि नैसर्प महान, नाना विधि भोजन की खान ।। पांधुक नाम चतुर्थी होय, सब रस धान समर पे सोय । पदम पंचमी सुकृती षेत, बंछित बसन निरंतर देत ।। मानव छठी है निधि जेह, प्रायुध जात जनम भुवतेह। सप्तम सुभग पिंगला नाम, बहु भूषण प्रापै अभिराम ।। शंख निधान माठमी गिनी, सब वाजिक भूमि का बनी। सर्व रतन नौमि निधि सार, सो नित सर्व रतन भंडार ।।
दोहा ए नवनिधि चक्रश के, शकटाकृति संठान । पाठ चक्र संयुक्त शुभ, चौषूटी सब जान ।। योजन पाठ उतंग प्रति, नव योजन विस्तार। बाहर मित दीरघ सकल, बसें गगन निरधार ।। एक-एक के सहस मित, रषवाले जषि देव ।
ए निषि उपजे पुन्य सों: सुखदायक स्वयमेव ।। इत्यादि अनेक प्रकार की विभूति संयुक्त बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजामों पर शासन करते हुए षट्खंड का निष्कटक होकर राज्य करते हैं। उनमें जो तप करते हैं वे तो स्वर्ग या मोक्ष में जाते हैं और जो राज भोग में ही मासक्त होकर मरण करते हैं वे अवश्य नरकगामी होते हैं।