Book Title: Dashvaikalika Sutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DOOOOOOOD AIR) जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्यश्रीघासीलालबतिविरचितया आचारमणिमञ्जूपाख्यया व्याख्यया समलङ्कृतं (1) श्रीदशवैकालिकसूत्रम् [प्रथमो भाग: अध्ययन १-५] -नियोजक:र संस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानि ___पं. मुनिश्री कन्हैयालालजी महाराजः । 0000000000000 :प्रकाशिका : अखिल-भारत-श्वेताम्बर-स्थानकवासि-जैनशास्त्रोद्धार समितिः राजकोट. द्वितीयं संस्करणम् - १००० मूल्यम् रु. १० Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્ર કા શ ક : પ્રાપ્તિ સ્થાન મગનલાલ છગનલાલ શેઠ માનદમંત્રી શ્રી અ. ભા. વે સ્થાનકવાસી જે ન શા દ્ધા ૨ સમિતિ ગ્રીન લેજ પાસે, રાજકોટ. બીજી આવૃત્તિ : પ્રત ૧૦૦૦ વીર સંવત : ૨૪૮૩ વિક્રમ સંવત : ૨૦૧૩ ઈસ્વી સન્ : ૧૫૭ મુ દક : મુ દ ણ સ્થાન : જયતિલાલ દેવચંદ મહેતા જ ય ભા ર ત છે , ગ ૨ ડી યા ક વ રે શાક મારકીટ પાસે, રાજકોટ. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી વર્ધમાન શ્રમણ સંઘના આચાર્યશ્રી પૂજ્ય આત્મારામજી મહારાજશ્રીએ શ્રી દશ વે કા તી ક સૂત્ર માટે આપેલ સન્મ તિ ૫ ત્રા ઉપરાંત પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજનાં બનાવેલાં બીજા સૂરો માટે તેઓશ્રીનાં મંતવ્ય તે મ જ અન્ય મહત્માઓ, મહાસતીજીઓ, અધ્યતન પદ્ધતિવાળા કેલેજના પ્રોફેસરો તેમ જ શાસ્ત્ર શ્રાવકેના અભિપ્રાય છે. ગ્રીન લેજ પાસે | ગરેડીયા કુવા રેડ રાજકોટ : સૌરાષ્ટ્ર. ! શ્રી. અખિલ ભારત છે. સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદાર સમિતિ, - - - - - - - - - - - - - - Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અત્યાર સુધીમાં બહાર પડેલાં શાસ્ત્રો ૧ શ્રી ઉપાસક દશાંગ સુત્ર પહેલી આવૃતી ખલાસ ૨ , દશવૈકાલિક સુત્ર ભાગ-૧ પહેલી આવૃતી ખલાસ ૩ , વિપાક સુત્ર પહેલી આવૃતી ખલાસ ૪ આચારાંગ સુત્ર ભાગ-૧ પહેલી આવૃતી ખલાસ અનંતકૃત પહેલી આવૃતી ખલાસ ૬ » આવશ્યક પહેલી આવૃતી ખલાસ , અનુત્તરપપાતિક ૩-૮-૦ , દશાશ્રુત સ્કન્ધ 1-0-0 , નિરયાવલિકા સુત્ર (ભાગ ૧થી ૫) ૭-૮-૦ ૧૦ , દશવૈકાલિક ભાગ-૨ બીજે ૭-૮-૦ ૧૧ , ઉપાસકદશાંગ બીજી આવૃતી ૧૨ રુ આચારાંગ ભાગ-૨ બીજે ૧૦-૦૦ ૧૩ , દશવૈકાલિક ભાગ-૧ બીજી આવૃતી ૧૦-૦–૦ (હાલમાં છપાય છે.) ૧ શ્રી આચારાંગ ભાગ-૧ લે બીજી આવૃતી ૨ , વિપાક સુત્ર » » ૩ અનંતકૃત ૪ આવશ્યક , ઉવવાઈ સુત્ર , આચારાંગ ભાગ-૩ ૭ , ૫ સુત્ર છુટાં પાના છાપવા માટે તૈયાર છે ૧ ઉત્તરાધ્યાયન સુત્ર ૨ નન્દી સુત્ર ૩ જ્ઞાતા સુત્ર ૪ સમવાયાંગ સુત્ર ૫ પ્રશ્ન વ્યાકરણ સુત્ર ૬ અનુગદ્વાર સુત્ર ૭ રાયપણું સુત્ર ૮ સ્થાનાંગ સુત્ર નાટકઘાટકેપરના શ્રીયુત શેઠ માણેકલાલ એ. મહેતા તરફથી એક સુત્રની પ્રસિદ્ધિ માટે રૂ. ૩૦૦૦ ત્રણ હજાર સમિતિને તા. ૧૦-પ-પ૭ ને દિને મળ્યા છે. તે માટે તેમને આભારી છીએ. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. कपायलिप्त कर्मबन्ध से बन्धे हुए संसारी प्राणियों के हितार्थ जगत हितैपी भगवान् श्री वर्धमान स्वामीने श्रुतचारित्ररूप दो प्रकार का धर्म कहा है । इन दोनों धर्म की आराधना करने वाला मोक्षगति को प्राप्त कर सकता है, इसलिये मुमुक्षु को दोनों धर्मों की आराधना अवश्य करनी चाहिये ! क्यों कि-"ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः" ज्ञान और क्रिया इन दोनों से मोक्ष होता है । यदि ज्ञान को ही विशेषता देकर क्रिया को गौण कर दिया जाय तो वीतरागकथित श्रुतचारित्र धर्म की आराधना अपूर्ण और अपंग मानी जायगी, और अपूर्ण कार्य से मोक्ष प्राप्ति होना सर्वथा असंभव है, एतदर्थं वीतरागमणीत सरल और सुबोध मार्ग में निश्चय और व्यवहार दोनों नयों को मानना ही आवश्यक है । कहा भी है "व्यवहारं विना केचिद् भ्रष्टाः केवलनिश्चयात् । निश्चयेन विना केचित् , केवलं व्यवहारतः ॥१॥ द्वाभ्यां दृग्भ्यां विना न स्यात् सम्यग् द्रव्यावलोकनम् । यथा तथा नयाभ्यां चे,-त्युक्तं स्याद्वादवादिभिः ॥२॥ स्याहादके स्वरूप को निरूपण करने वाले भगवानने निश्चय और व्यवहार, इन दोनों को यथास्थान आवश्यक माना है । जैसे दोनों नेत्रों के बिना वस्तु का अवलोकन वरावर नहीं होता है वैसे ही दोनों नयों के विना धर्म का स्वरूप यथार्थ नहीं जाना जा सकता, और इसी कारण व्यवहार नय के विना केवल निश्चयवादी मोक्ष मार्ग से पतित हो जाते हैं और कितनेकव्यवहारवादी केवल व्यवहार को ही मानकर धर्म से च्युत हो जाते हैं। आत्मा का ध्येय यही है कि सर्व कर्मसे मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करना; परन्तु उसमें कर्मों से छुटकारा पानेके लिये व्यवहाररूप चारित्रक्रिया का आश्रय जरूर लेना पडता है, क्यों कि बिना व्यवहार के कर्मक्षय की Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्यसिद्धि नहीं हो सकती ! जो ज्ञानमात्रही को प्रधान मानकर व्यवहार क्रिया को उठाते हैं वे अपने जन्म को निष्फल करते है । जैसे पानी में पडा हुआ पुरुष तैरने का ज्ञान रखता हुचा भी अगर हाथ पैर हिलाने रूप क्रिया न करे तो वह अवश्य डूब ही जाता है, जिस प्रकार नाइट्रोजन और ओक्सीजन के मिश्रण विना विजली प्रगट नहीं होती उसी प्रकार ज्ञान के होते हुए भी क्रिया विना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती, इसीलिए भगवानने इस दशवैकालिक सूत्र में मुनिको ज्ञानसहित आचार धर्म के पालन करनेका निरूपण किया है। जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराज साहवने दशवकालिक सूत्र की आचारमणिमञ्जूपा नाम की टीका तैयार करके सर्व साधारण एवं विद्वान् मुनियों के अध्ययन के लिये पूर्ण सरलता कर दी है, पूज्यश्री के द्वारा जैनागमों की लिखी हुई टीकाओं में श्री दशवैकालिक सूत्रका प्रथम स्थान है । इस के दश अध्ययन हैं (१) प्रथम अध्ययन में भगवानने धर्म का स्वरूप अहिंसा, संयम और तप बतलाया है । इसकी टीका में धर्म शब्द की व्युत्पत्ति और शब्दार्थ तथा अहिंसा, संयम और तप का विवेचन विशदरूपसे किया है। वायुकायसंयमके प्रसंग में, मुनि को सदोरकमुखवत्रिका मुखपर वांधना चाहिये इस चात को भगवती सूत्र आदि अनेक शास्त्रों से तथा ग्रन्थों से सप्रमाण सिद्ध किया है। मुनि के लिए निरवध भिक्षा लेनेका विधान है । तथा भिक्षाके मधुकरी आदि छह भेदों का निरूपण किया है। (२) दुसरे अध्ययन में संयम मार्ग में विचरते हुए नवदीक्षित का मन यदि संयम मार्गसे बाहर निकल जाय तो उसको स्थिर करनेके लिये रथनेमि और राजीमती के संवाद का वर्णन है । एवं त्यागी अत्यागी कौन है वह भी समझाया है। (३) तीसरे अध्ययन में संयमी मुनि को पावन (५२) अनाची का निवारण बतलाया गया है, क्यों कि पावन अनाचीर्ण संयम के घातक हैं। इन अनाचीणों का त्याग करने के लिये आज्ञा निर्देश है। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) चौथे अध्ययन में-'जो यावन अनाचीर्णों का निवारण करता है वही छह काया का रक्षक हो सकता है' इसलिये छहकाय के स्वरूप का निरूपण तथा उनकी रक्षा का विवरण है । मुनि अयतना को त्यागे यतना को धारण करे। यतना मार्ग वही जान सकता है जिसे जीव अजीव का ज्ञान है। जो जीवादि का ज्ञाता है वह क्रम से मोक्ष को प्राप्त करता है। पिछली अवस्था में भी चारित्र ग्रहण करनेवाला मोक्ष का अधिकारी हो सकता है । (५) पांचवें अध्ययन में छहकाया का रक्षण निरवद्य भिक्षा ग्रहण से होता है, अतः भिक्षा की विधि कही गई है। (६) छठवें अध्ययनमें 'निरवद्य भिक्षा लेनेसे अठारह स्थानोंका शास्त्रानुसार आराधन करता है, उन अठारह स्थानों का वर्णन है। उनमें सत्य और व्यवहार भाषा वोलनी चाहिये । (७) सातवें अध्ययन में 'अठारहस्थानों का आराधन करने वाले मुनिको कौनसी भाषा वोलनी चाहिये इसके लिये ४ भापाओं का स्वरूप कहा गया है। उनमें सत्य और व्यवहार भाषा बोलना चाहिये । ___(८) आठवें अध्ययन में-'निरवद्य भाषा बोलनेवाला पांच आचाररूप निधान को पाता है' अतः उस आचाररूप निधान का वर्णन है । ___ (९) नववें अध्ययन में पांच आचार का पालन करने वाला ही विनयशील होता है। अतः विनय के स्वरूप का निरूपण किया है । (१०) दशवें अध्ययन में-'पहले कहे हुए नवों अध्ययनों में कही हुई विधिका पालन करने वाला ही भिक्षु हो सकता है' इस लिए भिक्षु के स्वरूप का वर्णन किया है । निवेदक समीर मुनि. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (श्री दशवकालिकसूत्रका सम्मतिपत्र.) ॥ श्रीचीरगौतमाय नमः॥ सम्मति-पत्रम्. मए पैडियमुणि हेमचंदेण य पंडिय-मूलचन्दवासवारापसा पंडिय-रयण-मुणि-घासीलालेण विरहया सकय हिंदी-भाषाहिं जुत्ता सिरि-दसवेयालिय-नाम सुत्तस्स आयारमणिमंजूसा वित्ती अवलोइया, इमा मणोहरा अस्थि, एत्य सदाणं अइसयजुत्तो अत्यो वण्णिओ विउजणाणं पाययजणाण य परमोचयारिया इमा: वित्ती दीसइ ! आयारविसए वित्तीकत्तारेण अइसयपुव्वं उल्लेहो कडो, तहा अहिंसाए सरूवं जे जहा-तहा न जाणंति तेसिं इमाए वित्तीए परमलाहो भविस्सइ, कत्तुणा पत्तेयविसयाणं फुडरूंवेण चण्णणं कडं, तहा मुणिणो अरहत्ता इमाए वित्तीए अवलोयणाओ अइसयजुत्ता सिज्झइ ! सकयछाया सुत्तपयाणं पयच्छेओ य सुयोहदायगी अत्थि, पत्तेयजिण्णासुणो इमा वित्ती दहन्या । अम्हाणं समाजे एरिसविज-मुणिरयणाणं सम्भावो समाजस्स अहोभग्गं अधि, किं ? उत्तविजमुणिरयणाणं कारणाओ जो अम्हाणं समाजो सुत्तप्पाओ, अम्हकेरं साहिचं च लुत्तप्पायं अत्यि तेसिं पुणोवि उदओ भविस्सइ जस्स कारणाओ भवियप्पा मोक्खस्स जोग्गो भवित्ता पुणो निवाणं पाविहिइ अओहं आयारमणि-मंजूसाए कत्तुणो पुणो पुणो धनवायं देमि॥ वि. सं. १९९० फाल्गुनशुक्लत्रयोदशी मङ्गले उज्झाय-जइण-मुणी, आयारामो (अलवर स्टेट) (पचनईओ) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રનું સમ્મતિ પત્ર. શમણું સંઘના મહાન આચાર્ય આગમ વારિધિ સર્વતન્ત સ્વતંત્ર જૈનાચાર્ય પૂજ્યશ્રી આત્મા રામજી મહારાજે આપેલા સમ્મતિ પત્રને ગુજરાતી અનુવાદ. મેં તથા પતિ મુનિ હેમચંદ્રજી એ પંડિત મૂલચંદ વ્યાસ (નાનીર માવાહ વાળા) દ્વારા મળેલી પંડિત રત્ન શ્રી. ઘાસીલાલજી મુનિ વિરચિત સંસ્કૃત અને હિન્દી ભાષા સહિત શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રની આચાર મણિમંજૂષા ટીકાનું અવલોકન કર્યું. આ ટીકા સુંદર બની છે. તેમાં પ્રત્યેક શબ્દને અર્થ સારી રીતે વિશેષ ભાવ લઈને સમાવવામાં આવેલ છે. - તેથી વિદ્વાને અને સાધારણ બુદ્ધિવાળાઓ માટે પરમ ઉપકાર કરવાવાળી છે. ટીકાકારે મુનિના આચાર વિષયને સારે ઉલ્લેખ કરેલ છે. જે આધુનિક મતાવલંબી અહિંસાના સ્વરૂપ ને નથી જાણતા, દયામાં પાપ સમજે છે તેમને માટે અહિંસા શું વસ્તુ છે તેનું સારી રીતે પ્રતિપાદન કરેલ છે. વૃત્તિકારે સૂત્રના પ્રત્યેક વિષયને સારી રીતે સમજાવેલ છે. આ વૃત્તિના અવકનથી વૃત્તિકારની અતિશય ગ્યતા સિદ્ધ થાય છે. આ વૃત્તિમાં એક બીજી વિશેષતા એ છે કે મૂલ સૂત્રની સંસ્કૃત છાયા હેવાથી સૂત્ર, સુત્રનાં પદ અને પદચ્છેદ સુબોધ દાયક બનેલ છે. પ્રત્યેક જીજ્ઞાસુએ આ ટીકાનું અવલોકન અવશ્ય કરવું જોઈએ. વધારે શું કહેવું. અમારી સમાજમાં આવા પ્રકારના વિદ્વાન મુનિ રનનું દેવું એ સમાજનું અહોભાગ્ય છે. આવા વિદ્વાન મુનિ રત્નના કારણે સુપ્તપ્રાય સુતેલે સમાજ અને લુપ્તપ્રાય એટલે લેપ પામેલું સાહિત્ય એ બંનેને ફરીથી ઉદય થશે. જેનાથી ભાવિતાત્મા મોક્ષ એગ્ય બનશે અને નિર્વાણ પદને પામશે. આ માટે અમે વૃત્તિકારને વારંવાર ધન્યવાદ આપીએ છીએ. વિક્રમ સંવત ૧૯૯૦ ફાલ્ગન શુકલ. | ઇઈ તેરસ મંગળવાર (અલવર સ્ટેટ) ઇવજઝાય જઈશું સુણી આયારામાં પચાઈએ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ जैनागमवेत्ता जैनधर्मदिवाकर उपाध्याय श्री १००८ श्री आत्मारामजी महाराज तथा न्याय व्याकरण के ज्ञाता परम पण्डित मुनिश्री १००७ श्री हेमचंद्रजी महाराज, इन दोनों महात्माओंका दिया हुआ श्री उपासकदशाङ्ग सूत्रका प्रमाण पत्र निम्न प्रकार है सम्मड़वतं सिरि-वीरनिव्वाण संच्छर २४५८ आसोई ( पुण्णमासी ) १५ सुकवारो लुड़ियाणाओ । · मए मुणिहेमचंदेण य पंडियरयणमुणिसिरि- घासीलालविणिम्मिया सिरिउवासगमुत्तस्स अगारधम्मसंजीवणीनामिया वित्ती पंडियमूलचन्दवासाओ अज्जोवंतं सुया, समीईणं, इयं वित्ती जहाणामं तहा गुणेवि धारेइ, सर्च, अगाराणं तु इमा जीवण (संजमजीवण ) दाई एव अत्थि । वित्तिकत्तुणा मूलमुत्तस्स भावो उज्जुसेलीओ फुडीकओ, अहय उवासयस्स सामण्णविसेसधम्मो, णयसियवायवाओ, कम्म पुरिवाओ, समणोवासयस्स धम्मदढत्ता य, इच्चाइविसया अस्सि फुडरीइओ वणिया, जेण कणो पडिहाए सुहृप्पयारेण परिचओ होइ, तह इइहासदिडिओवि सिरिसमणस्स भगवओ महावीरस्स समए वट्टमाण-भरहवासस्स य कतुणा विसयपयारेण चित्तं चित्तितं पुणो सकयपाढीणं, वहमाणकाले हिन्दीणामियाए भासाए भासी य परमोत्रयारो कडो, इमेण कचुणो अरिहत्ता दीसर, कतुणो एयं कज्जं परमप्पसंसणिज्जमस्थि । पत्तेयजणस्स मज्झत्थभावाओ अस्स सुत्तस्स अवलोयणमईव लाइप्पर्य, अविउ सावयस्स तु ( उ ) इमं सत्यं सव्वस्समेव अस्थि, अओ को अगकोडीसो धन्नवाओ अस्थि, जेहिं अचंतपरिस्समेण जइणजणतोवरि असीमो पारो कडो, अहय सावयस्स वारस नियमा उपत्तेयजणस्स पढणिज्जा अस्थि, जेसिं पहावओ वा गहणाओ आया निव्वाणाहिगारी भवइ, तहा भवियन्वयावाओ पुरिसकारपरकमत्राओ य अवस्थमेव दंसणिज्जो, किंबहुणा इमीसे वित्तीए पत्तेयविसयस्स फुडसदेहिं वण्णणं कथं, जइ अन्नोवि एवं अम्हाणं पमुत्तप्पाए समाजे विज्जं भवेज्जा तया नाणस्स चरितस्स तहा संघस्स य खिप्पं उदयो भविस्सइ, एवं हं मन्ने || भवईओउवज्झाय - जइणमुणि- आयाराम, पंचनईओ, Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिपत्र (भापान्तर) श्री वीर निर्वाण सं० २४५८ आसोज शुक्ला (पूर्णिमा) १५ शुक्रवार लुधियाना मैंने और पंडितमुनि हेमचन्दजीने पंडितरत्नमुनिश्री घासीलालजीकी रची हुई उपासकदशांग सूत्रकी गृहस्थधर्मसंजीवनी नामक टीका पंडित मूलचन्द्रजी व्याससे आद्योपान्त सुनी है। यह वृत्ति यथानाम तथागुणवाली-अच्छी बनी-है। सच यह गृहस्थोंके तो जीवनदात्रीसंयमरूप जीवनको देनेवाली-ही है। टीकाकारने मूलसूत्र के भावको सरल रीतिसे वर्णन किया है, तथा श्रावकका सामान्य धर्म क्या है ? और विशेप धर्म क्या है ? इसका खुलासा इस टीकामें अच्छे ढंगसे घतलाया है। स्थादादका स्वरूप कर्म-पुरुपार्थ-बाद और श्रावकको धर्मके अन्दर दृढ़ता किस प्रकार रखना, इत्यादि विपयोंका निरूपण इसमें भलीभाँति किया है । इससे टीकाकारकी प्रतिभा खूब झलकती है। ऐतिहासिक दृष्टिसे श्रमण भगवान् महावीरके समय जैनधर्म किस जाहोजलाली पर था? और वर्तमान समय जैन धर्म किस स्थितिमें पहुंचा है ? इस विषयका तो ठीक चित्र ही चित्रित कर दिया है। फिर संस्कृत जाननेवालोंको तथा हिन्दीभापाके जाननेवालोंको भी पुरा लाभ होगा, क्योंकि टीका संस्कृत है उसकी सरल हिन्दी करदी गई है। इसके पढनेसे कर्ताकी योग्यताका पता लगता है कि वृत्तिकारने समझानेका कैसा अच्छा प्रयत्न किया है। टीकाकारका यह कार्य परम प्रशंसनीय है । इस सूत्रको मध्यस्थ भावसे पढने वालोंको परम लाभकी प्राप्ति होगी। क्या कहें श्रावकों (गृहस्थों) का तो यह सूत्र सर्वस्व ही है, अतः टीकाकारको कोटिशः धन्यवाद दिया जाता है, जिन्होंने अत्यन्त परिश्रमसे जैन जनताके ऊपर असीम उपकार किया है। इसमें श्रावकके चारह नियम प्रत्येक पुरुपके पढने योग्य हैं, जिनके प्रभावसें अथवा यथायोग्य ग्रहण करनेसे आत्मा मोक्षका अधिकारी होता है । तथा भवितव्यतावाद और पुरुपकार Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ पराक्रमवाद हरएको अवश्य देखना चाहिये । कहांतक कहें इस टीकामें प्रत्येक विषय सम्यक् प्रकार से बताये गये हैं । हमारी सुप्तप्राय (सोई हुईसी) समाजमें अगर आप जैसे योग्य विद्वान् फिर भी कोई होंगे तो ज्ञान चारित्र तथा श्रीसंघका शीघ्र उदय होगा, ऐसा मैं मानता हूँ आपका उपाध्याय जैनमुनि आत्माराम पंजावी. ***** इसी प्रकार लाहोर में बिराजते हुए पण्डितवर्य विद्वान् मुनिश्री १००८ श्री भागचन्दजी महाराज तथा पं. मुनिश्री त्रिलोकचन्दजी महाराज के दिये हुए, श्री उपाशकदशाङ्ग सूत्र के प्रमाणपत्रका हिन्दी सारांश निम्न प्रकार है श्री श्री स्वामी घासीलालजी महाराज कृत श्री उपासकदशाङ्ग सूत्रकी संस्कृत टीका व भाषाका अवलोकन किया, यह टीका अतिरमणीय व मनोरञ्जक है, इसे आपने बड़े परिश्रम व पुरुषार्थ से तैयार किया है सो आप धन्यवादके पात्र हैं । आप जैसे व्यक्तियोकी समाजमें पूर्ण आवश्यक्ता है । आपकी इस लेखनी से समाजके विद्वान् साधुवर्ग पढकर पूर्ण लाभ उठायेंगे, टीकाके पढनेसे हमको अत्यानन्द हुवा, और मनमें ऐसे विचार उत्पन्न हुए कि हमारी समाजमें भी ऐसे २ सुयोग्य रत्न उत्पन्न होने लगे-यह एक हमारे लिये पड़े गौरवकी बात है । वि. सं. १९८९ मा. आश्विन कृष्णा १३ वार भौम लाहोर. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र की 'अनगार धर्माऽमृतवार्पिणी' टीका पर जैनदिवाकर साहित्यरत्न जैनागमरत्नाकर परमपूज्य श्रद्धेय जैनाचार्य श्री आत्मारामजी महाराजका सम्मतिपत्र लुधियाना, ता. ४-८-५१. मैंने आचार्यश्री घासीलालजी म. द्वारा निर्मित 'अनगार-धर्माऽमृत-वर्षिणी' टीका वाले श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्ग मूत्रका मुनि श्री रत्नचन्द्रजीसे आद्योपान्त श्रवण किया। यह निःसन्देह कहना पड़ता है कि यह टीका आचार्यश्री घासीलालजी म. ने बड़े परिश्रम से लिखी है। इसमें प्रत्येक शब्दका प्रामाणिक अर्थ और कठिन स्थलों पर सार-पूर्ण विवेचन आदि कई एक विशेषतायें हैं । मूल स्थलोंको सरल बनानेमें काफी प्रयत्न किया गया है, इससे साधारण तथा असाधारण सभी संस्कृतज्ञ पाठकों को लाभ होगा ऐसा मेरा विचार है। मैं स्वाध्यायमेमी सज्जनों से यह आशा करूँगा कि वे वृत्तिकारके परिश्रम को सफल बनाकर शास्त्रमें दीगई अनमोल शिक्षायों से अपने जीवनको शिक्षित करते हुए परमसाध्य मोक्षको प्राप्त करेंगे। श्रीमान्जी जयवीर आपकी सेवामें पोष्ट द्वारा पुस्तक भेज रहे हैं और इसपर आचार्यश्रीजी की जो सम्मति है वह इस पत्रके साथ भेज रहे हैं पहुचने पर समाचार देखें। श्री आचार्यश्री आत्मारामजी म. ठाने ६ सुख शान्तिसे विराजते हैं। पूज्य श्री घासीलालजी म. सा. ठाने ४ को हमारी ओरसे वन्दना अर्जेकर मुखशाता पूर्छ । पूज्य श्री घासीलालजी म.जी का लिखा हुआ (विपाकसूत्र ) महा. राजश्रीजी देखना चाहते हैं इसलिये १ कॉपी आप भेजने की कृपा करें फिर आपको वापिस भेज देखेंगे। आपके पास नहीं हो तो जहां से मिले वहांसे १ कॉपी जरूर भिजवाने का कष्ट करें, उत्तर जल्द देनेकी कृपा करें। योग्य सेवा लिखते रहें। लुधियाना ता. ४-८-५१ निवेदक प्यारेलाल जैन Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पराक्रमवाद हरएकको अवश्य देखना चाहिये । कहांतक कहें इस टीकामें प्रत्येक विपय सम्यक प्रकारसे घताये गये हैं। हमारी सुप्तप्राय (सोई हुईसी) समाजमें अगर आप जैसे योग्य चिढान् फिर भी कोई होंगे तो ज्ञान चारित्र तथा श्रीसंघका शीघ्र उदय होगा, ऐसा मैं मानता है आपका उपाध्याय जैनमुनि आत्माराम पंजावी. 000000000000 इसी प्रकार लाहोरमें विराजते हुए पण्डितवर्य विद्वान् मुनिश्री १००८ श्री भागचन्दजी महाराज तथा पं. मुनिश्री त्रिलोकचन्दजी महाराजके दिये हुए, श्री उपाशकदशाङ्ग सूत्रके प्रमाणपत्रका हिन्दी सारांश निम्न प्रकार है श्री श्री स्वामी घासीलालजी महाराज कृत श्री उपासकदशाङ्ग सूत्रकी संस्कृत टीका व भापाका अवलोकन किया, यह टीका अतिरमणीय व मनोरञ्जक है, इसे आपने बड़े परिश्रम व पुरुषार्थसे तैयार किया है सो आप धन्यवादके पात्र हैं। आप जैसे व्यक्तियोकी समाजमें पूर्ण आवश्यक्ता है । आपकी इस लेखनीसे समाजके विद्वान् साधुवर्ग पढकर पूर्ण लाभ उठावेंगे, टीकाके पढनेसे हमको अस्यानन्द हुवा, और मनमें ऐसे विचार उत्पन्न हुए कि हमारी समाजमें भी ऐसे २ सुयोग्य रत्न उत्पन्न होने लगे-यह एक हमारे लिये बड़े गौरवकी बात है । वि. सं. १९८९ मा. आश्विन कृष्णा १३ चार भौम लाहोर. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ 117: 11 जैनागमवारिधि - जैनधर्म दिवाकर - जैनाचार्य - पूज्य श्री आत्मारामजीमहाराजानां पञ्चनद - ( पंजाब ) स्थानामनुत्तरोपपातिकसूत्राणामर्थबोधिनीनामकटीकायामिदम्सम्मतिपत्रम्. आचार्यवर्यैः श्री घासीलालमुनिभिः सङ्कलिता अनुत्तरोपपातिकमूत्राणामर्थवोधिनीनाम्नी संस्कृतवृत्तिरुपयोगपूर्वकं सकलाऽपि स्वशिष्यमुखेनाऽश्रावि मया, इयं हि वृत्तिर्मुनिवरस्य वैदुष्यं प्रकटयति । श्रीमद्भिर्मुनिभिः सूत्राणामर्थान स्पष्टयितुं यः प्रयत्नो व्यधायि तदर्थमनेकशो धन्यवादानन्ति ते । यथा चेयं वृत्तिः सरला सुबोधिनी च तथा सारवत्यपि । अस्याः स्वाध्यायेन निर्वाणपदममीप्सुभिर्निर्वाणपदमनुसरद्भिर्ज्ञान-दर्शन- चारित्रेषु प्रयतमानैर्मुनिभिः श्रावकैश्च ज्ञानदर्शन - चारित्राणि सम्यक सम्माप्याऽन्येऽप्यात्मानस्तत्र प्रवर्तयिष्यन्ते । आशा से श्रीमदाशुकविर्मुनिवरो गीर्वाणवाणीजुषां विदुषां मनस्तोपाय जैनागममूत्राणां सारावबोधाय च अन्येपामपि जैनागमानामित्थं सरलाः सुस्पष्टा वृत्तीधाय तांस्तान् सूत्रग्रन्थान् देवगिरा सुस्पष्टयिष्यति । अन्ते च "मुनिवरस्य परिश्रमं सफलयितुं सरलां सुबोधिनीं चेमां सूत्रवृत्तिं स्वाध्यायेन सनाथयिष्यन्त्यवश्यं सुयोग्या हंसनिभाः पाठकाः । ". इत्याशास्ते विक्रमाब्द २००२ श्रावणकृष्णा प्रतिपदा लुधियाना. ऐसेही : मध्यभारत सैलाना - निवासी श्रीमान् रतनलालजी डोसी श्रमणोपासक जैन लिखते हैं कि : श्रीमान की की हुई टीकावाला उपासकदशांग सेवक के दृष्टिगत हुवा, सेवक अभी उसका मनन कर रहा है यह ग्रन्थ सर्वांगसुन्दर एवम् उच्चकोटि का उपकारक है । उपाध्याय आत्मारामो जैनमुनिः । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमवारिधि-जैनधर्मदिवाकर - उपाध्याय - पण्डित-मुनि श्रीआत्मारामजी महाराज (पंजाय) का आचारागसूत्र की आचारचिन्तामणि टीका पर सम्मति-पत्र । __ मैंने पूज्य आचार्यवर्य श्रीघासीलालजी (महाराज)की धनाई हुई श्रीमद् आचारागसूत्र के प्रथम अध्ययन की आचारचिन्तामणि टीका सम्पूर्ण उपयोगपूर्वक सुनी। ___ यह टीका-न्याय सिद्धान्त से युक्त, व्याकरण के नियम से नियद्ध है। तथा इसमें प्रसंग २ पर क्रम से अन्य सिद्धान्त का संग्रह भी उचित रूप से मालूम होता है। ___टीकाकारने अन्य सभी विषय सम्यक् प्रकार से स्पष्ट किये हैं, तथा प्रौढ विपयों का विशेषरूप से संस्कृत भाषा में स्पष्टतापूर्वक प्रतिपादन अधिक मनोरंजक है, एतदर्थ आचार्य महोदय धन्यवाद के पात्र हैं। ___ मैं आशा करता हूँ कि-जिज्ञासु महोदय इसका भलीभाँति पठन द्वारा जैनागम-सिद्धान्तरूप अमृत पी-पी कर मन को हर्षित करेंगे, और इसके मनन से दक्ष जन चार अनुयोगों का स्वरूपज्ञान पावेंगे। तथा आचार्यवर्य इसी प्रकार दूसरे भी जैनागमों के विशद विवेचन द्वारा श्वेताम्बर-स्थानकवासी समाज पर महान उपकार कर यशस्वी बनेंगे। वि. सं. २००२ । जैनमुनि-उपाध्याय आत्माराम मृगसर सुदि १ । __ लुधियाना (पंजाब) -:*:- शुभमस्तु ।। बीकानेरवाळा समाजभूपण शास्त्रज्ञ भेरुदानजी शेठिआनो अभिप्राय आप जो शास्त्रका कार्य कर रहे हैं यह बडा उपकारका कार्य है। इससे जैनजनता को काफी लाभ पहुँचेगा. (ता. २८-३-५६ ना पत्रमाथी) Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उपासकदशाङ्क सूत्र परत्वे जैन समाजना अग्रगण्य जैनधर्मभूषण महान विद्वान संतोए तेमन विद्वान श्रावकोए सम्मतिओ समी छे तेमना नामो नीचे प्रमाणे छे. (१) लुधियाना- सम्बत् १९८९, आधिन पूर्णिमा का पत्र, श्रुतमान के .. भंडार आगमरनाकर जैनधर्मदिवाकर श्री १००८ श्री उपाध्याय श्री आत्मारामजी महाराज, तथा न्यायव्याकरणवेत्ता श्री १००७ तच्छिष्य . श्री मुनि हेमचन्दजी महाराज. (२) लाहौर-वि० सं० १९८९ आश्विन वदि १३ का पत्र, पण्डित रन श्री १००८ श्री भागचन्दजी महाराज तथा तच्छिष्य पण्डित रत्न श्री १००७ श्री त्रिलोकचंदनी महाराज. (३) खिचन से ता. ९-११-३६ का पत्र, क्रियापात्र स्थविर श्री १००८ श्री भारतरत्न श्री समरथमलनी महाराज. (४) वालाचोर-ता. १४-११-३६ का पत्र, परम प्रसिद्ध भारतरन श्री १००८ श्री शतावधानीजी श्री रतनचन्दजी महाराज. (५) बम्बई-ता. १६-११-३६ का पत्र, प्रसिद्ध कवीन्द्र श्री १००८ श्री कवि नानचन्द्रजी महाराज. (६) आगरा-ता. १८-११-३६, जगत् बल्लम श्री १००८ श्री जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज, गुणवन्त गणीजी श्री १००७ श्री साहित्यप्रेमी श्री प्यारचन्दजी महाराज. (७) हैद्राबाद (दक्षिण) ता. २५-११-३६ का पत्र, स्थिवरपदभूपित . भाग्यवान पुरुष श्री ताराचन्दजी महाराज तथा प्रसिद्ध पता श्री १००७ श्री सोभागमलजी महाराज. (८) जयपुर-ता. २६-११-३६ का पत्र, संप्रदाय के गौरवर्धक शांत स्वभात्री श्री १००८ श्री पूज्य श्री खूबचन्दजी महाराज. (९) अम्बाला-ता. २९-११-३६ का पत्र, परम प्रतापी पंजाब केशरी श्री १००८ श्री पूज्य श्री रामजी महाराज. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयापलिकास्त्रका सम्मतिपत्र, आगमवारिधि-सर्वतन्त्रस्वतन्त्र जैनाचार्य-पूज्यश्री आत्मारामजी महाराजकी तरफ का आया हुवा सम्मतिपत्र लुधियाना. ता. ११ नवम्बर ४८ श्रीयुत गुलावचन्दजी पानाचंदजी । सादर जयजिनेन्द्र ।। पत्र आपका मिला! निरयावलिका विपय पूज्यश्रीजीका स्वास्थ्य ठीक न होने से उनके शिष्य पं. श्री हेमचन्द्रजी महाराजने सम्मति पत्र लिख दिया है आपको भेज रहै हैं ! कृपया एक कोपी निरयावलिका की और भेज दीजिये और कोई योग्य सेवा कार्य लिखते रहें ? ! भवदीय. गुजरमल-बलवंतराय जैन || सम्मतिः॥ (लेखक जैनमुनि पं. श्री हेमचन्द्रजी महाराज) सुन्दरबोधिनीटीकया समलङ्कतं हिन्दी-गुर्जरभाषानुवादसहितं च श्रीनिरयालिकासूत्रं मेधाविनामल्पमेधसां चोपकारकं भविष्यतीति सुदृढं मेऽभिमतम् , संस्कृतटीकेयं सरला सुबोधा सुललिता चात एव अन्वर्थनाम्नी चाप्यस्ति । सुविशदत्वात् सुगमत्वात् प्रत्येकदुर्योधपदव्याख्यायुतत्वाच्च टीकपा संस्कृतसाधारणज्ञानवतामप्युपयोगिनी भाविनीत्यभिप्रेमि । हिन्दी-गुर्जरभापानुवादावपि एतद्भाषाविज्ञानां महीयसे लाभाय भवेतामिति सम्यक संभावयामि । जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री घासीलालजी महाराजानां परि अमोऽयं प्रशंसनीयो धन्यवादाहींश्च ते मुनिसत्तमाः। एवमेव श्रीसमीरमल्लजी-श्री कन्हैयालालजी मुनिवरेण्ययोनियोजनकार्यमपि श्लाध्यं, तावपि च मुनिवरौ धन्यवादाही स्तः। सुन्दरप्रस्तावनाविपयानुक्रमादिना समलते सूत्ररलेऽस्मिन् यदि शब्दकोषोऽपि दत्तः स्यात्तहि घरतरं स्यात् । यतोऽस्यावश्यकता सवऽप्यवेपकविद्वांसोऽनुभवन्ति । पाठका: सूत्रस्यास्याध्ययनाध्यापनेन लेखकनियोजकमहोदयानां परिश्रमं सफलयिष्यन्तीत्याशास्महे । इति । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ श्रीमान न्यायतीर्थ पण्डित माधवलालजी खीचन से लिखते हैं कि:उन पंडितरन महाभाग्यवंत पुम्पों के सामने उनकी अगाधतत्वगवेपणा के विपय में में नगण्य क्या सम्मति दे सकता हूं। परन्तु : मेरे दो मित्रों ने जिन्होंने इसको कुछ पढा है यहुत सराहना की है वास्तव में ऐसे उत्तम व सबके समझाने योग्य ग्रन्थों की बहुत आवश्यकता है और इस समाज का तो ऐसा ग्रन्थ ही गौरव बढा सकते हैं-ये दोनों ग्रन्थ वास्तव में अनुपम है ऐसे ग्रन्थरत्नों के सुप्रकाश से यह समाज अमावास्या के घोर अन्धकार में दीपावली का अनुभव करती हुई महावीर के अमूल्य वचनों का पान करती हुई अपनी उन्नति में अग्रसर होती रहेगी। ता. २९-११-३६ अम्बाला (पंजाय) पत्र आपका मिला श्री श्री १००८ पंजाब केशरी पूज्य श्री काशीरामजी महाराज की सेवा में पढ कर सुना दिया। आपकी भेजी हुई उपासकदशाङ्ग सूत्र तथा गृहिधर्मकल्पतरु की एक प्रति भी प्राप्त हुई। दोनों पुस्तकें अति उपयोगी तथा अत्यधिक परिश्रम से लिखी हुई हैं, ऐसे ग्रन्थरत्नों के प्रकाशित करवाये की बड़ी आवश्यकता है। इन पुस्तकों से जैन तथा अजैन सयका उपकार हो सकता है। आपका यह पुरुपार्थ सराहनीय है। आपका शशिभूपण शास्त्री अध्यापक जैन हाई स्कूल अम्बाला शहर. Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40.....00 (१०) सेलाना-ता. २९-११-३६ का पत्र, शास्त्रों के माता श्रीमान् रतनलालनी डोसी. (११) खीचन-ता. ९-११-३६ का पत्र, पंडितरत्न न्यायतीर्थ मुश्रावक श्रीयुत् माधवलालजी. ता. २५-११-३६ सादर जय जिनेन्द्र आपका भेजा हुवा उपासक दशांग सूत्र तथा पत्र मिला यहां विराजित प्रवर्तक वयोवृद्ध श्री १००८ श्री ताराचंदजी महाराज पण्डित श्री किशनलालजी महाराज आदि ठाणा १४ सुख शांती में विराजमान हैं आपके वहां विराजित जैनशास्त्राचार्य पूज्यपाद श्री १००८ श्री घासीलाल जी महाराज आदि ठाणा नव से हमारी वन्दना अर्ज कर सुख शांति पूछे आपने उपासकदशांग सूत्र के विषय में यहां विराजित मुनिवरों की सम्मती मंगाई उसके विषय में वक्ता श्री सोभागमलजी महाराज ने फरमाया है कि वर्तमान में स्थानकवासी समाज में अनेकानेक विद्वान मुनि महाराज मौजूद हैं मगर जैनशास्त्र की वृत्ति रचने का साहस जैसा घासीलालजी महाराज ने किया है वैसा अन्य ने किया हो ऐसा नजर नहीं आता दूसरा यह शास्त्र अत्यन्त उपयोगी तो यों है संस्कृत प्राकृत हिन्दी और गुजराती भाषा होने से चारों भाषा वाले एक ही पुस्तक से लाभ उठा सकते हैं जैन समाज में ऐसे विद्वानों का गौरव बढे यही शुभ कामना है आशा है कि स्थानकवासी संघ विद्वानों की कदर करना सीखेगा। योग्य लिखें शेष शुभ भवदीय जमनालाल रामलाल कीमती आगरा से: श्री जैनदिवाकर प्रसिद्धवक्ता जगदवल्लभ मुनि श्री चोथमलजी महाराज व पंडितरत्न सुव्याख्यानी गणीजी श्री प्यारचन्द जी महाराज ने इस पुस्तक को अतीव पसन्द की है। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमान् न्यायतीर्थ पण्डित माधवलालजी खीचन से लिखते हैं किःउन पंडितरत्न महाभाग्यवंत पुरुपों के सामने उनकी अगाधतत्त्वगवेपणा के विषय में में नगण्य क्या सम्मति दे सकता हूं। परन्तु : मेरे दो मित्रों ने जिन्होंने इसको कुछ पढा है बहुत सराहना की है वास्तव में ऐसे उत्तम व सबके समझाने योग्य ग्रन्थों की बहुत आवश्यकता है और इस समाज का तो ऐसा ग्रन्थ ही गौरव बढा सकते हैं-ये दोनों ग्रन्थ वास्तव में अनुपम है ऐसे ग्रन्थरत्नों के सुप्रकाश से यह समाज अमावास्या के घोर अन्धकार में दीपावली का __ अनुभव करती हुई महावीर के अमूल्य वचनों का पान करती हुई अपनी उन्नति में अग्रसर होती रहेगी। ता. २९-११-३६ अम्बाला (पंजाय) पत्र आपका मिला श्री श्री १००८पंजाव केशरी पूज्य श्री काशीरामजी महाराज की सेवा में पढ कर सुना दिया। आपकी भेजी हुई उपासकदशाङ्ग सूत्र तथा गृहिधर्मकल्पतरु की एक प्रति भी प्राप्त हुई। दोनों पुस्तकें अति उपयोगी तथा अत्यधिक परिश्रम से लिखी हुई हैं, ऐसे ग्रन्थरत्नों के प्रकाशित करवाये की बडी आवश्यकता है । इन पुस्तकों से जैन तथा अजैन सबका उपकार हो सकता है। आपका यह पुरुपार्थ सराहनीय है। आपका शशिभूपण शास्त्री अध्यापक जैन हाई स्कूल अम्बाला शहर. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त स्वभावी वैराग्य मूर्ति तत्व वारिधि, धैर्यवान श्री जैनाचार्य पूज्यवर श्री श्री १००८ श्री खूबचन्दजी महाराज साहेवने मूत्र श्री उपासक दशाङ्गजी को देखा। आपने फरमाया कि पण्डित मुनि घासीलालनी महाराज ने उपासक दशाग मूत्रकी टीका लिखने में बडा ही परिश्रम किया है। इस समय इस प्रकार प्रत्येक भूत्रोंकी संशोधक पूर्वक सरल टीका और शुद्ध हिन्दी अनुवाद होने से भगवान निग्रन्थों के प्रवचनों के अपूर्व रस का लाभ मिल शकता है. वालाचोर से भारतरत्न शतावधानी पंडित मुनि श्री १००८ श्री रतनचन्दजी महाराज फरमाते हैं कि : उत्तरोत्तर जोतां मूल सूत्रनी संस्कृतटीकाओ रचवामां टीकाकारे स्तुत्य प्रयास कर्यों छे, जे स्थानकवासी समाज माटे मगरुरी लेवा जे, छे, पली करांचीना श्री संवे सारा कागलमां अने सारा टाइपमा पुस्तक छपाची प्रगट कयु छ जे एक प्रकारनी साहित्य सेवा वजाची छे. वम्बई शहेर में विराजमान कवि मुनि श्री नानचन्दजी महाराजने फरमाया है कि पुस्तक सुन्दर है प्रयास अच्छा है। खीचन से स्थविर क्रिया पात्र मुनि श्री रतनचन्दजी महाराज और पंडितरन मुनि सम्रथमलजी महाराज श्री फरमाते हैं कि-विद्वान महात्मा पुरुपोका प्रयत्न सराहनीय है क्या जैनागम श्रीमद् उपासक दशाङ्ग सूत्र की टीका, एवं उसकी सरल सुवोधनी शुद्ध हिन्दी भाषा वडी ही सुन्दरता से लिखी है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चीतरागाय नमः ॥ श्री श्री श्री १००८ जैनधर्म दिवाकर जैनागमरस्नाकर श्रीमज्जैनाचार्य श्री पूज्य घासीलालजी महाराज चरणवन्दन स्वीकार हो । ___अपरश्च समाचार यह है कि आपके भेजे हुए ९ शास्त्र मास्टर सोभालालजी के द्वारा प्राप्त हुए, एतदर्थ धन्यवाद! आपश्रीनीने तो ऐसा कार्य किया है जो कि हजारों वर्षों से किसी भी स्थानकवासी जैनाचार्य ने नहीं किया। ____ आपने स्थानकवासीजैनसमाज के ऊपर जो उपकार किया है वह कदापि भुलाया नहीं जा सकता और नहीं भुलाया जा सकेगा। इम तीनों मुनि भगवान महावीर से अथवा शासनदेव से प्रार्थना करते हैं कि आपकी इस वज्रमयी लेखनी को उत्तरोत्तर शक्ति प्रदान करें ता कि आप जैन समाज के ऊपर और भी उपकार करते रहें और आप चिरञ्जीव हो । हम है आप के मुनि वीन उदेपुर. मुनि सत्येन्द्रदेव-मुनि लखपतराय-मुनि पद्मसेन इतवारी बाजार नागपुर ता. १९-१२-५६ प्रखर विद्वान जैनाचार्य मुनिराज श्री घासीलालजी महाराजद्वारा जो आगमोद्धार हुआ और हो रहा है सचमुच महाराजश्री का यह स्तुत्य कार्य है। हमने प्रचारकजी के द्वारा नौ मूत्रों का सेट देखा और कइ मार्मिक स्थलोंको पढा, पढ़ कर विद्वान मुनिराजश्री की शुद्ध श्रद्धा तथा लेखनीके प्रति हार्दिक प्रसन्नता फूट पडी। वास्तव में मुनिराज श्री जैन समाज पर ही नहीं इतर समाज पर भी महा उपकार कर रहे हैं । ज्ञान किसी एक समाज का नहीं होता वह सभी समाज की अनमोल निधि है जिसे कठिन परिश्रम से तैयार कर जनता के सम्मुख रक्खा जा रहा है जिसका एक एक सेट हर शहर गांव और घर घर में होना आवश्यक है। साहित्यरत्न मोहनमुनि सोहनमुनि जैन. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮ શ્રમણ સંઘના પ્રચાર મંત્રી પંજાબ કેશરી મહારાજ શ્રી પ્રેમચંદજી મહારાજ જેઓશ્રી રાજકેટમાં પધારેલા હતા ત્યારે તેના તરફથી શાને માટે મળેલા અભિપ્રાય. શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ તરફથી પૂજ્યપાદ શાસ્ત્ર વારિધિ પંડિતરાજ સ્વામીશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજદ્વારા શાસ્ત્રોદ્ધારનું જે કાર્ય થઈ રહ્યું છે તે કાર્ય જેન સમાજ તેમાં ખાસ કરીને સ્થાનકવાસી જૈન સમાજને માટે મૂળભૂત મોલિક સંસ્કૃતિની જડને મજબુત કરવાવાળું છે. એટલા ખાતર આ કાર્ય અતિ પ્રશંસનીય છે માટે દરેક વ્યક્તિએ તેમાં યથાશકિત ભેગી દેવાની ખાસ આવશ્યકતા છે અને તેથી એ ભગીરથ કાર્ય જલદીથી જલ્દી સંપૂર્ણપણે પાર પાડી શકાય અને જનતા કૃતજ્ઞાનને લાભ મેળવી શકે. દરીયાપુરી સંપ્રદાયના પૂજય આચાર્યશ્રી ઈશ્વરલાલજી મહારાજ સાહેબના સૂત્રે સંબંધે વિચારે નમામિ વીર ગિરી સાર ધીરે પૂજ્ય પાદ જ્ઞાન પ્રવરશ્રી ઘસીલાલજી મહારાજ તથા પડિતશ્રી કનૈયાલાલજી મહારાજ આદિ થાણા છની સેવામાં– અમદાવાદ શાહપુર ઉપાશ્રયથી મુનિ દયાનંદજીના ૧૦૮ પ્રણિપાત. આપ સર્વે થાણાએ સુખ સમાધિમાં હશે નિરતર ધર્મધ્યાન ધર્મારાધનમાં લીન હશે. સૂત્ર પ્રકાશન કાર્ય ત્વરીત થાય એવી ભાવના છે દશવૈકાલિક તથા આચારાંગ એક એક ભાગ અહીં છે ટીકા ખૂબ સુંદર, સરળ અને પડિતજનેને સુપ્રિય થઈ પડે તેવી છે. સાથે સાથે ટકા વીનાના મુળ અને અર્થ સાથે પ્રકાશન થાય તે શ્રાવકગણ તેને વિશેષ લાભ લઈ શકે અત્રે પૂજ્ય આચાર્ય ગુરૂદેવને આંખે મોતી ઉતરાવ્યું છે અને સારું છે એજ આ શુદ ૧૦, મંગળવાર તા. ૨૫-૧૦–૧૫ પુનઃ પુનઃ શાતા ઈચ્છતે, દયા મુનિના પ્રણિપાત. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ દરીયાપુરી સ`પ્રદાયના પડિત રત્ન ભાઈચંદજી મહારાજના અભિપ્રાય શ્રી રાણપુર તા. ૧૯-૧૨-૧૯૫૫ પૂજ્યપાદ જ્ઞાનપ્રવર પતિરત્ન ધૃત્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ આદિમુનિવરોની સેવામાં. આપ સર્વાં સુખ સમાધીમાં હશે. સૂત્ર પ્રકાશનનું કામ સુંદર થઇ રહ્યું છે તે જાણી અત્યંત આનંદ. આપના પ્રકાશીત થયેલાં કેટલાંક સૂત્ર જોયાં. સુદર અને સરલ સિદ્ધાંતના ન્યાયને પુષ્ટિ કરતી ટીકા પંડિતરત્નને સુપ્રિય થઇ પડે તેવી છે. સૂત્ર પ્રકાશનનું કામ ત્વરિત પૂર્ણ થાય અને ભાવિ આત્માઓને આત્મકલ્યાણુ કરવામાં સાધનભૂત થાય એજ અભ્યર્થના. લી. પંડિતરત્ન માળબ્રહ્મચારી પૂ. શ્રી ભાઇચંદ્ર મહારાજની આજ્ઞાનુસાર શાન્તિમુનીના પાયવદન સ્વીકારશે, તા. ૩૧-૫-૫૬ વીરમગામ ગચ્છાધિપતિ પૂજ્ય મહારાજ શ્રી જ્ઞાનચંદ્રજી મહારાજના સંપ્રદાયના આત્માથી, ક્રિયાપાત્ર, પંડિતરત્ન, મુનિશ્રી સમરથમલજી મહારાજને અભિપ્રાય. ખીચનથી આવેલ તા. ૧૧-૨-૫૬ના પત્રથી ધ્રિત. પૂજ્ય આચાર્ય ઘાસીલાલજી મહારાજના હસ્તક જે સૂત્રાનું લખાણ સુંદર અને સરળ ભાષામાં થાય છે. તે સાહિત્ય પંડિત મુનિશ્રી સમરથમલજી મહારાજ, સમય એછા મળવાને કારણે સંપૂર્ણ જોઇ શકયા નથી. છતાં જેટલું સાહિત્ય જોયુ છે, તે બહુ જ સારૂ અને મનન સાથે લખાયેલું છે. તે લખાણુ શાસ્ત્ર આજ્ઞાને અનુરૂપ લાગે છે. આ સાહિત્ય દરેક શ્રદ્ધાળુ જીવાને વાંચવા ચેાગ્ય છે. આમાં સ્થાનકવાસી સમાજની શ્રદ્ધા, પ્રરુપણા અને ફ્રસણાની દૃઢતા શાસ્ત્રાનુકુળ છે. આચાર્ય શ્રી અપૂર્વ પશ્રિમ લઇ સમાજ ઉપર મહાન ઉપકાર કરે છે, લી. કીશનલાલ પૃથ્વીરાજ માલુ મુ. ખાચન. * Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦ લીંબડી સંપ્રદાયના સદાનદી મુનીશ્રી છેટાલાલજી મહારાજના અભિપ્રાય શ્રી વીતરાગદેવે–જ્ઞાનપ્રચારને તીર્થંકર નામ ગાત્ર માંધવાનું નિમિત્ત કહેલ છે. જ્ઞાન પ્રચાર કરનાર, કરવામાં સહાય કરનાર, અને તેને અનુમેદન આપનાર જ્ઞાનાણિય કર્માંને ક્ષય કરી–કેવળ જ્ઞાનને પ્રાપ્ત કરી પરમપદનાં અધિકારી અને છે. શાસ્ત્રજ્ઞ—પરમ શાન્ત, અને અપ્રમાદિ પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહેારાજ પતે અવિશ્રાન્તપણે જ્ઞાનની ઉપાશના અને તેની પ્રભાવના અનેક વિકટ પ્રસંગામાં પણ કરી રહ્યા છે. તે માટે તેઓશ્રી અનેકશ: ધન્યવાદના અધિકારી છે. વદનિય છેતેમની જ્ઞાન પ્રભાવનાની ધગશ ઘણા પ્રમાદિએને અનુકરણીય છે. જેમ પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ પાતે જ્ઞાનપ્રચાર માટે અવિશ્રાન્ત પ્રયત્ન કરે છે. તેમજ શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના કાર્યવાહકો પણ એમાં સહાય કરીને જે પવિત્ર સેવા કરી રહેલ છે. તે પણ ખરેખર ધન્યવાદના પૂર્ણ અધિકારી છે, એ સમિતિના કાર્ય કરીને મારી એક સુચના છે કે : શાસ્રોદ્ધારક પ્રવર પંડિત અપ્રમાર્દિ સત ઘાસીલાલજી મહારાજ જે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ કરી રહેલ છે. તેમાં સહાય કરવા માટે પડિતા વિગેરેના માટે જે ખર્ચા થઇ રહેલ છે. તેને પહોંચી વળવા માટે સારૂં સરખું ફંડ જોઈએ. એના માટે મારી એ સુચના છે કેઃ –શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના મુખ્ય કાર્યવાહૂકા,—જો ખની શકે તે પ્રમુખ પેાતે અને બીજા એ ત્રણ જણાએ ગુજરાત, સૌરાષ્ટ્ર, અને કચ્છમાં પ્રવાસ કરી મેમ્બરો મનાવે અને આર્થિક સહાય મેળવે. જો કે અત્યારની પરિસ્થિતિ વિષમ છે. વ્યાપારીએ, ધંધાદારીએ ને પૈસાના વ્યવહાર સાચવવા પણુ મુશ્કેલ અન્યા છે. છતાં જે સભાવિત ગૃહસ્થા પ્રવાસે નીકળે તા જરૂર કાર્ય સફળ કરે. એવી મને શ્રદ્ધા છે. આર્થિક અનુકુળતા થવાથી શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ પણ વધુ સરલતાથી થઇ શકે. પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ જ્યાં સુધી આ તરફ વિચરે છે ત્યાં સુધીમાં એમની જ્ઞાન શકિતને જેટલે લાભ લેવાય તેટલા લઇ લેવા. કદાચ સૌરાષ્ટ્રમાં વધુ વખત રહેવાથી તેમને હવે મહાર વિહરવાની ઇચ્છા થતી હોય તે શાન્તિભાઇ શેઠ જેવાએ વિનતી કરી અમદાવાદ પધરાવવા. અને ત્યાં-અનુકુળતા મુજ–મે ત્રણ વર્ષની સ્થિરતા કરાવીને તેમની પાસે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ પૂર્ણ કરાવી લેવું જોઇએ. ઘેાડા વખતમાં જામજોધપુરમાં શાસ્ત્રોદ્ધાર કમીટી મળવાની છે. તે વખતે ઉપરની સુચના વિચારાય તે ઠીક Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફરી શાસ્ત્રોદ્ધારક પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજને એમની આ સેવા અને પરમ કલ્યાણકારક પ્રવૃત્તિને માટે વારંવાર અભિનંદન છે. શાસનનાયક દેવ તેમના શરિરાદીને સશકત અને દીર્ધાયુ રાખી સમાજ ધર્મની વધુ ને વધુ સેવા કરી શકે. છે અતુ. ચાતુર્માસ સ્થળ. લીંબડી ! સાં. ૨૦૧૦ શ્રાવણ વદ ૧૩. ગુરૂ. | સદાનંદી જૈનમુનિ છોટાલાલજી શ્રી વર્ધમાન સંપ્રદાયના પૂજ્ય શ્રી પુનમચંદ્રજી મહારાજને અભિપ્રાય શાસ્ત્ર વિશારદ પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજશ્રીએ જૈન આગ ઉપર જે સંસ્કૃત ટીકા વગેરે રચેલ છે. તે માટે તેઓશ્રી ધન્યવાદને પાત્ર છે. તેમણે આગ ઉપરની સ્વતંત્ર ટીકા રચીને સ્થાનકવાસી જૈન સમાજનું ગૌરવ વધાર્યું છે. આગામે ઉપરની તેમની સંસ્કૃત ટીકા ભાષા અને ભાવની દૃષ્ટિએ ઘણી જ સુંદર છે. સંસ્કૃત રચના માધુર્ય તેમજ અલંકાર વગેરે ગુણેથી યુક્ત છે. વિદ્વાનોએ તેમજ જૈન સમાજના આચાર્યો, ઉપાધ્યાયે વગેરે એ શાસ્ત્રો ઉપર રચેલી આ સંસકૃત રચનાની કદર કરવી જોઈએ અને દરેક પ્રકારનો સહકાર આપ જોઈએ. આવા મહાન કાર્યમાં પંડિત ન પૂજ્ય શ્રી ઘસીલાલજી મહારાજ જે પ્રયત્ન કરી રહ્યા છે તે અલોકિક છે. તેમનું આગમ ઉપરની સંસ્કૃત ટીકા વગેરે રચવાનું ભગીરથ કાર્ય શીધ્ર સફળ થાય એજ શુભેછા સાથે. અમદાવાદ તા. ૨૨-૪-૫૬ રવિવાર મુનિ પૂર્ણચંદ્રજી મહાવીર જયંતિ ખંભાત સંપ્રદાયના મહાસતી શારદાબાઇ સ્વામીને અભિપ્રાય લખતર તા. ૨૫-૪-૫૬ શ્રીમાન શેઠ શાંતીલાલભાઈ મંગળદાસભાઈ પ્રમુખ સાહેબ અખિલ ભારત છે. સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ મુ. અમદાવાદ અમે અને દેવગુરૂની કૃપાએ સુખરૂપ છીએ. વિ.માં આપની સમિતિ દ્વારા પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ સાહેબ જે સુનું કાર્ય કરે છે તે પૈકીનાં સુમાંથી ઉપાસક દશાંગ સુત્ર, આચારંગ સુત્ર, અનુત્તરપપાતિક સુત્ર Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० લીંબડી સંપ્રદાયના સદાનંદી મુનીશ્રી છોટાલાલજી મહારાજને અભિપ્રાય શ્રી વીતરાગદેવે-જ્ઞાનપ્રચારને તીર્થકર નામ ગોત્ર બાંધવાનું નિમિત્ત કહેલ છે. જ્ઞાન પ્રચાર કરનાર, કરવામાં સહાય કરનાર, અને તેને અનુદાન આપનાર જ્ઞાનાવણિય કર્મને ક્ષય કરી-કેવળ જ્ઞાનને પ્રાપ્ત કરી પરમપદનાં અધિકારી અને છે. શાસ્ત્રજ્ઞ–પરમ શાન્ત, અને અપ્રમાદિ પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ પિત અવિશાન્તપણે જ્ઞાનની ઉપાસના અને તેની પ્રભાવના અનેક વિકટ પ્રસંગમાં પણ કરી રહ્યા છે. તે માટે તેઓશ્રી અનેકશ: ધન્યવાદના અધિકારી છે. વંદનિય છેતેમની જ્ઞાન પ્રભાવનાની ધગશ ઘણુ પ્રમાદિએને અનુકરણીય છે. જેમ પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ પિતે જ્ઞાનપ્રચાર માટે અવિશ્રાન્ત પ્રયત્ન કરે છે. તેમજશાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના કાર્યવાહકે પણ એમાં સહાય કરીને જે પવિત્ર સેવા કરી રહેલ છે. તે પણ ખરેખર ધન્યવાદના પૂર્ણ અધિકારી છે. એ સમિતિના કાર્યકરોને મારી એક સુચના છે કે - શાસોદ્ધારક પ્રવર પંડિત અપ્રમાદિ સંત ઘાસીલાલજી મહારાજ જે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ કરી રહેલ છે. તેમાં સહાય કરવા માટે–પંડિતે વિગેરેના માટે જે ખર્ચો થઈ રહેલ છે. તેને પહોંચી વળવા માટે સારું સરખું ફંડ જોઈએ. એના માટે મારી એ સુચના છે કે –શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના મુખ્ય કાર્યવાહકે જે બની શકે તે પ્રમુખ પતે અને બીજા બે ત્રણ જણાએ ગુજરાત, સૌરાષ્ટ્ર, અને કચ્છમાં પ્રવાસ કરી મેમ્બરે બનાવે અને આર્થિક સહાય મેળવે. જે કે અત્યારની પરિસ્થિતિ વિષમ છે. વ્યાપારીઓ, ધંધાદારીઓને પિતાના વ્યવહાર સાચવવા પણ મુશ્કેલ બન્યા છે. છતાં જે સંભવિત ગૃહસ્થ પ્રવાસે નીકળે તે જરૂરી કાર્ય સફળ કરે. એવી મને શ્રદ્ધા છે. આર્થિક અનુકુળતા થવાથી શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ પણ વધુ સરલતાથી થઈ શકે. પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ જ્યાં સુધી આ તરફ વિચરે છે ત્યાં સુધીમાં એમની જ્ઞાન શક્તિને જેટલો લાભ લેવાય તેટલે લઈ લે. કદાચ સૌરાષ્ટ્રમાં વધુ વખત રહેવાથી તેમને હવે બહાર વિહરવાની ઈચ્છા થતી હોય તે શાન્તિભાઈ શેઠ જેવાએ વિનંતી કરી અમદાવાદ પધરાવવા. અને ત્યાં–અનુકુળતા મુજ-બે ત્રણ વર્ષની સ્થિરતા કરાવીને તેમની પાસે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ પૂર્ણ કરાવી લેવું જોઈએ. છેડા વખતમાં જામજોધપુરમાં શાસ્ત્રોદ્ધાર કમીટી મળવાની છે. તે વખતે ઉપરની સુચના વિચારાય તે ઠીક Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૩ આત્માઓ જ્ઞાન ઝરણુઓથી આત્મરુપ વાડીને વિકસીત કરશે. ધન્ય છે આપને અને સમિતિના કાર્યકરને જે સમાજ ઉત્થાન માટે કેઈની પણ પરવા કર્યા વગર જ્ઞાનનું દાન ભવ્ય આત્માઓને આપવા નિમિત્તરૂપ થઈ રહ્યા છે. આવા સમર્થ વિદ્વાન પાસેથી સંપૂર્ણ કાર્ય પુરૂં કરાવશે તેવી આશા છે. એજ લિ. બરવાળા સંપ્રદાયના વિદુષી મહાસતીજી સેંઘીબાઈ સ્વામી ના ફરમાનથી લી. ખોડીદાસ ગણેસભાઈ-ધંધુકા સ્થાનકવાસી જૈન સંઘના પ્રમુખ. અધતન પદ્ધતિને અપનાવનાર વડેદરા કલેજના એક વિદ્વાન પ્રોફેસરને અભિપ્રાય. સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયના મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ જેનશાસ્ત્રોના સંરકૃત ટીકાબદ્ધ, ગુજરાતીમાં અને હિન્દીમાં ભાષાંતર કરવાના ઘણુ વિકટ કાર્યમાં વ્યાસ થયેલા છે. શાસ્ત્રો પૈકી જે શાસ્ત્રો પ્રસિદ્ધ થયાં છે તે હું જોઈ શક છું, મુનિશ્રી પિતે સંસ્કૃત, અર્ધમાગધી હિંદી ભાષાઓના નિષ્ણાત છે, એ એમને ટુંકે પરિચય કરતાં સહજ જણાઈ આવે છે. શાસ્ત્રોનું સંપાદન કરવામાં તેમને પિતાના, શિષ્યવર્ગને અને વિશેષમાં ત્રણ પંડિતેને સહકાર મળે છે, તે જોઈ મને આનંદ થયે. સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયના અગ્રેસરેએ પંડિતેને સહકાર મેળવી આપી મુનિશ્રીના કાર્યને સરળ અને શિષ્ટ બનાવ્યું છે. સ્થાનકવાસી સમાજમાં વિદ્વતા ઘણી ઓછી છે, તે દિગંબર, મૃર્તિપૂજક શ્વેતાંબર વગેરે જૈનદર્શનના પ્રતિનિધિઓના ઘણા સમયથી પરિચયમાં આવતાં હું વિરોધના ભય વગર, કહી શકું. પૂ. મહારાજને આ પ્રયાસ સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયમાં પ્રથમ છે એવી મારી માન્યતા છે. સંસ્કૃત સ્પષ્ટીકરો સારા આપવામાં આવ્યાં છે. ભાષા શુદ્ધ છે એમ હું ચોક્કસ કહી શકું છું. ગુજરાતી ભાષાંતરો પણ શુદ્ધ અને સરળ થયેલાં છે. મને વિશ્વાસ છે કે મહારાજશ્રીને આ સ્તુત્ય પ્રયાસને જેનસમાજ ઉત્તેજન આપશે અને શાસ્ત્રોના ભાષાંતરને વાચનાલયમાં અને કુટુંબમાં વસાવી શકાય તે પ્રમાણે વ્યવસ્થા કરશે. પ્રતાપગંજ, વડેદરા કામદાર કેશવલાલ હિંમતરામ, તા. ર૭-૨-૧૫૬ એમ. એ. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દશવૈકાલિક સુત્ર વિગેરે સુ જયાં તે સુત્ર સંસ્કૃત હિન્દી અને ગુજરાતી ભાષા એમાં રહેવાને કારણે વિદ્વાન અને સામાન્ય જનેને ઘણુંજ લાભદાયિક છે. તે વાંચન ઘણુંજ સુદર અને મને રંજન છે આ કાર્યમાં પૂજ્ય આચાર્યશ્રી જે અઘાત પુરૂષાથે કાર્ય કરે છે તે માટે વારંવાર ધન્યવાદને પાત્ર છે આ સુથી સમાજને ઘણુ લાભનું કારણ છે હંસ સમાન બુદ્ધીવાળા આત્માઓ રવપરના ભેદથી નિખાલસ ભાવનાએ અવલોકન કરશે તે આ સાહિત્ય સ્થાનકવાસી સમાજ માટે અપૂર્વ અને ગૌરવ લેવા જેવું છે માટે દરેક ભવ્ય આત્માઓને સુચન કરું છું કે આ સુત્ર પિતાપિતાના ઘરમા વસાવાની સુંદર તકને ચકશે નહિ કારણ આવા શુદ્ધ પવિત્ર અને સ્વપરપરા ને પુષ્ટીરૂપ સુત્રે મળવા બહુ મુશ્કેલ છે. આ કાર્યને આપશ્રી ત્થા સમિતિના અન્ય કાર્યકરે જે શ્રમ લઈ રહ્યા છે તેમા મહાન નિર્જરાનું કારણ જોવામાં આવે છે તે બદલ ધન્યવાદ એજ લી શારદાબાઈ સ્વામી ખંભાત સંપ્રદાય બરવાળા સંપ્રદાયના વિદુષી મહાસતીજી મેઘીબાઈ સ્વામીને અભિપ્રાય ધ ધુકા તા ૨૭–૧–૫૬ શ્રીમાન શેઠ શાન્તીલાલ મગળદાસભાઈ પ્રમુખ અ. ભ૦ ૦ સ્થા. જૈનશાસ્ત્ર ઉદ્ધાર સમિતિ મુ. રાજકેટ અત્રે બીરાજતા ગુરુ ગુરુને ભડાર મહાસતિજી વિદુષી મેઘીબાઈ સ્વામી તથા હીરાબાઈ સ્વામી આદિઠાણા અને સુખશાતામાં બીરાજે છે આપને સુચન છે કે અપ્રમત અવસ્થામાં રહી નિવૃત્તિ ભાવને મેળવી ધર્મધ્યાન કરશે એજ આશા છે વિશેષમાં અમને પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજના રચેલા સુત્રે ભાઈ પિપટ ધનજીભાઈ તરફથી ભેટ તરીકે મળેલા તે સુ તમામ આઘઉપાન વાચા મનન કર્યા અને વિચાર્યા છે તે સુત્ર સ્થાનકવાસી સમાજને અને વિતરાગ માર્ગની ખૂબજ ઉન્મત્ત બનાવનાર છે તેમાં આપણી શ્રદ્ધા એટલી ન્યાય ૨૫થી ભરેલી છે તે આપણું સમાજ માટે ગૌરવ લેવા જેવું છે હરસ સમાન Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ આ સૂત્ર નેતાં પહેલીજ નજરે મહારાજશ્રીને સંસ્કૃત, અર્ધમાગધી, હિન્દી તથા ગુજરાતી ભાષા ઉપરના અસાધારણ કાબુ જણાઇ આવે છે. એક પણ ભાષા મહારાજશ્રીથી અજાણી નથી. આપણે જાણીએ છીએ કે એ સૂત્રેા ઉચ્ચ અને પ્રથમ કેટિના છે. તેની વસ્તુ ગંભીર, વ્યાપક અને જીવનને તલસ્પશી છે. આટલા ગહન અને સગ્રાહ્યસૂત્રનું ભાષાંતર ૫ ઘાસીલાલજી મહારાજ જેવા ઉચ્ચ કૅટિના મુનિરાજને હાથે થાય છે તે આપણા અહેાભાગ્ય છે. યંત્રવાદ અને ભૌતિકવાદના આ જમાનામાં જ્યારે ધર્મભાવના આસરતી જાય છે એવે વખતે આવા તત્ત્વજ્ઞાન આધ્યાત્મિકતાથી ભરેલાં સૂત્રાનું સરળ ભાષામાં ભાષાંતર દરેક જીજ્ઞાસુ, મુમુક્ષુ અને સાધકને મા દર્શીક થઈ પડે તેમ છે. જૈન અને જૈનેત્તર, વિદ્વાન અને સાધારણુ માણસ, સાધુ અને શ્રાવક દરેકને સમજણ પડે તેવી સ્પષ્ટ, સરળ અને શુદ્ધ ભાષામાં સુત્ર લખવામાં આવ્યા છે. મહારાજશ્રીને જ્યારે જોઈએ ત્યારે તેમના આ કાર્ટીમાં સંકળાયેલા જોઇએ છીએ. એ ઉપરથી મુનિશ્રીના પરિશ્રમ અને ધગશની કલ્પના કરી શકાય તેમ છે. તેમનું જીવન સૂત્રામાં વણાઇ ગયું છે. મુનિશ્રીના આ અસાધારણ કાર્યમાં પેાતાના શિષ્યને તથા પડિતાના સહકાર મળ્યા છે. મને આશા છે કે જો દરેક મુમુક્ષુ આ પુસ્તકને પોતાના ઘરમાં વસાવશે અને પેાતાના જીવનને સાચા સુખને માર્ગે વાળશે તેા મહારાજશ્રીએ ઉઠાવેલે શ્રમ સપૂર્ણ પણે સફળ થશે. * પ્રો. રસિલાલ કસ્તુરચંદ ગાંધી એમ. એ. એલ. એલ. મી. ધર્મેન્દ્રસિંહજી કાલેજ રાજકાટ ( સોરાષ્ટ્રે ) મુંબઈ અને ઘાટકોપરમાં મળેલી સભાએ ભિનાસર કોન્ફરન્સ તથા સાધુ સંમેલનમાં માલાવેલ ઠરાવ. હાલ જે વખતે શ્રી શ્વેતાંબર સ્થાનકવાસી જૈન સધ માટે આગમ-સશા ધન અને સ્વતંત્ર ટીકાવાળા શાસ્ત્રોદ્ધારની અતિ આવશ્યકતા છે અને જે મહાનુભાવાએ આ વાત દીર્ઘ દ્રષ્ટિથી પહેલી પેાતાના મગજમાં લઇ તે પાર પાડવા મહેનત લઈ રહ્યા છે તેવા મુનિ મહારાજ પડિતરત્ન શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કે જેએને સાદડી અધિવેશનમાં સર્વાનુમતે સાહિત્ય મત્રી નીમ્યા છે. તેઓશ્રીની દેખરેખ નીચે અ, ભા. વે, સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ જે એક મેટી વગવાળી કિંમટી છે તેની મારફતે કામ થઇ રહ્યું છે જેને પ્રધાનાચાર્ય શ્રી તથા પ્રચાર મંત્રીશ્રી Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪ મુંબઈની બે કેલેજોના પ્રોફેસરોને અભિપ્રાય. મુંબઈ તા. ૩૧-૩-૫૬ શ્રીમાન શેઠ શાંતીલાલ મંગળદાસ પ્રમુખ : શ્રી અખિલ ભારત છે. સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ, રાજકેટ પૂજ્યાચાર્ય શ્રી ઘસીલાલજી મહારાજે તેયાર કરેલા આચારાંગ, દશવકાલીક આવશ્યક, ઉપાસકદશાંગ વગેરે સૂ અમે જોયા. આ સૂવે ઉપર સંસ્કૃતમાં ટીકા આપવામાં આવી છે અને સાથે સાથે હીંદી અને ગુજરાતી ભાષાંતરે પણ આપવામાં આવ્યાં છે. સંસ્કૃત ટકા અને ગુજરાતી તથા હીંદી ભાષાંતરે જોતાં આચાર્યશ્રીના આ ત્રણે ભાષા પરના એકસરખા અસાધારણ પ્રભુત્વની સચેટ અને સુરેખ છાપ પડે છે. આ સૂત્ર ગ્રંથમાં પાને પાને પ્રગટ થતી આચાર્યશ્રીની અપ્રતિમ વિદ્વતા મુગ્ધ કરી દે તેવી છે. ગુજરાતી તથા હીંદીમાં થયેલા ભાષાંતરમાં ભાષાની શુદ્ધિ અને સરળતા નેધપાત્ર છે. એથ વિદ્વદજન અને સાધારણ માણસ ઉભયને સંતોષ આપે એવી એમની લેખિનીની પ્રતીતિ થાય છે. ૩૨ સૂત્રમાંથી હજુ ૧૩ સત્રે પ્રગટ થયાં છે. બીજા ૭ રાત્રે લખાઈને તિયાર થઈ ગયાં છે. આ બધાં જ સૂત્રે જ્યારે એમને હાથે તૈયાર થઈને પ્રગટ થશે ત્યારે જૈન સૂત્ર-સાહિત્યમાં અમૂલ્ય સંપત્તિરૂપ ગણુશે એમાં સંશય નથી. આચાર્યશ્રી આ મહાન કાર્યને જૈન સમાજને-વિશેષત: સ્થાનકવાસી સમાજને સંપૂર્ણ સહકાર સાંપડી રહેશે એવી અમે આશા રાખીએ છીએ. છે. રમણલાલ ચીમનલાલ શાહ સેંટ ઝેવિયર્સ કોલેજ, મુંબઈ. છે તારા રમણલાલ શાહ સેટ્ટીયા કેલેજ, મુંબઈ રાજકેટની ધર્મેન્દ્રસિંહજી કેલેજના કેફેસર સાહેબને અભિપ્રાય. જમહાલ જાગનાથ પ્લેટ રાજકોટ, તા ૧૮-૪-૫૬ પૂજ્યાચાર્ય પં. મુનિ શ્રી ઘાસલાલજી મહારાજ આજે જૈન સમાજ માટે એક એવા કાર્યમાં વ્યાપ્ત થએલા છે કે જે સમાજ માટે બહુ ઉપયોગી થઈ પડશે. મુનિશ્રીએ તૈયાર કરેલાં આચારાંગ, દશવૈકાલિક, શ્રી વિપાકકૃત વિ. મેં જયાં Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નવાઈ નથી. અને પૂ. શ્રી. ઘાસીલાલજીના બનાવેલાં સત્ર જોતાં સો કેઈને ખાત્રી થાય તેમ છે કે દામોદરદાસભાઈએ તેમજ સ્થાનકવાસી સમાજે જેવી આશા શ્રી ઘાસીલાલજી મ. પાસેથી રાખેલી તે બરાબર ફળીભૂત થયેલ છે. શ્રી વર્ધમાન શમણુસંધના આચાર્ય શ્રી આત્મારામજી મહારાજે શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજના સૂરો માટે ખાસ પ્રશંસા કરી અનુમતિ આપેલ છે તે ઉપરથી જ શ્રી ઘાસીલાલજી મ. ના સત્રની ઉપગિતાની ખાત્રી થશે. આ સૂત્ર વિદ્યાર્થીને, અભ્યાસીને તેમજ સામાન્ય વાંચકને સર્વને એક સરખી રીતે ઉપયેગી થઈ પડે છેવિદ્યાથીને તેમજ અભ્યાસીને મૂળ તથા સંસ્કૃત ટીકા વિશેષ કરીને ઉપયોગી થાય તેમ છે ત્યારે સામાન્ય હિંદી વાંચકને હિંદી અનુવાદ અને ગુજરાતી વાંચકને ગુજરાતી અનુવાદથી આખું સૂત્ર સરળતાથી સમાય જાય છે. કેટલાકને એ ભ્રમ છે કે સુ વાંચવાનું આપણું કામ નહિ, મૂત્ર આપણને સમજાય નહિ. આ ભ્રમ તદન ઓટે છે. બીજા કોઈપણ શાસ્ત્રીય પુસ્તક કરતાં સૂત્રે સામાન્ય વાચકને પણ ઘણી સરળતાથી સમજાઈ જાય છે. સામાન્ય માણસ પણ સમજી શકે તેટલા માટે જ ભ. મહાવીરે તે વખતથી લેક ભાવામાં (અર્ધ માગધી ભાષામાં) અંગે બનાવેલાં છે. એટલે કે વાંચવા તેમજ સમજવામાં ઘણાં સરળ છે. માટે કોઈ પણ વાંચકને એને શ્રમ હોય તો તે કાઢી નાંખવો. અને ધર્મનું તેમજ ધર્મના સિદ્ધાંતનું સાચું જ્ઞાન મેળવવા માટે સૂત્ર વાંચવાને ચૂકવું નહિ. એટલું જ નહિ પણ જરૂરથી પહેલાં શત્રોજ વાંચવા, સ્થાનકવાસીઓમાં આ શ્રી સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્વાર સમિતિએ જે કામ કર્યું છે અને કરી રહી છે તેવું કઈ પણ સંસ્થાએ આજ સુધી કર્યું નથી. સ્થાન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના છેલા રિપોર્ટ પ્રમાણે બીજે છ સૂત્રે લખાયેલ પડયાં છે, બે સૂત્ર-અનુગદ્વાર અને ઠાગ રસ-લખાય છે તે પણ થોડા વખતમાં તૈયાર થઈ જશે. તે પછી બાકીના સૂત્રે હાથ ધરવામાં આવશે. તૈયાર સુ જલ્દી છપાઈ જાય એમ ઇચ્છીએ છીએ અને સ્થા. બંધુઓ સમિતિને ઉજન અને સહાયતા આપીને તેમનાં સુ ઘરમાં વસાવે એમ ઈચ્છીએ છીએ, “જેન સિદ્ધાન્ત” પત્ર - મે ૧૯૫૫, Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તથા અનેક અનુભવી મહાનુભાવેએ પિતાની પસંદગીની બહાર છાપ આપી છે અને છેલ્લામાં છેલા વડોદરા યુનિવસીટીને ફેસર કેશવલાલ કામદાર એમ. એ. એ પિતાનું સવિસ્તર પ્રમાણપત્ર આપ્યું છે તે શાસ્ત્રોદ્ધાર કમિટીના કામને આ સંમેલન તથા કેન્ફરન્સ હાર્દિક અભિનંદન આપે છે. અને તેમના કામને જ્યાં જ્યાં અને જે જે જરૂર પડે-પંડિતની અને નાણાંની-પિતાની પાસેના ફંડમાંથી અને જાહેર જનતા પાસેથી મદદ મળે તેવી ઇચ્છા ધરાવે છે. આ શાસ્ત્રો અને ટીકાઓને જ્યારે આટલી બધી પ્રશંસાપૂર્વક પસંદગી મળી છે ત્યારે તે કામને મદદ કરવાની આ કેન્ફરન્સ પિતાની ફરજ માને છે અને જે કાંઈ બુટી હોય તે પં. ૨. શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજની સાનિધ્યમાં જઈ, બતાવીને સુધારવા પ્રયત્ન કરે. આ કામને ટલ્લે ચઢાવવા જેવું કંઈ પણ કામ સત્તા ઉપરના અધીકારીઓના વાણી કે વર્તનથી ન થાય તે જોવા પ્રમુખ સાહેબને ભલામણ કરે છે. (સ્થા. જૈન પત્ર તા. ૪-૫-૫૬) સ્વતંત્ર વિચારક અને નિડર લેખક સિદ્ધાંતના તંત્રીશ્રી શેઠ નગીનદાસ ગીરધરલાલને અભિપ્રાય શ્રી સ્થાનકવાસી શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ સ્થાપીને પૂ શ્રી. ઘાસીલાલજી મહારાજને સૌરાષ્ટ્રમાં બેલાવી તેમની પાસે બત્રીસે રાત્રે તૈયાર કરવાની હિલચાલ ચાલતી હતી ત્યારે તે હિલચાલ કરનાર શાસ્ત્રજ્ઞ શેઠ શ્રી દામોદરદાસભાઈ સાથે મારે પત્રવ્યવહાર ચાલે ત્યારે શેઠ શ્રી દામોદરદાસભાઈએ તેમના એક પત્રમાં મને લખેલું કે “આપણું સૂત્રોના મૂળ પાઠ તપાસી શદ્ધ કરી સંસ્કૃત સાથ તૈયાર કરી શકે તેવા સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયમાં મુનિશ્રી ઘાસલાલજી મ. સિવાય મને કોઈ વિશેષ વિદ્વાન મુનિ જેવામાં આવતા નથી. લાંબી તપાસને અંતે મેં મુનિ શ્રી ઘાસીલાલજીને પસંદ કરેલા છે.” શેઠ શ્રી દામોદરદાસભાઈ પોતે વિદ્વાન હતા. શાસ્ત્રજ્ઞ હતા તેમ વિચારક પણ હતા. શ્રાવકે તેમજ મુનિએ પણ તેમની પાસેથી શીક્ષા વાંચન લેતા, તેમ જ્ઞાન ચર્ચા પણ કરતા. એવા વિદ્વાન શેઠશ્રીની પસંદગી યથાર્થ જ હોય એમ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ સૂત્રના પ્રચાર કરે છે. મુસ્લીમ લોકો પણ તેમના પવિત્ર મનાતા ગ્રન્થ કુરાનનું પશુ અનેક ભાષામાં ભાષાંતર કરી સમાજમાં પ્રચાર કરે છે. આપણે પૈસા પર મેહ ઉતારી ભગવાનના સિદ્ધાંતના પ્રચાર કરવા માટે તન, મન, ધન સમર્પણ કરવાં જોઇએ. અને સૂત્ર પ્રકાશનના કાર્યને વધુ ને વધુ વેગ મળે તે માટે સક્રિય પ્રયત્ન કરવા જોઇએ આવા પવિત્ર કાર્યમાં સાંપ્રદાયિક મતભેદે સૌએ ભૂલી જવા જોઈએ અને શુદ્ધ આશયથી થતા શુદ્ધ કાર્યને અપનાવી લેવું જોઇએ. સમિતિના નિયમાનુસાર રૂા. ૨૫૧] ભરી સમીતીના સભ્ય બનવું જોઇએ. ધાર્મિક અનેક ખાતાંના મુકાયે સૂત્ર પ્રકાશનનું-જ્ઞાન પ્રચારનું આ ખાતુ સર્વશ્રેષ્ઠ ગણાવું જોઈએ. આ કાર્યને વેગ આપવાની સાથે સાથે એ આગમે–ભગવાનની એ મહાવાણીનું પાન કરવા પશુ આપણે હરહમેશ તત્પર રહેવું જોઇએ જેથી પરમ શાન્તિ અને જીવન િિદ્ધ મેળવી શકાય. ( સ્થા. જૈન. તા. પ-૭-૫૬ ) શ્રી. અ. ના. વે. સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિનાં પ્રમુખશ્રી વગેરે. રાણપુર પરમ પવિત્ર સૌરાષ્ટ્રની પુણ્ય ભૂમિ પર જ્યારથી શાન્ત-શાસ્ત્રવિશારદ અપ્રમાદિ પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજનાં પુનિત પગલાં થયા છે ત્યારથી ઘણા લાંબા કાળથી લાગુ પડેલ જ્ઞાનાવરણુય કર્મોનાં પડળ ઉતારવાને શુભ પ્રયાસ થઈ રહ્યો છે. અને જે પ્રવચનની પ્રભાવના તેઓશ્રી કરી રહ્યા છે તે અનંત ઉપકારક કામાં તમે જે અપૂર્વ સહાય આપી રહ્યા છે તે માટે તમેા સર્વાંને ધન્ય છે અને એ શુભ પ્રવૃત્તિના શુભ પરિણામને જનતા લાભ લ્યે છે, મને તે સમજાય છે કે સાધુજી છઠે ગુણસ્થાનકે હેાય છે. પણ પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ તો બહુધા સાતમે અપ્રમત ગુણુસ્થાનકે જ રહે છે. એવા અપ્રમત માત્ર પાંચ-સાત સાધુએ. જો સ્થાનકવાસી જૈન સમાજમાં હોય તે સમાજનું શ્રેય થતાં જરાએ વાર ન લાગે. સમાજાકાશમાં સ્થા. જૈન સંપ્રદાયને દિવ્ય પ્રભાકર જળહળી નીકળે. ... ણુવા દિન........ શ્રી શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિને મ્હારી એક નમ્ર સુચના છે કે-પૂજ્યશ્રીની વૃદ્ધાવસ્થા છે; અને કા પ્રણાલિમ યુવાનાને શરમાવે તેવી છે. તેમને ગામેગામ વિહાર કરવા અને શાસ્ત્રોદ્ધારનું કાર્ય કરવું તેમાં ઘણી શારીરિક-માનસિક અને વ્યવહારિક મુશ્કેલી વેઠવી પડે છે. તેા કાઇ ચેગ્ય સ્થળ કે જ્યાંના શ્રાવકે ભક્તિવાળા હાય. વાડાના રાગના વિષથી અલીપ્ત હેાય એવા કોઇ સ્થળે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કાર્ય પુર્ણ થાય ત્યાં સુધી સ્થીરતા કરી શકે એના માટે પ્રાધ કરવા નઇએ. બીજા કોઇ એવા સ્થળની અનુકૂળતા ન મળે તેા છેવટ અમદાવાદમાં વૈગ્ય સ્થળે રહેવાની સગવડતા કરી અપાય તે વધુ સારૂં. મ્હારી આ સુચના પર ધ્યાન આપવા ફરી યાદ આપુ છું. ફરીવાર પુજ્ય આચાર્યશ્રીને અને તેમના સત્કાર્યના સહાયકાને મારા અભિનંદન પાઠવું છું તે સ્વીકારશેાજી, લિ, સહાનદી જૈનમુનિ એટાલાલજી, Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ શ્રુત ભકિત ( પૂ. આચાર્ય' શ્રી ઈશ્વરલાલજી મ. સા. ની આજ્ઞા અનુસાર લખનાર ) ૬. સ, ના જૈન મુનિ શ્રી દયાનંદજી મહારાજ તા. ૨૩-૬-૫૬ શાહપુર, અમદાવાદ, આજે લગભગ ૨૦ વર્ષથી શ્રદ્ધેય પરમપૂજ્ય, જ્ઞાન દિવાકર પ. મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મ. ચરમ તીર્થંકર ભગવાન મહાવીરના અનુત્તર, અનુપમ ન્યાય યુક્ત, પૂર્વાપર અવિધ, સ્વપર કલ્યાણકારક, ચરમ શીતળ વાણીના દ્યોતક એવા શ્રી જિનાગમ પર પ્રકાશ પાડે છે. તેઓશ્રી પ્રાચીન, પોર્વાત્ય સંસ્કૃદિ અનેક ભાષાના પ્રખર પંડિત છે અને જિન વાણીના પ્રકાશ સસ્કૃત, ગુજરાતી અને હિંદીમાં મૂળ શબ્દાર્થ, ટીકા, વિસ્તૃત વિવરણ સાથે પ્રકાશમાં લાવે છે એ જૈન સમાજ માટે અતિ ગૌરવ અને આનંદના વિષય છે. ભ॰ મહાવીર અત્યારે આપણી પાસે વિદ્યમાન નથી. પર ંતુ તેમની વાણી રૂપે અક્ષરદેહ ગણધર મહારાજોએ શ્રુત પર પરાએ સાચવી રાખ્યા. શ્રુત પર ંપરાથી સચવાતુ જ્ઞાન જ્યારે વિસ્તૃત થવાના સમય ઉપસ્થિત થવા લાગ્યું ત્યારે શ્રી દેવદ્ધિગણિ ક્ષમાશ્રમો વલ્ભીપુર-વળામાં તે આગમાને પુસ્તકો રૂપે આરૂઢ કર્યાં, આજે આ સિદ્ધાંત આપણી પાસે છે. તે અ માગધી પાલી ભાષામાં છે. ત્યારે આ ભાષા ભગવાનની, દેવેાની તથા જનગણુની ધર્મ' ભાષા છે. તેને આપણા શ્રમણ્ અને શ્રમણીએ તથા મુમુક્ષુ શ્રાવક શ્રાવિકાએ મુખપાઠ કરે છે; પરન્તુ તેને મર્થ અને ભાવ ઘણા થાડાઓ સમજે છે. જિનાગમ એ આપણાં શ્રદ્ધેય પવિત્ર ધર્મસૂત્ર છે. એ આપણી આંખે છે. તેના અભ્યાસ કરવેા એ આપણી સૌની જૈન માત્રની ફરજ છે, તેને સત્ય સ્વરૂપે સમજાવવા માટે આપણાં સદ્ભાગ્યે જ્ઞાન દિવાકર શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજે સત્સંકલ્પ કર્યાં છે અને તે લિખિત સૂત્રોને પ્રગટાવી શાસ્ત્રોદ્ધાર સમીતી દ્વારા જ્ઞાન પરબ વહેતી કરી છે. આવા અનુપમ કાર્યમાં સકળ જૈનના સહકાર અવશ્ય હાવા ઘટે અને તેના વધારેમાં વધારે પ્રચાર થાય તે માટે પ્રયત્ના કરવા ઘટે. ભ॰ મહાવીરને ગણધર ગૌતમ પૂછે છે કે હે ભગવાન; સૂત્રની આરાધના કરવાથી શું ફળ પ્રાપ્ત થાય છે? ભગવાન તેના પ્રતિ ઉત્તર આપે છે કે શ્રુતની આરાધનાથી જીવે.ના અજ્ઞાનના નાશ થાય છે. અને તેએ સસારના કલેશેથી નિવૃત્તિ મેળવે છે. અને સંસાર કલેશાથી નિવૃત્તિ અને અજ્ઞાનને નાશ થતાં માક્ષ ફળની પ્રાપ્તિ થાય છે. આવા જ્ઞાન કાર્યમાં મૂર્તિપૂજક જૈને, દિગબરી અને અન્ય ધર્મીએ હાશ અને લાખ રૂપીયા ખર્ચે છે. હિંદુ ધર્મમાં પવિત્ર મનાતા ગ્રંથ ગીતાના સેંકડો નહિં પણ દુજારે ટીકા ગ્રંથા દુનિયાની લગભગ સર્વ ભાષાઓમાં પ્રગટ થયા છે. ઈસાઈ ધર્મના પ્રચારકા તેમના પવિત્ર ધર્મગ્રન્થ બાઈબલના પ્રચારાર્થે તેનું જગતની સર્વ ભાષામાં ભાષાંતર કરી, તેને પડતર કરતાં પણ ઘણી ઓછી કિંમતે વેચી ધ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ છે ! સુને પ્રચાર કરે છે. મુસ્લીમ લેકે પણ તેમના પવિત્ર મનાતા ગ્રન્થ કુરાનનું પણ અનેક ભાષાઓમાં ભાષાંતર કરી સમાજમાં પ્રચાર કરે છે. આપણે પૈસા પરને મેહ ઉતારી ભગવાનના સિદ્ધાંતને પ્રચાર કરવા માટે તન, મન, ધન સમર્પણ કરવાં જોઈએ. અને સત્ર પ્રકાશનના કાર્યને વધુ ને વધુ વેગ મળે તે માટે સક્રિય પ્રયત્ન કરવા જોઈએ આવા પવિત્ર કાર્યમાં સાંપ્રદાયિક મતભેદો સોએ ભૂલી જવા જોઈએ અને શુદ્ધ આશયથી થતા શુદ્ધ કાર્યને અપનાવી લેવું જોઈએ. સમિતિના નિયમાનુસાર રૂ. ૨૫૧ ભરી સમીતીના સભ્ય બનવું જોઈએ. ધાર્મિક અનેક ખાતાઓના મુકાબલે સૂત્ર પ્રકાશનનું-જ્ઞાન પ્રચારનું આ ખાતું સર્વશ્રેષ્ઠ ગણાવું જોઈએ. આ કાર્યને વેગ આપવાની સાથે સાથે એ આગમે-ભગવાનની એ મહાવાણીનું પાન કરવા પણ આપણે હરહંમેશ તત્પર રહેવું જોઈએ જેથી પરમ શાન્તિ અને જીવન સિદ્ધિ મેળવી શકાય. (સ્થા. જૈન. તા. પ-૭-૫૬) શ્રી. અ. ભા. . સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના પ્રમુખશ્રી વગેરે. રાણપુર પરમ પવિત્ર સૌરાષ્ટ્રની પુણ્ય ભૂમિ પર જ્યારથી શાન્ત-શાસ્ત્રવિશારદ અપ્રમાદિ પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસલાલજી મહારાજનાં પુનિત પગલાં થયા છે ત્યારથી ઘણા લાંબા કાળથી લાગુ પડેલ જ્ઞાનાવરણિય કર્મનાં પડળ ઉતારવાને શુભ પ્રયાસ થઈ રહ્યો છે. અને જે પ્રવચનની પ્રભાવના તેઓશ્રી કરી રહ્યા છે તે અનંત ઉપકારક કાર્યમાં તમે જે અપૂર્વ સહાય આપી રહ્યા છે તે માટે તમે સર્વને ધન્ય છે અને એ શુભ પ્રવૃત્તિના શુભ પરિણામોને જનતા લાભ યે છે. મને તે સમજાય છે કે સાધુજી ઉઠે ગુણરથાનકે હોય છે. પણ પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ તે બહુધા સાતમેં અપ્રમત ગુણસ્થાનકે જ રહે છે. એવા અપ્રમત માત્ર પાંચ-સાત સાધુઓ. જે સ્થાનકવાસી જૈન સમાજમાં હોય તે સમાજનું શ્રેય થતાં જરાએ વાર ન લાગે. સમાજાકાશમાં સ્થા. જૈન સંપ્રદાયને દિવ્ય પ્રભાકર જળહળી નીકળે. ૫...ણ દિન શ્રી શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિને મ્હારી એક નમ્ર સુચના છે કે-પૂજ્યશ્રીની વૃદ્ધાવસ્થા છે; અને કાર્યપ્રણાલિકા યુવાનેને શરમાવે તેવી છે. તેમને ગામેગામ વિહાર કરવા અને શાસ્ત્રોદ્ધારનું કાર્ય કરવું તેમાં ઘણી શારીરિક-માનસિક અને વ્યવહારિક મુશ્કેલી વેઠવી પડે છે. તે કેઈ સ્થળ કે જ્યાંના શ્રાવકે ભક્તિવાળા હોય. વાડાના રાગના વિષથી અલીપ્ત હોય એવા કોઈ સ્થળે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કાર્ય પુર્ણ થાય ત્યાં સુધી સ્થીરતા કરી શકે એના માટે પ્રબંધ કર જોઈએ. બીજા કોઈ એવા સ્થળની અનુકુળતા ન મળે તે છેવટ અમદાવાદમાં યોગ્ય સ્થળે રહેવાની સગવડતા કરી અપાય તે વધુ સારું. મારી આ સુચના પર ધ્યાન આપવા ફરી યાદ આપું છું. ફરીવાર પુજય આચાર્યશ્રીને અને તેમના સત્કાર્યના સહાયકને મારા અભિનંદન પાઠવું છું તે સ્વીકારશે. લિ. સદાનંદી જૈનમુનિ છોટાલાલજી. Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ શ્રુત ભકિત (પૂ આચાર્ય શ્રી ઈશ્વરલાલજી મ. સા. ની આજ્ઞા અનુસાર લખનાર) દ. સં. ના જૈન મુનિ શ્રી દયાનંદજી મહારાજ તા. ૨૩-૬-૧૬ શાહપુર, અમદાવાદ, આજે લગભગ ૨૦ વર્ષથી શ્રદ્ધેય પરમપજ્ય, જ્ઞાન દિવાકર ૫. મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મ. ચરમ તીર્થકર ભગવાન મહાવીરેને અનુત્તર, અનુપમ ન્યાય યુક્ત, પૂર્વાપર અવિરોધ, સ્વપર કલયાણકારક, ચરમ શીતળ વાણીના ઘાતક એવા શ્રી જિનાગમ પર પ્રકાશ પાડે છે. તેઓશ્રી પ્રાચીન, પીત્ય સંસ્કૃતાદિ અનેક ભાષાના પ્રખર પંડિત છે અને જિન વાને પ્રકાશ સંસ્કૃત, ગુજરાતી અને હિંદીમાં મૂળ શબ્દાર્થ, ટીકા, વિસ્તૃત વિવરણ સાથે પ્રકાશમાં લાવે છે એ જૈન સમાજ માટે અતિ ગોરવ અને આનંદને વિષય છે. ભ૦ મહાવીર અત્યારે આપણી પાસે વિદ્યમાન નથી. પરંતુ તેમની વાણું રૂપ અક્ષરદેહ ગણધર મહારાજેએ શ્રુત પરંપરાએ સાચવી રાખે. શ્રુત પરંપરાથી સચવાતું જ્ઞાન જ્યારે વિસ્મૃત થવાને સમય ઉપસિથત થવા લાગે ત્યારે શ્રી દેવદ્ધિગણિ ક્ષમાશમણે વભીપુર-વળામાં તે આગમેને પુસ્તક રૂપે આરૂઢ કયા આજે આ સિદ્ધાંતે આપણું પાસે છે. તે અર્ધ ભાગધી પાલી ભાષામાં છે. અત્યાર આ ભાષા ભગવાનની, દેવેની તથા જનગણની ધર્મ ભાષા છે. તેને આપણું શમણે અને શ્રમણીઓ તથા મુમુક્ષુ શ્રાવક શ્રાવિકાઓ મુખપાઠ કરે છે; પરંતુ તેને અર્થ અને ભાવ ઘણું ચેડાઓ સમજે છે. જિનાગમ એ આપણું શ્રદ્ધેય પવિત્ર ધર્મસૂત્ર છે. એ આપણી આંખે છે. તેને અભ્યાસ કરે એ આપણી સૌની–જેન માત્રની ફરજ છે. તેને સત્ય સ્વરૂપ સમજાવવા માટે આપણું સદ્ભાગ્યે જ્ઞાન દિવાકર શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજે સત્સક કર્યો છે અને તે લિખિત સૂત્રને પ્રગટાવી શાસ્ત્રોદ્ધાર સમીતી દ્વારા જ્ઞાન પરબ વહેતા કરી છે. આવા અનુપમ કાર્યમાં સકળ જેને સહકાર અવશ્ય હો ઘટે અને તેને વધારેમાં વધારે પ્રચાર થાય તે માટે પ્રયત્નો કરવા ઘટે. ભ૦ મહાવીરને ગણધર ગોતમ પૂછે છે કે હે ભગવાન, સૂત્રની આરાધના કરવાથી શું ફળ પ્રાપ્ત થાય છે? ભગવાને તેને પ્રતિ ઉત્તર આપે છે કે શ્રતની આરાધનાથી જીવેના અજ્ઞાનને નાશ થાય છે. અને તેઓ સંસારના કલેશોથી નિવૃત્તિ મેળવે છે. અને સંસાર કલેશેથી નિવૃત્તિ અને અજ્ઞાનને નાશ થતાં મોક્ષ ફળની પ્રાપ્તિ થાય છે. આવા જ્ઞાન કાર્યમાં મૂર્તિપૂજક જૈન, દિગંબરે અને અન્ય ધર્મીઓ હજારે અને લાખ રૂપિયા ખર્ચે છે. હિંદુ ધર્મમાં પવિત્ર મનાતા ગ્રંથ ગીતાના સેંકડે નહિ પણ હજારે ટીકા છે દુનિયાની લગભગ સર્વ ભાષાઓમાં પ્રગટ થયા છે, ઈસાઈ ધર્મના પ્રચારકે તેમના પવિત્ર ધર્મ ગ્રન્થ બાઈબલના પ્રચારાર્થે તેનું જગતની સર્વ ભાષાઓમાં ભાષાંતર કરી, તેને પડતર કરતાં પણ ઘણી ઓછી કિંમતે વેચી ધમ. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ સુને પ્રચાર કરે છે. મુસ્લીમ લેકે પણ તેમના પવિત્ર મનાતા ગ્રન્થ કુરાનનું પણ અનેક ભાષાઓમાં ભાષાંતર કરી સમાજમાં પ્રચાર કરે છે. આપણે પૈસા પર મેહ ઉતારી ભગવાનના સિદ્ધાંતને પ્રચાર કરવા માટે તન, મન, ધન સમર્પણ કરવાં જોઈએ. અને સત્ર પ્રકાશનના કાર્યને વધુ ને વધુ વેગ મળે તે માટે સક્રિય પ્રયત્ન કરવા જોઈએ એવા પવિત્ર કાર્યમાં સાંપ્રદાયિક મતભેદ સોએ ભૂલી જવા જોઈએ અને શુદ્ધ આશયથી થતા શુદ્ધ કાર્યને અપનાવી લેવું જોઈએ. સમિતિના નિયમાનુસાર રૂ. ૨૫૧ ભરી સમીતીના સભ્ય બનવું જોઈએ. ધાર્મિક અનેક ખાતાઓના મુકાબલે સૂત્ર પ્રકાશનનું-જ્ઞાન પ્રચારનું આ ખાતું સર્વશ્રેષ્ઠ ગણવું જોઈએ. આ કાર્યને વેગ આપવાની સાથે સાથે એ આગમ-ભગવાનની એ મહાવાનું પાન કરવા પણ આપણે હરહંમેશ તત્પર રહેવું જોઈએ જેથી પરમ શાંતિ અને જીવન સિદ્ધિ મેળવી શકાય. ( સ્થા. જૈન. તા. ૫-૭-૫૬) શ્રી. અ. ભા. ૨. સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના પ્રમુખશ્રી વગેરે. રાણપુર પરમ પવિત્ર સૌરાષ્ટ્રની પુણ્ય ભૂમિ પર જ્યારથી શાન્ત-શાસ્ત્રવિશારદ અપ્રમાદિ પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજનાં પુનિત પગલાં થયા છે ત્યારથી ઘણું લાંબા કાળથી લાગુ પડેલ જ્ઞાનાવરણિય કર્મનાં પડળ ઉતારવાને શુભ પ્રયાસ થઈ રહ્યો છે. અને જે પ્રવચનની પ્રભાવના તેઓશ્રી કરી રહ્યા છે તે અનંત ઉપકારક કાર્યમાં તમે જે અપૂર્વ સહાય આપી રહ્યા છે તે માટે તમે સર્વને ધન્ય છે અને એ શુભ પ્રવૃત્તિના શુભ પરિણામોને જનતા લાભ લ્ય છે. મને તે સમજાય છે કે સાધુજી છઠે ગુણસ્થાનકે હોય છે. પણ પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ તે બહુધા સાતમેં અપ્રમત ગુણસ્થાનકે જ રહે છે. એવા અપ્રમત માત્ર પાંચ-સાત સાધુઓ. જે સ્થાનકવાસી જૈન સમાજમાં હોય તે સમાજનું શ્રેય થતાં જરાએ વાર ન લાગે. સમાજાકાશમાં સ્થા. જૈન સંપ્રદાયને દિવ્ય પ્રભાકર જળહળી નીકળે. પણ દિન શ્રી શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિને મ્હારી એક નમ્ર સુચન છે કે–પૂજ્યશ્રીની વૃદ્ધાવસ્થા છે; અને કાર્યપ્રણાલિકા યુવાનને શરમાવે તેવી છે. તેમને ગામેગામ વિહાર કરવા અને શાસ્ત્રોદ્ધારનું કાર્ય કરવું તેમાં ઘણી શારીરિક-માનસિક અને વ્યવહારિક મુશ્કેલી વેઠવી પડે છે. તે કેઈ યેગ્ય સ્થળ કે જ્યાંના શ્રાવકે ભક્તિવાળા હોય. વાડાના રાગના વિષથી અલીપ્ત હોય એવા કોઈ સ્થળે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કાર્ય પૂર્ણ થાય ત્યાં સુધી સ્થીરતા કરી શકે એના માટે પ્રબંધ કરે જઈએ. બીજા કોઈ એવા સ્થળની અનુકુળતા ન મળે તે છેવટ અમદાવાદમાં યોગ્ય સ્થળે રહેવાની સગવડતા કરી અપાય તે વધુ સારૂં. હારી આ સુચના પર ધ્યાન આપવા ફરી યાદ આપું છું. ફરીવાર પુજ્ય આચાર્યશ્રીને અને તેમના સત્કાર્યના સહાયકને મારા અભિનંદન પાઠવું છું તે સ્વીકારશે. લિ. સદાનંદી જેનમુનિ છોટાલાલજી. - - - - - - - - - - Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . શ્રુત ભકિત (પૂ આચાર્ય શ્રી ઈશ્વરલાલજી મ. સા. ની આજ્ઞા અનુસાર લખનાર) ૬. સં. ના જન મુનિ શ્રી દયાનંદજી મહારાજ તા. ૨૩-૬-૫૬ શાહપુર, અમદાવાદ આજે લગભગ ૨૦ વર્ષથી શ્રદ્ધેય પરમપ, સાન દિવાકર પ. મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મ. ચરમ તીર્થકર લાગવાન ગાવીરના અનુત્તર, અનુપમ ન્યાય યુક્ત પૂર્વાપર અવિરોધ, સ્વપર કલાકારક, ચરમ શીતળ વાણના તક એવા શ્રી જિનાગમ પર પ્રકાશ પાડે છે. તેથી પ્રાચીન, પર્વાત્ય સંસ્કૃત અનેક ભાષાના પ્રખર પંડિત છે અને જિન વાણીને પ્રકાશ સંસ્કૃત, ગુજરાતી અને હિંદીમાં મૂળ શબ્દાર્થ, ટીકા, વિરતૃત વિવરણ સાથે પ્રકાશમાં લાવે છે એ જૈન સમાજ માટે અતિ ગૌરવ અને આનંદને વિષય છે. ભ૦ મહાવીર અત્યારે આપણી પાસે વિદ્યમાન નથી, પરંતુ તેમની વાણી રે અક્ષરદેહ ગણધર મહારાજેએ શ્રત પરંપરાએ સાચવી રાખ્યું. શ્રુત પરંપરા સચવાતું જ્ઞાન જ્યારે વિસ્મૃત થવાને સમય ઉપસ્થિત થવા લાગે ત્યારે શ્રી દેવદ્વિગણિ ક્ષમાથમણે વલભીપુર-વળામાં તે આગમને પુસ્તક રૂપે આરૂઢ કયા આજે આ સિદ્ધાંતે આપણે પાસે છે. તે અર્ધમાગધી પાલી ભાષામાં છે. અત્યાર આ ભાષા ભગવાનની, દેવાની તથા જનગણની ધર્મ ભાષા છે. તેને આપણ શ્રમ અને શ્રમણીઓ તથા મુમુક્ષુ શ્રાવક શ્રાવિકાઓ મુખપાઠ કરે છે, પરંતુ તેને ૨મય અને ભાવ ઘણુ ઘેડાએ સમજે છે. જિનાગમ એ આપણું શ્રદ્ધેય પવિત્ર ધર્મસૂત્ર છે. એ આપણી આંખે છે. તેને અભ્યાસ કરે એ આપણી સૌન-જૈન માત્રની ફરજ છે. તેને સત્ય સ્વરૂપ સમજાવવા માટે આપણું સદભાગ્યે જ્ઞાન દિવાકર શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજે સત્સક કર્યો છે અને તે લિખિત સૂત્રને પ્રગટાવ શાસ્ત્રોદ્વાર સમીતી દ્વારા જ્ઞાન પરબ વહેતી કરી છે, આવા અનુપમ કાર્યમાં સકળ જેનેને સહકાર અવશ્ય હાવ ઘટે અને તેના વધારેમાં વધારે પ્રચાર થાય તે માટે પ્રયત્ન કરવા ઘટે. ભ૦ મહુવીરને ગણધર ગૌતમ પૂછે છે કે હે ભગવાન, સુત્રની આરાધના કરવાથી શું ફળ પ્રાપ્ત થાય છે? ભગવાન તેને પ્રતિ ઉત્તર આપે છે કે શ્રતની આરાધનાથી જીવેના જ્ઞાનને નાશ થાય છે. અને તેઓ સંસારના કલેશથી નિવૃત્તિ મેળવે છે. અને સંસાર કલેશથી નિવૃત્તિ અને અજ્ઞાનને નાશ થતાં મોક્ષ કુળની પ્રાપ્તિ થાય છે. આ સાન કાર્યમાં મૂર્તિપૂજક જૈન, દિગંબરે અને અન્ય ધમઓ હરે અને લાખ રૂપિયા ખર્ચે છે. હિંદુ ધર્મમાં પવિત્ર મનાતા ગ્રંથ ગીતાના સેંકડે નહિ પણ હજાર ટીકા છે દુનિયાની લગભગ સર્વ ભાષાઓમાં પ્રગટ થયા છે. કંઈ ધર્મના પ્રચારકે તેમના પવિત્ર ધર્મગ્રન્થ બાઈબલના પ્રચારા તેનું જગતની સર્વ ભાષામાં ભાષાંતર કરી, તેને પડતર કરતાં પણ ઘણી ઓછી કિંમતે વેચી ધર્મ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી ઉપાશક દશાંગ સુરને માટે અભિપ્રાય. મૂળ સૂત્ર તથા પૂ. મુનિશ્રી ઘાસીલાલજીએ બનાવેલ સંસ્કૃત છાયા તથા ટીકા અને હિંદી તથા ગુજરાતી-અનુવાદ સહિત, પ્રકાશક- અ. ભા. ૨. સ્થાનકવાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ, ગરેડીઆ કુવા રેડ, ગ્રીન લેજ પાસે, રાજકોટ. (સૌરાષ્ટ્ર) પૃષ્ઠ ૬૧૬ બીજી આવૃત્તિ બેવડું (મેટું) કદ, પાકું પૂઠું. જેકેટ સાથે સને ૧૯૫૬ કિંમત રૂ. ૮-૮-૦ આપણા મૂળ બાર અંગ સૂત્રમાંનું ઉપાશક દશાંગ એ સાતમું અંગ સૂત્ર છે, એમાં ભગવાન મહાવીરના દશ ઉપાસકે શ્રાવકનાં જીવનચરિત્રે આપેલાં છે તેમાં પહેલું ચરિત્ર આનંદ શ્રાવકનું આવે છે. આનંદ શ્રાવકે જૈન ધર્મ અંગીકાર કર્યો અને બારવ્રત ભગવાન મહાવીર પાસે અંગીકાર કરી પ્રતિજ્ઞા (પ્રત્યાખ્યાન) લીધાં તેનું સવિસ્તર વર્ણન આવે છે. તેની અંતર્ગત અનેક વિષયે જેવા કે, અભિગમ, લેકાલેકસ્વરૂપ, નવતત્વ, નરક દેવલેક વગેરેનું વર્ણન પણ આવે છે. આનંદ શ્રાવકે બાર વ્રત લીધા તે બારે વ્રતની વિગત અતિચારની વિગત વગેરે બધું આપેલું છે. તે જ પ્રમાણે બીજા નવ શ્રાવકેની પણ વિગત આપેલ છે. આનંદ શ્રાવકની પ્રતિજ્ઞામાં અરિહૃત પર્દ શબ્દ આવે છે. મૂર્તિપૂજક મૃર્તિપૂજા સિદ્ધ કરવા માટે તેને અર્થ અરિહંતનું ચિત્ય (પ્રતિમા) એ કરે છે. પણ તે અર્થ તદન ખેટે છે. અને તે જગ્યાએ આગળ પાછળના સંબંધ પ્રમાણે તેને એ છેટે અર્થ બંધ બેસતું જ નથી તે મુનિશ્રી ઘાસીલાલજીએ તેમની ટીકામાં અનેક રીતે પ્રમાણે આપી સાબિત કરેલ છે અને અરિહંત રેફયાઉં ને અર્થ સાધુ થાય છે તે બતાવી આપેલ છે. આ પ્રમાણે આ સત્રમાંથી શ્રાવકના શદ્ધ ધર્મની માહિતી મળે છે તે ઉપરાંત તે શ્રાવકેની દ્ધિ, રહેઠાણુ, નગરી વગેરેના વર્ણને ઉપરથી તે વખતની સામાજિક સ્થિતિ, રીતરિવાજ રાજવ્યવસ્થા વગેરે બાબતેની માહિતી મળે છે. એટલે આ સૂત્ર દરેક શ્રાવકે અવશ્ય વાંચવું જોઈએ એટલું જ નહિ પણ વારંવાર અધ્યયન કરવા માટે ઘરમાં વસાવવું જોઈએ. પુસ્તકની શરૂઆતમાં વદ્ધમાન શ્રમણ સંઘના આચાર્યશ્રી આત્મારામજી મહારાજનું સંમતિ પત્ર તથા બીજા સાધુઓ તેમજ શ્રાવકેના સંમતિ પત્રે આપેલા છે, તે સૂત્રની પ્રમાણભૂતતાની ખાત્રી આપે છે. જ જૈન સિદ્ધાંત” જાન્યુઆરી, ૫૭ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० “ જૈન સિદ્ધાંતના” તત્રીશ્રીના અભિામાય, સ્થાનકવાસીઓમાં પ્રમાણુભૂત સૂત્ર બહાર પાડનારી આ એકની એક સંસ્થા છે. અને એના આ છેલ્લા રિપેર્ટ ઉપરથી જણાય છે કે તેણે ઘણી સારી પ્રગતિ કરી છે તે જોઇ આનંદ થાય છે. મૂળ પાઠે, ટીકા, હિંદી તથા ગુજરાતી અનુવાદ સહિત સુત્રા બહાર પાડવાં એ કાંઇ સહેલું કામ નથી. એ એક મહાભારત કામ છે અને તે કામ આ શાસ્રોદ્ધાર સમિતિ ઘણી સફળતાથી પાર પાડી રહી છે તે સ્થાનકવાસી સમાજ માટે ઘણા ગૌરવને વિષય છે અને સમિતિ ધન્યવાદને પાત્ર છે. સમિતિ તરફથી નવસૂત્રે બહાર પડી ચૂકયાં છે, હાલમાં ત્રણ સૂત્રેા છપાય છે. નવ સૂત્ર લખાઈ ગયાં છે અને જંબુદ્રીપ પ્રજ્ઞપ્તિ તથા નદીસૂત્ર તૈયાર થઇ રહ્યાં છે. હાલમાં મત્રી શ્રી સાકરચંદ ભાઈચ'દ સમિતિના કામમાં જ તેમને આખા વખત ગાળે છે અને સમિતિના કામકાજને ઘણા વેગ આપી રહ્યા છે. તેમની ખંત માટે ધન્યવાદ. અને આ મહાભારત કામના મુખ્ય કાર્યકર્તા તા છે ઘાસીલાલજી મહારાજ, મૂળ પાઠેનું સંશાધન તથા સંસ્કૃત કરે છે. મુનિશ્રીના આ ઉપકાર આખાય સ્થા. જૈન સમાજ એ ઉપકારના બદલે તે વાળી શકાય તેમજ નથી. વયેવૃદ્ધ પડિંત મુનિશ્રી ટીકા તેએાશ્રી જ તૈયાર ઉપર ઘણા મહાન છે. પરંતુ આ સમિતિના મેમ્બર બની, તેના બહાર પડેલાં સુત્ર ઘરમાં વસાવી તેનું અધ્યયન કરવામાં આવે તે જ મહારાજશ્રીનુ થોડું ઋણ અદા કર્યું" ગણાય. ભગવાને કહ્યું છે કે પઢમં નાળ તો થા પહેલ જ્ઞાન પછી દયા, દયા ધર્મને યથાર્થ સમજવા હોય તે ભગવાનની વાણીરૂપ આપણા સૂત્ર વાંચવાંજ જોઇએ તેનું અધ્યયન કરવું જોઈએ અને તેના ભાવાર્થ યથાર્થ સમજવા જોઈએ. એટલા માટે આ શાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિના સર્વાં સૂત્રેા દરેક સ્થા.જૈને પેાતાના ઘરમાં વસાવવાંજ જોઈએ સર્વ ધર્મીજ્ઞાન આપણા સૂત્રામાંજ સમાયલું છે અને સૂત્ર સહેલાઇથી વાંચીને સમજી શકાય છે, માટે દરેક સ્થા. જૈન આ સૂત્ર વાંચે એ ખાસ જરૂરનું છે. “ જૈન સિદ્ધાંત” ડીસેમ્બર- ૫૬ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી ઉપાશક દશાંગ સૂત્રને માટે અભિપ્રાય. મૂળ સુત્ર તથા પૂ. મુનિશ્રી ઘાસીલાલજીએ બનાવેલ સંસકૃત છાયા તથા ટીકા અને હિંદી તથા ગુજરાતી-અનુવાદ સહિત. પ્રકાશક- અ. ભા. ૨. સ્થાનકવાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ, ગરેડીઆ કુવા રેડ, ગ્રીન લેજ પાસે, રાજકોટ. (સૌરાષ્ટ્ર) પૃષ્ઠ ૬૧૬ બીજી આવૃત્તિ બેવડું (મિટું કદ. પાકું પુછું. જેકેટ સાથે સને ૧લ્પદ કિંમત રૂા. ૮-૮-૦ આપણુ મૂળ બાર અંગ સુમાંનું ઉપાશક દશાંગ એ સાતમું અંગ સુત્ર છે, એમાં ભગવાન મહાવીરના દશ ઉપાસકે શ્રાવકેનાં જીવનચરિત્ર આપેલાં છે તેમાં પહેલું ચરિત્ર આનંદ શ્રાવકનું આવે છે. આનંદ શ્રાવકે જૈન ધર્મ અંગીકાર કર્યો અને બારવ્રત ભગવાન મહાવીર પાસે અંગીકાર કરી પ્રતિજ્ઞા (પ્રત્યાખ્યાન) લીધાં તેનું સવિસ્તર વર્ણન આવે છે. તેની અંતર્ગત અનેક વિ જેવા કે, અભિગમ, કાલકસ્વરૂપ, નવતત્વ, નરક દેવલેક વગેરેનું વર્ણન પણ આવે છે. આનંદ શ્રાવકે બાર વ્રત લીધા તે બારે વ્રતની વિગત અતિચારની વિગત વગેરે બધું આપેલું છે. તે જ પ્રમાણે બીજા નવ શ્રાવકેની પણ વિગત આપેલ છે. આનંદ શ્રાવકની પ્રતિજ્ઞામાં અરિત વાર્દ શબ્દ આવે છે. મૂર્તિપૂજકે મૃર્તિા સિદ્ધ કરવા માટે તેને અર્થ અરિહંતનું ચિત્ય (પ્રતિમા) એ કરે છે. પણ તે અર્થ તદન ખેડે છે. અને તે જગ્યાએ આગળ પાછળના સંબંધ પ્રમાણે તેને એ પેટે અર્થ બંધ બેસતું જ નથી તે મુનિશ્રી ઘાસીલાલજીએ તેમની ટીકામાં અનેક રીતે પ્રમાણે આપી સાબિત કરેલ છે અને રિહંત વાર્દ ને અર્થ સાધુ થાય છે તે બતાવી આપેલ છે. આ પ્રમાણે આ સૂત્રમાંથી શ્રાવકને શુદ્ધ ધર્મની માહિતી મળે છે તે ઉપરાંત તે શ્રાવકેની અદ્ધિ, રહેઠાણ, નગરી વગેરેના વર્ણને ઉપરથી તે વખતની સામાજિક સ્થિતિ, રીતરિવાજ રાજવ્યવસ્થા વગેરે બાબતેની માહિતી મળે છે. એટલે આ સૂત્ર દરેક શ્રાવકે અવશ્ય વાંચવું જોઈએ એટલું જ નહિ પણ વારંવાર અધ્યયન કરવા માટે ઘરમાં વસાવવું જોઈએ. પુસ્તકની શરૂઆતમાં વદ્ધમાન શ્રમણ સંઘના આચાર્યશ્રી આત્મારામજી મહારાજનું સંમતિ પત્ર તથા બીજા સાધુએ તેમજ શ્રાવકેના સંમતિ પત્રે આપેલા છે, તે સૂત્રની પ્રમાણભૂતતાની ખાત્રી આપે છે. “જેને સિદ્ધાંત” જાન્યુઆરી, ૫૭ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જેન સિદ્ધાંતના” તંત્રીશ્રીને અભિપ્રાય, સ્થાનક્વાસીઓમાં પ્રમાણભૂત સ બહાર પાડનારી આ એકની એક સંસ્થા છે. અને એના આ છેલા રિપોર્ટ ઉપરથી જણાય છે કે તે ઘણી સારી પ્રગતિ કરી છે તે જોઈ આનંદ થાય છે. મૂળ પાઠ, ટીકા, હિંદી તથા ગુજરાતી અનુવાદ સહિત રાત્રે બહાર પાડવાં એ કાંઈ સહેલું કામ નથી. એ એક મહાભારત કામ છે અને તે કામ આ શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ ઘણું સફળતાથી પાર પાડી રહી છે તે સ્થાનકવાસી સમાજ માટે ઘણા ગૌરવને વિષય છે અને સમિતિ ધન્યવાદને પાત્ર છે. સમિતિ તરફથી નવસૂત્રે બહાર પડી ચૂકયા છે. હાલમાં ત્રણ સૂત્ર છપાય છે. નવ સૂત્રે લખાઈ ગયાં છે અને જંબુદ્વીપ પ્રજ્ઞપ્તિ તથા નંદીસૂત્ર તૈયાર થઈ રહ્યા છે. હાલમાં મંત્રી શ્રી સાકરચંદ ભાઈચંદ સમિતિના કામમાં જ તેમને આખા વખત ગાળે છે અને સમિતિના કામકાજને ઘણે વેગ આપી રહ્યા છે. તેમની અ માટે ધન્યવાદ. અને આ મહાભારત કામના મુખ્ય કાર્યકર્તા તે છે વાદ્ધ પંડિત મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ, મૂળ પાઠનું સંશોધન તથા સંસ્કૃત ટીકા તેઓશ્રી જ તૈયાર કરે છે મુનિશ્રીને આ ઉપકાર આખાય સ્થા. જૈન સમાજ ઉપર ઘણે મહાન છે. એ ઉપકારને બદલે તે વાળી શકાય તેમજ નથી. પરંતુ આ સમિતિના મેમ્બર બની, તેને બહાર પડેલાં સૂત્રે ઘરમાં વસાવી તેનું અધ્યયન કરવામાં આવે તે જ મહારાજશ્રીનું થોડું ત્રાણ અદા કર્યું ગણાય ભગવાને કહ્યું છે કે ઘરમાં પાપ તો ત્યાં પહેલું જ્ઞાન પછી દયા, દયા ધર્મ યથાર્થ સમજ હોય તે ભગવાનની વાણીરૂપ આપણું સૂત્ર વાંચવા જોઈએ તેનું અધ્યયન કરવું જોઈએ અને તેને ભાવાર્થ યથાર્થ સમજ જોઈએ. એટલા માટે આ શાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિના સર્વ સૂત્રે દરેક સ્થા જેને પિતાના ઘરમાં વસાવવા જ જોઈએ સર્વ ધર્મજ્ઞાન આપણું સૂત્રામાં જ સમાયેલું છે અને સૂત્ર સહેલાઈથી વાંચીને સમજી શકાય છે, માટે દરેક સ્થા. જૈન આ સૂત્ર વાંચે એ ખાસ જરૂરનું છે. જેન સિદ્ધાંત” ડિસેમ્બર- ૫૬ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી ઉપાશક દશાંગ સત્રને માટે અભિપ્રાય. મૂળ સુત્ર તથા પૂ. મુનિશ્રી ઘાસીલાલજીએ બનાવેલ સંસ્કૃત છાયા તથા ટીકા અને હિંદી તથા ગુજરાતી-અનુવાદ સહિત. પ્રકાશક- અ. ભા.. સ્થાનકવાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ, ગરેડીઆ કુવા રેડ, ગ્રીન લેજ પાસે, રાજકોટ. (સૌરાષ્ટ્ર) પૃષ્ઠ ૬૧૬ બીજી આવૃત્તિ બેવડું (મ) કદ. પાકું પુછું. જેકેટ સાથે સને ૧૯૫૬ કિંમત રૂ. ૮-૮-૦ આપણું મૂળ બાર અંગ સૂત્રમાંનું ઉપાશક દશાંગ એ સાતમું અંગ સૂત્ર છે, એમાં ભગવાન મહાવીરના દશ ઉપાસકે શ્રાવકેનાં જીવનચરિત્ર આપેલાં છે તેમાં પહેલું ચરિત્ર આનંદ શ્રાવકનું આવે છે. આનંદ શ્રાવકે જૈન ધર્મ અંગીકાર કર્યો અને બારવ્રત ભગવાન મહાવીર પાસે અંગીકાર કરી પ્રતિજ્ઞા (પ્રત્યાખ્યાન) લીધાં તેનું સવિસ્તર વર્ણન આવે છે. તેની અંતર્ગત અનેક વિષયો જેવા કે, અભિગમ, લેકાલકસ્વરૂપ, નવતત્વ, નરક દેવલેક વગેરેનું વર્ણન પણ આવે છે. આનંદ શ્રાવકે બાર વ્રત લીધા તે બારે વ્રતની વિગત અતિચારની વિગત વગેરે બધું આપેલું છે. તે જ પ્રમાણે બીજા નવ શ્રાવકેની પણ વિગત આપેલ છે. આનંદ શ્રાવકની પ્રતિજ્ઞામાં અરિહૃત યા શબ્દ આવે છે. મૂર્તિપૂજક મૂર્તિપૂજા સિદ્ધ કરવા માટે તેને અર્થ અરિહંતનું ચિત્ય (પ્રતિમા) એ કરે છે. પણ તે અર્થ તદન ખેટે છે. અને તે જગ્યાએ આગળ પાછળના સંબંધ પ્રમાણે તેને એ છેટે અર્થ બંધ બેસતું જ નથી તે મુનિશ્રી ઘાસીલાલજીએ તેમની ટીકામાં અનેક રીતે પ્રમાણે આપી સાબિત કરેલ છે અને અરિહંત વેપાછું ને અર્થ સાધુ થાય છે તે બતાવી આપેલ છે. આ પ્રમાણે આ સૂત્રમાંથી શ્રાવકના શુદ્ધ ધર્મની માહિતી મળે છે તે ઉપરાંત તે શ્રાવકેની અદ્ધિ, રહેઠાણ, નગરી વગેરેના વર્ણને ઉપરથી તે વખતની સામાજિક સ્થિતિ, રીતરિવાજ રાજવ્યવસ્થા વગેરે બાબતેની માહિતી મળે છે. એટલે આ સૂત્ર દરેક શ્રાવકે અવશ્ય વાંચવું જોઈએ એટલું જ નહિ પણ વારંવાર અધ્યયન કરવા માટે ઘરમાં વસાવવું જોઈએ. પુસ્તકની શરૂઆતમાં વર્તમાન શ્રમણ સંઘના આચાર્યશ્રી આત્મારામજી મહારાજનું સંમતિ પત્ર તથા બીજા સાધુઓ તેમજ શ્રાવકેના સંમતિ પત્રે આપેલા છે, તે સૂત્રની પ્રમાણભૂતતાની ખાત્રી આપે છે. જૈન સિદ્ધાંત” જાન્યુઆરી, ૫૭ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - સમિતિના પ્રમુખ અને આ ઘ મુરબ્બીશ્રી, - શેઠ શાન્તિલાલ મંગળદાસને ટુંક પરિચય ( શ્રી શાન્તિલાલ મંગળદાસને જન્મ ઈ. સ. ૧૯૦૧ નાં ઓગષ્ટની ત્રીજી તારીખે તેમનાં મેસાળ ચેવડોદરામાં થયો હતે. વિદ્યાર્થી અવસ્થામાં જ એમનામાં રહેલી તિવ્ર બુદ્ધિ જુદી તરી આવતી હતી . સ. ૧૯૧૯માં અમદાવાદ કેન્દ્રમાંથી મેટ્રીકમાં પાસ થનાર પ્રથમ દસ વિદ્યાર્થી એમાંના તેઓ એક હતાં. ત્યારબાદ ઈ. સ. ૧૯૨૩માં અર્થશાસ્ત્ર વિષય લઈ તેઓ 8. A. થયા. એ જમાનામાં બહુ ડાં ધનિક કુબો ઉચ્ચ અભ્યાસમાં રસ લેતા હતા. : ગ્રેજયુએટ થયા બાદ તુરતજ એમના ઉપર-ધંધાની જવાબદારી આવી પડી. યુવાન વય, તિવ્ર બુદ્ધિ, વિશાળ વાંચન અને મનને તેમને નવીજ દૃષ્ટિ આપી હતી અને તેમની સમક્ષ આવતા ઉદ્યોગના અનેક વિકટ સવાલને તેમણે બહે કુશળતાથી ઉકેલવા માંડયા. ૧૯૪૫માં એ અમદાવાદ મિલ માલિક મંડળના પ્રમુખ બન્યા. હિંદના તેમજ ખાસ કરીને ગુજરાત-સૌરાષ્ટ્રનાં વેપારનાં પ્રાણ પ્રશ્નોના તળપદા અભ્યાસે મિલમાલિક મંડળના પ્રમુખ તરીકેની કામગરીને વધુ દીપાવી. ૧૯૪૮થી હિંદી વેપારી મહામંડળના તેઓ સભ્ય છે અને ૧૯૫૪-પપ અને ૧સ્પપ-પદનાં વર્ષ માટેના દેશના આ સૌથી મોટા વેપારી મહામંડળના તેઓ અનુક્રમે ઉપપ્રમુખ અને પ્રમુખ હતા. આજે તે ગુજરાત-સૌરાષ્ટ્રને ખૂબજ ઉપયોગી નિવડેલી તેમની અસાધારણ શકિતઓને દેશવ્યાપી ક્ષેત્ર મળ્યું છે. ૧૯૩૮-૩લ્માં તેઓ ઈન્ટરનેશનલ લેબર એનીઝેશન ( . . ૦) માં ભાગ લેવા ગયેલ ભારતીય પ્રતિનિધિ મંડળના તેઓ સરકાર તરફથી નિયુકત થયેલ સલાહકાર હતા. ૧૯૪૬માં અને ૧૯૪૮માં બુરેસ અને જીનીવા મુકામે ભરાયેલ . . ૦ માં તેઓએ માલિકાના પ્રતિનિધિ તરીકે અગત્યને ભાગ લીધો હતે. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂા. ૧૦,૦૦૦ આપનાર આદ્ય મુરબ્બીશ્રી, સમિતિના પ્રમુખ દાનવીર શેઠશ્રી છે - 1 ' 1. 5 * . • • • • * * મિક શેઠ શાંતિ લા લ મ ગ ી દા સ ભ છે અ મ દાવા દ. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨ સમિતિના પ્રમુખ અને આધ સુ૨ખ્ખી શ્રી, રોઝ રાન્તિલાલ મગળદાસના ટુક પરિચચ શ્રી શાન્તિલાલ મૉંગળદાસના જન્મ ઇ. સ. ૧૯૦૧ નાં ‘ઓગષ્ટની ત્રીજી તારીખે તેમનાં મોસાળ ચારવાદામાં થયા હતા. વિદ્યાથી અવસ્થામાંજ એમનામાં રહેલી તિવ્ર બુદ્ધિ જુદી તરી આવતી હતી. ઇ. સ. ૧૯૧૯માં અમદાવાદ કેન્દ્રમાંથી મેટ્રીકમાં પાસ થનાર પ્રથમ દસ વિદ્યાથી એમાંના તેઓ એક હતાં. ત્યારબાદ ઈ. સ. ૧૯૨૩માં અર્થશાસ્ત્રને વિષય લઈ તે B. A. થયા. એ જમાનામાં બહુ ચેડાં ધનિક કુટુંબે ઊચ્ચ અભ્યાસમાં રસ લેતા હતા. જવાબદારી આવી પડી. નવીજ દૃષ્ટિ માી ગ્રેજ્યુએટ થયા આદ તુરતજ એમના ઉપર ધંધાની યુવાન વય, તિવ્ર બુદ્ધિ, વિશાળ વાંચન અને મનને તેમને હતી અને તેમની સમક્ષ આવતા ઉદ્યોગના અનેક વિકટ સવાલેને તેમણે ખરું કુશળતાથી ઉકેલવા માંડયા. ૧૯૪૫માં એ અમદાવાદ મિલ માલિક મંડળના પ્રમુખ બન્યા, હિંદના તેમજ ખાસ કરીને ગુજરાત-સૌરાષ્ટ્રનાં વેપારનાં પ્રાણ પ્રશ્નોના તળપદા અભ્યાસે મિલમાલિક મંડળના પ્રમુખ તરીકેની કામગરીને વધુ દીપાવી. ૧૯૪૮થી હિંદી વેપારી મહામ’ડળના તેઓ સભ્ય છે અને ૧૯૫૪-૫૫ અને ૧૯૫૫-૫૬નાં વર્ષ માટેના દેશના આ સૌથી મોટા વેપારી મહામ`ડળના તેએ અનુક્રમે ઉપપ્રસુખ અને પ્રમુખ હતા આજે તે ગુજરાત-સૌરાષ્ટ્રને ખૂમજ ઉપયેગી નિવડેલી તેમની અસાધારણ શકિતમાને દેશવ્યાપી ક્ષેત્ર મળ્યું છે, ૧૯૩૮-૩૯માં તેઓ ઇન્ટરનેશનલ લેમર માર્ગેનીઝેશન (L, ૦) માં ભાગ લેવા ગયેલ ભારતીય પ્રતિનિધિ મંડળના તેઓ સરકાર તરફથી નિયુક્ત થયેલ સલાહકાર હતા. ૧૯૪૬માં અને ૧૯૪૮માં યુરેલ્સ અને જીનીવા મુકામે ભરાયેલ . L, ૦, માં તેઓએ માલિકાના પ્રતિનિધિ તરીકે અગત્યના ભાગ લીધેા હતેા, Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 સામાન્ય નિયમ છે કે શ્રી અને સરસ્વતીને બહુ સબંધ તા નથી. શ્રી રતિલાલ અને તેમનું કુટુંબ આમાં અપવાદરૂપ છે. ધનપતિ હોવા છતાં એ સાહિત્ય અને સંસ્કારીતાના પૂજક છે, એમની વિનમ્રતા અને સાદાઇ હજ્જુએ એ તળવી છે. અનેક શિક્ષણ સંસ્થાઓ માટે આજે પણ એ પેાતાની અનેકવિધ પ્રવૃત્તિમાંથી સમય બચાવી લે છે, એજ તેમનાં વિદ્યાપ્રેમના સચાટ પુશવા છે. ઉદ્યોગ ૐ તેમને વારસામાંજ મળ્યા છે અને એ વારસાને તેમણે Àાભાષ્યે છે. એમની દૃષ્ટિ આજનાં પ્રશ્નોને વૈજ્ઞાનીક રીતે છતુવાની તે છે જ પણ વતી કાલને પણ તેઓ એજ વૈજ્ઞાનીક અને વ્યવહારીક દૃષ્ટિથી નિહાળતાં હોય અને એટલે જ તે એમનાં સંચાલન તળે ચાલતી ચાર મિલે કાપડ ઉદ્યોગમાં સુંદર પ્રતિષ્ઠ જમાવી શકેલ છે. આ ઉપરાંત જુદી જુદી વ્યાપારી પ્રવૃત્તિએ રતી ઘણી કંપનીઓમાં તેઓ ટીરકટર તરીકે રહી ચાગ્ય માર્ગદર્શન અને દોરવણી પી રહ્યા છે. સૌરાષ્ટ્ર ફાઇનેન્સીયલ ઑપરેશનનાં તેઓ ડીરેકટર છે. સૌરાષ્ટ્ર નલ માલિક મંડળમાં તે તે તેની સ્થાપના થઈ ત્યારથી ઊા રસ દાખવે છે. જી હમજ઼ાં સુધી સતત પાંચ પાંચ વર્ષ સુધી તેનાં પ્રમુખપદે રહી તેમણે રાષ્ટ્રનાં આ ઉદ્યોગની દરેલી સેવાઓ ખરેખર અભિનદનને ચાગ્ય છે. જૈન દદ કરી રહ્યા છે. આ ઉપરાંત અનેક જૈન ને જૈનેતર સામાજીક સંસ્થાઓને સોલાર સમિતિનાં તેઓ પ્રમુખ છે. અને તેની પ્રવૃત્તિમાં ઘણા ઉત્સાહથી હંમેશાં એ સેવાઓ આપી રહ્યા છે. * Page #50 --------------------------------------------------------------------------  Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પરિવાર : અત્યારે તેમના પાંચ પુત્રે શ્રી લાલચંદભાઈ, જયચંદ્રભાઈ, નગિનદાસભાઈ, વૃજલાલભાઈ અને વલભદાસભાઈ એ પાંચે ભાઈઓ તેઓશ્રીને બહાળે વ્યવહાર અને વ્યાપાર બરાબર સુગ્ય રીતે સંભાળી રહ્યા છે. ભાગીદારી ? લગ્ન પછી સાં. ૧૯૬૮માં પાછા પરદેશ ગમન થયું. શરૂમાં વસનજી નથુભાઈ કના નામથી પેઢી ચાલતી હતી તેમાં તેઓ ભાગમાં ભળ્યા. તેમાંથી વારીયા નથુભાઈ મેઘજી, શ્રી વારીયા નથુભાઈ મુળજી, શ્રી વારીયા હરખચંદ કાલીદાસ, કેરીયા દેવજી જીવાભાઈ તથા શા. વસનજી હીરજીભાઈ એમ પાંચ ભાગીદાર હતા. તે પેઢી સંવત ૧૯૭૨માં જુદી થઈ અને શ્રી વસનજી હીરજી કે જે સ્વબળે આગળ વધ્યા હતા તેમણે પિતાની પેઢી શા. વસનજી હીરજીના નામથી જુદી કરી અને શ. નથુભાઈ મુળજીના નામથી પેઢી ખેલવામાં વારીયા નથુભાઈ મુળજી જેટલું જ હી હરખચંદભાઈને હિતે ઉપરની પેઢી ઉપરોકત નામથી એટલે કે શા. નથુભાઈ મુળજીના નામથી જે પેઢી શરૂ થઈ તેના પ્રાણસમા શ્રીયુત હરખચંદભાઈ તેમના જીવનના અંત સુધી રહ્યા હતા. અત્યારે પણ તે નામને શ્રી નથુભાઈ મુળજી તેમજ શ્રી હરખચંદ કાલીદાસના વારસે ઝળહળાવી રહ્યા છે. દૂર દૂરના દેશાવરમાં એકધારું લગભગ ૪પ વર્ષ થયાં કામકાજ ચાલે છે. તેના સંચાલનની દોર શ્રી હરખચંદભાઈના હાથમાં અંત સુધી રહી હતી અને તેઓશ્રીના અવસાન પછી પણ તેમના દોરેલા ચીલા ઉપર પેઢીને વ્યવહાર સરળ રીતે અત્યારે પણ ચાલે છે. અત્યારના સુકાનીઓએ પિતાના પૂર્વજ શ્રી નથુભાઈ તથા શ્રી હરખચંદભાઈના અંકિત કરેલ માગે પિતાની સફર ચાલુ રાખી છે અને તે સદાયે અવિચળ રહે તેવું આશિર્વચન કેઈપણ હિન્દી ઉચાર્યા વિના રહી શકે નહીં તેવી તેની ઉત્તમ છાપ ત્યાં પડી છે અને તે નર્યું સત્ય જ છે. હદની શાન : વર્ષે થયાં એકધારું “બીઝનેસ” ચાલતું હોવા છતાં એક શાહ સેદાગરની જેમ નથુભાઈ મુળજીની પેઢી ઉત્તરોત્તર કુલતી ફાલતી રહી છે વ્યાપારી આંટ અને ઈજ્જતને એ નાદર નમુને આજે પણ એ જ ધીર ગંભીરપણે પિતાનું કાર્ય ધપાવ્યે જાય છે. એકધારી લગભગ અડધી સદી થયાં ચાલતી આ પેઢીને રજ માત્ર ડાઘ લાગ્યું નથી તે તે સોકેઈ જાણે છે અને શાહ નથુભાઈ મુળજીની પુરાણું પેઢી Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આદ્ય મુરખ્ખીશ્રી, ३४ ભાણવડ નિવાસી શેઠ હરખચ'દ કાલીદાસ વારીયાનું જીવન ચરિત્ર. આ સંસ્થાને રૂા. ૬૦૦૦] છ હજાર જેવી રકમનું વાતવાતમાં દાન આપના, સ્વ, શ્રીમાન્ હરખચંદ કાલીદાસ વારીયા ભાણવડ નિવાસીનું ટુંક જીવનચરત્ર આપવા પ્રયાસ કરીએ છીએ. સૂત્રમાં તેઓશ્રીના ફોટા આપવા માટે તેએશ્રી હયાતીમાં વાત થયેલ, પરંતુ તે આ જાતની જાહેરાતથી વિરૂદ્ધ હતા. જે અવસાન બાદ તેમના સુપુત્રે આગળ પણ ફોટાની માગણી કરી પરંતુ તેઓએ તેમના પૂ. પિતાજીના પગલે ચાલી ફોટા આપવામાં નારાજી બતાવી. એટલે એ ટુંકુ જીવન આપીએ છીએ. આશા છે કે આવા ઉદાર અને વિચારશીલ મહ જીવનમાંથી વાચકાને ઘણું મળી રહેશે. અભ્યાસ : જન્મ સ્થાન : ઘડેચી (આખા મ’ડળ) તા. ૨૫-૧૧-૧૮૮૫ પિતાનું નામ : વારીયા કાલીદાસ મેઘજીભાઈ. માતાનું નામ : કૈશભાઇ. ભાણવડમાં અને પરખંદરમાં રહી ફકત જરૂર પુરતું ભણ્યા. પરદેશગમનઃ માત્ર ખારવષઁની વયે તેમના કાકા નથુભાઈ મેઘજીને ત્યાં જેલા ખાતે અનુભવ મેળવવા રહ્યા દરમ્યાન જેલા (શ્રી. સેામાલીલેન્ડ ) જીબુટી (ફ્રેન્ચ લેન્ડ) એડન અને ઈથીએપીઆ તરફ પણુ અનુભવ મેળવ્યે. સેમાલી પ્રથમ ભાગીદારી : ખુલહારમાં શ્રી કાલીદાસ વેલજીના ભાગમાં ભળ્યા પરંતુ સંવત ૧૯૬૭માં તે દુકાન વીટી લીધી અને લગ્ન માટે સ્વદેશ આવ્યા. } લગ્ન : સંવત ૧૯૬૭માં તેમનાં લગ્ન બાજુના ગામ ગુંદા મુકામે ખૂબ જ પ્રતિષ્ઠિત કુટુંબ મહેતા સુંદરજી પ્રેમજીના જ્યેષ્ઠ પુત્ર ભાવાન સુંદરજીનાં સુપુત્રી મણીદેત સાથે થયાં. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ પરિવાર : અત્યારે તેમના પાંચે પુત્રા શ્રી લાલચદભાઈ, જયચંદ્રભાઈ, નગિનદાસભાઇ, ધૃજલાલભાઈ અને વલ્લભદાસભાઇ એ પાંચે ભાઇએ તેઓશ્રીને! ખંડાળા વ્યવહાર અને વ્યાપાર બરાબર સુયોગ્ય રીતે સ ંભાળી રહ્યા છે. ભાગીદારી : A લગ્ન પછી સાં. ૧૯૬૮માં પાછા પરદેશ ગમન થયું. શરૂમાં વસનજી "નથુભાઈ કાંના નામથી પેઢી ચાલતી હતી તેમાં તે ભાગમાં ભઠ્યા. તેમાંશ્રી *વારીયા નથુભાઈ મેઘજી, શ્રી વારીયા નથુભાઇ મુળજી, શ્રી વારીયા હરખચંદ કાલીદાસ, ફેરીયા દેવજી જીવાભાઈ તથા શા. વસનજી હીરજીભાઇ એમ પાંચ ભાગીદાર હતા. તે પેઢી સંવત ૧૯૭૨માં જુદી થઈ અને શ્રી વસનજી હીરજી કે જે સ્વબળે આગળ વધ્યા હતા તેમણે પેાતાની પેઢી શા. વસનજી હીરજીના નામથી જુદી કરી અને શા. નથુભાઇ મુળજીના નામથી પેઢી ખેાલવામાં વારીયા નથુભાઈ મુળજી જેટલે જ _, હીસ્સા હરખચદભાઈને હતા ઉપરની પેઢી : ઉપરોકત નામથી એટલે કે શા, નથુભાઇ મુળજીના નામથી જે પેઢી શરૂ ચર્મ તેના પ્રાણસમા શ્રીયુત હરખચંદભાઇ તેમના જીવનના અંત સુધી રહ્યા હતા. અત્યારે પણ તે નામને શ્રી નથુભાઇ મુળજી તેમજ શ્રી હરખચંદ કાલીદાસના વારસા ઝળહળાવી રહ્યા છે. દૂર દૂરના દેશાવરેમાં એકધારૂ લગભગ ૪૫ વર્ષ થયાં કામકાજ ચાલે છે. તેના સંચાલનની દોર શ્રી હરખચંદભાઈના હાથમાં અંત સુધી રહી હતી અને તેઓશ્રીના અવસાન પછી પણ તેમના દોરેલા ચીલા ઉપર પેઢીને વ્યવહાર સરળ રીતે અત્યારે પણ ચાલે છે. અત્યારના સુકાનીઓએ પેાતાના પૂર્વજ શ્રી નથુભાઈ તથા શ્રી હરખચંદભાઈના અંકિત કરેલ માર્ગે પેાતાની સફર ચાલુ રાખી છે અને તે સદાયે અવિચળ રહે તેવું આશિચન કેઈપણું હિન્દી ઉચાર્યાં વિના રહી શકે નહીં તેવી તેની ઉત્તમ છાપ ત્યાં પડી અને તે નવું સત્ય જ છે, હન્દુની શાન : વર્ષાં થયાં એકધારૂ ‘ ખીઝનેસ’ ચાલતુ’હાવા છતાં એક શાહ સાદાગરની જેમ નથુભાઈ મુળજીની પેઢી ઉત્તરોત્તર ફુલતી ફાલતી રહી છે વ્યાપારી આંઢ અને ઈજ્જતના એ નાદર નમુને આજે પણ એ જ ધીર ગંભીરપણે પેાતાનું કા ધપાવ્યે જાય છે. એકધારી લગભગ અડધી સદી થયાં ચાલતી આ પેઢીને રજ માત્ર ડાઘ લાગ્યા નથી તે તા સોકેઇ જાણે છે અને શાહુ નથુભાઈ મુળજીની પુરાણી પેઢી Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આઘ મુરબ્બીશ્રી, ભાણવડ નિવાસી શેઠ હરખચંદ કાલીદાસ વારીયાનું જીવન ચરિત્ર. આ સંસ્થાને રૂ. ૬૦૦ છ હજાર જેવી રકમનું વાતવાતમાં દાન આપનાર સ્વ. શ્રીમાન હરખચંદ કાલીદાસ વારીયા ભાણવડ નિવાસીનું ટુંક જીવનચરિત્ર અને આપવા પ્રયાસ કરીએ છીએ. સૂત્રમાં તેઓશ્રીને ફેટે આપવા માટે તેઓશ્રીની હયાતીમાં વાત થયેલ, પરંતુ તેઓ આ વાતની જાહેરાતથી વિરૂદ્ધ હતા. તેમના અવસાન બાદ તેમના સુપુત્રે આગળ પણ ફેટાની માગણી કરી પરંતુ તેઓએ પણ તેમના પૂ. પિતાજીના પગલે ચાલી ફોટે આપવામાં નારાજી બતાવી. એટલે તેઓશ્રીનું ટુંક જીવન આપીએ છીએ. આશા છે કે આવા ઉદાર અને વિચારશીલ મહાનુભાવના જીવનમાંથી વાચકોને ઘણું મળી રહેશે. જન્મ સ્થાન : ઘડેચી (ઓખા મંડળ) તા. ૨૫-૧૧-૧૮૮૫. પિતાનું નામ: વારીયા કાલીદાસ મેઘજીભાઈ. - માતાનું નામ: કેશરબાઈ. અયાસ : ભાણવડમાં અને પોરબંદર પરદેશગમનઃ માત્ર બાર વર્ષની વ અનુભવ મેળવવા રહ્યા દર લેન્ડ) એડન અને ઈથ પ્રથમ ભાગીદારી બુલહારમાં તે દુકાન વીટી લગ્ન : સંવત કુટુંબ મહેત સાથે થયાં. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂપ |શ્રી લાલચંદભાઈ, જયચંદભાઈ, નગિનદાસભાઈ, છે એ પાંચે ભાઈઓ તેઓશ્રીને ગળે વ્યવહાર તે સંભાળી રહ્યા છે. ૬૮માં પાછા પરેશ ગમન થયું. શરૂમાં વસનજી ચાલતી હતી તેમાં તેઓ ભાગમાં વન્યા. તેમાંથી વારીયા નથુભાઈ મુળજી, શ્રી વારીયા હરખચંદ કાલીદાસ, તથા શા, વસનજી હરજીભાઈ એમ પાંચ ભાગીદાર હતા, જુદી થઈ અને શ્રી વસનજી હીરજી કે જે સ્વછાળે આગળ પેઢી શા. વસનજી હીરજીના નામથી જુદી કરી અને મિથી પિટી બોલવામાં વારીયા નથુભાઈ મુળજી જેટલે જ * " થી એટલે કે શા. નથુભાઈ મુળજીના નામથી જે પેઢી શરૂ શ્રીયુત હરખચંદભાઈ તેમના જીવનના અંત સુધી રહ્યા હતા. - ' : - "મને શ્રી નથુભાઈ મુળજી તેમજ શ્રી હરખચંદ કાલીદાસના : રહ્યા છે. દૂર દૃરના દેશાવરમાં એકધારું લગભગ ૪૫ વર્ષ થયાં - કેતેના સંચાલનની દેર શ્રી હરખચંદભાઈના હાથમાં અંત સુધી " તેઓશ્રીના અવસાન પછી પણ તેમના દેરેલા ચીલા ઉપર પિઢીને રીતે અત્યારે પણ ચાલે છે. અત્યારના સુકાનીઓએ પિતાના પૂર્વજ તથા શ્રી હરખચંદભાઈને અંકિત કરેલ માગે પિતાની સફર ચાલુ તે સદાયે અવિચળ રહે તેવું આશિર્વચન કેઈપણ હિન્દી ઉચાર્યા નહીં તેવી તેની ઉત્તમ છાપ ત્યાં પડી છે અને તે નર્યું સત્ય જ છે. થયાં એકધારું “બીઝનેસ' ચાલતું હોવા છતાં એક શહ સેદાગરની ઈ મુળજીની પેઢી ઉત્તરોત્તર ફુલતી કાલતી રહી છે વ્યાપારી આંટ અને એ નાદર નમુને આજે પણ એ જ ધીર ગંભીરપણે પિતાનું કાર્ય ય છે. એકધારી લગભગ અડધી સદી થયાં ચાલતી આ પેઢીને રજ માત્ર { નથી તે તે સોકેઈ જાણે છે અને શહ નથુભાઈ મુળજીની પુરાણ પતી Page #56 --------------------------------------------------------------------------  Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પરિવારઃ અત્યારે તેમના પાંચ પુત્ર શ્રી લાલચંદભાઈ, જયચંદ્રભાઈ, નગિનદાસભાઈ, વૃજલાલભાઈ અને વલભદાસભાઈ એ પચે ભાઈઓ તેઓશ્રીને બહાળે વ્યવહાર અને વ્યાપાર બરાબર સુગ્ય રીતે સંભાળી રહ્યા છે. ભાગીદારી : લગ્ન પછી સાં. ૧૯૬૮માં પાછા પરદેશ ગમન થયું. શરૂમાં વસનજી નથુભાઈ કાંના નામથી પેઢી ચાલતી હતી તેમાં તેઓ ભાગમાં ભળ્યા. તેમાં શ્રી વારીયા નથુભાઈ મેઘજી, શ્રી વારીયા નથુભાઈ મુળજી, શ્રી વારીયા હરખચંદ કાલીદાસ, ફરીયા દેવજી જીવાભાઈ તથા શા. વસનજી હીરજીભાઈ એમ પાંચ ભાગીદાર હતા. તે પેઢી સંવત ૧૯૭૨માં જુદી થઈ અને શ્રી વસનજી હીરજી કે જે સ્વબળે આગળ વધ્યા હતા તેમણે પિતાની પેઢી શા. વસનજી હીરજીના નામથી જુદી કરી અને શા. મથુભાઈ મુળજીના નામથી પેઢી ખોલવામાં વારીયા નથુભાઈ મુળજી જેટલે જ હસે હરખચંદભાઈને હતે ઉપરની પેઢીઃ ઉપરોકત નામથી એટલે કે શા. નથુભાઈ મુળજીના નામથી જે પેઢી શરૂ થઈ તેના પ્રાણસમાં શ્રીયુત હરખચંદભાઈ તેમના જીવનના અંત સુધી રહ્યા હતા. અત્યારે પણ તે નામને શ્રી નથુભાઈ મુળજી તેમજ શ્રી હરખચંદ કાલીદાસના વારસે ઝળહળાવી રહ્યા છે. દૂર દૂરના દેશાવરમાં એકધારું લગભગ ૪૫ વર્ષ થયાં કામકાજ ચાલે છે. તેના સંચાલનની દેર શ્રી હરખચંદભાઈના હાથમાં અંત સુધી રહી હતી અને તેઓશ્રીના અવસાન પછી પણ તેમના દેરેલા ચીલા ઉપર પેઢીને વ્યવહાર સરળ રીતે અત્યારે પણ ચાલે છે. અત્યારના સુકાનીઓએ પિતાના પૂર્વજ શ્રી નથુભાઈ તથા શ્રી હરખચંદભાઈના અંકિત કરેલ માગે પિતાની સફર ચાલુ રાખી છે અને તે સદાયે અવિચળ રહે તેવું આશિર્વચન કેઈપણ હિન્દી ઉચાર્યા વિના રહી શકે નહીં તેવી તેની ઉત્તમ છાપ ત્યાં પડી છે અને તે નર્યું સત્ય જ છે. ' હદની શાન : વર્ષે થયાં એકધારું “બીઝનેસ' ચાલતું હોવા છતાં એક શાહ સેદાગરની જેમ નથુભાઈ મુળજીની પેઢી ઉત્તરોત્તર કુલતી ફાલતી રહી છે વ્યાપારી આંટ અને ઈજજતને એ નાદર નમુને આજે પણ એ જ ધીર ગંભીરપણે પિતાનું કાર્ય જાય છે. એકધારી લગભગ અડધી સદી થયાં ચાલતી આ પેઢીને રજ માત્ર જે નથી તે તે સોકેઈ જાણે છે અને શાહ નથુભાઈ મુળજીની પુરાણી પેઢી Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આધ મુરબ્બીશ્રી, ३४ ભાણવડ નિવાસી રોઝ હરખચંદ કાલીદાસ વારીયાનું જીવન ચરિત્ર. . આ સંસ્થાને રૂા. ૬૦૦૦] છ હજાર જેવી રકમનું વાતવાતમાં દાન આપનાર સ્વ. શ્રીમાન્ હરખચંદ કાલીદાસ વારીયા ભાણવડ નિવાસીનું ટુંક જીવનચરિત્ર અત્રે આપવા પ્રયાસ કરીએ છીએ. સૂત્રમાં તેઓશ્રીના ફાટ આપવા માટે તેઓશ્રીની હયાતીમાં વાત થયેલ, પરંતુ તે આ જાતની જાહેરાતથી વિરૂદ્ધ હતા. તેમના અવસાન ખાદ તેમના સુપુત્રે આગળ પણ ફોટાની માગણી કરી પરંતુ તેઓએ પણ તેમના પૂ. પિતાજીના પગલે ચાલી ફાટ આપવામાં નારાજી પતાવી. એટલે તેઓશ્રીનું ટુંક જીવન આપીએ છીએ. આશા છે કે આવા ઉદાર અને વિચારશીલ મહાનુભાવના જીવનમાંથી વાચકને ઘણું મળી રહેશે. જન્મ સ્થાન : ઘડેચી (ઓખા મંડળ) તા. ૨૫-૧૧-૧૮૮૫. પિતાનું નામ : વારીયા કાલીદાસ મેઘજીભાઈ. માતાનું નામ : કેશરભાઈ. અભ્યાસ : ભાણવડમાં અને પારખંદરમાં રહી ફેંકત જરૂર પુરતું ભણ્યા. પરદેશગમનઃ માત્ર ખારવષઁની વયે તેમના કાકા નથુભાઈ મેઘજીને ત્યાં જેલા ખાતે અનુભવ મેળવવા રહ્યા દરમ્યાન જેલા (ખ્રી. સેામાલીલેન્ડ ) જીમુટી (ફ્રેન્ચ સેામાલી લેન્ડ) એડન અને ઈથીએપીઆ તરફ પણ અનુભવ મેળવ્યેા. પ્રથમ ભાગીદારી : ખુલહારમાં શ્રી કાલીદાસ વેલજીના ભાગમાં ભળ્યા પરંતુ સંવત ૧૯૬૭માં તે દુકાન વીટી લીધી અને લગ્ન માટે સ્વદેશ આવ્યા. ' લગ્ન : સંવત ૧૯૬૭માં તેમનાં લગ્ન ખાજીના ગામ ગુદા મુકામે ખૂબ જ પ્રતિષ્ઠિત કુટુંબ મહેતા સુંદરજી પ્રેમજીના જ્યેષ્ઠ પુત્ર ભાવાન સુંદરજીનાં સુપુત્રી મણીબેન સાથે થયાં. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પરિવાર : અત્યારે તેમના પાંચ પુત્ર શ્રી લાલચંદભાઈ, જયચંદ્રભાઈ, નગિનદાસભાઈ, વૃજલાલભાઈ અને વલભદાસભાઈ એ પાંચે ભાઈઓ તેઓશ્રીને બહેને વ્યવહાર અને વ્યાપાર બરાબર સુગ્ય રીતે સંભાળી રહ્યા છે. ભાગીદારી : લગ્ન પછી સાં. ૧૯૬૮માં પાછા પરદેશ ગમન થયું. શરૂમાં વસનજી નથુભાઈ કના નામથી પેઢી ચાલતી હતી તેમાં તેઓ ભાગમાં ભાયા. તેમાં શ્રી વારીયા નથુભાઈ મેઘજી, શ્રી વારીયા નથુભાઈ મુળજી, શ્રી વારીયા હરખચંદ કાલીદાસ, ફેરીયા દેવજી જીવાભાઈ તથા શા. વસનજી હીરજીભાઈ એમ પાંચ ભાગીદાર હતા. તે પેઢી સંવત ૧૭રમાં જુદી થઈ અને શ્રી વસનજી હીરજી કે જે સ્વબળે આગળ વધ્યા હતા તેમણે પિતાની પેઢી શા. વસનજી હીરજીના નામથી જુદી કરી અને શા. નથુભાઈ મુળજીના નામથી પેઢી ખોલવામાં વારીયા નથુભાઈ મુળજી જેટલે જ હિસ્સે હરખચંદભાઈને હતે ઉપરની પેઢીઃ ઉપરોક્ત નામથી એટલે કે શા. નથુભાઈ મુળજીના નામથી જે પેઢી શરૂ થઈ તેના પ્રાણસમા શ્રીયુત હરખચંદભાઈ તેમના જીવનના અંત સુધી રહ્યા હતા. અત્યારે પણ તે નામને શ્રી નથુભાઈ મુળજી તેમજ શ્રી હરખચંદ કાલીદાસના વારસે ઝળહળાવી રહ્યા છે. દૂર દૂરના દેશાવરમાં એકધારું લગભગ ૪૫ વર્ષ થયાં કામકાજ ચાલે છે. તેના સંચાલનની દેર શ્રી હરખચંદભાઈના હાથમાં અંત સુધી રહી હતી અને તેઓશ્રીના અવસાન પછી પણ તેમના દેરેલા ચીલા ઉપર પેઢીને વ્યવહાર સરળ રીતે અત્યારે પણ ચાલે છે. અત્યારના સુકાનીઓએ પિતાના પૂર્વજ શ્રી નથુભાઈ તથા શ્રી હરખચંદભાઈના અંકિત કરેલ માગે પિતાની સફર ચાલુ રાખી છે અને તે સદાયે અવિચળ રહે તેવું આશિર્વચન કેઈપણ હિન્દી ઉચાર્યા વિના રહી શકે નહીં તેવી તેની ઉત્તમ છાપ ત્યાં પડી છે અને તે નર્યું સત્ય જ છે. હન્દની શાન : વર્ષે થયાં એકધારું “બીઝનેસ' ચાલતું હોવા છતાં એક શાહ સેદાગરની જેમ નથુભાઈ મુળજીની પેઢી ઉત્તરોત્તર ફુલતી કાલતી રહી છે વ્યાપારી આંટ અને ઈજ્જતને એ નાદર નમુને આજે પણ એ જ ધીર ગંભીરપણે પિતાનું કાર્ય ધપાવ્યે જાય છે. એકધારી લગભગ અડધી સદી થયાં ચાલતી આ પેઢીને રજ માત્ર ડાઘ લાગ્યું નથી તે તે સોકેઈ જાણે છે અને શાહ નથુભાઈ મુળજીની પુરાણ પેઢી Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આઘે મુરબ્બીશ્રી, ભાણવડ નિવાસી શેઠ હરખચંદ કાલીદાસ વાહીયાનું જીવન ચરિત્ર, આ સંસ્થાને રૂ. ૬૦૦ છ હજાર જેવી રકમનું વાતવાતમાં દાન આપનાર સ્વ. શ્રીમાન હરખચંદ કાલીદાસ વારીયા ભાણવડ નિવાસીનું ટુંક જીવનચરિત્ર અને આપવા પ્રયાસ કરીએ છીએ. સૂત્રમાં તેઓશ્રીને ફેટ આપવા માટે તેઓશ્રીની હયાતીમાં વાત થયેલ, પરંતુ તેઓ આ જાતની જાહેરાતથી વિરૂદ્ધ હતા. તેમના અવસાન બાદ તેમના સુપુત્ર આગળ પણ ફટાની માગણી કરી પરંતુ તેઓએ પણ તેમના પૂ. પિતાજીના પગલે ચાલી ફેટે આપવામાં નારાજી બતાવી. એટલે તેઓશ્રીનું ટુંક જીવન આપીએ છીએ. આશા છે કે આવા ઉદાર અને વિચારશીલ મહાનુભાવના જીવનમાંથી વાચકને ઘણું મળી રહેશે. જન્મ સ્થાન : ઘડેચી (ઓખા મંડળ) તા. ૨૫-૧૧-૧૮૮૫. પિતાનું નામ: વારીયા કાલીદાસ મેઘજીભાઈ. માતાનું નામ કેશરબાઈ. અરયાસ : ભાણવડમાં અને પિરિબંદરમાં રહી ફકત જરૂર પુરતું ભણ્યા. પરદેશગમન માત્ર બારવર્ષની વયે તેમના કાકા નથુભાઈ મેઘજીને ત્યાં જેલ ખાતે અનુભવ મેળવવા રહ્યા દરમ્યાન જેલા (બ્રી. સેમાલીલેન્ડ) જીબુટી (કૂચ સેમાલી લેન્ડ) એડન અને ઈધીએપીઆ તરફ પણ અનુભવ મેળવ્યે. પ્રથમ ભાગીદારી ? બુલહારમાં શ્રી કાલીદાસ વેલજીના ભાગમાં ભળ્યા પરંતુ સંવત ૧૯૬૭માં તે દુકાન વીટી લીધી અને લગ્ન માટે સ્વદેશ આવ્યા. લગ્ન : સંવત ૧૯૬૭માં તેમનાં લગન બાજુના ગામ ગુદા મુકામે ખૂબ જ પ્રતિષ્ઠિત કુટુંબ મહેતા સુંદરજી પ્રેમજીના જયેષ્ઠ પુત્ર ભેવાન સુંદરજીનાં સુપુત્રી મણીબેન સાથે થયાં. Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પરિવાર : અત્યારે તેમના પાંચ પુત્ર શ્રી લાલચંદભાઈ, જયચંદ્રભાઈ, નગિનદાસભાઈ, વૃજલાલભાઈ અને વલભદાસભાઈ એ પાંચ ભાઈઓ તેઓશ્રીને બહેબે વ્યવહાર અને વ્યાપાર બરાબર સુયોગ્ય રીતે સંભાળી રહ્યા છે. ભાગીદારી : લગ્ન પછી સાં. ૧૯૬૮માં પાછા પરદેશ ગમન થયું. શરૂમાં વસનજી નથુભાઈ કાં ના નામથી પેઢી ચાલતી હતી તેમાં તેઓ ભાગમાં ભળ્યા. તેમાંથી વારીયા નથુભાઈ મેઘજી, શ્રી વારીયા નથુભાઈ મુળજી, શ્રી વારીયા હરખચંદ કાલીદાસ, કેરીયા દેવજી જીવાભાઈ તથા શા, વસનજી હીરજીભાઈ એમ પાંચ ભાગીદાર હતા. તે પેઢી સંવત ૧૯૭૨માં જુદી થઈ અને શ્રી વસનજી હીરજી કે જે સ્વબળે આગળ વધ્યા હતા તેમણે પિતાની પેઢી છે. વસનજી હીરજીના નામથી જુદી કરી અને શા. નથુભાઈ મુળજીના નામથી પેઢી ખેલવામાં વારીયા નથુભાઈ મુળજી જેટલે જ હીસ્સે હરખચંદભાઈને હતા ઉપરની પેઢીઃ ઉપરોકત નામથી એટલે કે શા. નથુભાઈ મુળજીના નામથી જે પેઢી શરૂ થઈ તેના પ્રાણસમા શ્રીયુત હરખચંદભાઈ તેમના જીવનના અંત સુધી રહ્યા હતા. અત્યારે પણ તે નામને શ્રી નથુભાઈ મુળજી તેમજ શ્રી હરખચંદ કાલીદાસના વારસે ઝળહળાવી રહ્યા છે. દૂર દૂરના દેશાવરમાં એકધારું લગભગ ૪૫ વર્ષ થયાં કામકાજ ચાલે છે. તેના સંચાલનની દેર શ્રી હરખચંદભાઈના હાથમાં અંત સુધી રહી હતી અને તેઓશ્રીના અવસાન પછી પણ તેમના દેરેલા ચીલા ઉપર પેઢીને વ્યવહાર સરળ રીતે અત્યારે પણ ચાલે છે. અત્યારના સુકાનીઓએ પિતાના પૂર્વજ શ્રી નથુભાઈ તથા શ્રી હરખચંદભાઈના અંકિત કરેલ ભાગે પિતાની સફર ચાલુ રાખી છે અને તે સદાયે અવિચળ રહે તેવું આશિર્વચન કોઈપણું હિન્દી ઉચાર્યા વિના રહી શકે નહીં તેવી તેની ઉત્તમ છાય ત્યાં પડી છે અને તે નર્યું સત્ય જ છે. હદની શાન : વર્ષો થયાં એકધારું બીઝનેસ” ચાલતું હોવા છતાં એક શાહ સેદાગરની જેમ નથુભાઈ મુળજીની પેઢી ઉત્તરેતર કુલતી ફાલતી રહી છે વ્યાપારી આંટ અને ઈજ્જતને એ નાદર નમુને આજે પણ એ જ ધીર ગંભીરપણે પિતાનું કાર્ય ધપાવ્યે જાય છે. એકધારી લગભગ અડધી સદી થયાં ચાલતી આ પેઢીને રજ માત્ર ડાઘ લાગ્યું નથી તે તે સોકેઈ જાણે છે અને શાહ નથુભાઈ મુળજીની પુરાણી પેઢી Page #62 --------------------------------------------------------------------------  Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂા. પરપ૧ આપનાર આદ્ય મુરબ્બીશ્રી, :: : . I, કે ઠારી હર ગે વાંદ ભા ઇ જે ચંદ રાજ કે ટ. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ . પિતાને ત્યાં નોકરી કરી ગએલ મુનિમ કે કઈ પણ વ્યક્તિ કમાઈ કરીને ખુબજ આગળ આવે, સારા અને સંસ્કારી થાય વ્યવહારમાં સવાયા થાય તેને ત્યાં લગ્ન પ્રસંગ હોય અગર તે સારામાં સારા મકને તેણે કર્યા હોય તેવા પ્રસંગે જવાનું થાય ત્યારે તેમના આનંદને અવધી થઈ જતે તે વખતે તેઓની આંખનું અમૃત જેમણે નજરે નજરે જોયું હશે તે તેમને જીવન ભર નહીં ભૂલે આવી એક મહાન વિભૂતિના જીવનને ટુંક સાર જ આપી શકાય સગેવાંગ જીવન તે કયાંથી લખાય? કાળી : જનમ્યુ તે જવાનું જ તે કુદરતને કેમ છે તેને આધીન તે સારા નરસા દરેકને થવું જ પડે સંવત ૨૦૦૭ માં તેઓશ્રી ૬૮ વર્ષનું આયુષ્ય ભેગવી ક્ષણભંગુર દેહને છોડી ગયેલા. પરંતુ તેમની સુવાસ સદાય પ્રસરતી જ રહેવાની. ભાણવડ જેવડા નાનકડા ગામમાં અને આસપાસના ગામમાં જ્યાં જ્યાં તેઓ ગએલા અગર તે તેમનું કાર્યક્ષેત્ર હતું ત્યાં ત્યાં તેમના અવસાનથી સન્નાટે છાઈ ગયેલું. એમનું મૃત્યુ વિશવર્ષના અંતરને શેક હિય તે શક સર્વત્ર આપતું ગયેલું. નામ ઠામના લેભ વિના કરેલાં તેમનાં ગુપ્તદાને એટલાં બધાં હતાં કે તેમના જવાથી નાના મેટા દરેકને એક સરખી એટ લાગતી હતી. છતાં તેઓ જીવતર જીવી ગયાં આવું ધન્ય જીવન અને ધન્ય મૃત્યુ જેઈને આધ્યાન રૌદ્રધ્યાન ધરવું તે કરતાં તેમના જેવા થવાના પ્રયત્ન કરવા અને તેમના અમર આત્માની શાન્તિ માટે પ્રાર્થના કર્યા સિવાય બીજો માર્ગ જ કયાં છે? * શનિ ! શાતિ !શનિ !! Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આદ્ય મુરબ્બીશ્રી ઠારી હરગોવીંદભાઈ જેચંદને ક પરિચય પુ. શ્રી ૧૦૦૮ ઘાસીલાલજી મહારાજ રાજકેટ પધારતાં પ્રાતઃ સ્મરણીય સ્તવનાવલી રાજકેટના રહીશ શુદ્ધ શ્રાવક વૃતધારી જેચંદ અજરામર કેકારીના સુપુત્ર હરગોવિંદકાકા તરફથી ૨૦૦૩માં છપાવવામાં આવી અને તે હિંદભરમાં • જાહેરમાં મૂકી તેને ઉપગ હાલ સર્વ જેને જેનેતર કરી રહેલ છે. કાકા રાજકોટમાં જ નહિ પણ સૌરાષ્ટ્ર, કરછ, ગુજરાત, મુંબઈ, દીલ્હી સુધી એક અજોડ ઉત્સાહી પુરૂષ છે, એમને પ્રજા અને રાજા ઉપર ઘણજ સારે પ્રભાવ છે. વેસ્ટર્ન ઈન્ડીયા સ્ટેટ એજન્સી અને ગુજરાત સ્ટેટસ મહીકાંઠા સાબરકાંઠા બનાસકાંઠામાં રેસીડેન્સીમાં પણ કાકા પ્રત્યે ઘણો જ સારે ભાવ છે. તેઓને ધર્મ પ્રત્યે ઘણું જ સારી ધગશ હેઈ અંગત ખર્ચે પિતાના ઘર આંગણે ધર્મ સ્થાન માટે પિષધશાળા બંધાવી છે તેમજ આજી નદીને કિનારે વિશાળ વ્યાખ્યાન ભવન હોલ બે માળને પાંચ હજાર માણસો વ્યાખ્યાન સાંભળી શકે તે બંધાવેલ છે. ઉદાર દીલના સખી માણસ છે. કેઈ પણ ગરીબ ગુન્હાહિત માણસ દાદ માગવા આવે તો તરતજ બનતા ઉપાયે તેમને મદદ આપવા વીસ કલાક તૈયાર રહે છે. કાકાનું કુટુંબ પણ ઘણું જ ધમીઠ છે. તેમનાં ધર્મપત્નિ શ્રીમતી અખંડ સૌભાગ્યવતી રૂકમણીબેન વહેવારદક્ષ પ્રેમાળ અને પૂર્ણ ધર્મમાં છે. સાધુ સાધ્વી પ્રત્યે ત્યાં દરેક કુટુંબ સજજન સ્નેહી અને સ્વધર્મીઓ મહેમાને સાથે ઘણેજ સારો ઉચીત વહેવાર રાખવામાં પુર્ણ નિષ્પન છે. નિત્ય પિતાની ધર્મ પરાયણુતા પ્રત્યેજ વફાદાર રહે છે. પુ. ઘાસીલાલજી મહારાજ આદી થાણુ છ (સમીર મુની, કનૈયાલાલ મુની, દેવમુની, તપસ્વી માંગીલાલ, મદનલાલજી.) મેવાડથી દામનગરના રહીસ દામોદરભાઈના આગ્રહથી પાલનપુર નહિ રેકાતાં તેમણે વિહાર શરૂ કર્યો, અને મોરબી મુકામે તપસ્વી મદનલાલજી અને માંગીલાલજીની ૭૧ ઉપવાસની તપશ્ચર્યા ચાતુર્માસમાં થયેલી જે પ્રસંગે રાકેટથી હરગોવિંદકાકા કુટુંબ સહિત કળ અદમીને દીવસે દર્શનાર્થે આવ્યા અને રાજકોટ પધારવાની વિનંતી કરી. અને નવેમ્બર ૧૯૪૬માં ઘાસીલાલજી મહારાજ રાજકોટ પધાર્યા. કાકાના વ્યાખ્યાન ભુવનમાં બીરાજ્યા. બને તપસીજી માસખમણની તપશ્ચર્યા કરી. સ્થાનિક રાજકેટ સકલ સંઘે ઘણેજ ભક્તિભાવ બતાવ્યું અને તાગઢ ખેડાના રહીશ જવાહરલાલજી ઉર્ફે ચાંદમલજી ભંડારીની ૨૦૦૨ તા. ર૭–૧–૪૭ના રોજ દીક્ષા વસંતપંચમીને દિવસે હેવાથી સંઘમાં વઘારે ઉત્સાહ આનંદ આવ્યું. મહાસુદી એકમથી પાંચમ સુધી ૬ વરઘોડાઓ જુદે Page #66 --------------------------------------------------------------------------  Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂ. પ૦ આપનાર આ મુરબ્બીશ્રી, અ * * - ર + * . * ' * * - * ' " આ : '' !' ' મક . છે (સ્વ. શેઠ ધ ર સી ભા ઇ જીવણ ભાઈ સે લા પુ. Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જુદે ઠેકાણેથી ચડયા. મહા સુદી ૪ના દિવસે કાકાને ઘેરથી દીક્ષા ઓસવને વરઘેર રાજકોટ ઠાકર સાહેબ પ્રદ્યુમ્નસિંહજી અને કુ. શ્રી નેસીંહજીની સંપૂર્ણ મદદથી રાજેશ્રીના ઠાઠને પણ વટાવી જાય તે રીતે સરકારી અને સ્ટેટ બેન્ડ પિલીસ ઘેડેસ્વાર ગાડી ઘોડા મેટર ત્થા હજારે જૈન જૈનેતર માનવમેદની સાથે આખા શહેર સંદરના રસ્તા પર ફર્યો હતે. પાંચમના દિવસે તપગચ્છના ચાંદીના રથમાં દીક્ષાથીને બેસાડી ૪ ચાર બેલ જોડેલ રથને કાકા પિતે સારથી બની હાંક્તા હતા. બંને દીવસે સેના રૂપાનાં પુલ તથા પૈસા દિક્ષીત ઉડાવી રહેલ હતા. ઠેકાણે ઠેકાણે પિલીસે ગોઠવવામાં આવેલ હતી આ સરઘસ શહેર સદરમાં ફરી જુબીલી બાગમાં આવ્યું અને દસ હજાર માણસની હાજરીમાં પૂ શ્રી ઘાસીલાલજીની જે નેશાય નીચે દીક્ષા આપવામાં આવી તે પ્રસંગે શાંતિ જળવાયેલી. આ પ્રસંગે બંને દીવસેએ ફટાઓ તથા જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિની કમીટીના ફટાઓ લેવામાં આવ્યા. અને ૩૦–૧–૪૭ના દીવસે શાસ્ત્રોદ્ધારની મીટીંગ મળી જેમાં કાકા તરફથી સુત્રને માટે રૂપીઆ પાંચ હજારની ભેટ મળી તે ઉપરાંત પ્રસંગોપાત સુત્ર માટે જુદી ભેટ રોકડ રકમની આપવામાં આવી છે. તેમજ જીવદયાના પ્રખર હિમાયતી પૂ શ્રી ૧૦૦૮ જેઠમલજી મ. ની નેશ્રાય નીચે તન મન ધનથી જીવદયાનું કાર્ય કરે છે અને જીવદયાનું પત્ર પિતાને ખચે છપાવી પ્રસિદ્ધ કરી હિંદભરમાં તેમજ યુરેપ અમેરીકા આફ્રીકામાં મોકલે છે હાલ પિતે સેવાભાવી કાર્યની પ્રવૃત્તિ કાયમ કર્યા કરે છે. રાજકેટની ફલેર મીલના ઓનરરી પ્રમુખ : જેન બોડીગના ઓનરરી કાર્યકર્તા તથા જીવદયા મંડળના મંત્રી અને ... P. C. A.ના મંત્રી, રાજકેટ શહેરી મંડળના સેક્રેટરી તરીકે ઓનરરી સેવા કરી દરેકને પિતાની સેવાને સાથ આપવામાં તન મન ધનથી કેઈની પણ સેવા કરવામાં કાયમ તત્પર રહે છે. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આદ્ય મુરબ્બીશ્રી મમ ધારશીભાઈ જીવનભાઇ શાહને પરિચય મામ ધારશીભાઈ જીવનભાઈ શાહ, જેને ઓઈલ જીનસ સાથે આ સૈકાની શરૂઆતથી સંબંધ, પુના સાતે ડીવીઝનના જુદા જુદા સ્થળેના જુનામાં જુના અને અચગય એજન્ટ તરીકે જાણીતા છે. તેને જન્મ કાઠિયાવાડમાં પીપળીયા ગામમાં થયેલ. માત્ર પ્રાથમીક કેળવણી લઈ, ૧૧ વર્ષની નાની ઉંમરે આગળ વધવાની ધગશ સાથે, માત્ર ખીસ્સામાં ૨ રૂ. જેટલી નજીવી રકમ સાથે વતન છેડયું. મુંબઈ આવી નજી નથુભાઈની પેઢીમાં એફીસ બેથ તરીકે નોકરી લીધી, ત્યાં ઉત્તરોતર દરેક કામમાં ખંત રાખી સાવ આપતાં તેમને પુના મોકલવામાં આવ્યાં. પુનાથી કરમાલા આવી ખભા ઉપર તેલ ઉપાટી ફેરી પણ કરી અને ત્યાંના સબ એજન્ટને એકદમ પ્રમાણ૫ સખત કામ બતાવી, કરમાલા ગામમાં તેલની સાડીલરશીપ પ્રાપ્ત કરી ધીરે ધીરે તેજ પ્રમાણે મહેનત ચાલુ રાખતાં ૧૯૩૧માં જ્યારે બમશેલ અને એસ. વી. ઓ. સી. વચ્ચે ભાવની હરીફાઈ ઉપડી ત્યારે પિતાની સતત સેવા બતાવી કામશેલ પાસેથી ઘડીયાલ બક્ષીસ મેળવી. અને તે લાઈનના તમામ કાર્યવાહીઓની ચહના પ્રાપ્ત કરી. ધીરે ધીરે પિતાની ખંતથી તેવીજ એજન્સીઓ લીપ્ટન કુ. સીમેન્ટ કે, આઈ. સી. આઈ. વિગેરેની પણ મેળવી પિતાના વ્યાપારની સારી જમાવટ કરી. સેલાપુર ડીસ્ટ્રીકટમાં સારા આબરૂદાર શહેરી તરીકે વગ તેમજ ચાહના મેળવી અને લેક્સેવા પણ સાથે સાથે ચાલુ રાખી કરમાલા મ્યુ ના પ્રેસીડન્ટ થયા. સેલાપુર ડીસ્ટ્રીકટમાં દેશ હિતના અનેક કામોમાં તન, મન, ધનથી સારી સેવા બજાવી. તેનું ખાનગી જીવન પણ બહુ સાદું હોવાથી બધા તેને ચાહતા અને ધંધામાં પણ સારે લાભ મળે અને તેજ પ્રમાણે સેવાના તથા ધમદાના અનેક કાર્યોમાં સારી રકમ વાપરી. પિતાના કુટુંબના વડા તરીકે પણ કુટુંબીજને, સગાં, સબંધીઓને દરેક રીતે માર્ગદર્શન આપી જુદા જુદા ધંધા તેમજ એજન્સીઓ વિગેરે મેળવી સ્થિરતા પ્રાપ્ત કરવામાં ઘણે પરિશ્રમ લી. યાંત્રિક ખેતીની પ્રગતીના કાર્યસર વિલાયત જઈ આવ્યા, અમેરીકા જવા પણ ધારણા હતી. ત્યાં લંડનમાં ૧૪૭-૪હ્ના જ હૃદય બંધ પડી જતાં સ્વર્ગવાસ કર્યો. તેમની પાછળ બહેણું કુટુંબ, ઘણાં સગાં તેમજ સ્નેહીઓ સુકી ગએલ છે. જેઓ સર્વને પોતાની મીઠી યાદગીરી મુકી જીવનનું સાર્થક કરી ગએલ છે. Page #70 --------------------------------------------------------------------------  Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयः ६० द्रव्य-भावकर्मणोः कार्य ३५३ दशवै० विपया० सं. विपयः ३१ (२) मृपावादवि० स्व० २४३ ५९ अनुत्तरधर्मस्पर्शे कर्मरजो३२ (३) अदत्तादानवि० स्व०२४८ धुननम् ३३ (४) मैथुनवि० स्व० २५३ ३४ (५) परिग्रहवि० स्व० २५६ कारणभावः ३५ (६) रात्रिभोजनवि०स्व०२५८ ६१ शुरुध्यानस्वरूपम् ३४४ ३६ उपसंहारः २६४ ६२ कर्मरजोधुनने केवलज्ञान३७ भिक्षुत्वसिद्धिः २६५ दर्शनमाप्तिः ३८ (१) पृथिवीकाययतना २७४ ६३ केवलज्ञानदर्शनमाप्ती ३९ (२) अप्काययतना २७६ लोकालोकज्ञानम् ३५२ ४० (३) तेजस्काययतना २७९ ६४ लोकस्वरूपम् । .४१ (४) वायुकाययतना २८२ ६५ अलोकस्वरूपम् . ३५५ ४२ (५) वनस्पतिकाययतना २८५ ६६ लोकालोकज्ञाने शैलेशी४३ (६) सकाययतना २८८ करणमातिः ४४ अयतनाया दुःखदफलम् २९१ ६७ शैलेशीकरणप्राप्तौ सिद्धिः ३६१ ४५ यतनावतो न पापकमेवन्ध २९७ ६८ सिद्धिमाप्तौ सिद्धस्य लोकाये ४६ ज्ञानस्य मुख्यत्वम् ३०० शाश्वतत्वम् ३६२ ४७ ज्ञानप्राप्त्युपायः ३०१ ६९ सिद्धानामूर्ध्वगतिस्वरूपम् ३६३ ४८ जीवाजीचज्ञानेन संयम ७० सिद्धावगाहनास्वरूपम् ३६७ ज्ञानं जीवगतिज्ञानं च ३०४ ७१ सुगतेदौलभ्यम् ३६९ ४९ जीवगतिज्ञानेन पुण्यादि ७२ सुगतेः सौलभ्यम् ज्ञानम् ३०५ ७३ उपसंहारः ५० पुण्यस्वरूपम् पञ्चमाध्ययनम् ५१ पापस्वरूपम् ३१४ ५२ जीवकर्मणोर्वन्धसिद्धिः (प्रथमोद्देशः) ३१६ ७४ भक्तपानगवेपणविधिः ३७५ ५३ बन्धस्वरूपम् ३२० ७५ गोचोचित्तस्थयोंपदेशः ३७८ ५४ मोक्षस्वरूपम् .. ७६ गोचर्या गमनविधिः ५५ पुण्यादिज्ञाने भोगनिर्वेदः ३३७ ३८१ ७७ विषममार्गगमने विराधना ३८३ ५६ भोगनिदे संयोगत्यागः ३३८ । ७८ गमने पृथिवीकायादि५७ संयोगत्यागे अनगारता यतना ३८५ प्राप्ति ७९ ब्रह्मचर्यव्रतयतना ३८७ ५८ अनगारताप्राप्तौ ८० मार्गयतना अनुत्तरधर्मस्पर्शः ३४० , ८१ गोचयाँ कायचेष्टाप्रकारः ३९३ ३७० ३०६ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Area ॥ श्रीः॥ श्रीदशवैकालिकसूत्रस्य विषयानुक्रमः विपयः पृष्ठ सं. विपयः' पृष्ठ प्रथमाध्यायनम् (१) शय्यातर(२३)विचारः१६६ १ मङ्गलाचरणम् (२) वसतियाचनाविधिः १६९ २ अहिंसास्वरूपम् (३) शय्यावरगृहे कल्प्या३ संयमस्वरूपम् कल्प्यविधिः १७१ मुखवस्त्रिकाविचारः (४) शय्यातराहारविवेकः १७४ ४ तपःस्वरूपम् (५) शय्यातरपिण्डग्रहणे ५ धर्ममहिमा दोपा: १७९ ६ अहिंसा-संयम-तपोविवेकः ८२ २१ (५२) अनाचीर्णत्यागि७ गोचरी विवेकः महपिस्वरूपम् १८६ २२ अनाचीणत्यागफलम् ९५ ८ भिक्षामकाराः १९१ ९ भिक्षायां शिष्यप्रतिज्ञा १०० चतुर्थाध्ययनम् १० साधुस्वरूपम् १०२ २३ प्रवचनस्याप्तोपदिष्टत्वम् १९५ द्वितीयाध्ययनम् २४ भगवच्छन्दाः १९७ ११ धैर्यधारणोपदेशः १०७ २५ पड्जीवनिकाया१२ श्रामण्याधिकारि (छज्जीवणिया)-शब्दार्थः १९८ लक्षणानि २६ महावीरशब्दार्थः १९९ १३ त्यागिस्वरूपम् २७ पड़जीवनिकायस्वरूपम् २०१ १४ कामरागदोषानुचिन्तनम् ११६ (१) पृथिवीकायसचित्तता २०५ १५ कामरागनिराकरणोपायः १३० (२) अप्कायसचित्तता २०९ १६ त्यक्तभोगाङ्गीकरणे (३) तेजस्कायसचित्तता २१२ सपैदृष्टान्तः (४) वायुकायसचित्तता २१५ १७ रथनेमि प्रति राजीम (५) वनस्पतिकायसचित्तता२१७ त्युपदेशः १४१ (६) त्रसकायवर्णनम् २२१ १८० रथनेमेधर्म संस्थितिः १४६ / २८ पड्जीवनिकायानां दण्ड१८ रथनेमे:पुरुषोत्तमत्वसिद्धिः १४८ परित्याग: २२६ तृतीयाध्ययनम् २९ दण्डपरित्यागस्य सामान्य१९ महपिस्वरूपम् १५२ विशेपत्वेन द्वैविध्यम् २३४ २० मइपणाम् (५२) अना- ३० (१) माणातिपातविरमणचीर्णानि ९५८-१८५ । स्वरूपम् ११३ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ ३५३ ३५५ दशवै० विषया. सं. विपयः पृष्ठ | सं. सं. विपयः पृष्ट ३१ (२) मृपावादवि० स्व० २४३, ५९ अनुत्तरधर्मस्पर्श कमरजो३२ (३) अदत्तादानवि० स्व०२४८ धुननम् ३४१ ३३ (४) मैथुनवि० स्व० २५३ ६० द्रव्य-भावकर्मणोः कार्य३४ (५) परिग्रहवि० स्व० २५६ कारणभाव: ३४३ ३५ (६) रात्रिभोजनवि०स्व०२५८ ६१ शुक्लध्यानस्वरूपम् । ३४४ ३६ उपसंहारः २६४, ६२ कमरजोधुनने केवलज्ञान३७ भिक्षुत्वसिद्धिः २६५ दर्शनप्राप्तिः ३८ (१) पृथिवीकाययतना २७४ । ६३ केवलज्ञानदर्शनमाप्ती ३९ (२) अप्काययतना २७६ लोकालोकज्ञानम् ४० (३) तेजस्काययतना २७९ ६४ लोकस्वरूपम् ४१ (४) वायुकाययतना २८२ । ६५ अलोकस्वरूपम् .... ४२ (५) वनस्पतिकाययतना २८५, ६६ लोकालोकज्ञाने शैलेशी. ४३ (६) सकाययतना २८८ करणमाप्तिः ३५७ ४४ अयतनाया दुःखदफलम् २९१ ६७ शैलेशीकरणप्राप्त सिद्धिः ३६१ ४५ यतनावतो न पापकर्मवन्ध २९७ ६८ सिद्धिप्राप्तौ सिद्धस्य लोकाग्रे ४६ ज्ञानस्य मुख्यत्वम् ३०० शाश्वतत्वम् ४७ ज्ञानप्राप्त्युपायः ३०१ ६९ सिद्धानामूर्ध्वगतिस्वरूपम् ३६३ ४८ जीवाजीवज्ञानेन संयम ७० सिद्धावगाहनास्वरूपम् ३६७ ज्ञानं जीवगतिज्ञानं च ३०४ ७१ मुगतेदालभ्यम् ३६९ ४९ जीवगतिज्ञानेन पुण्यादि- ७२ सुगतेः सौलभ्यम् ३७० ज्ञानम् ३०५ ७३ उपसंहारः ३७३ ५० पुण्यस्वरूपम् पञ्चमाध्ययनम् ५१ पापस्वरूपम् (प्रथमोद्देशः) ५२ जीवकर्मणोर्वन्धसिद्धिः ३१६ ७४ भक्तपानगवेपणविधिः ३७५५ ५३ बन्धस्वरूपम् ३२० । ७५ गोचोचित्तस्थैर्योपदेशः ३७८ ५४ मोक्षस्वरूपम् ७६ गोची गमनविधिः ३८१ ५५ पुण्यादिज्ञाने भोगनिर्वेदः ३३७ ७७ विपममार्गगमने विराधना ३८३ ५६ भोगनिदे संयोगत्यागः ३३८ ७८ गमने पृथिवीकायादि५७ संयोगत्यागे अनगारता यतना, ३८५ माप्तिः ७९ ब्रह्मचर्यवतयतना ३८७ ५८ अनगारतामाप्ती ८० मार्गयतना ३९१ अनुत्तरधर्मस्पर्शः ३४० ८१ गोची कायचेष्टाप्रकार: ३९३ س ३१४ ३२५ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ दशवै. विषया० सं. विपयः : पृष्ठ। सं. विषयः पृष्ठ ८२ गोचर्या गृहप्रवेशविधिः ३९९ / १०६ कारणेगोचर्याभोजनविधिः४७७ ८३ विनाज्ञां द्वारोद्घाटन १०७ उपाश्रयागतस्यभोजन विधि:४८३ निषेधः १०८ गोचरीसंजातातिचारा- . ८४ गोचों मलमूत्रत्याग लोचनविधिः । ४८५ विधिः १०९ आहारपरिभोगविधिः , ४८८ ८५ भिक्षार्थ गृहप्रवेशविधिः ११० सुधादायि-मुधाजीविनी८६ भिक्षार्थ स्थितस्य काय. मोक्षावाप्तिः चेशभकार: ४०४ (द्वितीयोदशः) । ८७ गृहस्थगृहे स्थानविधिः । ४०५ १११ आहारपरिभोगविधिः ४९८ ८८ भाहारग्रहणविधिः ४०८ ११२ समयमर्यादया गोचरी८९ संहरणस्य चतुर्भङ्गायः ४११ गमनोपदेशः(कालयतना) ५०१ ९. निक्षेपणचतुर्भङ्गन्यः ११३ गोचर्या विचरणविवेकः ५०५ ९१ संघटनप्रकार: ४१८ । ११४ भिक्षा) गृहप्रवेशविधिः ५०६ ९२ पुरस्कमस्वरूपम् ४२० ९३ पुरस्कर्मपिताहारनिषेधः ४२३ ११५ पुष्पसंस्पर्शकहस्ताद्भिक्षा-: । . निपेधः ९४ पश्चात्कर्मपिताहारनिषेधः ४२६ ११६ सचित्ताहारनिषेधः- ५१३ ९५ आहारग्रहणविवेकः ४२७ ११७ भिक्षाचरणे विवेकोपदेशः५१८ ९६ शङ्कितमुद्रिताहारनिषेधः ४३४ ११८ भिक्षापहवनिषेधस्तदोपाश्च५२५ ९७ दानापोंपकल्पिताहारनिषेधः ११९ गुरुपरोक्षेभिक्षापहारहेतुः ५२७ ९८ औदेशिकाधाहारनिषेधः ४४४ १२० भिक्षापहारे दोषाः ५२९ १२१ मद्यनिषेधः ५३१ ९९ औद्देशिकाद्याहारस्वरूपम् ४४५ १२२ मद्यपायिनो दोपप्रकटनम् ५३३ १०० पुप्पमिश्रितादिदोपपिता १२३ मयादिविरतस्य गुणपकटनम्५३९ हारनिषेधः ४५२ १२४ तपादिचोरस्य दोप१०१ दुर्गममार्गगमननिषेधः ४५७ प्रकटनम् ५४२ १०२ मालाहृतभिक्षानिषेधः ४५९ । १२५ तपआदिचोरस्य.दुप्फल१०३ आहारग्रहणविवेकः ४६३ माप्तिः १०४ त्याज्यफलनामानि ४६५ । १२६ मायामृपात्यागोपदेशः ५४८ १०५ पानग्रहणविधिः ४६८ । १२७ अध्ययनपरिसमातिः । इति । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्रीवीतरागाय नमः॥ जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्रीघासीलालप्रतिविरचितया आचारमणिमञ्जूपाख्यया व्याख्यया समलङ्कृतं श्रीदशवैकालिकसूत्रम् मङ्गलाचरणम्. नम्रीभूतपुरन्दरादिमुकुट, भ्राजन्मणिच्छायया, चित्रानन्दकरी सदा भगवतो, यस्याङ्ग्रिलक्ष्मीः परा । यद्विज्ञाननिरन्तसिन्धुलहरी,-मग्नाः स्वकर्मक्षयं, कृत्वाऽनन्तसुखस्य धाम भविनः, प्रापुः श्रये तं जिनम् ॥१॥ विमलः केवलाऽऽलोक,-प्रभासंभारभासुरः। त्रिजगन्मुकरो धीरो, वीरो विजयतेतराम् ॥२॥ श्रीसुधर्मा महावीर-लब्धरत्नोज्ज्वलो गणी। निववन्ध तदुक्ताथै, नमस्तस्मै दयालवे ॥३॥ अथैतत्करुणालब्ध,-विवेकामृतविन्दुना । दशकालिकव्याख्या, घासीलालेन तन्यते ॥४॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवेकालिकमत्रे ___ अथ सूत्रमाह- .. म्लम्-धम्मो मंगलमुक्किटं, अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो. ॥१॥ या-धर्मों मङ्गलमुस्कएम् , अहिंसा संयमस्तपः । देवा अपि तं नमस्यन्ति, यस्य धर्मे सदा मनः ॥१॥ सान्वयार्थ:-अहिंसा-माणव्यपरोपणका त्याग करने तथा जीवोंकी रक्षा करनेरूप अहिंसा, संजमो संयम और तवोन्तप ( यह) धम्मो-धर्म उत्रिष्टुं उत्कृष्ट-सबसे श्रेष्ठ मंगलं मगल है-कल्याणकारी है। जस्स-जिसका मणोमन सया-सदा-हमेशा धम्मेधर्म में ( लगा रहता है) तं-उसको देवावि देवताभी नमसंतिनमस्कार करते हैं, अर्थात् निरन्तर धर्ममें लीन पाणी देवोंद्वारा भी पूज्य हो जाते हैं ॥१॥ टीका-'धम्मो मंगल-मित्यादि। धर्मः परतिपाणिनो दुर्गती पतनाद् रक्षति शुभे स्थाने च स्थापयति यः स तथोक्तः । उक्तञ्च "दुर्गतिप्रसृतान् जन्तून् , यस्माद्धारयते पुनः । - . , धत्ते चैतान् शुभे स्थाने, तस्माद्धर्म इति स्मृतः ॥ १॥” इति । हिन्दी-भाषानुवाद.. • 'धम्मो मंगल' मित्यादि । जो नरक आदि दुर्गतिमें गिरते हुए प्राणियोंको यचावे और स्वर्ग-मोक्ष आदि शुभस्थानोंमें पहुंचावे उसे धर्म कहते हैं। .. कहा भी है-"दुर्गतिमें पड़ते हुए जीवोंकी रक्षा करता है और फिर उन्हें शुभगतिमें पहुंचाता है, इसीसे वह धर्म कहलाता है"॥अर्थात् जो गुती-साषानुवाह. 'धम्मोमंगल' भित्यादि. २ न२४ मा तिमi sat elमान બચાવે અને સ્વર્ગ મેક્ષ આદિ શુભ સ્થાનમાં પહોંચાડે તેને ધર્મ કહે છે. કહ્યું પણ છે કે- દુર્ગતિમાં પડતા ની રક્ષા કરે છે અને પછી તેમને શુભ ગતિમાં પિોંચાડે છે, તેથી તે ધર્મ કહેવાય છે. અર્થાત દુખેથી Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - अध्ययन १ गा. १ धर्ममहिमा ___ उत्कृष्टम् उत्तम, मङ्गलं-मङ्गलस्वरूपम् , कस्तादृशो धर्मः ? इत्यत आहअहिंसा संयमस्तप इति । तत्राऽहिंसा नाम हिंसावर्जनं पाणिप्राणरक्षणं तदिच्छा चेति । न हिंसा-अहिंसेति विग्रहे अदिसाया अभावरूपत्वेनाऽवस्तुतया किमपि कार्य प्रति कारणत्वाऽनापत्तिरतोऽहिंसाऽपि भावरूपैव, तेन माणरक्षणमप्यहिंसाशब्दार्थः सिध्यति । ये तु स्वतः परतो वा माणिप्राणरक्षणमहिंसेति न मन्यन्ते ते तु अहिंसाशब्दरहस्यानभिज्ञा एवेति वोध्यम् । दुःखोंसे छुडाकर प्राणियोंको अनन्त सुखकी प्राप्ति कराता है वही धर्म है। धर्म: उत्कृष्ट मङ्गल है । अहिंसा, संयम और तप, ये तीनों उसके लक्षण हैं। अहिंसा हिंसाका त्याग करना अर्थात् प्राणियोंके प्राणोंकी रक्षा करना और उनके प्राणों के रक्षण की इच्छा रखना अहिंसा है। हिंसा के अभाव को अहिंसा कहा जाय तो अहिंसा अभावरूप हो जायगी। अभाव किसी कार्य के प्रति कारण नहीं हो सकता, इस कारण अहिंसा से स्वर्ग मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी, अतएव अहिंसा को भावरूप (वस्तुरूप) मानना उचित है, और जय कि वह वस्तुरूप है तो प्राणों की रक्षा करना अहिंसाशब्द का अर्थ सिद्ध हुआ। . जो जीवोंकी रक्षा करने कराने को अहिंसा नहीं मानते वे अहिंसा के यथार्थ तत्वको नहीं जानते।। છેડાવીને પ્રાણીઓને અનંત સુખની પ્રાપ્તિ જે કરાવે છે, તે ધર્મ છે. ધર્મ ઉત્કૃષ્ટ મંગલ છે. અહિંસા, સંયમ અને તપ, એ ત્રણ તેનાં લક્ષણ છે. અહિંસા હિંસાને ત્યાગ કરે અથત પ્રાણીઓના પ્રાણની રક્ષા કરવી અને તેમના પ્રાણેની રક્ષા કરવાની ઈરછા રાખવી એ અહિંસા છે. A હિંસાના અભાવને અહિંસા કહેવામાં આવે તે અહિંસા અભાવ–૨૫ થઈ જશે. અભાવ કોઈ કાર્યને પ્રતિ કારણ થઈ શકતું નથી, તેથી કરીને અહિંસાથી સ્વર્ગ મોક્ષની પ્રાપ્તિ નહિ થાય. એટલે અહિંસાને ભાવરૂપ (વસ્તુરૂપ) માનવી જ ઉચિત છે. અને જે તે વસ્તુરૂપ છે, તે પ્રાણેની રક્ષા કરવી એ અહિંસા શબ્દનો અર્થ સિદ્ધ થયે. , જેઓ જીવેની રક્ષા કરવી-કરાવવી એને અહિંસા નથી માનતા તેઓ અહિંસાના યથાર્થ તત્વને જાણતા નથી. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदवेकालिकमूत्रे उक्तं हि भगवता प्रश्नव्याकरणे प्रथमसंवरद्वारे “इम च णं सत्यजीवरक्खणदयहाए पाययणं भगवया मुकहियं " इत्यादि। ' सकलजीवानां रक्षणं माणव्यपरोपणवारणं प्राणरक्षणोपयोगी व्यापार इति पावत् तदर्थ, दया परदुःखमहाणेच्छा तदर्थ चेदं वचनं भगवता मुकथितमित्यर्थः, .. उक्तश्च दयाशब्दार्थों वाचस्पत्याभिधाने यत्नादपि परमेश, इत्तुं या हदि जायते । इच्छा भूमिमुरश्रेष्ठ ! सा दया परिकीर्तिता ॥ १ ॥” इति । तस्मात् सर्वमाणिनां रक्षणं रक्षणेच्छा वेति द्वयमेवाहिंसातत्त्वं सकलधर्ममूलञ्चेति। उक्तश्च संस्तारकमकीर्णकटीकायाम्--- न तहानं न तद्धयानं, न तज्ज्ञानं न तत्तपः । न सा दीक्षा न सा भिक्षा, दया यत्र न विद्यते ॥ १ ॥ इति । भगवानने प्रश्नव्याकरणके प्रथम संवरदार में कहा है---" समस्त जीवों की रक्षा (मरते हुएको, अपने या दूसरोंके द्वारा बचाना) और दया (दुःखोंसे छुडानेकी इच्छा) के लिए इस प्रवचनका उपदेश दिया है"। - वाचस्पत्य महाकोशमें कहा भी है-" हे भूमिसुरश्रेष्ठ ! प्रयत्नसे पर प्राणियोंके क्लेशको निवारण करनेके लिए हृदयमें जो इच्छा उत्पन्न होती है उसे दया कहते हैं" ॥१॥ संथारगपइन्नाकी टीकामें कहा है-" वह दान दान नहीं, वह ध्यान ભગવાને પ્રશ્નવ્યાકરણના પ્રથમ સંવરદ્વારમાં કહ્યું છે કે- “બધા જીવોની રક્ષા (મરતા અને પિતે અથવા બીજાઓ દ્વારા બચાવવા) અને દયા (૬.ખથી છોડાવવાની ઈરછા)ને માટે આ પ્રવચનને ઉપદેશ આપે છે " વાચસ્પત્ય મહાકેશમાં પણ કહ્યું છે કે- “હે ભૂમિસરશ્રેષ્ઠ! પ્રયત્ન વડે પર પ્રાણુઓના કલેશનું નિવારણ કરવાને માટે હૃદયમાં જે ઈચ્છા ઉત્પન્ન થાય छतेने या ४ छ." ॥ १ ॥ સંથારંગપઈન્નાની ટેકામાં કહ્યું છે કે- એ દાન દાન નથી, એ ધ્યાન - - - Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा.१ अहिंसास्वरूपम तथा- "मूलं धम्मस्स दया, तयणुगयं सन्चमेवऽणुद्वाणं । सिद्धं जिणिंदसमए, मग्गिजइ तेणिह दयालू ॥१॥" इति धर्मरत्नप्रकरणे । भगवतीस्त्रेऽपि पञ्चदशे शतके प्रोक्तम् " तए णं अहं गोयमा ? गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अणुकंपणयाए वेसियायणस्स चालतवस्सिस्स तेयपडिसाहरणट्टयाए एत्य णं अंतरा अहं सीयलियं तेयलेस्सं निसिरामि,जाए सा ममं सीयलियाए तेयलेस्साए वेसियायणस्स बालतवस्सिस्स सा उसिणा तेयलेस्सा पडिहया" इति । ध्यान नहीं, वह ज्ञान ज्ञान नहीं, वह तप तप नहीं, वह दीक्षा दीक्षा नहीं और वह भिक्षा भिक्षा नहीं, जहाँ कि दया नहीं है। अर्थात् दयारहित सय क्रियाएं मिथ्या यानी निष्फल है" ॥२॥ धर्मरत्नप्रकरणमें भी कहा है-"धर्मका मूल दया है; दयापूर्वक की हुई समस्त क्रियाएं सफल होती हैं, इसलिए जिनेन्द्र के मार्गमें दयावान् ही धर्मका अधिकारी हो सकता है" ॥३॥ उक्त कथनसे यह स्पष्ट होगया कि मरते हुए प्राणीको बचाना भी अहिंसा है। भगवतीसूत्रके पन्द्रहवें शतकमें भगवान श्रीगौतमसे कहते हैं "हे गौतम ! मंखलिपुत्र गोशालककी अनुकम्पा करनेके लिए मैंने शीतल तेजोलेश्यासे पालतपस्वी वैश्यायनके द्वारा निकाली हुई उपण तेजोलेश्याका तेज शान्त करके उसे बचाया। ધ્યાન નથી, એ જ્ઞાન જ્ઞાન નથી, એ તપ તપ નથી, એ દીક્ષા દીક્ષા નથી, અને એ ભિક્ષા ભિક્ષા નથી કે જ્યાં દયા નથી, અર્થાત્ દયારહિત બધી ક્રિયાઓ મિથ્યા એટલે નિષ્ફળ છે. ” ! ૨ છે ધર્મરત્નપ્રકરણમાં પણ કહ્યું છે કે “ધર્મનું મૂળ દયા છે; દયાપૂર્વક કરેલી બધી ક્રિયાઓ સફળ થાય છે, તેથી જીનેન્દ્રના માર્ગમાં દયાવાન જ ધર્મને अधिकारी य श छ. " ॥ 3 ॥ ઉક્ત કથનથી એ સ્પષ્ટ થઈ ગયું કે મરતા પ્રાણને બચાવવા એ પણ અહિંસા છે. ભગવતીસૂત્રના પંદરમા શતકમાં ભગવાન શ્રી ગૌતમને કહે છે ३-" गौतम ! भासतपस्वी वैश्यायन द्वारा अपामा मावती 8 तेनલેસ્થાના તેજને શીતલ તેલેસ્યાથી શાંત કરીને મંખલિપુત્ર શાલકની ઉપર દયા કરવા માટે મેં તેને બચાવ્યું.” Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकमत्रे हे गौतम ! मङ्गलिपुत्रस्य गोगालकस्यानुकम्पनायें वालतपस्विनो वैश्यायनस्य तेजःपतिसंहरणार्थं च मया शीतलां तेजोलेश्यामुद्भाव्य तदीयोप्णा तेजोलेश्या प्रतिहतेत्यर्थः । तत्र 'अणुकंपणट्टयाए ' 'तेयपडिसाहरणट्टयाए ' इति पदद्वयेन गोशालकरक्षणार्थ भगवतस्तेजोलेश्यासमुद्भव इति स्पष्टीभवति । न च रक्षणं यदि धर्मस्तहि स्वसमवसरणे वर्तमानौ सर्वानुभूतिमुनक्षत्रनामानी शिष्यौ किं न भगवता रक्षितौ ? इति वाच्यम् , भगवतः सर्वज्ञतया तयोरायु:समाप्तिसन्दर्शनात् । ननु यथा समाप्तायुपं कोऽपि नैव रसितुं प्रभवति तथा विद्यमानायुपं न कोऽपि हन्तुं शक्नुयात् ? इति चेन्न, त्रिपष्टिशलाकापुरुषान् देवान् यहां यह संदेह हो सकता है कि यदि बचाने में धर्म होता तो भगवान्ने अपने समवसरणमें स्थित सर्वानुभूति और सुनक्षत्र नामक शिष्यों को क्यों न पचाया ? इसका समाधान यह है कि भगवान् सर्वज्ञ थे, इसलिए किसका आयुष्य कितना अवशेष है या समाप्त हो चुका है इसे वे अपने निर्मल केवल ज्ञानसे जानते थे। सर्वानुभूति और सुनक्षत्र शिष्योंका वर्तमान आयुष्य समाप्त हो चुका था। प्रश्न-जैसे वर्तमान आयुष्य समाप्त होने पर कोई किसीको बचा नहीं सकता वैसे ही आयुष्य रहते हुए कोई किसीको प्राणरहित भी नहीं कर सकता? અહીં એ સંદેહ થઈ શકે છે કે જે બચાવવામાં ધર્મ થાય છે તે ભગવાને પિતાના સમવસરણમાં રહેલા સર્વાનુભૂતિ અને સુનક્ષત્ર નામના શિષ્યોને કેમ ન બચાવ્યા ? એનું સમાધાન એ છે કે–ભગવાન્ સર્વજ્ઞ હતા, તેથી તેનું આયુષ્ય કેટલું અવશેષ રહ્યું છે અથવા સમાપ્ત થઈ ચૂકયું છે તે ભગવાન પિતાને નિર્મળ કેવળ જ્ઞાનથી જાણતા હતા. સર્વાનુભૂતિ અને સુનક્ષત્ર શિષ્યનું વર્તમાન આયુષ્ય સમાપ્ત થઈ ચૂકયું હતું. પ્રશ્ન–જેમ વર્તમાન આયુષ્ય સમાપ્ત થવાથી કઈ કઈને બચાવી શકતું નથી; તેમજ આયુષ્ય બાકી હોય તે કઈ કઈને પ્રાણુરહિત પણ કરી શકતું નથી. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ अहिंसास्वरूपम् नारकांय बिहायान्येपां माणिनामायुपः सत्त्वेऽपि विपशस्त्रादिमिरकालमरणसंभवात् , ईदृशस्याकालमरणस्य बहुशः शास्त्रे प्रतिपादितत्वाच, अत एवाऽऽयुपः सत्त्वेऽपि प्राणिनां प्राणव्यपरोपणं संभवतीति ग्रन्थविस्तरभिया विरमामः । एवञ्चाहिंसाशब्दस्योक्तार्थः सुस्पष्ट एव ।। अब माणिमाणरक्षणं तदिच्छा चेति द्वयम् 'अहिंसे'-ति सिद्धान्तितम् । अहिंसा-इत्यत्र का नाम हिंसेति चेदुच्यते--. ... ... 'हिंसा नाम प्रमादपारवश्यात् प्राणव्यपरोपणम् । प्रमादश्च मध-विपयकपाय-निद्रा-विकथाभेदात्पञ्चधा, यद्वा अज्ञान-संशय-विपर्यय-राग-द्वेष- उत्तर-एसी शङ्का करना भी उचित नहीं है। क्योंकि विपष्टिशलाकापुरुष, देवता और नारकोंके सिवाय समस्त प्राणियोंकी आयु रहते हुए भी विप शस्त्रं आदि कारणोंसे अकालमृत्यु भी हो सकती है, यह बात शास्त्रसिद्ध है, अत एव आयुष्य के सद्भावमें भी प्राणोंका व्यपरोपण हो सकता है। विस्तार भयसे इस प्रकरणको यहाँ ही समाप्त करते हैं। प्राणिप्राणरक्षण और उसकी इच्छाको अहिंसा कहते हैं। यह सिद्वान्त हुआ। — अहिंसा शन्द घटक जो हिंसा शब्द है उसका अभिप्राय क्या है ? इस पर कहते हैं-प्रमादके वश होकर प्राणका अतिपात करना हिंसा है। - प्रमाद-(१) मद्य, (२) विपय, (३) कपाय, (४) निद्रा और (५) विकथाके भेदसे पांच प्रकारका, अथवा (१) अज्ञान, (२) संशय, ઉત્તર–એવી શંકા કરવી જ ઉચિત નથી, કેમકે ત્રિષ્ટિશલાકાપુરૂષ, દેવતા અને નારીઓ સિવાય બીજા બધા પ્રાણુઓનું આયુષ્ય બાકી હોય તો પણ વિષ, શસ્ત્ર, આદિ કારણેથી તેમનું અકાળમૃત્યુ પણ થઈ શકે છે. એ વાત શાસ્ત્રસિદ્ધ છે. એટલે આયુષ્યને સદ્ભાવ હોવા છતાં પણ પ્રાણેનું વ્યાપ छ. વધારે વિસ્તાર નહિ કરવાને આ પ્રકરણને અહીં જ સમાપ્ત કરીએ છીએ. પ્રાણિપ્રાણરક્ષણ અને તેની ઈચ્છાને અહિંસા કહે છે એ સિદ્ધાન્ત થયે. અહિંસા શરદમાં જે હિંસા શબ્દ છે એને અભિપ્રાય શું છે? આ સંબંધમાં કહે છે– પ્રમાદને વશ થઈને પ્રાણને અતિપાત કરે તે હિંસા છે. - (१) मध, (२) विषय, (3) ४पाय, (४) निद्रा मरे (५) विश्था, ये हे शन प्रभाह पांय प्रार!; अथवा (१) मज्ञान, (२) संशय, (3) विपर्यय, Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकमृत्रे हे गौतम ! मालिपुत्रस्य गोशालकस्यानुकम्पनार्थ बालतपस्विनो वैश्यायनस्य तेजापतिसंहरणार्थ च मया शीतलां तेजोलेश्यामुद्भाव्य तदीयोप्णा तेजोलेश्या प्रतिहतेत्यर्थः । तत्र 'अणुकंपणहयाए ' 'तेयपडिसाहरणट्टयाए ' इति पदद्वयेन गोशालकरक्षणार्थ भगवतस्तेजोलेश्यासमुद्भव इति स्पष्टीभवति । ___ न च रक्षणं यदि धर्मस्तहि स्वसमवसरणे वर्तमानौ सर्वानुभूतिमुनक्षत्रनामानी शिष्यौ किं न भगवता रक्षितौ ? इति वाच्यम् , भगवतः सर्वज्ञतया तयोरायु:समाप्तिसन्दर्शनात् । ननु यथा समाप्तायुपं कोऽपि नैव रसिंतुं प्रभवति तथा विद्यमानायुपं न कोऽपि हन्तुं शक्नुयात् ? इति चेन्न, त्रिपटिशलाकापुरुषान् देवान् यहां यह संदेह हो सकता है कि यदि यचाने में धर्म होता तो भगवान्ने अपने समवसरणमें स्थित सर्वानुभूति और सुनक्षत्र नामक शिष्यों को क्यों न बचाया ? इसका समाधान यह है कि भगवान् सर्वज्ञ थे, इसलिए किसका आयुष्य कितना अवशेप है या समाप्त हो चुका है इसे वे अपने निर्मल केवल ज्ञानसे जानते थे। सर्वानुभूति और सुनक्षत्र शिष्योंका वर्तमान आयुष्य समाप्त हो चुका था। प्रश्न-जैसे वर्तमान आयुष्य समाप्त होने पर कोई किसीको बचा नहीं सकता वैसे ही आयुष्य रहते हुए कोई किसीको प्राणरहित भी नहीं कर सकता? અહીં એ સંદેહ થઈ શકે છે કે – બચાવવામાં ધર્મ થાય છે તે ભગવાને પિતાના સમવસરણમાં રહેલા સર્વાનુભૂતિ અને સુનક્ષત્ર નામના શિષ્યને કેમ ન બચાવ્યા ? એનું સમાધાન એ છે કે-ભગવાન સર્વજ્ઞ હતા, તેથી કેનું આયુષ્ય કેટલું અવશેષ રહ્યું છે અથવા સમાસ થઈ ચૂક્યું છે તે ભગવાન પોતાના નિર્મળ કેવળ જ્ઞાનથી જાણતા હતા. સર્વાનુભૂતિ અને સુનક્ષત્ર શિષ્યનું વર્તમાન આયુષ્ય સમાપ્ત થઈ ચૂક્યું હતું. પ્રશ્ન-જેમ વર્તમાન આયુષ્ય સમાપ્ત થવાથી કઈ કઈને બચાવી શકતું નથી; તેમજ આયુષ્ય બાકી હેય તે કેઈ કેઈને પ્રાણુરહિત પણ કરી શકતું નથી. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गां. १ अहिंसास्वरूपम् एवंविधा च हिंसा काययोगस्यं चपलतया सर्वथा परिहर्तुमशक्येति व्यवहारनयमात्रगम्या। , भावतो हिंसा-माणव्यपरोपणेच्छालक्षण आत्मनोऽशुद्धपरिणामः, यथामकरनाम्नो जलजन्तुविशेपस्य भूप्रदेशे लब्धजन्मा तण्डुलदघ्नोऽन्तर्मुहूर्त्तायुष्कोऽन्तर्मुहूर्त्तमात्रंगर्भनिवासानन्तरमुत्पादशीलस्तण्डुलाभिधानो मत्स्यविशेषस्तत्र स्थित एनावलोकयति- . मकरोऽयं मत्स्यानशितुं तावत्तुण्डतस्तोयमाकपति, ततश्च जलवेगादाननान्त-समागतेपु प्रचुरतरेषु मीनेषु पश्चात्तानवरुध्याऽऽस्यगतं नीरं निस्सारयोगकी चपलताको सर्वथा दूर करना अत्यन्त कठिन होनेके कारण व्यवहारनयमात्र है। . . (२)भावहिंसा-प्राणोंसे रहित करनेकीइच्छारूप आत्माका अविशुद्ध परिणाम, भावहिंसा कहलाती है। जैसे-मगर नामके जलचर-जीव-विशेषकी भोंह पर बारीक चाँवलके समान शरीरवाला एक तन्दुल नामका मत्स्य होता है; वह अन्तर्मुहर्त गर्भमें रहकर जन्म लेता है। उसकी आयु अन्तर्मुहूर्त्तमात्रकी ही होती है । गर्भज होनेके कारण उसको मन होता है। वह वहाँ (भौह पर) बैठा हुआमगरका कृत्य देखता है कि वह मगर जलजन्तुओंको खानेके लिए पहले अपने मुँहमें पानीको खींचता है, फिर पानीके वेगसे आईहुई मछलियों को मुँहमें रोककर जब पानीको निकालता है तब दांतोंके સર્વથા દૂર કરવી અત્યંત કઠિન હોવાને કારણે વ્યવહારનયમાત્ર છે. (૨) ભાવહિંસા–પ્રાણથી રહિત કરવાની ઈચ્છારૂપ આત્માને અવિશુદ્ધ પરિણામ એ ભાવહિંસા કહેવાય છે. . જેમકે—મગર નામના એક જળચર પ્રાણીની ભમ્મર પર ચેખા જેવા બારીક શરીરવાળે એક તંદુલ નામને મત્સ્ય થાય છે. એ મત્સ્ય અંતર્મુહૂર્ત ગર્ભમાં રહીને જન્મ લે છે. તેનું આયુષ્ય અંતર્મુહૂર્ત જેટલું હોય છે. તે ગર્ભજ જીવ હોવાને લીધે તેને મન થાય છે. તે મગરની ભમ્મર પર બેઠેબેઠે મગરનું કૃત્ય જુએ છે કે આ મગર જળમાંના જીવને ખાવાને માટે પહેલાં પિતાના મોંમાં પાર્થને ખેંચે છે, પછી પાણીના વેગથી આવેલી માછલ્લીઓને મહેમાં રોકીને જ્યારે પાણીને કાઢી નાંખે છે, ત્યારે દાંતના છિદ્રો દ્વારા પાણીની Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशकालिको स्मृतिभ्रंश-योगदुप्पणिधान-धर्मानादरभेदादष्टविधः। सा च हिंसा विविधाद्रव्यतो भावत उभयतथेति, तत्र द्रव्यतो हिंसा-आत्मनो विशुद्धपरिणामस्य सत्वेऽप्यकस्मादनिच्छया जन्तुविराधनं, यथा-भिक्षाचर्यादौ प्रयत्तस्य समितिगुप्यादिधारकस्य चलनार्थ पादोत्याने कृते. एकेन चरणेन तिष्ठतः साधोरुत्यापितचरणतले तदानीं कुतविद्भयाद् दुर्लक्ष्यकारणवशाद्वा वेगेन समागतस्य कस्य चिद् डीन्द्रियादिजन्तोरितस्ततः साधुना तद्रक्षणमयासे कृतेऽपि अकस्माचरणवलसंलपतपा विराधनम् । (३) विपर्यय, (४)राग, (५) द्वेष, (६)स्मृति-भ्रंश, (७) योगदुष्प्रणिपानं, (८) धर्मानादर, के भेदसे आठ प्रकारका है।। हिंसा तीन प्रकारकी है-(१) द्रव्यहिंसा, (२) भावहिंसा और (३), उभयहिंसा। (१) द्व्यहिंसा-आत्माके परिणाम विशुद्ध होने पर भी अकस्मात् इच्छाके विना ही जन्तुको पीडा हो जाना द्रव्यहिंसा है, जैसे-आहार विहार आदिमें प्रवृत्त, समिति और गुप्तिके धारण करनेवाले मुनिने जब एक चरण उठाया तो उठाये हुए चरणके नीचे किसी भयसे या अन्य कारणसे कोई द्वीन्द्रिय आदि लघुकाय जीव अचानक नीचे आ जाय और साधु उसकी रक्षा करनेका प्रयत्न भी कर रहे हों, फिर भी अचानक दब जानेसे विराधना होना। इस प्रकारकी हिंसा, शरीरके (४) २२२१, (५) ३५, (६) भूतिब्रश, (७) योग प्राविधान, (८) भने અનાદર, એ ભેદે કરીને પ્રમાદ આઠ પ્રકાર છે. सा न ४२नी :- (१) यहिसा, (२) वापस, भने (७) मासा. (૧) દ્રવ્યહિંસા-આત્માના પરિણામ વિશુદ્ધ હોવા છતાં અકસ્માત ઈચ્છા વિના જંતુઓની વિરાધના થઈ જાય તે વ્યહિંસા છે. જેમકે–આહાર વિહાર આદિમાં પ્રવૃત્ત, સમિતિ અને ગુણિને ધારણ કરવાવાળા મુનિએ ત્યારે એક પગ ઉપાડે ત્યારે ઉપાડેલા પગની નીચે કાંઈ ભયને લીધે અથવા બીજા કેઈ કારણથી કઈ બેઈદ્રિય આદિ લઘુકાય જીવ અચાનક પગ નીચે આવી જાય, અને મુનિ એની રક્ષા કરવા પ્રયત્ન પણ કરી રહ્યા છે, તે પણ અચાનક દબાઈ જવાથી વિરાધના થાય. આ પ્રકારની હિંસા, શરીરના રોગની ચપલતાને Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - % अध्ययन १ गा. १ संयमस्वरूपम् शस्त्रादिना तत्पहरणं तदभिलापमात्रं वा रजोरचेतनत्वेन प्राणव्यपरोपणाऽभावेऽपि आत्मन उक्तस्वरूपाऽशुद्धपरिणामोदयाचतुर्गतिभवभ्रमणहेतुर्वन्धो नियतं भवति । उभयतो हिंसा-आत्मनोऽशुद्धपरिणामपूर्वकं प्राणन्यपरोपणं, यथा-केनचिद् व्याधेन मृगनिघांसया शरमक्षेपेण कृतं तद्धननम् । संयमः। संयमः संयमन सम्यगुपरमण सावधयोगादिति संयमः, स च सप्तदशविधः, समझकर क्रूर परिणामसे मारा, या मारनेका प्रयास किया तो वहाँ रस्सीके अचेतन होने के कारण यद्यपि प्राणोंका व्यपरोपण नहीं हुआ तथापि आत्मामें अशुद्ध परिणामके उदय होनेसे वह भी भावहिंसा है। उस हिंसासे निश्चय ही चतुर्गतिमें परिभ्रमण करानेवाले कर्मोंका पन्ध होता है। (३) उभयहिंसा-अशुद्ध परिणामोंसे जीवका घात करना उभयहिंसा है, क्योंकि इस हिंसामें आत्माके अशुद्ध परिणाम और प्राणोंका नाश दोनों पाये जाते हैं, जैसे-कोई व्याध हरिणको मारनेकी इच्छासे याण चलाता है और उससे उसके प्राणोंका नाश हो जाता है । संयम। सावद्ययोगसे सम्यक्प्रकारसे निवृत्त होनेको संयम कहते हैं । वह પરિણામથી માર્યો, અથવા મારવાનો પ્રયાસ કર્યો, તે તેમાં દેરડું અચેતન હેવાથી જે કે પ્રાણનું વ્યપરપણ થયું નહિ, તે પણ આત્મામાં અશુદ્ધ પરિણામને ઉદય હોવાથી એ પણ ભાવહિંસા છે. આ હિંસાથી નિશ્ચિતપણે ચતુતિમાં પરિભ્રમણ કરનારાં કર્મોને બંધ થાય છે. () ઉભયહિંસા-અશુદ્ધ પરિણામેથી જીવને ઘાત કરે એ ઉભયહિંસા છે; કેમકે એ હિંસામાં આત્માના અશુદ્ધ પરિણામ તથા પ્રાણુને નાશ બન્ને રહેલા હોય છે. જેમકે-કઈ પારધી હરણને મારવાની ઇરછાથી બાણ છેડે છે અને એ રીતે હરણના પ્રાણુને નાશ થઈ જાય છે. સંયમ સાવદ્યગથી સમ્યક્ પ્રકારે નિવૃત્ત થવું તેને સંયમ કહે છે. સંયમ સત્તર Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० श्रीवैकालिकमुत्रे दशनान्तरावकाश निर्गतोदकवेगतो यति तदा बहुतरं मीना लघुतरा निस्सरन्त्येव । एवं वहिर्व्रजतस्तान्निरीक्ष्यासौ तण्डुलमत्स्यो मनसि विभावयति - " यदि मम वपुरीदृशं बृहत् स्यात् तर्हि मम मुखान्निर्गन्तुमेकोऽपि मत्स्यो न शक्नुयात्, मया सर्वेऽपि भक्षिता भवेयुः " इति । इत्थं कलुपिताध्यवसायरूपया भावहिंसया स्वकीयमन्तर्मुहूर्त्त प्रमाणमायुष्यं समाप्य त्रयस्त्रिंशत्सागरममाणं नरकायुष्यं निवध्यासौ ( तण्डुलमत्स्यः) तमस्तमा - भिधायां सप्तम्यां नरकपृथिव्यां नारकत्वेन समुत्पद्यते । यद्वा - अल्पीयसि प्रकाशे रज्जुमालोक्य ' व्यालोऽय - मित्यालोचयतः छिद्रों द्वारा पानीके साथ-साथ बहुतसी छोटी मछलियां निकल जाती हैं, तब उन निकलती हुई मछलियोंको देखकर तन्दुलमत्स्य विचारता है कि इस (मगर) के तो दांतोंके छिद्रों द्वारा बहुतसी मछलियां निकल जाती हैं, किन्तु, अगर मेरा शरीर मगरके बराबर बड़ा होता तो मैं इनमेंसे एकको भी नहीं निकलने देता सयको भक्षण कर जाता । इस प्रकार वह परम कलुपित अध्यवसायरूप भावहिंसा से तीससागरप्रमाण नरकायुष्य बांधकर अन्तर्मुहूर्त्तकी अपनी आयुष्यको समाप्त करके तमतमा नामकी सातवीं नरकपृथिवीके अन्दर नारकीपनमें उत्पन्न होता है । अथवा जैसे - मन्द मन्द प्रकाशमें किसी हिंसकने रस्सीको सर्प સાથે સાથે ઘણીય નાની નાની માછલીઓ બહાર નીકળી જાય છે. એ નીકળી જતી માછલીએને જોઈને તંદુલ મત્સ્ય વિચારે છે કે આ મગરના દાંતનાં છિદ્રોની માટે ઘણીય માછલીએ મહાર નીકળી જાય છે, પરન્તુ જે મારૂ શરીર મગરના જેટલું માટું હાત તા હું એમાંથી એક પણ માછલીને બહાર નીકળવા ન દેતબધીયનું ભક્ષણ કરી જાત આ પ્રમાણે એ પરમ કષિત અધ્યવસાયરૂપ ભાવહિંસાથી તેત્રીસ સાગરનું નરકાસુષ્ય ગાંધીને અંતર્મુહૂતનું આયુષ્ય સમાપ્ત કરે છે અને તમતમા નામની સાતમી નરકપૃથિવીની અંદર નારકીપો ઉત્પન્ન થાય છે. અથવા જેમ-મંદ મંદ પ્રકાશમાં કઇ હિંસકે દોરડાને સર્પ સમજીને ક્રૂર Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ - अध्ययन १ गा. १ संयमस्वरूपम् शस्त्रादिना तत्महरणं तदमिलापमानं या रजोरचेतनत्वेन माणव्यपरोपणाsभावेऽपि आत्मन उक्तस्वरूपाऽद्धपरिणामोदयाचतुर्गतिभवभ्रमणहेतुर्वन्धो नियतं भवति । उभयतो हिंसा-आत्मनोऽशुद्धपरिणामपूर्वकं प्राणव्यपरोपणं, यथा-केनचिद् व्याधेन मृगजियांसया शरमक्षेपेण कृतं तद्धननम् । संयमः। संयमः संयमन सम्यगुपरमण सावद्ययोगादिति संयमः, स च सप्तदशविधः, समझकर क्रूर परिणामसे मारा, या मारनेका प्रयास किया तो वहाँ रस्सीके अचेतन होने के कारण यद्यपि प्राणोंका व्यपरोपण नहीं हुआ तथापि आत्मामें अशुद्ध परिणामके उदय होनेसे वह भी भावहिंसा है। उस हिंसासे निश्चय ही चतुर्गतिमें परिभ्रमण करानेवाले कोका बन्ध होता है। (३) उभयहिंसा-अशुद्ध परिणामोंसे जीवका घात करना उभयहिंसा है, क्योंकि इस हिंसामें आत्माके अशुद्ध परिणाम और प्राणोंका नाश दोनों पाये जाते हैं, जैसे-कोई व्याध हरिणको मारनेकी इच्छासे याण चलाता है और उससे उसके प्राणोंका नाश हो जाता है। संयम। सावद्ययोगसे सम्यक्प्रकारसे निवृत्त होनेको संयम कहते हैं। वह પરિણામથી માર્યો, અથવા મારવાનો પ્રયાસ કર્યો, તે તેમાં દેરડું અચેતન હેવાથી જે કે પ્રાણનું વ્યપરપણ થયું નહિ, તે પણ આત્મામાં અશુદ્ધ પરિણામને ઉદય હેવાથી એ પણ ભાવહિંસા છે. આ હિંસાથી નિશ્ચિતપણે ચતુતિમાં પરિભ્રમણ કરનારા કર્મોને બંધ થાય છે. (૩) ઉભયંહિસા- અશુદ્ધ પરિણામોથી જીવને ઘાત કરે એ ઉભયહિંસા છે, કેમકે એ હિંસામાં આત્માના અશુદ્ધ પરિણામ તથા પ્રાણને નાશ અને રહેલા હોય છે. જેમકે-કઈ પારધી હરણને મારવાની ઈચ્છાથી બાણ છેડે છે અને એ રીતે હરણના પ્રાણને નાશ થઈ જાય છે. સંયમ સાવલગથી સમ્યક્ પ્રકારે નિવૃત્ત થવું તેને સંયમ કહે છે. સંયમ સત્તર Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ श्रीदशवकालिकम्ने तदुक्तं समवाया) “सत्तरसविहे संजमे पण्णचे तंजहा-(१) पुढवीकायसंजमे (२) आउकायसंजमे (३) तेउकायसंजमे (४) बाउकायसंनमे (५) वणस्सइकायसंजमे (६) वेइंदियसंजमे (७) तेइंदियसंजरे (८) चउरिदियसंजमे (९) पंचिदियसंजमे (१०) अजीवकायसंजमे (११) पेहासजमे (१२) उवेडासंजमे (१३) अबढुटु(परिधावणा)संजमे (१४) पमजणासंजमे (१५) मणसंजमे (१६) वयसंजमे (१७) कायसंजमे" इति । छाया-सप्तदशविधः संयमः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-(१) पृथिवीकायसंयमः(२) अप्कायसंयमः (३) तेजस्कायसंयमः (४) वायुकायसंयमः (५) वनस्पतिकायसंयमः (६) द्वीन्द्रियसंयमः (७) श्रीन्द्रियसंयमः (८) चतुरिन्द्रियसंयमः (९) पश्शेन्द्रियसंयमः (१०) अजीवकायसंयमः (११) मेक्षासंयमः(१२)उपेक्षासंयमः (१३) अपहत्यसंयमः (१४) प्रमार्जनासंयमः (१५) मनःसंयमः (१६) यासंयमः (१७) कायसंयमः। तत्र (१) पृथिवीकायसंयमा सचित्तपृयिन्या हस्तपादादिना संघटनादिसतरह प्रकारका है। समवायाङ्गके सतरहवें समवायमें कहा है(१)पृथिवीकायसंयम,(२)अपकायसंयम, (३)तेजस्कायसंयम,(४) वायुफायसंयम, (६) वनस्पतिकायसंयम, (६) दीन्द्रियसंयम, (७) श्रीन्द्रियसंयम, (८) चतुरिन्द्रियसंयम, (९) पञ्चेन्द्रियसंयम, (१०) अजीवकायसंयम, (११) प्रेक्षासंयम, (१२) उपेक्षासंयम, (१३)अपहृत्यसंयम (परिछापनासंयम),(१४)प्रमार्जनासंयम, (१५)मनःसंयम, (१६) वाक्संयम, (१७) कायसंयम। (१) पृथिवीकायसंयम हाथ पैर इत्यादिसे सचित्त पृथिवीका संघटन (संघटा) आदिका वर्जन करना। પ્રકાર છે. સમવાયાંગના સત્તરમા સમવાયમાં તે પ્રકારે કહ્યા છે. (1) पृथिवीयसयम, (२) २५५४ायसयम, (3) ४४ायसयम, (४) वायुसयम, (५) वनस्पतियसयम, (6) बान्द्रयसयम, (७) त्रीन्द्रियसंयम, (८) तुशिन्द्रयसयम, (6) ५येन्द्रियसंयम, (१०) म यसयम (११) प्रेक्षासयभ, (१२) अपेक्षासयभ, (१३) मपाहत्यसयम (पपिनासंयम ), (१४) प्रभारी नासयम, (१५) भन्: संयम, (१६) पाइयभ, (१७) ययम. (૧) પૃથિવીકાયસંયમ-હાથ પગ ઈત્યાદિથી સચિત્ત પૃથિવીનું સંઘટન વગેરેને વજેવું - - - - Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ - अध्ययन १ गा.१ संयमस्वरूपम् विरतिः (२) अप्कायसंयमा सचित्तजलस्य संघटनाधकरणम् , (३) तेजस्कायसंयमः-पचनपाचनादिनिमित्तकाऽनलारम्भनिवर्त्तनम् ; (४) वायुकायसंयमः वस्त्रपात्रव्यजनवक्त्रादिसमुत्पन्नवायुजनितवायुकायोपमर्दननित्तिः , तत्र वस्त्रपात्राणामयतनया निक्षेपणादानप्रक्षेपनिपातनादिकारणवशात् , तथा तेपां (वस्त्रपात्राणां) व्यजनपर्णशाखादीनां च विधूननेन वायुकायविराधनं भवति । अनारतमुखेन संभापणे च तनिर्गतोप्णवायुना तद्विराधनं जायते । (६) वनस्पतिकायसंयमा तरुलतिकादिहरितकायमात्रस्य संघटनादिवर्जनम् । (२) अप्कायसंयम सचित्त जलका संघटा आदि न करना। (३) तेजस्कायसंयम-पचन पाचन आदि किसी प्रयोजनके लिए अग्निके संघटा आदिका वर्जन करना। (४) वायुकायसंयम वस्त्र, पात्र, पंखा, फूंक आदिसे उत्पन्न हुए वायुदारा वायुकायकी विराधनाका वर्जन करना। · वस्त्र, पात्रोंको अयतनासे रखनेसे, अयतनासे लेनेसे, फेंकनेसे, गिरानेसे, तथा वस्त्र, पात्र, पंखा आदिको हिलाकर वायुकायकी उदीरणा करनेसे तथा योलते समय उष्णवायुनिकलनेके द्वारा मुखसे वायुकायकी विराधना होती है। ' (५) वनस्पतिकायसंयम-वृक्ष, लता आदि हरित कायके संघटा 'आदिसे निवृत्त होना। (२) २५अयसयभ-सथित्तराखनु संघटन माहि न ४२. (૩) તેજસ્કાયસંયમ–રાંધવું, રંધાવવું વગેરે કઈ પ્રજનને માટે અગ્નિનું સંઘટન આદિને વર્જવું. () વાયુકાયસંયમ–વઝ, પાત્ર, પ, કુંક ઈત્યાદિથી ઉત્પન્ન થયેલા વાયુદ્વારા વાયુકાયની વિરાધના વર્જવી. વસ્ત્ર, પા ઈત્યાદિને અયતનાપૂર્વક રાખવાથી, અયતનાપૂર્વક લેવાથી, ફેંકવાથી, પાડવાથી, તથા વસ્ત્ર-પાત્ર-પ વગેરેને હલાવીને વાયુકાયની ઉદીરણું કરવાથી તથા ખેલતી વખતે મુખના ઉના વાયુથી વાયુકાયની વિરાધના થાય છે. . (૫) વનસ્પતિકાયસંયમ–વૃક્ષ, લતા આદિ હરિતકાયના સંઘટન આદિથી નિવૃત્ત થવું. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकमूत्रे -एवं (६) द्वीन्द्रियादि- (९) पञ्चेन्द्रियपर्यन्तानां सर्वयाऽनुपमर्दनं तत्तसंयमः (१०) अजीवकायसंयमा बहुमूल्यवतां वस्त्रपात्रादीनामनुपादानम् , उपादेयवस्त्रपात्रादीनां सयत्नमुपादानं स्थापनं च, (११) मेक्षासंयमा वसतिवस्त्रपात्रादीनां सयतनं सविधि प्रतिलेखनम् , (१२) उपेक्षासंयमः संयममार्गे क्लेशमाकलयतोऽ संयममार्गे मवर्तमानस्य वा स्वात्मनः परस्य वा असंयमदोपान् संयम (६-७-८-९) दीन्द्रियादिसंयम दीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, और पञ्चेन्द्रिय जीवोंका सर्वथा उपमर्दन न करना तत्तत्संयम, अर्थात् दीन्द्रियसंयम, त्रीन्द्रियसंयम, चतुरिन्द्रियसंयम, पवेन्द्रियसंयम कहलाता है। (१०) अजीवकायसंयम बहुत मृत्यवाले घन पात्र आदिका ग्रहण न करना, तथा कल्पनीय वस्त्र पात्र आदि को यतनाके साथ लेना और रखना। (११) प्रेक्षासंयम वसती, वस्त्र, पात्र, पाट, पाटला आदिका यतनापूर्वक सविधि प्रतिलेखन करना। . . . (१२) उपेक्षासंयम संयममार्गमें अनुकूल प्रतिकूल परिषहोंसे क्लेशका अनुभव करनेवाले, अथवा असंयममें प्रवृत्ति करनेवाले स्वपरकीआत्माको संयमके गुण और असंयमके.दोप समझाकर फिर संयममार्गमें प्रवृत्त (E-७-८-६) द्वन्द्रियाहिसंयम-दीन्द्रय, त्रीन्द्रिय, सतुहिन्द्रिय, २२ પંચેન્દ્રિય જીવેનું સર્વથા ઉપમન ન કરવું, તે તે પ્રકારને સંયમ, અર્થાત કન્દ્રિયસંયમ, ત્રીન્દ્રિયસંયમ, ચતુરિન્દ્રિયસંચમ અને પંચેન્દ્રિયસંયમ उवाय छे. (૧૦) અજીવાયસંયમ-મૂલ્યવાન વસ્ત્ર પાત્ર અદિને ગ્રહણ ન કરવાં, તથા કલ્પે તેવાં જ વસ્ત્ર પાત્ર આદિને યતનાપૂર્વક લેવાં તથા રાખવાં. (११) प्रेक्षासयम-सती, वन, पात्र, पाट, पाटदा त्याहिन यतनाપૂર્વક તથા વિધિસર પ્રતિલેખન કરવાં. (૧૨) ઉપેક્ષાસંયમ-સંયમમાર્ગમાં અનુકૂળ–પ્રતિકૂળ પરિષહેથી સ્લેશને અનુભવ કરનારા, અથવા અસંયમમાં પ્રવૃત્તિ કરનારા, સ્વપરના આત્માઓને સંયમને ગુણ તથા અસંયમના દેવ સમજાવીને પછી સંયમમાર્ગમાં Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - अध्ययन १ गी. १ संयमस्वरूपम् गुणांश्चावयोध्य संयमयोगेषु प्रवर्तनं . संयमसमीपानयनलक्षणं संयमसामीप्यदर्शनमित्यर्थः । यद्वा प्रेक्षासंयमा सकृत्मतिलेखनम् । उपेक्षासंयम:=पुनः पुनः प्रतिलेखनम् । (१३) अपहृत्य (परिष्ठापना) संयमा उच्चारादीनां विधिना समुत्सर्गः परिप्ठापनमित्यर्थः । (१४) प्रमार्जनासंयम-विधिना वसतिपात्रादेः परिशोधनम् । (१५-१६-१७) मनोवाकायसंयमा अकुशलानां मनोवाक्कायानां निरोधेन कुशलानामुदीरणम् । तत्राऽऽतरौद्रध्यानपरिहारपूर्वकधर्मशुक्लथ्यानंप्रवर्तनं मनःसंयमः । सावधपरिहारपूर्वकनिरवद्यमापणं वाक्संयमः । अयतनापरिकरना । अथवा वस्त्र पात्र आदिके उपभोग करते समय एक बार प्रतिलेखन करना प्रेक्षासंयम है, और वारंवार चारों ओरसे प्रतिलेखन करना उपेक्षासंयम है। . (१३) अपहृत्य(परिष्टापना)संयम-यतनापूर्वक उच्चार-प्रस्रवणको त्यागना। (१४) प्रमार्जनासंयम यतनाके साथ वसती वस्त्र पात्र आदिको पूँजना (प्रमार्जन करना)। (१५) मनःसंयम-अकुशल मनकानिरोध करके कुशल मनकी प्रवृत्ति करना, अर्थात् आर्तध्यान और रौद्रध्यानकात्याग करके धर्म और शुक्लध्यानमें मनको लगाना। (१६)वचनसंयम अशुभ (सावद्य)वचनकात्यागकर शुभ (निरवद्य) वचन बोलना। પ્રવૃત્તિ કરવા અથવા વસ્ત્ર–પાત્ર આદિને ઉપભોગ કરતી વખતે એકવાર પ્રતિલેખન કરવું એ પ્રેક્ષાસંયમ છે, અને વારંવારં ચારે બાજુથી પ્રતિલેખન કરવું એ ઉપેક્ષાસંયમ છે. ___(23) अपकृत्य (परिपन1) संयम-यतपूर्ण तथ्या२-असपने પરિઠવવાં-ત્યજવાં. (૧૪) પ્રમાર્જનાસંયમ–ચતનાપૂર્વક વસતી વઝ પાત્ર આદિને Jori (प्रभाi). (૧૫) મનઃ સંયમ–અકુશળ મનને નિરોધ કરીને કુશળ મનની પ્રવૃત્તિ કરવી, અર્થાત્ આધ્યાન અને રોદ્રધાનને ત્યાગ કરીને ધર્મધ્યાન તથા શુકલધ્યાનમાં મનને લગાડવું. (૧૬) વચનસંયમ–અશુભ વચનને ત્યાગ કરીને શુભ વચન બેલવાં. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीदशवैकालिकसूत्रे १४ -एवं (६) द्वीन्द्रियादि- (९) पञ्चेन्द्रियपर्यन्तानां सर्वयाऽनुपमर्दनं तत्तत्संयमः (१०) अनीवकायसंयमा बहुमूल्यवतां वनपात्रादीनामनुपादानम् , उपादेयवखपानादीनां सयत्नमुपादानं स्थापनं च, (११) मेक्षासंयमा वसतिवलपात्रादीनां संयतनं सविधि प्रतिलेखनम् , (१२) उपेक्षासंयमा संयममार्गे क्लेशमाकलयतोऽ संयममार्गे प्रवर्तमानस्य वा स्वात्मनः परस्प वा असंयमदोषान् संयम___(६-७-८-९) दीन्द्रियादिसंयमन्दीन्द्रिय, चीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, और पञ्चेन्द्रिय जीवोंका सर्वधा उपमर्दन न करना तत्तत्संयम, अर्थात् दीन्द्रियसंयम, त्रीन्द्रियसंयम, चतुरिन्द्रियसंयम, पश्शेन्द्रियसंयम पहलाता है। (१०) अजीवकायसंयम बहुत मूल्यवाले वस्त्र पात्र आदिका ग्रहण न करना, तथा कल्पनीय वस्त्र पात्र आदि को यतनाके साथ लेना और रखना। (११) पेक्षासंयम वसती, वस्र, पात्र, पाट, पाटला आदिका यतनापूर्वक सविधि प्रतिलेखन करना। (१२) उपेक्षासंयम संयममार्गअनुकूल प्रतिकूल परिषहोंसे क्लेशका अनुभव करनेवाले, अथवाअसंयममें प्रवृत्ति करनेवाले स्वपरकी आत्माको संयमके गुण और असंयमके.दोप समझाकर फिर संयममार्गमें प्रवृत्त (६-७-८-८) द्वन्द्रियाशियमदीन्द्रय, जान्द्रिय, सतुहिन्द्रिय, मन પંચેન્દ્રિય જીવોનું સર્વથા ઉપમર્દન ન કરવું, તે તે પ્રકારને સંયમ, અર્થાત કીન્દ્રિયસંયમ, ત્રીન્દ્રિયસંયમ, ચતુરિન્દ્રિયસંચમ , અને પંચેન્દ્રિયસંયમ उपाय छे. (૧૦) અછવાયસંયમ–મૂલ્યવાન વસ્ત્ર પાત્ર આદિને ગ્રહણ ન કરવાં, તથા કપે તેવાં જ વસ્ત્ર પાત્ર આદિને થતાપૂર્વક લેવાં તથા રાખવાં. (११) प्रेक्षासयम--सती, पत्र, पात्र, पाट, पारद त्याहिने यतनाપૂર્વક તથા વિધિસર પ્રતિલેખન કરવાં. (૧૨) ઉપેક્ષાસંયમ–સંયમમાર્ગમાં અનુકૂળ-પ્રતિકૂળ પરિપથી ફ્લેશને અનુભવ કરનારા, અથવા અસંયમમાં પ્રવૃત્તિ કરનારા, સ્વપરના આત્માઓને સંયમના ગુણ તથા અસંયમના દેવ સમજાવીને પછી સંયમમાર્ગમાં Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन र गा. १ संयमस्वरूपम् पूर्व वायुकायसंयमविषये प्रोक्तं यत्- 'अनारतमुखेन संभाषणे मुखनिर्गतोष्णवायुना वायुकायविराधनं जायते' इति, तत्र केचिदेवं वदन्ति-आत्मा हि भाषणकाले चतुःस्पर्शवतो भापावर्गणापुद्गलान गृह्णाति तैर्वायुकायस्य विराधना न संभवति तस्यापि चतुःस्पर्शवचादिति. . . तेपामपर्याप्तमेतत्कथनम् , वस्तुतस्तु आत्मा पूर्व चतुःस्पर्शकपुद्गलानेव गृह्णाति किन्तु संभाषणसमये वैजसशरीरं संगृवि भापापुद्गला निस्सरन्तीति तैनसशरीर सम्बन्धेन तेऽस्पर्शवन्तो जायन्ते तस्मादनिवार्या वायुकायविराधना । .. पहले वायुकायसंयममें कहा है कि-बोलते समय मुखसे निकलनेवाली वायुं गर्म होती है और इसी कारण उसले वायुकायके जीवोंकी विराधना होती है। यहां कुछ लोगोंका कहना है कि आत्मा चार स्पर्शवाले भापावर्गणाके पुद्गलोंको ग्रहण करती है और चार स्पर्शचाले पुद्गलों से वायुकायकी विराधना नहीं हो सकती, क्योंकि वायुकायके जीवभी चार स्पर्शवाले होते हैं। उनका यह कथन अधूरा है । यात वास्तव में यह है कि आत्मा ग्रहण तो चार स्पर्शवाले पुद्गलों का ही करती है किन्तु भापण करते समय तैजस शरीरको ग्रहण करके ही भापा-पुद्गल निकलते हैं। तेजस शरीरके सम्बन्धसे भापा-पुद्गल आठ स्पर्शवाले हो जाते हैं, और आठ स्पर्शवाले होने से उनसे वायुकाय आदि की विराधना अवश्य होती है। * પૂર્વે વાયુકાય-સંચમાં જે કહ્યું છે કે ખુલે મેંઢ એલમાં મુખમાંથી નીકળતા ગરમ વાયુ વડે વાયુકાયના જીવોની વિરાધના થાય છે. ત્યાં કેટલાક લેકેનું કહેવું એવું છે કે આત્મા ચાર સ્પર્શવાળા ભાયાવર્ગણના પુદ્ગલેને ગ્રહણ કરે છે અને ચાર સ્પર્શવાળા પુદ્ગલથી વાયુકાયની વિરાધના થઈ શક્તી નથી. કેમકે વાયુકાયના જીવો પણ ચાર સ્પર્શવાળા હોય છે. એમનું એ કથન અધૂરું છે. વસ્તુતઃ વાત એવી છે કે આત્મા ગ્રહણ તે ચાર સ્પર્શવાળા પુદગલોનું જ કરે છે, કિંતુ બોલતી વખતે તેજસ શરીરને ગ્રહણ કરીને જ ભાષા,ગલે નીકળે છે. તેજસ શરીરના સંબંધથી ભાષા-પુદગલ આઠ સ્પર્શવાળા થઈ જાય છે, અને આઠ સ્પર્શવાળા થવાથી, તેનાથી વાયુકાય આદિની વિરાધના અવશ્ય થાય છે. Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदर्शवकालिक हारेण यतनापुरस्सरकायप्रवर्तनं कायसंयम इति विवेकः । प्रकारान्तरेणापि संयमः सप्तदशविधः, यथा " पञ्चास्रवाद्विरमणं, पञ्चेन्द्रियनिग्रहः कपायनयः । दण्डत्रयविरतिश्चेति संयमः सप्तदशमेदः ॥१॥" इति । तत्र पञ्चास्रवविरमणं-पञ्चास्रवाः माणातिपातादय एतेभ्यो विरमणं-निवृत्तिः (५),पत्रेन्द्रियनिग्रहः तत्तद्विपयेवप्रवर्तनम् , इष्टानिऐपु शब्दादिषु रागद्वेपाकरणमित्यर्थः (१०), कपायजया उदयभावममाप्नुवतां क्रोधादीनां चतुर्णी निरोधः, उदयभावं मासानां च तेपां निष्फलीकरणम् (१४) दण्डत्रयविरतिः दण्डयतेरत्नत्रयैश्वर्यापहारादसारीक्रियते आत्मा यैरिति दण्डास्तेपां अयं दण्डत्रयं मनो दण्ड-चचोदण्ड-कायदण्ड-लक्षणास्त्रयो दण्डा इत्यर्थः, तस्माद्विरतिः-निविः(१७)। (१७) कायसंयम अयतनाको छोडकर यतनापूर्वक ही कायकी प्रवृत्ति करना। संयमके सत्तरह भेद दूसरे प्रकारसे भी होते हैं, जैसे-प्राणातिपात आदि पांच आसवोंका विरमण (५), पांच इन्द्रियोंके इष्ट विषयों में राग न करना, अनिष्टविषयों में देपन करना(१०), उदयमेंन आए हुए क्रोध आदि चार कपायोंका निरोध करना और उदयमें आये हुएको निष्फल करना, जैसे-क्रोधका उदय होने पर क्षमा रखना, मानका उदय होनेपर मार्दैव भाव रखना, मायाका उदय होने पर सरलता रखना, और लोभकपायका उदय होने पर निर्लोभता धारण करना (१४), ज्ञान आदि गुणोंका अपहरण (नाश) करके आत्माको दरिद्र बनानेवाले मनदण्ड वचनदण्ड, और कायदण्डका त्याग करना (१७), (૧૭) કાયસંયમ-અયતનાને ત્યજીને યતનાપૂર્વકજ કાયાની પ્રવૃત્તિ કરવી. સંયમના સત્તર ભેદ બીજે પ્રકારે પણ થાય છે. જેમકે પ્રાણાતિપાત આદિ પાંચ આસનું વિરમણ (૫), પાંચ ઇન્દ્રિયેના ઈષ્ટ વિષયમાં રાગ ન કર, અનિષ્ટ વિષયમાં ઠેષ ન કર (૧૦), ઉદયમાં ન આવેલા ક્રોધ આદિ રચાર કષાને નિરોધ કરે અને ઉદયમાં આવેલાને નિષ્ફળ કરવા. જેમકે કોધને ઉદય થતાં ક્ષમા રાખવી, માનને ઉદય થતાં માવભાવ રાખ, માયાનો ઉદય થતાં રાજલતા રાખવી, અને લેભકષાયનો ઉદય થતાં નિર્લોભતા ધારણ કરવી (૧૪, જ્ઞાન આદિ ગુણેનું અપહરણ (નાશ) કરીને આત્માને દરિદ્ર બનાવનારા મનદંડ, વચનદ અને કાયદડને ત્યાગ કર (૧૭), Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुखवत्रिकाविचारः - अयमाशयः-मुखवत्रिकाधारणं विना भाषणे वायुकायादिविराधनस्य दुरितया मापा सावधा भवतीति । - . एतद्वयाख्याने अभयदेवसूरिणाऽपि-"जीवसंरक्षणतोऽनवद्या भापाभवति, अन्या तु सावधे" त्युक्तम् । 'सुहमकायं अणिजूहित्ताणं' इत्यस्य हि वस्त्रमपोह्य मुखोपरि वस्त्रमदत्त्वे (मवद्ध्वे)त्यर्थः । यदन्वयन्यतिरेकाभ्यां भापाया निरवचत्वं सावद्यत्वं च भवति, भाषाभिव्यक्तिय मुखाद्भवतीति मुखे ध्रियमाणं वस्त्रं 'मुखवत्रिका' शब्देन शास्त्रे व्यवहियते । 'शक' इत्येव वक्तव्ये 'देवेन्द्रो देवराजः' इति विशेपणोक्त्या दिव्यशक्ति.. " तात्पर्य यह है कि मुखवस्त्रिका धारण किये बिना भाषण करनेसे वायुकायकी विराधना अनिवार्य है, अत एव वह भापा सावध है। इसका व्याख्यान करते हुए अभयदेवसूरि लिखते हैं-"जीव संरक्षणतोऽनवद्या भाषा भवति अन्यातुसावधा।"-अर्थात् जीवों की रक्षा होनेसे भाषा निरवध होती है और इससे भिन्न (जीवों की घात करने वाली) भाषा सावध होती है। मूल पाठके 'सुहुमकायं अणिजूहित्ताणं' इस पदका अर्थ यह है कि-'मुख पर वस्त्र नधारण करके ' जहाँ वस्त्र धारण नहीं वहाँ भाषा सावध होती है, और जहां वस्त्र धारण होता है वहाँ भाषा निरवद्य होती है। भाषा मुखसे निकलती है, इसलिए मुख पर .धारण किया जानेवाला वस्त्र 'मुखवत्रिका' कहलाता है। मूलमें 'शक' कहनेसे ही इन्द्रका बोध हो सकता था; किन्तु તાત્પર્ય એ છે કે મુખવસ્ત્રિકા ધારણ કર્યા વિના ભાષણ કરવાથી વાયુકાયની વિરાધના અનિવાર્ય છે, તેથી કરીને એ ભાષા સાવદ્ય છે. એનું વ્યાખ્યાન ४२di मलयहेव सूरि समे छे " जीवसंरक्षणतोऽनवधा भाषा भवति अन्या तु सावधा" अर्थात् यानी २क्षा यवायी मापा निरषय याय छ भने मेथी . ભિન્ન ( જીની ઘાત કરવાવાળી ) ભાષા સાવદ્ય હોય છે. મૂળ પાઠનાં 'मुहुमकायं अणिज्जूहिताणं' पहना अर्थ से छे 'भुष ५२ १ न धार કરીને, જ્યાં વસ્ત્ર ધારણ નથી, ત્યાં ભાષા સાવદ્ય છે અને જ્યાં વસ્ત્ર ધારણ થાય છે ત્યાં ભાષા નિરવદ્ય છે. ભાષા મુખમાંથી નીકળે છે તેથી મુખ પર ધારણ કરવામાં આવનારૂં વસ્ત્ર “મુખવસ્ત્રિકા' કહેવાય છે. મૂળમાં “શાદ' કહેવાથી ઈન્દ્રને બંધ થઈ શકતે હતું, પરંતુ દેવેન્દ્ર Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवशवकालिको । मुखवस्त्रिकाविचारः। ननु मुखोप्णवायुनाऽपि यदि चायुकायविराधनं तहि मुनीनां कथं वायुकायसंयमः? इति चेत् न, यतो भगवता श्रीवीर्यवरेण मुनीनां वायुकायसंयमा मुखवत्रिकावन्धनं प्रतिपादितम् । तद्विना हि श्रीव्याख्यामज्ञप्ती पोडशतमशतकस्य द्वितीयोरेशे 'भगवता शक्रेन्द्रस्यापि भापणं सावधत्वेन परिकथितं, तथाहि 'गोयमा! जाहेणं सक्के देविंदे देवराया मुहमकार्य अणिहिताणं भासं भासति ताहे णं सके देविदे देवराया सावज भासं भासइ। जाहे णं.सके देविदे देवराया सुहुमकायं णिहिताणं भासं भासइ वाहे सके देविदे देवराया असावज्ज भासं भासइ' इत्यादि। ___'गौतम! यदा शक्रो देवेन्द्रो देवराजः सूक्ष्मकायमपोल भाषां भाषते तदा शक्रो देवेन्द्रो देवराजः सावयां मापां भापते। यदा शक्रो देवेन्द्रो देवराजः सूक्ष्मकायं दत्वा भाषां भापते तदा शक्रो देवेन्द्रो देवराजः असावधां भाषां भापते' इति संस्कृतम् । मुखवस्त्रिकाविचार. जब मुखसे निकलनेवाली वायुसे वायुकाय की विराधना होती है, तो मुनि वायुकायका संयम कैसे पाल सकते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर यही है कि वायुकायके संयमके लिए ही तीर्थकर गणधर भगवान्ने मुखपस्त्रिका धारण करना बताया है। भगवतीसूत्र सोलहवें शतक के दूसरे उद्देशमें भगवानने विना मुखवत्रिकाके इन्द्र महाराजके भाषणको भी सावद्य बताया है; यथा-"गोयमा !" इत्यादि । મુખવસ્ત્રિકાવિચાર જે મુખમાંથી નિકળનારા વાયુથી વાયુકાની વિરાધના થાય છે, તે મુનિ વાયુકાયને સંયમ કેવી રીતે પાળી શકે છે? એ પ્રશ્નને ઉત્તર એ છે કે વાયુકાયના સંયમને માટે જ તીર્થકર ગણધર ભગવાને મુખવસ્ત્રિકા ધારણ કરવાનું બતાવ્યું છે. ભગવતી–સૂત્રના સેળમા શતકના બીજા ઉદ્દેશમાં મુખવસ્ત્રિકા વિનાના छन्द्र भडाना लापने पy मावाने सावध मताव्यु छ:- 'गोयमा'त्या. Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : अध्ययन १ गा. १ मुखवस्त्रिकाविचार: पुनरपि --- << मुखे बांधी ते मुंहपती, देठे पाटो धारी । - अति हेठी दाढी थई, जोतर गले निवारी ॥ १ ॥ 65 एक काने धजसम कही, खंधे पछेड़ी ठाम । hड़े खोसी कोथली, नावे पुण्यने काम || २ || " इति । ( श्रावक - भदासकृते हितशिक्षारा से पृ० ३८ पं० १६ ) "सुलभ बोधी जीवड़ा, मांडे निज पटकर्म । साधु जन मुख मोंपती, बांधी है जिन धर्म ॥१॥" ( मुनिलब्धिविजयकृते हरिवलमच्छीरा से पृ० ७३ दोहा ५ ) और भी कहा है- " मुखे यांधी ते मुंहपती, हेठे पाटो धारी । अति हेठी दाढी धई, जोतर गले निवारी ॥१॥ एक काने धज सम कही, खंधे पछेडी ठाम । केडे खोसी कोथली, नावे पुण्यने काम " ॥२॥ ( श्रावक - ऋपभदास कृत हितशिक्षारासे पृ० ३८ पं. १६) 'सुलभ-योधी जीवडा, मांडे निज पट-कर्म । साधुजन मुख मोंपती बांधी है जिन-धर्म " ॥१॥ (हरिखलमच्छीरास मुनिलब्धिविजयकृत पृ० ७३ दोहा ५) << વળી કહ્યુ છે કે it સુખે ગાંધી તે મુહપતી હુંકે યાટા ધારો, અતિ હૈઠી દાઢી થઇ. જાતર ગળે નિવારી. એક કાને ધજ સમ કહી, ધે પછેડી ઠામ, हेड पोसी अथणी, नावे एयने अभ, " (१) (२) ( श्राप - ऋपाहास-धृत 'हित-शिक्षा-शस ' पृष्ठ ३८ ५. १६) "सुझल गोधी लवडा, भांडे नि षट् સાધુ જન મુખ મૈંપતી બાંધી હૈ જિન ધમ છ (1) ( हरिणत-भरछी - रास-मुनि सम्धिविन्न्य धृत पृष्ठ ७३, दोहा). .२१ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीदशकालिकसूत्रे मत्त्वेऽपि तस्य मुखपत्रिकाधारणाभावे यदि सावधा भाषा वर्हि औदारिकशरीरधारिणां का वार्ने ? ति धनितम् । ___ सा च मुखपत्रिका वायुकायादिमाणिमाणसंरक्षणोपयोगि-मुखोपरिबन्धनीय -मुखपरिमित-सदोरकाऽष्टपुटवस्रखण्ड विशेपः । अत्रायं सङ्ग्रहः "वाउकायाइरपखह, बज्झई जं सया मुहे। सदोरहपुडं वत्यं, चुत्ता सा मुहबस्थिया ॥१॥ मुहमाणा नईलिंग, सव्यसनमकारणं । पसत्यभारणापुड़ी-देऊ य मुहत्यिया ॥२॥" इति । देवेन्द्र और देवराजविशेषणों का देना यह सिद्ध करता है किजब दिव्य शक्तिमान होने पर भी मुखवस्त्रिका न धारण करने से उसकी भाषा सावध होती है तो औदारिक-शरीर-धारियों की बात ही क्या है? उनकी भाषा अवश्य ही सावध होगी। वह मुखवस्त्रिका वायुकाय आदिके प्राणियोंकी रक्षाके लिये उपयोगी, मुख पर पांधने योग्य, मुखके बरावर डोरा सहित आठ पुटवाला, वस्त्रका खण्डविशेष है। यहां संग्रहगाथाएँ हैं-'वाउ' इत्यादि, अर्थात्-वायुकाय आदिकी रक्षाके लिये जो सदा मुख पर 'बाधा जाती है, वह डोरासहित आठ पुटवाला वस्त्र "मुखवस्त्रिका" कहलाता है ॥१॥ वह मुखवत्रिका मुख-प्रमाण होती है, 'यह मुनिका चिह्न सव संयमका कारण तथा प्रशस्त भावना की वृद्धिका कारण है ॥२॥ અને દેવરાજ વિશેષણે એ સિદ્ધ કરે છે કે જે દિવ્ય શક્તિમાન હવા છતા પણ મુખવસ્ત્રિકા ન ધારણ કરવાથી એની ભાષા સાવદ્ય થાય છે તે દારક શરીરધારીઓની વાત જ શી ? એની ભાષા પણ જરૂર જ સાવધ જ થાય એ મુખવઝિકા વાયુકાય આદિના પ્રાણીઓની રક્ષાને માટે ઉપયોગી મુખ પર બાધવા એ ગ્ય, મુખની બરાબર, દેરાસહિત આઠપુટવાળા વસ્ત્રના ५ विशेष छे माडी सब थामा छ-'वाउ०'त्या અર્થાતવાયુકાય આદિની રક્ષાને માટે જે સદા મુખ પર બાંધવામાં આવે છે, તે દેરાસહિત આઠપુટવાળું વસ્ત્ર “મુખઅક' કહેવાય છે (૧) એ મુખવસ્ત્રિકા મુખ-પ્રમાણ હોય છે એ મુનિનું ચિહન સર્વ સંયમનું કારણુ તથા પ્રશસ્ત ભાવનાની વૃદ્ધિનુ કારણ છે (૨) Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुखवत्रिकाविचारः पुनरपि "मुखे बांधी ते मुंहपती, हेठे पाटो धारी। · अति हेठी दादी थई, जोतर गले निवारी ॥१॥ "एक काने धजसम कही, खंधे पछेड़ी ठाम । केड़े खोसी कोथली, नावे पुण्यने काम ॥२॥" इति । (श्रावक-ऋपभदासकृते हितशिक्षारासे पृ० ३८ पं० १६) " मुल्लभ वोधी जीवड़ा, मांडे निज पटकर्म । साधु जन मुख मोपती, वांधी है जिन-धर्म ॥१॥" ( मुनिलब्धिविजयकृते हरिवलमच्छीरासे पृ० ७३ दोहा ५) और भी कहा है " मुखे यांधी ते मुंहपती, हेठे पाटो धारी। अति हेठी दाढी थई, जोतर गले निवारी ॥१॥ एक काने धज सम कही, खंधे पछेडी ठाम । केडे खोसी कोथली, नावे पुण्यने काम" ॥२॥ (श्रावक-ऋपभदास-कृत हितशिक्षारासे पृ० ३८५ १६) . "सुलभ-योधी जीवडा, मांडे निज पट-कर्म । ... साधुजन मुख मोंपती बांधी है जिन-धर्म" ॥१॥ (हरिवलमच्छीरास-मुनिलब्धिविजयकृत पृ० ७३ दोहा ५) વળી કહ્યું છે કે મુખે બાંધી તે મુંહપતી હેઠે પાટે ધારી, मति ही हादी 49. नत२ गणे निवारी. (१) એક કાને ધજ સમ કહી, ખધે પછેડી ઠામ, 3 मोसी थी, नावे पुश्यन म." (२) (श्राव-महास-कृत 'ति-शिक्षा-सस' ४ ३८ ५. १६) "सुसमाधी ७१, भांड निपट-भ. સાધુ જન મુખ મેંપતી બાંધી હૈ જિન-ધમ (૧) (.रिण-भरछी-रास-भुमि वियत . ०४ ७३, डोडा ५). Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ श्री दशकालिको ननु भापणसमये इस्तेनापि यत्रमादाय मुखाच्छादने उक्तजीवरक्षा निर्वाहवि किमन्यदापि मुखवत्रिकावन्धनेन ? इति चेदुप्यते-- न केवलं भापणसमय एव जीवविराधनासंभवः, यतो इस्तेन समादाय मुखाच्छादने जीवरक्षा संभवेत् , किन्तु दीर्घश्वासनिःश्वासाभ्यां, जृम्भातः, स्वमावादकस्मादपि च, तथा निद्रावस्थायां मुखव्यादानाच तत्सम्भव इति न इस्तेन मुखोपरि यत्रं धारयन्तः सम्यग् जीवरक्षां सर्वदा कर्तुं ममवन्ति, वनेण मुखमाषणय भसप्तस्यापि निद्रायां पार्श्वपरिवर्तनेन वापसरणे सति क उपायस्तदानीं सूक्ष्म यहाँ यह आशङ्का की जा सकती है कि जय बोलनेका काम परे तर्व हाथमें कपडा लेकर मुंह ढंक लेनेसे वायुकाय आदि जीवोंकी रक्षा हो सकती है, जय योलते नहीं उस समय भी मुखवत्रिकाबांध रखनेसे क्या लाभ है ? : '. इसका उत्तर यह है कि केवल योलते समय ही मुखसे हवा नहीं निकलती जिससे हाथमें वस्त्र लेकर मुंह ढंक लेनेसे जीवोंकी रक्षा हो जाय। किन्तु दीर्घ श्वासोच्छ्वास लेनेसे, जंभाई लेनेसे, स्वभावसे, अ. स्मात् , तथा निद्रावस्था में मुख खुला रहनेसे भी हवा निकलती है। अतएव मुख पर हाथसे वस्त्र लगानेसे जीवोंकी सम्यक प्रकार सर्वदा रक्षा नहीं हो सकती। वस्त्रसे मुँह दॉक कर सोया हुवा व्यक्ति नींद में करवट (पसवाडा) यदलता है तब वस्त्र खिसक जाता है। उस समय सूक्ष्म, અહીં એવી આશંકા કરી શકાય છે કે જ્યારે બેલવાનું કામ પડે ત્યારે હાથમાં કપડું લઈને મોં ઢાંકી લેવાથી વાયુકાય આદિ ની રક્ષા થઈ શકે છે. ત્યારે બોલતા ન હોઈએ, ત્યારે પણ મુખવસ્વિકા બાંધી રાખવાથી છે सास छ? એને ઉત્તર એ છે કે કેવળ બેલતી વખતે જ મુખમાંથી હવા નીકળતી નથી કે જેથી હાથમાં લઇ લઈને મોં ઢાંકી લેવાથી જીની રક્ષા થઈ જાય. કિન્તુ દીર્ધ શ્વાચ્છવાસ લેવાથી, બગાસું ખાવાથી, સ્વભાવથી, અકસમાત તથા નિદ્રાવસ્થામાં મહે ખુલ્લું રહેવાથી પણ હવા નીકળે છે તેથી મોં પર હાથ વડે વસ લગાડવાથી જીવની સમ્યક્ પ્રકારે સર્વદા રક્ષા થઈ શકતી નથી. વસ્ત્રથી ડું ઢાંકીને સૂતેલી વ્યક્તિ ઉંઘમાં જ્યારે પાસું બદલાવે છે ત્યારે વસ્ત્ર ખસી Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - अध्ययन १ गा.:१ मुखवस्त्रिकाविचारः २३ । व्यापिसम्पातिमजीवसचित्तरजाप्रवेशवारणार्थ , दीर्घोष्णनिःश्वासोच्छ्वासजनितवायुकायविराधनापरिहाराय च । . तथा चोक्तं योगशास्त्रे तृतीयप्रकाशे सप्ताशीतितमश्लोकस्य स्वोपझविवरणे हेमचन्द्राचार्येण "मुखवस्त्रमपि सम्पातिमजीवरक्षणादुष्णमुखवातविराध्यमानयायघायुकायजीवरक्षणान्मुखे धूलिप्रवेशरक्षणाचोपयोगी"ति । 'तथा चोत्तराध्ययनसूत्रे तृतीयाध्ययने श्रीलक्ष्मीवल्लभीयायां नवमगाथाव्याख्यायां सप्तमनिहबोदाहरणेऽपि .." तथा सम्पातिमाः सत्त्वाः; सूक्ष्माश्च व्यापिनोऽपरे । . : तेपो रक्षानिमित्तं च, विज्ञेया मुखवत्रिका ॥१॥" इति । व्यापी और संपातिम जीव तथा सचित्त रज आदि मुखमें जानेसे कैसे रुक सकते हैं ?, तथा दीर्घश्वासोच्छवाससे होनेवाली वायुकायकी विराधना का क्योंकर परिहार हो सकता है ? इन्हें रोकने का उपाय ही क्या है ? हेमचन्द्राचार्य कहते हैं "मुखवस्त्र०" इत्यादि___अर्थात् “मुग्ववस्त्र, संपातिम जीवोंकी रक्षा करता है, मुख से । निकलने वाले उष्ण वायु द्वारा विराधित होनेवाले याह्य वायुकायके जीवोंकी रक्षा करता है, तथा मुँहमें धूली नहीं घुसने देता, इसलिये वह उपयोगी है।" · उत्तराध्ययन सूत्र के तीसरे उद्देशकी टीकामें कहा है-" सन्ति" इत्यादि,.. अर्थात् "संपातिम, सूक्ष्म और व्यापी जीवोंकी रक्षाके लिये मुखજાય છે. તે સમયે - સૂક્ષમવ્યાપિ અને સંપતિમ જીવ તથા સચિત્ત રજ આદિ, મુખમાં જવાથી કેવી રીતે શેકાઈ શકે ? તથા દીર્ધ શ્વાચ્છવાસથી થનારી, વાયુકાયની - વિરાધનાને કેવી રીતે પરિહાર થઈ શકે ? તેને રોકવાને Sपाय छ ? भन्यायार्य छ ३ "मुखवस्त्र" त्याह.. અર્થાત્ –મુખ સંપતિમ જીવોની રક્ષા કરે છે, મુખથી નીકળતા ઉષ્ણ વાયુ દ્વારા વિરોધિત થતા વાયુકાયને જીની રક્ષા કરે છે, તથા મુખમાં ધૂળ पैसा हेतु नथी, तथा उपयोगी छे." . सत्ताध्ययन सूचना प्री देशनी घुछ "सन्ति" त्या. मात-"पातिभ, : सूक्ष्म : भने व्याधी वाना. २क्षाने . भाट भुमपनि.. Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - २२ श्री दवैकालिको ननु भापणसमये इस्तेनापि वस्त्रमादाय मुखाच्छादने उक्तजीवरक्षा निर्वइति किमन्यदापि मुखवस्त्रिकावन्धनेन ? इति चेदुप्यते न केवलं भापणसमय एच जीवविराधनासंभवः, यतो हस्तेन समादाय मुखाच्छादने जीवरक्षा संभवेत् , किन्तु दीर्घधासनिम्यासाभ्यां, जृम्भातः, स्वमायादकस्मादपि च, तथा निद्रावस्थायां मुखव्यादानाच तत्सम्भव इति न हस्तेन मुखोपरि वस्त्रं धारयन्तः सम्यग् जीवरक्षां सर्वदा फतु ममवन्ति, वस्त्रेण मुखमाणप प्रमुप्तस्यापि निद्रायां पार्धपरिवर्त्तनेन वनापसरणे सति क उपायस्तदानीं सुक्ष्म , यहाँ यह आशङ्का की जा सकती है कि जप बोलनेका काम परे तब हाथमें कपडा लेकर मुंह ढंक लेनेसे वायुकाय आदि जीवोंकी रक्षा हो सकती है, जय योलते नहीं उस समय भी मुखवत्रिका बांध रखनेसे क्या लाभ है ? इसका उत्तर यह है कि केवल पोलते समय ही मुखसे हवा नहीं निकलती जिससे हाथमें वस्त्र लेकर मुंह ढक लेनेसे जीवोंकी रक्षा हो जाय। किन्तु दीर्घ श्वासोच्छ्वास लेनेसे, जंभाई लेनेसे, स्वभावसे, अकस्मात् , तथा निद्रावस्था में मुख खुला रहनेसे भी हवा निकलती है। अतएव मुख पर हाथसे वस्त्र लगानेसे जीवोंकी सम्यक प्रकार सर्वदा रक्षा नहीं हो सकती। वस्त्रसे मुँह ढाँक कर सोया हुवा व्यक्ति नींद में करवट (पसवाडा) बदलता है तब वस्त्र खिसक जाता है। उस समय सूक्ष्म, અહીં એવી આશંકા કરી શકાય છે કે જ્યારે બોલવાનું કામ પડે ત્યારે હાથમાં કપડું લઈને મહે ઢાંકી લેવાથી વાયુકાય આદિ ની રક્ષા થઈ શકે છે. જ્યારે બોલતા ન હોઈએ, ત્યારે પણ મુખવસ્ત્રિકા બાંધી રાખવાથી છે सास छ ? એને ઉત્તર એ છે કે કેવળ બોલતી વખતે જ મુખમાંથી હવા નીકળતી નથી કે જેથી હાથમાં વસા લઈને મહે ઢાંકી લેવાથી છની રક્ષા થઈ જાય. કિન્તુ દીર્ધ શ્વા છુવાસ લેવાથી, બગાસું ખાવાથી, સ્વભાવથી, અકસ્માત તથા નિદ્રાવસ્થામાં મહે ખુલ્લું રહેવાથી પણ હવા નીકળે છે તેથી મહે પર હાથ વડે વસ લગાડવાથી જીવેની સમ્યક્ પ્રકારે સર્વ રક્ષા થઈ શકતી નથી વસ્ત્રથી ઓં ઢાંકીને સૂતેલી વ્યક્તિ ઉઘમાં જ્યારે પાસું બદલાવે છે ત્યારે વસ્ત્ર ખસી Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ अध्ययन १ गा. १ मुखवत्रिका विचारः ध्यायविरचित-सर्वार्थसिद्धि-टीकायां तृतीयाध्ययनेऽप्येवमेव । एवं विशेषा- . वश्यकवृहद्वृत्तावप्युक्तम् । किञ्चाऽऽगमनिरोधोऽपि तेषां ( अबद्धमुखवत्रिकाणां) दुर्वार एवं, तथाहि -भगवतीसूत्रे द्वितीयशतकस्य प्रथमोद्देशके स्कन्दकानगारस्यानशनकाले 'नमो: त्यु णं' पाठविधौ--- "पुरत्याभिमुहे संपलियंकनिसण्णे करयलपरिग्गहियं दसनहं सिर- . सावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी" इत्याधुक्तम् , . . तत्राञ्जलिबद्धस्य करद्वयस्य शिरसि स्थापने पद्मासनसंस्थः स्कन्दकोऽनगारः कथं तन्मते 'नमोत्यु णं' पाठमनास्तमुखेन व्यधात् । अनादृतमुखेन हि मुनयो न भापन्ते, तथाविधभापणस्याऽऽगममतिपिद्धत्वात् । पाध्यायरचित सर्वार्थसिद्धि नामकी तीसरे अध्ययनकी टीकामें भी इसी प्रकार कहा है और ऐसेही विशेपावश्यक वृहपृत्तिमें भी कहा है। जो मुख पर मुखवस्त्रिका नहीं बांधते, उनके मतमें आगम-विरोध अनिवार्य है। भगवतीसूत्र २ श०, १२० में स्कन्दक अनगारके अनशन समय में नमोत्युणं' के पाठकी विधिमें कहा है-"पुरत्या०" इत्यादि। इसमें विचारणीय विपय यह है कि अञ्जलि बांध कर दोनों हाथ सिर पर धर कर पद्मासन लगाकर पूर्व दिशाकी ओर मुख करके पैठे हुवे स्कन्दक अनगारने 'नमोत्यु णं' पाठ खुले मुखसे कैसे उच्चारण किया, क्योंकि दोनों हाथ सिर पर रखे हुए थे। और खुले मुखसे तो मुनि योलते नहीं, क्योंकि ऐसा योलना तो शास्त्रसे निषिद्ध है। સર્વાર્થસિદ્ધિ નામની ત્રીજા અધ્યયનની ટીકામાં પણ એવું જ કહ્યું છે, એવી જ રીતે વિશેષાવશ્યક બ્રહદવૃત્તિમાં પણ કહ્યું છે. . જેઓ મુખ પર મુખવસ્ત્રિકા બાંધતા નથી, તેમના મતમાં આગમ-વિરોધ અનિવાર્ય છે. ભગવતીસૂત્ર ૨ શ. ૧ ઉ. માં સ્કંદક અનગારના અનશન સમયમાં 'नमोत्थु णं न पानी विधिमा ४घुछ-"पुरत्था०" याह. . એમાં વિચારણીય વિષય એ છે કે અંજલિ બાંધીને, બેઉ હાથ શિર પર " ધારણ કરીને, પદ્માસન લગાવીને, પૂર્વ દિશા તરફ મુખ કરીને બેઠેલા સ્કંદક सनगारे 'नमोत्यु णं' पार्नु मुसा भुणे वी शत अभ्यारण्य थु ? भो 6 હાથ માથા પર રાખેલા હતા. અને ખુલે મુખે તે મુનિ બેલે નહિ, કારણ કે એમ બોલવું શાસ્ત્રથી નિષિદ્ધ છે. Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवेकालिक सूत्रे ओघनिर्युक्तौ द्वादशाधिकसप्ततम ( ७१२ ) - गाथाऽप्येवमेव बोधयति" संपाविमरयरेणु, - पमज्जणा चयंति मुहपत्ति | नासं मुहं च बंधइ, वीए सहि पमज्जेतो ॥ ७१२ ॥ " " संपातिमरजो रेणुममार्जनार्थं वदन्ति मुखपत्रीम् । नासिकां मुखं च बध्नाति, तया वसतिं प्रमार्जयन ||७१२ || इति संस्कृतम् । वसति ममार्जयता घ्राणे मुखे चैतद्वयेऽपि मुखपत्रिका बन्धनीया, अन्यदा मुख एवेत्याशयः, अन्यथा भगवतीमुत्राद्यनेकागमविरोधापत्तिर्दुर्नारा स्यात् । एवमेव प्रवचनसारोद्वारे प्रयोविंशत्यधिकपञ्चशततमगाथा विद्यते, तथा प्रकरणरत्नाकरस्यापि तृतीयभागे, उत्तराध्ययन सूत्रस्य कमलसंयमोपाविका समझनी चाहिये " ॥१॥ ओ नियुक्ति ७१२ वीं गाधामें कहा है-" संपातिम• " इत्यादि । अर्थात् "संपातिम जीव, सचित्त रज तथा रेणुकी रक्षा करने के लिये मुखवत्रिका का कथन करते हैं। और जय वसतिकी प्रमार्जना करे तब नाक और मुख दोनों बांधे । ” २४ अर्थात् अन्य समयमें सिर्फ मुखही बांधे, यह तात्पर्य हुआ, अन्यथा भगवतीसूत्र आदि अनेक आगमोंका विरोध अनिवार्य होगा । इसीप्रकार प्रवचनसारोद्धारको ५२३ वीं गाथामें कहा है। तथा प्रकरणरत्नाकर के तीसरे भागमें, फिर उत्तराध्ययन सूत्रकी कमलसंयमो समन्न्वी मेध" (१) मोधनियुक्ति ७१२ भी गाथामा उधुं छे - संपातिम० त्याहि अर्थात्“ સપાતિમ જીવ, ચિત્ત રજ, તથા રેશુની રક્ષા કરવાને માટે મુખત્રિકાનું કથન કરે છે. અને જ્યારે વસતિની પ્રમાના કરે ત્યારે નાક અને મુખ गांधे. " અર્થાત્ અન્ય સમયમાં સિર્ફ મુખજ ખાંધે, એ તાત્પર્યાય થયું, અગર એવું અર્થ નહીં કરવામાં આવે તે ભગવતીસૂત્ર આદિ અનેક આગમેાને વિરીય અનિવાય આવશે એવીજ રીતે પ્રવચનસારાદ્ધારની પર૩ મી ગાથામાં કહ્યુ` છે તથા પ્રકરણરત્નાકરના ત્રીજા ભાગમાં, અને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રની કમલસ યમે પાચાયરચિત Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुखयस्त्रिकाविचारः २७ दानसूत्रस्य व्याख्यायां तट्टीकाकारेण हरिभद्रसूरिणाऽभिहितम्___ “अयं च प्रकृतसूत्रायः अवग्रहादहिःस्थितो विनेयोऽर्दावनतफायः करद्वयगृहीतरजोहरणो वन्दनायोधत एवमाह-इच्छामि-अभिलपामि हे क्षमाश्रमण ! वन्दितं नमस्कार कर्वे भवन्तमिति गम्यते " इत्यादि । ___ अत्र 'करदयगृहीतरजोहरणः' इति पिशेपणं कथयता हरिभद्रसूरिणा 'मुखोपरि मुखवत्रिकावन्धनं भगवदमिमेत मिति मकटीकृतम् , अन्यथा क्षमाश्रमणसूत्रोचारणकाले करद्वयस्य रजोहरणग्रहणे प्रतिबद्धतया मुखोपरि मुखपत्रिकास्थापनस्योपायान्तरासम्भवात् क्षमाश्रमणदानमेव निविपयं स्यात् । अनाहतमुखेन तु मुनीनां भापणमेवाऽऽगममतिपिद्धमिति नात्र केपाश्चिद्विवादः ।। 'किञ्च क्षमाश्रमणदाने सम्बोधनशब्दपयोगे गुरोः स्वाभिमुखीकरणार्थ सविश्रमणदान सूत्रकी व्याख्या व्याख्याकार हरिभद्रसूरिने भी कहा है" अयं" इत्यादि, यहाँ "दोनोंहाधोंमें रजोहरण लेकर" ऐसा कहनेवाले हरिभद्रसूरिने यह प्रगट किया है कि मुख पर मुखवत्रिका घांधनेकी भगवानकी आज्ञा है । अन्यथा जब दोनों हाथोंमें रजोहरण ले लिया तब मुख पर मुखचत्रिका धारण करनेके लिए अन्य उपाय असंभव है। और खुले मुख योलनेसे क्षमाश्रमण देना ही व्यर्थ हो जायगा। साधुओंको खुले मुखसे बोलना शास्त्रविरुद्ध है, इस विषयमें किसीको विवाद नहीं है। दूसरी यात यह है कि क्षमाश्रमणदानमें 'हे क्षमाश्रमण !' इस सम्बोधनका प्रयोग किया है। इसलिए गुरुको अपनी ओर अमिमुख करने के लिए સૂત્રની વ્યાખ્યામાં વ્યાખ્યાકાર હરિભદ્રસૂરિએ પણ કહ્યું છે કે “ ઇત્યાદિ. . અહીં “બેઉ હાથમાં રજોહરણ લઈને એમ કહેતાં હરિભદ્રસૂરિએ એમ પ્રકટ કર્યું છે કે મુખ પર મુખવસ્ત્રિકા બાંધવાની ભગવાનની આજ્ઞા છે. નહિ તે જે બેઉ હાથમાં રહરણ લઈ લીધે એટલે મુખ પર મુખવઝિકા ધારણ કરવાને માટે અન્ય ઉપાય અસંભવિત છે, અને ખુલે સુખે બેલવાથી ક્ષમાશ્રમણ આપવાનું જ વ્યર્થ જાની જય. સાધુઓએ ખુલે મુખે બોલવું એ શાસ્ત્રવિરૂદ્ધ છે, એ સંબંધમાં તે કેઈને વાંધો નથી. બીજી વાત એ છે કે ક્ષમાશમણુદાનમાં “હે ક્ષમાશ્રમણ એ સંબોધનને પ્રવેગ કહે છે. તેથી કરીને ગુરૂને પિતાની તરફ અભિમુખ કરવાને માટે વિશેષ-પ્રયતન–પૂર્વક સ્પષ્ટ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीदशकालिकसने किञ्च-अन्तकृशागपप्ठे वर्गेऽतिमुक्ताव्ये पञ्चदशाध्ययने " तए णं अइमुत्ते फुमारे भगवं गोयम एवं पयासी-यह भंते ! तुम्भे जाणं अहं तुभ भिक्खं दवावेमि त्ति कटु भगवं गोयमं अंगुलीए गेण्हइ, गिण्हित्ता जेणेव सए गेहे तेणेव उवागए" इत्यभिहितम् । तत्र भिक्षाचयाँ गतस्य गौतमस्वामिनो भिक्षापात्रधारणपतिवदैकहस्तारणलित्वं सुतरामेव सिद्धम् । इतरस्य तु करस्याद्गुलौ अतिमुक्तकुमारेण गृहीतायां सत्यां तस्य भगवतो गौतमस्वामिनो इस्तेन मुखोपरि मुखबखिराधारणं नोपपद्यते, सूक्ष्मन्यापिसम्पातिमजीवसचित्तरजामवेशादिवारणाय तदानीमपि मुखवत्रिकाधारणमावश्यकमेव । किश्चावश्यके 'इच्छामि खमासमणो ! वंदिर' इत्यादि-क्षमाश्रमण--- अन्तकृतदशागके ६ वर्गमें 'अतिमुक्त' शीर्षक पन्द्रहवें अध्ययनमें कहा है-"तए णं इत्यादि । ___ इस कथनसे भिक्षाचरी (गोचरी) के लिए गये हुवे गौतमस्वामीने हाथमें भिक्षाका पात्र लिया था, यह बात स्वयं सिद्ध है और दूसरे हाथ की अंगुली अतिमुक्त कुमारने पकड़ ली थी। इस प्रकार जब दोनों हाथ गौतमस्वामीके रुंधे हुए थे तो मुखयस्त्रिका नहीं रही होगी। किन्तु सूक्ष्म, व्यापी, संपातिम जीव तथा-सचिच रजका प्रवेश रोकनेके लिए मुखवस्त्रिकाकी उस समय भी आवश्यकता थी। आवश्यक सूत्र में “इच्छामि खमासमणो! वंदिउँ" इत्यादि क्षमा भन्तत:शाना k tu 'अतिमुक्त' २०६४ ५६२मा अध्ययनमा ४ छ 'तए णं त्यादि આ કથન મુજબ ભિક્ષાચરી (ગોચરી) ને માટે ગએલા ગૌતમ સ્વામીએ હાથમા શિક્ષાનું પાત્ર લીધું હતું એ વાત સ્વયંસિદ્ધ છે અને બીજા હાથની આંગળી અતિમુકત કુમારે પકડી લીધી હતી એ પ્રકારે જે ગૌતમ સ્વામીના બેઉ હાથ રેકાઈ ગયા હતા, તે તે વખતે હાથવડે મુખવઝિકા મુખ પર કેવી રીતે રાખી હોય? કિન્તુ સુહમ, વ્યાપી, સાપતિમ છે તથા સચિત્ત રજનો પ્રવેશ રેકવાને માટે એ સમયે પણ મુખવસ્ત્રિકાની આવશ્યકતા હતી मावश्य:-सूत्रमा 'इच्छामि खमासमणो वंदिउ' त्या समाश्रमदान Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुखवस्त्रिकाविचारः दानसूत्रस्य व्याख्यायां तट्टीकाकारेण हरिभद्रसूरिणाऽभिहितम्-~ " अयं च प्रकृतसूत्रार्थः-अवग्रहादहिःस्थितो विनेयोऽनितकायः करद्वयगृहीतरजोहरणो वन्दनायोधत एवमाह-इच्छामि-अभिलपामि हे क्षमाश्रमण ! वन्दितुं नमस्कारं कर्जु भवन्तमिति गम्यते " इत्यादि । __ अत्र 'करद्वयगृहीतरजोहरणः' इति विशेषणं कथयता हरिभद्रसूरिणा 'मुखोपरि मुखवत्रिकावन्धनं भगवदभिमेत मिति प्रकटीकृतम् , अन्यथा क्षमाश्रमणसूत्रोचारणकाले करद्वयस्य रजोहरणग्रहणे प्रतिवद्धतया मुखोपरि मुखवत्रिकास्थापनस्योपायान्तरासम्भवात् क्षमाश्रमणदानमेव निर्विपयं स्यात् । अनास्तमुखेन तु मुनीनां भाषणमेवाऽऽगममतिपिद्धमिति नात्र केपाञ्चिद्विवादः। . किञ्च क्षमाश्रमणदाने सम्बोधनशब्दप्रयोगे गुरोः स्वाभिमुखीकरणाथै सविश्रमणदान सूत्रकी व्याख्या व्याख्याकार हरिभद्रसरिने भी कहा है___ "अयं" इत्यादि, - यहाँ "दोनोंहाथोंमें रजोहरण लेकर" ऐसा कहनेवाले हरिभद्रसूरिने __ यह प्रगट किया है कि मुख पर मुखचस्त्रिका पांधनेकी भगवानकी आज्ञा है। अन्यथा जब दोनों हाथोंमें रजोहरण ले लिया तब मुख पर मुखवत्रिका धारण करनेके लिए अन्य उपाय असंभव है । और खुले मुख घोलनेसे क्षमाश्रमण देना ही व्यर्थ हो जायगा। साधुओंको खुले मुखसे बोलना शास्त्रविरुद्ध है, इस विषयमें किसीको विवाद नहीं है । दूसरी यात यह है कि क्षमाश्रमणदानमें 'हे क्षमाश्रमण!' इस सम्बोधनका प्रयोग किया है। इसलिए गुरुको अपनी ओर अभिमुख करने के लिए સૂત્રની વ્યાખ્યામાં વ્યાખ્યાકાર હરિભદ્રસૂરિએ પણ કહ્યું છે કે, ઈત્યાદિ. . અહીં “બેઉ હાથમાં રહરણ લઈને એમ કહેતા હરિભદ્રસૂરિએ એમ પ્રકટ કર્યું છે કે મુખ પર મુખવસ્ત્રિકા બાંધવાની ભગવાનની આજ્ઞા છે. નહિ તે બેઉ હાથમાં રહરણ લઈ લીધે એટલે મુખ પર મુખવસ્ત્રિકા ધારણ કરવાને માટે અન્ય ઉપાય અસંભવિત છે, અને ખુલે મુખે બોલવાથી ક્ષમાશમણું આપવાનું જ વ્યર્થ બની જાય. સાધુઓએ ખુલે મુખે બોલવું એ શાસ્ત્રવિરૂદ્ધ છે, એ સંબંધમાં તે કઈને વાંધો નથી. બીજી વાત એ છે કે ક્ષમાશમણુદાનમાં “હે ક્ષમાશ્રમ” એ સંબંધનનો પ્રયોગ કહે છે. તેથી કરીને ગુરૂને પિતાની તરફ અભિમુખ કરવાને માટે વિશેષ-પ્રયત્ન-પૂર્વક સ્પણ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ श्रीदशवकालिकस्त्रे शेपमयत्नपूर्वकोचैःस्वरेण सुस्पष्टोचारणं विधेयमस्ति न स्वव्यक्तध्वनिनेत्युपायान्तरेण मुखावरणस्य फर्जुमशक्यतयोक्तजीवविराधना परिहर्जुमशक्यैव । - अन्यच्च तत्रैव क्षमाश्रमणदाने गुरुनिदेशानन्तरम्-"अहोकायं, कायसंफासं" इत्यस्य व्याख्यायां तेनैव हरिभद्रसूरिणा व्याख्यातं, तथाहि__ "ततः शिप्यो नैपेधिक्यां भविश्य गुरुपादान्तिकम् , निधाय तत्र रजोहर-णम् , तत् (रजोहरणं) ललाटं च कराभ्यां संस्पृशन्निदं भणति-अधस्ताकायः अधःकाय: पादलक्षणस्तमधःकार्य प्रति कायेन-निजदेहेन संस्पर्शः कायसंस्पर्शस्त करोमि, एतच्चानुनानीते-"ति । तत्र संमिलितकरद्वयेन रजोहरण-ललाटयोः संस्पर्श सति ' अहोकायं, कायसंफासं' इत्यस्योचारणं मुखवत्रिकावन्धनं विना नोपपघते, हस्तेन मुखोपरि मुखवत्रिकास्थापन तदानीं न संभवति, इस्तद्वयस्यापि रजोहरणललाटसंस्पशेभतिबद्धत्वात् । अपि च-ज्ञाताधर्मकथासूत्रे चतुर्दशाध्ययनेविशेषप्रयत्नपूर्वक स्पष्ट उच्चारण करनेकीआवश्यकता है। अन्यक्तभाषासे संयोधन करना संभव नहीं है। इस प्रकार जब दूसरे उपायसे मुख नहीं ढंका जा सका तो उल्लिखित जीवोंकी विराधना अनिवार्य है। इसके सिवाय इसी क्षमाश्रमणदानमें गुरुकी आज्ञाके अनन्तर "अहोकायं कायसंफासं" इसका उच्चारण मुखवस्त्रिका बांधे विना नहीं हो सकता और हाथसे मुख पर मुखवत्रिकाधारण करना उस समय संभव नहीं है, क्योंकि दोनों हाथ रजोहरणको ग्रहण करके ललाटमें लगाये जाते हैं। ज्ञाताधर्मकथागसूत्रके चौदहवें अध्ययनमें कहा है-"तएणं" इत्यादि। ઉચ્ચારણ કરવાની જરૂર છે. અવ્યકત ભાષાથી સંબોધન કરવાનો સંભવ નથી. એ રીતે જે બીજા ઉપાયથી મુખ નથી ઢાંકી શકાય તે ઉપર લખ્યા મુજબ જીવોની વિરાધના થયા વિના રહે નહિ. એ ઉપરાંત એ ક્ષમાશ્રમણદાનમાં सनी माज्ञानी पछी 'अहोकाय, कायसंफास' मेनुयार भुमश्रिमांध्या વિના થઈ શકતું નથી. અને એ સમયે હાથથી મુખવસ્ત્રિકા ધારણ કરવાનું સંભવિત નથી, કારણ કે બેઉ હાથ જેહરણને ગ્રહણ કરીને કપાળે અડાડવાના डाय. ज्ञाताधयां। सूत्रना योहमा अध्ययनमा घुछ - तए णं त्या. Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुखवस्त्रिकाविचारः ०२९ "तएणं ताओ अजाओ पोटिलाए एवं चुत्ताओ समाणीओ दोवि • कने ठाइंति, ठाइत्ता पोहिलं .एवं बयासी-अम्हे णं देवाणुप्पिए ! समणीओ निगंधीओ जाव गुत्तवंभयारिणीओ, नो खलु कप्पइ अम्हं एयप्पयारं . कनेहिवि निसामित्तए किमंग पुण उवदिसित्तए वा" इत्यायुक्तम्। '.. .. ... पोट्टिलया भिक्षार्थ स्वगृहमनुपविष्टास साध्वीषु -काचित् पति - वशीकर्तुं चूर्णयोग-मन्त्रयोगादिकानुपायान् पृष्टा सती कर्णी पिधाय-पोवाच-हे. देवानुमिये! __वयं: श्रमण्यो निन्थ्यो यावद् गुप्तब्रह्मचारिण्यः स्मः, नो खलु कल्पते अस्माक... मेतत्यकारं कर्णाभ्यामपि निशामयितुं किमङ्ग पुनरुपदेष्टुमित्यर्थः। - लोके हि अनुचितवार्ताश्रवणसमये झटिति कर्णपिधानं हस्ताभ्यामेव विधीयमानं दृश्यते तस्मात् साव्या हस्ताभ्यां को पिधाय मतिवचनदाने मुखवत्रिका: धारणं वन्धनं विना नोपपद्यते, तदभावे वायुकायादिजीवविराधनाऽवश्यम्भाविनी। " अर्थात्-"पोटिलाके घरमें साध्वियों भिक्षाके लिए गई। उसने अपने पतिको वश करनेके लिए एक साध्वीसे चूर्णयोग और 'मंत्रयोग आदि उपाय पूछे। तय साध्वीने तत्काल दोनों कान मूंद कर कहा-हे देवानुप्रिये! हम निर्ग्रन्थ आर्यिका हैं यावत् गुप्तब्रह्मचारिणी हैं। ऐसी यात सुनना "भी हमें नहीं कल्पता तो उपदेश देनेकी बात ही क्या है ?" . . - अनुचित बात सुनते समय लोकमें भी झटपट हाथोंसे कान मूंदना देखा जाता है । ऐसी हालतमें दोनों हाथोंसे दोनों कान मूंद लेने पर विना मुखवत्रिका यांधे उत्तर देना युक्त नहीं हो सकता। यदि मुखवत्रिका के वांधे विना उत्तर दिया तो वायुकार्य आदि.जीवोंकी विराधना अवश्य हुई। . અથ-પિફ્રિલાના ઘરમાં સાધ્વીઓ ભિક્ષા માટે ગઈ. તેણે પિતાના પતિને વશ કરવાને માટે એક સાધ્વીને ચૂર્ણગ અને મંત્રગ આદિ ઉપાય પૂછયા, ત્યારે સાધ્વીએ તત્કાળ “ બેઉ કાને હાથ મૂકીને કહ્યું- હે દેવાનુપ્રિયે!'એમે નિથ આયિકા છીએ. તેમજ યાવતું ગુપ્તબ્રહ્મચારિણી છીએ. આવી વાત સાંભળવી પણ અમને કપતી નથી તે પછી ઉપદેશ આપવાની તો વાત જ શી ?” • અનુચિત વાત સાંભળતી વખતે લેકેમાં પણ ઝટપટ હાથથી કાન ઢાંકવામાં આવે એવું જોવામાં આવે છે. એવી હાલતમાં બેઉ હાથથી બેઉ કાન ઢાંકી લેતાં, મુખવસ્ત્રિકા બાંધ્યા વિના ઉત્તર 'આપ યુકત નથી હોતે. જે સુખવસ્ત્રિકા બાંધ્યા વિના ઉત્તર આપવામાં આવે તે વાયુકાય આદિ જીની विराधना मवश्य थाय. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - श्रीदशवकालिको किश्च-मुखवत्रिकावन्धनमन्तरेण पट्कायविराधना दुप्परिहार्या, तथादिमुखे सूक्ष्मसवित्तरजामवेशेन पृथिवीकायस्य, वृष्टयादिनशात्सचित्तजलकणानामाकस्मिकनिपातेन धूमिकायाः प्रवेशेन वाऽपकायस्य, तया यत्र कुत्रापि स्फुलिङ्गा उत्पतन्ति ताऽऽकस्मिकसूक्ष्मस्फुलिङ्गनिपातेन तेजस्कायस्य, मुखस्योप्णवासनिवासाभ्यां वाधवायुकायस्य, 'जत्थ जल तत्व वर्ण' इतिप्रामाण्याजलनान्तरीयकतया मुखे सचित्तजलविन्दुनिपातेनैव वनस्पतिकायस्यापि, तथा सम्पातिम-व्यापि-सूक्ष्म-जीवसम्पातेन प्रसकायस्य विराधना भवतीति । किश्च मुखवखिकावन्धने प्रमादवतः पट्कायविराधना दुर्वारा, यतः प्रति मुखवस्त्रिकाके यांचे यिना पटकायकी विराधनाका परिहार नहीं हो सकता। मुख में सूक्ष्म सचित्त रजका प्रवेश होनेसे पृथ्वीकायकी विराधना होती है। यरसा होने पर सचित्त जलकणोंके अकस्मात ही मुखमें चले जानेसे अथवा मुखमें घूअर के चले जाने से अप्कायकी विराधना होती है। इधर-उधर उड़नेवाली अग्निकीचिनगारी कदाचित् मुखमें घुसजाय तो तेजस्कायकी हिंसा होती है । मुखसे निकलती हुई गर्म सांससे बाल वायुकायकी विराधना होती है। 'जहाँ अपूकाय है वहाँ वनस्पतिकाय भी होता है" (जत्थ जलं तत्थ वणं) इस प्रमाणसे मुखमें सचित्त जल गिरनेसे ही वनस्पति कायकी विराधना होती है। तथा संपातिम, व्यापी और सूक्ष्म जीवोंके घुसनेसे प्रसकायकी भी विराधना होती है। - मुखवखिकाके यांधने में जो साधुप्रमादी होता है उसको षटकायकी મુખવઝિકા બાંધ્યા વિના પર્કાયની વિરાધનાને પરિહાર નથી થઈ શકતો. મુખમાં સૂક્ષ્મ સચિત્ત રજને પ્રવેશ થવાથી પૃથ્વીકાયની વિરાધના થાય છે. (૧). વરસાદ પડતાં સચિત્ત જલક અકસ્માત મુખમાં જવાથી અથવા મોઢામાં ઝાકળ જવાથી અપકાયની વિરાધના થાય છે (૨) અહી–તહીં ઉડતી અગ્નિની ચિણગોરી કદાચ મુખમાં પેસી જાય તો તેજસ્કાયની હિંસા થાય છે (૩) સુખમાંથી નીકળતા ગરમ શ્વાસથી બાહા વાયુકાયની વિરાધના થાય છે (૪) જ્યાં અપકાય છે ત્યાં વનસ્પતિ हाय पाय छे' (जत्थ जल तत्य वर्ण) से प्रभाथी भुसभा सथित रस પડવાથી વનસ્પતિકાયની પણ વિરાધના થાય છે (૫). તથા સંપાતિમ, વ્યાપી અને સૂમ છ પેસી જવાથી ત્રસકાયની પણ વિરાધના થાય છે (૬) સુખવસ્ત્રિકા બાંધવામાં જે સાધુ પ્રમાદી હોય છે તેને સ્કાયની વિરાધના Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मध्ययन १. गा. १ मुखपत्रिकाविचार: • लेखनकालेऽन्वस्मै तत्मत्याख्यानदानेऽपि प्रतिलेखनोपयोगाभावेन प्रमाददोषाविष्टः सन् पट्कायविराधको भवतीति भगवतोत्तराध्ययनसूत्रे प्रतिपादितम् , तथाहि' ' . “पडिलेहणं कुणतो, मिहो कहं कुणइ जणवयकहं वा। " , देह व पचक्खाणं वाएइ सयं पडिच्छइ वा ॥ १॥ .. पुढवी-आउकाए,तेऊ-वाज-वणस्सइ-तसाणं । . पडिलेहणापमत्तो, छण्हंपि विराहओ होइ ॥ १" इति । ... तर्हि का वार्ता ये मुखवत्रिकावन्धनमन्तरेण तिष्ठन्ति तेपां प्रमाददोपस्त: जनितपंट्कायविराधना नापतेत् ? आगमे हि मुखवस्त्रिकावन्धनपरित्यागे दोप‘बाहुल्यं प्रदर्शितं तच मागे प्रतिपादितम् । . इत्थं च यथा नौकादौ सूक्ष्मेऽपि मुपिरे सति नद्यादौ तन्निमज्जनान्महवी विराधना अवश्य लगेगी क्योंकि भगवानने उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है ..कि-"प्रतिलेखन करने में जो साधु प्रमादी है तथा प्रतिलेखनके समय साधु परस्पर यातें करे, जनपद आदिकी कथा करे, पचक्खाण देवे, यांचे अथवा पंचावे तो वह पट्कायका विराधक होता है" तो जोमुखवस्त्रिका - यांचे विना रहते हैं उनको प्रमाद-दोपतथा प्रमादजन्य पटकायकी विराधनाका दोप कैसे नहीं लगेगा ? अर्थात् जरूर लगेगा। मुखवस्त्रिकाके नहों यांधने में आगमोंमें जो बहुतसे दोप कहे हैं वे तो पहले प्रतिपादित कर ही चुके हैं। - इस प्रकार जैसे नावमें छोटासा छेद होनेपर नदी आदिमेंडूयजानेसे અવશ્ય થાય છે કેમકે ભગવાને ઉત્તરાધ્યયનસૂત્રમાં કહ્યું છે કે “ પ્રતિલેખન કરતી વખતે જે સાધુ પરસ્પર વાર્તાલાપ કરે, દેશકથા આદિ કથા કરે, પચકખાણું કરાવે, પિતે વાંચે અને વંચાવે તે તે પકાયને વિરાધક થાય છે જે એમ છે તે જે મુખવસ્ત્રિકા બાંધ્યા વગર રહે છે અને પ્રમાદેદેષ અને પ્રાદજન્ય પકાયની વિરાધનાને દેવ કેમ નહીં લાગે ? અર્થાત્ અવશ્ય લાગે. મુખવશ્વકા . નહીં બાંધવામાં આગમાં દેવ. બતાવ્યા છે તે તે પહેલાં કહી ચુક્યા છીએ એ પ્રકારે જેમ નાવમાં નાનું, છિદ્ર પડવાથી તે નદી આદિમાં ડૂબી Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ श्रीदने कालिक डानिः, अल्पीयस्या अपि दीरककणिकाया भक्षणे माणानामेव नाशः, त्रिकस्येपदंशनेऽपि सकलशरीरव्यथनम्, कण्टकाग्रमात्रे वाणाप्रमात्रे च कचिदते निखाते सकलाङ्गपीडा, नेत्रेऽणुतरस्यापि रजःकणस्य निपाते नेत्रोपघातः, नासिकाग्रमात्रे स्वल्पेऽपि देहभागे छिन्ने समग्रशरीरशोभोपघातः, स्वल्पेनाऽप्याधाकर्मादिसिक्थेन मिश्रितेऽन्नादौ पूर्तिकर्मदो पदूषितमाहारजातं भवति, स्वल्पेऽपि निवचनसन्देहे सर्वचारित्रनाशी जायते, तथैव स्वल्पेऽपि काले मुखत्रत्रिकाबन्धनोपेक्षया पकायविराधनायां सत्यां चातुर्मासिकमायश्चित्ताधिकारितापत्तिः । तथा चोक्तं निशीथसूत्रे द्वादशोदेशकेऽष्टमसूत्रादारभ्य द्वादशसूत्रं यावत् महान हानि होती है, छोटीसी हीराकी कनीका भक्षण करनेसे प्राणोंका ही नाश होता है, चिच्छूके थोड़ासा काट खानेसे सारे शरीरमें व्यथा होती है, कांटे या तीरकी जरासी नोंक किसी अंगमें घुस जाय तो सब अंगमें पीड़ा होने लगती है, आँखमें छोटीसी किरकिरी घुस जानेसे आँख में तकलीफ होती है, जरासी नाक कट जानेसे सब शरीरकी सुन्दरता नष्ट हो जाती है। आधाकर्म आदि. आहारका एक भी सीध मिल जाने से सब आहार पूतिकर्मदोष से दूषित हो जाता है, जिनवचनों में तनिक भी सन्देह करने से समस्त चारित्रका नाश हो जाता है, वैसे ही थोड़ी देर भी मुखरित्रका बांधने की उपेक्षा करनेसे पट्कायकी विराधना होती है, अतः चातुर्मासिक प्रायश्चित्त लगता है । निशीथसूत्र के बारहवें उद्देशके आठवें सूत्र से बारहवें सूत्रतकमें कहा है-" जे भिक्खू० " इत्यादि, જવાથી ભારે હાનિ થાય છે, નાની સરખી હીરા કણીનું ભક્ષણ કરવાથી પ્રાણના નાશ થાય છે, વીંછી જરા કરડવાથી આખા શરીરમાં વ્યયા થાય છે, કાંટા યા તીરની નાની સરખી અણી કેઈ અંગમાં પેસી જવાથી આખા મગમાં પીડા થવા લાગે છે, આંખમાં નાનું સરખું કહ્યું પેસી જવાથી આંખમાં તકલીફ થાય છે, નાનું સરખું નાક કપાઈ જવાથી આખા શરીરની સુંદરતા નષ્ટ- થઈ જાય છે, આધાક આદિ આહારનું એક પણ કછુ મળી જવાથી મધેા આહાર પૃતિક દોષથી દૂષિત થઈ જાય છે, જિનવચનામાં લગાર પણ સદેહ કરવાથી સમસ્ત ચારિત્રના નાશ થઇ જાય છે, તેમ થાડા વખત પણ મુખવસ્ત્રિકા ખાંધવાની ઉપેક્ષા કરવાથી ષટ્કાયની વિરાધના થાય છે. તેથી ચાતુર્માસિક પ્રાયશ્ચિત્ત લાગે છે, નિશીથસૂત્રના ખારમાં ઉદ્દેશના આઠમા સૂત્રથી ખારમા સૂત્ર सुधीभांम्धुं छेडे ' जे भिक्खू० ' त्याहि, P Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा: १ मुखवत्रिकाविचारः : "जे भिक्खू० पुढवीकायस्स कलमायमवि समारंभइ, समारंभंतं वा साइजइ। एवं जाव वणस्सइकायस्स आवजइ चाउम्मासियं परिहारहाणं" . .. पुनरपि निशीयभाष्ये संयमघातद्वारे महिकायकाययतनाथ मोक्तम् __“वासचाणावरिया गिकारणे ठंति, कज्जे जतणाए । '. हत्यऽच्छिगुलिसण्णा, पोत्तरिया व भासति ॥१॥ इति । (नि. भाष्य उ. १९ गा. ५७) छाया- वर्षात्राणारता निष्कारणे तिष्ठन्ति, कार्ये यतनया । । हस्ताक्ष्पगुलीसझा, पोतान्त एव भापन्ते ॥१॥' इति । .: चूर्णिकारेण "पोत्तरिया व भासंति" इति पदस्य चूणौँ हस्तभ्रुवादिसङ्केतेन यदि साधवो नारगच्छन्ति तदाऽवश्यवक्तव्ये सति "मुहपोत्तियअंतरिया जयगाए भासंति" इति प्रतिपादितम् । अनेनं स्पष्टं सिध्यति-पत् मुखवत्रिका साधनां मुखे पूर्व पद्धाऽऽसीदिति, तेनैव कारणेन 'मुखपोतान्त एव यतनया मन्द-मन्दं भापन्ते ' इत्युक्तम् । ... फिरभी निशीथ सूत्रके भाष्यमें संयमघात नामक द्वारके अन्दर धूअर आदि अप्कायकी यतनाके लिए कहा है 'वासत्ताणा' इत्यादि, . इस गाथामें आये हुए 'पोत्तेतरिया व भासंति' इस पदकी चूर्णि करते समय चूर्णिकारने कहा है-अगर साधु हाथ आँख आदिके इशारेसे नहीं समझ सके और बोलना ही जरूरी समझे तो 'मुखवस्त्रिकाके अंदर ही यतनासे (धीरे-धीरे) घोले' इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि साधुओंके मुख पर मुखवस्त्रिका पहले गांधी हुई थी, इसी कारणको लेकर ही 'मुखवस्त्रिकाके अंदर ही यतनासे (धीरे धीरे) चोले' ऐसा कहा है। વળી નિશીથસૂત્રના ભાગ્યમાં “સંયમઘાત” નામના દ્વારમાં ઝાકળ આદિ मायनी यतना ती मते घुछ 'वासत्ताणा.' त्या, આથી સ્પષ્ટ સિદ્ધ થાય છે કે સાધુઓના મુખ પર મુખવસ્ત્રિકા બાંધેલી डती. मा २९४२ सीधे 'पोतंतरिया व भासंति' मा पनी यूणि ४२तां ચૂર્ણિકારે કહ્યું છે કે- “સાધુ ઈશારાથી ન સમજે અને બોલવું જ પડે તે સુખવસ્ત્રિકાની અંદર જ ચેતનાથી બેલે” Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ श्रीदर्शने कात्रे हानिः, अल्पीयस्या अपि हीरककणिकाया भक्षणे माणानामेव नाशः, विकस्येपदंशनेऽपि सकलशरीरव्यथनम् कण्टकाग्रमात्रे वाणाप्रमाने च कचिदङ्गे निखाते सकलाङ्गपीडा, नेत्रेऽणुतरस्यापि रजःकणस्य निपाते नेत्रोपघातः, नासिकाग्रमात्रे स्वल्पेऽपि देहभागे छिन्ने समग्रशरीरशोभोपघातः, स्वल्पेनाऽप्याधाकर्मादिसिक्वेन मिथितेऽनादौ पूतिकर्मदो पदूपितमाहारजातं भवति, स्वल्पेऽपि जिनवचनसन्देहे सर्वचारित्रनाशो जायते, तथैव स्वल्पेऽपि काले मुखखिकाबन्धनोपेक्षया पट्कायविराधनार्यां सत्यां चातुर्मासिकप्रायश्चित्ताधिकारितापतिः । तथा चोक्तं निशीथसूत्रे द्वादशो देशकेऽष्टमसूत्रादारभ्य द्वादशसूत्रं यावत् 1 महान् हानि होती है, छोटीसी हीराकी कनीका भक्षण करनेसे प्राणोंका ही नाश होता है, विच्छूके थोड़ासा काट खानेसे सारे शरीरमें व्यथा होती है, कांटे या तीरकी जरासी नोंक किसी अंगमें घुस जाय तो सब अंगमें पीड़ा होने लगती है, आँखमें छोटीसी किरकिरी घुस जाने से आँख में तकलीफ होती है, जरासी नाक कट जानेसे सब शरीरकी सुन्दरता नष्ट हो जाती है । आधाकर्म आदि आहारका एक भी सीध मिल जाने से सब आहार पूतिकर्मदोष से दूषित हो जाता है, जिनवचनों में तनिक भी सन्देह करनेसे समस्त चारित्रका नाश हो जाता है, वैसे ही थोड़ी देर भीमुखका बांधने की उपेक्षा करनेसे पटकायकी विराधना होती है, अतः चातुर्मासिक प्रायश्चित्त लगता है । निशीथसूत्र के यारहवें उद्देशके आठवें सूत्र से बारहवें सूत्रतकमें कहा है- " जे भिक्खू० " इत्यादि, જવાથી ભારે હાનિ થાય છે, નાની સરખી હીરા કણીનું ભક્ષણ કરવાથી પ્રાણુંના નાશ થાય છે, વીંછી જરા કરડવાથી આખા શરીરમાં વ્યયા થાય છે, કાંટા યા તીરની નાની સરખી અણી કાઈ અંગમાં પેસી જવાથી આખા મગમાં પીડા ચવા લાગે છે, આખમા નાનું સરખું કશું પેસી જવાથી આંખમાં તકલીફ થાય છે, નાનું સરખું નાક કપાઈ જવાથી આખા શરીરની સુંદરતા નષ્ટ થઈ જાય છે, આધાક આદિ આહારનું એક પણુ કણ મળી જવાથી મધે આહાર પૃતિક દોષથી દૂષિત થઈ જાય છે, જિનવચનામાં લગાર પણ સ ક્રેહ કરવાથી સમસ્ત ચારિત્રને નાશ થઇ જાય છે, તેમ થાડા વખત પણ મુખવસ્ત્રિકા ખાંધવાની ઉપેક્ષા કરવાથી ષટ્કાયની વિરાધના થાય છે તેથી ચાતુર્માસિક પ્રાયશ્ચિત્ત લાગે છે, નિશીથસૂત્રના ખારમા ઉદ્દેશના આઠમા સૂત્રથી ખારમા સૂત્ર सुधीभांछे 'जे भिक्खू० ' त्याहि, Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गां. १ मुखवस्त्रिकाविचारः वेति भावः । तस्मात्-मुखोपरि मुखवत्रिकावन्धनं सकलजैनागमप्रतिपाद्यमिति सिद्धम् । एवं च भगवतीमूत्रे 'सुहुमकायं अणिज्जूहिताणं' इति वाक्यस्य सूक्ष्मकार्य=मुखवत्रिकाम् 'अणिज्जहित्ता'अपोह्य परित्यज्य-अवध्वेत्यर्थो वोध्या, एवमन्यत्राऽप्यूहनीयम् । ___ यत्तु-आचाराङ्गसूत्रे उच्छ्वासादिकाले मुखपिधानोपदेशेन मुखवत्रिका करेणैव धारणीया न तु दोरकेणेति तत्तत्समये एव मुखवस्त्रिकया घ्राणमुखादिपिधानं विधेयमिति च प्रतीयते, दोरकावलम्बन मुखवत्रिकायाः सदा धारणीयत्वे तु पुनर्मुखपिधानोपदेशो व्यर्थः स्यादिति बदन्ति तदज्ञानमूलम् । आचाराङ्गआज्ञाभंगमें गुरुतर प्रायश्चित्त देना युक्त ही है । इसलिये यह सिद्ध हुआ कि मुख पर मुखयस्त्रिका बांधना सय जैनशास्त्रोंमें प्रतिपादन किया गया है । इस प्रकार भगवती-सूत्रके 'सुहुमकायं अणिजूहित्ताणं' वाक्यका अर्थ यह समझना चाहिये कि 'मुखवत्रिकाका त्याग करके अर्थात् नं ..यांध करके।' ऐसा सब जगह समझना चाहिए। . ... प्रश्न-आचाराङ्गास्त्रमें उच्छास आदि लेते समय मुख ढंकने का उपदेश दिया है। इससे यह प्रतीत होता है कि मुखवस्त्रिका हाथमें ही रखनी चाहिए डोरेसे नहीं बाँधनी चाहिए, अमुक-अमुक समय पर ही जय उच्छ्वास आदि आवे तय ही नाक या मुख ढंक लेना चाहिए। डोरेसे मुखवस्त्रिका धारण करना उचित हो तो पुनः मुख ढंकनेका उपदेश व्यर्थ हो जायगा। ભંગમાં ગુત્ર પ્રાયશ્ચિત્ત આવે છે. એ રીતે સિદ્ધ થયું કે મુખ પર મુખવસ્ત્રિકા બાંધવી એવું બધાં જૈનશાસ્ત્રોમાં પ્રતિપાદન કરેલું છે. એટલા भाटे भगवती-सूत्रना 'मुहुमकायं अणिज्जूदित्ताणं से वायनअर्थ सम समायो " 'भुभवन्निानी त्या शनेअर्थात् न मांधीन.' १ . प्रभार 'मधी या सभा . . પ્રશ્ન-આચારાંગ-સૂત્રમાં ઉચ્છવાસ આદિ લેતી વખતે મુખ ઢાંકવાને ઉપદેશ આપે છે. એથી એમ પ્રતીત થાય છે કે મુખવસ્ત્રિકા હાથમાં જ રાખવી જોઈએ, દેરાથી બાંધવી જોઈએ નહિ. અમુક અમુક સમયે જ જ્યારે ઉછુવાસ આદિ આવે ત્યારે જ નાક ચા મુખ ઢાંકી લેવું જોઈએ, દેરાથી મુખવંઅિંકા 'पा२५ ४२वी सिताय तो पछी पुन: भुण iपानी पहेश व्यर्थ य ... Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीदशकालिको किञ्च विधिमपानन्थे चारित्रातिचारमायभित्ताधिकारे मुखवखिकामन्तरेग भापणनिषेधः प्रतिपादितः । किञ्च पूर्वोक्तदिशा पट्कायविराधकस्य तद्विराधनावर्जनपरकभगवदानामा दोपप्रसङ्गः । । तथा च सति अविधिविधानं, ततो मिथ्यात्वं, तस्माचारित्रविराधना, वतत्र दीर्घसंसारित्वं प्रपद्येत, अत एवाऽऽनामक गुरुतरमायश्चित्तं प्रदर्शितम् । उक्तं हि बृहत्कल्पभाप्ये"अवराहे लहुगयरो, आणाभंगंमि गुमतरो किरणु ?।। आणांए चिय चरणं, तभंगे कि न भग्गं तु? ॥१॥” इति। सर्वमेव चारित्रं भगवदाज्ञायामेव व्यवस्थितम् , अतस्तो मूलोत्तरगुणादिकं वस्तु किं न भग्नम् ? अपि तु सर्वमपि मनमिति हेतोस्तत्र गुरुतरमायवित्तं युक्तमे फिर 'विधिप्रपा' नामके ग्रन्थमें भी चारित्रके अतिचारोंका प्रायश्चित्त कहते समय मुखचस्त्रिकाके चिना पोलनेका स्पष्ट निषेध किया गया है। तथा-पूर्वोक्त रीतिसे पटकायकी विराधना करनेवालेको भगवानकी "पटकायकी विराधनाका त्याग करना" इस आज्ञाके भंग करनेका दोष लगता है । यह दोप लगनेसे अविधिका विधान, अविधिका विधान करनेसे मिथ्यात्व, मिथ्यात्वसे चारित्रकी विराधना और चारित्रकी विराधनासे दीर्घसंसारित्वकी प्राप्ति होती है । इसीसे आज्ञाभंगका गुरुतर प्रायश्चित्त लगता है। बृहत्कल्पभाष्यमें कहा है-"अवराहे" इत्यादि. समस्त चारित्र भगवानकी आज्ञामें ही है। भगवानकी आज्ञाका भंग होने पर मूलगुण उत्तरगुण आदि सभी नष्ट हो जाते हैं । अतः વલી “વિધિપ્રપા' નામના ગ્રન્થમાં પણ ચરિત્રનાં અતિચારેની શુદ્ધિના પ્રકરણમાં મુખવસ્ત્રિકા વગર બોલવાને નિષેધ કર્યું છે! તથા-પૂર્વોક્ત રીતિથી ષકાયની વિરાધના કરનારને ભગવાનની ષકાયની વિરાધનાનો ત્યાગ કરે” આ આજ્ઞાને ભંગ કરવાને દેષ લાગે છે. આ દોષ લાગવાથી અવિધિનું વિધાન, અવિધિ-વિધાનથી મિથ્યાત્વ, મિથ્યાત્વથી ચારિત્રની વિરાધના અને ચારિત્રની વિરાધનાથી દીર્ધસંસારિત્યની પ્રાપ્તિ થાય છે. એથી આજ્ઞાભંગનું ગુરૂતર પ્રાયશ્ચિત્ત લાગે છે, १६५माध्यमा प्रयुं - 'अवराहे त्या સમસ્ત ચારિત્ર ભગવાનની આજ્ઞામાં જ રહેલું છે. ભગવાનની આજ્ઞાને ભંગ થવાથી મૂળગુણ ઉત્તરગુણ આદિ બધું નષ્ટ થઈ જાય છે. તેથી આજ્ઞા Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुखवस्तिकाविचारः वेति भावः । तस्मात्-मुखोपरि मुखवत्रिकावन्धनं सकलजैनागमप्रतिपायमिति सिद्धम् । एवं च भगवतीमूने 'सुहुमकायं अणिज्जूहित्ताणं' इति वाक्यस्य सूक्ष्मकार्य-मुखवत्रिकाम् 'अणिज्जू हित्ता'अपोह्य परित्यज्य अवद्ध्वेत्यर्थों योध्या, एवमन्यत्राऽप्यूहनीयम् । ___यतु-आचारागसूत्रे उच्छ्वासादिकाले मुखपिधानोपदेशेन मुखवत्रिका करेणैव धारणीया न तु दोरकेणेति तत्तत्समये एव मुखवस्त्रिकया घ्राणमुखादि-पिधान विधेयमिति च प्रतीयते, दोरकावलम्वेन मुखवस्त्रिकायाः सदा धारणीयत्वे तु पुनर्मुखपिधानोपदेशो व्यर्थः स्यादिति बदन्ति तदज्ञानमूलम् । आचारागआज्ञाभंगमें गुम्तर प्रायश्चित्त देना युक्त ही है । इसलिये यह सिद्ध हुआ कि मुख पर मुखवस्त्रिका बांधना सब जैनशास्त्रों में प्रतिपादन किया गया है। इस प्रकार भगवती-सत्रके 'सुहुमकायं अणिहिताणं' चाक्यका अर्थ यह समझना चाहिये कि 'मुखवत्रिकाका त्याग करके अर्थात् नं यांध करके।' ऐसा सब जगह समझना चाहिए। . __.. प्रश्न-आचारागसूत्र में उच्वास आदि लेते समय मुख ढंकने का उपदेश दिया है । इससे यह प्रतीत होता है कि मुखवस्त्रिका हाथमें ही रखनी चाहिए डोरेसे नहीं बाँधनी चाहिए, अमुक-अमुक समय पर ही जय उच्छास आदि आवे तय ही नाक था मुख ढंक लेना चाहिए। डोरेसे मुखवस्त्रिका धारण करना उचित हो तो पुनः मुख ढंकनेका उपदेश 'व्यर्थ हो जायगा। ભંગમાં ગુરુતર પ્રાયશ્ચિત્ત આવે છે. એ રીતે સિદ્ધ થયું કે મુખ પર મુખવસ્ત્રિકા બાંધવી એવું બધાં જૈનશાસ્ત્રોમાં પ્રતિપાદન કરેલું છે. એટલા भाटे सशक्ती-सूत्रना 'मुहुमकायं अणिजहिताणं' से वायनी मथ मेम समस्या ‘જોઈએ કે “મુખવસ્ત્રિકાને ત્યાગ કરીને અર્થાત્ ન બાંધીને.” એજ પ્રમાણે गधा यामे सभा.. પ્રશ્ન-આચારાંગ-સૂત્રમાં ઉચ્છવાસ આદિ લેતી વખતે મુખ ઢાંકવાને ઉપદેશ આપે છે. એથી એમ પ્રતીત થાય છે કે મુખવસ્ત્રિકા હાથમાં જ રાખવી જોઈએ, દેરાથી બાંધવી જોઈએ નહિ. અમુક અમુક સમયે જ જ્યારે ઉચ્છવાસ આદિ આવે ત્યારે જ નાક યા મુખ ઢાંકી લેવું જોઈએ; દોરાથી મુખવસ્ત્રિકા ‘ધારણ કરવી ઉચિત હોય તે પછી પુનઃ મુખ ઢાંકવાને ઉપદેશ વ્યર્થ થઈ જશે. Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ - - • श्रीदनकालिको किञ्च विधिमपाग्रन्थे चारित्रातिचारमायश्रिताधिकारे मुखवलिकामन्तरेण भापणनिषेधः प्रतिपादितः । किञ्च पूर्वोक्तदिशा पट्कायविराधकस्य तद्विराधनावर्जनपरकमगवदाशामा दोपप्रसङ्गः । तथा च सति अविधिविधान, ततो मिथ्यावं, तस्माचारित्रविराधना, ततध दीघसंसारित्वं प्रपद्येत, अत एवाऽऽसामगकगुरुतरमायश्चित्तं प्रदशितम् । उक्तं हि वृहत्कल्पभाप्ये" अवराहे लहुगयरो, आणाभंगंमि गुरुतरो किहणु। आणाए चिय चरणं, तभंगे कि न भग्गं तु ? ॥१॥” इति। सर्वमेव चारित्रं भगवदाज्ञायामेव व्यवस्थितम् , अतस्तो मूलोतरगुणादिक वस्तु किं न भग्नम् ? अपि तु सर्वमपि भग्नमिति हेतोस्तत्र गुरुतरप्रायश्चित्तं युक्तमे फिर 'विधिप्रपा' नामके ग्रन्थमें भी चारित्रके अतिचारोंका प्रायश्चित्त कहते समय मुखवस्त्रिकाके विना योलनेका स्पष्ट निषेध किया गया है। तथा-पूर्वोक्त रीतिसे पटकायकी विराधना करनेवालेको भगवानकी "पटकायकी विराधनाका त्याग करना" इस आज्ञाके भंग करनेका दाष लगता है। यह दोप लगनेसे अविधिका विधान, अविधिका विधान करनेसे मिथ्यात्व, मिथ्यात्वसे चारित्रकी विराधनाऔर चारित्रकी विरा धनासे दीर्घसंसारित्वकी प्राप्ति होती है । इसीसे आज्ञाभंगका गुरुतर प्रायश्चित्त लगता है। वृहत्कल्पभाप्यमें कहा है-"अवराहे” इत्यादि, समस्त चारित्र भगवानकी आज्ञामें ही है। भगवानकी आज्ञाका भंग होने पर मूलगुण उत्तरगुण आदि सभी नष्ट हो जाते हैं । अतः વલી વિધિપ્રપા' નામના ગ્રન્થમાં પણ ચારિત્રનાં અતિચારની શુદ્ધિમાં પ્રકરણમાં મુખવસ્ત્રિકા વગર બેલવાને નિષેધ કર્યું છે! - તથા–પૂર્વોક્ત રીતિથી ષટ્યાયની વિરાધના કરનારને ભગવાનની પાયાની વિરાધનાનો ત્યાગ કરે” આ આજ્ઞાને ભ ગ કરવાને દેષ લાગે છે આ દોષ લાગે વાથી અવિધિનું વિધાન, અવિધિ-વિધાનથી મિથ્યાત્વ, મિથ્યાત્વથી ચારિત્રની વિરાધના અને ચારિત્રની વિરાધનાથી દીર્ઘ સંસારિત્યની પ્રાપ્તિ થાય છે એથી આજ્ઞાભાગનું ગુરૂતર પ્રાયશ્ચિત્ત લાગે છે ४८५माध्यमा ४धु छ- 'अपराहे' या. સમસ્ત ચારિત્ર ભગવાનની આજ્ઞામાં જ રહેલું છે ભગવાનની આજ્ઞાને ભંગ થવાથી મૂળગુણ ઉત્તરગુણ આદિ બધું નષ્ટ થઈ જાય છે. તેથી આજ્ઞા Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गां. १ मुखवस्त्रिकाविचारः वेति भावः । तस्मात् - मुखोपरि मुखवत्रिकाबन्धनं संकलजैनागमप्रतिपाद्यमिति सिद्धम् । एवं च भगवतीमूत्रे 'सुहुमकायं अणिज्जूहित्ताणं' इति वाक्यस्य सूक्ष्मकार्य=मुखवस्त्रिकाम् 'अणिज्जू हित्ता ' = अपोद्य परित्यज्य = अवद्ध्वेत्यर्थो वोध्यः, एवमन्यत्राऽप्यूहनीयम् । य - आचाराङ्गसूत्रे उच्छ्वासादिकाले मुखपिधानोपदेशेन मुखवत्रिका करेणैव धारणीया न तु दोरकेणेति तत्तत्समये एव मुखवत्रिकया घ्राणमुखादि- पिधानं विधेयमिति च प्रतीयते, दोरकावलम्बेन मुखवस्त्रिकायाः सदा धारणीयत्वे तु पुनर्मुखपिधानोपदेशो व्यर्थः स्यादिति वदन्ति तदज्ञानमूलम् | आचाराङ्ग .३५ आज्ञाभंग में गुरुतर प्रायश्चित्त देना युक्त ही है । इसलिये यह सिद्ध हुआ कि मुख पर मुखत्रिका बांधना सय जैनशास्त्रों में प्रतिपादन किया गया है। इस प्रकार भगवती सूत्रके 'सुमकार्य अणिजूहित्ताणं' वाक्यका "अर्थ यह समझना चाहिये कि ' मुखवत्रिकाका त्याग करके अर्थात् नं - बांध करके ।' ऐसा सब जगह समझना चाहिए । प्रश्न- आचाराङ्गसूत्रमें उच्छ्वास आदि लेते समय मुख ढकने का उपदेश दिया है । इससे यह प्रतीत होता है कि मुखवस्त्रिका हाथमें ही रखनी चाहिए डोरेसे नहीं बाँधनी चाहिए, अमुक-अमुक समय पर ही जब उच्छ्रास आदि आवे तब ही नाक या मुख ढँक लेना चाहिए। डोरेसे मुखवस्त्रिका धारण करना उचित हो तो पुनः मुख ढंकनेका उपदेश 'व्यर्थ हो जायगा । " ભગમાં ગુરુતર પ્રાયશ્ચિત્ત આવે છે. એ રીતે સિદ્ધ થયું કે મુખ પર મુખસ્ત્રિકા બાંધવી એવું બધાં જૈનશાસ્ત્રોમાં પ્રતિપાદન કરેલુ છે. એટલા भाटे भगवती सूत्रा 'मुहुमकार्य अणिज्जू हित्ताणं' मे वाउयनो अर्थ शेभ समन्व • જોઇએ કે ‘ મુખવશ્રિકાને ત્યાગ કરીને અર્થાત્ ન ખાંધીને ’એજ પ્રમાણે 'गंधी या सभवु. પ્રશ્ન-આચારાંગ–સૂત્રમાં ઉચ્છ્વાસ આદિ લેતી વખતે મુખ ઢાંકવાને ઉપદેશ આપ્યા છે, એથી એમ પ્રતીત થાય છે કે મુખવસ્ત્રિકા હાથમાં જ રાખવી જોઈએ, દોરાથી બાંધવી જોઇએ નહિ. અમુક અમુક સમયે જ જ્યારે ઉચ્છ્વાસ આદિ આવે ત્યારે જ નાક યા મુખ ઢાંકી લેવું જોઈએ; દારાથી મુખવચિંકા - ધારણ કરવી ઉચિત હાય તે પછી પુનઃ સુખ ઢાંકવાના ઉપદેશ ન્ય થઇ .જશે. Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - • श्रीवभवेकालिकमले किञ्च विधिमपानन्थे चारित्रातिचारमायभित्ताधिकारे मुखवलिकामन्तरेण भापणनिषेधः प्रतिपादितः । किञ्च पूर्वोक्तदिशा पट्कायविराधकस्य तद्विराधनाव नपरकमगवदाशामा दोपप्रसङ्गः । तथा च सति अविधिविधान, ततो मिथ्यात्वं, तस्माधारित्रविराधना, ततध दीर्घसंसारित्वं प्रपद्येत, अत एवाऽऽशाभगकर्जुश्रुतरमायश्चित्तं प्रदर्शितम् । उक्तं हि वृहत्कल्पभाप्ये"अवराहे लहुगयरो, आणाभंगमि गुमतरो किरणु । आणाए चिय चरणं, तभंगे कि न भग्गं तु ? ॥१॥” इति। सर्वमेव चारित्रं भगवदाज्ञायामेव व्यवस्थितम् , अतस्तद्भो मृलोतरगुणादिक वस्तु किं न भनम् १ अपि तु सर्वमपि भन्ममिति हेतोस्तत्र गुरुतरमायश्रित्तं युक्तमे फिर 'विधिप्रपा' नामके अन्धमें भी चारित्रके अतिचारोंका प्रायश्चित्त कहते समय मुखयस्त्रिकाके विना योलनेका स्पष्ट निषेध किया गया है। ... तथा-पूर्वोक्त रीतिसे पट्कायकी विराधना करनेवालेको भगवानकी "पट्कायकी विराधनाका त्याग करना" इस आज्ञाके भंग करनेका दाष लगता है। यह दोप लगनेसे अविधिका विधान, अविधिका विधान करनेसे मिथ्यात्व, मिथ्यात्वसे चारित्रकी विराधनाऔर चारित्रकीविरा धनासे दीर्घसंसारित्वकी प्राप्ति होती है। इसीसे आज्ञाभंगका गुरुतर प्रायश्चित्त लगता है। वृहत्कल्पभाष्यमें कहा है-"अवराहे" इत्यादि, समस्त चारित्र भगवानकी आज्ञामें ही है। भगवानकी आज्ञाका भंग होने पर मूलगुण उत्तरगुण आदि सभी नष्ट हो जाते हैं । अतः વલી વિધિપ્રપા નામના ગ્રન્થમાં પણ ચારિત્રનાં અતિચારની શુદ્ધિના પ્રકરણમાં મુખવસ્ત્રિકા વગર બલવાને નિષેધ કર્યું છે ! તથા-પૂર્વોક્ત રીતિથી પકાયની વિરાધના કરનારને ભગવાનની “ષટ્રકની વિરાધનાને ત્યાગ કરે ” આ આજ્ઞાને ભંગ કરવાને દોષ લાગે છે. આ દોષ લાગ વાથી અવિધિનું વિધાન, અવિધિ-વિધાનથી મિથ્યાત્વ, મિથ્યાત્વથી ચારિત્રની વિરાધના અને ચારિત્રની વિરાધનાથી દીર્ઘ સંસારિત્યની પ્રાપ્તિ થાય છે એથી આજ્ઞાભંગનું ગુરૂતર પ્રાયશ્ચિત્ત લાગે છે. १७४६५माध्यमा घुछ- 'अपराहे त्या. સમસ્ત ચરિત્ર ભગવાનની આજ્ઞામાં જ રહેલું છે. ભગવાનની આજ્ઞાને ભંગ થવાથી મૂળગુણ ઉત્તરગુણ આદિ બધું નષ્ટ થઈ જાય છે. તેથી આજ્ઞા Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गां. १ मुखवखिकाविचारः वेति भावः । तस्मात् मुखोपरि मुखबखिकाबन्धनं सकलजैनागमप्रतिपाद्यमिति सिद्धम् । एवं च भगवतीमूत्रे 'सुहुमकार्य अणिज्जूद्दित्ताणं' इति वाक्यस्य सूक्ष्मकार्य= मुखवस्त्रिकाम् 'अणिज्जू हित्ता' =अपोद्य परित्यज्य = अवध्वेत्यर्थो वोध्यः, एवमन्यत्राऽप्यूहनीयम् । यचु - आचाराङ्गसूत्रे उच्छ्वासादिकाले मुखपिधानोपदेशेन मुखवत्रिका करेणैव धारणीया न तु दोरकेणेति तत्तत्समये एव मुखवत्रिकया घ्राणमुखादि- पिधानं विधेयमिति च प्रतीयते, दोरकावलम्बेन मुखवत्रिकायाः सदा धारणीयत्वे तु पुनर्मुखपिधानोपदेशो व्यर्थः स्यादिति वदन्ति तदज्ञानमूलम् | आचाराङ्ग .३५ आज्ञाभंग में गुरुतर प्रायश्चित्त देना युक्त ही है । इसलिये यह सिद्ध हुआ कि मुख पर मुखका बांधना सय जैनशास्त्रों में प्रतिपादन किया गया है। इस प्रकार भगवती-सूत्रके 'सुहमका अणिजूहित्ताणं' वाक्यका "अर्थ यह समझना चाहिये कि 'मुखवखिकाका त्याग करके अर्थात् नं ..बांध करके ।' ऐसा सब जगह समझना चाहिए । प्रश्न- आचाराङ्गसूत्रमें उच्छास आदि लेते समय सुख ढँकने का उपदेश दिया है। इससे यह प्रतीत होता है कि मुख्यस्त्रिका हाथमें ही रखनी चाहिए डोरेसे नहीं बाँधनी चाहिए, अमुक-अमुक समय पर ही जब उच्छ्रास आदि आवे तब ही नाक या मुख ढँक लेना चाहिए। डोरे से मुखस्त्रिका धारण करना उचित हो तो पुनः मुख ढकनेका उपदेश 'व्यर्थ हो जायगा । ભગમાં ગુરુતર પ્રાયશ્ચિત્ત આવે છે. એ રીતે સિદ્ધ થયું કે મુખ પર મુખવસ્ત્રિકા માંધવી એવું અધાં જૈનશાસ્ત્રોમાં પ્રતિપાદન કરેલું છે. એટલા भाटे भगवती-सूत्रना 'मुहुमकार्य अणिजूहित्ताणं' से वाक्यो अर्थ शुभ समन्व જોઇએ કે ‘ મુખવગ્નિકાના ત્યાગ કરીને અર્થાત્ ન ખાંધીને, મેજ પ્રમાણે गधी ग्यामे समन्युं. > પ્રશ્ન-આચારાંગ-સૂત્રમાં ઉચ્છ્વાસ સ્માદિ ઉપદેશ આપ્યા છે. એથી એમ પ્રતીત થાય છે કે જોઇએ, દોરાથી બાંધવી એઇએ નહિ. અમુક અમુક આદિ આવે ત્યારે જ નાક ચા મુખ ઢાંકી લેવું જોઇએ; દોરાથી મુખર્વાએકા • ધારણ કરવી ઉચિત હાય તે પછી પુનઃ મુખઢાંકવાના ઉપદેશ ન્ય થઈ જશે. લેતી વખતે મુખ ઢાંકવાના મુખવસ્ત્રિકા હાથમાં જ રાખવી સમયે જ જ્યારે ` ઉચ્છ્વાસ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - .. श्रीदशकालिको किञ्च विधिमपानन्ये चारित्रातिचारमायभित्ताधिकारे मुखवत्रिकामन्तरेण भाषणनिपेधः मतिपादितः । किञ्च पूर्वोक्तदिशा पट्कायपिराधकस्य तद्विराधनावर्ननपरकभगवदाशामा दोपपसहः। तथा च सति अविधिविधान, ततो मिथ्यावं, तस्माचारित्रविराधना, ववश्व दीघसंसारित प्रपद्येत, अत एवाऽऽज्ञामनकरीगुरुवरमायबित्तं प्रदर्शितम् । उक्तं हि वृहत्कल्पमाप्ये"अवराहे लगयरो, आणाभंगंमि गुमतरो किरणु । आणाए चिय चरणं, तम्भंगे किं न भग्गं तु? ॥१॥” इति। सर्वमेव चारित्रं भगवदामायामेव व्यवस्थितम् , अतस्तदो मूलोत्तरगुणा वस्तु किं न भग्नम् १ अपि तु सर्वमपि भममिति हेतोस्तत्र गुरुतरमायश्रित्तं र फिर 'विधिप्रपा' नामके ग्रन्थमें भी चारित्रके अति प्रायश्चित्त कहते समय मुखवस्त्रिकाके विना घोलनेका स्पष्ट नि गया है। तथा-पूर्वोक्त रीतिसे पटकायकी विराधना करनेवालेको "पटकायकी विराधनाका त्याग करना" इस आज्ञाके भंग लगता है। यह दोप लगनेसे अविधिका विधान, अवि करनेसे मिथ्यात्व, मिथ्यात्वसे चारित्रकी विराधना और धनासे दीर्घसंसारित्वकी प्राप्ति होती है । इसीसे आ. प्रायश्चित्त लगता है। बृहत्कल्पभाष्यमें कहा है-"अवराहे" इत्यादि समस्त चारित्र भगवानकी आज्ञामें ही है। भंग होने पर मूलगुण उत्तरगुण आदि सभी पक्षी विधिया' नामना अन्यमा ५ . પ્રકરણમાં મુખવસ્ત્રિકા વગર બલવાનો નિષેધ કર્મ થા-પૂર્વોક્ત રીતિથી ષયની વિરા વિરાધનાને ત્યાગ કરે” આ આજ્ઞાને ભ વાથી અવિધિ વિધાન, અવિધિ-વિધાનથી અને ચારિત્રની વિરાધનાથી દીર્ધસંસાર ગુરૂતર પ્રાયશ્ચિત્ત લાગે છે. બૃહત્ક૫ભાષ્યમાં કહ્યું છે– “ સમસ્ત ચારિત્ર ભગવાનની આ ભંગ થવાથી મૂળગુણ ઉત્તરગુણ આદિ છે Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुखवस्त्रिकाविचारः सादियतनाया अनुपपत्तेः । - अनेन सूत्रेण 'उच्छ्वासादिकाले आस्यकपोपकपरिपिधानं पाणिना विधेय मिति बोधयतो भगवतस्तात्पर्य मुखवत्रिकया पिधाने कल्पयन्तः पण्डिताभिमानिन एवमनुयोक्तव्याः-'पाणि' शब्दस्य मुखवस्विकारूपोऽर्थः किं वाच्यो लक्ष्यो व्यङ्गयो वा ? । नायः, अभिधाशक्तिग्राहकव्याकरणकोशादिभिरुक्तार्थालाभात् , 'पञ्चशाखः शयः पाणि'-रित्यमरकोशव्याख्यायां पञ्च शाखा इवागुलयोऽस्येति ‘पञ्चशाखा, शेतेऽस्मिन् सर्वमिति शयः, ('पुसि' ३३२१२११) घः' पणायमुख ढंक लेनेपर भी नाकसे निकलनेवाले उच्छास आदिकी यतना नहीं हो सकती। । इस सूत्रसे 'उच्छ्वास लेते समय आस्यक और पोपक (मलद्वार)को हाथसे ढंक लेना चाहिए,' ऐसा. भगवान् यताते हैं, फिरभी नामधारी पंडित 'मुखवस्त्रिकासे ढंकना चाहिए' ऐसा अर्थ निकालते हैं । उनसे हम पूछते हैं कि तुम हाथका अर्थ मुखवत्रिका करते हो सो वह अर्थ वाच्य है, या लक्ष्य है या व्यङ्गय है । पहला पक्ष तो ठीक नहीं है, क्योंकि अमिधा शक्तिके ग्राहक व्याकरण कोश आदिकोंमें यह अर्थ नहीं मिलता। अमरकोशमें हाथके तीन नाम दिये हैं-(१) पञ्चशाख (२) शय और (३) पाणि । व्याख्यामें बताया है कि शाखा जैसी पाँच अंगुलियाँ होती हैं इसलिए इसे पञ्चशाख कहते हैं। उसमें सब वस्तुएँ सोती (रखी जाती) हैं इसलिए शय कहते हैं। उससे सब लेनदेन લેવા છતાં પણ નાકથી નીકળનાર ઉદ્ઘાસ આદિની યતના થઈ શકતી નથી. - આ સૂત્રથી ઉચ્છવાસ લેતી વખતે આસ્યક અને પિષક (મલદાર) ને હાથથી ઢાંકી લેવું જોઈએ એમ ભગવાન્ બતાવે છે; છતાં પણ નામધારી પંડિત મુખવસ્ત્રિકાથી ઢાંકવું જોઈએ એ અર્થ કાઢે છે. એમને અમે પૂછીએ છીએ કે તમે હાથનો અર્થ મુખવસ્ત્રિ કરે છે, તે એ અર્થ વાચ છે, યા લક્ષ્ય છે કે વ્યંગ્ય છે? પહેલો પક્ષ તે બરાબર નથી કારણ કે અભિધા શક્તિના ગ્રાહક વ્યાકરણે કેશ આદિમાં એ અર્થ નથી મળતું. અમરકેશમાં હાથનાં तय नाम मान्य छे. (१) यशाम, (२) शय मन (3) पाणि. व्यायामा બતાવ્યું છે કે શાખા જેવી પાંચ આંગળીઓ હોય છે તેથી તેને “પંચશાખ” ४९ छे. सभी मधा वस्तुमा सूमे (रामपामा भावे) तथा ते 'शय" Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवेकालिकसूत्रे ३६ सूत्रपाठी हि तावदेवं विद्यते 1 " से भिक्खू वा २ उस्सासमाणे वा नीसासमाणे वा कासमाणे वा छीयमाणे चा जंभाप्रमाणे वा उद्योए वा वायनिसग्गं वा करेमाणे पुण्यामेव आसयं वा पोसयं वा पाणिणा परिपेहिप्ता तओ संजयामेव ऊससिज चा जाव चायनिसगं वा करेज्जा" (सूत्र १०९) इति । छाया“स भिक्षुर्वा२ उच्छ्वसन् वा, निःश्वसन् वा, कासमानः (कासं कुर्वन्) वा, क्षुवन् (क्षुतं कुर्वन्) वा, जृम्भमाणो वा, उहिरन् वा, ((अधिष्ठानेन) वातनिसर्गे वा कुन पूर्वमेव आस्यकं वा पोषकं वा पाणिना परिविधाय ततः संयत - एत्र उच्छ्वसेद् वा यावद् वातनिसर्गे वा कुर्यात्." इति संस्कृतम् । - अत्र "आसयं" इति लक्षणाटच्या घाणस्यापि बोधकम्, “उस्सास माणे वा नीसासमाणे वा छीयमाणे चा” इति पदानि लक्षणायां तात्पर्यग्राहकाणि । 'आसयं' इत्यस्य मुखमात्रपरत्वे तु पाणिना तत्परिविधानेऽपि घाणजन्योच्छ्रवा उत्तर-ऐसा प्रश्न करना अज्ञानता है। आचाराङ्ग सूत्रका पाठ ऐसा है" भिक्षु श्वासोच्छ्रास लेते समय, खांसते समय, छींकते समय, जंभाते समय, डकारते समय तथा अधोवायुका त्याग करते समय, पहले मुख अथवा मलद्वारको हाथसे ढँककर फिर यतनापूर्वक श्वास लेवे यावत् अधोवायुका त्याग करे " । यहाँ 'आस' (मुख) पद लक्षणाके द्वारा घाणकाभी बोधक है। 'उस्सासमाणे वा निस्सासमाणे वा छीयमाणे वा' ये पद लक्षणामे तात्पर्यके ग्राही हैं । 'आस' पदसे केवल मुखका अर्थ लिया जाय तो हाथसे ઉત્તર-એવા પ્રશ્ન કરવા અજ્ઞાનતા છે. આચારાંગ-સૂત્રને પાઠે એવે છે “ ભિક્ષુ પાસા શ્ર્વાસ લેતી વખતે, ઉધરસ ખાતી વખતે, છીંકતી વખતે, ગાસું ખાતી વખતે, ઓડકાર ખાતી વખતે તથા અધેવાયુના ત્યાગ કરતી વખતે, પહેલાં સુખ અથવા મળદ્વારને હાથથી ઢાંકીને પછી ચતનાપૂર્વક શ્વાસ લે ચાવતા અધેવાયુના ત્યાગ કરે.” सही 'आस' (भुभ ) शब्द લક્ષણુાદ્વારા ઘ્રાણુના પણ આધક છે. ' उस्सासमाणे वा निस्सासमाणे वा छीयमाणे वा' मे हो लक्षणाभां तात्यर्यनां ગ્રાહી છે. બલવં શબ્દથી કેવળ સુખને અથ લેવામાં આવે તેા હાથથી મુખ ઢાંકી Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुखवस्त्रिकाविचारः सादियतनाया अनुपपत्तेः । - अनेन सूत्रेण 'उच्छ्वासादिकाले आस्यकपोपकपरिपिघानं पाणिना विधेय' मिति बोधयतो भगवतस्तात्पर्य मुखवस्त्रिकया पिधाने कल्पयन्तः पण्डितामिमानिन ‘एवमनुयोक्तव्याः-'पाणि' शब्दस्य मुखबस्विकारूपोऽर्थः किं वाच्यो लक्ष्यो व्यङ्गयो वा? । नायः, अभिधाशक्तिग्राहकव्याकरणकोशादिमिरुक्तार्यालामात् , 'पञ्चशाखः शयः पाणि'-रित्यमरकोशव्याख्यायां पञ्च शाखा इबागुलयोऽस्येति पञ्चशाखा, शेतेऽस्मिन् सर्वमिति शयः, ('पुंसि' २३२१२११) घः' पणायमुख ढंक लेनेपर भी नाकसे निकलनेवाले उच्छास आदिकी यातना नहीं हो सकती। . इस सूत्रसे 'उच्वास लेते समय आस्यक और पोपक (मलदार)को हाथसे ढंक लेना चाहिए,' ऐसा भगवान बताते हैं, फिरभी नामधारी पंडित 'मुखवस्त्रिकासे ढंकना चाहिए' ऐसा अर्थ निकालते हैं। उनसे हम पूछते हैं कि तुम हाथका अर्थ मुखपत्रिका करते हो सो वह अर्थ वाच्य है, या लक्ष्य है या व्यङ्गय है ? । पहला पक्ष तो ठीक नहीं है, क्योंकि अमिधा शक्तिके ग्राहक व्याकरण कोश आदिकोंमें यह अर्थ नहीं मिलता। अमरकोशमें हाथके तीन नाम दिये हैं-(१) पञ्चशांख (२) शय और (३) पाणि । व्याख्यामें बताया है कि शाखा जैसी पाँच अंगुलियाँ होती हैं इसलिए इसे पञ्चशाख कहते हैं। उसमें सब वस्तुएँ सोती (रखी जाती) हैं इसलिए शय कहते हैं। उससे सब लेनदेन લેવા છતાં પણ નાકથી નીકળનાર ઉશ્વાસ આદિની યતના થઈ શકતી નથી. * આ સૂત્રથી ઉચ્છવાસ લેતી વખતે આસ્થક અને પિષક (મલદાર) ને હોથથી ઢાંકી લેવું જોઈએ એમ ભગવાન બતાવે છે; છતાં પણ નામધારી પંડિત સુખસ્ટિકાથી ઢાંકવું જોઈએ એ અર્થ કાઢે છે. એમને અમે પૂછીએ છીએ કે તમે હાથને અર્થ મુખવશ્વિક કરે છે, તે એ અર્થ વચ્ચે છે, યા લક્ષ્ય છે કે વ્યંગ્ય છે? પહેલે પક્ષ તે બરાબર નથી કારણ કે અભિધા શક્તિના ગ્રાહક વ્યાકરણ કેશ આદિમાં એ અર્થ નથી મળતો. અમરકોશમાં હાથનાં त्रण नाम माया छे. (१) पयशाम, (२) शय मन (3) पाyि. व्यायामा બતાવ્યું છે કે આ જેવી પાંચ આંગળીઓ હેય છે તેથી તેને “પંચશાખ” કહે છે. એમાં બધી વસ્તુઓ સૂએ (શખવામાં આવે) છે તેથી તેને “શય' Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदनवैकालिको न्त्यनेनेति पाणिः 'पण व्यवहारे स्तुती च' इत्यस्मा 'अशिपणाप्योगडायलको च' (उ० ४.१३३) इतीण् , 'आयप्रत्ययस्य लुक चे-ति व्यु. स्पादनेन तत्र करवाचकत्वस्यैव लाभाच । नापि द्वितीयः, मुख्यार्थकरकरणकपिधानतात्पर्यस्य निर्वाधेन तात्पर्यानुपपतिरूपलक्षणावीजस्याभावात् ।। नापि तृतीयः, मुख्यातिात्पर्यकत्वेनैवककरण पायुपिधानस्यापरकरेप मुखघ्राणपिधानस्य चोपपत्या व्यद्गायार्थ मुखरस्त्रिकातात्पर्यकत्वकल्पनाया अनावश्यकत्वात् , अनौचित्याच । वायुनिसर्गानन्तरं क्षुते जायमाने पायुनिर्गतवायुआदि व्यवहार होते हैं अतः उसे पाणि कहते है। "अशिपणाय्यो रुस यलुकौच" (उ०४४१३३) इस सूत्रसे 'इण' होताहै और 'आय' प्रत्ययका लुक होता है । ऐसी व्युत्पत्ति करनेसे 'कर'का वाचक ही होता है। दूसरा भी पक्ष (लक्ष्य अर्थ मानना) ठीक नहीं है । लक्ष्य अर्थ वहां माना जाता है जहाँ मुख्य (शान्दिक) अर्थ लेने में किसी प्रकारकी बाधा आती हो । यहाँ पर 'हायसे ढंक कर ऐसा अर्थ करने में कोई बाधा नहीं आती, इसलिए लक्षणा नहीं हो सकती, अतः यह लक्ष्यअर्थभी नहीं है। तीसरा (व्यङ्गय अर्थ मानना) भी पक्ष बाधित है। जय प्रधान अर्थ लेनेसे एक हाथसे मलदार ढंकना और दूसरे हाथसे नाक-मुखका ढंकना युक्त है तो व्यगय अर्थ (मुखवस्त्रिकाके तात्पर्यकी कल्पना करना) अना वश्यक और अनुचित है। अघोवायु निकलते ही किसीको छोंक आन કહે છે. તે વડે બધે લેણદેણ વગેરેને વહેવાર થાય છે તેથી એને “પાણિ” કહે છે अशिपणाप्यो रुडायलमौ च (उ०४।१३३) मे सूत्रयी इण थाय छ ।' મા પ્રત્યયને સુ થાય છે. એવી વ્યુત્પત્તિ કરવાથી ઘર ને વાચક જ બને છે બીજો પક્ષ પણ ( લક્ષ્ય અર્થ માનવે ) બરાબર નથી લય અર્થ માનવામાં આવે છે કે જ્યાં મુખ્ય (શાબ્દિક) અર્થ લેવામાં કઈ બાધા આવે. અહીં “હાથથી ઢાંકીને ' એ અર્થ કરવામાં કે બધા અ નથી, તેથી લક્ષણ થઈ શકતી નથી, એટલે એ લક્ષ્ય અર્થ પણ નથી. - ત્રીજો પક્ષ ( વ્યગ્ય અર્થ માન) પણ બાધિત છે. જ્યારે પ્રધાન અય લેવાથી એક હાથથી મળદ્વાર ઢાંકવું અને બીજા હાથે નાક- મુખને ૪ ચત છે તે વ્યંગ્યાથે ( મુખ વસ્ત્રિકાને તાત્પર્યની કલ્પના કરી છે અને અનુચિત છે. અધીવાયુ નીકળતી વખતે જ કેઈને છીંક આવતા હશે તે Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा, १ मुखवसिकाविचारः संध्या मुखवत्रिकया मुखघ्राणपिधानस्यानौचित्पमापामरमतीतमेव । पाणिशब्देऽजहल्लक्षणात्ति स्वीकृत्य 'पाणिस्थितमुखवखिकये त्यर्थकल्पनेऽपि नोक्तानौचित्यदोपनिस्तारः । अपिच-आस्यक-पोपकैतदुभयपरिपिधाने पाणिनेत्येकमेव साधनमुक्तं, तत्र पाणिस्थितमुखवत्रिकयेत्यर्थाङ्गीकारे दीर्घोच्छ्वासादीनामघोषायुनिसर्गस्य च योगपद्ये सति कयमेकयैव पाणिस्थितया मुखवत्रिकया युगपदेव घ्राणं मुखं पायुश्चाऽऽवरीतुं शक्यत इति "पाणिणा परिपेहित्ता" इति भगवद्वाक्यस्यानुपपत्तिानच 'एकपाणिस्थितया मुखवत्रिकयाऽऽस्यकम् , अपरपालगे तो उसी अधोवायुवासित मुखवत्रिकासे 'मुख' और नाक मूंदना बिलकुल अनुचित है और इस अनौचित्यको हरेक समझ सकता है। यदि 'पाणि' शब्दमें अजहल्लक्षणा वृत्ति मानकर 'पाणि' (हाथ) से पाणिमें स्थित मुखवस्त्रिका अर्थ लोगे तो भी अनौचित्य दोष नहीं हट सकता। दूसरी यात यह है कि मुख और मलदार ढंकनेका पाणिरूप एक ही साधन बताया है। यदि इसका अर्थ मुखवस्त्रिका किया जाये तो जब एक ही साथ अधोवायु और दीर्घ उच्छ्वास आवेगा तब एक ही मुखवत्रिका मलद्वार पर लगाई जावेगी या मुंहपर ? और यदि साथ ही छौंक भी आयगी तो वहीं नाकमें कैसे लगाई जावेगी? क्योंकि एक मुखवस्त्रिकासे एक साथ ही सय द्वार नहीं ढोंके जा सकते । अत: 'पाणिणा परिपेहित्ता' यह भगवानका वचन.ठीक नहीं बैठेगा.। यदि ऐसा समाधान करना चाहो कि एक हाथकी मुंहपत्तीसे मुंह और दूसरे એ અધેવાયુથી વાસિત સુખત્રિકાથી મુખ અને નાક ઢાંકવાં એ બિલકુલ અનુચિત છે. અને એ અનચિત્યને સૌ કઈ સમજી શકે છે. पाणि सभा ARREARN वृत्ति मानान, 'O' (82) थी - પાણિમાં સ્થિત મુખત્રિકાને અર્થ લેશે તે પણ અનૌચિત્ય દેવ દૂર થઈ શકતે - નથી. બીજી વાત એ છે કે મુખ અને મળદ્વાર ઢાંકવાનું પાણિરૂપ એકજ સાધન * બતાવ્યું છે. જે એને અર્થ મુખવઝિકા કરવામાં આવે તે જ્યારે એકી સાથે * અધેવાયુ અને દીર્ધ ઉચ્છવાસ આવશે ત્યારે એક જ મુખવઝિકા મળદ્વાર પર લગાડવામાં આવશે કે મુખ પર? અને જે સાથે જ છીક પણ આવશે તે તે - નાક પર કેવી રીતે લગાડવામાં આવશે? કારણ કે એક મુખવસ્ત્રિકાથી એક साये .या दार दी Astti नथी. तेथी 'पाणिणा परिपेहिता' माननु = વચન બરાબર બંધ બેસશે નહિ. જે એવું સમાધાન કરવા ઈચ્છે કે એક હાથની Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदकालिको न्त्यनेनेति पाणिः 'पण व्यवहारे स्तुती च ' त्यस्मात् 'अशिपणाय्योरडायलको च' (उ०४।१३३) इतीण् , 'आयप्रत्ययस्य लुक चे'-ति व्युस्पादनेन तत्र करवाचकत्वस्यैव लाभाच ।। नापि द्वितीयः, मुख्यार्थफरफरणकपिधानतात्पर्यस्य निर्वाधेन तात्पर्यानुपपत्तिरूपलक्षणायीजस्याभावात् ।। नापि तृतीयः, मुख्यार्थतात्पर्यकत्वेनैवककारेण पायुपिधानस्यापरकरेग मुखघ्राणपिधानस्य चोपपत्या व्यद्गवार्थमुखयस्त्रिकातात्पर्ययत्वाल्पनाया अनावश्यकत्वात् , अनौचित्याच । वायुनिसर्गानन्तरं क्षुते जायमाने पायुनिर्गतवायुआदि व्यवहार होते है अतः उसे पाणि कहते है। "अशिपणाप्यो रुडाथलुकौच" (उ०४।१३३) इस सूत्रसे 'इण' होता है और आय' प्रत्ययका लुक होता है। ऐसी व्युत्पत्ति करनेसे 'कर'का पाचक ही होता है। दूसरा भी पक्ष (लक्ष्य अर्थ मानना) ठीक नहीं है । लक्ष्य अर्थ वहाँ माना जाता है जहाँ मुख्य (शान्दिक) अर्थ लेनेमें किसी प्रकारकी बाधा आती हो । यहाँ पर 'हाथसे ढंक कर' ऐसा अर्थ करने में कोई याधा नहीं आती, इसलिए लक्षणा नहीं हो सकती, अतः यह लक्ष्यअर्थ भी नहीं है। तीसरा (व्यङ्गय अर्थ मानना) भी पक्ष बाधित है । जय प्रधान अप लेनेसे एक हाथसे मलद्वार ढंकना और दूसरे हाथसे नाक-मुखका ढेंकना युक्त है तो व्यङ्गय अर्थ (मुखवत्रिकाके तात्पर्यकी कल्पना करना) अना घश्यक और अनुचित है। अधोवायु निकलते ही किसीको छोंक - કહે છે તે વડે બધે લેણદેણ વગેરેને વહેવાર થાય છે તેથી એને “પાણિ” કહે છે अशिपणाय्यो रुडायलुकौ च (उ०४।१३३) मे सूत्रथी इण थाय छ भन आय प्रत्यय लुक् थाय छे मेवा व्युत्पत्ति पायी कर नो पाय: ०४ भने । - બીજે પક્ષ પણ ( લક્ષય અર્થ માન) બરાબર નથી લક્ષ્ય અર્થ : માનવામાં આવે છે કે ત્યાં મુખ્ય ( શાબ્દિક ) અર્થ લેવામાં કઈ પ્રકા આવા આવે. અહીં “હાથથી ઢાંકીને ' અર્થ કરવામાં કઈ બાધા અને નથી. તેથી લક્ષણ થઈ શકતી નથી, એટલે એ લક્ષ્ય અર્થ પણ નથી. - ત્રીજો પક્ષ ( વ્યગ્ય અર્થ માન) પણ બાધિત છે લેવાથી એક હાથથી મળદ્વાર ઢાકવું અને બીજા હાથે નાક-મુખને છે જ્યારે પ્રધાન ચક્ત છે, તો વ્યગ્યાથે (મુખવસ્ત્રિકાના તાત્પર્યની કલ્પના કરવી) અનાવર અને અનુચિત છે. અાવાયુ નીકળતી વખતે જ કેઈને છીંક આવવા લાગે Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 'अध्ययन १ गा. १ मुखवखिकाविचारः संसृष्टया मुखवत्रिकया मुखघ्राणपिधानस्यानौचित्यमापामरमतीवमेव । पाणिशब्देजहल्लक्षणाति स्वीकृत्य 'पाणिस्थितमुखवत्रिकये त्यर्थकल्पनेऽपि नोक्तानौचित्यदोपनिस्तारः । अपिच-आस्यक-पोपफैतदुभयपरिपिघाने पाणिनेत्येकमेव साधनमुक्तं, तत्र पाणिस्थितमुखवत्रिकयेत्यागीकारे दीर्घोच्छ्वासादीनामधोवायुनिसर्गस्य च योगपये सति कयमेकयैव पाणिस्थितया मुखवत्रिकया युगपदेव घाणं मुखं पायुवाऽऽवरीतुं शक्यत इति "पाणिणा परिपेहित्ता" इति भगवद्वाक्यस्यानुपपत्तिःसनच 'एकपाणिस्थितया मुखवत्रिकयाऽऽस्यकम् , अपरपालगे तो उसी अधोवायुवासित मुखवस्त्रिकासे 'मुख' और नाक मूंदना बिलकुल अनुचित है और इस अनौचित्यको हरेक समझ सकता है। यदि पाणि शब्दमें अजहल्लक्षणा वृत्ति मानकर 'पाणि (हाथ) से पाणिमें स्थित मुखवस्त्रिका अर्थ लोगे तो भी अनौचित्य दोप नहीं हट सकता । दूसरी बात यह है कि मुख और मलदार ढंकनेका पाणिरूप एक ही साधन यताया है। यदि इसका अर्थ मुखवस्त्रिका किया जावे तो जय एक ही साथ अधोवायु और दीर्घ उच्छ्वास आवेगा तप एक ही मुखवत्रिका मलद्वार पर लगाई जावेगी या मुंहपर ? और यदि साथ ही छोंक भी आयगी तो वही नाकमें कैसे लगाई जावेगी? क्योंकि एक मुखवत्रिकासे एक साथ ही सय द्वार नहीं ढाँके जा सकते । अत: 'पाणिणा परिपेहित्ता' यह भगवानका वचन.ठीक नहीं बैठेगा। यदि ऐसा समाधान करना चाहो कि एक हाथकी मुंहपत्तीसे मुंह और दूसरे એ અધેવાયુથી વાસિત મુખવઝિકાથી મુખ અને નાક ઢાંકવાં એ બિલકુલ અનુચિત છે. અને એ અનચિત્યને સો કેઈ સમજી શકે છે. ने ' ' २०४८i ASEAR पृत्ति भानान, ' पy () था પાણિમાં સ્થિત મુખવસ્ત્રિકાનો અર્થ લેશે તે પણ અનોચિત્ય દોષ દૂર થઈ શકતે નથી. બીજી વાત એ છે કે મુખ અને મળદ્વાર ઢાંકવાનું પાણિરૂપ એકજ સાધન બતાવ્યું છે. જે એને અર્થ મુખવસ્ત્રિકા કરવામાં આવે તે જ્યારે એકી સાથે અંધેવાયુ અને દીર્ધ ઉશ્વાસ આવશે ત્યારે એક જ મુખવસ્ત્રિકા મળદ્વાર પર લગાડવામાં આવશે કે મુખ પર? અને એ સાથે જ ઠીક પણ આવશે તે તે નાક પર કેવી રીતે લગાડવામાં આવશે? કારણ કે એક મુખવસ્ત્રિકાથી એકી साथे गांद्वार dih Asrdi नथा, तेथी 'पाणिणा परिपेहित्ता' से समपाननु વચન બરાબર બંધ બેસશે નહિ. જે એવું સમાધાન કરવા ઈચ્છે કે એક હાથની Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ श्रीकालिकमुत्रे न्त्यनेनेति पाणिः ' पण व्यवहारे स्तुतौ च' इत्यस्मात् 'अशिपणारयोग. डायलुकौ च ' ( उ० ४ १३३ ) इतीणू, 'आयप्रत्ययस्य लुक् चे 'ति व्युस्पादनेन तत्र करवाचकत्वस्यैव लाभाच्च । नापि द्वितीयः, मुख्यार्थकरकरणकविधानतात्पर्यस्य निर्वाधेन तात्पर्यानुषपत्तिरूपलक्षणावीजस्याभावात् । नापि तृतीयः, मुख्यार्थतात्पर्यकत्वेनैवककरेण पायुपिधानस्यापरकरेग मुखप्राणपिधानस्य चोपपत्त्या व्यद्धार्थमुखयस्त्रिकातात्पर्यकत्वकल्पनाया अनावश्यकत्वात्, अनौचित्याच । वायुनिसर्गानन्तरं क्षुते जायमाने पायुनिर्गतत्रायुआदि व्यवहार होते हैं अतः उसे पाणि कहते है । "अशिपणाय्यो कडायलुकौ च" (उ० ४।१३३) इस सूत्र से 'इण्' होता है और 'आय' प्रत्ययका लुक होता है । ऐसी व्युत्पत्ति करनेसे 'कर' का वाचक ही होता है। दूसरा भी पक्ष (लक्ष्य अर्ध मानना) ठीक नहीं है । लक्ष्य अर्थ वहाँ माना जाता है जहाँ मुख्य (शाब्दिक अर्थ लेनेमें किसी प्रकार की बाधा 'आती हो । यहाँ पर 'हाथ से ढँक कर' ऐसा अर्थ करने में कोई बाधा नहीं आती, इसलिए लक्षणा नहीं हो सकती, अतः यह लक्ष्य अर्थ भी नहीं है। " > तीसरा (व्यङ्गय अर्थ मानना) भी पक्ष वाधित है। जब प्रधान अर्थ लेनेसे एक हाथसे मलद्वार ढँकना और दूसरे हाथसे नाक-मुखका ढकना युक्त है तो व्यङ्गय अर्थ (मुखवत्रिकाके तात्पर्यकी कल्पना करना) अनावश्यक और अनुचित है । अधोवायु निकलते ही किसीको छींक आने કહે છે. તે વડે છાધા લેણદેણુ વગેરેના વહેવાર થાય છે તેથી એને પાણિ કહે છે. अशिपणाय्यो रुडायलुकौ च (उ० ४ । १३३) मे सुत्रथी इणू थाय छेने આય પ્રત્યયને છુ થાય છે. એવી વ્યુત્પત્તિ કરવાથી સ્ ના વાચક જ મને છે. બીજો પક્ષ પણ ( લક્ષ્ય અર્થ માનવે ) ખરાખર નથી લક્ષ્ય અથ ત્યાં માનવામાં આવે છે કે જ્યાં મુખ્ય ( શાબ્દિક ) અ લેવામાં કોઈ પ્રકારની આધા આવે. અહીં ' હાથથી ઢાંકીને ’એવા અર્થ કરવામાં કાઈ ખાધા આવતી નથી, તેથી લક્ષણા થઇ શકતી નથી, અટલે એ લક્ષ્ય અર્થ પણ નથી. ત્રીજો પક્ષ ( વ્યંગ્ય અર્થ માનવા ) પણ માધિત છે જ્યારે પ્રધાન અ લેવાથી એક હાથથી મળદ્વાર ઢાંકવું અને ખીજા હાથે નાક-મુખને ઢાંકવું યુક્ત છે તે વ્યંગ્યા ( સુખસિકાના તાપની કલ્પના કરવી ) અનાવશ્યક અને અનુચિત છે. અાવાયુ નીકળતી વખતે જ કેઈને છ ફ્ર-આવવા Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुखवत्रिकाविचारः संसथ्या मुखवत्रिकया मुखध्राणपिधानस्यानौचित्यमापामरमतीतमेव । पाणिशन्देऽजहल्लक्षणाति स्वीकृत्य 'पाणिस्थितमुखवस्त्रिकये त्यर्थकल्पनेपि नोक्तानौचित्यदोपनिस्तारः । अपिच-आस्यक पोपकैतदुभयपरिपिधाने पाणिनेत्येकमेव साधनमुक्तं, तत्र पाणिस्थितमुखवत्रिकयेत्याङ्गीकारे दीर्घोच्छ्वासादीनामघोवायुनिसर्गस्य च योगपये सति कयमेकयैव पाणिस्थितया मुखवत्रिकया युगपदेव घाणं मुखं पायुधाऽऽवरीतुं शक्यत इति "पाणिणा परिपेहिता" इति मगवद्वाक्यस्यानुपपत्तिः।नच 'एकपाणिस्थितया मुखरखिकयाऽऽस्यकम्, अपरपालगे तो उसी अधोवायुवासित मुखवस्त्रिकासे 'मुख' और नाक मूंदना बिलकुल अनुचित है और इस अनौचित्यको हरेक समझ सकता है। ___ यदि 'पाणि शब्दमें अजहल्लक्षणा वृत्ति मानकर 'पाणि' (हाथ) से पाणिमें स्थित मुखवस्त्रिका अर्थ लोगे तो भी अनौचित्य दोष नहीं हट सकता। दूसरी बात यह है कि मुख और मलद्वार ढंकनेका पाणिरूप एक ही साधन बताया है। यदि इसका अर्थ मुखवस्त्रिका किया जाये तो जय एक ही साथ अधोवायु और दीर्घ उच्छ्वास आवेगा तब एक ही मुखवस्त्रिका मलद्वार पर लगाई जावेगी या मुँहपर ? और यदि साथ ही छींक भी आयगी तो वही नाकमें कैसे लगाई जावेगी? क्योंकि एक मुखवस्त्रिकासे एक साथ ही सब द्वार नहीं ढोंके जा सकते । अतः 'पाणिणा परिपेहिता' यह भगवानका वचन.ठीक नहीं बैठेगा.। यदि ऐसा समाधान करना चाहो कि एक हाथकी मुंहपत्तीसे मुंह और दूसरे એ અધેવાયુથી વસિત મુખત્રિકાથી સુખ અને નાક ઢાંકવાં એ બિલકુલ અનુચિત છે. અને એ અનોચિત્યને સો કેઈ સમજી શકે છે. नेपाथि' शमi Angaaru वृत्ति भानीन, 'पाyि (4) थी પાણિમાં સ્થિત મુખવચિકાને અર્થ લેશે તે પણ અનૌચિત્ય દેવ દૂર થઈ શકતે નથી. બીજી વાત એ છે કે મુખ અને મળદ્વાર ઢાંકવાનું પાણિરૂપ એકજ સાધન બતાવ્યું છે. જે એને અર્થ મુખવકિા કરવામાં આવે તે જ્યારે એકી સાથે અધેવાયુ અને દીર્ધ ઉચ્છવાસ આવશે ત્યારે એક જ સુખત્રિકા મળદ્વાર પર લગાડવામાં આવશે કે મુખ પર? અને જે સાથે જ છીંક પણું આવશે તે તે નાક પર કેવી રીતે લગાડવામાં આવશે? કારણ કે એક મુખત્રિકાથી એકી साये गया दार in Astti नथी. तेथी 'पाणिणा परिपेहिता ने मनपानk વચન બરાબર બંધ બેસશે નહિ. જે એવું સમાધાન કરવા ઈચ્છે કે એક હાથની Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ श्रीदर्शने कालिकसू न्त्यनेनेति पाणिः ' पण व्यवहारे स्तुतो च' इत्यस्मात् 'अशिपणायोरु. डायलकौ ' ( उ० ४ १३३ ) इतीन्, 'आयप्रत्ययस्य लुक् चे 'ति घ्युस्पादनेन तत्र करवाचकत्वस्यैव लाभाच । नापि द्वितीयः, मुख्यार्थ करकरणकविधानतात्पर्यस्य निर्वाधेन तात्पर्यानुपपतिरूपलक्षणावीजस्याभावात् । नापि तृतीयः, मुख्यार्थतात्पर्यकत्वेनैवकफरेण पायुपिधानस्यापरकरेण मुखप्राणपिधानस्य चोपपत्त्या व्यद्रयार्थमुखवखिका तात्पर्यकत्वकल्पनाया अनावश्यकत्वात्, अनौचित्याच । वायुनिसर्गानन्तरं क्षुत्ते जायमाने पायुनिर्गतवायुआदि व्यवहार होते हैं अतः उसे पाणि कहते है। "अशिपणाय्यो रुडायलुको च" ( उ० ४।१३३) इस सूत्र से 'इण्' होता है और 'आय' प्रत्ययका लंक होता है। ऐसी व्युत्पत्ति करने से 'कर' का वाचक ही होता है। दूसरा भी पक्ष (लक्ष्य अर्ध मानना) ठीक नहीं है । लक्ष्य अर्थ वहाँ माना जाता है जहाँ मुख्य (शाब्दिक अर्थ लेनेमें किसी प्रकारकी बाधा 'आती हो । यहाँ पर 'हाथसे ढँक कर' ऐसा अर्थ करने में कोई बाधा नहीं आती, इसलिए लक्षणा नहीं हो सकती, अतः यह लक्ष्य अर्थ भी नहीं है। " तीसरा (व्यङ्ग्य अर्थ मानना) भी पक्ष बाधित है । जब प्रधान अर्थ लेनेसे एक हाथसे मलद्वार ढँकना और दूसरे हाथसे नाक-मुखका ढकना युक्त है तो व्यङ्गय अर्थ (मुखवत्रिकाके तात्पर्यकी कल्पना करना) अनावश्यक और अनुचित है। अधोवायु निकलते ही किसीको छींक आने કહે છે. તે વડે બધા લેણદેણુ વગેરેના વહેવાર થાય છે તેથી એને પાણિ' કહે છે. अशिपणाग्यो रुडायलुकौ च (उ० ४ । १३३) मे सूत्रथी इणू थाय छे भने आय प्रत्ययो लुक् थाय छे. शेवी व्युत्पत्ति उरवाथी कर नो वाजने छे. ખીજો પક્ષ પણ ( લક્ષ્ય અર્થ માનવે‘) ખરાખર નથી, લક્ષ્ય અ ત્યાં માનવામાં આવે છે કે જ્યાં મુખ્ય ( શાબ્દિક ) અર્થ લેવામાં કોઈ પ્રકારની માધા આવે. અહીં ‘ હાથથી ઢાંકીને ’એવા અર્થ કરવામાં કાઈ ડાધા આવતી નથી, તેથી લક્ષણા થઇ શકતી નથી, એટલે એ લક્ષ્ય અર્થ પણ નથી. ત્રીજો પક્ષ ( વ્યંગ્ય અર્થ માનવે ) પણ ખાધિત છે. જ્યારે પ્રધાન અ લેવાથી એક હાથથી મળદ્વાર ઢાંકવું અને બીજા હાથે નાક-સુખને ઢાંકવું યુક્ત છે તેા વ્યંગ્યાર્થ ( મુખવકિાના તાની કલ્પના કરવી ) અનાવશ્યક અને અનુચિત છે. અધેાવાયુ નીકળતી વખતે જ કાઈને அ t. ' Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‘अध्ययन १ गा. १ मुखबस्त्रिकाविचारः संमृष्टया मुखवत्रिकया मुखघ्राणपिधानस्यानौचित्यमापामरमतीवमेव। . पाणिशन्देऽजहल्लसणाइति स्वीकृत्य 'पाणिस्थितमुखवत्रिकये' त्यर्थकल्पनेऽपि नोक्तानौचित्यदोषनिस्तारः । अपिच-आस्यक-पोपतिदुभयपरिपिधाने पाणिनेत्येकमेव साधनमुक्तं, तत्र पाणिस्थितमुखवस्त्रिकयेत्यागीकारे दीर्घोच्छ्वासादीनामघोवायुनिसर्गस्य च योगपये सति कयमेकयैव पाणिस्थितया मुखवत्रिकया युगपदेव घ्राणं मुखं पायुधाऽऽवरीतुं शक्यत इति "पाणिणा परिपेहिता" इति भगवद्वाक्यस्यानुपपतिः।नच 'एकपाणिस्थितया मुखवत्रिकयाऽऽस्यकम् , अपरपालगे तो उसी अधोवायुवासित मुखवत्रिकासे 'मुख' और नाक मूंदना बिलकुल अनुचित है और इस अनौचित्यको हरेक समझ सकता है। यदि 'पाणि शन्दमें अजहरक्षणा वृत्ति मानकर 'पाणि' (हाथ) से पाणिमें स्थित मुखवस्त्रिका अर्थ लोगे तो भी अनौचित्य दोप नहीं हट सकता । दूसरी बात यह है कि मुख और मलद्वार ढंकनेका पाणिरूप एक ही साधन यताया है। यदि इसका अर्थ मुखवस्त्रिका किया जाये तो जप एक ही साथ अधोवायु और दीर्घ उच्छ्यास आवेगा तब एक ही मुखवत्रिका मलद्वार पर लगाई जावेगी या मुंहपर ? और यदि साथ ही छौंक भी आयगी तो वही नाकमें कैसे लगाई जावेगी? क्योंकि एक मुखवत्रिकासे एक साथ ही सव द्वार नहीं ढोंके जा सकते । अत: 'पाणिणा परिपेहित्ता' यह भगवानका वचन.ठीक नहीं बैठेगा। यदि ऐसा समाधान करना चाहो कि एक हाथकी मुँहपत्तीसे मुंह और दूसरे એ અધેવાયુથી વાસિત મુખત્રિકાથી મુખ અને નાક ઢાંકવાં એ બિલકુલ અનુચિત છે. અને એ અનૌચિત્યને સો કેઈ સમજી શકે છે. ने 'पा' शभा Argeaa! वृत्ति भानीन, 'पाल' () था પાણિમાં સ્થિત મુખવસ્ત્રિકાને અર્થ લેશો તે પણ અનચિત્ય દેવ દૂર થઈ શકતે નથી. બીજી વાત એ છે કે મુખ અને મળદ્વાર ઢાંકવાનું પાણિરૂપ એકજ સાધન બતાવ્યું છે. જે એને અર્થ મુખવઝિકા કરવામાં આવે તે જ્યારે એકી સાથે અહેવાયુ અને દીર્ઘ ઉચ્છવાસ આવશે ત્યારે એક જ મુખવસ્ત્રિકા મળદ્વાર પર લગાડવામાં આવશે કે મુખ પર? અને એ સાથે જ છીંક પણ આવશે તે તે નાક પર કેવી રીતે લગાડવામાં આવશે? કારણ કે એક મુખવસ્ત્રિકાથી એકી साधे मां दार ढां शतi नथी. तेथी 'पाणिणा परिपेहिता' भवाननु વચન બરાબર બંધ બેસશે નહિ. જે એવું સમાધાન કરવા ઈ છે કે એક હાથની Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्यार्थतात्यायमुखयस्त्रिकाता जायमाने पायुनिया श्रीदनकालिको न्स्पनेनेति पाणिः 'पण व्यवहारे स्तुती च' इत्यस्मात् 'अशिपणाग्यो डायलको च' (उ० ४३१३३) इतीण , 'आयप्रत्ययस्य लुकचे-ति व्युस्पादनेन तत्र करयाचकत्वस्यैव लाभाच । नापि द्वितीयः, मुख्यार्थकरकरणकपिधानतात्पर्यस्य निर्वाधेन तात्पर्यानुपपत्तिरूपलक्षणायीजस्याभावात् । . . नापि तृतीयः, मुख्यार्थतात्पर्यकत्वेनैवकारेण पायुपिधानस्यापरकरेग मुखप्राणपिधानस्य चोपपत्या व्यगाथार्थमुखयस्त्रिकातात्पर्यकत्वकल्पनाया अनापश्यकत्वात् , अनौचित्याच । वायुनिसर्गानन्तरं भुते जायमाने पायुनिर्गतवायु आदि व्यवहार होते हैं अतः उसे पाणि कहते है। "अशिपणाग्यो रुडायलुकौच" (उ०४१३३) इस सूत्रसे 'इण' होता है और 'आय' प्रत्ययका लुफ होता है । ऐसी व्युत्पत्ति करनेसे 'कर'का वाचक ही होता है। . . दूसरा भी पक्ष (लक्ष्य अर्थ मानना) ठीक नहीं है। लक्ष्य अर्थ वहाँ माना जाता है जहाँ मुख्य (शान्दिक) अर्थ लेने में किसी प्रकारकी बाधा आती होयहाँ पर "हायसे ढंक कर' ऐसा अर्थ करने में कोई बाधा नहीं आती, इसलिए लक्षणा नहीं हो सकती, अतः यह लक्ष्यअर्थभी नहीं है। : तीसरा (व्यङ्गय अर्थ मानना) भी पक्ष वाधित है । जय प्रधान अर्थ लेनेसे एक हाथसे मलद्वार ढंकना और दसरे हाथसे नाक-मुखका ढेंकना युक्त है तो व्यङ्गय अर्थ (मुखवत्रिकाके तात्पर्यकी कल्पना करना) अना वश्यक और अनुचित है । अधोवायु निकलते ही किसीको छोंक आने કહે છે. તે વડે બધે લેણદેણ વગેરેને વહેવાર થાય છે તેથી એને “પાણિ” કહે છે. अशिपणाग्यो रुडायलको च (उ० ४ । १३३) मे सूत्रथी इणू थाय छ भने आय प्रत्ययन लुक थाय छे. मेवा व्युत्पत्ति 3२पाथी कर ना पाय २१ मत छ. બીજો પક્ષ પણુ ( લક્ષ્ય અર્થ માન) બરાબર નથી. લક્ષ્ય અર્થ ત્યાં માનવામાં આવે છે કે જ્યાં મુખ્ય ( શાબ્દિક ) અર્થ લેવામાં કોઈ પ્રકારની બાધા આવે. અહીં “હાથથી ઢાંકીને ” એ અર્થે કરવામાં કઈ બાધા આવતી નથી, તેથી લક્ષણ થઈ શકતી નથી, એટલે એ લક્ષ્ય અર્થ પણ નથી. ત્રીજો પક્ષ ( વ્યંગ્ય અર્થ માનવો ) પણ બાધિત છે. જ્યારે પ્રધાન અર્થ લેવાથી એક હાથથી મળદ્વાર ઢાંકવું અને બીજા હાથે નાક-મુખને ઢાંકવું "યુક્ત છે તે વ્યંગ્યાથે ( મુખસ્ત્રિકાના તાત્પર્યની કલ્પના કરવી) અનાવશ્યક અને અનુચિત છે. અહેવાયુ નીકળતી વખતે જ કોઈને છ -આવવા ૮ , - Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुखवस्तिकाविचारः संसृष्टया मुखवत्रिकया मुखघ्राणपिधानस्यानौचित्यमापामरमतीतमेव । पाणिशब्देऽजहल्लक्षणात्ति स्वीकृत्य 'पाणिस्थितमुखवत्रिकये' त्यर्थकल्पनेऽपि नोक्तानौचित्यदोपनिस्तारः । अपिच-आस्यक-पोपकैतदुभयपरिपिधाने पाणिनेत्येकमेव साधनमुक्तं, तत्र पाणिस्थितमुखवत्रिकयेत्यर्थाङ्गीकारे दीर्घोच्छ्वासादीनामघोवायुनिसर्गस्य च योगपये सति कयमेकयैव पाणिस्थितया मुखवखिकया युगपदेव घाणं मुखं पायुश्चाऽऽवरीतुं शक्यत इति "पाणिणा परिपेहिता" इति भगवद्वाक्यस्यानुपपत्तिानच 'एकपाणिस्थितया मुखवत्रिकयाऽऽस्यकम् , अपरपालंगे तो उसी अधोवायुवासित मुखवत्रिकासे 'मुख' और नाक मूंदना बिलकुल अनुचित है और इस अनौचित्यको हरेक समझ सकता है। यदि 'पाणि' शब्दमें अजहल्लक्षणा वृत्ति मानकर 'पाणि' (हाथ) से पाणिमें स्थित मुखवस्त्रिका अर्थ लोगे तो भी अनौचित्य दोप नहीं हट सकता। दूसरी बात यह है कि मुख और मलद्वार ढंकनेका पाणिरूप एक ही साधन यताया है। यदि इसका अर्थ मुखवस्त्रिका किया जाये तो जप एक ही साथ अघोवायु और दीर्घ उच्छ्वास आवेगा तब एक ही मुखवस्त्रिका मलद्वार पर लगाई जावेगी या मुंहपर ? और यदि साथ ही छौंक भी आयगी तो वहीं नाकमें कैसे लगाई जावेगी? क्योंकि एक मुखपत्रिकासे एक साथ ही सब द्वार नहीं ढोंके जा सकते । अतः 'पाणिणा परिपेहित्ता' यह भगवान्का वचन.ठीक नहीं बैठेगा.। यदि ऐसा समाधान करना चाहो कि एक हाथकी मुंहपत्तीसे मुंह और दूसरे એ અધેવાયુથી વાસિત મુખવસ્ત્રિકાથી મુખ અને નાક ઢાંકવાં એ બિલકુલ અનુચિત છે. અને એ અનોચિત્યને સો કઈ સમજી શકે છે. नेपाणि' शमां ASEAN पृत्ति मानीन, 'पा' (82) था પાણિમાં સ્થિત સુખચિકાને અર્થ લેશો તે પણ અનોચિય દોષ દૂર થઈ શકો નથી. બીજી વાત એ છે કે મુખ અને મળદ્વાર ઢાંકવાનું પાણિરૂપ એકજ સાધન બતાવ્યું છે. જે એને અર્થ મુખવસ્ત્રિકા કરવામાં આવે તે જ્યારે એકી સાથે અંધેવાયુ અને દીર્ઘ ઉચ્છવાસ આવશે ત્યારે એક જ મુખવોિ મળદ્વાર પર લગાડવામાં આવશે કે મુખ પર? અને સાથે જ છીંક પણ આવશે તે તે નાક પર કેવી રીતે લગાડવામાં આવશે? કારણ કે એક મુખત્રિકાથી એકી साधे मां दार ढia rai नथा. तेथी 'पाणिणा परिपेहित्ता' समपाननु વચન બરાબર બંધ બેસશે નહિ. જે એવું સમાધાન કરવા ઈચ્છે કે એક હાથની Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदनौकालिको न्स्यनेनेति पाणिः 'पण व्यवहारे स्तुती च' इत्यस्मात् 'अशिपणाग्योगडायलुको च' (उ० ४.१३३ ) इतीण , 'आयप्रत्ययस्य लुक चे'-ति व्युस्पादनेन तत्र करवाचकत्वस्यैव लाभाच ।। ___ नापि द्वितीयः, मुख्याकरकरणकपिधानतात्पर्यस्य निर्वाधेन तात्पर्यानुपपत्तिरूपलक्षणावीजस्याभायात् । . नापि तृतीयः, मुख्याधतात्पर्यकत्वेनेयककरण पायुपिधानस्यापरकरेण मुखघ्राणपिधानस्य चोपपत्त्या न्यद्यार्थमुखयस्त्रिकातात्पर्यकत्वकल्पनाया अनाघश्यकत्वात् , अनौचित्याच । घायुनिसर्गानन्तरं क्षुते जायमाने पायुनिर्गतवायुआदि व्यवहार होते हैं अतः उसे पाणि कहते है। "अशिपणाय्यो रुडायलुकौच" (उ०४।१३३) इस सूत्रसे 'इण्' होता है और 'आय' प्रत्ययका लुक होता है । ऐसी व्युत्पत्ति करनेसे 'कर'का वाचक ही होता है। __दूसरा भी पक्ष (लक्ष्य अर्थ मानना) ठीक नहीं है । लक्ष्य अर्थ वहाँ माना जाता है जहाँ मुख्य (शाब्दिक अर्थ लेनेमें किसी प्रकारकी बाधा आती हो । यहाँ पर 'हाथसे ढंक कर' ऐसा अर्थ करने में कोई बाधा नहीं आती, इसलिए लक्षणा नहीं हो सकती, अतः यह लक्ष्यअर्थ भी नहीं है। " तीसरा (व्यङ्गय अर्थ मानना) भी पक्ष याधित है । जब प्रधान अर्थ लेनेसे एक हाथसे मलदार ढंकना और दूसरे हाथसे नाक-मुखका ढंकना युक्त है तो व्यङ्गय अर्थे (मुखवत्रिकाके तात्पर्यकी कल्पना करना) अना वश्यक और अनुचित है । अधोवायु निकलते ही किसीको छींक आने કહે છે. તે વડે બધે લેણદેણ વગેરેને વહેવાર થાય છે તેથી એને પાણિ” કહે છે. अशिपणाय्यो रुडायलकौ च (उ० ४।१३३) मे सूत्रथी इण् थाय छ भने आय प्रत्ययती लुक थाय छे. सेवी व्युत्पत्ति ३२वाथी कर न वाय: मने छ. બીજે પક્ષ પણ ( લક્ષ્ય અર્થ માનવે ) બરાબર નથી લક્ષ્મ અર્થ ત્યાં માનવામાં આવે છે કે જ્યાં મુખ્ય ( શાબ્દિક ) અર્થ લેવામાં કોઈ પ્રકારની ‘બાધા આવે. અહીં “હાથથી ઢાંકીને ' એ અર્થ કરવામાં કઈ બાધા આવતી નથી, તેથી લક્ષણ થઈ શકતી નથી, એટલે એ લક્ષ્ય અર્થ પણ નથી. ત્રીજો પક્ષ ( વ્યંગ્ય અર્થ માનવ) પણ બાધિત છે. જયારે પ્રધાન અર્થ લેવાથી એક હાથથી મળદ્વાર ઢાંકવું અને બીજા હાથે નાક-મુખને ઢાંકવું "યુક્ત છે તે વ્યંગ્યાથે (મુખવસ્વિકાના તાત્પર્યની કલ્પના કરવી ) અનાવશ્યક અને અનુચિત છે. અધેવાયુ નીકળતી વખતે જ કેઈને છીંક આવવા લાગે તે Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन :१ गा. १ मुखवस्त्रिकाविचारः तापत्तिः, अन्यथा परिधानवस्त्रावृतपोपकावरणोपदेशस्य वैयर्थ्यापत्तिरित्युभयथापि न दोपनिस्तारः । तस्माव-"आसयं वा पोसयं वा पाणिणा परिपेहिता" इति भगवद्वाक्यस्य 'मुखवत्रिका करेणैव धारणीया नतु दोरकेणे'-त्यर्थकल्पनं साहसमात्रम् । मम तु सूक्ष्मव्यापिसम्पातिमवायुकायादिजीवविराधनापरिहारार्थ बद्धमुखवत्रिकस्योच्छ्वासादिकाले मुखोद्गतवायुवेगेन मुखतो दोरकावलम्बिततदपगमसम्भावनायाः सत्वेन तनिवारणाय मुखवखिकाऽऽवृतस्यापि मुखस्य पाणिना परिपिधानमावश्यकमेव । एवं परिधानवस्वाऽऽतस्यापि पोपकस्य परिपिधानं विधेयमेव, उच्छ्वासादीनां योगपऽऽयोगपद्ये वा एकेन करेण घ्राणमुखपिधानम्, फिर आवरण करनेका उपदेश व्यर्थ हो जायगा। अतएव " आसयं वा पोसयं वा पाणिणा परिपेहिता" इस भगवद्वाक्य का यह अर्थ निकालना कि-'मुखवस्त्रिका हाथ ही में रखनी चाहिए डोरेसे मुख पर नहीं यांधना चाहिए,' ऐसी कल्पना करना साहसमात्र है। हमारे मतसे सूक्ष्म, व्यापी, संपातिम तथा वायुकाय आदि जीवोंकी विराधनासे पचनेके लिए मुखपत्रिका बँधी हुई होने पर भी उच्छ्वास आदिके समय मुखसे निकलने वाले वायुके वेगसे मुखवस्त्रिकाके खिसक जानेकी संभावना रहती है, इसलिए उस संभावनाको दूर करनेके वास्ते मुखवत्रिकासे आवृत मुखको फिर हाथसे आवृत करना.आवश्यक है। इसी प्रकार चोलपट्ट होने पर भी अधोवायुके दिपयमें समझना चाहिए । उच्छ्वास आदि यदि एक ही साथ हो तो एक हाथसे मुख નહિ તે આવૃતને ફરી આવરણ કરવાનો ઉપદેશ વ્યર્થ બની જશે. તેથી કરીને 'आसयं वा पोसयं वा पाणिणा परिपेहिता' गे मापवायना मेवा अर्थ કાઢવે કે “મુખવસ્ત્રિકા હાથમાં જ રાખવી જોઈએ, દેરાથી મુખ પર બાંધવી ન જોઈએ એવી કલ્પના કરવી એ સાહસમાત્ર છે. : • અમારે મતે સૂમ, વ્યાપી, સંપતિમ તથા વાયુકાય આદિ જીવેની વિરાધનાથી બચવા માટે મુખવસ્ત્રિકા બાંધી હોવા છતાં ઉચ્છવાસ આદિને સમયે મુખથી નીકળતા વાયુના વેગથી મુખવસ્ત્રિકા ખસી જવાની સંભાવના રહે છે. તેથી એ સંભાવનાને દૂર કરવાને માટે મુખવસ્ત્રિકાથી ઢાંકેલા મુખને પણ હાથથી ઢાંકવાની આવશ્યકતા છે. એ જ રીતે ચલપટ્ટ હોવા છતાં પણ અધેવાયુના વિષયમાં સમજવું. ઉચ્છવાસ આદિ જે એકી સાથે જ થાય તે એક હાથથી Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ yo श्रीशवेकालिक णिस्थितया पावकिया पोषकं परिपिधाये' त्यर्थाङ्गीकारेण समाधानं सुत्रकमिति वाच्यम्, सकृदुचरितन्यायविरोधेन तादृशार्थकल्पनायाः कर्तुमशक्यत्वात् । - किञ्च तेपामयौगपद्येऽपि पायुपिधायकत्राखण्डे मुखवखिकात्वकल्पनं परमभ्रान्तिमूलम्, मुखपाय्योरैक्याभावात् । अनारतस्यैव मुखादेरावरणे तात्पर्यसवे परिपिधायेत्यत्र परीत्युपसर्गमयोगस्याऽऽनर्थक्यापत्ति, अपिपूर्वकादपि ल्यपूप्रत्ययसिद्धेः । किञ्च - ' भातस्य पुनरावरणं व्यर्थमेवेति हेतोरनाहतस्यैवावरणार्थमयमुपदेश:' इति वदतस्तव हस्तवत्रिकाधारकस्य मते पोपकस्य परिधानवसनानावरणीयहाथ के पायुवसे मलदार ढक लेवेंगे, सो ठीक नहीं है । 'सबरितन्याय' से ऐसी कल्पना करना शक्य नहीं है । अधोवायु और छोंक आदि एक साथन भी हों तो भी अधोवायुकी यतना करने वाले वस्त्रको मुखवखिका कहना भारी भूल है, क्योंकि मुख और मलद्वार एक चीज नहीं है- दोनों अलग अलग हैं। यदि खुले मुख बोलनेका तात्पर्य हो तो ' परिपेहित्ता' पदमें 'परि' उपसर्ग व्यर्थ हो जायगा, क्योंकि 'अप' उपसर्गपूर्वक धातुसे भी ल्यप् प्रत्यय होता है। ' ढँके हुएको फिर ढाँकना वृधा ही है, इसलिए बगैर ढँके हुए को ढँकनेके लिए यह उपदेश दिया है। यदि हाथमें मुँहपत्ति रखने वाले ऐसा कहेंगे तो यह सिद्ध हो जायगा कि उनका मलद्वार सदा अनावृत ( उघड़ा हुआ ) रहता है । नहीं तो आवृत મુહપત્તિથી સુખ અને બીજા હાથના પાયુવસથી મળદ્વાર ઢાંકી લેવાશે, તે તે मराणर नथी, अरशु है सकृदुचरितन्यायथा मेची अडचना ४२वी शस्य नथी. અધવાયુ અને છીક આદિ એકી સાથે ન હોય તેપણ અધવાયુની પતના કરનારા વજ્રને મુખવસ્ત્રિકા કહેવી એ મેટી ભૂલ છે, કારણ કે મુખ અને મળદ્વાર એક ચીજ નથી. બેઉ અલગ અલગ છે. જો ખુલ્લે મુખે ખેલવાનું તાત્પર્ય હાય तो परिपेहित्ता शमां परि उपसर्ग व्यर्थ यह नशे आयु में अपि उपसर्ग પૂર્વક ધાતુથી પણ સઁયક્ પ્રત્યય થાય છે • ઢાંકેલાને ફરીથી ઢાંકવું એ વૃથા છે, તેથી ઢાંકયા વગરનાને ઢાંકવાને માટે આ ઉપદેશ આપ્યા છે. ’–જો હાથમાં મુહુપત્તી રાખનાર એમ કહેશે તે એમ સિદ્ધ થશે કે એનું મુળદ્વાર સદા અનાવૃત ( उधाडु ) रहे छे Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .४१ अध्ययन:१ गा. १ मुखवस्त्रिकाविचारः तापत्तिः, अन्यथा परिधानवस्त्रावृतपोपकावरणोपदेशस्य चयापत्तिरित्युभयथाऽपि न दोपनिस्तारः । तस्मात-"आसयं चा पोसयं वा पाणिणा परिपेहित्ता" इति भगवद्वाक्यस्य 'मुखवत्रिका करेणैव धारणीया नतु दोरकेणे'-त्यर्थकल्पनं साहसमात्रम् । __. मम तु सूक्ष्मव्यापिसम्पातिमवायुकायादिजीवविराधनापरिहारार्थ बद्धमुखवत्रिकस्योच्छ्वासादिकाले मुखोद्गतवायुवेगेन मुखतो दोरकावलम्बिततदपगेमसम्भावनायाः सत्वेन तनिवारणाय मुखवत्रिकाऽऽवृतस्यापि मुखस्य पाणिना परिपिधानमावश्यकमेव । एवं परिधानवस्वाऽऽकृतस्यापि पोपकस्य परिपिधान विधेयमेव, उच्छ्वासादीनां योगपनेऽयोगपद्ये वा एकेन करेण प्राणमुखपिधानम् , फिर आवरण करनेका उपदेश व्यर्थ हो जायगा। अतएव " आसयं वा पोसयं वा पाणिणा परिपेहिता" इस भगवद्वाक्य का यह अर्थ निकालना कि-'मुग्ववस्त्रिका हाथ ही में रखनी चाहिए डोरेसे मुख पर नहीं बांधना चाहिए, ऐसी कल्पना करना साहसमात्र है। हमारे मतसे सूक्ष्म, व्यापी, संपातिम तथा वायुकाय आदि जीवोंकी विराधनासे बचनेके लिए मुखचत्रिका बँधी हुई होने पर भी उच्छ्वास आदिके समय मुखसे निकलने वाले वायुके वेगसे मुखयस्त्रिकाके खिसक जानेकी संभावना रहती है, इसलिए उस संभावनाको दूर करनेके वास्ते मुखवस्त्रिकासे आवृत मुखको फिर हाथसे आवृत करना आवश्यक है। इसी प्रकार चोलपट्ट होने पर भी अधोचायुके दिपयमें समझना चाहिए । उच्छ्वास आदि यदि एक ही साथ हो तो एक हाथसे मुख નહિ તે આતને ફરી આવરણ કરવાને ઉપદેશ વ્યર્થ બની જશે. તેથી કરીને "आसयं वा पोसयं वा पाणिणा परिपेहिता' में भगवायना मेवा अर्थ કાઢવે કે “મુખવસ્ત્રિકા હાથમાં જ રાખવી જોઈએ, દેરાથી મુખ પર બાંધવી ન જોઈએ” એવી કલ્પના કરવી એ સાહસમાત્ર છે. : - અમારે મતે સૂફમ, વ્યાપી, સંપતિમ તથા વાયુકાય આદિ ની વિરાધનાથી બચવાને માટે મુખવસ્ત્રિકા બાંધી હોવા છતાં ઉચ્છવાસ આદિને સમયે મુખથી નિકળતા વાયુના વેગથી મુખવસ્ત્રિકા ખસી જવાની સંભાવના રહે છે. તેથી એ સંભાવનાને દૂર કરવાને માટે મુખવસ્ત્રિકાથી ઢાંકેલા મુખને પણ હાથથી ઢાંકવાની આવશ્યકતા છે. એ જ રીતે એલપટ્ટ હોવા છતાં પણ અધેવાયુના વિષયમાં સમજવું. ઉશ્વાસ આદિ જે એકી સાથે જ થાય તે એક હાથથી Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवश्वकालिको अपरेण पायुपिधानं विधेयमिति भावः । पाणिनेत्यत्रैकवचनमपि पाणित्यनातायन्वयविवक्षयेत्युभयपाणियोपकरपेडप्यनुकूलमेव । किन पाणिशन्दस्य मुख्यार्यवाधाऽमायेन मुख्यायाधमृलिका लक्षणापि नाही. करणीया भवति । तथा चोक्तमूक्ष्मव्यापिपभृतिविविधजीवहिंसावारणाय सदेव सदोरकमुखपत्रिकाधारण नैतत्सूत्रतो विरुध्यते, किन्तु परिपिधायेत्पत्र परिशब्द प्रयोगेण भगवान् मुखवखिकापिहितस्यैव मुखस्य पिधानमावेदयतीत्यलं पल्लवितेना __केचित्तु-'विपाकसूत्रे मृगापुत्राध्ययने-"तएणं सामिया देवी तक सगडियं अगुकड्ढेमागी२ जेणेव भूमिघरे तेणेव उवागच्छति, उवाग: और नाक टैंक ले और दूसरे हायसे अधोवायुकी यतना करे। .. ___ "पाणिणा" यद्यपिएक वचन है तथापिपाणित्वजातिमें अन्वय होनस दोनों हाथोंका योधक होता है, इसलिए हमारे मतके अनुकूल ही है। यहाँ 'पाणि' शब्दके मुख्य अर्थमें बाधा नहीं है अतः लक्षणा मा मानने योग्य नहीं है, क्योंकि लक्षणा वहीं होती है जहाँ मुख्य अथ पाधा आती हो। इसलिए उक्त सूक्ष्म व्यापी वगैरह विविध जीवांका विराधनासे बचने के वास्ते सदैव डोरा सहित मुखवत्रिका मुख पर बाँधना इस सूत्रसे विरुद्ध नहीं है। परन्तु 'परिपेहित्ता' में 'पार उपसर्गके प्रयोगसे प्रगट है कि महावीर प्रभुने मुँहपत्ति से पिहित (टक हुए) मुखको पुनः पिधान करना प्रतिपादित किया है। कोई कोई ऐसा कहते हैं कि विपाकसूत्रमें मृगापुत्रके अध्ययनम મુખ અને નાક ઢાંકી લેવા અને બીજા હાથથી અવાયુની યતના કરવી. पाणिणाने ४५यन तो पाविततिम सत्य वाथी २७ હાથને બોધક થાય છે તેથી અમારે મતે તે શબ્દ અનુકૂળ જ છે. અહીં જ શબ્દના મુખ્ય અર્થમાં બાધા નથી તેથી લક્ષણ પણ માનવા એગ્ય નથી, કારણ કે લક્ષણ ત્યાં થાય છે કે જ્યાં મુખ્ય અર્થમાં બધા આવતા હાય. તેથી કરીને ઉક્ત સૂમ, વ્યાપી વગેરે વિવિધ જીવની વિરાધનાથી બચવા માટે સદૈવ રેરા સાથે મુખવસ્ત્રિકા બાંધવી એ સૂત્રથી વિરૂદ્ધ નથી. પણ परिपेदिता मडी परि. सन प्रयोगथी २५५ थाय छमहावीर प्रभु અપત્તિથી પિહિત (ઢાંકેલા) મુખને પુનઃ પિધાન કરવાનું પ્રતિપાદિત કર્યું છે. કોઈ કોઈ એમ કહે છે કે વિપાકસૂત્રમાં મૃગાપુત્રના અધ્યયનમાં લખ્યું કે Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ - अध्ययन १ गा.. १ मुखवत्रिका विचार च्छित्ता चउप्पुडेणं चत्येणं मुहं बंधमाणी भगवं गोयम एवं वयासि-तुम्भेविणं भंते ! मुहपोत्तियाए मुहं बंधेह । तए पां से भगवं गोयमे मियाए देवीए एवं वुत्ते समाणे मुहपोतियाए मुहं बंधइ" इत्युक्तं, तस्यायमाशय:मृगापुत्रं दर्शयितुं प्रत्ता मृगादेवी भूमिगृहद्वारोद्घाटनकाले दुर्गन्धाघ्राणवारणाय चतुप्पुटेन वरेण स्त्रमुखं वध्नती भगवन्तं गौतमं जगाद-हे भदन्त ! त्वमपि मुखपोतिकया मुखं वधान, ततः स भगवान् गौतमो मृगादेव्यैवमुक्तः सन् मुखपोतिकया मुखं बध्नाति (स्म) इति । इदमनेन मुस्पष्टं प्रवीयते-गौतमस्वामिनो मुखो'परि मुखवत्रिका बद्धा नासीत् किन्तु हस्त एव धृतेत्ति, अत एव मृगादेवी दुर्गन्धाप्राणप्रतिवन्धाय "तुम्भेवि णं भंते! मुहपोतियाए मुहं बंधेह" इति प्रार्थितवतीत्याहु: तन्न सम्यक्-उप्णमुखवायुतः सम्पातिममुक्ष्मव्यापिजीवानां रक्षणार्थ ऐसा.लिखा है-"तए णं साग इत्यादि। इसका आशय यह है कि मृगादेवी जय मृगापुत्रको आहार देनेके लिए भोयरेके किवाड़ खोलने लगी तय नाकमें दुर्गन्ध आनेका निवारण करनेके लिए चार पड़वालावस्त्र मुख पर यांधकर भगवान गौतमस्वामीसे कहने लगी-'हे भदन्त । आप भी मुखस्त्रिकासे मुख वांध लीजिये। मृगादेवीका कथन सुनकर भगवान गौतम मुग्ववत्रिकासे मुख यांधते हैं (बांध लिया)। 'इससे यह बिलकुल स्पष्ट है कि पहले गौतमस्वामीके • मुख पर मुखस्त्रिका नहीं बंधी हुई थी, किन्तु हाथमें थी, इसीसे मृगादेवीने मुखवत्रिका यांधनेकी प्रार्थना की थी । उनका यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि मुखकी उषण चायुसे संपातिम, सूक्ष्म और व्यापी जीवोंकी रक्षा करनेके लिए तथा बाह्य वायुकायकी 'तए णं सा' त्यादि. भेना माशय में छे , भृगाहेवी न्यारे मारने २ દેવાને માટે ભયરાનાં કમાડ ખેલવા લાગી ત્યારે નાકમાં દુધ આવતી નિવારવાને માટે ચાર પડવાળું વસ્ત્ર મુખ પર બાંધીને ભગવાન ગૌતમ સ્વામીને કહેવા લાગી કે હે ભદન્ત! આપ પણ મુખવસ્ત્રિકાથી મુખ બાંધી લે. મૃગાદેવીનું કથન સાંભળીને ભગવાન ગૌતમ મુખવસ્ત્રિકાથી મુખ બાંધે છે ( બાંધી લીધું. ) આથી એ તદ્દન સ્પષ્ટ થાય છે કે પહેલાં ગૌતમ સ્વામીના મુખ પર મુખવસ્ત્રિકા બાંધેલી નહાતી, કિંતુ હાથમાં હતી, તેથી મૃગાદેવીએ મુખવસ્ત્રિકા બાંધવાની પ્રાર્થના કરી હતી. એમનું એ કહેવું બરાબર નથી, કારણ કે મુખના ઉષ્ણ વાયુથી સંપાતિમ, સૂકમ અને વ્યાપી જીની રક્ષા કરવાને માટે તથા બાહ્ય વાયુકાયની Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवशवेकालिकस् ४२ अपरेण पायुपिधानं विधेयमिति भावः । पाणिनेत्यत्रैकवचनमपि प्यनुकूलमेव । पाणिस्त्रजातान्त्रयविवक्षयेत्युभयपाणिबोधकत्वेऽ किश्च पाणिशब्दस्य मुख्यार्थबाधाऽभावेन मुख्यार्थबाधमूलिका लक्षणापि नाही- करणीया भवति । तथा चोक्तमृक्ष्मव्यापिमभृतिविविधजीवहिंसावारणाय सदेव सदोरकमुखवत्रिकाधारणं नैतत्सूत्रत विरुध्यते, किन्तु परिविधायेत्यत्र परिशदप्रयोगेण भगवान् मुखवस्त्रिकापिहितस्यैव मुखस्य पिधानमावेदयतीत्यलं पल्लवितेन । hey - 'विपाकसूत्रे मृगापुत्राध्ययने- "तपणं सा मिया देवी तं क सगडियं अगुरुड्ढेमा गीर जेणेव भूमिघरे तेणेव उवागच्छति, उवागऔर नाक ढँक ले और दूसरे हाथ से अधोवायुकी यतना करे । ""पाणिणा" यद्यपि एक वचन है तथापि पाणित्वजातिमें अन्वय होने से दोनों हाथोंका बोधक होता है, इसलिए हमारे मतके अनुकूल ही है। यहाँ 'पाणि' शब्दके मुख्य अर्थ में बाधा नहीं है अतः लक्षणा भी मानने योग्य नहीं है, क्योंकि लक्षणा वहीं होती है जहाँ मुख्य अर्थ में बाधा आती हो। इसलिए उक्त सूक्ष्म व्यापी वगैरह विविध जीवोंकी विराधनासे बचने के वास्ते सदैव डोरा सहित मुखवत्रिका मुख पर बाँधना इस सूत्र विरुद्ध नहीं है । परन्तु परिपेहिता' में 'परि' उपसर्गके प्रयोगसे प्रगट है कि महावीर प्रभुने मुँहपत्ति से पिहित ( ढँके हुए) मुखको पुनः पिधान करना प्रतिपादित किया है। 6 कोई कोई ऐसा कहते हैं कि विपाकसूत्रमें मृगापुत्रके अध्ययनमें મુખ અને નાક ઢાંકી લેવાં અને બીજા હાથથી અધાવાયુની ચતના કરવી. પાળિળા એ કે એકવચન છે તેપણ પાણિત્વ જાતિમાં અન્વય થવાથી બેઉ હાથના બાધક થાય છે તેથી અમારે મતે તે શબ્દ અનુકૂળ જ છે. અહીં પાળિ શબ્દના મુખ્ય અર્થમાં બાધા નથી તેથી લક્ષણા પણ માનવ ચેગ્ય નથી, કારણ કે લક્ષણા ત્યાં થાય છે કે જ્યાં મુખ્ય અર્થમાં ખાધા આવતી હાય. તેથી કરીને ઉક્ત સૂક્ષ્મ, વ્યાપી વગેરે વિવિધ વાની વિરાધનાથી ખચવાને માટે સદૈવ દારા સાથે મુખષિકા બાંધવી એ સૂત્રથી વિરૂદ્ધ નથી. પરન્તુ परिपेदित्ता अst परि. उपसर्गना प्रयोगथी स्पष्ट थाय छे है महावीर अनु સુદ્ધાંત્તથી પિહિત (ઢાંકેલા) મુખને પુનઃ પિધાન કરવાનું પ્રતિપાદિત કર્યું છે. કાઈ કાઈ એમ કહે છે ≠ વિપાકસૂત્રમાં મૃગાપુત્રના અધ્યયનમાં લખ્યું છે Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन १ गा.-१ मुखवस्त्रिकाविचारः च्छित्ता चउप्पुडेणं वत्येणं मुहं बंधमाणी भगवं गोयमंएवं वयासि-तुम्भेविणं भंते ! मुहपोत्तियाए मुहं बंधेह । तएणं से भगवं गोयमे मियाए देवीए एवं वुत्ते समाणे मुहपोतियाए मुहं बंधह" इत्युक्तं, तस्यायमाशय:मृगापुत्रं दर्शयितुं प्रत्ता मृगादेवी भूमिगृहद्वारोद्घाटनकाले दुर्गन्धाघ्राणवारणाय चतुप्पुटेन वस्त्रेण स्वमुखं वध्नती भगवन्तं गौतमं जगाद-हे भदन्त ! त्वमपि मुखपोतिकया मुखं वधान, ततः स भगवान गौतमो मृगादेव्यैवमुक्तः सन् मुखपोतिकया मुखं वध्नाति (स्म) इति । इदमनेन मुस्पष्टं प्रतीयते-गौतमस्वामिनो मुखोपरि मुखवत्रिका पद्धा नासीत् किन्तु इस्त एव धृतेति, अत एव मृगादेवी दुर्गन्धाघाणपतिवन्धाय "तुम्भेविण भंते! मुहपोतियाए मुहं बंधेह" इति प्रार्थितवतीत्याहुः' तन्न सम्यक्-उप्णमुखवायुतः सम्पातिममूक्ष्मव्यापिजीवानां रक्षणार्थ ऐसा.लिखा है-"तए णं सा" इत्यादि। इसका आशय यह है कि मृगादेवी जब मृगापुत्रको आहार देनेके लिए भोयरेके किवाड़ खोलने लगी तय नाकमें दुर्गन्ध आनेका निवारण करने के लिए चार पड़थालावस्त्रमुख पर बांधकर भगवान् गौतमस्वामीसे कहने लगी-'हे भदन्त । आप भी मुखवस्त्रिकासे मुख बांध लीजिये। मृगादेवीका कथनसुनकर भगवान गौतम मुखस्त्रिकासे मुख यांधते हैं __ (बांध लिया)। 'इससे यह विलकुल स्पष्ट है कि पहले गौतमस्वामीके मुख पर मुखवस्त्रिका नहीं बंधी हुई थी, किन्तु हाथमें थी, इसीसे मृगादेवीने मुखपत्रिका बांधनेकी प्रार्थना की थी । उनका यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि मुखकी उपण वायुसे संपातिम, सूक्ष्म और व्यापी जीवोंकी रक्षा करनेके लिए तथा बाह्य वायुकायकी "तए णं सा' या. सेना माशय मे छे मावा न्यारे भृगापुत्रने माडार દેવાને માટે ભેંયરાનાં કમાડ ખોલવા લાગી ત્યારે નાકમાં દુર્ગધ આવતી નિવારવાને માટે ચાર પડવાળું વસ્ત્ર મુખ પર બાંધીને ભગવાન ગૌતમ સ્વામીને કહેવા લાગી કે- હે ભદન્ત! આપ પણ મુખવસ્ત્રિકાથી મુખ બાંધી લે. મૃગાદેવીનું કથન સાંભળીને ભગવાન ગૌતમ મુખવસ્ત્રિકાથી મુખ બાંધે છે ( બાંધી લીધું. ) આથી એ તદ્દન સ્પષ્ટ થાય છે કે પહેલાં ગૌતમ સ્વામીના મુખ પર મુખવસ્ત્રિકા બાંધેલી નહતી, કિન્તુ હાથમાં હતી, તેથી મૃગાદેવીએ મુખવસ્વિકા બાંધવાની પ્રાર્થના કરી હતી. એમનું એ કહેવું બરાબર નથી, કારણ કે મુખના ઉષ્ણ વાયુથી સંપાતિમ, સૂક્ષમ અને વ્યાપી જીવેની રક્ષા કરવાને માટે તથા બાહ્ય વાયુકાયની Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवनकालियो -- अपरेण पायपिधान विधेयमिति भावः । पाणिनेत्यप्रेकवचनमपि पाणित्वनातारवयविवक्षयेत्युभयपाणिवोपकर प्यनुकूलमेव । किश्च पाणिशब्दस्य मुख्यार्यवाधाऽमावेन मुख्यायाधमलिका लक्षणापि नाहीकरणीया भवति । तथा चोक्तममन्यापिमभृतिविविधनीयरिसावारणाय सदेव सदोरकमुखपत्रिकाधारण नेतत्सूत्रतो विरुध्यते, किन्तु परिपिधायेत्पत्र परिसद प्रयोगेण भगवान् मुखवस्तिकापिहितस्यैव मखस्य पिधानमावेदयतीत्यलं पल्लाबाना केचितु-'विपाकसूत्रे मृगापुत्राध्ययने-"तपणं सामिया देवी तक सगडियं अगुकड्ढेमागी२ जेणेव भूमिघरे तेणेव उवागच्छति, उचान: और नाक ढंक ले और दूसरे हायसे अघोचायुकी यतना करे। .. "पाणिणा" यद्यपिएकवचन हैतथापि पाणित्वजातिमें अन्वय हान दोनों हाथोंका योधक होता है, इसलिए हमारे मतके अनुकूल ही ह यहाँ 'पाणि' शब्दके मुख्य अर्थमें बाधा नहीं है अतः लक्षणा मानने योग्य नहीं है, क्योंकि लक्षणा वहीं होती है जहाँ मुख्य अथ : पाधा आती हो। इसलिए उक्त सूक्ष्म व्यापी वगैरह विविध जावाका विराधनासे यचने के वास्ते सदैव डोरा सहित मुखवत्रिका मुख पर बाँधना इस सूत्रसे विरुद्ध नहीं है। परन्तु 'परिपेहित्ता' में पार उपसर्गके प्रयोगसे प्रगट है कि महावीर प्रभुने मुँहपत्ति से पिहित (ढक हुए) मुखको पुनः पिधान करना प्रतिपादित किया है। ____ कोई कोई ऐसा कहते हैं कि विपाकसूत्रमें मृगापुनके अध्ययनम મુખ અને નાક ઢાંકી લેવાં અને બીજા હાથથી અધેવાયુની થના કરવી. पाणिणाने मेवयन छ तपशु पालिवनतिमा मन्वय पाथी હાથને બેધક થાય છે તેથી અમારે મતે તે શબ્દ અનુકૂળ જ છે. महापाणि शहना भुध्य अर्थमा आधा नथी तथा दक्ष पY मानवा ચગ્ય નથી, કારણ કે લક્ષણા ત્યાં થાય છે કે જ્યાં મુખ્ય અર્થમાં બાધા આવતી હાય. તેથી કરીને ઉત સૂમ, વ્યાપી વગેરે વિવિધ જીની વિરાધનાથી બચવાને માટે સદૈવ દારા સાથે મુખવાસ્ત્રિકા બાંધવી એ સૂત્રથી વિરૂદ્ધ નથી. પરન્તુ परिपेहिता महा परि. 6सन प्रयोगथा ५५ थाय छ, महावीर प्रभु સહપતિથી પિહિત (ઢાંકેલા) મુખને પુનઃ પિધાન કરવાનું પ્રતિપાદિત કર્યું છે. કોઈ કઈ એમ કહે છે કે વિપાકસૂત્રમાં મૃગાપુત્રના અધ્યયનમાં લખ્યું છે Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अध्ययन १ गा. १ मुखवस्त्रिकाविचारः किञ्च दुर्गन्धाघ्राणवारणोद्देशेनापि तत्मार्थना नोपपद्यते, मुखमात्रबन्धने कृतेऽपि घ्राणेन्द्रियस्याऽनावरणेन तदुद्देशसिद्धयसंम्भवादिति मुखमात्रे बन्धनान्वयतात्पयस्यानुपपत्त्या तत्समीपवर्तिनि घ्राणेऽपि लक्षणात्त्या तात्पर्यमिति गम्यते । लक्षणाश्रयणस्याऽऽवश्यकत्वादेवाऽऽचारागसूत्रेऽपि "सें भिक्खू बार उस्सासमाणे वा नीसासमाणे वा कासमाणे वा छीयमाणे वा जंभायमाणे वा उहोए वा वायनिसग्ग वा करेमाणे पुन्वामेव आसयं वा पोसयं वा पाणिणा परिपेहित्ता" इत्यादिपाठः संगच्छते, तत्राप्यास्यकशब्दे लक्षणाभयणाऽभावे तु पाणिनाऽऽस्यकपरिपिधाने सति तज्जन्योच्छ्वासादियतनाया उपपत्तावपि प्राणजन्योच्छ्वासनिश्वासातयतनाया अनुपपत्त्या तेपामागमविरोधः मुस्पष्ट एव । लिए मुख यांधनेकी प्रार्थना करना युक्त नहीं है, क्योंकि मुख यांध लेने पर भी दुर्गन्धका आना नहीं रुक सकता, अतः यहाँ मुख वाँधनेका अर्थ अयुक्त होनेसे मुखके समीपवर्ती नासिका वाँधनेका तात्पर्य लक्षणासे विदित होता है । लक्षणाका आश्रय लेना आवश्यक होनेसे ही आचारागसूत्रका “से भिक्खू वा०" इत्यादि पाठ ठीक बैठता है । .. वहाँ पर भी यदि आसयं' (मुख) शब्दमें लक्षणाका आश्रय न लिया जाय तो हादसे मुख ढंक लेने पर मुखजन्य उच्छ्चास निश्वास आदिकी यतना संभव हो सकती है किन्तु घ्राणजन्य उच्छ्वास-नि:श्वास छौंककी यतना नहीं हो सकती। अतः उन लोगोंके मतमें आगमसे विरोध होना स्पष्ट है। પિસવા દેવાને માટે સુખ બાંધવાની પ્રાર્થના કરવી યુક્ત નથી. કારણ કૈ મુખ બાંધી લેવા છતાં દુર્ગધ આવવાનું રોકી શકાતું નથી. એટલે અહીં મુખ બાંધવાને અર્થ અયુક્ત હોવાથી સુખની નિકટ આવેલું નાક બાંધવાનું તાત્પર્ય લક્ષણથી વિદિત થાય છે. લક્ષણાને આશ્રય લે આવશ્યક હેવાથી જ આચારાંગ સૂત્રને “से भिक्खू वा." त्याहि १२ मध से छे. तमा पने आसयं (भुम) शभा क्षयानो मात्रय अपामा न मावे તે હાથથી મુખ ઢાંકી લેતાં મુખજન્ય ઉચ્છવાસ નિ:શ્વાસ આદિની યતના સંભવિત થઈ શકે છે, કિંતુ પ્રાણુજન્ય ઉદ્ઘાસ-નિ:શ્વાસ છીંકની યતના થઈ શકતી નથી. એટલે એ લેકના મતમાં આગમથી વિરોધ થાય છે એ સ્પષ્ટ છે. Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ श्रीदर्शवकालिकमंत्रे घाटवायुकायरतार्थ च मुखरखिकायन्धनस्य सकलजेनागमतात्पर्यविषयतया मुखवत्रिका बद्धा नासीदिति कल्पनं तापन्मिध्यात्यविलसितं सफलागमविरुद्ध च । इदमत्र तत्त्वम्-दुर्गन्धामाणयारणाय 'मुहं बंधेह' इति प्रार्थनाऽनुपपन्ना, मुखेन गन्धग्रहणानुपपत्तेः, तस्मादत्र 'मुह ' शब्दो न मुखमात्रपरः किन्तु यथा 'गगायां घोपः' इत्यत्र गहाशब्दस्य मवाहरूपे शक्याथे (मुख्यार्थे) घोषान्वयतात्पर्यानुपपत्या तत्समीपवर्तिनि तीरे लक्षणारत्या तात्पर्यमिति मन्यते, तथा मुखे वद्धाया एव तस्याः पुनस्तत्रैव बन्धनार्थमार्थना निष्फलतया नोपपते, रक्षा करनेके लिए मुखवत्रिका यांधना सय जैन-आगमोंमें तात्पर्यरूपसे विधान किया गया है, इसलिए उनके मुख पर मुखवस्त्रिका नहीं बंधी थी ऐसा कहना मिथ्यात्वका ही प्रताप है और सय शास्त्रोंसे विरुद्ध है। तात्पर्य यह है कि दुर्गन्धसे बचनेके लिए मुख घांधनेकी प्रार्थना उचित नहीं है, क्योंकि मुखसे गन्धका ग्रहण नहीं होता। अतएव यहाँ मुखसे केवल मुखही अर्थ नहीं है। जसे "गंगाम घोप (अहीरोंकी वसती) है। इस वाक्यसे ऐसा मतलय नहीं निकल सकता कि गंगाकी बीचधारमें अहीरोंकी वसती है, क्योंकि ऐसा होना अनुपपन्न है । अतएव जव चाक्यके मुख्य (शान्दिक) अर्थमें वाधा आती हो तय लक्षणासे दूसरा मतलब लेना पडता है कि-गंगाके किनारे अहीरोंकी वसती है। इसीप्रकार मुखवस्त्रिकाका जय पहलेसे बंधी हुई है तब पुनः बांधनेकी प्रार्थना व्यर्थ पडती है, तथा दुर्गन्ध नाकमें न घुसने देनेके રક્ષા કરવાને માટે મુખવસ્ત્રિકા બાંધવી એવું બધાં જૈન-આગમમાં તાત્પર્યરૂપે વિધાન કરવામાં આવ્યું છે. તેથી એમના મુખ પર મુખવસ્ત્રિકા બાંધેલી રહેતી એમ કહેવું એ મિથ્યાત્વને જ પ્રતાપ છે અને બધાં શાસ્ત્રોથી વિરુદ્ધ છે. તાત્પર્ય એ છે કે દુર્ગધથી બચવાને માટે મુખ બાંધવાની પ્રાર્થના ઉચિત નથી, કારણ કે મુખથી ગંધનું ગ્રહણ થતું નથી. એટલે અહીં મુખથી કેવળ મુખને જ અર્થ થતો નથી. જેમ “ગંગામાં શેષ (અહીરેની વસતી) છે” એ વાકયથી એ મતલબ નથી નીકળી શકતી કે ગંગાની વચ્ચે પાણીના પ્રવાહમાં અહીની વસતી છે, કેમકે એમ હવું અનુપપન છે એટલે કે જ્યારે વાક્યના મુખ્ય (શાબ્દિક અર્થમાં બાધા આવે છે ત્યારે લક્ષણથી બીજી મતલબ લેવી પડે છે, કે ગંગાને કિનારે અહીની વસતી છે. એ રીતે મુખવાચિકા જે પહેલેથી બાંધી રાખેલી છે તે પુનઃ બાંધવાની પ્રાર્થના વ્યર્થ કાને છે. તથા દુર્ગધ નાક * ન Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुखवस्त्रिकाविचारः ४५ - किञ्च दुर्गन्धात्राणवारणोदेशेनापि तत्मार्थना नोपपद्यते, मुखमात्रबन्धने कृतेऽपि घ्राणेन्द्रियस्याऽनावरणेन तदुद्देशसिद्धय संम्भवादिति मुखमात्रे बन्धनान्वयतात्पस्यानुपपच्या तत्समीपवर्तिनि घ्राणेऽपि लक्षणाच्या तात्पर्यमिति गम्यते । -लक्षणाश्रयणस्याऽऽवश्यकत्वादेवाऽऽचारास्त्रेऽपि " से भिक्खू बार उस्सासमाणे वा नीसासमाणे वा कासमाणे वा छीयमाणे वा जंभायमाणे वा उहोए वा वायनिसगं वा करेमाणे पुव्वामेव आसयं वा पोसयं वा पाणिणा परिपेहित्ता" इत्यादिपाठः संगच्छते, तत्राप्यास्यकशब्दे लक्षणाथrusभावे तु पाणिनाssस्यकपरिपिधाने सति तज्जन्योच्छ्वासादियतनाया उपपत्तावपि घ्राणजन्योच्छ्वासनिःश्वाससुतयतनाया अनुपपत्त्या तेपामागमविरोधः सुस्पष्ट एव । लिए मुख बांधनेकी प्रार्थना करना युक्त नहीं है, क्योंकि मुख यांध लेने पर भी दुर्गन्धका आना नहीं रुक सकता, अतः यहाँ मुख बाँधनेका अर्थ अयुक्त होनेसे मुखके समीपवर्ती नासिका बाँधनेका तात्पर्य लक्षणासे विदित होता है । लक्षणाका आश्रय लेना आवश्यक होनेसे ही आचारागसूत्रका " से भिक्खू वा० " इत्यादि पाठ ठीक बैठता है । वहाँ पर भी यदि ' आसयं ' (मुख) शब्दमें लक्षणाका आश्रयन लिया जाय तो हाथसे मुख ढँक लेने पर मुखजन्य उच्छ्वास निःश्वास आदिकी यतना संभव हो सकती है किन्तु घ्राणजन्य उच्छ्वास- निःश्वास araat यतना नहीं हो सकती । अतः उन लोगोंके मतमें आगमसे विरोध होना स्पष्ट है । પેસવા દેવાને માટે મુખ બાંધવાની પ્રાથના કરવી યુક્ત નથી. કારણ કે મુખ બાંધી લેવા છતાં દુર્ગંધ આવવાનું રી શકાતુ નથી. એટલે અહી સુખ ખાંધવાને અ અયુક્ત હાવાથી સુખની નિકટ આવેલું નાક ખાંધવાનું તાપ લક્ષલુાથી વિદિત થાય છે. લક્ષણાના આશ્રય લેવા આવશ્યક હવાથી જ આચારાંગ સૂત્રને " से भिक्खू वा० " धत्याहि पाह णराणर बंध मेसे छे. मां ने आसयं (मुख) शब्दमां सक्षयानो माश्रय सेवाभां न भावे તે હાથથી સુખ ઢાંકી લેતાં મુખજન્ય ઉચ્છ્વાસ નિ:શ્વાસ અાદિની મૃતના સંભવત થઈ શકે છે, કિંતુ ઘ્રાણુજન્ય ઉચ્છ્વાસ-નિ:શ્વાસ છીંકની .યતના થઈ શકતી નથી. એટલે એ લેકેાના મતમાં આગમથી વિરોધ થાય છે એ સ્પષ્ટ છે. Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ श्रीदशवकालिकम्ने याह्मवायुकायरक्षार्थ च मुखपत्रिकायन्धनस्य सकलजैनागमतात्पर्यविषयतया मुखवखिका बद्धा नासीदिति फल्पनं तापन्मिध्यावविलसित सकलागमविरुदं च । इदमत्र तत्त्वम्-दुर्गन्धाघ्राणवारणाय 'मुहं थंधेह' इति प्रार्थनाऽनुपपन्ना, मुखेन गन्धग्रहणानुपपत्तेः, तस्मादत्र 'मुह ' शब्दो न मुखमात्रपरः किन्तु यथा 'गङ्गायां घोपः' इत्यत्र गहाशब्दस्य प्रवाहरूपे शक्याये (मुख्याफे) घोषान्वयतात्पर्यानुपपत्त्या तत्समीपवत्तिनि तीरे लक्षणारत्या तात्पर्यमिति मन्यते, तथा मुखे वद्धाया एव तस्याः पुनस्तत्रैव बन्धनार्थमार्थना निष्फलतया नोपपयते, रक्षा करनेके लिए मुखवत्रिका यांधना सय जैन-आगमोंमें तात्पर्यरूपसे विधान किया गया है, इसलिए उनके मुख पर मुखवस्त्रिका नहीं बंधी थी' ऐसा कहना मिथ्यात्वका ही प्रताप है और सय शास्त्रोंसे विरुद्ध है। तात्पर्य यह है कि दुर्गन्धसे बचनेके लिए मुख पांघनेकी प्रार्थना उचित नहीं है, क्योंकि मुखसे गन्धका ग्रहण नहीं होता। अतएव यहाँ मुखसे केवल मुखही अर्थ नहीं है। जसे "गंगामें घोप (अहीरोंकी वसती) है। इस वाक्यसे ऐसा मतलय नहीं निकल सकता कि गंगाकी बीचधारमें अहीरोंकी वसती है, क्योंकि ऐसा होना अनुपपन्न है। अतएव जय वाक्यके मुख्य (शाब्दिक) अर्थमें वाधा आती हो तय लक्षणासे दूसरा मतलय लेना पडता है कि-गंगाके किनारे अहीरोकी वसती है। इसीप्रकार मुखवस्त्रिकाका जब पहलेसे बंधी हुई है तष पुनः बांधनेकी प्रार्थना व्यर्थ पडती है, तथा दुर्गन्ध नाकमें न घुसने देनेके રક્ષા કરવાને માટે મુખવસ્ત્રિકા બાંધવી એવું બધાં જેન-આગમમાં તાત્પર્યરૂપે વિધાન કરવામાં આવ્યું છે. તેથી એમના મુખ પર મુખવસ્ત્રિકા ખાધેલી નહોતી એમ કહેવું એ મિથ્યાત્વને જ પ્રતાપ છે અને બધાં શાસ્ત્રોથી વિરૂદ્ધ છે. તાપી એ છે કે દુર્ગ થી બચવાને માટે મુખ બાંધવાની પ્રાર્થના ઉચિત નથી, કારણ કે મુખથી ગંધનું ગ્રહણ થતું નથી એટલે અહીં સુખથી કેવળ મુખને જ અર્થ થતો નથી. જેમ “ગંગામાં શેષ ( આહીની વસતી ) છે” એ વાકયથી એવી મતલબ નથી નીકળી શકતી કે ગંગાની વચ્ચે પાણીના પ્રવાહમાં આહીરની વસતી છે, કેમકે એમ હોવું અનુપપન્ન છે એટલે કે જ્યારે વાકયના મુખ્ય (શાબ્દિક અર્થમાં બાધા આવે છે ત્યારે લક્ષણથી બીજી મતલબ લેવી પડે છે, કે ગંગાને કિનારે અહીરેની વસતી છે. એ રીતે મુખવચિકા જે પહેલેથી બાંધી રાખેલી છે તે પુનઃ બાંધવાની પ્રાર્થના વ્યર્થ બને છે. તથા દુર્ગધ નાક : ન Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गाः १ मुखवस्त्रिका विचारः ४५ किञ्च दुर्गन्धाघ्राणचारणोद्देशेनापि तत्मार्थना नोपपद्यते, मुखमात्र बन्धने कृतेऽपि घ्राणेन्द्रियस्याऽनावरणेन तदुद्देशसिद्धय संम्भवादिति मुखमात्रे बन्धनान्वयतात्पtrayer तत्समीपवर्तिनि प्राणेऽपि लक्षणावृत्त्या तात्पर्यमिति गम्यते । लक्षणाश्रयणस्याऽऽवश्यकत्वादेवाऽऽचाराङ्गसूत्रेऽपि "से भिक्खू बा२ उस्सासमाणे वा नीसासमाणे वा कासमाणे वा छीयमाणे वा जंभायमाणे वा उट्टो वा वायनिसगं वा करेमाणे पुन्वामेव आसयं वा पोसयं वा पाणिणा परिपेहित्ता" इत्यादिपाठः संगच्छते, तत्राप्यास्यकशब्दे लक्षणाथयणाभावे तु पाणिनाऽऽस्यकपरिपिधाने सति तज्जन्योच्छ्वासादियतनाया उपपत्तावपि प्राणजन्योच्छ्वासनिःश्वासमुवयतनाया अनुपपत्त्या सेपामागमविरोधः सुस्पष्ट एव । लिए मुख बांधनेकी प्रार्थना करना युक्त नहीं है, क्योंकि मुख बांध लेने पर भी दुर्गन्धका आना नहीं रुक सकता, अतः यहाँ मुख बाँधनेका अर्थ अयुक्त होनेसे मुखके समीपवर्ती नासिका बाँधनेका तात्पर्य लक्षणासे विदित होता है । लक्षणाका आश्रय लेना आवश्यक होनेसे ही आचारागसूत्रका " से भिक्खू वा० " इत्यादि पाठ ठीक बैठता है । वहाँ पर भी यदि ' आसयं' (मुख) शब्द में लक्षणाका आश्रय न लिया जाय तो हाथसे मुख ढँक लेने पर मुखजन्य उच्छ्वास निःश्वास आदिकी पतना संभव हो सकती है किन्तु घ्राणजन्य उच्छ्वास- निःश्वास छोंकी यतना नहीं हो सकती । अतः उन लोगोंके मतमें आगमसे विरोध होना स्पष्ट है | પેસવા દેવાને માટે મુખ બાંધવાની પ્રાર્થના કરવી સુક્ત નથી. કારણ કે મુખ આંધી લેવા છતાં દુર્ગંધ આવવાનું કી શકાતું નથી. એટલે અહીં મુખ ખધવાના અ અયુક્ત ડાવાથી મુખની નિકટ આવેલું ના ખાંધવાનું તાત્પ લક્ષાથી વિદિત થાય છે. લક્ષણાના આશ્રય લેવા આવશ્યક હાવાથી જ આચારાંગ સૂત્રને " से भिक्खू वा० " धत्याहि पाह णराणर गंध से छे. मां ने आसयं (मुख) शण्डमा सक्षयानो आश्रय सेवामां न भवे તા હાથથી મુખ ઢાંકી લેતાં મુખજન્ય ઉચ્છ્વાસ નિ:શ્વાસ આદિની ચુતના સંભવત થઈ શકે છે, કિંતુ ઘ્રાણુજન્ય ઉચ્છ્વાસ-નિ:શ્વાસ છીંકની પંચતના થઈ શકતી નથી. એટલે એ લેકેાના મતમાં ભાગમથી વિધિ થાય છે એ સ્પષ્ટ છે. Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदवेकालिको नन्वेवं मुखयस्त्रिका भातु बन्धनीया तथापि दोरकस्य बन्धने निवन्धनताऽऽगमतो न लभ्यते, तथा च तत्मान्तभागेनापि बन्धनं मुसम्पादम्, अलमेतेन दोरकपरिग्रहेणेति चेन, मुखयस्त्रिकायन्धनस्य शास्त्रप्रतिपाघतायां सिद्धायां तत्राल्पमेव दोरकमपेक्ष्य निरवद्यमकारेण तद्वन्धनसिद्धौ सत्यां चारित्रमालिन्यापादकप्रकारान्तराश्रयणस्यानौचित्यात्, मुखवत्रिकामान्तभागेन शिरःपञ्चादागे न्यूनतावशाद्रन्थिविरहमाप्ताचिताधिकतन्मानरल्पनायामुत्सूत्रप्ररूपणापत्तेश्य । किञ्च-मुखोपरि मुखवत्रिकाया बन्धन दोरकेणेव समुचितं भगवदभिप्रेतंच, प्रश्न-उक्त प्रकारसे मुख पर मुग्वयस्त्रिका बाँधना तो सिद्ध हुआ किन्तु डोरा लगाकर वाँधना आगममें कहीं नहीं पाया जाता। इसलिए मुखवस्त्रिकाके छोर (पल्ला) से भी उसे बाँध सकते हैं, डोराको क्या आवश्यकता है? उत्तर-उनका यह कथन ठीक नहीं है। क्योंकि जब यह सिद्ध हो चुका कि आगममें मुखवत्रिकाका बाँधना प्रतिपादित किया गया है ता छोटेसे डोरेसे निर्दोपतापूर्वक चन्धनकी सिद्धि होने पर चारित्रका मलिन करने वाले दूसरे तरीके काममें लानाअनुचित है। मुखवत्रिका छोरसे, सिरके पीछे न्यूनताके यशसे गांठ न लगा सकनेसे मुख वस्त्रिकाके उचित प्रमाणसे अधिककी कल्पना करनी पडेगी, और ऐसा कल्पना करनेसे उत्सूत्रप्ररूपणाका दोष लगेगा। दूसरी बात यह है कि डोरेसे ही मुख पर मुखवत्रिका बांधना પ્રશ્ન-એ પ્રકારે મુખ પર મુખવસ્ત્રિકા બાધવાનું તે સિદ્ધ થયું, પરતું દરે લગાવીને બાધવાનું આગમમાં કયાય મળી આવતું નથી તેથી કરીને મુખ વસ્ત્રિકાના છેડાથી પણ તેને બાધી શકાય છે. દેરાની શી આવશ્યકતા છે ઉત્તર–એનું કથન બરાબર નથી, કારણ કે જે એ સિદ્ધ થઈ ચૂકયુ કે આગમમાં મુખવસ્ત્રિકા બાધવાનું પ્રતિપાદિત કરવામાં આવ્યું છે તે નાના સરખા દોરાથી નિર્દોષતાપૂર્વક બંધનની સિદ્ધિ થતાં ચારિત્રને મલિન કરનારે બીજો પ્રકાર કામમાં લે એ અનુચિત છે, મુખવસ્ત્રિકાના છેડાથી શિરની પાછળ જનતાને કારણે ગાઠ ન બાંધી શકાવાથી મુખવસ્વિકાને ઉચિત પ્રમાણુથી વધારે લાંબી રાખવાની કલ્પના કરવી પડશે, અને એવી કલ્પના કરવાથી ઉસૂરપ્રરૂપણને દોષ લાગશે બીજી વાત એ છે કે દેરાથી જ મુખ પર મુખવસ્વિકા બાંધવી ઉચિત છે Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा.. १ मुखबलिकाविचारः ४७ लोके हि बन्धनं गुणेनैव प्रसिद्धं तत्रापि यथायोग्यमेव सूत्रदोरकादयस्तदर्थमादीयन्ते, यथा पुष्पपुस्तकवसनादिवन्धनार्थी यथाक्रमं मृदुमेव दोरकमुपादत्ते । किञ्च-सामाचारीग्रन्थे-"मुखवत्रिका प्रतिलेख्य मुखे बद्ध्वा प्रतिलेखयति रजोहरणम्" इत्युक्तं देवचन्द्रसूरिणाऽपि । अत्र मुखवत्रिकाया बन्धनक्रियाकर्मत्वेन प्रतिपादनात् तदौचित्याच सा दोरकरूपमनुरूपं करणमपेक्षत एव । तत्मान्तभागेन ग्रन्थिदाने तु तत्र करणत्वकल्पनं देवचन्द्रसूरिविरुद्धमयुक्तं च, कर्मत्व-करणत्वयोविरोधात् । उचित है और यही यात भगवानको भी इष्ट है । लोकमें किसी वस्तुका याँधना डोरेसे ही प्रसिद्ध है। उसमें भी यथायोग्य सूत्रका डोरा आदि बाँधनेके काम में लाये जाते हैं, जैसे फल, पुस्तक या कपड़ा बाँधने वाले क्रमशः कोमल डोरेको ही काममें लाते हैं। . . सामाचारी ग्रन्थ में देवचन्द्रसूरिने लिखा है-"मुखवस्त्रिका प्रतिलेख्य मुखे बद्ध्वा प्रतिलेखयति रजोहरणम् ।" इस वाक्य में मुखवत्रिकाको बाँधनेरूप क्रियाका कर्म यताया है और वह उचित भी है। इसलिये वह (क्रिया) मुखचत्रिकाके अनुरूप डोरारूप करणकी अपेक्षा रखती है। तात्पर्य यह है कि जब मुखबस्त्रिका कर्म है तब करण भी कोई होना चाहिये और वह करण अर्थात् जिससे यांधनारूप क्रिया होती है, डोरा ही होना चाहिए।गांठ लगानेमें करणत्वकी कल्पना करना देवचन्द्रसरिसे विरुद्ध है और अयुक्त है, क्योंकि कर्मत्व और करणत्वका विरोध है। અને એ જ વાત ભગવાનને પણ ઈષ્ટ છે. લોકોમાં કોઈ વસ્તુને બાંધવાનું કાર્ય દેરાથી જ પ્રસિદ્ધ છે. તેમાં પણ યથાગ્ય સૂતરને ઘેરે વગેરે બાંધવાના કામમાં લેવામાં આવે છે, જેમકે ફૂલ, પુસ્તક યા કપડું બાંધનારા ક્રમશઃ કમળ દેરાને જ કામમાં લે છે. ___सामायारी थमा देवयन्द्रसूरिश्मे ज्यु छ: “ मुखवत्रिका प्रतिलेख्य मुखे वध्या प्रतिलेखयति रजोहरणम्" वायमा मुमक्षिाने धा३५ जियानु કર્મ બતાવ્યું છે. અને તે ઉચિત પણ છે. તેથી કરીને એ (ક્રિયા) મુખવસ્ત્રિકાને અનુરૂપ દરારૂપ કરણની અપેક્ષા રાખે છે. તાત્પર્ય એ છે કે જે મુખવસ્ત્રિકા કર્મ છે તે કરણ પણ હોવું જોઈએ અને એ કરણ અર્થાત જેવડે બાંધવારૂપ ક્રિયા થાય છે તે દેરે જ હવે જોઈએ. ગાંઠ બાંધવામાં કરણત્વની કલ્પના કરવી એ वयसरिथी वि३५ छ. मन मयुत छ, २ ३ ४भव भने ४२९पना विरोध छे. Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदर्शने कालिकमुत्रे नवेचं मुखखिका भवतु वन्धनीया तथापि दोरकस्य बन्धने निबन्धनवा ssगमतो न लभ्यते, तथा च तत्मान्तभागेनापि बन्धनं सुसम्पादम्, अन्यमेतेन दोरकपरिग्रहेणेति चेन्न, मुखवत्रिकाबन्धनस्य शास्त्रमतिपाद्यतायां सिद्धायां तत्रा-ल्पमेव दोरकमपेक्ष्य निरवयमकारेण तन्धनसिद्धी सत्यां चारित्रमालिन्यापादकमकारान्तराश्रयणस्यानौचित्यात् मुखवत्रिकामान्तभागेन शिरःपचाद्भागे न्यूनठावशाद्रन्थिविरहमाप्ताबुचिता धिकतन्मानकल्पनायामुत्त्ररूपणापत्ते | किञ्च मुखोपरि मुत्रिकाया बन्धनं दोरकेणैव समुचितं भगवद चि ४६ - प्रश्न- उक्त प्रकारसे मुख पर मुखयस्त्रिका बाँधना तो सिद्ध हुआ किन्तु डोरा लगाकर बाँधना आगममें कहीं नहीं पाया जाता। इसलिए मुखवत्रिक के छोर (पल्ला) से भी उसे बाँध सकते हैं. डोराकी क्या आवश्यकता है ? उत्तर- उनका यह कथन ठीक नहीं है । क्योंकि जब यह सिद्ध हो चुका कि आगम मुखवत्रिकाका बाँधना प्रतिपादित किया गया है तो छोटेसे डोरेसे निर्दोपतापूर्वक बन्धनकी सिद्धि होने पर चारित्रको मलिन करने वाले दूसरे तरीके काममें लाना अनुचित है। मुखचत्रिकाके छोरसे, सिरके पीछे न्यूनताके यशसे गांठ न लगा सकने से मुख'वत्रिकाके उचित प्रमाणसे अधिककी कल्पना करनी पडेगी, और ऐसी कल्पना करने से उत्सूत्रप्ररूपणाका दोष लगेगा । दूसरी बात यह है कि डोरेसे ही मुख पर मुखवत्रिका बांधना પ્રશ્ન-એ પ્રકારે મુખ પર મુખવસ્ત્રકા માંધવાનું તે સિદ્ધ થયું, પરન્તુ દેરા લગાવીને ખાંધવાનું આગમમાં કયાંય મળી આવતુ નથી, તેથી કરીને મુખ વજ્રકાના છેડાથી પણ તેને બાંધી શકાય છે. દેવાની શી આવશ્યકતા છે. ઉત્તર-એનું કથન ખરાખર નથી; કારણ કે જે એ સિદ્ધ થઈ ચૂકયું કે આગમમાં સુખસ્ત્રિકા માંધવાનું પ્રતિપાદિત કરવામાં આવ્યુ છે તે નાના સરખા દોરાથી નિર્દેવતા પૂર્વક અંધનની સિદ્ધિ થતાં ચારિત્રને મલિન કરનારા ખીજા પ્રકાર કામમાં લેવા એ અનુચિત છે, મુખસ્રિકાના છેડાથી શિરની પાછળ ન્યૂનતાને કારણે ગાંઠ ન બાંધી શકાવાથી મુખષિકાને ઉચિત પ્રમાણુથી વધારે '(લાંબી) રાખવાની કલ્પના કરવી પડશે, અને એવી કલ્પના કરવાથી ઉત્સૂત્ર પ્રરૂપણાના દેષ લાગશે, શ્રીજી વાત એ છે કે દોરાથી જ મુખ પર મુખસિકા બાંધવી ઉચિત છે Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ९ गा. १ मुखवनिका विचारः लोके हि बन्धनं गुणेनैव प्रसिद्धं तत्रापि यथायोग्यमेव सूत्रदो रकादयस्तदर्थमादीयन्ते, यथा पुष्पपुस्तकवसनादिवन्धनार्थी यथाक्रमं मृदुमेव दोरकमुपादत्ते । किञ्च - सामाचारीग्रन्थे - "मुखचस्त्रिकां प्रतिलेख्य मुखे बद्ध्वा प्रतिलेखयति रजोहरणम्" इत्युक्तं देवचन्द्रसूरिणाऽपि । अत्र मुखवस्त्रिकांया बन्धनक्रियाकर्मत्वेन प्रतिपादनात् तदौचित्याच्च सा दोरकरूपमनुरूपं करणमपेक्षत एव । तत्प्रान्तभागेन ग्रन्थिदाने तु तत्र करणत्वकल्पनं देवचन्द्रसूरिविरुद्धमयुक्तं च, कर्मत्व- करणत्वयोर्विरोधात् । ४७ उचित है और यही बात भगवानको भी इष्ट है। लोकमें किसी वस्तुका बाँधना ढोरेसे ही प्रसिद्ध है। उसमें भी यथायोग्य सूत्रका डोरा आदि बाँधने के काम में लाये जाते हैं, जैसे फूल, पुस्तक या कपड़ा बाँधने वाले क्रमशः कोमल डोरेको ही काम में लाते हैं । सामाचारी ग्रन्थ में देवचन्द्रसूरिने लिखा है- "मुखवत्रिकां प्रतिलेख्य मुखे बद्ध्वा प्रतिलेख्यति रजोहरणम् । " इस वाक्य में मुखवत्रिकाको बाँधनेरूप क्रियाका कर्म बताया है और वह उचित भी है। इसलिये वह : (क्रिया) मुखवत्रिकाके अनुरूप डोरारूप करणकी अपेक्षा रखती है। तात्पर्य यह है कि जब मुखवस्त्रिका कर्म है तब करण भी कोई होना चाहिये और वह करण अर्थात् जिससे बाँधनारूप क्रिया होती है, डोरा ही होना चाहिए। गांठ लगानेमें करणत्वकी कल्पना करना देवचन्द्रसूरि से विरुद्ध है और अयुक्त है, क्योंकि कर्मत्व और करणत्वका विरोध है। • भने मे વાત ભગવાનને પણ ઈષ્ટ છે. લેાકેામાં કઇ વસ્તુને બાંધવાનું કાય हाराथी ४ પ્રસિદ્ધ છે. તેમાં પણ યથાયા સૂતરને દેશ વગેરે ખાંધવાના કામમાં લેવામાં આવે છે, જેમકે ફૂલ, પુસ્તક યા કપડું બાંધનારા ક્રમશ: કમળ ઢારાને જ કામમાં લે છે, साभायारी ग्रंथभां हेवयन्द्रसूरि सभ्यु छे: “ मुखवस्त्रिकां प्रतिलेख्य मुखे वद्ध्वा प्रतिलेखयति रजोहरणम् ” मे वाश्यां भुणवस्त्रिाने गांधवाय डियानु કમ બતાવ્યું છે. અને તે ઉચિત પણ છે. તેથી કરીને એ (ક્રિયા) મુખવસ્ત્રિકાને અનુરૂપ દ્વારારૂપકરણની અપેક્ષા રાખે છે, તાત્પર્ય એ છે કે જે મુખવસ્તિકા કર્મો છે તેા કરણ પણ હાવું જોઇએ અને એ કરણ અર્થાત જેવટે માંધવારૂપ ક્રિયા થાય છે તે દેશ જ હાવા જોઇએ. ગાંઠે આંધવામાં કરણત્વની કલ્પના કરવી એ દેવચન્દ્રસૂરિથી વિરૂદ્ધ છે અને અયુક્ત છે, કારણ કે કર્માંત્વ અને કરણત્વના વિરોધ છે. Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीदनकालिको मुखवत्रिकावन्धनार्य कर्णयुगले गरेण छिद्रकरणं तु अतीवाऽज्ञानविन म्भिवम्, छिद्रकरणस्य शास्त्रानुक्ततया शखमयोगसाध्यतया दुष्करतया च तदपेक्षया निरवद्यत्वेन दोरकाश्रयणस्यैयाचिच्यात् ।। नन्वेचं दोरकाश्रयणे सदोरकमुखवत्रिकाधारकाणां भाषणकाले मुखोत्पतितजलकणैराभूताया. मुखवत्रिकायामचिस्थानतया संमृच्छिमजीवा उत्पधेरन् , इस्तेन मुखपत्रिकाधारणे तु न तयाविनीयोत्पत्तिसम्भवः, तथा च दोरकपखिरी दुराग्रहमात्रमिति चेन, मुखोत्पन्ननलकणानां भगवता जीपोत्पत्तिस्थानत्रयाऽनुत मुखवस्त्रिका याँधनेके लिए-कानों में छेद कर लेना तो बड़ी भारी अज्ञानता है। क्योंकि साधुपनेके लिए किसी अवयवको छेदना शालों में निषिद्ध है और शस्त्रसाध्य होनेसे दुष्कर भी है। उसकी अपेक्षा निर्दोषरूपसे डोरेका आश्रय लेना ही उचित है। . . प्रश्न-डोरेका आश्रय लेनेसेडोरा सहित मुखवत्रिका मुख पर धारण करनेवालोंकीमुखवस्त्रिका भापण करते समय मुखसे निकलनेवाले पानी के कणोंसे गीली हो जायगी और गीली होनेसे अशुचिस्थान हो जानेके कारण वहाँसंमृच्छिम जीवॉकी उत्पत्ति होगी। हाथमे मुखवत्रिकाधारण करनेसे संमूच्छिम जीवोंकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। इसलिए डोराका ग्रहण करना दुराग्रहमात्र है। उत्तर-ऐसा कहना उचित नहीं है। क्योंकि मुखसे निकलने वाल जलके कणोंको भगवान्ने जीवोत्पत्तिका स्थान नहीं बताया है। ऐसा भी મુખવઝિક બાંધવાને માટે કાનમાં છિદ્ર પડાવી લેવા છે તે ભારે અજ્ઞાનતા છે, કારણ કે સાધુપણાને માટે કોઈ અવયવને છેદવું શાસ્ત્રમાં નિષિદ્ધ છે અને શઅસાધ્ય હોવાથી દુષ્કર પણ છે. એને બદલે નિર્દોષ રૂપે દેરાને આશ્રય લે જ ઉચિત છે. પ્રશ્ન-દોરાને આશ્રય લેવાથી દરાન્સહિત મુખવશ્વિકા મુખ પર પાર કરનારાઓની સુખસ્ટિકર ભાષણ કરતી વખતે મુખમાંથી નીકળતા પાણીના કથી ભીની થઇ જશે અને ભીની થવાથી અશુચિસ્થાન થઈ જવાને કારણે ત્યાં સમૃમિ ની ઉત્પત્તિ થશે. હાથમાં મુખવસ્ત્રિકા ધારણ કરવાથી સંમર્ણિમ જીવોની ઉત્પત્તિ થતી નથી. તેથી કરીને દેરાનું ગ્રહણ કરવું એ દુરાગ્રહ થાય છે. ઉત્તરએમ કહેવું ઉચિત નથી, કારણ કે મુખથી નીકળતાં જળનાં કણને ભગવાને જીત્પત્તિનું સ્થાન બતાવ્યું નથી, એમ પણ ન કહી શકાય Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गाः १ मुखवत्रिकाविचारः त्वात् । न चैतेपां जलकणानां खेलांशतयाऽशुचिस्थानतया वा जीवोत्पत्तिस्थानत्वं प्रतीयत इति वाच्यम् , तत्र खेलांशतापती तेन्तिमूलकत्वात् । वैद्यकशास्त्रे हि खेलस्य मुखजलकणानां च भेदः मुस्पष्टः, तथाहि खेलशब्दः श्लेप्मण्य वर्तते, आमाशयो, हृदयं, कण्ठः, शिरः, सन्धयथैतानि श्लेप्मणः स्थानानि, तथाचोक्तं भावप्रकाशे. "आमाशयेऽय हृदये, कण्ठे शिरसि सन्धिषु। . स्थानेप्वेषु मनुष्याणां, श्लेष्मा तिष्ठत्यनुक्रमात् ।। " इति, . अस्य स्वरूपं धर्मायोक्ताः सुश्रुतसंहितायां यथा. "प्रलेप्मा श्वेतो गुरुः स्निग्धः, पिच्छलः शीत एव च। मधुरस्त्वविदग्धः स्याद् , 'विदग्धो लवणः स्मृतः । " इति, नहीं कहना चाहिए कि वे जलकण खेलके अंश हैं, इसलिए अशुचिस्थान हैं और अशुचिस्थान होनेसे जीवोत्पत्तिके स्थान हैं। क्योंकि उन जलकणोंको खेल (कफ) का अंश समझना भ्रान्तिमूलक है । 'खेल' शन्दका अर्थ श्लेष्म है। आमाशय, हृदय, कंठ, सिर और सन्धियाँ श्लेष्म के स्थान __ हैं| भावप्रकाश में लिखा है... आमाशयेऽथ हृदये, कण्ठे शिरसि सन्धिषु।। स्थानेप्वेषु मनुप्याणां, श्लेष्मा तिष्ठत्यनुक्रमात् ॥१॥ अर्थात्- "आमाशय, हृदय, कण्ठ, शिर और संधिभागः इन स्थानों में मनुष्यों को अनुक्रम से कफ रहता है।" सुश्रुतसंहितामें श्लेष्मका स्वरूप और गुण इस प्रकार यताये हैंકે એ જળકણ ખેલ (કફ) ના અંશરૂપ હોય છે અને તેથી અશુચિસ્થાન છે અને અશુચિસ્થાન હોવાથી ઉત્પત્તિનાં સ્થાન છેએ જળકમાં કફને અંશ સમજે એ બ્રાન્તિમૂલક છે. ૩૪ શબ્દને અર્થે હેલ્મ છે. આમાશય, હૃદય, કઠ, શિર અને સંધિ એ તેમનું સ્થાન છે. ભાવપ્રકાશમાં લખ્યું છે કે... आमाशयेऽथ हृदथे, कण्ठे शिरसि सन्धिषु । . स्थानेप्चेषु मनुष्याणां, प्रलेप्मा तिप्ठत्यनक्रमात ।। અથાત-“આમાશય હૃદય કંઠ શિર અને સંધિભાગ એ સ્થાનમાં મનુને . मनुभथी ४५ २ छ." સુશ્રુતસંહિતામાં લેગ્સનું સ્વરૂપ અને ગુણ આ પ્રકારે બતાવ્યા છે – .. १. विदग्ध-पका या जला हुआ। . - - Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ - श्रीदर्शकालिको मुखवत्रिकाबन्धनार्थ फर्णयुगले शस्त्रेण छिद्रकरणं तु अतीवाऽज्ञानविम्भिवम् , छिद्रकरणस्य शास्त्रानुसतया शस्त्रमयोगसाध्यतया दुष्करतया च तदपेक्षया निरवद्यत्वेन दोरकाश्रयणस्यैाँचित्यात् । नन्वेवं दोरकाश्रयणे सदोरकमुखवस्त्रिकाधारकाणां भाषणकाले मुखोत्पवितजलकणैराीभूतायां. मुखवत्रिकायामशुचिस्थानतया संमूच्छिमजीवा उत्पधेरन् , हस्तेन मुखवत्रिकाधारणे तु न तथाविधजीवोत्पत्तिसम्भवः, तया च दोरकपरिग्रहो दुराग्रहमात्रमिति चेन्न, मुखोत्पन्ननलकणानां भगवता जीवोत्पत्तिस्थानतयाऽनुक्त मुखवस्त्रिका पाँधनेके लिए-कानों में छेद कर लेना तो बड़ी भारी अज्ञानता है । क्योंकि साधुपनेके लिए किसी अवयवको छेदना शास्त्रों में निषिद्ध है और शस्त्रसाध्य होनेसे दुष्कर भी है। उसकी अपेक्षा निर्दोषरूपसे डोरेका आश्रय लेना ही उचित है। . प्रश्न-डोरेका आश्रय लेनेसे डोरा सहित मुखवत्रिका मुख पर धारण करनेवालोंकीमुखयस्त्रिका भापण करते समय मुखसे निकलनेवाले पानी के कणोंसे गीली हो जायगी और गीली होनेसे अशुचिस्थान हो जानेके कारण वहाँसमूच्छिम जीवोंकी उत्पत्ति होगी। हाथमें मुखवत्रिकाधारण करनेसे संमूच्छिम जीवोंकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। इसलिए डोराका ग्रहण करना दुराग्रहमात्र है। उत्तर-ऐसा कहना उचित नहीं है। क्योंकि मुखसे निकलने वाले जलके कणोंको भगवान्ने जीवोत्पत्तिका स्थान नहीं बताया है। ऐसा भी | મુખવઝિક બાંધવાને માટે કાનમાં છિદ્ર પડાવી લેવા એ તે ભારે અજ્ઞાનતા છે, કારણ કે સાધુપણાને માટે કઈ અવયવને છેદવું શાસ્ત્રમાં નિષિદ્ધ છે અને શઅસાધ્ય હોવાથી દુષ્કર પણ છે. એને બદલે નિર્દોષ રૂપે દેરાને આશ્રય લે જ ઉચિત છે. પ્રશ્ન-દેરાને આશ્રય લેવાથી દેરા-સહિત મુખવકિા મુખ પર ધારણ કરનારાઓની મુખવસ્ત્રિકા ભાષણ કરતી વખતે મુખમાંથી નીકળતા પાણીના કળથી ભીની થઇ જશે અને ભીની થવાથી અશુચિસ્થાન થઈ જવાને કારણે ત્યાં સંમૂરિછમ જીવની ઉત્પત્તિ થશે. હાથમાં મુખ્યવસ્વિકા ધારણ કરવાથી સંમૂર્ણિમ જીવોની ઉત્પત્તિ થતી નથી. તેથી કરીને હેરાનું ગ્રહણ કરવું એ દુરાગ્રહ થાય છે. - ઉત્તર–એમ કહેવું ઉચિત નથી, કારણ કે મુખથી નીકળતાં જળનાં કોને ભગવાને જીત્પત્તિનું સ્થાન બતાવ્યું નથી, એમ પણ ન કહી શકાય Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन गाः १ मुखबविकाविचारः सात् । न चैतेषां जलकणानां खेलांशतयाऽचिस्यानतया वा जीवोत्पत्तिस्थान पतीयत इति वाच्यम् , तत्र खेलांशतामतीतेमन्तिमूलकत्वात् । वैधकशावे हि खेलस्य मुखनलकणानां च भेदः मुस्पष्टः, तथाहि खेलशब्दः श्लेष्मण्यर्थे वर्तते, आमाशयो, हृदयं, कण्ठः, शिरः, सन्धयथैतानि श्लेप्मणः स्थानानि, तथाचोक्तं भावप्रकाशे. "आमाशयेऽय हृदये, कण्ठे शिरसि सन्धिषु। . स्थानेवेषु मनुष्याणां, श्लेष्मा तिष्ठत्पनुक्रमात् ॥” इति, अस्य स्वरूपं धर्मायोक्ताः सुश्रुतसंहितायां यथा . "श्लेप्मा श्वेतो गुरुः स्निग्धः, पिच्छला शीत एव च । ... मधुरस्त्वविदग्धः स्याद् , 'विदग्धो लवणः स्मृतः ॥” इति, नहीं कहना चाहिए कि वे जलकण खेलके अंश हैं, इसलिए अशुचिस्थान हैं और अशुचिस्थान होनेसे जीवोत्पत्तिके स्थान हैं। क्योंकि उन जलकणोंको खेल (कफ) का अंश समझना भ्रान्तिमूलक है । 'खेल' शन्दका अर्थ श्लेष्म है। आमाशय, हृदय, कंठ, सिर और सन्धियाँ श्लेष्म के स्थान हैं। भावप्रकाश में लिखा है आमाशयेऽथ हृदये, कण्ठे शिरसि सन्धिषु । स्थानेप्वेपु मनुष्याणां, श्लेष्मा तिष्टत्यनुक्रमात् ॥१॥ अर्थात्- " आमाशय, हृदय, कण्ठ, शिर और संधिभागा इन · स्थानों में मनुष्यों को अनुक्रम से कफ रहता है।" सुश्रुतसंहितामें श्लेष्मका स्वरूप और गुण इस प्रकार यताये हैं-- કે એ જળકણ ખેલ (કફ) ના અંશરૂપ હેય છે અને તેથી અશુચિ-સ્થાન છે અને અશુચિસ્થાન હોવાથી ત્પત્તિનાં સ્થાન છે. એ જળકમાં કફને मश सभरवा मे मन्तिभूस छ, खेल सपनो मर्थ बेभ छ. मामाशय, હૃદય, કંઠ, શિર અને સંધિ એ તેમનું સ્થાન છે. ભાવપ્રકાશમાં લખ્યું છે કે आमाशयेऽथ हृदये, कण्ठे शिरसि सन्धिषु । स्थानेप्वेषु मनुष्याणां, श्लेष्मा विप्ठत्यनुक्रमाद ।। અર્થાત- આમાશય હૃદય કંઠ શિર અને સંધિભાગ એ સ્થાનેમાં મનુષ્યને અનુકમથી કફ રહે છે.” • . સુશ્રુતસંહિતામાં લેમ્પનું સ્વરૂપ અને ગુણ આ પ્રકારે બતાવ્યા છે – :.' १. विदग्ध-पका या जला हुआ। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ' . श्रीदशकालिकाले मुखजलस्य तु रसनामूलं तदग्रभागतिद्वयमुत्पत्तिस्थानम् , इदं च चर्वितस्यान्नस्य पिण्डीभवने कण्ठनलिक्रयाश्योनयने पाचने च निमित्तम् । अत एवं योगचिन्तामणौ प्रथमाध्याये "रसाऽमृङमांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्राणि धातवः । इत्युक्त्वा कस्य धातोः किं मलम् ? इति पदर्शयिहं पुनरभिहितम्" निवानेत्रकपोलानां जलं पित्तं च रक्षकम् ," इत्यादि । श्लेष्मा श्वेतो गुरुः स्निग्धः पिच्छलः शीत एव च। मधुरस्त्वविदग्धः स्याद्, विदग्धो लवणः स्मृतः ॥१ अर्थात्-श्लेष्म (कफ) सफेद, गुरु, चिकना, पिच्छल और शीत होता है । नहीं जला हुआ या कचा कफ मधुर होता है और पका या जला हुआ नमकीन होता है । मुखजलके केवल दो उत्पत्तिस्थान हैं-(१) जिहाका मूल और (२) जिहाका अग्रभाग । यह मुखजल चबाये हुए अन्नको पिण्ड बनाने तथा कण्ठकी नलीके नीचे लेजाने तथा पचानेका कारण है। इसीसे योग चिन्तामणि ग्रन्थके प्रथम अध्यायमें "रसामुदमांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्राणि धातवः" ऐसा कह कर किस धातुका क्या मल है, सो बतानेके लिए फिर कहा है-"जिहानेकपोलानां, जलं पित्तं च रकम् । अर्थात् श्लेष्मा श्वेतो गुरुः स्निग्धः पिच्छलः शीत एव च । मधुरस्त्वविदग्धः स्यात् विदग्धो लवणः स्मृतः ॥ - मात- म (४६) सह, शु३, यि, पिछभने शात डाय छ. નહિ બળે યા કા કફ મધુર હોય છે અને પાકે ચા બળે કફ ખારા सत्य छे." મુખજળનાં માત્ર બે ઉત્પત્તિ સ્થાન હોય છે : (૧) જીલ્લાનું મૂળ અને (ર) જહા (જીભ)ને અગ્રભાગ. એ સુખજળ ચાવેલા અને પિંડ બનાવવાનું તથા કંઠની નળીની નીચે લઈ જવાનું તથા પચાવવાનું કારણ છે. તેથી - शिन्तामणि थाना प्रथम अध्यायमा रसामृड्मांसमेदोऽस्थिमज्जाशक्राणि धातक: એમ કહીને કઈ ધાતુને કા મળે છે તે બતાવવાને માટે પછી કહ્યું છે કે जिहानेकपोलानां जलं पितं च रजकम् । अर्थात् - नेत्र भने Date Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुखवस्त्रिकाविचारः ५१ जिहानेत्रकपोलानां जलं रसधातोर्मलं, रखकं पित्तं रुधिरस्य मलमिति तदर्थः । इत्थं जिarकपोलदेशे जायमानं जलं मुखजलं, तदीयकणिका एव भाप का कदाचिद वहिरुत्पतन्तीति विशदीभवति, श्लेप्मा तु न कस्यचिद् 'धातोर्मलं, स हि दोपत्रयान्तःपातित्वात्तत्स्वरूपम्, अत एव योगचिन्तामणी मथमाध्याये धातुमलतः पृथकृत्य दोपत्रयोपादानं कृतं यथा शारीरकप्रकरणे - " कलाः सप्ताशयाः सप्त धातवः सप्त तन्मलाः । सप्तोपधातवः सप्त त्वचः सप्त प्रकीर्त्तिताः ॥ १ ॥ त्रयो दोपा नवशते, स्नायूनां सन्धयस्तथा । दशाधिकं च द्विशतमथ्नां च द्विशतं मतम् ॥ २ ॥ सप्तोत्तरं मर्मशतं, शिराः सप्तशतं तथा । चतुर्विंशतिराख्याता, धमन्यो रसवाहिकाः ॥ ३ ॥ मांसपेश्यः समाख्याता, नृणां पञ्चशतं बुधैः । atri च विशत्यधिकः, कण्डराचैव पोडश ॥ ४ ॥ . नृदेहे दश रन्ध्राणि, नारीदेहे प्रयोदश । एतत्समासतः प्रोक्तं विस्तरेणाधुनोच्यते ॥ ५ ॥ " इति । जीभ, नेत्र और गालका जल रसधातुका मल है तथा रंजक पित्त रुधिरका मल है। इसप्रकार जीभ और गालोंमें उत्पन्न होनेवाला जल मुखका जल कहलाता है और उसीकी कणिका भाषण करते समय कभी-कभी बाहर निकल जाती है, यह बात स्पष्ट है । श्लेष्मा किसी धातुका मल नहीं है, वह तीन दोपोंमेंसे एक दोष है, इसीसे योगचिन्तामणिमें धातुओंके मलोंसे पृथक करके तीन दोष अलग बताये हैं, देखो शारीरक प्रकरण 'कलाः सप्ताशयाः" इत्यादि श्लोक ५ । ८८ રસ ધાતુના મલ છે તથા રજક પિત્ત રૂધિરને મલ છે, એ રીતે જીભ અને ગાલમાં ઉત્પન્ન થનારૂ જલ મુખનું જલ કહેવાય છે અને તેની કણિકા ભાષણ કરતી વખતે કાઇ-ફાઇ વાર મહાર નીકળી જાય છે તે વાત સ્પષ્ટ છે, શ્લેષ્મ કઇ ધાતુને મલ નથી, તે ત્રણ દેશમાંના એક દેવ છે. તેથી વૈચિન્તા મણિમાં ધાતુના મલેાથી જૂદા પાડીને ત્રણ દોષ અલગ ખતાવેલા છે. જુ શારીરક પ્રકરણે es 07: #HART: " Sule 218 4. Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशनैकालिकस मुखेजलस्य तु रसनामूलं तदग्रभागश्रेतिद्वयमुत्पत्तिस्थानम् इदं च चर्वितस्यान्नस्य पिण्डीभवने कण्ठनलिकयाऽधोनयने पाचने च निमित्तम् । अत एव योगचिन्तामणौ प्रयमाध्याये ५० "रसादमांसमेदोऽस्थिमज्ञाशुकाणि धातत्रः । इत्युक्त्वा फस्य धातोः किं मलम् ? इति मदर्शयितुं पुनरभिहितम् - " जिहानेत्रकपोलानां जलं पित्तं च रझकम्, " इत्यादि । श्लेष्मा श्वेतो गुरुः स्निग्धः पिच्छलः शीत एव च । मधुरस्त्वविदग्धः स्याद्, विदग्धो लवणः स्मृतः ॥१ अर्थात् - श्लेष्म (कफ) सफेद, गुरु, चिकना, पिच्छल और शीत होता है । नहीं जला हुआ या कच्चा कफ मधुर होता है और पका या जला हुआ नमकीन होता है । मुखजलके केवल दो उत्पत्तिस्थान हैं - (१) जिहाका मूल और (२) जिहाका अग्रभाग । यह मुखजल चचाये हुए अन्नको पिण्ड बनाने तथा कण्ठको नलीके नीचे लेजाने तथा पचानेका कारण है । इसीसे योगचिन्तामणि ग्रन्थके प्रथम अध्यायमें “रसादमांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्राणि धातवः " ऐसा कह कर किस धातुका क्या मल है, सो बतानेके लिए फिर कहा है- " जिह्वानेत्रकपोलानां, जलं पित्तं च रञ्जकम् "" I अर्थात् लेप्मा श्वेतो गुरुः स्निग्धः पिच्छलः शीत एव च । मधुरस्त्वविदग्धः स्यात् विदग्धो लवणः स्मृतः ॥ श्मर्थात् " श्लेष्म ( ४३ ) सह, गु३, थिङलो, पिच्छस भने शीत होय छे. નહિ મળેલેા ચા કાચા કર્મધુર હાય છે અને પાકા યા અળેલા કફ ખારા होय छे મુખજળનાં માત્ર બે ઉત્પત્તિ સ્થાન હાય છે: (૧) જીલ્લાનું મૂળ અને (૨) જીહ્વા (જીભ)ના અગ્રભાગ. એ મુખજળ ચાવેલા અન્નનેા પિંડ બનાવવાનું તથા કંઠની નળીની નીચે લઈ જવાનું તથા પચાવવાનું કારણ છે. તેથી યેગयिन्तामधि ग्रंथना प्रथम अध्यायभां रसासृद्मांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्राणि धातवः એમ કહીને કઇ ધાતુને કયેા મળ છે તે બતાવવાને માટે પછી કહ્યું છે કે जिहानेत्रकपोलानां जलं पित्तं च रञ्जकम् । अर्थात् कुल नेत्र भने गासर्नु जस Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुखवस्त्रिकाविचारः शब्दानुपादानात् । वस्तुतस्तु निष्ठीवनशब्दस्य भावल्युडन्ततया प्रक्षेपणात्मकनिरसनक्रियावाचिलं युक्तम् , अतएच--- "रक्तनिष्ठीवनं दाहो, मोहश्छदन-विभ्रमौ । मलापः पिटिका हप्णा, रक्तमाते ज्वरे नृणाम् ॥” इति, रक्तवरलक्षणं मतिपादयता माधवनिदानकृता निर्गमनेऽप्यर्थे निष्ठीवनशब्दः प्रयुक्तः । कवलीकृतस्य द्रव्यस्य मुखान्निरसनेऽपि निष्ठीवनत्वमुक्तं, भावप्रकाशे यथा__" वातपित्तकफनस्य गव्यस्य कवलं मुखे । अर्थ निःक्षिप्य संचळ, निष्ठीवेत् कवले विधिः ॥” इति, तिव्यअकबराख्ये वैद्यकग्रन्थे पञ्चमाध्याये प्रथमप्रकरणेऽपि जिहामूलतो निष्ठीवनका वास्तविक अर्थ है क्षेपण करना, या त्यागना। इसीसे 'माध वनिदान' कर्ताने रक्तज्वर के लक्षण बताते समय निकलनेके अर्थमें निष्टीचन शब्दका प्रयोग किया है रक्तनिष्ठीवन दाहो, मोहश्छईनविभ्रमौ। प्रलापः पिटिका तृष्णा, रक्तमा ज्वरे नृणाम् ॥ १॥ भावप्रकाशमें कौर (कवल)के बाहर निकालनेको निष्ठीवन कहा है"वातपित्त" इत्यादि, "तिन्य अकबर" नामक यूनानी वैधक ग्रन्थमें भी जिहाके मूलसे मुखजलकी उत्पत्ति स्पष्टरूपसे बताई गई है "जीभकी जड़में एक मांसकालोयडा है जिसमेंसेलुआय औरमुखका पानी निकलता है और जोभको तर रखता है और खानेकी चीजोंमें मिला करता है।" तथा અર્થ છે-ક્ષેપણ કરવું યા ત્યાગવું. તેથી માધવનિદાન” કતએ રક્તવરનાં લક્ષણે બતાવતી વખતે નીલવાના અર્થમાં નિષ્ઠીવન શબ્દ પ્રયોગ કર્યો છે : रक्तनिष्ठीवनं दाहो, मोहश्छईनविभ्रमौ । प्रलाप: पिटिका तृष्णा, रक्तमा ज्वरे नृणाम् ॥ १ ॥ ભાવપ્રકાશમાં કેળીયાનું બહાર નીકાળવું અને નિષ્ઠીવન કહેલ છે -- * वातपित्त त्यादि. “તિષ્ણ અકબૂરનામક ચૂનાની વૈવક ગ્રંથમાં પણ જીલ્લાના મૂલમાંથી | મુખજલની ઉત્પત્તિ સ્પષ્ટરૂપે બતાવી છે. જીભના મૂળમાં માંસને લાગે છે = જેમાંથી લુઆબ અને મુખનું પાણી નીકળે છે અને જીભને તર રાખે છે અને w -. Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशकालिको एवं च मुखजलस्य खेलतो भेदः स्पष्ट एव । न च खेलशन्दस्य निष्ठीवनायकतया निष्ठीवनात्मके मुखजले खेलशन्दमत्या तस्यापि जीवोत्पत्तिस्थानत्वं दुर्वारमेवेति वाच्यम् , निष्ठीव्यते-निरस्यते अतिप्यते यत्तनिष्ठीवनमिति निपू. कात् 'टी निरसने' इति धातो हुलकात् कर्मणि ल्युटि निप्पन्नस्य निष्ठीवनशब्दस्य योगेन मुखनिर्गतपदार्थमा प्रयोगों भवति, एवं च निष्ठीवनशब्दस्यैव भक्षिप्तखेलापर्थकत्वं सिध्यति न तु खेलशब्दस्य निष्ठीवनार्थकलम् , तया च मुखनिर्गतनलकणेषु न जीवोत्पत्तिसिद्धिः, जीवोत्पत्तिस्थानपरिगणने निष्ठीवन इस प्रकार स्पष्ट है कि मुखका जल श्लेष्मसे भिन्न है। प्रश्न-'खेल' शब्दका अर्थ 'थूक' है, और थूक तथा मुखजल एक ही है । अतः मुखजलमें खेल शब्दकी प्रवृत्ति होनेसे वह जीवोत्पत्तिका स्थान होगा ही। उत्तर-ऐसा कहना ठीक नहीं है। क्योंकि 'निष्ठीवन' शब्द 'नि'उपसर्गपूर्वक 'ठी निरसने' धातुसे बना है। अतः मुखसे निकलने वाला कोई भी पदार्थ निष्ठीवन कहलाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि त्यागा हुआ खेल आदि निष्ठीयन कहला सकता है किन्तु निष्ठीवन 'खेल' नहीं कहला सकता। इसलिए मुखसे निकलने वाले जलकर्णाम जीवोत्पत्तिकी सिद्धि नहीं होती, क्योंकि जीवोत्पत्तिके स्थानोंमे 'निष्ठीवन' शब्द नहीं दिया है । वास्तवमें निष्ठीवन शब्द भावल्युडन्त होनेसे प्रक्षेपणरूप निरसन क्रियाका वाची है, ऐसा मानना युक्त है। अर्थात् - એ રીતે સ્પષ્ટ થાય છે કે મુખનું જલ એ શ્લેષ્મથી ભિન્ન છે. પ્રશ્ન-બેલ' શબ્દને અર્થ “ઘૂંક છે, અને ચૂંક તથા મુખજલ એક જ છે. એટલે મુખજલમાં ખેલ શબ્દની પ્રવૃત્તિ થવાથી તે જીત્પત્તિનું સ્થાન થશે જ. ઉત્તર–એમ કહેવું બરાબર નથી નિષ્ઠીવન શબ્દ “નિ'–ઉપસર્ગ–પૂર્વક ग्रीव निरसने धातुथी अन्य छ. मेरो भुपया नीता at all ilaन કહેવાય છે. તેથી એમ સિદ્ધ થાય છે કે ત્યાગેલો ખેલ આદિ નિષ્ઠીવન કહી શકાય છે. પરતુ નિકીવન “ખેલ નથી કહી શકાતે. તેથી મુખથી નીકળતા જલકણેમાં ત્તિની સિદ્ધિ થતી નથી, કારણ કે જીત્પત્તિનાં સ્થાનમાં નિકીવન શબ્દ આવે નથી. વસ્તુતઃ નિકીવન શબ્દ ભાવઘુડન હોવાથી પ્રક્ષેપણુરૂપ નિરસન ક્રિયાને વાચક છે. એમ માનવું યુક્ત છે. અર્થાત્ નિષ્ઠીવનને વાસ્તવિક Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ अध्ययन १ गा. १ मुखवस्तिकाविचारः अत्र " सब्वेसु चेव असुइट्टाणेसु" इत्यस्य " सर्वेपु चैव अशुचिस्थानेषु" इति संस्कृतम् , अशुचीनां स्थानानि अभूचिस्थानानि तेषु अनुचिस्थानेषु, यत्रानेकेपामशुचीनामुचारादीनां स्थितिस्तत्रेत्यर्थः । अयमाशयः-यथा पृथिव्यादीनां परकायशस्वेण परिणतत्वे सति सचित्तत्वमपंगच्छति तयोचारादीनां मस्रवणादिसाङ्कर्ये सति संमृच्छिमजीवोत्पत्तिस्थानत्वापंगमः स्यादिति शिष्यशङ्कासंभावनायां तनिरसनार्थमेव पृथक्कृत्येदमुक्तम्----"सब्वेसु चैव असुइट्टाणेसु" इति, न त्वत्रानुक्तानामचीनां स्थानेषु, इति तदाशयः । एतेनोचारादीनां संमृच्छिमनीवोत्पत्तिस्थानत्वादेव तत्साकर्येऽपि तादृशजीवोत्पत्ति: यहाँ सब अशुचियोंके स्थानोंसे तात्पर्य यह है कि जहाँ उच्चार आदि अनेक अशुचियोंकी स्थिति हो वह स्थान । मतलब यह कि-परकाय शस्त्रसे परिणत होने पर पृथिवीकाय आदि अचित्त हो जाते हैं, उसी प्रकार जब उच्चार आदि प्रस्रवण आदिके साथ मिल जाते हैं, तब उनमें संमूच्छिम जीवोंको उत्पन्न करनेकी शक्ति रहती है या नहीं ? शिष्यके ऐसे प्रश्नकी संभावना होने पर खुलासा करनेके लिए अलग कहा है कि "सब अशुचिस्थानोंमें।" इस वाक्यका "उक्त • अशुचियोंके स्थानोंके सिवाय अन्य स्थानोंमें" यह अर्थ नहीं है। उपर्युक्त कथन करनेसे यह स्वयं सिद्ध हो गया कि जब उच्चार आदि संमृच्छिम : जीवोंकी उत्पत्तिके स्थान हैं तब उन स्थानोंमेंसे यदि दो या तीन आदि मिल जावें तो भी वे जीवोंकी उत्पत्तिके स्थान रहेंगे। अतएव जो लोग .. અહીં સર્વ અશુચિઓનાં સ્થાનેનું તાત્પર્ય એ છે કે જ્યાં ઉચ્ચાર આદિ અનેક અશુચિઓની સ્થિતિ હોય તે સ્થાન. મતલબ એ છે કે-પરકાય શબથી પરિત થતાં પૃથિવીકાય આદિ અચિત્ત થઈ જાય છે, એ રીતે જ્યારે ઉચ્ચાર આદિ પ્રસવણ આદિની સાથે મળી જાય છે, ત્યારે તેમાં સમૃમિ ને ઉન્ન કરવાની શકિત રહે છે કે નહિ ? શિષ્યના એવા પ્રશ્નની સંભાવના હોવાથી ખુલાસો કરવાને માટે જૂદું કહ્યું છે કે “સર્વ અશુચિસ્થાનેમાં.” આ વાકયને અર્થ “ ઉકત અશુચિઓનાં સ્થાન સિવાય અન્ય સ્થાને માં” નથી. ઉપર મુજબ કથન કરવાથી એ સ્વર્યાસિદ્ધ થિઈ ગયું કે જે ઉચાર આદિ સંમૂર્ણિમ ની ઉત્પત્તિનાં સ્થાન છે તે એ સ્થાનમાં જે બે યા ત્રણ આદિ મળી જાય તો પણ તે જીવોની ઉત્પત્તિનાં સ્થાને રહેશે. તેથી કરીને જે લોકે એમ કહે છે કે પ્રેકિત અર્થ કરવાથી Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे मुखजलोत्पत्तिः स्पष्टुं प्रतिपादिता । शरीरविज्ञाने च मुखजलस्य पाचनशक्तिमत्त्वं प्रकटितम् । अशुचिस्थानतया मुखजलस्य जीवोत्पत्तिस्थानत्वापादनं तु सर्वथा निमलमेव, तथाहि-यावन्ति जीवोत्पत्तिस्थानानि सन्ति तानि मज्ञापनासूत्रे निर्दिष्टानि, यथा___" उच्चारेसु वा पासवणेसु वा खेलेसु चा सिंघाणपसु वा वंतेसु वा पित्तेसु वा पूयेसु वा सोणिगसु वा सुसु वा सुफपुग्गलपरिसाडेसु वा विगयजीवकलेचरेसुवा धीपुरिससंजोएसुवा गरनिन्द्वमणेसु वासवेसु चेव असुइटाणेलु, एत्थ णं समुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति" इति । 'शरीर विज्ञान' नामक ग्रन्थमें मुखजलके विपयमें लिखा है कि उसमें पचानेकी शक्ति होती है। 'अशुचिस्थान होनेसे मुखजल जीवोत्पत्तिका स्थान है ऐसा कहना विलकुल वेजड़ है । जीवोत्पत्तिके जितने स्थान हैं उन सयका निर्देश प्रज्ञापनासूत्रमें किया है " उच्चारेसु वा" इत्यादि, अर्थात् " उच्चार (विष्टा) में, प्रस्रवण (भूत्र)में, कफमें, नाकके मैलमें, कैमें, पित्तमें, पीवमें, खून में, शुक्रमें, शुक्रपुद्गलपरिशाट (शुष्क शुक्र पुद्गलोंके फिर भीने होने ) में, प्राणीकी लाशमें, स्त्रीपुरुपके संयोग, नगरकी गटरमें, इन सय अशुचियोंके स्थानों में संमृच्छिम मनुष्य उत्पन्न होते हैं ।" ખાવાની શી જેમાં મળ્યા કરે છે. ” અને “ શરીરવિજ્ઞાન” નામના ગ્રંથમાં અખજલના વિષયમાં લખ્યું છે કે એમાં પચાવવાની શક્તિ હોય છે. - અશચિસ્થાન હોવાથી મુખજલ જીત્પત્તિનું સ્થાન છે એમ કહેવું બિલકુલ અમલક છે છત્પત્તિનાં જેટલાં સ્થાને છે એ બધાંને નિર્દેશ પ્રજ્ઞાપના-સૂત્રમાં शछ : उच्चारेसु वा त्याlt. “ या२ (विटा)भां, प्रखपा (पिसा)मा, भा. नाना वीटभी, वमन-सटीमां, पित्तभा, ५३मां; सीमा, शु-वीय भां, શક્રપદગલરિશટમાં (શુક્રના સુકાયેલા પુદગલ ભીના થવામાં છે. પ્રાર્થના મડદામાં, સ્ત્રી પુરૂષના સમાગમમાં, નગરની ખાળો (ગટર)માં, એ બધાં અશચિનાં સ્થાનમાં સંમૂવિંછમ મનુષ્ય ઉત્પન્ન થાય છે.” Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुखवस्त्रिकाविचारः - अत्र " सच्चेसुं चैव असुइट्टाणेसु " इत्यस्य " सर्वेषु चैव अशुचिस्थानेषु " इति संस्कृतम्, अशुचीनां स्थानानि अशुचिस्थानानि तेषु अशुचिस्थानेषु, पाशुचीनाचारादीनां स्थितिस्तत्रेत्यर्थः । ५५ अयमाशय: - यथां पृथिव्यादीनां परकायशस्त्रेण परिणतत्वे सति सचित्तत्वमपगच्छति तयोचारादीनां मस्रवणादिसाङ्कर्ये सति संमूच्छिम जीवोत्पत्तिस्थानत्वापगमः स्पादिवि शिष्यांसंभावनायां निरसनार्थमेव पृथक्कुत्येदमुक्तम्- "सव्वेसु चैव असुट्टासु " इति न स्वत्रानुक्तानामशुचीनां स्थानेपु, इति तदाशयः । एतेनोच्चारादीनां मूच्छिमजीवोत्पत्तिस्थानत्वादेव तत्साङ्कर्येऽपि तादृशजीवोत्पत्ति यहाँ सब अशुचियों स्थानोंसे तात्पर्य यह है कि जहाँ उच्चार आदि अनेक अशुचियोंकी स्थिति हो वह स्थान । मतलब यह कि - परकाय शस्त्रसे परिणत होने पर पृथिवीकाय आदि अचित्त हो जाते हैं, उसी प्रकार जब उच्चार आदि प्रस्रवण आदिके साथ मिल जाते हैं, तब उनमें संमूच्छिम जीवोंको उत्पन्न करनेकी शक्ति रहती है या नहीं ? शिष्यके ऐसे प्रश्नकी संभावना होने पर खुलासा करने के लिए अलग कहा है कि "सव अशुचिस्थानों में।" इस वाक्यका " उक्त • अशुचियोंके स्थानोंके सिवाय अन्य स्थानों में " यह अर्थ नहीं है। उपर्युक्त कुधन करने से यह स्वयं सिद्ध हो गया कि जब उच्चार आदि संमूच्छिम : जीवों की उत्पत्तिके स्थान हैं तब उन स्थानोंमेंसे यदि दो या तीन आदि - मिल जायें तो भी वे जीवों की उत्पत्तिके स्थान रहेंगे। अतएव जो लोग અહીં સ અર્થાએનાં સ્થાનાનું તાત્પર્ય એ છે કે જ્યાં ઉચ્ચાર આદિ અનેક અશુચિઓની સ્થિતિ હાય તે સ્થાન. 3 મતલ” એ છે કે-પરકાય શસ્ત્રથી પરિણત થતાં પૃથિવીકાય આદિ અચિત્ત થઈ ન્વય છે, એ રીતે જ્યારે ઉચ્ચાર દિ પ્રસ્રવણ આદિની સાથે મળી જાય છે, ત્યારે તેમાં સ’મૂર્છિમને ઉત્પન્ન કરવાની શકિત રહે છે કે હેિ ? શિષ્યના એવા પ્રશ્નની સભાવના હાવાથી ખુલાસો કરવાને માટે જાદુ કહ્યુ છે કે “ સ અચિસ્થાનમાં. ” આ વાકયને અર્થ ઉકત ચિમનાં સ્થાના સિવાય અન્ય સ્થાને માં ” એવા નથી. ઉપર મુજબ કથન કરવાથી એ સ્વયંસિદ્ધ થઇ ગયુ કે ને ઉચ્ચાર આદિ સમૃઈિમ જીવાની ઉત્પત્તિનાં સ્થાન છે તે એ સ્થાનામાં જે બેયા ત્રણ આર્દ્ર મળી ન્તય તે પણ તે છવેનો ઉત્પત્તિનાં સ્થાના રહેશે: તેથી કરીને જે લેકે એમ કહે છે કે પુકત અર્થ કરવાથી Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशनैकालिकसूत्रे मुखजलोत्पत्तिः स्पष्टं प्रतिपादिता । शरीरविज्ञाने च मुखजलस्य पाचनशक्तिमत्त्वं प्रकटितम् । ५४ अशुचिस्थानतया सुखजलस्य जीवोत्पत्तिस्थानत्वापादनं तु सर्वथा निर्मूलमेव, तथाहि - यावन्ति जीवोत्पत्तिस्थानानि सन्ति तानि प्रज्ञापनामुत्रे निर्दिष्टानि, यथा II उच्चारेसु वा पासवणेसु वा खेलेसु वा सिंघाणएस वा वंतेसु वा पित्तेसु वा पूयेसु वा सोणिएस वा सुषेसु वा सुकपुग्गलपरिसाढेसु वा विगयजीवकलेवरेसु वा धीपुरिससंजोएसु वा नगरनिद्धमणेसु वा सव्वेसु चेव असुट्ठाणेसु, एत्थ णं संमुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति " इति । 'शरीर विज्ञान' नामक ग्रन्थमें मुखजलके विषय में लिखा है कि उसमें पचानेकी शक्ति होती है । 'अशुचिस्थान होनेसे मुखजल जीवोत्पत्तिका स्थान है' ऐसा कहना बिलकुल वेजड़ है । जीवोत्पत्तिके जितने स्थान हैं उन सबका निर्देश प्रज्ञापनासूत्रमें किया है " उच्चारेसु वा " इत्यादि, अर्थात् " उच्चार (विष्ठा) में, प्रस्रवण (मन्त्र) में, कफमें, नाकके मैलमें, कैमें, पित्तमें, पीवमें, खून में, शुक्रमें, शुक्रपुद्गलपरिशाट (शुष्क शुक्रपुद्गलोंके फिर भीने होने) में, प्राणीकी लाशमें, स्त्रीपुरुषके संयोगमें, नगरकी गदर में, इन सब अशुचियोंके स्थानोंमें संमूच्छिम मनुष्य उत्पन्न होते हैं । " 27 ખાવાની ચીજોમાં મળ્યા કરે છે. ” અને " शरीरविज्ञान સુજલના વિષયમાં લખ્યું છે કે એમાં પચાવવાની શક્તિ ય છે. નામના ગ્રંથમાં " અશુચિસ્થાન હાવાથી મુખજલ જીવાત્પત્તિનું સ્થાન છે ? એમ કહેવું બિલકુલ અમૂલક છે. વેપત્તિનાં જેટલાં સ્થાને છે એ બધાંના નિર્દેશ પ્રજ્ઞાપના સૂત્રમાં अछे : उच्चारेसु वा इत्याहि " स्यार ( विष्ठा ) मां, प्रसव (पिसाण) मां, ४३भां, नाइना सीटमां, बभन-उसटीमां, पित्तमां, पड़मां, सोहीमां, शुरु -पीर्य भां શુક્રપુદ્ગલપરિશાટમાં શુક્રના સુકાયલા પુદ્ગલ ભીના થવામાં ), પ્રાણીના મુડદામાં, સ્ત્રીપુરૂષના સમાગમમાં, નગરની માળા (ગઢા)માં, એ અધ અશુચિંતાં સ્થાનામાં સમૃષ્ટિમ મનુષ્ય ઉત્પન્ન થાય છે. ” Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन १ गा. १ मुखवत्रिकाविचारः ५७ त्पत्तौ सत्यां भगवता शिष्याणां स्पष्टपतिपत्तये- "खेलेसु वा तेसु वा" इत्यादिवत् " मुहजलकणेतु वा” इति वाक्येन तेऽपि पृथक्कृत्य निर्देष्व्याः स्युः, इति मुखजलकणानां भगवदनुक्तत्वान्न तत्र जीवोत्पतिर्भवतीति निश्चीयते । इदमत्र तत्वम्- शिष्याणां जीवोत्पत्तिस्थानप्रतीति विना सम्यक् संयमपालनं न स्यादिति हेतोः स्पष्टीकृत्य सकलानि संमृच्छिमजीवोत्पत्तिस्थानानि बोधयितुं भगवता तत्तनामनिर्देशमयत्नोऽङ्गीकृतः, साकल्येन संमूछिमजीवोत्पत्तिस्थानपरिगणनतात्पर्याभावे तु भगवान्-" सव्वेसु चेव असुइट्ठाणेसु" इत्येव वयात् , उच्चारमन्त्रवउत्पत्ति होती तो शिष्योंको स्पष्ट योध करानेके लिए भगवानने जैसे 'खेलेसु वा वंतेसु चा' इत्यादि अलग अलग नाम गिनाये हैं वैसे ही "मुहजलकणेसुवा" ऐसा और एक सूत्रपाठ रख देते। अतः निश्चित है किमुखसे निकलने वालेजलकणोंमें संमूच्छिम जीव उत्पन्न नहीं होते, क्योंकि भगवान्ने उसे जीवोत्पत्तिका स्थान नहीं बताया है । तात्पर्य यह है कि- शिष्य जबतक यह न जानलें कि जीवोंके उत्पत्तिस्थान कौन कौन है ? तय तक संयमका सम्यक प्रकार परिपालन नहीं कर सकते। इसीसे भगवान्ने जीवोत्पत्तिके स्थानोंका खुलासा ज्ञान करानेके लिए अलग अलग नाम गिनाये हैं। यदि संमच्छिम जीवोंकी उत्पत्तिके सय स्थान गिनानेका मतलब न होता तो सिर्फ 'सव्वेसुचेव असुइटाणेसु' (अशुचि ઉત્પત્તિ થતી હતી તે શિષ્યને સ્પષ્ટ બંધ કરાવવાને ભગવાને જેમ વેસુ વા वंतेमु वा त्यात समान भाव्या छ तभ मुहजलकणेसु वा सेवा એક વધારે સૂત્રપાઠ રાખ્યો હોત. તેથી કરીને નિશ્ચિત છે કે મુખથી નીકળનારાં જલકમાં સંમૂર્છાિમ ઉત્પન્ન થતા નથી, કારણ કે ભગવાને એને જીપત્તિનું સ્થાન બતાવ્યું નથી. તાત્પર્ય એ છે કે જ્યાં સુધી શિષ્ય જાણી ન લે કે જીનાં ઉત્પત્તિ સ્થાન કયાં કયાં છે, ત્યાં સુધી તે સંયમનું સમ્યફ પ્રકારે પરિપાલન કરી શકતું નથી. તેથી ભગવાને જોત્પત્તિનાં સ્થાનેનું ખુલાસાથી જ્ઞાન કરાવવાને અલગ અલગ નામે ગણાવ્યાં છે. જે સંમૂછિમ છની ઉત્પત્તિનાં બધાં સ્થાને ગણાવવાની भतसमन लत तो मात्र सम्वेस वेव असुइहाणे (मशुसिन मा स्थानामi) Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदनकालिकसूत्रे स्थानस्वं मुतरां सिदमिति “सन्वेसु चेव असुइहाणेसु" इति पुनरमिषानमसङ्गतं व्यर्थं च स्यादिविवादिनः परास्ताः, उत्तशहावारणाय तयाभिषानस्याऽऽवश्यकत्वात् । ____ अपमर्थव भगद्वाफ्यादेव स्फुटीमवति, तथाहि-सर्वेषां मुखनिर्गतपदार्यानां जीोत्पत्तिस्थानत्वे लाघवानुरोधेन " मुहनिग्गासु सव्वेसुचेव दवेसु" इत्येव वक्तव्ये पुनः “खेलेसु घा तेमु वा पित्तसु वा" इति तत्तन्नामनिर्देशमयत्लो भगवत्कृतो व्यर्थः स्यात् , तस्मानिदिप्टेतरपदार्य जीवोत्पत्ति भवतीति स्पष्टं प्रतीयते । अथवा अणीयस्म भापणकालिकेपु मुखोत्पवितनलकणेषु जीबीऐसा कहते हैं कि पूर्वोक्त अर्य करनेसे 'सन्वेसु चेव असुहहाणेसु" कहना व्यर्थ और असंगत हो जायगा, वे परास्त हो गये। क्योंकि शिष्यको पूर्वोक्त शंकाका निवारण करनेके लिए उस कथनकी आवश्यकता है। __ यह अर्थ भगवान के वचनसे ही निकलता है, क्योंकि यदि मुखसे निकलने वाले सय पदार्थ जीवोत्पत्तिके स्थान होते तोसंक्षेप करनेके लिए केवल इतना कह देते कि 'मुहनिग्गएसु सव्वेसु चेव दम्वेसु' अर्थात् मुखसे निकलने वाले सब पदार्थों में संमूच्छिम जीव उत्पन्न होते हैं। "खेलेसुवा वंतेसु वा पित्तेसु वा" इस प्रकार अलग अलग भगवान् न फरमाते। इसलिए सूत्र में निर्देश किये हुए पदार्थोंके सिवाय अन्य किसी पदार्थमें जीवोंकी उत्पत्ति नहीं होती, यह यात स्पष्ट प्रतीत होती है। अथवा यदि भाषण करते समय निकले हुए थोड़ेसे जलकणोंमें जीवोंकी सन्वेस चेव असुइटाणेमु ४ व्यर्थ मने मसात गये, ते परत य) ગયા. કારણ કે શિષ્યની પૂર્વોક્ત શંકાનું નિવારણ કરવા માટે એ કથનની भावश्यता . આ અર્થ ભગવાનનાં વચનામાંથી જ નીકળે છે. કારણ કે જે મુખથી નીકળનારા બધા પદાર્થો છત્પત્તિનાં સ્થાને હેત તે સંક્ષેપ કરવાને કેવળ એટલું જ सेहत मुहनिग्गएम सम्वेसु चेव दवेसु मर्थात भुमथा नीना२१ अधा पहाभ भूमि . ५थाय छे. खेलेसु वा तेसु वा पित्तेसु वा से પઆ ભગવાન અલગ અલગ કહા નહિ. તેથી કરીને સૂત્રમાં નિદેશેલા પદાર્થ પ્રદાય અન્ય કઈ પદાર્થમાં છવાની ઉત્પત્તિ થતી નથી. એ વાત સ્પષ્ટ પ્રતીત થાય છે અથવા જે ભાષણ કરતી વખતે નીકળતા થોડા જલકોમાં જીવની Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुसवस्त्रिकाविचारः त्पत्तौ सत्यां भगवता शिष्याणां स्पष्टपतिपत्तये- "खेलेसु वा वंतेसु वा" इत्यादिवत् " मुहजलकणेसु वा” इति वाक्येन तेऽपि पृथक्कृत्य निर्देष्टव्याः स्युः, इति मुखनलकणानां भगवदनुक्तत्वान्न तत्र जीवोत्पत्तिर्मवतीति निश्चीयते । इदमत्र तत्वम्- शिष्याणां जीवोत्पत्तिस्थानप्रतीति विना सम्यक् संयमपालनं न स्यादिति हेतोः स्पष्टीकृत्य सकलानि संमूच्छिमजीवोत्पत्तिस्थानानि बोधयितुं भगवता तत्तनामनिर्देशप्रयत्नोऽङ्गीकृतः, साफल्येन संमृच्छिमजीवोत्पत्तिस्थानपरिगणनतात्पर्याभावे तु भगवान्-" सब्वेसु चेव असुइहाणेसु" इत्येव व्रयात् , उच्चारप्रस्रवउत्पत्ति होती तो शिष्योंको स्पष्ट योध करानेके लिए भगवानने जैसे 'खेलेसु वा तेसु वा' इत्यादि अलग अलग नाम गिनाये हैं वैसे ही "मुहजलकणेसुवा" ऐसा और एक सूत्रपाठ रख देते। अतः निश्चित है किमुखसे निकलने वाले जलकणोंमें संमूच्छिम जीव उत्पन्न नहीं होते, क्योंकि भगवान्ने उसे जीवोत्पत्तिका स्थान नहीं बताया है । तात्पर्य यह है कि... शिष्य जबतक यह न जानलें कि जीवोंके उत्पत्तिस्थान कौन कौन है ? तब तक संयमका सम्यकमकार परिपालन नहीं कर सकते। इसीसे भगवान्ने जीवोत्पत्तिके स्थानोंका खुलासा ज्ञान करानेके लिए अलग अलग नाम गिनाये हैं। यदि संमूच्छिम जीवोंकी उत्पत्तिके सय स्थान गिनानेका मतलय न होता तो सिर्फ 'सब्वेसु चेव असुइट्टाणेसु'(अशुचि ઉત્પત્તિ થતી હતી તે શિબેને સ્પષ્ટ બધ કરાવવાને ભગવાને જેમ વા वतेस वा त्या असर मस नाम भाव्या छ तभ मुहजलकणेसु वा सेवा એક વધારે સૂત્રપાઠ રાખે છે. તેથી કરીને નિશ્ચિત છે કે મુખથી નીકળનારાં જલકમાં સંમૂછિમ જીવ ઉત્પન્ન થતા નથી, કારણ કે ભગવાને એને જીત્પત્તિનું સ્થાન બતાવ્યું નથી. • તાત્પર્ય એ છે કે જ્યાં સુધી શિષ્ય જાણી ન લે કે જીનાં ઉત્પત્તિ સ્થાન કયાં કયાં છે, ત્યાં સુધી તે સંયમનું સમ્યફ પ્રકારે પરિપાલન કરી શકતું નથી. તેથી ભગવાને ઉત્પત્તિનાં સ્થાનેનું ખુલાસાથી જ્ઞાન કરાવવાને અલગ અલગ નામે ગણાવ્યા છે. જે સંમૂર્ણિમ જીવની ઉત્પત્તિનાં બધાં સ્થાને ગણાવવાની ___ मतदाम न डात तो भात्र सन्वेसु चेव असुइटाणेसु (अशुथिनां मां स्थानोमा) Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५८ श्रीदवैकालिको णादीनामप्यचिस्थानतयैव ताशनीवोत्पत्तिस्थानत्वप्रतीतिसिद्धेः, तया च तत्तदशचिस्थाननिर्देशस्य चैयापत्तिः । जीवोत्पत्तिस्थानपरिगणनतारपाङ्गीकारे तु कियत्स्वशुचिस्थानेषु संमूच्छिमनीया उत्पधन्ते ? इति निनासोपशमो न स्यादिति तत्तदशुचिस्थाननिर्देशस्य नानर्थक्वं, प्रत्युताऽऽवश्यकतया सार्यक्यमेव, अतएव " उपस्थियिनिग्गएसु दन्वेसु वा" (उपस्थेन्द्रियनिर्गतेषु द्रव्येषु) इत्यनुक्त्वा पुन: पुन:-" पासवणेसु वा सुफेसु वा सुकपुग्गलपरिसाडेसु वा सोणिएसु वा थीपुरिससंजोगसु वा" इति तत्तन्नाम्ना भगवानुपादिशन् । के सब स्थानॉम) इतना ही कह देते। क्योंकि उचार प्रस्रवण आदि.सभी अशुचिस्थान होनेके कारण संमृच्छिम जीवॉकी उत्पत्तिके स्थान है, यह यात प्रतीतिसे सिद्ध है। ऐसी अवस्थामें अलग-अलग नाम गिनाना अकारथ हो जायगा। अगर ऐसा माने कि जीयोंकी उत्पत्तिके स्थान गिनानेका मतलब है तो जिज्ञासु शिष्योंका सन्देह तय तक दूर नहीं हो सकता जब तक उन्हें साफ न बता दिया जाय कि किन-किन जगहोंमें संमूच्छिम जीवोंका जन्म होता है। इसलिए अलग-अलग गिनाना वृथा नहीं है, किन्तु आवश्यक होनेसे सार्थक है, इसी कारण "उवधिदियनिग्गएतु वा" (उपस्थेन्द्रियनिर्गतेपु) ऐसा न कहकर पारंवार 'पासवणेसुवासुक्केसु वा सुक्कपुग्गलपरिसाडेसु वा सोणिएसु वा थीपुरिससंजोएसुवा" इस प्रकार हरेकका अलग-अलग नाम गिना कर भगवान्ने कथन किया है । ऐसा कथन न करते तो यह संशय बना रहता એટલું જ કહી દેત. કારણ કે ઉચાર પ્રસવણ આદિ બધાં અશુચિસ્થાને ડિવાને કારણે સંમૂછિન છની ઉત્પત્તિનાં સ્થાન છે, એ વાત પ્રતીતિથી સિદ્ધ છે એવી સ્થિતિમાં અલગ અલગ નામે ગણાવવા અહેતુક થઈ જાય. અગર એમ માનો કે જેની ઉત્પત્તિનાં સ્થાને ગણવવાની મતલબ છે તે જિજ્ઞાસુ શિખ્યાન સંદેહ ત્યાં સુધી દૂર નહિં થઈ શકે કે જ્યાં સુધી તેમને સાફ ન બતાવી દેવામાં આવે કે કઈ કઈ જગ્યાઓમાં સંમછિમ જીવને જન્મ થાય છે. તેથી કરીને અલગ અલગ ગણવવું એ વૃથા નથી, કિન્તુ આવશ્યક હોવાથી સાર્થક છે. એ गरी उपस्थिदियनिग्गएर वा (उपस्थेन्द्रियनिर्गतेषु) सेभ न त पार वार पासवणेमुवा मुक्कम बामुकपुग्गलपरिसाडेसु वा सोणिएमुवा थीपुरिससंजोएसु वा એ રીતે દરેકનાં અલગ અલગ નામે ગણાવીને ભગવાને કથન કર્યું છે એવું ન ન કરત તે એ સંશયે પડત કે સ્ત્રી-પુરૂષના સંગ વિના કેવળ શુક્રણિત Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुखत्रत्रिकाविचारः ५९ अन्यथा " स्त्रीपुरुषसंयोगातिरिक्तेषु केवलशुक्रशोणितादिषु संमृच्छिमजीवा उत्पद्यन्ते न वा ? " इति संशयानपगमे सति मुनीनां संयमपालनं संकटापन्नं स्यादिति । वस्तुतस्तु भाषणकाले मुखोत्पतितानां जलकणानामशुचित्वमेव निर्मूलतया दुर्वचम्, शास्त्रे प्रज्ञापनामुत्रो के प्रचारादिष्वेवाश्शुचिशब्दप्रयोगदर्शनात्, मुखोत्पतितteaणार्थे तत्मयोगानुपलब्धेय, तथाहि व्यवहारसूत्रभाष्ये तृतीयोदेश के 46 दव्वे भावे असुई भावे आहारवंदणादीहिं" इत्यादिगाथा-(२८६) व्याख्यानावसरे..." अशुचिर्द्विधा द्रव्यतो भारतथ, तत्र योऽशुचिना लिप्तगात्री - कि स्त्रीपुरुष संभोगके सिवाय केवल शुक्र शोणित आदिमें संमूच्छिम जीव उत्पन्न होते हैं या नहीं ? इस प्रकारके सन्देह से मुनियोंको संयमपालन करना मुश्किल हो जाता । वास्तवमें मुखसे निकलने वाले जलकणोंको अशुचि कहना ही खोटा है, क्योंकि शास्त्र में प्रज्ञापनासूत्रोक्त उच्चार आदि ही 'अशुचि' शब्द से कहे गये हैं, और मुखसे निकलने वाले जलकणके अर्थमें 'अशुचि' शब्दका प्रयोग नहीं पाया जाता। व्यवहारसूत्रके भाग्य में, तीसरे उद्देशमें "दव्वे भावे असुई " इत्यादि २८६ वीं गाथाका व्याख्यान करते समय कहा हैअशुचि दो प्रकारकी है (१) द्रव्य अशुचि और (२) भाव अशुचि । जिस व्यक्तिका शरीर अशुचिसे लिप्त हो अथवा जो विष्ठाका त्याग - આદિમાં. સમૂમિ જીવે ઉત્પન્ન થાય છે કે નહિ ? એ પ્રકારના સદેહથી મુનિએને સંચમ પાલન કરવાનું મુશ્કેલ થઇ પડત. વાસ્તવમાં મુખમાંથી નીકળનારા જળકણાને અચિ કહેવા એ પ્લેટુ છે, કારણ કે શાસ્ત્રમાં પ્રજ્ઞાપનાસૂત્રકત ઉચ્ચારાńદન જ અશુચિ શબ્દી એળ વામાં આવ્યાં છે અને મુખમાથી નીકળનારા જકણના અર્ધમાં અશુચિ શબ્દને પ્રત્યેાગ મળી આવતે નથી. વ્યવહાર સૂત્રના ભાષ્યમાં, શ્રીા ઉદ્દેશમાં વે માવે અરે ઇત્યાદિ ૨૮૬ મી ગાયાનુ વ્યાખ્યાન કરતી વખતે કહ્યું છે. अशुचि मे अारनी छे : (१) द्रव्य शमशुथि अने (२) भाव अशुभि ने વ્યકિતનું શરીર અશુચિથી લેપાયલ હાય અથવા જે વિશ્વાના ત્યાગ કરીને (જાજરૂ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकर यो वा पुरीपात्राज्य पुती न निर्लेपयति स द्रव्यतोऽशुचिः" इत्युक्तम् , किञ्च-"दल्वे भावे असुई दव्चमि विद्यमादिलितोउ।" इत्यादिगाया(२८७) व्याख्यानावसरे " अशुचिर्दिधा द्रव्ये मावे च, तत्र द्रव्ये विटादिना लिप्तः, आदिशब्दान्मूत्रश्लेप्मादिपरिग्रहः " इत्यमिहितम् । प्रज्ञापनास्त्रोक्ता उच्चारादय एवाशुचिपदस्यार्य इत्याशयेनेव मकते द्रव्यभावभेदेन द्विधा विभागिते. ऽप्यचिपदार्थे मुखनिर्गतविमुपामनुपादानं कृतम् । आवश्यकसूत्रे बन्दनाख्यतृतीयाध्ययने एकादशाधिकैकशततम-( १११ ) गायाव्याख्यायां हरिभद्रसू. रिणाऽप्यचिस्थानशब्दस्य विद्मधानस्थानार्थकत्वमुक्तम् । एवमेव दर्शनशुद्धिः करके (टही जाकर ) मलद्वार नहीं धोता उस व्यक्तिको द्रव्यस अशुचि कहते है, इत्यादि। . तथा इसी व्यवहार भाष्यके तीसरे उद्देशेकी ‘व्वे भावे असुई दव्वंमि विट्ठमादिलित्तो उ" इस २८७ ची गाथाकी व्याख्या करते समय टीकाकारने कहा है-विष्ठाआदिसे लिमको द्रव्य अशुचि कहते हैं । यहाँ आदि शब्दसे मूत्र और श्लेष्म आदिको ग्रहण करना चाहिए, ऐसा कहा है । प्रज्ञापनासूत्र में कहे हुए उचार आदि ही अशुचि पदका अर्थ है, इसी आशयसे प्रकृतमें द्रव्य भावका भेद कर देने पर भी अशुचि पदार्थों में मुखसे निकलने वाले जलकणोंका ग्रहण नहीं किया है। आवश्यकसूत्रके वन्दनानामकतीसरेअध्ययनमें हरिभद्रसूरिने १११वीं गाथाकी व्याख्या करते समय अशुचि शब्दका अर्थ विप्रधान स्थान જઇને) મળદ્વાર નથી તે એ વ્યકિતને દ્રવ્યથી અશુચિ કહે છે, ઈત્યાદિ. ___तथा-मे व्यपहारसूत्र मायनी दवे भावे असई दमि विद्यमादिलित्तो उ એ ૨૮૭ મી ગાથાની વ્યાખ્યા કરતી વખતે કહ્યું છે– વિષ્કાઆદિથી લિખને દ્રવ્ય અશુચિ કહે છે. અહીં “આદિ” શબ્દથી મૂત્ર અને શ્લેષ્મ આદિનું ગ્રહણ કરવું જોઈએ એમ કહ્યું છે. પ્રજ્ઞાપનાસૂત્રમાં કહેલા ઉચ્ચાર આદિ જ અરુચિ શબ્દને અર્થ છે, એ આશયથી પ્રકૃતમાં દ્રવ્યભાવને ભેદ કરતાં છતાં પણ અશુચિ પદાર્થોમાં મુખથી નીકળતા જળકને ગ્રહણ કર્યા નથી. આવશ્યક સૂત્રના વંદના નામક ત્રીજા અધ્યયનમાં હરિભદ્ર સૂરિએ ૧૧૧ મી ગાથાની વ્યાખ્યા કરતાં અચ શબ્દને અર્થ વિધ્ધધાન સ્થાન ક- ન Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ मुखवत्रिकाविचारः .६१ , 6 नामके ग्रन्थेsपि प्रतिपादितम् । उत्तराध्ययनसूत्रे एकोनविंशेऽध्ययने द्वादशगाथाव्याख्यायां भावविजयगणिनाऽपि-"अशुचिभ्यां=शुक्रशोणिताभ्यां संभवम्= - उत्पन्नम् अशुचिसम्भवम् " इत्युक्तम् । तत्रैव कमलसंयमोपाध्यायेनापि सर्वार्थसिद्धिटीकायाम्-" अशुचिसम्भवम् = अशुचिरूपशुक्रशोणितोत्पन्नम् " इति व्याख्यातम् सूत्रकृताङ्गे द्वितीयश्रुतस्कन्धे द्वितीयाध्ययने नरकवर्णने पटूपष्टितम(६६) सूत्रे अई' इत्यस्य टीकायाम्-" अशुचयो विष्टाक्लेदमधान"त्वात् " इति शोलाङ्गाचार्येण कथितम् । छेदः प्रस्वेदः ( पसीना ) इति हिन्दी - 'शब्दसागरकोशः । स च मुखजलाद्भिन्न इत्पतिरोहितमेव सर्वेषाम् । मस्वेदेऽपि किया है | दर्शनशुद्ध नामक ग्रन्थमें भी ऐसा ही प्रतिपादन किया है। उत्तराध्ययन सूत्रमें उन्नीसवें अध्ययनकी चारहवीं गाधाकी व्याख्या करते समय भावविजयगणिने कहा है- "अशुचिभ्यां शुक्रशोणिताभ्यां संभवम्= उत्पन्नम् अशुचिसंभवम्।" इसी सूत्रकी सर्वार्थसिद्धि नामक टीकामें कमलसंयम उपाध्यायने ऐसा व्याख्यान किया है-" अशुचिसंभवम्=अशुचिरूप-शुक्रशोणितोत्पन्नम् । सूत्रकृता वितीय श्रुतस्कन्धके द्वितीय अध्ययनमें नरकके वर्णनमें ६६ वे सूत्र 'सुई' पदकी टीकामें शीलाङ्गाचार्य ने कहा है"अशुचयो विष्ठाट+लेदप्रधानत्वात् । " यहाँ क्लेद पसीनाको कहा है। यह बात सबको विदित ही है कि मुखसे निकलने वाले जलकण और पसीना एक नहीं हैं दोनों अलग-अलग हैं। पसीनेमें भी संमूच्छिम जीव उत्पन्न नहीं होते, क्योंकि संमूच्छिम जीवोंके उत्पत्ति-स्थानों की गिनती શુદ્ધિ નામક ગ્રંથમાં પણ એવું જ પ્રતિપાદન કર્યું છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રમાં ૧૯ મા અધ્યયનની બારમી ગાથાની વ્યાખ્યા કરતાં ભાવિજયર્ગાણુએ કહ્યું છે કેअशुचिभ्यां = शुक्रशोणिताभ्यां संभवम् = उत्पन्नम् अशुचिसंभवम् । या सूत्रनी સર્વાર્થસિદ્ધિ નામક ટીકામાં કમલસચમ ઉપાધ્યાયે એવું વ્યાખ્યાન કર્યું. છે કે अचिभम्=अशुचिरूप-शुक्रशोणितोत्पन्नम् । સૂત્રકૃતાંગ સૂત્રમાં દ્વિતીય શ્રુતસ્કંધના બીજા અધ્યયનમાં નરકના વર્ણનમાં हद्दू भा सूत्रभां असई शण्डनी टीअमां शीसांगायार्थे धुं छेडे अशुचयो त्रिष्ठाटकक्लेदमधानत्वात् | यही उसे पसीनाने उद्यो छे से वात सौ नये हे भुथी નીકળતા જળકણુ અને પસીને એક નથી-બેઉ જૂદા જૂદા છે. પસોનામાં પણુ સમૂમિ જીવે ઉત્પન્ન થતા નથી, કારણુ કે સમિ જીવેનાં ઉત્પત્તિ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ श्रीदशवकालिकसूत्रे न समूच्छिमनीयोत्पत्तिः, तत्परिगणने तस्यानुक्तस्वाद । पिण्डनियुक्तौ च पूतिक मंदोषभेदस्य द्रव्यपृतेरुदाहरणे अशुचिगन्धन्दम्य पुरीपगन्धार्थवलं निगदितम् । मानवधर्मशास्त्रेऽपि भापणकालिपमुखोद्गतविमुपांमध्यत्वमेवोक्तं नलचित्वं, यथा मनुस्मृती पञ्चमाध्याये__ " मक्षिका विमुपाया, गौरवः सूर्यरश्मयः । रजो भूर्वायुरमिन, स्पर्श मेध्यानि निर्दिशेत् ॥ ५॥" १३३ ।।इति । किञ्च दोरकाश्रयणमेव हिसानिदानं मत्वा हस्तेन गिरःपवादागे अन्धिदा नेनवा मुखयस्त्रिकां धारयताऽपि भापणकालिकमुखोत्पतितजलकणेपुसंमृच्छिमनी वोत्पत्तिस्थानत्वाभावोपपादनाय प्रकृतोपानानि प्रमाणान्यवश्यं शरणीकरणीयानि, करते समय भगवान्ने पसीना नहीं कहा है। पिण्डनियुक्तिमें पूतिकर्मदोपके भेद द्रव्यपूतिके उदाहरणमें 'अशुचिगन्ध' शब्दको विष्ठा-गन्ध वाले अर्थमें प्रयोग किया है। मानवधर्मशास्त्र में भापण करते समय निकलने वाले जलकर्णाको अशुचि नहीं कहा है । मनुस्मृति पाँचवाँ अध्याय “मक्षिका विग्रुपश्छाया, गौरश्वः सूर्यरश्मयः। रजो भूर्वायुरग्निश्च, स्पर्शे मेध्यानि निर्दिशेत् ॥" १३३ । डोरा धारण करनेको ही हिंसाका कारण मान कर हाथसे अथवा सिरके पीछे गांठ लगा कर मुखस्त्रिका धारण करने वालोंको भी इन प्रमाणोंकी शरण लेनी चाहिए; जो यह बतानेके लिए यहाँ दिये गये ह कि भापण करते समय मुखसे निकलने वाले जलकणोंमें संमूच्छिम जीव સ્થાનેની ગણત્રી કરતી વખતે ભગવાને પસીને કહેલું નથી. પિંડનિર્યુક્તિમાં પૂતિકર્મષના ભેદ દ્રવ્યપૂતિના ઉદાહરણમાં રાધિ શબ્દને વિષ્ઠા-ગંધવાળી અર્થમાં પ્રયોગ કર્યો છે. માનવધર્મશાસ્ત્રમાં ભાષણ કરતી વખતે નીકળતા જળકને અશુચિ કહ્યા નથી. મનુસ્મૃતિના પાંચમા અધ્યાયમાં કહ્યું છે – मक्षिका विषुपश्छाया, गौरवः सूर्यरश्मयः। रजो भूर्वायुरग्निश्च, स्पर्श मेध्यानि निर्दिशेत् ॥१३३॥ • દરે ધારણ કરવાને જ હિંસાનું કારણ માનીને હાથથી અથવા શિરની પાછળ ગાંઠ વાળીને મુખવસ્ત્રિકા ધારણ કરનારાઓએ પણ આ પ્રમાણેનું શરણ લેવું જોઈએ. જે એ બતાવવાને માટે અહીં આપવામાં આવ્યાં છે કે–ભાષણ કરતી વખત મુખથી નિકળતા જલકમાં સંમૂર્ણિમ જીવ ઉત્પન્ન નથી થતા, અન્યથા વ્યાખ્યાન Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन गाः १ मुखवस्त्रिकाविचारः अन्यथा तेपामपि धर्मोपदेशकाले द्वित्रहोरापर्यन्तं भापणे मुखोपरि मुखवत्रिकाधारणस्याऽऽवश्यकतया तत्र मुखोत्पतितजलकणेरास्तापत्तिर्वारयितुमशक्यैव, लोके हि अनाटतमुखेन पुस्तकं पठतां परं प्रति ब्रुवतां च मुखविमुषः पुस्तके परदेहे च पतन्त्यो लक्ष्यन्ते, पुनः समीतरवर्तिमुखवत्रिकायां न ताः पतिप्यन्तीति कल्पना किं दुराग्रहं नावेदयेदित्यलम् । नन्वेवं सूक्ष्मव्यापिसम्पातिमवायुकायादिजीवविराधनापरिहारार्थमेव यदि सदा सदोरकमुखवस्त्रिकाबन्धने सावधानता विधीयते तर्हि भोजनकाले तदपसारणावश्यकतया कथं तादृशजीवचिराधनापरिहारः ?, इति चेचित्तमवधेहि । उत्पन्न नहीं होते। अन्यथा धर्मोपदेश देते समय वे दो-दो तीन तीन घण्टे बोलते हैं उस समय मुखवस्निका धारण करना आवश्यक होनेके कारण मुखसे निकलने वाले जलकणोंसे मुखवत्रिका गीली हो जायगी और इस आपत्ति का निवारण करना शक्य नहीं है। लोकमें खुले मुंह पुस्तक पढनेवालोंके तथा दूसरोंसे वार्तालाप करने वालोंके मुखसे जलकण निकल कर पुस्तक पर तथा दूसरेकी देह पर 'गिरते हुए देखे जाते हैं। फिर मुखके पास ही रहनेवाली मुखवत्रिका पर कण नहीं गिरेंगे, ऐसी कल्पना करना दुराग्रहको ही प्रगट करता है। प्रश्न-सूक्ष्म, व्यापी, संपातिम तथा वायुकाय आदि जीवोंकी विरा‘धनासे बचने के लिए ही यदि सदा डोरा सहित मुखस्त्रिका बाँधनेमें 'सावधानी रखी जाती है तोभोजन करते समय उन जीवोंकीविराधनासे कैसे बच सकते हैं? क्योंकि उस समय मुखवत्रिकाखोल लेना आवश्यक है। વાંચતી વખતે બે ત્રણ-ત્રણ કલાક સુધી બોલે છે, ત્યારે મુખવઝિકા ધારણ કરવી આવશ્યક હોવાથી મુખથી નીકળતા જલકથી મુખવઝિકા ભીની થઈ જશે અને એ આપત્તિ નિવારવાનું શકય નથી. લોકોમાં ખુલે મુખે પુસ્તક વાંચનારના તથા બીજાઓ સાથે વાર્તાલાપ કરનારના મુખમાંથી જલકણ નીકળીને પુસ્તક પર તથા બીજાના શરીર પર પડતા જોવામાં આવે છે. તે પછી મુખની પાસે જ રહેનારી મુખવસ્ત્રિકા પર કણ નહિ પડે, એવી કલ્પના કરવી એ દુરાગ્રહને પ્રકટ કરે છે. પ્રશ્નસૂમ, વ્યાપી, સંપતિમ તથા વાયુકાર્ય આદિ ની વિરાધનાથી ચવાને માટે જ છે સદા દોરા સાથે મુખસ્ત્રિકા બાંધવામાં સાવધાની રાખવામાં આવે છે તે ભજન કરતી વખતે એ જીવોની વિરાધનાથી કેવી રીતે બચી 'શકાય? કારણ કે એ વખતે મુખવસ્ત્રિકા છેડી નાંખવાની જરૂર પડે છે. Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - श्रीदशवकालिको ____ अत्रैव चतुर्याध्ययने- "जयं भुजतो भासंतो पावं कम्मं न बंधा" इति भगवताऽभिहितम् , मागुक्तरीत्या मुखयस्त्रिकारन्यनस्याऽऽवश्यकत्वेऽपि तदपसारणमन्तरेण 'मुंजतो' इति पदयोध्याया भोजनक्रियाया अनुपपत्या भोजनकाले मुनिना मुखवत्रिका मोचनीयेति गम्यते, अत एवात्र-'जयं भुंजनो' इत्यस्य यथाकल्पलब्धान्तमान्तावाशनं मण्डलदीपवर्जनपूर्वकमभ्यवहरमाण' इत्येवाशयो न तु मुखात्रिकां पचैव भुजान इति, तथा चोक्तयतनापूर्वकमोजनकाले मुखवस्त्रिकापसारणमागमानुकूलमेति न तस्य पापकर्मवन्धन हेतुत्वम् , अनेनेवाऽऽ. १ 'पूर्वोक्तप्रमाणानुसारेण ' इत्यर्थः । उत्तर-चित्त लगाकर सुनो। इसी (दसवैकालिक) के चौथे अध्ययनमें भगवान्ने कहा है "जयं भुजंतो भासंतो पावं कम्मं न पंधह" अर्थात् यतनापूर्वक आहार करने और भापण करनेसे पापकर्मका पन्ध नहीं होता है। पहले कहे गये प्रमाणोंसे मुखवत्रिका यांधना सिद्ध होने पर भी उसके निकाले विना 'भुंजतो' पदसे योध्य भोजनक्रिया नहीं हो सकती। इससे ऐसा तात्पर्य निकलता है कि भोजन करते समय मुनिको मुखबखिका हटा देनी चाहिये । अतः 'जयं भुंजतो" पदका " कल्पके अनुसार प्रास हुआ अन्त प्रान्त आदि आहार मण्डलदोपोंका त्याग करके भोगता हुआ" ऐसा अर्थ समझना चाहिए। ऐसा नहीं कि मुखपत्रिका बाँधे-बाँधे आहार करे। अत एव उक्त-यतना-पूर्वक भोजनकालमें मुखवत्रिका त्याग देना आगमके अनुकूल है, अतः उससे पापकर्मका बन्ध ઉત્તર-ચિત્ત રાખીને સાંભળે. એના (દશવૈકાલિકનીજ ચોથા અધ્યયનમાં भगवान युछे जयं भुंजतो भासंतो पावं कम्मं न घंधइ मत यतनापूर આહાર કરવાથી પાપકર્મને બધ થતું નથી. પૂકત પ્રમાણેથી મુખવઅકા બાંધવી એ બિદ્ધ થયા છતાં પણ એને કાઢી નાંખ્યા વિના મુંતો શદથી બેધ્ય ભેજને ક્રિયા થઈ શકતી નથી. તેથી એવું તાત્પર્ય નીકળે છે કે ભજન કરતી વખતે, નિએ મુખવઝિકા હટાવી દેવી જોઈએ. એટલે બધે મુંનેતો પદનો અર્થ “ક૯૫ને અનુસાર પ્રાપ્ત થએલો અંત પ્રાંત આદિ આહાર મંડલ-દેનો ત્યાગ કરીને ભગવત” એ પ્રમાણે સમજવું જોઈએ. એમ ન સમજવું જોઈએ કે મુખવશ્વિકા બાંધી રાખીને આહાર કરે. એટલે ઉત-ચતનાપૂર્વક ભજનકાળમાં મુખસ્વિકાને ત્યાગ કરવો એ આગમને અનુકૂળ છે, તેથી પાપકર્મને બંધ થતું નથી - - - Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गां. १ मुखवस्त्रिकाविचारः शयेन च-" पावं कम्मं न बंधह" इत्युक्तं भगवता । एवं च भगवतीर्थङ्करगणधरादिवचनपोलोचनेन निरवशेषसंशयतिमिरापगमपुरस्सरं प्रकाशमाने मानसे वायुकायादिविराधनापरिहाराय सदोरकमुखवत्रिकावन्धनं सादादं स्थानमासादयति । रागद्वेपदोपाकलितचेतसां भगवद्वचनामृतरसास्वादयश्चितानां विविधसंशयपराहते चेतसीममथै दुर्लक्ष्यमभिलक्ष्य हस्तदुप्पाप्यमर्थमाकलयितुं सोपानमिवालम्बनं तेभ्यः पुरस्कर्तुं सममाणमेतत् सम्यगुपपादितम् । नहीं होता। इसी आशयसे भगवान्ने ‘पावं कम्मं न घन्धइ ' कहा है। इस प्रकार भगवान् तीर्थङ्कर गणधरादिकोंके वचनोंकी पर्यालोचना करनेसे सकलसंशयरूप अन्धकारके दूर हो जानेके कारण प्रकाशमान ऐसे हृदयमें चायुकाय आदिकी विराधनाका दोप टालनेके लिए दोरासहित मुखवस्त्रिकाका बान्धना आल्हादपूर्वक स्थानको धारण करता है। रागदेपरूपी दोपसे दूषित भगवद्वचनामृतके रसास्वादसे वञ्चित पुरुषोंके अनेक दुर्विकल्पोंसे पराहत हुए चित्तमें इस अर्थको दुर्लक्ष्य समझकर उनके लिए हाथसे न प्राप्त होनेवाली वस्तुकी प्राप्तिके लिए सोपान (सीढी) की तरह आलम्बन अगाडी रखकर यह सब सप्रमाण प्रतिपादित किया गया है। मे माशयथा मापाने पावं कम्मं न वंधइ युं छे. એ પ્રકારે ભગવાન તીર્થકર ગણધરાદિનાં વચનની પાચન કરવાથી સકલ સંશયરૂપ અંધકાર દૂર થઈ જવાને લીધે પ્રકાશમાન એવા હૃદયમાં, વાયુકાય 'આદિની વિરાધનાને દેવ ટાળવાને માટે દેરાસહિત મુખવસ્ત્રિકાનું બાંધવું તે આહલાદપૂર્વક સ્થાનને ધારણ કરે છે. રાગદ્વેષ રૂપી દેવથી દૂષિત, ભગવદુવચનામૃતના રસાસ્વાદથી વંચિત એવા પુરૂના અનેક દુર્વિકથી પરાહત એવા ચિત્તમાં આ અર્થને દુર્લક્ષ્ય સમજીને તેમને માટે હાથથી ન પ્રાપ્ત થનારી વસ્તુની પ્રાપ્તિ માટે સંપાન (સીડી)ના જેવું આલંબન આગળ રાખીને આ બધું સપ્રમાણ પ્રતિપાદિત કરવામાં આવ્યું છે. Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदनवैकासिक अअ प्रमाणतयोपन्यस्तग्रन्थनामानि विनेययुद्धिवेमल्याय निर्दिश्यन्ते(१) श्री-भगवतीमूत्रम् । (१५) निशीयसूत्रम् । (२) हितशिक्षारासः । (१६) वृहत्तत्पमाप्यम् । (श्रावकपमदासकृतः) (१७) व्यवहारमाप्यम् । (३) हरिवलमच्छीरास: (१८) आचाराणसूत्रम् । - (मुनिलब्धिविजयकृतः) (१९) विपाकसूत्रम् । (४) योगशास्त्रम् (हेमचन्द्राचार्य) (२०) सामाचारी । (५) ओपनियुक्तिः । (देवचन्द्रमरिकता) (६) प्रवचनसारोद्धारः । (२१) मज्ञापनासूत्रम् । (७) प्रकरणरत्नाकरः । (२२) भावप्रकाशः। (१०) उत्तराध्ययनसूत्रटीकाः ३ (२३) मुश्रुतसंहिता । (१) सर्वार्थसिद्धिटीका। (२४) योगचिन्तामणिः । (२) भावविजयकृतत्तिः । (२५) माधवनिदानम् । (३) पाईटीका । (२६) तिचअकबर । (११) विशेपावश्यकवृत्तिः (२७) शरीरविज्ञानम् । (१२) अन्तकृद्दशाङ्गम् । (२८) मानवधर्मशास्त्रम् । (१३) आवश्यकसूत्रटीका । (२९) पिण्डनियुक्तिः । ( हारिभद्रीया) (३०) सूत्रकृताङ्गम् । (१४) ज्ञाताधर्मकथाङ्गम् । (३१) दशवकालिकसूत्रम् । इति । ॥ इति मुखवत्रिकाविचारः ॥ ___ यहां विनीत शिष्यकी वृद्धिका विकाशके लिए प्रमाणरूपसे दिये गये ग्रन्थोंकी कुछ नामावली संस्कृत टीकामें दी गई है, पाठकगण वहां देख लेवें ॥ ॥ इति मुखवस्त्रिकाविचार ।। * અહીં વિનીત શિષ્યની બુદ્ધિના વિકાસને માટે પ્રમાણુરૂપે આપેલા ની નામાવલી સંસ્કૃતટીકામાં આપવામાં આવી છે, ત્યાંથી પાકિએ ઇ લેવી. ઈતિ મુખવસ્ત્રિકાવિચાર. Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ अध्ययन १ गा. १ तपःस्वरूपम् तपः तपातपति-ज्ञानावरणीयाधष्टविधं कर्म दहतीति तपः, वतु वायाभ्यन्तरभेदाद्विधा, तत्र वाद्य तपः पविधम् , वथा चोक्तम्-~ "अणसणमूणोयरिया, भिक्खायरिया य रसपरिचाओ। कायकिलेसो संलीणया य यज्झो तवो होइ ॥ १ ॥” इति । छाया-" अनशनमूनोदरिका, भिक्षाचर्या च रसपरित्यागः । कायक्लेशः संलीनता च, वाद्यं तपो भवति ॥१॥" (१) अनशन चतुर्थमक्तादिपाण्मासिकान्तं यावज्जीवनं वाऽशेपाहारपरिहारः । तप । जिससे ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्म भस्म हो जावें उसे तप कहते है। वह दो प्रकारका है-(१) बाह्य और (२) आभ्यन्तर । पाए तप छह प्रकारका है___ (१) अनशन, (२) ऊनादरी, (३) भिक्षाचर्या, (४) रसपरित्याग, (५) कायक्लेश, (६) संलीनता । (१) अनशनम् इहलोक परलोक सम्बन्धी कामनारहित चतुर्थभक्त, पष्टभक्त, अष्टमभक्त आदि छहमासी तप पर्यन्त, अथवा यावजीवन संपूर्ण आहारका परित्याग करना अनशन तप कहलाता है। MP त५. જેથી જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ કર્મ ભસ્મીભૂત થઈ જાય તેને તપ કહે છે. ત૫ બે પ્રકાર છે. (૧) બાહ્ય અને (૨) આત્યંતર બાહા તપ છ પ્રકારને -(१) मनन, () नारी, (3) लिक्षाया, (४) सपरित्यार, (५) ४५४३श, (६) संसानt (૧) અનશન–ઈહલોક પરલોક સંબંધી કામના રહિતપણે, ચતુર્થ ભક્ત, ધષ્ઠ ભક્ત, અષ્ટમ ભક્ત (સળંગ એક ઉપવાસ, બે ઉપવાસ, ત્રણ ઉપવાસ) આદિ છ માસી ત૫ સુધી અથવા જીવનપર્યત સંપૂર્ણ આહારનો પરિત્યાગ કર से मनधन-त५ उपाय छ, Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ - श्रीदनवैकालिको (२) ऊनोदरिका यावताऽग्नादिनोदरं परिपूर्यते तत्र फवलमात्रमपि न्यूनयित्वाऽभ्यबहरणम् । (३) भिक्षाचर्या स्वाध्यायाविरोधियथाविधिविशुद्धमिक्षाकृते चरणम् (४) रसपरित्यागः दुग्धादिविकृतित्यागः। (५) कायक्लेशाशीतोष्णादिसहिष्णुत्वं केशलञ्चनं च । (६) संलीनता श्रीपशुपण्डकरदिववसती कर्मवदोपाहाधाकृञ्चनपूर्वकावस्थानम् ।। ' (२) ऊनोदरी-जितने अन्नसे उदरकी पूर्ति हो जाती है उससे एक ग्रास भी कम आहार करनेको ऊनोदरी तप कहते हैं। इससे स्वाध्याप, ध्यान आदि क्रियाएँ अच्छीतरह निभती है। . (३) भिक्षांचर्या जिससे स्वाध्याय, ध्यान आदि क्रियाओम विघ्न न आवे, इसप्रकार शास्त्रानुकूल विधिसे विशुद्ध भिक्षाके लिए पयटन करना भिक्षाचर्या तप कहलाता है। (४) रसपरित्याग द्ध, दही, घृत, तेल, मीठेका त्याग करनेको रस परित्याग कहते हैं। (६) कायक्लेश= शीत, उष्ण आदिकासहन करना, अथवा केशलोच करनेको कायक्लेश तप कहते हैं । (द) संलीनता स्त्री-पशु-पण्डकरहित वसतीमें कछुवेकी तरह अङ्गा पाङ्ग संकुचित करके स्थित होना संलीनता तप कहलाता है। (૨). ઉનેદરી–જેટલા અન્નથી ઉદર ભરાય તેથી એક કેળિયે માત્ર પણ છે આહાર કરે તે ઊદરી તપ કહેવાય છે તેથી સ્વાધ્યાય, ધ્યાન, આદિ ક્રિયાઓને સારી રીતે નિભાવ થાય છે. (3) सिक्षाया-रथी स्वाध्याय, ध्यान माह कियायामा विन न આવે, એ પ્રકારે શાસ્ત્રાનુકૂલ વિધિથી વિશુદ્ધ ભિક્ષા માટે પર્યટન કરવું એ ભિક્ષાચ તપ કહેવાય છે. (૪) રસપરિત્યાગ-દૂધ, દહીં, ઘી, તેલ, મીઠાઈને ત્યાગ કરે એને રસપરિત્યાગ કહે છે, (૫) કાયકલેશ-ટાઢ, તાપ, આદિને સહન કરવાં. અથવા કેશલેચ કર એ કાયકલેશ તપ કહેવાય છે. . (६) सदीनता-श्री-पशु-५-२डित वसतीभi (स्थानमां) यमानी પિઠે અંગે પગ સંકેચીને રહેવું તે સંસીનતા તપ કહેવાય છે. Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ तपःस्वरूपम् आभ्यन्तरमपि तपः पविधं, तथा चोक्तम्-- "पायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। झाणं च विउस्सग्गो एसो अभितरो तवो ।। १ ।। " इति । . . छाया-" प्रायश्चित्तं विनयः, वैयावृत्यं तथैव स्वाध्यायः । ध्यानं च व्युत्सर्गः, एतदाभ्यन्तरं तपः ॥ १॥" तत्र (१) प्रायश्चित्तम् उपचिताऽतीचारशोधनं, यथाऽऽलोचनापतिक्रमणादि । (२) विनया=गुर्वाधाराधनं, यथाऽभ्युत्थानाऽऽसनप्रदानाभिवादनतन्मनोऽनुकूलमवृत्त्यादि । (३) वैयावृत्त्य साधूनामशनपानाधानयनादिना साहाय्यकरणम् । (४) स्वाध्यायः श्रुतधर्माराधनं, सच वाचना-प्रच्छना-परिवर्तनाऽनुमेक्षा-धर्म आभ्यन्तर तपके भी छह भेद है-(१) प्रायश्चित्त, (२) विनय, । (३) वैयावृत्य, (४) स्वाध्याय, (५) ध्यान, (६) व्युत्सर्ग । १. (१) प्रायश्चित्त लगेहुए अतिचारोंकी विशुद्धि करनाप्रायश्चित्ततपहै, जैसे आलोचना, प्रतिक्रमण आदि करना । ___ . (२) विनय गुरु आदिकी आराधना करना विनय है। गुरु आदिके आने पर खड़ा होना, आसन देना, वन्दना करना, उनके मनके अनुकूल प्रवृत्ति करना आदि अनेक प्रकारका विनय होता है । . (३) वैयावृत्य अशन पान आदि लाकर मुनियोंको सहायता पहुंचाना वैयावृत्य (वेयावच्च) तप कहलाता है । (४) स्वाध्याय-भ्रुतज्ञानकी आराधना करनास्वाध्याय है। स्वाध्यायके पांच भेद है--(१) वाचना, (२) पृच्छना, (३) परिचर्तना, (४) अनुप्रेक्षा मान्यत२ सपना ५९ ७ ले छे. (१) प्रायश्चित्त, (२) विनय, (3) क्यापृत्य, (४) स्वाध्याय, (५) यान, (6) व्युत्सर्ग. (૧) પ્રાયશ્ચિત્ત–લાગેલા અતિચારેની વિશુદ્ધિ કરવી એ પ્રાયશ્ચિત્ત તપ છે, જેમકે આચના, પ્રતિક્રમણ વગેરે કરવાં. - (૨) વિનય–ગુરૂ આદિની આરાધના કરવી એ વિનય છે. ગુરૂ આદિ આવે ત્યારે ઊભા થવું, આસન આપવું, વંદના કરવી, એમના મનને અનુકૂળ પ્રવૃત્તિ કરવી વગેરે અનેક પ્રકારે વિનય થાય છે. - (૩) વૈયાવૃત્ય–અશન પાન આદિ લાવીને મુનિઓને સહાય આપવી આદિ વૈયાવૃત્ય (વૈયાવચ્ચ) તપ કહેવાય છે. . (४) स्वाध्याय-श्रुतज्ञाननी माराधना ४२वी से स्वाध्याय छ, स्वाध्यायना पांय सही छ: (१) वायना, (२) छना, (३) परिवर्तना, (४) अनुप्रेक्षा, Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० - - - - - - - - आत 71... Ccn श्रीदनौकालिकम्झे कथाभेदात् पश्चविधः । (५) ध्यानम् एकमात्रायलम्बनेन पवनासंपृक्तदीपशिखाया इच चित्तस्य स्थिरीकरणम् । ____ यद्यपि तचतुर्विधम् आर्त-रोद-धर्म-शृगभेदात , तथापि धर्म-क-लक्षणं द्वयमेवोपादेयं पूर्वद्वयस्य फर्मवन्धहेतुत्वात् । (६) व्युत्सर्गः कायादिसंचालन और (५) धर्मकथा । - शिष्योंको आगम पढ़ानेको 'वाचना' कहते हैं। सद्भावसे संशय दूर करनेके लिए, अथवा तत्त्वका निश्चय करनेके लिए पूंछना पिच्छना कहलाता है। शुद्ध उच्चारण करके चार-चार मनन करना अनुप्रेक्षा' है। धर्मकी चर्चा या उपदेश करनेको 'धर्मकथा' कहते हैं। (६) ध्यानम्वायुके स्पर्श नहीं होनेसे जैसे दीपककी ज्योति स्थिर हो जाती है, वैसेही मनको किसी एक विषयमें स्थिर करलेनेको ध्यान कहते हैं । ध्यान यद्यपि आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल भेदसे चार प्रकारका है, तथापि यहाँ धर्म और शुक्ल ये दो शुभ ध्यान ही उपादेय है, यही दोनों तपमें अन्तर्गत हैं, पहलेके दो अशुभ ध्यान कर्मवन्धनके कारण है। (६) व्युत्सर्ग-काय आदिके व्यापारको, तथा कपाय आदिको त्यागकर उपयोगसहित रहनेको 'व्युत्सर्ग' कहते हैं । भने (५) ५४ा . શિને આગમ ભણાવવા અને પિતે ભણવું એ વાચના કહેવાય છે. સદુભાવે પૂર્વક સંશય દૂર કરવા માટે, અથવા તત્વને નિશ્ચય કરવા માટે પૃચ્છા કરવી પૂછવું એ પૂછના કહેવાય છે. શુદ્ધ ઉચ્ચારણ કરીને વારંવાર આવૃત્ત કરવું ? પરિવર્તન કહેવાય છે ભણેલા અર્થનું વારંવાર મનન કરવું એ અનુપ્રેક્ષા ધર્મની ચર્ચા અથવા ઉપદેશ કરે એ ધર્મકથા કહેવાય છે. (૫) ધ્યાન–વાયુને સ્પર્શ નહિ થવાથી જેમ દીવાની ત સ્થિર રહું છે, તેવી રીતે મનને કોઈ એક અલંબનમાં સ્થિર કરી લેવું એ દયાન કહેવાય છે. ચાન આર્ત, રોક, ધર્મ અને શુકલ એવા ભેદે કરીને ચાર પ્રકાર છે, તે પણ અહીં ધર્મ અને શુકલ એ બે શુભ યાન જ ઉપાદેય છે એ બે યાન તપમાં અંતર્ગત છે, પહેલાં બે અશુભ ધ્યાન કર્મબંધનાં કારણ છે. () વ્યત્સર્ગ–કાયા આદિના વ્યાપારને તથા કષાય આદિને ત્યજીને ઉપગ સહિત રહેવું એ વ્યુત્સર્ગ કહેવાય છે. Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ तपःस्वरूपम् ७१ निवृत्तिपूर्वकसोपयोगावस्थानम् । एवं वाह्याभ्यन्तरभेदेन द्वादशाविधं तपः सिद्धम् । ननु अहिंसा-संयम-तपः-स्वरूपस्य धर्मस्योत्कृष्टमङ्गलले प्रतिपाधते तत्र तपसोऽनशनादिलक्षणदुःखरूपत्वेन मोक्षहेतुत्वं न प्रामोति, तद्धि अशातवेदनीयकर्मोदयात्मकम् , भगवताऽपि क्षुत्पिपासादयः परीपहा वेदनीयकर्मोदयस्वरूपत्वेनाऽभ्यधायिपत । ___कर्मक्षयो हि यद्यपि मोक्षाङ्गत्वेन श्रूयतेऽपि शास्त्रे, कर्मोदयस्य तुन कचिन्मोक्षहेतुत्वं शास्त्रे लोके वा प्रथितम् । एवं सति तस्योत्कृष्टमगलात्मकधर्मरूपत्वकयनमयुक्तम् । इस प्रकार बाह्य और आभ्यन्तरके भेद मिलकर तपके सय पारह भेद होते हैं। . प्रश्न-अहिंसा, संयम और तपरूप धर्मको उत्कृष्ट मंगल बतलाया है, लेकिन अनशन आदि तप भोजन आदिका त्याग करनेसे होते हैं, इसलिए चे दुःख हैं और दुःख मोक्षका कारण नहीं हो सकता, क्योंकि दुःख असातवेदनीय कर्मके उद्यसे होता है। भगवान्ने भी यही प्रतिपादन किया है कि-"क्षुधा पिपासा आदि परिपह वेदनीय कर्मके उदयसे होते हैं।" कर्मका क्षय तो मोक्षका कारण हो सकता है, परन्तु यह कहीं नहीं सुना कि कर्मका उदय भी मोक्षका कारण है । यह बात न किसी शास्त्र में है और न लोकमेंही प्रसिद्ध है, इसलिए जब कि तप, कर्मोदयजन्य होनेसे मोक्षका कारण नहीं हो सकता तो उसे उत्कृष्ट मंगल क्यों એ પ્રમાણે બાહ્ય અને આભ્યતરના ભેદ મળીને તપના એકંદર બાર ભેદ थाय छे. પ્રશ્ન-અહિંસા, સંયમ અને તપ રૂપ ધમને ઉત્કૃષ્ટ મંગલ બતલાવેલ છે, પરંતુ અનશન આદિ તપ ભેજનાદિને ત્યાગ કરવાથી થાય છે, તેથી એ દુખ છે અને દુઃખ મોક્ષનું કારણે થઈ શકતું નથી, કારણ કે દુઃખ અસતાવેદનીય કર્મના ઉદયથી ઉત્પન્ન થાય છે. ભગવાને પણ એમ જ પ્રતિપાદન કર્યું છે કે-“ભૂખ તરસ આદિ પરિવહ વેદનીય કર્મના ઉદયથી જ થાય છે. કમને ક્ષય તે મોક્ષનું કારણ હોઈ શકે છે પરંતુ એવું કયાંય સાંભળ્યું નથી કે કર્મને ઉદય પણ મોક્ષનું કારણ છે. એ વાત કઇ શાસ્ત્રમાં નથી તેમજ લોકમાં પ્રસિદ્ધ નથી, તેથી જે તપ કર્મોદયજન્ય હેઇને મેક્ષનું કારણ થઈ શકતું નથી તે Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कालिकसूत्रे . दुःखरूपत्वेन तपसो मोक्षसाधनत्वस्वीकारे तु व्याधिनाऽऽतुरस्य, राजदण्डेन - तस्करस्य, कशादिघातेनाश्वादेः, दशविधक्षेत्र वेदनया नारकाणां वासोच्छवास - मात्रममितकालेऽपि सार्द्धसप्तदशमितजन्ममरण निमितकाऽनन्तघोर वेदनायुक्तानां - निगोदजीवानां च मोक्षापतिः, तेपामपि भवदभिमतमोक्ष देतुदुःख सद्भावादिति । किञ्चालमेतेन विशेषविचारेण जन्मजरामरणेवियोगाऽनिष्टसंयोगाद्यनेक- विधदुःखयुक्ताः सर्व एव संसारिण इत्यविशेषेण सर्वेषां मोक्षापत्तिः स्यात् । एतदुक्तं भवति तपः समाचरतः क्षुत्पिपासादयः समुद्भवन्ति, तत पलकहा है ?, यदि दुःखरूप तपको मोक्षका कारण मानलिया जाय तो अनेक दोप आते हैं, वे ये हैं कि जो पुरुष रोगसे अत्यन्त पीड़ा पा रहा है उसे मोक्ष होजाना चाहिये, राजदण्ड से दुःख भोगनेवाले चोर डाकुओंको मोक्ष होना चाहिए, घोडोंपर कोड़ोंकी मार पड़ती है, वे दुःखी होते हैं; अतः उन्हें भी मोक्ष मिलना चाहिये। इसी प्रकार, क्षेत्रवेदनासे दुःखी नारकी जीवोंको तथा एक श्वासोच्छ्वास में साढ़े सतरह वार जन्ममरणके अनन्त काल तक दुःख पाने वाले निगोदिया जीवों को मुक्तिकी प्राप्ति होनी चाहिये | अधिक कहां तक कहें ? संसार के समस्त प्राणी जन्म, मरण, इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग आदि भांति-भांति के दुःखों से दुःखी है अत एव सहीको मोक्ष मिलजाना चाहिये, क्योंकि दुःखको यहां मोक्षका कारण माना है । जो अनशन आदि तप करता है उसे क्षुधा पिपासा आदि परिषह તેને ઉત્કૃષ્ટ મંગલ કેમ કહ્યો છે ? જે દુ:ખપ તપને મેક્ષનું કારણ માનવામાં આવે તે અનેક રાષા આવે છે, જેમકે જે પુરૂષ રાગથી અત્યંત પીડા પામી રહ્યો હોય તેને મેક્ષ થઇ જવા જોઈએ, રાજદંડથી દુ:ખ ભેળવવા વાળા ચાર ડાકુઓને મોક્ષ થવા જોઇએ, ઘેાડા પર ચાબૂકને માર પડે છે તેથી તે દુઃખી થાય છે, તેથી તેને પણ મેક્ષ મળવે નેઇએ. એજ પ્રમાણે ક્ષેત્રવેદનાથી દુ:ખી એવા નારકી જવાને તથા એક શ્વાસોચ્છ્વાસમાં સાડી સત્તરવાર જન્મ-મરણનાં દુ:ખે નતકાળ સુધી પામનારા નિગેદિયા જીવોને પણ મુક્તિની પ્રાપ્તિ થવી ये पधारे हो ? भगतनां धां आलीयोन्म भरनो वियोग, અનિષ્ટને સમૈગ વગેરે તરેહ તરેહનાં દુ:ખાથી દુ:ખી છે. એટલે એ અધાંને માક્ષ મળી જવા જોઈએ, કારણ કે દુ:ખને અહીં શૈક્ષના કારણુ રૂપ માન્યા છે. જે અનશન આદિ તપ કરે છે તેને ભૂખ-તરસ આદિ પરિષદ્ધ થાય છે. ७२ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ तपःस्वरूपम् ७३ दुःखम् , एतच चित्तविक्षेपस्य हेतुः, सति च तस्मिन् अप्रशस्तं ध्यानं, तस्माचावश्यं कर्मवन्धः, ततश्च चतुर्गतिकसंसारपरिभ्रमणरूपं महदमङ्गलमिति कथंकथमप्यहिंसासंयमविशिष्टस्यापि तपसो मोक्षहेतृत्वरूपमुत्कृष्टमद्गलत्वं न सम्भवदुक्तिकमिति । - अत्रोच्यते-तपो न तावदुःखात्मकं, दुःखं हि नामाऽशातवेदनीयकर्मोदयविपाकः पीडालक्षण आत्मपरिणामः, तपश्चर्या गर्भिताऽनशनादिव्यापारस्य न पीडात्मकाऽऽत्मपरिणामरूपत्वम् ।। किञ्च तपः पक्षीकृत्य मोक्षसाधनत्वाभावसाध्ये यदुक्तं दुःखरूपत्वसाधनं होते हैं। परिपह होनेसे तीव्र दुःख होता है । दुःखसे चित्तका विक्षेप होता है। चित्तके विक्षेपसे अशुभ ध्यान होता है । अशुभ ध्यानसे कर्मका यन्ध होता है। कर्मवन्धसे चार गतियोंमें भ्रमण करना पड़ता है, इसप्रकार यह बड़ा अमंगल है। जो प्रवल अमंगल है वह अहिंसा और संयमसे युक्त होने पर भी उत्कृष्ट मंगल नहीं हो सकता । अमृतमें विप मिला देनेसे क्या विप अमृत हो सकता है। कदापि नहीं । इसलिए • तपको मोक्षका कारण मानना उचित नहीं है। उत्तर-तपको दुःख कहना युक्त नहीं है, वह दुःखरूप नहीं है। क्योंकि असातावेदनीय कर्मके फलको, जो आत्माका ही एक विभाव परिणाम है, और पीड़ारूप है उसे दुःख कहते हैं। अनशन आदि तप पीडारूप परिणाम नहीं है, अतः उन्हें दुःख नहीं कहा जा सकता। दूसरी बात यह है-शंकाकारने कहा है कि तपमोक्षका कारण नहीं है। क्योंकि वह दुःख है। यहां “तप मोक्षका कारण नहीं" यह પરિપહથી તીવ્ર દુઃખ થાય છે. દુઃખથી ચિત્તને વિક્ષેપ થાય છે. ચિત્તના વિક્ષેપથી અશુભ ધ્યાન થાય છે. અશુભ ધ્યાનથી કર્મ બંધ થાય છે. કર્મબંધથી ચારે ગતિઓમાં પરિભ્રમણ કરવું પડે છે. એ રીતે એ મોટું અમંગળ છે. જે પ્રબળ અમગળ છે તે અહિંસા અને સંયમથી યુક્ત થવા છતાં પણ ઉત્કૃષ્ટ મંગળ થઈ શકતું નથી. અમૃતમાં વિષ મેળવવાથી શું વિષ અમૃત થઈ શકે છે ? કદાપિ નહિ. તેથી તપને મોક્ષનું કારણ માનવું એ ઉચિત નથી. ઉત્તર–તપને દુઃખ કહેવું એ યુક્ત નથી. તે દુઃખરૂપ નથી કારણ કે એ સાતવેદનીય કર્મ કે જે આત્માને જ એક વિભાવ પરિણામ છે અને પીડારૂપ છે, તેને દુઃખ કહે છે. અનશન આદિ તપ પીડારૂપ પરિણામ નથી, તેથી તેને ૬ખ કહી શકાય નહિ. બીજી વાત આ છે શંકારે કહ્યું કે તપ મોક્ષનું કારણ નથી, કારણ કે તે દુઃખ છે; પરંતુ અહીં “તપ મોક્ષનું કારણ નથી” એ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ श्रीदशवेकालिकसूत्रे तदयुक्तं, तस्य दुःखजयरूपत्वेन स्वरूपासिद्धेः । तत्र ( तपसि ) जायमानाः क्षुत्पिपासादयः आत्मनः प्रवर्द्धमानविशुद्धपरिणा मेन विजिताः सन्तः पीडालक्षणं कार्य न जनयन्ति । एतेन क्षुत्पिपासादीनां फर्मोदयस्वरूपत्वेऽपि स्वकार्यकरणाsक्षमता चित्तविक्षेपाजनकत्वं सिद्धम् । प्रतिज्ञा है और "क्योंकि वह दुःख है" यह हेतु है। हेतुका सदा ऐसा ही प्रयोग करना चाहिए जो प्रतिवादीको भी सिद्ध होवे । यदि " वह दुख है " यह हेतु सिद्ध होता तो शंकाकारका साध्य सिद्ध हो सकता, परन्तु वह सिद्ध नहीं है । क्योंकि पहले पतला चुके हैं कि तप दुःख नहीं है। अत एव यह हेतु स्वरूपसेही असिद्ध है । तप दुःखरूप नहीं, बल्कि दुःखको विजय करना तप कहलाता है । अनशन आदि तपसे होनेवाले क्षुधा आदि परियह आत्माके बढ़ते हुए विशुद्ध परिणामसे जीत लिये जाते हैं । क्षुधा दुःख अवश्य है परन्तु उसे तप नहीं कहते, पल्कि क्षुधा पर विजय पानेको तप कहते हैं। garat जीतना दुःख नहीं परन्तु सुख है अत एव तप सुखरूप है। क्योंकि तपश्चर्या करनेवालेको भूखकी परवाह ही नहीं रहती । इसलिए शंकाकारका यह कहना ठीक नहीं है कि तपसे पीड़ा उत्पन्न होती है। इस कथन से यह बात अच्छीतरह सिद्ध हो गई कि क्षुधा आदि परिषह પ્રતિજ્ઞા છે અને “ કારણ કે તે દુ:ખ છે” એ હેતુ છે. હેતુના પ્રયે સદા એવા કરવા જોઇએ કે જે પ્રતિવાદીને મતે પણ સિદ્ધ હેય. જો “ તે દુ:ખ છે” એ હેતુ સિદ્ધ હાત તે શંકાકારનું સાધ્ય સિદ્ધ કરી શકાત, પરંતુ એ સિદ્ધ નથી; કારણ કે પહેલાં બતાવી ચૂક્યા છીએ કે તપ એ દુ:ખ નથી. એટલે એ હેતુ સ્વરૂપથી જ સિદ્ધ છે. તપ દુ:ખરૂપ નથી, ખર્કે દુ:ખ ઉપર વિજય 86 મેળવવા એ તપ કહેવાય છે, અનશન આદિ તપથી થનારા ક્ષુધા આદિ પરિષદ્ધ આત્માના વધતા arti વિશુદ્ધ પરિણામથી છતાઇ જાય છે. ક્ષુધા એ દુ:ખ અવશ્ય છે, પરન્તુ તેને તપ કડી શકાય નહિં, બલ્કે ક્ષુધા પર વિજય પ્રાપ્ત કરવે એ તપ કહેવાય છે. સુધાને જીતવી એ દુ:ખ નથી પરન્તુ સુખ છે એટલે તપ સુખરૂપ છે, કેમકે તપશ્ચર્યા કરનારાઓને ભૂખની પરવા જ નથી હાતી. તેથી શાકાકારનું એ કહેવું બરાબર નથી કે-‘ તપથી પીડા ઉત્પન્ન થાય છે.’ આ કથનથી એ વાત સારી રીતે સિદ્ધ થઈ ગઈ કે સુધા આદિ પરિષદ્ધ વેદનીય કર્મોના ઉદયથી થાય છે પરન્તુ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ अध्ययन १ गा. १ तपःस्वरूपम् अतएव भगवताऽपि क्षुत्पिपासादिपरीपहस्य तपसच पृथक्त्वेन प्रतिपादन विहितम् । - यधनशनादिकं सर्वत्र दुःखात्मकमेव मन्येत तदा-सिद्धानामपि अशनाथग्राहितयाऽनन्तदुःखसद्भावप्रसङ्गः केन वार्येत । एवं च मोक्षमार्गे प्रवर्तकस्य शास्त्रस्य तदुक्तधर्मानुष्ठानस्य च वैयर्थ्यापत्तिः । .. अयं भावः-यथा व्याधितस्य व्याधिपरिनिहीपया स्वयमेव लानादिमवृत्तिः वेदनीय कर्मके उदयसे होते है, परन्तु वे पीड़ा नहीं उत्पन्न कर सकते। और जब उनसे पीड़ा नहीं उत्पन्न हो सकती तो चित्तमें विक्षेप भी नहीं हो सकता। चित्तमें विक्षेप न होनेसे कर्मका बन्ध भी नहीं हो सकता। उल्टा क्षुधा आदिको जीतनेसे कोंकी निर्जरा होती है और आते हुए कमांका निरोध होनेसे संवर भी होता है। इसलिए भगवान महावीर स्वामीने क्षुधा आदि परिपह और तपको अलग अलग कहा है। ___ एक यात और भी है-सिद्ध भगवान् कभी आहार नहीं लेते। यदि अनशनको दुःख मानलिया जाय तो उन्हें भी दुःखी मानना पड़ेगा। जब सिद्ध भी दुःखी होंगे तो मोक्षमार्गकी प्ररूपणा करनेवाले शास्त्र व्यर्थ होजावेंगे, और उन शास्त्रोंके अनुसार की हुई क्रियाएँ भी व्यर्थ जायँगी। क्योंकि दुःखी बननेके लिए कोई बुद्धिमान तैयार नहीं होगा। मतलब यह है कि जैसे अपना रोग दूर करने के लिए रोगीकी स्वयं ही लंघनमें તે પિડા ઉત્પન્ન કરી શકતું નથી. અને જે તેથી પીડા ઉત્પન્ન નથી થતી તે ચિત્તમાં વિક્ષેપ પણ થઈ નથી શકતે, ચિત્તમાં વિક્ષેપ નહિ થવાથી કર્મને બંધ પણ નથી થઈ શકતો. ઉ૮ સુધા આદિને જીતવાથી કર્મના નિર્જરા થાય છે અને આવતાં કને નિધિ થવાથી સંવર પણ થાય છે. તેથી ભગવાન મહાવીર સ્વામી સુધા આદિ પરિવહુ અને તપને જુદાં-જુદાં કહેલાં છે. " એક બીજી વાત એમ છે કે સિદ્ધ ભગવાન્ કદાપિ આહાર લેતા નથી. જે અનશનને દુઃખ માની લેવામાં આવે તે તેમને પણ દુ:ખી જ માનવા પડે. જે સિદ્ધ પણ દુઃખી હેય તે મોક્ષમાર્ગની પ્રરૂપણ કરનારૂં શાસ્ત્ર વ્યર્થ બની જાય, અને એ શાસ્ત્રોને અનુસરીને કરવામાં આવતી ક્રિયાઓ પણ વ્યર્થ થાય, કારણ કે દુખી થવાને કોઈ બુદ્ધિમાન તૈયાર નહિ થાય. મતલબ એ છે કે-જેમ પિતાને રેગ દૂર કરવાને માટે રેગી પિતાની મેળે જ લાંઘણુ કરવામાં પ્રવૃત્ત Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ श्रीववेकालिको मणि-मौक्तिक-मवाल-हेम-हीरक-रजतादीनां घ्यवाणुः स्वयमेव सिन्युतरणगान भयानकवनगमनदुर्गमपथभ्रमणपत्तिः पीडालक्षणात्मपरिणामं न जनयति, अन्यथा हि भतिकूलकर्मणि समुत्साहपूर्वकस्वतःमत्तिनोपपद्यते, क्या मुनयोऽपि वक्ष्यमाणभावनया तपसि पीडां नानुभवन्ति, तथाहि___ इह संसारे (१) स्वतदुप्फतसन्ततियशाग्नरकेषु नारकाः कियन्ती भियन्ते, प्रवृत्ति होती है । अथवा हीरे, मोती, मंगे, सोने, चांदी आदिकी प्राप्तिके लिए मनुष्य, दुस्तर समुद्र तरते हैं, अथवा अपनी इच्छांसे ही मोती आदिकी प्राप्तिके लिए गहरे समुद्र में गोते लगाते हैं। बड़े बड़े गहन और भयानक जंगलोंमें गर्मी आदि अनेक कष्ट उठाते हैं, दुर्गम भागम लाभके लिए घूमते फिरते हैं, फिर भी अपने मनमें उसे दुःख नहीं मानते न पीडाका अनुभव करते हैं, यदि लंघन करनेमें और गोते लगाने आदिम कष्ट मालूम होता तो विना किसीके दवावके अपनी इच्छासे ही उत्साह पूर्वक क्यों प्रवृत्ति करते ? इसी प्रकार मुनिराज भी अपनी आत्माका विशुद्धिके लिए अपने आपही प्रमुदित भावसे अनशन आदि तपस्या करते है । ऐसा करने में उन्हें तनिकभी दुःख नहीं होता। (१) संसारमें अपने किये हुए कमों के कारण कई एक नरकमें जाकर परमाधर्मीद्वारा भाले आदिसे भेदे जाते हैं। कई एक घानीमें तिल या થાય છે અથવા હીરા, મેતી, માણેક, સોનું, ચાંદી અદિની પ્રાપ્તિ માટે મનુષ્ય દુસ્તર સમુદ્રને તરે છે; અથવા પિતાની ઈચ્છાથી જ મતી આદિની પ્રાપ્તિ માટે ઉંડા સમુદ્રમાં ડુબકી મારે છે, મેટાં મોટાં ઘીચ અને ભયાનક જંગલમાં ટાઈ તાપનાં અનેક કષ્ટ ઉઠાવે છે, દુર્ગમ રસ્તાઓમાં લાભને માટે ભટકત કરે છે, તેપણ પિતાના મનમાં તેને દુઃખ માનતું નથી કે પીડાને અનુભવ કરતા નથી; જે લંઘન કરવામાં અને ડુબકી મારવા આદિમાં કષ્ટને અનુભવ થતું હોત તો કેઈએ દબાવ્યા કે આગ્રહ કર્યા વિના પિતાની જ ઈચ્છાથી મનુષ્ય ઉત્સાહ પૂર્વક કેમ પ્રવૃત્તિ કરતી એજ રીતે મુનિરાજ પણ પિતાના આત્માની વિશુદ્ધિને માટે પિતાની મેળે જ પ્રમુદિત ભાવથી અનશન આદિ તપશ્ચર્યા કરે છે. એમ કરવામાં તેને જરા પણ દુઃખ થતું નથી. (૧) જગતમાં પિતાનાં કરેલાં કમેને કારણે કંઈ કઈ જ નરકમાં જઈને પરમાધમી દ્વારા ભાલાં આદિથી છેદાય-ભેદાય છે. કેટલાક ઘામાં તલ અથવા Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ तपास्वरूपम् कियन्तस्तैलयन्त्रे तिलसर्पपादिवनिप्पीडयन्ते, ताम्रादिभाजनवच कियन्तः कुटयन्ते, कियन्तो दारुवद्विदार्यन्ते, कियन्तः शूलशय्यायां स्वाप्यन्ते, कियन्तः शिलोपरि वस्त्रवत्ताडयन्ते, अनन्तक्षुत्पिपासादिभिः परिभूयन्ते, इत्येवं विविधदुःखसन्ततिमनुभवन्ति । ___ (२) अथ तिर्यञ्चोऽपि केचित् सक्लेशं शीतोष्णे सहमानाः, केचिद् गुरुतरं मारं वहमानाः, केचित्तोत्रादिना ताड्यमानाः, केचिन्मांसार्थिभिर्विविधैस्तीक्ष्णाग्रशस्वैश्छिद्यमानाः, केचिच शङ्कुनिबद्धाः प्रवलैः क्षुत्पिपासादिभिः परिभूयमाना लक्ष्यन्ते । सरसोंकी तरह पीले जाते हैं। कईएक तांचे पीतल आदिके वर्तनोंकी तरह कूटे जाते हैं। कईएक काठकी भाँति करवतसे चीरे जाते हैं। कईएक तीक्ष्ण कांटोंके बिछौने पर सुलाये जाते हैं । कईएक शिलापर कपड़ोंकी तरह पछाड़े जाते हैं, और अनन्त भूख प्यास आदि नाना प्रकारके असह्य क्लेश पाते हैं । इस प्रकार भाँति-भाँतिके दुःखोंका अनुभव करते हैं। . (२) तिर्यञ्च गतिमें भी कोई२ तिर्यञ्च दुःखके साथ गर्मी सर्दी सहते है, किसी पर भारी बोझ लादा जाता है, कोई-कोई कोड़ोंकी मार खाते है, कोई२ पैने (तीखे) शस्त्रोंसे छेदे जाते हैं, कोई-कोई खूटीसे बंधे हुए भूख-प्यास आदि नाना प्रकारके दुःख भोगते हुए देखे जाते है। સરસવની પિઠે પીલાય છે. કેટલાકે તાંબા-પીતળનાં વાસણની જેમ કુટાયપીટાય છે. કેટલાકે લાકડાની પેઠે કરવતથી વહેરાય છે. કેટલાકને તીક્ષણ કાંટાને બિછાના પર સુવાડવામાં આવે છે. કેટલાકને કપડાની પિઠે શિલાપર પછાડવામાં આવે છે, અને અનંત ભૂખ-તરસ આદિ નાના પ્રકારના અસહ્ય કલેશ પમાડવામાં આવે છે. એ પ્રમાણે તરેહ તરેહનાં દુઓને અનુભવ એ જ કરે છે. () તિર્યંચ ગતિમાં પણ કઈ કઈ તિર્યંચ દુખ સાથે ટાઢ-તાપ સહન કરે છે, કેટલાક પર ભારે બે લાદવામાં આવે છે, કઈ કઈ ચાબુકના માર ખાય છે, કેઈ કઈને કાતીલ શસ્ત્રોથી છેદવામાં આવે છે, કઈ કઈ ખૂટે બંધાએલા ભૂખતરસ આદિ નાના પ્રકારનાં દુઃખ ભોગવતા જોવામાં माछ. Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ श्रीदशकालिकसूरे (३) एवं मनुष्यगति माता अपि केचिदन्यत्वं, केचिदधिरवं, केविद पावं, केचित्कासश्वासादिरोग, केचिधारियं च समाप्य, हीना दीनास्ततत्पीडापरिमाराक्षमा विविधदुर्दशामापन्नाः, स्थाविरे कलत्रपुत्रादिभिरप्पनाहताः धरिपपासादिमिर्याध्यमाना नियन्ते । (४) देवा अपि परोसर्पनिरीक्षणेयापादिननितान्तस्तापस्पप्रतिकतम क्यतया मायो दुःखमान एव दृश्यन्ते । (३) यदि भाग्योदयसे मनुष्यगति मिल जाय तो उसमें भी सैकड़ों दुःख भोगने पड़ते हैं। कोई मनुष्य अन्धा होजाता है, कोई बहिरा हा जाता है, कोई लंगड़ा होजाता है। किसीको श्वास या खासीका राग हो जाता है। कोई दरिद्रताके दुखोंसे दीन हीन होकर अनेक प्रकारका दुर्दशाका अनुभव करता है। वृद्धावस्थामें पत्नी पुत्र आदि तिरस्कार करते है । अन्तमें क्षुधा-पिपासा आदिके भी दुःख उठाकर मरणका शरणमें जाना पड़ता है। (४) कभी देवगति पाकर देवता होजाय तो वहां भी तरह-तरहके दुःख विद्यमान है। किसी देवाताकी विभूति अधिक होती है, किसीकी कम होती है। कम विभूतिवाला अधिकविभृतिवाले देवताको देखकर ईया-देष करता है, ऐसा करनेसे मनमें अत्यन्त सन्ताप होता है। उस सन्तापको मिटान में जब अपनेको असमर्थ पाता है तो दुःखी होता है। इसलिये संसारम कहींभी सुख नहीं दिखलाई पड़ता है। (૩) જે ભાગ્યદયથી મનુષ્યગતિ મળી જાય તે તેમાં પણ સેંકડો દુ:ખ ભેગવવાં પડે છે. કોઈ માણસ આંધળે થઈ જાય છે. કેઈ બહેરા અને જ છે, કેઈ લંગડા થાય છે. કેઈને શ્વાસ મા ખાંસીને રેગ થાય છે. કોઈ દરિદ્રતાનાં દુખેથી દીન-હીન થઈને અનેક પ્રકારની દુર્દશાનો અનુભવ કરે છે. વૃદ્ધાવસ્થામાં પત્ની પુત્ર આદિ તેને તિરસ્કાર કરે છે. છેવટે ભૂખ-તરસ આદિના દુખે પણ વેઠીને તેને મરણ શરણ થવું પડે છે. (૪) કદાચ દેવગતિ પામીને દેવતા થઈ જાય તે ત્યાં પણ તરેહ તરેહના દુ:ખ વિદ્યમાન હોય છે. કેઈ દેવતાની વિભૂતિ અધિક હોય છે, કેઈની એ છી Bય છે. એછી વિભૂતિવાળા અધિક વિભૂતિવાળા દેવતાને જોઈને ઈર્ષા–ષ કરે છે. એમ કરવાથી મનમાં અત્યંત સંતાપ થાય છે. એ સંતાપને શમાવવાને ત્યારે તે પિતાને અસમર્થ જુએ છે ત્યારે તે દુઃખી થાય છે, તેથી સંસારમાં કયાંય પણ સુખ જોવામાં આવતું નથી. Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ तपास्त्रपरम् इत्येवमपारपारावारतरलतरतरगमनमालायमानजन्मजरामरणाधिव्याधीष्टवियोगाऽनिष्टसंयोगादिननितविविधसन्तापकलापमाकलयन्तः 'कथमेतस्मात्क्लेशकदम्बकादुन्मुक्ता भविष्यामः? इत्युपायं समन्तात् संमार्गयन्तो मुनयोऽपि जिनेन्द्रमतिपादितं मोक्षमार्गमारुह्य, तत्रापि शुक्लध्यानाहितकेवलज्ञानसमनन्तरजायमानाऽव्यायाधामन्दानन्दसन्दोहलक्षणमोक्षस्याऽपुनराष्टत्तिलक्षणं महिमानं विनिचित्य, ईपन्सुत्पिपासाऽऽपादितदुःखं मनागपि न गणयन्ति, अत एव तदनशना जिसतरह अपार सागरमें चञ्चल तरंगे उत्पन्न होती है उसी तरह संसारमें जन्म, मरण, बुढ़ापा, मानसिक चिन्तायें, शारीरिक व्याधियाँ, इष्टवस्तुओंका वियोग, अनिष्टका संयोग आदि अनेक प्रकारके नये-नये दुःख उत्पन्न होते रहते हैं। इन विविध प्रकारके दुःखोंको भली भाँति सम्यगजानद्वारा जाननेसे यह जिज्ञासा होती है कि इस दुःखसमूहसे हम कैसे छूटेंगे ? इसप्रकार छूटनेका उपाय ढूँढ़ते २ मुनिमहात्मा जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रतिपादित मोक्षके मार्ग पर आरूढ़ हो जाते हैं । फिर क्रमशः शुक्लध्यान द्वारा केवलज्ञान पाकर अव्यायाध अनन्त आत्मिकसुख और पुनरागमनरहित मोक्षको प्राप्त करते हैं। ऐसा अपने मनमें विचार कर तपमें लीन होनेवाले तपस्वी जन क्षुधा-पिपासाके थोड़ेसे दुःखको तनिक भी नहीं गिनते। उनके सामने अनन्त सुखका स्थान मोक्षका ध्येय सदा रहता है और उस ध्येयकी प्राप्तिमें क्षुधा आदि જેવી રીતે અપાર સાગરમાં ચંચલ તરંગે ઉત્પન્ન થાય છે, તેવી રીતે સંસારમાં જન્મ, મરણ, બુઢાપ, માનસિક ચિંતાઓ, શારીરિક વ્યાધિઓ, ઈષ્ટ વસ્તુઓને વિયેગ, અનિષ્ટનો સંગ આદિ અનેક પ્રકારનાં નવાં નવાં દુઃખ ઉત્પન્ન થતાં રહે છે. એ વિવિધ પ્રકારનાં દુઃખાને સારી પિઠે સમ્યગજ્ઞાન દ્વારા જણવાથી એવી જિજ્ઞાસા થાય છે કે આ દુખસમૂહથી આપણે કેવી રીતે છૂટી? એ રીતે છૂટવાનો ઉપાય શોધતાં મુનિ મહાત્મા જિનેન્દ્ર ભગવાને પ્રતિપાદિત કરેલા મેક્ષના માર્ગ પર આરૂઢ થઇ જાય છે. પછી ક્રમશઃ શુકલ ધ્યાન દ્વારા કેવલ જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરીને અવ્યાબાધ અનંત આત્મિકસુખ અને { - પુનરાગમનરહિત મોક્ષને પ્રાપ્ત કરે છે. પિતાના મનમાં એ વિચાર કરીને તપમાં લીન થનાર તપવીજન ભૂખ-તરસના થોડા દુ:ખને લગાર ગણતા નથી. તેમની સામે અનંત સુખને સ્થાન મેશનું ધ્યેય સદા રહે છે અને એ ધ્યેયની પ્રાપ્તિમાં સુધા આદિ પરિષહથી થનારું દુઃખ નહિવત્ બને છે. તે પિતાના Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - श्रीदशकालिकमरे दिलक्षणं तपः परिणामपरमपदरखननफतया मुनीनामात्मपरिणामविकृतिकारणं न भवितुमीष्टे नापि च तत्कर्मोदयस्वरूपमिति मार प्रतिपादितमिति तपसः सर्वथा मोक्षारत्वेनोत्कृष्टमङ्गलात्मकधर्मरूपत्वं सिदम् । . अयोत्कृष्टमहलत्यसम्पादकं धर्मस्य महिमानमावेदयति-'देवा वि' इत्यादि । धर्म-अहिंसादित्रयस्वरूपे यस्य माणिनः मनाचित्रं सदानिरन्तरं तिष्ठती ति शेषः, त-धर्मचित्तं माणिनं देवा अपि भवनपत्यादिचतुर्निकाया अपि परिपहोंसे होनेवाला दुःख नहीं के यरायर है । वे उन तुच्छ दुम्वाका अपने अन्तकरणमें स्मरण भी नहीं करते । तात्पर्य यह है कि अनशन आदि तप, परमपद मोक्षके अनन्त अविनाशी सुखका प्रमल कारण होनेसे मुनियोंकी आत्माके परिणामोंमे विकार उत्पन्न नहीं कर सकता है और न औदायिक भावमें ही है, अर्थात तप क्षायोपशमिक भावाम है। इस विषयका विस्तारसे प्रतिपादन पहले किया जा चुका है। अब यह पात अच्छी तरह सिद्ध हो चुकी कि तप मोक्षका कारण है आर उत्कृष्ट मंगलरूप धर्म है। धर्म उत्कृष्ट मंगल है, किन्तु धर्ममें ऐसी कौनसी विचित्र महिमा है जिससे उसे उत्कृष्ट मंगल कहते हैं ?, इस प्रश्नका समाधान करना लिए कहते हैं जिस प्राणीके मनमें अहिंसा, संयम और तपरूप धर्मका निरन्तर निवास रहता है, उस धर्मात्मा प्राणीको भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषा અંત:કરણમાં એ તુચ્છ દુઃખનું સ્મરણ પણ કરતા નથી. તાત્પર્ય એ છે કે અનશન આદિ તપ, પરમપદ મોક્ષના અનંત અવિનાશી સુખનું પ્રાલ * હોવાથી મુનિઓના આત્માના પરિણામોમાં વિકાર ઉત્પન્ન કરી શકતું નથી. અને જે ઔદચિક ભાવમાં પણ નથી અર્થાત્ તપ સાપશમિક-ભાવમાં છે. આ વિષયને પ્રતિપાદન પહેલાં વિસ્તારથી કરવામાં આવ્યું છે. હવે એ વાત સારી રીતે સિ થઈ ચૂકી કે તપ મેક્ષનું કારણ છે અને ઉત્કૃષ્ટ મંગલરૂપ ધર્મ છે. . ધર્મ ઉત્કૃષ્ટ મંગલ છે, પરંતુ ધર્મમાં એવો કયે વિચિત્ર મહિમા છે જેથી તેને ઉકષ્ટ મંગલ કહ્યું છે ? આ પ્રશ્નનું સમાધાન કરવાને કહે છે – જે પ્રાણીના મનમાં અહિંસા, સંયમ અને પરૂપ ધર્મને નિરંતર નિવાસ રહે છે. તે ધર્માત્મા પ્રાણીને ભવનવાસી, વ્યન્તર, જ્યોતિષી અને વૈમાનિક એ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १.गा. १ धर्ममहिमा ८१ नमस्यन्ति नमस्कुर्वन्ति सम्मानयन्तीति यावत् , किं पुनश्चमवदियो मनुष्या इत्यर्थः । - एतादृशोऽयं समुत्कृष्टो धर्मः स्वसमाराधनबद्धपरिकराणां वृन्दारकन्दवन्दनीयपदारविन्दतां जनयति, यदि पुनविविधकरणयोगेन तदाराधनपरायणो भवेद तदा शिवमचलमरुजमनन्तमक्षयमन्यावाधमपुनरागृत्ति सिद्रिगतिनामधेयं मोक्षपदमपि समासादयेदेव, फैच कथा तदपेक्षया तुच्छतरदेवेन्द्रचनावादिपदमाप्तिननितसौख्यस्य सस्यानुगतपलालबदिति ।। और वैमानिक इस प्रकार चारों निकायोंके देवता नमस्कार करते हैं अर्थात् संमान करते हैं। गाधामें आये हुए 'अपि' शब्दसे प्रकट है कि जय देवताभी धर्मात्मा प्राणीका संमान करते है तो राजा, महाराज, सम्राट् और चक्रवर्ती आदिकी बात ही क्या है ? वे भी उसके चरणोमें गिरते हैं। इस प्रकार इस उत्कृष्ट धर्मकी आराधना करनेवाले प्राणी देवोंके द्वारा वन्दनीय हो जाते हैं। यदि कोई तीन करण और तीन योगसे उस धर्मकी आराधना भली-भाँति करे तो यह अवश्यही ऐसी सिद्धिगति (मोक्ष)को प्राप्त करेगा जो परम कल्याणरूप है, अचल है, जिसमें किसी प्रकारका रोगदोप नहीं है, जिसका कभी अन्त नहीं होता, जिसमें पहुँच कर क्षय नहीं होता, और न किसी प्रकारकी बाधा शेष रहती है। अहो ! उस मोक्षका क्या कहना है, जिसके आगे नरेन्द्र, इन्द्र, अहमिन्द्र आदिका सुख इतना तुच्छ है जैसे धान्यके आगे भूसा तुच्छ होता है। ચારે નિકાના દેવતા નમસકાર કરે છે અર્થાત તેમનું સમાન કરે છે. ગાથામાં मायेला 'अपि' wथा २५ट थाय छे त्यारे देवता ५५ यात्मा प्राधान સંમાન કરે છે તે રાજ, મહારાજા, સમ્રાટ અને ચકવતી આદિની તે વાત જ કયાં રહી? તેઓ પણ તેમના ચરણમાં પડે છે. એ રીતે આ ઉત્કૃષ્ટ ધર્મની આરાધના કરનારે પ્રાણ દે વડે વંદનીય બને છે. જો કે ત્રણ કરણ અને ત્રિભુ યેગથી એ ધર્મની આરાધના ભલી પેઠે કરે છે તે અવશ્ય એવી સિદ્ધિગતિ (મેલ) ને પ્રાપ્ત કરે કે જે પરમ કલ્યાણરૂપ છે, અચલ છે, તેમાં કઈ પ્રકારને રગદેવ નથી, જેને કદાપિ અંત આવતો નથી જેમાં પહોંચવાથી ક્ષય થતો નથી અને તે પ્રકારની બાધા-પીડા થતી નથી.. અહા ! એ મોક્ષની શી વાત કહીએ, જેની આગળ નરેંદ્ર, ઇંદ્ર, અનિંદ્ર આદિનું સુખ એવું તુરછ છે કે જેમ ધાન્ય આગળ છેતરાં તુચ્છ છે. * છે Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशकालिको ननु सर्वधर्माणामहिंसामूलकस्वादहिंसायामेव संयमतपसोरपि धर्मयोः समावेशे सति किं पुनस्तयोः पृथनिर्देशः । इति चेन, तपो बिना संयमो यथावत्स्वरूपनमल्यं न लमते, संपममन्तरेणाऽहिंसापि न परिशुदिमेति इत्याशयेनाहिसां मविपाध तन्निर्मलीकरणाय संयमस्य मतिपादनम् , तस्य च मभूतशक्तिसम्पादनाप तपसः समाराधनमावश्यकमिस्याशयेन, प्रयाणां पृथइनिर्देशः कृतः । किश्च संयमतपसोपियेऽपरोऽपि विशेपो दृश्यते-संयमा संवरः, उपस्तु मुख्यतो निर्जरामुद्भावपत् संघरमपि निप्पादयति । संयमस्तपवैते द्वे-राज आत्म____ प्रश्न-संयम तप आदि सय धर्मोका मूल अहिंसा है, इसलिए संघम और तपका अहिंसामें ही समावेश हो जाता है तो फिर संयम और तपको अलग अलग क्यों कहा है ? सुनो___ उत्तर-अलग अलग कहनेका कारण यह है कितपके विना संयम की जैसी चाहिए वैसी निर्मलता नहीं होती और विनासंयमके अहिंसाका ठीक २ पालन नहीं हो सकता। इस अभिप्रायसे अहिंसाका प्रतिपादन करके उसे निर्मल बनानेके लिए तपका अलग कथन किया गया है। इससे तीनोंका अलग २ कथन उचित है। संयम और तपके अर्थ में और भी विशेषता है और वह यह है कि संयमसे संवर होता है, परंतु तपसे संयम और निर्जरा दोनों होते है। अथवा यह समझना चाहिये कि संयम और 'तप' ये दाना પ્રશ્ન-સંયમ તપ આદિ સર્વ ધર્મોનું મૂલ અહિંસા છે, તેથી સંયમ અને તપને સમાવેશ અહિંસામાં જ થઈ જાય છે. તે સંયમ અને તપને જુદા। म हा छ ? साला ઉત્તર–જુદા જુદા કહેવાનું કારણ એ છે કે તપ વિના સંયમની જોઈએ તેવી નિર્મળતા થતી નથી અને સંયમ વિના અહિંસાનું બરાબર પાલન થઈ શકતું નથી. એ કારણથી અહિંસાનું પ્રતિપાદન કરીને તેને નિર્મળ બનાવવાને માટે તપનું જુદું કથન કરવામાં આવ્યું છે. એથી ત્રણેનું જુદું જુદું કથન यित छ. સંયમ અને તપના અર્થમાં બીજી પણ વિશેષતા છે અને તે એ કેસંયમથી સંવર થાય છે, પણ તપથી સંયમ અને નિર્જરા બેઉ થાય છે અથવા એમ સમજવું જોઈએ કે સંચમ અને તપ એ બેઉ રાજાના Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. १ अहिंसासंयमतपोविवेकः रक्षकाविवाऽहिंसावतस्य संरक्षके। यद्वा एतवयस्याहिंसापरिपोषकतया पृथङ्निर्देशः संगच्छते । अन्यच्च अहिंसा माणन्यपरोपणनिवृत्तिमधाना, संयमस्तु श्रोत्रादीन्द्रियनिग्रहमधान इति महद्वैलक्षण्यमुपलभ्य पृथनिर्देशः । तपसो चैलक्षण्यं तु न कस्यचित् संशयगोचरः स्वरूपत एव परस्परं भेदाद , तथाहि-अहिंसा नाम स्वतः परतो वा माणग्यपरोपणनित्तिकरणं, तपस्तु क्षुत्पिपासाशीतोष्णादिसहिष्णुत्वरूपमिति । राजाके आत्मरक्षकोंकी तरह अहिंसाव्रतके रक्षक है, जबतक संयम और तप न हों तबतक अहिंसाका सम्यक पालन नहीं हो सकता। एक समाधान औरभी है-अहिंसामें प्राणोंके व्यपरोपणकी निवृत्तिकी प्रधानता है, और संयममें श्रोत्र आदि इन्द्रियोंके निग्रहकी प्रधानता है। इस प्रकार इनमें कितनी ही प्रकारकी बड़ी २ विशेपताएँ देखकर सूत्रकारने पृथक् कथन किया है। तपके स्वरूप में तो इतनाभेद है कि किसीको सन्देह हो ही नहीं सकता । अपने या दूसरेके द्वारा प्राणव्यपरोपणकी निवृत्ति करनेको अहिंसाकहते हैं, और क्षुधापिपासाशीत उष्ण आदिको सहन करना तप कहलाता है। . प्रश्न-भगवान्ने अहिंसा संयम और तप इन तीनोंमें तपको ही अन्तमें क्यों कहा? આત્મરક્ષકેની પેઠે અહિંસાવ્રતના રક્ષક બને છે. જ્યાં સુધી સંયમ અને તપ ન થાય ત્યાં સુધી અહિંસાનું સમ્યક્ પાલન થઈ શક્યું નથી. એક સમાધાન બીજું પણ છે. અહિંસામાં પ્રાણેના વ્યપરંપણની નિવૃત્તિની પ્રધાનતા છે. અને સંયમમાં શ્રેત્ર આદિ ઈદ્રિના નિગ્રહની પ્રધાનતા છે. એ રીતે એમાં અનેક પ્રકારની મેટી મેટી વિશેષતાઓ જોઈને સૂત્રકારે પૃથક કથન કર્યું છે. તપના સ્વરૂપમાં તે એટલે ભેદ છે કે કઈને સંદેહ થઈ શકે નહિ. પિતાની અથવા બીજાની દ્વારા પ્રાણના વ્યાપણની નિવૃત્તિ કરવી તેને અહિંસા કહે છે, અને ભૂખ તરસ ટાઢ તાપ આદિને સહેવાં તે त५ ४२वाय छे. પ્રશ્ન–ભગવાને અહિંસા, સંયમ અને તપ એ ત્રણમાં તપને છેલ્લે કેમ કહ્યું ? Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदकालिकाने ननु सर्वधर्माणामहिंसामूलकत्वादहिंसायामेव संयमतपसोरपि धर्मयोः समावेशे सति किं पुनस्तयोः पृय निर्देशः ? इति चेन,___ तपो विना संयमो यथावत्स्वरूपनमल्यं न लमते, संयममन्तरेणाऽहिंसापिन परिशुदिमेति इत्याशयेनाहिंसां मतिपाय तन्निर्मलीकरणार्य संयमस्य प्रतिपादनम् , तस्य च अभूतशक्तिसम्पादनाय तपसः समाराधनमावश्यकमित्याश्येन, प्रयाणां पृथनिर्देशः कृतः । किच संयमतपसोविपयेऽपरोऽपि विशेषो दृश्यते-संयमात्संवरः, तपस्तु मुख्यतो निर्जरामुद्भावयत् संवरमपि निष्पादयति । संयमस्तपश्चैते द्वे-रान आत्म प्रश्न--संयम तप आदि सय धौंका मूल अहिंसा है, इसलिए संयम और तपका अहिंसामें ही समावेश हो जाता है तो फिर संयम और तपको अलग अलग क्यों कहा है ? सुनो उत्तर-अलग अलग कहनेका कारण यह है कितपके विना संयम की जैसी चाहिए वैसी निर्मलता नहीं होतीऔरविनासंयमके अहिंसाका ठीक २ पालन नहीं हो सकता । इस अभिप्रायसे अहिंसाका प्रतिपादन करके उसे निर्मल बनानेके लिए तपका अलग कथन किया गया है। इससे तीनोंका अलग २ कथन उचित है। ___ संयम और तपके अर्थ में और भी विशेषता है और वह यह है कि संयमसे संवर होता है, परंतु तपसे संयम और निर्जरा दोनों होते हैं। अथवा यह समझना चाहिये कि संयम और 'तप' ये दोनों પ્રશ્ન-–સંયમ તપ આદિ સર્વ ધર્મોનું મૂલ અહિંસા છે, તેથી સંયમ અને તપને સમાવેશ અહિંસામાં જ થઈ જાય છે. તે સંયમ અને તપને જુદાજુદા કેમ કહ્યા છે ? સાંભળે– ઉતર–જુદા જુદા કહેવાનું કારણ એ છે કે તપ વિના સંયમની જિઈએ તેવી નિર્મળતા થતી નથી અને સંયમ વિના અહિંસાનું બરાબર પાલન થઈ શકતું નથી. એ કારણથી અહિંસાનું પ્રતિપાદન કરીને તેને નિર્મળ બનાવવા માટે તપનું જુદું કથન કરવામાં આવ્યું છે. એથી ત્રણેનું જુદું જુદું કથન थित छे. સંયમ અને તપના અર્થમાં બીજી પણ વિશેષતા છે અને તે એ કેસંયમથી સંવર થાય છે, પણ તપથી સંયમ અને નિર્જરા બેઉ થાય છે. અથવા એમ સમજવું જોઈએ કે સંયમ અને તપ એ બેઉ રાજાના Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा.१ अहिंसासंयमतपोविवेकः रक्षकाविवाऽहिंसावतस्य संरक्षके। यद्वा एतवयस्याहिंसापरिपोषकतया पृथक्निर्देशः संगच्छते । - अन्यच्च अहिंसा माणव्यपरोपणनिवृत्तिप्रधाना, संयमस्तु श्रोत्रादीन्द्रियनिग्रहप्रधान इति महद्वैलक्षण्यमुपलभ्य पृथनिर्देशः । तपसो वैलक्षण्यं तु न कस्यचित् संशयगोचरः स्वरूपत एव परस्परं भेदार , तथाहि-अहिंसा नाम स्वतः परतो चा माणव्यपरोपणनित्तिकरणं, तपस्तु क्षुत्पिपासाशीतोष्णादिसहिष्णुत्वरूपमिति । राजाके आत्मरक्षकोंकी तरह अहिंसाव्रतके रक्षक है, जबतक संयम और तप न हों तबतक अहिंसाका सम्यक पालन नहीं हो सकता। एक समाधान औरभी है-अहिंसामें प्राणोंके व्यपरोपणकी निवृत्तिकी ' प्रधानता है, और संयममें श्रोत्र आदि इन्द्रियोंके निग्रहकी प्रधानता है। इस प्रकार इनमें कितनी ही प्रकारकी बड़ी २ विशेषताएँ देखकर सूत्रकारने पृथक् कथन किया है। तपके स्वरूपमें तो इतना भेद है कि किसीको सन्देह हो ही नहीं सकता। अपने या दूसरेके द्वारा प्राणव्यपरोपणकी निवृत्ति करनेको अहिंसाकहते हैं, और क्षुधापिपासा शीत उष्ण आदिको सहन करना तप कहलाता है । . प्रश्न-भगवान्ने अहिंसा संयम और तप इन तीनोंमें नाई अन्तमें क्यों कहा? આત્મરક્ષકની પિઠે અહિંસાવ્રતના રક્ષક બને છે. જ્યાં સુધી ? ન થાય ત્યાં સુધી અહિંસાનું સમ્યફ પાલન થઈ શકતું નથી. मे समाधान भी पर छे. मसि प्रति નિવૃત્તિની પ્રધાનતા છે. અને સંયમમાં શ્રોત્ર આદિ ઇતિ દક એ રીતે એમાં અનેક પ્રકારની મેટી મેથી દા . १३४ ४थन यु छ. तपना स्१३५मां तो यह नडि. पाताना अथवा मानना HE १२वी तेने महिंसा डे छ, भने भूम * as a त५ उपाय छे. प्रश्न-भगवाने मडिया, यर કેમ કહ્યું ? Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ श्रीदनकालिकसूत्रे फोटिभवसशितानि फर्कशतमान्यपि फर्माणि तपसाऽऽशतरं विनश्यन्तीति दुस्तरसंसारसागरं शीघ्रमुख ममिलप्यतामहिसासंयमाऽऽराधनतस्पराणां मुमुषणा मुग्रतपोऽवश्यमाश्रयणीपमित्याशयेनान्ते तपसः पृयनिर्देशः कृत इति भावः । इति प्रथमगायार्थः ॥ १॥ ननु धर्मः शरीरेण रक्ष्यते, शरीररसणं चाहारेण भवति, स च परजीवनिकायोपमर्दनरूपाऽऽरम्भण निप्पाघते, यत्र चारम्भो न तत्र धर्मः संमत्रोत, यथोक्तं श्रीस्थानागसूत्रे~__“दो ठाणाई अपरियाणिता माया णो केलिपन्नतं धम्मं लभेजा सर णयाए, तंजहा-आरंभे चेव परिग्गहे चेव" इति, अस्य हि-"द्वे. वस्तुना अपार ज्ञाय आत्मा न केवलिममाप्तं धर्म श्रोतुं लभेत, तद् यथा-आरम्भश्व परिग्रहश्च" उत्तर-करोड़ों भवोंमें संचित किये हुए अत्यन्त कठोर कर्म, तपक द्वारा शीघ ही नष्ट हो जाते है । इसलिए दुस्तर संसाररूपी सागरका शीघ पार करनेकी अभिलापा रखनेवाले, अहिंसा और संयमकी आरा: धनामें तत्पर रहनेवाले मोक्षाभिलापियोंको अवश्य ही उग्रतपस्या करना चाहिये, इस उद्देश्यसे भगवान्ने तपको अन्तमें अलग कहा है ॥१॥ __ धर्मका रक्षण शरीरसे होता है और शरीरका निर्वाह आहारस होता है। आहार पृथिवी आदिक षड्जीवनिकायके आरंभके विना नहा धन सकता, और 'जहां आरम्भ है वहां धर्म नहीं यह सर्वज्ञ भगवादन कहा है, क्योंकि ठाणांग (स्थानाङ्ग) सूत्रके दूसरे ठाणेसे यह बात स्पष्ट है। ઉત્તર–કરે એમાં સંચિત કરેલાં અત્યંત કઠેર કર્મ તપની દ્વારા શઘ નષ્ટ થઈ જાય છે. એથી હુસ્તર સંસારરૂપી સાગરને શીધ્ર પાર કરવાની અભિલાષા રાખનારા, અહિંસા અને સંયમની આરાધનામાં તત્પર રહેનાર, મેક્ષાભિલાષીઓએ અવશ્ય ઉગ્ર તપસ્યા કરવી જોઈએ. એ ઉદ્દેશથી ભગવાને તપને છેલું જુદું કહ્યું છે. ૧ ધર્મનું રક્ષણ શરીરથી થાય છે. અને શરીરને નિર્વાહ આહારથી થાય છે. આહાર પૃથિવી આદિ છે જીવનિકાયના આરંભ વિના નથી બની શકો, અને ત્યાં આ ભ છે ત્યાં ધર્મ નથી એમ સર્વજ્ઞ ભગવાને કહ્યું છે. કાણુગ (સ્થાનાંગ) સૂત્રના બીજા ઠાણામાં એ વાત સ્પષ્ટ છે. અર્થાત આરંભ અને Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन १ गा. २ गोचरीविधी भ्रमरदृष्टान्तः अर्थादारम्भ-परिग्रही ज्ञ-परिशया जन्ममरणादिदुःखहेतू विज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञयो तयोस्त्यागमकृत्वा जिनोक्तं धर्म श्रोतुमपि न शक्नोति, पालयितुं शनोतीति तु दुरापास्तमित्यर्थः, तस्मादुक्तरीत्या त्यागसम्पन्नस्यापि श्रमणस्य शरीरसंरक्षणावश्यकता वर्तते तदर्थ चाहारो ग्रहीतव्यः, तत्र का वृत्तिः समादर्तव्ये ? त्याह-'जहा दुमस्स' इत्यादि मूलम्-जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो आवियइरसं। ૧૨ ૧૧ ૧૪ ૩ - ण य पुप्फ किलामेइ, सो अ पीणेइ अप्पयं ॥२॥ छाया-यथा द्रुमस्य पुप्पेपु, भ्रमर आपियति रसम् । न च पुष्पं क्लामयति, स च मीणात्यात्मानम् ॥ २॥ अर्थात् आरंभ और परिग्रह इन दोनोंके यथार्थ स्वरूपको आत्मा ज्ञपरिज्ञासे- सम्यक् प्रकार जानकर कि ये ही दोनों जन्म जरा मरणके दाता चतुर्गतिरूप अनन्त संसारमें परिभ्रमण करानेवाले, छेदन-भेदनआधि-व्याधि-क्लेशरूप दुःखोंके कारण तथा आत्माके विशुद्ध स्वरूपके घातक है, परंतु जबतक प्रत्याख्यानपरिज्ञा द्वारा तीन करण और तीन योगसे इनको त्याग न देवे तय तक जिनेन्द्र भगवान् दाराप्ररूपितधर्मको सुनने योग्य भी नहीं होता, पालनेकी तो बात ही कहां है ? तात्पर्य यह है कि आरंभ और परिग्रहका त्याग किये विना धर्मका पूर्ण पालन नहीं हो सकता। इसलिए धर्मके आराधक मुनियोंको निरवद्य आहारकी विधि कहते हैं-'जहा दुमस्स' इत्यादि ।। પરિગ્રહ એ બેઉને યથાર્થ સ્વરૂપને આત્મા, રૂપરિણાથી સમ્યફ-પ્રકારે જાણે કે એ બેઉ જન્મ જરા મરણના દાતા, ચતુર્ગતિરૂપ અનંત સંસારમાં પરિભ્રમણ કરાવનારા, છેદન–ભેદન–આધિ-વ્યાધિ-કલેશરૂપ દુખેના કારણે તથા આત્માના વિશુદ્ધ સ્વરૂપના ઘાતક છે, પરંતુ જ્યાં સુધી પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞાારા ત્રણ કરણ અને ત્રણ વેગથી તેને ત્યજી ન દેવાય ત્યાં સુધી જિનેન્દ્રભગવાને પ્રરૂપેલા ધર્મને સાંભળવા મેગ્ય પણ થવાતું નથી, પછી પાળવાની તે વાત જ કયાં ? તાત્પર્ય એ છે કે આરંભ અને પરિગ્રહને ત્યાગ કર્યા વિના ધર્મનું પૂરું પાલન થઇ શકતું નથી. તેથી ધર્મના આરાધક મુનિઓને નિરવદ્ય આહારની વિધિ हुई छे-"जहा दुमस्स" याह. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ श्रीदशवकालिको सान्वयार्थ:-जहा जैसे, भमरो मारा, दुमस्स-क्षके पुप्फेसु-फूलोंमें (रहे हुए) रसरसको आवियह-मर्यादानुसार पीता है, य-और पुष्प-फूलको ण कीलामेइ-पीडित नहीं करता है, अतोभी सोबह मौरा अप्पयं-अपनेको पीणेइ सन्तुष्ट कर लेता है । अर्थात्-जैसे भौंरा अनेक क्षोंके फूलोंसे थोड़ा थोड़ा रस उचित मात्रामें लेता है, ऐसा करनेसे वह सन्तुष्ट भी होजाता है और फूलोंकोभी फट नहीं देता ॥ २ ॥ टीका-यथा भ्रमरः-भ्राम्यति एकत्र नावविप्ठत इति भ्रमरम्म्चतुरिन्द्रियजातिमान् भृङ्गपर्यायवाच्यः माणिविशेपः । द्वमस्य, जात्येकत्वादेकवचनम्, 'सा गच्छति' इत्यादिवत् , तेन द्वमाणामित्यर्थः, मपदेन योगमर्यादया लतादीनामपि ग्रहणं वोद्धव्यम् , पुप्पेपु स्थितमित्यस्याध्याहारः, रसम्मकरन्दम् आपिवति आ-मर्यादा-पूर्वकम् उचितादधिकं परित्यज्य पियति पानविषयं करोति, अल्प गृहातीति भावः । चकारी हेत्वर्थे, तेन-च-अत एव पुष्पं न कामयति-नं पांड: यति-लेशवोऽपि न म्लानयतीति यावत् , च-किञ्च सा-भ्रमरः आत्मानस्व मीणाति-तोपयतीत्यर्थः । पुष्पाणि तु द्रुमलतादीनामेव भवन्ति पुन?मपदोपादानम्-यथा भ्रमरः सर्वे पामेव गुमलतादीनां पुप्पेपु रसमापियति न चोचनीचादिभेदभाव रक्षति 'वृक्षोऽय जैसे भ्रमर, भ्रमण करके अनेक वृक्ष लता आदिकोंके पुष्पोंका थोडा२ रस मर्यादासे लेता है, अधिक नहीं, यानी ऐसा कि किसीकामा पीडा न देते हुए वह अपनी आत्माको तृस कर लेता है। प्रश्न-वृक्ष और लताओंमें ही फूल होते हैं फिर हुम (वृक्ष) शब्द देनेका क्या अभिप्राय है । उत्तर-जैसे भौंरा सभी वृक्षों और लताओंके फूलोंका रस पीता है, ऊंच-नीच भेद-भाव नहीं रखता कि-इस वृक्षमें कम फूल हैं आर જેમ ભ્રમર બ્રમણ કરીને અનેક વૃક્ષ લતા આદિનાં પુષ્પને થે છેડે રસ મર્યાદાપૂર્વક લે છે, વધુ લેતું નથી, અને એવી રીતે લે છે કે કોઈ પણ પુષ્યને જરાએ પીડા થાય નહિ; એમ તે પિતાના આત્માને તૃપ્ત કરી લે છે. प्रश्न-वृक्ष भने सतामा ५२ १ यूटा थाय छ, ते जी द्रम (११) शws કહેવાને હેતુ છે. ઉત્તર–જેમ ભમરે બધાં વૃક્ષે અને લતાઓનાં ફૂલેનો રસ પીએ છે, 62-नयना सहसाब समता नया 8-40 वृक्ष ५२ मा छ अर . Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. २ गोचरीविधौ भ्रमरदृष्टान्तः मल्पपुष्पफलोऽयं च बहुपुष्पफलसमृद्धः' इति, तथा साधुरप्युचनीचादिभेदभावं विहाय सर्वत्र समानभावो गृहस्थकुलानां सकाशाद् यथोचितां भिक्षामाददीतेति सूचनार्थम् । • यद्वा 'दुमस्स' इत्यत्र सम्बन्धसामान्यपप्ठ्या द्रुमसम्बन्धिविति, अर्थादयं दृष्टान्तो दुमसंसक्तपुष्परसग्राहिणो भ्रमरस्य योद्धव्यो नेतरस्य, ततश्च यथा भ्रमरो द्रुमसम्बद्धेषु स्थितं रसमापियति तथा साधुरपि गृहस्थसम्बन्धिनमेव, अर्थात् तत्स्वत्वयुक्तमेवाऽऽहारं गृहीयान्न तु स्वामिविरहितमित्यर्थः । इसमें अधिक, इसी प्रकार साधुभी द्रव्य-भावसे ऊंच-नीच भेद-भाव न रखकर समानदृष्टिसे गृहस्थियोंके कुलोमें भिक्षा-वृत्तिके लिए भ्रमण करते है । इस आशयको प्रगट करनेके लिए गाथामें 'दुम' शब्द दिया गया है। अथवा यों समझिये कि गाथामें 'द्रुम' शब्दके साथ पष्ठीविभक्तिका प्रयोग किया गया है, पष्ठी विभक्तिका अर्थ है 'सम्बन्ध'। ..इसलिए यह दृष्टान्त द्रुममें लगे हुए पुष्पके रसको ग्रहण करनेवाले भारेका ही समझना चाहिए, दूसरे भौंरेका नहीं। इससे यह अर्थ निकलता है कि जैसे भ्रमर, हुम (वृक्ष) सम्बन्धी पुष्परसको ही ग्रहण करता है, अन्य रसको नहीं, इसीभाँति साधुभी गृहस्थसे सम्बन्ध रखनेवाले अर्थात् जिसपर गृहस्थका अधिकार है उसी आहारको ग्रहण करते है; जिस आहारका कोई गृहस्थ स्वामी नहीं होताउसे नहीं ग्रहण करते। આ પર વધારે છે, એ પ્રમાણે સાધુ પણ દ્રવ્ય–ભાવથી ઉંચ-નીચને ભેદભાવ ન રાખીને સમાન દષ્ટિથી ગૃહસ્થોનાં કુળમાં ભિક્ષાવૃત્તિને માટે ભ્રમણ કરે છે. मे मारायने ४८ ४२१८ भाटे थामा द्रुम (वृक्ष) श६ माटो छे. અથવા એમ સમજવું કે ગાથામાં દુક શબ્દની સાથે છઠ્ઠી વિભક્તિને પ્રયોગ કરવામાં આવ્યું છે. છઠ્ઠી વિભક્તિને અર્થે સંબંધ થાય છે. એથી આ હૃષ્ટાંત દુમમાં લાગેલાં પુના રસને ગ્રહણ કરનારા ભમરાનું જ સમજવું જોઈએ, બીજા ભમરાઓનું નહિ. એટલે એ અર્થ થાય છે કે જેમ બ્રમર, दुम (वृक्ष) संधी ०५२सने १ अक्षय ४२ छ, भी। २सने नड, तेम साधु પણ ગૃહસ્થથી સંબંધ રાખનારા અર્થાત્ જેની ઉપર ગૃહસ્થને અધિકાર હોય તે આહારનેજ ગ્રહણ કરે છે. જે આહારને કઈ હસ્થ સ્વામી નથી તેને _ साधु प्राय ४२ नथी.. Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ - श्रीदनकारिको सान्वयार्थः-जहा जैसे, भमरो मारा, दुमस्स-क्षके पुप्फेस-फूलोंमें (रहे हुए) रसं रसको आवियइमर्यादानुसार पीता है, य=और पुष्क-फूलको ण कीलामेइ-पीडित नहीं करता है, अन्तोमी सोमबह मौंरा अप्पयं-अपनेको पीणेइ सन्तुष्ट कर लेता है। अर्थात्-जैसे भौंरा अनेक वृक्षोंके फूलों से थोड़ा थोड़ा रस उचित मात्रामें लेता है, ऐसा करनेसे वह सन्तुष्ट भी होजाता है और फूलोंकोभी फट नहीं देता ॥ २ ॥ ____टीका-यथा भ्रमरः-भ्राम्यति एकत्र नावतिष्ठत इति भ्रमरम्म्चतुरिन्द्रियजातिमान् भृङ्गपर्यायवाच्यः माणिविशेषः । द्वमस्य, जात्येकत्वादेकवचनम् , 'सत्री गच्छति' इत्यादिवत् , तेन द्रुमाणामित्यर्थः, द्रुमपदेन योगमर्यादया लतादीनामपि ग्रहणं योद्धव्यम् , पुप्पेपु स्थितमित्यस्याध्याहारः, रसन्मकरन्दम् आपिबतिआ-मर्यादा-पूर्वकम् उचितादधिकं परित्यज्य पिवति-पानविषयं करोति, अल्प गृहातीति भावः । चकारी हेत्वर्थ, तेन-च-अत एव पुप्पं न लामयतिम्न पाड: यति-लेशतोऽपि न म्लानयतीति यावत् , च-किश्च सः भ्रमरः आत्मान-स्व मीणाति तोपयतीत्यर्थः। ___ पुष्पाणि तु द्रुमलतादीनामेव भवन्ति पुनर्दुमपदोपादानम्-यथा भ्रमरः सवेपामेव द्रुमलतादीनां पुष्पेषु रसमापियति न चोचनीचादिभेदभावं सति 'वृक्षोऽय जैसे भ्रमर, भ्रमण करके अनेक वृक्ष लता आदिकोंके पुष्पाका थोडार रस मर्यादासे लेता है, अधिक नहीं, यानी ऐसा कि किसीको मा पीडा न देते हुए वह अपनी आत्माको तृप्त कर लेता है। प्रश्न-वृक्ष और लताओंमें ही फूल होते हैं फिर हम (वृक्ष) शन्द देनेका क्या अभिप्राय है ? । उत्तर-जैसे भौंरा सभी वृक्षों और लताओंके फूलोंका रस पीता है, ऊंच-नीच भेद-भाव नहीं रखता कि-इस वृक्षमें कम फूल है आर જેમ ભ્રમર ભ્રમણ કરીને અનેક વૃક્ષ લતા આદિનાં પુષ્પને ચેડા થડે રસ મર્યાદાપૂર્વક લે છે, વધુ લેતું નથી, અને એવી રીતે લે છે કે કોઈ પણ પુષ્પને જરાએ પીડા થાય નહિ; એમ તે પિતાના આત્માને તૃપ્ત કરી લે છે. प्रश्न-वृक्ष भने सतामा ५२ टस थाय छ, ते! जी द्रम (वृक्ष) शण्ड કહેવાને શે હેતુ છે. ઉત્તર-જેમ ભમરે બધાં વૃક્ષે અને લતાઓનાં ફૂલેને રસ પીએ છે, લંચ-નીચના ભેદભાવ રાખતા નથી કે આ વૃક્ષ પર ઓછાં લે છે અને Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. २ गोचरीविधौ भ्रमरदृष्टान्तः मल्षपुष्पफलोऽयं च बहुपुष्पफलसमृद्धः' इति, तथा साधुरप्युच्चनीचादिभेदभावं विहाय सर्वत्र समानभावो गृहस्थकुलानां सकाशाद् यथोचितां भिक्षामाददीतेति सूचनार्थम् । यद्वा 'दुमस्स' इत्यत्र सम्बन्धसामान्यपष्ठ्या द्रुमसम्वन्धिविति, अर्थादयं दृष्टान्तो द्रुमसंसक्तपुष्परसग्राहिणो भ्रमरस्य बोद्धव्यो नेतरस्य ततश्च यथा भ्रमरो द्रुमसम्बद्धेषु स्थितं रसमापिचति तथा साधुरपि गृहस्थसम्बन्धिनमेव, अर्थात् तत्स्वत्वयुक्तमेवाऽऽहारं गृह्णीयान्न तु स्वामिविरहितमित्यर्थः । इसमें अधिक, इसी प्रकार साधुभी द्रव्य भावसे ऊंच-नीच भेद-भाव न रखकर समानदृष्टिसे गृहस्थियोंके कुलोमें भिक्षावृत्ति के लिए भ्रमण करते हैं। इस आशयको प्रगट करनेके लिए गाथामें ' द्रुम' शब्द दिया गया है । अथवा यों समझिये कि गाथामें 'हम' शब्द के साथ पष्ठी विभक्तिका प्रयोग किया गया है, पष्ठी विभक्तिका अर्थ है 'सम्बन्ध' । इसलिए यह दृष्टान्त द्रुममें लगे हुए पुष्पके रसको ग्रहण करनेवाले भरेका ही समझना चाहिए, दूसरे भरेका नहीं । इससे यह अर्थ निकलता है कि जैसे भ्रमर, द्रुम (वृक्ष) सम्बन्धी पुष्परसको ही ग्रहण करता है, अन्य रसको नहीं, इसी भाँति साधुभी गृहस्थसे सम्बन्ध रखनेवाले अर्थात् जिसपर गृहस्थका अधिकार है उसी आहारको ग्रहण करते हैं; जिस आहार का कोई गृहस्थ स्वामी नहीं होता उसे नहीं ग्रहण करते । આ પર વધારે છે; એ પ્રમાણે સાધુ પણ દ્રવ્ય—ભાવથી ચનીચના ભેદભાવ ન રાખીને સમાન દષ્ટિથી ગૃહસ્થાનાં કુળામાં ભિક્ષાવૃત્તિને માટે ભ્રમણ કરે છે. मे मायने अट १२वा भाटे गायामां हम (वृक्ष) शब्द आये। छे. અથવા એમ સમજવું કે ગાથામાં દુમ શબ્દની સાથે છઠ્ઠી વિભક્તિના પ્રયોગ કરવામાં આવ્યે છે. છઠ્ઠી વિભક્તિના અથ સંબંધ થાય છે. એથી આ દૃષ્ટાંત દ્રુમમાં લાગેલાં પુષ્ણેાના રસને ગ્રહણુ કરનારા ભમરાનું જ સમજવું જોઇએ, ખીજા ભમરાઓનું નહિ, એટલે એ અર્થ થાય છે કે જેમ ભ્રમર, द्रुम (वृक्ष) संगंधी पुष्परसह रे छे, जीन्न रसने नडि, तेम साधु પણ ગૃહસ્થથી સંબધ રાખનારા અર્થાત્ જેની ઉપર ગૃહસ્થને અધિકાર હાય તે આહારનેજ ગ્રહણ કરે છે. જે આહારના કેઇ ગૃહસ્થ સ્વામી નથી હતા તેને સાધુ ગ્રહણ કરતા નથી.. Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदनकालिको सान्वयार्थ:-जहा-जैसे, भमरो-मीरा, मस्ससके पुप्फेसु-फूलोंमें (रहे हुए) रसं रसको आविया मर्यादानुसार पीता है, य-और पुष्प-फूलको ण कीलामेइ-पीडित नहीं करता है, अतोमी सोन्या भौंरा अप्पयं-अपनेको पीणेइ-सन्तुष्ट फर लेता है। अर्थात्-जैसे भौंरा अनेक वृक्षोंके फूलोंसे थोड़ा थोड़ा रस उचित मात्रामें लेता है, ऐसा करनेसे घर सन्तुष्ट भी होजाता है और फूलोंकोभी कष्ट नहीं देता ॥ २ ॥ टीका-यथा भ्रमरः-भ्राम्यति एकत्र नावतिष्ठत इति भ्रमर चतुरिन्द्रियजातिमान् भृङ्गपर्यायवाच्यः प्राणिविशेषः । द्वमस्य, जात्येकत्वादेकवचनम् , 'सर्वो गच्छति' इत्यादिवत् , तेन हमाणामित्यर्थः, दुमपदेन योगमर्यादया लतादीनामपि ग्रहणं योद्धव्यम् , पुप्पेषु स्थितमित्यस्याध्याहारः, रसं मकरन्दम् आपिरति आ-मर्यादा-पूर्वकम् उचितादधिकं परित्यज्य पिववि-पानविपयं करोति, अस गृह्णातीति भावः। चकारो हेत्वर्थे, तेन-च-अत एव पुप्पं न लामयतिम्न पडिः यति-लेशतोऽपि न म्लानयतीति यावत् , चकिच सा भ्रमरः आत्मानस्व मीणाति तोपयतीत्यर्थः। पुष्पाणि तु द्रुमलतादीनामेव भवन्ति पुन?मपदोपादानम्-यथा भ्रमरः सवे. पामेव गुमलतादीनां पुष्पेषु रसमापिचति न चोच्चनीचादिभेदभावं रक्षति 'वृक्षोऽय जैसे भ्रमर, भ्रमण करके अनेक वृक्ष लता आदिकोंके पुष्पोंका थोडार रस मर्यादासे लेता है, अधिक नहीं, यानी ऐसा कि किसीको भी पीडा न देते हुए वह अपनी आत्माको तृस कर लेता है। प्रश्न-वृक्ष और लताओंमें ही फूल होते हैं फिर हुम (वृक्ष) शन्द देनेका क्या अभिप्राय है? ।। उत्तर-जैसे भौंरा सभी वृक्षों और लताओंके फूलोंका रस पीता है, ऊंच-नीच भेद-भाव नहीं रखता कि-इस वृक्षमें कम फूल है आर જેમ ભ્રમર ભ્રમણ કરીને અનેક વૃક્ષ લતા આદિનાં પુષ્પને ચેડા થોડા રસ મર્યાદાપૂર્વક લે છે, વધુ લેતું નથી, અને એવી રીતે લે છે કે કઈ પણ પુષ્પને જરાએ પીડા થાય નહિ; એમ તે પિતાના આત્માને તૃપ્ત કરી લે છે. प्रश्न-वृक्ष भने तामा ५२ ०४ ख थाय छे, तो जी द्रम (वृक्ष) AB કહેવાને શો હેતુ છે. ઉત્તર–જેમ ભમરે બધાં વૃક્ષો અને લતાઓનાં ફૂલેનો રસ પીએ છે, ઉંચ-નીચના ભેદભાવ રાખતો નથી કે આ વૃક્ષ પર એાછાં ફેલે છે અને Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. २ गोचरीविधौ भ्रमरदृष्टान्तः ८९ 'पुष्पं ' इत्येकवचनेन ' यथा भ्रमर एकमपि पुष्पं न लामयति तथा साधुरपि कञ्चिदेकमपि दातारं न विपादयेदिति सूचितम् । यथा जलधरो न कञ्चिदुद्दिश्य जलं मुञ्चति, यथा वा शाखिनः स्वीयनामगोत्रकर्मोदयेन पुष्प फलानि स्वभावत एव समुत्पादयन्ति तथा गृहस्था अपि स्वधावेदनीयोदयेन यथासमयं दिवसे निशायां वा रन्धयन्ति यथा च यत्र भ्रमरा म गन्तुं शक्नुवन्ति तत्रापि द्रुमाः पुष्प्यन्त्येव तथा साधूनां तपोऽवस्थायां रात्रौ साधुसंस्थितिरद्दितेषु ग्रामनगरनिगमादिषु च गृहस्थाः पार्क सम्पादयन्त्येवेति नास्ति गृहस्थसम्पादितपाकस्य साधुभिक्षा हेतुत्वम् । गाथा के उत्तरार्द्धमें 'पुप्फ' इस एकवचनसे ऐसा सूचित होता है कि जैसे भौरा एकभी पुष्पको पीड़ा नहीं पहुंचाता है वैसे ही साधु किसी एकभी दाताको कष्ट न पहुंचावे | जैसे मेघ, किसीको उद्देश्य करके पानी नहीं बरसाता अथवा जैसे वृक्ष, अपने नाम - गोत्र कर्मके उदयसे ही बिना किसीको उद्देश्य करके स्वभावसे ही फल-फूल उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार गृहस्थ अपने क्षुधावेदनीय कर्मके उदयसे जय आवश्यकता होती है भोजन बनाते हैं । अथवा जैसे जहाँ भरे नहीं जा सकते वहां पर भी वृक्ष फूलते ही हैं, वैसे ही साधु जय तपस्या करते हैं, या जहां साधु नहीं होते उस ग्राम नगर आदिमें भी दिन या रात्रिमें गृहस्थ भोजन बनाते ही है, इसलिए 'गृहस्थ जो भोजन बनाते हैं वह साधुओंके निमित्त होता है' ऐसा नहीं समझना चाहिये । गाथाना उत्तरार्धभां 'पुष्कं ' मे मेउवयनथी शोभ सूचित थाय છે કે જેમ ભમરા એક પણ પુષ્પને પીડા ઉપાવતે નથી, તેમજ સાધુએ કોઇપણ દાતાને કષ્ટ ન ઉપજાવવે. જેમ મેઘ, કાઇને ઉદ્દેશ્ય કરીને પાણી વરસાવતા નથી, અથવા જેમ વૃક્ષ, પેતાના નામ-ગાત્ર કર્માંના ઉદયથી જ ફાઈને ઉદ્દેશ્ય કર્યાં વિના સ્વભાવથી જ ફળ-ફૂલ ઉત્પન્ન કરે છે, તેમ ગૃહસ્થ પેાતાના ક્ષુધા-વેદનીય કર્મીના ઉદયથી જ્યારે આવશ્યકતા લાગે છે ત્યારે ભજન અનાવે છે. અથવા જેમ જ્યાં ભમરા ન જઈ શકે તેવે સ્થળે પણ વૃક્ષ ફૂલે છે, તેમ જ સાધુ જ્યારે તપસ્યા કરે છે ત્યારે, અને જ્યાં સાધુ નથી હોતા તે ગ્રામ નગર આદિમાં પશુ દિવસે યા રાત્રિએ ગૃહસ્થે ભેજન તે મનાવે જ છે; એથી ગૃહસ્થ જે ભેજન બનાવે સાધુઓને નિમિત્તે હેાય છે' એમ ન સમજવું જોઈએ. છે તે Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ .श्रीदशकालिको 'पुप्फे' इति प्रसूनकुसुमादिपर्यायान्तरं परिहाय पुष्पपदोपादाने विकसितार्थोऽमिमेतस्ततम यथा भ्रमरो विकसितेप्वेव पुप्पेषु स्थितं रसं गृहाति तथा साधुरपि दावत्वभावमसमेभ्यो निर्जुगुप्सेभ्यश्च कुलेभ्य आरं गृहीयादित्यर्थः । - 'भमरो' इत्यनेन इतस्ततो भ्रमणेन कित्रिस्क्रिनिदाहारग्रहणं धचितम् । मर्यादार्थकेनोपसर्गेणाऽऽटा ' यावानादारोऽपेक्षितस्वावानेव ग्रहीतभ्यः । इति सूचितम् ।। 'पुप्प' शब्दके प्रसून कुसुम आदि अनेक पर्याय शन्द होनेपर भी गाथामें प्रसून या कुसुम आदि अन्य शब्द न देकर 'पुप्प' शन्द। दिया है, इससे सूचकारका आशय खिलेहुए फूलोंसे है ऐसास्पष्ट होताई, क्योंकि खिले हुए फूलका ही नाम पुष्प है, इसलिए भ्रमर, जैसे खिले हुए फूलों पर ही ठहरता है और उन्हींका रसपान करता है उसी प्रकार साधुमी उन्हीं गृहस्थोंसे आहार लेते हैं जिनका साधुओंको आहार देनेका भाव हो, तथा जो कुल दुगुंछित न हो। भ्रमरके भी पट्पद दिरेक आदि अनेक नाम है, उनमेंसे दूसरा कोई शब्द न देकर 'भ्रमर' पद दिया है, 'भ्रमर' शब्दका अर्थ है भ्रमण करना वाला-एक स्थानपर न ठहरने वाला; इस शब्दको देनेका आशय यह कि साधुको इधर-उधर भ्रमण करके थोडारआहार लेना चाहिए, जिसस गृहस्थ फिर आरंभन करें।मर्यादाअर्थवाले 'आ' उपसर्गको देनेकातात्यय यह है कि जितने आहारकी आवश्यकता हो उतनाही लेवे,अधिक नहीं। પુષ્પ શબ્દના પ્રસૂન કુસુમ આદિ અનેક પર્યાય શબ્દો હોવા છતાં ગાથામા પ્રસૂન કે કુસુમ આદિ અન્ય શબ્દ ન આપતાં પુષ્પ શબ્દ જ આપે છે. એમાં સૂત્રકારનો આશય ખીલેલા ફૂલનો છે એમ સ્પષ્ટ થાય છે, કારણ કે ખીલેલા ફેલનું જ નામ પુષ્પ છે. એથી ભ્રમર, જેમ ખીલેલા ફૂલ પર જ બેસે છે " તેનું રસપાન કરે છે, તેમ સાધુ પણ એવા ગૃહસ્થ પાસેથી આહાર લે છે ? જેમને ભાવ સાધુઓને આહાર આપવાનું હોય અને જે કુળ દુર્ગછિત ન હોય, ભ્રમરમાં પણ પક્ષદ દ્વિરેફ આદિ અનેક નામ છે, તેમાંથી બીજે કઈ શષ્ટ ન આપતાં બ્રમર' શબ્દ આપે છે. ભ્રમર શબ્દનો અર્થ થાય છે ભ્રમણ કરનાર-એક સ્થાન પર બેસી ન રહેનાર; એ શબ્દ આપવાને આશય એ છે કે સાધુએ અહીં-તહીં ભ્રમણ કરીને છેડે શેડ આહાર લેવે જોઈએ, જેથી ગ્રહસ્થ કરી આરંભ ન કરે. મર્યાદા અર્થવાળો માં ઉપગ આપવાનું તાત્પર્ય એ છે કે જેટલા આહારની આવશ્યકતા હેય એટલે જ લે. વધારે નહિ. Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९ - - अध्ययन १ गा. २ गोचरीविधौ भ्रमरदृष्टान्तः 'पुष्फइत्येकवचनेन 'यथा भ्रमर एकमपि पुष्पं न कामयति तथा साधुरपि कश्चिदेकमपि दातारं न विपादयेदिति मृचितम् । . यथा जलधरो न कश्चिदुद्दिश्य जलं मुञ्चति, यथा वा शाखिनः स्वीयनामगोत्रकर्मोदयेन पुष्प-फलानि स्वभावत एव समुत्पादयन्ति तथा गृहस्था अपि सक्षुधावेदनीयोदयेन यथासमयं दिवसे निशायां वा रन्धयन्ति, यथा च यत्र भ्रमरा न गन्तुं शक्नुवन्ति तत्रापि हमाः पुप्प्यन्त्येव तथा साधूनां तपोऽवस्थायां रात्री साधुसंस्थितिरहितेपु ग्रामनगरनिगमादिषु च गृहस्था: पाकं सम्पादयन्त्येवेति नास्ति गृहस्थसम्पादितपाकस्य साधुभिक्षाहेतुत्वम् । गाधाके उत्तरार्द्धमें 'पुप्फ' इस एकवचनसे ऐसा सूचित होता है कि जैसे भीरा एकभी पुष्पको पीड़ा नहीं पहुंचाता है वैसे ही साधु किसी एकभी दाताको कष्ट न पहुंचावे । जैसे मेघ, किसीको उद्देश्य करके पानी नहीं बरसाता अथवा जैसे वृक्ष, अपने नाम-गोत्र कर्मके उदयसे ही विना किसीको उद्देश्य करके स्वभावसे ही फल-फूल उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार गृहस्थ अपने क्षुधावेदनीय कर्मके उदयसे जब आवश्यकता होती है भोजन बनाते हैं। अथवा जैसे जहाँ भौरे नहीं जा सकते वहां परभी वृक्ष फूलते ही हैं, वैसे ही साधु जय तपस्या करते हैं, या जहां साधु नहीं होते उस ग्राम नगर आदिमें भी दिन या रात्रिमें गृहस्थ भोजन बनाते ही हैं, इसलिए 'गृहस्थ जो भोजन बनाते हैं वह साधुओंके निमित्त होता है' ऐसा नहीं समझना चाहिये। याना त्तराभा 'पुप्फ' से अपयनया सेभ सूचित थाय छ । જેમ ભમરા એક પણ પુષ્પને પીડા ઉપજાવતું નથી, તેમજ સાધુએ કેઈપણ દાતાને કટ ન ઉપજાવ. જેમ મેઘ, કઈને ઉદેશ્ય કરીને પાણી વરસાવતે નથી, અથવા જેમ વૃક્ષ, પિતાના નામ-ગેવ કર્મના ઉદયથી જ કેઈને ઉદ્દેશ્ય કર્યા વિના સ્વભાવથી જ ફલ ઉત્પન્ન કરે છે, તેમ ગૃહસ્થ પિતાના ક્ષુધા-વેદનીય કર્મના ઉદયથી જ્યારે આવશ્યકતા લાગે છે ત્યારે ભેજન બનાવે છે. અથવા જેમ જ્યાં ભમરા ન જઈ શકે તે સ્થળે પણ વૃક્ષ લે છે, તેમ જ સાધુ જ્યારે તપસ્યા કરે છે ત્યારે, અને ત્યાં સાધુ નથી હોત તે ગ્રામ નગર આદિમાં પણ દિવસે યા રાત્રિએ ગૃહસ્થ જન તે બનાવે જ છે, એથી “ગૃહરથ જે ભેજન બનાવે છે તે - સાધુઓને નિમિત્ત હોય છે એમ ન સમજવું જોઈએ. Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवेकालिकसूत्रे ननु विषमोऽयं भ्रमरदृष्टान्तः, तथाहि - भ्रमरो हुमाशामन्तरेणैव पुष्परसमादन भिक्षुः पुनर्याचित्र, fear तद कदाचिदेकस्मिन्नपि दिने मुर्मुरेकं ममुपैति afe साधवोऽपि तथैव गृहस्येभ्यो मिक्षां गृह्णीयुः १ किश्व भ्रमरोऽसब्जी, साधवस्तु सव्ज्ञिनो जिनवचननिपुणाथ, भ्रमरोऽयती साधवस्तु प्रतिनः, भ्रमरोऽमत्पारूपानी साधत्रस्तु प्रत्याख्यानिनः, भ्रमरोऽसंयतः साधवस्तु संयताः, इत्यादिविरुद्धधर्मशालित्वादिति चेन्न, सर्वत्र दृष्टान्तस्यैकदेशिरूपत्वात्, अनेकप्पतः पुष्पालान्तिपूर्वक किञ्चित्किञ्चिदुपादानमात्रे दृष्टान्ततात्पर्यमिति निष्कर्षः, स्फुटीधुओंके ९० प्रश्न--भ्रमरका उदाहरण विषम है, कारण यह कि उसका साधु साथ ठीक मिलान नहीं होता। क्योंकि, भ्रमर वृक्षकी आज्ञा प्राप्त किये विना ही पुष्परस पीता है, साधु याचना करके ही भिक्षा लेते हैं, भ्रमर एक दिनमें एकही वृक्षके पास बारम्वार जाता है और पुष्परसको पीता है, साधु एक दिनमें बारम्बार एक गृहस्थके घरसे भिक्षा नहीं ले सकते, भ्रमर असी होता है, साधु सज्जी होते हैं, भ्रमर अप्रत्याख्यानी होता है, साधु प्रत्याख्यानी होते हैं, भ्रमर असंयत होता है, साधु संयत होते हैं, इत्यादि अनेक भिन्नताएँ पायी जाती है | } उत्तर --- ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि दृष्टान्त सब जगहों में एकदेशीय ही होता है, 'पीड़ा न पहुंचाते हुए अनेक पुष्पोंसे थोड़ा थोड़ा लेना' इतने अंशोमें यह दृष्टान्त समझना चाहिये । इस विषयका स्पष्टी પ્રશ્ન-ભ્રમનું ઉદાહરણ વિષમ છે, કારણ કે તે સાધુઓની સાથે ખરાખર બંધ એસતું નથી. ભ્રમર વૃક્ષની આજ્ઞા પ્રાપ્ત કર્યા વિના જ પુષ્પને રસ પીએ છે. સાધુ યાચના કરીને જ ભિક્ષા લે છે. ભ્રમર એક દિવસમાં એક જ પાસે વારંવાર જાય છે અને પુષ્પરસને પીએ છે, સાધુ એક દિવસમાં વારંવાર એક ગૃહસ્થના ઘેરથી ભિક્ષા નથી લઈ શકતા, ભ્રમર અસની હાય છે, સાધુ સન્ની હાય છે; ભ્રમર અન્નતી હેાય છે; સાધુ વ્રતી હોય છે; ભ્રમર અપ્રત્યા ખ્યાની હાય છે, સાધુ પ્રત્યાખ્યાની હોય છે ભ્રમર અસયત હાય છે, સાધુ સયત હાય છે. ઇત્યાદિ અનેક ભિન્નતાએ રહેલી છે. વૃક્ષની ઉત્તર—એ શકા બરાબર નથી, કારણકે દહાન્ત બધી જગ્યાએ એકદેશીય જ હોય છે. ‘ પીડા ઉપજાવ્યા વિના અનેક પુષ્પામાંથી ચેડા થોડા રસ લેવે' એટલા અશમાં જ આ દૃષ્ટાન્ત સમજવું જે/એ. આ વિષયનું સ્પષ્ટી Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. ३ गोचरीविधो भ्रमरदृष्टान्तः करिष्यति चैतत्सूत्रकारः स्वयम् - 'महुगारसमा' इति पञ्चमगाथया ||२|| एतदेव विशेषेण स्फोरयितुं दार्शन्तिकमाह- 'एमेए' इत्यादि ५ ४ 3 ७ मूलम्-एमेए समणा सुत्ता, जे लोप संति साहुणो । ૧ ૧૦ ૮ ર विहंगमा व पुप्फेसु, दाणभत्तेसणे रया ॥३॥ छाया - एवमेते श्रमणा मुक्ता, ये लोके सन्ति साधवः । विहङ्गमा इव पुष्पेषु दानभक्तपणे रताः ॥३॥ ९१ सान्वयार्थः -- एमेए = इसीमकार ये लोए लोकम जे जो मुक्तान् द्रव्यभावपरिग्रहरहित समणा तपस्त्री साहुणो = साधु संति हैं, (वे) पुप्फेसु =फूलोंमें विहंगमा व= पक्षियों- भमरोंकी तरह दाणभत्तेसणे-दाता द्वारा दियेजाने वाले आदारकी गवेषणामें रया - लीन रहते हैं । अर्थात्-जैसे पूर्वोक्त प्रकारसे भौंरा पुप्परसका पान करता है उसी प्रकार साधु गृहस्थियोंको असुविधा न पहुंचाते हुए अनेक घरोंसे थोड़ा-थोड़ा आहार ग्रहण करते हैं ॥ ४ ॥ टीका -- एवम् उक्तप्रकारेण ये लोके= समयक्षेत्रे सन्तिर्तन्ते एते ते सर्वे श्रमणाः। ‘श्रमणाः, शमनाः समनसः, समणाः' इत्येतेषां प्राकृते 'समणा' इति रूपं करण सूत्रकार स्वयं 'महुगारसमा ' इस पांचवीं गाथामें करेंगे ||२|| अब विशेष खुलासा करनेके लिए दान्तिक कहते हैं इस प्रकार अढाइ द्वीपमें जितने श्रमण, मुक्त, साधु हैं वे सय दाताद्वारा दिये जाते हुए आहारकी एपणामें इस प्रकार प्रयत्न करें जैसे भ्रमर पुष्पोंके रसके अन्वेषणमें लीन होता है । श्रमण, शमन, समनस्, समण, इन सब शब्दोंका प्राकृत भाषामें ४२ सूत्रार पोते महुगारसमा मे यांन्यभी गाथामा ४२शे. (२) હવે વિશેષ ખુલાસા કરવાને દાન્તિક કહે છે.- બધા આ પ્રમાણે અઢી દ્વીપમાં જેટલા શ્રમણ, મુક્ત, સાધુએ છે તે દાતા દ્વારા આપવામાં આવતા આહારની એષણામાં એવા પ્રયત્ન કરે કે જેમ ભ્રમર પુષ્પાના રસના શૈાધનમાં લીન થાય છે. શ્રમજી, શમન, સમનસ, સમગ્ર, એ ખધા શબ્દેનું પ્રાકૃત ભાષામાં Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - श्रीदकालिको ननु विषमोऽयं भ्रमरदृष्टान्तः, तयारि-भ्रमरो द्वमाझामन्तरेणेव पुष्परसमादत्त भिक्षुः पुनर्याचित्वेष, किस तदर्थ पदानिदेशस्मिन्नपि दिने मुर्मुहरेकं ठुममुपति तत्कि साधयोऽपि तथैव गृहस्पेभ्यो मिस गृहीयुः ? किन भ्रमरोऽसनी, साथवस्तु सम्झिनो निनवचननिपुणाभ, भ्रमरोऽयती सायवस्तु बतिना, भ्रमरो ऽपत्याख्यानी साधवस्तु मत्याख्यानिनः, श्रमरोऽसंयतः साधवस्तु संयताः, इत्यादि विरुद्धधर्मशालिवादिति चेन्न, सर्वच दृष्टान्तस्यैकदेशिरूपस्वाद , अनेकपुप्पतः पुष्पातान्तिपूर्वक्रकिञ्चित्किञ्चिदुपादानमात्रे दृष्टान्ततात्पर्यमिति निष्कर्षः, स्फुटी प्रश्न-भ्रमरका उदाहरण विषम है, कारण यह किउसकासाधुओं के साध ठीक मिलान नहीं होता। क्योंकि, भ्रमर वृक्षकी आज्ञा प्राप्त किय विना ही पुष्परस पीता है, साधु याचना करके ही भिक्षा लेते है, भ्रमर एक दिनमें एकही वृक्षके पास घारम्बार जाता है और पुष्परसको पाता है, साधु एक दिनमें बारम्बार एक गृहस्थके घरसे भिक्षा नहीं ले सकते, भ्रमर असञी होताहै,साधु सजी होते हैं,भ्रमर अप्रत्याख्यानीहोता है, साधु प्रत्याख्यानी होते हैं, भ्रमर असंयत होता है, साधु संयत होते है, इत्यादि अनेक भिन्नताएँ पायी जाती है। उत्तर-ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि दृष्टान्त सब जगहोंमें एक देशीय ही होता है, 'पीड़ा न पहुंचाते हए अनेक पुष्पोंसे थोड़ा थोड़ा लेना' इतने अंशोमें यह दृष्टान्त समझना चाहिये। इस विषयका स्पष्टी પ્રશ્ન-ભ્રમરનું ઉદાહરણ વિષમ છે, કારણ કે તે સાધુઓની સાથે બરાબર બંધ બેસતું નથી. ભ્રમર વૃક્ષની આજ્ઞા પ્રાપ્ત કર્યા વિના જ પુષ્પને રસ પીએ છે. સાધુ યાચના કરીને જ ભિક્ષા લે છે. બ્રમર એક દિવસમાં એક જ વૃક્ષના પાસે વારંવાર જાય છે અને પુષ્પરસને પીએ છે, સાધુ એક દિવસમાં વારંવાર એક ગૃહસ્થના ઘેરથી ભિક્ષા નથી લઈ શક્તા, ભ્રમર અસંસી હોય છે. સાધુ સંસી હોય છે; ભ્રમર અવતી હોય છે; સાધુ વતી હોય છે, ભ્રમર અપ્રત્યા ખ્યાની હોય છે, સાધુ પ્રત્યાખ્યાની હોય છે. ભ્રમર અસંમત હોય છે, સાધુ સંયત હોય છે. ઈત્યાદિ અનેક ભિન્નતાઓ રહેલી છે. ઉત્તર-એ શંકા બરાબર નથી, કારણકે દષ્ટાન્ત બધી જગ્યાએ એકદેશીય જ હોય છે. “પીડા ઉપજાવ્યા વિના અનેક પુષ્પમાંથી છેડો છે રસ લેવા એટલા અંશમાં જ આ દષ્ટાન્ત સમજવું જોઈએ. આ વિષયનું સ્પષ્ટી Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्ययन १ गा. ३ गोचरीविधी भ्रमरदृष्टान्तः जीवन्तीति वा समणाः । मुक्ता-परिग्रहबन्धनरहिवाः धर्मोपकरणं विहाय सूचीकुशाग्रमाप्रेणापि परिग्रहेण रिक्ता इति यावत , तत्र परिग्रहो याह्याभ्यन्तरभेदाद्धिविधा, तयोराधो धनधान्यादिरूपो नवविधः । द्वितीयस्तु "मिच्छत्तं वेयतिगं, हासाइयछकगं च नायव्वं । कोहाईण चउक्कं, चउदस अभितरा गंठी ।" इत्युक्तरूपः । साधवः साध्नुवन्ति-निप्पादयन्ति स्वपरशिवसुखं ये ते, पुप्पेपु-व्याख्यातपूर्वपु विहङ्गमा इच, विहायसा गगनेन गच्छन्तीति तथोक्ताः, प्रकरणादन भ्रमरा इत्यर्थः, त इच, भ्रमरतुल्या इति यावत् । एवं दृष्टान्तदान्तिकयोमिथः सादृश्यं प्रदय सम्प्रति यः कश्चिद् भेदस्तमाह परिग्रहके यन्धनसे रहित अर्थात् धर्मके उपकरणोंके सिवाय सुई या कृशकी नोंकके बराबर भी परिग्रह न रखनेवालोंको मुक्त कहते हैं। परिग्रहके दो भेद हैं-(१) बाह्य और (२) आभ्यन्तर । पहला याह्य परिग्रह धन-धान्य आदि नौ प्रकारका है। दूसरा आभ्यन्तर परिग्रह(१) मिथ्यात्व, (२) स्त्रीवेद, (३) पुरुषवेद, (४) नपुंसकवेद, (६) हास्य, (६) रति, (७) अरति, (८) शोक, (२) भय, (१०) जुगुप्सा, (११) क्रोध, (१२) मान, (१३) माया और (१४) लोभके भेदसे चौदह प्रकारका है। स्व और परके मोक्ष सम्बन्धी सुखको साधनेवाले साधु कहलाते हैं। ऐसे साधु, दिये जानेवाले अशन आदिकी एपणामें प्रवृत्त होवें -आहार-पानी की विशुद्धिमें लीन रहें। ____ यहां तक दृष्टान्त और दान्तिककी परस्परमें समानता यतलाई है। પરિગ્રહના બંધનથી રહિત અર્થાત ધર્મનાં ઉપકરણે સિવાય એક સોય કે તણખલા જેટલે પણ પરિગ્રડ ન રાખનારાઓને મુક્ત કહે છે. परिमले छ. (१) मने (२) माय२. पडसा परिચહ ધન-ધાન્યાદિ નવ પ્રકાર છે. બીજે આધ્યેતર પરિગ્રહ-(૧) મિથ્યાત્વ, (२) श्रीव, (3) पु३५३८, (४) मधुस २६, (५) २५, (९) ति, (७) मति, (८) , (e) अय, (१०) भुसा, (११)ोध, (१२) भान, (१३) माया, અને (૧૪) લેભ, એ ભેદ એ કરીને ૧૪ પ્રકારે છે. સ્વ અને પરના મેક્ષ સંબંધી સુખને સાધનારા સાધુ કહેવાય છે. એવા સાધુ, આપવામાં આવતા અશન આદિની એવણમાં પ્રવૃત્ત થાય, આહાર પાણીની વિશુદ્ધિમાં લીન રહે અહીં સુધી ટાન્ત અને દષ્ટન્તિકની પરસ્પર સમાનતા બતાવી છે. હવે Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - ९२ श्रीदनवैकालिको भवति, तत्र श्राम्यन्ति-तपस्यन्त्याहारादिनिरासेन शरीरं पलेशयन्तीति, भवभ्रमणहेतुभूतविपयेषु खिधन्तीति, यद्वा अन्तर्भावितण्यर्थत्वात् श्राम्यन्तिन्दमनेन श्रमयन्तीन्द्रियनोइन्द्रियाणीति श्रमणाः, शमयन्ति-शान्ति नयन्ति कपायनोकपायरूपाऽनलमिति, शाम्यन्ति-विशङ्कटमाटवीपर्यटदोगानलोज्ज्वलज्वालामालाजनितसन्तापकलापतो निरत्ता भवन्तीति या शमनाः । समानानि सपरेषु तुल्यानि मनांसि येपामिति, कुशलमयेमनोभिः सह वर्तन्त इति वा समनसः, सम् सम्यक् अणन्तिम्भवचनं त्रुवत इति, सम्यक् अण्यन्तेकपायवतृष्टयं जिला 'समण' रूप होता है। इनमें 'श्रमण' का अर्थ यह है कि जो अनशन आदि तप करते हैं-परिपद सहते हैं, संसारमें परिभ्रमण करानेवाल इन्द्रियोंके विपयोंसे उदास रहते हैं, अथवा जो पांच इन्द्रियांका तथा मनका दमन करते हैं। 'शमन'का अर्थ यह होता है कि कषाय-क्रोध मान माया और लोभ तथा नोकपाय-हास्य रति अरति शोक भय जुगुप्सा स्त्रीवेद पुरुपवेद और नपुंसकवेद-रूपी अग्निकोशान्त कर देतह, विशाल भचाटवीमें पर्यटन करते हुए'भोगरूपी अग्निको धधकतो हुई ज्वालाओंसे उत्पन्न हुए संतापके समूहको शुद्ध भावनासे.शान्त कर देते हैं। 'समनस्' शब्दका यह अर्थ है कि जिनका मन स्व और पर में समान है, अथवा जिनके मनोयोग.सदा शुद्ध रहते हैं। 'समण' शब्दका अर्थ यह है कि-जो सम्यक् प्रकारसे प्रवचनका प्रतिपादन करते है अथवा चारों कपायोंको जीत लेते हैं। ‘સમણુ” રૂપ થાય છે. “શમણું અર્થ એ છે કે-જે અનશન આદિ તપ કરે છે–પરિષહ સહે છે, સંસારમાં પરિભ્રમણ કરાવનારા ઇન્દ્રિયના વિષયથી ઉદાસ રહે છે, અથવા જે પાંચ ઈન્દ્રિયેનું તથા મનનું દમન કરે છે, “શમેન ને અર્થ એ થાય છે કે-કષાય-ક્રોધ ભાન માયા અને લેભ, તથા નેકવા હાસ્ય રતિ અરતિ શોક ભય જુગુપ્સા સ્ત્રીવેદ પુરૂષદ અને નપુંસકવેદ રૂપી અગ્નિને શાનત કરી નાખે છે, વિશાળ ભવાટવીમાં પર્યટન કરતાં ભેગરૂપી અનિની ભભકતી જ્વાલાઓમાંથી ઉત્પન્ન થતાં સંતાપના સમૂહને શુદ્ધ ભાવનાથી શાન્ત કરી નાંખે છે. “સમસ” શબ્દનો અર્થ એ છે કે-જેનું મન સ્વ અને પરમાં સમાન હોય. અથવા જેનાં મને હમેશ શુદ્ધ રહે. “સમણું શબ્દનો અર્થ એવો થાય છે કે-જે સમ્યફ પ્રકારે પ્રવચનનું પ્રતિપાદન કરે છે અથવા ચારેકષાયને જીતી લે છે. Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - ARRI - A अध्ययन १ गा. ३ भिक्षापकाराः मपि व्यवच्छियते । आधाकर्मादिदोपन्यारत्तये 'एसणा'--पदमुपातम् । एवमुक्तगाथाभ्यां दृष्टान्त-दान्तिकपदर्शनपुरस्सरं साधुभिः कथं मिक्षा ग्रहीतव्येत्युक्तं, तत्र भिक्षा द्विविधा-लौकिकी लोकोत्तरा च । तयोराधा दीनवृति-पौरुषत्री-भेदाद् द्विविधा, तत्र स्वोदरभरणासमर्थानां हीना-ऽनाय-पद्मभृतीनामाया, पश्चास्रवभानामिन्द्रियपत्रकविषयासक्तचित्तानां ममादपञ्चकमवृत्तानां भोगामिपगृनूनां सन्ततिसमुत्पादकानां निरुद्यमानां द्वितीया । लोकोत्तराऽपि निराकरण करनेके लिए 'भत्त' शब्द और आधाकर्मी आदि दोपवाले आहारका व्यवच्छेद करनेके लिए 'एपणा' शब्द गाधामें दिया गया है। इन दो गाथाओंमें दृष्टान्त और दान्तिक पतलाकर यह प्रगट किया है कि साधुओंको किस प्रकार भिक्षा लेनी चाहिये?, अत:भिक्षाके भेद कहते हैं भिक्षा दो प्रकारकी है-लौकिक भिक्षा और लोकोत्तर भिक्षा। लौकिक भिक्षाके भी दो भेद हैं-(१) दीनवृत्ति, (२) पौरपघ्नी । अपना पेट भरने में असमर्थ, दीन, हीन, अनाथ, लूलों, लंगड़ोंकी भिक्षा दीनवृत्ति कहलाती है। पांच आरबोंका सेवन करनेवाले, पांचों इन्द्रियोंके विषयोंमें चित्तको सदा आसक्त रखनेवाले, पांचों प्रकारके प्रमादोंमें प्रवृत्ति करनेवाले, भोगरूपी आमिपमें अभिलापारखनेवाले, बाल-बच्चोंको उत्पन्न करनेवाले निकम्मे मनुप्योंको दी जानेवाली भिक्षा पौरुपनी कहलाती है, क्योंकि इससे उनका पौरुप नष्ट हो जाता है । આધાકમી આદિ દેવવાળા આહારને વ્યવરછેદ કરવાને માટે ઉપ શબ્દ ગાથામાં આપવામાં આવેલ છે. . આ બે ગાથાઓમાં દષ્ટાંત અને દૃષ્ટાંતિક બતાવીને એમ પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે કે સાધુઓએ કેવા પ્રકારની ભિક્ષા લેવી જોઈએ. માટે ભિક્ષાના ભેદ કહે છે - ભિક્ષા બે પ્રકારની છે. લોકિક ભિક્ષા અને લોકોત્તર ભિક્ષા. લૌકિક ભિક્ષાના પણ બે ભેદ છે. (૧) દીનવૃત્તિ, (૨) પૌરૂષી . પિતાનું પેટ ભરવામાં અસમર્થ દીન, હીન, અનાથ, લૂલા, લંગડાની ભિક્ષા દીનવૃત્તિ કહેવાય છે. પાંચ આર નું સેવન કરનારા, પાંચે ઈન્દ્રિયોના વિવમાં ચિત્તને સદા આસક્ત રાખનાર પાંચ પ્રકારના પ્રમાદેમાં પ્રવૃત્તિ કરનારા, ગરૂપી આમિષમાં અભિલાષા રાખ નારા, બાળ-બચ્ચાને ઉત્પન્ન કરનારા, એવા નકામા મનુષ્યને આપવામાં આવતી ભિક્ષા પૌરૂષMી કહેવાય છે, કારણ કે તેથી એમનું પૌરૂષ નષ્ટ થઈ જાય છે. - - Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ - - श्रीदशकालिको यद्वा यया विहगमाः पुप्पेषु तथा साधयः कुत्र रताः ? इत्याह-'दानमक्तेषणे ‘रताः' इति, दीयत इति, अदायीति या दानन्दीयमानमयवा दत्तं, तब तक तम्भ न्नादिकं च दानमतं तस्य एपणम् अन्वेपणं तस्मिन् , अथवा दानं दत्त, भक्तंभामुकम् , एपणा अन्वेपणम् एतेपां समाहारद्वन्दे दानमक्तपणं तस्मिन् स्वा आसक्ता इत्यर्थः । चोटिक शाक्य-तापस-गरिका-ऽऽजीया अपि लोके श्रमणपदेनोच्यन्ते तेषा निरासार्यमुक्तं 'मुक्ता' इति । निस्वादिप्यपि व्यवहारतो मुक्तत्वमस्त्यतस्तद्वयात्यर्थमाह-'साहुणो' इति । मधुकरा अदत्ताऽऽदानवृत्या कुममरस पियार धमणास्तु दादभिरदत्तस्यानादेखिक्षामपि न कुर्वते ग्रहणस्य तु कयंत्र कार भ्रमरापेक्षया साधनां व्यतिरेक दर्शयितुमाह-'दाण' इति । 'मत्त' पदेन साचा अब उनमें जो अन्तर है उसेभी बतलाते हैं। वह अन्तर यह ह जैसे धमर पुप्पोंमें अनुरक्त होता है वैसे साधु गृहस्थद्वारा दिये जाने वाल अशन पान आदिके अन्वेपणमें प्रवृत्त होवें। योटिक, शाक्य, तापस, गैरिक और आजीविक आदिभी, लोकम श्रमण कहलाते हैं, उनका निराकरण करनेके लिए गाया 'मुत्ता (मुक्ताः) कहा है। निहव आदिभी व्यवहारसे मुक्त कहलाते है अत' उनका निराकरण करनेके लिए 'साहुणो' (साधव:) पद दिया है। पिना दिये हुए पुष्पके रसका पान करते हैं किन्तु श्रमण विना हुएको ग्रहण करनेकी इच्छाभी नहीं करते, ग्रहण करनेकी तो बात है दूर है, इस भेदको प्रगट करनेके लिए 'दान' शब्द, सचित्त आहारक તેમાં જે અંતર રહેલું છે તે બતાવે છે. તે અંતર એ છે કે-જેમ ભ્રમર ૩ અનુરકત થાય છે તેમ ગૃહસ્થ આપેલા અનશન પાન આદિના શોધનમાં 3 પ્રવૃત્ત થાય. બેટિક, શાક્ય, તાપસ, ગરિક અને આજીવિક આદિ પણ જેને मां श्रम वाय छ, तेनु निश२५ ४२१॥ भाटे मायामा मुत्ता (मुक्ता। કહ્યું છે. નિનવ આદ પણ વ્યવહારે કરીને મુક્ત કહેવાય છે, તેથી તેનું નામ ४२ ४२वान साहुणो (साधवः) ५६ मा छ. श्रभर अमापेक्षा पु०पना રસનું પાન કરે છે, કિતુ શ્રમણ અણઆપેલા ભેજનનું ગ્રહણ કરવાની છે પણ કરતા નથી, પછી ગ્રહણ કરવાની વાત જ કયાં રહી ? આ ભેદને પ્રકટ કરવાને भाटे दान शाह, सवित्त माहारनु निरा४२५ ४२पाने भाटे भत्त · श, मन Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७ अध्ययन १ गा. ३ भिक्षामकाराः द्वितीया-यथा गौर्यत्र लघुतणादिकं पश्यति तत्राऽल्पं यत्र चाधिकं तत्र पूर्वापेक्षयाऽधिकं कवलं गृह्णाति न तु तृणादिकमुन्मूलयति तथा मुनिरपि गृहस्थगृहे यथाऽवसरं यथासामग्रि च यां भिक्षां गृह्णाति सा । अथवा विविधवसनरत्नालङ्करणविभूपिता सुन्दरी युवतिर्गवे घासादिकं समर्पयति तदा तदीयरूपलावण्यादिकमपश्यन्ती गौर्दीयमानं घासादिकमुपादत्ते, तद्वद् भिक्षुणाऽपि दारावसनमुवेपरूपलावण्यादेः सानुरागावलोकनं विहाय केवलमशनपानादिशुद्धौ दृष्टिः स्थापनीयेति गोचरीभिक्षासमाचारः (२)। तृतीया गडुलेपा-यथा गडूपरि समधिकलेपमदानेन महतलेपतो नीरुजोऽपि .. (२) गोचरी-जैसे गाय जहां कम घास देखती है वहाँ कम कवल ग्रहण करती है, जहां अधिक देखती है वहां पहलेसे कुछ अधिक ग्रहण करती है, घासको जड़से नहीं उखाड़ती, उसीप्रकार भिक्षु एक स्थानसे ही पूर्ण अशन पान आदि न ग्रहण करे किन्तु गृहस्थको फिर आरम्भ न करना पड़े इस प्रकार विचार कर अशनादि ले उसे गोचरी कहते हैं। अथवा जैसे विविध यहुमूल्य वस्त्र आभूषणोंसे आभूषित सुन्दरी युवती स्त्री गायको घास डालने आती है तो गाय उसकी सुन्दरता नहीं देखती वरन् घास पर ही दृष्टि रखती है, उसीप्रकार भिक्षु आहारादि देती हुई स्त्रीके सौन्दर्य, सुवेप, आभूषण आदिका निरीक्षण न करे किन्तु अशनादिकी शुद्धि पर ही दृष्टि रखे उसे गोचरी कहते हैं। , __ (३) गड्डुलेपा-जैसे फोड़ेके ऊपर आवश्यकतासे अधिक लेप करनेसे - (૨) ગોચરી–જેમ ગાય જ્યાં ઓછું ઘાસ જુએ છે ત્યાં એ છે કે ળિયે લે છે, જ્યાં વધુ ઘાસ જુએ છે ત્યાં પહેલાથી વધુ મેટે ગ્રાસ (કેળીયે) લે છે, ઘાસને મૂળમાંથી ઉપાડતી નથી. એ રીતે મિક્ષ એક સ્થાનેથી જ પૂરાં અશન પાન આદિ ગ્રહણ ન કરે, કિંતુ ગૃહસ્થને ફરીથી આરંભ-સમારંભ ન કરવું પડે એ વિચાર કરીને અશનાદિ લે, તેને ગોચરી કહે છે. અથવા જેમ વિવિધ બહમૂલ્ય વસ્ત્રાભૂષણથી સજજ થએલી સુન્દર યુવતી સ્ત્રી ગાયને ઘાસ નીરવા આવે છે, તે ગાય તેની સુંદરતા જોતી નથી, પરંતુ ઘાસ પર જ દષ્ટિ રાખે છે, તે પ્રમાણે ભિક્ષુ અહારાદિ આપતી સ્ત્રીનું સૌંદર્ય, સુવેશ, આભૂષણ આદિનું નિરીક્ષણ ન કરે, કિંતુ અશનાદિની શુદ્ધિ પર જ દષ્ટિ રાખે તેને ગોચરી કહે છે. (૩) ગડુલેપા–જેમ ગુમડા ઉપર જરૂરી કરતાં વધારે લેપ કરવાથી લેપ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' · श्रीदशवकालिको -- द्विविधा-अपशस्ता प्रशस्ता च, तत्राऽवसन्न-पार्वस्यादीनामप्रशस्ता मिला, .प्रशस्ता पुनः पञ्चमहाप्रतधारिणां पटकायरसकाणां समितिपञ्चक-गुप्तित्रयवतां -मुनीनां मतिमाधारियायकाणां च, यत पवंभूताः श्रारका अपि श्रमणकल्पा -एव । इयमेव 'सर्वसम्पत्करी'-त्युच्यते, अस्या अन्यान्यपि पडू नामानि यथा-(१) माधुकरी, (२) गोचरी, (३) गहलेपा, (४) असाञ्जना, (५) गापूरणी, (६) दाहोपशमनी चेति । तास माधुकरी-समनन्तरमत्रोक्तस्वरूपा (१)। लोकोत्तरभिक्षा भी दो प्रकारकी है-(१) अप्रशस्त और (२)प्रशस्त! अवसन्न औरंपार्श्वस्थ आदिकी भिक्षा अप्रशस्त और पंचमहाव्रतधारा, पट्कायरक्षक, पांचसमिति तीनगुसिका पालन करनेवाले मुनिकी तथा प्रतिमा-(पडिमा)-धारी श्रावकोंकी भिक्षा प्रशस्त कहलाती है। प्रतिमा-(पडिमा)-धारी श्रावकोंकी भिक्षा प्रशस्त इस कारण है कि वे श्रावक होते हुए भी साधुसरीखी उत्कृष्ट क्रियाका पालन करते है। इस मिक्षाको 'सर्वसम्पत्करी' भी कहते हैं, क्योंकि इससे आत्माको समस्त सम्पत्ति ज्ञान दर्शन सुख आदिकी प्राति होती है । इस भिक्षाक छह नाम और भी कहते हैं--- (१) माधुकरी (भ्रामरी), (२) गोचरी, (३) गडलेपा, (४) अभाजना, (५) गर्तापूरणी और (६) दाहोपशमनी । . (१) माधुकरी (भ्रामरी) का स्वरूप इससे पहलेकी गाथामें कहा जाचुका है। લેત્તર ભિક્ષા બે પ્રકારની છે. (૧) અપ્રશસ્ત, (૨) પ્રશસ્ત. અવસગ્ન અને પાવસ્થ આદિની ભિક્ષા અપ્રશસ્ત અને પંચ મહાવ્રતધારી, ઘકાયર, પાંચ સમિતિ ત્રણ ગુપ્તિનું પાલન કરનારા મુનિની તથા પ્રતિમા (પડિમા)-ધારી શ્રાવકેની ભિક્ષા પ્રશસ્ત કહેવાય છે. પ્રતિમા–(પડિમા-ધારી શ્રાવકોની ભિક્ષા પ્રશસ્ત એ કારણથી છે કે એ શ્રાવકે હોવા છતાં સાધુના જેવી ઉત્કૃષ્ટ ક્રિયાનું પાલન કરે છે. આ ભિક્ષાને સર્વસમ્પત્કરી” પણ કહે છે, કારણ કે તેથી આત્માની સમસ્ત સમ્પત્તિ જ્ઞાન દન સુખ આદિની પ્રાપ્તિ થાય છે. એ ભિક્ષાનાં બીજાં છ નામ પણ કહેલાં છે. (१) भाधुश (श्राभरी), (२) गोयरी, (3) गडा , (४) Aairal, (५) सापूरी, मन (6) हापशमनी. (१) भाधुश (भ्रामरी ) २१३५ पडेसांनी या छे. Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - -- अध्ययन १ गा. ३ भिक्षाप्रकाराः द्वितीया-यथा गौर्यत्र लघुवणादिकं पश्यति तत्राऽल्पं यत्र चाधिकं तत्र पूर्वापेक्षयाधिकं कवलं गृह्णाति न तु वणादिकमुन्मूलयति तथा मुनिरपि गृहस्थगृहे ययाऽवसरं यथासामग्रि च यां भिक्षां गृह्णाति सा । अथवा विविधवसनरत्नालङ्करणविभूपिता मुन्दरी युवतिर्गवे घासादिकं समर्पयति तदा तदीयरूपलावण्यादिकमपश्यन्ती गौर्दीयमानं घासादिकमुपादत्ते, तद्वद् भिक्षुणाऽपि दातृवसनमुवेपरूपलावण्यादेः सानुरागावलोकनं विहाय केवलमशनपानादिशुद्धौ दृष्टिः स्थापनीयेति गोचरीमिक्षासमाचारः (२)। ___ तृतीया गड्डलेपा-यथा गहपरि समधिकलेपमदानेन मस्तलेपतो नीरुजोऽपि . (२) गोचरी-जैसे गाय जहां कम घास देखती है वहाँ कम कवल ग्रहण करती है, जहां अधिक देखती है वहां पहलेसे कुछ अधिक ग्रहण करती है, घासको जड़से नहीं उखाड़ती, उसीप्रकार भिक्षु एक स्थानसे ही पूर्ण अशन पान आदि न ग्रहण करे किन्तु गृहस्थको फिर आरम्भ न करना पड़े इस प्रकार विचार कर अशनादि ले उसे गोचरी कहते हैं। अथवा जैसे विविध यहुमूल्य वस्त्र आभूषणोंसे आभूपित सुन्दरी युवती स्त्री गायको घास डालने आती है तो गाय उसकी सुन्दरता नहीं देखती वरन् घास पर ही दृष्टि रखती है, उसीप्रकार भिक्षु आहारादि देती हुई स्त्रीके सौन्दर्य, सुवेष, आभूषण आदिका निरीक्षण न करे किन्तु अशनादिकी शुद्धि पर ही दृष्टि रखे उसे गोचरी कहते हैं। , _ (३) गडुलेपा-जैसे फोड़ेके ऊपर आवश्यकतासे अधिक लेप करनेसे - (૨) ગોચરી-જેમ ગાય જ્યાં ઓછું ઘાસ જુએ છે ત્યાં ઓછા કેળિયે લે છે, જ્યાં વધુ ઘાસ જુએ છે ત્યાં પહેલાથી વધુ મટે ગ્રાસ (કેળીયા) લે છે, ઘાસને મૂળમાંથી ઉપાડતી નથી. એ રીતે ભિક્ષુ એક રથાનેથી જ પૂરાં અશન પાન આદિ ગ્રહણ ન કરે, પ્તિ ગૃહસ્થને ફરીથી આરંભ-સમારંભ ન કરવો પડે એ વિચાર કરીને અશદ લે, તેને ગોચરી કહે છે. અથવા જેમ વિવિધ બહમૂલ્ય વસ્ત્રાભૂષણથી સજજ થએલી સુન્દર યુવતી સ્ત્રી ગાયને ઘાસ નીરવા આવે છે, તે ગાય તેની સુંદરતા જેતી નથી, પરંતુ ઘાસ પર જ દષ્ટિ રાખે છે, તે પ્રમાણે ભિક્ષુ આહારાદિ આપતી સ્ત્રીનું સૌંદર્ય સુવેશ, આભૂષણ આદિનું નિરીક્ષણ ન કરે, કિંતુ અશનાદિની શુદ્ધિ પર જ દષ્ટિ રાખે તેને ગોચરી કહે છે. (૩) ગડુલેખા-જેમ ગુમડા ઉપર જરૂરી કરતાં વધારે લેપ કરવાથી લેપ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ९८ श्रीदकालिको गड्डसन्निहितदेशो विहन्यते, तदेकदेशमा यस्तिभिल्लेपमदाने गडपदेशसाकल्येन लेपाभावादोगो नोपशाम्यति, तद्वत्साधुरपि, निर्दोपपरिमिताहारेण ध्रुषां निवर्तयति तद्रूपा (३)। चतुथै चास्या असाजनेति नाम-यया शकटेन दुरं गन्तुकामस्तत्र यदि तेलदानं न कुर्यात, तदा चलितमेवासमं तम पारयति शकटारोहिणं प्रापयितुमभीष्टं स्थानम्. तत्राधिकतरनेलनिक्षेपस्तु न केवलं निष्फलः प्रत्युत हानि जनयतीति, सद्विनिरवधाशनपानमदानं विना मोक्षमापकसंयमपये चलिनुमक्षम शरीरलेप इधर-उधर फैल जाता है और आस-पासका नीरोग प्रदेश भी खराब हो जाता है, और यदि फोड़े पर बिलकुल ही लेप न किया जाय तो भी रोग शान्त नहीं होता, वैसेही साधु यदि प्रमाणसे अधिक आहार कर तो प्रमाद आदि दोप उत्पन्न होनेसे स्वाध्याय आदि क्रियाका पूर्ण पालन नहीं कर सकता, और बिलकुल ही थोड़ा आहार करे ता क्षुधावेदनीयकी शान्ति न होनेसे वैयावृत्त्य आदि साधुकी क्रियाए नहीं हो सकती, इसलिए निर्दोष और परिमित आहार लेना 'गडुलेपा' भिक्षा कहलाती है। (४) अक्षाचना-जैसे कोई गाडीदाराइच्छित स्थान पर जाना चाहताह परन्तु गाडीको बिलकुल तैल नहीं देवे तो वह गाडी चल नहीं सकता और यदि अधिक तेल दे दिया जायतो वह धृथा ही नहीं वरन हानिकारक भी है, इसीप्रकार मोक्षपुरी तक पहुंचनेके लिए शरीर-रूप शकट (गाडी) આમ-તેમ ફેલાઈ જાય છે અને આસપાસને નીરોગ પ્રદેશ પણ ખરાબ થઈ જાય છે. અને જે ગૂમડા ઉપર બિલકુલ લેય ન કરવામાં આવે તે પેગ શાન્ત થાય નહિ, એવી જ રીતે સાધુ જે પ્રમાણથી અધિક આહાર કરે તે પ્રમાદ આદિ દેષ ઉત્પન્ન થવાથી સ્વાધ્યાય આદિ ક્રિયાઓનું પૂરું પાલન કરી શકતા નથી, અને બિલકુલ શેડે આહાર કરે તે સુધાવેદનીયની શાતિ નહિ થવાથી વિયાવૃત્ય આદિ સાધુની ક્રિયાઓ થઈ શકતી નથી તેથી નિર્દોષ અને પરિમિત साहार सेवा से 'डोपा' ला हेवाय छे. (૪) જેમ કોઈ માણસ ગાડામાં બેસીને ઈચ્છિત સ્થાન પર જવા ઇરછે છે. પરન્તુ ગાડાને બિલકુલ તેલ ન ઉજે તે એ ગાડું ચાલી શકતું નથી અને જે વધારે પડતું તેલ ઉજે તે તે વૃથા જાય છે. એટલું જ નહિ પણ હાનિકારક પણ નીવડે છે. એ રીતે એક્ષપુરી સુધી પહોંચવાને માટે શરીર-શકટ (ડ) Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. ३ भिक्षाप्रकाराः मपि नालं मुनीन् मोक्ष प्रापयितुम् , अधिकतराहारपूरितं तु निद्राप्रमादादिदोषजावं जनयन्नूनमेव विनयश्रुतादिसमाधि विध्वंसयति, अतः परिमितं विशुद्ध चाशनपानमुपादेयं भिक्षुणेति सेयं भिक्षा 'अक्षाजना नाम' (४)। __पञ्चमी गर्तापूरणी, सा यथा-कस्यापि श्रेष्ठिनो भवनसम्बन्धिनि गमनागमनमा यदि केनापि कारणेन गतः संजायते तदा तमवलोक्य स तदानी यदेव सद्यो लोटपापाणखण्डादिकमुपलभते तदेवादाय ते गर्ने परिपूरयति न तूत्तमे वेष्टकमभृतिना गर्तोऽयं पूरयितव्य इति विचारयति, तथा सति महाऽनयोत्पत्तिसंभवः, एवमेव मुनिरपि क्षुधावेदनीयोदयवशाद्रिक्तमुदरभैपणिकैरन्तमान्तादिभिराहारैबिभर्तीति । (५) को आहारादिस्प तेल विलकुल न दिया जाय तो संयमयात्राका सम्यक् निर्वाह नहीं हो सकता और अधिक आहार देनेसे रोगादि होजानेके कारण विनय श्रुत आदि समाधि नहीं हो सकती, इसलिए परिमित आहार लेना अक्षावना भिक्षा कहलाती है ॥ (५) गांपूरणी-जैसे यदि किसी रईसके घर जाने-आनेके मार्गमें किसी कारणसे गड्ढा होजाय तो उसे देखते ही वह रईस शीघ्रतासे मिट्टी-पत्थरके टुकड़े आदि जो कुछ पाता है उन्होंको लेकर खड्डेको भर देता है। परन्तु ऐसा नहीं विचारता है कि अच्छे २ ईट-पत्थरों से ही इसे भरना चाहिये। यदि न पूरे तो घड़ी आपत्ति आनेकी संभावना रहती है । इसीप्रकार मुनि, क्षुधावेदनीयके बशसे अन्त-प्रान्त आदि निरवद्य आहार लेकर खाली उदर भर लेते हैं । इसलिए इसे गर्तापूरणी कहते हैं। ને આહારાદિ રૂ૫ તેલ બિલકુલ ન ઉંજવામાં આવે તે સંયમયાત્રાને સભ્ય નિર્વાહ થઈ શકતું નથી, અને અધિક આહાર આપવામાં આવે તે રોગાદિ થવાથી વિનય કૃત આદિ સમાધિ થઈ શકતી નથી. તેથી પરિમિત આહાર લેવે थे 'मशाल' सिक्षा हवाय छे. (૫) ગર્તાપૂર–જેમ કેઈ ગૃહસ્થને ઘેર જવા આવવાના માર્ગ પર કઈ કારણથી ખાડે પડી જાય છે તે તેને દેખતાં જ તે ગૃહસ્થ શીધ્ર માટી, પત્થરના ટુકડા, વગેરે જે કંઈ મળે તે લઈને ખાડાને પૂરી નાંખે છે. પણ એમ નથી વિચારતો કે સારી છે ટે પોથીજ પૂરીએ. જે ન પૂરે તે ભારે આપત્તિ આવી પડવાની સંભાવના રહે છે. એ રીતે મુનિ સુધા–વેદનીને લીધે અંત-પ્રાંત આદિ નિરવા આહાર લઈને ખાલી ઉદર ભરી લે છે. તેને ગપૂરણું કહે છે. Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - १०० श्रीदशकालिकसूत्रे पप्ठी दाडोपशमनी यथा-गरने ज्वलनज्वालामालादन्दामाने गृही यदेव सधो जलकर्दमलिलोप्टप्रभृतिकमुपलभते तदेव प्रक्षिप्य पावकं प्रशमयति न तु गङ्गादिसलिलं प्रतीक्षते, तथा संयमरक्षार्थ निर्दोषेण रूक्षादिनाऽप्याहारेण शमयति क्षुधां मुमुक्षुर्भिक्षुरिति (६) ॥३॥ प्रशस्तैव भिक्षा साधुभिहीतल्या नेतरेति निशम्य शिप्यो गुरुं प्रत्याह। वयं च, इत्यादि । मूलम्-वयं च वित्तिं लभामो, न य कोई उवहम्मइ । अहागडेसु रीयंते, पुप्फेसु भमरा जहा ॥४॥ (छाया)-वयं च वृत्ति लप्स्यामहे, न च कोऽपि उपहन्यते । __ यथाकृतेषु रीयन्ते, पुप्पेषु भ्रमरा यथा ॥ ४ ॥ (६) दाहोपशमनी-जिस समय घरमें अग्नि धधक जाय उस समय घरका स्वामी जल्दीरमें जल कीचड़ धूल मिट्टी आदि जो कुछ मिलजाय उसीको डालकर आग बुझाता है। उस समय वह यह नहीं सोचताकि जव गंगासिन्धुका निर्मल नीर मिलेगा तभी आग बुझाऊंगा, उसीप्रकार संयमकी रक्षाके लिए मुमुक्षु भिक्षु तुच्छ आदि निर्दोपभिक्षासे क्षुधाका शान्त कर लेता है । इसलिए इसको दाहोपशमनी कहते हैं ॥३॥ 'प्रशस्त भिक्षा ही साधुको ग्रहण करनी चाहिये अन्य नहीं' यह सुनकर शिष्य गुरुसे निवेदन करता है-'वयं च वित्ति' इत्यादि । (૬) દાહપશમની–જે સમયે ઘરમાં અગ્નિ ભભૂકી ઉઠે તે સમયે ઘરને ધણું જલ્દી-જલ્દી પાણી, કાદવ, ધૂળ, માટી વગેરે જે કાંઇ મળી જાય તે નાંખીને આગ બુઝાવે છે. તે વખતે તે એમ નથી વિચારતે કે જ્યારે ગંગા-સિંધુને નિર્મળ નીર મળશે ત્યારે આગને બુઝાવીશ. એ રીતે સંયમની રક્ષાને માટે સમક્ષ ભિક્ષુ લુvખી, તુચ્છ, આદિ નિર્દોષ ભિક્ષાથી સુધાને શાન કરી લે છે. तथी तने ' पशमनी' हे छ. (3) ભિક્ષાજ સાધુએ ગ્રહણ કરવી જોઈએ. બીજી નહિ,” એમ સાંભमी शिष्य २३ सभी नियन ३२ छे:-वयं च वित्ति त्या Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m अध्ययन १ गा. ४ मिक्षायां मिष्यप्रतिज्ञा गुरु महारानके प्रति शिष्यकी प्रतिज्ञा सान्वयार्थ:-(हे गुरुमहाराज !) चयं हम च-ऐसी वित्तिवृत्ति-मिक्षावृत्तिको लन्भामो स्वीकार करेंगे (जिससे) कोइय-कोईभी न उवहम्मइउपमर्दित न हो, (साधु ) अहागडेसु-सदाकी भांति गृहस्थद्वारा अपने लिए बनाये हुए भोजनमेंही रीयंते संयम यात्राका निर्वाह करते हैं, जहा-जिस मकार भमरो भौरा पुप्फेसु-फूलोंमें निर्वाह करता है । अर्थात् श्रमण महाराज गृहस्थद्वारा खुदके लिये बनाये हुए आहारसे ही अपनी यात्राका निर्वाह कर लेते हैं ॥ ४ ॥ टीका-एतनाथायाः पूर्वार्दै समुपातं चकारद्वयं क्रमेण यथा-तथा-शब्दार्थवाचकं ततवायमर्थः-वयं च-तथा-तेन रूपेण, वृत्ति-निनोक्तस्वरूपां प्रशस्तां मिक्षा, लप्स्यामहेन्माप्स्यामः स्त्रीकरिष्याम इति यावत् , यथा न कोऽपि अस-स्थावरमाणिमात्रमित्यर्थः उपहन्यते उपद्दतः (उपमर्दितः) भवेत् । एवंविधऐतिग्रहणे सदृष्टान्तहेतुमुपन्यस्यति 'अहा.' इति, अत्र 'यत्' इत्यध्याहार्यम् , तया च-यतः यथाकृतेपु-गृहस्थैरात्मार्थमात्मीयार्थ च सम्पादितेप्वाहारादिषु रीयन्ते गच्छन्ति संयमयात्रा निर्वहन्तीति यावत् 'साधवः' इति शेषः । अत्र गतमपि भ्रमरदृष्टान्तं विस्पष्टमतिपत्तये पुनरुपन्यस्यति 'पुप्फेसु' यथा पुष्पेषु ___ इस गाथाके पूर्वार्द्धमें दो 'च' आये हैं, एकका अर्थ है 'जैसे और दूसरेका अर्थ है 'वैसे, इसलिए इसका अर्थ यह हुआ कि हे भगवन् ! हम वैसेही प्रशस्त भिक्षा ग्रहण करेंगे जैसे (जिस प्रकार)ब्रस या स्थावर जीवको किसीभी प्रकारकी वाधा न पहुँचे, क्योंकि गृहस्थोंद्वारा अपनेलिये या अपने कुटुम्बके लिये बनाये हुए आहारको लेकर ही साधु अपनी संयमयात्राका निर्वाह कर लेते हैं । इसी यातको अधिक स्पष्ट करनेके આ ગાથાના પૂર્વાર્ધમાં બે વર આવ્યા છે. એક અર્થ છે જેમાં અને બીજાને અર્થ છે “એમ” એ રીતે તેને અર્થ એમ થયું કે--હે ભગવન્! અમે એમ જ (એજ પ્રકારે પ્રશસ્ત ભિક્ષા ગ્રહણ કરીશું કે જેમ જે પ્રકારે) ત્રસ યા સ્થાવર જીવને કેઈ પણ પ્રકારની બાધા ન પહોચે. કારણ કે ગૃહએ પોતાને માટે યા પિતાના કુટુંબને માટે બનાવેલે આહાર લઈને જ સાધુ પિતાની સંયમ-યાત્રાને નિર્વાહ કરી લે છે. એ વાતને વધુ સ્પષ્ટ કરવાને માટે ભ્રમરના દષ્ટાંતને ફરીથી બેવડાવે છે Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ श्रीदशकालिकसने भ्रमराः, ते हि पुप्पेभ्यो रसमाइरन्तोऽपि तानि (पुष्पाणि) सेशवोऽपि न पीडयन्ति । अत्र 'लम्मामो' इत्यस्य 'लस्याम' ति व्याख्यानं तु सर्वथा व्याकरणविरुद्धमेव 'लभ' धातोरनुदात्म पठितत्वेन नित्यात्मनेपदिलाव , नव चक्षिको डिस्करणमापितया 'अनुदात्तेचलक्षणमात्मनेपदमनित्यम्' इतिपरिभाषया परस्मैपदमपि युक्तमेयेति वाच्यम् , तस्या अगतिरुगतिकतयेटप्रयोगविषयत्वाद, वस्तुतस्तु भाप्यानुक्तमापितार्थस्य साधुताया नियामकत्वे प्रमाणामावादेवमादिकाः परिमापाश्चिन्त्या एवेति स्पष्टं 'परिमापेन्दुसरे' इत्यतिरोहित वेया फरणानाम् । अत्र गाथायां 'लम्मामो' इति, 'उवहम्मर' इति भविष्यद्वर्तमाना कालावविवक्षिती, तेन कालत्रयग्रहणं योध्यम् ॥ ४॥ एवं मधुकरदृष्टान्तेन यत्फलितं तत्मतिपादयन्नुपसंहरति-'मगारसमा' इत्यादि। मूलम्-महुगारसमा बुद्धा जे भवंति अणिस्सिया । नाणापिंडरया दंता तेण वुञ्चति साहुणो ॥त्तिवेमि॥५॥ छाया-मधुका (क) रसमा बुद्धा यतो भवन्त्यनिश्रिताः । नानापिण्डरता दान्ताः, तेन उच्यन्ते साधवः ॥ ५॥ सान्वयार्थ:--(क्योंकि)जेजो महुगारसमा भौरेकीभांति बुद्धा-विधी अणिस्सिया मोहवन्धनरहित नाणापिंडरया अनेक घरोंका निरवध पिण्ड लेकर संयममें लीन दंता इन्द्रियविजयी भवंति होते हैं, तेण-इसीसे व साहुणो साधु बुच्चंति कहलाते हैं। तिबेमि-इस प्रकार श्रीसुधर्मा स्वामा लिए कहे हुए भ्रमर दृष्टान्तको फिर दुहराते हैं कि जैसे भ्रमर पुष्पोंसे रस ग्रहण करकेभी किसी पुष्पको पीड़ा नहीं पहुँचाता ॥४॥ मधुकरका उदाहरण देनेसे जो निष्कर्ष निकला उसे सूत्रकार कहते हैं-'महुगारसमा' इत्यादि । કે--જેમ ભ્રમર પુષ્પમાંથી રસ ગ્રહણ કરીને પણ કોઈ પુષ્પને પીડા ઉપ જાવતે નથી (૪) મધુકરના ઉદાહરણમાંથી જે નિષ્કર્ષ નીકળે તેને સૂત્રકાર કહે છે महुगारसमा, त्या. - Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ गा. ५ साधुस्वरूपम् जम्बूस्वामीसे कहते हैं-"हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीरसे मैंने जैसा मुना है वैसा ही तेरे लिए कहता हूं ॥५॥ ॥ इति प्रथमाध्ययनस्य सान्वयार्थः ॥ १ ॥ टीका-अत्र गाथायां 'जे' इत्यस्यादौ यतः' इति, 'तेण' इत्यस्यान्ते 'ते' इति च पदद्वयमध्याहार्यम् , तथा च-यतः ये मधुका(कोरसमाः भृङ्गवदनियतवृत्तयः बुद्धाः इदं कर्त्तव्यमिदमकर्तव्यमित्येवं विवेकवन्तः, अनिश्रिताः निश्रायरहिताः-निवासकुलादिपु प्रणयनिगडवन्धशून्या इत्यर्थः, नानापिण्डरताः= नाना-अभिग्रहविशेपेण प्रतिगृहाऽल्पाल्पग्रहणयुक्ततया अन्तमान्तादिभेदेन च विविधप्रकारा ये पिण्डा: आहाराधास्तेपु रताः संसक्ताः, दान्ताः-इन्द्रियनोइन्द्रियविकारभावाऽनुपहतचित्ताः, भवन्ति-सम्पद्यन्ते, तेन-उक्तमकारेण निरवघवृत्तिसमाराधनेन हेतुना ते योगत्रये-न्द्रियपञ्चक-नवविधविशुद्धब्रह्मचर्याऽहिंसाः साधयन्तीति साधवः व्युच्यन्ते कथ्यन्ते इति गाथार्थः, इत्यन्ये, वस्तुवस्तु अत्र 'यतः' इत्यस्य, 'ते' इत्यस्य चाध्याहरणं 'जे' इत्यस्य प्रथमान्तत्वेन व्याख्यानं च न युक्तं, तथा सति 'ये-'ते'-शब्दयोःयापत्तेः, तस्मात् 'जे' इत्यव्ययपदं 'यतः' इत्यस्यार्थे, अव्ययानामनेकार्थत्वात् , ततश्चायमभिसम्बन्धः-यतः मधुकारसमाः बुद्धाः अनिश्रिताः नानापिण्डरताः दान्ता जो भौरेके समान अनियत (कुलकी नेसराय रहित) भिक्षा लेते हैं, कर्तव्य और अकर्तव्यके विवेकी हैं, निवासस्थान तथा कुटुम्ब परिवार आदिमें ममताके बन्धनसे बन्धे हुए नहीं हैं, भाँतिरके अभिग्रह धारण करके अनेक घरोंसे लिये जाने वाले अन्त-प्रान्त आदि आहारमें अनुरक्त रहते हैं, इन्द्रियों और मनके विकारको दमन करते हैं वे निर्दोप भिक्षा लेकर तीन योग, पाँच इन्द्रियाँ, नव प्रकारके विशुद्ध ब्रह्मचर्य और अहिंसाकी साधना करनेवाले साधु कहलाते हैं । જે ભ્રમરાની પેઠે અનિયત (કુળની નેસરાય રહિત) ભિક્ષા લે છે, કર્તવ્ય અને અર્તવ્યને વિવેકી છે, નિવાસસ્થાન તથા કુટુમ્બ પરિવાર આદિમાં મમતાના બંધનથી બદ્ધ થયે નથી, તરેહ-તરેહના અભિગ્રહ ધારણ કરીને અનેક ઘરેથી લીધેલા અંત-પ્રાંત આદિ આહારમાં અનુરક્ત રહે છે, ઈન્દ્રિયે અને મનના વિકારનું દમન કરે છે, તે નિર્દોષ ભિક્ષા લઈને ત્રણ ચેગ, પાંચ ઈન્દ્રિ, નવ પ્રકારનું વિશુદ્ધ બ્રહ્મચર્ય અને અહિંસાની સાધના કરનારે સાધુ કહેવાય છે. Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. १७ पास श्रीदवेकालिकमो. भवन्ति तेन साधयः उच्यन्त इति, साधुविशेषणानां मधुकारसमादीनां व्याख्या तु यथापूर्वमेवेति वयमिति विमावयन्तु विद्वांसः । मधुकरसमा असंशिनोऽपि भवन्ति अतस्तद्वयवच्छेदार्थमाह 'युद्धा' इति, मधुकरसमा युद्धाय मतिमाधारिमभृतयः संयताऽसंयता अपि भवन्ति. तद्वयात्तये 'अणिस्सिया' इति । मधुकरसाम्यं च साधूनां न सादेशिकं किन्तु चन्द्रमुखादिवदेकदेशिकमेवेत्यतो यश मधुकरसाहक्ष्याभावस्तद्रोधनार्थमाह-' नाणापिडरया देता' इति, भ्रमरा हि मुगन्धिभ्य एव कुसमेभ्यः स्वाधमेव च रसमादत्ते न च भारेके समान असंजी भी होते हैं अतः युद्ध (कर्तव्याकर्तव्य विवेकसे युक्त) पद दिया है। प्रतिमा (पडिमा) धारी श्रावक (संयतासंयत) भी भौरेके समान और युद्ध होते हैं इसलिए 'अणिस्सिया' पद दिया है, जैसा कि पहले कहा जा चुका है भारेका उदाहरण एकदेशीय है, कोई कहता है कि 'इसका मुख, चन्द्रमाके समान है तो मुखमें चन्द्रमाक सब गुण नहीं पाये जाते, अर्थात् कुछ गुण सदृश होते हैं कुछ विसदृश होते ह, भौरेका उदाहरण भी कुछ अंशोमें मिलता कुछ.अंशोमें नहीं मिलता है। जिस अंशमें नहीं मिलता है वह सूत्रकारने 'नाणापिड रया' और 'दता' विशेपणोंसे प्रगट किया है। भ्रमर, केवल कुसुमकि स्वादिष्ट रसको ही पीता है इसलिए यह दान्त (इन्द्रियोंकोजीतनेवाला) नहीं है, इस दृष्टान्तसे दान्तिकको विसदृशता है। ભ્રમની પિઠે અસંસી પણ હોય છે, તેથી બુદ્ધ (કર્તવ્યા-કર્તવ્ય-વિવેકથી युत) ५६ मा छे. प्रतिभा (परिभा) धारी श्राप (संयतासंयत) ५ प्रभरानी समान भने मुद्धाय छ, तेथी अणिस्सिया पहायु . પહેલાં કહેવામાં આવ્યું છે કે ભ્રમરનું ઉદાહરણ એક-દેશીય છે. કઈ કહે છે કે-એનું મુખ ચંદ્રમા જેવું છે. પણ મુખમાં ચંદ્રમાના બધા ગુણ હાતા નથી અથતુ કાંઇ ગુણ સમાન હોય છે, કાંઈ અસમાન હોય છે. ભ્રમનું ઉદાહરણ પણ કાંઈ અશમાં મળતું છે, કઈ અંશમાં અણુમળતું છે. જે અંશમાં ममतु छे ते सूत्रारे नाणापिंडरया मने दंता विशेषणाथी भट यु छे. -ભ્રમર માત્ર કુસુમના સ્વાદિષ્ટ રસને જ પીએ છે, તેથી એ દાન્ત (ઈન્દ્રિયને જીતનાર) નથી. આ દૃષ્ટાંતથી દાર્શનિકની અસમાનતા છે. Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ अध्ययन १ गा. ५ उपसंहारः दान्ता भवन्ति । 'तिमि' इति उक्तरूपं तत्त्वं यथा तीर्थङ्करस्य भगवतो महावीरस्य सकाशोन्मया श्रुतं न तु स्वबुद्धया कल्पितं यतः स्वबुद्धया कथने श्रुतज्ञानस्याविनयो भवति, किञ्च छद्मस्थानां दृष्टयोऽप्यपूर्णा भवन्ति, तस्माद् यथाभगवत्मतिपादितमेव त्वां ब्रवीमि उपदिशामीत्यर्थः । इहार्थे चेयं सङ्ग्रहगाथा "मुअणाणस्स अविणओ परिहरणिज्जो मुहाहिलासीहि । छउमत्थाणं दिट्ठी, पुण्णा णस्थिति सृइयं इइणा ॥१॥” इति, इति पञ्चमगाथार्थः ॥ ५॥ सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामीसे कहते हैं-हे जम्बू ! ऊपर जो प्रथम अध्ययनका भाव कहा गया है वह अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान् श्रीमहावीरसे जैसा मैने सुना वैसाही कहा है, अपनी बुद्धिसे कल्पना किया हुआ नहीं कहा है। अपनी बुद्धिसे कल्पना करके कहनेसे श्रुतज्ञानकी आशातना होती है, और छद्मस्थोंका ज्ञान भी अधूरा होता है, इसलिए भगवानद्वारा प्रतिपादित प्रवचन ही तुझे सुनाया है । कहाभी है "सुखके अभिलापी पुरुपोंको थुतज्ञानकी आशातनाका त्याग करना चाहिये । क्योंकि छद्मस्थोंकी दृष्टि पूर्ण नहीं होती। इसी अर्थको 'त्तिवेमि' शब्दसे प्रगट किया है" ॥५॥ . . સુધર્મ–સ્વામી જંબૂ-સ્વામીને કહે છે–હે જંબૂ! ઉપર જે પ્રથમ અધ્યયનને ભાવ કહ્યો છે તે અંતિમ તીર્થકર ભગવાન મહાવીર પાસેથી જે મેં સાંભળે તે જ કહ્યો છે. મેં પિતાની બુદ્ધિથી કલ્પના કરેલે નથી કહ્યો. પિતાની બુદ્ધિથી કલ્પના કરી કહેવાથી શ્રુતજ્ઞાનની આશાતના થાય છે. અને છવાનું જ્ઞાન પણ અધૂરું હોય છે, તેથી ભગવાન દ્વારા પ્રતિપાદિત પ્રવચન જ મેં તને સંભળાવ્યું છે. કહ્યું પણ છે કે- સુખના અભિલાષી પુરૂએ શ્રુતજ્ઞાનની આશાતનાને ત્યાગ કર જોઈએ, કારણ કે છઘની દષ્ટિ પૂર્ણ હોતી નથી. આ અર્થને રિનિ શબ્દથી પ્રકટ ध्य छे.” (५) Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ श्रीदशकालिकम्ने इति श्री विश्वविख्यात-जगहल्लम-प्रसिद्धवाचक-पत्रदशभाषा-कलित-ललितकलापाऽऽलापक-मविशुद-गध-पघ-नेकग्रन्यनिर्मापक-यादिमानमर्दकः श्री शाहूछत्रपति-कोल्हापुरराज-प्रदत्त-जैनशास्त्राचार्य-पदभूपितफोल्हापुरराजगुरु-बालग्रामचारि-जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्रीघासीलालपतिविरचितायां श्रीदशकालिकसूत्रस्याऽऽचारमणिमन्जूपाख्यायां व्याख्यायां प्रथम द्रुमपुप्पकाख्यमध्ययनं समाप्तम् ॥ १॥ -*इसप्रकार दशवकालिक सूत्रके 'दुमपुष्पक' नामक पहले अध्ययनकी आचारमणिमनपा नामक व्याख्याका हिन्दी-भाषानुवाद समाप्त हुआ ॥ १ ॥ ઈતિ “મપુપક” નામના પહેલા અધ્યયનનું शुराती-मापानुवाः समास (१). Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा. १ धैर्यधारणोपदेश: ॥ द्वितीयाध्ययनम् ॥ गतं प्रयममध्ययनमय द्वितीयमारभ्यते, तत्रायमभिसम्बन्धः-पूर्वाध्ययने 'धम्मो मंगलं' इत्यादिना धर्मः प्रशंसितो यः केवलं जिनशासन एवोपलभ्यते, ततश्योक्तरूपधर्मपरिपालनार्यस्वीकृतजिनशासनो नवदीक्षितः कदाचिद्धैर्याभावाचारित्रच्युतो न भवेदित्याशयेनास्मिन्नध्ययने 'साधुना धैर्य धार्य' मिति वक्तव्यं, धैर्यधारणं च कामनिवारणमन्तरेण न संभवतीति प्रथमं वदेवाद-'कई नु' इत्यादि। मूलम-कहं नु कुजा सामण्णं, जो कामे न निवारए । - - - पए पए विसीअंतो, संकप्पस्स वसंगओ॥१॥ छायाकथं नु कुर्याच्छामण्यं, यः कामान निवारयेत् । पदे पदे विपीदन् , संकल्पस्य वशं गतः ॥१॥ दूसरा अध्ययन । पहले अध्ययनमें धर्मका स्वरूप और माहात्म्य कहा है वह केवल जनशासनमें ही पाया जाता है। इसलिए पहले कहे हुए धर्मका पालन करनेके लिए जिसने जैनशासन अर्थात् चारित्रधर्म स्वीकार कर लिया हो परन्तु नवीन दीक्षित होनेसे कभी धैर्य छूट जानेके कारण वह कदाचित् चारित्रसे स्खलित न हो जाय, इस अभिप्रायसे इस अध्ययनमें 'साधुको धैर्य धारण करना चाहिए' यह कहा जायगा। लेकिन धैर्य तब ही रह सकता है जब कि कामके विकारको जीत लिया जाय । अत एव शास्त्रकार सबसे पहले इसी विषयका प्रतिपादन करते हैं'कहं नु-' इत्यादि। અધ્યયન ૨ જુ પહેલા અધ્યયનમાં ધર્મનું સ્વરૂપ અને મહામ્ય કહ્યું છે. તે કેવળ જૈન - શાસનમાં મળી આવે છે. તેથી, પહેલાં કહેલા ધર્મનું પાલન કરવાને માટે, જેણે જૈન શાસન અર્થાત ચરિત્ર ધર્મ સ્વીકાર્યો હોય પરંતુ નવદીક્ષિત હોવાથી કેઈવાર પૈર્ય છૂટી જવાથી એ કદાચ ચારિત્રથી સ્મલિત ન થઈ જાય, તેટલા માટે આ અધ્યયનમાં “સાધુએ ધર્યો ધારણ કરવું જોઈએ.” એ કહેવામાં આવશે. પરંતુ પૈર્ય ત્યારે જ રહી શકે છે કે જ્યારે કામવિકારને જીતી લેવામાં આવે. તેથી શાસ્ત્રકાર સૌથી પહેલાં એ વિષયનું પ્રતિપાદન કરે છે– ગુ. ઈત્યાદિ. Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ श्रीवकालिको सान्वयार्थ:-जो-जो कामे विषयोंको न नियार नहीं छोडता है, वह संकप्पस्स इच्छाओंके वसंगओवशमें होकरपए पए-पद-पद पर विसीमंतोखेदित होता हुआ नु-आर्य है कि बद्द सामण्णं-अमणधर्मको कहं कैसे कुज्जा-कर-पाल सकता है। अर्थात्-जो इन्द्रियों के विषयोंका परित्याग नहीं करता उसकी इच्छाएँ सदैव बढती रहती है, उसे कमी सन्तोप नहीं होता, सन्तोप न होनेसे निरन्तर मानसिक कष्ट होता , विषयोंकी इन्चासे उत्पन्न हुआ मानसिक कष्ट होते रहनेसे चारित्रधर्मकी आराधना नहीं हो सकती, अतः सर्व प्रथम इन्द्रियोंको यशर्म करना चाहिये ॥१॥ टीका-यः, काम्यन्ते अभिलप्यन्ते माणिमिरिति कामाः शब्दादयस्तान न निवारयेत् नापनयेत् , अत्र 'सः' इत्यध्याहार्य यत्तदोनित्यसम्बन्धादिति केचित् , वस्तुतस्तु नात्र तच्छन्दाध्याहारावश्यकता, न चाऽनभ्याहारे साकारक्षत्वदाप इत्याक्षेप्यम् , उत्तरवाक्यगतत्वेन यच्छन्दोपादाने तस्य दोपस्याऽनवकाशात् 'आत्मा जानाति यत्पाप' मित्यादिवत् । संकल्पस्य अमाप्तविषयमाप्तिरूपस्याऽमशस्तस्याऽध्यवसायस्य, वशम् अधीनतां गतस्तदधीनवर्ती भूत्वेति भावः, पदे पदेप्रतिस्थानं विपीदन् खेदमनुभवन् कर्यकेन प्रकारेण 'नु' क्षेपे वितर्के पृच्छाया वा, श्राम्यति-तपस्यतीति श्रमण सचित्ता-चित्त-मनोज्ञा-मनोजद्रव्याधिकरणक साम्यभाव-हास्यादिपकविममुक्ति-पंचसमितिसमितत्व-गुप्तित्रयगुप्तत्व-गुप्तब्रह्मचयत्व जीव, जिन इन्द्रियोंके विषयोंकी कामना (अभिलाषा) करता है उनको 'काम' कहते हैं। जो साधु, इन कामोंका त्याग नहीं करते, व अप्राप्त विषयकी प्राप्तिरूप अशुभ अध्यवसायके अधीन होकर पद-पद पर खेदका अनुभव करते हुए क्या कभी श्रमणताको प्राप्त कर सकत हैं ? कदापि नहीं । ___ इष्ट, अनिष्ट, सचित्त, अचित्त आदि समस्त वस्तुओं पर समताभाव रखना, हास्य आदि छह नोकपायका त्याग करना न्द्रियाना विषयानी मिना मिलिसापात · म' કહે છે. જે સાધુ, એ કામને ત્યાગ નથી કરતા, તેઓ અપ્રાપ્ત વિષયની પ્રાપ્તિ રૂ૫ અશુભ અધ્યવસાયને અધીન થઈને ડગલે ડગલે ખેદનો અનુભવ કરતાં શું કદાપિ શ્રમણતાને પ્રાપ્ત કરી શકે છે ? કદાપિ નહિ. ट, मनिष्ट, सथित्त, अथित्त, या यी १२तुमा ५२ समता-भाव રાખો. હાસ્ય આદિ છએ નોકવાયને ત્યાગ કરવો. પાંચ સમિતિ અને ત્રણ ગુપ્તિનું - Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ अध्ययन २ गा. १ श्रामण्याधिकारिलक्षणानि योगत्रयसाधकत्व-सदोरकमुखवत्रिकोपशोभितमुखत्व-यतनाधर्मधरत्व-भोगामिपरिक्तत्व-करणसप्तति-चरणसप्ततिपारगत्व-निर्दोपभिक्षणशीलत्व-तीर्थङ्कराज्ञाराधकत्व. स्वात्मज्ञत्व-निष्परिग्रहत्व-यात्रामात्राज्ञत्व-कूर्मवदात्मगोपकत्वाऽल्पपिण्डाऽल्पपानाशिवाऽल्पोपधिकत्वा-ऽल्पकपायत्व-निराथवत्व-तीर्णत्वाऽपापत्व-निर्ग्रन्थ-प्रवचनप्रवीणत्व-शल्यकर्तकत्व-सन्निधिरहितत्वो रगाधुपमितत्व-पापश्रुतप्रतिपेधित्व-सुमनपांच समिति और तीन गुप्तिका पालन करना, गुप्त ब्रह्मचारी होना, तीन योगोंको साधना, श्रुतज्ञानरूपी जलसे अन्तःकरणको शुद्ध रखना, सम्यक्त्वसे युक्त रहना, संयमरूपी कवच (बस्तर) से सदासन्नद्ध रहना, डोरासहित मुखवत्रिकाको मुखपर बांधे हुपरहना, यतना-धर्मकोधारण करना, भोगस्पीआमिपसे विरक्त रहना, करणसत्तरी और चरणसत्तरीके पारगामी होना, निर्दोपभिक्षासे ही संयमयात्राका निर्वाह करना, तीर्थङ्कर भगवानकी आज्ञाका आराधन करना, आत्मज्ञानी होना, परिग्रहकात्याग करना, यात्रा-मात्राको जानना, कछुएकी भाँति इन्द्रियोंका गोपन करना, अल्प अशन अल्प पानका ग्रहण करना, अल्प उपधि रखना, कपायको त्यागना, आसवरहित होना, संसाररूपी सागरसे पार उतरना, पापरहित होना, निग्रंथ प्रवचनमें प्रवीण होना, माया, मिथ्यात्व और निदान रूप शल्यॉको काटना, सन्निधिका न रखना, उरगादिकी उपमासे युक्त होना, पापकी प्ररूपणा करनेवाले शास्त्रोंका उपदेश नहीं करना, मनको स्वच्छ रखना और अतिचाररहित चारित्रको पालना, तथा मृग जैसे सिंहसे પાલન કરવું, ગુણ બ્રહ્મચારી થવું, ત્રણ ગેને સાધવા, શ્રુતજ્ઞાનરૂપી જળથી અંતકરણને શુદ્ધ રાખવું, સમ્યફવથી યુક્ત રહેવું, સંયમરૂપી કવચ (બખ્તર) થી સદા સજજ રહેવું, દેરાસહિત મુખવસ્ત્રિકને મુખ પર બાંધીને રહેવું, તનધર્મને ધારણ કરવું, ભેગરૂપી આમિષથી વિરક્ત રહેવું, કરણ સિત્તેરી અને ચરણસિત્તેરીના પારગામી થવું, નિર્દોપ ભિક્ષાથી જ સંયમયાત્રાને નિર્વાહ કરે, તીર્થકર ભગવાને ની આજ્ઞાનું આરાધન કરવું, આત્મજ્ઞાની થવું, પરિગ્રહને ત્યાગ કરે, યાત્રામાત્રાને જાણવી, કાચબાની પિઠે ઈન્દ્રિયોનું ગાન કરવું, અલ્પ અશન અ૫ પાનને ગ્રહણ કરવાં. ૯૫ ઉપધિ રાખવી, કપાયને ત્યજવા, આમ્રવરહિત થવું, સંસારરૂપી સાગરથી પાર ઊતરવું, પાપરહિત થવું, નિગ્રંથ પ્રવચનમાં પ્રવીણ થવું, માયા, મિથ્યાત્વ અને નિદાનરૂપ શને કાપવાં, સન્નિધિને ન રાખવો, ઉરગાદિની ઉપમાથી યુકત થવું, પાપની પ્રરૂપણા કરનારાં શાસ્ત્રોને ઉપદેશ ન કરે, મનને સ્વચ્છ રાખવું અને અતિચારરહિત ચારિત્રને Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .११० श्रीदशकालिकाने -स्कत्य-निरतिचारचारित्रत्यादिगुणसम्परा, तस्य भावः कर्म वा श्रामण्यं श्रमणधर्म कुर्यात् प्रतिपालयेद, न हि संकल्पापीनचित्तचिवया व्यातिप्तस्य भावकियाशून्य-द्रव्य-क्रियामात्रपालनेन श्रामण्यं भवतीति गाथार्यः ॥ ॥१॥ अत्रायं संग्रहः" सचित्ताचिचदन्वेस मणुग्ने अमणुन्नए । रक्खए समभावं जो, समणो सो पखाई ॥१॥ हासं रई भयं सोगो, दुगुंछा य कसायया । एएहि विष्पमुफो जो, समणो सो पचई ॥२॥ पंचसमिइहिं समिओ, विगुत्तिगुत्तो य बंभयारी जो। परिसाहेइ मुजोग, सो समणो चुच्चई निच्चं ॥३॥ छाया" सचित्ताचित्तद्रव्येपु, मनोज्ञे अमनोमके। रक्षति समभावं यः, श्रमणः स मोच्यते ॥१॥ हास्यं रविभय शोको, जुगुप्सा च कपायता। एतेविषमुक्तो या, श्रमणः स प्रोच्यते ॥२॥ पञ्चसमितिभिः समितः, निगुप्तिगुप्तश्च ब्रह्मचारी यः। परिसाधयति सुयोग, स श्रमण उच्यते नित्यम् ॥३॥ सर्वथा दूर भागते हैं उसी प्रकार पापकर्म जिसके पास न ठहरें वह 'श्रामण्य' (साधुपन ) कहलाता है। ऐसा श्रामण्य तय तक प्राप्त नहा होता जब तक वह काम-भोगका त्याग न कर देखें: जिसका चित्त कामके संकल्प-विकल्पोंसे व्याकुल रहता हो उसकी क्रियाएं भावशून्य द्रव्यक्रियाएँ हैं, केवल द्रव्यक्रियाओंका पालन करनेसे कोई श्रमण नहीं हो सकता, इस विषयमें संग्रहगाथाएँ हैं उनकाअर्थपहले आचुका है ॥२॥ પાળવું, તથા મૃગ જેમ સિંહથી સદા દૂર ભાગે છે તેમ પાપકર્મ જેની પાસે ન ઉભાં રહે તે “શ્રામણ્ય' (સાધુતા) કહેવાય છે. એવું શ્રમણ્ય ત્યાં સુધી પ્રાપ્ત નથી થતું કે જયાં સુધી તે કામભેગને ત્યાગ કરે નહિ, જેનું ચિત્ત કામના સંકલ્પવિક૬૫થી વ્યાકુળ રહેતું હોય છે તેની ક્રિયાઓ ભાવ્યશન્ય દ્રવ્યનક્રિયાઓ રાય છે. કેવળ દ્રવ્ય-ક્રિયાઓનું પાલન કરવાથી કેઈ શ્રમણ થઈ શક્તો નથી. આ વિષયમાં સંગ્રહ ગાથાઓ છે, જેને અર્થ પહેલાં આવી ગયો છે. (૧) Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा. १ श्रामण्याधिकारिलक्षणानि मुयनाणमुनीरेण, मुद्धो संमत्तरंजिओ । संजमवम्मसंनद्धो, समणो सो पवुच्चई ॥ ४ ॥ सदोरं मुइपत्ति जो, वंधई सययं मुहे । जयणाधम्मेण जुओ, समणो सो पच्चई ॥ ५ ॥ भोगामिसपरिहीणो, करणे चरणे य वट्टए मुदं । अदोसभिक्खणसीलो, समणो सो बुच्चई निच्चं ॥ ६ ॥ जिणाणाए समारोहो, आयन्नो निप्परिग्गहो । जायामायनो य मुणी, समणत्ति पवुच्चई ॥ ७ ॥ कुम्मो जहा नियंगाई, सए देहम्मि गोवई । तहा गोवइ अप्पाणं, समणत्ति पवुच्चई ॥ ८ ॥ अप्पपिंडे अप्पपाणे, अप्पोवहिकसायो । निरासवो य तिन्नो य, निप्पावो समणो भवे ॥ ९ ॥ निग्गंयपवयणन्नो, अनियाणो सल्लकत्तओ । भेसज्जाईण वत्यूणं, सन्निहिं वज्जए मुणी ॥ १० ॥ छाया-- " श्रुतज्ञानमुनीरेण, शुद्धः सम्यक्त्वरञ्जितः । संयमवर्मसंनद्धः, श्रमणः स प्रोच्यते ॥ ४ ॥ सदोरां मुखवस्त्रीं यो, वध्नाति सततं मुखे । यतनाधर्मेण युतः, श्रमणः स मोच्यते ॥ ५ ॥ भोगामिपपरिहीणः, करणे चरणे च वर्चते शुद्धम् । अदोपभिक्षणशीलः, श्रमणः स उच्यते नित्यम् ॥ ६ ॥ जिनाज्ञायां समारोहः, आत्मज्ञो निष्परिग्रहः। यात्रामात्राज्ञश्च मुनिः, श्रमण इति पोच्यते ॥ ७ ॥ कूर्मों यथा निजाङ्गानि, स्वके देहे गोपयति । तथा गोपयत्यात्मानं, श्रमण इति प्रोच्यते ॥ ८ ॥ अल्पपिण्डोऽल्पपानः, अल्पोपधिकपायकः । निरास्रवश्व तीर्णश्च, निष्पापः, श्रमणो भवेत् ॥ ९ ॥ निर्ग्रन्थप्रवचनज्ञः, अनिदानः शल्यकर्त्तकः । भैपज्यादीनां वस्तूनां, संनधि वर्जयति मुनिः ॥ १० ॥" Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ """ ११२ " श्रीदशवेकालिकसूत्रे उरगाउम पात्र, याणं पटिसेट । सुमणो सुचारितो, समणत्ति पाई ॥ ११ ॥ मिया जब सीहाओ, दूरं घरंति सम्वहा । तहा जओ य पावाई, समणति पचई || १२ || इवि । छाया उरगापमः पापयुतानां प्रतिषेधकः । सुमनाः शुभचारित्रः, श्रमण इति मोच्यते ॥ ११ ॥ मृगा यथैव सिंहाद्, दूरं चरन्ति सर्वथा । " तथा यतथ पापानि, श्रमण इति प्रोच्यते ॥ १२ ॥” इति छाया । पूर्वे शब्दादिविपयप्रवृत्तः श्रामण्यं पालयितुं न शक्नोतीत्युक्तं, सम्पति 'द्रव्यक्रियां कुर्वाणोऽपि कलुपितचित्तत्वादभ्रमण एवे 'ति दर्शयितुमाह यद्वा पूर्वगाथया भट्टयन्तेरण शब्दादिविपयविनिवृत्त एव श्रामण्यमर्हतीति सूचितम् शब्दादिविषय विनिवृत्ति रोगादिना कारणेनापि संभवतीत्यतस्तद्वयवच्छेदार्थ गाथान्वरमाह-' वत्यगंध - मित्यादि । ऊपर कह चुके हैं कि शब्दादि इन्द्रियविषयोंमें प्रवृत्त साधु श्रामण्य (चरित्र) का पालन नहीं कर सकता । अव द्रव्यक्रियाएँ करते हुए भी यदि साधुके चित्तमें कलुपता हो तो वह वास्तवमें त्यागी नहीं है, यह कहते हैं _ अथवा पहली गाथामें एक विशेष प्रणालीसे यह प्रतिपादन किया है कि- शब्दादिविषयोंका त्यागी ही श्रामण्य ( साधुपना ) पाल सकता किन्तु रोग आदि कारणोंसे भी शब्दादि विषयोंको नहीं भोग सकता तो क्या उस समय ह भी त्यागी कहला सकता है ? कभी नहीं कहला सकता, इसी विषयको कहते हैं-' वत्य-गंध' इत्यादि । ઉપર કહેવાઈ ગયું છે કે શબ્દ આદિ ઈન્દ્રિયવિષયમાં પ્રવૃત્ત એવે સાધુ શ્રામણ્ય ( ચારિત્ર.)નું પાલન કરી શકતા નથી. હવે દ્રવ્યક્રિયાઓ કરતાં પણ જો સાધુના ચિત્તમાં કલુષતા હેય તે તે વાસ્તવમાં ત્યાગી નથી, એ કહે છે~-~ અથવા પહેલી ગાથામાં એક વિશેષ પ્રણાલીથી એમ પ્રતિપાદન કર્યુ છે કેशाहि-विषयोनो त्यागी र श्रामश्य ' ( साधुता ) पाणी शडे छे, मितु शाहि કારણેાથી પણ શબ્દાદિ વિષયાને નથી ભેગવી શકતા તે શું તે સમયે એ પણુ त्यागी अवाध शठे छे ? नथी अडेवाती, यो विषय वे उसे छे:-वत्थ - त्याहि Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा. २-३ त्यागिस्वरूपम् १.१.३ - - मूलम्-वत्थगंधमलंकारं, इत्थीओ संयणाणि य । २ . १ ८ ..... १२ १० ॥ 13 अच्छंदा जे न भुंजंति, न से चाइत्ति वुच्चई ॥२॥ छाया-चखगन्धमलङ्कारं, स्त्रियः शयनानि च । अच्छन्दो यो न भुकते, न स त्यागीत्युच्यते ॥ २॥ सान्वयार्थ:-जे-जो अच्छंदा-पराधीन होनेसे क्स्यगंध-वस्त्र गन्ध अलंकारं आभूपण इत्थीओ-स्त्रियों य=और सयणाणि शय्या-(पलंग महल विगेरे) को न भुजंति नहीं भोगता है से बह चाइत्ति "त्यागी” ऐसा न बुच्चइ-नहीं कहा जाता है । अर्थात् अपनी इच्छासे विषयोंको न भोगनेवाला त्यागी कहलाता है । जो रोग आदि किसी कारणसे पराधीन होकर विपयोंका सेवन नहीं कर सकता यह त्यागी नहीं कहलाता ॥ २ ॥ और____ टीका-अत्र 'अच्छंदा' 'जे' 'भुंजंति' इत्येतेषु पदेषु बहुवचनप्रयोगः सत्रित्वात् । तथा चायमर्थः-यः अच्छन्दः रोगाद्यभिभूततया पराधीनो बस्त्रं च गन्धश्चानयोः समाहारः वस्त्रगन्धं, तत्र वस्त्रं मसिद्धं, गन्धः चन्दनकर्पूरादिमुगन्धिद्रव्यं तत् , अलङ्कारः कुण्डलवलयादिस्तम् , स्त्यायतः शुक्रशोणिते यासु . १ यत्तु 'वहुवचनोद्देशेऽप्येकवचननिर्देशो विचित्रत्वात्सूत्रगतेः' इति, यच्च 'अत्र सूत्रगतेर्विचित्रत्वादहुवचनेऽप्येकवचननिर्देशः' इति, यदपि च 'कि - बहुवचनोद्देशेऽप्येकवचननिर्देशः ? विचित्रत्वात्सूत्रगतेविपर्ययश्च भवत्येवेति कृत्वाऽऽह-'नासौ त्यागीत्युच्यते' इति, तदिदं त्रितयमपि व्याख्यानं सूत्रपूर्वापराऽननुसन्धानमूलकत्वादनुपादेयमेव, यतो द्वितीय-तृतीयगाथयोस्तात्पर्यपर्यालोचनायामेकवचनान्तमयोग एव सूत्रकृतोऽभिप्रेत इति सूचीकटाहन्यायेनापि बहुवचननान्तेप्वेवैकवचनान्तत्वकल्पनं युक्तियुक्तमिति ॥ जो मनुष्य रोग आदिसे आक्रान्त होनेके कारण पराधीन है और पराधीनता (असमर्थता) के कारण वस्त्र, कस्तूरी, केशर, चन्दन, आदि गन्ध, अण्डल, कटक आदि आभूपण, स्त्री, शय्या और'च' शब्दसेसवारी - જે મનુષ્ય ગાદિથી આક્રાન્ત હોવાને કારણે પરાધીન છે અને પરાધીનતા (असमर्थता)ने रणे वस्त्र, ४२तूरी, शर, यहन मा गंध, स, xsi આદિ આભૂષણ, સ્ત્રી, શય્યા. અને ૨ શબ્દથી સવારી, આસન આદિનું સેવન Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ श्रीदशवेकालिकसूत्रे ताः स्त्रियः=कामिन्यस्ताः शय्यते येषु तानि शयनानि=पल्यङ्क-खट्टाचतुष्ककादीनि तानि चकारात् यानाऽऽसनादीनि नवते न सेवते सः, त्यागीति= त्यजति परिमुञ्चति संसारसम्बन्धं तच्छील इति, न उच्यते न कथ्यते इति गाथार्थः ॥ २ ॥ कस्तर्हि त्यागी ? इति चेत्तत्राह - ' जे य कंते' इत्यादि । , 3 ५ मूलम् - जे य कँते पिए भोए, लद्धेवि पिटिकुन्वइ । 19 11 12 13 साहीणे चयई भोए, से हु चाइत्ति दुच्चई ॥ ३ ॥ ܙ छाया-यथ कान्तान् भियान् भोगान, लब्धानपि पृष्ठीकरोति । स्वाधीनस्त्यजति भोगान् स एव त्यागी इत्युच्यते ॥ ३ ॥ सान्वयार्यः-जे य=जो लद्धेवि = प्राप्त हुए भी कंते मनोहर पिए-अभीष्ट-मनगमते भोए=भोगोंको पिट्टिकुव्वत्याग देता है (और) साहीणे= स्वतन्त्र होते हुए मोह विषयोंको यई-त्यागता है से हनिय करके चाइति= " त्यागी" ऐसा बुचद्द= कहलाता है । अर्थात् भोगोंकी प्राप्ति होने पर भी और १- अधिकरणे ल्युट् । २ - प्रथमान्तमिदम् । ३- द्वितीयान्तमिदम् । ४-' भुजोऽनत्रने ' इत्यात्मनेपदं, सूत्रे तु प्राकृतत्वात्परस्मैपदम् । | आसन आदिका सेवन नहीं करते हैं वे त्यागी अर्थात् संसारके सम्बधोका त्याग करने वाले नहीं कहला सकते हैं, क्योंकि असार समझकर ममता छोड़ना - रुचि न रखना-त्याग कहलाता है । रोग आदिसे ग्रसित ऊपर कहे हुए विषयोंकी ममता नहीं छोड़ता (रुचि रखता ) है इसलिए वह त्यागी नहीं कहला सकता ||२|| त्यागी किसे कहते हैं ? इसपर सूत्रकार कहते हैं- 'जे य०' इत्यादि । કરતા નથી તે ત્યાગી અર્થાત્ સંસારના સાંધાને ત્યાગ કરવાવાળા નથી કહેવાઈ શકતા કારણ કે અસાર સમજીને મમતા છેડવી રૂચિ ન રાખવી એજ ત્યાગ કહેવાય છે, રોગાદિથી ત્રસિત મનુષ્યા ઉપર કહેલા વિષયાની મમતા ાતા नथी, तेथी तेथे त्यागी उडेवाता नथी. (२) त्यागी ने अछे ? मे विधे सूत्रार आहे हे-जे य० धत्याहि Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा. ३-४ त्यागिस्वरूपम् ११५ भोगनेकी स्वतन्त्रता रहते हुए भी जो भोगोंको नहीं भोगता वह सच्चा त्यागी है । गाथामें "वि" शब्द आया है उससे यह प्रगट होता है कि यदि किसीको age समय मनोहर और मिय भोग न भी उपलब्ध हों तथापि उसकी इच्छा कदापि भोगनेकी न हो तो भी वह त्यागी ही है ॥ ३ ॥ 1 टीका- 'च' शब्द: पूर्वगाथोक्तार्थनिवारकत्वेन 'तु' - शब्दार्थेऽवधारणार्थे चा, 'खलु' शब्दोऽवधारणार्थे, तथा चायमर्थः- यस्तु धानमाप्तानपि कान्तान= कमनीयान ( मनोहरान ) मियान्=अभिलपितान् भोगान्-शब्दादीन पृष्ठीकरोति पृष्टशब्दस्य तत्स्ये लक्षणया अपृष्ठस्थान पृष्ठस्थान करोति दूरतः परिहरतीत्यर्थः, ततो विमुखीभवतीति यावत् । एवं तु रोगावस्थायामपि संभवतीत्यतः स्पष्टयति-स्वाधीनः = रोगाद्यनभिभूतचिनः सन् भोगान् पूर्वोक्तलक्षणान् शब्दादीन, पुनर्योगग्रहणं 'द्धिं सुबद्धं भवती'-ति न्यायात्साकल्येन भोगत्वावच्छिन्नपरिग्रहार्थम् त्यजतिमुञ्चति, स खलु स एव त्यागीति उच्यते कथ्यते, न तु पराधीन इति गाथार्थः ॥ ३ ॥ उक्तविधस्यापि साधोः संयममार्गे विहरतः कदाचिद् विपयस्मरणेन प्रस्खलितचित्तता मामसाक्षीदिति तदुपायं दर्शयति- " समाए०" इति । जो महापुरुष पूर्वपुण्यके उदयसे प्राप्त हुए मनोहर और इष्ट शब्दादि faraint विधि-वैराग्य - भावना भाकर त्याग देते हैं उनसे विमुख हो जाते हैं और रोग आदिसे पीडित न होनेके कारण स्वाधीन (समर्थ) होते हुए भी विविध वैराग्य - भावना भाकर समस्त भोगोंको त्याग देते है वेही त्यागी कहलाते हैं ॥३॥ संयम मार्ग में विहार करते हुए त्यागी मुनिका मन, स्त्री आदिको देखने से कदाचित् विचलित (डांवाडोल) हो जाय तो उसको रोकने के लिए उपाय बतलाते हैं- 'समाए०' इत्यादि । જે મહાપુરૂષા પૂર્વ પુણ્યના ઉંચી પ્રાપ્ત થએલા મનેાહર અને ઇષ્ટ શબ્દાદ વિષયાને વિવિધ વૈરાગ્યભાવના ભાવીને ત્યજી દે છે-તેનાથી વિમુખ ની છે, અને રાગાદિથી પીડિત ન હેાવાને કારણે સ્વાધીન ( સમ) હોવા છતાં પણ વિવિધ વૈરાગ્ય-ભાવના ભાર્થીને ધા ભેગાને ત્યજી દે છે, તે જ ત્યાગી उपाय छे. (3) સચમ-માર્ગમાં વિહાર કરતા ત્યાગી મુનિનું મન, શ્રી દિને જોવાથી જો वियसित (अभाडोज) थ भय तो तेने रोडवाने भाटे उपाय बताये छे-'समाए० ' छत्याहि. Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - ११६ श्रीदवेकालिकम्त्रे मूलम्-समाए पेहाए परिव्वयंतो, सिया मणो निस्सरई वहिद्धा । १. ८ १३ १४ १५ १७ न सा महं नोवि अहंवि तीसे, इच्चेव ताओ विणइज्ज रागं ॥४॥ छाया-समया पेक्षया परिवनतः, स्यान्मनो निःसरति बहिः । न सा मम नो अपि अहमपि तस्याः , इत्येवं तस्या विनयेत रागम् ॥४॥ सान्चयार्थः-समाए-सम पेदाप मावनासे परिव्ययंतो संयममार्गमें विच. रते हुए साधुका मणो मन सिया-कदाचित्-कभी यहिदा-संयमगृहसे बाहर निस्सरई-निकल जाय तो "साबह स्त्रीमई-मेरीन नहीं है अवि और अहंविमैं भी तीसे उस स्वीका नो-नहीं हूँ" इचेव-इस प्रकार ताओ उस खोस राग-रागको विणइज्ज दूर करे ॥ ४ ॥ टीका-समया रागद्वेपपरिणतिरिक्तया स्वतुल्यया, प्रेक्षया प्रेक्षतेऽनयेति करणव्युत्पत्तिवलाद् दृपया, परिव्रजत विहरतः प्रोक्तरूपश्रामण्ये स्थितस्येत्यर्थः मना हृदयं, स्यात् कदाचित् मोहनीयकर्ममकृत्युदयवशाद् भुक्तभोगतया पूर्वकृतरत्यादिस्मरणेन तदन्यथात्वे विपयसेवनवान्छया वा, यहि संयमयोगाद्वाह्ये विपयादौ निःसरति-निर्गच्छति, अथ किं कर्तव्यं ? तदाह 'न सा' इति, साम परिचिन्त्यमाना स्त्री न मम, अपि-च अहमपि तस्यापरिचिन्त्यमानायाः रागदेपरहित-समतापूर्वक विचरते हुए श्रामण्यमें स्थित मुनिकामन स्त्री आदिको देखने पर मोहनीय कर्मके उदयसे कदाचित् पहले भोगे हुए भोगोंका स्मरण होजानेसे, अथवा विपयसेवनकी इच्छा होनेसे संयमरूपी घरसे बाहर निकल जाय तो उस समय साधुको विचारना चाहिए कि मैं जिसकी अभिलापा करता है, वह स्त्री न मेरी है और न - રાગદ્વેષ રહિત સમતાપૂર્વક વિચરતાં ગ્રામયમાં સ્થિત મુનિનું મન એ આદિને દેખતાં મોહનીય કર્મને ઉદયથી કદાચિત પહેલાં ભગવેલા ભેગેનું મરણ થઈ જવાથી, અથવા વિષય સેવનની ઈચ્છા થવાથી સંયમરૂપી ઘરની બહાર નિકળી જાય તે તે સમયે સાધુએ વિચારવું જોઈએ કે હું જેની અભિલાષા કરું છું તે સ્ત્રી નથી મારી કે નથી હું તેને. એ વિચાર કરીને એ સ્ત્રી પ્રત્યેના Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा. ४ कामरागदोपानुचिन्तनम् ११७ त्रियाः न, इत्येवम् =भनया रीत्या, तस्या: = अभिलप्यमाणायाः खियास्तत्सम्वन्धिनमित्यर्थः, रागम् = दुरभिलापं, विनयेत् दूरीकुर्यात् । वनिताविषये प्रसृतं मनस्तदीयरागसंबन्धिवहुतरदोपानुचिन्तनेन ततो निवर्तयन् मुनिः समां प्रेक्षामवलम्ब्य वनितादर्शनात् मागिव रागशून्यो भवेदिति भावः । दोषानुचिन्तनं यथा - "रे चित्त ! चारित्रस्य प्राणभृतं ब्रह्मचर्य यावज्जीवनमनुपालयितुं कृतमतिज्ञस्य तव स्वकृतप्रतिज्ञापरित्यागोद्यमे कुतो न लज्जासमुद्भवः ? | यदा संसारदावदहनपरितप्तस्य तत्र कोऽपि लोके शरणं नाभूत् तदा या विषयान् परित्यज्य जिनेन्द्रप्रतिपादितं चारित्रधर्मे शिरसाऽङ्गीकृत्य त्वया मैं उसका हूँ। ऐसा विचार करके उस स्त्रीके विषयका राग-भाव दूर करना चाहिए | तात्पर्य यह है कि-स्त्रीके विषय में मनकी प्रवृत्ति होनेसे चारित्रकी मलिनता आदि बहुतेरे दोष उत्पन्न होते हैं । उन दोपोंका विचार करके मुनि अपने मनको उस तरफसे हटाता हुआ समप्रेक्षाका अवलम्बन करके उसीप्रकार रागरहित होजावे जिस प्रकार त्रीको देखनेके पहले था | दोपोंका विचार इसप्रकार करे - रे मन ! चारित्रके प्राणोंके समान ब्रह्मचर्यको यावत्जीवन पालन करनेकी तूने प्रतिज्ञा की है; पहले की हुई प्रतिज्ञाका अब परित्याग करते तुझे लज्जा नहीं आती? जिस समय तृ संसाररूपी तीव्र दावाग्निसे संतप्त हुआ और लोकमें कोई भी तुझे न बचा सका उस समय जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्ररूपित चारित्र धर्मको तूने વિષયના રાગભાવ દૂર કરવા જોઇએ. તાત્પર્ય એ છે કે—સ્રીના વિષયમાં મનની પ્રવૃત્તિ થવાથી ચારિત્રની મલિનતા આદિ અનેક દોષ ઉત્પન્ન થાય છે. એ દ્વેષને વિચાર કરીને મુનિ પેાતાના મનને તે તરફથી પાછું હુઠાવતાં સમપ્રેક્ષાનું અવલંબન કરીને એવે રાગરહિત થઇ જાય કે જેવે! તે સ્ત્રીને દેખતાં પહેલાં હતેા. ાષાને વિચાર આ પ્રમાણે કરે હે મન ! ચારિત્રના પ્રાણ સમાન બ્રાચર્ચીને જીવનપર્યંત પાળવાની તે પ્રતિજ્ઞા કરી છે. પહેલાં કરેલી પ્રતિજ્ઞાના હુવે પરિત્યાગ કરતાં તને શરમ નથી આવતી? જે સમયે તું સંસારરૂપી તીવ્ર દાવાનળથી સંતમ થયા અને લેકમાં કઇ પણ તને ખચાવી ન શકયું, તે સમયે જીનેન્દ્ર ભગવાને પરૂપેલા ચારિત્ર ધર્મને તે સ્વીકાર કર્યાં અને જે હેય વિષયેાથી Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ খামামি निरस्तः सफलः सन्तापः, फिमिदानी पुनर्यान्तायटेडी भव भवत्ताननुस्मरद विरभ. रस्यात्मानम् । अरे । विस्मृतः किं नामचर्यमहिमा ? यत्मभावेणाऽल्पीयसव कालेन लोकपूनिरपि सरासरमनुजेन्द्रः पूज्यमानमसि पुनः किं तदेव विस्मरसि ? । इदमप्यनुचिन्तय "चिरायुपः मुसंस्थाना, दृढसंहनना नराः।। तेजस्विनो महावीर्या, भवेयुर्ब्रह्मचर्यतः ॥ १॥” इति । अपिच अनवाप्तपरमार्थतत्चास्वादनमुखानां संसाराभिनन्दिनां विपयामिपोपभोगमुखकामुकानामविवेकिनामेव कामिनी कमनीया भवतु नाम, परन्तु एतस्वीकार किया और जिन हेय-विपयोंसे मुख मोड़कर सकल संजाल छोड़ दिये उन्हीं विपयोंको चमनचाटनेवाले श्वानके समान फिर स्वीकार करना चाहता है ? ऐ अधम मन ! अपने स्वरूपका विचार कर । अरे मन ! देख ब्रह्मचर्यकी महिमासे ही लोकमें पूजे जानेवाले सुरेन्द्र असुरेन्द्र और नरेन्द्रोंके द्वारा तु पूज्य संमाननीय हुआ है, ऐसे अमितमहिमावाले ब्रह्मचर्यको भी तू क्यों भूल गया है ? कहा भी है "ब्रह्मचर्यसे दीर्घ आयु, सुन्दर आकार, और दृढ़ संहनन प्राप्त होते है, ब्रह्मचर्यसे ही मनुष्य, तेजस्वी और महाशक्तिशाली होते हैं" ॥१॥ हे जीच ! किंपाकफल सरीखे विषयभोग सुगन्ध, सुरूप, सुशब्द, और सुस्पर्श अविवेकी जीवोंको भलेही मनोहर लगें, पर तृता વિમુખ થઈને બધી જંજાળને છોડી દીધી, તેજ વિષયે વમનચાટનારા શ્વાનની પેઠે ફરીથી તે સ્વીકાર કરવા ચાહે છે? હે અધમ મન ! તારા પિતાના સ્વરૂપને तु पियार ४२. ' અરે મન ! જે બ્રહ્મચર્યના મહિમાથી જ, લેકમાં પુજાતા સુરેન્દ્ર અસુરેન્દ્ર અને નરેન્દ્રોની દ્વારા તું પૂજ્ય સંમાનનીય થયે છે, એવા અપાર મહિમાવાળા બ્રહ્મચર્યને પણ તું કેમ ભૂલી ગયા છે? કહ્યું પણ છે બ્રહ્મચર્યથી દીર્ઘ આયુષ્ય, સુંદર આકાર, અને દઢ સંહનન પ્રાપ્ત થાય છે. બ્રહ્મચર્યથી જ મનુષ્ય તેજસ્વી અને મહાશક્તિશાલી થાય છે.” (૧) હે જીવ! પિાકફળ જેવા વિષયભેગ, સુંદર, સુરૂપ, સુશબ્દ અને સુસ્પર્શ અવિવેકી ને ભલે મનહર લાગે, પરંતુ તું તે સંયમીઓમાં શ્રેષ્ઠ બનવા Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंध्ययन २ गाः ४ कामरागदोपानुचिन्तनम् ११९ दीयानुरागपरिणामदारुणतां विस्मरतस्तथापि कि संयताग्रगणनीयताऽभिलापो नोपडासाय जायेत ? । अरे मृढ़ ! अस्याः खलु विलासकलाकलापवैदुष्यं विलोक्य लुब्धकमसारितनाले कुरङ्ग इव, मार्गवर्तिनि गर्ने तुरङ्ग इव, ज्वलति प्रदीपे पतङ्ग इव किमात्मानं निरये निपातयसि ?। ____ अहो ! अयोमयशृङ्खलामप्यधरयति रागपाशः, यत् खलु मधुपः कठिनतरकाप्ठकृन्तनदक्षोऽपि न क्षमो भवति संकुचितकमलपुष्पानुरागनिवद्धमात्मानं परित्रातुम् । संयमियों में श्रेष्ठ बनना चाहता है फिर इनमें अनुराग करनेसे जो भयंकर फल उत्पन्न होते हैं उन्हें क्यों भूल जाता है ? इससे तेरी वह उच्च अभिलापा क्या हास्यास्पद नहीं होगी ? अवश्य होगी। _अरे मूढ़ ! जैसे व्याध (शिकारी) के फैलाए हुए जालमें कुरंग (हरिन) फंस जाता है; रास्तेके गड़ेमें तुरंग गिर जाता है; जलते हुए दीपकको ज्वालामें पतंग गिर पड़ता है वैसेही स्त्रीके हास विलास और हाव-भावकी चतुराई देखकर क्यों अपनी आत्माको नरकमें गिराता है ? - अहो ! इस रागके बन्धनके आगे लोहकी बेडीभी तुच्छ है, देखा; भीरा कठिनसे कठिन काष्ठको काट डालने में कुशल होता है परन्तु सूर्यके अस्त होजाने पर संकुचित कमल पुष्पके अनुरागके बन्धनमें बंधी ઈચ્છે છે, તે પછી એમાં અનુરાગ કરવાથી જે ભયંકર ફળ ઉત્પન્ન થાય છે તેને કેમ ભૂલી જાય છે ? તેથી તારી એ ઉચ્ચ અભિલાષા શું હાસ્યાસ્પદ નહિ थाय ? अवश्य थशे. __मरे भू ! रेभ व्याधे (शारी) सावली भi २ (२९) ફસાઈ જાય છે. રસ્તામાંના ખાડામાં તુરંગ (ઘેડ) પડી જાય છે, બળતા દીવાની જવાળામાં પતંગ હોમાઈ જાય છે, તેમ સ્ત્રીના હાસ્યવિલાસ અને હાવભાવની ચતુરાઈ જઈને કેમ તારા આત્માને નરકમાં પાડે છે? અહો! આ રાગના બંધનની આગળ લેવાની બેડી પણ તુચ્છ છે. જુઓ ! ભમરે કઠિનમાં કઠિન કાષ્ઠને કાપી નાંખવામાં કુશળ હોય છે. પરંતુ સૂર્યને . અસ્ત થતાંની સાથે જ બીડાયેલા કમળપુષ્પના અનુરાગના બંધનમાં બંધાયેલે Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - १२० श्रीदशवकालिकसूत्रे ___ इह यादरमणीयतास्पदे, नितान्ताशुचिपदे, चपलावरमतिपलचपलरूपलावण्ये, योपिदपपने किमिव नाम शोमनं विधते, यद् बालविघुलेखेर, अमृतावयनिर्मितेव, चन्द्रमण्डलादुद्भूतेव, इयं नीलकमलदलायताक्षी सहायनयनाभ्यां जीवलोकमाधासयन्तीय कमनीया निरीक्ष्यते । १ खीचेष्टाविशेपो हायस्तेन सहित सहावे ते च ते नयने च-सहावनयने ताभ्यामित्यर्थः । । हुई अपनी आत्माकी रक्षा करने में समर्ध नहीं होता। इसलिए हे मन ! ऐसे रागमें फंसनेकी इच्छा क्यों कर रहा है ? ऐजीव ऊपर-ऊपरसे मनोहर मालूम होनेवाले, अत्यन्त अपवित्रताके स्थान, चपला (विजली) की नाई पल-पलमें चपलरूप-लावण्यवाल, स्त्रीके शरीरमें तुझे क्या अच्छापन दिखाई देता है ? जिससे तू उसे यह समझ रहा है कि-मानो वह दितीयाके चंद्रमाकी कला है, अमृतक अवयवोंसे बनी हुई है, चन्द्रमाको फाड़कर निकल पड़ी है, नीलकमलके दल (पत्ता) के समान विशाल नेत्रवाली, तथा लीलायुक्त लोचनास लोकको अवलम्बन देनेवाली मनोहर दीख पडती है। १ मूर्य डूबने वाद, कमलके भीतर पड़ा हुआ भौरा, तकलीफ सहकर सारी रात विताता है किन्तु अनुराग (मीति) के कारण, कमलके कोमल (मोलायम) पत्तोंको भी काटकर उस तकलीफको रफा करनेका साहस नहीं कर सकता ॥ પિતાના આત્માની રક્ષા કરવામાં સમર્થ નથી બનતે? તે હે મન ! એવા રાગમાં ફસાવાની ઈચ્છા કેમ કરી રહ્યા છે ? હે જીવ! ઉપર-ઉપરથી મનહર માલુમ પડતા, અત્યંત અપવિત્રતાનું સ્થાન વિજળીની પેઠે પલ–પલમાં ચપળ રૂપલાવશ્યવાળા સ્ત્રીના શરીરમાં તને કઈ સુંદરતા દેખાય છે? કે જેથી હું તેને માની રહ્યો છે કે- આ બીજના ચંદ્રમાની કલા છે. અમૃતના અવયથી બનેલી છે, ચંદ્રમાને ફાડીને નીકળી પડી છે, નીલ કમળનાં દળ (પાંદડીઓ)ની સમાન વિશાળ નેત્રવાળી તથા લીલાયુક્ત લાચનથી લેકને અવલંબન આપનારી મને હર દેખાય છે. ૧ સૂર્ય અસ્ત પામ્યા પછી કમળની અંદર ગોંધાઈ ગએલા ભમરે તકલીફ સહન કરીને આખી રાત ઉતાવે છે, પરન્તુ અનુરાગ (પ્રીતિ) ને કારણે કમલની કમળ (મુલાયમ) પાંદડાઓને કાપી નાખીને એ તક્લીફ દુર કરવાનું સાહસ નથી કરી શકતે. Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ अध्ययन २ गा. ४ कामरागदोपानुचिन्तनम् अनालोच्य प्रवर्तमानः खलु पराभूयते, तस्मादियदपि तावद् विभावय विलासिनीविलसनं कुतः स्थानादिदमुद्भवति ? किं चास्य कारणम् ? · कयमिदं विष्ठति ? क्रिमेतस्मानिःसरत् सततं दरीदृश्यते ? इति, विरम विरमात्रानुरागकरणात् , अस्य हि शरीरस्य मूत्राशुपहतमुद्भवस्थानम् , शुक्रशोणिते एव कारणम् , अशितपीतादिना च स्थितिः, एतस्मानिःसरीसति च मलमूत्रकफादिकमेव, किंबहुना मृदुतममनोरमवसनविनिर्मितया मलमूत्रास्थि हेआत्मन् ! स्मरण रख, जो विना विचारे किसी विपयमें प्रवृत्ति करता है उसकी बड़ी दुर्गति होती है । तू अपना कल्याण चाहता है तो विलासिनियोंके विलासका अच्छीतरह विचार करले। यह सोच देख कि यह शरीर कहांसे उत्पन्न होता है ? इसका क्या कारण है ? केसे ठहरता है ? और इससे क्या२ घिनौने (घृणाजनक) पदार्थ निकलते हुए दिखाई देते हैं ? __ यस कर, रहेनेदे; इस शरीरमें अनुराग मत कर, मलमूत्रसे भरे हुए स्थानसे यह शरीर उत्पन्न हुआ है, रज-वीर्य इसके कारण हैं, खाया पीया भोजन इसकी स्थितिका निमित्त है, और इसके नौ द्वारोंसे मल-मूत्र आदि घृणित पदार्थ निकला करते हैं, अधिक क्या कहें? कोमल और मनोहर कपडेसे बंधी हुई मल-मूत्रकी गठरीमें पामर प्राणीभी अनुराग नहीं करता; फिर अशुचि आदि भावनाओंका समीचीन હે આત્મન ! યાદ કર કે, જે વિના વિચારે કે વિષયમાં પ્રવૃત્તિ કરે છે તેની ભારે દુર્ગતિ થાય છે. તું પિતાના કલ્યાણને ચાહે છે તે વિલાસિનીઓના વિલાસને સારી પેઠે વિચાર કરી લે. એટલું વિચારી જે કે આ શરીર કયાંથી ઉત્પન્ન થયું છે? એનું શું કારણ છે ? તે કેવી રીતે ટકે છે? અને એમાંથી કેવા કેવા ગંધાતા (ધૃણાજનક) પદાર્થો નીકળતા જોવામાં આવે છે? બસ કર, રહેવા દે; આ શરીરમાં અનુરાગ ન કર, મળમૂત્રથી ભરેલા स्थानभांथी मा UN२ पन्न थयु छ, २०४-पीय मेनु १२९५ छ, माय-बाप ભેજન, એની સ્થિતિનું નિમિત્ત છે, અને તેનાં નવ દ્વારે વાટે મળ-મૂત્ર આદિ ધૃણિત પદાર્થો નીકળ્યા કરે છે. વધારે શું કહીએ? કેમળ અને મને હર કપડાંથી બાંધેલી મળમૂત્રની ગાંસડીમાં પામર પ્રાણું પણ અનુરાગ નથી કરતે, તે પછી અશુચિ આદિ ભાવનાઓનું સમીચીન ચિંતન કરવામાં ચતુર મુનિએની તે Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - १.२२ श्रीदशकालिकमरे कफादिपोलिफया न पामरोऽपि रज्यते, का कथा पुनर्भावनाकुशलानां मुनीनाम् । उक्तञ्च~-"अम्माकुम्भशतैर्वपुर्ननु बहिर्मुग्धाः ! शुचिस्वं कियन , ___कालं लम्भयथोचमं परिमलं कस्तूरिकायेस्तथा । विष्ठाकोठकमेतदद्कमहो! मध्ये तु शौचं कय, कार नेप्यय सुचयिष्यथ कथकारं च तत्सौरभम् " ॥१॥ अन्यच-"विरम चिरम संगान्मुन्न मन प्रपत्रं, विएन विधज मोदं विद्धि विदि स्वतत्वम् । फलप कलय हत्तं पश्य पश्य स्वरूप, कुरु कुरु पुरुषार्थ निर्वृतानन्दहेतोः ॥ २॥ इति," चिन्तन करनेमें चतुर मुनियोंका कहना ही क्या है ? वे तो उस ओर आंखभी नहीं उठाते। कहा भी है "शरीरको सैकड़ों घड़ोंसे चाहे जितना नहलाओ धुलाओ, और केशर कस्तूरी गुलाय आदिकी सुगन्धसे सुगन्धित करो, परन्तु यह शरीर तो मल-मूत्रका भाजन है। हे भव्यो। इसे कैसे पवित्र बनाओगे? और कैसे इसकी सुगन्धि फैलाओगे" ॥१॥. "हे आत्मन् ! तू स्त्री आदिकी ममतासे विरक्त हो विरक्त हो, मोहका त्यागकर त्यागकर, आत्माके स्वरूपको पहचान पहचान, और मोक्षसुखके लिए पुरुपार्थ कर पुरुपार्थ कर ||२|| १ यहां प्रत्येक कर्तव्यको दुहरानेसे अत्यन्त तीन प्रेरणा प्रगट होती है । શી વાત? તેઓ તે તેની તરફ ઉંચી આંખે જોતા પણ નથી. કહ્યું છે કે “શરીરને સેંકડે ઘડા પાણીથી ચાહે તેટલું નહવરા, ધુઓ, અને કેશર કસ્તૂરી ગુલાબ આદિની સુગંધથી સુગંધિત કરે, પરંતુ આ શરીર તે મળ-મૂત્રને ભાજન છે. હે ! તેને કેવી રીતે પવિત્ર બનાવશે ! અને કેવી રીતે તેના ५२१५ (३२)२ सावा ?" (2) "मात्मन! तु सामाहिनी ममताथी व था. वि२त था, माना । ત્યાગ કર ત્યાગ કર, આત્માના સ્વરૂપને જાણ જાણ, ચારિત્રને અભ્યાસ કરી અભ્યાસ કર, પિતાને પિછાણ પિછાણુ, અને મોક્ષ સુખને માટે પુરૂષાર્થ કરે पुषा ४२” (२) ૧ અહીં પ્રત્યેક કર્તધ્યને બેવડાવવાથી અત્યંત તીત પ્રેરણ પ્રકટ થાય છે. - - - - - - - - - ----- - -- Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M - - - - अध्ययन २ गा. ४ कामरागदोपानुचिन्तनम् १२३ अपरश्च-" अमेध्यपूर्णे कृमिनालसङ्कले, स्वभावदुर्गन्धविनिन्दितान्तरे। ___ कलेवरे मूत्रपुरीपभाविते, रमन्ति मृदा विरमन्ति धीराः ॥३॥” इति । यद्यपि संसारभीरुभिः परिहेयोऽन्यसको दुस्त्यजा, तथापि ब्रह्मचर्यमहिमानमनुस्मरतां मुनीनां केवलं स्त्रीसङ्गापरिहारेण द्रव्यादिसङ्गः स्वयमेव निवर्तते । यथा स्वयम्भूरमणमहासागरमुत्तीर्णस्य पुरतः क्षुद्राकृतिगङ्गासमानाऽपि नदी मुखसमुतरणीया भवति । उक्तञ्च भगवता उत्तराध्ययनमूत्रस्य द्वाविंशेऽध्ययने“एए य संगे समइक्कमित्ता, मुहुत्तरा चेव वंति सेसा। जहा महासागरमुत्तरित्ता, नई भवे अवि गंगासमाणा ॥ १ ॥” इति , "अशुचि पदार्थोंसे भरा हुआ, जूं आदि कीडोंसे व्याप्त, स्वाभाविक दुर्गन्धके कारण भीतर भी घृणित और मल-मूत्रसे वेष्टित (स्त्रियोंके) शरीरमें रमण वे करते हैं जो मृढ हैं, और बुद्धिमान पुरुप महान निकृष्ट समझ कर उससे अलग रहते है ॥ ३॥” यद्यपि विपयोंके संग संसारभीरु पुरुपोंके लिए त्याज्य हैं और उनका त्याग होना कठिन है, तथापि ब्रह्मचर्यकी महिमाका स्मरण करने वाले मुनियोंको एक मात्र स्त्रीसंगके त्याग देनेसे अन्य विषयोंके संग दुस्त्यज होनेपर भी स्वयमेव निवृत्त हो जाते हैं । अर्थात् ब्रह्मचर्यमें दृढ़ रहनेवालों पर कोई भी विषय, अपना प्रभाव नहीं डाल सकता। जो पुरुप स्वयम्भूरमण महासमुद्रको पार कर चुका है उसके लिए गंगा जैसी छोटी२ नदियां पार करना क्या बड़ी बात है। भगवान्ने उत्तराव्ययन “અશદ્ધ પદાર્થોથી ભરેલાં, જુ-આદિ કીડાઓથી વ્યાપ્ત, સ્વાભાવિક દુગધિને કારણે અંદર પણ ધૃણિત અને મળ-મૂત્રથી વેષ્ટિત (સ્ત્રીઓના) શરી૨માં તેઓ રમણ કરે છે કે જેઓ મૂઢ છે, અને બુદ્ધિમાન પુરૂષ તે તેને અત્યંત निष्ट सम०२ तनाथी २७ .” (3) - જે કે વિનો સંગ સંસારીરૂ પુરૂને માટે ત્યાજ્ય છે અને તેને ત્યાગ થવે કઠિન છે, તે પણ બ્રહ્મચર્યના મહિમાનું સ્મરણ કરનારા મુનિઓને એક માત્ર સ્ત્રીસંગને ત્યાગ કરવાથી, અન્ય વિષયનો સંગ દુર્યજ હેવા છતાં પણ આપોઆપ નિવૃત્ત થઈ જાય છે. અર્થાત્ બ્રહ્માચર્યમાં દઢ રહેનારાઓ પર કઈ પણ વિષય પિતાને પ્રભાવ પાડી શક નથી. જે પુરૂષ સ્વયભૂમણુ મહાસમુદ્રને પાર કરી ચૂકયે છે તેને માટે ગંગા જેવી નાની નાની નદી પાર કરવામાં શી મટી વાત છે ? ભગવાને પણ ઉત્તરાધ્યયન-સૂત્રના ૩૨ મા અધ્યયનમાં Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ श्रीदशकालिकसूत्रे फफादिपोहलिकया न पामरोऽपि रज्यते, का कया पुनर्भावनाकुमलानां मुनीनाम् । उक्तश्च-" अम्भःकुम्भशतैर्वपुर्ननु यहिर्मुग्धाः ! शुचिस्त्रं कियत् , ___ कालं लम्मययोतम परिमलं कस्तूरिकायेस्तथा । विष्ठाकोडकमेतदद्कमहो ! मध्ये तु शौचं कय, कारं नेप्यय सूचयिष्यथ ययकारं च तत्सौरमम् " ॥१॥ अन्यत्र-"विरम विस्म संगामुन मुन्न प्रपत्रं, विराज विसृज मोहं विद्धि विदि स्वतत्वम् । फलय कलय वृत्तं पश्य पश्य स्वरूपं, कुरु कुरु पुरुषार्थ निवृतानन्दहेतोः ॥ २ ॥ इति," चिन्तन करनेमें चतुर मुनियोंका कहना ही क्या है ? वे तो उस ओर आंखभी नहीं उठाते । कहा भी है___ "शरीरको सैकड़ों घड़ोंसे चाहे जितना नहलाओ धुलाओ, और केशर कस्तूरी गुलाय आदिकी सुगन्धसे सुगन्धित करा, परन्तु यह शरीर तो मल-मृत्रका भाजन है। हे भव्यो! इसे कैसे पवित्र बनाओगे? और कैसे इसकी सुगन्धि फैलाओगे" ||१. “हे आत्मन् ! तू स्त्री आदिकी ममतासे विरक्त हो विरक्त हो, मोहका त्यागकर त्यागकर, आत्माके स्वरूपको पहचान पहचान, आर मोक्षसुखके लिए पुरुपार्थ कर पुरुषार्थ कर" ||२|| १ यहां मत्येक कर्त्तव्यको दुहरानेसे अत्यन्त तीव्र मेरणा प्रगट होती है । શી વાત? તેઓ તે તેની તરફ ઉંચી આંખે જોતા પણ નથી. કહ્યું છે કે શરીરને સેંકડે ઘડા પાણીથી ચાહે તેટલું હવા, ધુએ, અને કેશર કસ્તૂરી ગુલાબ આદિની સુગંધથી સુગંધિત કરે, પરંતુ આ શરીર તે મળ-મૂત્રને ભાજન છે. હે ભળે તેને કેવી રીતે પવિત્ર બનાવશે ! અને કેવી રીતે તેના ५२ (३२)नसावा ?" (१) “હે આત્મન ! તું સ્ત્રી આદિની મમતાથી વિરક્ત થા વિરક્ત થા, મોહના ત્યાગ કર ત્યાગ કર, આત્માના સ્વરૂપને જાણ જાણ, ચારિત્રને અભ્યાસ કર અભ્યાસ કર, પિતાને પિછાણુ પિછાણ, અને મોક્ષ સુખને માટે પુરૂષાર્થ કર १३ाथ ४२१" (२) ૧ અહીં પ્રત્યેક કર્તવ્યને બેવડાવવાથી અત્યંત તીવ્ર પ્રેરણા પ્રકટ થાય છે. Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - = अध्ययन २ गा. ४ कामरागदोपानुचिन्तनम् १२५ दोपा विविधशस्त्रास्त्रधारिणः प्रवलशत्रय इय समुत्तिष्ठन्ति । तत्रादावारौद्रध्यानं हृदये पदमारोपयति, तस्मिश्च विद्यमाने प्रमादः साहस-मज्ञान-मधर्मो-सिद्धिस्तथान्यपि दोपाः समायान्ति । अब्रह्मचर्यस्य सकलप्रमादस्थानत्वेन प्रमादः, भाषचारितकार्यकरणबुद्धिसमुत्पादकत्वेन साहसं, पोधिवीजविनाशकत्वेन अज्ञानम् , अधोगतिकारकत्वेन अधर्मः, अष्टविधकर्मजनकत्वेन असिद्धिश्च, एते दोपावेतोरहे संयमरत्नापहाराय यथेच्छमाशु प्रविशन्ति । __ किंव-विपयरागः, सकलपापानां निदानम् ; कुठार इव चारित्रतरुं छिनत्ति, प इस प्रकार आ खड़े होते हैं मानों अनेक अस्त्र-शस्त्र लेकर प्रपल शनु आ डटे हों। पहले पहल तो आध्यान और रौद्रध्यान हृदयमें स्थान पा लेते हैं। इनके स्थान पाते ही प्रमाद, साहस, अज्ञान, अधर्म, असिद्धि आदि अनेक दोप उपस्थित होते हैं । । अब्रह्मचारीको प्रमादके सय कारण मौजूद रहते हैं इसलिए प्रमाद, विना विचारे कार्य करनेसे साहस, बोधि-रूपी बीजका विनाशक होनेसे अज्ञान, अधोगतिमें लेजानेके कारण अधर्म, और आठों कर्मोंका जनक हानसे असिद्धि, और इस प्रकारके अनेक दोप शत्रुकी तरह चित्तरूपी परम संयमरूपी रत्नको लूटनेके लिए इच्छानुसार प्रवेश कर जाते हैं। विपयराग सकल पापोंका मूल कारण है; चारित्र-वृक्षको, काटनेके लिए कुठार है; जिस प्रकार कजल, सफेद वस्त्रको मलिन कर देता ખડા થાય છે, જાણે કે અનેક અસ્ત્ર-શસ્ત્ર લઈને પ્રબળ શત્રુઓ આવી પહોંચ્યા હાય. પહેલાં તે આનં–થાન અને રૌદ્રધ્યાન હૃદયમાં સ્થાન જમાવી લે છે. તેને સ્થાન મળતાં જ પ્રમાદ, સાહસ, અજ્ઞાન, અધર્મ, અસિદ્ધિ આદિ અને દે આવી अभा २ छे. અબ્રટ્ટાચારીની સમીપે પ્રમાદનાં બધાં કારણે હાજર રહે છે. એથી પ્રમાદ, વગર વિચારે કાર્ય કરવાથી સાહસ, બધિરૂપી બીજનું વિનાશક હોવાથી અજ્ઞાન, અધોગતિમાં લઈ જવાને કારણે અધર્મ, અને આઠે કર્મોનું જનક હવાથી અસિદ્ધિ અને એવા જ બીજા અનેક દે શત્રુની પેઠે ચિત્તરૂપી ઘરમાં સંયમરૂપી રત્નને લૂંટી લેવાને ઈરછાનુસાર પ્રવેશ કરે છે. વિષયરાગ બધાં પાપનું મૂળ કારણ છે, ચારિત્ર વૃક્ષને કાપનારે કહાડે છે. Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ विहे चित-सत्याराहाय्य क्रियताम् नीनां - श्रीदशवेकालेकसूत्रे इयं दृष्टिविपा नागीय सन्दर्शनादेव संयमिनां शमलक्षणं जीवनं विनिहन्ति । अथवा किमियं प्रगाढ़ान्यकारा रजनी ? यदनोल्फा इत्र चत्वारः कपाया विचरन्ति, अज्ञानपिशाचथात्र चारित्रलक्षणगुणशरीरग्रसनाय जागरूको लक्ष्यते । हे चित्त-सहचर ! ज्ञानप्रकाशेन रागान्धकारमपनीय रात्रिकृतोपसगै निवारयता भवता मदीयसाहाय्यं क्रियताम् । अपि चेदं भावनीयम्-मुनीनां कृते नामचर्यपरित्यागी महाऽनर्थकरः, तया हि ब्रह्मचर्यपरित्यागेच्छायामपि सत्यां वहको सूत्रके ३२ चे अध्ययनमें 'एए य संगे' इस गाथासे यही प्रतिपादन किया है। जैसे जिस नागिनकी दृष्टिमें विपहोता है उसके देखनेसे ही जीवनका अन्त होजाता है, इसी प्रकार स्त्रीके भी सानुराग देखनेसे चारित्र: रूपी जीवन नष्ट हो जाता है। ___ अथवा यह कैसी प्रगाढ़ अन्धकारमय रजनी है, जिसमें चारों कषायरूपी उल्लुओंका राज्य है, और चारित्र-रूपी शरीरको निगलनेके लिए अज्ञानरूपी पिशाच सदा ताकता रहता है । हे मित्र मन ! ज्ञानके प्रकार शसे रागरूपी अन्धकारको निवारण कर, स्त्रीरूपी रात्रि द्वारा किये गए उपसर्गको हटाने में मेरी सहायता कर । ब्रह्मचर्यका परित्याग करनामुनियोंके लिए महान् अनर्थ करनेवाला है। यहाँ तक कि ब्रह्मचर्य परित्याग करनेकी इच्छा होते ही बहुतस एए य संगे आयाथी मे० प्रतिपादन यु छ । જેવી રીતે જે નાગણીની દ્રષ્ટિમાં વિષ હોય છે તેને જેવાથી જ જીવનને અંત આવી જાય છે, તેવી રીતે સ્ત્રીને અનુરાગપૂર્વક જેવાથી ચારિત્રરૂપ જીવન नष्ट थ य छे. અથવા એ કેવી ગાઢ અંધકારમય રાત્રિ છે કે જેમાં ચારે કષારૂપી ઘુવડાનું રાજ્ય છે, અને ચારિત્રરૂપી શરીરને ગળી જવાને માટે અજ્ઞાનરૂપી પિશાચ સદા તાકી રહે છે. હે મિત્ર મન ! જ્ઞાનના પ્રકાશથી રાગરૂપી અંધકારનું નિવારણ કર, અને સ્ત્રીરૂપી રાત્રિથી ઉત્પન્ન થતા ઉપસર્ગોને હઠાવવામાં મને સહાય કર. બ્રહાચર્યને ત્યાગ કરે એ મુનિઓને માટે મહાનું અનર્થકારક છે; એટલે સુધી કે બ્રહ્મચર્ય ત્યજવાની ઈચ્છા થતાં જ અનેક દે એવી રીતે આવીને Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- - अध्ययन २ गा. ४ कामरागदोपानुचिन्तनम् १२५ दोपा विविधशस्त्रास्त्रधारिणः प्रबलशत्रव इव समुत्तिष्ठन्ति । तत्रादावार्तरौद्रध्यानं हृदये पदमारोपयति, तस्मिश्च विद्यमाने प्रमादः साहस-मज्ञान-मधर्मो-सिद्धिस्तथाऽन्येऽपि दोषाः समायान्ति । अब्रह्मचर्यस्य सकलपमादस्थानत्वेन प्रमादः, यविचारितकार्यकरणबुद्धिसमुत्पादकत्वेन साहसं, बोधिवीजविनाशकत्वेन अज्ञानम् , अधोगतिकारकत्वेन अधर्मः, अष्टविधकर्मजनकत्वेन असिद्धिश्च, एते दोपावेतोगृहे संयमरत्नापहाराय यथेच्छमाशु प्रविशन्ति । किञ्च-विपयरागः, सकलपापानां निदानम् ; कुठार इव चारित्रतरुं छिनत्ति, दोप इस प्रकार आ खड़े होते हैं मानों अनेक अस्त्र-शस्त्र लेकर प्रवल शत्रु आ डटे हों। पहले पहल तो आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान हृदयमें स्थान पा लेते हैं । इनके स्थान पाते ही प्रमाद, साहस, अज्ञान, अधर्म, असिद्धि आदि अनेक दोप उपस्थित होते हैं। __ अब्रह्मचारीको प्रमादके सव कारण मौजूद रहते हैं इसलिए प्रमाद, विना विचारे कार्य करनेसे साहस, पोधि-रूपी बीजका विनाशक होनेसे अज्ञान, अधोगतिमें लेजानेके कारण अधर्म, और आठों कर्मोंका जनक होनेसे असिद्धि, और इस प्रकारके अनेक दोप शत्रुकी तरह चित्तरूपी घरमें संयमरूपी रत्नको लूटनेके लिए इच्छानुसार प्रवेश कर जाते हैं। विषयराग सकल पापोंका मूल कारण है, चारित्र-वृक्षको, काटनेके लिए कुठार है। जिस प्रकार कज्जल, सफेद वस्त्रको मलिन कर देता ખડા થાય છે, જાણે કે અનેક અસ્ત્ર-શસ્ત્ર લઈને પ્રબળ શત્રુઓ આવી પહોંચ્યા હેય. પહેલાં તે આત્ત-સ્થાન અને રોદ્ર–ધ્યાન હૃદયમાં સ્થાન જમાવી લે છે. તેને સ્થાન મળતાં જ પ્રમાદ, સાહસ, અજ્ઞાન, અધમ, અસિદ્ધિ આદિ અને દશે આવી ઊભા રહે છે. અબ્રાચારીની સમીપે પ્રમાદનાં બધાં કારણે હાજર રહે છે. એથી પ્રમાદ, વગર વિચારે કાર્ય કરવાથી સાહસ, બધિરૂપી બીજનું વિનાશક હોવાથી અજ્ઞાન, અધોગતિમાં લઈ જવાને કારણે અધર્મ, અને આઠે કર્મોનું જનક હોવાથી અસિદ્ધિ અને એવા જ બીજા અનેક દે શત્રુની પેઠે ચિત્તરૂપી ઘરમાં સંયમરૂપી રત્નને લૂંટી લેવાને ઈચ્છાનુસાર પ્રવેશ કરે છે. વિષયરાગ બધાં પાપનું મૂળ કારણ છે ચારિત્ર વૃક્ષને કાપનારે કેહડે છે. Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ श्रीदशवकालिकमरे फजल इव मलिनयति स्वच्छमम्बरमियात्मानम् , भवति चार्गला मोक्षमार्गद्वारस्य नरकनिगोदाधनन्तदुःखानाच निधानमिति सर्वथा तमपहाय परात्रन्ति चञ्चत्तपासंयमाचरणचतुरास्तपस्विनः । ननु यहवो मन्त्रास्तथाविधाः सन्ति ये देवानां दानवानामुपरि प्रभावमाविर्भावयन्ति, परन्तु किमेतदाथर्यम् ? यत् स्त्रीणां चरित्रे तेऽपि मन्त्रा इतप्रायाः किमपि कर्तुं न प्रभवन्ति । अयासां चरित्रस्यैतादृशप्रभावशालिता, यत्पुरतो मन्ना अपि पराभूय निवर्तन्ते, वहि क उपायस्तदुद्भावितरागरज्जुकतनाय संयताना-2-मिति चेत्, हन्त ! हृदय-सहचर ! योपित्सविधसंस्थितिपरित्याग एवं तदीय-चरित्राऽऽहै उसी प्रकार आत्माको मलिन करने वाला है: मुक्तिके मार्गकी अर्गला है, नरक निगोदके दुःखोंका निधान है और विविध व्याधियाका उत्पत्तिस्थान है, अत एव तप और संयमके पालने में चतुर तपस्वी लोग इस (विषय-राग) को बिलकुल छोड़कर अलग होते हैं । ___ जो मन्त्र, देवों और दानवों पर भीअपनाप्रभावशीघ्रही दिखलाते हैं वे भी स्त्रीजनित राग पर प्रभाव नहीं डाल सकते । यह बड़े आश्च: यकी पात है। स्त्रियोंका चरित्र इतना प्रभावशाली होता है कि उसक सामने मन्त्र भी प्रभावहीन हो जाते हैं तब उनके विपयमें उत्पन्न हानवाले राग-रज्जूको काटने के लिए मुनियोंको क्या उपाय करना चाहिय : हे हृदय-सुहृद् ! स्त्रियोंके समीप रहनेका त्याग करदेना ही उनके જેમ કાજળ સફેદ વસ્ત્રને મલિન કરી નાંખે છે તેમ આત્માને મલિન કરનાર છે મુક્તિના માર્ગની અલા છે, નરક નિગદનાં દુખનું નિધાન છે; અને વિવિધ વ્યાધિઓનું ઉત્પત્તિસ્થાન છે. તેથી કરીને તપ અને સંયમને પાળવામાં ચતુર એવા તપસ્વી લેકે આ (વિષયરાગ)ને બિલકુલ છોડીને તેથી દૂર જતા રહે છે. જે મંત્ર, દેવ અને દાનવે પર પણ પિતાનો પ્રભાવ તુરત બતાવી આપે છે, તે મંત્ર પણ રજનિત રાગ પર પ્રભાવ પાડી શકતા નથી, એ મેટા આશ્ચર્યની વાત છે. સ્ત્રીઓનું ચારિત્ર એટલું પ્રભાવશાળી હોય છે કે તેની સામે મંત્ર પણ પ્રભાવહીન બની જાય છે. તે તેના વિષયમાં ઉત્પન્ન થનારા રાગરજજુને કાપવા માટે મુનિઓએ ક ઉપાય કરવું જોઈએ ? य-सुहह ! श्रीमानी सभीचे रहेपार्नु छोडी हे मेरी Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ 'अध्ययन २ गा. ४ कामरागदोपानुचिन्तनम् पादितरागभङ्गोपाय इति धारणामुपैहि । उक्तञ्च "शृणु हृदय ! रहस्यं यत्पशस्तं मुनीनां, न खलु न खलु योपित्संनिधिः संविधेयः । हरति हि हरिणाक्षी क्षिप्रमक्षिक्षुरप्रैः, पिहितशमतनुत्रं चित्तमप्युत्तमानाम् ॥ १ ॥ शास्त्रज्ञोऽपि प्रकटविनयोऽप्यात्मवोधेऽपि गाहः, संसारेऽस्मिन् भवति विरलो भाजनं सद्गतीनाम् । येनैतस्मिन् निरयनगरद्वारमुद्घाटयन्ती, वामाक्षीणां भवति कुटिला भूलता कुश्चिकेच" ॥२॥ . वस्तुतस्तु उहाऽनादिसंसारे स्वस्मिन्नपि शरीरे जीवस्य किं नाम स्वातन्त्र्यम् ? विषयमें होनेवाले प्रेम-पाशके काटनेका उपाय है। कहा भी है "ऐ मन ! मुनियोंकी आत्माका कल्याण करनेवाले रहस्यको सुन, वह यह है कि-स्त्रियोंका सम्पर्क (संसर्ग) सर्वथा नहीं करना चाहिये, क्योंकि शम-रूप कवच पहने हुए उत्तम पुरुपोंके अन्तःकरणको भी स्त्रियां अपनी आंखेंरूपी छुरीकी धारसे छिन्न-भिन्न कर डालती हैं ॥१॥ "प्रवचनमें प्रवीण, विनयवान और गंभीर आत्मज्ञानवान होते हुए भी कोई विरला ही व्यक्ति सद्गतिकी प्राप्ति कर पाता है। क्योंकि संसारमें एक ऐसी कुंजी मौजूद है जो जल्दी नरकका द्वार खोल देती है, वह कुंजी क्या है ? स्त्रियोंकी टेढ़ी भौंह " R॥ सच है-अनादि-कालीन संसारमें, जीवोंको अपने शरीरमें भी ઉત્પન્ન થતા પ્રેમપાશને કાપવાને ઉપાય છે. કહ્યું છે કે-હે મન ! મુનિઓના આત્માનું કલ્યાણ કરનારા રહસ્યને શ્રવણ કર. તે આ પ્રમાણે છે. - સ્ત્રીઓને સંપર્ક (સંસર્ગ) સર્વથા ન કરવું જોઈએ, કારણ કે શમરૂપ કવચ પહેરેલા ઉત્તમ પુરૂના અંતઃકરણને પણ એ પિતાની આંખેરૂપી જુરીની ધારથી છિન્ન-ભિન્ન કરી નાખે છે.” પ્રવચનમાં પ્રવીણ, વિનયવાન અને ગંભીર આત્મજ્ઞાનવાન હોવા છતાં પણ વિરલ વ્યક્તિ જ સદ્દગતિને પ્રાપ્ત કરી શકે છે. કારણ કે સંસારમાં એક એવી કુંચી મેજુદ છે કે જે જલ્દી નરકનું દ્વાર ખોલી નાંખે છે. એ કુંચી छ ? श्रीनी Risीलम२. ખરું છે. અનાદિકાલીન સંસારમાં, છ પાસે પોતાના શરીરની પણ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ श्रीदकालिकम्ने श्यते हि लोकेऽपकृष्एमनुजपशुपतिसरीष्टपादिशरीरोपभोगमवाग्छतोऽपि पाणिनस्तनदहयोगेन अनारतदेशावस्थानामिमताऽनपानाऽनवातिशीववावासपोपलटष्टिदंशमशकादिननिताऽनेकविधदुनिवारदुःखोपभोगः सोढन्यो भवतीति, स्वावन्ये तु न कोऽपि तत्तदद्गमीकुर्यात् । मासंयोग इवाङ्गवियोगेऽपि नास्ति जीवस्य स्वातन्त्र्यम् , तनुवियोगमनिन्छतामपि मुखसमन्विताना मरणदर्शनात् , वमिच्छतां दुःखदग्धानां विषादिभक्षणेऽप्येकान्तिकमरणादर्शनान । स्वाधीनता नहीं है। अपकृष्ट-मनुष्य पशु पक्षी सॉप आदिके हीन शरीरको जो प्राणी चाहते ही नहीं, उन्हें भी वह शरीर धारण करना पड़ता है, और उसके संयोगसे अनिष्ट स्थानका निवास, अन्न-पानकी अप्रासि, गर्मी, सर्दी, ओलोंकी वर्षा, हवा, डांस-मच्छर आदिसे होनेवाले अनेक प्रकारके दुःख भोगने पड़ते हैं। यदि एस शरीरको धारण करना अपनी इच्छा पर निर्भर होता तो कोई भी प्राणी ऐसा दुखदायी शरीरको धारण न करता। . . जिस प्रकार शरीर धारणमें जीव स्वाधीन नहीं है उसी प्रकार उसके त्यागने में भी स्वाधीन नहीं है। संसारमें जो प्राणी सुखसम्पन्न ह वर्तमान शरीरका त्याग नहीं करना चाहते, फिरभी उनकी मृत्यु हा जाती है। और मृत्युकी कामना करनेवाले दुःखी जीव विष आद भक्षण कर लेते हैं तो भी कभी-कभी बच जाते हैं, अतः सिद्ध हुआ कि अपना शरीरभी अपने अधीन नहीं है। સ્વાધીનતા નથી. અપકૃષ્ટ–મનુષ્ય પશુ પક્ષી સાપ આદિનાં હીન શરીરને જે પ્રાણી ચાહતા જ નથી, તેમને પણ એ શરીર ધારણ કરવાં પડે છે. અને તેના સત્યાગથી અનિષ્ટ સ્થાનને નિવાસ, અન્નપાનની પ્રાપ્તિ, તાપ, ટાઢ, કુશને વરસાદ, હવા, ડાંસ-મરછર આદિથી ઉત્પન્ન થતાં અનેક પ્રકારનાં દુઃખ ભોગવવાં પડે છે. જે એવા શરીરને ધારણ કરવાનું પિતાની ઈચ્છા પર જ નિર્ભર હોત તે કોઈ પણ પ્રાણું એવા દુઃખદાયી શરીરને ધારણ ન કરત. જેવી રીતે શરીર ધારણ કરવામાં જીવ સ્વાધીન નથી. તેવી રીતે તેને ત્યજવામાં પણ સ્વાધીન નથી સંસારમાં જે પ્રાણીઓ સુખસંપન્ન છે તે એ વત - માના શરીરને ત્યાગ કરવા ઈચ્છતા નથી, તે પણ એમનું મૃત્યુ થઈ જાય છે. અને મૃત્યુની કામના કરનારા દુઃખી જી વિષ આદિ ભક્ષણ કરી લે છે તે પણ કઈ કઈ વાર બચી જાય છે. એ ઉપરથી સિદ્ધ થયું કે આપણું શરીર પણ આપણને माधीन नथी. Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ अध्ययन २ गा. ५ कामरागदोपानुचिन्तनम् जीवस्य स्वातन्त्र्येण शरीरस्वामित्वे सति अनेकेपां कुम्ममुकुमाराणां सुन्दरावयवानां कतिपयानामतीतदेवादिशरीराणां विनाशः कथं न वारितः ? तस्माद् देहगेहादि किमपि वस्तु कस्यापि नास्ति, किन्तु अज्ञानवशाजीवाः 'इदं मम, इयं ममे' त्यादिस्वरूपं ममत्वं कुर्वन्तीति निधीयते । __ इत्यं च स्वकीयदेहगेहादी ममत्वकरणमज्ञानमूलं, कर्मवन्धहेतुश्चेति विवेकिन: स्वदेहेऽपि ममत्वं न कुर्वन्ति, किं पुनरन्यदीयदेहगेहादौ-इत्यनुचिन्तनेन समुत्पनया "न सा मम, नाह तस्याः " इत्याकारया विवेकयुद्धया मनसि ममृतं रागं प्रशमयेदिति भावः ॥ अत्र गाथायां 'परिव्ययंती' इत्यत्र सौत्रत्वात्पष्टयर्थे भयमा, 'बहिद्धा' इति प्राकृवत्वात् , यद्वा बहिर्थावतीति विग्रहे पृपोदरादित्वा'द्वकारादिलोपः। इति गाथार्थः ॥ ४ ॥ यदि शरीर पर प्राणीका अधिकार होता तो फूलसे कोमल तथा सुन्दर अवयववाले अतीतकालीन देव आदिके शरीरके वियोगको क्यों न रोक लेता? सत्य यात तो यह है कि-देह गेह आदि कोई भी वस्तु किसीकी नहीं है। जीच अज्ञानके कारण 'यह मेरा है। 'यह मेरी है' इस प्रकारकी ममता करते हैं, अत एव शरीरमें ममता करना ही अज्ञान-मूलक और परिग्रह होने से कर्म-वन्धका कारण है, ऐसा समझ कर विवेकी जन अपने शरीरमें भी स्नेह नहीं करते तो दुसरेकी देहमें कैसे स्नेह करेंगे? ऐसा सोच कर, मनमें उत्पन्न हुए भी रागादिको "न वह मेरी है" और "न में उसका है" इस प्रकारकी भावनासे दूर कर मुनि, उस निकले हुए मनको फिरसे संयम-घरमें लावे ॥४ - જે શરીર પર પ્રાણુને અધિકાર હેત તે ફૂલથીય કમળ તથા સુંદર અવયવોવાળા અતીતકાલીન દેવાદિના શરીરના વિયેગને કેમ રેકી રાખત નહિ ? સાચી વાત એ છે કે દેહ ગેહ આદિ કઈ પણ વસ્તુ કેઇની નથી. જીવ અજ્ઞાનને કારણે જ આ મારે છે' એ “એ મારી છે” એ પ્રકારની મમતા રાખે છે. એટલે શરીર પર મમતા રાખવી એજ અજ્ઞાનમૂલક અને પરિગ્રહરૂપ હેવાને કારણે કર્મબંધનું કારણ છે. એવું સમજીને વિવેકી જન પિતાના શરીર પર પણ સ્નેહ રાખતા નથી, તે પછી બીજના દેહ પર કેમ સ્નેહ કરે? એમ વિચારીને મનમાં ઉત્પન્ન થએલા રાગાદિને, “એ મારી નથી” કે “હું તેને નથી” એવી ભાવનાથી કરીને. મનિએ સંયમઘરથી બહાર નિકળેલા મનને પાછું સંયમઘરમાં લાવે. (૪) Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० - श्रीदशवकालिकसूत्रे .. पूर्वगाथया 'रागन्यपनयः कर्तव्यः' इत्युक्तं, स च वापक्रियामन्तरेण न सम्भवतीत्यतस्तत्पतिपादनार्थमाह-'आपापयाही' इत्यादि । मूलम्-आयावयाही चय सोगमलं, कामे कमाही कमियं खुदुक्ख । . छिंदाहि दोसं विणएज रागं, एवं सुही होहिसि संपराए ॥५॥ छाया-आतापय त्यज सौकुमार्य, कामान् काम क्रान्तमेव दुःखम् ॥ छिन्धि द्वेपं व्यपनय रागम् , एवं मुखी भविष्यसि सम्पराये ॥५॥ सान्वयार्थः-वीपरसे मोह हटानेका उपाय कहते हैं आयावयाही-शरीरको तपस्यासे मूखा डालो,सोगमलं-मुकुमारता-अमारा को चय-त्यागो, कामे विपयकी इच्छाओंको कमाही काम कराराका, (ऐसा करनेसे) खु-निश्चय करके दुख-दुःख कमियं-दूर होगा, दार द्वेपको छिंदाहि छेदो-नष्ट करो, राग-रागको विणएन हटाओ-दर करा; एक इस प्रकार करनेसे (तुम) संपराए-संसारमें सुही-मुखीहोहिसि होवोगे ॥५॥ टीका-हे शिष्य ! त्वं श्रामण्ययोगादहिनिर्गतं चित्तं प्रतिरोद्धम् आतापयशीतोष्णादिसहनो-त्कुटुकासनाघवलम्बना-ऽनशनादिदुष्करतपोविधानस्तनुं तापमा सौकुमायें शरीरसुकुमारतां त्यजपरिहर, यद्वा आतापयेतिपदेन बोधितमवार पूर्व गाथामें, उत्पन्न हए रागका परित्याग करना कहा किन्तु रागका त्याग तप आदि बाह्य क्रियाओंके विना नहीं होसकता। इसलिए अब उनकी प्ररूपणा करते हैं- 'आयावयाही-' इत्यादि, हे शिष्य ! तपस्या कर-आतापना ले, सुकुमारताका त्याग कर, .इन्द्रियोंके विषयोंमें राग न कर, रागके त्यागसे दुःखोंका नाश हाह પૂર્વ ગાથામાં, ઉત્પન્ન થએલા રાગનો પરિત્યાગ કરવાનું કહ્યું, કિન્તુ રોગના ત્યાગ તપ આદિ બાહ્ય ક્રિયાઓ વિના થઈ શકતા નથી. તેટલા માટે એની પ્રરૂપણ ४२ छ. आयावयाही. त्याल. હે શિષ્ય ! તપસ્યા કર-આતાપના લે, સુકુમારતાને ત્યાગ કર, ઈદ્રિયાના વિષમાં રાગ ન કર, રાગના ત્યાગથી દુઃખને નાશ થઈ જ જાય છે. તું ને! Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा. ५ कामरागनिवारणोपायः १३१ विशदयति-सौकुमार्य त्यजेति शरीरसुखसाधने दत्तचित्तो मा भव, शीतवातादिपरिपहसहनयोग्यतां सम्पादयेति भावार्थः । काम्यन्त इति कामाः शब्दादिविपयास्तान् काम अतिक्राम-सन्त्यजेत्यर्थः । कामातिक्रमणे सति तु दुःखं क्रान्तमेवगतमेव नष्टमेवेत्यर्थः । कामा एव हि दुःखसमुदायनिदानम् । ननु ' यथा बुभुक्षापिपासादीनामशनपानादिभिरेव निरत्तिस्तद्वत्कामानामुपभोगेन भविष्यति ? जाता है । तूं द्वेपका लेश न रहने दे, और रागको छोड़ दे, तो त संसारमें सुखी, अथवा परिपह उपसर्गोंके युद्ध में विजयी होगा। तात्पर्य हे शिष्य ! श्रामण्ययोग (संयमरूप घर) से बाहर मन निकल जाय तो शीत उष्ण आदि सह कर और उत्कुटुकासन आदिका आश्रय लेकर, तथा अनशन आदि तप करके शरीरको सुखा डाल, शरीरकी कोमलताका त्याग कर, अर्थात् अपने शरीरको शीत-आतप प्रभृति परिपह सहने योग्य बना ले, शारीरिक सुखोंकी सामग्रीमें मन न लगा। जिनकी कामना की जाती है, उन्हें काम कहते हैं, उन कामों (शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श आदि इन्द्रियविषयों) की अपेक्षा न रख । ऐसा करनेसे दुःखोंका अस्तित्व रह नहीं सकता, उनका नाश ही समझ, क्योंकी काम ही दुःखोंका कारण है। शंका-हेगुरुमहाराज! जैसे भोजन करनेसे भूख शान्त हो जाती है. और पानी पीनेसे प्यास बुझती है, वैसेही विषयोंका सेवन करनेसे અંશ પણ રહેવા ન દે. અને રાગને છેડી દે, તેથી તું સંસારમાં સુખી અથવા પરિગ્રહ ઉપસર્ગો સાથેના યુદ્ધમાં વિજયી થઈશ, તાત્પર્ય એ છે કે હે શિષ્ય ! શ્રામગ (સંયમરૂપી ઘર) થી બહાર ન નીકળી જાય તે ટાઢ-તાપ આદિ પરિષહ અને ઉલ્લુટુક આસન આદિને આશ્રય લઈને, તથા અનશન આદિ તપ કરીને શરીરને સુકાવી નાંખ, શરીરની કમળતાને ત્યાગ કર, અર્થાત્ પિતાના શરીરને ટાઢ-તાપ આદિ પરિષહ સહેવાને ગ્યા બનાવી લે. શારીરિક સુખની સામગ્રીમાં મન ન લગાડ. જેની કામના કરવામાં આવે છે તેને કામ કહે છે. એ अभी (श, ३५, गध, २स, स्पश मान्द्रिय-विषये )नी अपेक्षा न राम. એમ કરવાથી દુઃખેનું અસ્તિત્વ રહી શકશે નહિ, એને નાશ જ સમજ, કેમકે કામ જ દુઃખનું કારણ છે. શંકા–હે ગુરૂ મહારાજ ! જેમ ભેજન કરવાથી ભૂખ શાન્ત થઈ જાય છે. અને પાણી પીવાથી તરસ છીપે છે, તેમજ વિષયેનું સેવન કરવાથી વિષય Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ श्रीदशवेकालिकसूत्रे 1 मैत्रम्, हे शिष्य ! विषयवासनैव तावत्सकलाऽनर्थमूलम् विशेषतारित्रमुच्छेदयन्ती रागद्वेषौ ढीकुरुते । यथा विदेशं गतस्य कस्यचित् मेयसो जीवितस्यापि श्रुतायां मरणवार्त्तायां जना रुदन्ति न तथा तस्मिन्मृतेऽप्यश्रुतायां तदीयमरणमवृत्त, तस्माचेतांत्रिकृतिरेव मुख्यतः सुखदुःखबन्धहेतुः, विषयवासनायाः समुच्छेदमन्तरेण पुनः पुनरष्टविधानां कर्मणामकरणं न शक्यते प्रतिरोद्धुं तेषां चिपवासनामूलकत्वात् । उक्तञ्च -- विषयसेवनकी इच्छा भी शान्त हो जायगी तो फिर आतापना आदि घाय तप क्यों करना चाहिए ? उत्तर - हे शिष्य ! ऐसी शंका करना उचित नहीं है, क्योंकि विषयोंकी वासना ( इच्छा ) ही सब अनधकी जड़ है, और चारित्ररूपी वृक्षकी जड़को उखाड़नेवाली है। यह रागदेवको दृढ़ करती है | परदेश गया हुआ कोई इष्टमित्र जीवित हो परन्तु उसकी मृत्युका समाचार मिले तो सम्बन्धी लोग रोने लगते हैं, और यदि वह मर जाप किन्तु मरनेका समाचार न मिले तो कोई भी नहीं रोता। इससे ज्ञात होता है कि चित्तका विकार ही सुख-दुःखका मुख्य कारण है । इसलिए जब तक मनसे विषयवासनाका समूल त्याग नहीं होता तब तक आठ कर्मोकी उत्पत्ति नहीं रुक सकती, क्योंकि उनका मूल, विषय-वासना है । कहा भी है- સેવનની ઈચ્છા પણુ શાન્ત થઈ જાય, તે પછી આતાપના આદિ બાહ્ય તપ કરવાની શી જરૂર ? ઉત્તર-હું શિષ્ય ! એવી શંકા કરવી ઉચિત નથી, કારણ કે વિષયાની વાસના (ઇચ્છા) જ બધા અનથોઁનું મૂળ છે, અને ચારિત્રરૂપી વૃક્ષના મૂળને ઉખાડનારી છે. તે રાગદ્વેષને દૃઢ કરે છે. પરદેશ ગએલા કેઈ ઇમિત્ર જીવતા હેાય પરંતુ તેના મૃત્યુના સમાચાર મળે તે સગાં-સબધીએ રાવા લાગે છે, અને જે તે મરી જાય પણ મરવાના સમાચાર ન મળે તે કઈ પણ થતું નથી, એથી સમજાય છે કે ચિત્તના વિકારજ સુખદુઃખનું મુખ્ય કારણ છે. એ કારણથી જ્યાંસુધી મનમાંથી વિષયવાસનાના સમૂળા ત્યાંસુધી અે કમાની ઉત્પત્તિને શકી શકાતી નથી, કારણ કે वासना छेउ छेउ ત્યાગ . નથી થતુ તેનું મૂળ વિષય #. Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययना२ गाः ५ कामरागनिराकरणोपायः १३३३ "विचारितमलं शास्त्रं, चिरमुद्राहितं :मियः। सन्त्यक्तबासनान्मौनाद् ऋते : नास्त्युत्तमं पदम् ॥” इति। यथा पवनपथे पतत्रिणः स्वच्छन्द विहरन्ति तथाऽनुपमाऽलौकिकाऽऽनन्दमयमोक्षमार्गसंचारिणः संयमिनः प्रतिवन्धरहित विहरन्तिं, परन्तु जालवद्धा विहङ्गमा उत्पतनयत्नवन्तोऽपि यथा निर्वन्धविहाराय न प्रभवन्ति, तद्वद् विपयसेवनाऽऽशालक्षणविषयवासनाकलितचेतसो मुनयोऽनुपलभ्य मोक्षमार्गमप्रतिवन्धविचरणवञ्चिता भवन्तीति शिष्य ! जानीहि तावद् विषयाशां दुस्तरमहानदीसमानाम् । उक्तश्च- . __ "भले ही कोई कितनेही शास्त्रोंका मनन करलें या दूसरोंकों सिंखलादे, पर जब तक वासनाका परित्याग करके समिति-गुप्ति-आदिरूप संयमकीआराधना नहीं कर लेतातयतकमोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता" ॥१॥ __जैसें-पक्षी आकाशमें स्वच्छन्द विहार करते हैं, उसींप्रकार अनुपम अलौकिक आनन्दमय मोक्षमार्गमें विहार करनेवाले संयमी भी.अप्रतिबन्धविहारी होते हैं। किन्तु जिस प्रकार जालमें फंसे हुए पक्षीउड़नेका यत्न करते हैं.पर उड़ नहीं सकते, उसी-प्रकार विपयसेवनकी आशारूप. वासनासे मुनि मोक्षमार्गको न पाकर अप्रतिवन्ध विहारसे वंचित रहते हैं । हे शिष्य ! इस विषय-वासनाको ऐसी विशाल नदी समझ किं. जिसका पार पाना अत्यन्त कठिन है..कहा भी है "na at गमे तेरei सोनु मनन a, अथवा मामाने, शामवे, પરંતુ જ્યાં સુધી વાસનાને ત્યાગ કરીને સમિતિ-ગુપ્તિ આદિરૂપ સંયમની આરાधना.४ देते नथी, त्यांसुधी भाक्ष आस ४१ शत! नथी.” (१) જેમ પક્ષી આકાશમાં સ્વછદ વિહાર કરે છે, તેમ અનુપમ અલૌકિક આનંદમય મોક્ષમાર્ગમાં વિહાર કરનારા સંયમી પણ અપ્રતિબંધ. વિહારી હોય છે? પરંતુ જેવી રીતે જાળમાં ફસેલા પક્ષીઓ ઉડવાને યત્ન કરે છે. પણ ઉડી શકતાં નથી, તેવી રીતે વિષયના સેવનની આશારૂપ વાસનાથી. વાસિત અંત:કરણવાળા મુનિઓ મોક્ષમાર્ગને ન પામતાં અપ્રતિબંધ-વિહારથી વંચિત રહે છે. હે શિષ્ય! આ વિષયવાસનાને એવી વિશાળ નદી સમજ કે જેને પાર પામવે सत्यतानि छ. ४:४. Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ श्रीदशवेकालिकसूत्रे , मैयम्, हे शिष्य ! विषयवासनैव तावत्सकलाऽनर्थमूलम् विशेषतारित्रमुच्छेदयन्ती रागद्वेषौ हदीकुरुते । यथा विदेशं गतस्य कस्यचित् प्रेयसो जीवितस्यापि श्रुतायां मरणवार्त्तायां जना रुदन्ति न तथा तस्मिन्मृतेऽप्यश्रुतायां तदीयमरणमवृत्ती, तस्माचेतीविकृतिरेव मुख्यतः सुखदुःखबन्धहेतुः, विषयवासनायाः समुच्छेदमन्तरेण पुनः पुनरष्टविधानां कर्मणामकरणं न शक्यते प्रतिरोद्धुं तेषां विषयवासनामूलकत्वात् । उक्तश्च - विपयसेवनकी इच्छा भी शान्त हो जायगी तो फिर आतापना आदि बाह्य तप क्यों करना चाहिए ? उत्तर - हे शिष्य ! ऐसी शंका करना उचित नहीं है, क्योंकि विषयोंकी वासना (इच्छा ) ही सब अनधकी जड़ है, और चारित्ररूपी वृक्षकी जड़को उखाड़नेवाली है । यह रागदेव को दृढ़ करती है । परदेश गया हुआ कोई इष्टमित्र जीवित हो परन्तु उसकी मृत्युका समाचार मिले तो सम्बन्धी लोग रोने लगते हैं, और यदि वह मर जाय किन्तु मरनेका समाचार न मिले तो कोई भी नहीं रोता। इससे ज्ञात होता है कि चित्तका विकार ही सुख-दुःखका मुख्य कारण है । इसलिए जब-तक मनसे विषयवासनाका समूल त्याग नहीं होता तब तक आठों कर्मोकी उत्पत्ति नहीं रुक सकती, क्योंकि उनका मूल, विषय-वासना है । कहा भी है સેવનની ઇચ્છા પણુ શાન્ત થઈ જાય, તે પછી આતાપના આદિ બાહ્ય તકે કરવાની શી જરૂર ? ઉત્તર-હે શિષ્ય ! એવી શંકા કરવી ઉચિત નથી, કારણ કે વિષયેાની વાસના (ઇચ્છા) જ બધા અનર્થાંનું મૂળ છે, અને ચારિત્રરૂપી વૃક્ષના મૂળને ઉખાડનારી છે. તે રાગદ્વેષને દૃઢ કરે છે. પરદેશ ગએલા કાઈ ઈમિત્ર જીવને હાય પરંતુ તેના મૃત્યુના સમાચાર મળે તે સગાં-સ ંબંધીએ રોવા લાગે છે, અને જો તે મરી જાય પણ મરવાના સમાચાર ન મળે તા કોઇ પણ રાતું નથી, એથી સમજાય છે કે ચિત્તનેા વિકારજ સુખદુઃખનું મુખ્ય કારણ છે. એ કારણથી જ્યાંસુધી મનમાંથી વિષયવાસનાને સમૂળે ત્યાંસુધી આઠે કર્માંની ઉત્પત્તિને રેકી શકાતી નથી, કારણુ वासना छे छे - ત્યાગ . નથી થતુ તેનું મૂળ વિષય angka Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा.'५ कामरागनिराकरणोपायः - सेवन, तदेवमाकलय तावत्-सुखाशया दीपकोपगमनं पतङ्गानाम् , दारुधिया ग्राह-ग्रहण-पुरस्सरं नदीतरणं मनुष्याणाम् । किञ्च युभुक्षापिपासादिदृष्टान्तस्यात्र वैपम्यं विद्यते, नहि कामा उपभोगेन शाम्यन्ति प्रत्युताभ्यासवशादतितरां द्धिमेवोपगच्छन्ति, यदुक्तमन्यत्रापि "न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविपा कृष्णवर्मेव, भूय एवाभिवर्धते ॥१॥" इति, लोकेऽपि च दृश्यते-यथा यथा वह्नाविन्धनानि प्रक्षिप्यन्ते तथा तथाऽसौ बस तृयही समझ ले-जैसे सुख पानेकी इच्छासे पतंगोंका दीपकमें गिरना है, अथवा कोई भोला मनुष्य लकड़ी समझकर ग्राहको पकड़ लेवे और उसीका सहारा लेकर नदी पार करना चाहे तो वह कभी सफलमनोरथ नहीं होगा वरन् उसे प्राण त्यागने पड़ेंगे, इसी प्रकार 'विपय भोगनेसे विषयोंकी वासना मिट जायगी' यह विचारना ठीक नहीं है। भूख-प्यासका दृष्टान्त भी यहां मेल नहीं खाता,क्योंकि विपय-सेवनसे काम शान्त नहीं होते, बल्कि अधिक-अधिक बढ़ते हैं। कहा भी है"कामोंका सेवन करनेसे काम कदापि शान्त नहीं होते, जैसे घीके डालनेसे अग्नि शान्त नहीं होती वरन् बढ़ती ही जाती है ॥१॥" तथा लोकमें भी देखा जाता है कि-अग्निमें ज्यों-ज्यों इन्धन डाला जाता है, त्यों-त्यों वह अधिक प्रचल होती जाती है, बुझती नहीं है। કે-જેમ સુખ પામવાની ઈચ્છાથી પતંગે દીપકમાં હેમાય છે, અથવા કઈ ભેળે માણસ લાકડું સમજીને ગ્રાહ (મગર)ને પકડી લે અને તેને આધારે નદી પાર કરવા ઈચ્છે તે કદાપિ તેને મરથ સફળ ન થાય પરંતુ તેને પ્રાણ ત્યજવાનો જ વખત આવે, તેમ “વિષય ભેગવવાથી વિષયેની વાસના મટી જશે.” એમ વિચારવું એ બરાબર નથી. ભૂખ-તરસનું દૃષ્ટાંત પણ અહીં બંધ બેસતું નથી, કારણ કે વિષયસેવનથી કામ શાન્ત થતી નથી, પરંતુ વધારે ને વધારે વધે છે. કહ્યું છે કે- “ કામેનું સેવન કરવાથી કામ કદાપિ શાન્ત થતા નથી, જેમ ઘી નાખવાથી અગ્નિ શાન્ત થતું નથી, પરંતુ વધતો જાય છે.” (૧) તેમજ જગતમાં પણ જોવામાં આવે છે કે અગ્નિમાં જેમ-જેમ ઇંધન નાંખવામાં આવે છે, તેમ-તેમ તે વધારે પ્રબળ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ श्रीदशवकालिकमरे " आशा नाम नदी मनोरथजला तृष्णातरनाकुला, रागग्राहवती वितर्कविहगा धैर्यद्रुमध्वंसिनी । मोहाऽऽवर्तमुदुस्तराऽतिगहना मोहचिन्तातटी, तस्याः पारगता विशदमनसो नन्दन्ति योगीश्वराः॥१॥" इति अपरं चाऽऽर्णय "विपयाशामहापाशाद्, यो विमुक्तः मुदुस्त्यजाद । । ___ स एव कल्पते मुक्य नान्यः पट्शास्त्रवेधपि ॥ १॥" इति, हे शिष्य ! एवं विषयभोगस्पृहाऽपि महतेऽनय कल्पते, किं पुनस्तदुप "आशा, नदीके समान है, इसमें मनोरथरूपी जल भरा हुआ है। तृष्णाको तरंगे छलांगे माररही हैं,रागरूपी ग्राह इसमें निवास करते हैं, नानाप्रकारके सोच-विचार ही इसमें पक्षी हैं, यह नदी धीरता-रूपी वृक्षको विध्वंस करनेवाली है, चिन्तारूपी इसकातट है, इसका पार करना बहुत कठिन है, जोमुनीश्वर इस नदीको पार कर लेते हैं वे हीसुखी होते हैं।॥१॥" . और सुनो "विपयोंका आशापाशदुस्त्याज्य है। जोइस पाशसे मुक्त हो जात हैं वेही मोक्ष-मार्गके अधिकारी होते हैं, अन्य नहीं; चाहे वह सभी शास्त्रोंके पारंगत क्यों न हो ! ॥१॥" हे शिप्य ! इसप्रकार विषय भोगनेकी इच्छा भी महान् अनर्थको उत्पन्न करती है, तो विपयोंके सेवनके विषयमें तो कहना ही क्या है? આશા નદીના જેવી છે, તેમાં મને રથરૂપી જળ ભરેલું છે. તેણુનાં તરંગે ઉછળી રહ્યા છે, રાગરૂપી ગ્રાહ એમાં નિવાસ કરે છે, નાના પ્રકારના વિચારે તેમાં પક્ષીરૂપ છે, એ ધીરતારૂપી વૃક્ષને દવંસ કરવાવાળી છે. ચિન્તા એનું તટ છે એ નદીને પાર કરવી અત્યંત કઠિન છે, જે મુનીવર એ નદીને પાર ४३. छे ते अभी थाय छ;" (१) मने जी श्रवा -' “વિષયનો આશાપાશ સત્યાય છે. જેઓ એ પાશથી મુક્ત થઈ જાય છે તેઓ જ મેક્ષમાર્ગના અધિકારી બને છે--બીજા નહિ, પછી ભલે તેઓ બધાં શાસ્ત્રના પારંગત કેમ ન હોય?” (૧) હે શિષ્ય એ રીતેં વિષચ ભોગવવાની ઈચ્છા જ મહાન અને ઉત્પન્ન પર છે. તે વિષયના સેવનની બાબતમાં તે કહેવું શું ? બસ, તું સમજી લે Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ - - अध्ययन २ गा. ५ कामरागनिराकरणोपायः · अथ च-तात्कालिकमेव बुभुक्षाशुपशमं प्रति भोजनादेरन्वयव्यतिरेकतः कारणता विद्यते, अतस्तादृशत्रुभुक्षाद्युपशमनकामनयैव भोजनाशुपादीयते, अत्र तु यावजीवनं विपयसेवनेच्छामशमः साधुजनाऽभिलापविपय इति तादृशमशममुद्दिश्य प्रवर्तमानानां मुनीनां विषयसेवनं कदापि नोपादेयम् , विपयसेवनसमये हि तदीयवासना रागमनुवर्द्धयन्तीन्द्रियाणि च सवलयन्ती विविधाशुभभावनामुद्भावयति-'अयमुपभोगो न जातु नश्यतु, उत्तरोत्तरं चानुवर्द्धताम्, न चैनं प्रतिवनन्तु केऽपि विघ्नाः' इत्यादि । एवं च विपयसेवनेन नव तदभिलापोपशमः प्रत्युत तद्विपरीतं प्रतिक्षणं वर्द्धमान एव तदभिलापः पाशवद्ध जय भोजन किया जाता है तोक्षुधाकी तात्कालिक शान्ति होजाती है. विना भोजन किये नहीं होती, इसलिए अन्वय-व्यतिरेकद्वारा भोजन तात्कालिक क्षुधा-निवृत्तिके प्रति कारण होता है । इसी कारणसे क्षुधाआदि शान्त करनेके लिए भोजन आदि किया जाता है। साधु जीवनपर्यंत विपय-सेवनको अभिलापाकी शान्तिकी इच्छा रखते हैं। इम शान्तिके लिए प्रवृत्ति करनेवाले मुनियोंको कदापि विपयसेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि विषयवासना, विपयसेवनके समय राग-भावकी वृद्धि करती है और इन्द्रियोंको सबल बनाकर नाना प्रकारकी दुर्भावनाएँ उत्पन्न करती है कि-'यह भोग कभी नष्ट न हो जाय, उत्तरोत्तर बढ़ता जाय, इसके भोगने में कोई विघ्न न आजावे' इत्यादि । अत एव विपयसेवन करनेसे विपयकी अभिलापा शान्त नहीं होती, बल्कि प्रतिक्षण अधिक-अधिक बढ़ती जाती है। यहां तक कि यह विपयलालसा पुरुषको જ્યારે ભેજન કરવામાં આવે છે ત્યારે સુધાની તાત્કાલિક શાંતિ થઈ જાય છે. ભજન વિના શાતિ થતી નથી, તેથી અવય-વ્યતિરેક દ્વારા ભજન, તાત્કાલિક સુધાનિવૃત્તિને પ્રતિ કારણ બને છે. આ કારણથી સુધા આદિ શાન્ત કરવાને માટે ભેજન આદિ કરવામાં આવે છે. સાધુ જીવનપર્યત વિષય–સેવનની અભિલાષાની શાન્તિની ઈરછા રાખે છે. આ શાનિતને માટે પ્રવૃત્તિ કરનારા મુનિઓએ કદાપિ વિષયસેવન કરવું ન જોઈએ, કારણ કે વિષયવાસના વિષયસેવનને સમયે રાગ-ભાવની વૃદ્ધિ કરે છે, અને ઈન્દ્રિયોને સબળ બનાવીને એવી નાના પ્રકારની દભવના ઉત્પન્ન કરે છે કે–આ ભેગ કદાપિ નષ્ટ ન થાય, ઉત્તરોત્તર વધતે જાય, એને ભેગાવવામાં કાંઈ વિન ન આવે” ઈત્યાદિ, એટલે વિષયસેવનથી વિષયની અભિલાષા શાન્ત થતી નથી, બલકે પ્રતિક્ષણ અધિક-અધિક વધતી જાય છે, તે એટલે સુધી કે એ વિષયલાલસા પુરૂષને કેવળ નકામે બનાવી દે છે. Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. श्रीदवकालिकमूत्रे - - मारल्यमधिगच्छति । अन्यच दट्ठरोगपशमनामिलापिणा यया यया तदीयकाडू. यनाऽऽदरः क्रियते, तथा तथा दद्दरोगो वर्षमान पवाऽनुभूयते न तु जानु दुः पशमो लक्ष्यते कुत्राऽपि, तद्वद् विपयसेवनतो न विपयतृप्णोपसमः । अपरं चात्र वैपम्यं, तथाहि-विपयसेवनेच्छोपशमं प्रति विषयसेवनस्य, बुभुक्षाघुपशमं प्रति भोजनादेरिख कारणत्वमग्रीकृत्य यत् तदुपादेयता स्वयोपपाधते तन्न मनोरमम्, अन्वयम्पतिरेको हि सर्वसंमती कार्यकारणभावनियामकी, तत्राऽन्वय:-'तत्सत्त्वे तत्सत्तारूप: व्यतिरेकस्तु- वदभावे वदमावरूपः। यथा सर्वेरितिसत्वे साधुत्वसत्ता, तदभावे च साधुसत्ताया अभाव इत्पन्वय-व्यतिरेकाभ्यां साधुत्वकारणं सर्वविरविचारित्रमिति गम्यते । अथवा दादको खुजलानेसे दाद रोग मिटतानहीं किन्तु यहताही जाता है । उक्त दृष्टान्तमें और भी विषमता है सो कहते है-जैसे बुभुक्षा (भूख) आदिको शान्त करनेमें भोजन आदि कारण है, इसी प्रकार विषय-सेवनकी इच्छाको शान्त करनेमें विषयोंका सेवन कारण है, ऐसा मानकर तुम विपय-सेवनको उपादेय कहते हो सो ठीक नहीं है। यह सप मानते हैं कि अन्वय-व्यतिरेकसे कार्य-कारणभावका निश्चय होता है, कारणके होने पर ही कार्यका होनाअन्वयकहलाता है, और कारणके अभावमें कार्यका न होना व्यतिरेक कहलाता है। जैसेसर्वविरतिरूप चारित्रके होने पर ही साधुता होती है और सर्वविरतिरूप चारित्रके अमावमें साधुता नहीं रहती। इस अन्वयव्यतिरेकसे ज्ञात होता है कि विरति साधुत्वका कारण है। થતું જાય છે, ઓલવાત નથી. અથવા દાદરને ખજવાળવાથી દાદર મટતી નથી પણ વધતી જાય છે. ન ઉકત દષ્ટાંતમાં બીજી પણ વિષમતા છે. તે કહે છે જેમ ભૂખ આદિને શાન્ત કરવામાં ભેજન આદિ કારણ છે, તેમ વિષયસેવનની ઈચ્છાને શાન્ત કરવામાં વિષયોનું સેવન કારણ છે, એમ માનીને તમે વિષય-સેવનને ઉપાદેય કહે છે તે બરાબર નથી. મેં એમ તે માને છે કે–અન્વય-વ્યતિરેકથી કાર્યકારણભાવને નિશ્ચય થાય છે. કારણ કહેવાથી જ કાર્યનું બનવું અન્વય કહેવાય છે અને કારણના અભાવમાં કાર્યનું ન બનવું એ વ્યતિરેક કહેવાય છે, જેમ સર્વવિરતિરૂપ ચારિત્ર હોવાથી જ સાધુતા હોય છે. અને સર્વવિરતિરૂપ ચારિત્રના અભાવમાં સાધુતા રહેતી નથી. આ અન્વય-વ્યતિરેકથી સમજાય છે કે વિરતિ સાધત્વનું કારણ છે. Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 - - अध्ययन २ गा. ६ स्यक्तभोगाङ्गीकरणे सर्पदृष्टान्तः १३९ * • उक्तमर्थ दृष्टान्तेन स्फुटीकरोति-' पक्खंदे० ' इत्यादि, मूलम्-पक्खंदे जलियं जोइं, धूमकेउं दुरासयं । : नेच्छति वतयं भोत्तुं, कुले जाया अगंधणे ॥६॥ छाया-प्रस्कन्दन्ति ज्वलितं ज्योतिप, धूमकेतुं दुरासदम् । नेच्छन्ति वान्तं भोक्तुं, कुले जाता अगन्धने ॥६॥ सान्वयार्थः-- अगंधणे अगन्धननामक कुले कुलमें जाया उत्पन्न हुए (सर्प) जलियं जलती हुई धूमकेलं धुंआँ निकालती हुई (और) दुरासयं-असह्य नहीं सहने योग्य (ऐसी) जोइं अग्निमें पक्खंदे-प्रवेश कर जाते हैं,(किन्तु) वंतयं-उगले हुए विषको भोत्तुं भोगनेकी,नेच्छंति इच्छा नहीं करते । अर्थात् अगन्धन सर्प भी त्यागे हुएको फिर ग्रहण नहीं करना चाहते ॥६॥ टीका-गन्धना-गन्धनभेदेन भुजगा द्विविधास्तत्र गन्धनास्ते ये मन्त्रमयोगादिवशाइष्टप्रदेशे यान्तं विपं पुनभूपन्ति, तद्भिन्ना अगन्धनास्तत्कुलमगन्धनं तस्मिन्, कुले जाता: समुत्पन्नाः सर्पा इति शेपः, ज्वलितं-प्रदीप्तं धूमकेतुं धूमः केतु-विहं यस्य तं धूमध्वजमित्यर्थः, अत एव दुरासदम्-दुःखेनआसयतेधातूना__ मनेकार्थत्वात् सह्यते संवेद्यते इति वाऽर्थस्तं दुष्प्रवेशमिति यावत् , ज्योतिपम्.. अग्निम् मस्कन्दन्ति प्रविशन्ति, किन्वितिशेषः, वान्तम्-उद्गीण सन्त्यक्तमितियावत् इसी विषयको दृष्टान्तद्वारा स्पष्ट करते हैं- 'पक्खंदे' इत्यादि । सॉप दो प्रकारके होते है-(१) गन्धन और (२) अगन्धन, गन्धन सर्प उन्हें कहते हैं जो मन्त्रादिके बलसे विवश होकर काटेहुए स्थानसे उगले विषको फिर चूस लेते हैं। अगन्धन इनसे विपरीत होते हैं । उस अगन्धन कुलमें उत्पन्न हुए सॉपअगन्धन सर्प कहलाते हैं। वेसर्प या विषयने दृष्टान्त ॥ ५८ ४२ छे-पक्खंदे० धत्या. સાપ બે પ્રકારના થાય છે. (૧) ગંધન અને (૨) અગંધન. ગંધન સર્પ એ કહેવાય છે કે જે મંત્રાદિના બળથી વિવશ થઈને ખેલા સ્થાનમાં નાંખેલું ઝેર તેમાંથી પાછું ચૂસી લે છે. અગધન સર્પ તેથી વિપરીત-પ્રકારને હેય છે. એ અગંધન કુળમાં ઉત્પન્ન થએલે સાપ અગંધન સર્ષ કહેવાય છે. એ સર્પ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ श्रीदशवकालिकसूत्रे मिव पुरुषं पुरुषार्थसाधनाक्षम कुरुते, तस्मात् कार्यकारणभावनियामकाऽन्वयव्यतिरेकामावेन यावज्जीवनं विपयसेवनकृष्णामशमं प्रति विषयसेवनस्य कारणता जुपपत्या ताशोपशमाऽभिलापवतां संयतानामनुपादेयत्वं सिद्धम् । __ इत्यं पूर्वार्द्धन बाह्यकामपरित्यागमुक्त्या पश्चानाऽऽभ्यन्तरकामपरित्यागमाइ-छिदाहि०' इति, शब्दादिविपयेपु द्वेपं चिन्धि मुश्च, तथा राग-कामरागं व्यपनय-दुरीकुरु, एवम्-एवं कृते सति, सम्पराये जन्ममरणरूपत्वेन नाशमये संसारेऽपीति भावः । यद्वा परीपहोपसर्गरूपे संग्रामे त्वमितिशेषः, सुखी-स्वामिकानन्दभार भविष्यसीति गाथार्थः ॥५॥ इतना निकम्मा बना देती है कि वह पुस्पार्थ-साधनमें सर्वधा असमर्थ हो जाता है, जैसे फन्देमें फंसा हुआ पुरुप कुछभी पुरुषार्थ नहीं कर सकता। इसलिए यहाँ कार्य-कारणभावका निश्चय करानेवाले अन्वयव्यतिरेकका अभाव होनेसे यावज्जीवन विपय-लालसाकी शान्तिके प्रति विपयसेवन कारण नहीं हो सकता। अतः यावजीवन विपयाभिलाषाकी शान्ति चाहनेवाले मुनियोंको यह उपादेय नहीं है। इस प्रकार पूर्धा में सूत्रकार वाद्य-विषयोंका त्याग यताकर उत्तराईमें अन्तरङ्ग- विषयोंके त्यागका उपदेश देते हैं कि-हे शिष्य ! शब्दादि-विपयोंमें देष तथा रागको दूर कर। ऐसा करनेसे तू,जन्म-मरणस्वरूपवाले विनश्वर संसारमें सुखी, अथवा अनुकूल प्रतिकूल परीषह और उपसर्ग रूप संग्राममें विजयी होगा ॥५॥ અને તે પુરૂષાર્થ-સાધનમાં સર્વથા અસમર્થ બની જાય છે, કે જેવી રીતે કંદામાં (હેડમાં) કસેલે પુરૂષ કોઈ પણ પુરૂષાર્થ કરી શકતું નથી. તેથી કરીને અડી કાર્ય-કારણભાવને નિશ્ચય કરાવનાશ અન્વય-વ્યતિરેકનો અભાવ હોવાથી જીવનપર્યત વિષયલાલસાની શક્તિની પ્રતિ વિષયસેવન કારણ થઈ શકતું નથી, એટલે જીવનપર્યત વિષયાભિલાષાની શાન્તિને ચાહનારા મુનિઓને માટે એ ઉપાદેય નથી. એ પ્રકારે પૂર્વાર્ધમાં સૂત્રકાર બાહ્ય વિના ત્યાગ બતાવીને ઉત્તરાર્ધમાં અંતરંગ વિના ત્યાગને ઉપદેશ આપે છે કે-હે શિષ્ય શબ્દાદિ– વિષયમાં છેષ તથા રાગને દૂર કર. એમ કરવાથી જન્મ-મરણસ્વરૂપવાળા વિનશ્વર સંસારમાં સખી, અથવા અનુકૂળ-પ્રતિફળ પરીષહ તથા ઉપસર્ગના સંગ્રામમાં વિજયી થઈશ. (૫) Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ - Addito - - - अध्ययन २ गा. ७ रथनेमि पति राजीमत्युपदेशः · अरिष्टनेमो भगवति मनजिते तत्कनिष्ठभ्राता रथनेमी राजीमती चकमे, सातु कामवासनाविरक्ता कदाचन सुवासितसरसपायसं भुक्त्वा कस्मिंश्चित्कटोरके समुद्वम्य 'भुज्यता'-मित्युक्त्वा स्थनेमये दत्तवती, स्थनेमिना च ' कथमिदं वान्तं क्षत्रियवंशावतंसेन मया भोक्ष्यते' इत्युक्ता सा प्रोवाच- सहि कथमरिष्टनेमिना त्वद्भात्रा समुज्झिततया वान्ततुल्यां मामभिलप्यसि ? न च अपसे' इति, ततश्च तद्वचनश्रवणसञ्जातवैराग्योऽसौ मानाजीत् । ___ जय बाईसवें तीर्थकर भगवान् अरिष्टनेमिने दीक्षा ग्रहण कर ली तब उनके छोटे भाई रचनेमिने राजीमतीकी इच्छा की, किन्तु सतीशिरोमणि राजीमती, कामकी वासनासे विरक्त हो चुकी थी। उसने एक रोज सुगन्धित तथा स्वादिष्ट खीर खाई और एक कटोरेमें वमन करके वह रथनेमिको देने लगी और बोली-लीजिये खीर खाइए । रथनेमि यह सुनकर आगयले (क्रुद्ध) हो गये और बोले-'मैं क्षत्रियोंके वंशका भूपण होकर वमन की हुई खीर कैसे खाऊंगा?' राजीमतीजी कहने लगी-'अहो श्रेष्ठक्षत्रिय ! तुम वमन की हुई ग्वीर नहीं खाते तो, अपने बड़े भाई श्रीअरिष्टनेमिद्वारा वमन की हुई यानी त्यागी हुई मुझको क्यों चाहते हो? मेरी इच्छा करते तुम्हें लजा नहीं आती?, सती राजीमनीकी हृदयमें चुभनेवाली बात सुनतेही रथनेमिको संसारसे विरक्ति होगई। उन्होंने दीक्षा लेली। कुछ दिनोंके बाद राजीमतीने भी જ્યારે બાવીસમા તીર્થંકર ભગવાન્ અરિષ્ટનેમિએ દીક્ષા ગ્રહણ કરી, ત્યારે તેમના નાના ભાઈ રથનેમિએ રાજીમતીની ઇરછા કરી, પરંતુ સતીશિરમણિ રાજીમતી કામની વાસનાથી વિરકત થઈ ચૂકી હતી. તેણે એક દિવસ સુગંધિત અને સ્વાદિષ્ટ ખીર ખાધી અને એક વાડકામાં તેનું વમન કરીને તે રથનેમિને मावा भी मने माली: “क्ष्यो, भीर मामा " श्यनाम से सांसजीन डोधाવિષ્ટ થઈ ગયું અને બે “ હું ક્ષત્રિયેના વંશનું ભૂઘણુ થઈને વમેલી ખીર કેમ ખાઈશ ?” રાજીપતી કહેવા લાગી “હે છેલ્ડ-ક્ષત્રિય ! તમે વમેલી ખીર નથી ખાતા. તે તમારા મોટાભાઈ શ્રીઅરિષ્ટનેમિએ વમેલી એટલે ત્યજેલી એવી મને કેમ ચાહે છે ? મારા માટેની ઈચ્છા કરતાં તમને શરમ નથી આવતી ?” હદયને ડંખે એવી સતી રામતીની વાત સાંભળતાં જ રથનેમિને સંસારથી વિરત આવી ગઈ એમણે દીક્ષા લીધી. કેટલાક દિવસ પછી રાજીમતીએ પણ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीदशवकालिकरने विपमितिशेषः भोक्तुं. नेच्छन्तिमाभिलपन्ति । तिर्यशः सर्प अपि हिमवेशापेक्षया दुःसहमनुचितं च वान्ताशनमेव मन्यन्ते । तस्मात् शिष्य ! प्रवचनतत्चाभिझेन त्वया निःसारतया परित्यक्तस्य विपयस्य पुनः स्त्रीकरणं न विधेयमिति भावः । मुर्मुरादिशान्तज्वालाग्निव्यवच्छेदार्यमाह-'जलिये' इति, हारोल्कादिव्यात्यर्यम् अग्नेदिप्यमाणत्वद्योतनाथै चाह-'धूमकेउ' इति, । तीव्रतमत्वोधनार्थ 'दुरासयं इति । अग्निपर्यायो ज्योति-शब्दः पुंल्लिङ्गः। 'जलिय' मित्यादिविशेषणत्रयेण 'यत्राग्नौ प्रवेशे सधो भस्मसाद् भवति तादृशेऽप्यगन्धनजाः सर्पाः प्रविशन्ति किन्तु परित्यक्तविपमापातुं नैव वान्छन्ति, एवं सत्पुरुषा अपि परित्याकान विषयान् . मरणान्तेऽपि न पुनः सेवितुमिच्छन्तीति.वोध्यते, इतिगाथा॥६॥ असह्य और जलतीअग्निमें प्रवेश कर जाते है, किन्तु त्यागे हुए विषको फिर नहीं चूसते.। हे शिष्य!जय तिर्यश्च सर्प भी उगले.हुएको निगलना नहीं चाहते. तय. तू तो प्रवचनमें प्रवीण है अत एव निःसार समझ कर त्यागे हुए विषयोंका सेवन तुझे तो भूलकर भी नहीं करना चाहिए। अग्निके 'ज्वलित' आदि तीन विशेषण दिये हैं, उनका अभिप्राय यह है कि जिस अग्निमें प्रवेश करतेही तत्काल भस्म हो जावे उस प्रकारकी अग्निमें भी अगन्धन कुलके सर्प प्रवेश करजाते हैं पर त्यागे हुए विषको ग्रहण नहीं करते । इसी प्रकार कुलीन पुरुपभी त्यागे हुए विषयोंको प्राणसंकदमें भी ग्रहण नहीं करते । अर्थात् वें दुष्कर्म करके क्षणभर भी जीना नहीं चाहते ॥६॥ અસહ્ય અને બળતી આગમાં પ્રવેશ કરે છે પરંતુ એકવાર મૂકેલા ઝેરને પાછું यूसी तो नथी હે શિષ્ય! જ્યારે તિર્યંચ સ. પણ મૂકેલા ઝેરને પાછું ગળી જવા ઇછતે નથી તે તું ત્યારે પ્રવચનમાં પ્રવીણ છે, એટલે-નિ:સાર સમજીને ત્યજેલા વિષનું સેવન તારે તે ભૂલેચૂકયે- પણ ન કરવું જોઈએ. मनिन 'ज्वलित' मात्र विशेष सापेक्ष छ, तेना तु से छे :-- જે અગ્નિમાં પ્રવેશ કરતાં જ તત્કાળ ભસ્મ થઈ' જવાય એ પ્રકારના અનિમાં પણ અગંધનકુળને સર્પ પ્રવેશ કરે છે, પરંતુ ત્યજેલા વિવને ગ્રહણ કરતે નથી. એ પ્રમાણે કુલીન પુરૂ પણ ત્યજેલા વિષયોને પ્રાણસંકટમાં પણ ગ્રહણ કરતા નથી. અર્થાત તેઓ દુષ્કર્મ કરીને ક્ષણ ભર પણ જીવવા ઈચ્છતા નથી. (૬) Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा. ७ रयनेमि प्रति राजीमत्युपदेशः १४३ रसौ राजीमती पुनर्यदुक्तवती तदेव तिसृभिर्गाथाभिः सूत्रकारो ब्रूते-‘धिरत्यु०' इत्यादि । मूलम-धिरत्थु ते जसोकामी, जो तं जीवियकारणा। ८ १२ १० १३ वंतं इच्छसि आवेडं, सेयं ते मरणं भवे ॥७॥ __ छाया-धिगस्तु त्वां (ते) यशःकामिन् , यस्त्वं जीवितकारणात् । वान्तमिच्छस्यापासू, श्रेयस्ते मरणं भवेत् ॥७॥ रथनेमिके प्रति राजीमती कहती हैसान्वयार्थ:-जसोकामी हे यशके अभिलापी ते तुझे धिरत्यु-धिकार हो, जो-जो तं तूं जीवियकारणा=असंयमजीवन मुखके लिये वंतं-वमन किये -त्यागे हुएको आवेउं पीना इच्छसि चाहता है, (इससे तो) ते-तेरा मरणं मरजाना सेयं अच्छा भवे है । अर्थात्-संयम धारण करके फिर असंयममें आना अत्यन्त निन्दनीय है, और उस असंयमकी अपेक्षा संयमी अवस्था में मृत्यु होजाना अच्छा है ॥७॥ देख टीका-कामयते धान्छति तच्छील कामी, यशसा संयमस्य कीतर्वा कामी यशाकामी, तत्सम्बुद्धौ हे यशाकामिन् !, यद्वा अकारच्छेदाद् हे अयश कामिन्= कुछ कहा उसे सूत्रकार तीन गाथाओंसे कहते हैं- 'धिरत्यु०' इत्यादि । हे यशके अभिलापी? तुझे धिक्कार है, जो असंयम जीवनके सुखके लिए वमन किये हुएको खाना चाहता है,इस प्रकारके जीवनसे मर जाना ही अच्छा है। हे यश अर्थात् संयम अथवा कीर्तिकी इच्छा करनेवाले ! अथवा हे असंयम और अपयशके कामी ! तुझे धिक्कार है,तू अत्यन्त निन्दाका રમણીય રાજીમતીએ જે કાંઈ કહ્યું તે વાત સૂત્રકાર ત્રણ ગાથાઓમાં કહે છે – धिरत्यु० ईत्यादि. હે યશના અભિલાવી ! તને ધિક્કાર છે, જે અસંયમ જીવનના સુખને માટે વમેલાને ખાવા ઈચ્છે છે, એ પ્રકારના જીવનથી તે મરવું જ વધારે સારું છે. યશ અર્થાત્ સંયમ અથવા કીર્તિની ઈચ્છા કરનારા, અથવા છે અસંયમ અને અપયશના કામી ! તને ધિકાર છે, તું અત્યંત નિંદાને પાત્ર છે. અથવા તે કામી ! Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीदशकालिकमूत्रे अथैकदा गृहीतभप्रज्या सा राजीमती साध्वीमिः परिश्ता रेवतकपर्वतसमवाटतं भगवन्तमरिष्टनेमि वन्दितुं वजन्ती मध्येमार्ग जलधरष्टयहलजलमुशलधारयाऽऽगात्रैकाकिनी काकतालीयन्यायेन तदेव गिरिकन्दरमाससाद, यत्रासौ पत्रजितो स्थनेमिपि ततः पूर्व गत्वा स्थित आसीद , तमनवलोक्यैव 'विविक्तोऽयं प्रदेशः' इति विचार्याऽवस्त्राणि प्रसारयामास । तदानीं तां यथानातां (ननां) विलोक्य भन्नाऽभ्यन्तरद्रोऽनगोपहतचित्तत्तिनिवृत्तिपविच्युतो रथनेमिः पुना रथनेमिवान्तभावः समपद्यत । तं भूयो जातकाममालोक्य प्रकामकमनीयाकृतिदीक्षा लेली। राजीमती, बहुतसी साध्वियोंके परिवारसे परिवृत होकर रैवतक पर्वतपर पधारे हुए भगवान् अरिष्टनेमिको वन्दना करने गई तब मार्गमें अचानक ही पानीकी मूसलधार वर्षा होने लगी, सारा शरीर और वस्त्र, पानीसे भीग गया। संयोगसे राजीमतीने भी उसी गुफामें प्रवेश किया जिसमें रथनेमि पहलेसे ही ठहरे हुए थे। जिस स्थानपर रथनेमि बैठे थे उधर दृष्टि न पड़नेके कारण वे दृष्टिगोचर न हुए। राजीमतीने एकान्त स्थान समझ कर भीगे कपड़े फैला दिये। राजीमतीको कपड़ेरहित देखकर रथनेमिका चित्त चलित होगया। उनके मन पर काम-विकारने आक्रमण कर लिया। ये संयम मागस च्युत होगये । रथकी नेमि (पहिये) की भाँति उनका चित्त धूमने लगा। रथनेमिको इस प्रकार कामातुर देखकर रतिसी रमणीय राजीमतीने जी દીક્ષા લીધી. રામતી અનેક સાધ્વીઓના પરિવારથી વિટાઈને પૈવતક પર્વત પર પધારેલા ભગવાન અરિષ્ટનેમિને વંદના કરવા ગઈ ત્યારે માર્ગમાં અચાનક મૂશળધાર વરસાદ વરસવા લાગ્યું. તેનું આખું શરીર અને વસ્ત્રો પાણીથી ભીંજાઈ ગયાં. સગવશ રાજીમતીએ એજ ગુફામાં પ્રવેશ કર્યો કે જે ગુફામાં રથનેમિ પહેલેથી આવીને રહ્યા હતા. જે સ્થાન પર રથનેમિ બેઠા હતા તે સ્થળ પર દષ્ટિ ન પડવાને લીધે તે રામતીને દૃષ્ટિગોચર ન થયા. તેથી તે એકાન્ત પ્રદેશ જાણીને પિતાના ભજાયેલા લૂગડાં ફેલાવી દીધાં. ત્યારે તે રાજીમતીને વસ્ત્રસહિત છને રથનેમિનું ચિત્ત ચલિત થઈ ગયું. એમના મન પર કામવિકારે આક્રમણ કર્યું. તે સંયમમાર્ગથી ભ્રષ્ટ થઈ ગયા. રથની નેમિ (પડુંની પેઠે તસત ચિત્ત શ્રમવા લાગ્યું. રથનેમિને એ પ્રમાણે કામાતુર જોઈને રતિ જેવી Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा.. ८-९ स्थनेमि प्रति राजीमत्युपदेशः १४५ होकर संजम संयमको चर-पालो । भावार्थ-राजीमती स्थनेमिसे कहती है कि हम दोनों उच्च कुलों में उत्पन्न हुए हैं, अतः उगले हुए विपको वापिस पीजानेवाले गन्धन सापोंके समान हमको नीच न होना चाहिए ॥ ८॥ टीका-'अहं च' इत्यादि । चद्वयं समुच्चयार्थम् , हे रथनेमे ! अहं राजीमती भोंगराजस्य-तन्नन्ना प्रसिद्धस्य अस्मीतिशेपः, अहं भोगराजस्य पौत्रीति भावः। वं च अन्धकरणेः तन्नान्ना प्रसिद्धस्य असि, अन्धकवृष्णिपौत्रोऽसीत्यर्थः। ततः कि ? तदाह-कुलेबंशेऽर्थानिष्कलङ्के गन्धनौबन्धनकुलसम्भूतसर्पसदृशौ, 'आवा' मिति गम्यते; माभूव नभवेत्र, तस्मात् निभृतः निश्चलो विषयादिभिरक्षोभ्यः सन् संयमम् अनश्वरमुखसाधनभूतं निरवद्यक्रियाऽनुष्ठानं चर-पालय। इति गाथार्थः८ मूलम्-जइ त काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि नारिओ । वायाविड व्व हडो, अटिअप्पा भविस्ससि ॥ ९ ॥ छाया-यदि त्वं करिष्यसि भावं, या या द्रक्ष्यसि नारीः । वाताविद्ध इव हडो,ऽस्थितात्मा भविष्यसि ॥ ९ ॥ सान्वयार्थः-जह यदि तंतुम जा जा-जो-जो नारिओम्त्रीको दिच्छसिम्देखोगे (उन-उनपर) भावंचुरे विचार काहिसिम्करोगे तो चायाविद्धन्च "अहं च' इत्यादि । हे रथनेमि ! मैं (राजीमती) भोगराजकी पोती और उग्रसेनकी बेटी हूँ, और तुम अन्धकवृष्णिके पौत्र तथा समुद्रविजयके पुत्र हो, इसलिए दोनोंही निर्मल कुलोंमें उत्पन्न हुए हैं। हमें गन्धन कुलमें उत्पन्न होने वाले सर्पोके समान नहीं होना चाहिये। अतः चिपय आदिको त्याग करके अनन्त सुखके कारणभूत निरतिचार संयमका पालन करो ॥८॥ अहं च ध्यास. 3 २थनेमि ! ९ (२९मती) anuarनी पौत्री भने ઉગ્રસેનની પુત્રી છું, અને તમે અંધકવૃષ્ણિના પૌત્ર તથા સમુદ્રવિજયના પુત્ર છે, એ રીતે આપણે બેઉં નિર્મળ કુલેમાં ઉત્પન્ન થયાં છીએ. આપણે ગંધન કળામાં ઉત્પન્ન થએલા સપનાં જેવાં ન થવું જોઈએ. માટે વિષય આદિને ત્યજીને અનંત સુખના કારણભૂત નિરતિચાર સંયમનું પાલન કરે. (૮) Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - १४४ श्रीदशवकालिकसूत्रे हे असंयमापयशोऽर्थिन् ! त्वां धिगस्तु, निन्योऽसि स्वमित्यर्थः 'ते' इति द्वितीयार्थे पष्ठी, यद्वा 'ते' इति पष्टयन्तमेव, तत्र 'पौरुष'मित्यस्य शेपः, धिगित्यनेन सम्बन्धः तेन्तब पौरुपं घिगित्यर्थः । यद्वा हे कामिन् ! तेन्तव यशा' अहो धन्योऽयं तीव्रतपःसंयमत्रतपरिपालको महात्मे 'त्येवं लोकमतीतां कीर्तिम् , अथवा अयश:मां दृष्ट्वं दुष्टचेष्टनरूपं पापं धिगस्त्वित्यर्थः, इति वयम् , यस्त्वं जीवितकारणाअसंयमजीवितसुखार्थमिति भावः, वान्त-भगवता परित्यक्तत्वाद्वान्तसदृशीं माम् , यद्वा संयमसेवित्वेन परित्यक्तस्य विषयस्यैवममिलापोदयाद्वान्ततुल्यं विषयम् आपातुम् उपसर्गवशेन धात्वर्यभेदादुपभोक्तम् इच्छसि कामयसे, ते-तब मरणमृत्युः श्रेया-प्रशस्यं श्रेष्ठं भवेत् , न पुनरित्यमनाचरणीयाऽऽचरणमिति गाथाः। मूलम्-अहं च भोगरायस्स, तं च सि अंधगवण्हिणो । ૧૨ ૧૧ ૧૩ मा कुले गंधणा होमो, संजमं निहुओ चर ॥ ८ ॥ छाया-अहं च भोगराजस्य, त्वं चासि अन्धककृष्णः । ___ मा कुले गन्धनौ भूव, संयमं निभृतश्वर ॥८॥ सान्वयार्थ:-अहंच मैं (राजीमती) भोगरायस्सम्भोगकुलकी हूँ, च और तंतुम अंधगवण्हिणो-अंधकटप्णिकुलके सि-हो, कुले-ऐसे उच्च कुलम गंधणा=(दोनों) गन्धन मा नहीं होमो-होवें। (अतः) निहुओ-निश्चल पात्र है । अथवा हे कामी जगतमें तुम्हारी इस प्रकारकी जो कीर्ति फैली हुई है कि "यह रथनेमि मुनि, अत्यन्त उत्कृष्ट संयमका पालन करने वाला महात्मा है" इस कीर्तिको धिकार है, क्योंकि तुम असंयम रूप जीवितके लिए, भगवान् अरिष्टनेमिके द्वारा त्यागी हुई मुझको, अथवा संयम पालनके लिए त्यागे हुए विषयोंको फिर चाहते हो, तुम्हें मर जाना अच्छा है किन्तु असंयमकी वांछा करना अच्छा नहीं है ॥७॥ જગતમાં તારી એ પ્રકારની જે કીર્તિ ફેલાઈ છે કે “આ રથનેમિ મુનિ અત્યંત ઉત્કૃષ્ટ સંયમનું પાલન કરનારા મહાત્મા છે,’ એ કીર્તિને ધિક્કાર છે, કેમ કે તમે અસંયમરૂપ જીવિતને માટે, ભગવાન અરિષ્ટનેમિએ ત્યજેલી એવી મને, અથવા સંયમપાલનને માટે ત્યજેલા વિયેને પાછા ચાહો છે. તમારે મારી જવું જ સારું છે, પરંતુ અસંયમની વાંછના કરવી સારી નથી. (૭) Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ गा. ८-९ रथनेमिं प्रति राजीमत्युपदेशः १४५ होकर संजम = संयमको चर - पालो । भावार्थ - राजीमती रथनेमिसे कहती है कि हम दोनों उच्च कुलोंमें उत्पन्न हुए हैं, अतः उगले हुए विपको वापिस पीजानेवाले गन्धन सापोंके समान हमको नीच न होना चाहिए ॥ ८ ॥ टीका- 'अहं च' इत्यादि । चद्वयं समुच्चयार्थम्, हे रथनेमे ! अहं = राजीमती भोगराजस्य तन्नन्ना प्रसिद्धस्य अस्मीतिशेषः, अहं भोगराजस्य पौत्रीति भावः । त्वं च अन्धकवृष्णेः=तन्नाम्ना प्रसिद्धस्य असि, अन्धकवृष्णिपौत्रोऽसीत्यर्थः । ततः किं ? तदाह - कुले= वंशेऽर्थानिष्कलङ्के गन्धनौगन्धनकुलसम्भूतसर्पसदृशौ, 'आवा' मिति गम्यते; माभूव = नभवेत्र, तस्मात् निभृतः = निश्चलो विपयादिभिरक्षोभ्यः सन् संयमम्=अनश्वरसुखसाधनभूतं निरवद्यक्रियाऽनुष्ठानं चर = पालय । इति गाथार्थः ८ १ २ ७ ९ 3 ૫ ४ मूलम् - जइ तं काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि नारिओ । ૧૦ ૯ 11 ૧૨ वायाविद्दु व्व हो, अहिअप्पा भविस्ससि ॥ ९ ॥ छाया - यदि त्वं करिष्यसि भावं, या या द्रक्ष्यसि नारीः । वाताविद्ध इव हडो, -ऽस्थितात्मा भविष्यसि ॥ ९ ॥ सान्वयार्थ :- जह= यदि तंतुम जा जा जो-जो नारिओ =त्रीको दिच्छसि- देखोगे ( उन-उनपर ) भावं= बुरे विचार काहिसि=करोगे तो वायाविदुव्व= (( अहं च' इत्यादि । हे रथनेमि ! मैं ( राजीमती) भोगराजकी पोती और उग्रसेनकी बेटी हूँ, और तुम अन्धकवृष्णि के पौत्र तथा समुद्रविजयके पुत्र हो, इसलिए दोनोंही निर्मल कुलोंमें उत्पन्न हुए हैं । हमें गन्धन कुलमें उत्पन्न होने वाले सर्पोंके समान नहीं होना चाहिये । अतः विषय आदिको त्याग करके अनन्त सुखके कारणभूत निरतिचार संयमका पालन करो ॥८॥ अहं च इत्याह हे रथनेभि ! हु ( शलभती) लोगरामनी पौत्री भने ઉગ્રસેનની પુત્રી છું, અને તમે અ ંધકવૃષ્ણુિના પૌત્ર તથા સમુદ્રવિજયના પુત્ર છે, એ રીતે આપણે બેઉ નિર્મૂળ કુલામાં ઉત્પન્ન થયાં છીએ. આપણે ગંધન કુળમાં ઉત્પન્ન થએલા સર્પાનાં જેવાં ન થવું જોઇએ. માટે વિષય આદિને ત્યજીને અનંત સુખના કારણભૂત નિરતિચાર સંયમનું પાલન કરો. (૮) Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ श्रीदशवकालिकसूत्रे हवासे उडाये हुए हडो हडवनस्पतिकी भांति अहिअप्पा-अस्थिर आत्मावालेचंचलचित्त भविस्ससि हो जाओगे ॥९॥ टीका-'जइ त०' इत्यादि । त्वं या या नारी स्त्रीः द्रश्यसि अवलोकिप्यसे यत्तदोनित्यसम्बन्धात् 'तामु तास' यदि भावंकलपिताध्यवसायतया दुष्टां दृष्टिं करिष्यसि तदा वाताविद्धः यातेनन्चायुना आविद्धः मेरितः इडा=निर्मूलो वनस्पतिविशेप इव, शैवालमित्र या अस्थितात्मा अस्थितः अस्थिरः आत्मा यस्य स तथोक्तो भविष्यसि, जन्म-जरा-मरणजन्य-जगदटवीपर्यटनदुःखपरम्परानिराकरणकारणेभ्यः संयमगुणेभ्यः मस्खल्याऽपारसंसारपारावारे विपयवासना. वातविकम्पितचेताः शान्ति न गमिप्यसीति भावः, इति गाथार्यः ॥९॥ एवं राजीमत्या प्रतियोधितो रथनेमिधर्मनिष्ठोऽभवदित्याह-'तीसे सो०' इत्यादि । मूलम्-तीसे सो वयणं सोचा, संजयाइ सुभासियं । अंकुसेण जहा नागो, धम्मे संपडिवाइओ ॥१०॥ 'जइ तं' इत्यादि। यदि तुम जिस जिस स्त्रीको देखोगे उन सय पर विकारदृष्टि डालोगे तो आंधीसे उड़ाये हुए हड वनस्पति अथवा सेवालकी तरह अस्थिर हो जाओगे; अर्थात् जन्म-मरणसे होनेवाल जगत्रूपी अटवीमें भ्रमण करनेके कष्टोंको दूर करनेवाले संयमगुणास च्युत होनेके कारण संसाररूप अपार समुद्रमें विषयवासनारूपी हवास चंचलचित्त होकर भटकते फिरोगे ॥९॥ राजीमतीजीके द्वारा प्रतिबोध पाकर रथनेमि संयममें स्थिर होगया । इसी विषयको सूत्रकार प्रतिपादन करते है- 'तीसे०' इत्यादि । जइ तं० त्याह, ने तमेरेर श्रीमान नशात सधी ५२ विष्ट નાંખશે તે આંધીથી ઉડેલી હડ વનસ્પતિ અથવા શેવાલની પિઠ અસ્થિર થઈ જશે, અર્થાત્ જન્મ-મરણથી ઉત્પન્ન થતા જગતરૂપી અટવીમાં ભ્રમણ કરવાનાં કષ્ટને દૂર કરનારા સંયમગુણથી ભ્રષ્ટ થવાને લીધે સંસારરૂપ અપાર સમુદ્રમાં વિષયવાસનારૂપી હવાથી ચંચળ ચિત્તવાળા થઈને ભ્રમણ કરતા ફરશે. (૯) રાજીમતીથી એ પ્રતિબોધ પામીને રથનેમિ સંયમમાં સ્થિર થઈ ગયા. मे विषयर्नु प्रतिपाइन सूत्रा२ ४२ -वीसे० या. Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ अध्ययन २ गा. १० स्थनेमेधर्म संस्थितिः छाया-तस्याः स वचनं श्रुत्वा, संयतायाः मुभाषितम् । अंकुशेन यथा नागो, धर्मे सम्पतिपातितः ॥ १० ॥ सान्वयार्थ:-सो-वह (रथनेमि) तीसे-उस संजयाइ-संयमवती (राजीमती) के सुभासियं-सुभापित बयणं वचनको सोचा-सुनकर धम्मे-धर्ममें संपडिवाइओ-आगया-माप्त होगया, जहा-जैसे अंकुसेण-अंकुशसे नागो हाथी मार्गमें आ जाता है ॥ १० ॥ टीका-सः रथनेमिः, संयतायाः संयमवत्याः तस्याः राजीमत्याः, सुभापितमिति वैराग्यसारगर्मितत्वात् वचनं सदुपदेशं, श्रुत्वा समाकये 'स्थितः' इति शेपः अन्यथा 'सम्पतिपातितः' इत्यनेन समानंककत्वाऽभावात् क्त्वाप्रत्ययोत्पत्तिरसङ्गता स्यात् , यद्वा 'सम्प्रतिपातित' इत्यस्य णिजर्थाऽविवक्षया 'सम्पतिपन्नः' इत्यर्थः कर्त्तव्यः। अङ्कुशेन हस्तिचालनार्थ-लौहमयवक्राग्रास्त्रेण नागो यथा हस्तीव, धर्म-निनोक्तप्रवचनरूपे, सम्पतिपातितः संस्थापितः संस्थित इति वा, यथाऽङ्कुशेन प्रशमितमदो मतङ्गजोऽनुकूलं मार्गमवलम्बते तथा राजीमतीवचनेन दुरीकृतमदनमदो स्थनेमिरपि जिनोक्तधर्ममार्गमवलम्बितवानिति भावः ॥१०॥ जैसे अंकुशसे हाथी ठीक मार्ग पर आजाता है वैसे ही रथनेमि संयमवती राजीमतीके वैराग्य-परिपूर्ण वचन (सदुपदेश) सुनकर जिनेन्द्र भगवानके प्रवचन-रूप धर्म-मार्गमें स्थित हो गये, अर्थात् जैसे महावतके अंकुशसे मदोन्मत्त हाथीका मद चकनाचूर हो जाता है और वह सन्मार्ग पर आजाता है, उसी प्रकार राजीमती-रूपी महावतके वचन-रूपी अंकुशसे स्थनेमि-रूपी हाथीका विपयवासना-रूपी मद' दूर होगया और वे जिनोक्त धर्ममार्गमें प्रवृत्त होगये ॥१०॥ - જેમ અંકુશથી હાથી બરાબર માર્ગ પર આવી જાય છે, તેમજ રથનેમિ સંયમવતી રામતીનાં વૈરાગ્યપૂર્ણ વચન (સદુપદેશ) સાંભળીને જિનેન્દ્ર ભગવાનના પ્રવચનરૂપ ધર્મમાર્ગમાં સ્થિર બની ગયા. અર્થાત્ જેમ મહાવતના અંકુશથી મર્દોન્મત્ત હાથીને મદ ચૂર્ણ થઈ જાય છે, અને તે રાહ પર આવી જાય છે, તેમ રાજીમતીપ્પી મહાવતનાં વચનરૂપી અંકુશથી રથનેમિરૂપી હાથીને વિષયવાસનારૂપી મદ દૂર થઈ ગયું અને તે જિનેકત ધર્મમાર્ગમાં પ્રવૃત્ત થઈ गया, (१०) Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ श्रीदशवकालिकसूत्रे सम्मत्युपसंहरन्नाह एवं करति०' इत्यादि । मूलम्-एवं करति संबुद्धा, पंडिया पवियक्खणा ॥ ___ विणियति भोगेसु, जहा से पुरिसुत्तमो॥११॥त्तिवेमि॥ छाया-एवं कुर्वन्ति सम्बुद्धाः, पण्डिताः प्रविचक्षणाः ॥ विनिवर्तन्ते भोगेभ्यो, यथा स पुरुषोत्तमः ॥ ११ ॥ इति ब्रवीमि ।। सान्वयार्थः-संधुद्धा-सत् असत् के विवेकी पंडिया विपयदोपोंके ज्ञाता पवियक्खणा-आगमके मर्मज्ञ पुरुप एवं ऐसा ही करंति करते हैं, (वे) भोगेसु: भोगोंसे विणियति-निवृत्त होजाते हैं जहा जैसे से वह पुरिसुत्तमो-पुरुपोंमें श्रेष्ठ (स्यनेमि विपयोंसे निवृत्त हो गया)त्तिवेमि (पूर्ववत्) । भावार्थजो विवेकी होते हैं वे विपयोंके दोपोंको जानकर उनका परित्याग कर देते है, जैसे रथनेमिने परित्याग कर दिया था ॥११ ।। ॥इति द्वितीयाध्ययनस्य सान्वयार्थः ॥ २ ॥ _ टीका-सम्=सम्यग् बुद्धा बोधं प्राप्ताः हेयोपादेयज्ञानसम्पन्ना इत्यर्थः, सम्बु द्धत्वमेव विशेषयति-'पण्डिताः प्रविचक्षणा' इति विशेपणाभ्याम् । तत्र पण्डिता विषयप्रत्तिदोपज्ञाः, मविचक्षणा: विचक्षणश्रेष्ठाः आगममर्मवेदिनः प्राप्तचरणपरिणामा वेत्यर्थः, एवं-तथा कुर्वन्ति-समाचरन्ति । किं समाचरन्तीत्याह'विणियटृति भोगेस' इति, भोगेभ्यः-विपयेभ्यः विनिवर्तन्ते-उपरता भवन्ति, यथा सारथनेमिः, पुरुषोत्तमः पुरुषेषु श्रेष्ठः । उपसंहार- ‘एवं करंति०' इत्यादि । हेय और उपादेय वस्तुओंको सम्यक प्रकार समझनेवाले संयुद्ध, विषयोंमें प्रवृत्तिके दोपोंके ज्ञाता, आगमके रहस्यको जाननेवाले अथवा चारित्रके फलको प्राप्त करनेवाले प्रविचक्षण मुनिजन ऐसे ही करते है, 6५९२-एवं करंति. त्या. હેય અને ઉપાદેય વસ્તુઓને સમ્યફ પ્રકારે સમજનારા સંબુદ્ધ, વિષયમાં પ્રવૃત્તિના દેના જ્ઞાતા, આગમના રહસ્યને જાણનારા અથવા ચારિત્રના ફળને પ્રાપ્ત કરનારા પ્રવિચક્ષણ મુનિજને એમ જ કરે છે, અર્થાત ભેગથી નિવૃત્ત Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४९ Remama अध्ययन २ गा. ११ स्थनेमेः पुरुपोत्तमत्वसिद्धिः : ननु कथमसौ पुरुपोत्तमो यो गृहीतसंयमो भ्रातृजायामचीकमत ? उच्यतेविचित्रा खलु कर्मणां गतिः, गृहीतसंयमस्यापि स्थनेमेश्चेतसि विषयवासना मोहनीयकर्मोदयवशादुद्रुद्धा, परन्तु वैराग्यवारिधाराधरेण राजीमतीवचनेन यदा विपयवलयदावानलजनिततापकवलितो म्लानतामापन्नो स्थनेमिचेतस्तरुः सेचितस्तदैव पुनरसौ संयमामृतरसास्वादनपरो विपवद्विपयविविधदोपाकलनेन अर्थात् भोगोंसे निवृत्त होते हैं जैसे कि-पुरुषोंमें उत्तम रथनेमिने भोगोंको निवृत्ति की। प्रश्न-जिन्होंने संयम लेकर भी विपयवासनामें लीन. होकर परम अनुचित जो कि गृहस्थभी नहीं करता ऐसी साक्षात् अपने-भाईकी भार्यापर कुदृष्टि करके भोगोंकी प्रार्थना की, विपयभोगोंकी इच्छामात्र भी करना चारित्रको मलिन करनेवाला और आत्माको दुर्गतिदाता है तो फिर भगवानने विषयानुरागी रथनेमिको पुरुपोंमें उत्तम कैसे कहा? उत्तर-कर्मोंकी गति विचित्र होती है, मोहकर्मके उदयसे यद्यपि विपयभोगकी अभिलापा हुई तो भी विपयरूपी दावानलसे उत्पन्न संतापसे संतप्त हो मुरझाया हुआ रथनेमिका चित्त-रूपी वृक्ष वैराग्यरसकी यरसा करनेवाले राजीमतीजीके वचनरूपी मेघसे सींचे जाने पर शीघ्रही संयमरूप अमृतरसके आस्वादनमें तत्पर होगया। 'विषय परम कटुक फल देनेवाले और आत्माको चतुर्गतिमें परिभ्रमण करानेवाले हैं। થાય છે, કે જેવી રીતે પુરૂમાં ઉત્તમ રથનેમિએ ભેગની નિવૃત્તિ કરી. પ્રશ્ન–જેમણે સંયમ લઈને પણ વિષયવાસનામાં લીન થઈને પરમ અનુચિત-કેઈ ગૃહસ્થ પણ ન કરે એવી, સાક્ષાત્ પિતાના ભાઈની ભાર્યા પર કુદૃષ્ટિ કરીને ભેગની પ્રાર્થના કરી, વિષયભેગેની ઇરછા-માત્ર પણ ચારિત્રને મલિન કરનારી અને આત્માને દુર્ગતિ દેનારી છે, તે પછી ભગવાને તેવા વિષયાનુરાગી રથનેમિને પુરૂમાં ઉત્તમ કેવી રીતે કહ્યો? ઉત્તર–કર્મોની ગતિ વિચિત્ર હોય છે. મેહકર્મના ઉદયથી જે કે વિષયભેગની અભિલાષા ઉત્પન્ન થઈ, તેપણું વિષયરૂપી દાવાનળથી ઉત્પન્ન થએલા સંતાપથી સંતપ્ત થઈને બેભાન બનેલા રથનેમિનું ચિત્તરૂપી વૃક્ષ, વૈરાગ્ય રસની વૃદ્ધિ કરનારા રામતીનાં વચનરૂપી મેઘથી સિંચિત થતા પછી, તુરતજ સંયમરૂપી અમૃતસનું આસ્વાદન કરવામાં તત્પર બની ગયું. “વિષયે અત્યંત કડવાં ફળ દેનારા અને આત્માને ચતુર્ગતિમાં પરિભ્રમણ કરાવનારા છે” એ પ્રકારની પરવા Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० श्रीदशवकालिकसूत्रे शान्तिमुपगतः परमदुश्वरतपःसेवनपरायणो झटिति बभूवेति विपयसांनिध्येऽपि चित्तनिग्रहकारित्वेन झटिति विषयोपरतत्वेन च पुरुषोत्तमत्वं तस्य निर्वाधर्मवेत्यलं पल्लवितेन । न चाधुनिकरथनेमेरुदाहरणोपलम्मादिदं दशवकालिकमूत्रमनित्यं स्यादिति वाच्यम् , पर्यायार्थिकनयमपेक्ष्याऽनित्यत्वेऽपि द्रव्याथिकनयापेक्षया नित्यत्वात् । इस प्रकारकी परम वैराग्यभावना द्वारा, एकान्त स्थानमें विषयका सान्निध्य रहनेपर भी इन्द्रिय निग्रह करके विपयोंको विपतुल्य समझ कर तत्काल त्याग दिया और उग्र तप-संयमको पालन किया, इसलिये भगवानने उन्हें पुरुषोंमें उत्तम कहा है ॥ प्रश्न-हे गुरो ! प्रवचन अनादि और नित्य है, क्योंकि आचारांग आदि बत्तीसों शास्त्र अनादिकालसे चले आते हैं, और यह दशकालिक सूत्र भी उन्हों यत्तीसोंमें हैं तो आधुनिक रथनेमि और राजीमतीका उदाहरण आनेसे तो यह सादि और अनित्य सिद्ध होता है । ___उत्तर-हे शिष्य ! पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे प्रत्येक पदार्थ अनित्य है, इसी नयकी अपेक्षा दशवैकालिक भी अनित्य है, किन्तु द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे वह नित्य है। अर्थात् दशवकालिकमें प्ररूपित मुनिका आचार सर्वज्ञोक्त है । सब सर्वज्ञोंका कथन एकहीसा होता है । जिस आचारका प्ररूपण चरम तीर्थंकर श्रीमहावीरस्वामान વૈરાગ્યભાવના દ્વારા એકાન્ત સ્થાનમાં વિષયનું સાન્નિધ્ય હોવા છતાં પણ ઈન્દ્રિયનિગ્રહ કરીને વિષને વિષતુલ્ય સમજીને તત્કાળ ત્યજી દીધા અને ઉગ્ર તપ સંયમનું પાલન કર્યું, તેથી ભગવાને તેમને પુરૂષમાં ઉત્તમ કહ્યા છે. प्रश- ! प्रपयन मना भने नित्य छ. ४२९१ है मायासंग આદિ બત્રીસે શાસ્ત્ર અનાદિકાળથી ચાલ્યાં આવે છે, અને આ દશવૈકાલિક સૂત્ર પણ એ બત્રીસમાનું જ છે, તે આધુનિક રથનેમિ અને રાજમતીનું ઉદાહરણ આવવાથી તે એ સૂત્ર સાદિ અને અનિત્ય સિદ્ધ થાય છે. ઉત્તર–છે! શિષ્ય પર્યાયાર્થિક નયની અપેક્ષાથી પ્રત્યેક પદાર્થ અનિત્ય છે. એ નયની અપેક્ષાએ દશવૈકલિક પણ અનિત્ય છે. પરંતુ દ્રવ્યાર્થિક નયની અપેક્ષાથી તે નિત્ય છે. અર્થાત્ દશવૈકાલિકમાં પ્રરૂપેલે મુનિને આચાર સર્વોક્ત છે. બધા સર્વનું કથન એકસરખું જ હોય છે. જે આચારનું પ્રરૂપણ ચરમ તીર્થકર શ્રી મહાવીર સ્વામીએ કર્યું છે તેની જ પ્રરૂપણ અનાદિ કાળથી બધા Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :१५१ अध्ययन २ गा. ११ अध्ययनपरिसमाप्तिः 'इति ब्रवीमि' इति पूर्ववत् ॥ इति गाथार्थः ॥ ११ ॥ ___' इति श्री विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभापा-कलित-ललित, कलापाऽऽलापक-प्रविशुद्ध-गद्य-पद्य-नैकग्रन्थनिर्मापक-बादिमानमर्दक- . श्रीशाहू छत्रपति-कोल्हापुररानमदत्त-जैनशास्त्राचार्य-पद-भूपितकोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकरपूज्य श्रीघासीलालबतिविरचितायां श्रीदशवैकालिकसूत्रस्याऽऽचारमणिमञ्जूपाख्यायां व्याख्यायां द्वितीयं श्रामण्यपूर्वकाख्यमध्ययनं समाप्तम् ॥ २॥ किया है उसीकी प्ररूपणा अनादिकालसे सव सर्वज्ञ करते आये हैं अत एव द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे यह दशवकालिक अनादि और नित्य है।११। इति हिन्दीभाषानुवादमें श्रामण्यपूर्वकाख्य . द्वितीय अध्ययन समाप्त हुआ ॥२॥ સર્વ કરતા આવ્યા છે. એટલે દ્રવ્યર્થક નયની અપેક્ષાથી આ દશવૈકાલિક मनाहि मन नित्य छे. (११) ઈતિ “શ્રામયપૂર્વક” નામના બીજા અધ્યયનનું शुगराती-पानुवाद समास (२) Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - श्रीदशवकालिकनने 'कोऽप्यात्मीय इति, रागादयश्च जीवमृगवागुरायमाणत्वान्महाशत्रय इत्यहो ! शत्रुहस्तगतोऽहं स्वकीयाऽभ्युदयनिःश्रेयससाधनाक्षमः संजातोऽस्मि, घिछ माम् । उक्तश्च-- "इह हि मधुरगीतं नृत्यमेतद्रसोऽयं, स्फुरति परिमलोऽयं स्पर्श एपोऽहनानाम् । इति हतपरमार्थ-रिन्द्रियैर्धाम्यमाणः, स्वहितकरणधृतः पञ्चभिर्बञ्चितोऽस्मि ॥१॥” इति,' एवंविधविविधभावनाभिः सर्वथा रागादितो मुक्ताः विषमुक्तास्तेषाम् , कर चुकी है, वास्तवमें संसारमें कोई भी मेरा नहीं है। यह रागादिदोष, जीवरूपी हरिणके लिए व्याधके समान होनेके कारण महान् शत्रु हैं। खेद है कि मैं उन वैरियोंके वशमें पड़कर अपने परम अभ्युदय-स्वरूप मोक्षके साधनमें भी असमर्थ होगया हूँ मुझे धिकार है । कहा भी है "कैसा कर्णमधुर गीत है, कैसा नेत्रोंको लुभानेवाला नृत्य है, कैसा जिहाका प्रिय स्वाद है, कैसा नासिकाको आकर्षित करनेवाला सुगन्ध है और स्त्री आदिका स्पर्श कैसा सुखकारी है । इस प्रकार अनुः भव कराकर परमार्थका सत्यानाश करनेवाली अपना स्वार्थ साधने में धूत इन दगाबाज पांचों इन्द्रियोंने हाय ! मेरी आत्मिक-सम्पत्तिसे मुझे वंचित कर दिया-मुझको लूट लिया ॥१॥" इस प्रकारकी भावनाओं द्वारा राग आदि शत्रुओंसे सर्वथा मुक्त એને અનુભવ કરી ચૂકયે છે. વાસ્તવમાં સંસારમાં કેઈપણ મારું નથી, આ રાદિ દેવ જીવરૂપી હરણને માટે વ્યાધ (પારધી)ની સમાન હોવાને કારણે મહાન શત્રુ છે, ખેદની વાત છે કે હું એ વેરીઓને વશ પડીને પિતાના પરમ અસ્પૃદય સ્વરૂપ મોક્ષના સાધનમાં પણ અસમર્થ બની ગયે , મને ધિક્કાર છે. કહ્યું છે કે— “કેવું કર્ણમધુર ગીત છે, કેવું તેને લેભાવનારું નૃત્ય છે, કે જિહવાને પ્રિય સ્વાદ છે, કેવી નાકને આકર્જિત કરનાર સુગધ છે, અને સ્ત્રી આદિને સ્પર્શ કે સુખકારી છે, એ પ્રમાણે અનુભવ કરાવીને પરમાર્થનું સત્યાનાશ વાળનારી પિતાને સ્વાર્થ સાધવામાં પૂર્ત એ દગાબાજ પચે ઈદ્રિએ, હાય! મને મારી આત્મિક-સંપતિથી વંચિત કરી નાંખેમને લુટી લીધે.” (૧) એ પ્રકારની ભાવનાઓ દ્વારા રાગાદિ શત્રુઓથી સર્વથા મુક્ત થનારા, Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा. १ महोणाम् (५२) अनाचीर्णानि । १५५ त्रायिणाम्ञाणं स्वस्य परस्योभयस्य च रक्षणं त्रायः, सोऽस्त्येपामिति त्रायिणा, प्रत्येकबुद्धाः स्वस्य, तीर्थङ्कराः परस्य, स्थविरा उभयस्येतीमे सर्वे त्रायिण उच्यन्ते । निर्ग्रन्थानांबाह्याऽऽभ्यन्तरपरिग्रहरूपाद् ग्रन्थान्निर्गताः निग्रन्यास्तेपाम् । महीणाम्-महान्तश्च ऋपय इति महर्पयस्तेपाम् , यद्वा 'महर्पिणाम्' इतिच्छाया, महः जन्मजरामरणदुःखरहितत्वेनैकान्तोत्सवरूपो मोक्षस्तम् ऋपन्ति= गत्यर्थधातूनां प्राप्त्यर्थत्वात् प्राप्नुवन्तीत्येवंशीला महर्पिणस्तीर्थङ्करगणधरादयस्तेपाम् , एतत् द्वापञ्चाशता भेदैवक्ष्यमाणम् , अनार्चीणम् अनासेवितम् , अस्तीति शेपः। अत्र महर्पिणामित्यन्तेषु कर्तुः शेपत्वविपया पष्ठी । यतः संयमे मुस्थितात्मानोऽत एव विममुक्ताः, यतो विषमुक्ता अतस्त्रायिणः, यतस्त्रायिणोऽतो निर्ग्रन्थाः, यतो निर्ग्रन्था अतो महर्पयः, इति यथोत्तरं पूर्व-पूर्वस्य हेतुत्वेन भवति विशेपणसंगतिरिति बोद्धव्यम् । १ अत्र 'अत इनिठना'-विति मत्वर्थीय इनिः, ताच्छील्यणिनिस्तु न, तस्य मुवन्तपूर्वपदकत्व एव प्रवृत्तेरिति वयम् ।। होनेवाले, संसारभ्रमणसे भयभीत भव्य जीवोंकी तथा आत्माकी रक्षा करनेवाले, याह्य और आभ्यन्तर परिग्रहरूपी ग्रन्थिसे रहित, महान् ऋपि-तीर्थकर आदि या जन्म-जरा-मरणके दुःखोंसे रहित होनेके कारण एकान्त आनन्दस्वरूप मोक्षको प्राप्त करनेवाले मुनियोंके, आगे कहेजाने वाले यावन अनाचार (अनाचीर्ण) हैं। अर्थात् ये पावन अनाचार मुनियोंके सेवने योग्य नहीं हैं । यहाँ पष्ठी विभक्तिवाले अनेक विशेषण दिये गये हैं, उन सबमें पहले२ के विशेपण कारण हैं और आगे आगे के कार्य हैं । जैसे-संयममें भली भाँति स्थित होनेके कारण विप्रमुक्त हैं, સંસાર બ્રમણથી ભયભીત ભવ્ય જીવોની તથા આત્માની રક્ષા કરનારા, બાહ્ય અને આત્યંતર પરિગ્રહરૂપી ગ્રંથિથી રહિત, મહાન ઋષિ તીર્થકર આદિ, યા જન્મ-જરા-મરણનાં દુખેથી રહિત હોવાને કારણે એકાંત આનંદસ્વરૂપ મોક્ષને પ્રાપ્ત કરનારા મુનિઓને માટે, આગળ કહેવામાં આવનારા બાવન અનાચાર (અનાચીણ) છે. અર્થાત્ એ બાવન અનાચાર મુનિઓને સેવવા યોગ્ય નથી. અહીં છઠ્ઠી વિભકિતવાળાં અનેક વિશેષણે આપવામાં આવ્યાં છે, એ બધામાં પહેલાં–પહેલાંના વિશેષણ કારણ છે અને પછી-પછીનાં કાર્ય છે. જેમકે-સંયમમાં સારી રીતે સ્થિત હોવાને કારણે વિપ્રમુક્ત છે, વિપ્રમુક્ત હોવાથી વપરના ત્રાતા Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - श्रीदशकालिकसूत्रे नन्वेतावता 'यधन्महापुरुपैरनाचीण तत्तदनाचरणीयं, यद्यत्त्वाचीण तत्तदाचरणीयमेवेत्याया वतश्च तीर्थङ्करा) सुरसम्पादितैरष्टविधमहामातिहार्यस्तीयङ्करा युक्ता इति वयमप्यस्मदर्थं सम्पादितैः कथं न युक्ता भवेमेति चेद् ? भ्रान्तोऽसि, ते हि वीतरागत्वात् कल्पातीताः, वयं तु कल्पस्थिता इति, कल्पातीतानां तेषां जिनेश्वराणामष्टमहामातिहार्याणि तीर्थरगोत्रनामप्रकृत्युदयमहिम्ना प्रतिभासितानि भवन्ति, न तु तानि मुरैः संपायन्ते, अत एव औपपातिकमृत्रे " आगासगएणं चक्केणं आगासगएण छत्तेणं आगासियाहि चामराहि" इत्यस्य व्याख्यायाम्विप्रमुक्त होनेसे स्व-पर के त्राता (रक्षक) हैं, प्राता होनेसे निम्रन्थ हैं, निर्ग्रन्थ होनेसे महर्षि है। शङ्का-इस गाथासे यह तात्पर्य निकला कि महापुरुषोंने जिस जिस का आचरण नहीं किया वह वह अनाचरणीय है, उन्होंने जिस जिसका आचरण किया वे सब आचरण करने योग्य है, यदि ऐसा ही है तो तीर्थकर भगवान् देवनिर्मित आठ महाप्रातिहार्योसे युक्त होते है इसलिए हम भी हमारे लिए बनाये हुए पदार्थोंसे युक्त क्यों न हो। समाधान-हे वत्स ! ऐसा नहीं है, क्यों कि वे वीतराग होनेसे कल्पातीत हैं, और हम कल्पस्थित है, इसलिए उन कल्पातीत जिनेश्वरा के तीर्थथरगोत्र-नाम-प्रकृतिके उदयकी महिमासे अष्ट महाप्रातिहाय केवल भासित होते हैं किन्तु देवताओंसे समर्पित नहीं किये जात, अत एव औपपातिक सत्रके "आगासगएणं चक्केणं" इत्यादि पदाका' (રક્ષક) છે, ત્રાતા હોવાને કારણે નિગ્રંથ છે, નિથ હોવાને લીધે મહર્ષિ છે શંકા--આ ગાથામાંથી એ તાત્પર્ય નીકળ્યું કે–મહાપુરૂએ જેનું જેનું આચરણ નથી કર્યું છે તે અનાચરણીય છે, અને તેમણે જેનું જેનું આચરણ કર્યું તે બધું આચરણ કરવા ગ્ય છે. જે એમ છે તે તીર્થકર ભગવાન દેવ નિર્મિત આઠ મહાપ્રાતિહાર્યોથી યુક્ત હોય છે, તેમ આપણે પણ આપણા માટે બનાવેલા પદાર્થોથી યુકત કેમ ન થવું? સમાધાન––હે વત્સ! એમ નથી, કારણ કે તે વીતરાગ હોવાથી કપાતીત છે, અને આપણે કપસ્થિત છીએ. એ કલ્પાતીત 'જિનેશ્વરનાં તીર્થકર–ગેત્રનામપ્રકતિના ઉદયન મહિમાથી આઠ મહાપ્રાતિહાર્ય કેવળ ભાસિત થાય છે, પરંતુ वितामा तथा समर्पित यतi नथी, मेटले मो५५ति सूचना आगासगएणं Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा. २ (५२) अनाचीर्णानि १५७ "आगासगएणं चक्कणं"-ति आकाशवत्तिना चक्रेण धर्मचक्रेण, 'आगासगएणं छचेणं-ति छत्रत्रयेण 'आगासियाहि '-ति, आकाशम् अम्बरम् इताभ्यां माप्ताभ्याम् आकर्पिताभ्यां वा-आकृष्टाभ्यामुत्पाटिताभ्यामित्यर्थः, 'चामराहिति चामराभ्यां प्रकीर्णकाभ्यां प्राकृतत्वाच्च लिङ्गव्यत्ययः, 'लक्षितः इति सर्वत्र गम्यम्" इत्युक्तम् । ____ अत्र 'लक्षितः' इत्युक्त्याऽन्यकृत इति स्पष्टं निराक्रियते, यथा-अर्द्धमागधभापया प्रवृत्ताऽपि तीर्थङ्करवार समवसरणगतानां देवानां मनुष्याणां तिरयां च स्व-स्व-भापानुरूपा प्रतिभाति किन्तु न सा तादृशी, तस्मादस्मादृशां तदसदृशां तदुक्तकल्प एव स्थातव्यं, न तु तथाऽनुकरणीयमिति दिक इति गाथार्थः ॥१॥ अनाचीर्णान्याह-'उद्देसियं०' इत्यादि, व्याख्यामें कहा है-"आकाशस्थित चक्र, छत्र और चामरोंसे भगवान् लक्षित होते हैं"। यहाँ पर 'लक्षित' ऐसा कहनेसे साफर यह दिखलाया गया है कि-औरोंको छत्रचामरादिसे युक्त भगवान् लक्षित होते हैं किन्तु वे चक्र-छत्रादि अन्य-(देव)-कृत नहीं हैं। जैसे अर्द्धमागधीभापारूप भी तीर्थङ्कर की वाणी, समवसरणमें आये हुए देव मनुष्य तिर्यंचोंकी अपनी अपनी भाषाके स्वरूपमें ही प्रतीत होती है किन्तु वस्तुतः वह वैसी नहीं है, अत एव उन कल्पातीतोंकी तुलनामें नहीं पहुंचे हुए हम छद्मस्थोंको तो उनके कहे हुए कल्पमें ही रहना चाहिए, न कि उनका अनुकरण करना चाहिए ॥१॥ __ अब (५२)-अनाची)को दिखलाते हैं-'उद्देसियं०' इत्यादि। વળ ઇત્યાદિ પદેના વ્યાખ્યાનમાં કહ્યું છે કે- “આકાશસ્થિત ચક્ર, છત્ર અને ચામરેથી ભગવાન લક્ષિત થાય છે. અહીં “લક્ષિત” કહેવાથી એમ સાફ સાફ બતાવ્યું છે કે–બીજાઓને છત્ર-ચામરાદિ-યુક્ત ભગવાન લક્ષિત થાય છે, પરંતુ તે ચક્ર-છત્રાદિ અન્ય (દેવ) કૃત નથી હોતાં. જેમ અર્ધમાગધી ભાષારૂપ પણ તીર્થકરની વાણું સમવસરણમાં આવેલા દેવ–મનુષ્ય-તિર્થને પિતપિતાની ભાવાના સ્વરૂપમાં જ પ્રતીત થાય છે, કિન્તુ વસ્તુત: તે તેવી નથી હોતી. એટલે એ કલ્પાતી તેની તુલનામાં નહિ પહેલા આપણે છાએ તે એમણે કહેલા કલ્પમાં જ રહેવું જોઈએ, નહિ કે તેમનું અનુકરણ કરવું જોઈએ. (૧) व (५२)-मनाया व छ-उद्देसियं० पत्या. Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - १५८ श्रीदशवकालिकसूत्रे मूलम् उद्देसियं कीयगडं, नियागमभिहाणि यः। राइभत्ते सिणाणे य, गंधमढे य वीयणे ॥२॥ छायाऔद्देशिकं क्रीतकृतं, नियागमभ्याहतानि च । रात्रिभकं स्नानं च, गन्ध-माल्ये च वीजनम् ॥ २॥ सान्वयार्थ:-(१) उद्देसियं आदेशिक-किसी एक साधुके लिए बनाया हुआ आहार (२) कीयगडं साधुके लिए खरीदा हुआ आहार (३) नियागं-- निमंत्रणसे ग्रहण किया हुआ आहार (४) अभिहडाणि-सामने लाकर दिया हुआ आहार (५) राइभत्ते रात्रिभोजन (६) सिणाणे स्नान य और (७) गंध-चन्दनादिलेप (८) मल्ले-पुष्पादिमाला (९) वीयणे-पंखा ॥२॥ टीका-औदेशिकम् उद्देशनमुदेशस्तत्र भवं तत्मयोजनमस्येति वा औंदेशिकं. साध्वादिकमुद्दिश्य निष्पादितमित्यर्थः (१), क्रीतकृतं क्रीतेन-क्रयणेन कृतं सम्पादितं साधुकृते मूल्येन गृहीतमिति यावत् (२), ___ (१) औद्देशिक, (२) क्रीतकृत, (३) नियाग, (४) अभ्याहृत, (५) रात्रिभोजन, (६) स्नान, (७) गन्ध, (८) माल्य, (९) पंखा चलाना। (१) साधु आदिके लिए जो आहार बनाया जाता है उसे औद्देशिक कहते हैं। (२) साधुके लिए मूल्य देकर जो आहारादि खरीद किया गया हो उसे क्रीतकृत कहते हैं। (१) मोशिश, (२) जातकृत, (३) नियास, (४) मस्याहत, (५) शनिसान, (६) नान, (७) ५, (८) माध्य, (6) ५ो यायो. (૧) સાધુ આદિને માટે જે આહાર બનાવવામાં આવ્યું હોય તેને मोदेशि से छ. (૨) સાધુને માટે મૂલ્ય ખર્ચીને જે આહારાદિ ખરીદ કરવામાં આવેલ खाय तेnaga 38 छ. . Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा. २-३ (५२) अनाचीर्णानि नियागं-नि-निरतिशयो यागो निमन्त्रणादिरूपः संस्कारो यस्मिंस्तत्-आमन्त्रितपिण्डस्य कदाचिदपि ग्रहणम् , अनामन्त्रितस्य नित्यग्रहणमिति भावः (३), अभ्याहतानि=स्व-पर-ग्राम-गृहादिभेदभिन्नानि साधुनिमित्तं सम्मुखमानीय दत्तानि, बहुवचनं सर्वेपामेवाऽभ्याहतानामनाचीर्णत्वख्यापनार्थम् (४), रात्रिभक्तं रात्रिभोजनं राव्यादिगृहीतं भक्तं वा (५), स्नान-प्रसिद्धम् (६), गन्धमाल्ये-गन्धः चन्दन-केतकादिसौरभम् (७) माल्यं पुष्पादिमाला, तयोरितरेतरयोग इति गन्ध-माल्ये (८), (३) गृहस्थका निमन्त्रण पाकर कभी भी आहार लेनाअथवा प्रतिदिन एक ही घरसे आहार लेना नियागपिण्ड है। (४) अपने गाँवसे पर गाँवसे अथवा घरसे साधुके सामने लाया हुआ आहार अभ्याहृत पिण्ड है। अभ्यातके लिए गाथामें बहुवचन आया है उसका यह अभिप्राय है कि जितने भी अभ्याहृत (सामने लाये हुये) हैं वे सभी अनाचार हैं। (५) रात्रिमें आहार लेना, दिनमें लेकर रात्रिमें खाना आदि रात्रिभक्त है (६) देशतः सर्वतः स्नान करनेको स्नान-अनाचार कहते हैं । (७-८) चन्दन केतक अतर आदिकी सुगन्ध तथा फूलमाला आदिका सेवन करना गन्ध-माल्य-अनाचार है। (૩) ગૃહસ્થનું નિમંત્રણ મેળવીને કેઈવાર પણ આહાર લે અથવા પ્રતિદિન એકજ ઘરથી આહાર લે એ નિયાગપિંડ કહેવાય છે. (૪) પિતાના ગામથી, પરગામથી અથવા ઘરથી સાધુની સામે લાવવામાં આવેલ આહાર અભ્યાહૂત-પિંડ કહેવાય છે. અભ્યાહતને માટે ગાથામાં બહુવચન આવ્યું છે તેને એ હેતુ છે કેજેટલા અભ્યાહત (સામે લાવેલા) હોય તે બધા અનાચાર છે. (૫) રાત્રે આહાર લે, દિનમાં લઈને રાત્રે ખાવે, ઈત્યાદિ રાત્રિ-ભકત वाय छे. (6) देशथी (ो मागे ) सपथी (आये शरी२) स्नान ४२ मे स्नान-मनाया२ ४२वाय छे. (૭૮) ચંદન, કેવડે, અત્તર આદિની સુગંધ તથા ફૂલ માલા આદિનું સેવન કરવું એ ગંધ-માલ્ય-અનાચાર કહેવાય છે. Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - mund ----- - - - - - - - १६० श्रीदर्शवकालिकम तथा वीजन-प्रीप्मादिनाती तालवृन्तादिना वातादिसञ्चालनम् (९), अत्राऽऽरम्भादयो दोपा जायन्त इति स्वयमत्रगन्तव्यम् । आदेशिकक्रीतकतयोः स्वरूपं समपञ्च पञ्चमाध्ययने वक्ष्यते ॥ २ ॥ मूलम्--संनिही गिहिमत्ते य, रायपिंडे किमिच्छए । संवाहणा दंतपहोयणा य, संपुच्छणा देहपलोयणा य॥३॥ (छाया)-संनिधि-गृह्यमत्रं च, रानपिण्डः किमिच्छकः।। संवाहनं दन्तमधावनं च, संप्रच्छनं देहमलोकनं च ॥३॥ सान्वयार्थ:--(१०)संनिही रात्रिमें आहार आदिका संचय (११) गिहिमत्ते गृहस्थके पात्रमें भोजन करना य=और. (१२) रायपिंडे-राजाके लिए बनाया हुआ आहार (१३) किमिच्छए-दानशाला या अन्नक्षेत्र आदिका आहार (१४) संवाहणा-शरीरकी मालिश करना (१५) दंतपहोयणा-दांत मांजना पऔर (१६) संपुच्छणा-गृहस्थसे कुशलप्रश्न पूछना य और (१७) देहपलोयणादर्पण या जलमें मुख आदि देखना ॥३॥ टीका-संनिधीयते सम्यक्तया नितरां स्थाप्यते नरकादिप्वात्माऽनेनेति सनिधिः संभवादन घृतादिसञ्चयकरणम् (१०), .. (९) ग्रीष्मादि कालमें पंखा चलाना यह व्यजन-अनाचार है। इनसे आरम्भ आदि दोप होते हैं सो स्वयं समझना चाहिये। औद्देशिक और क्रीतकृतका विस्तारपूर्वक विवेचन पांचवें अध्ययनमें किया जायगा ॥२॥ (१०) संनिधि-जिस अनाचारका सेवन करनेसे आत्मा नरकादि कुगतियों में गिरती है अर्थात् घृत औषध आदिका रात्रिमें बासी रखना संनिधि-अनाचार है । (૦ ગ્રીષ્માદિ કાળમાં પ ચલાવ એ એજન-અનાચાર છે. એથી આરંભ આદિ ષ લાગે છે તે પિતેજ સમજવું જોઈએ. ઓશિક અને ક્રતિકૃતનું વિસ્તારપૂર્વક વિવેચન પાંચમા અધ્યયનમાં કરવામાં આવશે. (૨) ૧) સંનિધિ-જે અનાચારનું સેવન કરવાથી આત્મા નરકાદિ દુર્ગતિમાં પડે છે, અર્થાત એસડ આદિ. રાત્રે વાસી રાખવાં તે સંનિધિ-અનાચાર છે. Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा. ३-४ (५२) अनाचीर्णानि गृह्यमत्रं गृहिणां गृहस्थानाम् अमत्रं पात्रं प्रसंगादत्र तस्मिन्नभ्यवहरणादि (११), राजपिण्डः राजार्थ निष्पन्नाऽऽहारः (१२), ' ' ' . किमिच्छकं कः किमिच्छत्याहारादिक'-मित्येवं पृच्छचते यस्मिन् कर्मणि तत् , अन्नसत्र-(सदावत)-शालादित आहारादिग्रहणमित्यर्थः (१३), संवाहनम् अस्थ्यादिसुखविशेषजनकं तैलादिना शरीरसंमर्दनम् (१४), दन्तप्रधावनं दन्तमार्जनम् (१५), संमच्छनं गृहस्थं प्रति कुशलादिरूपसावद्यमश्नकरणम् (१६), देहमलोकन-जलदर्पणादिपु मुखादिनिरीक्षणम् (१७), चकाराः समुच्चयार्थाः । संनिध्यादिपु परिग्रहादयो दोपाः प्रतीताः ॥३॥ (११) गृह्यमन-गृहस्थके पात्र में आहार आदि करना गृह्यमत्र है। . (१२) राजपिण्ड-राजाके लिए बनाया हुआआहार लेनाराजपिंड है। . (१३) किमिच्छक-जिसमें यह पूछा जाता है कि कौन क्या चाहता है ? अर्थात् दानशाला (सदाव्रत) आदिसे आहार लेना किमिच्छक है। (१४) संवाहन-अस्थि, मांस, त्वचा, रोमको आनन्ददायक चार प्रकारका मर्दन करना संवाहन है । (१५) दन्त-प्रधाधन-दांत धोना। (१६) संप्रच्छन-गृहस्थसे कुशल आदि रूप सावद्य प्रश्न पूछना। (१८) देहप्रलोकन-जलमें अथवा दर्पण आदिमें अपना मुख आदि देखना । सन्निधि आदिमें परिग्रहादि दोप प्रसिद्ध हैं ॥३॥ - (૧૧) ગ્રામત્ર-ગૃહસ્થના પાત્રમાં આહાર આદિ કરે તે ગૃઘમત્ર उपाय छे. (૧૨) રાજપિંડ-રાજાને માટે બનાવેલે આહાર લેવે તે રાજપિંડ છે. (૧૩) કિમિરછક–જેમાં એ પૂછવામાં આવે છે કે તેને શું જોઈએ છે ? અર્થાત્ દાનશાલા (સદાવ્રત) આદિ પાસેથી આહાર લે તે કમિરિછક કહેવાય છે. (१४) संपान-मस्थि, मांस, स्पया, रोमने मानहाय यार ४१२नु મર્દન કરવું એ સંવાહન છે. (૧૫) દંતપ્રધાન-દાંત જોવા (૧૬) સંપ્રછન-ગૃહસ્થને કુશળ આદિ રૂપ સાવધ પ્રશ્નો પૂછવા. (૧૭) દેહપ્રલેકન–જલમાં અથવા દર્પણ આદિમાં પિતાનું મુખ આદિ ai, सनिधि माहिमा परियाहि ५ प्रसिद्ध छ. (3) Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशनैकालिकसूत्रे १६२ te ૧૨ मूलम् - अहावए य नालीए, छत्तस्स य धारणाए । २० ११ २२ तेगिच्छं पाहणा पाए, समारंभं च जोड़णो ॥४॥ , छाया - अष्टापदं नालिकया, छत्रस्य धारणार्थाय ( धारणाऽष्टया ) | चैकित्स्यमुपानही पादयोः समारम्भव ज्योतिषः ॥४॥ सान्वयार्थ : - ( १८) नालीए जूए के उपकरण साधनसे अट्ठावए चौपड़ शतरञ्ज आदि खेलना, (१९) अट्टाए = मुट्ठी से छत्तस्स छातेका धारणं=धारण करना (२०) तेगिच्छं = रोगकी चिकित्सा करना (२१) पाए पाहणा=पैरोंमें जूते चंपल मौजे आदि पहिनना च= और (२२) जोडणी = अफ्रिका समारंभं= आरंभ करना ||४|| टीका - च तथा, नालिका = यथाऽभिमतपतनार्थे यया पाशाः पात्यन्ते सा = पाशपातनद्रव्यम् तया, उपलक्षणमेतत् - द्यूतोपकरणमात्रस्य, अष्टापदम् - अष्टौ अष्टौ पदानि = स्थानानि (गृहाणि) सर्वभागेषु यस्मिंस्तत्तथा वस्त्राssधारस्थानम्, इह च लक्षणया धूतसामान्यम् (१८), च=किञ्च छत्रस्य=आतपत्रस्य धारणार्थाय ग्रहणमिति शेषः । यद्वा-' धारणा अट्ठार' इतिच्छेदः, 'अट्ठा' इत्यस्य 'मुष्टि' रित्यर्थः, " चउहिं अट्ठाहिं लोयं करेइ' १ ' चतष्टभिरष्टाभिळींचं करोति' इतिच्छाया ॥ (१८) अष्टापद - 'नालीए' अर्थात् पासा फेंककर चौपड़, शतरंज आदि खेलना, अथवा अन्य प्रकारसे जुआ खेलना । (१९) छत्रधारण करना । गाथामें 'धारणडाए' ऐसा पद है उसे अलग अलग करनेसे 'धारणा अट्ठाए' होता है । यहाँ आट्ठा शब्दका अर्थ 'मुट्ठी' है । जम्बूदीपप्रज्ञप्तिमें कहा है कि- 'चउहि अहाहिं लोयं करेह' (१७) अष्टाय - नालीए अर्थात- पासा ईडीने थापर, शतरंग, माहि ખેલવાં, અથવા અન્ય પ્રકારે જુગાર ખેલવા, (१७) छत्र धार ४२. गाथाभां धारणाए मे यह छे, मेने छूट पाउपाथी धारणा + अट्ठाए थाय छे. खर्डी सुट्टी शण्डनो अर्थ 'भुडी' छे, भ्यू द्वीपप्रज्ञप्तिभां मधुं छे चउहिं अट्ठादि लोयं करेइ अर्थात्-ऋपलदेव भगवाने, Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा. ४ (५२) अनाचीर्णानि १६३ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यादौ तथादर्शनात् , ततश्च 'अहाए 'अष्टया-मुष्टया छत्रस्य धारणा ग्रहणमित्यर्थः । न च छत्रादिधारणं मुष्टयादिनैव संभवतीति 'अट्टाए' इत्यस्य 'मुखेन पठती'-इत्यादिपु मुखादिवद्वैयर्थ्यमिति शङ्कनीयम् , 'चक्षुभ्यों पश्यति, कर्णाभ्यां शृणोति, जिव्हया लेढि' इत्यादि-लोकोक्तिपु चक्षुरादीनामिव यथास्थितवस्तुमतिपादनमात्रतात्पर्येणाऽपौनरुक्त्यात् , अत्रैव गाथायामुत्तरार्दै 'पाहणा अर्थात्-ऋपभदेव भगवान्ने चार मुट्ठी लोच किया। अतः'धारणढाएका अर्थ 'मुट्ठीसे छत्रको ग्रहण करना' हुआ । - प्रश्न-छन तो मुट्ठीसे ही पकड़ा जाता है फिर 'अहाए की क्या आवश्यकता है ? जैसे " मुखसे योलता है" इस वाक्यमें 'मुखसे' इतना अंश व्यर्थ है, क्योंकि सिवाय मुखके और किसी अंगसे नहीं बोला जाता, इसी प्रकार यहां 'मुट्ठीसे' कहना भी वृथा है ? उत्तर-यह प्रश्न ठीक नहीं, क्योंकि लोकमें "आँखोंसे देखता है, कानोंसे सुनता है, जिहासे चखता है" इत्यादि वाक्योंमें 'आँखोंसे' 'कानोंसे', 'जिहासे' इन पदोंके बोलनेका अभिप्राय यथास्थित वस्तुका प्रतिपादन करना है, इस गाथाके उत्तरार्द्धमें 'पाहणा पाए' पद आया है इसका अर्थ है कि-पैरोंमें उपानह (जूता), उपानह यद्यपि पैरोंमें ही पहने जाते हैं हाथ या सिरमें नहीं पहने जाते फिरभी 'पाए' कहनेसे या२ भुडी साय थे. मेटले धारणटाए न म 'भुडीया छत्रने डर ४२' भवो थयो. પ્રશ્ન-છત્ર તે મુઠીથી જ પકડવામાં આવે છે, પછી ચાઇની શી જરૂર રહે છે? જેમકે “મુખથી બેલે છે” એ વાકયમાં “મુખથી એટલો અંશ વ્યર્થ છે, કારણ કે મુખ વિના બીજા કે અંગથી બેલી શકાતું નથી. તે જ રીતે ત્યાં “મુઠીથી” એમ કહેવું એ પણ વૃથા છે. ઉત્તર–એ પ્રશ્ન બરાબર નથી, કારણ કે લેકમાં આખેથી જેવે છે” 'नया सालणे छ,' 'मथी या छ,' त्यादि पाध्यामा 'मामाथी,' “કાનથી,” “જીભથી” એ શબ્દ આપવાને હેતુ યથાસ્થિત વસ્તુનું પ્રતિપાદન કરવાનું છે. આ ગાથાના ઉત્તરાર્ધમાં પાદUT પદ આપ્યું છે તેને અર્થ છે– “પગમાં ઉપનાહ (જેડા), જે કે જોડા પગમાં જ પહેરવામાં આવે છે, હાથે કે માથે નહિ, તે પણ જાણ કહેવાથી પુનરૂક્તિ થતી નથી, કારણ કે એ શબ્દથી Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ श्रीदशवकालिकसने पाए' इत्यत्र 'पाए' इतिवदिति, उपलक्षणमेतच्छिरसि छायाकरणमात्रस्य (१९), चैकित्स्य चिकित्सा व्याधिमतीकारः, कफपित्तादिगुण्यं, ग्रहादिवैगुण्यं च व्याधेनिंदानं तत्पशमनं तदुपायोपदेशादिनेत्यर्थः (२०), पादयोः चरणयोः, उपानहौ चर्मपादुके, उपलक्षणमिदं काष्ठपादुकादीनामपि (२१), च-किञ्च ज्योतिपःचः समारम्भः भारम्भकरणम् (२२), दोपास्त्वत्राऽलीकत्वादयः स्वबुद्धयाऽवगन्तव्याः, चकाराइहापि समुच्चयार्थाः।४। १-'गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च (५११११२४) इत्यत्रत्यवाह्मणादेराकृतिगणत्वात्स्वार्थे ध्यञ् तत आदिवद्धिराल्लोपश्च, यत्तु 'चिकित्साया भावश्चैकिस्य' मिति टीकान्तरकृतस्तद व्याकरणाऽनवयोधमृलकमेव, भावप्रत्ययान्ताहावप्रत्ययस्याऽनुत्पत्तेः, 'चिकित्सायाः कर्मे 'त्यर्थकल्पनमपि केपांचित्मामादिकमेव चिकित्साया रोगापनयनक्रियारूपायाः स्वत एव कर्मभूतत्वेन कर्मपर्यायत्वात् , ज्यविधायकमो हि 'कर्म-क्रिये'-ति वैयाकरणाः ॥ पुनरुक्ति नहीं है, क्योंकि इस पदसे यथावस्थित वस्तुका प्रतिपादनमात्र किया गयाहै, इसलिए 'मुट्ठीसे छत्र धरना ऐसा कहना अयुक्त नहीं है। (२०) चैकित्स्य-चिकित्सा करना, अर्थात वैद्यक करना, या ग्रह आदिको मंत्र वगैरहसे शांत करना, या इस विषयका उपदेश देना। (२१) उपानह (जूना) या मौजा आदि पहनना। (२२) अग्निका आरम्भ करना, इनसे भी असत्य आदि दोष समझना चाहिए, अर्थात् जूआखेलनेसे असत्य, क्लेश, आर्तध्यान, परिग्रह आदि छन्त्र धारण करनेसे सुकुमारता યથાવસ્થિત વસ્તુનું પ્રતિપાદન માત્ર કરવામાં આવ્યું છે. તેથી મુઠીથી છત્ર ધરવું” એમ કહેવું એ અયુક્ત નથી. (૨૦) ચકિત્સ્ય-ચિકિત્સા કરવી અર્થાત્ વૈદું કરવું, અથવા હાદિ ને મંત્ર વગેરેથી શાન્ત કરવા અથવા એ વિષયને ઉપદેશ આપે. (२१) पान (A) मा म मा परवा. (૨૨) અગ્નિને આરંભ કરે. એથી પણ અસત્ય આદિ દેવ સમજવા स . અર્થાત-જુગાર ખેલવાથી અસત્ય, કલેશ, આર્તધ્યાન, પરિગ્રહ આદિ, છત્ર ધારણ કરવાથી સુકમારતા; પરિવહને ગ્રહન કરવામાં અસમર્થ આદિ અનેક Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा. ५ (५२) अनाचीर्णानि २३ मूलम् सिजायरपिंडं च, आसंदी पलियंकए । गिहंतरनिसिज्जा य, गायस्सुबहणाणि य ॥५॥ छाया-शय्यातरपिण्डश्च, आसन्दी पर्य(ल्य)ङ्ककः । ___ गृहान्तरनिपद्या च, गात्रस्योद्वर्तनानि च ॥५॥ सान्वयार्थः-चौर (२३) सिजायरपिंडं शय्यातरका आहार, (२४) आसंदी-कुर्सी या खाट (२५) पलियंकए-पलंग पालखी डोला आदि, (२६) गिहतरनिसिजा-गृहस्थके घरमें बैठना, य और (२७) गायस्स-शरीरका उबद्दणाणि-उवटन करना ॥५॥ टीका-शय्यतेऽस्यामिति शय्या वसतिः, शय्ययाऽर्थात्तहानेन तरति संसारसागरमिति शय्यातरः, यद्वा शय्या-मोक्तरीत्या वासस्थानम् , 'आतरः संसार १-'आतरस्तरपण्यं स्या'-दित्यमरः, 'उतराई' इति लोकमसिद्धम् । परिपहके सहने में असामर्थ्य आदि अनेक दोप, चिकित्सा करनेसे आरम्भ असत्य आदि दोप; उपानह पहननेसे द्वीन्द्रिय आदि जीवोंका उपमर्दन आदि, तथा अग्निकायका आरम्भ करनेसे छह कायका उपमर्दन आदि दोप होते हैं ॥४॥४॥४॥ (२३) शय्यातरका पिण्ड लेना। - जिसमें शयन किया जाता है उसे शय्या या वसति कहते हैं। उस शय्याके दानसे संसार-समुद्रको तैरनेवाला शय्यातर कहलाता है। अथवा शय्या है संसाररूपी सागरसे पार होनेका आतर (शुल्क) દેષ, ચિકિત્સા કરવાથી આરંભ, અસત્ય આદિ દેષ; જોડા પહેરવાથી હીન્દ્રિય આદિ જીવનું ઉપમઈન આદિ, તથા અગ્નિકાયને આરંભ કરવાથી છ કાયનું ઉપમન આદિ દેષ લાગે છે. (૪) (२३) शय्यातना पिंड लेवो. જેમાં શયન કરવામાં આવે છે તેને શય્યા યા વસતિ કહે છે. એ શયાના દાનથી સંસાર-સમુદ્રને તરનાર શય્યાતર કહેવાય છે. અથવા શા છે સંસારરૂપી સાગરથી પાર થવાનું આતર (શુક) જેનું, તેને શય્યાતર કહે છે, જેમ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकमूत्रे पारावारोत्तरणशुल्क यस्य स शय्यातरः । अत्र पक्षे यथा कविनदी पार निगमिपुर्नाविकाय नदीवरणशुल्कं दत्त्वा तत्पारं गच्छति तया संसारसमुद्रपारं जिगमिपुहस्थस्तन्नाविकस्वरूपाय महापुरुषाय मुनये शय्या-(वसतिस्थान) रूप. मातरं (तरणशुल्क) दवा तत्पारं व्रजतीति भावार्थोऽनुसन्धेयः। पक्षद्वयेऽपि साधुवासार्थमाज्ञादायक इति फलितम् , तस्प पिण्ड:- आहारोपध्यादिः शय्यातरपिण्ड इति । शय्यातरविचारः। यद्यपि निवासार्थ साधवे स्वानुमतिमकाशको वसतिस्वामी शय्यावरशन्दस्वार्थः, तथापि तस्य तदैव शय्यातरत्वं भवति यदा तत्र वसती साधुर्भाण्डोपकरणानि स्थापयेत् , मतिक्रमणमाचरेत् , रात्री शयीत च । अत्रायं विवेकाजिसका उसे शय्यातर कहते हैं। जैसे कोई नदी पार करनेकी इच्छावाला घटोही (मार्ग) नाविकको नदी पार उतारनेका मूल्य देकर पार उतरता है उसीप्रकार संसाररूपी समुद्रके पार उतरनेकी इच्छावाला गृहस्थ नाविकके समान साधु महापुरुषोंको शय्या (वसति-स्थान)रूपी उतराई (पार उतरनेका मूल्य) देकर संसारसागरसे पार उतरता है, यह अभिप्राय समझना चाहिए। दोनों पक्षोंका अर्थ एक ही है कि शय्यातर उसे कहते हैं, जो साधुको ठहरनेके लिए मकानकी आज्ञा देता है। उसके आहार औपध आदि पिण्डको शय्यातर-पिण्ड कहते हैं। शय्यातर-विचार साधुको ठहरनेके लिए अपनीअनुमति प्रगट करनेवाला उपाश्रयका स्वामी शय्यातर कहलाता है,तथापि वह इन अवस्थाओंमें शय्यातर होता हैકઈ નદી પાર કરવાની ઈચ્છા-વાળે ઊતારૂ નાવિકને નદી ઊતરવાનું ભાડું આપીને પાર ઊતરે છે, તેમ સંસાર-રૂપી સમુદ્રને પાર ઊતરવાની ઈચ્છા-વાળા ગૃહસ્થ, નાવિકસમાન સાધુ-મહાપુરૂને શા--(વસતિ-સ્થાન) રૂપી ભાડું (પાર ઊતરવા માટેનું મૂલ્ય) આપીને સંસાર-સાગરથી પાર ઊતરે છે, એ અર્થ સમજવું જોઈએ. બેઉ પક્ષેનો અર્થ એક જ છે કે શય્યાતર એને કહે છે કે જે સાધુને રહેવાને માટે મકાનની આજ્ઞા આપે છે, એના આહાર ઓવધ આદિ પિંડને શય્યાતર–પિંડ કહે છે. सध्यातरविद्यार. સાઇને રહેવાને માટે પિતાની અનુમતિ આપનાર - ઉપાશ્રયને સ્વામી શશ્ચાતર કહેવાય છે, તથાપિ તે આ અવસ્થામાં શય્યાતર થાય છે Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा. ५ शय्यातरविचारः १६७ भाण्डोपकरणस्थापन-प्रतिक्रमणाचरण-शयनानां त्रयाणां प्रत्येकं शय्यातरत्वे हेतुत्वम्, तेन प्रतिक्रमणाचरण - शयनाभ्यां भागपि भाण्डोपकरणस्थापनानन्तरं वसतिस्वामिनः शय्यातरत्वम् पूर्वगृहीतवसती स्थानसंकीर्णतायां सत्यां कियान् मुनिरन्यसाधुसकाशे स्वकीयभाण्डोपकरणानि निधाय अन्यस्मिन् समीपतरवर्त्तिन्युपाश्रये तत्स्वामिनि देशमादाय प्रतिक्रमणं कुर्वीत तदा तत्र भाण्डोपकरणस्थापनाभावेऽपि तदीयस्वामिनः शय्या तरत्वम् । अन्यत्र प्रतिक्रमणं कृत्वा स्थानसंकीर्णतायां सत्यां (१) साधु वसति में भाण्डोपकरण रख देवे | (२) प्रतिक्रमण करे, और (३) रात्रिमें शयन करे । (१) इन तीनोंमेंसे प्रत्येक क्रिया शय्यातर होने में कारण है। इसलिए प्रतिक्रमण और शयन करनेसे पहले भी भाण्डोपकरण रख देनेपर वसतिका स्वामी शय्यातर हो जाता है । (२) पहले जिस वसतिको ग्रहण कर लिया हो उसमें स्थानकी संकीर्णता होने पर कुछ साधु अपने भाण्डोपकरण अन्य साधुओंके समीप रखकर, पासके दूसरे उपाश्रयमें उसके स्वामीकी आज्ञा लेकर प्रतिक्रमण करें तो वहां भाण्डोपकरण न रखने पर भी जहां प्रतिक्रमण किया हो उस वसतिका स्वामी शय्यातर कहलाता है, इस वसतिका नहीं । (३) दूसरे स्थान में प्रतिक्रमण करके, स्थानकी संकीर्णता होने पर जहां (१) साधु वसतिभां लांडेप४२] (पात्र वगेरे) राणे. (२) प्रतिभा उ. ने (3) रात्रे शयन रे. (૧) આ ત્રણેમાંની પ્રત્યેક ક્રિયા શય્યાતર થવામાં કારણ છે, તેથી પ્રતિક્રમણ અને શયન પૂર્વે પણ ભાંડપકરણ રાખી દે તે વસતિના સ્વામી શય્યાતર થઈ लय छे. (૨) પહેલાં જે વસતિનું ગ્રહણ કરી લીધું હોય, તેમાં સ્થાનની સંકીણું તા (સૌંકડાશ) હાવાથી કાઇ સાધુ પોતાનાં ભાંડાપકરણુ ખીજા સાધુઓની સમીપે રાંખીને, પાસેના બીજા ઉપાશ્રયમાં તેના સ્વામીની આજ્ઞા લઈને પ્રતિક્રમણ કરે । ત્યાં ભાંડપકરણુ ન રાખવા છતાં પણ જ્યાં પ્રતિક્રમણ કર્યુ” હાય તે વસતિને સ્વામી શય્યાતર કહેવાય છે, આ વસતિને નહિ. (૩) ખીન્ન સ્થાનમાં પ્રતિક્રમણ કરીને સ્થાનની સંકડાશને કારણે જ્યાં Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ श्रीदशवकालिकसूत्रे शयनमात्रं यत्राचरितं तत्स्वामिनोऽपि गरयातरत्वम् । परन्त्वयं विशेपो बौद्धन्य:____ अन्यसाधुसविधे स्वकीयभाण्डोपकरणानि संस्थाप्याऽन्यत्र शयनपतिक्रमणाचरणे मूलोपाश्रयस्वामिनो न शय्यातरत्वम् , भाण्डादिस्थापने साधुसांनिध्यस्येव निमित्तता न तु 'तत्स्वामिनः, साधोरभावे भाण्डादिस्थापनस्य शास्त्राविहितस्वात् । शय्यातरत्वनिवृत्तिकरणाय तु पुनः पुनः शय्यातरपरिवर्तन नाचरणीयम् । पुनः पुनः शय्यातरपरिवर्तनं हि साधोभिक्षालोभं प्रकाशयति, तत्र बहवो दोपा अपि चापतन्ति, तथाहि-शय्यातरपरिवर्तने पूर्वशय्यातरो विभावयति-अद्य मम गृहे १-वसतिस्वामिनः । सिर्फ शयन किया हो उस स्थानके स्वामीको भी शय्यातर कहते हैं अर्थात् उस अवस्थामें दोनों शय्यातर है। विशेप यह है कि-दूसरे साधुओंके पास भाण्डोपकरण रखकर अन्य ही किसी स्थानपर प्रतिक्रमण और शयन करेतोजहां भाण्डोपकरण रक्खें हैं, उस स्थानका स्वामी शय्यातर नहीं कहलाता। क्योंकि भाण्डोपकरण साधुके नेसराय (अधीनता) में ही रखे जाते हैं, गृहस्थके नेसरायमें रखना शास्त्रविरुद्ध है। शय्यातरत्वकी निवृत्ति करनेके लिए वारंवार शय्यातरका परिवर्तन नहीं करना चाहिए। ऐसा करनेसे यह प्रगट होता है कि साधु भिक्षाका लोभी है; इसमें बहतसे दोष भी उत्पन्न होते हैं। जैसे-शय्यातरका परिवर्तन करनेसे पहला शय्यातर इस प्रकार માત્ર શયન કર્યું હોય તે સ્થાનનો સ્વામીને પણ શેયાતર કહે છે. અર્થાત એ સ્થિતિમાં બેઉ શવ્યાતર છે. વિશેષ વાત એ છે કે–બીજા સાધુઓ પાસે ભડપકરણ રાખીને બીજા જ કોઈ સ્થાન પર પ્રતિક્રમણ અને શયન કરે તે જ્યાં ભાંડેપકરણ રાખેલાં હોય, તે સ્થાનનો સ્વામી શ્રેયાતર નથી કહેવાતે, કેમકે ભાડાપકરણ સાધુની સરાય (અધીનતા) માં જ રાખવામાં આવે છે, ગૃહસ્થની નેસરાયમાં રાખવાં એ શાસ્ત્રવિરૂદ્ધ છે. શાતરવની નિવૃત્તિ કરવાને માટે વારંવાર શય્યાતરને પરિત્યાગ કરવો ન જોઈએ. એમ કરવાથી એવું પ્રકટ થાય છે કે સાધુ ભિક્ષાને લોભી છે; એમાંથી અનેક દે પણ ઉત્પન્ન થાય છે. જેમ–શશ્ચાતરનું પરિવર્તન કરવાથી પહેલે શય્યાતર આ પ્રમાણે વિચારે છે Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा. ५ वसतियाचनाविधिः त्यक्तमदीयोपाश्रयः साधुरसौ निश्चितमागमिष्यतीति तदर्य मुरसमन्नादिकं साथनीयमिति कृत्वा निष्पादितस्यानपानादेराधाकर्मिकत्वापत्तिः । यदि तु स्वार्थ साधुनिमित्तं च निष्पादितं तदा मिश्रजातदोपापत्तिनिवारैव । पूर्व शय्यातरेण त्यतोपाश्रयाय साधये कस्यचिद् वस्तुनः स्थापने स्थापनादोपः कथं साधुना वारणीयः । अन्ये दोपाः स्वयमूहनीयाः । तस्माद् झटिति शय्यावरपरिवर्तनं न साधुना विधेयम् । वसतियाचनाविधिः ।। अथोपाश्रयस्वामिनस्तदनुपस्थितौ तत्संरक्षकाद्वा वसतियाचनाविधिरभिधीयतेसोचता है-आज मेरे उपाश्रयकी आज्ञा संतोंने छोड़ दी है, अतः मेरे यहाँ अवश्य आयेंगे, इसलिए उनके वास्ते स्वादिष्ठ अन्न आदिक बनाना चाहिए, ऐसा विचार कर बनाया हुआ अन्नादिक आधार्मिक होगा। यदि पहला शय्यातर अपने और साधुके लिए इकट्ठावनावेगा तो मिश्रजात दोप लगेगा । साधुके आनेकी संभावनासे वह किसी वस्तुको स्थापना करेगा तो स्थापना (ठवणा) दोप होगा। इत्यादि अनेक दोप स्वयं समझ लेने चाहिये । इसलिए साधुको बारम्बार शय्यातर बदलना नहीं कल्पता है । उपाश्रय-याचनाकी विधि । वसति-स्वामीसे अथवा उसकी गैर-मौजूदगी में उसके संरक्षकसे वसति-याचनाकी विधि कहते हैंઆજ મારા ઉપાશ્રયની આજ્ઞા સંતે એ છોડી દીધી છે, એટલે મારે ત્યાં જરૂર આવશે, તેથી એમને માટે સ્વાદિષ્ટ અનાદિ બનાવવા જોઈએ. એ વિચાર કરીને બનાવેલું અાદિ આધાક બનશે, જે પહેલે શાતા પિતાના માટે અને સાધુને માટે એકઠું બનાવશે તે મિશ્રજાત દેપ લાગશે. સાધુ આવવાની સંભાવનાથી તે કઈ વસ્તુને સ્થાપન કરશે તો સ્થાપના-૧ઠવણ – દોષ લાગશે. -ઈત્યાદિ અનેક દે પિતાની મેળે સમજી લેવા. એ કારણથી સાધુને વારંવાર શાતર બદલવા કરતા નથી. (GIश्रय-यायनानी विधि) વસતિના સ્વામી પાસે અથવા તેની ગેરહાજરીમાં એના સંરક્ષકની પાસે વસતિ-યાચના કરવાની વિધિ કહે છે Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदर्शने कास्टिक स मुनिर्वदेत्- हे आयुष्मन् ! अस्यां वसतीस्थातुमिच्छामि, यावति समये स्थातुमादेशो भवदीयो भवेत् तावानेव कालो यापनीयः, तत्रापि यात्रान् वसतिभूमिभागो ममावस्थानाय भवते रोचेत तावानेव ममापेक्षणीय इति । ततो गृहस्थः मतिप्रयात्-भगवन् ! मुनीश्वर ! कियतः कालानवस्यास्यते ? तदा ऋतुबद्धशेषकाले सति साधुः "एकमासावधिकाले कल्प्ये यावदवसरं स्थास्यामि " इति वर्षाकाले तु " चतुरो मासानत्र यापयिष्यामी " ति वदेत् । सागारिकेण साधुकल्यकालमुपलक्ष्य- " एतावतः कालांनत्राएं न स्थास्यामि ग्रामान्तरं गमिष्यामी " - ति कथने तु साधुरेवं कथयेत्- 'अत्र भवदुपस्थितिसमया १७० मुनि - हे आयुष्मन् ! हम इस वसतिमें ठहरना चाहते हैं । तुम जितने समय तक ठहरनेकी आज्ञा दोगे, उतने समयसे अधिक नहीं ठहरेंगे । उसमें भी तुम भूमि का जितना भाग हमें ठहरनेके लिए देना चाहो, उतना ही हमारे लिए पर्याप्त है। गृहस्थ पूछे कि - हे मुनिराज ! आप कितने समय तक ठहरना चाहते है ? | तब मुनि - ऋतुबद्ध शेषकाल हो तो 'एक मासके कल्पमें जब तक अवसर होगा तब तक रहेंगे' ऐसा, यदि चातुर्मास हो तो 'चार मास ठहरनेका हमारा कल्प है' ऐसा कहे । यदि साधुका कल्प-काल सुनकर गृहस्थ कहे कि मैं तो थोड़ेही दिन यहाँ रहँगा फिर ग्रामान्तर जाऊँगा, तो साधुको कहना चाहिए कि- "जब तक तुम यहाँ रहोगे तब तक ही भुनि-डे आयुष्मन् ! सभे या वसति ( भान-स्थान ) भां છીએ. તમે જેટલા સમય સુધી રહેવાની આજ્ઞા આપશે, તેટલા સમય રહીશું નહિ. તેમાં પણ તમે ભૂમિને જેટલે ભાગ અમને આપવા ઇચ્છે તેટલે જ અમારે માટે પર્યાપ્ત (પૂરત) છે. रहेवा रछी भे સમયથી વધારે રહેવાને માટે ગૃહસ્થ હે મુનિરાજ ! આપ કેટલા સમય સુધી રહેવા ઇચ્છે છે ? ત્યારે મુનિ—ઋતુબદ્ધ શેષકાળ હેાય તે એક માસના ૪૫માં જ્યાં સુધી અવસર હશે ત્યાં સુધી રહીશું? એમ કહે, અથવા જો ચાતુર્માસ હોય તેચાર માસ રહેવાને અમારે કલ્પ છે એમ કહે. જે સાધુના કલ્પકાળ સાંભળીને ગૃહસ્થ કહે કે હું તે થોડા જ દિવસ અહીં રહીશ તે સાધુએ કહેલું જોઈએ કે જ્યાં સુધી તમે અહીં રહેશે ત્યાં સુધી જ અમે રહીશું; તમે જશેા . Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ अध्ययन ३ गा. ५ शय्यातरगृहे कल्प्याकल्प्यविधिः वधिरेव कालो मया क्षपणीयः, तदनन्तरमिमां वसतिं परिहास्यामीति । पुनः सागारिकेण-'कियन्तः साधवो भवन्तः ?' इति पृष्टः साधुरभिदधीतसमुद्रतरङ्गवत् साधूनामियत्तावधारणं कः कुर्यात् , यतः कियन्तो गच्छन्ति, कियन्तश्चागच्छन्ति, ये चागमिष्यन्ति तेऽप्यत्रावस्थानं करिष्यन्ति । इत्यं सागारिकाज्ञामादाय तदीयनामगोत्रे विज्ञायोपाश्रये साधुस्तिष्ठेत् । गोचरी गन्तुमुद्यतो भिक्षुः शय्यातरनामगोत्रे अविज्ञाय भिक्षार्थ न पर्यटेत् । कल्प्याकल्प्यविधिः । शय्यातरगृहे साधोरकल्प्यानि कथ्यन्ते, यथाहम ठहरेंगे, तुम्हारे जाने पर इस वसतिको छोड़ देंगे।" यदि गृहस्थ पूछे कि-'आप कितने साधु हैं?' तो साधु उत्तर देवें कि-'समुद्रके तरङ्गोंकी तरह साधुओंकी मर्यादा नहीं है ।क्योंकि कितने ही साधु आते हैं और कितनेही चले जाते हैं, जो आगे वे भी यहीं ठहरेंगे। इस प्रकार गृहस्थकी आज्ञा लेकर, उसका नाम और गोत्र जानकर साधुको ठहरना चाहिए। जबतक साधुको शय्यातरका नाम और गोत्र न मालूम हो जावे तब तक भिक्षाके लिए न जाये। कल्प्याकल्प्य-विधि । निम्नलिखित वस्तुएँ शय्यातरके घरकी कल्पनीय नहीं हैंત્યારે આ સ્થાનને અમે છેડી દઈશું.’ જે ગૃહસ્થ પૂછે કે “આપ કેટલા સાધુઓ છે?” તે સાધુ ઉત્તર આપે કે“સમુદ્રના તરંગની પેઠે સાધુઓની મર્યાદા નથી, કેમકે કેટલાય સાધુઓ આવે છે અને કેટલાય ચાલ્યા જાય છે, જેમાં આવશે તેઓ પણ અહીં જ રહેશે.” એ પ્રમાણે ગૃહસ્થની આજ્ઞા લઈને, એનું નામ અને ગાત્ર જાણને સાધુએ રહેવું જોઈએ. જ્યાં સુધી શાતરનું નામ અને ગોત્ર સાધુના જાણવામાં ન આવે ત્યાં સુધી ભિક્ષા માટે જાય નહિ. કયાકપ્યવિધિ નીચે લખેલી વસ્તુઓ શય્યાતરના ઘરની સાધુને કહ્યું નહિ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ श्रीदशकालिकमरे (१) अशनम् , (२) पानम् , (३) खाधम् , (४) स्वाघम् , (५) वस्त्रम् , (६) पात्रम् , (७) कम्बलः, (८) रजोहरणम् , (९) दोरकम् , (१०) सूची, (११) कर्तरी, (१२) छुरिका, (१३) नखहरणी, (१४) कर्णशोधनी (कानखुचरनी), (१५) दन्तशोधनी (दांतखुचरनी), (१६) कण्टकोद्धारणी (कांटाकाड़नीचीपिया) (१७) कण्टकः कण्टकोद्धारणीपात्रश्च (कण्टककुत्थलिका), (१८) औषधम् , (१९) भैपज्यम् , (२०) शतपाकसहस्रपाकादितलम् ,(२१)पात्ररञ्जनद्रव्यम् (रोगान सपेदा आदि), (२२) पात्रादी रन्ध्रकरणाशुपयोगी शस्त्रविशेषः (सियार, रेती, इत्यादि), (२३) करगलम् , (२४) लेखनी, (२५) मसी, (२६) मसीपात्रम् , (२७) हिङ्गुलम् , (२८) खटिका, (खड़ी), इत्यादीनि । अथ शय्यातरगृहे साधोरुपादेयानि (कल्प्यानि) निर्दिश्यन्ते (१) अशन, (२) पान, (३) खाद्य, (४) स्वाद्य, (५) वस्त्र, (६) पात्र, (७) कम्बल, (८) रजोहरण, (९) डोरा, (१०) सुई, (११) कैंची, (१२) चाकू, (१३) नखहरणी (नहरनी), (१४) कर्णशोधनी (कानकुचरनी), (१५) दन्तशोधनी (दांतकुचरनी), (१६) चौंपिया, (१७) कांटे और कांट की कोथली, (१८) औषध, (१९) भेपज, (२०) शतपाक-सहस्रपाक आदि तेल (२१) पात्र रंगनेके लिए रोगन, सुपेता आदि, (२२) पात्रमें छेद आदि करनेके काममें आनेवाले यार, रेती आदि ओजार, (२३) कागज, (२४) लेखनी, (२५) स्याही, (२६) हिंगलु, (२७) खड़ी इत्यादि । निम्नलिखित वस्तुएँ शय्यातरके घरसे साधुको कल्पनीय हैं (१) मशन, (२) पान, (3) माध, (४)पाध, (५) पत्र (6) पात्र, (७) sivil (e) २९], (E) , (१०) सोय, (११) तर, (१२) , (१३) नम तार पानी नेरी, (१४) ४ान-पोतरी, (१५) दांत-मोती , (१६) यापाया, (१७) sil sil यमी, (१८) मोस, (१८) सेप, (२०) शता -सहપાક આદિ તેલ, (૨૧) પાત્ર રંગવા માટેને રેગાન સફેતે વગેર, (૨૨) પાત્રમાં છિદ્ર આદિ કરવાના કામમાં આવવાના સારડી, રેતી વગેરે જાર, (૨૩) કાગળ, (२४) वेमय, (२५) शाही, (२६) हो , (२७) मी, त्यादि. નીચે લખેલી વસ્તુઓ શય્યાતરના ઘરની સાધુને કપે-- Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ अध्ययन ३ गा. ५ शय्यातरगृहे कल्प्याकल्प्यविधिः (१) वणम् , (२) लोष्टम् , (३) शिलापट्टकः (पेपणी), (४) शिलापुत्रकः, (४) भस्म, (६) पापाणखण्डम् , (७) इष्टका, (८) धूलिः, (९) पीठम् , (१०) फलकम् (आसनविशेपः), (११) शय्या (शरीरप्रमाणा), (१२) संस्तारकम् (सार्द्धद्वयहस्तप्रमाण आसनविशेषः), (१३) गोमयम् , (१४) सोपधिकशिष्यः, (१५) स्वाध्यायाद्यर्थ मातिहारिकं (पडिहारी) पुस्तकम् , इत्यादीनि । इदमप्यनुसन्धेयम्यस्योपाश्रयस्य स्वामिने निवासशुल्कं दत्त्वा गृहस्थो निवासार्थ साधु निमन्त्रयेत् स उपाश्रयः साधोरकल्प्य इति । उपाश्रयस्यानेकस्वामिनि सति कश्चिदेक एव शय्यातरत्वेन स्थापनीयः, न तु सर्वेऽपि । एतादृशशय्यातरस्य पिण्डे चत्वारो भङ्गा भवन्ति, यथा (१) एकत्र रन्धनम् , एकत्र भोजनम् , तिनका, (२) पत्थर, (३) शिला, (४) लोदी, (५) राख, (६) पत्थरकाटुकड़ा, (७) ईट, (८) धूल, (९) छोटा बाजोट, (१०) फलक (आसन), (११) शय्या (शरीरप्रमाण), (१२) संस्तारक (ढाइ हाथका आसन), (१३) गोयर, (१४) उपधि-सहित शिष्य, (१५) स्वाध्याय आदिके लिए •पडिहारी (चापस दी जानेवाली) पुस्तक आदि । ____ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि-जिस उपाश्रयको भाडेपर साधुके लिए खरीदा हो वह उपाश्रय साधुको कल्पनीय नहीं है। उपाश्रयके अनेक स्वामी हों तो उनमेंसे एक शय्यातर होता है। ऐसे शय्यातरके पिण्डमें चार भंग होते हैं। वे इस प्रकार(१) उसी घरमें बनाना उसी घरमें जीमना। (1) तमj, (२) ५.५२, (३) शिक्षा, (४) डोटी, (५) २१, (6) पत्थरने। १४, ' (७), (C) धूम, (6) नाना मा४6, (१०) ३०४ (मासन), (११) शय्या (शरीरप्रमाणना), (१२) संता (मढी थर्नु मासन), (१३) छा], (१४) पधि. સહિત શિષ્ય, (૧૫) સ્વાધ્યાય આદિને માટે પડિહારી (પાછી આપી દેવાય તેવી) પુસ્તક આદિ. એ પણ યાદ રાખવું જોઈએ કે જે ઉપાશ્રય સાધુને માટે ભાડે રાખે હોય તે ઉપાશ્રય સાધુને કપે નહિ. ઉપાશ્રયના અનેક સ્વામીઓ હોય છે તેમાંથી એક શાતર થાય છે. એવા શય્યાતરના પિંડમાં ચાર પાંગા હોય છે, તે આ પ્રમાણે-(૧) એજ ઘરમાં Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ श्रीदशवकालिकमरे D (२) एकत्र रन्धनम् , अन्यत्र गेहादी भोजनम् । (३) पृथक्-पृथय रन्धनम् , एकत्र भोजनम् । (४) पृथक् पृथग् धनम् , पृथक्-पृथग भोजनम् । तत्र द्वितीयचतुर्थभङ्गी साधोः कल्प्यो । द्वितीयभड़े एकत्र रन्यनेऽपि पवाद शय्यातरेतरांशस्य पृथकारे शय्यातरमात्रांशं विहायाऽन्येपां पिण्ड उपादेयः, तत्र तदानीं शय्यातरस्वत्वापगमात् । चतुर्थकल्पे तु पिण्ढे शय्यातरांशलेशसंसर्गशङ्कापि नास्ति । शय्यातरस्वत्वापगम एवोपादेयताहेतुरिति निष्कर्पः । एवं प्रोपितभर्तृकासु अनेकास सपत्नीप्वेकैच काचित् शय्यातरा कर्तव्या। (२) उसी घरमें बनाना दूसरे-दूसरे घरमें जीमना । (३) दूसरे-दूसरे घरमें घनाना उसी घरमें जीमना । (४) दूसरे-दूसरे घरमें बनाना और दूसरे-दूसरे घरमें जीमना ! इन चार भंगोंमेंसे दूसरा और चौथा भंग साधुको कल्पनीय है। दूसरे भंगमें एकत्र रन्धन होने पर भी शय्यातरसे भिन्न मनुप्यके अंशके अलग होजाने पर शय्यातरका भाग छोड़कर अन्यका पिण्ड कल्पनीय है, क्योंकि वहाँ शय्यातरका स्वामित्व नहीं रहता। चौथे भंगमें तो शय्यातरके स्वत्वके संसर्गकी तनिक भी आशंका नहीं है। तात्पर्य यह है कि जहां शय्यातरका स्वत्व (हक) नहीं रहता वही वस्तु साधुको ग्राह्य होती है। . ___ इसी प्रकार यदि एक शय्यातरकी अनेक पत्नियाँ हों और वह ભોજન બનાવવું અને એજ ઘરમાં જમવું. (૨) એ ઘરમાં ભેજન બનાવવું અને બીજા ઘરમાં જમવું. (૩) બીજા–બીજા ઘરમાં બનાવવું અને એ ઘરમાં જમવું. (૪) બીજા–બીજા ઘરમાં બનાવવું અને બીજા–બીજા ઘરમાં જમવું આ ચાર ભાગમાંથી બીજા અને ચોથા ભાગે સાધુને કપે છે. બીજા ભાંગામાં એકત્ર રસોઈ થતી હોય તે પણ શય્યાતરથી ભિન્ન મનુષ્યનો ભાગ જુદો થઈ જતાં શય્યાતરને ભાગ છોડીને અન્યને પિંડ કપે છે, કારણ કે ત્યાં શાતરનું સ્વામિત્વ રહેતું નથી. ચોથા ભાંગામાં તે શય્યાતરના સ્વત્વના સંસર્ગની જરા પણ આશંકા નથી. તાત્પર્ય એ છે કે જેમાં શય્યાતરનું સ્વત્વ રહેતું નથી, તે વસ્તુ સાધુને માટે ગ્રાહ્ય બને છે. *એજ રીતે જે એક શય્યાતરની અનેક પત્નીઓ હેય અને એ (શાતર) Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ - - - - - अध्ययन ३ गा. ५ शय्यातराहारविवेकः चत्वारो भङ्गा अत्रापि पूर्ववदेव । __अमोपितभञकासु तु यया निष्पादितमन्नादिकं नियतं शय्यातरो भुङ्क्ते सैव शय्यातरा, यधनियतं भुङ्क्ते तदा सर्वा अपि शय्यातरा मन्तव्याः, पूर्वोक्ततृतीयभङ्गेऽयं विशेषो योद्धव्या-यदा पृथक् पृथग् रन्धनं कृतम् , एकत्र कृत्वा भुक्तं च तदाऽवशिष्टमन्नादिकं विभज्य यदि स्व-स्वगृह नयेत् तादृशं शय्यातरस्वत्वविरहितमन्नादिकं साधोः कल्प्यमेवेति । एकत्रीकृतमविभक्तं चेन्न कल्प्यमिति तदाशयः । (शय्यातर) परदेश चला गया हो तो उनमें किसी एकको ही शय्यातर बनाना चाहिए। पहलेकी नाई यहां भी चार भंग समझना चाहिए। उनका पति परदेशन गया हो तो वह जिस पत्नीके यहां नियमित रूपसे जीमता हो वही शय्यातर होती है। __यदि नियमित रूपसे न जीमता हो-कभी कहीं कभी कहीं जीमता हो तो सभीको शय्यातर मानना चाहिए। पहलेके चार भंगोंमेंसे तीसरे भंगमें इतना विशेष समझना चाहिएयदि अलग अलग भोजन बनाया गया हो और एकत्र करके जीमा हो तोयचे हुए अन्न आदिको घाँट लेने पर साधु शय्यातरसे अन्यका आहार आदि ले सकते हैं, क्योंकि उसमेंसे शय्यातरका हिस्सा अलग निकल चुका है । हां इकट्ठा कर लिया हो और पांटा न हो तो साधुको कल्पપરદેશ ચાલ્યા ગયા હોય તે તે પત્નીઓમાંથી કઈ એકને જ શાતર બનાવવી જોઈએ. પહેલાંની પેઠે એમાં પણ ચાર ભાંગા સમજવા જોઈએ. એને પતિ પરદેશ ન ગયે હોય તે તે જે પત્નીને ત્યાં નિયમિત રીતે જ જમતું હોય તે શાતર બને છે. જે નિયમિત રીતે ન જમતે હોય અને કેઈવાર એકને ત્યાં અને કોઈવાર બીજીને ત્યાં જમતે હિય તે બધી પત્નીઓને શય્યાતર માનવી જોઈએ. પહેલાંના ચાર ભાગમાંના ત્રીજા ભાગમાં એટલું વિશેષ સમજવું કે જુદું જુદું ભોજન બનાવ્યું હોય અને એકત્ર કરીને જમતા હોય તે વધેલા અન્નાદિને વહેંચી લીધા પછી સાધુ શય્યાતરથી જુદા આહાર આદિ લઈ શકે છે, કારણ કે એમાંથી શય્યાતરને ભાગ જૂઠે કાઢવામાં આવી ચૂક્યા હોય છે. હા, એકઠું કરેલું હોય અને વહેંચ્યું ન હોય તે સાધુને કપે નહિ. કોઈ શા Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ श्रीदशवकालिकसूत्रे कोऽपि शय्यातरो देशान्तरं मस्थितः स्वग्रहाद्यहिर्गस्या कुत्रचित् तिष्ठेद , तत्र यदि गृहादन्यस्थानाद्वाऽशनपानादिकं तदर्यमानीतम् , अथवा बहिप्रदेश एव निष्पादितं चेत् तदा तदशनादिकं साधोरकल्प्यम् , रात्रिवासाथै बहिर्गतस्य साधोस्तु पुनः कल्प्यमेव । यदि शय्यातरोऽन्यदीयगृहेऽन्यदीयमन्नादिकं परिवेपयेत् , तत्रापि शय्यातरेण दीयमानमन्यदीयमप्यशन-पानादिकं साधोरकल्प्यम् । साधोभिक्षादाने शय्यातरस्य सहगमनरूपनिमित्तत्वे सति तत्र भिक्षाग्रहणमकल्प्यम् । ग्रामावहिरपि शय्यातरीयगोशालादिसत्त्वे तदीयदुग्धादिकं साधोरकल्प्यम् । नीय नहीं है। कोई शय्यातर परदेश जा रहा हो, और घरसे निकलकर कहीं बाहर ठहर गया हो, तो भी उसका अन्न-पान ग्राह्य नहीं है, भलेही वह अन्न-पान घरसे उसके लिए लाया गया हो या अन्य स्थानसे लाया गया हो अथवा वहीं पर तैयार किया गया हो । यदि रात्रिमें निवास करनेके लिए साधु बाहर चला गया हो तो कल्पनीय है। शय्यातर, दूसरे गृहस्थके यहां उसी दूसरे गृहस्थका अन्नादि परोस रहा हो तो भी उसके हाथसे दिया हुआ आहार कल्पनीय नहीं है। यदि किसी भिक्षाकी प्राप्तिमें शय्यातर निमित्त हो अर्थात् दलाली करें तो वह भिक्षा भी साधुको ग्राह्य नहीं है। गांवसे बाहर शय्यातरकी गोशाला आदि हो तो वहांका दृध आदि भी साधुको ग्राह्य नहीं है। તર પરદેશ જઈ રહ્યો હોય અને ઘરમાંથી નીકળીને કયાંક બહાર રહ્યો હોય તે પણ એનું અન્ન-પાન ગ્રાહ્ય બનતું નથી, પછી ભલે એ અન્ન-પાને ઘેરથી એને માટે લાવવામાં આવ્યું હોય અથવા અન્ય સ્થાનથી લાવવામાં આવ્યું હોય, ચા ત્યાંજ તૈયાર બનાવવામાં આવ્યું હોય. જે રાત્રે નિવાસ કરવાને માટે સાધુ બહાર ચાલ્યા ગયા હોય તે કરે છે - શય્યાતર, બીજા ગૃહસ્થને ત્યાં એ બીજા ગૃહસ્થનાં અન્નાદિ પીરસે તે પણ એના હાથથી અપાતો આહાર કરે નહિ જે કઈ ભિક્ષાને પ્રાપ્તિમાં શય્યાતર નિમિત્ત હોય અથતું દલાલી કરે તે એ ભિક્ષા પણ સાધુને ગ્રાહ્ય થતી નથી. ગામની બહાર શય્યાતરની શાળા આદિ હોય તે ત્યાંનું દૂધ વગેરે પણ સાધુને ગ્રાહ્ય બને નહિ. Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा. ५ शय्यातराहारविवेकः • १७७ शय्यारगृहे भोक्ता भृत्यादिरपि शय्यातरः । शय्यातरस्य स्वसा दुहिता च तस्मिन् दिवसे पुनरागमनमनिविश्य भर्त्तृकुलादागच्छेत्, तदा साऽपि शय्यातरा । . यदि तस्मिन्नहनि भर्तृकुलं पुनर्गन्तुकामा शय्यातरगृहमागता चेट् सा शय्यातरगृहे एव शय्यारत्वमुपयाति अन्यगृहे तु न तस्याः शय्यातरत्वमिति बोध्यम् । उपाश्रयस्वामिनि देशान्तरस्थे सति उपाश्रयसंरक्षकादाज्ञामादाय यत्र साधुस्तिष्ठेत् तत्रोपाrयस्वामिनि समागते साधुना शय्यातरत्वं स्वामिन्येव कल्पनीयम्, न संरक्षके । शय्यातरदत्तमन्येन स्वीकृतमप्यशनादिकं शय्यातरगृहे साधोरकल्प्यम्, व्यवहारशुद्धयादिदोषात् । arath घर जीनेवाले नोकर-चाकर भी शय्यातर हैं। शय्यातरकी बहिन या बेटी उस दिन वापस लौटने का निश्चय न करके अपनी ससुराल आई हो तो वह भी शय्यार है, यदि वापस लोटनेका विचार करके आई हो तो वह शय्यातरके घर में ही शय्यातर है, दुसके घरमें नहीं, अर्थात् दूसरेके घरमें दूसरेका आहारादि यदि वह परोसे तो साधु ले सकते हैं । जब उपाश्रयका स्वामी परदेशमें रहता हो और उपाश्रयके रखवाले से आज्ञा लेकर साधु उसमें ठहरें तो जब उपाश्रयका स्वामी आजावे . तब वही शय्यातर होता है, रखवाला नहीं । शय्यारने अशन आदिक दूसरे को दे दिया और दूसरेने चाहे उसे स्वीकार भी कर लिया हो तो भी शय्यातर के घर पर साधु को वह लेना नहीं ખ્યાતરના ઘેર જમનારા નેકર-ચાકર પણ શય્યાતા છે, શય્યાતરની મહેન ય પુત્રી એ દિવસે પાછાં જવાને નિશ્ચય ર્માં વિના પેાતાને સાસરેથી આવી હાય તે તે પણ શય્યાતર છે. જે પાછાં જવાને વિચાર કરીને ાવી હેાય ત શાતરના ઘરમાં જ તે શય્યાતર છે, ખીન્તના ઘરમાં નહિ, અર્થાત્ ખીન્દ્રના ઘરમાં બીજાને આહારદિ જે તે પીરસે તે સાધુ લઈ શકે છે. જો ઉપાથયને સ્વામી પરદેશમાં રહેતે હાય અને ઉપાશ્રયના રખેવાળની આજ્ઞા લઈને સાધુ તેમાં રહે તે જ્યારે ઉપાશ્રયના સ્વામી આવી જાય ત્યારે તે શખ્યાતર અને છે, રખેવાળ નિહ. શખ્યાતરે અશનાદિ ખાને આપી દીધુ હોય અને બીજાએ ભલે એને સ્વીકારી પણ લીધુ હાય, તેા પણ શય્યાતરને ઘેર સાધુએ તે લેવું જોઇએ નહિં, Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ श्रीदशवेकालिकस तथा शय्यातरेण दत्तमन्येनास्वीकृतमनादिकं शय्यारगृहाद् बहिरपि साधोरकल्प्यम्, तत्र शय्यातरस्त्रत्वापगमाभावात् । शय्यातरगृहाद्वहिरन्येन स्त्रीकृतं चेत् तदा साधोः कल्प्यमेत्र तत्र शय्यातरस्वत्वापगमादिति बोध्यम् । शय्यातरगृहाद्वाहिस्तेन ( शय्यातरेण) दत्तमन्येनाऽस्त्रीकृतं चेत् तत्राऽस्त्रीकृताशनपानादेः स्वीकारार्थे 'गृह्यतामिद ' - मित्यादिपररूपा प्रवर्तनाऽपि साधोरकल्पया । शय्यातर पिण्डग्रहणादिदोपशङ्कासंभवात् । चाहिए, क्योंकि स्वीकार कर लेनेसे शय्यातरका स्वामित्व तो नहीं रहा पर यहां व्यवहारसे अशुद्धि है । यदि शय्यातरद्वारा दिये हुए अन्नादिको अन्य गृहस्थ न स्वीकार करे तो शय्यातरके घरमें या घर से बाहर कहीं भी साधुको नहीं ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि उस आहारादिमें शय्यातरका स्वत्व रहता है। शय्यातर के घर से बाहर दूसरेने स्वीकार कर लिया हो तो साधुको कल्पनीय है, क्योंकि उसपर शय्यातरका स्वत्व नहीं रहा । शय्यातरके घरसे बाहर शय्यातरने किसी दूसरेको दिया हो और दूसरेने स्वीकार न किया हो तो उस अशनादिके स्वीकार करानेके लिए 'तुम ले लो' इत्यादिरूपसे गृहस्थको प्रेरणा करना भी साधुका कल्प नहीं है, क्योंकि उसमें शय्यातरका पिण्ड लेने आदि अनेक दोषोंकी शंका होती है । કારણ કે સ્વીકારી લેવાથી શખ્યાતરનું સ્થામિત્વ તે રહ્યું નહિં, પણ તેમાં વ્યવ હારથી અશુદ્ધિ રહેલી છે. ને શય્યાતરે આપેલું અન્નાદિ અન્ય ગૃહસ્થ ન સ્વીકારે તે શય્યાતરના ઘરમાં ચા ઘરહાર કર્યાંય પણ તે સાધુએ ગ્રહણ કરવું જોઇએ નહિ, કારણ કે તે આહ્વા રાદિમાં શય્યાતરનું સ્વત્વ રહેલુ હેાય છે. શય્યાતરના ઘરથી બહાર ખીજાએ સ્વીકારી લીધુ હૈાય તે તે સાધુને પે, કેમકે તે ઉપર શય્યાતરનું સ્વત્વ રહેતુ નથી. શય્યાતરના ઘરની બહાર શય્યાતરે કેઈ બીજાને આપ્યુ હાય અને ખીજાએ સ્વીકાર્યુ” ન હોય તે તે અશનાદિના સ્વીકાર કરાવવાને માટે તમે લઈ લ્યે’ ઇત્યાદિરૂપે ગૃહસ્થને પ્રેરણા કરવી એ પણ સાધુને કલ્પે નહિ, કારણ કે તેમાં શય્યાતરના પિંડ લેવા વગેરે અનેક દાષાની શકા રહે છે. Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -अध्ययन ३.गा. ५ शय्यातरपिण्डग्रहणे दोपाः . . . . . .- - अथ शय्यातरपिण्डग्रहणे दोषाः पदयन्ते-~-~. (१) वसतिदौलभ्यम् , वसतिस्वामिनो गृहेऽशनपानादिग्रहणनियमे स्वकीयानादिव्ययमालोच्य स्त्रोपाश्रयनिवासार्थमाज्ञां साधवे न कोऽपि दद्यात् , इत्याशयः। (२) प्रवचनलाघवम् ; (३) स्वासस्थान एव भिक्षालामसंभावनया परिभ्रमणालस्ये संजाते कदाचित् शय्यातरगृहे आहारायलाभेऽकालभिक्षाचर्यामसङ्गः, वेलातिक्रमे सति आरौद्रध्यानप्रसङ्गः, स्वाध्यायान्तरायः, आत्मश्लान्तिथ, शय्यातरका पिण्ड ग्रहण करनेमें दोप बतलाते हैं (१) शय्यातरका पिण्ड ग्रहण किया जाय तो वसति मिलना दुर्लभ (मुस्किल) हो जायगा। गृहस्थ यह विचारेंगे कि इन्हें स्थान देनेसे अन्नपान आदि भी देना पड़ेगा। ऐसा सोचकर गृहस्थ अपने स्थानमें रहने लिए साधुओंको स्थान नहीं देगा। (२) प्रवचनका लाघव होगा। . (३) अपने निवासस्थान पर ही भिक्षा मिल जानेकी संभावनासे साधु भ्रमण करनेमें आलस्य करेंगे, और जय शय्यातरके घर पर आहार नहीं मिलेगा तो अकाल-(असमय) में गोचरी करनेका प्रसंग होगा। और असमयमें भिक्षा न मिलनेसे आतं-रौद्र ध्यान होंगे, स्वाध्याय आदिमें अन्तराय पड़ेगा, और आत्माको खेद होगा। શય્યાતરને પિંડ ગ્રહણ કરવામાં રહેલા દેશે બતાવે છે – (૧) શય્યાતરને પિંડ ગ્રહણ કરવામાં આવે તે વસતિ (રહેવાનું સ્થાન) મળવું દુર્લભ (મુશ્કેલ બની જાય. ગૃહસ્થ એમ વિચારશે કે એમને સ્થાન આપવાથી અન્ન-પાન આદિ પણ દેવાં પશે. એમ વિચારીને ગૃહસ્થ પિતાના સ્થાનમાં રહેવાને માટે સાધુઓને સ્થાન આપશે નહિ. (२) अपयननु दायर यथे. (૩) પિતાના નિવાસસ્થાન પર જ ભિક્ષા મળી જવાની સંભાવનાથી સાધુ ભ્રમણ કરવામાં આળસ કરશે, અને જે શય્યાતરના ઘેરથી આહાર નહિ મળે તે અકાલે (અસમયે) ગોચરી કરવાને પ્રસંગ આવશે, અને અકાલે ભિક્ષા ન મળવાથી આરોદ્ર ધ્યાન થશે, સ્વાધ્યાયાદિમાં અંતરાય પડશે અને આત્માને मेह थशे. Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० (४) तीर्थङ्करानाभोऽपीत्यादयो दोषाः प्रसज्जन्ते, (२३), इति शय्यातरविचार: । श्रीदशवेकालिकसूत्रे आसन्दी = वेत्रासनं, खद्दिका च (२४), पर्य्यङ्कः=मञ्चविशेषः, स एव पर्यङ्ककः स्वार्थे कः । चकाराच्छिविका दोला-ताम्रयानादिग्रहणम् (२५), गृहान्तरनिपञ्चा=गृहं गृहिनिकेतनं तस्याऽन्तरम् = अभ्यन्तरं मध्यमिति यावत्, तस्मिन् निपधा = निपदनम् उपवेशन मित्यर्थः, यद्यपि व्याकरणादौ निपीदन्त्यस्या' मिति विगृद्य 'निपधा = आपणः' इत्युक्तं तथाप्यत्र शास्त्रसङ्केतितत्वाtaaradोऽयं निपधाशब्दः (२६), गात्रस्य - शरीरस्य उद्वर्त्तनानि=मलापनयनद्रव्येण समालेपनानि 'उबटन' इतिलोकप्रसिद्धानि, चकारादन्येषामपि शरीरसम्बन्धिनां संस्काराणां ग्रहणं बोद्धव्यम् (२७), ry चारित्रघातादयो दोपाः सुस्पष्टा एव ॥ ५ ॥ ५ ॥ (४) इसके सिवाय तीर्थंकर भगवानने शय्यातर पिण्डको अकल्पनीय बताया है, इसलिए उनकी आज्ञाका भंग होगा, इत्यादि अनेक दोष आते हैं । इति शय्यातर- विचार समाप्त | (२४) आसन्दी - बेतकी बनी हुई छिद्रवाली कुर्सी पर बैठना । (२५) पर्यङ्क-एक प्रकारका पलंग, पालखी, डोला, तामजाम आदिका ग्रहण करना । (२६) गृहान्तरनिषद्या - गृहस्थके घरमें बैठना । (२७) गात्रोद्वर्त्तन - शरीर पर उबटन आदि करना ||५|| (૪) એ ઉપરાંત તીર્થંકર ભગવાને શય્યાતર પિંડને અકલ્પનીય અતાન્યા છે, તે માટે એમની આજ્ઞાના ભંગ થશે, ઇત્યાદિ અનેક દોષો ઉત્પન્ન થાય છે. ઇતિ શય્યાતર-વિચાર સમાસ, (૨૪) આસની—નેતરની બનાવેલી છિદ્રવાળી ખુરશી પર બેસવું (२५) पर्य- अमरनो पलंग, पालथी, डिडोणो, भ्यानो (२९) गृहान्तरनिवद्या - गृहस्थना धरमां मेसयुं. (२७) गात्रोद्वर्तन-शरीर पर सुगंधी पदार्थो योजना. (4) Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ 33 32 अध्ययन ३ गा. ६ (५२) अनाचीर्णानि १८१ मलम्-गिहिणो वेयावडियं, जाइयाजीववत्तिया । तत्तानिव्वुडभोइत्तं, आउरस्सरणाणि य ॥६॥ छाया-गृहिणो चैयारत्यं, जात्याजीवत्तिता (आजीववर्तिता) ___ तप्तानिवृतभोजित्व,-मातुरस्मरणानि च ॥ ६ ॥ सान्वयार्थः-(२८)गिहिणो गृहस्थकी वेयावडियं चैयावच्च करना, (२९) जाइया-जातिसे-अपनी ऊंची जाति बताकर आजीववत्तिया जीविकानिर्वाह करना, (३०) तत्तानिव्वुडभोइत्तं अग्निमें सिर्फ तपाया हुआ किन्तु शस्त्रसे अपरिणत-मिश्र भोजन करना, य और (३१) आउरस्सरणाणिबीमार होनेपर पूर्वमुक्त वस्तुका स्मरण करना ॥६॥ टीका-गृहिणः गृहस्थस्य, वैयारत्त्य गृहस्थायान्नाऽऽनयनप्रदानादि-लक्षणशुश्रूपाकरणम् (२८), जात्या 'अहमेतादृशजातिविशिष्टः' इत्याद्याघोपणेन, उपलक्षणमिदं कुलादीनामपि, आजीवत्तिता-आजीवे जीविकायां वृत्तिः स्थितिर्यस्य तद्भावः, यद्वा 'आजीववर्तिता' इतिच्छाया, आजीवे जीविकायां वर्तितुं शीलं यस्यासौ आजीववर्ती तस्य भाव इति तदर्थः (२९), तप्तानिवृतभोजित्वं तप्तं वहिनोप्णीकृतं च तत् अनिवृतं शस्त्रापरिणतं तप्तानिवृतम् अर्द्धपक्कमिति भावस्तद्भोक्तुं शीलमस्य तत्त्रम् , मिश्रान्नादिसेवनमित्यर्थः(३०) आतुरस्मरणम्-आतुराः रोगादिग्रस्तास्तेपां स्मरणं तत्कर्तृकपूर्वोपभुक्त(२८) गृहस्थकी वैयावृत्य (सेवा-शुश्रूपा) करना। (२९) अपनी जाति या कुल आदि बताकर भिक्षा लेना। (३०) आधा पका आधा कच्चा अर्थात् मिश्र अन्न-पानी आदि लेना। (३१) रोग आदिकी अवस्थामें पहले सेवन किये हुए विपयोंका (२८) स्थनी वैयाकृत्य (सेवा-शुश्रया) ४२वी. (२८) पानी ति या गुण मतावान मिक्षा देवी. (૩૦) અધપાકાં-અધકાચાં અર્થાત્ મિશ્ર અન્નપાણી આદિ લેવાં. (૩૧) રેગાદિની અવસ્થામાં પહેલાં સેવેલાં વિષયેનું સ્મરણ કરવું અર્થાત Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १८२ श्रीदवकालिकसत्रे वस्तुस्मरणमिति फलितम्, यद्वा आतुरशन्दोऽत्र भावप्रधाननिर्देशस्तथाचाऽऽतुरस्खे स्मरणमिति समासः, रोगाघवस्थायां पूर्वाऽनुभूतवस्तुस्मरणमित्यर्थः (३१)। चकार इडापि समुच्चयार्थकः । अत्रासंयमादयो दोपा जायन्ते ॥६॥ मूलम्-मूलए सिंगवेरे य, उच्छृखंडे अनिव्वुडे । कंदै मूले य सञ्चित्ते, फले वीए य आमए ॥७॥ छायाः-मूलकं शृङ्गबेरं च, इक्षुखण्डमनिर्वृतम् । कन्दो मूलं च सचित्तं, फल वीजं चामकम् ॥७॥ सान्वयार्थः-य-और (३२) मृलए मृला (३३) सिंगवेरे-अदरख (३४) उच्छुखंडे गन्ना (सेलडी) अनिव्वुडे-शस्त्रसे अपरिणत (३५) कंदे-कन्द यऔर (३६) मूले-शिफा (तथा) सचित्ते सचित्त (३७) फले-फल य और आमए सचित्त (३८) बीए-बीज । भावार्थ-इनके सेवनसे अनन्तकाय आदि वनस्पतिकायकी विराधना होती है ॥७॥ टीका-मूलकं प्रसिद्धम् (३२), शृङ्गय शृङ्गवढेरं शरीरं यस्य तद् आद्रकमित्यर्थः (३३), च-तथा इक्षुखण्डम् इक्षुशकलम् , एतत्रयम् अनिवृतं--शस्त्रापरिणतम् (३४) कन्दा शूरणादिः (३५), मूलं शिफा (३६), च-पुनः, सचित्त-सजीवम् , स्मरण करना अर्थात् बीमारीमें हाय! हाय! करना ॥६॥ (३२) सचित्त मूलाका सेवन करना। (३३) सचित्त अदरख (आदा) का सेवन करना। (३४) सचित्त इक्षुखण्डका सेवन करना। (३५) सचित्त शरण आदि कन्दोंका सेवन करना। (३६) सचित्त मूलका सेवन करना। (भाशमा 'डाय! हाय!' ४२वी. (6) (३२) सथित भूभानु सेवन ४२. (33) सथित्त मानु सेवन २j. (३४) सथित 28 पतीi-४४i-तु सेवन ४२. (३५) सथित्त सू२३ माहिहार्नु सेवन ४२. (३६) सायत्त भूगर्नु सेवन ४२पुं. Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ अध्ययन ३ गा. ७-८ (६२) अनाचीर्णानि फलं-कर्कटी-त्रपुपादिकम्(३७),च-तथा बीजं-तिलादि, आमकम्-सचित्तम्(३८), अत्रानन्तकायादिविराधनादिदोपा जायन्ते ॥ ७॥ मूलम्-सोवच्चले सिंधवे लोणे, रुमालोणे य आमए । सामुद्दे पंसुखारे य, कालालोणे य आमए ॥८॥ छायाः-सौवर्चलं सैन्धवो लवणो, रुमालवणश्यामकः । सामुद्रः पांशुक्षारश्च, काललवणश्वामकः ॥ ८॥ सान्वयार्थः-आमए सचित (३९) सोवचले सौवर्चल-संचरनमक (४०) सिंधवे लोणे सैन्धव-सींधानमक (४१) रुमालोणे रुमानदीसे निकला हुआ नमक (४२) सामुद्दे समुद्री नमक य और (४३) पंसुखारे ऊपर नमक य% और आमए-सचित्त (४४) कालालोणे-काला नमक । भावार्थ-उल्लिखित नमकोंका सेवन करनेसे पृथ्वीकाय आदिकी विराधना होती है ॥ ८ ॥ टीका-सुवर्चले देशविशेपे भवः सौवर्चला रुचकलवणः (३९), सिन्धुनापलक्षितदेशीयपर्वते भवः सैन्धवः, लघण: लुनाति-छिनत्ति दूरयति कफादिकमिति लवणः, इदं सौवर्चलादेविशेषणपदम् (४०), च-तथा, रुमालवणः रुमा-विशिष्टलवणाकरभूता काचिन्नदी तस्या लवणः, आमका सचित्तः, अस्य पूर्वाः सर्वत्र सम्बन्धः (४१), (३७) सचित्त ककड़ी खीरा आदि फलोंका सेवन करना। (३८) सचित्त बीजका-तिल आदिका सेवन करना ॥७॥ (३९) सचित्त रुचक (सौवर्चल सोंचर) नमकका सेवन करना । (४०) सचित्त सैन्धव (सेंधा) नमकका सेवन करना । (४१) सचित्त रुमा (नदीविशेपके) नमकका सेवन करना। (૩૭) સચિત્ત કાકડી ખીરા આદિ ફલેનું સેવન કરવું. (३८) सथित मी त माहितुं वन ४२. (७) (36) सथित्त ३५ सूर (सौवर्थ-संय)नु सेवन ४२j. (४०) सथित्त सिंघासून सेवन ४२पुं. (४१) सथित्त ३मा (नहीविशेषमाथी नाणेसा) भानु सेवन ४२. Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिको सामुद्रासमुद्रोत्थलवणः (४२), पांशुक्षा ऊपरलवणः (४३), च-तथा काललवणः कृष्णलवणः 'विइलवण' इतिमसिद्धः (४४), आमका-सचित्तः, 'आमक' इत्यस्योत्तरा, सर्वत्र सम्बन्धः । अत्र पृथ्वी कायविराधनादयो दोपा भवन्ति ॥ ८॥ . . ४५ ४५ मलम-धुवणेत्ति वमणे य, वत्थीकम्म-विरेयणे। अंजणे दंतवण्णे य, गायभंगविभूसणे ॥९॥ छाया:-धूपनमिति चमनं च, वस्तिकर्म विरेचनम् ।। अञ्जनं दन्तवर्णश्च, गात्राभ्यङ्ग-विभूपणे ॥९॥ सान्चयार्थ:-(४५) धुचणेत्ति-रोग मिटाने आदिके लिए किसी स्थानमें धूप देना, (४६) वमणे प्रयत्नपूर्वक वमन करना, (४७) वत्थीकम्म-वस्तीकम करना, य और (४८) विरेयणे-विरेच-जुलाब लेना, (४९) अंजणे अंजनसुरमा आदि आंजना, (५०) दंतवण्णे-दातून मसी आदिसे दाँत साफ करना, (५१-५२) गायब्भंगविभूसणे-शरीरको तैल आदिसे मालिश करना (५१) तथा वस्त्र आदिसे भूपित करना (५२) ॥९॥ टीका-धूपनं रोगायुपशान्तिनिमित्तं स्थानकादिषु धूपदानम् , सौगन्योत्पत्तिनिमित्तमंशुकादीनां धूपादिना वासनश्च (४५), (४२) सचित्त समुद्री नमकका सेवन करना। (४३) सचित्त ऊपर नमकका सेवन करना। (४४) सचित्त काले नमकका सेवन करना ॥८॥ . (४५) रोग आदिकी शान्ति अथवा सुगंधिके लिए स्थानक या वस्त्र आदिमें धूप देना। (૪૨) સચિત્ત સમુદ્રના લૂણનું સેવન કરવું. (४३) सथित्त अ५२ टूए (मास) सेवन २j. (४४) सथित्त on भीk सपन ४२. (८) (૪૫) ગાદિની શક્તિ અથવા સુગંધિને માટે સ્થાનક યા વસ્ત્રાદિને ધૂપ કર. Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- अध्ययन ३ गा. ९ (५२) अनाचीर्णानि १८५ वमन-वमिजनकभेपजादिप्रयोगेण वान्तिकरणम् (४६), वस्तिकम वसतः तिष्ठतः, मृत्रपुरीपावत्रेति, वस्ते आच्छादयति मूत्राऽऽशयपुटमिति वा वस्तिः नाभेरधोभागः, तस्याः कर्म-तच्छोधनव्यापारो वस्तिफर्म=मलादिशोधनार्थमपानादिमागें वर्तिकादिप्रवेशनम् , अपानमार्गेण जलकर्षणं वेत्यर्थः (४७), विरेचनम्-कोष्ठशुद्धचर्य स्वर्णमुख्यादिविरेचनसेवनम् (४८) अञ्जनं शोभावशीकरणाद्यथै नयनयोः कन्जल-सौवीरादिदानम् (४९), दन्तवर्णः-वर्णनं-वर्णः, दन्तानां वर्णः=उज्ज्वलीकरणं दन्तवर्णः अङ्गुली-दन्तशाण(मसी)काप्ठादिभिर्दन्तघर्पणम् (५०)।। ___गात्राभ्यङ्ग-विभूपणे अभ्यङ्गश्च विभूपणं चेत्यनयोरितरेतरयोगद्वन्द्व इत्यभ्यङ्गविभूषणे, गात्रस्य अभ्यङ्ग-विभूषणे गात्राभ्यङ्गविभूपणे, 'द्वन्द्वान्ते बन्दादौ वा श्रूयमाणं पदं प्रत्येकमभिसम्बध्यते' इतिन्यायाद् गात्रशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धस्तत्र गात्राभ्यङ्गा=गात्रस्य शरीरस्य अभ्यङ्गः शतपाक-सहस्रपाकादितैलादिनाऽभ्यञ्जनं मर्दनमिति यावत् (५१), गात्रविभूपणं वस्त्रालङ्करणादिना शरीरपरिष्करणम् (५२), १ चौरादिकाद्वर्णयतेर्भावे घञ् । (४६) दवाई लेकर चमन करना। (४७) मल आदिके शोधनके लिए बस्तिकर्म करना । (४८) कोठेकी शुद्धिके लिए सनाय आदिका जुलाय लेना। (४९) नेत्रों में कजल आदि लगाना। (५०) मिस्सी आदि लगाकर दांत रंगना । (५१) शतपाक, सहस्रपाक आदि तेलसे शरीरकी मालिश करना। (५२) शरीरका वस्त्र आभूपणोंसे मण्डन करना। (४९) या धन वमन ४२j. (४७) मताहिना धिन माटे स्तिभ ४२. (૪૮) ઉદરની શુદ્ધિને માટે સેનામુખી આદિને જુલાબ લે. • (४६) मोमi aru (मेश) Airg. (५०) भस्सी पगेरे गाडीने हातवा (૫૧) શતપાક, સહસ્ત્રપાક આદિ તેલથી શરીરને મર્દન કરવું. (५२) शरी२र्नु भन ४२j (शाला) Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकमले १८६ धूपनादिनाऽनिकायमभृतिविराधनादिदोपा जायन्ते ९ ॥ सम्प्रत्युपसंहरबाह- सब्वमेय ' इत्यादि ।। मूलम्-सबमेयमणाइन्न, निग्गंथाण महेसिणं। संजमंमि अ जुत्ताणं, लहुभूयविहारिणं ॥१०॥ छाया:-सर्वमेतदनाचीर्ण, निग्रन्थानां महीणाम् । संयमे च युक्तानां लघुभूतविहारिणाम् ॥ १० ॥ सान्वयार्थः-निग्गंधाण परिग्रहरहित महेसिणं महपियोंके संजमंमिसंयममें जुत्ताण लगेहुए और लहुभ्यविहारिणं वायुके समान अमवित्रन्धविहार करनेवालोंके एयं-ये-पूर्वोक्त वावन सव्वं सब अणाइन्नं अनाचार्गह। भावार्थ-निर्ग्रन्थ महर्षियोंने पूर्वोक्त इन बावन विषयोंका आचरण नही किया, अतः ये अनाचीर्ण कहलाते हैं। साधुओंको इनका आचरण नहीं करना चाहिये ॥१०॥ टीका--ग्रन्थानिर्गता निर्ग्रन्धानक-रजतादिद्रव्यग्रन्थि-मिथ्यात्वादिभावग्रन्थिरहितास्तेपाम् , महर्षीणाम् महान्तश्च ते कृपयामहर्पयस्तेषाम् , यद्वा मटैपिणा' मिति छाया, महो-निजहितं तम् एपयन्तिबगवेपयन्तीति मह पिणस्तेपाम् । संयमे सकलसावधव्यापारोपरमलक्षणे युक्तानां व्यापूतानां दत्तचित्तानामित्ययः, _इन धूप आदिसे अग्निकाय आदि जीवोंकी विराधना आदि दोष होते हैं ॥१॥ अव उपसंहार करते हैं-'सबमेयः' इत्यादि। घाद्याभ्यन्तर परिग्रहकी अधिसे रहित, अपने हितका अन्वेषण करनेवाले महर्षि तीन करण तीन योगसे सावध व्यापारके त्यागरूप એ ધૂપ આદિથી શિકાય આદિ ની વિરાધના આદિ દેય લાગે છે (૯), 8 GUAR ४२ छ:--सबमेय. त्यादि. બાહાલ્યુતર પરિગ્રહની ગ્રંથિથી રહિત, પિતાના હિતનું અન્વેષણ કરનારા મહર્ષિઓએ ત્રણ કરશું ત્રણ ગથી સાવધ વ્યાપારને ત્યજવા રૂપ સકળ સંયમથી mar Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा. १०-११ अनाचीर्णत्यागिमुनिस्वरूपम् १८७ च = पुनः लघुभूतविहारिणाम् = लघुभूतो = वायुस्तद्वदमतिबद्धं विहरन्ति तच्छीलास्तेपां वायुवदप्रतिबन्धविहारिणामित्यर्थः । एतत् = पूर्वोक्तं स द्विपञ्चाशत्मकारकम् अनाचीर्णम्=अनासेवितम् अनाचीर्णम् = अनासेवितम् ' अस्ती 'ति शेषः ॥ १० ॥ १० ॥ अनाचीर्णत्यागिनो मुनयः कोदृशा भवन्ति ? - इत्याह 1 २ 3 * मूलम् - पंचासत्रपरिन्नाया, तिगुत्ता छ संजया । ५ 6 ू पंचनिग्गहणा धीरा, निग्गंथा उज्जुदंसिणो ॥११॥ छाया:- पञ्चाभूवपरिज्ञाता, त्रिगुप्ताः पसु संयताः । पञ्चनिग्रहणा धीरा, निर्ग्रन्था ऋजुदर्शिनः ॥ ११ ॥ सान्वयार्थ :- पंचासवपरिन्नाया=पांच आस्त्रयों के त्यागी, तिगुत्ता=मनोगुप्ति १ वचनगुप्ति २ कायगुप्ति ३ से युक्त, छ=छह कायमें संजया-संयमवान्, पंचनिग्गहणा=पांच इन्द्रियोंके निग्रह करनेवाले धीरा परीपह उपसर्ग सहनेमें धीर निग्गंधा=मुनि उज्जुदंसिणो = मोक्षमार्गके आराधक होते हैं । भावार्थ- जो अनाचीणका त्याग करते हैं वे गाथोक्तविशेषणों से विशिष्ट होते हैं ॥। ११ ॥ टीका - पञ्चापरिज्ञाताः =आस्रवति= आक्षरति मिथ्यात्वादिनालिकाभ्यः कर्मसलिलमात्मasia यैस्ते आस्वा हिंसादयः, पञ्च च त आस्रवायेति पञ्चास्रवाः सकल संयमसे युक्त और चायुकी तरह अप्रतिबन्ध विहार करनेवाले मुनिराजों के ये पूर्वोक्त बावन अनाचीर्ण हैं ॥१०॥ अनाचीणका त्याग करनेवाले मुनि कैसे होते हैं ? सो कहते हैं'पंचासत्र०' इत्यादि । , जिनके द्वारा आत्मारूपी तालाव में मिथ्यात्वादिरूप नालाओंसे कर्मरूपी जल आता है उन्हें आस्रव कहते हैं । वे आस्रव मिथ्यात्व યુક્ત અને વણુની પેઠે અતિબંધ વિહાર કરનારા મુનિરાજોના એ પૂકિત ભાવન અનાચીણું છે. અનાચીનિ ત્યાગ કરનારા મુનિએ કેવા હેાય છે? તે કહે છે पंचासव० छत्याहि જેની દ્વારા આત્મારૂપી તળાવમાં મિથ્યાદિ-રૂપ નાળાથી કમરૂપી જળ આવે છે તેને આસવ કહે છે. એ આસ્રવે મિથ્યાત્વ અવિરતિ આદિ ભેદ્દે Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ - - - - - - श्रीदशवकालिको धूपनादिनाऽनिकायप्रभृतिविराधनादिदोपा जायन्ते ९ ॥ सम्पत्युपसंहरनाह-'सत्यमेय ' इत्यादि । मूलम्-सवमेयमणाइन्नं, निग्गंथाण महेसिणं । संजमंमि अ जुत्ताणं, लहुभूयविहारिणं ॥१०॥ छायाः-सर्वमेतदनाचीर्ण, निर्ग्रन्थानां महपीणाम् । संयमे च युक्तानां लघुभूतविहारिणाम् ॥ १० ॥ सान्वयार्थ:-निग्गंधाण परिग्रहरहित महेसिणं महर्पियोंके संजमंमिसंयममें जुत्ताणं लगेहुए य=और लहुभूयविहारिणं चायुके समान अपतित्रन्धविहार करनेवालोंके एयं-ये-पूर्वोक्त पावन सव्वंसय अणाइन्नं अनाचीणे है। भावार्थ-निर्ग्रन्थ महर्पियोंने पूर्वोक्त इन बावन विपयोंका आचरण नहीं किया, अतः ये अनाचीर्ण कहलाते हैं। साधुओंको इनका आचरण नहीं करना चाहिये ॥१०॥ ___टीका-ग्रन्थान्निर्गता निर्ग्रन्थाः कनक-रजतादिद्रव्यग्रन्थि-मिथ्यात्वादिभावग्रन्थिरहितास्तेपाम् , महीणाम् महान्तश्च ते ऋपयःमहर्पयस्तेपाम् , यद्वा महैषिणा' मिति च्छाया, महो-निजहितं तम् एपयन्ति गवेपयन्तीति महैपिणस्तेपाम् । संयमे सकलसावधव्यापारोपरमलक्षणे युक्तानां व्यापूतानां दत्तचित्तानामित्यर्थः, इन धूप आदिसे अग्निकाय आदि जीवोंकी विराधना आदि दोष होते हैं ॥२॥ अय उपसंहार करते हैं-'सब्वमेय०' इत्यादि। चाह्याभ्यन्तर परिग्रहकी अन्थिसे रहित, अपने हितका अन्वेषण करनेवाले महर्पि तीन करण तीन योगसे सावद्य व्यापारके त्यागरूप એ ધૂપ આદિથી અગ્નિકાય આદિ ની વિરાધના આદિ દેવ લાગે છે (૯), व पसार ४३ छ:-सव्वमेय. त्याहि. બાહ્યાભ્યતર પરિગ્રહની ગ્રંથિથી રહિત, પિતાના હિતનું અન્વેષણ કરનારા મહર્ષિઓએ ત્રણ કરણ ત્રણ વેગથી સાવદ્ય વ્યાપારને ત્યજવા રૂપ સકળ સંયમથી Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा. १२ अनाचीर्णत्यागिमुनिस्वरूपम् छाया - आतापयन्ति ग्रीष्मेपु, हेमन्तेवमावृताः । वर्षासु प्रतिसंलीनाः संयताः सुसमा ( हिताः )धिकाः ॥ १२ ॥ सान्वयार्थ :- सुसमाहिया - मशस्त समाधिवाले संजया संयमी मुनि गि म्हेसु = ग्रीष्म ऋतु में आयावयंति = आतापना लेते हैं, हेमंतेसु = हेमन्तऋतु में अवाउडा=अल्पवत्र या वखरहित रहते हैं, वासासु =वर्षाऋतु पडिसंलीणा=कछएकी भांति इन्द्रियोंका गोपन करते हैं, अर्थात जिस ऋतुमें जिस प्रकारकी तपस्या से अधिक कायक्लेश होता हो उस ऋतुमें वही तपस्या करते हैं ॥ १२ ॥ टीका - सुसमाधिकाः समाधीयतेऽस्मिन् मनो विवेकिभिरिति समाधिः- मशस्वभावाऽवस्थानम्, सुशोभनः समाधिर्येषां ते तथोक्ताः = विनय - श्रुतादिसमाधिसम्पन्नाः । यद्वा 'सुसमाहिताः' इति च्छाया, 'निरवद्यव्यापारविधानदत्तावधानाः ' इति तदर्थः । संयता = मवचनमननयतनावन्तः मुनयः ग्रीष्मेषु = धर्मर्तृषु आतापथन्ति = ऊर्ध्वाभिमुखावस्थानादिना परितापयन्ति स्वतनुमिति शेषः, आतापनां विदधतीति यावत् । घ्नन्ति = नाशयन्ति शैत्याधिक्येन चित्तसमाधिमिति हेमन्ताः हिमोऽन्तोऽवयवोऽस्त्येपामिति वा पृषोदरादित्वाद् हेमन्तास्तेषु हिमर्चुपु अप्राकृताः= " १८९ १ ( ' हन्तेर्मुट् हि च ' उणादिमू. ३ | १२९ ) इति झच् हन्ते हिरादेशो मुडागमो गुणश्च । जिस अवस्थामें आत्मज्ञानी जन प्रशस्त-भावोंसे रमण करते हैं उसे समाधि कहते हैं । अनाचीर्णोका त्याग करनेवाले साधु उस विनय श्रुत आदि चार प्रकारकी समाधिको प्राप्त करते हैं, अथवा निरवद्य व्यापार करने में सदा सावधान रहते हैं । तथा प्रवचनके मनन करनेमें यत्नवान् रहते हैं । ग्रीष्म ऋतु में सूर्यके सम्मुख मुख करके भुजाएँ फैलाकर आतापना लेते हैं। शीत ऋतुमें घोड़े कपड़े रखते, या कपड़ोंको જે અવસ્થામાં આત્મજ્ઞાની જન પ્રશસ્ત–ભાવાથી રમણ કરે છે તેને સમાધિ કહે છે. અનાચીનિા ત્યાગ કરનારા સાધુએએ વિનય શ્રુત આદિ ચાર પ્રકારની સમાધિને પ્રાપ્ત કરે છે, અથવા નિરવદ્ય વ્યાપાર કરવામાં સદા સાવધાન યત્નવાનું રહે છે. ગ્રીષ્મ ઋતુમાં કરીને આતાપના લે છે. શીત દૂર કરીને ઠંડીની આતાપના લે છે, रहे छे. તથા પ્રવચનનું મનન કરવામાં સૂની સન્મુખ મુખ રાખીને ભુજાઓને પહાળી ઋતુમાં ચેડાં કપડાં રાખીને યા કપડાં Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ श्रीदर्शकालिक • परि=सर्वतोभावेन ज्ञाताः परिज्ञातोऽनर्थमूलमनुभाविताः प्रत्याख्यान परिव्रातो हेयत्वेन परित्यक्ता यैस्ते तथोक्ताः, त्रिगुप्ताः तिष्टभिर्मनोवाक्कायगुप्तिभिर्गुप्ताः, पट्स = पृथिव्यादिकायपट्केषु संयताः = सम्यय् यतनावन्तः- पड्जीवनिकायांपमर्दनविरता इत्यर्थः, पञ्च निग्रहणाः = पञ्च = प्रसंगात् पञ्चेन्द्रियाणि निगृहन्ति-शयन्तीति तथोक्ताः, धीराः = परीपाठोपसर्गादिषु धृतिमन्तः, निर्ग्रन्याः मुनयः, ऋजुदर्शिनः==ऋजु=अत्रक्रम् अकुटिलस्वभावं यथा स्यात्तथा द्रष्टुं शीलं येषां ते तथोक्ताः- सरलहृदया इत्यर्थः यद्वा अर्जते-उपार्जयति=सम्पादयत्यविचलमुखमिति ऋजुः = सम्यग्ररत्नत्रयलक्षणो मोक्षमार्गस्तं पश्यन्ति तच्छीला इति ऋजुदर्शिनः, मोक्षमार्गसाधका इत्यर्थः ॥ ११ ॥ ११ ॥ ܕ ४ 3 ९ मूलम्-आयावयंति गिम्हेसु, हेमंतेसु अाउडा । 19 ૧ वासासु पडिलीणा, संजया सुसमाहिया ||१२|| १ 'पञ्चास्त्रवपरिज्ञाताः ' अत्र आहिताग्न्यादित्वानिष्ठान्तस्य परनिपात: । २ ' पञ्चनिग्रहणाः अत्र नन्यादित्वात्कर्त्तरि ल्युः ॥ अविरति आदि भेदसे पांच प्रकारके हैं। उन आस्रवोंको ज्ञ परिज्ञासे अनथका कारण जानकर प्रत्याख्यान- परिज्ञासे त्यागते हैं । अर्थात् अनाचीर्णोका त्याग करनेवाले पाँच आस्रवोंसे विरत हो जाते हैं, मन वचन कायरूप तीन गुप्तियोंसे युक्त होते हैं, पृथिवी आदि पटकायकी यतन में सावधान रहते हैं, अर्थात् पड्जीवनिकायकी विरोधनासे रहित होते हैं, पांच इन्द्रियों का दमन करते हैं, परीपद और उपसर्ग सहने में दृढ़ ऐसे मुनि, सरल हृदय होते हैं, अथवा अविनाशी सुखको प्राप्त करनेवाले या मोक्षमार्गके साधक होते हैं ॥ ११ ॥ કરીને પાંચ પ્રકારના છે. એ આસવાને જ્ઞરિજ્ઞાથી અનર્થાના કારણરૂપ જાણીને પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞાથી સજે છે; અર્થાત્ અનાચી[ના ત્યાગ કરનારા પાંચ આસવાથી વિરત થઈ જાય છે, મન વચન કાચા-રૂપ ત્રણ સિંએથી યુકત થાય છે, પૃથિવી આદિ છ કાયની યતનામાં સાવધાન રહે છે, અર્થાત્ છ Mαનિકાયની વિાધનાથી રહિત થાય છે, પાંચ ઈંદ્રિયાનું મન કરે છે, પરીષહુ અને ઉપસર્ગ સહેવામાં દૃઢ એવા મુનિએ સરલાદય અને છે, અથવા અવિનાશી સુખને પ્રાપ્ત કરનારા યા માક્ષમાર્ગના સાધક અને છે. (૧૧). Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१ अध्ययन ३ गा. १३-१४ उपसंहारः उपशमं प्रापिताः परीपहरिपको यैस्ते तथोक्ताः, धृतमोहा:-मुह्यति सदसद्विवेकरहितों भवत्यात्माऽनेनेति मोहोऽज्ञानं धृतः समुज्झितो मोहो.. यैस्ते तथोक्ताः, जितेन्द्रिया-जितानि-रागद्वेपवंशात्स्वविषयप्रवृत्त्युपरोधपूर्वकं वशीकृतानि इन्द्रि‘याणि चक्षुरादीनि यैस्ते एवंविधा महर्षयः-मुनयः सर्वदुःखमहीणार्थ='प्रहीण'. मिति सौत्रत्वाद् भावतान्तं गृह्यते, तथा च-सर्वाणि च तानि दुःखानि च सर्वदुःखानि सर्वदुःखानां पहीणं-परित्यागः सर्वदुःखपहीणं, सर्वदुःखमहीणाय इदं सर्वदुःखमहीणार्थम् ‘अर्थेन नित्यसमासो विशेष्यलिङ्गता चेति वक्तव्य '-मिति समासः । यद्वा 'पक्षीणार्थ '-मिति तदर्थः, सर्वदुःखमक्षीणार्थ-शारीरिक-मानसिकनिखिलदुःखविनाशार्थ प्रक्रामन्ति समुद्युञ्जते स्त्रीयां शक्तिं स्फोरयन्तीत्यर्थः॥१३॥ सम्पत्यध्ययनमुपसंहरन्नाह--'दुक्कराई' इत्यादिमूलम्-दुक्कराइं करित्ताणं, दुस्सहाई सहेत्तु य । केइत्थ देवलोएसु, केइ सिज्झंति नीरया ॥१४॥ छायाः-दुष्कराणि कृत्वा, दुस्सहानि सोद्वा च । ___ केचिदत्र देवलोकेपु, केचित् सिध्यन्ति नीरजस्काः ॥ १४ ॥ सान्वयार्थ-दुक्कराई–दुष्कर आतापना आदि करित्ताणं करके यऔर दुस्सहाइंकायर पुरुषोंके असह्य ( परीपह आदि ) सहेत्तु-सह करके केई= १-'निप्ठान्तस्य न पूर्वनिपातः, 'लक्षणहेतोः क्रियायाः' इति मूत्रनिर्देशेन पूर्वनिपातप्रकरणस्याऽनित्यत्वात् । सत्-असत्के बोधसे वंचित करनेवाले मोहको नष्ट कर देते हैं। इन्द्रियोंकी अपने अपने विपयमें जो प्रवृत्ति होती है, उस प्रवृत्तिको रोक कर इन्द्रियोंको वशमें करके जितेन्द्रिय होते हैं, ऐसे महर्पि शारीरिक और मानसिक समस्त प्रकारके समस्त दुःखोंका विनाश करनेके लिए पराक्रम फोड़ते हैं ॥१३॥ સત્ અસના બધાથી વંચિત કરનારા મેહને નષ્ટ કરી નાંખે છે. ઇન્દ્રિયની પિતા પિતાના વિષયમાં જે પ્રવૃત્તિ થાય છે, તે પ્રવૃત્તિને રેકીને ઇન્દ્રિયને વશ રાખીને જિતેન્દ્રિય બને છે, એવા મહર્ષિઓ શારીરિક અને માનસિક બધા પ્રકારનાં બધાં દુકને વિનાશ કરવાને માટે પરાક્રમ કરે છે. (૧૩) Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे. 'अनुदरा कन्ये'-त्यत्रेय नमोऽल्पार्थकत्येन अल्पप्रावरणाः, यद्वामावरणरहिताः, वर्षासुम्पादकाठेपु, प्रतिसंलीनामवदिन्द्रियगोपनतत्परा भवन्तीत्यर्थः । ग्रीप्मादिपु बहुवचनमयोगः प्रतिवत्सरमेवंकरणसंमूचनाय ।। १२ ॥१२॥ मूलम्-परीसहरिउदंता, धूयमोहा जिइंदिया। सवदुक्खप्पहीणटा, पक्कमति महेसिणो ॥१३॥ छाया-परीपहरिपुदान्ता, धूतमोहा जितेन्द्रियाः । सर्वदुःखमहीणार्थ, मनामन्ति महपिणः ॥१३॥ सान्चयार्थ:-परीसहरिउदंता परीपहरूपी शत्रुओंको जीतने वाले धूयमोहामोहममताके त्यागी जिइंदिया-इन्द्रियोंके दमन करनेवाले महेसिणो-महपिमुनिराज सव्वदुक्खप्पहीणहा-समस्त दुःखों के नाशके लिए पक्कमंति शक्ति फोडते हैं-उद्योग करते हैं ॥ १३ ॥ टीका-' परीसह०' इत्यादि । परीपहरिपुदान्ताः-परीपहा: क्षुधा-पिपासादय एव रिपत्रः शत्रवः पराभवकारित्वात् परीपहरिपा, दान्ता अन्तर्भावितण्यर्थतया दमिता निगृहीता दूर कर शीतकी आतापना लेते हैं, वर्षा ऋतुमें कछुवेकी तरह इन्द्रियोंका गोपन करने में तत्पर होते हैं। ग्रीष्म, हेमन्त, और वर्षा-शब्द गाथामें बहुवचनान्त है, इससे यह आशय निकलता है कि प्रत्येक वर्षकी ऋतुओंमें ऐसा करते हैं ॥१२॥ 'परीसहः' इत्यादि। क्षुधा-पिपासा प्रभृति परीपहरूपी शत्रुओंको पराजित करते हैं। વર્ષગાતુમાં કાચબાની પેઠે ઈન્દ્રિયનું ગેપન કરવામાં તત્પર રહે છે. ગ્રીષ્મ, હેમા અને વર્ષો શબ્દ ગાથામાં બહુવચનાન્ત છે, તેથી એ આશય નીકળે છે કે પ્રત્યેક વર્ષની તુમાં એમ કરે છે (૧૨). परीसह. त्या. लूम, तरस, त्या परी५९-३थी शत्रुभाने पलित ४३ छे. Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ गा. १५ अध्ययनपरिसमाप्ति १९३ ": छाया-क्षपयित्वा पूर्वकर्माणि, संयमेन तपसा च । ' सिद्धिमार्गमनुप्राप्ताः-स्वायिणः परिनिर्वृताः ॥१५॥ इति ब्रवीमि । सान्वयार्थः-सिद्धिमग्गमणुप्पत्ता-मोक्षमार्गमें प्राप्त हुए ताइणो-पट्कायके रक्षक (मुनि) संजमेण संयमके द्वारा य और तवेण-तपके द्वारा पुवकम्माई-पहले बंधे हुए कर्मोंको खवित्ता खपा करके परिनिव्वुडे मुक्त होते हैं। त्ति वेमि-पूर्ववत् ॥ १५॥ इति तृतीयाध्ययनस्य सान्वयार्थः । ____टीका-सिद्धिः अविचलसुखनिप्पत्तिस्तस्या मार्गः=उपायो ज्ञानादिः सिद्धिमार्गस्तम् अनुमाप्ताः अनुगताः, त्रायिणः-पड्जीवनिकायत्राणपरायणान्तःकरणाः संयमेन सावधव्यापारविरतिलक्षणेन सप्तदशविधेन, च-तथा तपसा ऊनोदरतादिरूपेण द्वादशविधेन तपश्चरणेन पूर्वकर्माणि माग्भवोपार्जितज्ञानावरणीयाद्यष्ट. जो मुनि कर्म बाकी रहेनेसे देवलोकमें जाते हैं, वे भी देवलोकसम्बन्धी आयुष्यको भोग कर, वहांसे चव कर आर्य क्षेत्रमें मनुष्यजाति, और सुकुलमें जन्म लेकर उसी भवमें सिद्धि प्राप्त करते हैं । इसी विषयको सूत्रकार आगेकी गाथामें कहते हैं-"खवित्ता०" इत्यादि । __ वे मुनि, मोक्षमार्गमें प्राप्त होकर सर्वसावद्यव्यापारके त्यागरूप सत्रह प्रकारके संयमसे, तथा अनशन ऊनोदर आदि बारह प्रकारके तपसे, पहले भवोंमें यांधे हुए ज्ञानवरण आदि आठ प्रकारके समस्त જે મુનિ, કમ બાકી રહેવાને લીધે દેવલોકમાં જાય છે, તેઓ પણ દેવલોકસંબંધી આયુષ્યને ભેળવીને, ત્યાંથી ચવીને આર્યક્ષેત્રમાં મનુષ્યજાતિ અને સુકુળમાં જન્મ લઈને એજ ભવમાં સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરે છે. આ વિષયને સૂત્રકાર मानी गाथामा ४९ छे-खवित्ता त्याहि. તે મુનિ, મે-માર્ગમાં પ્રવેશ કરીને સર્વસાવધ-વ્યાપારના ત્યાગરૂપ સત્તર પ્રકારના સંયમથી, તથા અનશન ઊભરી આદિ બાર પ્રકારના તપથી પહેલાંના ભવેમાં બાંધેલાં જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ પ્રકારના બધાં કર્મોને નાશ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :१९२ श्रीदशवकालिको फोई-कोई देवलोएसु-स्वोंमें (उत्पन्न होते ), केई-कोई-कोई नीरया-कर्मरजसे रहित-मुक्त होकर अत्य-इसी भवमें सिज्मंति-सिद्ध होजाते -मोक्ष चले जाते है॥१४॥ टीका-दुःखेन कर्नु योग्यानि दुष्कराणि-आचरितमशक्यानि कष्टसाध्यान्यातापनादीनि कृत्वा-विधाय, च-तथा दुःसहानि-मातरचित्तः सोडुमशक्यानि परीपहोपसर्गादीनि सोहा संसद्य केचिदम्मुनयः आशिष्टकर्माणः देवलोकेषुसौधर्मादिसरलोकेषु 'यान्तीति शेपः, केचित् कतिपये नीरजस्काः कर्मरजोविनिमुक्ताः अत्र अत्रैव भवे सिध्यन्ति-सिद्धा भवन्ति, शिवपदमासादयन्तीत्यर्थः । अत्र टीकान्तरेपु-'अ' त्यस्य 'देवलोकेषु' इत्यनेन सहान्वयकरणं सर्वथा प्रमादविजृम्भितम् ॥ १४ ॥ १४ ॥१४॥ कर्मावशेषेण ये मुनयो देवलोकं गच्छन्ति ते तत्र देवायुष्कमुपभुज्य ततश्च्युता आर्यक्षेत्रे मनुष्यजाती मुकुले च समुत्पद्य तद्भवमोक्षगामिनो भवन्तीति दर्शयितुमाह-'खवित्ता' इत्यादिमूलम्-खवित्ता पुवकम्माई, संजमेण तवेण य । सिद्धिमग्गमणुप्पत्ता, तायिणो परिनिव्वुडे ॥१५॥त्ति चेमि॥ उपसंहार करते हुए कहते हैं- 'दुकराई' इत्यादि । पूर्वोक्त गुणोंसे विशिष्ट मुनि दुष्कर आतापना आदि क्रियाओंका आचरण करके, तथा कायर पुरुष जिन्हें सहन नहीं कर सकते एस परीपह और उपसर्गोको सह कर अवशिष्ट-कर्मवाले कोई मुनि सोधम आदि देवलोकमें जाते हैं। जो कर्मरजसे सर्वथा मुक्त होजाते हैं वे इसी मनुष्य-भवमें सिद्धिपदको प्राप्त करते हैं। दूसरे टीकाकारोंने 'अत्र' शब्दको देवलोकके साथ जोड़ा है वह ठीक नहीं है, 'अन' शब्दका अर्थ-यहाँ-"इसी भव" ऐसा है ॥१४॥ व पसार २ai 3 छः दुकराई. त्याह. પૂર્વોકત ગુણોથી વિશિષ્ટ મુનિ દુષ્કર આતાપના આદિ ક્રિયાઓનું આચરણ કરીને તથા કાયર પુરૂષે જે સહન કરી શકતા નથી એવા પરીષહ અને ઉપસર્ગો સહીને અવશિષ્ટ કર્મવાળા કઈ મુનિ સૌધર્મ આદિ દેવલેકમાં જાય છે જેને કર્મરજથી સર્વથા મુકત થઈ જાય છે તેઓ આ મનુષ્યભવમાં સિદ્ધિપદને પ્રાપ્ત કરે છે. બીજા ટીકાકાએ ગત્ર શબ્દને દેવલોક સામે જોડે છે તે બરાબર નથી. अत्र शहने अर्थ मा ' भा' मेवो. (१४). Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सृ. १ मवचनस्याप्तोपदिष्टत्वम् १९५ ॥ अथ चतुर्थाध्ययनम् ॥ गतं तृतीयाध्ययनं सम्प्रति चतुर्थमारभ्यते - पूर्वाध्ययने 'अनाचीर्णानि विहायाऽऽचारे धृतिः संधार्या संयमिने ' त्युकम्, आचारथ पडूविधजीवानां यथावस्थितस्वरूपमवबुध्य तत्संरक्षण पुरस्सरं भवत्यतोऽत्र पड्जीवनिकायानामाऽध्ययने तत्स्वरूपं तत्संरक्षणोपायं च प्रतिपादयिष्यन् मवचनस्याऽऽप्तोप दिएवं प्रदर्शयति- 'सुयं मे' इत्यादि, मूलम् - सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं - इह खलु छज्जीवणियानामज्झयणं, समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया सुअक्खाया सुपन्नत्ता सेयं मे अहिजिउं अज्झयणं धम्मपन्नत्ती ॥१॥ चौथा अध्ययन | अब चौथा अध्ययन कहते हैं तीसरे अध्ययनमें यह प्रतिपादन किया है कि महापुरुषों को अनाचीर्णो का त्याग करके, आचार - ( संयम ) - में दृढता रखनी चाहिए । आचारमें दृढता तब ही होती है जब पट्काय के जीवोंका वास्तविक स्वरूप जानकर उनकी रक्षा की जाय, इसलिए इस 'पड्जीवनिकाय' नामक अध्ययनमें पड्जीवनिकायका स्वरूप और उसकी रक्षाका उपाय बताते हुए 'यह प्रवचन आप्त- ( भगवान्) - द्वारा उपदिष्ट है' इस बातको कहते हैं- 'सुयं मे० ' इत्यादि । અધ્યયન ૪ શું. હવે ચેથું અધ્યયન કહે છે:— ત્રીજા અધ્યયનમાં એમ પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે કે-મહાપુરૂષોએ અનાચીનિા ત્યાગ કરીને આચાર ( સંયમ )માં દૃઢતા રાખવી જોઇએ. આચારમાં દૃઢતા ત્યારે જ આવે છે કે જ્યારે વાયના જીવેનું વાસ્તવિક સ્વરૂપ જાણીને તેમની રક્ષા કરવામાં આવે; તેટલા માટે આ ‘ષĐવનિકાય’ યનમાં છ−કાયનું સ્વરૂપ અને તેની રક્ષાના यास (भगवान्) द्वारा उहिष्ट छे' से वातने हे छे सुयं मे० નામના અધ્ય ઉપાયે બતાવતાં , ८ આ પ્રવચન त्याहि. Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - १९४ श्रीदशकालिको विधकर्माणि क्षपयित्वा क्षयं नीत्वा परिनिर्वता:-परि सर्वतोमावेन निता:फर्मजनित-सन्तापरादित्येन शीतलीभूताः 'भवन्ती'-ति शेपः, सिध्यन्तीत्यर्थः । इति ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ १५ ॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगहल्लभ-मसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषा-कलिव-ललितकलापाऽऽलापक-प्रविशुद्ध-गद्य-पद्य-नैकग्रन्यनिर्मापक-वादिमानमर्दकश्रीशाहूछत्रपति-कोल्हापुरराजमदत्त-जैनशास्त्राचार्य-पद-भूपितकोल्हापुरराजगुरु-बालब्राह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकरपूज्य श्रीघासीलालबविविरचितायां श्रीदशवकालिकसूत्रस्याऽऽचारमणिमजूपाख्यायां व्याख्यायां तृतीय 'क्षुल्लकाचारकथा'ऽऽख्यमध्ययनं समाप्तम् ॥ ३॥ कोको नाश करके सर्वथा मुक्त हो जाते हैं-कर्मजन्य संतापसे रहित होकर परमशीतलीभूत होते हैं अर्थात् सिद्ध हो जाते हैं। श्रीसुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामीसे कहते हैं-हे जम्बू ! तीसरे अध्य. यनका जैसा भाव भगवानने फरमाया है, वैसा ही तुमसे कहताहूँ॥१५॥ इति "क्षुल्लकाचारकथा" नामक तीसरे अध्ययनका हिन्दीभापानुवाद समाप्त ॥३॥ - કરીને સર્વથા મુક્ત થઈ જાય છે-કર્મજન્ય સંતાપથી રહિત થઈને પરમશીતલીભૂત થાય છે, અર્થાત્ સિદ્ધ થઈ જાય છે. સુધમાં સ્વામી જંબૂ સ્વામીને કહે છે- જંબૂ ! ત્રીજા અધ્યયનને જે ભાવ ભગવાને ફરમાવે છે તે હું તને કહું છું. (૧૫) ઈતિ “ક્ષુલ્લકાચારકથા' નામક ત્રીજા અધ્યયનનું गुजराती-पानुवाद समाप्त. (3) Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ मू. १ भगवच्छब्दार्थः १९७ गुरुमाराध्य शिक्षा लब्धवतः शिप्यस्य शास्त्राध्ययनं सफलीभवतीति घोतितम् । ____ अथवा 'आउसंतेणं' इत्यस्य 'आवसता' इति संस्कृतम् , तस्यापि 'मये'त्यनेनैव सम्बन्धः, आङ् प्राग्वन्मर्यादार्थकस्तथाच-आ-शिष्योचितमर्यादया वसता भगवदन्तिके निवासं कुर्वता मयेत्यर्थः । अनेन शिष्यस्य गुरुकुलनिवासः सूचितः। ___ भगवता भगः-ज्ञानं सकलपदार्थविपयकम् (१), माहात्म्यम् अनुपममहनीयमहिमसम्पन्नत्वम् (२), यशः विविधानुकूलपतिकूलपरीपहोपसर्गसहनसमुदभूता जगद्रक्षणप्रज्ञासमुत्था वा कीर्तिः (३), वैराग्यम्-क्रोधादिकपायनिग्रहलक्षणम् (४) मुक्तिः सकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्षः (५), रूपम्-मुरासुरनरहृदयहारि सौन्दर्यम् (६) वीर्यम् अन्तरायान्तजन्यमनन्तसामयम् (७), श्रीः-घातिककर्म'गुरुकी सेवा करके सीखनेसे ही शास्त्रका अध्ययन सफल होता है। यह सूचित होता है (२), 'आवसता ऐसी भी छाया होती है, अर्थात् शिष्यके योग्य मर्यादा-पूर्वक भगवानके समीप रहनेवाले मैंने (सुना), इस पदसे गुरुकुलमें निवास करना सूचित किया है। - यहां 'भग' शब्दके दश अर्थ हैं-(१) समस्त पदार्थोंको विपय करनेवाला ज्ञान, (२) अनुपम-महिमा, (३) विविध प्रकारके अनुकूल और प्रतिकूल परीपहोंको सहन करनेसे उत्पन्न होनेवाली या संसारकी रक्षा करनेवाले अलौकिक ज्ञानसे उत्पन्न होनेवाली कीर्ति, (४) क्रोध आदि कपायोंका सर्वथा निग्रहरूप वैराग्य, (५) समस्त कर्मोंका क्षयस्वरूप मोक्ष, (६) सुर-असुर और नरोंके अन्तःकरणको हर लेनेवाला सौन्दर्य, સેવા કરીને શીખવાથી જ શાસ્ત્રનું અધ્યયન સફળ થાય છે એ સૂચિત થાય છે (૨), ચાવતા એવી પણ છાયા થાય છે. અર્થાત્ શિષ્યને એગ્ય મર્યાદાપૂર્વક ભગવાનની સમીપે રહેનારા એવા મેં સાંભળ્યું), એ પદથી ગુરૂકુળમાં નિવાસ કરવાનું સૂચન કરેલું છે. मी 'भग' शहना इस मर्थ छ (१) मधा पहानि विषय ४२वापाणु ज्ञान, (२) अनुपम-भडिमा, (3) विविध प्राना मनु मने प्रति પરીષહેને સહન કરવાથી ઉત્પન્ન થનારી અથવા જગતની રક્ષા કરનારા અલોકિક જ્ઞાનથી ઉત્પન થનારી કીર્તિ, (૪) ક્રોધ આદિ કષાયેના સર્વથા નિગ્રહરૂપ વૈરાગ્ય, (૫) બધાં કર્મોના ક્ષય-સ્વરૂપ મેક્ષ, (૬) સુર અસુર અને નરેના અંત:કરણને હરનારું સૌંદર્ય, (૭) અંતરાય કર્મના નાશથી ઉત્પન્ન થનારું Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ঋীক্ষাধিক __ छाया-श्रुतं मया आयुष्मन् ! तेन भगवता एवमाख्यातम्-इह खलु पड्नीवनिकायानामाध्ययन, श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन प्रवेदिता स्वाख्याता सुप्रज्ञप्ता, श्रेयो मेऽध्येतुमध्ययन धर्ममाप्तिः ॥२॥ सान्वयार्थ:-आउसं हे आयुप्मन् शिष्य! तेणं-उस भगवया-भगवानने एवं ऐसा अक्वायं कहा है, मेमने सु ना है, हहन्यहां इस प्रवचनमें खलु निश्चय करके छजीवणियानामज्नयण-पहनीवनिकाय नामका अध्ययन है, (वह) समणेणं-अमण भगवया भगवान् कासवेणं कश्यपगोत्रीय महावीरेणं-महावीरने पवेड्याप्रवेदित की है, सुअक्खाया सम्यक् प्रकारसे कही है, सुपन्नत्ता-सम्पक्तया बताई है। धम्मपन्नत्तीधर्ममनसि (नामक यह ) अजम यणं अध्ययन मेन्मुझे अहिन्जि-पहनेको सेयं कल्याणकारी है। अयोत् भगवान महावीर द्वारा मरूपित इस अध्ययनका अध्ययन करना मुझे कल्याणकारी है ॥१॥ टीका-एति गच्छतीत्यायुः संयमलक्षणं नीरुनं दीर्घ वा जीवितमस्यास्तीत्यायुष्मान तत्सम्बुद्धौ हे आयुष्मन् ! गुणवच्छिप्यामन्त्रणमेतत् । अनेन धर्माचरणे भाधान्येनायुपोऽपेक्षा विद्यते इति मुचितम् । तेन लोकत्रयसिद्धेन, यद्वा 'आउसंतेणं' इत्येकपदस्य 'आजुपमाणेन' इति संस्कृतं तस्य मयेत्यनेन सम्बन्धः, तथा च-आडिति मर्यादायाम् , आ-शास्त्रश्रवणमर्यादया जुपमा णेन शुरून् सेवमानेन मयेत्यर्थः । विधिमन्तरेण हि श्रवणे शास्त्ररहस्यं श्रोतुरधोमुखकुम्भस्येव न किञ्चिदप्यन्तः प्रविशति । 'आजुपमाणेने'-ति विशेषणेन हे आयुष्मन् ! अर्थात् संयमरूपी-जीवनवाले ! नीरोग-जीवनवाले। या दीर्घजीवी !, इस सम्बोधनसे धर्मके आचरणमें आयुष्यकी प्रधानता सूचित की है (१), अथवा 'आउसंतेणं' यह एक पद है, इसकी छाया 'आजुपमाणेन' होती है, अर्थात् गुरुकी सेवा करनेवाले मैंने, इस पदसे मायुम्मन् ! अर्थात सयभ--३पी-पन-पा! नीशजी-वन-unt યા દીર્ઘજીવી !, આ સંબંધનથી ધર્મના આચરણમાં આયુષ્યની પ્રધાનતા सयित ४री छ (१), मया आउसंतेणं से २४ ५६, मेनी छाया आजुपमाणेन એ પ્રમાણે થાય છે; અથત ગુરૂની સેવા કરનારા એવા મેં, આ પદથી “ગુરૂની Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - अध्ययन ४ मु. १ महावीरशब्दार्थः १९९ ___'सा च पड्जीवनिकाया' इत्यध्याहियते उत्तरवाक्याऽऽकामोत्थानाय, श्रम नाम्यति-तपस्यतीति श्रमणस्तेन सार्द्धद्वादशवर्षाणि घोरतपश्चरणाच्छ्रमण इति प्रसिद्धिं लब्धपता, भगवता, काश्यपेन कश्यपगोत्रोत्पन्नेन महावीरेण= वीरयति-पराक्रमते मोक्षानुष्ठाने इति वीरः' , यद्वा वि-विशेषेण ईरयति गमयति मापयति मोक्षं मतिं भव्यजनानिति, वि-विशेषेण ईर्ते गच्छति क्षपिताखिलकर्मा मोक्षमिति, वि-विशेषेण ईरयति कम्पयति कपायादिपरिपन्थिन इति, वि-विशेपेण ईस्यति-प्रक्षिपति घनघातिकर्मपटलमवकरनिकरमिवेति, वि-विशेषेण ईरयति-भेरयति प्रवर्तयति संयमाघनुष्ठाने प्राणिन इति वा वीरः, महाँचासौ वीरथ महावीरस्तेन श्रीवर्द्धमानस्वामिनेत्यर्थः । प्रवेदिता-प्रकर्पण सकलमाणिगगस्य स्वस्त्रमापापरिणमनरूपेण यथावस्थितार्थद्वारेण च वेदिता केवलाऽऽलोकेन १ 'वीर विक्रान्ती' अस्मात्पचायच् । २ 'ईर गतौ कम्पने च' इत्यादादिकात् 'ईर क्षेपे' इति चौरादिकाचधातोः पचायच् । साढे बारह वर्ष तक घोर तपश्चरण करनेके कारण श्रमण नामसे प्रसिद्ध काश्यप गोत्र में उत्पन्न होनेवाले भगवान महावीरने, वीर शब्दके छह अर्थ हैं, अर्थात्-(१) मोक्षके अनुष्ठानमें पराक्रम करनेवाले, अथवा (२) भव्य जीवोंको मोक्षकी प्राप्ति करानेवाले, या (३) समस्त कोको दूर करके मोक्षको प्राप्त होने वाले, (४) कपाय आदि शत्रुओंको सर्वथा हरानेवाले, (६) चार धन-घातिया कोंको कचरेकी तरह दूर करनेवाले (६) प्राणियोंको विशेप-रूपसे संयमके अनुष्ठानमें प्रवृत्ति करानेवाले श्रीवर्द्धमान स्वामीने, प्रत्येक प्राणीकी अपनी २ भापामें परिणत होनेवाले इस प्रवचनको केवल-ज्ञानसे जानकर प्रतिपादन किया है, पूर्वापर સાડા બાર વર્ષ સુધી ઘેર તપશ્ચર્યા કરવાને કારણે શ્રમણ નામથી પ્રસિદ્ધ, કશ્યપ ગેત્રમાં ઉત્પન્ન થએલા ભગવાન્ મહાવીરે (વીર શબ્દના છ અર્થ છે કે, અથ (૧) એક્ષના અનુષ્ઠાનમાં પરાક્રમ કરનારા, અથવા (૨) ભવ્ય જીને મોક્ષની પ્રાપ્તિ કરાવનારા, યા (૩) સર્વ કર્મોને દૂર કરીને મોક્ષને પ્રાપ્ત થએલા, (૪) કષાય આદિ શત્રુઓને સર્વથા હઠાવનારા, (૫) ચાર ઘનઘાતી કર્મોને કચરાની પેઠે દૂર કરી દેનારા, (૬) પ્રાણુઓને વિશેષ-રૂપથી સંયમના અનુષ્ઠાનમાં પ્રવૃત્તિ કરાવનારા. એવા શ્રી વર્ધમાન સ્વામીએ, પ્રત્યેક પ્રાણીની પિત–પિતાની ભાષામાં પરિણત થવાવાળું આ પ્રવચન કેવળ જ્ઞાનથી જાને પ્રતિપાદન કર્યું છે, Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ am श्रीदवेकालिकमूत्र पटलविघटनमनितानन्तचतुष्यलक्ष्मीः (८), धर्मा अपवर्गद्वारकपाटोदाटनसाध नम् , श्रुतादिरूपो यथाख्यातचारित्ररूपो या (९), ऐश्वर्य लोक्याधिपत्यं (१०) , चाऽस्यास्तीति भगवान् तेन तथोक्तेन, एवम् धम्मो मंगलमुस्टि '-मित्याया__ रभ्य 'तायिणो परिनिव्बुढे' इत्यन्तं यावत् पूर्वोपदिष्टरूपेण, आख्यातम्-परस्प रासङ्कीर्णतया कथितम् , मे मया श्रुतम्-श्रवणगोचरीकृतम् । सल्लशब्दो वारयालङ्कारे । इह-अस्मिन् प्रवचने, पड्जीरनिकायनामाध्ययनम् पट् च ते पृथिव्य. सेनोवायुवनस्पतित्रसलक्षणा जीवराति पडूजीवास्तेषां निकाय: समूहः प्रतिपाधत्वेनाऽस्ति यस्यामागमपद्धती सा 'पड्जीवनिकाया' तन्नाम यस्य तच्च तदध्ययनं चेति षड्जीवनिकायानामाध्ययनम् 'अस्ती-तिशेपः । १ सूत्रे 'छन्जीवणिया' इति पदं 'स्वरायस्य । (४१४६६२)इति निकायाघटकयकारस्य लोपे, 'कग-च-ज-त-द-प य-बां पायो लुक् ' इति ककारलोपे कृत 'नि+आ+आ+' इति स्थिते 'सवणे दीर्घः' (११२१७) इति द्वयोराकारयोः स्थाने दीर्थंकादेशे 'अत्रों यश्रुतिः' इति यकारश्रुत्या णत्वेन च सिद्धम् । -~.(७) अन्तराय कर्म के नाशसे उत्पन्न होनेवाला अनन्त बल, (0) धातिया कर्मरूपी पटलके हट जानेसे प्रादुर्भूत होनेवाली अनन्त-चतुष्टय लक्ष्मी, (९) मोक्षके द्वारको खोलनेका साधन भुत-चारित्र-यथाख्यातचारित्ररूप धर्म, (१०) तीन लोकका आधिपत्य रूप ऐश्वर्य। । ये सब भगशब्दके अर्थ जिनमें पाये जाते हैं उन्हें भगवान कहते हैं। हे आयुष्मन् ! 'धम्मो मंगलमुकिट से लेकर 'तायिणो परिनिव्वुडे' तक सब भगवानने ही कहा है और मैंने सुना है। इस अध्ययनका नाम 'पड्जीवनिकाया' है। यह इसलिए कि इसमें पृथिवी आदि पड्जीव-निकार्योका वर्णन है। અનંત બળ. (૮) ઘાતી-કમ-રૂપી પડળ હડી જવાથી ઉત્પન્ન થનારી અનંત ચતુષ્ટય લક્ષમી, (૯) મોક્ષના દ્વાર ખોલવાના સાધન થત–ચારિત્ર - भ्यात-रित्र-३५ धर्म, (१०) र ! माधिपत्य-३५ *श्य. આ બધા ભગ શબ્દના અર્થો જેનામાં મળી આવે છે તેને ભગવાન કહે છે. के मायुश्मन्! धम्मो मंगलमुकिटं थी वहन वायिणो परिनिन्बुढे सुधी ધાધું. ભગવાને જ કહ્યું છે અને મેં સાંભળ્યું છે. આ અધ્યયનનું નામ “વડુ • જીવનિકાયા છે. તે એટલા માટે કે એમાં પૃથિવી-આદિ છે જીવનિકાયનું વર્ણન છે. - - - - - Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू. २-३ पड्जीवनिकायस्वरूपम् २०१ पवेइया-पवेदित की है, सुअक्खाया सम्यक्पकार कही है, सुपन्नत्ता= सम्यक्तया बताई है। वह धम्मपन्नत्ती अज्झयणं-धर्मप्रज्ञप्ति अपरनामक अध्ययन अहिन्जि-पढना मे=मुझे सेयं श्रेय है ॥२॥ . टीका-सा पूर्वोक्ता पड्जीवनिकाया खलु कतरा=किंभूता या अध्ययन नाम-अध्ययनत्वेन प्रसिद्धेत्यर्थः, या च काश्यपेनेत्यादि व्याख्यातपूर्वम् । 'कारा' इत्यनेन मोक्षाभिलापिणा शिष्येण सकलक्रियाकलापे स्वाभिमानपरित्यागपूर्वक गुरुः प्रष्टव्य इति सचिवम् ॥२॥ सम्प्रति सुधर्मस्वामिन उत्तरयन्ति-'इमा खलु०' इत्यादि । मूलम्-इमा खलु सा छजीवणिया नामज्झयणं समजेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया सुअक्खाया सुपन्नत्ता, सेयं मे अहिजिउं अज्झयणं धम्मपन्नत्ती ॥३॥ . छाया-इयं खलु सा पड्जीवनिकाया नामाध्ययनं श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन पवेदिता स्वाख्याता सुप्रज्ञप्ता, श्रेयो मेऽध्येतुमध्ययनं धर्मप्रज्ञप्तिः ॥३॥ सान्वयार्थ:-साबह छजीवणिया पड्जीवनिकाया खलु-निश्चय करके इमा=यह है जो अज्झयणं नाम-अध्ययन नाम से प्रसिद्ध है,और जो कासवेगं कश्यपगोत्रीय समगेणं श्रमग भगवया-भगान् महावीरेणं महावीरने हे भगवन् ! पहले बताई हुई. पड्जीवनिकायाका स्वरूप क्या है ? जो इस अध्ययनरूपसे कही गई है अर्थात् जिसका इस समस्त अध्ययनमें वर्णन किया गया है, और भगवान महावीर स्वामीने यावत् प्ररूपित किया है ? और धर्मप्रज्ञप्ति अपरनामसे प्रसिद्ध उस अध्ययन का पढना मेरे लियेकल्याणकर है? इस प्रश्नसे यह आशय निकलता है किमुमुक्षुशिष्यको अहंकार त्यागकर समस्त क्रियाएँगुरुसे पूछनी चाहिए॥२॥ श्री सुधर्मा स्वामी उत्तर देते हैं-'इमा खलु०' इत्यादि । હે ભગવાન્ ! પહેલાં બતાવેલી પડજીવનિકાયાનું સ્વરૂપ કેવું છે કે જે આ અધ્યયનરૂપથી કહેવામાં આવી છે? અર્થાત્ જેનું આ આખા અધ્યયનમાં વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે, અને ભગવાન મહાવીર સ્વામીએ જેનું પ્રરૂપણ કર્યું છે? અને ધર્મપ્રજ્ઞપ્તિ એમ બીજા નામથી જે પ્રસિદ્ધ છે તે અધ્યયનનું અધ્યયન કરવું મારે માટે કલયાણકારક છે? આ પ્રશ્નથી એ આશય નીકળે છે કે-મુમુક્ષુ શિષ્ય અહંકારને ત્યાગ કરીને બધી ક્રિયાઓ ગુરૂને પૂછવી જોઈએ. (૨). श्री सुधर्मा स्वामी उत्तर आपे छे ४-इमा खलु० ईत्यादि. Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशा विलोक्य प्रतिपादिता, स्वाख्याता = मृष्टु-पूर्वापराविरोधियुक्तयुक्तिभिरुपपन्नतयाख्याता = उक्ता, सुप्तामृष्ठ सदेवमनुजासुरसमायां दिव्यध्वनिना = रूपिता, यद्वा धातूनामनेकार्यत्वादुपसर्गसमभिव्याहारवलाह पिरा सेवनार्थः, या च येनैव रूपेणाऽख्याता तेनैव रूपेण कर्षेण शता=मासेविता, अजुतोऽपि हिंसां परिहरता भगवता यथाकथिवमाचरितेत्यर्थः । तदेतदध्ययनं जीवनिकायाख्यं धर्ममनसिः धर्ममरूपकम् यद्वा धर्ममप्तिः एतदपरसाकं = मम अध्येतुम् = अभ्यसितुं श्रेयः शस्यं निःश्रेयसकरमित्यर्थः ॥ १ ॥ एतन्निशम्य जम्बूस्वामी परिपृच्छति - ' कयरा०' इत्यादि । मूलम् - करा खलु सा छज्जीवणिया नामज्झयणं समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया सुअक्खाया सुपन्नत्ता सेयं मे अहिजिउं अज्झयणं धम्मपन्नत्ती ? ॥२॥ > छाया --- कतरा खलु सा पड्जीवनिकाया नामाध्ययनं श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन प्रवेदिता स्वाख्याता सुमज्ञप्ता, श्रेयो मेऽध्येतुम् अध्ययनं धर्ममज्ञप्तिः ? ॥२॥ सान्वयार्थः -- सा खलु =बह छज्जीवणिया = पड़जीवनिकाया कयरा कौनसी हैं ? जो अज्झयणं नाम=अध्ययन नाम से प्रसिद्ध है, जो कासवेगं = कश्यप गोत्रीय समणेण श्रमण भगवया भगवान् महावीरेण = महावीर ने विरोध-रहित और युक्तियों सहित कहा है, देव मनुष्य और असुरोंकी सभा-समवसरण में दिव्य ध्वनिसे प्ररूपित किया है। अथवा भगवानने जैसा कहा है वैसा ही उन्होंने आचरण किया है । इसलिए यह पड्जीवनिकाया नामक, धर्मकी प्ररूपणा करनेवाला अध्ययन मेरे अध्ययन करनेके लिए श्रेय है-कल्याणकारी है ॥१॥ यह सुनकर जम्बूस्वामी प्रश्न करते हैं- 'करा खलु०' इत्यादि । પૂર્વાપર-વિરાધ-રહિત અને યુતિ સહિત કહ્યું છે, દૈવ મનુષ્ય અને અસુરોની સભા-સમવસરણમાં દિવ્ય ધ્વનિથી પ્રરૂપિત કર્યું છે. અથવા ભગવાને જેવું કહ્યું છે એવું તેમણે આચરણ કર્યું છે. તેથી કરીને આ ષ નિકાયા નામક ધર્માંની પ્રરૂપણા કરનારૂં અધ્યયન મારે અધ્યયન કરવાને શ્રેય છે કલ્યાણકારી છે. (૧) या सांगीने स्वाभी प्रश्न रे -कमरा खलु० छत्याहि. Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ अध्ययन ४ सू..४ पड्जीवनिकायस्वरूपम् २०३ तेजश्चित्तवदाख्यातम् , अनेकजीवं, पृथक्सत्वमन्यत्र शस्त्रपरिणतात् । वायुश्चित्तवानाख्यातो-ऽनेकजीवः पृथक्सचोऽन्यत्र शस्त्रपरिणतात् , वनस्पतिश्चित्तवानाख्यातोऽनेकजीवः पृथक्सत्वोऽन्यत्र शस्त्रपरिणतात् ॥४॥ सान्वयार्थः-तंजहा-वह इस प्रकार है- (१) पुढविकाइया-पृथ्वीकायिक, (२)आउकाइग्रा=अप्कायिक,(३) तेउकाझ्या तेजस्कायिक, (४)वाउकाइया वायुकायिक,(५)वणस्सइकाइया बनस्पतिकायिक,(६)तसकाइयाञसकायिक।। अब आचार्य महाराज एक-एककी सचित्तता बतलाते है-- (१) पृथ्वीकाय. सान्वयार्थः-(भगवानने) पुढवी-पृथ्वीको चित्तमंत-सचित्त अक्खाया .कही है, वह अणेगजीवा अनेकजीवघाली है-अनेकजीवोंका पिण्डभूत है, पुढोसत्ता उसमें अनेकजीव भिन्न-भिन्न रहे हुए हैं, अन्नत्य-सिवाय सत्थपरिणएण-शस्त्रपरिणतके, अर्थात् जहां शस्त्र नहीं लगा है वहांका पृथ्वीकाय सव सचित्त है । इसी प्रकार छहों कार्यों में समझ लेना चाहिये ॥१॥ (२) अपकाय. ___सान्वयार्थः-आऊ जल चित्तमंतं सचित्त अक्खाया कहा है, वह अणेग जीवा अनेक जीवोंका आश्रयभूत है, पुढोसत्ता-वे अनेक जीव भिन्न२ रहे • हुए हैं, अन्नत्य-सिवाय सत्थपरिणएणं-शस्त्रपरिणतके ॥२॥ (३) तेजस्काय. तेज-तेजस्काय चित्तमंतं सचित्त अक्खाया-कहा गया है, वह अणेगजीवा अनेक जीवोंका आश्रयभूत है, पुढोसत्ता के अनेक जीव भिन्नभिन्न रहे हुए है, अन्नत्य-सिवाय सस्थपरिणएणं-शस्त्रपरिणतके ॥३॥ (४) वायुकाय. वाऊ वायु चित्तमंत= सचित्त अक्खाया कहा गया है, वह अणेगजीवा अनेक जीवोंका आश्रय है, पुढोसत्ता-भिन्न-भिन्न जीवोंवाला है, अन्नत्य-सिवाय सत्यपरिणएणं शस्त्रपरिणतके ॥४॥ (५) वनस्पतिकाय. वणस्सई-वनस्पति चित्तमंतं सचित्त अक्खाया-कही गई है, वह अणे Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ श्रीदनेकालिको पवेड्याम्मवेदित की है, सुअक्खाया-सम्यरुपकार कही है, सुपनाता सम्यक्तया बताई है । वह धम्मपन्नत्ती अज्झयणं-धर्ममनप्ति अपरनामक अध्ययन अदिजिउ-पढना मे मुछे सेयं श्रेयस्कारी रे ॥३॥ • टीका-'इमा' इत्यनेन 'विनीतविनेयाय करुणासमारचारुदयेन गुरुणा शास्त्रोपदेशः कर्तव्यः' इति सूचितम् । अन्यत्माग्मत् ॥३॥ तामेव पड्जीयनिकायां सूत्रकारः प्रदर्शयतितंजहा' इत्यादि । मूलम् तंजहा-पुढविकाइया, आउकाइया, तेउकाइया, वाउकाइया, वणस्सइकाइया, तसकाइया। पुढवी चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं । आऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं। तेचित्तमतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं । वाऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सस्थपरिणएणं । वणस्सई चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं ॥४॥ छाया-तद्यथा-पृथिवीकायिकाः (१), अप्रकायिकाः (२), तेजस्कायिकाः (३), वायुकायिकाः (४), वनस्पतिकायिकाः (५), त्रसकायिकाः (६) । पृथिवी चित्तवत्याल्पाता, अनेकाजीचा, पृथक्सचा, अन्यत्र शस्त्रपरिणताया । आप श्चित्तवत्य आख्याताः, अनेकजीवाः, पृथक्सत्त्वाः, अन्यत्र शस्त्रपरिणताभ्यः । इस पाठका व्याख्यान पहले किया जा चुका है। 'इमा' पदसे यह सूचित होता है कि करुणासागर गुरु महाराज विनीत शिष्यको शास्त्रका उपदेश अवश्य देवें ॥३॥ ___उस पड्जीवनिकायको सूत्रकार दिखाते हैं-'तंजहा' इत्यादि । मा पार्नु व्याभ्यान पडेल ४२पामा माथ्यु छे. इमा शपथी गेम સૂચિત થાય છે કે કરૂણાસાગર ગુરૂ મહારાજ વિનીત શિષ્યને શાસ્ત્રને ઉપદેશ ४३२ सापे. (3) मे ५०पनियने सूत्रस२ वि छ-तंजहा- Uत्यादि. Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू. ४ पृथिवीकायस्य सचित्ततासिद्धिः २०५ पृथिवीकायः । पृथिवी, चित्तं चेतनाऽस्त्यस्या इति चित्तवती-सात्मिका आख्याता= केवलज्ञानाऽऽलोकावलोकिताखिललोकालोकलक्षणेन भगवता कथिता । ननु पृथिव्याः कथं सचेतनत्वमिति चेदाकर्णय-(१) पृथिवी सचेतना खानितखनिभूम्यादिषु तत्सजातीयावयवान्तरद्वारा परिपूर्तिदर्शनात् मनुष्यादिशरीरवत् , तद्यथा-मनुष्यशरीरस्थं व्रणादिकं स्वयं भ्रियते, एवमेव खानितं खनिभूम्यादिकं स्वसमानजातीयावयवैर्भियमाणं माक्समानरूपतां भजते तस्माद् गम्यते पृथिव्याः सचेतनत्वम् । . पृथिवीकाय । केवल-ज्ञानरूपी आलोकसे समस्त लोक और अलोकको प्रत्यक्ष जाननेवाले भगवानने पृथिवीको सचेतन कहा है। प्रश्न-पृथिवी सचेतन कसे है ? उत्तर-(१) पृथिवी सचेतन है, क्यों कि उसमें खोदी हुई खान आदिकी भूमि सजातीय अवयवोंसे स्वयमेव भर जाती है, जो सजातीय अवयवोंसे स्वयं भर जाता है वह सचेतन होता है, जैसे मनुप्यका शरीर । अर्थात् मनुष्यके शरीरमें घाव हो जाता है वह उसी तरहके अवयवोंसे स्वयं भर जाता है, उसी प्रकार खोदी हुई खान आदिकी भूमि उसी प्रकारके अवयवोंसे भर जाती है और पहलेके समान हो जाती है इसलिए पृथिवी सचेतन है। पृथिवीय' કેવળ-જ્ઞાન-રૂપી પ્રકાશથી બધા લેક અને અલેકને પ્રત્યક્ષ જાણવાવાળ ભગવાને પૃથિવીને સચેતન કહી છે. પ્રશ્ન-પૃથિવી સચેતન કેવી રીતે છે ? ઉત્તર-(૧) પૃથિવી સચેતન છે, કારણ કે તેમાં ખેલી ખાણ આદિની ભૂમિ સજાતીય અવયથી પિતાની મેળે ભરાઈ જાય છે. જે સજાતીય અવયવેથી સ્વયમેવ ભરાઈ જાય છે તે સચેતન હેય છે, જેમકે મનુષ્યનું શરીર. અર્થાત મનુષ્યના શરીરમાં ઘા પડે છે તે એવી તરેહના અવયવોથી પિતાની મેળે ભરાઈ જાય છે, એ જ રીતે ખેદેલી ખાણ આદિની ભૂમિ એ પ્રકારનાં અવયથી ભરાઈ જાય છે અને પહેલાંની જેવી બની જાય છે, તેથી પૃથિવી सचेतन छे. Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ শীগকাক্ষিগ गजीवा अनेक जीयोंका आधार है, पुढोसत्ता-भिन्न-भिन्न जीववाली है, अन्नत्य-सिवाय सत्यपरिणएणंत्रपरिणतके । भावार्थ:-पांचों स्थायरफाय सचित्त है, ये अनेक जीवरूप है, उन जीवोंका अस्तित्व पृथक्-पृथर है, । इन कार्योंके जो जो शख उनसे यदि ये परिणत हो जाये तो अचित्त हो जाते हैं ॥५॥ टीका-तद्यथा-तदेव प्रदर्यते-पथिवी कठिनस्वभावा सैव काया शरीर येषां ते पृथिवीकायास्त एव पृथिवीकायिकाः (विनयादित्वात्स्वार्थे ठक, तस्येका देश:' एवमग्रेऽपीयं प्रक्रिया जेया)। आपा-धवलक्षणास्ता एव कायो येषां तेऽपु. कायास्त एचापकायिकाः। तेजा उष्णलक्षणं तदेव कायो येषां ते तेजस्कायिकाः। वायुम्चलनस्वभावः स एव कायो येपां ते वायुकायिकाः । वनस्पतिकायिका वनस्पतिः लतातरुगुल्मादिलक्षणः कायो येषां ते तथोक्ताः । त्रस्यति शीतातपाः दिजनितपीडया उद्विजत्ते इति सः, सनस्वभावः कायो येषां तथोक्ताः । ___ अथ प्रत्येकं सचित्ततां दर्शयन्नाह कठिनता-स्वभाववाली पृथ्वी ही जिनका शरीर है उन्हें पृथ्वीकार यिक कहते हैं। द्रवत्व-स्वभाववाला जल ही जिनका शरीर है उन्ह अपकायिक कहते हैं । उष्णता-स्वभाववाला तेज ही जिनका शरीर ह उन्हें तेजस्कायिक कहते हैं । चलन-स्वभाववाला वायु ही जिनका शरीर है उन्हें वायुकायिक कहते हैं। लता वृक्ष-गुल्म आदि वनस्पति ही जिनका शरीर है उन्हें वनस्पतिकायिक कहते हैं। जिन्हें शीत-आतप (गर्मी) आदि द्वारा उत्पन्न हुई पीडासे त्रास होता है ऐसा चलने-फिरनेवाला काय जिनका होता है उन्हें प्रसकायिक कहते हैं । अब एक-एककी सचित्तता दिखलाते हैं ૧-કઠિનતા-સ્વભાવવાળી પૃથ્વી જ જેનું શરીર છે તેને પૃથ્વીકાયિક કહે છે. ૨-દ્વવત્વસ્વભાવવાળું જળ જ જેનું શરીર છે તેને અપકાયિક કહ છે. ૩-ઉષ્ણતસ્વભાવવાળું તેજ જ જેનું શરીર છે તેને તેજસ્કાયિક કહે છે. –ચલનસ્વભાવવાળે વાયુ જ જેનું શરીર છે તેને વાયુકાયિક કહે છે. પ-લતા, વૃક્ષ ગુમ (ગુચ્છ) આદિ વનસ્પતિ જ જેનું શરીર છે તેને વનસ્પતિકાયિક કહે છે. જેને ઠંડી ગરમી આદિ દ્વારા ઉત્પન્ન થએલી પીડાથી ત્રાસ થાય છે એવી હરવા-ફરવાવાળી કાયા જેની હોય છે તેને ત્રસકાચિક કહે છે હવે અકેકની સચિતતા દેખાડે છે. Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू. ४ पृथिवीकायस्य सचित्ततासिद्धिः २०७ . (४) विद्रुमायात्मिका पृथिवी सचित्ता, छेदादौ तत्सजातीयधातूत्पत्तिदर्शनात् अर्शीऽङ्कुरवत् , तद्यथा अर्शसोऽङ्गुरे छिन्नेऽपि पुनस्तत्समान एवाङ्कुरः मादुर्भवति, एवं विद्रुमशिलाद्यात्मिकायाः पृथिव्याः खन्यादौ छेदेऽपि तत्सनातीयधातुभिस्तद्विक्तभागः परिपूर्यते, तस्मात्सिद्धं पृथिव्याः सचित्तत्वम् । ___अनेकजीवा=अनेके बहवो जीवाः एकेन्द्रिया यस्यां सा तथोक्ता । पृथक्सत्त्वा-पृथक्-पृथग्भूताः अङ्गलासंख्येयभागमात्रावगाहनामाश्रित्याऽनेके विभिन्नरूपेण स्थिताः सत्त्वाः स्पर्शनेन्द्रियवन्तो जीवा यस्यां सा तथोक्ता 'आख्याता' इति पूर्वोक्तेनान्वयः, भगवता मरूपितेति तदर्थः । ननु तर्युक्तेस्वरूपायां जीवपिण्डभूतायां पृथिव्यां गमनागमनादिक्रियां कुर्वतां (४) विट्ठम आदिरूप पृथिवी सचित्त है, क्योंकि उसे काट देने पर भी सजातीय धातुकी उत्पत्ति देखी जाती है। जैसे शरीरमें मसा। अर्थात् जैसे __ मसाको ऊपरसे काट डालने पर भी फिर उसीके समान अवयव ऊग आते हैं, वैसेही-विट्ठम और शिला आदिको खानमें काट देने पर भी सजातीय स्कन्धोंसे कटा हुआ भाग फिर भर जाता है, अतः पृथिवीकी सचेतनता सिद्ध है। ___वह पृथिवी अनेक जीववाली है और वे स्पर्शनेन्द्रियवाले पृथिवीकायके जीव अंगुलके असंख्यातवें-भाग-प्रमाण अवगाहनाको आश्रय करके भिन्न-भिन्न स्वरूपसे स्थित हैं, ऐसा भगवानने कहा है। शिप्य गुरुसे पूछता है-हे गुरु महाराज ! जयकि पृथिवी जीवोंका (૪) વિદ્ગમ આદિ રૂપ પૃથિવી સચિત્ત છે, કારણ કે તેને કાપી નાંખવા છતાં પણ સજાતીય ધાતુની ઉત્પત્તિ જોવામાં આવે છે, જેમકે શરીરમાં મસા, અર્થાત જેમકે મસાને ઉપરથી કાપી નાંખ્યા છતાં પણ તેના સમાન અવયે ઊગી આવે છે, તેમ જ વિક્રમ અને શિલા આદિને ખાણમાં કાપી નાખ્યા છતાં સજાતીય સ્કોથી કાપેલે ભાગ પાછો ભરાઈ જાય છે. તેથી પ્રથિવીની સચેત નતા સિદ્ધ થાય છે. એ પૃથિવી અનેક–જીવ–વાળી છે, અને એ સ્પર્શનેન્દ્રિય–વાળા પૃથિવીકાયના જી આગળના અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણુની અવગાહનને આશ્રય કરીને ભિન્ન-ભિન્ન સ્વરૂપે સ્થિત છે, એવું ભગવાને કહ્યું છે. શિષ્ય ગુરૂને પૂછે છે- હે ગુરૂ મહારાજ ! જે પૃથિવી, જીને પિંડ–રૂપ છે Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - २०६ श्रीदर्शवकालिको (२) यद्वा-पृथिवी सजीया देनिकयर्पणोपचयसंदर्शनात् चरणतलबत् , तयाचरणतलं घृष्यते पुष्यति च तद्वत् पृथिव्यपि प्रत्यहं घृप्यते उपचीयते व तस्मातस्याः सजीवत्वम् । अथवा• (३) विद्रुमपापाणादिरूपा पृथिवी सचेतना काठिन्ये सत्यपि वृद्धयादिदर्शनात् शरीरस्थिताऽस्थ्यादिवत् , तद्यथा-शरीरस्थितमस्थ्यादिकं कमठपृष्ठकठिनं सदपि चित्तवदनुभूयमानमुपचयं च गच्छन् संदृश्यते । एवं विद्रुमशिलाघात्मिकायाः पृथिव्याः काठिन्ये सत्यपि वृद्धयादिकं प्रत्यक्ष दृश्यते तस्मात्तस्याः सवेतनत्वम् । अथ च (२) पृधिवी सचेतन है, क्योंकि उसमें प्रतिदिन घर्पण और उपचय देखा जाता है जैसे पैरका तलुवा । अर्थात् जैसे तलवा घिसकर फिर भर जाता है वैसे ही पृथिवी भी घिस कर भर जाती है इसलिए वह सजीव है । अथवा (३) विदुम (मंगा) पापाण आदि-रूप पृथिवी सचेतन है, क्योंकि कठिन होने पर भी उसमें वृद्धि देखी जाती है जैसे शरीरकी हड्डी आदि। अर्थात् जैसे शरीरकी हड्डी आदि कछुएकी पीठकी भाँति कठोर होने पर भी सचेतन है और बढती है उसी प्रकार विद्रुम, शिला आदि-रूप पृथिवीमें कठिनता होनेपर भी वृद्धि आदि गुण प्रत्यक्षसे हैं इससे सिद्ध है कि पृथिवी सचेतन है । अथवा (૨) પૃથિવી સચેતન છે, કારણ કે તેમાં પ્રતિદિન ઘર્ષણ અને ઉપચય જેવામાં આવે છે, જેમકે પગનું તળીઉં અર્થાત જેમ પગનું તળીઉં ઘસાઈને પાછું ભરાઈ જાય છે, તેમ પૃથિવી પણ ઘસાઈને ભરાઈ જાય છે, તેથી પૃથિવી स०५ छ. अथवा--- (3) विम (प्रवाण) पत्थर माहि-३५ पृथिवी संस्थतन छ, २५५ न હોવા છતાં તેમાં વૃદ્ધિ જોવામાં આવે છે, જેમકે શરીરના હાડકાં વગેરે, અર્થાત જેમ શરીરનાં હાડકાં વગેરે કાચબાની પીઠની જેમ કઠોર હોવા છતાં સચેતન છે અને વધે છે, તેવી રીતે વિક્રમ, શિલા આદિ-રૂપ પૃથિવીમાં કઠિનતા હોવા છતાં તેમાં વૃદ્ધિ આદિ ગુણ પ્રત્યક્ષ છે. એથી સિદ્ધ થાય છે કે પૃથિવી સચેतन छे. मा Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ मू. ४ अकायस्य सचित्ततासिद्धिः २०९ कृष्णमृत्तिका शस्त्रमित्यादि, परकायशस्त्र-जलानिगोमयचरणसंमर्दनादि । उभयकायशस्व-जलादिमिश्रमृत्तिका । एवं च शस्त्रपरिणतायाः पृथिव्या अचित्ततया न तत्रोच्चार-प्रस्रवणादिक्रियासम्पादने काऽपि क्षतिर्मुनीनां संयमपालन इति सिद्धम् । अप्कायः । आपः-भौमाऽऽन्तरिक्षोभयलक्षणाः, चित्तवत्यः सचेतनाः, आख्याता भंगवताऽभिहिताः, तथाहि-भूमिगता आपः सचेतनाः खातभूमिसजातीयस्वभावपीली मिट्टीका शस्त्र काली मिट्टी है । जल, अग्नि, गोयर तथा पैरोंसे रौंदना आदि परकाय शस्त्र हैं । जल आदिसे मिली हुई मिट्टी उभयकाय शस्त्र है। इस प्रकार शस्त्रपरिणत पृथिवी अचित्त है, अतः उस पर आहारविहार आदि क्रियाएँ करनेसे मुनियोंके अहिंसाव्रत पालने में कुछ भी क्षति नहीं होती। (अप्काय) __ पार्थिव और आकाशीय दोनों प्रकारके जलोंको भी भगवानने सचित्त कहा है। (१) भूमिमें रहा हुआ जल सचेतन है, क्योंकि खोदी हुई भूमिमें सजातीय-स्वभाववाला जल उत्पन्न होता है, जैसे मेंढकाभूमिको खोदनेसे जैसे मेंढक निकलता है और वह सचेतन होता है उसी प्रकार पानी પૃથિવીન સ્વકાય-શસ્ત્ર છે, જેમ પીળી માટીનું શસ્ત્ર કાળી માટી છે. જળ. અગ્નિ, છાણ તથા પગ વડે ખુંદવું વગેરે પરકાય-શસ્ત્ર છે. જળ આદિથી મળેલી માટી એ ઉભયકાય શસ્ત્ર છે. એ રીતે શસ્ત્રપરિણત પૃથિવી અચિત્ત છે, તેથી એની ઉપર આહાર વિહાર આદિ ક્રિયાઓ કરવાથી મુનિઓના અહિંસા વ્રતના પાલનમાં કોઈ પણ ક્ષતિ આવતી નથી: અપૂકાય પાર્થિવ અને આકાશીય બેઉ પ્રકારના જળને પણ ભગવાને સચિત્ત કહ્યું છે. (૧) ભૂમિમાં રહેલું જળ સચેતન છે, કારણકે ખેદેલી જમીનમાં સજાતીય સ્વભાવવાળું જળ ઉત્પન્ન થાય છે, જેમકે દેડકે. ભૂમિને ખોદવાથી જેમ દેડકે નીકળે છે અને તે સચેતન હોય છે, તેમ પાણી પણ નીકળે છે તેથી તે પણ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याः स्येतरवणशान्येषां तनत्कायानामात्रं पृथिवीं पति दुष्य - - - २०८ श्रीदनकालियो संयमिनामहिंसावतस्य संरक्षणं कथं भवति ? प्रत्युताऽवश्यकरणीयोचारप्रसवणादिक्रियया हिंसेच भवत्यतोऽहिंसात्रतपालनं बल्यामृतपालनबदसम्मवमिस्पत आह--'अन्यत्रे'ति, शत्रपरिणताया अन्यत्र शत्रपरिणतां पृथिवीं वर्नयित्वाऽन्या पृथिवी सजीवेत्यर्थः, शस्यते हिंस्यत्ते पाणिगणोऽनेनेति शस्त्रं, तद् द्विविध-द्रव्यभावभेदात् । तत्र द्रव्यशत्र-स्वपरोभयकायक्षणम् , भावशस्त्रं पृथिवीं पति दुष्पणिहितमनोवाकायात्मकम् , भवभयान्येषां तनकायानामपि भावश बोदव्यम् । स्वकायशस्खं पृथिव्याः स्वेतरवर्णगन्धादिमती पृयिव्येव, यथा पीतमृत्तिकायाः पिण्डरूप है तो उस पर अहिंसावतकी रक्षा कैसे होगी ? उचार-प्रस्रवण आदि क्रियाएँ अनिवार्य हैं, और इन क्रियाओंके करनेसे हिंसा अनि वार्य है, इसलिए अहिंसावतका पालन ऐसा ही असंभव है जैसा बल्यांके पुत्रका पालन करना। उत्तर-शिष्य ! शस्त्रपरिणत पृथिवीके सिवाय अन्य समस्त पृथिवी सचित्त है। जिससे प्राणियोंकी हिंसा होती है उसे शस्त्र कहते हैं। शस्त्र दो प्रकारका है-(१) द्रव्य-शस्त्र और (२)भाव-शस्त्र । उनमेस स्व-काय, पर-काय और उभय-कायको द्रव्य-शस्त्र कहते हैं। पृथिवाक विपयमें मन-वचन-कायकी दुष्परिणति करना भाव-शस्त्र है..। इसी प्रकार अन्य सब कायके.जीवोंके भाव-शस्त्र समझ लेने चाहिए। अपनेसे भिन्न वर्णगन्धवाली पृथिवी ही पृथिवीका स्वकाय-शस्त्र है, जस તે તેની ઉપર ગમનાગમન આદિ ક્રિયાઓ કરનારા સંયમીના અહિંસાવ્રતની રક્ષા કેમ થશે ? ઉચ્ચાર, પ્રસવણ આદિ ક્રિયાઓ અનિવાર્ય છે, અને એ ક્રિયાઓ કરવાથી હિંસા અનિવાર્ય છે, તેથી અહિંસા-વ્રતનું પાલન એવું અસંભવિત છે કે જેવું વધ્યાના પુત્રનું પાલન કરવું અસંભવિત છે. ઉત્તર-હે શિષ્ય! શસ્ત્રપરિણત પૃથિવી સિવાયની બધી પૃથિવી સચિત છે. જે વડે પ્રાણુઓની હિંસા થાય છે, તેને શસ્ત્ર કહે છે. શસ્ત્ર બે પ્રકારનાં છે. (૧) દ્રવ્ય-શસ્ત્ર (૨) ભાવ-શસ્ત્ર. એમાં સ્વકાય, પરકાય અને ઉભયકાયને દ્રવ્ય-શસ્ત્ર કહે છે, પૃથિવીના વિષયમાં મન વચન કાયાથી દુષ્પરિણતિ કરવી એ ભાવશસ્ત્ર છે. એજ રીતે બીજી બધી કાયાના જીનાં ભાવશસ્ત્ર સમજી લેવાં. પિતાથી ભિન્ન વર્ણ-ગંધ-વાળી પૃથિવી જ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ मू. ४ तेजस्कायस्य सचित्ततासिद्धिः २११ . नन्वेवमपां जीवपिण्डभूततयाऽद्धिविना संयमिनां संयमयात्रा असंभवन्निर्वाहा स्यादित्यत आह-शस्वेत्यादि,शस्त्रपरिणताभ्योऽन्यत्र-शस्त्रपरिणता अपो विहायान्या आपः सचित्ता इत्यर्थः । शस्त्रं-द्रव्यभावभेदाद्विविधं, द्रव्यशस्त्रं-स्वकायपर-कायोभयकायस्वरूपं, भावशस्त्रम्-अपः प्रति मनोवाकायानां दुप्पणिहितत्वम् । तत्र स्वकायशस्त्रं-तडागाशुदकस्य कृपाशुदकम् । एवंविधशस्त्रपरिणतं जलं व्यवहारतोऽशुद्धत्वाद्भगवदनादिष्टत्वाञ्च सर्वथैवाग्राह्यम् । परकायशस्त्रं-द्राक्षा-शाक-तण्डुल-पिष्टदाली चणकादि । अपां शस्त्रपरिणतत्तं च वर्णादिना पूर्वावस्थावलक्षण्यरूपम् । - हे गुरो ! जलके विना संयमियोंका निर्वाह नहीं हो सकता और वह जीवोंका पिण्ड है, इसलिए उसको पीने आदिके काममें लानेसे संयमकी रक्षा नहीं हो सकती। ऐसी आशङ्का होनेपर गुरु कहते हैंहे शिष्य ! शस्त्रपरिणत जलके सिवाय अन्य जल सजीव है। यहां परभी शस्त्र, द्रव्य और भावके भेदसे दो प्रकारका है। उसका कथन पहले किया जाचुका है। यह विशेष समझना चाहिए कि तालाब आदिके जलका कूप आदिका जल स्वकायशस्त्र है। इस प्रकारका शस्त्रपरिणत जल व्यवहारसे अशुद्ध होनेके कारण ग्राह्य नहीं है। तथा ऐसे जलके लेनेमें भगवानकी आज्ञा भी नहीं है । '.. दाख,शाक, चावल, आटा आदि परकायशस्त्र हैं। जल में पहले जैसा वर्ण गन्ध आदि था उसका बदल जाना शस्त्रपरिणत होना कहलाता है। હે ગુરુ જળ વિના સંયમીઓને નિર્વાહ થઈ શકતું નથી અને એ જીને પિંડ છે તેથી તેને પીવા આદિના કામમાં લેવાથી સંયમની રક્ષા નહિ થઈ શકે. એવી આશંકા થતાં ગુરૂ કહે છે. હે શિષ્ય! શસ્ત્ર-પરિણત . જળ સિવાયનું અન્ય જળ સજીવ છે. એમાં પણ શસ્ત્ર, દ્રવ્ય અને ભાવના ભેદે કરીને બે પ્રકારનાં છે. એનું કથન પહેલાં કરવામાં આવ્યું છે. વિશેષ એટલું સમજવું કે તળાવ આદિના જળનું કુપાદિનું જળ એ સ્વાય શસ્ત્ર છે. એ પ્રકારનું શસ્ત્રપરિણત જળ વ્યવહારથી અશુદ્ધ હોવાને કારણે ગ્રાહ્યા નથી. તથા એવું જળ લેવાની ભગવાનની આજ્ઞા પણ નથી. દ્રાક્ષ, શાક, ચેખા, આટે ઈત્યાદિ પરકાય શસ્ત્ર છે. જળમાં પહેલાં જેવા વર્ણ ગંધ આદિ હતા તેનું બદલાઈ જવું એ શસ્ત્રપરિણત થવું કહેવાય છે. Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - याप्पापलान् । यहा-आपः सचेतनाः मेवाशि श्रीप्मे २१.. श्रीदशवकालिकमरे सम्भवात् मण्हकवत् । आन्तरिक्षयोऽ प्याप सवेतनाः मेवादिविकृती स्वाभाविक सम्भूयसंपतनशीलत्यान्मीनवन् । यद्वा-आपः सचेतनाः, श्रीमहेमन्तयोः सामा. विकशैत्यौपण्यवाप्पायुपलम्मान्मनुष्यशरीरवत् , तद्यथा-भूमिगृहस्थितनरस्य शरीर ग्रीष्मे शीतलं हेमन्ते चोष्णं भवति, मुखाच बाप्पमुद्गच्छति, एवमेव गमीरतरतडागपादिस्थसलिलं हेमन्ते सबाप्पोद्मामुप्णतां, ग्रीमे च शीतलतां पते। अनेकजीवाः पृथक्सचाः, आख्याता इत्यनेनान्वयः, व्याख्या चेपां पदाना मग्बोध्या । निकलता है, अतएव वह भी सचेतन है। आकाशका भी जल सचेतन है, क्योंकि मेघादि-विकार होने पर स्वयं ही गिरने लगता है-जैसे मछली। अथवा (२) जल सजीव है, क्योंकि उसमें ग्रीष्म और हेमन्त ऋतु, स्वाभाविक शीतता उप्णता और भाफ आदि देखे जाते हैं, जिसमें ग्रीष्मादि ऋतुओंमें शीतता आदि पाये जाते हैं वह सजीव होता है, जैसे मनुष्यका शरीर । जैसे भोंबरेमें स्थित मनुष्यका शरीर ग्रीष्म ऋतु, शीत और हेमन्त ऋतुमें उपण होता है, तथा हेमन्त ऋतु, मुहस भाफ निकलती है, वैसेही खूप गहरे तालाब या कुएका जलभी हेमन्तम भाफवाला और उष्ण होता है तथा ग्रीष्ममें शीतल होता है। . अनेकजीव और पृथक्सत्व आदि पदोंका व्याख्यान पहले कहे हुए पृथियीकायके आलापकके समान समझना चाहिए। સચેતન છે. આકાશનું જળ પણ સચેતન છે, કારણ કે મેઘાદિ-વિકાર થવાથી સ્વય ५१ सागे छ, म भाछी. मथा- . ૨) જળ સજીવ છે, કારણ કે તેમાં ગ્રી અને હેમન્ત ઋતુમાં સ્વાભાવિક શીતતા ઉણુતા અને બાફ આદિ જોવામાં આવે છે. જેમાં ગ્રામાદિ ઋતુઓમાં શીતળતા આદિ જણાઈ આવે છે તે સજીવ હોય છે, જેમકે માણસનું શરીર. જેમ ભોંયરામાં રહેલા માણસનું શરીર ગ્રીષ્મ-તુમાં શીતલ અને હેમંત–ઋતુમાં ગરમ હોય છે, તથા હેમંતઋતુમાં મહોમાંથી બાફે (વરાળ) નીકળે છે, એજ રીતે ખૂબ ઉંડા તળાવ યા કુવાનું જળ પણ હેમંત ચતુમાં બાફવાળું અને ઉષ્ણ હૈયા છે તથા શ્રીમમાં શીતળ હોય છે. અનેક જીવ તથા પૃથફસવ આદિ શબ્દનું વ્યાખ્યાન પહેલાં કહેલા પૃથિવીકાયના આલાપકની જેમ સમજવું Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू. ४ तेजस्कायस्य सचित्ततासिद्धिः २१३ अङ्गारादीनां प्रकाशनश किर्यावदात्मसंयोगभाविनी देहस्यत्वात् खद्योत - शेरीरंपरिणामवत् । अङ्गारादीनां तापोऽपि आत्मसंयोगसद्भाव हेतुकः, शरीरस्थत्वात् ज्वरतापवत् 2 न देनेसे हानि (मन्दता) होती है, जैसे मनुष्यका शरीर । अर्थात् मनुः roat शरीर आहार देने से बढता और न देनेसे घटता है, अतः वह सचेतन है । इसी प्रकार तेजस्काय भी ईंधन देने से बढती और न देनेसे घटती है, अतः यह भी सचेतन है । अंगार आदिकी प्रकाशन शक्ति जीवके संयोग से ही उत्पन्न होती है, क्योंकि वह देहस्थ है, जो जो देहस्थ प्रकाश होता है वह वह आत्मा के संयोग ही निमित्तसे होता है, जैसे जुगनू के शरीर का प्रकाशः । जुगनू के शरीर में प्रकाश तब तक ही रहता है जब तक उसके साथ आत्माका संयोग रहता है । इसी प्रकार अंगार आदिका प्रकाश भी तब तक ही रहता है जबतक उसमें आत्मा रहती है। अंगार आदिका ताप भी आत्मा के संयोग के ही कारण है क्योंकि वह शरीरस्थ है, जितने शरीरस्थ ताप होते हैं वे सब आत्माके निमित्त से ही તેની વૃદ્ધિ અને ન આપવાથી હાનિ ( મંદતા ) થાય છે, જેમકે મનુષ્યનું શરીર. અર્થાત્ મનુષ્યનું શરીર આહાર આપવાથી વધે છે અને ન આપવાથી ઘટે છે, તેથી તે સચેતન છે, એજ રીતે તેજસ્કાય પણ ઈંધન આપવાથી વધે છે અને ન આપવાથી ઘટે છે, તેથી તે સચેતન છે, અગારા અાદિની પ્રકાશન—શકિત જીવના સંચાગથી જ ઉત્પન્ન થાય છે. કારણ કે એ દેહસ્થ છે, જે જે દૃહસ્થ પ્રકાશ હેય છે તે તે આત્માના સચેગના જ નિમિત્તથી ઢાય છે, જેમકે આગીયાના શરીરને પ્રકારા. આગીયાના શરીરમાં પ્રકાશ ત્યાંસુધી જ રહે છે કે જ્યાંસુધી તેની સાથે આત્માને સગ રહે છે, એ રીતે ગારા આદિના પ્રકાશ પણ ત્યાંસુધી જ રહે છે કે જ્યાંસુધી તેમાં ચેતન રહે છે. અગારા આદિને તાપ પણ આત્માના સમૈગના જ કારણે છે, કેમકે તે શરીરસ્ય છે.'જેટલા શરીરસ્થ તાપ હાય છે તે બધા આત્માના નિમિત્તથી -જ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ श्रीदशवकालिकसूत्र तत्र-वर्णतो धूसरवादिरूपम् , गन्धतस्तत्तद्वस्तुसम्बन्धिययम् , रसततिक्त का फपायत्वादिरूपम् , स्पर्णतः निग्धरुसत्यादिरूपम् । इत्यमुक्तपकारंद्रासादियाननंजलं मामुकत्वान्मुनिग्रादाम् । उपलक्षणमेतदमिशत्रपरिणतस्योदकस्यापि । भस्ममित्रजलमग्रारं, तत्र मिश्रशङ्कायाः सदाबाद , शाने कंचिदप्यमतिपादितत्वाच । उमयकायशवं मृत्तिकामिश्रजलम् । भावशवमुक्तस्वरूपमेवेति । तेजस्कायः । तेजश्चित्तवत् सचेतनम् आरुयातमू-उक्तम् , तथाहि तेजश्चतनावत् इन्धनाधाहारोपादानहानाभ्यां तद्धिमान्योपलम्भात् । मनुष्यादिशरीरवत् । जैसे-धूसर वर्ण हो जाना, जो वस्तु उसमें डाली गई हो उसकी गन्ध आने लगना, तीखा, कडुवा, कपायला आदि रस हो जाना, स्निग्ध या रुक्ष आदि स्पर्श हो जाना। इस प्रकार यह दाख, शाक, चावल, आटा, दाल, वेसन आदिका धोवन प्रासुक होनेसे मुनिके लिए ग्राह्य है । यह तो उपलक्षण है, इससे यह भी समझना चाहिये कि अग्निशस्त्रपरिणत अर्थात् उष्ण जल भी मुनिको ग्राह्य है। राखका पाना ग्राह्य नहीं है, क्योंकि उसमें मिश्रकी शडा रहती है। मृत्तिका आदिसे मिला हुआ जल उभयकाय शस्त्र है । भावशस्त्र पहले कह चुके हैं। (तेजस्काय) तेजस्कायको भी भगवानने सचेतन कहा है, यही कहते हैंतेजस्काय सजीव है, क्योंकि इन्धन आदि आहार देनेसे उसकी वृद्धि और જેમકે-ધુંધળા વર્ણનું થઈ જવું, જે વસ્તુ તેમાં નાંખવામાં આવી હોય તેની ગધ આવવા લાગવી, તીખો કહે કસાયેલે આદિ રસ થઈ જ; સ્નિગ્ધ યા રક્ષ આદિ સ્પર્શ થઈ જ. એ પ્રકારે એ દ્રાક્ષ, શાક, ચોખા, આટ, દાળ, વેસણું આદિનું જોવણ પ્રાસુક હોવાથી મુનિને માટે ગ્રાહા છે. એ ઉપલક્ષણ છે, એથી એમ પણ સમજવું જોઈએ કે- અગ્નિશસ્ત્ર--પરિણત અર્થાત ઉષ્ણ જળ પણ મુનિને ગ્રાહ્ય છે. રાખનું પાણી ગ્રાહ્ય નથી, કારણ કે એમાં મિશ્રની શંકા રહે છે. માટી આદિથી મળેલું જળ ઉભયકાય શસ્ત્ર છે (૨). ભાવશસ્ત્ર પહેલે કહી દીધું છે. ( य) તેજસ્કાયને પણ ભગવાને સચેતન કહી છે, એ હવે કહે છે – તેજસ્કાય સજીવ છે, કારણ કે લાકડાં (ઈધણ) આદિ આહાર આપવાથી Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ अध्ययन ४ ८. ४ तेजस्कायस्य सचित्ततासिद्धिः . . अंगारादीनां प्रकाशनशक्तिर्यावदात्मसंयोगभाविनी देहस्थत्वात् , खद्योत शेरीरंपरिणामवत् । ___ अङ्गारादीनां तापोऽपि आत्मसंयोगसद्भाव हेतुकंः, शरीरस्थत्वात् ज्वरतापवत् , न देनेसे हानि (मन्दता) होती है, जैसे मनुष्यका शरीर । अर्थात् मनुः ष्यका शरीर आहार देनेसे चढता और न देनेसे घटता है, अतः वह सचेतन है। इसी प्रकार तेजस्काय भी ईधन देनेसे बढती और न देनेसे घटती है, अतः वह भी सचेतन है । अंगार आदिकी प्रकाशन शक्ति जीवके संयोगसे ही उत्पन्न होती है, क्योंकि वह देहस्थ है, जो जो देहस्थ प्रकाश होता है वह वह आत्माके संयोगके ही निमित्तसे होता है, जैसे जुगनूके शरीरका प्रकाश! जुगनूके शरीरमें प्रकाश तब तक ही रहता है जब तक उसके साथ आत्माका संयोग रहता है । . . इसी प्रकार अंगार आदिका प्रकाश भी तय तक ही रहता है जबतक उसमें आत्मा रहती है। अंगार आदिका ताप भी आत्माके संयोगके ही कारण है क्योंकि वह शरीरस्थ है, जितने शरीरस्थ ताप होते हैं वे सब आत्माके निमित्तसे ही તેની વૃદ્ધિ અને ન આપવાથી હાનિ (મંદતા) થાય છે, જેમકે મનુષ્યનું શરીર. અર્થ-મનુષ્યનું શરીર આહાર આપવાથી વધે છે અને ન આપવાથી ઘટે છે, તેથી તે સચેતન છે, એજ રીતે તેજસકાય પણ ઈધન આપવાથી વધે છે અને ન આપવાથી ઘટે છે, તેથી તે સચેતન છે, અંગારા આદિની પ્રકાશન-શકિત જીવના સંગથી જ ઉત્પન્ન થાય છે. કારણ કે એ દેહસ્થ છે, જે જે દેહસ્થ પ્રકાશ હોય છે તે તે આત્માના સગના જ નિમિત્તથી હોય છે, જેમકે આગીયાના શરીરને પ્રકાશ. આગીયાના શરીરમાં પ્રકાશ ત્યાંસુધી જ રહે છે કે જ્યાં સુધી તેની સાથે આત્માને સંગ રહે છે, એ રીતે અંગારા આદિને પ્રકાશ પણ ત્યાંસુધી જ રહે છે કે જ્યાં સુધી તેમાં ચેતન રહે છે. અંગારા આદિને તાપ પણ આત્માના સંગના જ કારણે છે, કેમકે તે શરીરસ્થ છે. જેટલા શરીરસ્થ તાપ હોય છે તે બધા આત્માના નિમિત્તથી જ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ श्रीदशकालिको तत्रं-वर्णतो धूसरवादिरूपम् , गन्धतस्तस्तुसम्बन्धिययम् , रसतस्तिक्तक कपायत्वादिरूपम् , स्पर्शतः स्निग्धरुक्षत्यादिरूपम् । इत्यमुक्तपकारंद्रासादिधावनमल मासुकत्वान्मुनिग्रादाम् । उपलक्षणमेतदमिशत्रपरिणतस्योदकस्यापि । मस्मंमिश्र जलमग्रावं, तत्र मिश्रकायाः सनावात् , शास्त्रे फंचिदप्यातिपादितत्वाच । उमयकायशत्रं-मृत्तिकामिश्रनलम् । भावशस्नमुक्तस्त्ररूपमेवेति । तेजस्कायः । तेजश्चित्तवत्-सचेतनम् आख्यातम्-उक्तम् , तथाहि तेजयतनावत् इन्धनाद्याहारोपादानहानाभ्यां तद्विमान्योपलम्भात् । मनुष्यादिशरीरवत् । जैसे-धूसर वर्ण हो जाना, जो वस्तु उसमें डाली गई हो उसका गन्ध आने लगना, तीखा, कडवा, कपायला आदि रस हो जाना, स्निग्ध या रूक्ष आदि स्पर्श हो जाना। इस प्रकार यह दाख, शाक, चावल, आटा, दाल, वेसन आदिका धोवन प्रासुक होनेसे मुनिके लिए ग्राह्य है । यह तो उपलक्षण है, इससे यह भी समझना चाहिये कि अग्निशस्त्रपरिणत अर्थात् उष्ण जल भी मुनिको ग्राह्य है । राखका पाना ग्राह्य नहीं है, क्योंकि उसमें मिश्रको शङ्का रहती है। मृत्तिका आदिस मिला हुआ जल उभयकाय शस्त्र है। भावंशस्त्र पहले कह चुके हैं । (तेजस्काय) तेजस्कायको भी भगवानने सचेतन कहा है, यही कहते हैंतेजस्काय सजीव है,क्योंकि इन्धन आदि आहार देनेसे उसकी वृद्धि और જેમકે—ધુંધળા વર્ણનું થઈ જવું, જે વસ્તુ તેમાં નાંખવામાં આવી છે, તેની ગંધ આવવા લાગવી, તીખો કહે કસાયલે આદિ રસ થઈ જ; સ્નિગ્ધ ચા રૂક્ષ આદિ સ્પર્શ થઈ જવે. એ પ્રકારે એ દ્રાક્ષ, શાક, ચોખા, આ, દાળ, વેસણ આદિનું વર્ણ પ્રાસુક હેવાથી મુનિને માટે ગ્રાહ્યા છે. એ ઉપલક્ષણ છે, એથી એમ પણ સમજવું જોઈએ કે- અનિશસ્ત્ર–પરિણત અર્થત ઉષ્ણ જળ પણ મુનિને ગ્રાહ્યા છે. રાખનું પાણી ગ્રાહ્ય નથી, કારણ કે એમાં મિશ્રની શંકા રહે છે. માટી આદિથી મળેલું જળ ઉભયકાય શસ્ત્ર છે (૨). ભાવશસ્ત્ર પહેલે કહી દીધું છે. (४४) તેજસ્કાયને પણ ભગવાને સચેતન કહી છે, એ હવે કહે છે – તેજસકાય સજીવ છે, કારણ કે લાકડાં (ઈધણું) અદિ આહાર આપવાથી Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ अध्ययन ४ मृ. ४ वायुकायस्य सचित्ततासिद्धिः शस्त्रपरिणता चित्तानिकायमाह उष्णमन्नं कृशरौदनादि, उष्णपानकं शाकौदनादीनामवस्रावणादि (ओसामण इति भाषा ), तप्तेष्टका सिकतादि च, एतेष्वनिसंयोगनिष्पाद्यत्वादचित्ता निकायशब्दो व्यपदिश्यते, क्षुधाद्युपशमनार्थे ग्राह्योऽसौ । - वायुकायः । वायुश्चित्तवानाख्यातः । कथमस्य सचेतनत्वमिति चेत्तत्प्रमाणाद् गृहाण, तथाहि - वायुश्चेतनावान् अनन्यप्रेरिताऽनियततिर्यग्गमनत्त्वात्, हरिणगवयादिवत्, स च 'अनेकजीवः, पृथक्सत्त्वः आख्यातः, शस्त्रपरिणतादन्यत्र' इत्यादिकानां प्राग्वद्वयाख्या बोद्धव्या । खिचड़ी, भात आदि उष्ण अन्न, शाकका ओसामण और चावलोंका मण्ड आदि उष्ण पान, तपी हुई ईंट, बालू आदि शस्त्र-परिणत अचित्त अग्निकाय कहलाते हैं। ये सब अग्निके संयोगसे निष्पन्न होते हैं इसलिए इनमें अचिन्त अग्निकाय शब्दकी प्रवृत्ति होती है । ( वायुकाय ) वायुकायको भी भगवानने सचित्त कहा है। वायु कैसे सचित्त है सो कहते हैं । वायु सचेतन है, क्योंकि दूसरेकी प्रेरणाके विना अनियत रूप से तिर्यक्गमन करनेवाला है, जैसे हिरन या रोझ ( गवय ) । अनेकजीव और पृथक्सत्त्व आदिकी व्याख्या पहले के समान समझनी चाहिए । ખિચડી, ભાત આદિ ઊનું અન્ન, શાકનું એસામણુ અને ચાખનું એસામણુ, આદિ ઊનું પાન, તપેલી ઇંટ, ગરમ રેતી આદિ શસ્ત્રપરિણત અચિત્ત અગ્નિકાય કહેવાય છે. એ બધાં અગ્નિના સંયોગથી નિષ્પન્ન થાય છે, તેથી એમાં અચિત્ત અગ્નિકાય શબ્દની પ્રવૃત્તિ થાય છે. (૩) ( वायुडाय ) વાયુકાયને પણ ભગવાને સચિત્ત કહી છે. વાયુ કેવી રીતે સચિત્ત છે તે કહે છે:વાયુ સચેતન છે, કારણ કે ખીન્તની પ્રેરણા વિના અનિયતરૂપે તિ ્ ગમન કરનારા છે, જેવું કે હરણુ અથવા રાઝ (નીલગાય ). અનેક જીવ અને પૃથસત્ત્વ આદિની વ્યાખ્યા પહેલાંની પેઠે સમજવી. Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । पाच पूर्ववत् । शस्त्रस्वरूप, आख्यात 'मिस सचेतनत्यम् ।। २१४ श्रीदशवेकानिक्स न हि कचिदपि विरहितात्मानो ज्वरतापोष्णगापाः संश्रयन्ते न वोपलभ्यन्ते, एवमेव निस्तेजस्काहारादितोऽणुमात्रोऽपि तापो न जन्यते, तस्माद् यावदात्मसंयोगः भाव्यवाहारादीनां वापजनकत्यमतः सिदं तेजसः सचेतनत्यम् । 'अनेकनी, धक्सचम् ' इति प्राग्वद , 'आख्यात '-मित्यनेनान्ययः, 'शत्रपरिणतादन्यत्र इति च पूर्ववत् । शस्त्रस्वरूपमाद, तत्र स्वकायशस्त्रं-करीपाग्नेस्तृणामिः, एवंविधान परिणतोऽप्यमिः सर्वथैवाग्रानो व्यवहारतोऽशृद्धत्वात् । परकायानं जलमृत्तिका: दि। उभयकापशस्त्रमुष्णोदकादि । भावशस्त्रममिकायं प्रति मनसो दुष्पणिधानम् । होते हैं, जैसे ज्यरके ताप। आत्मारहित शरीर (शय-मुर्दा) में कभी ज्वरका ताप नहीं सुना जाता न उपलब्ध होता है। इसीप्रकार निस्तेजस अंगारमें अणुमात्र भी ताप नहीं होता, अतएव सिद्ध है कि अंगार आदिमें तापजनन शक्ति जप-तक आत्मा रहती है तप तक होती है। इसलिए तेजस्काय सचेतन है। 'अनेकजीव और पृथक्सत्त्व' आदि पदोंकी व्याख्या पहलेकी भाँति है। ___ यह भी समझ लेना चाहिये कि वही तेजस्काय सचित्त है जो शस्त्र-परिणत न हो। तेजस्कायके शस्त्र ये हैं-जैसे छाणाकी अग्निका शस्त्र तृणकी अग्नि है । इस प्रकारकी शस्त्रपरिणत अग्नि ग्राह्य नहीं है। क्योंकि वह व्यवहारसे अशुद्ध है। तथा इसके ग्रहण करनेमें भगवानका आज्ञा भी नहीं है । जल मृत्तिका आदि पर-काय शस्त्र है। उष्णजल उभयकाय शस्त्र है। હોય છે, જેમકે જ્વરને તાપ. આભારહિત શરીર ( મુડ )માં કદિ જવાના તાપ નથી સાંભળવામાં આવતું કે નથી જોવામાં આવતું. એ રીતે નિસ્તેજક અંગારામાં આશુમાત્ર પણ તાપ હેતે નથી. તેથી સિદ્ધ થાય છે કે અગર આદિમાં જ્યાં સુધી આત્મા હોય છે ત્યાંસુધી જ તાપ–જનન-શકિત રહે છે. તથા તેજસ્કાય સચેતન છે. “અનેક જીવ અને પૃથફ-સર્વ આદિ શબ્દની વ્યાખ્યા '' पाडलांनी भ छे. એ પણ સમજી લેવું જોઈએ કે એજ તેજસ્કાય સચિત્ત છે કે જે શોપરિણત ન હોય. તે કાયનાં શસ્ત્ર આ છે—જેમ છાણુના અતિનું શબ તરણને અગ્નિ છે. એ પ્રકારને શસ્ત્રપરિણત અગ્નિ ગ્રાહ્ય નથી, કારણ કે તે વ્યવહારથી અશુદ્ધ છે. વળી તેને ગ્રહણ કરવાની ભગવાનની આજ્ઞા પણ નથી . જળ, માટી વગેરે પરકાયાસ્ત્ર છે ઉનું પાણી ઉભયકાયશ છે, Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू. ४ वनस्पतिकायस्य सचित्ततासिद्धिः पूरितोऽपि मिश्रत्वादग्राह्य एव सचित्तवत् । ( ४ ) वनस्पतिकायः । 1 वनस्पतिश्चित्तवान् आख्यातः, व्याख्या तु पूर्ववत् । चैतन्यवस्यसिद्धिचेत्थम्वनस्पतिः सचेतनः, बाल्याद्यवस्थासन्दर्शनात् छेदन-भेदनादिभिर्लानतादिदर्शनाच्च मनुष्यशरीरवत् । शेषं पूर्ववत् । शस्त्रं द्रव्यभावभेदाद्विविधं तत्र द्रव्यशस्त्रंस्वपरोभयकायात्मकम् । स्वकायशस्त्रं- यष्ट्यादि । परकायशखं पापाणाऽसिकर्त्तर्यादि, अचित्त वायु साधुओं को ग्राह्य है, किन्तु दूसरे प्रहरका मिश्र वायु सचित्त वायुकी तरह अग्राह्य है । (४) (वनस्पतिकाय . ) २१७: 9 " वनस्पतिकायको भी भगवानने सचित्त कहा है । वनस्पति सचित्त है, क्योंकि उसमें बाल्यावस्था आदि, तथा छेदन भेदन करने से म्लानता आदि सचेतनके गुण देखे जाते हैं, जैसे मनुष्यका शरीर । अर्थात् बाल्य - तरुण आदि अवस्थाएँ और छेदन-भेदन आदि करने से म्लानता होनेके कारण जैसे मनुष्य शरीर सचेतन है वैसे ही वनस्पतिकाय भी सचेतन है । 'अनेकजीच' आदि पदोंका व्याख्यान पहलेकी भाँति जानना चाहिए । वनस्पति - कायके शस्त्र दो प्रकारके हैं - (१) द्रव्यशास्त्र और(२) भावशस्त्र । द्रव्य-शस्त्र स्वकाय, परकाय और उभयकाय हैं, लकडी आदि स्वकाय शस्त्र हैं । लोह पत्थर आदि परकाय शस्त्र हैं, परशु કિન્તુ ખીજા પ્રહરના મિશ્રવાયુ સચિત્તવાયુની પેઠે અગ્રાહ્ય છે (૪). ( वनस्पतिाय ) વનસ્પતિકાયને પણ ભગવાને સચિત્ત કહી છે. વનસ્પતિ ચિત્ત છે, કારણ કે તેમાં બાલ્યાવસ્થા આદિ તથા ઇંદ્યન ભેદન કરવાથી ગ્લાનતા આદિ સચેતનના ગુણુ જોવામાં આવે છે, જેમકે મનુષ્યનું શરીર, અર્થાત્ ખાલ્ય-તરૂણ આદિ અવસ્થાએ! અને છેદન-ભેદન આદિ કરવાથી મ્લાનતા થવાને કારણે જેમ મનુષ્યનું શરીર સચેતન છે તેમ વનસ્પતિકાય પણ સચેતન છે. અનેક–જીવ ' આદિ શબ્દેનું વ્યાખ્યાન પહેલાંની પેઠે જાણવું. , વનસ્પતિકાયનાં શસ્ત્ર બે પ્રકારનાં છે. (૧) દ્રવ્યશત્રુ અને (ર) ભાવશસ્ર. ટૂયશસ્ત્ર સ્વકાય, પરકાય અને ઉભયકાય છે લાકડી આર્દ્ર સ્વકાયશસ્ત્ર છે. લેડ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ श्रीदवेकालिकसूत्रे शस्त्रं चास्य द्रव्य भावभेदाद्विविधं तत्र द्रव्यशखं स्व-पर-तद्भय-काय मेदा स्त्रिविधम् । स्वकायशखं पौरस्त्यादिवायोः पात्रात्यादिवायुः। परकायशखमनलादि । उभयकायशस्त्रमनलादिसंतप्तो वायुरेव । भावशस्त्रं तु वायुं प्रति मनसो दुष्पवृषिः । वायुः सचित्ताचित मिश्रमेदात्रिधा, तत्र सचितो धनवातादिः, अचित्तो रतिप्रभृतिषु पूरितः सोऽप्यन्तर्मुहर्त्ता यावदेकं याममचेतनः, तदनु पूर्ण द्वितीययामं यावन्मिथः, तत्यात्सचित एव रोगावस्थायां artistered स्पादि १ nearest द्वितीयशतके मथमोद्देशे वाय्वधिकारे " से भंते ! किं पुढे उद्दार अपुढे उद्दाइ ? गो० ! पुढे उद्दार नो अपुट्ठे उद्दाइ" छाया - 'स (वायुः) भगवन् ! कि स्पृष्टः अपद्रवति ( म्रियते) अस्पृष्टः अपद्रवति ? गौतम ! स्पृष्टः अपद्रवति नो अस्पृष्टः अपद्रवति' । अस्य टीका- ' स्पृष्टः स्वकायशस्त्रेण परकायशस्त्रेण वा अपद्रवतिम्रियते ' । वायुकायका शस्त्र द्रव्य-भाव-भेद से दो प्रकारका है, द्रव्यशस्त्र-स्वपर-उभयकायके भेदसे तीन प्रकारका है। वहां स्वकाय शस्त्र पूर्व आदि दिशाके वायुका पश्चिम आदि दिशाका चायु, परकाय-शस्त्र अग्नि आदि है, उभयकाय शत्र अग्नि आदिसे तपा हुआ वायु ही है । वायु तीन प्रकारका है-~~ (१) सचित्त, (२) अचित्त, (३) मिश्र । घनवात आदि सचित्त है, हति या रबरकी थैली आदिमें भरी हुई हवा अचित्त होती है, किन्तु अन्तर्मुहूर्त्त के बाद एक पहर तक अचित रहती है, उसके बाद दूसरे पहर तक मिश्र अवस्थामें रहती है बादमें सचित होजाती है। रोग आदि अवस्थामें वायुकी आवश्यकता होने पर दृति आदिमें भरा हुआ વાયુકાયના શસ્ત્ર દ્રવ્ય-ભાવભેદે એ પ્રકારના છે. દ્વવ્યશસ્ત્ર સ્વ-પર-ઉભયકાયના ભેદે કરી ત્રણ પ્રકારને છે, ત્યાં સ્વકાયશસ્ત્ર-પૂર્વીઆદ દિશાના વાયુને પશ્ચિમઆદિ દેશાને વાયુ, પરકાયશસ્ત્ર અગ્નિ આદિ છે, ઉભયકાયશસ્ત્ર અગ્નિાદિથી તપેલે વાયુ જ છે. ભાવશ પહેલાની જેમ સમજી લેવું, વાયુ ત્રણ પ્રકારને છે.(१) सत्ति, (२) अशित, (3) मिश्र धन-पात आहि वायु सथित छे, મસક યા રબ્બરની થેલી નંદમાં ભરેલી હવા અચિત્ત છે; પરન્તુ અંતર્મુહુર્તની પછી એક પ્રહર સુધી અચિત્ત રહે છે, ત્યારપછી મીન્ત પ્રહર સુધી મિશ્ર અવસ્થામાં રહે છે, અને ત્યારબાદ સચિત્ત બની જાય છે. રેગાદિ અવસ્થામાં વાયુની આવશ્યક્તા પડતાં મસક આદિની અંદર ભરેલા અચિત્ત વાયુ સાધુઓને ગ્રાહ્ય છે, Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- - - अध्ययन- ४: सू. ५ वनस्पतिभेदाः. मूलवीजा मूलमेव. बीजं येषां ते कमलकन्दप्रभृतयः । पर्वबीजाः पर्वणि-ग्रन्यौ पर्वेव वा बीजं येषां ते तथा इक्षप्रमुखाः । स्कन्धवीजा: स्कन्धः-स्थुइं स एव बीजं येपां- ते तथा शल्लकीप्रभृतयः ।. बीजरुहानीजाद रोहन्तिप्रादुर्भवन्तीति ते तथा शालिगोधूमादयः । सम्भूचिमा संमृर्छन्तिबीनं विनापि दग्धभूमावपि समुद्भवन्तीति ते तथोक्ताः पृथिवीजलसंयोगमात्रजनितास्तृणविशेषा इत्यर्थः । आपत्वात्सिद्धिः। तथा तृणलताः तृणानि लताश्चेत्यर्थः । वनस्पतिकायिका अवशिष्टाः समस्तवनस्पतय इत्यर्थः । यद्वा 'तृणलतावनस्पतिकायिकाः' इत्येक मूलबीज-मूलही जिनका पीज़ हो वह, कमलका कन्द आदि मूल: बीज हैं। ___ पर्ववीज-पोर (गांठ)में या पर्वही जिनका चीज है ऐसे, गन्ना (सांठा), आदि पर्ववीज़ कहलाते हैं। . स्कन्धवीज-स्कन्ध (थुड)ही जिनका बीज है उस. शल्लकी आदिको स्कन्धबीज कहते हैं। ..' बीजरुह-चाँवल गेहूं आदि चीजसे उग़नेवाली वनस्पतिको बीजरूह कहते हैं। संमूछिम-चिना चीजके जलीहुई भूमिमें भी जो पृथ्वी और ललके संयोगसे उग जावे ऐसी घास आदिको संमूच्छिम.कहते हैं। तृणलता-तिनका (घास) और लताएँ सव वनस्पतिकायिक है। अथवा "तृणलतावनस्पतिकायिकाः ५ यह एकही पद है। दर्भ મૂલબીજ–મૂળજ જેનું બીજ છે તે કમળને કંદ આદિ મૂલબીજ છે. - પર્વબીજ-ગાંઠુ યા પર્વમાં જેનું જ છે એવી શેરડી આદિ પર્વબજ उपाय छे. &ઘબીજ–સ્કઘ–થડજ જેનું બીજ છે એવા શત્રુકી આદિ ને સ્કંધબીજ કહે છે. બીજરૂહ -ળા ઘઉં આદિ બીજથી ઉગનારી વનસ્પતિને બીજરૂહ કહે છે. સ્મૃછિમનબીજ વિના મળી ગએલી ભૂમિમાં પણ જે પૃથ્વી અને જળના ગથી ઉગે એવાં ઘાસ આદિલે સંમૂરિઝમ કહે છે. Pre-dri (प्रास ) मने सत से या वनस्पतिथि: छ.. वृणलतावनस्पतिकायिका : सेमे HD. (East) Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशीकालियो उभयकायशस्र-परशदात्रादि । माषणसं तु नं पति मनोमालिन्यम् ॥ ४ ॥ सम्मति वनस्पतिमेव सविशेएं वर्णयति-तंजहा' इत्यादि । मूलम्-तंजहा-अग्गवीया मूलवीया पोरवीया,खंधवीया बीयरुहा संमुच्छिमातणलया वणस्सइकाइया समीया चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्य सस्थपरिणएणं ॥५॥ छाया-तद्यथा-अग्रवीना मूलयीनाः पर्वबीजाः स्कन्धवीजा: वीजरुहाः सम्मच्छिमास्कृणलता वनस्पतिकायिकाः सीनाविषयन्त आख्याता अनेकजीवाः पृथक्सचा अन्यत्र शस्त्रपरिणतेभ्यः ॥५॥ यहां वनस्पतिकायका विशेष वर्णन करते हैं सान्वयार्थः-तंजहा-वह इस प्रकारसे है-अग्गयीया-जिनका बीज अग्रभागमें होता है, मूलवीया-जिनका चीन मूलभागमें होता है, पोरयीयानजिनका पोज पोर (सन्धि) में होता है, खंधयीया-निनका वीज स्कन्ध (डाले) में होता है, बीयरुहा-धीजसे उगनेवाले, संमुच्छिमा विना वीजके उत्पन होनेवाले, तणलया-तृण और लताएँ; ये सभी वणस्सइकाइया बनस्पतिकायिक हैं, सबीया पूर्वोक्त अपने-अपने नामप्रकृतिके उदयसे उत्पन्न हुए वीजसहित सब वनस्पतिकाय चित्तमंत सचित्त अक्खाया-कहे गये हैं। अन्नत्य-सिवाय सत्थपरिणएणं-शस्त्रपरिणतके ये बनस्पतिकाय अणेगजीवाअनेक जीववाले और पुढोसत्ता भिन्न-भिन्न सत्तावाले हैं ॥५॥ ____टीका-तथाहि-अग्रवीजा अग्रे अग्रभागे वीजं येषां ते तथा कोरण्टकादयः। (फरसा) दान आदि उभयकाय शस्त्र हैं। भावशस्त्र उसके प्रति मनके परिणाम दुष्ट करना ॥४॥ अय वनस्पतिकायका विशेष वर्णन करते हैं-'तं जहाँ इत्यादि । अग्रवीज-जिनके बीज अग्र-भागमें होते हैं ऐसे कोरंटक आदि अग्रवीज कहलाते हैं। પત્થર આદિ પરકાયશસ્ત્ર છે. કહાડે, દાતરડું આદિ ઉભયકાય શસ્ત્ર છે. ભાવશ એની પ્રતિ મનને પરિણામ દુર કરવા તે. હવે વનસ્પતિકાયનું વિશેષ વર્ણન કરે છે–āન ઈત્યાદિ. અબીજ–જેનાં બીજ અગ્રભાગમાં હોય છે એવાં કરંટક (હજરી ગુલ). આદિ અઝબીજ કહેવાય છે. Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू. ६ त्रसकायवर्णनम् २२१ जेसि केसिंचिं पाणाणं अभिकंतं पडिकंतं संकुचियं पसारियं रुयं भंत तसियं पलाइयं, आगइगइविन्नाया।जे य कीडपयंगा। जा य कुंथुपिवीलिया । सवे वेइंदिया, सवे तेइंदिया, सवे चउरिंदिया, सवे पंचिंदिया, सवे तिरिक्खजोणिया, सर्वे नेरइया, सवे मणुया, सवे देवा, सवे पाणा परमाहम्मिया । एसो खल्ल छहो जीवनिकाओ तसकाउ-त्ति पवुच्चइ ॥६॥ छाया-अथ ये पुनरिमेऽनेके वहवस्त्रसाः प्राणिनस्तयथा-अण्डजाः पोतना जरायुजा रसनाः संस्वेदजाः सम्मृच्छिमा उद्भिजा औपपातिकाः, येपां केपाञ्चित्माणिनामभिक्रान्तं प्रतिक्रान्तं संकुचितं प्रसारितं रुतं भ्रान्तं त्रस्तं पलायितम् , आगतिगतिविज्ञातारः। ये च कीटपतङ्गाः । याश्च कुन्युपिपीलिकाः। सर्वे द्वीन्द्रियाः, सर्व त्रीन्द्रियाः, सर्वे चतुरिन्द्रियाः, सर्वे पञ्चेन्द्रियाः, सर्वे तिर्यग्योनिकाः, सर्वे नैरयिकाः, सर्वे मनुजाः, सर्वे देवाः. सर्वे प्राणाः परमधर्माणः । एप खलु पष्ठो जीवनिकायस्वसकाय इति पोच्यते ॥६॥ (६) सकायवर्णन. ___ सान्वयार्थ:--से=अध पुण और जे-जो इमेन्ये (आगे कहे जानेवाले) अणेगे अनेक प्रकारके यहवे बहुतसे तसा त्रस पाणा-पाणी हैं, तंजहावे इस प्रकार हैं-(१) अंडया अण्डे से उत्पन्न होनेवाले, (२) पोयया विना जेर (जरायु-आंवल-जड)के अर्थात् विना ही कुछ मलभागके वस्त्रसे पूंछे हुएके समान उत्पन्न होनेवाले, (३) जराउया-जेरसे लिपटे हुए उत्पन्न होनेवाले,(४)रसया रसमें उत्पन्न होनेवाले, (५) संसेइमा पसीनेसे उत्पन्न होनेवाले, (६) संमु. च्छिमामूच्छिम, (७) उम्भिया पृथ्वीको भेदकर उत्पन्न होनेवाले (शलभ आदि), (८) उववाइया-उपपात जन्मबाले-देव और नारकी, जेसिं-केसिंचि= इनमें से जिन किन्हीं पाणाणं आणियोंका अभिकतं अभिमुख गमन होता है, पडिकंत प्रतिकूल गमन होता है, संकुचियं शरीरमें संकोच-सिकुडन होता है, पसारियं-शरीरमें फैलाव होता है, रुयं-शब्दका प्रयोग होता है, भंत=इधर-उधर भ्रमण होता है, तसियं-उद्वेग होता है, पलाइयंडरसे भागना-देखा जाता है, (वे त्रस) आगइगइविन्नाया आगमन और गमनको जाननेवाले, य=और जेमो Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० श्री कामिक पदम् तंत्र तृणादिर्मादीनि लताः चम्पकाशीवासस्यादयः, वनस्पति फायिकाः- वनस्पतिकाय भेदाः - अग्रवीजादयः सर्वेऽपि वनस्पतिकायिका एवं पुनर्वनस्पतिकायिकग्रहणं स्वगतसूक्ष्मादिफलभेदरूपानार्थम् । स्वबीजापूर्ण विहितस्वस्वनामगोत्रप्रत्युद्यात्मक कारणत्रन्तः, अर्थात् पूर्वोक्ता अग्रवीजाद esi feedः) इत्यादीनां व्याख्या पूर्ववत् । इति पञ्चस्था कार्यनिरूपणम् ॥५॥ कार्यस्वरूपमाद' से जे० ' इत्यादि । सम्मर्त क्रममा मूलम् - से जे पुण इमे अणेगे बहवे तसा पाणा, तंजहा- अंडया पोयया जरायुयां रसया संसेइमा समुच्छिमा उच्भिया उववाइया । ( दूब आदि) तृण, चम्पक, अशोक और वासन्ती आदि लताएँ और areers भेद अग्रवोज आदि सर्व वनस्पतिकायिक है । सूत्रमें दूसरी बार 'वनस्पतिकायिक' पदका ग्रहण इसलिए किया है कि - ऊपर बताये हुए भेदोंके सिवाय सूक्ष्म पादर आदि और भी समस्त भेदोंका ग्रहण होजावे | ये सब पहले दिखलाये हुए अपने अपने नाम - गोत्ररूप प्रकृतिके उदयरूप कारणवाले है । अर्थात् पूर्वोक्त बीज आदि सब सचित्त हैं और पृथक-पृथक स्पर्शरूप एक इन्द्रियवाले हैं ॥ ५ ॥ यह पांच स्थावरकायका निरूपण समाप्त हुआ । अय क्रमप्राप्त प्रेसकार्यका स्वरूप कहते हैं- 'से जे' इत्यादि । તૃણુ, ચ પંક, શેક, અને વાસતી આદિ ‘લતાએ અને વનસ્પતિકાયના ભેદ અગ્ર બીજ દિ ણધાં વનસ્પતિયિક છે. સૂત્રમાં બીજી વાર વર્નસ્પતિકાયિક’ શબ્દનું ગ્રહણ એટલા માટે કરવામાં આવ્યું છે કે—ઉપર અતાવેલા ભેદે ઉપરાંત સૂક્ષ્મ બોદર આદિ ખીજા પણ બધા ભેદોનું ગ્રહણ થઈ જવા પામે. એ અધા પહેલાં મત્તાયેલા પાત- પેાતાનાં નામ – - गोत्र-श्य अद्धतिना उदय - ३५ अरवाजा छे, અર્થાત્ પૂર્વોક્ત ખીજ આદિ બધાં ચિત્ત છે અને પૃથક પૃથક સ્પર્શરૂપ એક इन्द्रियवाणां छे. (च) धति पथ - स्थावर - अयनुं निश्चायु समाप्त, ये सायनुं स्व३५ ४ छे :- से जे धत्याहि. Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययनं ४ सू. ६ सकायवर्णनम् २२३ एव परिस्पन्दादिसामर्थ्योपेताः पोतजाः । यद्वा पोतो वस्त्रम्- (इति शब्दकल्पद्रुमः); तेन तत्संमार्जिता लक्ष्यन्ते, तथा च- पोता इव वस्त्रसंमार्जिता इव गर्भवेष्टनचर्माऽनानृतत्वात्, जायन्ते = उत्पद्यन्ते इति, पोताद - गर्भवेष्टनचर्मरहितगर्भात् जायन्त इति वा पोतजाः कुञ्जर-शल्लक शश-नकुल-मूपिक चर्मचटिका वल्गुलिकादयः । जरायुजाः=जरामेति=गच्छतीति जरायुः गर्भवेष्टनचर्म तस्माज्जायन्त इति ते = नर-महिप - गवादयः । रसजाः = रसे = मद्यलक्षणे ' रसजो मद्यकीटः ' इति हमात् जायन्त इति, रसे - विकृतमधुरादौ जायन्त इति वा रजसाः । संस्वेदजाः=संस्वेदात्=वर्माज्जायन्त इति ते युका लिक्षा- मत्कुणप्रमुखाः । सम्मूच्छिमाः=सम्मूर्च्छनं सम्मूर्च्छः = गर्भाधानमन्तरेणैव स्वयं समुत्पत्तिः, ('मूर्च्छा मोह-समुच्छ्राययोः' अस्माद्भावे घञ, व्युत्पत्तिमदर्शनमेतत्, शब्दोऽयं मनोविकले १ ' अन्येष्वपि दृश्यते इति डः , निकलते ही गमन - आगमन आदि क्रियाएँ करनेकी सामर्थ्य से युक्त पूर्ण · अवयववाले, या वस्त्रसे पोंछे हुएके समान साफ उत्पन्न होनेवाले हाथी, शल्लकी, खरगोश, नौला, चूहा आदि पोतज कहलाते हैं (२), जरायु (आँवल-जड) सहित उत्पन्न होनेवाले मनुष्य महिषादि जरायुज कहलाते हैं (३), मदिरा आदि रसोंमें उत्पन्न होनेवाले तथा स्वादसे चलित अर्थात् सड़े हुए मधुरादिरसोंमें उत्पन्न होनेवाले रसज कहलाते हैं (४), पसीनेसे पैदा होनेवाले जू, लीख, खटमल आदि संस्वेदज कहलाते हैं (५) गर्भाधानके विना शरीरनाम-कर्मके उदयसे शरीरके अवयवोंका संग्रह हो जानेसे स्वयं ही उत्पन्न होनेवाले जीव संमूच्छिम कहलाते हैं (६), નીકળતાં જ ગમનાગમન આદિ ક્રિયા કરવાના સામર્થ્યથી યુક્ત પૂર્ણ અવયવवाजा, या વસ દ્રારા લૂછેલાની પેઠે સાફ ઉત્પન્ન થનારા હાથી, શેળા, સસલાં, નાળિયા, ઉંદર આદિ પાતજ કહેવાય છે (ર). જરાયુ ( નાળ વગેરે મળ ભાગ ) સહિત ઉત્પન્ન થનારા મનુષ્ય, મહિષાદિ (ભેંશ વગેરે) જરાયુજ કહેવાય છે. (૩). મદિરા આદિ રસમાં ઉત્પન્ન થનારા તથા સ્વાદથી ચલિત અર્થાત્ સડેલા મધુર્શિદ રસામાં ઉત્પન્ન થનારા રસજ કહેવાય છે. (૪) પ્રસ્તેદથી પેદા થનારા જૂ, લીખ, માંકણુ, આદિ સંસ્વેદજ ધાન વિના શરીરનામ-કર્મના ઉદયથી શરીરના અવયવને સ્વયં ઉત્પન્ન થનારા જીવા સમૂચ્છમ કહેવાય છે. (૬). પૃથ્વીને ભેદીને ઉત્પન્ન उडेवाय छे. (५). गर्भा - સંગ્રહ થઈ જવાથી Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीदशकालिको फीडपयंगा-कीट-कीटे और पर्यगा-पतगिये ,य औरजा-जोकुयुपियालियान कुंथवा और चींटियाँ है, ये सव्वे येइंदिया-ए दीन्द्रिय सत्य तेइंदिया पर श्रीन्द्रिय सव्वे परिदिया सब चार इन्द्रियवाले सबै पंचिंदिया मन पत्रेन्द्रिय सन्चे तिरिक्खजोणिया सय तिर्यप्रगतिवाले सब्वे नेरड्या सन नारकी सब्वे मणुया सब मनुप्य सम्वे देवासय देव सत्वे-पूर्वोक्त सब पाणा-माणीमात्र परमाहम्मिया मुसके अमिलापी है। एसोन्यह खलु-निश्चय करके छटो-छठा जीवनिकाओ-जीवनिकाय तसकाउत्ति=" प्रसकाय " ऐसा पचइ-कहा जाता है ॥६॥ टीका-से-अय-स्थावरपञ्चकनिरूपणानन्तरं पुनः इमे-वक्ष्यमाणभेदार अनेके द्वीन्द्रियादिभेदेनाऽनेकमकाराः यहवा एकेकस्यां जाती प्रचुरा भिन्नया नयो वा असा: बसनामकर्मोदयात् , अस्पन्ति आवपायभिपीडिता उद्विजात प्रच्छायशीतलं स्थलं प्रयान्ति वेति तथोक्ताः प्राणन्ति जीवन्त्येभिारात माण्यन्ते जीन्यन्ते माणिन एभिरिति वा (मोपमुष्टा-दनितेः, अण्यतेवों करण घर) माणा उच्छ्वासादयस्ते सन्त्येपामिति प्राणा: माणिन इत्यर्थः, तद्यथा अण्डे-पक्ष्यादिमादुर्भावककोपे जायन्ते उत्पद्यन्ते इत्यण्डजा-पक्षि-सपादयः । पोता एव जाता पोतजाः न जरायबादिना वेप्टिताः पूर्णावयवयोनिनिगतमात्रा १ 'सेः पचायच्' २ 'अशआदित्वादन्' जो ये आवालप्रसिद्ध द्वीन्द्रिय आदिके भेदसे अनेक, एक एक जातिमें बहुतसे अथवा भिन्न-भिन्न योनिवाले आतप (गर्मी) आदिस पीडित होनेपर त्रास (उद्वेग) पानेवाले, अथवा छायादार शीतल आर निर्भय स्थलमें चले जानेवाले, व्यक्त चेतनावान, उच्छवास आदि प्राण वाले बस कहलाते हैं, उनके भेद इस प्रकार हैं पक्षी सर्प आदि अण्डज हैं (१), जरायुसे वेष्टित न होकर योनिस જે એ આબાલ-પ્રસિદ્ધ કીયિાદિના ભેદે કરીને અનેક, એક એક જાતિમ ઘણુ અથવા ભિન્ન-ભિન્ન નિવાળા, ગરમી આદિથી પીડિત થતાં સાર (ઉદ્વેગ) પામનારા, અથવા છાયાવાળા શતળ અને નિર્ભય સ્થળમાં ચાલ્યા જનારા, વ્યકત ચેતનાવાન્ ઉસ આદિ પ્રાણુવાળા બસ કહેવાય છે, તેના બે मारे छे: પક્ષી સર્ષ આદિ અંડજ છે (૧). જરાયુથી વેતિ ન હઈને યોનિમાં Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । अध्ययन ४. ६ त्रसकायवर्णनम् २२५ सयोविज्ञातारः वेदितारः ओघसंज्ञया प्रवृत्तिमन्तः स्वस्वाभिक्रान्तप्रतिक्रान्तादिस्वपयकाऽवबोधसम्पन्ना भवन्तीत्यर्थः । ३२ इन्द्रियादिविभागप्रदर्शनेन तानेव परिचाययति'ये चे' त्यादि, ये च कीट गाः कीटा: कृमयो गण्डोलकमभृतयः, तजातीया अन्ये द्वीन्द्रियाच, पतङ्गा: साश्चतुरिन्द्रियास्तज्जातीया भ्रमरादयश्च । याच कुन्थु-पिपीलिकाः, कुन्थवश्व ििलकाश्चेत्यनयोरितरेतरयोगे 'परवल्लिङ्ग द्वन्द्व तत्पुरुपयो -रिति परवल्लिङ्गता। कुधा चलन्त एव परिज्ञेया न स्थिताः मूक्ष्मत्वात् लघुकायजीवाः, पिपीलिका:= की कास्तज्जातीयास्त्रीन्द्रियाच, द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियक्रममुल्लङ्घय द्विचतुस्त्रीन्द्रियेति व्युणिोपादानमार्पत्वात्सूत्रगते.चिच्याच । ततः सर्वे द्वीन्द्रियाः, सर्वेत्रीन्द्रियाः, सो रिन्द्रियाः, सर्वे पश्चेन्द्रियाः, सर्वे तिर्यग्यो निकाः, सर्वे नैरयिकाः, सर्वे प्रवृई करनेवाले होते हैं । अनुकूलता और प्रतिकूलताको सामान्यतया ओ संज्ञासे जानते हैं। इन्द्रियोंका विभाग करके फिर उनका कथन करते हैं मि, लट,गण्डोल आदि उनकी जातिवाले दीन्द्रिय हैं। शलभ और उन जातिके भ्रमर आदि चार इन्द्रियवाले होते हैं । कुन्थु और पिपीलिी (चिउंटी) तथा उनकी जातिके अन्य जीव तीन इन्द्रियवाले होते हैं। - यती श्रीन्द्रिय यतानेके बाद पहले चार इन्द्रिय फिर तीन इन्द्रियवाले जीव __यह हैं, यह कथन आप होनेसे किया गया है, इसलिए सब दीन्द्रिय, सूत्रीन्द्रिय,सवचतुरिन्द्रिय,सब पंचेन्द्रिय,सव तिर्यश्च,सव नारकी, सब પ્રતિકૂળતાને સામાન્ય રીતે એવ–સંજ્ઞાએ કરી જાણે છે. ઈદ્રિના વિભાગ કરીને હવે એનું કથન કરવામાં આવે છે - જ કૃમિ (કરમિયાં), લટ, અળસીયાં વગેરે એની જાતિવાળા કન્દ્રિય છે. તીડ અને બની જાતિવાળા ભ્રમર આદિ ચાર ઇંદ્રિયવાળા છે. કુંથવા અને કીડી તથા તેની અતિવાળા બીજા જી ત્રણ ઇંદ્રિયવાળા હોય છે. અહીં દ્વિદ્રિય બતાવ્યા પછી જે હેલાં ચાર ઈદ્રિયવાળા અને પછી ત્રણ ઇદ્રિયવાળા બતાવ્યા છે, એ કથન આઈ વાથી કરેલું છે. એ રીતે બધા કીન્દ્રિય, બધા શ્રીન્દ્રિય, બધા ચતુરિન્દ્રિય, બધા પંચંદ્રિય, બધા તિર્યંચ, બધા નારકી, બધા મનુષ્ય, બધા દેવ, એ પ્રકારે or: M Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ श्रीदशा रूद्रः, I) गद्दा समन्ततो देवस्य मूर्च्छनम्भावयोगस्तेन निहताः सम्मूर्च्छिमा मातापि संयोगं विने पपीलका मक्षिका-मकोटकाइय (आपल्या त्सिदिः) । उद्भाद्भिषप्रथिवीं भिचा जायन्त इति ते भा दयः । औपपातिकः उपपतनमुपपातः (पतधातोर्भावे घञ) देवनारकाणां मसि द्धगर्मसम्मूर्च्छनरूपजन्ममकारद्वयविलक्षण उद्भवस्तेन निर्वृताः ओषपातिकाः येक नारकाः, देवा हि पुष्पय्यायां नारकाम कुम्भ्यादिषु स्वयं समुत्पद्यन्ते । तानेव विशिनष्टि- 'येषा'-मित्यादिना, येषां केषाञ्चित्पूर्वोक्तानां प्राणानां = वासोटासादिमाणयताम्, अभिक्रान्तम् = आभिमुख्येन अभिमुखं वा मापकस्य क्रम गमनममिक्रान्तं ' भवती 'ति शेषः । मतिक्रान्तं = पति-पातिकूल्येन प्रतिकूलं वा पज्ञापकस्य क्रमणम्, यद्वा मतिक्रान्तं = परानृत्य गमनम्, संकुचितं = संकोचः गात्रावकुञ्चनम्, प्रसारितं=रुरचरणादिमसारणं रुतं =शब्दकरणम्, भ्रान्तम् इतस्ततो भ्रमणम्, त्रस्तं = त्रासः - उद्वेगः पलायितं = पलायनं भयादिना स्थानान्तरगमनं 'भवती' - त्यध्याहृतेन प्रत्येकं सम्बन्धः । सर्व एवैतेऽभिकान्तादयः शब्दाः भार न्ताः । ते त्रसाः आगतिगतिविज्ञातारः=भगतिः आगमनम्, गतिः गमनं graat veer server होनेवाले शलम (टिड्डी) आदि उद्भिज हैं (७), गर्भ और संभूच्र्च्छन जन्मोंसे भिन्न देव और नारकोंके जन्मको उपपात कहते हैं, उससे उत्पन्न होनेवाले देव और नारकी औपपातिक कह लाते हैं (८), देव शय्या पर और नारकी कुम्भीमें स्वयं उत्पन्न होते हैं । ये सब पूर्वोक्त जीवों प्रज्ञापeat अपेक्षा सामने आना, लौटके पीछे जाना, इसी प्रकार अंगको सिकोड़ना, हाथ-पैर फैलाना, बोलना, भ्रमण करना, उद्विग्न होना, भय आदि कारणोंसे भागना आदि क्रियाएँ होती है । वे गमन आगमन आदिके जाननेवाले अर्थात् अधसंज्ञासे थनाश शसल (टीड) आदि भिनन उद्देवाय छे, (७) गर्भ भने समूर्छन જન્માથી ભિન્ન દેવ અને નારકોના જન્મને ઉપપાત કહે છે, તેથી ઉત્પન્ન થનાર દૈવ અને નારી ઔપપાતિક કહેવાય છે (૮) દેવ શા કુંભીમાં સ્વચ ઉત્પન્ન થાય છે. પર અને નારી એ આધા પૂર્વકત જીવાનું પ્રજ્ઞાપકની અપેક્ષાએ સામે આવવું, ફરીને પાછા धुं, ये राते अंग से अथवां, हाथ-या साववा, मोसवु, भ्रभवु, बुद्विग्न થવું, ભાદિ કારણે ભાગી જવું, વગેરે ક્રિયાએ હાય છે. તે ગુમનાગમન અાદિને જાણનારા અર્થાત્ એઘ-સંજ્ઞાથી પ્રવૃત્તિ કરનારા હોય છે. અનુકૂળતા Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ म. ७ पड्जीवनिकायानां दण्डपरित्यागः २२७ योंके दंडं दण्ड-हिंसा आदि-को सयं-स्वयं नेव-न समारंभिज्जा आरम्भ करे, नेव-न अन्नेहि-दूसरोंसे दंडं-दण्डको समारंभाविज्जा-आरंभ करावे, दर्डदण्डका समारंमंतेवि-आरम्भ करते हुओंको भी अन्ने-दूसरोंको न नहीं संमणुजाणेजा-भलाजाने,जावज्जीवाए यावज्जीवन-जीवनपर्यन्त तिविहं कृतकारित-अनुमोदनारूप तीन-करण-पूर्वक (इस प्रकार) तिविहेणं तीन प्रकारके मणेणं मनसे वायाएबचनसे कारणं कायासे न करेमि नहीं करूँगा, न कारवेमि नहीं कराऊँगा, अन्ने दूसरे करतंपि-करनेवालेकोभी न समणुजाणामि भला नहीं समझूगा। भंते ! हे भदन्त ! तस्स-पूर्वोक्त उस दण्डसे पडिकमामि-पृथक होता हूँ, निंदामि आत्मसाक्षीसे जुगुप्सा करता हूँ, गरिहामि गुरुसाक्षीसे गहीं करता हूं (और) अप्पाणं-दंडसेवन करनेवाले आत्माका वोसिरामि त्याग करता हूँ ॥६॥ टीका--इत्येषां पूर्वोक्तस्वरूपाणां पण्णां जीवनिकायानां त्रसस्थावरलक्षणजीवसमुदायानाम् , दण्ड यते सारहीनः क्रियते आत्माऽनेनेति दण्ड:-माणग्यपरोपणादिस्तम् , स्वयम् आत्मना नैवन कदापि समारभेत=विदधीत, नैव अन्यैःस्वव्यतिरिकै कैरपि जनैस्तद्वारेति भावः, दण्डम्-उक्तलक्षणव्यापार सामारम्भयेत्कारयेत् , दण्ड समारममाणान् कुर्वाणान् अपि अन्यान् न समनुजानीयात्अनुमन्येत। कियत्समयपर्यन्त ? मित्याह-'जावज्जोवाए' इति, अत्र यावच्छब्दः परिमाणार्थको मर्यादार्थकोऽवधारणार्थस्थाव्ययः, जीवनं जीरा ('जीव प्राणधारणे' अस्मात् 'गुरोश्च हल: (३।३।१०३) इतिपाणिनिवचनेन स्त्रियामकारमत्यये स्त्रीत्वाटाप् 'ईहा, अहे '-त्यादिवत् ,) तया जीवया जीवामित्यर्थः ('ततोऽन्यत्रापि दृश्यते') इति वचनवलाद् यावच्छन्दयोगे द्वितीयायाः प्राप्तावपि सौत्रत्वात्तृतीया, तेन यावन्मम जीवनं तावदिति, जीवनं मर्यादीकृत्यार्थान्न केवलं मरणकाल जिससे आत्मा ज्ञान दर्शन चारित्रसे रहित होजाय उस हिंसा आदि व्यापारको दण्ड कहते हैं । मुनि पूर्वोक्त छह कार्योंके दण्डका यावज्जीव न स्वयं समारंभ करे न दूसरोंसे करावे और न समारंभ करनेवाले જેથી આત્મા જ્ઞાન દર્શન ચારિત્રથી રહિત થઈ જાય, એ હિંસા આદિ વ્યાપારને દંડ કહે છે. મુનિ પૂર્વોક્ત છ કાના દંડને ચાવજીવન પિતે ન સમારંભ કરે, ન બીજાઓ પાસે કરાવે અને સમારંભ કરનારા બીજાઓની ન Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ श्रीदकालिको मनुष्याः, सर्वे देवाः, सर्व माणा पूर्वोक्ताः सफलमाणिनः परमधर्माणा-परमं मुवमेव धर्मों येषां ते मुखामिलापुका इत्यर्थः 'परमा' इत्यत्र दीर्घ आपलान् । एपः अनन्तरोदीरितस्वरूपोऽण्डमादिलक्षणः खलु-निभयेन पष्टः स्थावरपाका पेक्षया पठत्वमापनः जीवनिकायमाणिसमूहः 'प्रसफाय'-इति पोच्यतेफथ्यते प्रसकायनान्ना ख्यात इत्यर्थः ॥६॥ सर्वे प्राणिनः सुखामिलापिणी भवन्ति, सुखं च तेपामनारम्भेणव सम्पद्यतेऽत इदानीमनारम्भोपदेशः-'इथेसि' इत्यादि । मूलम् इच्चेसि छण्हं जीवनिकायाण नेव सयं दंड समारंभिज्जा, नेवन्नेहि दंड समारंभाविना, दंड समारंभंतेवि अन्ने न समणुजाणिज्जा, जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि। तस्स भंते! पडिकमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि ॥७॥ - छाया-इत्येषां पण्णां जीवनिकायानां नैव स्वयं दण्डं समारभेत, नैवान्येदेंण्डं सामारम्मयेत् , दण्डं समारममाणानप्यन्यान् न समनुजानीयात् , यावजीवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्य न समनुजानामि । तस्य भदन्त ! भतिक्रामामि निन्दामि गर्दै आत्मानं व्युत्सृजामिण पटकायका आरम्भ न करनेका उपदेश देते हैं सान्वयार्थ:--इसिम्इन पूर्वोक्त छण्हं छह जीवनिकायाणं-जीवनिका मनुष्य, सब देव, इस प्रकार पूर्वोक्त सब प्राणी सुखकी अभिलाषावाले हैं। इस छठे जीवनिकायको भगवानने त्रसकाय कहा है ॥६॥ समस्त प्राणी सुखके अभिलाषी हैं, किन्तु सुखकी प्राप्ति तब ही हो सकती है जब आरंभका परित्याग कर दिया जाय, इसलिए आरंभके त्यागका उपदेश देते है-'इच्चेसिं' इत्यादि। પૂર્વોક્ત બધાં પ્રાણ સુખની અભિલાષાવાળાં છે. એ છઠા જીવનકાયને ભગવાને उस-य छ. (6) બધાં પ્રાણ સુખના અભિલાષી છે, પરંતુ સુખની પ્રાપ્તિ ત્યારે થાય છે કે જ્યારે આરંભનો પરિત્યાગ કરવામાં આવે તેથી આરંભના ત્યાગને ઉપદેશ આપે છેइच्वेसिं त्यादि Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ स. ७:पद्जीवनिकायानां दण्डपरित्यागः २२९ त्रिविधेन कायेने 'त्यन्वये मनोवाकायानां मत्येकं त्रैविध्यं पामोवि तच्चाऽनिष्टं, नात्र मनादीनि प्रत्येकं त्रैविध्यमईन्ति किं तर्हि ? तद्व्यापारा एवेति चेन्न, " तदभावे हि 'मनसा वाचा कायेन' इत्येतावन्मात्रोक्तो 'न करोमि न कारयामि, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामी'-त्यनेन सह ' यथासंख्यमनुदेशः समानाम् ' (१।३।१०) इति वचनानुरोधेन 'शत्रु मिन्नं विपत्तिं च जय रञ्जय भञ्जये'-त्यादिवत् , एचोऽयवायावः' (६।१।७८) इत्यादिवद्वा क्रमिकान्वये 'मनसा न करोमि, वाचा न कारयामि, कायेन कुर्वन्तमप्यन्यं न ममनुजाअर्थ होगा कि 'तीन प्रकारके मनसे, तीन प्रकारके वचनसे और तीन प्रकारके कायसे' आरम्भ न करे । अर्थात् मन वचन कायके तीन तीन भेद होंगे। ऐसा अर्थ शास्त्रविरुद्ध है-शास्त्रोंमें भगवानने मन आदिके तीन तीन भेद नहीं बताये हैं, किन्तु मन आदिके व्यापारोंको तीन प्रकारका बताया है। उत्तर-यह शंका ठीक नहीं है । यदि 'त्रिविधेन' न कहकर केवल 'मनसा वाचा कायेन' कह देते तो अर्थ ठीक न बैठता, क्योंकि जैसे कोई कहे कि "हेय और उपादेयको त्यागो और ग्रहण करो।" तो इस वाक्यमें क्रमसे 'हेय' के साथ 'त्यागो'का सम्बन्ध होजाता है और 'उपादेयके साथ 'ग्रहण करो'का। इसी प्रकार 'चोलपट्टा चादर पहनो, ओढो' कहनेसे यह अर्थ होता है कि "चोटपट्टा पहना-और चादर ओढो।" इसीप्रकार 'त्रिविधेन' (तीन प्रकारसे) पद न रखते મનથી, ત્રણ પ્રકારના વચનથી, અને ત્રણ પ્રકારની કાયાથી આરંભ ન કરે. અર્થાત મન વચન કાયાના પણ ત્રણ ભેદ બનશે. એ અર્થ શસ્ત્રવિરૂદ્ધ છે. શાસ્ત્રમાં ભગવાને મન આદિના ત્રણ ભેદ બતાવ્યા નથી, પરંતુ મન આદિના વ્યાપારને તે ત્રણ પ્રકારના બતાવ્યા છે. उत्तर- २ २ नथी. ले त्रिविधेन न हीन व मनसा वाचा વાર કહ્યું હતું તે અર્થ બરાબર બંધ બેસત નહિ. કારણ કે જેમ કેઈ કહે કે “હેય અને ઉપ દેયને ત્યાગે અને ગ્રહણ કરે.” તે એ વાકયમાં ક્રમાનુસાર 'य'ना साथे 'त्याग'ना संग 5 तय छ भने यी साथ 'डए કરે . એજ રીતે “લપટ્ટો ચાદર પહેરે એ કહેવાથી એ અર્થ થાય છે 'यसपट्टो पडे। सने या१२ सोढी,' २ रीत त्रिविधेन (त्रय रे) Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ श्रीकालिकसूत्रे एवाऽपितु ततः मागपीति, जीवन एव न तदुत्तरं परलोकेऽपीत्यर्थः । दम किविध ? मित्याह- त्रिविधं तिस्रो विधा:- मकारा यस्य स तम् कृत-कारिताऽनुमतरूपम्, तत्र कृतं = स्वतन्त्रेणाऽऽत्मना सम्पादितम्, कारितम् = अन्य - ( व्यक्तयन्तर)- द्वारा निष्पादितम् अनुमतं = सावयव्यापारमारभमाणस्य त्वं साधु करोषि एवमेव कुर्वनास्य इत्यादिना प्रोत्साहितम्, त्रिविधेन = मकारत्रयविशिष्टेन फरणभूतेन, केने १ त्याह-' मनसा वाचा कायेने 'ति । ' 1 ननु विविधेनेत्यनेन यत्मकारत्रयं गृयते तत् 'मनसे' त्यादिना प्रतिपदमेवोक्तम्, एवं सति त्रिविधेनेत्युपादानं पौनरुज्यदोपग्रस्तं भवति । यद्वा 'त्रित्रिवेने' वि विशेषणं 'मनसे - त्यादेरेव संभवति, ततश्च 'त्रिविधेन मनसा, त्रिविधया वाचा, दूसरोंकी अनुमोदना करे । दण्ड तीन प्रकारका है- (१) कृत, (२) कारित, (३) अनुमोदित । 1 · कृत- अपनी इच्छासे स्वयं करना । कारित दूसरे व्यक्तिसे कराना । अनुमोदित जो सावध व्यापार कर रहा हो उसे अच्छा समझना । यह सब सावद्य व्यापार तीन करण तीन योगसे न करे। वे तीन योग ये हैं- (१) मन, (२) वचन, (३) काय । प्रश्न- सूत्र में 'त्रिविधेन' (तीन प्रकारसे) कहा ही है फिर 'मनसा' (मनसे) 'वाचा' (वचनसे) 'कायेन' (कायसे) कहने से पुनरुक्ति (कहे हुए को पुनः कहना) होती है । या 'तीन प्रकारसे' यह विशेषण 'मन, चचन, काय' का ही हो सकता है। यदि ऐसा मान लिया जाय तो इसका अनुमोहना पुरे. इंडेन भारत। छे : (१) त, (२) अस्ति, (3) अनुमोहित. કૃત-પોતાની ઇચ્છાથી પાતે કરવું. કારિત-ખીજી વ્યકિત પાસે કરાવવું, અનુમાદિત—જે સાવદ્ય વ્યાપાર કરી રહ્યો હાય, તેને સારૂં જાણવું. એ અધા સાવદ્ય વ્યાપાર ત્રણ કરણ ત્રણ ચેાગથી ન કરે. તે ત્રણ યાગ, या छे - (१) भन, (२) वथन, ( 3 ) अया. प्रश्न - सूत्रभां त्रिविधेन (त्र अारे) अंडे ०४ छे, पछी मनसा ( भनथी), चाचा (वयनथी) कायेन (प्रायाथी) उडेवाथी पुन३डित (अहेसाने इरी उहें) थाय छे. आ 'शु प्रारे' मे विशेषण 'भन, पेंशन, अया' नुं न हो शडे छे. ઞ એમ માનવામાં આવે તે એના અથ એવા થશે કે ત્રણ પ્રકારની Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २३१ __अध्ययन ४ सू. ७ भदन्तशब्दार्थः द्दण्डादित्यर्थः, अत्रापादानस्य. शेपत्वविवक्षया पष्ठी । भंते' भदन्त !' भन्दते कल्याणं मुखं वा प्रापयतीति भदन्तः; ('अन्तर्भावितण्याद् ‘भदि कल्याणे मुखे चे' त्यस्माद्धातोः 'मन्देनलोपवे 'त्यौणादिकम्त्रेण झन्-धातुनकारलोपयोः 'झोऽन्त' इति झस्यान्तादेशः ।) यद्वा भव-संसारमन्तयति दुरीकरोतीति, ('कर्मण्यम् (३ । २ । १) इत्यण शकन्वादेराकृतिगणत्वात्पररूपे पृपोदरादित्वाद्वस्य :दः ।) अथवा भवस्य-संसारस्याऽन्तोऽवसानं येनेति व्यधिकरणपदो बहुव्रीहिः पररूपादेशी प्राग्वत् । भयस्य-जन्म-जरा-मरण-निमित्तकस्याऽन्तोनाशो येनेति भयान्तः, स एव भदन्त इति वा, पृपोदरादित्वादेकस्याकारस्य लोपो : यस्य च दः । अपित्रा भयं ददतीति भयदा मोगास्तानन्तयतीति कर्मण्यणिति सूत्रविहिताऽणन्त-भयदान्त-शब्दस्य पृपोदरादित्वाद् भदन्त इति । ___ यद्वा दान्तं भयं येन स भयदान्तः 'निष्ठान्तस्य परनिपात आहिताग्न्यादिपाठात् ' स एव भदन्तः 'यलोप-हस्वौ पृपोदरादिपाठकृतौ । . अथच भान्ति दीप्यन्ते (समुल्लसन्तीत्यर्थात ) स्वस्वविपयेष्विति भानि% इन्द्रियाणि, तानि दान्तानि येन स भदान्तः, स एव भदन्तः ( निष्टान्तपरनिपातः पाग्य , पृपोदरादित्वादाकारस्य इस्वः )। यद्वा भाति-सम्यग्ज्ञान-दर्शन , व्याकरणमें 'भंते' शब्द अनेक प्रकारसे सिद्ध होता है, इसलिए उसके अर्थ बहुतसे हैं। जैसे (१) कल्याण और सुखको देनेवाले, (२)संसारका अन्त करनेवाले, (३) जिनकी सेवा-भक्ति करनेसे संसारका अन्त हो जाता है, (४) जन्म-जरा-मरणके भयका नाश करनेवाले, (५) भोगोंको त्याग देनेवाले, (६) भयको दमन करनेवाले निर्भय, (७) इन्द्रियोंका दमन करनेवाले, (८) सम्यगज्ञान, सम्यग्दर्शन વ્યાકરણમાં અંતે શબ્દ અનેક પ્રકારે સિદ્ધ થાય છે, તેથી એના અર્થ घा छ. २१॥ ३ (१) ४स्याए भने सुमने आपना२, (२) संसारना मत ४२नार, (૩) જેની સેવાભક્તિ કરવાથી સંસારનો અંત આવી જાય છે, (૪) જન્મ જરામરણના ભયને નાશ કરનાર, (૫) ભેગેનો ત્યાગ કરનાર, (૬) ભયનું દમન કરનાર–નિર્ભય. (૭) ઇંદ્રિયેનું દમન કરનાર, (૮) સમ્યજ્ઞાન, સમ્યગ્દર્શન Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशकालिन नामी'-त्पनभीयोऽर्थ आपत मारणाय प्रिविधेनेस्युक्तम् , तेन मनसा न करोमि, न कारयामि, फुर्वन्तमप्यन्यं न समनुनानामि, याचा न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुनानामि; एवं कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुनानामीरपर्यों भवति, यद्वा पूर्व सामान्यतसिविधेनेत्युक्त्वा केन गिरि धेनेति जिज्ञासायां तत्मकारान् दर्शयितुं विशेषणाऽऽr- 'मनसे'-त्यादीति नास्ति पौनरुत्त्यदोपाऽऽपातः । केचित मनसा या चाचा वा कायेन वति विकल्पसंग्रहार्य 'त्रिविधेने त्यमित्युचिरे । 'न फारयामी' स्पत्रा-'ऽन्येने ति: शेपः पूरणीयः । न समनुजानामि नानुमन्ये । तस्येति-तस्माद-पूर्वोक्तरूपा तो ऐसा अनिष्ट अर्थ होजाता कि-मनसे न करे, वननसे न करावे और कायसे अनुमोदना न करे। इस अनिष्ट अर्थका परिहार करने के लिए 'त्रिविधेन' पद रखनेसे यह अर्थ हुआ कि-(१) मनसे न करू, (२) न कराऊँ, (३) न करते हुए को भला जान। (४) वचनसे न करू, (५) न कराऊँ, (६) न करते हुएको भला जाने। (७) कायसे न कर (८) न कराऊँ, (९) न करनेवालेको भला जान। ___ अथवा पहले सामान्य रूपसे कहा है कि तीन प्रकारसे न कर, परन्तु तीन प्रकार कौन-कौनसे है ? ऐसी जिज्ञासा होने पर विशेष बता दिया कि "मनसा वाचा कायेन" ये तीन प्रकार हैं, इसलिए पुनरुक्ति आदि कोई दोप नहीं है। ___अथवा मन वचन और कार्यके निमित्तसे होनेवाले तीन भेदाका संग्रह करनेके लिए 'त्रिविधेन' पद रखा है। શબ્દ ન રાખ્યું હોત તે એ અનિછ અર્થ થઈ જાત કે મનથી ન કરે, વચ નથી ન કરાવે અને કાયાથી ન અનુમોદના કર. અનિછ અર્થને પરિહાર ५२पाने माटे त्रिविधेन श६ मा यो छ, म त्रिविधेन श६ मापवाथी या અર્થ થયે કે-(૧) મનથી ન કરૂં, (૨) ન કરાવું, (૩) ન કરનારને ભલા જ (४) क्यनथी न ४३, (५) न ४२, (९) न ४२नारन मत ', (७) याया न ४३, (८) न , (6) न ४२नारने Man NY અથવા પહેલાં સામાન્યરૂપે કહ્યું છે કે “ત્રણ પ્રકારે ન કરૂં” પરન્તુ ત્રણ २ या या छ ? मेवा लिज्ञासा यता विशेष तापी माथुछ है मनसा वाचा કાન એ ત્રણ પ્રકાર છે. એથી કરીને પુનરૂકિત આદિ કેઈ દેવ થતો નથી. અથવા મન વચન અને કાયાના નિમિત્ત થનારા ત્રણ ભેદને સંગ્રહ १२वा माटे निविधेन श६ सभ्यो. Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -अध्ययन ४ सू. ७ पड्जीवनिकायानां दण्डपरित्यागः चतुर्थी 'नेप्यते, 'निन्दामि, गर्दै' इत्यनयोस्तस्येत्यनेन प्रागुक्तेन सम्बन्धस्तेनअतीतदण्डसम्बन्धिनी स्वसासिकी गुरुसाक्षिकी च निन्दा करोमीति निर्गलितोऽर्थः, तस्येत्यत्र सम्बन्ध-सामान्ये पठयाः प्रागुक्तत्वात् । यद्वा 'आत्मान'-मित्यस्यैव मध्यमणिन्यायाद् देहलीदीपन्यायाहा व्युत्सृजामीत्यनेन 'निन्दामि, गह' इत्याभ्यां च सम्बन्धस्तेन भूतकालिकदण्डविधायिनमप्रशस्तमात्मानं जुगुप्से व्युत्सृजामिविविधाऽनित्यादिभावनया विशिष्य वा परित्यजामीत्यर्थः ॥७॥ १“क्रुधद्वाऽमूयार्थानां यं मति कोपः” (१।४।६४) इत्यत्र शब्देन्दुशेखरे 'न-ह्यकुपितः क्रुध्यती'-ति भाप्येण प्ररूढकोप एव क्रोध इति कुपेस्तदर्थलाभावेन न तद्योग इदम् 'कुप्यति कस्मैचि'-दित्याद्यसाध्वेवेति । - इसका अर्थ यह होता है कि-हे भगवन् ! अतीत कालमें दण्ड (सावध व्यापार) करनेवाले आत्मा (आत्मपरिणति) को अनिल आदि भावना भाकर त्यागता है, निन्दा करता हूँ, गर्दी करता हूँ। जैसे घरकी देहलीपर दीपक रखनेसे भीतर भी प्रकाश होता है और बाहर भी प्रकाश होता है इसको देहली-दीपक' न्याय कहते हैं। कहा भी है-"परै एक पद वीचमें, दुहु दिस लागै सोय । सो है 'दीपक देहरी', जानत है सब कोय ॥१॥" बीचमें मणि जड़ देनेसे दोनों ओर मणिका प्रकाश होता है,यह 'मध्यमणि' न्याय कहलाता है, इसी प्रकार 'अप्पाण' कादोनोंके साथ सम्बन्ध होता है । अर्थात् सावध व्यापारवाली आत्माको त्यागता हूँ और उसकी निन्दा करता है, तथा गीं करता हूँ ॥७॥ એને અર્થ એ થાય છે કે- હે ભગવન ! અતીત કાળમાં દંડ (સાવદ્ય . વ્યાપાર) કરનારા આત્મા (આત્મપરિણતિ)ને અનિત્ય આદિ ભાવના ભાવીને ત્યાગું છું, નિંદું છું, હું છું, જેમ ઘરની ડહેલી (બારણું) પર દી રાખવાથી અંદર પણ પ્રકાશ થાય છે અને બહાર પણ પ્રકાશ થાય છે તેને “દેહલી-દીપક ન્યાય” કહે છે. કહ્યું છે કે- “પર એક પદ બીચમેં, દુહ દિસ લાગે સેય, સે હૈ “દીપક-દેહરી, જાનત હૈ સબ કેય (૧)” વચમાં મણિ જડી દેવાથી બેઉ બાજુ મણિને પ્રકાશ થાય છે તેને મધ્ય-મણિ ન્યાય કહે છે, એ રીતે ગાજે ને બેઉની સાથે સંબંધ થાય છે. અર્થાત સાવદ્ય-વ્યાપારવાળા આત્માને ત્યાગું છું અને તેની નિંદા કરું છું, તથા ગહ કરું છું. (૭) Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ - - - . श्रीदत्रकालिको चारित्रैर्दीप्यते इति भान्तः ('मा दीप्ती' अस्मादोणादिकोऽन्तमत्ययः) स एवं भदन्तः, ('सिदिः प्रपोदरादित्वादेव')। : (एवं यथामति व्युत्पत्यन्तरेप्यपि निरुक्तोक्तशामटायनादिमतिपादितरीत्या साधनप्रक्रिया चोदया।) तत्सम्योधने हे मदन्त ! हे भगवन् ! अनेन सम्बोधन निर्देशेन व्रतप्रत्यारुयानादिकः सोऽपि क्रियाकलापो.गुरुसासिक एव विधातव्य इति चोधितम् । मतिझामामिम्मतिनिवर्ने भूतदण्डात्पृयगमवामीत्यर्थः । यसु टीकान्तरेषु 'पडिफमामी'-त्यस्य 'मतिकमामी 'ति छायोपलभ्यते सा प्रमादविजृम्भितेव, ('क्रमः परस्मैपदेपु' (१३७६) इति पाणिनिवचनवलेन क्रमे रुपधादीर्घस्य दुरित्यात् ।) निन्दामिन्जुगुप्से । गमजुगुप्से इत्येवाः । ननु तहि निन्दा-गईयोः 'कुत्सा निन्दा च गईणे-ति कोशरीत्या पर्यायत्वेन पौनरुक्यं वज्रलेपायितमेवेति चेन्न, यतः स्वसासिकी निन्दा, गुरुसाक्षिकी व गति परस्परं भवति भेदः । यद्वा निन्दा-साधारणी कुत्सा, गर्दा- सेवाति भूयसी'-ति परस्परमर्थ भेदान्नास्ति पर्यायता, यथा मद्ध एव कोपः क्रोधान साधारण इति कोप-क्रोधयोः पर्यायवाभावेन ध्यर्थवाभावात कुपधातुया और सम्यक्चारित्रसे दीपनेवाले । इन सबको 'भंते' कहते हैं । इसी प्रकार और अर्थ भी समझने चाहिए । 'भदन्त!' इस सम्बोधनसे यह प्रगट होता है किसमस्त क्रियाएँगुरुमहाराजकीसाक्षीसे ही करनी चाहिए। हे भगवन् ! मैं दण्डसे निवृत्त होता है, निन्दा करता हूँ, आर गर्दा करता हूँ। कोशोंमें निन्दा और गर्दा शन्दका एक ही अथ है इसलिए पुनरुक्ति होती है, ऐसा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि निन्दा आत्मसाक्षीसे होती है और गहरे गुरुसाक्षीसे होती है । अथवा निन्दा साधारण कुत्साको कहते हैं और गर्दा अत्यन्त निन्दाको कहते हैं । અને સમ્યફ-ચારિત્રથી દીપ્તિમાન, એ બધાને મંતે કહે છે. એજ રીતે બીજા અથા पर सम सेवा. 'भदन्त' से समापनया मेभ घट थाय छे ॥धी यामा ગુરૂ મહારાજની સાક્ષીએ જ કરવી જોઈએ. હે ભગવન! હું દંડથી નિવૃત્ત થઉં છું, નિન્દા કરું છું અને ગહ કરૂં છું. શબ્દકોશમાં “નિદા” અને “ગહ' શબ્દને એકજ અર્થ છે, તેથી પુનરૂકિત થાય છે, એમ ન સમજવું, કારણ કે નિંદા આત્મસાક્ષીએ થાય છે અને ગર્લ્ડ ગુરૂ સાક્ષીએ થાય છે. અથવા નિંદા સાધારણ કન્સાને કહે છે અને ગહીં અત્યંત નિંદાને કહે છે. Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५ अध्ययन ४ सूः ७ दण्डपरित्यागस्य सामान्यविशेषभावः परिमाणविशेपे तादाम्यसम्बन्धेन ( अभेदसम्बन्धेन) अन्वये सति द्रोणाभिन्नं परिमाणमिति बोधः, ततश्च प्रत्ययार्थपरिमाणस्य परिच्छेद्य-परिच्छेदकभावेन बीहिपदार्थेऽन्वये द्रोणामिन्नं यत्परिमाणं तत्परिच्छिन्नो (तत्परिमितो) बीहिरिति वोधः, अत्र प्रत्ययार्थस्य बीहावन्धयमदर्शनं प्रकृतानुपयोग्यपि प्रसङ्गतः कृतम् । यद्वा-यथा 'उपाध्यायो मुनि'-रित्यत्रोपाध्यायशब्दार्थे उपाध्यायपदधारिणि मुनिविशेषे मुनिशब्दार्थस्य मुनिसामान्यस्य तादात्म्यसम्बन्धेन (अभेदसम्बन्धेन) अन्वयः, तथा च-उपाध्यायाभिन्नो मुनिरिति वोधः, तत्र विशेषत्वेन विवक्षितपदार्थ उपाध्यायपदधारिणि मुनिविशेषे मुनिशब्दार्थस्य मुनित्वस्य सत्त्वादुभयोः द्वारा अन्वय होता है । इस अन्वयसे "चार आढकरूप परिमाण" (एक प्रकारका तौल) ऐसा बोध होता है। उस प्रत्ययार्थ परिमाणसामान्यको परिच्छेद्य-परिच्छेदक-भाव सम्बन्धसे व्रीहि पदार्थमें अन्वय होनेसे "उस परिमाणसे परिमित (मापा हुआ) व्रीहि" ऐसा बोध होता है । यहां व्रीहिमें अन्वय प्रसंगवश दिखलाया गया है। अथवा "उपाध्यायो मुनिः" यहाँ उपाध्याय शब्दका अर्थ है उपाध्यायपद्धारी मुनिविशेष (१), तथा मुनि शब्दका अर्थ मुनिसामान्य (२), अतः जो उपाध्याय है वही मुनि है, अर्थात् मुनिसे अन्य उपाध्याय नहीं है इसलिए उपाध्याय शब्दार्थको मुनि शब्दार्थके साथ अभेद सम्बन्धसे अन्वय होता है तो 'उपाध्यायसे अभिन्न मुनि' ऐसा बोध होता है। यहां विशेष याने उपाध्यायपदधारी (व्यक्ति) में मुनिके અન્વયથી “ચાર આહક રૂપ પરિમાણુ” (એક પ્રકારને તેલ) એ બંધ થાય છે. એ પ્રત્યયાર્થ–પરિમાણુ–સામાન્યને પરિચ્છેદ્ય–પરિછેદક–ભાવ સંબંધથી ત્રીહિ પદાર્થમાં અન્વય થવાથી “એ પરિમાણથી પરિમિત (માપેલા) વ્રીહિ” એ. બોધ થાય છે. અહીં વ્રીહિમાં અન્વયે પ્રસંગવશ બતાવવામાં આવ્યું છે. અથવા उपाध्यायो मुनिः सभी उपाध्याय शो मर्थ छ-उपाध्याय पधारी मुनि-विशेष (१), तथा भुनि शहने अर्थ छ मुनि-सामान्य (२), सटवे रे ઉપાધ્યાય છે તે જ મુનિ છે, અર્થાત્ મુનિથી જૂદે ઉપાધ્યાય નથી. એથી કરીને ઉપાધ્યાય શબ્દાર્થને મુનિ શબ્દાર્થની સાથે અભેદ સંબંધથી અન્વય થાય છે, અને તેથી “ઉપાધ્યાયથી અભિન્ન મુનિ” એ બંધ થાય છે. એમાં વિશેષ કરીને ઉપાધ્યાય-પદધારી (વ્યકિત)માં મુનિના સામાન્ય ધર્મરૂપ મુનિત્વનું Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ श्रीद दण्डपरित्यागो द्विविधः सामान्यविशेषभेदान् सामान्यतो दुष्परि त्यागोऽहिंसासामान्यम्, विशेषतो दण्डपरित्याग पत्र महायतानि । ननु पञ्च महातेषु सत्यादिवतानामहिंसाती भेदः सुस्पष्टं प्रतीयत इति crafter पञ्चानां महाव्रतानां सामान्य-विशेषभाव उपपद्येत ? सामान्यविशेषarat ft विशेषत्वेन विवक्षितपदार्थस्य सामान्यधर्माक्रान्तत्वादेव संपते, अय एव‘व्याप्यव्यापकभावापन्नयोः सामान्यविशेषभावः' इत्युद्वीप:, यथा- 'द्रोणो श्रीहि ' रित्यत्र प्रथमा विभक्तस्य परिमाणसामान्यस्य द्रोणशब्दार्थे चतुराङकात्मक costerone at eartका है- (१) सामान्य दण्डपरित्याग और (१) विशेष - दण्डपरित्याग । अहिंसा-सामान्यको सामान्य दण्डपरित्याग कहते हैं और पंच महाव्रतों को विशेष दण्डपरित्याग कहते हैं । प्रश्न-पांच महाव्रतोंमें सत्य आदि महाव्रतोंका अहिंसा से स्पष्ट भेद प्रतीत होता है, फिर अहिंसाके साथ सत्य आदि महाव्रतोंका सामान्यविशेषभाव कैसे हो सकता है ? सामान्य- विशेषभाव वहीं होता है जिसको विशेष बनावें उसमें सामान्य धर्म भी पाया जाय। इसीलिए यह कहा गया है कि 'व्याप्यव्यापकभाव जिनमें होता है उन्हीं में सामान्यविशेषभाव पाया जाता है' जैसे "द्रोणो व्रीहिः” इस वाक्यमें प्रथमा विभक्तिका अर्थ परिमाण सामान्य है । इस परिमाण- सामान्यका द्रोण शब्द के अर्थ चार आढकरूप परिमाण - विशेषमें अभेद सम्बन्ध हौंडपरित्याग में अारनो छे. (१) सामान्य-: उपरित्याग अने (२) વિશેષ–દડર્સારત્યાગ, અહિંસાસામાન્યને સામાન્ય દંડ-પરિત્યાગ કહે છે, અને પંચ મહાવ્રતાને વિશેષ દડપરિત્યાગ કહે છે. પ્રશ્ન-પાંચ મહાવ્રતામાં સત્ય આદિ મહાવ્રતાના અહિઁસાથી સ્પષ્ટ ભેદ પ્રતીત થાય છે, તે પછી અહિંસાની સાથે સત્ય આદિ મહાવ્રતાના સામાન્યવિશેષ-ભાવ કેવી રીતે હેઇ શકે છે ? સામાન્ય-વિશેષ ભાવ તેમાં હાઇ શકે છે કે જેને વિશેષ મતાવે તેમાં સામાન્ય ધર્મો પણ મળી આવે. તેથી કરીને એમ કહેવામાં આવ્યું છે કે જેમાં વ્યાય-વ્યાપકભાવ હોય છે તેમાં જ विशेष-भाव भजी आवे छे' नेम द्रोणो व्रीहिः मे वाक्यमां प्रथमा विभक्तिना અર્થ પરિમાણુ–સામાન્ય છે. એ પરમાણુ-સામાન્યને, દ્રોણુ શબ્દના અચાર આઢક રૂપ પરિમાણુ વિશેષમાં અભેસંગધની દ્વારા. અન્વય थाय छे. ये सामान्य Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ मू. ७ दण्डपरित्यागस्य सामान्यविशेषभावः २३७ दितो विशेपत्वं मतीयते, यथा च नीलघटी घट इत्यादौ नीलगुणविशिष्टत्वेन नीलघटे घटसामान्यापेक्षया विशेषत्वं विद्यते, विशेपत्वं चात्र व्याप्यत्वमेव, तथा प्रकृते पञ्चमहावतलक्षणेऽहिंसाविशेषे कथं विशेषत्वमिति चेच्छृणु प्राणातिपातविरमणत्वादिना व्याप्यधर्मण पञ्चमु महावतेषु विशेपत्वं मुवचमेवेति । ननु तहि अहिंसासामान्यस्य किं लक्षणं यत् पञ्चसु महावतेपु व्यापकं भवे ? दिति चेद् उच्यते-पड्जीवनिकायेपु दण्डसमारम्भवर्जनत्वमेवाऽहिंसा-सामान्यस्य आढकरूप परिमाणमें चार आढकत्व आदि धर्मसे विशेपता प्रतीत होती है । अथवा "जो नीला घड़ा है वह घड़ा ही है" इत्यादि वाक्यों में अन्य घड़ोंकी अपेक्षा नीले घड़ेमें नीलेपनसे विशेपता पाई जाती है और वह विशेषता व्याप्यतारूप है, वैसे पंच महाव्रतरूप अहिंसाविशेपमें विशेषता किस धर्मके कारण है ?।। . उत्तर-प्राणातिपातविरमणत्व आदि व्याप्यधर्मोसे पांच महावतोंमें विशेपत्ता पाई ही जाती है। अर्थात् जहाँ प्राणातिपातविरमणत्व आदि व्याप्य धर्म पाये जाते हैं वहाँ अहिंसा-सामान्यका अस्तित्व रहता ही है। प्रश्न-अहिंसासामान्यकालक्षण क्या है ? जिससे वह पांच महाव्रतोंमें व्यापक होजावे ?। ___उत्तर-पड्जीवनिकायोंमें दण्डकापरित्यागकरनाअहिंसा-सामान्यका પરિમાણમાં ચાર આઢક આદિ ધર્મથી વિશેષતા પ્રતીત થાય છે, અથવા “જે નીલે ઘડે છે તે ઘડેજ છે' ઈત્યાદિ વાક્યમાં અન્ય ઘડાની અપેક્ષાએ નીલા ઘડામાં નીલાપણાથી વિશેષતા મળી આવે છે અને તે વિશેષતા વ્યાખ્યાતારૂપ છે, તેમ પંચમહાવ્રતરૂપ અહિંસા-વિશેષમાં વિશેષતા કયા ધર્મને કારણે છે? ઉત્તર–પ્રાણાતિપાતવિરમણત્વ આદિ વ્યાખ્ય-ધર્મોથી પાંચ મહાવ્રતમાં વિશેષતા મળી આવે છે. અર્થાત્ જ્યાં પ્રાણાતિપાતવિરમણત્વ આદિ વ્યાપ્ય ધર્મ મળી આવે છે ત્યાં અહિંસા-સામાન્યનું અસ્તિત્વ રહેલું જ હોય છે. પ્રશ્ન–અહિંસ–સામાન્ય લક્ષણ કર્યું છે કે જેથી તે પાંચ મહાવતેમાં વ્યાપક થઈ જાય છે? ઉત્તર–પજીવનિકાયમાં દંડને પરિત્યાગ કરે એ અહિંસા-સામાન્યનું - - - Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ श्री दशका पदार्थयोः सामान्य विशेषभावोऽमेदान्वयन भवति, तथा मन्त्रो न संभवति, सत्यादिमहाव्रतानामहिंसातः सुस्पष्टभेदमतीविरलादभेदान्ययस्य वाधादिति वेन पञ्चानामपि महाव्रतानां वस्तुतोऽहिंसात्मकत्वात् सामान्य-विशेषभावः सुबोध एव | अहिंसासामान्यस्वरूपावदातकरणाय शिष्याणां सुस्पष्टप्रतिपत्तये च दष्परित्यागस्य द्वैविध्यं कृतम्, एकैवाऽहिंसा पत्रधा विभाजिता । ननु यया 'द्रोणो व्रीहि 'रित्यादौ द्रोणादिशब्दार्थचतुरादकात्मकपरिमाणे चतुराढकत्वादिधर्मेण परिमाणत्या दिसामान्यधर्माक्रान्तात् प्रत्ययार्थपरिमाणासामान्यधर्म मुनित्यका अस्तित्व पाया जाता है, अत एव दोनों पदार्थोंका सामान्य- विशेषभावमें अभेदान्वय होता है । अर्थात् जैसे इन दो उदाहरणोंसे अभेद में सामान्य - विशेष भाष पाया जाता है, वैसा अहिंसा के साथ सत्यादि व्रतोंका अभेद नहीं है, अत एव सामान्य विशेषभाव नहीं हो सकता, क्योंकि उनका स्पष्ट भेद, प्रतीत होता है । उत्तर-पाँचों महाव्रत वास्तवमें अहिंसास्वरूप हैं, इसलिये अहिंसासे भिन्न नहीं हैं। अहिंसा स्वरूपको स्पष्ट करने के लिए और शिष्यों को स्पष्ट बोध कराने के लिए दण्डपरित्यागके दो भेद कर दिये हैं, अर्थात् एक ही अहिंसाको पांच महाव्रतों में विभक्त कर दिया है। प्रश्न- जैसे " द्रोणो व्रीहिः" इत्यादि वाक्योंमें परिमाणत्व आदि सामान्यधर्मसे युक्त प्रत्ययार्थ परिमाण- सामान्यसे द्रोण शब्दार्थ चार અસ્તિત્વ મળી આવે છે, તેથી કરીને બે શબ્દોના અર્થાના સામાન્ય-વિશેષ ભાવમાં અભેદાન્વય થાય છે. અર્થાત્-જેમ એ બેઉ ઉદાહરણાથી અભેદ્યમાં સામાન્ય-વિશેષ ભાવ મળી આવે છે, તેમ અહિંસાની સાથે સત્યાદિ ત્રતાના અભેદ્ય નથી, તેથી સામાન્ય વિશેષ–ભાવ થઇ શકતે નથી, કારણ કે એને સ્પષ્ટ ભેદ પ્રતીત થાય છે. ઉત્તર-પાંચ મહાવ્રત વસ્તુતાએ અહિંસાસ્વરૂપ છે, તેથી કરી અહિંસાથી ભિન્ન નથી અહિંસાના સ્વરૂપને સ્પષ્ટ કરવાને માટે અને શિષ્યોને સ્પષ્ટ માધ કરાવવાને માટે દડ પરિત્યાગના બે ભેદ કરવામા આવ્યા છે, અર્થાત્ એક જ અહિંસાને પાચ મહાવ્રતામાં વિભકત કરી નાંખવામાં આવી છે. प्रश्न- प्रेम द्रोणो व्रीहिः हत्याहि वायोभा परिभाशुत्व माहि सामान्य ધર્મોથી યુક્ત પ્રત્યયા પરમાણુ સામાન્યથી દ્રોણુ શા ચાર આકરૂપ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ بخ अध्ययन ४ सू. ८ ( १ ) - प्राणातिपातविरमणस्त्ररूपम् 46 किच आत्मपरिणामहिंसन हेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत् । अनृतवचनादिकेवल, मुदाहृतं शिष्यवोधाय ॥ २ ॥ ” २३९ " एवं चिय इत्थ वयं निदिहं जिणवरेहिं सन्देहिं । पाणाइवाय विरमण, मनसेसा तस्स रक्खट्टा ॥ ३ ॥ " अतवादी माणातिपात विरमणाख्यं प्रथमं महाव्रतमाह- 'पढमे० ' इत्यादि । मूलम् - पढमे भंते! महवर पाणाइवायाओ वेरमणं, सवं भंते! पाणाइवायं पञ्चक्खामि, से सुहुमं वा वायरं वा तसं वा थावरं वा नेव सर्व पाणे अइवाइज्जा, नेवन्नेहिं पाणे अइवायाविजा, पाणे अइवायंतेवि अन्नेन समणुजाणिजा जावजीवाए तिविहं तिविहेण मणेणं वायाए कारणं न करोमि, न कारवेमि, करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं "असत्य वचन बोलने आदिसे भी आत्मा के परिणामोंकी हिंसा होती है, अतः असत्य आदि सभी हिंसारूप है । असत्य आदिका अलग कथन शिष्योंको स्पष्ट समझानेके लिए किया गया है ||२||" तथा "भगवानने एक प्राणातिपातविरमणको ही मुख्य कहा है अन्य व्रत उसीकी रक्षा के लिए हैं ||३|| " इसलिये पहले-पहल प्राणातिपात विरमण महाव्रतका कथन करते "पढमे भंते ०" इत्यादि । અસત્ય વચન ખેલવા વગેરેથી પણ આત્માના પરિણામેાની હિંસા થાય છે, તેથી અસત્ય આદિ બધાં હિંસારૂપ છે. અસત્ય આદિનું જાદુ કથન શિષ્યાને સ્પષ્ટ સમજાવવાને માટે કરવામાં આવ્યું છે. ” (૨) तथा “ ભગવાને એક પ્રાણાતિપાત વિરમણને જ મુખ્ય કહ્યુ છે, અન્ય તે તેની રક્ષાને માટે છે. ” (3) તેથી કરીને સૌથી પહેલાં પ્રાણાતિપાત–વિરમણુ મહાવ્રતનું કથન કરે છે— पढमे भंते० धत्याहि Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ श्री दशका , लक्षणम्, तब पत्र महातेषु प्रत्येकं मत्रनीति समन्वय बोध्यः तथा न arrantन्यत्र व्याप्यानि सामान्यतां दण्डपरित्यागी व्यापकस्तस्य पत्रमात्रतरू पाशेषविशेपनित्यादती व्यापमन्परित्यागं व्याख्या विशेषदण्ड परित्यागलक्षणमात्रतान्यभिधत्ते तेषु प्राणातिपात विरमणात्मिकाया अहिसायाः मधानत्वम् इतरेषां सस्यक्षेत्रवर्ति-रति (वाइ ) तत्वरिपालनार्थतया तदङ्गत्वात् तथाचोक्तम् - ? ? " अहिंसेफा मता मुख्या स्वर्गमोक्षसाधनी । अस्याः संरक्षणार्थं च, न्याय्यं सत्यादिपालनम् ॥ १ ॥ " अन्यच- लक्षण है । यह लक्षण पांचोंही महाव्रतोंमें पाया जाता है, अतः महाव्रत व्याप्य हैं और सामान्य- दण्डपरित्याग व्यापक है । व्यापकरूप सामान्य-दण्डपरित्यागका पूर्व सूत्रमें व्याख्यान किया है। अब विशेष - दण्डपरित्यागरूप पांच महाव्रतोंका व्याख्यान आरंभ करते हैं, उनमें प्राणातिपातविरमणरूप अहिंसा प्रधान है, जैसे धान्यकी रक्षा के लिए खेत के चारों ओर बाड़ होती है, उसी प्रकार अन्य महाव्रत अहिंसा रक्षक होने से अंग हैं । कहा भी है- "स्वर्ग और मोक्षat fer करनेवाली एक अहिंसा ही मुख्य है इसकी रक्षा के लिए सत्यादि महाव्रतों का पालन करना उचित है | ॥१॥ और भी कहा है wallig લક્ષણુ છે, એ લક્ષણ પાંચ મહાવ્રતામાં મળી આવે છે, તેથી મહાવ્રત વ્યાપ્ય છે, અને સામાન્ય-દડપરિત્યાગ વ્યાપક છે. વ્યાપકરૂપ-સામાન્ય–દડપરિત્યાગનું વ્યાખ્યાન પૂર્વસૂત્રમાં કહેલુ છે. હવે વિશેષ-દંડપરિત્યાગરૂપ પાંચ મહાત્રતાનું વ્યાખ્યાન શરૂ કરવામાં આવે છે, તેમાં પ્રાતિપાર્તાવરમણુરૂપ અહિંસા પ્રધાન છે. જેમ ધાન્યની રક્ષાને માટે ખેતરની ચારે બાજુએ વાડ ડાય છે, તેમ અન્ય મહાવ્રતે અહિંસાનાં રક્ષક હાવાને લીધે અગરૂપ છે. કહ્યું છે કે~~~ સ્વર્ગ અને મેાક્ષને સિદ્ધ કરવાવાળી એક અહિંસા જ મુખ્ય છે. તેની રક્ષાને માટે સદિ મહાવ્રતેનું પાલન કરવું ઉચિત છે. ” (૧) पणी. उधु छे~~ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन. ४. सू..८ (१)-प्राणातिपातविरमणव्रतम् २४१ (१) प्राणातिपात-विरमणव्रतम् । - - टीका--भदन्त ! हे भगवन् ! पथमे आये महावते महत्-विशालं व्रत-शास्त्रीयमर्यादानुसरणम् , महच तद् व्रतं च महाव्रतम् , महत्त्वं चास्य श्रावकाणुव्रतापेक्षया, द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावतः सर्वव्यापकत्वेन, महद्भिस्तीर्थकरगणधरादिभिराचरितत्वेन, महापुरुषाचर्यमाणत्वेन चास्ति, तस्मिन् , प्राणातिपातात्म्याणा: स्पर्शनेन्द्रियादयः सन्त्येपामिति माणाःएकेन्द्रियादयो जीवाः ( 'अर्श आदित्वादच्') तेषामतिपातो-वियोजनं हिंसनमित्यर्थः, तस्माद् विरंमणं-निवर्त्तनम् 'अस्ती'ति शेपः, अतोऽहं भदन्त ! हे भगवन् ! सर्व स्थूलसूक्ष्मादियाबद्भेदविशिष्टं कृतकारिताऽनुमोदितस्वरूपं वा प्राणातिपातं प्रत्याख्यामि प्रतिभातिकूल्येन आख्यामिकथयामि सर्वथा परित्यजामीति भावः, तदेव विशेषयति-''से०' इंति, से-अथ अनन्तरम् अद्यारभ्य सूक्ष्म मूक्ष्मनामकर्मप्रकृत्युदयसंपन्नम् । यद्य... १. देशीशब्दोऽयम् । (१) प्राणातिपातविरमण। , ये श्रावकके व्रतोंकी अपेक्षा विशाल होनेसे महाव्रत कहलाते हैं (१), अथवा सर्व द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी अपेक्षा प्राणातिपात आदिका सर्वथा त्याग होता है इस कारण महाव्रत कहलाते हैं (२), या तीर्थकर गणधर आदि महापुरुषोंने इनको अंगीकार किया है और वर्तमानमें भी महापुरुप इनको अंगीकार करते हैं इससे ये महाव्रत कहलाते हैं (३)। __ हे भगवन् ! प्रथम महाव्रतमें प्राणातिपातसे विरमण होता है इसलिए है भगवन् ! मैं कृत-कारित-अनुमोदनासे सूक्ष्म-स्थूल सब प्रकारके प्राणातिपातका परित्याग करता हूँ । अर्थात् सूक्ष्म नामकर्मकी प्रकृतिसे उत्पन्न (૧) પ્રાણાતિપાત વિરમણ એ શ્રાવકનાં વતની અપેક્ષાએ વિશાળ હોવાને લીધે મહાવ્રત કહેવાય છે. (૧). અથવા સર્વ દ્રવ્ય-ક્ષેત્ર-કાળ-ભાવની અપેક્ષાએ પ્રાણાતિપાત આદિને સર્વથા ત્યાગ થાય છે એ કારણે તે મહાવ્રત કહેવાય છે. (૨). અથવા તીર્થકર ગણધર આદિ મહાપુરૂષે એને અંગીકારે છે તેથી એ મહાવ્રત કહેવાય છે. (૩). હે ભગવ ! પ્રથમ મહાવ્રતમાં પ્રાણાતિપાતથી વિરમણ હોય છે, તેથી, હે ભગવાન! હું કૃત-કારિત-અનુમોદનાથી સૂક્ષ્મ સ્થલ સર્વ પ્રકારના પ્રાકૃતિપતને પરિત્યાગ કરૂં છું. અર્થાત્ સૂફમ-નામકર્મની પ્રકૃતિથી ઉત્પન્ન સૂક્ષમ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० श्रीदनकालिने वोसिरामि । पढमे भंते ! महत्वए उबहिओमि सवाओ पाणाड़वायाओ वेरमणं ॥८॥ . छाया-प्रथमे भदन्त ! महायते मागातिपाताविरमणं, सर्व भदन्त ! पाणातिपातं प्रत्याख्यामि, अब सक्ष्म या पादरं गा प्रसं या स्थावरं वा नेत्र स्वयं प्राणा: नतिपातयामि, नवान्यः माणानतिपातयामि, माणानतिपातयतोऽप्यन्यान समनुः जानामि यावनीवया विविध-निविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि, तस्माद भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दाम गर्दै आत्मानं व्युत्मजामि, मयमे भदन्त ! महावते उपस्थितोऽस्मि सर्वस्माद प्राणाविपाताद्विरमणम् ॥ . ' शिष्य पट्कायकी विराधना का त्याग करके अब पाँच महावत मोर छठे रात्रि भोजनविरमणबतको ग्रहण करता है (१) प्राणातिपातविरमण.. . सान्वयार्थः-भंते ! हे भदन्त !-हे भगवन् ! पढमेअथम महब्धए-महानतम पाणाइवायाओ-माणातिपातसे वेरमणं-विरमण होता है, (अंतः म) भंते । भगवन् ! सव्वं सब प्रकारके पाणाइवाय पाणातिपात (हिंसा) का पच क्खामिन्स्याग करता है। से अथ-अवसे लेकर (में) सुहम मूक्ष्म वा अथवा बायरंचादर वा अथवा तसंत्रस वा अथवा धावरं स्थावर पाणे माणियांका सयं-स्वयं-खुद नेव-नहीं अइवाइजा-अतिपात-हनन-करूँगा, नेवन अन्नेहिं दूसरोंसे पाणे माणियोंको अइयायाविना हनन कराऊँगा, (आर) पाणे माणियोंको अइवायंतेवि हनन करते हुए भी अन्ने दूसरोंको ननहार समणुजाणेजा-भला जानूंगा, जावज्जीवाए जीवनपर्यन्त (इसको) तिवहन कृतकारितअनुमोदनारूप तीन करणसे (तथा) तिविहेणं-तीन प्रकारक मणेणं-मनसे चायाए-बचनसे कारणं कायसे न करेमिन करूँगा, न कारवेमिन कराऊँगा, करतंपिकरते हुए भी अन्नं दुसरेको न समणुजाणामि-भला नहीं समझेंगा। भंते ! हे भगवन् ! तस्स-उस दण्डस पडिकमामि-पृथक् होता हूँ, निंदामिआत्मसाक्षीसे निन्दा करता है। गरिहामि-गुरुसाक्षीसे गर्दा करता हूँ, अप्पाणंदण्ड सेवन करनेवाले आत्माको बोसिरामि त्यागता हूँ। भंते हे भगवन् ! पढमे पथम महत्वएमहावतमें मैं उवडिओमि-उपस्थित हुआ हूँ, इसलिये मुझे सव्वाओ-सब प्रकारके पाणाइवायाओमाणातिपातका वैरमणंयाग है ॥८॥ (१) Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन, ४ सू. ९ (२)-मृपावादविरमणव्रतम् २४३ सम्पति शिष्यः स्वस्य महाबतित्वं ख्यापयन्नुपसंहरति-हे भगवन् ! प्रथमे महाव्रते उपस्थितोऽस्मि अभ्युद्यतोऽस्मि कृतोद्यमोऽस्मीत्यर्थः । अतोऽद्यप्रभृति मम सर्वस्मात् प्राणातिपाताद् विरमण सकलमाणातिपातालम्बनसावधव्यापारमत्याख्यानम् , अस्ती'-ति शेपः ॥ ८॥ (१) . . . सलिलेन तरुगुल्मलतादीनामिव प्राणातिपातविरमणम्य परिपुष्टिर्मपावादपरित्यागेन भवतीत्यतस्तदनन्तरं मृपावादपरित्यागलक्षणं द्वितीयं महाव्रतमाह'अहावरे दो.' इत्यादि । . ..मूलम्-अहावरे दोच्चे भंते ! महत्वए मुसावायाओ वेरमणं, सद भंते! मुसावायं पच्चक्खामि,से कोहा वा.लोहा वाभया वा हासा वा नेव सयं मुसं वइजा, नेवन्नेहि मुसं वायाविजा, मुसं वयंतेवि अन्ने न समणुजाणिज्जा ! जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाएं कारणं न करेमि न कारवेमि करतंपिअन्नंन समणुजाणामि। तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। दोचे भंते!महत्वए उवडिओमि सबाओमुसावायाओ वेरमणं ।।९।। छाया-अथापरे द्वितीये भदन्त ! महावते मृपावादाद्विरमणं, सर्व भदन्त.! पावाद प्रत्याख्यामि, अथ क्रोधाद्वा लोभावा भयावा हासाद्वा नत्र हे भगवन् ! मैं प्रथम महाव्रतको पालनेके लिए उद्यत हुआ हूँ, इसलिए आजसे मुझे समस्त प्रकारकेप्राणातिपातका प्रत्याख्यान है (१)॥८॥ जैसे वृक्ष-लता आदि पानीसे पुष्ट होते हैं वैसेही मृषावादका त्याग करनेसे प्राणातिपातविरमण महाव्रतकी पुष्टि होती है, अतः प्राणानिपातविरमणके बाद दूसरे मृपावादविरमण महावतका व्याख्यान करते हैंअहावरे दोच्चे' इत्यादि। હે ભગવન્! હું પ્રથમ મહાવ્રતને પાળવા માટે ઉદ્યત થયે છું, તેથી આજથી મારે બધા પ્રકારના પ્રાણાતિપાતનાં પ્રત્યાખ્યાન છે. (૧) (૮) '... જેમ વૃક્ષ-લતા આદિ પાણીથી પુષ્ટ થાય છે તેમ મૃષાવાદને ત્યાગ કરવાથી પ્રાણાતિપાતવિરમણ મહાવ્રતની પુષ્ટિ થાય છે. એટલે પ્રાણાતિપાત વિરમણની પછી elon भूषापाविरभ मानतनु व्याभ्यान ४२ छ-अहावरे दोच्चे. त्या. Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २४२ श्रीदनौकाविको प्यस्य कापिकी हिंसा न भवति तथाऽपि तदाणं न केवलं कायियेव हिंसा किन्तु यादमनसयोर्दुप्पणिधानेनापि हिंसा संमरस्पेयति मापनार्थम् । यदा ममं आधु कायिकं कुन्थ्वादिकम्, यादरं स्थूलकायिकं गोगनादिकम् , अनयोरपि अस स्वार भेदाद्वैविध्य, तदाह-संस्थावरं च, तत्र सक्ष्मत्रसंशुन्थ्वादिकम् , यक्ष्मस्थावरपनकादिवनस्पतिम् पादरत्रसम् अन-गन-गवयादिकम् ,बादरस्थावरं भूम्यादिकम्, इतीमान् प्राणान् जीवान नेस्वयम् मात्मना अतिपातयामि इन्मि, नैवान्यैःमालानतिपातयामिल्यातयामि,माणानतिपावयतोऽन्यान न समनुनानामि,इत्यादि प्राग्वत् । सूक्ष्म अथवा सूक्ष्म कायवाले कुंयुवा आदि और यादर (स्थूल) कायवाल गो-हस्ती आदि जीवोंके प्राणोंका कभी अतिपात नहीं करूँगा। यद्यपि सूक्ष्म नामकर्मकी प्रकृतिवाले सूक्ष्म प्राणियोंकी कायिक हिंसा नहीं होती परन्तु वचन और मनसे हो सकती है, जैसे-'यहमर जाय तोअच्छाह ऐसा कहना वचनसे हिंसा है, और घातकी भावना करना मनसे हिंसा हैइसलिए सूक्ष्मका भी यहाँग्रहण किया है। सूक्ष्म और बादरक: भी दो दो भेद हैं-(१) ब्रस और (२) स्थावर । सूक्ष्म-त्रस कुथुवा आदि हैं, सूक्ष्म-स्थावर पनक आदि वनस्पति (नीलण-फूलण) ह। पादर-बस मेंढा घोड़ा रोझ आदि । और यादर-स्थावर भूमि आदि है। इन सब प्राणियोंको कभी प्राणोंसे वियुक्त नहीं करूँगा, न दूसरेस कराऊँगा, न करनेवालेको भला जानूंगा। અથવા સક્ષમ કાયવાળા કંથવા આદિ અને બાદરે (સ્થલ) કાયવાળા ગાય હાથો આદિ જીના પ્રાણને કદાપિ અતિપાત નહિ કરું. જો કે સૂક્ષમ-નામકર્મના પ્રકૃતિવાળા સૂમ પ્રાણીઓની કાયિક હિંસા થતી નથી, તે પણ વચન અને મનથી થઈ શકે છે, જેમકે-એ મરી જાય તે સારૂં” એમ કહેવું તે વચનથી હિંસા છે, અને ઘાતની ભાવના કરવી એ મનથી હિંસા છે, તેથી કરીને સૂફમને પણ અહીં ગ્રહણ કરેલ છે સૂમ અને બાદરના પણ બે-બે ભેદ છે. (૧) રસ, અને (૨) સ્થાવર, સૂક્ષમ ત્રસ કંથવા આદિ છે. સૂકમ સ્થાવર લીલન-લન આદિ વનસ્પતિ છે. દર ત્રસ–મેંઢા, ઘોડા રેઝ વગેરે છે. અને બાદર સ્થાવર-ભૂમિ આદિ છે. એ સર્વ પ્રાણીઓને કદાપિ પ્રાણથી નિયુક્ત કરીશ નહિ, બીજા વડે કરાવીશ નહિ અને કરનારને ભલે જાણશ નહિ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करणम् , अादितवानामतपूर) अर्थान्ताय गोत्वेना .. अध्ययन ४ सू. ९ (२)-मृपावादविरमणव्रतम् २४५ मित्यनेन सम्बन्धो वक्ष्यते । मृपावादो हि सद्भावप्रतिषेधा-ऽभूतोद्भावना-ऽर्थान्तराभिधान-गर्हेतिभेदैश्चतुर्विधः, तत्र सद्भावप्रतिषेधः जीवाजीवादिपदार्थसत्तानिराकरणम् , यथा-'नास्त्यात्मा, परलोकः, पुण्यपापादिकं चेति (१)। अभूतोद्भावनम् जीवाजीवादितत्त्वानामतदूपत्वेन प्रतिपादनम् , यथा-"आत्माऽयमङ्गष्टमात्रो, निष्क्रियः, सर्वगतो वेत्यादि (२)। अर्थान्तराभिधानम् प्रसिद्धपदार्थस्य पदार्थान्तरत्वेन कथनम् , यथा-गोगर्दभत्वेन, गर्दभस्य गोत्वेनाभिधानम् (३) । गर्दा गहितं- हीनतामदर्शनम् , यद्वा हिंसापारुण्यादियुक्तं सत्यमपि वचः, यथा-'अयं हन्तव्यः' इत्यादि, 'एहि अन्ध!, आयाहि वधिर !, आगच्छ पङ्गो !' इत्यादि च(४)। विरमण होता है । मृपावाद चार प्रकारका है-(१) सद्भावप्रतिपेध, (२) अभूतोद्भावन, (३) अर्थान्तराभिधान, (४) गरे। जीव अजीव आदि पदार्थोंके अस्तित्वका निराकरण करना सद्भावप्रतिषेध मृपावाद है, 'जैसे-'आत्मा नहीं, परलोक नहीं, पुण्य नहीं, पाप नहीं' इत्यादि (१)। जीव अजीव आदि तत्वोंका अयथार्थ स्वरूप प्रतिपादन करना अभूतोदावन मृपावाद है, जैसे- आत्मा अंगूठेके बराबर है, निष्क्रिय है या सर्वगत है' (२)। एक पदार्थको दूसरा पदार्थ कह देना अर्थान्तराभिधान मृषावाद है, जैसे-'गायको गधा बताना, या गधेको गाय कहना' (३) । दुसरेकी हीनता प्रगट करना, अथवा हिंसा और कठोरतायुक्त सत्य वचन कहना गर्दारूप असत्य है, जैसे-'यह मार डालने योग्य है, ओ "अंधे। इधर आ, ओ बहिरे ! या लंगडे ! यहाँ आ इत्यादि (४)। खाय छे. भूषापा २ ना छे. (१) समावप्रतिषेध, (२) मभूतोलापन. (૩) અર્થાન્તરાભિધાન, (૪) ગહ. જીવ અજીવ આદિ પદાર્થોના અસ્તિત્વનું નિરાકરણ કરવું એ સદ્ભાવપ્રતિવધ મૃષાવાદ છે, જેમકે-આત્મા નથી, પરેલેક નથી, પુણ્ય નથી, પાપ નથી” ઈત્યાદિ (૧). જીવ અજીવ આદિ તનું અધિથાર્થ સ્વરૂપ પ્રતિપાદન કરવું એ અભૂતભાવન મૃષાવાદ છે, જેમકે- “આત્મા અંગૂઠા જેવડે છે, નિષ્ક્રિય છે યા સર્વગત છે.” (૨) એક પદાર્થને બીજે પદાર્થ કહી દે એ અત્તરાભિધાન મૃષાવાદ છે, જેમકે- “ગાયને ગધેડે કહે યા ગધેડાને ગાય કહેવી.” (૩) બીજાની હીનતા પ્રકટ કરવી, અથવા હિંસા તથા કરતાયુક્ત સત્યવચન કહેવાં એ ગહરૂપ અસત્ય છે; જેમકે “એ મારી નાંખવા योग्य छ, म मांधा ! मह माप, स. २१ ! यो st! मी भाव' त्याहि. (४) Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयं मृपा सदामि नेान्पपा पादयामि, ममा ततोऽप्यन्यान् म समानालामि । यावनीया, निरिक, निविधेन मनसा घाचा कायेन न करोमिनपरप्याकि न्तमप्यन्यं न समनुनानामि । तस्मादामदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि.मा आधान व्युत्सृजामि। द्वितीये मदन्त ! महारते उपस्थितोऽस्मि (भवः) सर्वस्मात् मायादाद्विरमणम् ॥९॥ " (२) मपागदरिमण... . . . सान्चपार्य:-मंते हे भगवन् ! अहावरे इसके बाद दो-दूसरे महब्बएन महाव्रतमें मुसावायाओ-मृपावादसे वेरमणविरमा होता है...(अतःम) भंते! हे भगवन् ! सव्वंन्सब प्रकारके.मुसावायं मृपावादका परक्खाम त्याग करता हूँ। से अय-अप से लेकर में कोहावा-क्रोधसे लोहावा- लोप भयावा भयसे हासावा हास्यसे.,सयंमसुद, मुसावाय-असत्य नेता वजा घोलंगा, नेव-नअन्नेहिं दूसरोंसे मुस-असत्य वायाविजा-बोल्युजना मुसं असत्य वयंतेवियोलते हुएमी अन्ने दूसरोंको न समणुजाणिजा मला नहीं जागा) जावजीवाएं जीवनपर्यन्त (इसको)तिविहं कृत-कारित-अनुमोद नारूप तीन करणसे (वया) तिविहेणं-तीन.मकारके मणेणे मनसे वायाएवचनसे कारण कायसे, न करेमिन्त-करूँगात कारवेमिन कराउँगा, करतंपि-करते हुएभी अन्नं दसरेको न समणुजाणामि-भला,नहीं समझगा। भंते ! हे भगवन् । तस्स उस दण्डसे पडिक्कमामि पृथक होता हूँ, निंदामि: आत्मसाक्षीसे निन्दा करता हूँ, गरिहामि-गुरु साक्षीसे गर्दा करता हूँ, अप्प्राण दण्ड, सेवन करनेवाले आत्माको चोसिरामि त्यागता हूँ, भंते ! हे भगवन, दोचे-दूसरे महन्वए महाव्रतमें उवढिओमि-उपस्थित हुआ हूँ, इसलिये मुख सन्वाओ-सब प्रकारके मुसावायाओ-असत्यसे वेरमणं त्यांग है ॥९॥ (२) ..... (२) मृषावादविरमणव्रतम् । ..। " टीका-अथ प्रथममहावतानन्तरं हे भदन्त! हे भगवन् ! अपरे-समनन्तरा दीरितमहावतापेक्षया भिन्ने द्वितीये महानते मृपावादाद-मिथ्याभाषणात् :विरमण: • (२) मृषावादविरमण | . .. हे भगवन् ! प्रथम महाव्रतके अनन्तर दूसरे महाव्रतमें मृषावादसे - ! 7, (२) भृपावाहविरम. હે ભગવન, પ્રથમ મહામતની પછી બીજા મહાવ્રતમાં મૃષાવાદથી વિરમણ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ अध्ययन ४ सू. ९ (२)-अदत्तादानविरमणव्रतम् आत्मनः क्रोधमोहनीयपकृत्युदयेन स्वपरचित्तविकृतिजनको निरनुकम्पक्रौर्यवैभाविकपरिणामविशेषस्तस्मात् । लोभात्म्लोमा-लोभमकृत्युदयवशाच्याघभिलापलक्षणो जीवस्य वैभाविकपरिणामस्वस्मात् । भयात्-भय-भयमोहनीयमकृत्युदयेनोद्वेगाऽऽवेदको विकारविशेपस्तस्मात् । हासात्-हासा-हास्यमोहनीयमकृत्यु-. दयेन वागादिविकृत्या कपोलयुगलोल्लासन-लोचनसंकोचन-दशनप्रकाशन-सहकृतसशब्दमाय-बदनव्यादानादिलक्षणश्चेतीविकाशस्तस्मात् । नैव स्वयं मृपा-मिथ्या वदामि, नैवान्यैर्मृपा वादयामि, मृपा चदतोऽप्यन्यान्न समनुजानामीत्यादि पूर्ववत् ॥९॥ (२) करनेवाला अनुकम्पारहित क्रूरतारूप वैभाविक परिणाम क्रोध है! लोभ-प्रकृति के उदयसे द्रव्य आदिकी अभिलापास्पजीवके वैभाविक; भावको लोभ कहते हैं, भय-मोहनीयके उदयसे उद्वेगको उत्पन्न करनेवाला विकार भय कहलाता है। हास्य-मोहनीयके उदयसे वचनोंकी विकृतिके साथ गाल फुलाकर. आँखें कुछ२ मूंदकर दांत निकालकर 'ही-ही' शब्द करके मुखको प्रफुल्लित करना हास्य कहलाता है। इन सब कारणोंसे मृपावाद होता है। मैं इन कारणोंके वश होकर न स्वयं मृपा बोलूँगा, न दूसरोंसे धोलाऊँगा, न किसी मृषा बोलते हुएको भला जानूंगा (२) ॥९॥ વાળે અનુકંપારહિત ક્રૂરતારૂપ જીવને ભાવિક-પરિણામ એ ક્રોધ છે. • લેભ-પ્રકૃતિના ઉદયે કરીને દ્રવ્ય આદિની અભિલાષારૂપ જીવન વૈભાવિકભાવને લેભ કહે છે. ભય-મેહનીયના ઉદયથી ઉગને ઉત્પન્ન કરવાવાળે વિકાર ભય કહેવાય છે. ' હાસ્ય-મેહનીયના ઉદયથી વચનેની વિકૃતિની સાથે ગાલ ફુલાવીને આંખો કાંઇક મીંચીને દાંત કાઢીને હીહી” શબ્દ કરીને મુખને પ્રફુલ્લિત કરવું એ હાસ્ય उपाय छे. એ સર્વ કારણોથી મૃષાવાદ ઉત્પન્ન થાય છે. હું એ કારણેને વશ થઈને નહિ અવયં મૃષા (જૂઠું) બેલું, નહિ બીજા પાસે બોલાવું, કે નહિ મૃષા बनाने मत oney, (२) (6) Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - श्रीदनकालिम इमेऽपि (चत्वारो मैदा) मत्येकं चनुपा-न्य-क्षेत्र काल मार-भेदात् । तत्र ट्रम्पविपयफसन्झायमतिरोध:-धर्माधर्मादिपन्द्रयाणामन्यया मरूपणम् । क्षेत्रविषयक सगावमतिषेधः-लोकालोकगारन्यया निरूपणम् । कालविषयकमद्वारप्रतिषेधःक्षण-मुहूर्त-दिवसादिस्वरूपाणामन्यया निरूपणम् । भारविषयासद्भावप्रतिषेधःरागपादीनामन्यथा मतिपादनम् । एवमेवाऽभूतोडायनादित्रयेऽपिद्रव्यादिचनुमंत्री योजनीया । तस्माद्विरमणमिति । हे भगवन् ! सर्वनामस्तं मृपाचा प्रत्याख्या मीति पूर्ववद्रोदव्यम् । तदेव विशदयति-'से'-इति, अय-अनन्तरम्-अधारभ्य-क्रोधा-क्रोध: इन चार प्रकारके मृपावादोंके भी द्रव्य क्षेत्र काल भावके भेदसे चार चार भेद होते हैं। धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आदि षद्रव्यकि स्वरूपकी अन्यथा प्ररूपणा करना द्रव्य-सद्भावप्रतिपेध है। लोक आर अलोकका अयथार्थ निरूपण करना क्षेत्र-सद्भावप्रतिपेध है। क्षण मुहत्त दिन आदिके स्वरूपका मिथ्या कथन करना काल-सद्भावप्रतिषेध है। राग देप आदि भावोंका विपरीत स्वरूप यताना भाव-सद्भावप्रतिषेध है। इसी प्रकार अन्य तीन भेदोंकी चतुर्भगी समझ लेनी चाहिए, जैसद्रव्य अभूतोद्भावन, क्षेत्र अभूतोद्भावन, इत्यादि । हे भगवन् ! मैं सब प्रकारके मृपावादका प्रत्याख्यान करता हूँ। मृपावाद किस किस कारणसे होता है ? सो कहते हैं--- जीवके क्रोध-मोहनीय प्रकृतिके उदयसे स्व-परके चित्तमें विकार એ ચાર પ્રકારના મૃષાવાદના પણ દ્રવ્ય ક્ષેત્ર કાળ ભાવના ભેદે કરીને ચાર ચાર ભેદ થાય છે. ધર્માસ્તિકાય અધર્માસ્તિકાય આદિ છ દ્રવ્યોના સ્વરૂપના અન્યથા પ્રરૂપણ કરવી એ દ્રવ્ય-સંભાવપ્રતિષેધ છે લેક અને અલાક અયથાર્થ નિરૂપણ કરવું એ ક્ષેત્ર-સદ્દભાવપ્રતિષેધ છે, ક્ષણ મુહર્ત દિન આદિના સ્વરૂપનું મિથ્યા કથન કરવું એ કાલ–સભાવપ્રતિષેિધ છે. રાગ દ્વેષ આદિ ભાવે વિપરીત સ્વરૂપ બતાવવું એ ભાવ–સર્ભાવપ્રતિષેધ છે. એ પ્રકારે અન્ય ત્રણ લોના ચતુર્ભગી સમજી લેવી, જેમકે-દ્રવ્ય-અભૂતભાવન, ક્ષેત્ર-અભૂતક્ષાવન, ઈત્યાદિ હે ભગવન્! હું સર્વ પ્રકારના મૃષાવાદના પ્રત્યાખ્યાન કરૂં છું. મૃષાવાદ કયા કયા કારણથી થાય છે! તે હવે કહે છે – જીવના ક્રોધ-મેહનીય પ્રકૃતિના ઉદયથી સ્વ-પરના ચિત્તમાં વિકાર કરવા Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ अध्ययनं ४ .सू.१० (३)-अदत्तादानविरमणनतम् २४९ मैं) भंते! हे भगवन् ! सव्वं सब प्रकारके अदिन्नादाणं अदत्तादान (चोरी)का पचक्खामि प्रत्याख्यान करता हूँ से अथ-अब से लेकर मैं-गामे वाग्राममें नयरे वा-नगरमें रणे वा अरण्यमें अप्पं वा अल्प-थोड़ा पहुं वा-बहुत-घणा अणुं वा-सूक्ष्म-छोटा थूलं वा स्थूल-मोटा चित्तमंतं वा-सचेतन अचित्तमंतं वा अचेतन (आदि किसीभी) अदिनविना दिये हुए पदार्थको सयं स्वयं नेवनहीं गिहिज्जा ग्रहण करूंगा, नेवन्नेहिन्न दूसरोंसे अदिन्न-विना दिया हुआ. गिण्हाविज्जा ग्रहण कराऊँगा, अदिन्न-विना दिये हुए पदार्थको गिण्हंतेवि ग्रहण करते हुए भी अन्ने-दूसरेको न समणुजाणामि-भला नहीं जानूंगा, जावज्जीवाए जीवनपर्यन्त (इसको) तिविहं-कृत-कारित-अनुमोदनारूप तीन करणसे (तथा) तिविहेणं-तीन प्रकारसे मणेणं-मनसे वायाए-बचनसे कारणं कायसे न करेमिन करूँगा, न कारवेमिन्न कराऊँगा, करंतंपि-करते हुए भी अन्नदूसरेको न समणुजाणामि भला नहीं समझूगा । भंते ! हे भगवन् ! तस्स-उस दण्डसे पडिकमामि-पृथक् होता हूँ, निंदामि आत्मसाक्षीसे निन्दा करता हूँ, गरिहामि गुरुसाक्षीसे गर्दा करता हूँ, अप्पाणं-दण्ड सेवन करनेवाले आत्माको वोसिरामि-त्यागता हूँ। भंते ! हे भगवन् ! तच्चे-तीसरे- महत्वए-महानतमें उवटिओमि-उपस्थि हुआ है, इसलिये मुझे सव्वाओ-सव अदिन्नादाणाओअदत्तादानसे वेरमणं-विरमण-त्याग है ॥१०॥ (३) (३) अदत्तादानविरमणव्रतम्. टीका-हे भगवन् ! अथ-मृपावादविरमणानन्तरम् अपरेतृतीये महावते अदत्तादानात्न्न दत्तमदत्तं-देवगुरुभूपगाथापतिसाधर्मिफेरननुज्ञातं तस्याऽऽदानं-- ग्रहणमदत्तादानं तस्माद्विरमणम् , सर्व भगवन् ! अदत्तादानं प्रत्याख्यामि, एतत्तु __ (३) अदत्तादानविरमण । मृपावादविरमणके याद तीसरे महाव्रतमें देव गुरु राजा गाथापति और साधर्मिकके द्वारान दियेहुए पदार्थके ग्रहणका त्याग किया जाता है, इसलिए हे भगवन् ! मैं सर्व अदत्तादानका परित्याग करता है। वह इस प्रकार (3) महत्तानविरमा. મૃષાવાદવિરમણની પછી ત્રીજી મહાવ્રતમાં દેવ ગુરૂ, રાજ, ગાથાપતિ અને સાધર્મિક ન આપેલા એવા પદાર્થનું ગ્રહણ કરવાને ત્યાગ કરવામાં આવે છે, તેથી હે ભગવન્! હું સર્વ અદત્તાદાનને પરિત્યાગ કરું છું. તે આ પ્રકારે– Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ duate - - २४८ श्रीदवालि सत्यपरिपालनं चादणादान-(पौर्य)-परित्याग गर्नु पुनकामिति मक न्वरमदचादानविरमणसम्म तृतीयं महानवमाद-'आहावरे तो स्यादि। मूलम्-अहावरे तच्चे भंते ! महवप अदिनादाणाओ वेरमण सवं भंते! अदिन्नादाणं पच्चक्खामि, से गामे वा नगरे वा रने वा अप्पं वावडं वा अणं, वा शुलं वा चित्तमंतं वा अचितमंतं वा नेव संयं अदिन्नं गिहिना, नेवग्नेहिं अदिन्नं गिण्हाविजा, अदित गिण्हतेवि अन्ने न समाजाणिजा, जावजीवाए तिविहं तिविण मणेणं वायाएकाएणं न करेमि, न कारवेमि, करंतपिअन्नं न सम. णुजाणामि। तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाण वोसिरामि। तच्चे भंते! महत्वए उवडिओमि सबाओ अदिन्नादा णाओ वेरमणं ॥१०॥ छाया-अथापरे तृतीये भदन्त ! महावतेऽदत्तादानाद्विरमणं, सर्व भदन्त ! अदत्तादानं प्रत्याख्यामि, अथ ग्रामे वा नगरे वा अरण्ये वा अल्पं वा बहु . अणु वा स्थूलं वा चितवद्वा अचित्तवद्वा नैव स्वयमदत्तं गृहामि नैरान्यरदत ग्राहयामि, अदत्तं गृहतोऽप्यन्यान समनुजानामि, यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविधन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्मात् भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गहें आत्मानं व्युत्सृजामि । तृतीय भदन्त ! महावते उपस्थितोऽस्मि सर्वस्माददत्तादानाद्विरमणम् ॥१०॥ (३) अदत्तादानविरमण. सान्वयार्थः-भंते ! हे भगवन् ! अहावरे-इसके बाद तच्चे-तीसरे मह व्वए-महानतमें अदिनादाणाओ-अदत्तादानसे वेरमणं-विरमण होता है (अतः सत्य महाव्रतका पालन अदत्तादानका त्याग करनेसेही हो सकता है, इस कारण सत्य महाव्रतके पश्चात् अदत्तादानविरमण नामक तीसर महाव्रतका कथन करते है-'अहावरे तच्चे' इत्यादि । સત્ય મહાવ્રતનું પાલન અદત્તાદાનને ત્યાગ કરવાથી જ થઈ શકે છે, તે કારણથી સત્ય મહાવ્રતની પછી અદત્તાદાન-વિરમણ નામના ત્રીજા મહાવ્રતનું કથન ४२ -अहावरे वच्चे त्यादि । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ स्. १० (३)-अदत्तादानविरमणत्रतम् २५१ - इत्युक्तलक्षणं तस्मिन् । अरण्ये भयंते-गम्यते एकान्तविविक्तदेशप्रियानाथिभिः, काष्ठायाहत्तु काप्टहारकैवेत्यरण्यं तस्मिन् , उपलक्षणात्खेटकादौ । एतेषां मध्ये कस्मिंश्चिदपि स्थले अल्पमूल्यतो न्यूनं दन्तादिपरिशोधनार्थ तृणादिकम् , वहु-अधिकमूल्यकं सुवर्णादिकम् , अणु-प्रमाणतो लघु माणिक्यादिकम् , स्थूलम्प्रमाणतो विशालमेरण्डकाष्ठादिकम् , चित्तवत् सचेत्तनम् , अचित्तवत् अचेतनं वा, एतत्सर्वम् एतदन्यतमं वा अदत्तं तत्स्वामिना ग्रहणायाऽननुमतं नैव स्वयं गृह्णामि; नैवान्यैरदत्तं ग्राहयामि, अदत्तं गृह्णतोऽप्यन्यान समनुजानामीत्यादिकं सर्व व्याख्यातपूर्वम् । ननु सामान्येनाऽदत्तादानस्य स्तेयत्वे प्रतिक्षणमनन्यदेवकर्माण्याददानस्य - एकान्त और पवित्र स्थानके अभिलापी ध्यानार्थी योगी अथवा लकड़ी लानेके लिए लकड़हारे जहाँ जाते हैं वह अरण्य कहलाता है। - इन ग्राम, नगर, अरण्य और उपलक्षणसे खेटक (खेड़ा) आदि किसी स्थानमें कम मूल्यवाला-दाँत खुजानेका तिनका आदि, अधिक कीमतवाला-सुवर्ण आदि, प्रमाणकी अपेक्षा अणु-माणिक्य आदि, प्रमाणकी अपेक्षा बड़ा-एरण्डकाष्ठ आदि, सचेतन अथवा अचेतन कोई पदार्थ या सब पदार्थ विना स्वामीकी अनुमति न स्वयं ग्रहण करूँगा, न दूसरोंसे ग्रहण कराऊँगा और न ग्रहण करनेवालेको भला जानूंगा। प्रश्न-हे गुरु महाराज ! विना दी हुई सब वस्तुओंको ग्रहण करना यदि अदत्तादान है तो मुनियोंको भी अदत्तादानका प्रसंग आवेगा, એકાન્ત અને પવિત્ર સ્થાનના અભિલાષી ધાનાથી ચગી અથવા લાકડાં લેવાને માટે કઠિયારા જ્યાં જાય છે તે અરણ્ય (જંગલ) કહેવાય છે. | : એ ગામ નગર અરણ્ય અને ઉપલક્ષણે કરીને ખેટક (ગામડું) આદિ કેઈ સ્થાનમાં ઓછા મૂલ્યવાળું દાંત ખેતરવાનું તણખલું વગેરે, વધારે મૂલ્યવાળું એનું વગેરે, પ્રમાણુની અપેક્ષાએ નાનું માણિયાદિ, પ્રમાણુની અપેક્ષાએ મોટું એરંડાનું લાકડું આદિ, સચેતન અથવા અર્ચન કેઈ પદાર્થ યા સર્વ પદાર્થ, તેના સ્વામીની અનુમતિ વિના, નહિ સ્વયં હું ગ્રહણ કરૂં, નહિ બીજા પાસે ગ્રહણ કરાવું અને નહિ ગ્રહણ કરનારને ભલે જાણું. - પ્રશ્ન–હે ગુરૂ મહારાજ ! આપવામાં આવ્યા વિનાની બધી વસ્તુઓને ગ્રહણ કરવી એ જે અદત્તાદાન છે તે મુનિઓને પણ અદત્તાદાનને પ્રસંગ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ an २५० श्रीकालियो व्याख्यातपूर्वम् । तदेव विशदयति-'सेइति, अप-अनन्तरम् अपारम्प-नामअस्यन्तेमपनो-रिनाश्यन्ते युदिविद्याविवेकादयो गुणा यत्र स इति, गम्यो गोमहिपादीनां करेरिति या ग्रामः (सिदिः प्रपोदरादिस्वाद ) कपिपरम्मामा हादिशून्पवसतिः, फण्टकमयतिपरिवेष्टितगृहसासम्पन्नो वा तस्मिन् । नगर न गन्छन्तीति नगाक्षाः पर्वताश च इत्र समुन्नताः प्रासादादयो यस्मित नगरम् , ('नग-पांड-पाण्डभ्योति बार्तिकेन नगन्दादः) नकरामात छापापक्षे तु न विद्यते गोमहिपादीनामष्टादशविधः करम् राजप्रासमाना (जकात) यत्र तत् । यद्वा " पुण्यपापक्रियाविशे, दयादानपवर्तकः ।। कलाकलापकुशलैः, सर्ववर्णः समाकुलम् ।। भाषाभिविविधाभिश्च, युक्तं 'नगर'-मुच्यते ॥" जहाँ रहनेसे बुद्धि, विद्या, विवेक आदि गुण नष्ट हो जाते हैं उसे ग्राम कहते हैं । अथवा जहाँ गाय भैस आदिका कर (टेक्स) लिया जाता हो, अथवा पृथ्वीके अधिक भागमें कृपि होती हो, बाजार या दुकानें न हों, कॉटॉकी वाइसे घिरे हुए घर हों उस वस्तीको ग्राम (गाव) कहते हैं। जहाँ वृक्ष तथा पर्वतकी तरह अत्यन्त उन्नत महल-हवेलियाँ हा, अथवा गो महिप आदि पर कर (जकात) न लगता हो, अथवा जिल वस्तीमें पुण्य-पाप क्रियाओंके ज्ञाता, दया-दानके प्रवर्तक, कलाआम कुशल चारों वर्ण हों, और जहाँ नाना देशकी भाषा बोलनेवाले मनुष्य रहते हों उसे नगर कहते हैं। જ્યાં રહેવાથી બુદ્ધિ, વિદ્યા, વિવેકાદિ ગુણ નષ્ટ થઈ જાય છે તેને એમ કહે છે. અથવા જ્યાં ગાય ભેંશ આદિને કર (ટેકસ) લેવામાં આવે છે, અથવા પૃથ્વીના વધારે ભાગમાં ખેતી થાય છે, કાર અથવા દુકાને હેય નહિ, કટારા વાડથી ઘેરેલાં ઘર હાથ એ વસ્તીને ગ્રામ (ગામ) કહે છે. જ્યાં વૃક્ષ કે પર્વત જેવી અત્યંત ઉચી મહેલ-હવેલીએ હોય, અથવા ગાય-ભેંશ આદિ પર કર (જકાત) ન લાગતે હેય, અથવા જે વસ્તીમાં પુસ્થ–પાપ ક્રિયાઓના જ્ઞાતા, દયા--દાનના પ્રવક, કળાઓમાં કુશળ ચારે વણે હાય, અને જ્યાં જુદા જુદા દેશની ભાષાઓ બોલનારા મનુષે રહેતા હોય, તેને નગર કહે છે. Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययनः ४ सू..१० (४)-मैयुनविरमणव्रतम् २५३ - धर्ममुपायतश्चाऽप्रमत्तत्वातीयकराणां-धर्मार्जनोपदेशाचे न स्तेयप्रसङ्गः, अत एवाऽल्प-बहु-स्थूलाऽणुग्रहणं सूत्रे, कृतमितिः॥ १०-11:(३) ..iran'. मैथुनविरमणमन्तरेण ह्यहिंसादिमहावताना संरक्षणं न भवितुं शक्नौति, यतो मैथुनपरायणः पाणी त्रस-स्थावर-जीवान् हिनस्ति, मिथ्या वदति, अदत्तं चाऽऽदत्तेऽतस्तेषां निरपायपरिपालनाय. मैथुनविरमण-नामधेय चतुर्थे महाव्रतमाह'अहावरे चउत्थे' इत्यादि-1, .. -- - -- -- जिससे कर्म, यंध जाते हैं। रहा, धर्मोपार्जन, सो तीर्थकर, भगवानने धर्मोपार्जन करनेका आदेश तथा उपदेश दिया है इसलिए अदत्तादानका प्रसँग नहीं आता। .... सूत्रमें अल्प, यह, स्थूल, और अणु, इन शब्दोंका ग्रहण भी इसी आशयसे किया गया है, अत एव कोंके बन्धन तथा समिति-गुप्ति द्वारा.धर्मोपार्जनमें अदतादान, नहीं लगता है:॥१०॥ (३) ...मैथुनविरमणके विना अहिंसा आदि. महाव्रतोंकी रक्षा नहीं हो सकती, क्योंकि मैथुन सेवन करनेवाला उस स्थावर जीवोंकी हिंसा करता है, असत्ययोलता है, और अदत्तको आदान करता है । अत एव 'अहिंसादि महाव्रतोंका निरतिचार पालन करनेके लिए मैथुन-विरमण नामक चतुर्थ महाव्रतका प्रतिपादन किया जाता है- अंहावरे चउत्थे' इत्यादि । ....: + riy rit . ... rint ... . ધર્મોપંત, તે તીર્થંકર ભગવાને ધર્મોપાર્જ કરવાનો આદેશ 'તથા ઉપદેશ આપે छ. तथा तभी तहाननी प्रसंगमावत'नेया.in v.. सूत्रमा प, गहु, स्था, अन मी, महार्नु पर्थ में भाशयथार"श्वीमा "मायुमभाना मन तयाँ साभात शिश पाना भी महत्तहान दाग नथी (3) (१०) * * મૈથુનવિરમણ વિના અહિંસા આદિ મહાવતેની રક્ષા થઈ શકતી નથી, કારણ કે-મૈથુન સેવન કરવાવાળ, ત્રસસ્થાવર જીવેની હિંસા કરે છે, અસત્ય બેલે છે. અને અદત્તનું આદાન કરે છે. તેથી કરીને અહિંસાદિમહાવ્રતનું નિરતિચાર पारन वान भाटे.. मेथुनविरभर नामर्नु याथु मानतर्नु.. प्रतिपादन ४२१ाभा-सावे-अहावरे चउत्थे. त्या Liii .. . is... Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A . - - - - - श्रीदनकालिने समितिग्रतिम तिमिम का समुपान्यतः गापोरदशासानापतिमसक्तिरिति चेम, ' लोकमसिददस्तादिकरणादानाऽऽदानादिन्यवहारस्य कर्मादिवभावान् । तथाहि लोके वनपात्रादिकमन्यस्मे हस्तेन दीयतेऽन्यस्माद्वाऽऽदीयते, इत्येवं दा. नाऽऽदानादिन्यवहारो दृश्यते तस्य न कर्मविषयार संभवति, तेषां महमवान् । नहि सक्ष्म फर्मादिकं हस्तादिकरणकग्रहणवितरणयोग्यतां भजते इति । क्योंकि मुनि विना दिये हुए कमाको प्रतिक्षण ग्रहण करते हैं और समिति-गुसिका पालन करके धर्मका भी उपार्जन करते हैं। __उत्तर-हे शिष्य ! ऐसा नहीं है। हाथोंसे लेने-देनेका जैसा व्यवहार लोकमें प्रसिद्ध है वैसा कोंमें नहीं हो सकता, अर्थात् लोकमे ऐसा व्यवहार होता है कि-'वस्त्र पात्र दसरोंको हायसे दिया जाता है, दूसरस लिया जाता है। इस प्रकारका व्यवहार कर्मोंके विषयमें नहीं होता क्योंकि कर्म अत्यन्त सूक्ष्म हैं, वे इन्द्रियके विषय भी नहीं होते तो उनका लेन-देन कैसे हो सकता है। दूसरी यात यह है कि प्रमादक योगसे अदत्त पदार्थका आदान (ग्रहण) करना अदत्तादान कहलाता है। मुनिराजको तदिपयक प्रमाद नहीं है इसलिए उन्हें अदत्तादानका दोप नहीं लगता । मुनिराज तो कभी नहीं चाहते कि हम कमाका ग्रहण करें, किन्तु संसारी आत्मा और काँका स्वभाव ही ऐसा है कि આવશે, કારણ કે મુનિ વિના અપાયેલાં કમેને પ્રતિક્ષણ ગ્રહણ કરે છે અને સમાજ ગુપ્તિનું પાલન કરીને ધર્મનું પણ ઉપાર્જન કરે છે. ઉત્તર–હે શિષ્ય ! એમ નથી. હાથેથી લેવાદેવા જેવો વહેવાર કૈક પ્રસિદ્ધ છે તે વહેવાર કર્મોમાં નથી હોઈ શકત; અથત લોકોમાં એ વર્ષ વાર થાય છે કે–વસ્ત્ર પાત્ર બીજાઓને હાથથી આપવામાં આવે છે. બીજી પાસેથી લેવામાં આવે છે, એ પ્રકારનો વહેવાર કર્મોની બાબતમાં થતા નથી કેમકે-કમ અત્યંત સૂક્ષમ છે, તે ઇન્દ્રિયને વિષય જ નથી હોતે તે એના લેણ-દેણ કેવી રીતે થઈ શકે ? બીજી વાત એ છે કે–પ્રમાદના યોગથી અદત પદાર્થનું આદાન (ગ્રહણ) કરવું એ અદત્તાદાન કહેવાય છે. મુનિરાજને તાદ્ધ યક પ્રમાદ હેત નથી, તેથી તેમને અદત્તાદાના દેશ લાગતું નથી. મુનિરાજ તે કદાપિ એમ નથી ઈચ્છતા કે હું કર્મોનું ગ્રહણ કરું, કિન્ત સંસારી આત્મા અને કમેને સ્વભાવ જ એ છે કે જેથી કમ બંધાઈ જાય છે બાકી રહે Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू. ११ (४) मैयुनविरमणव्रतम् २५५ दण्ड सेवन करनेवाले आत्माको चोसिरामि त्यागता हूँ। भंते ! हे भगवन् ! चउत्थे चौथे महत्वए महाव्रतमें उवडिओमि उपस्थित होता हूँ , इसलिये मुझे सव्वाओ-सब प्रकारके मेहुणाओ-मथुनसे वेरमणं-त्याग है ।।११।। (४) (४) मैथुनविरमणव्रतम्, टीका--हे भगवन् ! अथ अपरे चतुर्थे महायते मैथुनात्-मिथुनेनन्-स्त्रीपुंसाभ्यां निवृत्तं कर्म मैथुनं प्रत्याख्यामीति प्राग्वत् , तदेव विशदयति-'से' इति । अथ अनन्तरम्-अद्यारभ्य दैवं देवानामिदं मानुपं-त्री-पुंससम्बन्धीत्यर्थः, तैर्यग्योनं-तिर्यग्योनीनामिदं तैर्यग्योन-पवादिसम्बन्धीत्यर्थः, मैथुनं नैव स्वयं सेवे, इत्यादि सर्व पूर्ववत् । द्रव्यादिचतुर्भङ्गयपि प्राग्वद्योजनीया ।।११।। (४) . (४)-मैथुनविरमण. : ... हे भगवन् ! चौथे महाव्रतमें समस्त प्रकारके मैथुनसे विरमण किया जाता है, इसलिए हे भगवन् ! मैं सब तरहके मैथुनका प्रत्याख्यान करता हूँ। अप्सराओं सम्बन्धी देवी, स्त्री-पुरुष सम्बन्धी मानुपिक, पशु आदि सम्बन्धी तैर्यग्योनिक मैथुनको मैं न स्वयं सेवन करूँगा, न दूसरोंसे सेवन कराऊँगा, न सेवन करते हुएको भला जानूंगा। द्रव्य क्षेत्र काल भावकी चौभंगी यहाँपर भी लगानी चाहिए, अर्थात् द्रव्यसेस्त्री आदिके साथ, क्षेत्रसे-किसी क्षेत्रमें, कालसे-किसी कालमें और भावसे-किसीभी भावसे, तीन करण तीन योगसे मैथुन सेवन नहीं करूँगा ॥११॥ (४) (४) भैथुनविरम. , હે ભગવન્! ચોથા મહાવ્રતમાં સર્વ પ્રકારના મિથુનનું વિરમણ કરવામાં આવે છે, તેથી હે ભગવન ! સર્વ પ્રકારના મૈથુનના પ્રત્યાખ્યાન કરૂં છું. અસરાઓ સંબંધી દેવી, સ્ત્રી-પુરૂષ-સંબંધી માનષિક, પશુ-આદિ–સંબંધી તૈ નિક મથન નહિ હ સ્વયં સેવું, નહિ બીજાઓ પાસે સેવન કરવું અને નહિ સેવન કરનારને ભલે જાણું. દ્રવ્ય-ક્ષેત્ર-કાળ-ભાવની ચભંગી એમાં પણ લગાડવી, અર્થાત દ્રવ્યથી સ્ત્રી આદિની સાથે, ક્ષેત્રથી કઈ પણ ક્ષેત્રમાં, કાળથી કઈ કાળમાં અને ભાવથી કઈ પણ ભાવે કરીને ત્રણ કરણ ત્રણ વેગથી મિથુન સેવીશ नाह. (४) (११) Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २५४ - श्रीसोकालिक - ' मूलम् अहावरे चउत्थे भंते ! महत्वए मेहणाओ वेरमण, सर्व भंते मेहुणं पञ्चश्वामि, से दिवं वा माणुसं वा तिरिक्खजोणियं वा नेव सय मेहुणं सेविजा, नेवन्नेहि मेहुणं सेवाविजा, मेहुणं सेव तेवि अन्ने न समणुजाणिजा, जावजीवाए तिविहं-तिविहणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि, न कारवेमि, करतंपि अन्नं न समजा. णामि। तस्सभंते! पडिकमामिनिंदामिगरिहामिअप्पाणं वोसिरामि। चउत्थे भंते! महबए उवडिओमि सदाओ मेहणाओवेरमण।।११॥(8) : छाया-अयापरे चतुयें भदन्त ! महावते मेधुनाद्विरमणं, सर्वे भदन्त ! मधुन ' प्रत्याख्यामि, अथ दैवं चा मानुषं वा तैर्यग्योनं या नैव स्वयं मैथुनं ' सेव, नैवान्पैमथुन सेवयामि, मैथुन सेवमानानप्यन्यान समनुजानामि, यावजीवया विविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि, न कारयामि, कुर्वन्तमप्यन्य न समनुजानामि । तस्माद् भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गहें आस्मानं व्युत्तर जामि । चतुर्थे भदन्त ! महावते उपस्थितोऽस्मि सर्वस्मान्मधुनाद्विरमणम् ॥११॥ (४) मैथुनविरमण. सान्वयार्थ:-भंते! हे भगवन् ! अहावरे इसके बाद चउत्थे चौथे,मह व्वए-महावतमें मेहुणाओ-मैथुनसे वेरमणं-विरमण होता है, (अतः में) भंते ! हे भगवन् ! सव्वं सब प्रकारके मेहणं-मैथुनका पञ्चक्वामिन प्रत्याख्यान करता हूँ, से-अव से लेकर मैं दिव्वं वा-देवसम्बन्धी माणुस मनुप्यसम्बन्धी तिरिक्खजोणियं वा-तिर्यश्चसम्बन्धी. मेहुणंम्मैथुनका सयं स्वयं नेवन सेविज्जा सेवन करूँगा, नेवन्नेहिम्न दूसरोंसे मेहुण:मैथुन सेवाविज्जा सेवन कराऊँगा, मेहुणं-मैथुन सेवंतेधि सेवन करत हुएभी अन्ने दूसरोंको न समणुजाणिज्जा भला नहीं समझंगा, जाव. ज्जीवाए जीवनपर्यन्त (इसको) तिविहं-कृत कारित अनुमोदनारूप तीन करणसे (तया) तिविहेणं-तीन प्रकारके मणेणं मनसे वायाए वचनसे कारणं कायसे न करेमिन करूँगा न कारवेमिन्न कराऊँगा करतंपिकरते हुएभी अन्नं-दूसरेको न समणुजाणामि भला नहीं समझूगा। भंते! हे भगवन् ! तस्स उस दण्डसे पडिक्कमामि-पृथक होता हूँ, निंदामि आत्मसाक्षीसे निन्दा करता हूँ, गरिहामि-गुरु साक्षीसे गहीं करता Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू. १२ (५)-परिग्रहविरमणव्रतम् धूलंवा स्थूल मोटा चित्तमंतंवा सचेतन अचित्तमंतंवा अंचेतन परिग्गरंपरिग्रहको सयं स्वयं नेव-नहीं परिगिपिहला ग्रहण करूँगा, नेवन्नेहि-नं दूसरोंसे परिग्गह-परिग्रहको परिगिण्हाविज्जा ग्रहण कराऊँगा, परिग्गह-परिग्रहको परिगिण्हंतेवि ग्रहण करनेवालेभी अन्ने-दूसरोंको न समणुजाणिज्जा-भला नहीं जानूंगा। जावज्जीवाए जीवनपर्यन्त (इसको) तिविह-कृत कारित अनुमोदनारूप तीन करणसे (तथा) तिविहेणं-तीन प्रकारके मणेणं-मनसे वायाए= वचनसे कारणं कायसे न करेमिम्न करूँगा,न कारवेमि न कराऊँगा,करंतंपि= करते हुएभी अन्नं दूसरेको न समणुजाणामि-भला नहीं समझूगा । भंते ! हे भगवन् ! तस्स-उस दण्डसे पडिकमामि-पृथक् होता हूं, निंदामि आत्मसाक्षीसे निन्दा करता हूँ, गरिहामि शुरुसाक्षीसे गर्दा करता हूँ, अप्पाणंदण्ड सेवन करनेवाले आत्माको वोसिरामि त्यागता हूँ। भंते ! हे भगवन् ! पंचमे-पांचवें महव्वए-महाव्रतमें उवडिओमि-उपस्थित होता है, इसलिये मुझे सवाओ= सब परिग्गहाओम्परिग्रहसे वेरमणं-विरमण-त्याग है ॥१२।। (५) (५) परिग्रहविरमणवतम् । टीका--हे भगवन् ! अथापरे पञ्चमे महात्रते परिग्रहात-परि-सर्वतोभावेन गृह्यते जन्मजरामरणादिजनितदुःखैर्वेचते आत्माऽनेनेति, यद्वा परिगृह्यते-समूछे स्वीक्रियते इति परिग्रहः 'मुच्छा परिग्गहो वुत्तो' इति वचनात् , धर्मोपकरणभिन्न ()-परिग्रहविरमण. हे भगवन् ! चतुर्थ महाव्रतके पश्चात् पाँचवें महाव्रतमें परिग्रहका पूर्ण प्रत्याख्यान किया जाता है। जिससे आत्मा जन्म-जरा-मरण-आदिजनित नाना दुःखोंसे गृहीत होता है, अथवा जो मृर्ची-पूर्वक स्वीकार किया जाता है वह परिग्रह कहलाता है, क्योंकि भगवानने मूर्छाको ही परिग्रह बतलाया है। अतएव तीन करण तीन योगसे ग्राम नगर आदिमें (५) परियविभा. - હે ભગવન ! ચતુર્થ મહાવ્રતની પછી પાંચમા મહાવ્રતમાં પરિગ્રહનાં પૂર્ણ પ્રત્યાખ્યાન કરવામાં આવે છે. જેથી આત્મા જન્મ-જરા-મરણાદિજનિત નાના પ્રકારનાં દુખેથી ગ્રસ્ત થાય છે. અથવા જે મૂરપૂર્વક સ્વીકારવામાં આવે છે તે પરિગ્રહ કહેવાય છે, કારણ કે ભગવાને મૂરછનેજ પરિગ્રહરૂપ બતાવી છે. તેથી કરીને ત્રણ કરણ ત્રણ વેગે ગ્રામ નગર આદિમાં ન સ્વયં પરિગ્રહ ધારણ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - રક मेधुनविरमणं च परिग्रहरिरमणमन्तरेण न भवितुं सत्रामिति मेधुनक्रिमका नन्तरं परिग्रहविरमणनामकं परमं महामतमाह-'अहावरे पंचमे' स्पादि। ___ मूलम्--अहावरे पंचमे भंते ! महत्वप, परिगहाओ वेरमणं, सां भंते ! परिग्गहं पञ्चक्खामि, से अप्पं वा वहुं वा अणु वा थूलं का चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा नेव सयं परिग्गहं परिगिव्हिज्जा, नेव. नेहिं परिग्गहं परिगिहाविजा, परिग्गहं परिगिण्हंतेवि अन्ने न समजाणिजा, जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारण नकरेमि, न कारवेमि, करंतंपि अन्नं न समजाणामि तस्स भत! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। पंचमे भत! महत्वए उबहिओमि सबाओ परिम्गहाओ वेरमणं ॥१२॥ (५) .. छाया--अथापरे पञ्चमे भदन्त ! महानते परिग्रहाद्विरमणं, सर्वे भवन्त ! परिग्रहं प्रत्याख्यामि, अथ अल्पं वा पहुं वा अणुं वा स्थूलं वा चिन्त वा अचित्तवन्तं वा नैव स्वयं परिग्रहं परिगृहामि, नैवान्यैः परिग्रहं परिग्राहमान परिग्रहं परिगृह्णतोऽप्यन्यान समनुजानामि, यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्माद भदन्त ! प्रतिकामामि निन्दामि गर्दै आत्मानं व्युत्सृजामि । पञ्चमे भदन्त । महावते उपस्थितोऽस्मि सर्वस्मात्परिग्रहाद्विरमणम् ॥१२॥ (५) (५) परिग्रहविरमण, सान्वयार्थ:-भंते ! हे भगवन् ! अहावरे-इसके बाद पंचमे-पांच मह व्यए-महानतमें परिग्गहाओ-परिग्रहसे वेरमणं-विरमण होता है, (अतः म) ते! हे भगवन् ! सव्वं सब प्रकारके परिग्ग-परिग्रहको पञ्चक्खामिन त्यागता हूँ, से अब से लेकर मैं अप्पंवा अल्प बहुंवा-बहुत अणुंवा अणु-छोटा मैथुनविरमण, परिग्रहके त्यागे विना नहीं हो सकता, इसलिए मैथुनविरमणके अनन्तर परिग्रहविरमणनामक पांचवां महाव्रत कहते हैं'अहावरे पचमे' इत्यादि । મૈથુન વિરમણ, પરિગ્રહના ત્યાગ વિના થઈ શકતું નથી, તેથી મૈથુન વિરમણની पछी परियऽविरम नामर्नु पाय महामत ४३ -अहावरे पंचमे त्यात Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अध्ययन ४ सू. १३ (६)-रात्रिभोजनविरमणव्रतम् २५९ मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि। तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि।छट्टे भंते ! वए उवडिओमि सबाओ राइभोयणाओ वेरमणं ॥१३॥ (६) छाया-अथोपरे पष्ठे भदन्त ! व्रते रात्रिभोजनाद्विरमणं, सबै भदन्तं ! रोत्रिभोजनं प्रत्याख्यामि, अथ अशनं वा पानं वा खाधं वा स्वाचं वा नैव स्वयं रात्रौ भुजे, नैवान्यान् रात्रौ भोजयामि, रात्रौ भुञ्जानानप्यन्यान्न समनुमानामि, यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि। तस्माद् भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्दै आत्मानं व्युत्सृजामि । पप्ठे भदन्त ! व्रते उपस्थितोऽस्मि सर्वस्माद्वात्रिभोजनाद्विरमणम् ॥१३॥ (६) (६) रात्रिभोजनविरमण सान्वयार्थः-भंते! हे भगवन् ! अहावरे-इसके अनन्तर छठे-छठे वएव्रतमें राइभोयणाओ-रात्रिभोजनसे वेरमणं-विरमण होता है, (अतः मैं) भंते! हे भगवन् !सव्वं सब प्रकारके राइभोयणं-रात्रिभोजनको पच्चक्खामिन त्यागता हूँ, से--अब से लेकर मैं-असणं वा-लड्डू पूरी घी सत्तू आदि अशन, पाणं वा दूध शर्वत आदि पान-पीने योग्य, खाइमं वा-दाख खजूर आदि खाद्य, साइमं वा= लोग इलायची आदिखाय, नेव-नसयं-स्वयं राइं-रात्रिमें मुंजिज्जा खाऊँगा, नेकन्नेहि न दूसरोंकोराई-रात्रिमें भुंजाविज्जा-खिलाऊँगा, राइंभुंजतेवि अनेरात्रिमें भोजन करनेवाले दूसरोंकोभी न समणुजाणिजा-भला नहीं जानूंगा, जावजीवाए-जीवनपर्यन्त (इसको) तिविहं-कृत कारित अनुमोदनारूप तीन करणसे (तथा) तिविहेणं तीन प्रकारके मणेणं मनसे वायाए= वचनसे कारणं कायसे न करेमि न करूँगा. न कारवेमिन्न कराऊँगा, करतंपि करते हुएभी अन्नं-दूसरेको न समणुजाणामि-भला नहीं समझंगा। , भंते ! हे भगवन् ! तस्स उस दण्डसे पडिकमामि-पृथक् होता हूँ, निंदामि= आत्मसाक्षीसे निन्दा करता हूँ, गरिहामि-गुरुसाक्षीसे गर्दा करता हूँ, अप्पाणंदण्ड सेवन करनेवाले आत्माको वोसिरामि त्यागता हूँ, भंते ! हे भगवन् ! छटे-छठे वएव्रतमें उवढिओमि उपस्थित होता है, इसलिये मुझे सव्वाओ= सब प्रकारके राइभोयणाओ-रात्रिभोजनसे वेरमणं-विरमण त्याग है॥१३॥ (६) Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवेकालिकसूत्रे परियहं प्रत्याख्यामि, अथ ग्रामे सर्वमित्यर्थस्तस्माद्विरमणम् । हे भगवन ! वा नगरे वेत्यादि भाग्योदव्यम् ||१२|| (५) द्वाविंशतितीर्यकरशासने प्रजुपात पुरुषापेक्षयाऽस्यो तरगुणस्त्रेऽपि आधान्तिमतीर्थ करसाधूनामृजुनड-चकनढत्पादनर्थमतिरोधार्थी स्फुटमतिबोधार्य व महाव्रतानन्तरं मूलगुणत्वेनोपादातुं पष्ठं रात्रिभोजनविरमणव्रतमाह-'अहावरे छहे' इत्यादि । मूलम् - अहावरे छट्टे भंते ! वए राइभोयणाओ वेरमणं, सर्व भंते! राइभोयणं पञ्चक्खामि, से असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा नेव सयं राई भुंजिजा, नेवन्नेहिं राई भुंजाविजा, राई भुंजतेवि अन्ने न समणुजाणिजा, जावजीवाए तिविहं तिविहेणं न स्वयं परिग्रह धारण करूँगा, न दूसरेसे धारण कराऊँगा, न धारण करते हुएको भला जानूँगा || १२ || (५) अजितनाथ भगवान से लेकर पार्श्वनाथ जिनेन्द्र पर्यन्त बाईस तीर्थकरोंके शिष्य ऋजु (सरल स्वभावके) और प्राज्ञ (समझानेसे समझनेवाले) होते है। उन शिष्यों की अपेक्षासे रात्रिभोजन उत्तरगुण है । किन्तु ऋषभदेवके शिष्य ऋजु जड़ तथा वर्द्धमान- स्वामीके शिष्य चक्र और जड़ होते हैं, अत एव अनर्थको रोकने के लिए और स्पष्ट बोध कराने के लिए पंच महाव्रतोंके बाद मूल गुणोंमें गिनानेके लिए छ रात्रिभोजनविरमण व्रतको कहते हैं- 'अहावरे छ' इत्यादि । હું કરીશ, ત બીજાએ દ્વારા ધારણ કરાવીશ, ન ધારણ કરનારને ભલે २५८ नीश. (4) (१२) અજિતનાથ ભગવાનથી લઈને પાર્શ્વનાથ જિનેન્દ્ર સુધીના બાવીસ તીર્થં-કાના શિષ્યે ઋતુ ( સરલ સ્વભાવવાળા ) અને પ્રાસ ( સમાવવાથી સમજ નારા ) હતા, તે શિષ્યેની અપેક્ષાએ રાત્રિભાજન ઉત્તરગુણુ છે, પરંતુ ઋષભ દેવના શિષ્યે ઋજુ જડ તથા વમાનસ્વામીના શિષ્યા વક્ર અને જડ હતા, તેથી અનર્થને રોકવાને માટે અને સ્પષ્ટ મેધ કરાવવાને માટે પંચ મહાવ્રતાની પછી भूत गुलामां गयापवाने भाटे छट्टु शत्रिलोटनविरमायु व्रत - अहावरे छडे त्याहि. Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ - अध्ययन ४ सू. १३ (६)-रात्रिभोजनविरमणव्रतम् घदनमप्राणातिपातायोक्तम् । अपिच-रात्रिभोजनव्यवस्थापने, रात्री भुक्त्वाऽऽत्मनः साधुत्वकथने च मृपावादः । रात्रावभ्यवहरणे हन्यमानमाणिनिदेशमन्तरेण तत्माणापहरणाद्रजन्यधिकरणकभोजननिषेधलक्षणजिनाज्ञाभङ्गाच स्तेयम् । रात्रिभोजनशीलस्यावश्यमेव भिक्षार्थ रानावितस्ततः परिभ्रमतः स्यादिसंसर्गादब्रह्मदोपप्रसङ्गः । रात्रिभोजने संग्रहोऽनिवार्यस्तेन च मूच्र्छाऽवश्यम्भाविनी, सैव परिग्रहः मुच्छा परिग्गहो वुत्तो' इति भगवता स्वयमेवाऽभिधानादतो निशाशनमशेपदोपराशिभूतम् , न तत्त्यागाहते व्रतपरिपोपस्तस्मात्सर्वं भगवन् ! रात्रिकरनेसे ही हिंसाका परिहार हो सकता है। रात्रिभोजनका कर्तव्यरूपसे निरूपण करना और रात्रिभोजन करके अपनेको साधु कहना मृपावाद है। रात्रिभोजनसे विराधित होनेवाले प्राणियोंकी आज्ञाके विना ही उनके प्राणोंका अपहरण करनेसे, तथा रात्रिभोजन न करनेकी जिन भगवानकी आज्ञाका लोप करनेसे अदत्तादानका दोप लगता है। रात्रिमें भोजन करनेवाला भिक्षाके लिए रात्रिमें भ्रमण भी करेगा, भ्रमण करते समय स्त्री आदिका संसर्ग होनेसे अब्रह्मचर्यका भी दोप लगेगा। - रात्रिभोजन करनेसे अन्न आदि सामानका भी संग्रह करना पड़ेगा इससे संनिधि-दोप लगेगा। संग्रह करनेसे मूछो भी होगी, मूीको भगवानने स्वयं परिग्रह कहा है, इसलिए रात्रिभोजन सब दोपोंका कोप है, उसका त्याग किये विना व्रतोंका पालन नहीं हो सकता। इस થઈ શકે છે. રાત્રિભોજનનું કર્તવ્યરૂપે નિરૂપણ કરવું અને રાત્રિભોજન કરીને પિતાને સાધુ કહેવડાવવા એ મૃષાવાદ છે. રાત્રિભેજનથી વિરાધિત થનારા પ્રાણીઓની આજ્ઞા વિના જ એમના પ્રાણનું અપહરણ કરવાથી થતા રાત્રિભેજન ન કરવાની જિનભગવાનની આજ્ઞાન લાય કરવાથી અદત્તાદાન દેવ લાગે છે. રાત્રે ભેજન કરનારાઓ ભિક્ષાને માટે રાત્રે ભ્રમણ પણ કરશે. ભ્રમણ કરતી વખતે સ્ત્રી આદિને સંસર્ગ થવાથી અબ્રહ્મચર્યને પણ દેપ લાગશે. રાત્રિભૂજન કરવાથી અન્ન આદિ સામાનને પણ સંગ્રહ કરે પડશે, તેથી સંનિધિ-દેવ લાગશે. સંગ્રહ કરવાથી મૂચ્છ પણ ઉત્પન્ન થશે. મૂછીને ભગવાને પિતે પરિગ્રહરૂપ કહી છે, તેથી રાત્રિભોજન સર્વ દેને કેવ છે. .* એને ત્યાગ કર્યા વિના વ્રતનું પાલન થઈ શકતું નથી. તેથી હે ભગવન ! હું - - Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२६० श्रीदनौकालिको - - - - (६) रानिमोननविरमणयतम् । टीका-हे भगवन् ! अथापरे पप्ठे यो रात्रिभोजनामात्रौनिधि भोजन रात्रिभोजनं तस्माद् विरमणम् । रात्रिमोननेन हि सालमहायतेषु दोषो जन्यते, तथाहि-रात्री दिनकरकिरणामावानानाविधमक्ष्मतनुपारिजन्तुनातसमुत्पावावपात सञ्चारबाहुल्यात् हिंसाऽवश्यम्माविनी, दीसाग्रहणसमये प्रतिमा कता यदपति न कस्यापि पाणिनः प्राणान् पीयिष्यामीति, रात्रिमोजनेन तु पाणिवपस्या निवार्यत्वात्कृतपतिशामहो भवितुमईतीति मृपाबादः, यदा तीयकरलोकालोकाउन लोकिकेवलालोकेन-तत्संयमविराधकमालोक्याऽऽदिस्यालोके आलोकितामपाना१ केवलालोकस्य फरणस्य फलविवक्षया णिनिः। एवात्रिमोजनम् । (६) रात्रिभोजनविरमण । . हे भगवन् ! पांच महाव्रतोंके पश्चात् छठे व्रतमें रात्रिभोजनस विरमण किया जाता है।रात्रिभोजनसे समस्त महावतोंमें दोष लगताहर रात्रिके समय सूर्यकी किरणोंके अभावसे सूक्ष्म-शरीरवाले भौतिभाँतिके जन्तु इधर-उधर उड़ते हैं, नवीन उत्पन्न होते है, नीचे ऊपर आते-जाते हैं, इसलिए हिंसा अवश्य ही होती है। दीक्षा लेते समय ऐसा प्रतिज्ञा की थी कि-'आजसे किसी प्राणीके प्राणोंको पीड़ा नहीं पहु चाऊँगा' जब रात्रिभोजन किया तो हिंसा अवश्य हई, इसलिए मृषा वादका भी दोपलगा।अथवा लोक और अलोकको अवलोकन करनेवाल अलौकिक केवल-आलोकसे अवलोकन करके केवली भगवान्ने कहा कि-सूर्यके आलोकमें अवलोकन किया हुआ अशन आदिक सब (E) alralaw. હે ભગવન્! પાંચ મહાવ્રતની પછી છઠ્ઠા વતમાં રાત્રિભોજનથી વિરમ કરવામાં આવે છે. રાત્રિભૂજનથી સર્વ મહાવતેમાં દોષ લાગે છે. રાત્રિને સમય સૂર્યનાં કિરણના અભાવથી સૂક્ષમ-શરીશ્વાળા ભાત-ભાતના જતુઓ અહીં-તહે ઉડે છે, નવીન ઉત્પન્ન થાય છે, નીચે ઉપર આવ-જા કરે છે, તેથી હિંસા જરૂર થાય છે, દીક્ષા લેતી વખતે એવી પ્રતિજ્ઞા કરી હતી કે આજથી કે પ્રાણીના પ્રાણોને પીડા નહિ ઉપજાવું. જે રાત્રિભેજન કર્યું તે હિંસા અવશ્ય થઈ, તેથી મૃષાવાદને દેવા લાગ્યો. અથવા લેક અને અલેકનું અવલોકન કરનારા અલૌકિક કેવળ જ્ઞાનથી અવલોકન કરીને કેવળી ભગવાને કહ્યું છે કે પ્રજા પ્રકાશમાં આવકન કરેલું અશન આદિ સેવવાથી જ હિંસાને પરિહાર Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन ४ मृ. १३ (६)-रात्रिभोजनविरमणनतम् २६३ (१) रात्री गृहीत्वा रात्री मुक्ते, (२) रात्री गृहीत्वा दिवा भुङ्क्ते, (३) दिवा गृहीत्वा रात्रौ भुङ्क्ते, (४) दिवा गृहीत्वा (रात्रिव्यवधानेन) दिवा भुङ्क्ते । उक्तञ्च भगवता निशीथमत्रस्यैकादशोदेशे "जे भिक्खू दिया असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहिता दिया भुंजइ भुंजंतं वा साइजइ ॥मू. ७३॥ जे भिक्खू दियाअसणं वा ४ पडिगाहित्ता रति भुंजइ भुंनंतं वा साइज्जइ ॥.७४जे भिक्खू रत्तिं असणं वा ४ पडिगाहित्ता दिया भुंजइ मुंजतं वा साइज्जइ ।।मू. ७५॥ जे भिक्खू रत्तिं असणं वा ४ पडिगाहित्ता (१) रात्रिमें ग्रहण करके रात्रिमें ही भोजन करना। (२) रात्रिमें ग्रहण करके दिनमें भोजन करना । (३) दिनमें ग्रहण करके रात्रि में भोजन करना । (४)दिनमें ग्रहण करके (रात्रिभर रखकर दूसरे) दिनमें भोजन करना। भगवान्ने निशीथ सूत्रके ग्यारहवें उद्देशमें कहा है "जो भिक्षु दिनमें अशन पान खाद्य स्वाद्य ग्रहण करके (दुसरे) दिन भोगे, दूसरेको भोगवावे और अन्य भोगनेवालेको भलाजाने ॥७३॥ जो साधु दिनमें अशनादिक लेकर रात्रिमें स्वयं भोगे दूसरेको भोगवावे और अन्य भोगनेवालेको भला जाने ॥सू. ७४॥ जो साधु रात्रिमें अशनादिक लेकर दिनमें भोगे भोगवावे या भोगनेवाले अन्यको भला जाने ॥ सू. ७५॥ (१) रात्रे अ दीन सत्र न ४२j. (२) रात्रे पड रीने हिवसे मान ४२j. (3) हिपसे अडाणु परीने सत्र सन २j. (४) हिवसे घड शन (शतम२ शमीन भाग) हिसे - ४२j. ભગવાને નિશીથ-સૂત્રના અગીઆરમા ઉદેશમાં કહ્યું છે– “२ भिक्षु सभा मशन-पान-माघ-वाय अहए श२ (मार) से लागवे, मीन सागवावे, अन्य लोगवनारने Hat oned. (१.७३) જે સાધુ દિવસે અશનાદિ લઇને રાત્રે પિતે ભેગવે, બીજાને ભગવાને અને અન્ય ભેગવનારને ભલો જાણે (સૂ ૭૪) જે સાધુ રાત્રે અનાદિ લઈને દિવસે ભેગે, ભેગવા યા ભેગવનારને सो (.७५) Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २६२ গীগোপিন্স मोननं प्रत्याख्यामि, तदेव विशदयति-से इति, अय-मनन्तरम्-अधारभ्य अशनम् अश्यते-भुज्यते शुधोपशमनार्थ यत् तन् मोदन-मप-सक्त मुद्दामोदक-घृतपूर-लपनश्रीप्रभृतिकम् , पान-पीयते यत्तत्पानं-दुग्धादि, तिलतण्डलादिधावनोदकं च । खाय-वादितुं योग्यं खायम् अचित्तद्राक्षापधुरादि। स्वाधवादितुं योग्यं स्वा लबद्गचूर्णपूगीफलादि । रात्रिभोमनमपिद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावमेदाधा , तत्र द्रव्यतोऽ. शनपानादिकम् , क्षेत्रतोऽवतीयद्वीपसमुद्रलक्षितं, तबहिः प्रसिद्धदिनराज्यभावाद , फालतो रात्री, भावतो निगाशनामिलापः । रात्रिभोजनस्य स्वरूपततुभेडी यथालिए है भगवन् ! में समस्त-रात्रिभोजनका प्रत्याख्यान करता है। अर्थात् भात, दाल, सत्तू, मुंगके लङ्ग, घेवर, लप्सी आदि अशन, दूध तिल और चावलका धोवन आदि पान,मासुक दाख, खजूरआदिखाद्य लोंगका चूर्ण, सुपारी आदि स्वाय,इन चार प्रकारके आहारोमसे किसा एक प्रकारका भी आहार रात्रिमें नहीं करूँगा। रात्रिभोजन भी द्रव्य क्षेत्र काल भावसे चार प्रकारका है । अशन पान आदि द्रव्यसे रात्रिभोजन है। अढाई दीपमें रात्रिभोजन करना क्षेत्र-रात्रिभोजन है, क्योंकि अढाई दीपके बाहर दिन रात्रिका व्यवहार नहीं है। रात्रिमें भोजन करना कालकी अपेक्षा रात्रिभोजन है।रात्रिम भोजन करनेकी इच्छा करना भाव-रात्रिभोजन है। रात्रिभोजनकी चतुर्भगी इस प्रकार हैસ–રાત્રિભેજનનાં પ્રત્યાખ્યાન કરું છું. અર્થા–ભાત, દાળ, મગજ, મગના લો ઘેબર, લાપસી આદિ અશન, દૂધ, તલ અને ખાનું ધાવણ આદિ પાન, માઈક દ્રાક્ષ, ખજૂર આદિ ખાધ, લવંગનું ચૂર્ણ, સોપારી આદિ સ્વાદ્ય, એ ચારે પ્રકારના આહારમાંથી કોઈ પણ એક પ્રકારને આહાર રાત્રે હું કરીશ નહિ. ત્રિભેજન પણ દ્રવ્ય-ક્ષેત્ર-કાળ-ભાવથી ચાર પ્રકારનું છે. અશન-પાન આદિ દ્રવ્યથી રાત્રિભોજન છે. અહી– દીપમાં રાત્રિભૂજન કરવું એ ક્ષેત્ર–રાત્રિભોજન છે, કેમકે-અઢી દ્વીપની બહાર દિવસ-રાત્રિને વ્યવહાર નથી. રાત્રે ભજન કરવું એ કાળની અપેક્ષાએ રાત્રિભેજન છે. રાત્રે ભજન કરવાની ઈરછા કરવી એ ભાવરાત્રિભેજન છે. રાત્રિજિનની ચતુર્ભાગી આ પ્રમાણે છે – Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन ४ मू. १४-१५ (१)-पृथिवीकाययतना २६५ टीका-इत्येतानि समनन्तरोदीरितलक्षणानि रात्रिभोजनविरमणपष्ठानि रात्री भोजनं रात्रिभोजनं, रात्रिभोजनाद्विरमणं रात्रिभोजनविरमणं, पण्णां पूरणं पष्ठं-पटसंख्यापपूरक, रात्रिभोजनविरमणं पष्ठं येपु तानि पञ्च महात्रतानि आत्महितार्थाय आत्मने हितम् इष्टमिति आत्महितम् , आत्मनो हित=मङ्गलमस्मादिति वाऽऽत्महितो मोक्षः स एवार्थः प्रयोजनम् आत्महितार्थस्तस्मै तथोक्ताय उपसम्पद्य-सामस्त्येन स्वीकृत्य विहरामि-संयमविपये विचरामि ॥१४॥ यतनापुरस्सरमेव व्रतग्रहणं सफलं भवतीत्यतस्तद्यतनास्वरूपं प्रदर्श्यते"से भिक्खू वा" इत्यादि। मूलम्-से भिक्खू वा भिक्खुणीवा संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से पुढविं वा भित्तिं वा सिलं वा लेलं वा ससरक्खं वा कायं ससरक्खं वा वत्थं हत्थेण वा पाएण वा कहेण वा किलिंचेण वा अंगुलियाए वा सिलागाए वा सिलागहत्थेण वा न आलिहिज्जा न 'विलिहिज्जा न घहिजा न भिदिज्जा, अन्नं न आलिहाविजा, न विलिहाविजा, न घटाविज्जा, न भिंदाविज्जा, अन्नं आलिहंतं वा, विलिहंतं वा, घटुंतं वा भिदंतं वा न समणुजाणिज्जा, जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि - हे भगवन् । मैं पांच महाव्रतोंको और छठे रात्रिभोजनविरमण व्रतको आत्माके हित-मोक्ष-के लिए स्वीकार करके संयममार्गमें विचरता हूँ ॥४॥ व्रतोंको यतनापूर्वक स्वीकार किया जाय तभी वे सफल होते हैं, इसलिए यतनाका कथन करते हैं-'से भिक्खू०' इत्यादि । હે ભગવન્! પાંચ મહાવ્રતને અને છડા રાત્રિભૂજનવિરમણ વ્રતને આત્માને હિત-સ્વરૂપ મોક્ષને માટે સ્વીકાર કરીને સંયમ-માર્ગમાં વિચરું છું. (૧૪) વતનો યતનાપૂર્વક સ્વીકાર કરવામાં આવે ત્યારે તે સફળ થાય છે, તેથી यतार्नु ४५न ४२ जे-जे भिक्खू० या. Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ श्रीदत्रकालिको रति मुंजइ. मुंजंतं या साइजxxxxआवना चाउम्मासियं परिकारहाण ॥p. ७६॥” इति । तच सर्वमशनादिकं रात्री ने स्वयं मुझे, इत्यादि सबै व्याख्यातपूर्वम् ॥१३॥ . सम्पति गृहीतमहावतः शिष्य उपसंहरन्नाद-'इयाई' इत्यादि । : मूलम्-इच्चेयाई पंच महदयाइं राइभोयणवेरमणछहाई अत्ताह यहयाए उवसंपजित्ताणं विहरामि ॥१४॥ छाया-इत्येतानि पञ्च महावतानि रात्रिभोजनाविरमणपष्टानि आत्महिता योपसम्पद्य विहरामि ॥१४॥ उपसंहार. सान्वयार्थः-इच्चेयाइं ये पहले कहे हुए राइभोयणवेरमणछट्ठाइन्छ रात्रिभोजनविरमण व्रतके साथ पंच महव्ययाई-पांच महावतोंको अत्तहिय ट्ठयाए आत्मकल्याणके लिये उपसंपजित्ताणं स्वीकार करके विहरामिन संयममें विचरता हूँ ॥१४॥ जो साधु रात्रिमें अशनादिक लेकरके रात्रिमें भोगे दूसरेका भोगवाये और अन्य भोगनेवालेको भला जाने ॥सू. ७६॥ उस चातुर्मासिक प्रायश्चित्त लगता है। इन सब अशन आदि चार प्रकारके आहारको सत्रिमें नहा भोगूंगा, इत्यादिका व्याख्यान पहले कर चुके हैं ॥१३॥ (६) अब महाव्रतोंको स्वीकार करनेवाला शिष्य उपसंहार करता हुआ कहता है-'इच्चेयाई' इत्यादि । જે સાધુ રાત્રે અશનાદિ લઈને રાત્રે ભગવે, બીજાને ભેગવા અને અન્ય ભોગવનારને ભલે જાણે. (સૂ ૭૬) તેને ચાતુમાસિક પ્રાયશ્ચિત લાગે છે.” એ સર્વ અનાદિ ચાર પ્રકારના આહારને રાત્રે નહિ ભેગવું, ઈત્યાદિની વ્યાખ્યાન પહેલાં કરવામાં આવેલું છે. (૧૩) (૬) - હવે મહાવ્રતને સ્વીકાર કરવાવાળા શિષ્ય ઉપસંહાર કરતે છતે કહે છેइच्चेयाई पत्या. Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन ४ मू. १४-१५ (१)-पृथिवीकाययतना २६५ टीका-इत्येतानि-समनन्तरोदीरितलक्षणानि रात्रिभोजनविरमणपष्ठानि= रात्री भोजनं रात्रिभोजनं, रात्रिभोजनाद्विरमणं रात्रिभोजनविरमणं, पण्णां पूरणं पष्ठं-पटसंख्यामपूरक, रात्रिभोजनविरमणं पष्ठं येषु तानि पञ्च महाव्रतानि आत्महितार्थाय आत्मने हितम्-इष्टमिति आत्महितम् , आत्मनो हितं मङ्गलमस्मादिति वाऽऽत्महितो मोक्षः स एवार्थः प्रयोजनम् आत्महितार्थस्तस्मै तथोक्ताय उपसम्पद्य-सामस्त्येन स्वीकृत्य विहरामि-संयमविपये विचरामि ॥१४॥ ___ यतनापुरस्सरमेव व्रतग्रहणं सफलं भवतीत्यतस्तद्यतनास्वरूपं पदयते"से भिक्खू वा" इत्यादि। मूलम्-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपचक्खायपावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से पुढवि वा भित्ति वा सिलं वालेलं वा ससरक्खं वा कायं ससरक्खं वा वत्थं हत्थेण वा पाएण वा कटेण वा किलिचेण वा अंगुलियाए वा सिलागाए वा सिलागहत्थेण वा न आलिहिज्जा न 'विलिहिज्जा न घहिजा न भिदिज्जा, अन्नं न आलिहाविजा, न विलिहाविजा, न घहाविज्जा, न भिंदाविज्जा. अन्नं आलिहतं वा, विलिहंतं वा, घहतं वा भिंदंतं वा न समणुजाणिज्जा, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि हे भगवन् । मैं पांच महावतोंको और छठे रात्रिभोजनविरमण व्रतको आत्माके हित-मोक्ष-के लिए स्वीकार करके संयममार्गमें विचरता हूँ ॥४॥ व्रतोंको यतनापूर्वक स्वीकार किया जाय तभी वे सफल होते हैं, इसलिए यतनाका कथन करते हैं-'से भिक्खू०' इत्यादि । હે ભગવન! હું પાંચ મહાવ્રતને અને છડા રાત્રિભજનવિરમણ વ્રતને આત્માને હિત-સ્વરૂપ મોક્ષને માટે સ્વીકાર કરીને સંયમ–માર્ગમાં વિચરું છું. (૧૪) વ્રતને યતનાપૂર્વક સ્વીકાર કરવામાં આવે ત્યારે તે સફળ થાય છે, તેથી यतनानु ४थन ४३ जे-जे भिक्खू० याह. Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - __. श्रीदशकालिकमृत्रे करतंपि अन्नं न समजाणामि! तस्सभंते ! पडिकमामि निदामि गरिहामि अप्पाणं बोसिरामि ॥१॥१५॥ छाया-समिक्षुर्वा मिक्षकी या संयत-विरत प्रतिहत-प्रत्यारुयातपापकर्मा दिवा या रात्री चा एकको या परिपगतो या गुप्ता या जाग्रता, स पृथिवीं वा मिति या शिलां या लेष्टुं या सरजस्कं या कायं सरजस्म या वर्ष हस्तेन वा पादेन वा फाप्ठेन या फिलिश्शेन या अद्गल्या या शलाकया या शलाकाहस्तेन वा नालिखेद न विलिखेन न घट्टयेव न मिन्धान, अन्यं नाऽऽलेखयेन्न विलेखयेन घटयेन भेदयेद्, अन्यमालिग्वन्तं वा विलिखन्तं वा घटः यन्तं वा भिन्दन्तं या न समनुजानीयात , यावज्जीवया विविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्माद् भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्दै आत्मानं व्युत्सृजामि ॥१॥१५॥ (१) पृथ्वीकाययतना.. सान्वयार्थ:-संजयविरयपडिहयपचक्खायपावकम्मे वर्तमानकालीन सावध व्यापारोंसे रहित, भूत-भविष्यत्कालीन सावध व्यापारोंसे रहित, वर्तमान कालमें भी स्थिति और अनुभागकी न्यूनता करके तथा पहले किये हुए अतिचारोंकी निन्दा करके सावध व्यापारके त्यागी, सेवह पूर्वोक्त भिक्खू वा-साधु भिक्खुणी वा अथवा साध्वी दिया वा-दिनमें राओ वा अथवा रात्रिमें एगओ वाअकेला परिसागओ वा अथवा संघमें स्थित सुत्त वा-सोया हुआ जागरमाणे चा अथवा जागता हुआ रहे, वहां से वह पुढवि वा-पृथ्वीको भितिं वा-भीत-रीवार-को सिलं वा-शिलाको लल वाढेलेको ससरक्खं सचित्तरजसहित कायं वा शरीरको ससरक्ख सचित्त रजसहित वत्थं वा-वस्त्रको हत्थेण वा-हाथसे पाएण वा-पैरसे कट्टण वाकाष्ठसे किलिंचेण वायांस आदिकी खपञ्चसे अंगुलियाए वा-अंगुलीस सिलागाए वा छडसे सिलागहत्थेण वा बहुतसी छड़ोंसे न आलिहिज्जार जराभी संघर्षण न करे, न विलिहिज्जा बारम्बार संघर्पण न करे, न घहिज्जान घटन करे-न चलावे, न भिदिज्जान भेदे, अन्नं दूसरेसे न आलिहावित ज्जा-जराभी संघर्पण न करावे, न विलिहाविज्ञान वारम्बार संघर्पण करावे, न घट्टाविज्जा=न घट्टन करावे, न भिंदाविज्जा-न भेदन करावे, आलिहंतं वासंघर्पण करनेवाले विलिहंतं याचार-बार संघर्पण करनेवाले घतं वा घट्टन करनेवाले भिदंतं वा-भेदन करनेवाले अन्नं दुसरेको न समणुजाणिज्जा-3 भला न समझे । इसलिये मैं जावज्जीवाए जीवनपर्यन्त (इसको) तिविहं-कृत Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ . १५ भिक्षुत्वसिद्धिः २६७ कारित अनुमोदनारूप तीन करणसे (तथा) तिविहेणं तीन प्रकारके मणेणं= मनसे वाया = वचन से कारणं कायसे न करेमि=न करूँगा, न कारवेमिन कराऊँगा, करंतंपि = करते हुए भी अन्नं = दूसरे को न समणुजाणामि भला नहीं समझँगा। भंते !=हे भगवन् ! तस्स उस दण्डसे पडिक मामि= पृथक होता हूँ, निंदामि = आत्मसाक्षी से निन्दा करता हूँ, गरिहामि = गुरुसाक्षी से गर्दा करता हूँ, अप्पा = दण्ड सेवन करनेवाले आत्माको वोसिरामि=त्यागता हूँ || १ || १५ ॥ टीका - से= सः = भिक्षावृत्तिकत्वेन प्रसिद्धः, भिक्षुः =भिक्षितुं = याचितुं शीलं धर्मो वा यस्य स भिक्षुः । ('भिक्ष याञ्चायामलाभे लाभे चे' त्यस्माद्धातोः 'आकेस्तच्छील-तद्धर्म-तत्साधुकारिषु' इत्यधिकारे 'सनाशंसभिक्ष उ:' (३२१६२) इत्युप्रत्यये भिक्षुपदं सिध्यति ) । अत्र 'उ' प्रत्ययेन ताच्छील्ययोतनाद् भिक्षणशीलत्वं भिक्षुत्वमिति पर्यवस्यति । ननु कापायाम्बरधारिणामपि भिक्षोपजीवित्वेन तत्रोक्तभिक्षुलक्षणमतिव्याप्तमिति चेन्न - भिक्षावृत्ति प्रसिद्ध भिक्षु कहलाते हैं, अर्थात् याचना करके आहारादि लेनेवालेको भिक्षु कहते हैं । संस्कृत व्याकरण अनुसार 'भिक्षु' पदमें 'उ' प्रत्यय लगा हुआ है । उससे यह प्रगट होता है कि भिक्षु उसे कहना चाहिए जो किसी वस्तुको बिना भिक्षाके न लें, अर्थात् भिक्षणशील भिक्षु कहलाते हैं । प्रश्न- गेरुआ या अन्य किसी प्रकारके रंगसे रंगे हुए कपड़े पहननेवाले संन्यासी आदि भी भिक्षु मांग कर अपने जीवनका निर्वाह करते हैं, इसलिए यह भिक्षुका लक्षण उनमें भी चला जाता है, वे भी भिक्षु कहलावेंगे ? | ભિક્ષાવૃત્તિથી પ્રસિદ્ધ હાય તે ભિક્ષુ કહેવાય છે. અર્થાત્ યાચના કરીને આહારાદિ લેનારાને ભિક્ષુ કહે છે, સંસ્કૃત વ્યાકરણને અનુસરીને મિશ્રુ શબ્દમાં ૩ પ્રત્યય લાગેલે છે. તેથી એમ પ્રકટ થાય છે કે ભિક્ષુ એને કહેવા જોઇએ કે જે કાઈ વસ્તુને ભિક્ષા વિના લે નહિ, અર્થાત ભિક્ષણશીલ હૈાય તે ભિક્ષુ કહેવાય છે. પ્રશ્ન-ગેરૂથી યા અન્ય કાઈ પ્રકારના રંગથી રંગેલાં કપડાં પહેરનારા સન્યાસી આદિ પણ ભિક્ષા માંગીને પોતાના જીવનના નિર્વાહ કરે છે. તેથી એ ભિક્ષુનું લક્ષણુ એને પણ લાગુ પડે છે, તેઓ પણ ભિક્ષુ કહેવાશે ? Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ श्रीदने का मकसूत्रे करंतंपि अन्नं न समजाणामि ! तस्स भंते ! पडिक्रमामि निदामि गंरिहामि अप्पाणं चोसिरामि ॥ १ ॥ १५ ॥ छाया - समिक्षु मिकी या संयत विस्त-प्रतिहत प्रत्याख्यातपापकर्मा दिवा या रात्री एका जाग्रद्वा स पृथिवीं या मिचि वा शिलां या ऐटुं या सरजक या कार्य सरजस्कं या हस्तेन वा पानवा फाप्टेन या फिलिश्चेन वा अनुल्या बा जळाकया ar aayareeda a नाऽऽलिखेत् न विलिखे न घयेत् न भिन्यात्, अन्यं नाssलेखन विलेखयेन येन भेदयेद, अन्यमालिन्तं या विलिखन्तं वा घट्ट पन्तं वा भिन्दन्तं वा न समनुजानीयात्, यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविवेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्माद् भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्दै आत्मानं व्युत्सृजामि ||१||१५|| (१) पृथ्वीकाययतना सान्वयार्थः -- संजयविरयपडियपच्चकखायपायकम्मे वर्तमानकालीन साव व्यापारों से रहित, भूत-भविष्यत्कालीन सावत्र व्यापारोंसे रहित, वर्तमान कालमें भी स्थिति और अनुभागकी न्यूनता करके तथा पहले किये हुए अतिचारोंकी निन्दा करके साय व्यापारके त्यागी, से वह पूर्वोक भिक्खु वा= साधु भिक्खुणी वा=अथवा साध्वी दिया वा-दिनमें राओ वा=अथवा रात्रि एओ केला परिसागओ वा अथवा संबमें स्थित सुते वा = सोया हुआ जागरमाणे वा अथवा जागता हुआ रहे, वहां से बह पुर्वि पृथ्वीको मिति चामीत - दीवार को सिलं वा-शिलाको लेलं वा=ढेलेको ससरक्खं=सचित्तरजसहित कार्य वा = शरीरको ससरक्खं = सचित रजसहित वत्थं त्रको हत्थे वा हाथसे पाए वा पैसे कट्टेण वाकाट किलिंचेण वा=बांस आदिकी खपच्चसे अंगुलियाए वा अंगुली से सिलागाए वा छड से सिलागहत्थेण वा बहुतसी छड़ोंसे न आलिहिज्जा = जराभी संघर्पण न करें, न विलिहिज्जा = बारम्बार संघर्षण न करे, न घट्टिज्जान घट्ट करेन चलावे, न भिदिज्जा=न भेदे, अनं-दूसरे से न आलिहावि ज्जा=जराभी संघर्षण न करावे, न बिलिहाविजा=न वारम्बार संघर्षण करावे, न घहाविज्जा =न घट्टन करावे, न भिदाविज्जा=न भेदन करावे, आलिहतं वा= संघर्षण करनेवाले विलितं वा वारवार संघर्पण करनेवाले घतं वाहन करनेवाले भिलं वा भेदन करनेवाले अन्नं= दूसरेको न समणुजाणिज्जा = भला न समझे । इसलिये में जावज्जीवाए जीवन पर्यन्त (इसको ) तिविह-कृत Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ मू. १५ भिक्षुत्वसिद्धिः २६९ त्याहि शब्दस्य द्वे निमित्ते व्युत्पत्तिनिमित्तं प्रतिनिमित्तं चेति, तत्र व्युत्पत्तिलभ्याथमतीतौ प्रकारीभूतो धर्मों व्युत्पत्तिनिमित्तम् , यथा पङ्कनशब्दस्य पङ्कजनिकर्तृत्वम् । सङ्केत्तग्रहे प्रकारीभूतो धर्मः प्रतिनिमित्तम् , यथा पद्मत्वजातिः ।। न च शब्दानां व्युत्पत्तिनिमित्तमेव मवृत्तिनिमित्तमिति वाच्यम् , पाचकादिशब्दे तथात्वेऽपि पङ्कजादिशन्दे तवयभिचारात् । तथाहि-पङ्कमपदं 'पङ्काजायते' शब्दोंकी प्रवृत्ति दो प्रकारसे होती है। जैसे कमलका वाचक एक पङ्कज शब्द है दूसरा पद्म शब्द है । पंकज शब्दका अर्थ है कीचड़से उत्पन्न होनेवाला, कमल कीचड़से उत्पन्न होता है इसलिए पंकजत्व व्युत्पत्तिनिमित्त है । अर्थात् पङ्कज शब्दकी व्युत्पत्ति करनेसे जो अर्थ निकलता है वही अर्थ उसके वाच्यमें (अर्थमें) ठीक-ठीक घट जाता है, इसे व्युत्पत्तिनिमित्त कहते हैं। दूसरा प्रवृत्तिनिमित्त है। शब्दके संकेतसे योध्य अर्थमें विशेषणभूत धर्मको प्रवृत्तिनिमित्त कहते हैं, जैसे पद्मत्व या कमलत्व (कमलपन)जाति। _ यदि कोई कहे कि- 'जो व्युत्पत्तिनिमित्त है वही प्रवृत्तिनिमित्त है तो ठीक नहीं है, क्योंकि यद्यपि 'पाचक' आदि शब्दोंमें जो व्युत्पत्तिनिमित्त है वही प्रवृत्तिनिमित्त है तथापि पङ्कज आदि शब्दोंमें यह कथन नहीं घटता, क्योंकि "पंक (कीचड़)से उत्पन्न होनेवाला पंकज है" શબ્દોની પ્રવૃત્તિ બે પ્રકારે થાય છે. જેમકે-કમળને વાચક એક પંકજ શબ્દ છે, બીજે પ શબ્દ છે. પંકજ શબ્દને અર્થ કીચડમાં ઉત્પન્ન થએલું એ થાય છે. કમળ કચડમાં ઉત્પન્ન થાય છે, તેથી પંકજત્વ વ્યુત્પત્તિનિમિત્ત છે. અર્થાત પંકજ-શબ્દની વ્યુત્પત્તિ કરવાથી જે અર્થ નીકળે છે તે જ અર્થ તેના વાચમાં (અર્થમાં) બરાબર બંધ બેસે છે, તેથી તેને વ્યુત્પત્તિનિમિત્ત કહે છે. બીજે પ્રવૃત્તિનિમિત્ત છે. શબ્દને સંકેતથી બેધ્ય અર્થમાં વિશેષણભૂત धर्मन प्रवृत्तिनिमित्त ४. छ. रेम-पनप या मर (४मापा') गति. જે કઈ કહે કે-જે વ્યુત્પત્તિનિમિત છે તેજ પ્રવૃત્તિનિમિત્ત છે, તે તે બરાબર નથી. કારણ કે જે કે “પાચક આદિ શબ્દમાં જે વ્યુત્પત્તિનિમિત્ત છે તેજ પ્રવૃત્તિનિમિત્ત છે, તથાપિ પંકજ આદિ શબ્દોમાં એ કથન બંધ બેસતું નથી, કારણ કે “પંક (કીચડ)માંથી ઉત્પન્ન થવાવાળું પંકજ છે, –એ વ્યુત્પત્તિથી Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशका भिक्षावृत्तिकत्वे सति मितरवृत्तिरहितत्वं हि मिश्रवम्, तथा च स्वामिनिदेशमन्तरेणापि जलाशयादितोऽपि सस्तेनापि जलादिग्रहणस्य तदीयजीविकान्तर्गतत्वेन, तथा कदाचिद मिक्षाया अन पचन-वाचनादिक्रियया, कन्दमूलफलादिना च जीवननिर्वाहाचेपामुक्तलक्षणमिवाभावान् । न च 'मिक्षवो यदा भिक्षमाणास्तदा तत्रास्तु मिलं परन्त्र भिक्षमाणस्वावस्थायां कथं तेषु भिक्षुदशब्दः प्रवर्त्तेत तदानों मिक्षणव्यापाराभावा ?' दिति वाच्यम्, उमश्यामप्यवस्थायां मन्दस्य मवृत्तिनिमित्तसद्भावेन मिशन्दवृतिसंभवात् २६८ उत्तर - जो भिक्षामे ही अपना निर्वाह करते हैं और सिवाय मिक्षाके अन्य वृत्तिको कदापि स्वीकार नहीं करते थे ही भिक्षु कहलाते हैं, संन्यासी आदि स्वामीकी आज्ञाके बिना भी जलाशय आदि से भी जल आदि अपने हाथोंसे ले लेते हैं। जय भिक्षा नहीं मिलती तब पचनेपाचनादि करते कराते हैं, तथा कन्द-मूल-फल-आदिसे निर्वाह कर लेते है, इसलिए वे भिक्षु नहीं कहला सकते । प्रश्न- अच्छा, जो भिक्षासे ही अपना निर्वाह करे उसे भिक्षु कहते हैं तो साधु जब भिक्षाकी गवेषणा करेंगे तब ही भिक्षु कहलायेंगे, जिस समय स्वाध्याय आदि अन्य क्रिया करते होंगे उस समय भिक्षु कैसे कहलायेंगे ? उत्तर - भिक्षाकी गधेपणा करते समय भी साधुको भिक्षु कह सकते हैं और न करते समय भी कह सकते हैं । दोनों अवस्थाओं में भिक्षु शब्दकी प्रवृत्तिका कारण मौजूद है । ઉત્તર-જે ભિક્ષાથી જ પેાતાના નિર્વાહ કરે છે અને ભિક્ષા સિવાય અન્યવૃત્તિને કદાપિ સ્વીકારતા નથી તે જ ભિક્ષુ કહેવાય છે. સન્યાસી આદિ સ્વામીની આજ્ઞા વિના પણુ જળાશય આદિથી પશુ જળ આદિ પાતાના હાથે લઇ લે છે, જ્યારે ભિક્ષા નથી મળતી ત્યારે રાંધવા-ર ધાવવાની ક્રિયા કરે છે, તથા કંઠે મૂળ મૂળ આદિથી નિર્વાહ કરી લે છે, તેથી તે ભિક્ષુ કહેવાઈ શકતા નથી. પ્રશ્ન-ઠીક, જે ભિક્ષાથી જ પોતાના નિર્વાહ કરે તેમને ભિક્ષુ કહે છે તે સાધુ જ્યારે ભિક્ષાની વેષણા કરશે ત્યારે જ ભિક્ષુ કહેવાશે, જે સમયે સ્વાધ્યાય આદિ અન્ય ક્રિયા કરતા હશે તે સમયે ભિક્ષુ કેવી રીતે કહેવાશે ! ઉત્તર-ભિક્ષાની ગવેષણા કરતી વખતે સાધુને ભિક્ષુ કહી શકાય છે, અને ન કરતી વખતે પણ કહી શકાય છે. બેઉ અવસ્થામાં ભિક્ષુ શબ્દની પ્રવૃત્તિનું કારણ भोलु छे Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सु. १५ भिक्षुत्वसिद्धिः २७१ त्रिकाऽऽशंसाविरहेण समितिगुप्त्यादिधारित्वरूपमत्तिनिमित्तमादाय भिक्षुत्व-समि त्यादिपालकत्वयोर्भिसुलक्षणैकार्थसमवायेन कथञ्चित्तादात्म्यलक्षणेन भिक्षमाणेभिक्षमाणे वा भिक्षौ शब्दमवृत्तेः, वर्तमानपर्याय मात्रग्रहणलक्षणऋजु सूत्रनयाभिमायाच्च भिक्षुत्वसिद्धिः । - ननु पूर्वोक्तलक्षणं मवृत्तिनिमित्त कापायाम्बरधारिप्रभृतिष्वपि विद्यते, तेऽपि मार्ग पश्यन्त एव गच्छन्ति, तेन च तेषां समित्यादिपालकत्वं, मौनादिसमवलम्ब. नेन गुप्तिपालकत्वं चास्ति, ततथ समिति गुप्तिपालकत्वरूपमवृत्तिनिमित्तस्य तेष्वपि सत्त्वेन कुतो न तेषां भिक्षुशन्दव्यवहार्यत्वमिति चेत् ? यत इहलोकाचाशंसाविरहिततया समित्यादिपालकत्वमेव भिक्षुशब्दमवृत्ति1. निमित्तसे भिक्षु शब्द की प्रवृत्ति होती है, क्योंकि भिक्षुत्व और समिति - सिपालकत्व दोनों धर्म भिक्षुमें कथञ्चित् तादात्म्य सम्बन्धरूप एकार्थसमवायसे रहते हैं। इसलिए भिक्षा न करते समय भी 'समिति गुप्तिपालकत्व' - रूप प्रवृत्ति-निमित्त से भिक्षु शब्दकी प्रवृत्ति होती है । .. शङ्का-समिति-गुप्तिपालकता तो गेरुआ आदि वस्त्र पहननेवालों में भी पाई जाती है। वे भी मार्ग देखकर ही चलते हैं इसलिए वे समितिका पालन करते हैं । और कभी-कभी मौन रखते हैं इसलिए गुप्तिका भी पालन करते हैं । जब उनमें समिति गुप्तिपालकता पाई जाती है तो उन्हें भी भिक्षु क्यों नहीं कहना चाहिए ? समाधान- इहलोक और परलोक सम्बन्धी आकांक्षा या स्वार्थरहित શબ્દની પ્રવૃત્તિ થાય છે, કારણ કે ભિક્ષુ અને સમિતિગુપ્તિ-પાલકત્વ. બેઉ ધ ભિક્ષુમાં કેઈપણુ રીતે તાદાત્મ્ય-સ ંધરૂપ એકાÖ–સમવાયથી રહે છે. તેથી ભિક્ષા ન કરતી વખતે પણુ ૮ સમિતિગુપ્તિ-પાલકત્વ ’રૂપ પ્રવૃત્તિનિમિત્તથી ભિક્ષુ શબ્દની પ્રવૃત્તિ થાય છે. શંકા-સમિતિગુપ્તિ-પાલકતા તેા ગેમા આદિ વસ્ત્ર પહેરનારાઓમાં પણ જોવામાં આવે છે. તે પણ માર્ગ જોઇને જ ચાલે છે, તેથી તેઓ સમિતિનું પાલન કરે છે, અને કઇ-કઇવાર મૌન રહે છે તેથી ગુપ્તિનું પણ પાલન કરે છે, જો તેઓમાં સમિતિગુપ્તિ-પાલકતા જેવામાં આવે છે, તે તેમને પણ ભિક્ષુ કેમ ન કહેવા જોઈએ ? સમાધાન-ઇહલેાક અને પરલેાક સધી આકાંક્ષા અથવા સ્વા રહિત થઇને Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० श्रीकालिने इति ध्युत्पत्या परगनिवारनिमन शक्ततया पमरूपार्योधक सपि का 'लादिप्वविमसयारणाए पमव(जाति) प्रतिनिमितमादायेन पर्ष गोपाल न लितरया। .' एवमत्रापि मिसदस्य भिक्षणं व्युत्पतिनिमितम, मिशत इस्पेसीलो मधुः रिति ध्युत्पत्तः । तथा चामिक्षमाणस्वायस्यायां भिक्षुखामसक्तावपि ऐरिकार इस व्युत्पत्तिसे पंकज शब्द कमलका योध तो कराता है परन्तु सादा साध शेवाल तथा इस प्रकारसे पैदा होनेवाले गइटके फल आदिका अर्थ भी उससे निकलता है, क्योंकि ये भी कीचड़से पैदा होते हैं। यदि व्युत्पत्तिनिमित्तको ही शब्दकी प्रवृत्तिमें कारण माना जाय तो शेवाल आदिमें भी पंकज शब्दका प्रयोग हो जायगा, इस आपत्तिका निवारक करनेके लिए व्युत्पत्तिनिमित्तके सिवाय प्रवृत्तिनिमित्त कमटत्व धमक भी आवश्यकता है, इससे शैवाल आदिका निराकरण हो जाता है। दोनों निमित्तोंसे ठीक-ठीक अर्थका प्रतिपादन हो जाता है कि जो कीचड़स 'उत्पन्न हो और जिसमें कमलत्वरूप सामान्य (जाति) पाया जाय उस पङ्कज कहते हैं। इसी प्रकार यहाँ 'भिक्षु' शब्दका व्युत्पत्तिनिमित्त भिक्षण (याचना धर्म है, जिस समय साधु भिक्षण नहीं करते उस समय व्युत्पत्तिनिमित्त भिक्षु नहीं कहला सकते, फिरभी 'समितिगुप्तिपालकत्व' -रूप प्रचार પંકજ શબ્દ કમળને બાધ તે કરાવે છે, પરંતુ સાથે શેવાળ તથા એ પ્રકારે પેિદા થનારા ઘીતેલાં શીંગડાં આદિને અર્થ પણ તેમાંથી નીકળે છે, કારણ કે તે પણ કીચડમાંથી પેદા થાય છે. જે વ્યુત્પત્તિનિમિત્તને જ શબ્દની પ્રવૃત્તિમ કારણરૂપ માનવામાં આવે તે શેવાળ આદિમાં પણ પંકજ શબ્દ પ્રયોગ એક જશે. એ આપત્તિનું નિવારણ કરવાને માટે વ્યુત્પત્તિનિમિત્ત ઉપરાંત પ્રવૃત્તિનિમિ કમળ ધર્મની પણું આવશ્યકતા છે. તેથી શેવાળ આદિનું નિરાકરણ થઈ જાય છે બેઉ નિમિત્તાથી બરાબર અર્થનું પ્રતિપાદન થઈ જાય છે કે જે કીચડમાંથી ઉત્પન્ન થાય અને જેમાં કમલત્વરૂપ સામાન્ય (જાતિ) મળી આવે તેને પંકજ કહે છે એ રીતે અહીં શિશુ શબ્દને વ્યુત્પત્તિનિમિત્ત ભિક્ષણ (વાચન) ધમ છે જે સમયે સાધુ ભિક્ષણ કરતા નથી, તે સમયે વ્યુત્પત્તિનિમિત્તથી ભિક નથી કહેવાતે, તે પણ ‘સમિતિ પ્તિ–પાલકત્વ' રૂપ પ્રવૃત્તિનિમિત્તથી ભિલું Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू.:१५ भिक्षुत्वसिद्धिः २७३: तेपामुद्गमोत्पादनादिदोपदुष्टान्नभोजित्व-सचित्ततोयकन्दमूलाधासेवित्व-पचन-पाचनादिक्रियेच्छानिवृत्त्यभावादिदोपपितत्वात् , अतो ये समितिगुप्तिधारका भिक्षामात्रोपनीविनोऽचित्तामेपणीयामुद्गमोत्पादनादिदोपराहित्येन विशुद्धां प्रमागोपनां च भिक्षां गृह्णन्ति, माणात्ययसमयेऽपि पचनपाचनादिनवकोटिविशुद्धिं नैव खण्डयन्ति त एव भिक्षुपदव्यवहारयोग्यतां लभन्ते, इति विदेलिमम् । यद्वा क्षोभते सुभ्यति वा अन्तर्भावितण्यर्थतया क्षोभयति संचालयति चतुर्गतिकसंसारे सकलपाणिन इति क्षुए अष्टविध कर्म (अन्तर्भावितण्याद् भौत्रादिकाद् देवादिकाद्वा 'क्षुभ सश्चलने अस्माद्धातोः 'सम्पदादित्वात् किम्) तद् ज्ञानदर्शनादिना भिनत्ति अपयतीति भिक्षुः (पृपोरादित्वासिद्धिः) । वाले संन्यासी आदि वास्तवमें भिक्षु नहीं कहला सकते, क्योंकि वे उद्गम-उत्पादना आदि दोपोंसे पित अन्न आदि अंगीकार करते . सचित्त जल लेते हैं, सचित्त कन्द मूल आदिका सेवन करते हैं, पवन पाचनादि क्रियाएँ करते हैं और इच्छाका दमन नहीं करते हैं । ' वास्तवमें वे ही भिक्षु कहलाने योग्य हैं जो समिति-गुप्तिके धारक नया मिक्षामात्रसे उपजीवी है, अचित्त एषणीय उद्गम आदि दोपरहिन विशुद्ध प्रमाणोपेत भिक्षा लेते हैं और प्राण जानेका अवसर आ जाने पर भी पचन-पाचन आदि नव कोटिकीविशुद्धताको खण्डित नहीं करते। अथवासंसारके समस्त शरीरधारियोंको क्षोभित करनेवाले ज्ञानावरणीय आदि आठ कोंको भेदनेवाले भिक्षु कहलाते हैं। આદિ વસ્તુત: ભિક્ષુ કહેવાઈ શકતા નથી, કારણ કે તેઓ ઉદગમ ઉત્પદ છે :દેથી દૂધિત અન્ન આદિ અંગીકારે છે, સચિત્ત જળ લે છે, સચિત્ત કદ-મૂળ આદિનું સેવન કરે છે, પચન-પાચનદિ ક્રિયાઓ કરે છે અને ઈચ્છાનું દાન કપ્ત નથી. એથી કરીને વસ્તુતઃ તે જ ભિક્ષુ કહેવાવા ગ્ય છે કે જેઓ સમિતિગુપ્તિના ધારક તથા ભિક્ષામાત્રથી ઉપજીવી છે, અચિત્ત, એપણીય, ઉદ્દામદિ–દેવથી . રહિત, વિશુદ્ધ, પ્રમાણપત ભિક્ષા લે છે, અને પ્રાણ જવાને અવસર આવે તે પણ પચન-પાચનદિ નવ કેટિની વિશુદ્ધતાને ખંડિત કરતા નથી. અથવા સંસારના સર્વ શરીરધારીઓને ભિત કરનારાં જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ કર્મોને ભેદનારા ભિક્ષુ કહેવાય છે. Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ A निमितम्, राग तेन विद्यते तेषां समाविषमरने, पेरियण्टकादिनिहत्पवंसाद, यशस्फीयर्यादिसम्पादनाताग, नागमोगा यस्तुतः समितिगुस्पादिपाल विधते । अन्यथा-'गारनिगदपदो तापदेन न हनिष्यामि, यापन समालपानि ताबदई प्रपात्यागी, गावरानिहोऽहं तापदार्यवती'-स्यामिमाना अपि केषिद् प्रवधारित्वेन पयहियरन, किन्तु तेपामान्तरिकेच्छायाः सतवानुवन्धितया विधमानवान्न प्रतित्वमस्ति । किच मिहम्मन्येषु कायाम्बरधारिपु नेवाऽयं मिशन्द आत्मसचा लभते, होकर जो समिति-गुसिका पालन करते हैं वे हीभिक्षु कहलाते हैं। उनमें ऐसा नहीं पाया जाताचे हिंसासे पचनेके लिए मार्ग देख कर गमन नहीं करते, किन्तु कॉटे आदि लग जानेके भयसे मार्ग देखकर गमन करत और यश-कीर्ति सम्पादन करनेके लिए मौन रखते है, इसलिए वास्तव में समिति-गुप्तिके पालक नहीं हो सकते। यदि उन्हें समिति गुमिका पालक माना जाय तो वह मनुष्य भी व्रती कहलायगा, जा ऐसी प्रतिज्ञा करे कि-"मैं जय तक वेढ़ीमें जकड़ा हुआ है तब तक नहीं मारूँगा" "जब तक न चोलूं तब तक मृपावादका त्यागा "जब तक सोया रहँगा तब तक अचौर्य व्रतका पालन करूँगा" वास्तवम ऐसे मनुष्य व्रती नहीं कहलाते हैं, क्योंकि उनकी आन्तरिक इच्छा पापोंसे निवृत्त नहीं हुई है। गेरुआ आदि वस्त्र धारण करनेवाले और अपनेको भिक्षु समझन જેઓ સમિતિ-ગુપ્તિનું પાલન કરે છે તેઓજ ભિક્ષુ કહેવાય છે. તેમાં એ જેવામાં આવતું નથી. તેઓ હિંસાથી બચવા માટે માગ જોઈને ગમન કરત નથી, પરંતુ કાંટા વગેરે વાગી જવાના ભયથી માર્ગ જોઈને ચાલે છે અને એ કાતિ સંપાદન કરવાને માટે મૌન રાખે છે, તેથી તેઓ વસ્તુતાએ સમિતિપાલક નથી થઈ શકતા. જે તેમને સમિતિ-ગુપ્તિના પાલક માનવામાં આવે છે એ માણસ પણ વ્રતી કહેવાશે કે જે એવી પ્રતિજ્ઞા કરે કે- “ જ્યાં સુધી હું બેડીથી બંધાયેલ છું ત્યાં સુધી હું તેને નહિ મારૂં” « જ્યાં સુધી હું ન બોલું ત્યાંસુધી મૃષાવાદને ત્યાગી છું” “જ્યાં સુધી સૂઈ રહીશ ત્યાં સુધી અચોર્યત પાલન કરીશ.” વસ્તુતઃ એ માણસ વતી નથી કહેવાતે, કારણ કે એના આંતરિક ઈચ્છા પાપથી નિવૃત્ત થઈ નથી. ગેરૂ આદિ વસ્ત્રો ધારણ કરનારા અને પિતાને ભિક્ષ માનનારા સંન્યાસી Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ मू. १५ (१) पृथिवीकाययतना २७५ रेकान्तस्थानस्थितोऽद्वितीयः, भावतो रागद्वेपरहितो वा, परिपद्गतः परिसमन्ततः सीदन्ति गच्छन्ति गत्वा संहता भवन्ति जना अस्यामिति परिप-सभा, तां गतः परिपद्तः साचादिसङ्घस्थित इत्यर्थः, मुप्ता स्वाध्यायादिजनितश्रमापनोदाथै रजनीमध्यमयामयुगलमात्रं निद्रितः, जाग्रत्-इन्द्रियादिकरणकविषयज्ञानयोग्यावा प्राप्त निद्राविमुक्तो भवेत् । एवंविधो भिक्षुर्वक्ष्यमाणरीत्या दुष्कृत्यं न करोतीतिप्रदर्श्यते-'से'इति,सः-भिक्षुःपृथिवीं-खनिसमुद्भतमृत्तिकारूपाम् ,भित्ति सरित्तीरमृत्तिकाम् , शिलां विशालपापाणलक्षणाम् , लेटु पिण्डात्मकमृत्खण्डम् , सरजस्कं-सचित्तरजोऽवगुण्ठितम् , कार्य-शरीरम् , वस्त्रं-चोलपट्टप्रमुखं च, पात्रादीनामप्युलक्षणमेतत् , एतेषु अन्यतमं किमपि वस्तु हस्तेन करेण, पादेन चरणेन, काप्ठेन-खदिरादिदारुखण्डेन, किलिओन-वंशादिकश्चिकया, अङ्गल्या करचरणावयवविशेषेण, शलाकया-लोहादिरचितया, शलाकाहस्तेन पुञ्जीकृतशलाकाभिर्वा नाऽऽलिखे-सकृत् अल्पं वा न संघर्पयेत् , न विलिखेत्-बहुशोऽविरतं विशेषतो या स्थित और भावसे रागद्वेपरहित होनेसे एकाकी, अथवा साधुओंके संघमें स्थित, स्वाध्याय आदिसे उत्पन्न श्रमको दूर करनेके लिए रात्रिके यीचके दो प्रहरोंमें सोते हुए, तथा जागते हुए भिक्षु, आगे कहे हुए सावध व्यापार नहीं करते हैं। खानसे निकली हुई मृत्तिकारूप पृथ्वीपर, नदीके किनारेकी मिट्टी पर, पत्थरकी शिलापर, मिट्टीके ढेलेपर, सचित्त धूलीसे धूसर काय, चोलपट्ट आदि वस्त्र तथा पात्र पर, अर्थात् इनमेंसे किसीभी पदार्थपर हाथसे, पैरसे, काष्ठसे, यांस आदिकी सटक (छड़ी-खापटी)से, अंगुलीसे, लोहे आदिकी बनी हुई छड़से, अथवा यहुतसी छड़ों (सलाइयों)से, न स्वयं एकवार लकीर खींचे, न बार-बार लकीर खींचे अर्थात् इनको રહિત હોવાને કારણે એકાકી અથવા સાધુઓના સંઘમાં સ્થિત, સ્વાધ્યાય આદિથી ઉત્પન્ન થતા શ્રમને દૂર કરવાને માટે રાત્રિની વચ્ચેના બે પહોરમાં સૂતા તથા જાગતા ભિક્ષુ, આગળ કહેલા સાવધ વ્યાપાર કરતા નથી. ખાણમાંથી નીકળેલી માટીરૂપ પૃથ્વી પર, નદીના કિનારાની માટી પર, પત્થરની શિલા પર, માટીનાં ઢેફ પર, સચિત્ત ધૂળથી ધૂસર કાય, એલપટ્ટો આદિ વસ્ત્ર તથા પાત્ર પર અર્થાત્ એમાંના કેઈ પણ પદાર્થ પર હાથથી, પગથી, કાઠથી, વાંસ આદિના ખપાટથી, આંગળીથી, લેઢા આદિની સળીથી અથવા અનેક સળીઓથી ન પિતે એકવાર રેખા રે, ન વારંવાર રેખા રે, અર્થાત્ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭૪ श्रीदनकालिम मिसुफी साध्वी । 'संमग इत्यादीनि मिविशेषणानि मिथुक्या मर्षि योध्यानि उमयोः समानावारगीलत्वान् । (१) पृथिवीकायगतना । · संपत-चिरत-प्रतिरत-मत्याहयात-पापमा संयतः-वर्तमानकालिकमर्वसावयानुष्ठाननियतः, रित:-अतीतकालिकपापाज्जुगुप्सापूर्वक, भविष्यति च संबरपूर्वकमुपरतो नित इत्यर्थः, भात पर प्रतिहत वर्तमानकाले स्थित्यनुभागहासेन नाशितं, मत्याल्यात पूर्वकतातिचारनिन्दया भविष्यस्पकरणन निराकृतं पापकर्मपापानुष्ठानं येन स प्रतिहतमत्याख्यातपापकर्मा, सपा थासौ विरतच (विशेषणयोरपि परस्परविशेष्यविशेपणभावविवक्षया समासा गतमत्यागतादिवत् ) संयतविरतवासी प्रतिहतमत्याख्यातपापकर्मा चेति तथाक्त दिवा दिवसे, रात्री रजन्याम, एकका एकाकीदन्यतो ध्यानादिहता भिक्षुकी साध्वीको कहते हैं। संजय आदि विशेषण साध्वीक साथ भी समझना चाहिए क्योंकि साधु और साध्वीका आचार प्रायः समान है। (१) पृथिवीकाययतना । वर्तमान कालके सब प्रकारके सावध व्यापारसे निवृत्त होनेके कारण संयत,अतीतकालीन पापोंसे जुगुप्सा-पूर्वक और भविष्यत्कालीन पापार संवर-पूर्वक निवृत्त होनेसे चिरत, संयत और विरत होनेके कारण वर्तमान कालमें स्थितिवन्ध और अनुभागवन्धको हास करके पापकमका 'नष्ट करनेवाले, दिनमें, रात्रिमें, द्रव्यसे ध्यान आदिके लिए एकान्तम ભિક્ષુકી સાધ્વીને કહે છે. સંજય આદિ વિશેષણ સાધ્વીની સાથે જ સમજવાનું છે, કારણ કે સાધુ અને સાધ્વીને આચાર પ્રાય: સમાન છે. (१) पृथिवीययतना. વર્તમાનકાળના સર્વ પ્રકારના સાવદ્ય-વ્યાપારથી નિવૃત્ત હોવાને કા* સંયત, અતીતકાલીન પાપથી જુગુપ્સાપૂર્વક અને ભવિષ્યકાલીન પાપથી સE પૂર્વક નિવૃત્ત હોવાથી વિરત, સંયત અને વિરત રહેવાને કારણે વર્તમાન કાળમાં સ્થિતિબંધ અને અનુભાગબંધને હાસ કરીને પાપકર્મને નષ્ટ કરનારા, દિવસમાં અને રાત્રે દ્રવ્યથી ધ્યાન આદિને માટે એકાતમાં રિત અને ભાવથી રાગ-દ્વપ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन ४ सू. १६ (२)-अप्काययतना २७७ मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥२॥१६॥ . छायास भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा संयत-विरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यातपापकर्मा दिवा वा रात्री वा एकको वा परिपद्गतो वा मुप्तो वा जाग्रद्वा स उदकं वा अवश्यायं वा हिमं वा मिहिको वा करकं वा हरतनुं वा शुद्धोदकं वा उदका वा कायं,उदका वा वस्त्रं,सस्निग्धं वा कार्य सस्निग्धं वा वस्त्रं नाऽऽमृशेन्न संस्पृशेन्नाऽऽपीडयेन प्रपीडयेनास्फोटयेन्न प्रस्फोटयेन्नातापयेन्न प्रतापयेत् ,अन्येन नाऽऽमर्शयेन्न संस्पर्शयन्नाऽऽपीडयेन्न प्रपीडयेन्नाऽऽस्फोटयेन प्रस्फोटयेन्नाऽऽतापयेन्न प्रतापयेत् , अन्यमामृशन्तं वा, संस्पृशन्तं वा, आपीडयन्तं वा, प्रपीडयन्नं वा,आस्फोटयन्तं वा, मस्फोटयन्तं वा, आतापयन्तं वा, प्रतापयन्तं वा न समनुजानीयात् । यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि, न कारयामि, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि। तस्माद् भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्दै आत्मानं व्युत्सृजामि ॥२॥१६॥ (२) अप्काययतना. सान्वयार्यः---संजयविरयपडिहयपचक्खायपावकम्मे वर्तमानकालीन सावध व्यापारोंसे रहित, भूत-भविष्यत्कालीन सावध व्यापारोंसे रहित, वर्तमान कालमें भी स्थिति और अनुभागकी न्यूनता करके तथा पहले किये हुए अतिचारोंकी निन्दा करके सावध व्यापारके त्यागी से-वह पूर्वोक्त भिक्खू वा साधु भिक्खुणी वा अथवासाध्वी दिया वा-दिनमें राओवा-अथवा रात्रिमें एगओ वा अकेला परिसागओवा अथवा संघमें स्थित सुत्तेवा-सोया हुआजागरमाणे वा अथवा जागता हुआ रहे, वहां सेन्चह-उदगं वा-जलको हिमं वा-हिमको महियं वाकुहरे-धूअर-को करगं वा-ओलेको हरतणुगं वा-यास पर बूंद-बूंद पड़ा हुआ जलविशेषको सुद्धोदगं वा-आकाशसे गिरे हुए निर्मल जलको (और) उदउल्लं या-जलसे भीने हुए-गीले कार्य-शरीरको उदउलं वा वत्थंजलसे भीगे हुए वस्त्रको ससिणिद्धं वा कार्य-कुछ-कुछ गीले शरीरको ससिणिद्वं वा वत्यंकुछ-कुछ गीले वस्त्रको न आमुसिज्जा-जराभी स्पर्श न करे, न संफुसिज्जा अधिक स्पर्श न करे, न आवीलिज्जा-पीडित न करे, न पवीलिज्जा-अधिक पीडित न करे, न अक्खोडिज्जा-स्फोटन न करे, न पक्खोडिज्जा-मस्फोटन नकरे, न आयाविज्जा-तपावे नहीं, न पयाविज्जा अधिक तपावे नहीं, अE=3 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ श्रीकामिक न घटपेवन पालयेत्, गामिन्यान्न विदारयेदन विदीर्णतां नये, तथाऽन्येन (यूने वार्णवाहितीया) स्वगतिरिक्तननेन नाऽऽरलेसन , न विलेखये, न पहयेतन मेदगेन, मालिसन्त मा विलिसन या घट्टयन्तं वा भिन्दन्तं वा अन्य ध्यम्यन्तरं न समनुनानीयान् नानुमन्येव, इत्येवं भगवदुपदिष्टाचारपद्धतिसर क्षणपरायणान्तःकरणोऽई यावजीवया त्रिविध प्रिविधै नेत्यादि पूर्ववत् ११३ ॥१५॥ सम्पति क्रममाप्तामएफाययतनामा:-'से भियत वा०' इत्यादि । • मूलम्-से भिक्खू चा भिक्खुणी वा संजय-विरय-पडिहय-पञ्च. पंखायपावकम्मे दिया वाराओवाएगओवा परिसागओ वा सुक्त वा जागरमाणे वा से उदगंवा ओसंवा हिमं वामहियं वा करगवा हरतणुगं वासुद्धोदगंवा उदउल्लं वा कायं उदउलं वा वत्थं सोसाण वा कार्य ससिणिद्धं वा वत्थं न आमसिजा न संफुसिजा न आविलिज्जा न पविलिज्जा न अक्खोडिजा, न पक्खोडिज्जा, न आयाविना, न पयाविज्जा, अन्नं आमुसंतं वा, संफुसत वा आवीलंतं वा पवीलंतं वा, अक्खोडतं वा, पक्खोडतं वा, आयावत वा, पयावंतं वा न समणुजाणिज्जा ।जावजीवाए तिविहं तिविहण न घिसे तथा न हिलावे, न विदारे, न दुसरेसे ये सब क्रियाएँ कराव और न ये सब क्रियाएँ करते हुए अन्यको भला जाने । हे गुरुमहाराज ! इस प्रकार सर्वज्ञ भगवान द्वारा उपदेश किए हुए आचारकी रक्षा करने में मनको तत्पर रखनेवाला मैं तीन करण तान योगसे यह सब कार्य नहीं करूँगा ॥२॥१५॥ __ अब अपकायकीयतनाका प्रतिपादन करते हैं-'सेभिक्खू०' इत्यादि। એને ન ઘસે તથા ન હલાવે, ન વિદ્યારે, ન બીજાઓ પાસે એ બધી ક્રિયા કરાવે અને ન એ બધી ક્રિયાઓ કરનારા અન્યને ભલે જાણે. હે શરૂ મહારાજ એ પ્રકારે સર્વજ્ઞ ભગવાને ઉપદેશેલા આચારની રક્ષા કરવામાં મનને તત્પર રાખનારે એ હું ત્રણ કરણ ત્રણ વેગથી એ બધાં કાર્ય रीश नहि. (1) (१५) मायनी यतनानु प्रतिपादन ४२ छे-से भिक्खु या. Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन ४ सू. १७ (३)-तेजस्काययतना २७९ शुद्धोदकम् आकाशात्पतितं स्वभावनिर्मलं सलिलम् । तथा उदकाई-जललिनं कायं वस्त्रं च । सस्निग्धम् स्निग्धमिति भावत्तान्तम्, स्नेहा लिग्घत्वमिति तद्यस्तेन सह वर्तमान तत्-विन्दुरहितमीपदादै कार्य वस्त्रं च, स्वयं न आमृशेत् आईपत् 'आडीपदर्थेऽभिव्याप्तौ सीमार्थे धातुयोगजे' इति कोशात् , मृशेत्-स्पृशेत् , न स्पर्शयुक्तं कुर्यादित्यर्थः। न संस्पृशेतन संभकर्षेण स्पृशेत् । नापीडयेत्, न प्रपीडयेत् । नाऽऽस्फोटयेत् , न प्रस्फोटयेत् । नाऽऽत्तापयेत्, न प्रतापयेत् । शेपं सुगमम् । एषु ('आमृशेत् संस्पृशेत्' इत्यादिपु) सर्वत्र धात्वर्थाऽविशेषेऽप्युपसर्ग(आ. सं. म.). कृतवाच्यचैलक्षण्यान पौनरुक्त्यदोपावसर इति बोध्यम् ॥२॥१६॥ सम्पति तेजस्काययतनामाह-से भिक्खू वा' इत्यादि । मूलम्-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजय-विरय-पडिहय-पञ्चक्खाय-पावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा; से अगणिवा इंगालं वा मुम्मुरं वा अचिं वा जालं वा अलायं वा सुद्धागणिं वा उकं वा न उंजेजा न घना न भिदेजा न उज्जालेजा न पज्जालेजा न निघावेजा, अन्नं आदिके अंकुरोंपर जमनेवाले जलबिन्दु), वर्षाका निर्मल जल, इन सबको, तथा जलसे यहुत गीला या थोड़ा गीला शरीर या वस्त्र, इन सबको स्वयं एक बार स्पर्श न करे, बार-बार स्पर्श न करे, वनको एकवार न निचोड़े, बार-बार न निचोड़े, न एकयार झटके, न बार-बार झटके, न एकपार धूप में सुखावे, न बार-बार सुखावे, न ये सब क्रियाएँ दूसरेसे करावे, न करते हुएको भला जाने, शेप सुगम है ॥२॥१६॥ ___ अग्निकायकी यतना कहते हैं-से भिक्खू वा०' इत्यादि। જળ એ સર્વને, તથા જળથી બહુ લીલું અથવા ડું લીલું શરીર થા વસ્ત્ર, એ સર્વને સ્વયં એકવાર સ્પર્શ નહિ કરું, વારંવાર સ્પર્શ નહિ કરું, વસ્ત્રને એકવાર નહિ નીચેવું, વારંવાર નહિ નીચોવું, એકવાર નહિ ઝાટકું, વારંવાર નહિ ઝાટકું, એકવાર તડકામાં નહિ સુકાવું, વારંવાર નહિ સુકાવું, નહિ એ બધી ક્રિયાઓ બીજા પાસે કરાવું, અને કરનારને નહિ ભલે જાણું. શેષ ભાગ सोईसी . (२) (१६) मनायनी यतना छे-से भिक्खू वा० याkि. - - - Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ श्रीद तपानेवाले दूसरेसे, न आमुसाविज्जाराम स्पर्श न करावे, न संमाजिकि स्पर्श न करावे, न अपीलाविज्जा-पीडित न करावे, न पीला अधिक पीडित न करावे, न अक्खोडाविज्जा=स्फोटन न करावे, न पक् दाविज्जा मस्फोटन न करावे, न आयाविज्जानपुत्रावे नहीं, न पथाविज्ञान अधिक उपाये नहीं, आनुमंत पामरामी स्पर्श करनेवाले संकुसतं वा अधिक स्पर्श करनेवाले आवीतं यापीदित करनेवाले पवीतं वा अधिक पीडित करनेवाले अक्खोतं या फोन करनेवाले पत्रो प्रस्फोटन करनेवाले आयात पानेवाले पयातं वा अन्नं-दूसरे को न समणुजाणिज्जा मला न रामझे । जावज्जीवा जीवनपर्यन्त ( इसको ) तिथि व कारित अनुमोदनारूप तीन करणसे (तया) तिचिणं तीन प्रकारके मणेणं मनसे वाया वचनसे कापूर्ण कायसे न करेमि न करूँगा, न कारवेमिन कराऊँगा, कपि करते हुएभी अन्नं दुसरेको न समजाणामिमला नहीं समगा । भंते !=हे भगवन् ! तस्स-उस दण्ड से पडिक मामि= पृयरु होता हूँ, निंदामि आत्मसाक्षीसे निन्दा करता हूँ, गरिहामि गुरु साक्षीसे गर्दा करता हूँ, अप्पाणं दण्ड सेवन करनेवाले आत्माको वोसिरामित्यागता हूँ ||२||१६|| (२) अष्काययतना । टीका भिक्षुर्वेत्यादि पूर्ववत् । उदात्पादिजलम् भूगर्भोद्भवस्रोतोजलमित्यर्थः, अवश्यायं = मेघमन्तरेण रात्रौ पतितं सूक्ष्मतुपाररूपमप्कायम् । हिमं शीतत्त शीताधिक्येन घनीभूतमप्कायस्- 'बर्फ' इति लोके प्रसिद्धम् । मिह्निकां हेमन्त शिशिरयोः कदाचित् सान्द्रतया धूममतिभासमानस्वरूपां कुज्झटिकाम् 'धूअर' इति लोकमसिद्धाम् । करक किरति=सरति पानीयमिति करके वर्षोपलम् । हरतनुम् = भूमिमुद्भिद्य तृणाङ्कुरापरि विन्दुरूपेण स्थितमप्कायविशेषम् । (२) अष्काययतना ! भिक्षु और भिक्षुकी आदि पदोंका अर्थ पहलेकी भाँति समझना चाहिए | कुपका पानी अर्थात् भूमिमें सोता (झरना) से निकलनेवाला जल, ओस, पाला, कुहरा (घूँअर), ओला (गड़ा), हरतनु (भूमिको भेद कर गेहूँ (२) अयूआययतना ભિક્ષુ અને ભિક્ષુકી આદિ શબ્દનો અર્થ પહેલાંની પેઠે સમજવે કૂવાનું પાણી अर्थात् लुभिभांना स्रोत (अर) थी नीतु ४ शोस, हार, साज, ४, डुग्नु (ભૂમિને ભેદીને ઘઉં" આદિના અંકુરો ઉપર જામનારાં જલબિન્દુ), વરસાદનું નિર્મૂળ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ मू. १७ (३) - तेजस्काययतना न घट्टेला चलावे, नहीं, न भिदेज्जा = भेदे नहीं, न उज्जालेज्जा=थोडाभी जलावे नहीं, न पज्जालेज्जा मज्वलित करे नहीं, न निव्वावेज्जा=बुझावे नहीं, अन्नं-दूसरे से न पंजावज्जा=बढवावे नहीं, न घट्टावेज्जा चलवावे नहीं, न भिदावेज्जा- भिदावे नहीं, न उज्जालावेज्जान्न जलवावे, न पज्जालावेज्जा-न प्रज्वलित करावे, न निव्वावेज्जान्न बुझवावे, उर्जतं चा बढानेवाले घतं वा चलानेवाले भिदंतं वा भेदनेवाले उज्जालंतं वा= जलानेवाले पज्जातं वान्यज्वलित करनेवाले निव्वावतं चा=बुझानेवाले अन्नं= दूसरेको न समणुजाणिज्जा-भला न समझे । जावज्जीयाए जीवनपर्यन्त ( इसको ) तिवि-कृत- कारित - अनुमोदनारूप तीन करणसे (तथा) तिविहे तीन प्रकारके मणेर्ण-मनसे वाचनसे कारणं काय से न करेमि=न करूँगा, न कारवेमि=न कराऊँगा, करंतंपि = करते हुएभी अन्नं-दूसरेको न समणुजाणामिमला नहीं समझेगा । भंते ! हे भगवन् ! तस्स उस दण्ड से पडिक्कमामि=पृथक होता हूँ, निंदामि = आत्मसाक्षीसे निन्दा करता हूँ, गरिहामि= गुरु साक्षीसे ग करता हूँ, अप्पाणंदण्ड सेवन करनेवाले आत्माको चोसिरामित्यागता हूँ ||३||१७|| २८१ टीका अग्निहिम्, अङ्गारं = निर्धूमज्वालं ज्वलदिन्धनम्, मुर्मुरं प्रविरलस्फुलिङ्गसंमिश्र स्मरूपं तुपानलं वा 'मुर्मुरस्तु तुपानलः' इति वैजयन्तीकोशात्, अजालिण्डिकामं वा, अर्चिः मूलामिविच्छिन्नां ज्वालाम्, ज्वालां दद्यमानतृणादिसम्वद्धाऽऽमूलोर्ध्वत्रप्रसारितेजोराशिम्, अलातं ज्वलदग्रभागं काष्ठम्, शुद्धाग्निम् = अयःपिण्डानुसंबद्धं विशुदादिरूपं वा उल्कां मूलवर्विच्छि२ समन्तात्मसर्पदशिकणात्मिकाम्, ( चिनगारी, तडंगिया, इति भाषा ) स्वयं न उत्सिश्चेत् न तत्रे(३) तेजस्काययतना । अग्नि, अंगारा, भूभल (गर्म राख) यकरीकी लेंडीकी आग, मूलसे टूटी हुई ज्वाला, मूलसे अविच्छिन्न ज्वाला, लुआठा (जलती हुई लकडी), गर्म लोहेके गोलेकी या बिजलीकी अग्नि, अथवा चिनगारी (3) तेनाययतना. व्यक्ति, अंगारा, गरम राम, श्रीनी सीडीनी भाग, भूजथी तूटेसी नवाजा, મૂળથી અવિચ્છિન્ન જવાલા, મળતાં લાકડાં, ગરમ લેખડના ગાળાને અથવા વિજળીને અગ્નિ, અથવા ચાણુગારી આધિમાં પેત્તે ઇંધન ( અળતણ ) નહિ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० श्रीवकालिम न उजावेजा न घावेजा न भिंदावेजा, न उजालावेज्जा न पज्जालावेज्जा न निवावेज्जा, अग्नं उंजंतं वा घडतं वा भिदंत वा उज्जालंतं वा पज्जालंतं वा निवावंतं वा न समजाणिज्जा। जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करोमि नकारवेमि करतंपि अन्नं नसमणजाणामि! तस्सभंते! पडिकमामि निदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥३॥१७॥ ____ छाया-स मिसुर्वा मिथुफी या संपवविरतमतिहवपत्याख्यातपापकर्मा दिना वा रात्री वा एकको या परिपद्तो वा मुप्तो वा जाग्रता, सः अग्नि वा और वा मुमुरं वा अचिर्दा ज्याला या अलात वा शुद्धानि वा उल्का वा नोत्सित्र न घट्टयेत न भिन्यानोज्ज्वालयन्न प्रज्यालयेन्न निर्वापयेद, अन्येन नोत्सेचयन घटयेन भेदयेनोज्यालयेन्न मज्यालयेन्न निर्वापयेद् , अन्यमुसिञ्चन्तं वा घट्टया वा भिन्दन्तं वा उज्ज्वालयन्तं या मज्वालयन्तं वा निर्वापयन्तं वा न समनुमान यात् । यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयार कुर्वन्तमप्यन्य न समनुनानामि । तस्माद् भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि आत्मानं व्युत्सृजामि ॥३॥१७॥ .. (३) तेजस्काययतना. सान्वयार्थ:-संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे वर्तमानकालान सावध व्यापारोंसे रहित, भूत-भविष्यकालीन सावध व्यापारोंसे रहित, वत्तमा कालमें भी स्थिति और अनुभागकी न्यूनता करके तथा पहले किय अतिचारोंकी निन्दा करके सावध व्यापारके त्यागी, सेबह पूर्वोक्त मिस वा साधु भिक्खुणी वा अथवा साध्वी; दिया वा-दिनमें राओ वा अथक रात्रिमें; एगओ वा अकेला परिसागओ वा अथवा संघम स्थिता । वा सोया हुआ जागरमाणे वा अथवा जागता हुआ रहे, वहां से अगणि वा अग्निको इंगालं चा-अंगारेको मुम्मुरंवा मुमुर-भूभूदर-(तुषामिका अचिं या-ज्योति-मूलानिसे विच्छिन्न ज्वालाको, जालं वामूलागिसे अविच्छि जलती हुई ज्वालाको, अलायं वा-जिसका अग्रभाग जल रहा हो एस काठको, सुद्धागणि चाशुद्ध अग्नि-लोहपिण्डमें संबद्ध अग्नि अथवा विजलीरूप अग्निको, उकं वा-चिनगारियोंको न उजेजा इंधन डालकर बढावे नहीं, Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू. १८ (४) वायुकाययतना.. २८३ ननेन वा तालन्तेन वा पत्रेण वा पत्रभन्न वा शाखया या शाखामनेन या पिनेन वा पिहुनहस्तेन वा चैलेन वा चैलकर्णेन वा हस्तेन या मुखेन -या, आत्मनो वा काय वाह्यं वाऽपि पुद्गलं न फूत्कुर्यात् , न वीजयेत् , अन्येन न फूस्कारयेश वीजयेद्, अन्य फूत्कुर्वन्तं वा वीजयन्त वा न समनुनानीयात्। यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि फुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि। तस्य भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्दै आत्मानंच्युटजामि॥४॥१८॥ (४) वायुकाययतना. ... सान्वयार्थ:-संजयविरयपडिहयपचवायपावकम्मे वर्तमानकालीन सावंद्य व्यापारोंसे रहित, भूत-भविष्यत्कालीन सायद्य व्यापारोंसे रहित, वर्तमान कालमें भी स्थिति और अनुभागकी न्यूनता करके तथा पहले किये गए अनिचारोंकी निन्दा करके सावध व्यापारके त्यागी से बह पूर्वोक्त भियग् घा साधु भिक्खुणी चा अथवा. साध्वी दिया घा-दिनमें राओ घा=अथवा रानिमें एगओ वा अकेला परिसागओ चा अथवा संधमें स्थित सुत्ते चासोया गया जागरमाणे वा अथवा जागता हुआ रहे, यहाँ से यह सिपण घाम्यागररो, विहुणेणवा-पंखेसे, तालिअंटेण पाताडके पंखेसे, पत्तेण घा-पत्तेसे, पत्तभंगेण वा-बहुतसे पत्तोंसे, साहाग वा शाखा-डाली-से, साहामंगेण घा= शाखाके खण्डसे, पिटुणेण वा मोरपीछीसे, पिट्टणहत्येण घामोरपीछियोंके समूहसे, चेलेण वा कपडेसे, चेलकण्णेणवा-पटेके छोर पाटे-से, हरण वा हायसे, मुहेणवा-मुखसे, अप्पणो वा-अपने कार्यदारीरको, घामधयां योहिरं वि पुग्गलंबाहरी पुद्गलोको भी न फुमेजा-फूंकन मारे,न घोपना चंबर आदिसे हवा. न करे, अन्नं-दूसरेसे न फुमावेजा-पंकन माराये, न वीआवेज्जा हवा न करावे, फुमंत वाफनेवाले पीअंसं या-या करनेवाले अन्नदूसरेको नममणुजाणिज्जा मला न समझे। जायज्जीवाप जीयनपर्यना (इसको)तिविहं-कृत कारित अनुमोदनारूप तीन फरणसे (नया) तिविदितीन प्रकारके मणेणं मनसेचायाए-वचनसे कापणन्यायसे न करेमिफगान कारवेमिनकराऊंगा, करतंपिफरते हुएमी अनंन्दुसम्यों न ममणुगाणामिक भला नहीं समझूगा । मते! हे भगवन! तस्म-ठा दण्टग पहियामागि:पृथक् होता है, निंदामि आत्मसाक्षीस निन्दा करना , गरिष्ठामिगर्दा करता हूँ, अप्पाणंदण्ट सेवन करनेवाण्टे मास्माको यो त्यागता हूँ ॥४॥१८॥ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૨ श्रीदभवेकालिको न्धनादिकं मसिपेन्, न घटयेन् न समालगन , न मिन्धान दाखाडादिना न स्फोटयेत्, न उम्म्यालयेत्-तालान्तादिना सादम्पं या न मापयेत्-न वर्षयेदित्पर्यः, न प्रचालन सततं यशो या न मगलितं कयां, न निर्धापयेत्न विध्यापयेत् न निर्वाण नयेदित्यर्थः, अन्येन न उसे चयदित्यादि सर्व मुगमम् ॥३॥१७॥ पायुकाययतनामाइ-से मिक्खू बा०' इत्यादि ।। मूलम्-से भिक्खू वा भिक्खुणी वासंजय-विरय-पडिहय-पञ्चक्खायपावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते जागरमाणेवा; से सिरण वा विहणेण वा तालिअंटेण वा पत्तेण वा पत्तभंगेण या साहाए वा साहाभंगेण वा पिहणेण वा पिहुणहत्थेणं वा चेलेण वाचेलकन्नेण वा हत्येण वा मुहेण वा अप्पणो वा कार्य वाहिरं वावि पुग्गलं न फुमेना न वीऐजा, अन्नं न फुमावेजा न वीआवेजा, अन्नं फुमंतं वा बीअंतं वा न समणुजाणिना । जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि, न कारवेमि,करतंपिअन्नं न समणुजाणामि। तस्स भंते! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥४॥१८॥ छायास भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा संयतविरतपतिहतपत्याख्यातपापकर्मा दिवा वा रात्रौ वा एकको वा परिषद्गतो वा सुसो वा जाग्रता, स सितेन वा विधूआदिमें स्वयं इन्धन न डाले, न संचालन करे (न संघटा करे), न दंड ईंट आदिसे उसे भेदे, न पंखा आदिसे एकवार प्रज्वलित करे, न वार-वार प्रज्वलित करे, न धुझावे । न ये सब क्रियाएँ दूसरेसे करावे, न करते हुएकी अनुमोदना करे, इत्यादि सब पूर्ववत् ॥३॥१७॥ वायुकायकी यतना कहते हैं-'से भिक्खू वा०' इत्यादि । નાખે, નહિ સંચાલન કરે (નહિં સંઘટન કરે, નહિ દંડ કે ઈસ્ટ આદિથી તેને ભેદ, નહિ પંખા વગેરેથી તેને એકવાર પ્રજવલિત કરે, નહિ વારંવાર પ્રજવલિત કરે, નહિ બુઝાવે, નહિ એ બધી ક્રિયાઓ બીજ પાસે કરાવે, કરનારની નહિ अनुमहिना ४२. त्या पूर्व यत् (3) (१७) वायुयनी यतना ४३ ई-से भिक्खू वा. त्या Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८५ APRA अध्ययन ४ सू. १९ (५)-बनस्पतिकाययतना मूलम्-से भिक्खू वा भिक्खुणी वासंजय-विरय-पडिहय-पञ्चक्खायपावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा, से वीएसु वा बीयपइट्ठेसु वा रूढेसु वा रूढपइहेसु वा जाएसु वा जायपइहेसु वा हरिएसु वा हरियपइट्टेसु वा छिन्नेसु वा छिन्नपइटेसु वा सचित्तेसु वा सचित्तकोलपडिनिस्सिएसु वा न गच्छेजा न चिमुज्जा न निसीडज्जान तुयहिज्जा, अन्नं न गच्छाविजा न चिट्टाविजा न निसीयाविजा न तुयहाविजा, अन्नं गच्छंतं वा चितं वा निसीयंतं वा तुयदृतं वान समणुजाणिज्जा ।जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समजाणामि। तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥५॥१९॥ - छायासभिक्षु भिक्षुकी वा संयतविरतप्रविहतमत्याख्यातपापकर्मा दिवा वा रात्री वा एकको वा परिपद्तो वा सप्लो वा जाग्रद्वा, स वीजेषु वा बीजमतिष्ठितेषु वा रूढेषु वा रूद्वप्रतिष्ठितेषु वा जातेपु वा जातप्रतिष्ठितेपु वा हरितेपु वा हरितप्रतिष्ठितेषु वा छिन्नेषु वा छिन्नमतिष्ठितेपु वा सचित्तेपु वा सचित्तकोलप्रतिनिधितेषु वा न गच्छेन्नतिप्ठेन निपीदेन त्वम्पयेत् , अन्यं न गमयेन्न स्थापयेन निषादयेन्न लग्वर्तयेत्, अन्यं गच्छन्तं वा विष्ठन्तं वा निपीदन्तं वा त्वग्नत्यन्तं वा न समनुजानीयात् । यावनीवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्य भदन्त प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्दै आत्मानं व्युत्सृजामि ॥५॥१९॥ (५) वनस्पतिकाययतना. सान्वयार्थः-संजयविरयपडिहयपञ्चक्खायपावकम्मे वर्तमानकालीन सावध व्यापारोंसे रहित, भूत-भविष्यत्कालीन सावध व्यापारोंसे रहित, वर्तमान कालमें भी स्थिति और अनुभागकी न्यूनता करके, तथा पहले किये हुए अतिचारोंकी निन्दा करके सावध व्यापारके त्यागी सेवह पूर्वोक्त भिक्खू वा साधु भिक्षुणी बा-अथवा साध्वी दिया चा-दिनमें, राओ वा-अथवा Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ - भीमकालिको (४) पायुकापगतना। टीका-सिन नामरेण तत्वगुणवत्वनोपचाराव, विपननेनन्त्रीजनकेन, तालवृन्तनम्तालेन्फरतले वृन्तंबन्धनमम्पति, तालस्येव वृन्तमस्येति, तापतेफरादिनाऽान्यत इति तालम् , उमपोरेफरसम्मरणाव, तारा हन्तं यस्पेति र वालवृन्तं तालपत्रादिरचितं म्यननं तेन, उपलक्षणमिदं विख्यानादीनामषि, पत्रेण कमलिनीदलादिना, पत्रम नन्दलशकलेन, शाखया-वृषभुनया, शास्त्रामहेन तदेकदेशेन, पिहुनेनन्धविण (मयूरपिच्छेन) पिहुनास्तेन-पुञ्जीकृतमयूर पिच्छेन, चैलेनन्बनेण, चैलकर्णेन-अत्रलेन(वसमान्तेन) हस्तेन करेण, मुखेनबदनेन, आत्मनःस्वस्य कायं-शरीरं बाद्यमपि पुद्गलम् उष्णदुग्धादिकं वास्त्रय न कुर्यात्म्न मुखेन धमेन् , न पीनये-चामरादिना वातं न सबालयेत्। अन्येन वा न फूत्कारयेत्, इत्यायन्यत्मबोधम् ॥४॥१८॥ वनस्पतिकाययतनामाह-'से भिक्खू चा०' इत्यादि (४) वायुकाययतना । चाँचरसे, पंखेसे, ताड़के यने हुए पंखेसे अथवा अन्य विजली आदिक किसी प्रकारके पंखेसे, कमल आदिके, पत्तेसे, पत्तेके टुकड़ेसे, वृक्षका शाखासे, शाखाके खण्डसे,मयूरके पिच्छसे, मयूरके यहुतसे पिच्छसि, वस्त्रसे, वस्त्रके पल्ले (छोर)से, हाथसे, मुखसे, अपने शरीरको तथा अन्य गरम दूध आदि पुद्गलोंको न स्वयं फूंके, न चाँवर आदिसे वींजे-वायुका संचालन करे, न दूसरेसे फूंकावे, न वोजावे, न फूंकते हुए तथा वॉजते हुए अन्यको भला जाने, इत्यादि सुगम ही है ॥ ४ ॥१८॥ वनस्पतिकायकी यतना कहते हैं-से भिक्खू वा.' इत्यादि । (४) वायुययतना. ચામરથી, પંખાથી, તાડના બનાવેલા પંખાથી, અથવા અન્ય વિજળી આદિના કેઈ પ્રકારના પંખાથી, કમળ આદિનાં પાંદડાથી, પાંદડાના ટુકડાથી, વૃક્ષની माथी, शमान थी, मयूरना पिछथी, मयूरना अने" पीछथी, परथी, વશ્વના છેડાથી, હાથથી, મુખથી, પિતાના શરીરને, તથા બીજા ગરમ દૂધ આદિ પગલાને નહિ સ્વયં ફેંકે, નહિ ચામર આદિથી વીંઝે-વાયુનું સંચાલન કરે, નહિ બીજા પાસે કુંકાવે, કે ફેંકનાર તથા વિઝનાર અન્યને ભલે જાણે. ઈત્યાદિ સરલ छ. (४) (१८) वनस्पतिशायनी यतन 3 छे-से मिक्खू वा. त्यात. . , Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ सू० १९ (५) - वनस्पतिकाययतना मूलम् - से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजय - विरय-पडिहय-पच्चक्खायपावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा, से बीएसु वा वीयपइट्टेसु वा रूढेसु वा रूढपइट्ठेसु वा जासु वा जायपइट्टेसु वा हरिएसु वा हरियपइडेसु वा छिन्नेसु वा छिन्नपट्ठेसु वा सचित्तेसु वा सचित्तकोलपडिनिस्सिएसु वा न गच्छेन्ना न चिट्टेजा न निसीइजा न तुयहिजा, अन्नं न गच्छाविजा न चिट्ठाविजा न निसीयाविज्जा न तुयट्टाविज्जा, अन्नं गच्छंतं वा चितं वा निसीयंतं वा तुयहंतं वा न समणुजाणिज्जा । जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेम करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ ५ ॥ १९ ॥ . २८५ छाया - सभिक्षु भिक्षुकी वा संयतविरतप्रतिहतमत्याख्यातपापकर्मा दिवा वा रात्रौ वा एकको वा परिपगतो वा सुप्तो वा जाग्रद्वा, स वीजेषु वा वीजप्रतिष्ठितेषु वा रूढेषु वा रूद्रप्रतिष्ठितेषु वा जातेषु वा जातप्रतिष्ठितेषु वा हरितेषु वा हरितप्रतिष्ठितेषु वा छिन्नेषु वा छिन्नपतिष्ठितेषु वा सचित्तेषु वा सचित्तकोलप्रतिनिधितेषु वा न गच्छेन्नतिष्ठेन निपीदेन त्वम्वर्त्तयेत्, अन्यं न गमयेन्न स्थापयेन्न निपादयेन्न स्वग्वर्त्तयेत्, अन्यं गच्छन्तं वा तिष्ठन्तं वा निपीदन्तं वा स्वग्वर्त्तयन्तं वा न समनुजानीयात् । यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्य भदन्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्ने आत्मानं व्युत्सृजामि ||५|| १९|| (५) वनस्पतिकाययतना. सान्वयार्थः – संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे = वर्तमानकालीन सावद्य व्यापारों से रहित, भूत-भविष्यत्कालीन सावद्य व्यापारोंसे रहित, वर्तमान कालमें भी स्थिति और अनुभागकी न्यूनता करके, तथा पहले किये हुए अतिचारोंकी निन्दा करके सावध व्यापारके त्यागी से वह पूर्वोक्त भिक्खू वा= साधु भिक्खुणी वा=अथवा साध्वी दिया वा दिनमें, राओ वा=अथवा Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ श्रीदशवेकालिकमरे रात्रिमें, एगओ घा=अकेला परिसागओ वा अयवा संवमें स्थित सुसे वा-सोया हुआ जागरमाणे वा अथवा जागता हुआ रहे, वहाँ से वह पीएस वा-शालि आदि बीजोपर, पीयपइटेसु वा बीजोपर रखे हुए शयन आसन आदि पर, रूढेसु वा अनुरित वनस्पति पर, रूढपट्टेसु वा अङ्कुरित वनस्पति पर रखे हुए शयन आसन आदि पर, जागसु वा-पत्ते. आनेका अवस्थावाली वनस्पति पर, जायपहसु चा-पत्ते आनेकी अवस्थावाली वनस्पति पर रखे हुए शयन आसन आदि पर, हरिगसु वा हरित पर, हरिय पइहेसु वा हरित पर रखे हुए शयन आसन आदि पर, छिनेसु वा-कटे हुए इंरित पर छिन्नपइहेसु वा कटे हुए हरित पर रखे हुए आसन आदि पर, सचित्तेसु वा-फिर अन्य सचिन अण्डा आदि सहित वनस्पति पर, सचित्त: कोलपडिनिस्सिएसु वा-घुने हुए-सड़े काठ पर न गच्छेबा-गमन न करे, न चिट्ठज्जा न खड़ा होवे न निसीइज्जा-न वैठे, न तुअहिज्जान सोचे, अन्नं दूसरेको न गच्छावेज्जान चलावे न चिट्ठावेज्जा-न खडा करे न निसीयावेज्जा-न पैठावे, न तुअहाविज्जान मुलावे, गच्छंत वा-चलते हुए चिदंतं वाम्खड़े होते हुए. निसीयंतं वा-बैठते हुए तुयतं वा-सोते हुए अन्नं दूसरेको न समणुजाणेज्जा भला न जाने । जावज्जीवाए-जीवनपर्यन्त ( इसको) तिविहंकृत कारित अनुमोदनारूप तीन करणसे (तथा) तिविहेणं-तीन प्रकारके मणेणं-मनसे वायाए बचनसे कारणं कायासे न करेमि-न करूँगा, न कारवेमिन्न कराऊँगा, करंतपिकरते. हुएभी अन्नं-दूसरेको न समणुजाणामि-भला नहीं समझूगा । भंते ! हे भगवन् ! तस्स-उस दण्डसे पडिकमामि-पृथक होता हूँ, निंदामिआत्मसाक्षीसे निन्दा करता हूँ, गरिहामि गुरुसाक्षीसे गर्दा करता हूँ, अप्पाणं दण्ड सेवन करनेवाले आत्माको वोसिरामि त्यागता हूँ॥५॥१९।। (५) वनस्पतिकाययतना. टीका-धीजेपु-शाल्यादिषु, बीजप्रतिष्ठितेपु-बीजोपरिस्थितेषु शयनाऽऽसनादिपु, एवमग्रेऽपि प्रतिष्ठितपदव्याख्या कार्या, रूढेपु-अङ्कुरितेषु, जातेपु-रो (द) वनस्पतिकाययतना । शालि आदि बीजों पर,बीजों पर रक्खे हुए शय्याआसन आदि पर,अंकुरों (५) बनस्पतिययतना. . २ मालि भीन्न ५२, भने ५२ भूखi शय्या म... ५२, Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८७ अध्ययन ४ मू. १९ (५)-वनस्पतिकाययतना हणाऽनन्तरकालिकायस्थां सम्माप्तेषु पत्रितेप्रित्यर्थः, हरितेपु-कीरमयूरपक्षसच्छायतां गते', छिन्नेपु-कुठारादिना संछिद्य पृथक्कृतेपु आर्द्रपु, सचिचेपु-अन्येष्वपि सनीवाण्डादिपु, सचित्तकोलपतिनिश्रितेपु-सचित्तैः सचेतनैः, कोलैः घुणैः प्रतिनिश्रितेपु-आश्रितेपु जीवधुणयुक्तकाष्ठादिप्वित्यर्थः, न गच्छेत् , न विप्ठेत् , न निपीदेम्नोपविशेद , न त्वग्वर्तयेत् वर्त्तनं वर्तः परिवर्तनम् (भावे धन्) त्वचावगिन्द्रियस्य शरीरस्येत्यर्थात वर्तः त्वग्वतः वामपार्श्वतः परात्त्य दक्षिणपान, दक्षिणपार्वतः परावृत्त्य वामपार्थेन वा स्वपनम् , त्वग्वः करोति त्वग्वत्यति, (त्वग्वर्त्तशब्दात् 'तत्करोति तदाचष्टे' इति णिचि टिलोपे धातुत्वाल्लडादयः) तस्य विधौ त्ववर्तयेत् मुप्यादित्यर्थः ॥५॥१९॥ - अथ त्रसकाययतनामाह-'से भिक्खू वा०' इत्यादि । पर अंकुरोंपर रक्खे हुए शयन आदि पर, अंकुर अवस्थाके पश्चात् पत्रित अवस्थाको प्राप्त वनस्पतिपर, अथवा उसपर रक्खे हुए शयन आदिपर, कटी हुई वनस्पतिपर, हरी वनस्पतिपर, तथा इनके सिवाय सजीव अंडा आदिपर, घुने (सुले) हुए काष्ठ आदिपर न स्वयं गमन करे, न खड़ा होवे, न बैठे, तथा यायाँ पसवाडा बदलकर दाहिने पसवाड़ेसे और न दाहिना पसवाड़ा बदलकर बायें पसवाड़ेसे सोवे अर्थात् पसवाड़ा न बदले, ये सब क्रियाएँ दूसरेसे भी न करावे, न करते हुएको भला जाने। इसलिए तीन करण तीन योगसे इनका त्याग करता हूँ, इत्यादि व्याख्यान पूर्ववत् ॥५॥१९॥ __ अव उसकायकी यतना कहते हैं-'से भिक्खू चा०' इत्यादि। અંકુર પર, અંકુર ઉપર મૂકેલાં શયનાદિ પર, અંકુર અવસ્થા પછી પત્રિત અવસ્થાને પ્રાપ્ત થએલી વનસ્પતિ પર, અથવા તે પર મૂકેલાં શયનાદિ પર, કાપેલી વનસ્પતિ પર, લીલી વનસ્પતિ પર તથા એ ઉપરાંત સજીવ ઈંડાં આદિ પર, સળેલા કાણ આદિ પર નહિ હું સ્વયં ગમન કરું, નહિ ઉભે રહું, નહિ બેસું, તથા ડાબું પડખું બદલીને જમણે પડખે અને જમણું પડખું બદલીને ડાબે પડખે નહિ સૂઉં અર્થાત્ પડખાં નહિ બદલું, એ બધી ક્રિયાઓ બીજા પાસે નહિ કરાવું, - નહિ કરનારને ભલે જાણું. એ રીતે ત્રણ કરણ ત્રણ વેગથી એને ત્યાગ કરૂં છું. त्याहि व्याज्यान पूर्ववत् (५) (१८) । व सायनी यतना / छे-से भिक्खू वा० ४त्यादि. Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - --- २८८ श्रीदशवेकालिकों मूलम्-से भिक्खू वा भिक्खुणीवा संजय-विरय-पडिहय-पञ्चक्खाय-पावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से कीडं वा पयंगं वा कुंथु वा पिवीलियं वा हत्थंसिवा पायंसि वा वाहंसि वा उरुसि वा उदरंसि वा सीसंसि वा वत्थंसि वा पडिग्गहसि वा कंवलंसि वा पायपुच्छणंसि वा रयहरणंसि वा गोच्छगंसि वा उंडगंसि वा दंडगंसि वा पीढगंसि वा फलगंसि वा सेज्जंसि वा संथारगंसि वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारे उवगरणजाए तओ संजयामेव पडिलेहिय पडिलेहिय पमज्जिय पमज्जिय ऐगंतमवणेजा नोणं संघायमावज्जेजा ॥६॥२०॥ छायास भिक्षु भिक्षुकी वा संयतविरतपतिहतमत्याख्यातपापकर्मा दिवा वा रात्रौ वा एकको वा परिपगतो वा मुप्तो वा जाग्रद्वा स, कीटं वा पतङ्ग वा कुन्थु वा पिपीलिकां वा हस्ते वा पादे वा बाहौ वा ऊरौ वा उदरे वा शीर्ष वा वस्त्रे वा पात्रे वा कम्बले वा पादपोन्छनके वा रजोहरणे वा गोच्छे वा उन्दके वा दण्डके वा पीठके वा फलके वा शय्यायां वा संस्तारके वा अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे उपकरणजाते ततः संयत एव मत्युपेक्ष्यर प्रमृज्य२ एकान्तेऽपनयेन्नैनं संघातमापादयेत् ॥६॥२०॥ (६) सकाययतना. सान्वयार्थ:--संजयविरयपडिहयपञ्चक्खायपावकम्मे वर्तमानकालीन सावध व्यापारोंसे रहित, भूत-भविष्यत्कालीन सावध व्यापारोंसे रहित, वर्तमान कालमें भी स्थिति और अनुभागकी न्यूनता करके तथा पहले किये हुए अतिचारोंकी निन्दा करके सावध व्यापारके त्यागी से वह पूर्वोक्त भिक्खू वा साधु भिक्खुणी वा अथवा साध्वी दिया वा-दिनमें राओ वा अथवा रात्रिमें एगओ वाअकेला परिसागओ वा अथवा संघमें स्थित सुत्ते वा सोया हुआ अथवा जाग. रमाणे वा-जागता हुआ रहे, वहां से वह कीडं वा-कीटेको पयंगं वा= पतंगेको कुंथुवा कुंथुवाको पिवीलियं वा-कीड़ी-चिऊंटीको हत्थंसि वा हाथ पर पायंसि वा वरपर याहंसिवान्भुजापरऊरंसिवा-जांघपर उदरंसिवा-पेटपर सीसंसि वासिरपर वत्यसि वावधपर पडिग्गहंसि वा-पात्रपर कंयलंसि वा Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन ४ सू. २० (६)-सकाययतना कम्बल पर पायपुच्छणसि चापेर यौछनेके उपकरणविशेषपर रयहरणंसि चारजोहरण पर गोच्छगंसि वा-पूंजनी पर उंडगसि वा स्थण्डिलपात्र पर दंडगंसि वादंड पर पीढगंसि वा-चौकी पर फलगंसि वा-पाटे पर सेजसि या शरीरपरिमित शयन करनेके उपकरण पर संधारगंसि वा संस्तारक-साढे तीन हाथ परिमित विछौने पर (अथवा) अन्नयरंसि वा-फिर दूसरे तहप्पगारे-इसी प्रकारके उवगरणजाए-उपकरणों पर (लगे हुए पूर्वोक्त कीडे आदिको) तओ उस स्थान-हाथ पैर आदिसे संजयामेवयतनाके साथही पडिलेहियर बार-बार प्रतिलेखन करके पमजियरवार-बार पूंजकर एग-एकान्त-निरुपद्रव स्थान में अवणेज्जाले जाकर रखदे, (किन्तु उनको) नोणं संघायमावजेज्जा-एकठा न करे ॥२०॥ (६) सकाययतना।। टीका-हस्ते, पादे, बाहौ, ऊरौ मान्परिभागे, उदरे, शीर्षे, वस्त्रे-मुखवत्रिकाचोलपट्टादौ, प्रतिग्रहे प्रतिगृह्णाति आधत्ते स्वस्मिन् भक्तपानादिकमिति प्रतिग्रहापात्रं तस्मिन्, कम्बले, पादपोन्छनेमोन्छयतेअमृज्यतेऽनेनेति मोन्छनं-प्रमार्जनसाधनम् , पादयोः मोन्छन-पादमोन्छन तस्मिन् पादपोन्छनसाधने वस्त्रखण्डे, रजोहरणे, गोच्छे सचित्तरजा-संमचरणममा निकायाम् 'पूँजनी' इति भाषामसिद्धायाम् , उण्डके-स्थण्डिलपात्रे, दण्डेद्धत्वादिना प्रस्थानविप्लवगतिभिर्वतिभिरवलम्बनाय धार्यमाणे, नान्यथा, "थेराणं थेरभूमिपत्ताणं कप्पइ दंडए वा” इत्यादिना स्थविर-स्थविरभूमिमाप्तातिरिक्तमुनीनां (६) प्रसकाययतना। __ हाथ, पैर, भुजा, जाँध, उदर, मस्तक, मुखवस्त्रिका, चोलपट्ट आदि वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद-प्रोन्छन-पैर पोंछने का वस्त्रखण्ड, रजोहरण, गोछा पूँजनी (पैरोंमें लगी हुई रजको पोंछनेका उपकरण), स्थण्डिलपात्र, वृद्धावस्था आदिके कारण गमन करने में असमर्थ मुनिके (चलनेमें) सहायक दण्ड, क्योंकि भगवानने " स्थविर और स्थविरभूमिको प्राप्त मुनियोंको ही दण्ड धारण करना (क) सहाययतना. હાથ, પગ, ભુજ, ગ, ઉદર, મસ્તક, મુખવસ્ત્રિકા, ચેળપટે આદિ વસ્ત્ર પાત્ર, કામળી, પગ છાણું, રજોહરણું, પૂજણ, સ્થડિલપાત્ર, વૃદ્ધાવસ્થાઆદિને કારણે ચાલવામાં અસમર્થ મુનિને સહાયક એ દંડ, કારણ કે ભગવાને “થવિર અને સ્થવિર ભૂમિને પ્રાપ્ત મુનિઓને માટે જ દંડ ધારણું કપનીય છે એવું કહ્યું છે, Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २९० ' श्रीदशकालिकमूत्रे दण्डायावत्वस्य भगवता स्पष्टं प्रतिपादितत्वात्, पीठके-काष्टनिर्मितचतुरस्राधासनविशेपे "चौकी, चौरंग' इति- मापापसिद्धे, फलके शयनोपयोगिकाष्ठविरचितपट्टादिरूपे, शय्यायांम्शयनोपकरणरूपायां बसती या, अस्या अपि धर्मोपकरणत्वात् , संस्तारके संस्तार्यते विस्वायते शयनाथिमिरिति संस्तारः (स+ स्त्रः कर्मणि घन) स एवं संस्तारका=(स्वार्थिकः कः) अर्द्धवतीयहस्तममाणस्तस्मिन् , दर्भादिनिर्मितास्तरणे इत्यर्थः । अन्यवरस्मिन् वा तथाप्रकारे तत्सदृशे संयमोपयोगिनि उपकरणजाते उपक्रियन्ते उपयुज्यन्ते संयमादिदार्थकृते यानि तान्युपकरणानि-साधनां संयमसाधनागीभूतोपकारकवस्त्रपात्रादीनि तेपा जात समूहस्तस्मिन् उपकरणमात्रे इत्यर्थः, समापतितं कीटादिकत्रसजीवम् । ततः तस्मात् हस्तादेः स्थानात् संयत एवम् सम्यग् यतमान एव 'संजयामेव' इति मूलपाठे आपलादी? - मकारथ, मतिलेख्यमत्यवेक्ष्य२ सम्यगवलोक्येत्ययः, ममृज्यर-पौनःपुन्थेन ममा निकादिद्वारा निस्सार्य एकान्ते निरुपद्रवस्थाने अप. नयेत् नीत्वा स्थापयेत् किन्तु संघातम् एकत्र पुञ्जीकरणेन पीडाजनकपरस्परशरीर संघर्पकारणदृढसंयोग सामान्येन सम्मेलनं वा नो नैव आपादयेत् संभापयेत् 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे । 'संघातो दृढसंयोगः' इति वाचस्पत्यम् । यत्तु केचित्कल्पनीय है" ऐसा कहा है, अन्यको दण्ड धारण करना मना है। अत एव उनके द्वारा गृहीत दण्ड पर तथा चौकी पाटा (पह) शय्या अर्थात् उपाश्रय, क्योंकि यह भी एक धर्मोपकरण है, संस्तारक अर्थात् दर्भ आदिका बिछौना, तथा संयममें उपयोगी इस प्रकारका अन्य कोई उपकरण, इन सबमें कीट आदि जस जन्तु हों तो उन्हें संयमी स्वयं सम्यक प्रकार प्रतिलेखन करके बार-बार पूँजनी आदिसे पूंजकर बाधारहित एकान्त स्थानमें यतनासे रक्खें, किन्तु उन्हें इकट्ठा करके न रक्खें, क्योंकि ऐसा करनेसे उनको पीडा होनेकी संभावना है। कितनक અન્યને દંડ ધારણની મનાઈ છે, એટલે એમણે ધારણ કરેલા દંડ પર, તથા ચોક, પાટ, ચા અર્થાત્ ઉપાશ્રય, કારણ કે એ પણ એક ધર્મોપકરણ છે. સંસ્તારક અર્થાત્ દર્ભ આદિનું બિછાનું, તથા સંયમમાં ઉપયોગી એ પ્રકારનાં અન્ય કઈ ઉપકરણે, એ સર્વમાં કડી–કીડા આદિ ત્રસ જતુ હોય તે તેને સંયમી સ્વયં સમ્યક પ્રકારે પ્રતિલેખન કરીને વારંવાર પૂર્ણ આદિથી પૂંછને બાધારહિત એકાના સ્થાનમાં થતાથી મૂકે, પરંતુ એને એકઠાં કરીને ન રાખે, કારણ કે એમ કરવાથી તેમને પીડા થવાની સંભાવના રહે છે. કેટલાકે કહે છે કે રક્ષાને Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. १ अयतनाया दुःखदफलम् २९१ एकान्तप्रदेशे रसाथै त्रसजीवानां स्थापने साधूनामसंयतिवैयावृत्त्यदोपेण महावतभङ्गो भवतीत्याहुस्तदेतद्भगवदाज्ञाविरुद्धम्, अनेनापि सूत्रेण धर्मोंपकरणस्थानां त्रसजीवानां निरुपद्रवपदेशे रक्षार्थ यतनया स्थापनविधानात् ।६। ॥२०॥ इत्येवं पट्काययतनामभिधाय सम्पति तदपरिपालनपरिणामदारुणत्वं वर्ण्यते'अजयं चरमाणो' इत्यादि । मूलम्-अजयं चरमाणो य, पाणभूयाइं हिंसइ । बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुयं फलं ॥१॥ छाया-अयतं चरंश्च, प्राणभूतानि हिनस्ति ।। वध्नाति पापकं कर्म, तत्तस्य भवति कटुकं फलम् ॥१॥ यतना न पालन करने का पुरा फल कहते है सान्वयार्थ:-अजयं-अयतनापूर्वक चरमाणो-गमन करता हुआ साधु पाणभूयाइंस स्थावर जीवोंकी हिंसइ-हिंसा करता है य और पावयं कम्म-पापकर्मको बंधई-बांधता है, तं-उस कारण से उस पाप कर्मका फलं-फल कडयं दुःखदायी होइ होता है ॥१॥ कहते हैं कि-रक्षाके लिए उस जीवको एकान्त स्थानमें रखने में साधुको असंयतिकी वेयावच करनेस्प दोप लगता है और उससे महाव्रतका भंग होता है। यह उनका कहना भगवानकी आज्ञासे विरुद्ध है, क्योंकि इस सूत्रसे भगवानने स्पष्ट विधान किया है कि धर्मोपकरणमें स्थित बस जीवोंको रक्षाके लिए निरुपद्रव स्थानमें यतनासे रखना चाहिये ॥६॥२०॥ इस प्रकार पटकायकी यतना कहकर "उसकी रक्षा नहीं करनेसे भयङ्कर परिणाम होता है" इस यातका उपदेश देते हैं-'अजयं चरमाणो' इत्यादि । માટે ત્રસ જીવને એકાંત સ્થાનમાં રાખવામાં સાધુને અસંયતિની વૈયાવચ્ચ કરવા રૂપ દેય લાગે છે અને તેથી મહાવ્રતને ભંગ થાય છે. એમનું એવું કથન ભગવાનની આજ્ઞાથી વિરૂદ્ધ છે, કારણ કે આ સૂત્રથી ભગવાને સ્પષ્ટ વિધાન કર્યું છે કે ધર્મોપકરણમાં સ્થિત ત્રસ જીવેની રક્ષાને માટે નિરુપદ્રવ સ્થાનમાં યતનાથી तमने भूवा नये. (6) (२०) એ રીતે પકાયની યતના કહીને એમની રક્ષા નહિ કરવાથી ભયંકર परिणाम सा , पातन पहेश मापे -अजयं चरमाणो इत्यादि. Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ श्रीदशकालिकसूत्रे . टीका-अयतं यतनारहितं यथास्यातथा चरन् गच्छन् 'संयतः' इति शेषः, माणभूतानि माणन्तीति मागा उच्च्यासादिमन्तो द्वीन्द्रियप्रभृतयो जीवाः, भूतानि भवनशीला एकेन्द्रियाः पृथिव्यादयः, माणाय भूतानि चेति प्राणभूतानि (द्वन्द्वत्वात्परवल्लिगता) तानि-प्रसस्थावराणीत्यर्थः, हिनस्ति हन्ति, च-तथा पाप-पंपविलमर्थान्मलिनं भावमापयति पापयतीति, पंक्षेमम् आसमन्तात् पिपतिन्नाशयतीति, पान-पास्तमर्थात्माणिनामात्मानन्दरसपानम् आमोतिप्रामोति-गृहातीति, नरकादिकुगतिषु जीवान् पातयतीति, कर्मरजोभिरात्मानं पांशयतिमलिनयतीति वा पापं तदेव पापकं (कुत्सायां कन्) ज्ञानावरणीयादि, कर्म-तत्सम्बन्ध्यतिमूक्ष्मपुदलसवयं बनाति-उपार्जयति, ततस्तेन हेतुना, तस्यपापकर्मणः, फलं-परिणतिः कटुकं दुःखदम्, यद्वां 'कटुकफल'-मिति च्छाया, १ पांशयति-पांशु लिः, 'पार्ना न द्वयो रजः' इत्यमरः, सोऽस्यास्तीति पांशुमान् , पांशुमन्तं करोति पांशयति 'तत्करोति तदाचष्टे' इति णिचीष्ठ बद्भावात् 'विन्मतोलग्' इति मनुपो लुक' ततष्टिलोपः । यतनारहित गमन करनेवाला संयत (साधु) दीन्द्रिय आदि प्राणोंकी तथा एकेन्द्रिय पृथिवीकाय आदि भूतोंकी अर्थात त्रस और स्थावर जीवोंकी हिंसा करता है, और ज्ञानावरणीयादि पापकर्मका उपार्जन करता है। पाप (१) मलिनताको प्राप्त कराता है, (२) नरक आदि अधागतिमें पहुंचाता है, (३) आत्माके हितका नाश करता है, (४) प्राणियोंके आत्मिक आनन्द रसको सुखा डालता है. (५) आत्माको कर्मरूपी रजसे मलिन कर देता है, इसलिए उसे पाप कहते हैं । अर्थात् अयतनापूर्वक प्रवृत्ति करनेसे जीवोंकी हिंसा होती है,और ज्ञानावरणीय आदि अशुभ कोका बन्ध भी होता है, और उस पापकर्मका परिणाम दुःखदायी યતનાહિતપણે ગમન કરનાર સંવત (સાધુ) હીન્દ્રિય આદિ પ્રાણની તથા એકેન્દ્રિય પૃથિવીકાય આદિ ભૂતની અર્થાત ત્રસ અને સ્થાવર જીવોની હિંસા કરે છે અને જ્ઞાનાવરણીયદિ પાપકર્મનું ઉપાર્જન કરે છે. પાષ-(૧) મલિનતાને પ્રાપ્ત કરાવે છે, (૨) નરક આદિ અગતિમાં પહોંચાડે છે, (૩) આત્માના હિતને નાશ કરે છે, (૪) પ્રાણીઓના આત્મિક આનંદ રસને સુકાવી નાંખે છે. (૫) આત્માને કર્મ રૂપી રજથી મલિન કરી નાખે છે, તેથી તેને પાપ કહે છે. અર્થાત અયતનાપૂર્વક પ્રવૃત્તિ કરવાથી જીવોની હિંસા થાય છે, અને જ્ઞાનાવરણીય આદિ અશુભ કર્મોને બંધ પણ ઉત્પન્ન થાય છે. એ પાપકર્મનું પરિણામ દુઃખ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. २-५ अयतनाया दुःखदफलम् २९३ तत्-पापकर्म तस्य-भयतनया गच्छतः कटुकफलं-कटुकम् अनिष्टं फलं परिणामो यस्य तत् अशुभफलमदमित्यर्थः, भवति-जायते । अत्र पक्षे 'कटुक'-मित्यत्रानुस्वार आपलान् ॥१॥ मूलम्-अजयं चिट्ठमाणोय पाणभूयाई हिंसइ । बंधई पावयं कम्म, तं से होइ' कडुयं फलं ॥२॥ छाया--अयतं तिष्ठेश्व, माणभूतानि हिनस्ति । वनावि पाप कर्म, तत्तस्य भवति कटुकं फलम् ॥२॥ सान्वयार्थ:-अजय-अयतनापूर्वक चिट्ठमाणो खड़ा होता हुआ साधु पाणभूयाईस स्थावर जीवोंकी हिंसा-हिंसा करता है य=और पाये कम्मं-पाप कर्मको पंधई बांधता है, तं-उस कारण से उस पापकर्म का फलं फल कडयं दुःखदायी होइ होता है ॥२॥ टीका-'अजयं चिट्ठमाणो' इत्यादि । अयतं यतनारहितं तिष्ठन् करचरगादिप्रसारणेनाऽनवहितं दण्डवावस्थानं कुर्वन् । शेपं माग्वव्याख्येयम् ॥२॥ मूलम्-अजयं आसमाणो य, पाणभूयाइं हिंसइ । . . . ७... १० १३ १२, ११ बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुयं फलं ॥३॥ . छाया-~अयतमासीनथ, पाणभूतानि हिनस्ति । वनाति पापक कर्म, तत्तस्य भवति कटुकं फलम् ॥३॥ सान्वयार्थ:-अजयं अयतना-पूर्वक आसमाणो बैठता हुआ साधु पाणभूयाईन्त्रस स्थावर जीवोंकी हिंसइ-हिंसा करता है, य=और पावयं कम्मरूपापकर्मको पंधई-बांधता है, तं-उस कारण से उस पापकर्म का फलं-फल कडुयं-दुःखदायी होइ-होता है ॥३॥ होता है, तथा उसका कडुआ फल भोगना पड़ता है ॥१॥ 'अजयं चिट्ठमाणो' इत्यादि। अयतनापूर्वक खड़ा होनेसे पापकर्म धंधता है और उसका कटुआ फल होता है ॥२॥ દાયી આવે છે, તથા એનાં કડવાં ફળ ભેગવવાં પડે છે. (૧) ___अजयं चिद्यमाणो त्यहि, मयतापू' मा २वापाथी पा५४ धाय છે અને તેનાં કડવાં ફળ આવે છે. (૨) Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..२९४ - . .श्रीदशवकालिको टीका-'अजयं आसमाणो' इत्यादि । अयतमासीनाममार्जनं विनाऽनुप युक्तोऽनवहित उपविशन्नित्यर्थः । शेपं पूर्ववत् ॥३॥ मूलम्-अजयं सयमाणो य पाणभूयाई हिंसइ । ८ . ७... १३१२ ॥ बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुयं फलं ॥४॥ • छाया-अयतं. स्वपंच , माणभूतानि हिनस्ति । वनाति पापकं कर्म, तत्तस्य भवति कटुकं फलम् ॥४॥ सान्वयार्थ:-अजयं-भयतना-पूर्वक सयमाणो सोता हुआ साधु पाणभूयाईन्त्रस-स्थावर जीवोंकी हिंसइ-हिंसा करता है, य=और पावयं कम्मपापकर्मको वंधईबांधता है, तं-उस कारण उस पापकर्म का फलं-फल कडयं-दुःखदायी होइ-होता है ॥४॥ टीका-'अजयं सयमाणो' इत्यादि । अयतं स्वपन शय्याप्रमार्जनादिक विना प्रकामशय्यादिना दिवसे वा शयानः । शेपं पूर्ववत् ॥४॥ . . मूलम्-अजयं भुंजमाणो य, पाणभूयाइं हिंसइ । — बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुयं फलं ॥५॥ छाया-अयतं भुञ्जानश्च, प्राणभूतानि हिनस्ति । . - वनाति पापकं कर्म, तत्तस्य भवति कटुकं फलम् ॥५॥ सान्वयार्थ:-अजयं-अयतना-पूर्वक भुंजमाणो-खाता हुआ साधु पाण: भूयाइंस-स्थावर जीरोंकी हिंसइ-हिंसा करता है, और पावयं कम्मं-पाप 'अजयं आसमाणो' इत्यादि। भूमि आदिकी विना प्रमाजेंना किये ही अयतनापूर्वक बैठनेसे पापकर्म बंधता है और उसका कडुआ फल होता है ॥३॥ . . . . . . . ___ 'अजयं सयमाणो' इत्यादि । अयतनासे अर्थात् शय्याकी प्रमाजेना न करके शयन करनेसे पापकर्म बंधता है और उसका कडुआ फल होता है ॥४॥ अजयं आसमाणो पत्याहि. भूभि माहिनी प्रभार्या विना भयतना• પૂર્વક બેસવાથી પાપકર્મ બંધાય છે, અને તેનાં કડવાં ફળ મળે છે. (૩) : अजयं सयमाणो त्याहि. भयतनाथी अर्थात् शयानी अभाना या વિના શયન કરવાથી પાપકર્મ બંધાય છે અને એનાં કડવાં ફળ મળે છે. (૪) : Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५ mammaww w o mamananewsnAm asmeenasamavasaamaan अध्ययन ४ गा. ६ अयतनाया दुःखदफलम् कर्मको बंधई बांधता है, तं-उस कारण से उस पापकर्मका फलं-फल कडुयं-दुःखदायी होइ होता है ॥५॥ टीका-'अजयं भुंजमाणो' इत्यादि । अयतं भुञ्जाना यथाकल्पलब्धान्तमान्ताधाहारं संयोजनादिमण्डलदोपापरिहारेण चपड़-चपड़-शब्दपूर्वकमभ्यवहरन्। अन्यत् मुबोधम् ॥५॥ मूलम्-अजयं भासमाणो य, पाणभूयाई हिंसइ । बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुअं फलं ॥६॥ छाया-अयतं भापमाणश्व, माणभूतानि हिनस्ति । बध्नाति पापकं कर्म, तत्तस्य भवति कटुकं फलम् ।।६।। . सान्चयार्थः-अजय-अयतना-पूर्वक भासमाणो बोलता हुआ साधु पाणभूयाइ-बस स्थावर जीवोंकी हिंसह हिंसा करता है, य और पावयं कम्म-पापकर्मको बंधई-बांधता है, त उस कारण से उस पापकर्म के फलं फल कड्डयंदुःखदायी होइ होता है ॥६॥ टीका-'अजयं भासमाणो' इत्यादि । अयतं भाषमाणा अयतनया ब्रुवन् । 'अजयं मुंजमाणो' इत्यादि । साधुके कल्पके अनुसार प्राप्त हुए आहारका संयोजना आदि मण्डल दोपोंका परित्याग न करके 'चपड़चपड़े आदि शब्द करते हुए भोजन करनेसे पापकर्म बंधता है और उसका फल कडुआ होता है ॥५॥ __'अजयं भासमाणो' इत्यादि । अयतनापूर्वक भापण करनेसे हिंसा • होती है और पापकर्मका बंध होता है। उस पापकर्मका फल कडुआ होता है । अजयं भुंजमाणो इत्यादि. साधुना ४८पने अनुसार पास था PATRA સંજના આદિ મંડલ દેને પરિત્યાગ કર્યા વિના “અપડ-ચપડ અવાજ કરતાં ભજન કરવાથી પાપકર્મ બંધાય છે. અને તેનાં કડવાં ફળ આવે છે. (૧) अजयं भासमाणो या. मयतनापू सापय ४२पाथी हिंसा थाय छे. અને પાપકર્મ બંધાય છે. એ પાપકર્મના ફળ કડવાં આવે છે. Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ श्रीदशकालिकास्त्रे टीका-'अजयं आसमाणो' इत्यादि । अपवमासीन अमार्जनं विनाऽनुपयुक्तोऽनवहित उपविशन्नित्यर्थः । शेषं पूर्ववत् ॥३॥ मूलम्-अजयं सयमाणो य पाणभूयाई हिंसइ । वंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुयं फलं ॥४॥ छाया अयतं स्वपंच, माणभूतानि हिनस्ति । वनाति पापकं कर्म, तत्तस्य भवति कटुकं फलम् ॥४॥ सान्वयार्थ:-अजय-अयतना-पूर्वक सयमाणो सोता हुआ साधु पाणभूयाई-अस-स्थावर जीवोंकी हिंस-हिंसा करता है, यम्-और पावयं कम्मपापकर्मको बंधई-बांधता है, तं-उस कारण उस पापकर्म का फलं-फल कडुयंन्दुःखदायी होइ-होता है ॥४॥ टीका-'अजयं सयमाणो' इत्यादि । अयतं स्वपनःशय्याप्रमार्जनादिक विना प्रकामशय्यादिना दिवसे वा शयानः । शेपं पूर्ववत् ॥४॥ मूलम्-अजयं भुंजमाणो य, पाणभूयाई हिंसइ । वधइ पावय कम्म, तसे होइ कडयं फलं ॥५॥ छाया- अयतं भुञ्जानथ, प्राणभूतानि हिनस्ति । . वनाति पापकं कर्म, तत्तस्य भवति कटुकं फलम् ॥५॥ सान्वयार्थ:-अजय-अयतना-पूर्वक भुजमाणो खाता हुआ साधु पाणभूयाइंस-स्थावर जीवोंकी हिंसा-हिंसा करता है,य-और पावयं कम्मम्पाप 'अजयं आसमाणो' इत्यादि। भूमि आदिकी विना प्रमार्जना किये ही अयतनापूर्वक बैठनेसे पापकर्म बंधता है और उसका कडुआ फल होता है ॥३॥ 'अजयं सयमाणो' इत्यादि । अयतनासे अर्थात् शय्याकी प्रमाजेना न करके शयन करनेसे पापकर्म बंधता है और उसका कडुआ फल होता है ॥४॥ अजय आसमाणो पत्याहि लमि माहिना प्रभारना या विना मयतनाપૂર્વક બેસવાથી પાપકર્મ બંધાય છે, અને તેના કડવાં ફળ મળે છે. (૩) अजयं सयमाणोत्या. अयतनाथ मति यानी प्रमानियां વિના શયન કરવાથી પાપકર્મ બંધાય છે અને એનાં કડવાં ફળ મળે છે. (૪) * ..... " . - - - Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा.८-९ यतनावतो न पापकर्मवन्धः २९७ . शिष्यः पृच्छति-'कहं चरे' इत्यादि । टीका-हे भगवन् ! यद्येवं तर्हि संयतः कथं केन प्रकारेण चरेत्-विहरेत् ?, __ कयं केन प्रकारेण तिष्ठेत् स्थितो भवेत् ?, कथंकेन रूपेण आसीत-उपविशेत् ?, कयं शयीत-स्वप्यात् ?, कथं वा भुखाना=अभ्यवहरमाणः, भापमाणश्च पापकर्म व्याख्यातपूर्व न वनाति ? |७|| - गुरुरुत्तरयति-'जयं चरे' इत्यादि । मूलम्-जयं चरे जयं चिद्वे, जयमासे जयं सए । ० १२ १३ १४ __ जयं भुजंतो भासंतो, पावकम्मं न बंधई ॥८॥ छाया-यतं चरेद् यतं तिष्ठेद् , यतमासीत यतं शयीत । यतं भुञ्जानो भापमाणः, पापकर्म न बध्नाति ॥८॥ सान्वयार्थः-गुरु महारान उत्तर देते हैं-जयं यतनापूर्वक चरे गमन करे जयं यतनापूर्वक चिट्टे खड़ा होवे जयं यतनापूर्वक आसेबैठे जयं यतनापूर्वक सएसोवे (और) जयं यतनापूर्वक भुजंतो-खाता हुआ तथा भासंतो= वोलता हुआ पावं कम्म-पापकम न बंधई-नहीं बांधता है ||८|| टीका-यतम् ईर्यादिसमितिसमन्वितं यथा तथा चरेत्-विहरेत् , यतं तिष्ठेत्= __. शिष्य पूछता है-'कहं चरे०' इत्यादि । हे भगवन् ! यदि ऐसा है तो मुनि कैसे चले ? कैसे खड़ा रहे ? कैसे वैठे? कैसे शयन करे ? कैसे आहार करे? और कैसे बोले ? जिससे पापकर्म न बंधने पावे ॥७॥ गुरु महाराज उत्तर देते हैं-'जयं चरे०' इत्यादि । हे शिष्य ! संयत ईर्यासमितियुक्त होकर चले, यतनासे खड़ा रहे, शिष्य पछे छ-कई चरे. त्या. હે ભગવન્! જે એમ છે તે મુનિ કેવી રીતે ચાલે ? કેવી રીતે ઉભે રહે? કેવી રીતે બેસે ? કેવી રીતે સૂએ? કેવી રીતે આહાર કરે? અને કેવી રીતે બેલે? કે જેથી પાપ કર્મ બંધાવા ન પામે? (૭) २३ भडांस 6त्त२ मा छ-'जयं चरे०' या. હે શિષ્ય! સંયત સમિતિયુક્ત થઈને ચાલે, યતનાથી ઉભું રહે, Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - . २९६ श्रीदशकालिको ननु यतनापूर्वकभाषणार्थमेव मुनिर्मुखवत्रिका बध्नातीति तं प्रति पुनरय विधियर्थ एवेति चेन्न, यथाविधिनिबद्धमुखवनिकस्यापि मुनेतृतकशादिसायभापणेऽनारतमुखेन भापणवदयतना भवतीति सर्वथा भाषासमितिसमाराधना:बधानमाधातुमस्योपदेशस्य सार्थक्यात् । शेपं पूर्ववद्वयाख्येयम् ॥६॥ मूलम्-कहं कहमासे कहं सए। १२ १३ १४ ___ कहं भुंजतो भासतो, पावकम्म न बंधई ॥७॥ छाया कयं चरेत् कयं तिष्ठेत्, कयमासीत कयं शयीत । कथं भुञ्जानो भाषमाणः, पापकर्म न बध्नाति ||७|| सान्वयार्थ:-शिष्य पूछता है-(अगर ऐसा है तो हे गुरु महाराज !) कहं कैसे चरे-गमन करे?, कह-कैसे चिढे-खड़ा हो?, कहं कैसे आसेबैठे ?, कन्कैसे सएसोवे?, कहं-किस प्रकार भुंजतो आहार करता हुआ (तथा) भासंतोन्योलता हुआ पावकम्मम्पापकर्म न बंधई नहीं बांधता है ॥७॥ प्रश्न-हे गुरुमहाराज! अयतनाको दर करनेके लिए ही मुखवत्रिका मुख पर बाँधी जाती है, फिर उनके प्रति 'अजयं भासमाणो यो एसा उपदेश देना कैसे संगत है ? । उत्तर-हे शिष्य ! सुनो; मुख पर मुखवस्त्रिका सदा बाँधी रहने पर भी असत्य कर्कश कठोर आदि बोलनेसे तथा सावध उपदेश देनेस उसी प्रकार अयतना होती है जिस प्रकार खुले मुख बोलनेसे होती है। साधुको भाषासंबंधी सब प्रकारकी अयतनाका त्याग करना चाहिए इसलिए यह अयतनाके त्यागका उपदेश दिया गया है ॥६॥ પ્રશ્ન-હે ગુરૂ મહારાજ ! અયતનાને દૂર કરવાને માટે જ મુખવસિકા મુખ ५२ सांधवाम मार छ, पछी तमनी प्रत्ये 'अजय भासमाणो य' मेवो अपडेश આપ કેવી રીતે સંગત છે? ઉત્તર-હે શિષ્ય! મુખ પર મુખવસ્ત્રિકા સદા બાંધી રહેવા છતાં પણ અસત્ય કર્કશ કઠેર આદિ બલવાથી તથા સાવદ્ય ઉપદેશ આપવાથી એવા પ્રકારની અયતના થાય છે કે જેવા પ્રકારની અયતના ઉદ્યડે મોંએ બોલવાથી થાય છે. સાધએ ભાષાસંબંધી સર્વ પ્રકારની અયતનાને ત્યાગ કર જોઈએ, તેથી આ અયતનાના ત્યાગને ઉપદેશ આપવામાં આવ્યા છે. (૬). Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. ९-यतनावतो न पापकर्मवन्धः - - - छाया-सर्वभूतात्मभूतस्य, सम्यग् भूतानि पश्यतः । पिदितास्रवस्य दान्तस्य, पापकर्म न बध्यते ॥९॥ सान्वयार्थः-सब्बभूयप्पभूयस्सन्सब प्राणियोंको अपने समान समझनेवाले सम्म सम्यक् प्रकार-आगमानुसार भूयाई जीवोंको पासओ-देखने-समझनेचाले पिहिआसवस्स-आस्रवको रोकनेवाले दंतस्स-जितेन्द्रिय साधुके पावकम्मं पापकर्म न बंधई-नहीं बंधता है ॥९॥ टीका--सर्वभूतात्मभूतस्य सर्वाणि च तानि भूतानि सर्वभूतानिएकेन्द्रियादारभ्य पञ्चेन्द्रियपर्यन्तं सर्वे जीवास्तेषु आत्मभूतः आत्मसदृशः, जीव आत्मानं रक्षितुं यथा प्रयतते तथा यथाविधिसकलजीवरक्षासावधान इत्यर्थः, तस्य, भूतानि सम्यक्पवचनपतिपादितस्वरूपेण पश्यतः प्रेक्षमाणस्य निखिलपाणिगणस्वरूपं याथातथ्येन पर्यालोचयत इत्यर्थः । पिहितास्रवस्य-पिहिताः आच्छादिता आस्त्रवा:-कर्मागमहेतयो येन स पिहितास्त्रका पतिरुद्धकर्मद्वारस्तस्य, दान्तस्यन्दमयतिवशं नयति इन्द्रियाऽश्वानिति दान्तः जितेन्द्रियस्तस्य पापकर्म न वध्यते तस्य पापलेपो न जायत इत्यर्थः ॥९॥ ' ननु क्रिययैव पापकर्मावरोधश्वेत्तईि तदर्थमेव यतनीयं कृतं ज्ञानेनेति चेदत्रोच्यते- नहि ज्ञानमन्तरेण क्रिया कदाचिदपि फलाय कल्पते प्रत्युतोन्मत्तक्रियावदना समस्त प्राणियोंमें आत्मतुल्य बुद्धि रखनेवाले, तथा आगमके अनुसार जीवोंका स्वरूप समझनेवालेको, कर्मोके आगमनके कारण (आस्रव)का निरोध करनेवालेको पापकर्मका बंध नहीं होता है |॥१॥ प्रश्न-हे गुरुमहाराज ! यदि केवल क्रियासे पापकर्मोंका निरोध हो जाता है तो क्रिया ही करनी चाहिए, ज्ञानकी क्या आवश्यकता है? उत्तर-हे शिप्य ! ज्ञानके विना क्रियाका कुछ फल नहीं होता, બધાં પ્રાણીઓમાં આત્મતુલ્ય બુદ્ધિ રાખનારા, અને આમને અનુસાર જીનું સ્વરૂ સમજનારનેકર્મોના આગમનનાં કારણે (આ )ને નિષેધ ४२नारामान पापभनु मधन यतु नथी. (e) પ્રશ્ન–હે ગુરૂ મહારાજ ! જે કેવળ ક્રિયાથી પાપકર્મોને નિરાધ થઈ જાય છે તે ક્રિયા જ કરવી જોઈએ, જ્ઞાનની શી આવશ્યકતા છે? ઉત્તર – શિષ્ય! જ્ઞાન વિના ક્રિયાનું કશું ફળ હેતું નથી. સાનરહિત Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - Ram - - -- - - - - --- - - -- ------ - - - - - - - श्रीदशवकालिको फरचरणादिकमविक्षिपन् समवहितो दण्डास्थिति विदध्याद , यतमासीतयतनया-हस्तपादायाचनप्रसारणादिकमकुर्वन् सोपयोगनुपविशेव-दृढासनादिना स्थिरः सनावश्यककार्यमन्तरेण नेतस्ततो भ्राम्येदित्यर्थः, यतं शयीत कामशयनीयादिपरिहारेण स्वप्याद, यतं मुआना यथाकल्पप्राप्ताहारं संयोजनादिमण्डलदोपवर्जनपुरस्सरं 'चपड़-चपड़ इतिशब्दमकुर्वाणोऽभ्यवहरमाणः, यत भापमाणा-निबद्धमुखपत्रिका सन् हितमितमृद्वादिनिरवधभाषयावसरे समालपन् पापकर्म न पनाति-न पनीयात् ॥८॥ किञ्च-'सव्यभूयः' इत्यादि । मूलम् सबभूयप्पभूयस्स, सम्म भूयाइं पासओ। पिहिआसवस्स दंतस्त, पावकम्मं न बंधई ॥९॥ अर्थात् हाथ-पैर न हिलाता हुआ सावधान होकर दंडकी तरह खड़ा रहे, यतनासे बैठे अर्थात् वृथा हाथ पैर न हिलावे, उपयोग-सहित दृढासन आदिसे बैठे, विना कार्यके इधर उधर न हिले, यतनासे- शयन करे अर्थात् प्रकाम शय्याका परिहार करता हुआ सोवे, यतनासे आहार करे अर्थात् जैसानिरवद्य आहार मिल जाय उसी में सन्तुष्ट रहे और 'चपड़चपड़' आदि शब्द न करते हुए भोजन करे, न भोजनमें राग-द्वेष करे। यतनासे भाषण करे अर्थात् हित मित मधुर और निरवद्यभाषायोले,खुले मुंह न घोले, तथा कर्कश कठोर शब्दोंका उच्चारण नकरे और निष्प्रयोजन न बोले । ऐसा करनेसे पापकर्म नहीं बंधता है ॥८॥ और-'सब्वभूयः' इत्यादि। અર્થાત્ હાથ-પગ ન હલાવે ને દંડની જેમ ઉભું રહે. યતનાથી બેસે અર્થાત વૃથા હાથ-પગ ન હલાવે, ઉપગ સહિત દહાસન આદિથી બેસે, કાર્ય વિના આમતેમ હલે નહિ, ચેતનાથી શયન કરે, તેનાથી આહાર કરે, અર્થાત જે નિરવદ્ય આહાર મળી જાય તેમાં જ સંતુષ્ટ રહે અને “ચપડ-ચપડ અવાજ કર્યા વિના ભજન કરે, ભોજનમાં રાગ-દ્વેષ ન કરે. યતનાથી ભાપણ કરે અથતું હિત મિત મધુર અને નિરવદ્ય ભાષા બોલે, ખુલે મેં બેલે નહિ. એમ કરવાથી પાપકર્મ બંધાતું नथी. (८) मन-सन्मभूय इत्याहि. Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा.११-ज्ञानमाप्त्युपाय: ३०१ एवम् अनेन प्रकारेण क्रियाया ज्ञानपूर्वकत्वाऽचयोधरूपेण सर्वसंयतः सर्वविरतः साधुरित्यर्थः, तिष्ठति-वते, कथमिदमुच्यते ? इत्याशङ्कायामाह-अज्ञानी-- तत्वातत्वविवेकलक्षणज्ञानविरहितः किं करिष्यति-कि विधास्यति, किं वा कथं वा छेक-पापक, छेकश्च पापकं चानयोः समाहारे छेकपापकं, तत्र ठेकंकल्याणम् उपादेयमित्यर्थः, पापकम्-अकल्याणं हेयमित्यर्थः. ज्ञास्यतिब्बेत्स्यति जन्मना:न्धयन्न किश्चिदपीत्यर्थः, अतो ज्ञानार्थमेव प्रथमं यतनीयम् “हया अन्नाणिणं किया" इत्युक्तेः ॥१०॥ ज्ञानमहत्त्वं पदय सम्प्रति तत्माप्त्युपायमाह-"सोचा जाणइ" इत्यादि । मूलम्-सोचा जाणइ कल्लाणं, सोचा जाणइ पावगं । उभयपि जाणई सोचा, जं सेयं तं समायरे ॥११॥ छाया-श्रुत्वा जानाति कल्याणं, श्रुत्वा जानाति पापकम् । __ उभयमपि जानाति श्रुत्वा, यच्छ्यस्तत्समाचरेत् ॥११॥ समस्त क्रियाओंका ग्रहण होता है। अर्थात् सम्यगज्ञानपूर्वक की हुई ही क्रिया सफल होती है, इसलिए मुनि ज्ञानपूर्वक ही क्रियाएँ करते हैं क्योंकि तत्त्व और अतत्त्वके विवेकसे रहित अज्ञानी क्या कर सकता है? अर्थात् कुछ नहीं कर सकता, और जन्मान्धके समान उसे हेय-उपादेयका ज्ञान ही कैसे होसकता है ? अर्थात् नहीं होसकता, अतः पहले ज्ञानके लिए प्रयत्न करना चाहिए। कहा भी है-" ज्ञानके विना क्रिया निरर्थक है " ॥१०॥ ...ज्ञानका महत्व बताकर अब उसकी प्राप्तिका उपाय कहते हैं"सोचा जाणइ.” इत्यादि । થાય છે. અર્થાત્ સભ્યજ્ઞાનપૂર્વક કરેલી ક્રિયા જ સફળ થાય છે. તેથી મુનિ જ્ઞાનપૂર્વક જ ક્રિયાઓ કરે છે. કારણ કે-તત્ત્વ અને અતત્વના વિવેકથી રહિત અજ્ઞાની શું કરી શકે? અર્થાત્ કશું નથી કરી શકે, અને જન્માંધની પેઠે એને હેય-ઉપાદેયનું જ્ઞાન કેવી રીતે થઈ શકે? અર્થાતુ નથી થઈ શકતું, તેથી પહેલાં જ્ઞાનને માટે પ્રયત્ન કરી જોઈએ. કહ્યું છે કે-“જ્ઞાન વિનાની ક્રિયા નિરર્થક છે.” (૧૦) ज्ञानर्नु महत्व मतावान वे अनी प्रातिना पाय -सोचा जाणइ० त्यादि Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिको नुपन्धिनी स्यादिति ज्ञानविरहित केवल क्रियापतिर्लोकानां मा स्म भूदतो ज्ञानस्य क्रियापेक्षया मायम्यं दर्शयति-'पढम नाणं इत्यादि । मूलम्-पढम नाणं तओ दया, एवं चिइ सबसंजए। अन्नाणी किं काही, किंवा नाही छेय-पावगं ॥१०॥ छाया-प्रथमं ज्ञानं ततो दया, एवं तिष्ठति सर्वसंयतः । अज्ञानी किं करिष्यति, किं वा शास्यति छेक-पापकम् ॥१०॥ सावपार्थ:-पढम-पहले नाणं-ज्ञान है तो उसके पश्चात् दयान्दया अर्थाद चारित्र है एवं इसी प्रकार सव्वसंजए-सर्वसंयत साधु चिट्ठइ-आचरण करते हैं, अन्नाणी- सम्यग्ज्ञानसे रहित पुरुष किंकाही क्या कर सकता है कैसे संयम पाल सकता है अर्थात् नहीं पाल सकता ? (और) किं वा कैसे छेयपावर्गउपादेय और हेयको नाही-जान सकता है?, अर्थात् नहीं जान सकता ॥१०॥ टीका-प्रथमम् आदी ज्ञानज्ञायन्ते युध्यन्ते जीवाजीवादयः पदार्या येन यस्माद् यस्मिन् वा तज्ज्ञानं-स्वपरस्वरूपपरिच्छेदलक्षणम् , अपेक्ष्यं भवतीत्याशयः, क्रियामात्रस्य ज्ञानपूर्वकत्वे हि स्वाभीष्टसिद्धिकत्वात् , ततः तदनन्तरं दया-क्लेशाकुलमाणिसंकटमोचनेच्छालक्षणाऽनुकम्पा, दयाशब्देन चात्र क्रियामात्रमुपलक्ष्यते, ज्ञानरहित क्रिया उन्मत्त (पागल) पुरुषकी क्रियाके समान अनर्थको उत्पन्न करती है। 'कोई जीव ज्ञानरहित क्रिया न करे' इस अभिप्रायसे 'पहले ज्ञान फिर क्रिया होनी चाहिए',-इस बातको शास्त्रकार कहते हैं-'पढमं नाणं.' इत्यादि । जिससे स्व-परका बोध होता है उसे ज्ञान कहते हैं। वह ज्ञान प्रथम है,क्योंकि जीवआदि नव पदार्थका ज्ञान होने पर ही संयम अर्थात् षड्जीवनिकायकी दयाका पालन हो सकता है। यहाँ दया शब्दसे કિયા ઉન્મત્ત (ગાંડા) પુરૂષની ક્રિયાની પેઠે અનર્થને ઉત્પન્ન કરે છે. કે જીવ જ્ઞાનરહિત ક્રિયા ન કરે એવા હેતુથી પ્રથમ જ્ઞાન પછી ક્રિયા હેવી જોઈએ.’ मा वातने सूत्रा२ ४३ छे-पढमं नाणं० छत्याल. - જે વડે સ્વપરને બંધ થાય છે. તેને જ્ઞાન કહે છે, એ જ્ઞાન પ્રથમ છે કેમકે જીવ આદિ નવ પદાર્થનું જ્ઞાન થયા પછી જ સંયમ અથત પછવનિકાયની થાન પાલન થઈ શકે છે. અહીં દયા શબ્દથી બધી ક્રિયાઓને ગ્રહણ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४, गा० १२ - जीवादिज्ञानस्योत्तरोत्तरसम्वन्धः ३०३ ૨ 3 ४ ૫ ૬ मूलम् - जो जीवे वि न याणे अजीवे विन याणइ | ts ૧ 13 ૧૨ ૫ १४ जीवाजीवे अयाणंतो, कहं सो नाहीड़ संजमं ॥ १२ ॥ छाया - यो जीवानपि न जानाति, अजीवानपि न जानाति । जीवाजीवानजानन् कथं स ज्ञास्यति संयमम् ॥ १२ ॥ सान्वयार्थ :- जो जो जोवेवि-जीवों को भी न याणेड़ नहीं जानता (और) अजीवेवि = अजीवोंकोभी न याणेह नहीं जानता है, जीवाजीवे = जीत्रों और अजीवोंको अयातो नहीं जानता हुआ सोह संजमं=संयमको कह - कैसे नाहीइ = जानेगा ? अर्थात् नहीं जान सकता ||१२|| • टीका- 'जो जीवेचि' इत्यादि । यः जीवान् = एकेन्द्रियादीन, जीवलक्षणं तु मत्कृतात्तच्चप्रदीपाद्विशेपतोऽगन्तव्यम्, न जानाति न वेत्ति, तथा अजीवान् = जीवविपरीतलक्षणान् संयमपरिपन्थिनः काञ्चनरजतादीन् धर्मास्तिकायादीन् वा न जानाति, इत्थं जीवाजीवान् =जीवान् अजीवांथोभयानपि अजानन् सन् स संयम=माणातिपातविरमणादिलक्षणं सप्तदशविधं कथं केन प्रकारेण ज्ञास्यति= वेत्स्यति, संयमस्य जीवाजीवोभयविषयकज्ञानजन्यत्वात् ||१२|| ननु स्तर्हि संयमं विज्ञातुमर्हती ? त्याह-' जो जीचे वि०' इत्यादि । 'जो जीवे वि०' इत्यादि । जो पुरुष एकेन्द्रिय आदि जीवोंके स्वरूपको नहीं जानता और न जीवसे भिन्न पुद्गल आदि अजीवोंको जानता है । इस प्रकार दोनोंको ही नहीं जानता हुआ वह अज्ञानी प्राणातिपात आदिसे विरमणरूप सत्रह प्रकारके संयमको कैसे जानेगा ? अर्थात् नहीं जान सकेगा, क्योंकि संयम तब ही हो सकता है जब जीव और अजीवका ज्ञान हो जाय ॥ १२ ॥ संयमका ज्ञाता कौन हो सकता है ? सो कहते हैं- 'जो जीवे वि०' इत्यादि । તો નીવે ત્રિ-ઇત્યાદિ. જે પુરૂષ એકેન્દ્રિય આદિ જીવાના સ્વરૂપને જાણતા નથી અને જીવથી ભિન્ન પુદ્ગલ આદિ અવાને નણુતા નથી, એ રીતે બેઉને જાણતા નથી તે અજ્ઞાની પ્રાણાતિપાત આદિથી વિરમણુરૂપ સત્તર પ્રકારના સંયમને કેવી રીતે નણુશે? અર્થાત્ નિહ જાણી શકે, કારણ કે સંયમ ત્યારે જ થઇ શકે છે કે જ્યારે જીવ અને અજીવનું જ્ઞાન થાય છે. (૧૨) संयमना ज्ञाता भष्यथ छे ? ते हवे छे-जो जीवे वि० छत्याहि. Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे अब जानने का उपाय बताते है सावयाथ:-सोचा गुरुमुखसे मुनकर कस्लाणं-कल्याण-दयारूप संयमको जाणइ जानता है, (तथा) सोचा-मुनकर ही पावगं-पाप-हिंसारूप असंयमको जाणइ जानता है, (और) उभयपि दोनोंको भी सोचा-मुनका ही जाणई-जानता है। (अतः) जम्जो सेयंम्भारमाके हितकारी हो तं-उसका समायरे आचरण करे ॥११॥ टीका-श्रुत्वा गुरुमुखादाकर्ण्य श्रुतज्ञानविपयीकृत्येत्यर्थः, कल्याणम्-कल्यो मोक्षः कर्मवद्धसकलोपाधिव्याधियाधाविधुरत्वात , तम् आसमन्तादणति-प्रापय वीति, कल्येन-आरोग्येण आरोग्यकरणेनेत्यर्थः ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणमोक्षमागापदेशद्वारेति भावः, आनयविनीवयति सांसारिकविशालविषयकाननसंलग्नेष्टः वियोगानिष्टसंयोगदावानलज्वालामालावलीढान् माणिन इति कल्याण दयाभधानसंयमस्वरूपं, निपातनाण्णत्वम् , तदुपादेयभूतं जानाति, श्रुत्वा च पापकनरकादिकुगतिपातिनं हेयभूतमसंयमं जानाति, उभयमपि-उपादेयानुपादेयभूतः संयमासंयमलक्षणं द्वयमपि श्रुत्वैव जानाति । निष्कर्पमाह-अत्र यत् श्रेया हित वत् समाचरेत-विध्यात् ॥११॥ कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाली समस्त आधि-व्याधि और बाधासे रहित मोक्षकी प्राप्ति करानेवालेको, अथवा ज्ञान-दर्शन-चारित्र-रूपी आरोग्यस हितवचन अथवा उपदेशसे संसारके विषयरूपी विशाल वनमें धधकती हुई इष्टचियोग-अनिष्टसंयोगरूप दावाग्निकी ज्वालाओंमें जलते हुए जीवोंको शान्ति देनेवालेको कल्याण कहते हैं । इस कल्याण (संयम) का ज्ञान गुरुमुखसे सुनकर ही होता है। पाप अर्थात् नरक आदि कुगतियोंमें गिरानेवाले असंयमका ज्ञान भी सुननेसे ही होता है, तथा इन दोनोंका भी ज्ञान सुननेसे ही होता है। इसलिए इनमेंसे जो श्रेष्ठ (हितकर) हो उसमें प्रवृत्ति करनी चाहिए ॥११॥ કમેધી ઉત્પન્ન થનારી બધી આધિ-વ્યાધિ અને બધાથી રહિત મોક્ષની પ્રાપ્તિ કરાવનારને અથવા જ્ઞાન-દર્શનચારિત્રરૂપી આરોગ્યથી, હિતવચન અથવા ઉપદેશથી સંસારના વિષયરૂપી વિશાળ વનમાં ભભુકતા ઈષ્ટવિયેગ–અનિષ્ટસંયોગરૂપી દાવાચિની જવાળાઓમાં બળતા જીવને શાન્તિ દેનારને કલયાણ કહે છે. આ કલ્યાણ (સંયમ)નું જ્ઞાન ગુરૂમુખથી શ્રવણું કરવાથી જ થાય છે. પાપ અર્થાત નરક આદિ કગતિમાં પાડનારા અસંયમનું જ્ઞાન પણ સાંભળવાથી જ થાય છે તથા એ હમ જ્ઞાન પણ સાંભળવાથી જ થાય છે, તેથી એમાં જે શ્રેષ્ઠ (હિતકર, હાય એમાં પ્રવૃત્તિ કરવી જોઈએ. (૧૧) Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. १५-पुण्यस्वरूपम् . . . " दया भूतेषु वैराग्यं, विधिवद्गुरुपूजनम् । . विशुद्धा शीलत्तिश्च, पुण्यं पुण्यानुवन्ध्यदः ॥१॥ इति. (स्थानाङ्गे१स्था. टीका) हरिभद्रमरिरप्याह "गेहाद् गेहान्तरं कविच्छोभनादधिकं नरः । याति यद्वत् सुधर्मेण, तद्वदेव भवाद्भवम् ॥ १॥” इति । एतच मोक्षार्थिनामप्यादरणीयमेव, पुण्यानुवन्धिपुण्यस्याऽपतनशीलमोक्षसम्पज्जनकत्वात् , तथा चोक्तम् "शुभानुवन्ध्यतः पुण्यं, कर्तव्यं सर्वथा नरैः । ___ यत्मभावादपातिन्यो, जायन्ते सर्वसम्पदः ॥११॥” इति । प्राणियों पर दया रखना, वैराग्य-भाव होना, आगमके अनुसार गुरुओंकी भक्ति करना, शुद्ध शीलका पालन करना, यह पुण्यानुबन्धि पुण्य है । (स्थानाङ्ग०१स्था० टीका) हरिभद्रसूरिने भी कहा है " जैसे कोई मनुष्य एक अच्छे गृहसे दूसरे बहुत ही अच्छे गृहमें जाता है वैसेही पुण्यके प्रभावसे जीव अत्यन्त शुभ गतिको प्राप्त होता है ॥१॥" यह पुण्य मोक्षार्थी पुरुपोंके लिए भी उपादेय है. क्योंकि इससे अविनश्वर-शाश्वत-मोक्षरूपी सम्पत्तिकी उत्पत्ति होती है। कहा भी है....... "मनुष्योंको पुण्यानुवन्धि पुण्य अवश्य करनाचाहिए, जिसके प्रभावसे कभी नष्ट न होनेवाली सब प्रकारकी सम्पदाएँ प्राप्त होती हैं ॥१॥" પ્રાણીઓ ઉપર દયા રાખવી; વૈરાગ્યભાવ થે, આગમને અનુસાર ગુરૂઓની ભકિત કરવી, શુદ્ધ શીલ પાળવું, એ પુણ્યાનુબંધિ પુણ્ય છે (स्थानांग०१स्था०८11) હરિભદ્રસૂરિએ પણ કહ્યું છે કે છે જેમ કે મનુષ્ય એક સારા ગૃહમાંથી બીજા બહુ જ સારા ગહમાં જાય છે. તેમ પુણ્યના પ્રભાવથી જીવ અત્યંત શુભ ગતિને પામે છે.” એ પુણ્ય મેક્ષાથી પુરૂષને માટે પણ ઉપાદેય છે, કારણ કે તેથી અવિનશ્વર-શાશ્વત-મેષરૂપી સંપત્તિની ઉત્પત્તિ થાય છે. કહ્યું છે કે મનુષ્યએ પુણ્યાનુબંધિ પુણ્ય અવશ્ય કરવું જોઈએ. જેના પ્રભાવથી કદાપિ નષ્ટ ન થાય તેવી સર્વ પ્રકારની સંપદાઓ પ્રાપ્ત થાય છે.” Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ श्रीदशवेकालिकसूत्रे वोधिबीज जिनधर्मादिपाप्तिर्मायते, किंबहुना तीर्थरगोत्रमपि पुण्येनैव बध्यते, यो हि पुण्यं सर्वथा देयं मन्यमानस्वत्यजति असौ समुपेक्षितत रिरिवाऽमाप्त परतीरो मध्येसमुद्रं मज्जन्नवसीदति । ननु पुण्यपापक्षयानन्तरमेत्र मोक्षमाप्तिः शास्त्रे श्रूयते इति पापरस्पुण्यमप्यनुपादेयं मोक्षार्थिनामिति चेन्न, द्विविधं हि पुण्यं पुण्यानुबन्धि पापानुबन्धि च, तत्र पुण्यानुबन्धिपुण्यस्य लक्षणमुक्तम्प्राप्ति होती है। अधिक क्या कहा जाय ? तीर्थङ्कर गोत्र भी पुण्यसे ही बंधता है । जो पुण्यको सर्वथा हेय मानता हुआ उसका त्याग करता है वह संसार सागरमें गोते लगाता है। जैसे मध्य समुद्रमें नौकाका त्याग कर देनेवाला पुरुष समुद्रमें डूबता हुआ दुःख पाता है । शङ्का-पुण्य और पाप दोनोंका क्षय होनेके बाद मोक्षकी प्राप्ति होती है, ऐसा शास्त्रों में सुना जाता है, इसलिए पापकी तरह पुण्य भी मोक्षार्थियोंके लिए उपादेय नहीं है । समाधान- ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि पुण्य दो प्रकारका है(१) पुण्यानुबन्धि पुण्य, (२) पापानुबन्धि पुण्य | पुण्यानुबन्धि पुण्यका लक्षण यह है વધારે શું કહેવું ? તીર્થંકર ગોત્ર પણ પુણ્યથી જ ધાય છે. જે પુણ્યને સથા ધ્યેય માનીને તેને ત્યાગ કરે છે, તે સંસાર-સાગરમાં ગોથાં ખાય છે, જેમકે મધ્ય-સમુદ્રમાં નૌકાને ત્યાગ કરી નાંખનાર પુ॰ સમુદ્રમાં ડુમતાં દુ:ખ પામે છે. શંકા-પુણ્ય અને પાપ એ બેઉને ક્ષય થયા પછી મોક્ષની પ્રાપ્તિ થાય છે, એવું શાસ્ત્રોમાં સાંભળવામાં આવે છે, તેથી પાપની પેઠે પુણ્ય પણ મેક્ષાથી આને માટે ઉપાદેય નથી. સમાધાન એમ કહેવું તે ખરાખર નથી, કારણ કે પુણ્ય બે પ્રકારનાં છે, (१) पुण्यानुणंधि पुष्य, (२) पापानुसंधि पुष्य. पुण्यानुणंधि पुष्यनुं सक्षायु धुं छे Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन. ४ गा. १५- पुण्य स्त्ररूपम् ३०९ " शरीरमाहु। नावत्ति, जीवो उच्च नाविओ । संसारो अण्णवो वृत्तो, जं तरंति महेसिणो ॥ १ ॥ " इति । तत्रैव दशमाध्ययने मनुष्यजन्मनो दौर्लभ्यं चोक्तम् "" दुलहे खल माणुसे भवे, चिरकालेणवि सन्त्रपाणिणं " इति । स्थानामुत्रेऽपि तृतीयस्थानके च " तओ ठाणाई देवेवीहेज्जा तं जड़ा - (१) माणुसं भवं, (२) आरिए खेते जम्मं, (३) सुकुलपच्चायाति । " इति । " १ " शरीरमाहुः नौः इति, जीव उच्यते नाविकः । संसारः अर्णवः उक्तः, यं तरन्ति महर्षयः || १ || " २ दुर्लभः खलु मानुष्यो भवः, चिरकालेनापि सर्वप्राणिनाम् । ३ त्रीणि स्थानानि देवा अपीहेरन, तद्यथा - (१) मानुष्यं भवम्, (२) आर्ये क्षेत्रे जन्म, (३) सुकुलमत्यायातिम् । " (मनुष्यका) शरीर, नौका के समान है, जीव, नाविक (खेवटिया) के सदृश है और संसार, समुद्र सरीखा है, इसे महर्षि पार करते हैं । " इसी उत्तराध्ययनके दसवें अध्ययनमें मनुष्य-जन्म की दुर्लभता बताई है- “चिरकाल तक सब प्राणियोंके लिए मनुष्य-भव अत्यन्त दुर्लभ है ।" स्थानाङ्गसूत्रमें तीसरे स्थानक में कहा है "इन तीन चोलोंकी देव भी अभिलापा रखते हैं- (१) मनुष्य-भव, (२) आर्यक्षेत्रमें जन्म, (३) सुकुलकी प्राप्ति " 1 C. (मनुष्यनु) शरीर, नोहा समान छे, छप, नावि (णसासी) समान छे रमने संसार, समुद्र सरो छे, तेने भहर्षि पार ४२ छे. " 81 એજ ઉત્તરાધ્યયનના દસમા અધ્યયનમાં મનુષ્ય જન્મની દુલ ભતા બતાવી છે ‘ચિરકાળ સુધી સ–પ્રાણીઓને માટે મનુષ્યભવ અત્યંત દુર્લભ છે.” સ્થાનાંગ–સૂત્રમાં ત્રીજા સ્થાનકમાં કહ્યું છે કે पशु रामे छे. (१) मनुष्यलव, मा ત્રણ બેલેની અભિલાષા દેવ (२) आार्यक्षेत्रमां नन्स, (3) सुभुजनी आति. " Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - ---- -- -- -- - ARMA- - - - - - - - - - - ३०८ श्रीदकालिको किश्च मनुप्यजन्मनोऽपि मोक्षमाप्तिकारणत्वेन शाले प्रतिपादनात्पुण्यं मोक्षार्थिनामुपादेयमेवेत्यवसीयते, पुण्पमन्तरेण मनुष्यजन्मनो दुर्लभस्वाद, तथा चोकमुत्तराध्ययनमूने तृतीयाध्ययने~-- " चत्तारि' परमंगाणि, दुल्लहाणि य जंतुणो । माणुसत्तं मुई सदा, संजमम्मि य पीरियं ॥१॥” इति । संसारार्णवोत्तरणाय नरशरीरस्य नाकारूपत्वेन प्रतिपादनान्मोक्षकारणस्वं गम्यते, तथा चोत्तराध्ययनसूत्रे प्रयोविंशाध्ययने१ " चत्वारि परमानानि, दुर्लभानि च जन्तोः । मानुपलं शुचिः श्रद्धा, संयमे च वीर्यम् ॥१॥" दूसरी बात यह है कि शास्त्रोंमें मनुष्यभवकी प्राप्ति पुण्यके उदयसे कही गई है, और मनुष्य-भव मोक्ष-प्रासिका कारण माना गया है, इससे भी यही सिद्ध होता है कि पुण्य मुमुक्षुओंके लिए उपादेय है, क्योंकि पुण्यके विना मनुष्य-पर्याय मिलना दुर्लभ है। उत्तराध्ययन सूत्रके तीसरे अध्ययनमें कहा है "चार परमांग जीवके लिए दुर्लभ हैं-(१)मनुप्य भव, (२) शुचिता, (३) सत्य धर्ममें श्रद्धा, (४) संयममें पराक्रम ॥" मनुष्य-शरीर संसाररूपी समुद्रको पार करनेके लिए नौकाके समान है, इसलिए ज्ञात होता है कि मनुष्य-शरीर मोक्षका कारण है। उत्तराध्ययन सूत्रके तेईसवें अध्ययनमें कहा है બીજી વાત એ છે કે-શાસ્ત્રમાં મનુષ્યભવની પ્રાપ્તિ પુથના ઉદયથી કહી છે અને મનુષ્યભવ મોક્ષપ્રાપ્તિનું કારણ માન્યું છે, તેથી પણ એમ સિદ્ધ થાય છે કે પુય મુમુક્ષુઓને માટે ઉપાદેય છે, કારણ કે પુણ્ય વિના મનુષ્ય-પર્યાય મળવો દુર્લભ છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રના ત્રીજા અધ્યયનમાં કહ્યું છે કે ચાર પરમાંગ જીવને માટે દુર્લભ છે–(૧) મનુષ્યભવ, (૨) શુચિતા, (3) सत्ययममा श्रद्धा, (४) संयममा ५ .” । મનુષ્ય શરીર સંસારરૂપી સમુદ્રને પાર કરવા માટે નૌકા-સમાન છે, તેથી સમજાય છે કે મનુષ્ય શરીર મેલનું કારણ છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રના તેવીસ અધ્યયનમાં કહ્યું છે કે Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. १५-पुण्यस्वरूपम् ३१३ एवं तरणितो विप्रयुक्तः पान्यः स्वावलम्बनो भूत्वा सुखेन सत्वरं स्वकीयं धाम समवाप्नोति, तथा भव्यजीव संसारतः परस्मिन् पारे विद्यमानं मोक्षं गन्तुकामोऽपरपारे मनुष्यशरीरे तिष्ठन् विभावयति-"कथमई दुःखबहुलं चतुर्गतिकसंसारं तरिष्यामि?" इति, तदानीं मुनिजनोपदेशश्रवणतो जैनागमाद्वा दयादानादिपुण्यमहिमानमवगत्य तत्र यदि विवेकी पुण्यमाश्रयते तदास मुखेन संसारसागरमुत्तरति । अथवा यथाऽङ्गारकामस्तावत् काष्ठादिपु वर्हि मज्वालयति, अन्येन वा मज्वालितं वनिमुपादत्ते, ततः काष्ठगतानलं जलेन निर्वापयति, वनिविनाशे च सति अङ्गारोत्पत्तिर्भवति, एवं वह्नयुपादानं विनाऽङ्गारो लब्धुमशक्याः यथाऽङ्गारं परले पार पहुंचा देती है, आगे गति करनेमें असमर्थ होनेसे पथिक उसका त्याग करके स्वावलम्बी बन कर अपने घर पहुंच जाता है। इसी प्रकार भव्य जीव संसारसे परले पार पर अर्थात् मोक्षको जाना चाहता है । वह मनुष्यशरीररूपी इस पार पर ठहरा हुआ विचार करता है कि-'मैं दुःखोंसे भरे हुए चतुर्गतिक संसार-सागरको कैसे पार कर सकूँगा?' तब मुनिजनोंके उपदेशसे, अथवा शास्त्रोंसे दया दान आदि पुण्यकी महिमा जान कर पुण्यका आश्रय लेवे तो सुखपूर्वक संसार-सागरके पार पहुँच सकता है । अथवा जैसे कोयले चाहनेवाले पुरुष काष्ठ आदिमें अग्नि जलाता है, अथवा दूसरेके द्वारा जलाई हुई अग्निको ग्रहण करता है, फिर उस अग्निको वुझा देता है । अग्नि बुझ जाने पर कोयला उत्पन्न होता है। इस प्रकार अग्निका आश्रय लिए विना कोयला कदापि नहीं प्राप्त हो सकता। નોકા આગળ ગતિ કરવામાં અસમર્થ હેવાથી પથિક એને ત્યાગ કરીને સ્વાવલંબી બનીને પિતાને ઘેર પહોંચી જાય છે. એ પ્રકારે ભવ્ય જીવ સંસારને પેલેપાર અર્થાત મેક્ષે જવા ઈચ્છતા હોય છે તે મનુષ્ય-શરીરરૂપી આ કિનારા પર ઉભે રહીને વિચાર કરે છે કે “હું દુઃખેથી ભરેલાં ચતુર્ગતિક સંસાર-સાગરને કેવી રીતે પાર કરી શકીશ?” ત્યારે મુનિજનેના ઉપદેશથી, અથવા શાસ્ત્રો દ્વારા દયા દાન આદિ પુણ્યને મહિમા જાને પુણ્યને આશ્રય લે તે સુખપૂર્વક સંસારસાગરને પેલે પાર પહોંચી શકે છે. અથવા જેને કેયલા જોઈતા હોય છે તે પુરૂષ લાકડાને અગ્નિ લગાડે છે. અથવા બીજાઓએ સળગાવેલા અગ્નિને ગ્રહણ કરે છે, અને પછી એ અગ્નિને હલાવી નાખે છે. અગ્નિ હોલવાઈ જતાં કેયલા ઉત્પન્ન થાય છે, એ રીતે અગ્નિને આશ્રય લીધા Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ श्रीदशकालिको यच्छूयते शाखे तत् पारमासाप तरणिपरित्यजनमिव मुक्तिमातिसमयापेक्षम् । यथा समुद्रस्य परस्मिन् पारे विद्यमानं गृहं गन्तुकामः पथिकोऽपरतीरे विभावयति'फथमहं तरिष्यामी 'ति, तदानीं नायं विलोक्य "नारियं परपारप्रापिकेच न तु मदीयगृहमापिका, अलमस्या आश्रयणेन" स्यालोच्य यदि नावं नावलम्बते वदाऽसौ गृहं गन्तुं न शक्नोति। यदि कविनावि संस्थितः समुद्रमध्ये पूर्वोक्तभावनां कुर्वाणो नावं परित्यजेत् तदाऽपि नासौ गृहमुपैति प्रत्युत समुद्रस्य तरलतरकल्लोलावर्तयुक्तागाधनले पतितो निमजति म्रियतेऽपि च । यस्तु पुनर्विवेकी पथिको नावमाश्रयति तयाऽसौ परं पारं माप्य ततः परं चलितुमसमां तरणि परित्यजति, क्षय होनेसे मोक्षकी प्राप्ति होती है" सो इस प्रकार समझना चाहिए किजैसे समुद्रको पार करके फिर नौकाका त्याग किया जाता है। जैसे समुद्रके दूसरे किनारे पर यने हुए घरमें जानेकी इच्छा करनेवाला पथिक सोचता है कि-'मैं समुद्रको कैसे पार कर सकूँगा? उसी समय नौकाको देख कर वह पथिक यदि यह विचार करने लगे कि 'इससे तो मैं परले पार तक ही पहुँच सकूँगा घर तक नहीं पहुँचूंगा' ऐसे विचारस नौकाका अवलम्बन न करे तो कभी घर नहीं पहुंच सकता । यदि नौकामें बैठा हुआ कोई पथिक बीच समुद्र में उक्त विचार करके नौकाका त्याग करदे तो भी घर नहीं पहुँच सकता, बल्कि समुद्रकी चंचल तरंगों और भंवरोंसे युक्त अथाह जलमें गिर पड़ेगा और मृत्युको भी प्राप्त हो जायगा किन्तु जो विवेकी पथिक नौकाका सहारा लेता है उसे नोका પ્રાપ્તિ થાય છે તે એ પ્રકારે સમજવું કે-જેમ સમુદ્રને પાર કરીને પછી નોકાને ત્યાગ કરવામાં આવે છે. જેમાં સમુદ્રના બીજા કિનારા પર બનેલા ઘરમાં જવાની ઈચ્છા કરનારે પથિક વિચારે છે કે “ હું સમુદ્રને કેવી રીતે ઊતરી શકીશ?” એ વખતે નૌકાને જોઈને એ પથિક જે એમ વિચાર કરવા લાગે કે “આથી તે હું પિલા કિનારા સુધી જ પહોંચી શકીશ, ઘર સુધી નહિ પહોંચી શકું." એવા વિચારથી નોકાનું અવલંબન ન કરે તે તે કદાપિ ઘેર પહોંચી શકશે નહિ. જે નૌકામાં બેઠેલે કઈ પથિક સમુદ્રની વચ્ચે એ વિચાર કરીને નીકાને ત્યાગ કરી દે તે પણ ઘેર પહોંચતું નથી. કે સમુદ્રના ચંચળ તરંગે અને ભમરીઓથી યુક્ત અથાગ જળમાં પડી જશે અને મરણ પણ પામશે. પરન્તુ ૨ વિવેદી પથિક નીકાને આશ્રય લે છે તેને નોકા પેલે પાર પહોંચાડી દે છે. Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. १५-जीव-कर्मणोर्वन्धसिद्धिः ३१५ वोपणीटीकातोऽवगन्तव्यः । बन्धम् बध्यते-परतन्त्रीक्रियतेऽनेनाऽऽत्मेति वन्धः= अभीप्सितस्थानमाप्तिगतिमतिरोधलक्षणः, जीवकर्मणोरयोगोलकवह्नयोरिव तादाम्यापन्नत्वं वा, स च द्रव्यतो निगडादिः, भावतो रागद्वेपादिः, यथा द्रव्यवन्धनबद्धो जनोऽभिमतस्थानलाभाभावेन कारागारादावेव विविधवेदनादारुणां दशामासादयन् विपीदति, तथाऽयमात्मा ज्ञानावरणीयादिकर्माष्टकनिगडसन्दानितोऽनन्ताऽक्षय्यमुखसम्पदुल्लसिताऽन्यावाधाऽभिमतशिवस्थानमाप्ति विना जन्मजरामरणादिजन्यानन्यसामान्यकष्टसमष्टिं स्पष्टमनुभवन्निदेव संसारगहरे विपीदति, तम् । । आत्मा जिससे पद्ध-परतन्त्र हो जाती है, वह अर्थात्-अभीष्ट स्थानकी प्राप्ति करानेवाली गतिको रोकनेवाला वन्ध कहलाता है । अथवा जैसे लोहेका गोला और अग्नि एकमेकसे हो जाते हैं, उसी प्रकार जीव और कर्मों में एकताका ज्ञान करानेवाला यन्ध होता है। वेडी आदि द्रव्यवन्ध है और रागडेप आदि भावयन्ध है। जैसे द्रव्यवन्ध-निगड़ आदि-से बंधा हुआ मनुष्य अभिमत स्थान पर न पहुँच सकनेके कारण कारागार आदिमें ही विविध वेदनाओंके द्वारा दारुण दशा प्राप्त करता हुआ दुःख पाता है, वैसे ही ज्ञानावरण आदि आठ कर्म-स्वरूप भाववन्धरूपी वेडीके कारण अनन्त अविनाशी सुखरूपी सम्पत्तिसे शोभित, अव्यायाध और अभीष्ट मोक्ष-स्थानकी प्राप्तिके विना जन्म जरा मरण आदिसे होनेवाले अपरिमित दुःख भोगता हुआ इसी संसाररूपी गड़ेमें पड़ा हुआ कष्ट उठाता है। આતમા જેથી બદ્ધ-પરતંત્ર થઈ જાય છે તે અર્થાત્ અભીષ્ટ સ્થાનની પ્રાપ્તિ કરાવનારી ગતિને રોકનાર બંધ કહેવાય છે. અથવા જેમ લેઢાને ગળે અને અગ્નિ એકમેક બની જાય છે, તેમ જીવ અને કર્મોમાં એકતાનું જ્ઞાન કરાવનાર બંધ હોય છે. બેડી આદિ દ્રવ્ય-બંધ છે અને રાગ-દ્વેષ આદિ ભાવ-બંધ છે. જેમ દ્રવ્ય-બંધ-હેડ કે બેડી આદિથી બંધાયેલ મનુષ્ય ધારેલે સ્થાને ન પહોંચી શકવાને કારણે કારાગાર આદિમાં જ વિવિધ વેદનાઓ દ્વારા દારૂણ દશા પ્રાપ્ત કરતાં દુઃખ પામે છે. તેમ જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ કર્મસ્વરૂપ ભાવ-બંધનરૂપી બેડીને કારણે, અનંત અવિનાશી સુખરૂપી સંપત્તિથી શેભિત, અવ્યાબાધ અને અભણ ક્ષસ્થાનની પ્રાપ્તિ વિના જન્મ-જરા-મરણ આદિથી થતાં અપરિમિત દુઃખ ભેગવતાં જીવ આ સંસારરૂપી ખાડામાં પડીને કણ ભગવે છે. Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + श्रीदशकालिकमूत्रे मति बहिवंसस्य कारणता, पंसस्य च प्रतियोगिसापेरवेर प्रतियोगी बहिरुपादेयो भवति, तद्वत् मोक्षं पति पुग्यध्वंसस्य कारणतायां तत्प्रतियोगितया पुण्यमप्युपादेयमेव । पुण्यमयित्वा शुमपरिणामरूपं पुण्यं ध्यानादिशुद्रपरिणामेन क्षपयित्वा मोक्षो लन्धुं शम्यते । इत्यं चाऽऽगमप्रामाण्येन पुण्यस्य भन्यानव्यता मुस्पष्ट सिध्यति, भपकर्तव्यतयाऽऽगमे मतिपादितत्वाद, शुद्धभावकारणस्वाचेति । पापम् पातयति शुभपरिणामाद्धसयत्यात्मानमिति, यद्वा पाति-रसत्यात्मनोऽशुभपरिणाममिति पाप-पुण्यपरिपन्यि तद , विस्तरस्तु श्रमणसूत्रीय मत्कृतमुनिअर्थात् जैसे कोयलेकी प्राप्तिके लिए अग्निका ध्वंस कारण होता है और ध्वंस प्रतियोगिसापेक्ष होता है इसलिए अग्निके ध्वंसका प्रतियोगी अग्नि भी उपादेय होती है। इसी प्रकार मोक्षका कारण पुण्यकाध्वंस है, अतः ध्वंसका प्रतियोगी पुण्य भी मोक्षके लिए उपादेय है। उसका उपादान किये विना मोक्षकी प्रासि नहीं हो सकती, क्योंकि पहले शुभ परिणाम रूप पुण्यका उपार्जन करके फिर ध्यान आदि शुद्ध परिणामसि उनका क्षय करके मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार आगममें कर्तव्यरूपसे प्रतिपादन करनेसे तथा शुद्ध भावका कारण होनेसे यह भली भाँति सिद्ध हो गया कि पुण्य अवश्य कर्तव्य है जो शुभ परिणामोंसे आत्माको दूर रखता है-शुभ परिणाम नहीं होने देता उसे पाप कहते हैं। वह पुण्यका विरोधी है। વિના કેયલા કદાપિ પ્રાપ્ત થતા નથી અથત જેમ કેયલાની પ્રાપ્તિ માટે અને વંસ કારણ બને છે અને દિવસ પ્રતિગિ–સાપિક્ષ હોય છે, માટે અગ્નિના દિવસને પ્રતિયેગી અગ્નિ પણ ઉપાદેય બને છે. એ જ રીતે મોક્ષનું કારણ પુણ્યને વંસ છે એટલે વંસનું પ્રતિયોગી પુણ્ય પણ મોક્ષને માટે ઉપાદેય છે એનું ઉપાદાન કર્યા વિના મોક્ષની પ્રાપ્તિ થઈ શકતી નથી, કારણ કે પહેલાં શુભ-પરિણામરૂપ પુણ્યનું ઉપાર્જન કરીને પછી ધન આદિ શુદ્ધ પરિણામેથી એને ક્ષય કરીને મોક્ષ પ્રાપ્ત કરી શકાય છે. એ રીતે આગમમાં કર્તવ્યરૂપે પ્રતિપાદન કર્યું હોવાથી તથા શુદ્ધ ભાવનું કારણ હોવાથી એ સારી રીતે સિદ્ધ થઈ ગયું કે પુય અવશ્ય કર્તવ્ય છે આત્માને શુભ પરિણામેથી દૂર રાખે છે-શુભ પરિણામ થવા દેતું નથી તેને પાપ કહે છે તે પુણ્યનું વિરોધી છે. Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन ४ गा. १५-जीव-कर्मणोर्वन्धसिद्धिः ३१७ किच-यथा मृर्तामूर्तयोः घटाकाशयोः संयोगरूपः सम्बन्धः, करक्रिययोर्मूमूिर्तयोः समवायसम्बन्धः परैरङ्गी क्रियते तथाऽऽत्मकर्मणोरमूर्त-मूर्तयोः सम्बन्ध न काचिदनुपपचिर्नाम । अपि च यथा शरीरमिदमात्मसम्बद्धं प्रत्यक्षमुपलभ्यते तया मेत्य भवान्तरगमननिमित्त कार्मणलक्षणं शरीरान्तरमप्यात्मसम्बद्धमिति स्त्री कर्तव्यम् । नन्वपूर्वापरपर्यायाऽदृष्टहेतुकमिदमेव शरीरं तत्रास्ति न कार्मणशरीरमिति चेत्, अदृष्टममूत मूर्त वा ? अमृतत्वे कथं स्थूलमूर्तशरीरेण तत्सम्बन्धः ? भवन्मते ___अथवा जैसे आकाश अमूर्त है और घट मृर्त है तथापि उन दोनोंका संयोग-सम्बन्ध होता है, और जैसे मृतं हाथ तथा हायसे होनेवाली अमृत क्रियाका दूसरोंने समवाय-सम्बन्ध स्वीकार किया है, उसी प्रकार अमूर्त आत्मा और मृतं कर्मका वन्ध भी युक्ति-युक्त ही है। __ अथवा जैसे आत्मासे संबद्ध यह शरीर प्रत्यक्षसे सिद्ध है उसी प्रकार परलोकमें गमन करानेवाला कार्मण शरीर भी आत्मासे संबद्ध है, ऐसा स्वीकार करना चाहिए। यदि ऐसा कहो कि-'अपूर्व' या 'अदृष्ट'के कारण यही शरीर परलोकके लिए गति कराता है तो हम पूछेगे कि वह अदृष्ट अमूर्त है या मृत?, अमूर्त है तो स्थूल मूर्त शरीर के साथ अदृष्टका संयोग कैसे અથવા જેમ આકાશ અમૂર્ત છે અને ઘટ મૂર્ત છે, તથાપિ એ બેઉને સંગ-સંબંધ થાય છે, અને જેમ મૂર્ત હાથ તથા હાથથી થનારી અમૂર્ત ક્રિયાને બીજઓએ સમવાય-સંબંધ સ્વીકાર્યો છે, એ પ્રકારે અમૃત આત્મા અને મૂર્ત કર્મને બંધ પણ યુકિતયુક્ત જ છે. અથવા જેમ આત્માથી સંબદ્ધ આ શરીર પ્રત્યક્ષથી સિદ્ધ છે, તેમ પરલોકમાં ગમન કરાવનારું કાર્ય શરીર પણ આત્માથી સંબદ્ધ છે એ સ્વીકાર કર જોઈએ. - જે એમ કહે કે “ અપૂર્વયા “અદઈને કારણે આ શરીર પરલોકને માટે ગતિ કરાવે છે, તે અમે પૂછીશું કે એ અદઇ અમૂર્ત છે કે મૂર્ત, અમૂર્ત છે તે સ્થૂલ મૃત શરીરની સાથે અને સંગ કેવી રીતે થયો?, તમારે મને Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीदशकालिकसूत्रे नवात्मनोऽभूत्वाकर्मणां च मूलाम तयोः परस्परं सम्बन्धः संभवति, अमूर्तत्वेऽपि सम्बन्धस्वीकारे आकागधर्माधर्मास्तिकायकाले: सहापि सम्बन्धप्रसह इति चेन्न, आत्मनः फर्मणा सह सम्पन्धाभावाऽऽपादने हेतुत्वेनोपन्यस्तममूर्ततं कि सर्वथारूपेण किया कयनिपेण स्वीक्रियते ? नायः, हेलसिद्धेः, सर्वर्यवाऽमूर्तभूतस्य सिद्धात्मनः कर्मसम्बन्धाभावो मयाऽपीप्यत एव । आत्मत्वावच्छिन्नस्य सर्वथैवाऽमूत्वं तु दुर्वचं, संसारिजीवानां कयन्निन्मूर्तत्वसद्भावात् । कश्चित् स्वीक्रियेत चेत्तदा यदपेक्षया मूर्तस्वं तदपेक्षया सम्बन्धोऽसन्दिग्ध एव । मुक्तात्मनव मूर्तवाभावान्न सम्बन्धाभ्युपगमः । प्रश्न-आत्मा अमृत (अरूपी) है और कर्म मूर्त (रूपी) है। इस कारणसे इन दोनोंका परस्पर घन्ध कैसे हो सकता है ?, यदि मृत्तका पन्ध अमूर्तके साथ हो सकता है तो आकाशास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और कालके साथ भी कर्मोंका पन्ध हो जायगा, क्योंकि वे भी अमूत्त है। उत्तर-तुम कहते हो किआत्माअमृत है, सो यह बताओकि आत्मा सर्वथा अमूर्त है या कथेञ्चित् अमूर्त है ?, यदि कहोगे कि आत्मा सर्वथाअमूर्त है तो हेतु असिद्ध हो जायगा, क्योंकि आगममें आत्माका सर्वथा अमृते नहीं माना गया है। अगर 'कथञ्चित् अमूर्त' कहोगे तोकथञ्चित् मूर्त भी होगी,और जिस (संसारावस्थाकी) अपेक्षासे आत्मा मूर्त है उसी अपेक्षासे कर्मोंका बन्ध होता है । मुक्तात्मा मूर्त नहीं है इसलिए यहाँ बंध भी नहीं होता। प्रश्न-मामा मभूत (३५) छ भने म भूत (३५) छे थे रणे એ બેઉને પરસ્પર બંધ કેવી રીતે થઈ શકે ? જે મૂર્તિને કાંધ અમૂર્તના સાથે થઈ શકે તે આકાશસ્તિકાય, ધર્માસ્તિકાય, અધમસ્તિકાય અને કાલની સાથે પણ કર્મોને બંધ થઈ જશે, કારણ કે તે પણ અમૂર્ત છે. ઉત્તર-તમે કહે છે કે આત્મા અમૂર્ત છે, તે બતાવો કે આત્મા સર્વથા અમૂર્ત છે કે કથંચિત્ અમૂત છે? જે કહેશે કે આત્મા સર્વથા અમૂર્ત છે તે હિતુ અસિદ્ધ થઈ જશે, કારણ કે આગમમાં આત્માને સર્વથા અમૂર્ત નથી. અગર કથાચ અમૂત” કહેશે તે કથંચિત મૂર્તિ પણ થશે, અને જે (સંસારાવસ્થાની) અપેક્ષાએ આત્મા મૂર્ત છે તે અપેક્ષાએ કમેને બંધ થાય છે. મુક્તાત્મા મૂર્ત નથી તેથી તેને બંધ પણ થતું નથી. Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - अध्ययन ४ गा. १५-बन्धस्वरूपम् मारोहुँ प्रभवेदिति चेन्न, जीवकर्मणोः खनी सुवर्णोपलयोरिव संयोगस्याऽनादिकालिकत्वात् । ___ नच 'जीवकर्मणोः सम्बन्धस्याऽनादित्वे मोक्षो नैव संभवति अनादेरन्ताभावादाकाशात्मनोरिवे'-ति वाच्यम् , अनाघनन्तत्वयोरविनाभावाऽभावाद, अनादेरपि घटादिमागभावस्य सान्तलोपलम्भाव, अनादेरपि धीजाङ्करादिसन्तानस्य दाहा. दिकारणवशात्सान्ततादर्शनाच, इत्यलमतिविस्तरेण । पन्धस्वरूपमुच्यते उत्तर-जैसे खानमें रहे हुए सुवर्ण तथा पापाणका सम्बन्ध अनादिकालीन है, वैसेही जीव और कर्मका भी सम्बन्ध अनादिकालीन है। ___ कोई-कोई ऐसा कहते हैं कि जिसकी आदि नहीं होती उसका अन्त भी नहीं होता है, जैसे जीव और आकाशका सम्बन्ध कभी नष्ट नहीं होता, इस नियमके अनुसार यदि जीव-कर्मका सम्बन्ध अनादिकालीन है तो कभी उसका भी अन्त न होगा, फिर किसीको मोक्ष मिल ही नहीं सकेगा। उनका यह कथन दूषित है, क्योंकि घट आदिका प्रागू अभाव यद्यपि अनादिकालीन है फिर भी घट उत्पन्न होते ही उसका अन्त हो जाता है। वीज तथा वृक्षकी परम्परा भी अनादिकालीन है तथापि यदि धीज जल जाय तो उस परम्पराका अभाव हो जाता है, इसलिए आत्मकर्मसंयोग अनादि होनेपर भी सान्त हो सकता है । बन्धका स्वरूप कहते हैं ઉત્તર-જેમ ખણમાં રહેલા સુવર્ણ તથા પાષાણને સંબંધ અનાદિ કાળને છે. તેમ જીવ અને કર્મને પણ સંબંધ અનાદિકાળને છે. કઈ—કે એમ કહે છે કે જેની આદિ નથી તેને અંત પણ હેતે નથી, જેમકે જીવ અને આકાશને સંબંધ કદાપિ નષ્ટ થતું નથી. એ નિયમાનુસાર જે જીવ–કમને સંબંધ અનાદિકાળને છે તે કદાપિ તેને અંત થશે નહિ, પછી કેઈને મેક્ષ મળી શકશે નહિ. એનું એ કથન દૂષિત છે, કારણ કે ઘટ આદિને પ્રાર્ અભાવ છે કે અનાદિકાળને છે, તે પણ ઘટ ઉત્પન્ન થતાં જ તેને અંત થઈ જાય છે. બીજ તથા વૃક્ષની પરંપરા પણ અનાદિકાળની છે તથાપિ જે બીજ બળી જાય તે એ પરંપરાને અભાવ થઈ જાય છે. તેથી આત્મ-કર્મ-સંગ અનાદિ હોવા છતાં પણ સાન થઈ શકે છે. બંધને સ્વરૂપ કહે છે Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ श्रीदशनैकालिकसूत्रे तदसम्भवात् । सम्भवे चाऽऽत्मकर्मसंयोगेन किमपराद्वम् ?, अथ मूर्तस्वमङ्गीक्रियते तदाऽन्धसर्पविलप्रवेशन्यायेन मूर्तयोः सम्बन्धः स्वीकृत एव ॥ ननु कर्मसंयोगादात्मनो मूर्त्तत्वं संपयते, तस्मिँत्र सति बन्धसम्बन्धो युज्यते, कभवन्धात्पूर्वे तु आत्मनो मूर्तस्वाभावात् कथमित्र बन्धः संभावनासरणिहुआ ? क्योंकि तुम्हारे मतसे ऐसा होना असंभव है । विना अदृष्टके सम्पन्धके स्थूल शरीरमें चेष्टा नहीं हो सकती। संभव मानो तो आत्मा और कर्म संयोग क्या अपराध किया है ? । अर्थात् जब अमूर्त अदृष्ट और मूर्त्त शरीरका सम्बन्ध हो सकता है तो आत्मा और कर्मका भी संयोग हो सकता है । अगर अदृष्ट (भाग्य) को मूर्त्त मानो तो अमूर्त आत्माके साथ उसका सम्बन्ध स्वीकार करनेसे यह मान ही लिया कि अमूर्त और मूर्त्तका सम्बन्ध होता है । जैसे अन्धा सर्प इधर उधर भटककर फिर बिलमें प्रवेश करता है वैसेही तुमने कल्पनासे इधर उधर दौड़कर अन्तमें अमूर्त्तका मूर्त्तके साथ संबन्ध स्वीकार करही लिया । प्रश्न - कर्मका संयोग होनेपर आत्मा मूर्त्त होती है और मूर्त्त होजाने पर बन्ध हो सकता है किन्तु कर्मबन्ध होनेसे पहले तो आत्मा मूर्त नहीं थी- अमूर्त्त थी, फिर बन्धकी संभावना कैसे हो सकती है ?। એમ થવું અસંભવત છે, અષ્ટના સબંધ વિના સ્થૂલ શરીરમાં ચેષ્ટા થઈ શકતી નથી. સંભવ માને તે આત્મા અને કર્મોના સથેાગે થે અપરાધ કર્યાં છે ? અર્થાત જો અમૂર્ત અદૃષ્ટ અને મૂર્તી શરીરને સઅધ થઇ શકે છે તે આત્મા અને ના પણ સાગ થઈ શકે છે. અગર અદૃષ્ટ (ભાગ્ય)ને મૂ માને તે અમૂર્ત આત્માની સાથે એને સખ ધ સ્વીકારવાથી એમ માની લીધું કે અમૃત અને મૂર્તીના સંધ થાય છે, જેમ આંધળા સર્પ અહીં-તહીં ભટકીને પછી ઘરમાં પ્રવેશ કરે છે, તેમ તમે કલ્પનાથી અહીં-તહીં દાંડીને છેવટે અમૂર્તીના મૃત્યુની સાથે સંબંધ સ્વીકાર કરી લીધા. પ્રશ્ન-ક ને સયેાગ થયા પછી આત્મા ભૂત થાય છે અને મૂર્ત થયા પછી ખૂંધ થઈ શકે છે, પરન્તુ કર્માંધ થયા પહેલાં તેા આત્મા ભૂતન હાતે, અમૂર્તી હતા, પછી બધની સંભાવના કેવી રીતે હેાઇ શકે છે ? Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. १५-बन्धस्वरूपम् ३२१ दानादिप्रतिवादकत्वम् (८), तद्रूपो बन्धः प्रकृतिवन्धः १ ।। स्थितिः जघन्यादिमेदेन कर्मणामात्मना सहावस्थानं, तल्लक्षणो बन्धः स्थितिवन्धः २। अनुभागो रसः कर्मणां फलदातृत्वशक्तितारतम्यं, तत्स्वरूपो बन्धोऽनुभागबन्धः ३ । ___ प्रदेश कर्मदलसञ्चयस्वरूपः अनन्तानन्तकर्मपदेशानामियत्तारूपेण जीवप्रदेशेषु सम्बन्धस्तल्लक्षणो बन्धः प्रदेशवन्धः ४ । उक्तश्च " स्वभावः प्रकृतिः प्रोक्तः, स्थितिः कालावधारणम् । __अनुभागो रसो ज्ञेयः, प्रदेशो दलसञ्चयः ॥१॥” इति । भोग उपभोग और वीर्यमें विघ्न डालना अन्तराय कर्मका स्वभाव है ८॥ इसीको प्रकृतिवन्ध कहते हैं। (२) स्थितिवन्ध-पंधे हुए कर्म आत्माके साथ जघन्य कितने काल तक रहेंगे और उत्कृष्ट कितने काल तक रहेंगे, इस कालकी मर्यादाको स्थितियन्ध कहते हैं। (३) अनुभागबन्ध-फल देनेवाली कोंकी शक्तिके तारतम्यको अनुभागवन्ध कहते हैं। (४) प्रदेशयन्ध-कितने कर्म आत्माके साथ बन्धको प्राप्त हुए हैं, इस प्रकार कर्मप्रदेशोंकी परिगणनाको प्रदेशवन्ध कहते हैं। कहा भी है "स्वभावको प्रकृतिवन्ध, कालकी मर्यादाको स्थितियन्ध, रसको अनुभागवन्ध और कर्मपुद्गलोंके समूहको प्रदेशबन्ध कहते हैं ॥१॥" એ ગેરકર્મને સ્વભાવ છે ૭. તથા દાન લાભ લેગ ઉપગ અને વીર્યમાં વિન નાંખવું એ અંતરાય-કર્મને સ્વભાવ છે ૮. એને પ્રકૃતિ-બંધ કહે છે. (૨) સ્થિતિ અંધ-બંધાયેલાં કર્મ આત્માની સાથે જઘન્ય કેટલા કાળસુધી રહેશે અને ઉત્કૃષ્ટ કેટલા કાળસુધી રહેશે એ કાળની મર્યાદાને સ્થિતિબંધ કહે છે. (3) मनुभाग-11-२० मापनारी नी शतिना तातभ्यने मनुभागपंच- छ. (४) प्रदेश-ध-3281 भी मामानी साथे गधने पास थयां छ, से પ્રકારે કર્મપ્રદેશની પરિગણુનાને પ્રદેશબંધ કહે છે. કહ્યું છે કે સ્વભાવને પ્રકૃતિબંધ, કાળની મર્યાદાને સ્થિતિબંધ, રસને અનુભાગ-બંધ અને કર્મ-પુદગલના સમૂહને પ્રદેશબંધ કહે છે.” (૧) Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० श्रीratकालिकसूत्रे - चन्धतुर्विधः-मकृति स्थित्यनुभाग-मदेशभेदाद, तंत्र- प्रकृतिः स्वमात्रः आत्मगृहीतकर्मपुहलानां ततच्छतिरूपतया परिणमनलक्षणः, यथा - निम्बस्य विक्तत्वम्, गुडस्य मधुरत्वमित्यादि, तथा ज्ञानावरणीयस्य जीवादिपदार्थानत्रबोधकत्वम् (१), दर्शनावरणीयस्य जीवादीनामनालोचकत्वम् (२), वेदनीयस्याऽन्याबाधगुणबाधकत्वम् (३), मोहनीयस्य तत्त्वारुचित्वमत्रतिस्वं च (४), आयुपो भवाधायकत्वम् मोक्षस्य साधनन्तस्थित्याच्छादकत्वमित्यर्थः (५), नाम्नोऽमूर्तत्वगुणनिरोधकत्वम् (६), गोत्रस्यागुरुलघुगुणघातकत्वम् (७), अन्तरायस्य च बन्ध चार प्रकारका है- (१) प्रकृतिवन्ध, (२) स्थितियन्ध, (३) अनुभागवन्ध और (४) प्रदेशबन्ध | -- (१) प्रकृतिबन्ध - प्रकृति स्वभावको कहते हैं । अर्थात् आत्माके द्वारा ग्रहण किये हुए कर्मोंमें अमुक अमुक प्रकारकी शक्तिका आजाना । जैसेनीमका स्वभाव कटुकता, गुड़का स्वभाव माधुर्य, इत्यादि । इसी प्रकार ज्ञानावरण कर्मका स्वभाव है-आत्माके ज्ञानको आच्छादित करना १ । दर्शनावरणका स्वभाव है- दर्शनको रोकनार । अव्यावाध गुणको प्रगट न होने देना वेदनीय कर्मका ३ । जीवादि तत्त्वोंमें रुचि न होने देना तथा चारित्रको रोकना मोहनीय कर्मका ४। किसी शरीरमें रोक रखना आयुकर्मका ५ । अमूर्त्तत्व गुणको प्रगट न होने देना नामकर्मका ६ । अगुरु-लघुत्व गुणका नाश कर देना गोत्रकर्मका ७ । तथा दान लाभ गंध यार प्रहारनो छे. (१) अमृति-गंध, (२) स्थिति-गंध, (3) अनुभागसंघ ने (४) प्रदेश-गंध. "" : (१) अति-गंध-प्रधृति स्वलावने हे छे, अर्थात् आत्मा व अणु - યલાં કર્મોમાં અમુક-અમુક પ્રકારની શક્તિ આવી જવી તે. જેમ લીંબડાને स्वभाव उटुता (४डवाश ) छे, गोजना स्वभाव भधुरता ( भिठाश) छे, छत्याहि, એ રીતે જ્ઞાનાવરણીય કર્મનેા સ્વભાવ આત્માના જ્ઞાનને આચ્છાદિત કરવાને (ઢાંકવાના) છે ૧. દશનાવરણુને સ્વભાવ દર્શનને શકવાના છે ૨. અવ્યાબાધ ગુણુને પ્રકટ ન થવા દેવા એ વેદનીયકમ ના સ્વભાવ છે ૩. જીવાદિ તત્ત્વોમાં રૂચિ ન થવા દેવી તથા ચારિત્રને શક્યું એ મેહનીય-કર્મીને સ્વભાવ છે ૪, કૈાઈ શરીરમાં આત્માને શૈકી શખવે એ આયુ-કમને સ્વભાવ છે ૫. અમૂત્ત્વગુણને પ્રકટ થવા ન દેવે એ નામકર્મના સ્વભાવ છે ૬. અગુરૂ-લવ ગુરુને નાથુ કરવા you of Vesp * Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा० १५ - चन्धस्वरूपम् ३२३ पमा, कस्यचिञ्चान्तर्मुहूर्त्त परिच्छिन्ना, एवं विभिन्नकर्मणां नियतकालावस्थानं स्थितिबन्धः (२) । यथा कस्यचिन्मोदकस्यानुभागो (रसो) ऽतिमधुरः स्वल्पमधुरो वा, कस्यचिदतिकटुकः स्वल्पकटुको वा, कस्यचिच्च नातिमधुरो नाप्यतिकटुको भवति, द्विगुणीकरणादिना च स एव मन्द मन्दतरत्वादिव्यपदेशं च लभते तथा कर्मणामपि "शुभाशुभादिरूपेण तीव्र - तीव्रतर - तीव्रतम मन्द मन्दतर- मन्दतमत्वादिभेदभिन्नो वन्धोऽनुभागबन्धो रसबन्धव्यपदेश्यः (३) । 1 १ शुभकर्मणामनुभागो (रसो) द्राक्षेक्षुक्षीरमाक्षीकवदतिमधुरो भवति, यदनुभकिसीकी सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपमकी होती है, किसी कर्मकी अन्तमुहूर्त्त मात्र की होती है, इस प्रकार विभिन्न कर्मोंका अमुक समय तक आत्मा के साथ स्थित रहना स्थितिबन्ध कहलाता है । (३) जैसे किसी मोदकका स्वाद (रस) बहुत मीठा होता है, किसी मोदकका कम मीठा होता है, किसीका स्वाद बहुत कडुआ होता है, किसीका कम कडुआ होता है, किसीका स्वाद न अधिक मीठा होता है, न अधिक कडुआ होता है, उसे ही द्विगुण आदि करदेने से वही मन्द मन्दतर आदि कहलाने लगता है । वैसे ही कर्मोंका रस शुभ अशुभ रूपसे तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम, मन्द, मन्दतर और मन्दतम आदि भेदों से विविध प्रकारका होता है । उसे ही अनुभागबन्ध या रसबन्ध कहते हैं। १ शुभकर्मीका अनुभाग (रस) दाख, सांठा (गन्ना), दूध या मधुके समान હાય છે, કાઇ કર્મની સ્થિતિ માત્ર અંતર્મુહૂર્તની હાય છે. એ પ્રકારે વિભિન્ન કર્મીનું અમુક સમય સુધી આત્માની સાથે સ્થિત રહેવું એ સ્થિતિ ધ કહેવાય છે, (3) भो भनी स्वाह ( रस ) गहु भीठो होय छे !! भोहन આ મીઠા હાય છે, કોઇ મેાદકના સ્વાદ અહુ કડવે હાય છે, કોઈને ઓછે કડવા હોય છે, કોઈને સ્વાદ ન વધુ મીંઠો કે વધુ કડવા હોય છે, તેને દ્વિગુણુ (બેવડા ) કરવાથી તે મંદમ ંદતર આદિ કહેવાવા લાગે છે, એજ રીતે કર્મોના रस शुभ अशुभ ३५थी तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम, मह, महतर, महतभ महि ભેદેએ કરીને વિવિધ પ્રકારના થાય છે. એને જ અનુભાગમધ ચા રસમધ उडे छे. ૧ શુભ કર્મોના અનુભાગ (રસ) દ્રાક્ષ, રોરડી, દૂધ ચા મધના જેનેા અંતિમધુર હોય છે. Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - D श्रीदर्शकालिन एतेषां स्वरूपं च मुखाययोधाय मोदकदृष्टान्तेन प्रदर्यते यथा फस्यचिदोपधमोदकस्य मकतिर्वातहारिका, कस्यचिरिपतहारिका, कर चित्कफहारिणी, फस्यचिद पुद्धिनाशिनी, तथा फस्यचित्कर्मणः प्रकृतिज्ञानावर कारिणी, फस्यचिद्दर्शनावरणविधायिनीत्येवमादिविमिनशक्तिमतां कर्मणां बन प्रकृतिवन्धः (१)। __ यथा कस्यचिन्मोदकस्य स्थितिः सप्ताहोरात्रव्यापिनी, कस्यचिस्पक्षव्यापिनी फस्यचनेकादिकमासं यावद स्थिविस्तया कस्यचित्कर्मणविंगत्कोटीकोटीसागरापमा स्थितिः, फस्यचिविंशतिकोटीकोटीसागरोपमा, फस्यचन सप्ततिकोटीकोटीसागरी सरलतासे समझनेके लिए मोदकका दृष्टान्त देकर चारों बन्धाका स्वरूप दिखलाते है (१) जैसे किसी औपध-मोदककी प्रतिवातको हरनेवाली होती है, किसीकी पित्तको हरनेवाली होती है, किसीकी कफको हरनेवाला होती है और किसी मोदककी प्रकृति वुद्धिको नष्ट करनेवाली होती है। इसी प्रकार किसी कर्मकी प्रकृति ज्ञानका आवरण करनेवाली होता है और किसीकी दर्शनका आवरण करनेवाली होती है। इस प्रकार भिन्न भिन्न शक्तिवाले कर्मोका बन्ध होना प्रकृतिवन्ध है। .. (२) जैसे किसी मोदककी स्थिति एक सप्ताहकी होती है, किसा मोदककी स्थिति एक पक्ष (पखवाड़े)की होती है, किसी मोदककी स्थिात एक मासकी होती है, वैसे ही किसी कर्मकी स्थिति तीस कोडाकाड़ा सागरोपमकी होती है, किसीको वीस कोडाकोडीसागरोपमकी होती है, સરળતાથી સમજવાને માટે મોદકનું દષ્ટાંત આપીને ચારે બધાનું સ્વરૂપ બતાવે છે– (૧) જેમ કેઈ ઔષધ–મોદકની પ્રકૃતિ વાયુને હરવાવાળી છે. કેઈના શકિત પિત્તને હરવાવાળી છે, કેઈની કફને હરવાવાળી છે, અને કોઈ મેદની પ્રકૃતિ બુદ્ધિને નષ્ટ કરવાવાળી હોય છે. એ રીતે કઈ કર્મની પ્રકૃતિ જ્ઞાનનું આવરણ કરનારી હોય છે, કેઈની દર્શનનું આવરણ કરનારી હોય છે, એ રીત ભિન્નભિન્ન શક્તિવાળાં કર્મોને બંધ થવો એ પ્રકૃતિબંધ કહેવાય છે. (૨) જેમ કેઈ મોદકની સ્થિતિ એક સપ્તાહની હોય છે, કેઈ મોદકની સ્થિતિ એક પક્ષ (૫ખવાડિયું)ની હોય છે, કોઈ એદકની સ્થિતિ એક માસની હોય છે. તેમજ કઈ કર્મની રિથતિ ત્રીસ કડાકોડી સાગરોપમની હોય છે, કેઇની વીસ કોડકડી સાગરોપમની હોય છે, કેઈની સત્તર કડાકડી સાગરોપમની Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. १५-मोक्षस्वरूपम् ३२५ ___ यथा कस्यचिन्मोदकस्य प्रदेश कणिकादिदलसञ्चयः परिमाणेन द्विकर्पमितः, कस्यचित्कपत्रयमितः, एवं कस्मिंश्चित् कर्मदले परिमाणतोऽधिकसंख्यकाः, कस्मिश्चिन्यूनसंख्यकाः, इत्येवं न्यूनाधिक्यरूपेण कर्मवर्गणाभिरात्मनोऽभिसम्बन्धः प्रदेशवन्धः (४)। मोक्षम् मोक्षणं मोक्षः, स च द्रव्यभावभेदाद्विविधः, तत्र द्रव्यतो निगडादितः, भावतो ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधकर्मपाशतः पृथग्भवनमात्मनः, प्रकृते च भावमोक्षस्य आत्मनः पुनरप्रादुर्भाव्यशेपकर्मक्षयादनन्तज्ञानशाश्वतावस्थिति-कृतकृत्यत्वाऽव्यावाधसुखस्वरूपस्य ग्रहणम् । . (४) जैसे किसी मोदकमें आटे आदिके प्रदेश, परिमाणमें दो तोला होता है, किसीका तीन तोला होता है । इसी प्रकार किसी कर्मदलमें अधिक संख्यावाले प्रदेश हैं, किसी कर्मदलमें कम संख्यावाले प्रदेश होते हैं, अतः न्यूनाधिक रूपसे कर्मवर्गणाओंके साथ आत्माका सम्बन्ध होना प्रदेशवन्ध है। ____ छूटनेको मोक्ष कहते हैं, मोक्ष भी दो प्रकारका है-(१) द्रव्यमोक्ष और (२) भावमोक्ष । वेड़ी आदिसे छूटना द्रव्यमोक्ष है और ज्ञानावरण आदि आठ कर्मरूपी पाशसे आत्माका मुक्त हो जाना भावमोक्ष है। यहां समस्त कर्मोके आत्यन्तिक अभावसे उत्पन्न होनेवाले अनन्त ज्ञान, शाश्वत स्थिति, कृत-कृत्यता, अव्यायाध सुखस्वरूप भाव-मोक्षका ग्रहण किया गया है। (૪) જેમ કે મોદકમાં આટા આદિને પ્રદેશ પરિમાણમાં બે તોલા હોય છે, કેઈમાં ત્રણ તલા હોય છે; એજ રીતે કેઈ કર્મદળમાં અધિક સંખ્યાવાળા પ્રદેશ છે, કેઈ કમદળમાં ઓછી સંખ્યાવાળા પ્રદેશ હોય છે, એમ જૂનાધિક રૂપે કર્મવર્ગણાઓની સાથે આત્માને સંબંધ થે એ પ્રદેશબંધ છે. છૂટવાને મોક્ષ કહે છે. મોક્ષના પણ બે પ્રકાર છે. (૧) દ્રવ્ય-મક્ષ અને (૨) ભાવમોક્ષ, બેડી વગેરેથી છૂટવું એ દ્રવ્યમેક્ષ છે અને જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ કર્મરૂપી પાશથી આત્માનું મુક્ત થઈ જવું તે ભાવમોક્ષ છે. અહીં સર્વ કર્મોના આત્યંતિક અભાવથી ઉત્પન્ન થનારાં અનંત જ્ઞાન, શાશ્વત-સ્થિતિ, કૃતકૃત્યતા, અવ્યાબાધ–સુખ-સ્વરૂપ ભાવમોક્ષને ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂર श्रीवत्रकारिता - वेन जीवः सान्द्रानन्दसन्दोदतुन्दिलान्तःकरणो जायते । अचमकर्मणां रसस्तु निम किराततिकादिवदतितरां तिक्ती भवति, यदनुमवेन जीवोऽनिर्वचनीय व्याकुलीमा भनते, वीप्रतीग्रतरत्यादियोधनार्य च दृष्टान्तः महार्यते-इवनिम्बयोन्यतरस्य चतुःशेटकपरिमितो रसः 'स्वाभाविकरस' इत्युच्यते, बहिनापद्वारोस्कालिदो यदा शेटफचतुष्टयस्थाने शेटकश्तियमात्रोऽवशिप्येत उदासी 'वीत्र' इत्युच्यते, पुनर कालनेन शेटकद्वितयमात्रोऽवशिष्येत तदा तीनवर' इत्यभिधीयते, पुनरप्युरका लनेन शेटकैकमात्रेऽवशिष्टे 'तीवतम' इति कथ्यते । ___इक्षु-निम्बयोरेव शेटकैकमात्रो रसः 'स्वामाविकरसः' इत्युच्यते, एकशेटकजलमेलनेन 'मन्दरस' इति, द्विशेटकजलसंयोजनेन 'मन्दवरो रस' इति, शेटक त्रितयपरिमितजलसम्बन्धेन 'मन्दवमो रस' इति व्यपदेशं लमते) अतिमधुर होता है, इसके उपभोगसे आत्मा अत्यन्त आनन्द उत्पन्न होता है। अशुभ कर्मीका फल नीम चिरायता आदिके समान अत्यन्त तिक्त होता है, इसका अनुभव करनेसे जीव अतिशय व्याकुलता माप्त करता है। तीन तीव्रतर आदि समझानेके लिये उदाहरण देते है-इक्षु या नीममेंसे किसीका चार सेर रस 'स्वाभाविक रस' कहलाता है, यदि अग्निमें उकालने पर तीन सेर रह जाय तो वह तीन कहलाता है, फिर उकालने पर दो सेर वच जाय तो तीव्रतर कहलाता है, यदि फिर उकालने पर सिर्फ एक सेर वाकी रह जाय ती वह तीव्रतम कहलाता है । इक्षु और निम्बका एक सेर रस स्वभाविक रस, उसमें एक सेर जल मिला दिया जाय तो मन्द, दो सेर मिलानेसे मन्दवर, तीन सेर मिलानेसे मन्दतम रस कहलाता है । - - - - - - - - - - એના ઉપભેગથી આત્મામાં અત્યંત આનંદ ઉત્પન્ન થાય છે. અશુભ કર્મોનું ફળ લીંબડો, કયિld આદિની પેઠે અત્યંત તિકત હોય છે, એનો અનુભવ કરવાથી જીવ અતિશય વ્યાકુળતા પ્રાપ્ત કરે ૪ તીવ્ર તીવ્રતર અાદિ સમાવવાને ઉદાહરણ આપે છે-શેરડી યા લીંબડામાંથી કાઢે કાઈને ચાર પર છે વાભાવિક રસ” કહેવાય છે. જો તેને અગ્નિ પર ઉકાળવાથી પણ શેર રહે તો તે તીવ્ર કહેવાય છે, કરી ઉકાળવાથી બે રોર રહે તે તે તીવતર કહેવાય છે, અને તેને ફરીથી ઉકાળતા માત્ર શેર બાકી રહે તે તે તીવ્રતમ કહેવાય છે. શેરી અને લીંબડાના એક શેર સ્વાભાવિક રસમાં તે એક શેર પાણી મેળવવામાં આવે તો મં બે શેર પાણી મેળવતાં મદતર અને ત્રણ કેર પાણી મેળવવાથી મંતિમ રસ કહેવાય છે, Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. १५-मोक्षस्वरूपम् ३२७ तस्मादात्मनः सकलकर्ममलविरहिता सद्भावस्वरूपा काचिदवस्याऽवश्यम्भाविनी । नच 'दीपस्याऽभ्रस्य वा निरन्वयविनाशदर्शनादात्मनः स (निरन्वयविनाश:) कथं ने-'ति शङ्कनीयम्, तयोरपि निरन्वयविनाशानभ्युपगमात् , यथा कर्पूरस्य 'पिपरमेष्ट' इति ख्यातपदार्थस्य वा वातेन हियमागस्य परिणमनसौम्यादिन्द्रियगोचरत्वापायेऽपि न सर्वथाऽभावः किन्त्ववस्थान्तरेण परिणतिमात्रम् , तथैव भदीपपर्यायाऽऽपन्नाः पुद्गलास्तमस्त्वेन परिणमन्ति, एवमभ्रस्यापि विशीयमाणम्य पुद्गलपुनः परिणाममूक्ष्मत्वेन दृष्टिपथममाप्तोऽपि न पुद्गलत्वेनाऽसद्भूतः। एवमेवानहीं होता। जब सत् पदार्थका अभाव नहीं हो सकतातो आत्माकी भी समस्त कर्मोंसे रहित विद्यमान अवस्था अवश्य होनी चाहिये। - यौद्ध-जय दीपककी ज्यालाका तथा मेघका निरन्वय नाश देखा जाता है तो आत्माका निरन्वय (सर्वथा) नाश क्यों नहीं हो सकता। जैन-यह कहना सल नहीं है कि दीपककी ज्वाला और मेघ का निरन्वय नाश होजाता है। वह सूक्ष्मरूपसे परिणमन होनेसे यद्यपि इन्द्रियगोचर नहीं होता तथापि उसका सर्वथा अभाव नहीं होजाता, वह दूसरी सूक्ष्म अवस्था को प्राप्त होजाता है। इसी तरह प्रदीप अवस्था चाले पुद्गल अन्धकाररूपमें परिणत होजाते हैं। मेघ जय छिन्न-भिन्न हो जाता है तो सूक्ष्मरूपमें परिणत होजाने से इन्द्रियोंद्वारा गृहीत नहीं हो सकता तथापि पुद्गल के रूपमें विद्यमान रहता ही है। ऐसे ही समस्त થતું નથી, જે સત પદાર્થને અભાવ થઈ શકતું નથી તે આત્માની પણ સર્વ કર્મોથી રહિત વિદામાન અવસ્થા અવશ્ય હેવી જોઈએ. બૌદ્ધ– દીપકની જાળને તથા મેઘને નિરન્વય નાશ જોવામાં આવે છે; તો આત્માને નિરન્વય (સર્વથા) નાશ કેમ ન થઈ શકે? જેન–એમ કહેવું સત્ય નથી કે દીપકની વાળા અને મેઘને નિરન્વય નાશ થઈ જાય છે. સૂમરૂપથી પરિણમન થવાથી જે કે તે ઇન્દ્રિયગેચર થતાં નથી, તથાપિ એને સર્વથા અભાવ થઈ જતું નથી, તે બીજી સૂમ અવસ્થાને પામે છે. એ રીતે પ્રદીપ અવસ્થાવાળાં પુગલ અંધકારરૂપમાં પરિણત થઈ જાય છે. મેઘ જ્યારે છિન્ન-ભિન્ન થઈ જાય છે ત્યારે તે સૂમરૂપમાં પરિણુત થઈ જવાથી ઇંદ્રિકાશ ગ્રહીત થઈ શકતો નથી, તેપણ યુગલના રૂપમાં વિદ્યમાન Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - श्रीदशकालिकमरे अन योद्धा "दीपनिर्वाणयदात्मनो निर्वाणं मोक्षः" यथोक्तम्"दीपो यथा नितिमभ्युपेतो, नेयानि गच्छति नान्तरितम् । दिशं न पाश्चिद्विदिशं न कान्नित् , स्नेहक्षयात्केवलमेति शान्तिम् ॥१॥ जीवस्तथा नितिमभ्युपेतो, नेत्रापनि गच्छति नान्तरितम् । दिशं न काश्चिद्विदिशं न कान्निद, शक्षयात्केवलमेति शान्तिम् ।।२।।" इत्याहुस्तच्छापतापस्थितिपदेन निराकृतम् , सतोऽत्यन्तविनाशाभावाद, चौद्धमतावलम्बी मानते हैं कि-"जैसे दीपक बुझ जाता है उसी प्रकार आत्माका अभाव हो जाना मोक्ष है"कहाभी है "जैसे दीपककी ज्वाला जय नष्ट हो जाती है, तय न भूमिकी ओर जाती है न आकाशकी ओर जाती है, न किसी दिशामें जाती है, न विदिशामें जाती है। किन्तु स्नेह (तेल) का अभाव हो जानेसे शान्त हो जाती है ॥ १॥ इसी प्रकार मुक्त जीवन भूमिकी ओर जाता है, न आकाशकी ओर जाता है, न किसी दिशामें जाता है, न किसी विदिशामें जाता है, हां, दुःखोंका क्षय होजानेसे शान्त होजाता है, अर्थात् मुक्त अवस्थाम जीचका अभाव होजाता है ॥२॥" ऐसा माननेवाले बौद्रोंका खण्डन मोक्षके लक्षणमें आये हुए 'शाश्वत अवस्थिति' पदसे किया गया है, क्योंकि सत् पदार्थका कभी अभाव બૌદ્ધમતાવલંબીઓ માને છે કે-જેમ દીપક બુઝાઈ જાય છે તેમ આત્માને અભાવ થઈ જવું એ મેક્ષ છે.” કહ્યું છે કે જેમ દીપકની વાળા જ્યારે નષ્ટ થઈ જાય છે, ત્યારે નથી તે ભૂમિની તરફ જતી, નથી આકાશની તરફ જતી, નથી કઈ દિશામાં જતી, નથી વિદિશામાં જતી, પરંતુ નેહ (તેલ) ને અભાવ થવાથી શાન્ત થઈ જાય છે. (૧) એ રીતે મુક્ત જીવ નથી ભૂમિનું તરફ જ, નથી આકાશની તરફ જતા, નથી કઈ દિશામાં જતે, નથી કે વિદિશામાં જ, હા, દુબેને ક્ષય થઈ જવાથી શાન્ત થઈ જાય છે, અર્થાત્ મુકત અવસ્થામાં જીવને અભાવ થઈ 14 छ." (१) એમ માનનારા ખોદ્ધોનું ખંડન મોક્ષના લક્ષણમાં આવેલા શાશ્વત અવસ્થિતિ” શબ્દ વડે કરવામાં આવ્યું છે, કારણ કે સત્ પદાર્થને કદાપિ અભાવ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. १५-मोक्षस्वरूपम् मोक्षः। भिन्नाश्वेत्तर्हि वहिशैत्ययोरिव तयोर्गुणगुणिभावोऽनुपपन्नः समवायस्याऽसिद्धत्वात् , अत एव न बुद्धयादीनामात्मगुणत्वम् । अस्तु वा अयौक्तिकोऽपि गुणगुणिभावस्तथापि ज्ञानमुखाद्यभावादात्मानं को जडीकर्तुमुद्यच्छेदिच्छेदपि ? ईदृशाद्भवदभिमतान्मोक्षात्संसारावस्यैव सम्यक्तराऽस्माकमस्तु, यस्मिन् सत्यपि क्लेशे कादाचित्कं स्वल्पमपि मुखं लभ्यत एव । ' लोकेऽपि भवदभिमतमोक्षमाहात्म्यमुपहस्यते, यथानाश होजायगा तो मोक्ष किस का होगा ? । अगर कहो कि ये गुण आत्मासे भिन्न हैं तो उनका आत्मा के साथ गुण-गुणीका सम्बन्ध कैसे हुआ?, भिन्न होनेके कारण जैसे अग्नि और शीतलता में गुण-गुणि सम्बन्ध नहीं होता वैसे ही आत्मा और बुद्धि आदि का भी सम्बन्ध नहीं हो सकता । यदि समवाय सम्बन्ध से गुण-गुणिभाव मान लोगे तो बुद्धि आदि गुणों का नाश नहीं हो सकता,क्योंकि समवाय सम्बन्ध को तुमने नित्य माना है, अतः बुद्धि आदि आत्मा के गुण ही सिद्ध नहीं होते । यद्यपि यह सम्बन्ध युक्ति से तो सिद्ध नहीं होता फिर भी मान लोगे तो जबकि मोक्षमें ज्ञान और सुख आदिका अभाव हो जाता है तो कौन बुद्धिमान् अपनी आत्मा को इन गुणों से रहित जड़ के समान यनाने का प्रयत्न करेगा? तुम्हारे इस मोक्षसे तो संसार ही भला 'जिसमें दुःखोंके साथ-साथ कभी-कभी थोड़ा बहुत सुख भी मिल जाता है । लोकमें भी तुम्हारे माने हुए मोक्ष की हँसी उड़ाई जाती है,सुनोપછી મેક્ષ કેને થશે ? અગર જે કહે કે એ ગુણ આત્માથી ભિન્ન છે તે આત્માની સાથે એને ગુણ-ગુણને સંબંધ કેવી રીતે થયું ? ભિન્ન હોવાને કારણે જેમ અગ્નિ અને શીતલતામાં ગુણ-ગુણું સંબંધ નથી હિતે, તેવી રીતે આત્મા અને બુદ્ધિ આદિને પણ સંબંધ નથી હોઈ શકતે. જે સમવાય સંબંધથી ગુણ-ગુણભાવ માની લેશે તે બુદ્ધિ આદિ ગુણેને નાશ નથી થઈ શકત, કારણ કે સમવાય સંબંધને તમે નિત્ય માન્ય છે. એથી બુદ્ધિ આદિ અત્માના ગુણ જ સિદ્ધ થતા નથી. જે કે એ સંબંધ યુક્તિથી તે સિદ્ધ નથી થતા, તોપણ માની લેશે તે જે મોક્ષમાં જ્ઞાન અને સુખ અદિને અભાવ થઈ જાય છે તે કયે બુદ્ધિમાન પોતાના આત્માને એ ગુણાથી રહિત જડની સમાન બનાવવા પ્રયત્ન કરશે ? તમારા એવા મોક્ષ કરતાં તે સંસાર જ સારો કે જેમાં દુઃખની સાથે સાથે કે ઈ-મેઈવાર ડું-ઘણું સુખ પણ મળી જાય છે લેકમાં પણ તમારા માનેલા મોક્ષની હાંસી ઉડાવવામાં આવે છે. સાભળે– ગુણ જસિવાય સબંધને બુદ્ધિ છે. તે એક તેવી રીતે Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - --- - - ' • श्रीदशालिकम ऽऽत्माऽपि कृत्स्नकर्मकलापविममुका शुद्धः सिद्धी युद्धोऽनन्तगुणसमृद्धी मोलावस्था यामपि वियत एयेति । . अत्र 'अनन्तशाने'-विविशेपणेन नेयायिकवैशेषिकाभिमतं मतं निरस्तम् । तयाच. "पुद्धि-मुख-दुःखेसा-द्वेष प्रयत्न-धर्मा-धर्म-संस्कारस्वरूपाणां नवानामास्मविशेषणगुणानामत्यन्त विच्छेदो मोसः" इति । अत्रोच्यते-बुद्धादयो गुणा आत्मनो मिन्ना अमिन्ना बा ?, अमिन्नावेतद्विनाशे आस्मनोऽपि विनाशोऽवश्यम्भावी तत्स्वरूपत्वात् , ओप्ण्यविनाशे वहिविनाशवद , तया च तदानी कस्य कोसे रहित, शुद्ध, सिद्ध, बुद्ध और अनन्त गुणों से समृद्ध आत्मा मोक्ष-अवस्थामें भी विद्यमान रहती है। 'अनन्तज्ञान' विशेषण से नैयायिक-वैशेषिक मत का निराकरण किया गया है। • उनकी मान्यता है कि-"धुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार, इन आत्मा के नौ विशेष गुणोंका अत्यन्त विनाश हो जाना मोक्ष है।" __ यहाँ पूछना यह है कि-धुद्धि आदि गुण आत्मा से भिन्न हैं या अभिन्न ?, यदि अभिन्न हैं तो गुणोंका नाश होनेपर आत्माका भी नाश हो जायगा, क्योंकि आत्मा और गुण मिन्न नहीं हैं-एक ही है, जैस उष्णताका नाश होनेपर अग्निका नाश होजाता है। जब आत्मा का તે રહે જ છે. એવી જ રીતે સર્વ કર્મોથી રહિત, શુદ્ધ, સિદ્ધ, બુદ્ધ અને અનંત ગુણેથી સમૃદ્ધ આત્મા મેલ અવસ્થામાં પણ વિદ્યમાન રહે છે. “અનન્ત જ્ઞાન” વિશેષણથી નાયિક-વૈશેષિક મતનું નિરાકરણ કરવામાં भाव्यु छे. તેની માન્યતા એવી છે કે “બુદ્ધિ, સુખ, દુઃખ, ઈરછા, દ્વેષ, પ્રયત્ન ધર્મ, અધર્મ અને સંસ્કાર, એ આત્માના નવ વિશેષ ગુણેને અત્યંત વિનાશ થઈ જ એ મેક્ષ છે.” અહીં પૂછવાનું એ છે કે-બુદ્ધિ આદિ ગુણ આમાથી ભિન્ન છે કે અભિન્ન જિ અભિન્ન છે તે ગુણેને નાશ થયા બાદ આત્માને પણ નાશ થઈ જશે, કારણ કે આત્મા અને ગુણ ભિન્ન નથી–એક જ છે, જેમકે ઉષ્ણુતાને નાશ થવાથી અગ્નિને પણ નાશ થઈ જાય છે, જે આમને નાશ થઈ જશે તે Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -ammam अध्ययन ४ गा. १५-मोक्षस्वरूपम् 'आत्मनः' इतिपदेन प्रत्यादिष्टम् । किञ्च-तन्मते प्रकृति-पुरुपयोः संयोगोऽपि न घटते कुतो मोक्षचर्चा ?, तथाहि-नित्या प्रकृतिः प्रवृत्तिस्वभावा तदितरस्वभारा वा? तयोरायः सावधः पक्षः, तत्र तत्महत्तेरुपरत्यभावेन मोक्षासम्भवाद, उपरत्यभ्युपगमे च प्रकृतेरनित्यत्वमसङ्गः । द्वितीयोऽपि पक्षो न क्षोदक्षमः मवृत्तेरेवाऽसम्भवतः कथमिव भवसम्भवः', भवाभावे कस्य मोक्षः ? एवं तन्मते मोक्षस्यैवायोक्तिकत्वात्कथं तल्लक्षणस्य समीचीनत्वं सिध्येत् ? । हो जाता है, इसी अवस्था को मोक्ष कहते हैं।" ऐसी सांख्यमतानुयायिओंकी मान्यता है । 'आत्मनः' पदसे उसका निराकरण किया गया है। सांख्यमतमें प्रकृति और पुरुपका संयोग ही सिद्ध नहीं होता तय मोक्ष की चर्चा ही क्या करना? सो ही आगे दिखलाते हैं कि प्रकृति का स्वभाव प्रवृत्ति करनेका है या नहीं?, पहला पक्ष दूषित है,क्योंकि प्रकृतिका स्वभाव यदि सर्वदा प्रवृत्ति करने का है तो उस प्रवृत्तिकी निवृत्ति नहीं होसकती और इसी कारणसे कभी मोक्ष भी नहीं होगा। दूसरा पक्ष भी विचार करनेसे बाधित होजाता है। जय प्रकृति प्रवृत्ति ही नहीं करेगी तो संसार कैसे होगा?, और जय संसार (कर्मसहित अवस्था) ही नहीं तो मोक्ष किससे होगा?, अर्थात् किसी प्रकार मोक्ष ही नहीं बनता। जब मोक्ष नहीं धनता तो उसके लक्षण की निर्दोपता भी सिद्ध नहीं होसकती। થઈ જાય છે, એ અવસ્થાને મોક્ષ કહે છે.” की सस्यमतानुयायामानी मान्यता छ. आत्मनः शथी मेनु निश४२९५ કરવામાં આવ્યું છે. સાંખ્યમતમાં પ્રકૃતિ અને પુરૂષને સંગ જ સિદ્ધ નથી થતો તે મોક્ષની ચર્ચા જ શું કરવી? તેજ આગળ બતાવવામાં આવે છે કે પ્રકૃતિને સ્વભાવ પ્રવૃત્તિ કરવાનો છે કે નહિ? પહેલે પક્ષ દૃપિત છે, કારણ કે પ્રકૃતિને સ્વભાવ જે સર્વદા પ્રવૃત્તિ કરવાનો છે તે એ પ્રવૃત્તિની નિવૃત્તિ થઈ શકતી નથી, અને તે કારણે કદાપિ મોક્ષ પણ થશે નહિ. બીજે પક્ષ પણ વિચાર કરવાથી બાધિત થઈ જાય છે. જે પ્રકૃતિ પ્રવૃત્તિ જ નહિ કરે તે સંસાર કેવી રીતે થશે? અને જે સંસાર (કસહિત અવસ્થા) જ નથી તો મોક્ષ શાનાથી થશે ? અર્થાત્ કઈ પ્રકારે મોક્ષ જ નથી બનતું, જે મોક્ષ નથી બનતું તે તેના લક્ષણની નિર્દોષતા પણ સિદ્ધ થઈ શકે નહિ. Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ३३० श्रीरशवकालिको "घरं चन्दाबने रम्ये, शृगाल नमाम्यहम् । न तुबशेषिकी मुक्ति, प्रार्थयामि कदाचन ॥ १॥" इति । यतु "अनन्तमुखरूपो मोक्षः" इति तदप्यसमीचीनम् , तथाहि-तदनन्तमुख मुक्तात्मनो ज्ञानगोचरं भवति न या?, आधे पक्षे मानाऽऽनन्स्यप्रसा, तदन्तरेणाऽनन्तमुखसंवेदनाऽसम्भवात् । द्वितीये च मुखस्वमावतामामसा, सा. तसंवेदनस्यैव सुखत्वात अत एवाऽनन्तज्ञानविरदितमुखस्त्रमावस्वं मोक्षस्य न सिध्यति । "प्रकृतावुपरतायां पुरुषस्य स्वस्वरूपेणाऽवस्थानं मोक्षः" इति हि सास्याः , तद् १ उपरतायां-निरत्तायाम् । "मैं मनोहर धृन्दावन में शृगाल हो जाना पसंद करता हूँ, किन्तु वैशेपिकका मोक्ष नहीं चाहता ॥१॥" जो कहते हैं कि-"मोक्ष अनन्तसुखस्वरूप है" अर्थात् मोक्षम सुख ही अवशिष्ट रह जाता है और कुछ नहीं रहता।उनका यह मानना समीचीन नहीं है। यह अनन्त सुख मुक्तात्मा के ज्ञानका विषय ह या नहीं ? पहला पक्ष स्वीकार करो तो अनन्त सुखको जाननेके लिए अनन्त ज्ञान भी चाहिए । अनन्त ज्ञानके विना अनन्त सुखका बाध नहीं होसकता। दूसरा पक्ष अंगीकार करो तो सुखस्वभावता सिद्ध नहीं होसकती, क्योंकि, सातारूप संवेदनको ही सुख कहते हैं। जब संवेदन ही नहीं तो सुख हो ही नहीं सकता है. इसलिए "अनन्त ज्ञानसे रहित सुखस्वभाववाला मोक्ष" नहीं मानना चाहिए। . __"प्रकृति जब उपरत होजाती है तब पुरुष अपने स्वरूपमें स्थित " भनाइ२ पृन्हावनमा आण (शियाण) थ/ पार्नु प ४३ छ, પરંતુ વૈશેષિકને મેક્ષ નથી પસદ કરતે.” (૧) જેઓ કહે છે કે મેક્ષ અનંત સુખસ્વરૂપ છેઅર્થાત મેક્ષમાં સુખ જ અવશિષ્ટ રહી જાય છે. બીજું કશું નથી રહેતું, તેઓનું એ માનવું પણ સમીચીન નથી એ અનંત સુખ યુદ્ધાત્માના જ્ઞાનને વિષય છે કે નહિ ? પહેલે પક્ષ સ્વીકારે તો અનંત સુખને જાણવાને માટે અનંત જ્ઞાન પણ જોઈએ અનંત જ્ઞાન વિના અનંત સુખને બંધ થઈ શકતું નથી. બીજો પક્ષ સ્વીકાર તે સખસ્વભાવતા સિદ્ધ થઈ શકતી નથી. કારણ કે સાતારૂપે સંવદેનને જે સુખ કહે છે જે સવેદન જ હેતું નથી તે મુખ થઈ જ શકતું નથી. તેથી “અનત જ્ઞાનથી રહિત સુખસ્વભાવવાળે મેસ” નહિ માનવે જોઈએ. બે પ્રકૃતિ જ્યારે ઉપરત થઈ જાય છે ત્યારે પુરૂષ પિતાના સ્વરૂપમાં સ્થિત Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - mmmmmmmmmmmmm __ अध्ययन ४ गा. १५-मोक्षस्वरूपम् 'आत्मनः' इतिपदेन प्रत्यादिष्टम् । किञ्च-तन्मते प्रकृति-पुरुपयोः संयोगोऽपि न घटते कुतो मोक्षचर्चा ?, तथाहि-नित्या प्रकृतिः प्रवृत्तिस्वभावा तदितरस्वभावा वा? तयोरायः सावधः पक्षः, तत्र तत्महत्तेरुपरत्यभावेन मोक्षासम्भवाद, उपरत्यभ्युपगमे च प्रकृतेरनित्यत्वप्रसङ्गः। द्वितीयोऽपि पक्षो न क्षोदक्षमः प्रवृत्तेरेवाऽसम्भवतः कथमिव भवसम्भवः ?, भवाभावे कस्य मोक्षः ? एवं तन्मते मोक्षस्यैवायोक्तिकत्वात्कथं तल्लक्षणस्य समीचीनत्वं सिध्येत् । हो जाता है, इसी अवस्था को मोक्ष कहते हैं।" - ऐसी सांख्यमतानुयायिओंकी मान्यता है । 'आत्मनः' पदसे उसका निराकरण किया गया है। सांख्यमतमें प्रकृति और पुरुपका संयोग ही सिद्ध नहीं होता तब मोक्ष की चर्चा ही क्या करना? सो ही आगे दिखलाते हैं कि प्रकृति का स्वभाव प्रवृत्ति करनेका है या नहीं ?, पहला पक्ष पित है,क्योंकि प्रकृतिका स्वभाव यदि सर्वदा प्रवृत्ति करने का है तो उस प्रवृत्तिकी निवृत्ति नहीं होसकती और इसी कारणसे कभी मोक्ष भी नहीं होगा। दूसरा पक्ष भी विचार करनेसे याधित होजाता है । जब प्रकृति प्रवृत्ति ही नहीं करेगी तो संसार कैसे होगा?, और जय संसार (कर्मसहित अवस्था) ही नहीं तो मोक्ष किससे होगा?, अर्थात् किसी प्रकार मोक्ष ही नहीं बनता। जब मोक्ष नहीं बनता तो उसके लक्षण की निर्दोपता भी सिद्ध नहीं होसकती। થઈ જાય છે, એ અવસ્થાને મિક્ષ કહે છે.” की सांभ्यमतानुयायी-मानी मान्यता छ. आत्मनः २०४थी मेनु निस४२६ કરવામાં આવ્યું છે. સાંખ્યમતમાં પ્રકૃતિ અને પુરૂષો સંગ જ સિદ્ધ નથી થતું તે મોક્ષની ચર્ચા જ શું કરવી? તેજ આગળ બતાવવામાં આવે છે કે–પ્રકૃતિને સ્વભાવ પ્રવૃત્તિ કરવાને છે કે નહિ? પહેલે પક્ષ દૂષિત છે, કારણ કે પ્રકૃતિને સ્વભાવ જે સર્વદા પ્રવૃત્તિ કરવાનો છે તે એ પ્રવૃત્તિની નિવૃત્તિ થઈ શકતી નથી, અને તે કારણે કદાપિ મેક્ષ પણ થશે નહિ. બીજો પક્ષ પણ વિચાર કરવાથી બધિત થઈ જાય છે. જે પ્રકૃતિ પ્રવૃત્તિ જ નહિ કરે તે સંસાર કેવી રીતે થશે? અને જે સંસાર (કર્મસહિત અવસ્થા) જ નથી તે મેક્ષ શાનાથી થશે ? અર્થાત્ કઈ પ્રકારે મોક્ષ જ નથી બનતું, જે મેક્ષ નથી બનતું તે તેના લક્ષણની નિર્દેવતા પણ સિદ્ધ થઈ શકે નહિ. Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवेकालिकसूत्रे russitant (सम्पदायविशेषाः) मुक्तेः सकाशादात्मनः पुनरागमनमामनन्ति, तथाहि ३३२ the " ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य कर्तारः परमं पदम् । गवाssगच्छन्ति भूयोऽपि भवं वीर्यनिकारतः ॥ १ ॥” इवि, तत् ' पुनरादुर्भावतये' - ति पदेनाsपाकृतम्, यतो मोक्षः कर्मनाशे सति सम्पद्यते, कर्म च कर्मणैव जन्यते, ततथ मुक्तावस्थायां कर्माभावात्कुतः पुनः कर्मोत्पत्तिः ?, तदभावे च कुतस्तरां संसारागमनम् ? संसारस्य कर्महेतुकत्वात्, न कारणमन्तरेण कार्योत्पत्तिरिति सर्वसंमतत्वाचेति । आजीवक सम्प्रदाय वाले ऐसा कहते हैं कि- "आत्मा मोक्ष से वापस लौट आती है । कहाभी है "धर्मतीर्थ की स्थापना करने वाले ज्ञानी परम पदको प्राप्त होकर जब तीर्थका अनादर होने लगता है तब मोक्षसे फिर संसारमें आ जाते है ॥१॥" इनका यह मत 'पुनरप्रादुर्भावतया' इस विशेषण से खण्डित हो गया है। क्योंकि कर्मोके नाश होने पर ही मोक्ष होता है, और कर्म कर्मोंसे ही उत्पन्न होते हैं । मोक्षमें कर्मोंका अभाव हो जाने से कर्मोंकी उत्पत्ति नहीं होती, इसलिए संसार में आगमन संभव नहीं है। कारणके विना कार्यकी उत्पत्ति नहीं होसकती, ऐसा सब सिद्धान्तवाले स्वीकार करते हैं । આવક સ...પ્રદાયવાળા એમ કહે છે કે આત્મા માથી પાળે! ફરી भावे छे छे -- “ધર્માંતી ની સ્થાપના કરનારા જ્ઞાનીએ પરમ પદને પ્રાપ્ત થઈને જ્યારે તીર્થના અનાદર થવા લાગે છે ત્યારે મેક્ષમાંથી પાછા સંસારમાં આવી लय छे. " (2) सेना से भत 'पुनरमादुर्भावतया' मे विशेषष्यथी पंडित थाहा गयो छे. કારણ કે કર્મોના નાશ થવાથી જ મેક્ષ થાય છે. અને કર્માંથી જ ઉત્પન્ન થાય છે. મેક્ષમાં કર્માંના અભાવ થઇ જવાથી કર્માંની ઉત્પત્તિ થતી નથી, તેથી સંસારમાં ફરી આવવાના સંભવ નથી, કારણ વિના કાર્યની ઉત્પત્તિ થઈ શકી નથી, એવું સર્વ સિદ્ધાન્તવાળાએ સ્વીકારે છે. Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३३ अध्ययन ४ गा. १५-मोक्षस्वरूपम् "आत्मनः सततमृर्ध्वगतिर्मुक्ति"-रिति मण्डलीमतानुयायिनः, तच्च प्रमत्तमलपनप्रायम् , लोकोकाशानन्तरं धर्मास्तिकायस्यास्तित्वाभावात् । धर्मास्तिकायस्य जीवपुद्गलानां गतिनिमित्त प्रमाणसिद्धं, तथाहि-गमनोन्मुखानां जीवपुद्गलानां गतिर्वाहानिमित्तसापेक्षा गतित्वात बाह्यनिमित्तमत्र धर्मास्तिकायोऽन्यस्यासम्भवात् , लोकाकाशाऽनन्तरं तदभावान्न तस्मादूर्ध्व गविसंभवः । अत एवाऽगईणाईमाईतमतामिमतमुक्तिस्वरूपमेवेति । ननु नरामरतिर्यडनारकपर्यायस्वरूप एव संसारस्तेभ्यः पृथग्भावेन न कस्य मण्डलीमत के माननेवाले कहते हैं कि-"आत्मा सदा ऊपर चली जाती है कहीं ठहरती नहीं है" यह कथन उन्मत्त पुरुपके प्रलापके सदृश है, क्योंकि लोकाकाशके याद धर्मास्तिकायका सद्भाव नहीं है। यह यात प्रमाण से सिद्ध है कि धर्मास्तिकायके विनाजीव और पुद्गलोंकी गति विना वाद्य कारण के नहीं होसकती, क्योंकि-'बह गति है, जो जो गति होती है वह बाह्य निमित्तकी अपेक्षा रखती है। गति में बाह्य निमित्त धर्मास्तिकाय ही होसकता, क्योंकि अन्य किसीमें ऐसी शक्ति नहीं है । यह धर्मास्तिकाय लोकाकाशसे आगे नहीं है, इसलिए लोकाकाशसे आगे आत्मा गमन भी नहीं कर सकनी । अत एव सिद्ध हुआ कि 'आहतमत (जिनमत) में माना हुआ मोक्षका लक्षण ही संर्वथा निर्दोप है। .....प्रश्न-मनुष्य, देव, तिर्यश्च और नारकी-पर्यायस्वरूप ही संसार है મંડલીમતના માનનારાઓ કહે છે કે “આત્મા સદા ઉપર ચાલ્યો જાય છે, કયાંય ભતે–રહેતું નથી.” આ કથન ઉન્મત્ત પુરૂષના પ્રલાપ જેવું છે, કારણ કે કાકાશની પછી ધર્માસ્તિકાયને સભાવ જ નથી. એ વાત પ્રમાણથી સિદ્ધ થએલી છે કે ધર્માસ્તિકાય વિના જીવ અને પુદ્ગલેની ગતિ બાહા કારણે વિના થઈ શકતી નથી, કારણ કે “એ ગતિ છે, જે જે ગતિ હોય છે તે તે બાહ્ય નિમિત્તની અપેક્ષા રાખે છે. ગતિમાં બાહ્ય નિમિત્ત ધર્માસ્તિકાય જ હોઈ શકે છે. કારણ કે અન્ય કોઈમાં. એવી શક્તિ નથી. એ ધર્માસ્તિકાય લોકાકાશથી આગળ નથી, તેથી કાકાશથી આગળ આત્મા ગમન કરી શકતું નથી. એટલે સિદ્ધ થયું કે “અહંતામત (જેનામત)માં માનેલું ભક્ષનું લક્ષણ જ सर्वथा निषि छ." પ્રશ્ન-મનુષ્ય, દેવ, તિર્યંચ અને નારકી–પર્યાય સ્વરૂપ જ સંસાર છે. એ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ श्रीदशवेकालिक नापि श्रदानक्रियामात्रेण मानाभावात् ( ६ ) । पुत्रमेत्र मोक्षोऽप्यन्यतमाभावे न संभवत्यपि तु समुदितरत्नत्रयादेवेति । तं मोक्षं च जानीयात् त्रिधादिस्पर्थः ||१५|| और पापानको पृथक नहीं कर सकते, क्योंकि वहां किया नहीं है। (५) ज्ञान और क्रियामात्र से भी पक नहीं कर सकते, क्योंकि श्रद्धान नहीं है। (६) श्रद्वान और क्रिया मात्रसे भी पृथक नहीं कर सकते, क्योंकि ज्ञानका अभाव है। इसी प्रकार मोक्ष भी समुदित तीनोंसे प्राप्त होता है, किसी एकके अभाव में नहीं होसकता । जिस प्रकार वन में आग लगने पर, वहाँ रहे हुए अन्धा नेत्रोंके अभावसे, पशु चरणों के अभाव से और अश्रद्धालु अभिकी दाहकता-शक्ति के प्रति श्रद्धा के अभाव से उस वन से नहीं निकल सकते हैं उसी प्रकार सम्यग्ज्ञानरूपी नेत्रों से रहित होनेके कारण अन्ध जीव, सम्यक् चारित्र से रहित होने के कारण पशु जीव और सम्यग्दर्शन के अभाव से अश्रद्धालु जीव भी जन्म-जरा-मरण रूपी भीषण दुःखोंकी प्रचण्ड अग्नि से जलते हुए इस संसार रूपी बन से नहीं निकल सकते हैं। जैसे- अन्ध, पशु, और अश्रद्धालु वनाग्नि में जल मरते हैं उसी प्रकार ये भी संसाराग्निमें जल मरते हैं । परन्तु जिनके नेत्र और दोनों चरण अक्षत हैं, और अग्निकी दाहकता - शक्ति के प्रति भी श्रद्धा है वे जिस प्रकार दावाग्नि-प्रज्वलित arat पार कर जाते हैं उसी प्रकार जो जीव सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र કરી શકાતાં નથી કારણ કે ત્યાં ક્રિયા નથી. (૫) જ્ઞાન અને ક્રિયા માત્રથી પશુ અલગ કરી શકાતાં નથી, કારણ કે શ્રદ્ધાન નથી. (૬) શ્રદ્ધાન અને ક્રિયાથી પણ અલગ કરી શકાતાં નથી કારણ કે જ્ઞાનના અભાવ છે. એ રીતે મક્ષ પણ સમુદિત ત્રણેથી પ્રાપ્ત થાય છે, કોઇ એકના અભાવ હાય તા મેાક્ષ પ્રાપ્ત થતા નથી. જેમ વનમાં આગ લાગવાથી, ત્યાં રહેલ આંધળા નેત્ર ન હાવાથી, લંગડા પગા ન હેાવાથી, અને અશ્રદ્ધાળુ અગ્નિની દાહકતા—શકિત પ્રત્યે શ્રદ્ધા ન હાવાથી તે વનમાંથી નીકળી શકતા નથી તેમ સમ્યજ્ઞાનરૂપી નેÀ ન હાવાથી આંધળા જીવ, સમ્યકૂચારિત્ર ન હોવાથી લંગડા જીવ, અને સમ્યગ્દર્શન ન હેાવાથી અશ્રદ્ધાળુ જીવ પણ જન્મ-જા-મરણુરૂપી ભીષણ દુ:ખાના પ્રચંડ અગ્નિથી પ્રજવલિત આ સંસારરૂપી વનમાંથી નીકળી શકતે! નથી, જેમ આંધળા, લંગળા અને અશ્રદ્ધાળુ વનાગ્નિમાં બળી મરે છેતેમ આ જીવે પણ સંસારાગ્નિમાં બળી મરે છે. પરન્તુ જેના નેત્ર અને એક ચરણા સાબૂત છે, અને અગ્નિની દાહકતા-શકિત પ્રત્યે પણ શ્રદ્ધા છે તે જેમ દાવાગ્નિ પ્રજવલિત વનને પાર કરી જાય છે તેજ પ્રકારે જે જીવે સમ્યજ્ઞાન, સમ્યારિત્ર અને સમ્યગ્દર્શનથી Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. १६-पुण्यादिज्ञाने भोगनिर्वेदः मृलम्-जया पुण्णं च पावं च, बंधं मोक्खं च जाणइ । तया निविंदए भोए, जे दिवे जे य माणुसे ॥१६॥ छाया-यदा पुण्यं च पापं च, वन्धं मोक्षं च जानाति ।। तदा निर्विन्ते भोगान् , ये दिव्या ये च मानुपाः ॥१६॥ सान्वयार्थ:-जया-जब पुण्णं च पावं च-पुण्य और पापको, च-तथा बंधं मुक्खंबंध और मोक्षको जाणइ-जानता है, तया-नव जे दिव्य-जो देव सम्बन्धी य-और जे माणुसे जो मनुष्यसम्बन्धी (भोग हैं, उन) भोए-भोगोंको निव्बिदए-तत्चसे विचारता है, अर्थात् निस्सार समझने लगता है ॥१६॥ टीका-'जया पुण्ग'-मित्यादि। यदा पूर्वप्रतिपादितलक्षणलक्षितं पुण्यादिकंजानाति तदा ये दिव्या-दिवि-स्वर्गे भवाः देवसम्बन्धिनः, च-तथा ये मानुपाः मनुष्यसम्बन्धिनः (भोगाः सन्ति तान् सर्वानपि) भोगान् भुज्यन्ते निर्विश्यन्ते तत्तदिन्द्रियनोइन्द्रियानुकूलतयोपयुज्यन्त इति भोगा:-शब्दादिविपयास्तान् निर्विन्ते तत्वतो विचारयति-"भोगिभोगोपमाः खल्विमे भोगा अशुचयोऽशुचिसम्भवाः शटन-पतन-विध्वंसनस्वभावा अशाश्वताश्च, को नाम विवेकी एवंविधानिमान् भोगा और सम्यग्दर्शन से युक्त हैं वे भी जन्म-जरा-मरणरूप भीपण दुःखोंके प्रचण्ड-अग्नि से जलते हुए इस संसाररूपी वनको पार कर जाते हैं। इससे सिद्ध है कि रत्नत्रयमें से किसी एककी भी कमी होनेसे सिद्धि नहीं प्राप्त होसकती। उस प्रकारके मोक्षको जाने ॥१५॥ .. 'जया पुण्णं.' इत्यादि । जब पूर्वोक्तस्वरूपवाले पुण्य, पाप, बन्ध और मोक्षको जानता है तब देवों तथा मनुष्योंके सम्बन्धी भोगोंका वास्तविक विचार करता है। इन्द्रिय और मनकी अनुकूलतारूपसे जिनका उपयोग किया जाता है उन्हें भोग कहते हैं। भोगोंके विपयमें साधु ऐसा विचार करते हैं कि-"ये भोग भुजंगके समान भयंकर है, યુક્ત છે તે છે પણ જન્મ-જરા-મરણરૂપ ભીષણ દુ:ખના પ્રયડ અગ્નિથી પ્રજવલિત આ સંસારરૂપી વનને પાર કરી જાય છે. એથી સિદ્ધ થાય છે કે એ રત્નત્રયમાંથી કોઈ એક પણ જે ઓછું હોય તે સિદ્ધિ પ્રાપ્ત થઈ શકતી નથી, એ પ્રકારના મોક્ષને જાણે (૧૫) जया पुण्णं. त्याहि. न्यारे पूर्वोत-२५३५वा पुण्य पा५ ॥ भने મેક્ષને જાણે છે ત્યારે દે તથા મનુષ્ય સ બંધી ભેગેને વાસ્તવિક વિચાર કરે છે. ઇંદ્રિય અને મનની અનુકૂળતારૂપે જેને ઉપયોગ કરવામાં આવે છે એને પેગ કહે છે. ભેગેના વિષયમાં સાધુ એ વિચાર કરે છે કે “એ ભેગા ભુજગ (સર્પ)નાં જેવા ભયંકર છે, અશચિ છે, અર્શાચ પદાર્થોથી ઉત્પન્ન થાય છે. Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवेकालिकम उपभोक्तुमभलपेदपि कस्य या विवेकिनो बान्ताशनेच्छा, भतिपूर्तिगन्त्रिपूयरुधिर माहेऽवगाहनाऽऽकाङ्क्षा, शार्दूलसदन निवासामिलामः कामाने सीसकटाहादो पतनस्पृदा, समन्ततो दन्दनमान भवनान्तरालपरिभ्रमण साहसम्, अजगरविपरमुपधानीकृत्य शयनेच्छा वा नायेत? | "खणमिशसुक्खा बहुकालदुक्खा" इत्यादि पर्यालोचयन् निर्वेदं मामोतीत्यर्थः ॥ १६ ॥ १ ७ * * मूलम् - जया निदिए भोए, जे दिवे जे य माणुसे । + १२ it 10 तया चयइ संजोगं, सभितर बाहिरियं ॥ १७ ॥ छाया - यदा निर्विन्ते भोगान्, ये दिव्या ये च मानुषाः । तदा त्यजति संयोगं, साभ्यन्तर- चायम् ॥१७॥ ३३८ सान्वयार्थ :- जग्रा=जय जे दिव्वे जो देवसंबंधी और जेय माणुसे= मनुष्यअशुचि है, अशुचि पदार्थोंसे उत्पन्न होते हैं, सड़ जाते हैं, गल जाते हैं, नष्ट होजाते हैं, नित्य नहीं रहते। कौन विवेकी ऐसे भोगोंको भोगनेकी अभिलाषा करेगा ?, किस विवेकशील व्यक्तिको वमन भक्षण करने की इच्छा होगी ?, अहा ! कौन चाहेगा कि - ' मैं अत्यन्त दुर्गन्धवाले पीप और afare प्रवाहमें अवगाहन (स्नान) करूँ ?, क्या कोई सिंहकी मांद (e) fart की इच्छा करता है ?, उकलते हुए शीशे की काही कौन बुद्धिमान कूदनेकी कामना करता है? कोई नहीं करता है । अथवा चारों ओरसे धधकते हुए घरमें घुसनेका कौन साहस कर सकता है ?, और अजगर सर्पको उपधान (उसीसा-सिरहाना बनाकर कौन शयन करना चाहेगा ? | ये विषय भोग क्षणमात्र सुख देनेवाले हैं और चहत काल तक दुःख देनेवाले हैं ।" ऐसा विचार कर मुनि जन निर्वेद (वैराग्य) को प्राप्त करते हैं ॥ १६ ॥ સડી જાય છે, ગળી જાય છે, નષ્ટ થઈ જાય છે, નિત્ય રહેતા નથી કા વિવેકી મનુષ્ય એવા ભેગા ભાગવવાની અભિલાષા કરશે ?, કઈ વિવેકશીલ વ્યક્તિને વમન કરેલાંનું ભક્ષણુ કરવાની ઇચ્છા થશે ?, અહા ! કાણુ ઇચ્છશે કેહું અત્યંત દુર્ગં ધવાળા પરૂ અને રૂધિરના પ્રવાહમાં અવગાહન (સ્નાન કરીશ શું કેઇ સિંહની ગુફામાં નિવાસ કરવાની ઇચ્છા કરે છે ? ઊકળતા સીસાની કડાઈમાં કર્યો. બુદ્ધિમાન મનુષ્ય કૂદી પડવાની કામના કરે?, ફઈ કરે નહિ. અથવા ચારે બાજુએથી અગ્નિથી પગી રહેલા ઘરમાં પેસવાનું સાહસ કાણુ કરી શકે, અને અજગર સર્પને ઉપધાન (એશીકું) બનાવીને સૂવાની કાણુ ઈચ્છા કરશે ?, એ વિષય-ભગ ક્ષણુમાત્ર સુખ દેવાવાળા છે અને ઘણા કાળ સુધી દુ:ખ देवावाला हे." मेव वियार ने निश्न निवेह (वैराग्य) ने आस रे छे. (१६) Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३९ अध्ययन ४ गा. १७-१९-संयोगादित्यागः संवरधर्मस्पर्शः सम्बन्धी भोए-भोगोंको निविदए तत्त्से विचारता है, तया तव सम्भितरपाहिरियं आभ्यन्तर और बाह्य संजोगं संयोगको चयइत्याग देता है ॥१७॥ टीका-'जया निविदए' इत्यादि । यदा दिव्य-मानुप-भोगोपभोगेषु निर्वेदो जायते तदा साऽऽभ्यन्तरवाह्यम् बहिर्भवो वाह्यः सुवर्णमणिमाणिक्यादिः, अभ्यन्तरे अन्तःकरणे भव आभ्यन्तरक्रिोधादिः, आभ्यन्तरेण सहितः साऽऽभ्यन्तरः स चासी वाह्यवेति साभ्यन्तरवाह्यस्तम् , संयोग संयुज्यते सम्बध्यतेऽनेनाऽऽत्मेति संयोगः ममत्वकृतसम्बन्धस्तम् त्यजति-परिहरति ॥१७॥ मूलम्-जया चयइ संजोगं, सभितर-वाहिरियं । तया मुंडे भवित्ताणं, पवइए अणगारियं ॥१८॥ छाया-यदा त्यजति संयोग, साभ्यन्तर-वाह्यम् । तदा मुण्डो भूत्वा, प्रव्रजत्यनगारिताम् ॥१८॥ सान्वयार्थ:-जया जब सभितरवाहिरियं-आभ्यन्तर और बाह्य संजोगं संयोगको चयइ-त्याग देता है, तया-तव मुंडेद्रव्यभावसे मुण्डित भवित्ता: होकर अणगारियं-साधुपनेको पव्वइएमाप्त होता है ॥१८॥ टीका-'जया चयइ' इत्यादि । यदा वाह्याऽऽभ्यन्तरसंयोगविरहितो भवति तदा मुण्ड:-मुण्डनं मुण्डः ('मुडि खण्डने' इत्यस्माद्भावे घन) स च द्वेधा-द्रव्यतो - 'जयानिविदए.' इत्यादि । जब देवसम्बन्धी और मनुष्य सम्बन्धी भोगोंको जान लेता है, तब सुवर्ण-मणि-माणिक्य आदिबाह्य परिग्रहका तथा क्रोधादि आन्तरिक परिग्रहका अर्थात् बाह्याभ्यन्तर परिग्रहका त्याग कर देता है ॥१७॥ _ 'जया चयइ' इत्यादि । जय याह्याभ्यन्तर परिग्रहका परित्याग करता है तब मुण्डित हो जाता है । मुण्डन दो प्रकारका होता है जया निबिदए० त्यादि. न्यारे हेसमधी भने भनुम्यगधा लगाने જાણું લે છે, ત્યારે મુનિ સુવર્ણ—મણિમાણિયાદિ બાહ્ય પરિગ્રહને તથા ક્રોધાદિ આંતરિક પરિગ્રહને અર્થાત્ બાહ્યાવ્યંતર પરિગ્રહને ત્યજી દે છે. (૧૭) जया चयइ० छत्याहि. न्यारे माहत्यत२ परियडनी मुनि परित्याग ४२ છે ત્યારે મુંડિત થઈ જાય છે. મુંડન બે પ્રકારના હોય છે-(૧) દ્રવ્ય-મુંડન Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीवववैकालिको मावतश्र, तत्र दन्यतो मस्तफकेशापनयनम् , भावतो रागटेपापनयनम् , ममनधर्मयोगादर्ग्यपि मुण्ड:-मुण्डित इत्यर्थः, भूया अनगारिताम् अनगारिणो मावोऽ नगारिता साधुत्वं सचिरविलक्षण सामायिकादिकमित्यर्थः, ताम् प्रवनतिमामोति-ममजितो भवतीत्यर्थः ॥१८॥ __ मूलम् जया मुंडे भवित्ताणं, पवइए अणगारियं । तया संवरमुकिट्ठ, धम्म फासे अणुत्तरं ॥ १९ ॥ छाया-यदा मुण्डो भूत्वा, प्रवजत्यनगारिताम् । तदा संवरमुत्कृष्टं, धर्म स्पृशत्यनुत्तरम् ॥१९॥ सान्वयार्थ:-जया जय मुंडेन्ट्रन्यभावसे मुण्डित भविसा होकर अणगारियं-साधुपनेको पन्चइए प्राप्त होता है, तयास्तव उक्टि-अत्यन्त प्रशस्त अणुत्तरं सर्वश्रेष्ठ संवरं संवर धम्मधर्मको फासे स्पर्श करता है-माप्त होता है। टीका-'जया मुंडे' इत्यादि । यदा मुण्डो भूत्वाऽनगारितां प्रव्रजविन्यानोति। तदा उत्कृष्टम् अविमशस्तम् , अनुत्तरं निरविचारतया सर्वश्रेष्ठम् । यद्वा स्थित निश्चलम् । अथवा जिनागमसिद्धत्वात् प्रतिजल्पविवर्जितम्, यद्वा 'अनुत्तर' मित्या तत् क्रियाविशेषणम् , अनुत्तरम्-उक्तार्थकं यथा स्यात्तथा स्पृशतीति सम्बन्धः। १ अनुचरम् श्रेष्ठ, प्रतिजल्पवित्रजित, स्थिरमिति शब्दकल्पद्रुमः । (१) द्रव्यमुण्डन, (२) भावमुण्डन । मस्तकके केशोंकालुश्चन करना द्रव्यमुण्डन कहलाता है। राग द्वेष आदिको दर करना भावमुण्डन है । दोनों प्रकारोंसे मुण्डित होकर सर्वविरतिरूप सामायिक आदि चारित्रका 'प्राप्त होता है ॥१८॥ 'जया मुंडे.' इत्यादि। जब मुण्डित होकर सर्वविरतिको प्राप्त होता है तब अत्यन्त प्रशस्त निरतिचार होनेके कारण सर्वश्रेष्ठ निश्चल “आचरणीय संवर धर्मको स्पर्श करता है। आते हुए कर्म जिस आत्म. अन (२) भाव-भुन. भरतनाशन दुधन ४२९ म द्रव्यमुन उपाय छे. રાગ-દ્વેષ આદિને દૂર કરવા એ ભાવ-મુંડન છે. બેઉ પ્રકારે મુંડિત થઇને સર્વ વિરતિરૂપ સામાયિક આદિ ચારિત્રને પ્રાપ્ત થાય છે. (૧૮) जया मुंडे या बारे भुमित ने सर्व पिरतिन त याय छे. અત્યંત પ્રશસ્ત નિરતિચાર થવાને કારણે સર્વશ્રેષ્ઠ નિશ્ચલ આચરણય સંવર Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. २०-संवरधर्मस्पर्श कर्मरजोधुननम् ३४१ संवरं संवियते-निरुध्यते आस्रवत्कर्म येन सः, यद्वा संवरणं संवरः स्थगनम् । स द्रव्य-भावभेदाभ्यां द्विविधः । तत्र द्रव्यतस्तथाविधद्रव्येण (मसृणमृत्तिकादिना) सलिलोपरि तरतरण्यादेरनारतमविशन्नीराणां विवराणां पिधानम् , भावतः-समिति-गुप्तिप्रभृतिभिरात्मतरण्यां क्षरकर्मसलिलानां स्थगनम् । अत्र च भावसंवरश्चारित्रलक्षणो गृह्यते, तं तल्लक्षणं धर्म स्पृशतिपामोति, अन्त:करणत आत्मना सम्बन्धयतीत्यर्थः ॥१९॥ मूलम्-जया संवरमुक्टिं धम्म फासे अणुत्तरं । तया धुणइ कम्मरयं, अवोहिकलसंकडं ॥२०॥ छाया-यदा संवरमुत्कृष्टं, धर्म स्पृशत्यनुत्तरम् । तदा धुनाति कर्मरजो-ऽबोधिकलुपकृतम् ॥२०॥ सान्वयार्थः-जया जब उकिट अत्यन्त प्रशस्त अणुत्तरं सर्वश्रेष्ठ संवर= संबर धम्म-धर्मको फासे स्पर्श करता है, तया तव अवोहिकलुसंकडं-आत्माके मिथ्यात्व परिणाम द्वारा उपार्जित किये हुए कम्मरयं-कर्मरूपी रजको धुणइहटा देता है ॥२०॥ परिणामसे रुक जाते हैं उसे संवर कहते हैं। संवर, द्रव्य-भावके भेदसे दो प्रकारका है । जल पर चलती हुई नौकाके छेदोंसे उसमें प्रवेश करनेवाले जलको चिकनी मिट्टी वस्त्र आदिसे चन्द कर देना द्रव्य-संवर है। आत्मारूपी नौकामें आस्रवरूपी छिद्रों द्वारा आनेवाले कर्मरूपी जलको रोक देना भाव-संवर है। यहां भाव-संबर अर्थात् चारित्रकाअधिकार है। अर्थात् सर्वविरत मुनि भाव-संवर रूपी धर्मको प्राप्त करते हैं । अथवा अनुत्तर रूपसे स्पर्श करते हैं, क्योंकि 'अनुत्तर' यह क्रियाविशेषण भी हो सकता है ॥१९॥ ધર્મને સ્પર્શ કરે છે, આવતાં કર્મ જે આત્મપરિણામથી શેકાઈ જાય છે તેને સંવર કહે છે. સંવર દ્રવ્યભાવના ભેદે કરીને બે પ્રકાર છે. જળપર ચાલતી નોકાના છિદ્રવાટે નૌકામાં પ્રવેશ કરનારા જળને ચીકણી માટી, વસ્ત્ર આદિથી બંધ કરી દેવું તે દ્રવ્યસંવર છે. આત્મારૂપી નોકામાં આવરૂપી છિદ્રો દ્વારા આવનારા કર્મરૂપી જળને રેકી દેવું એ ભાવ-સંવર છે. અહીં ભાવસંવર એટલે ચારિત્રને અધિકાર છે. અર્થાત્ સર્વવિરત મુનિ ભાવસંવરરૂપી ધર્મને પ્રાપ્ત કરે છે, અથવા અનુત્તર-રૂપે સ્પર્શ કરે છે, કારણકે “અનુત્તર એ ક્રિયાવિશેષણ પણ હેઈ શકે છે. (૧૯) : Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवेकानिकलने भावतच, तत्र द्रव्यतो मस्तफकेशापनयनम् , भावतो रागद्वेषापनपनम् , अमन धर्मयोगादर्ग्यपि मुण्डा मुण्डित इत्यर्थः, भूया अनगारिताम् भनगारिणो मानो नगारिवा-साधुत्वं सचिरविलक्षणं सामायिकादिकमिस्पर्थः, ताम् भवनतिन मामोति-प्रमजिठो भवतीत्यर्थः ॥१८॥ मूलम् जया मुंडे भवित्ताणं, पवइए अणगारियं । तया संवरमुकिलु, धम्मं फासे अणुत्तरं ॥१९॥ छाया-यदा मुण्डो भूत्वा, प्रचजत्पनगारिताम् । तदा संवरमुत्कृष्एं, धर्म स्पृशत्यनुत्तरम् ॥१९॥ सान्वयार्थ:-जया-जय मुंडेन्द्रव्यभावसे मुण्डिव भवित्तान्होकर अण गारियं-साधुपनेको पन्चइएमाप्त होता है, तया तव उफिट अत्यन्त प्रशस्त अशुत्तरं सर्वश्रेष्ठ संवरं संवर धम्म-धर्मको फासे स्पर्श करता है-माप्त होता है। टीका-'जया मुंडे०'इत्यादि । यदा मुण्डो भूत्वाऽनगारितां मनजतिभाभीति, तदा उत्कृष्टम् अविपशस्तम् , अनुत्तरं निरविचारतया सर्वश्रेष्ठम् । यद्वा स्थिर निश्चलम् । अथवा जिनागमसिद्धत्वात् प्रतिजल्पविवर्जितम् , यद्वा 'अनुत्तर' मित्य तत् क्रियाविशेषणम् , अनुत्तरम्-उक्तार्थकं यथा स्यात्तथा स्पृशतीति सम्बन्ध १ अनुत्तरम् श्रेष्ठं, मतिनल्पविवर्जितं, स्थिरमिति शब्दकल्पद्रुमः । (१) द्रव्यमुण्डन, (२) भावमुण्डन । मस्तकके केशोंकालुश्चन करना द्रव्यमुण्डन कहलाता है। राग द्वेष आदिको दर करना भावमुण्डन है। 'दोनों प्रकारोंसे मुण्डित होकर सर्वविरतिरूप सामायिक आदि चारित्रका प्राप्त होता है ॥१८॥ . 'जया मुंडे' इत्यादि । जय मुण्डित होकर सर्वविरतिको प्राप्त होता है तब अत्यन्त प्रशस्त निरतिचार होनेके कारण सर्वश्रेष्ठ निश्चल "आचरणीय संवर धर्मको स्पर्श करता है। आते हुए कर्म जिस आत्म: અને (૨) ભાવ મુંડન મસ્તાના કેશનું હુંચન કરવું એ દ્રવ્યમંડન કહેવાય છે. રાગ-દ્વેષ આદિને દૂર કરવા એ ભાવ-મુંડન છે. બે પ્રકારે મુંડિત થઈને ' સર્વવિરતિરૂપ સામાયિક આદિ ચારિત્રને પ્રાપ્ત થાય છે. (૧૮) जया मुंडे० या क्यारे भुलित न स वितिने आत याय. અત્યંત પ્રશસ્ત નિરતિચાર થવાને કારણે સર્વશ્રેષ્ઠ નિશ્ચલ આચરણીય સંવર Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. २०-द्रव्य-भावकर्मणो कार्यकारणभावः ३४३ wwmnimamm RRARAA mammmmmmmmmmmmmmmonmeaniRAMANARAananew AmAARRAMROP AIRAAMRAPARDA Ama "जीवस्याशुद्धरागादिभावानां कर्म कारणम् । कर्मणस्तस्य रागादिभावः प्रत्युपकारिवत् ॥१॥” इति । संसारी खल्वात्माऽनादिकालतः कर्म वनाति, तदुदयादात्मनि रागद्वेपाशुत्पत्तिः, तदनु यथा चहिसंतमायापिण्डः समन्तात् स्वसंसटजलमाकर्पति तथाऽऽत्मैकक्षेत्रावगाहिकर्मपुद्गलानादत्ते, तैश्च रागादिकं भावकर्मोत्पाधते, तच पुनरपि द्रव्यकर्मोंभाव है, अतः द्रव्यकर्म, भावकर्म का कारण भी है और कार्य भी है। कहाभी है "जीवके राग आदि अशुद्ध भावोंका कारण द्रव्यकर्म है और रागादि अशुद्ध भाव द्रव्यकर्मके कारण हैं | जैसे काई पुरुप किसीका उपकार कर देता है तो वह उपकृत पुरुप उस उपकारीका पीछा उपकार करता है ॥१॥" संसारी जीव अनादिकालसे कर्मोका बन्ध कर रहा है। उन बंधे हुए कर्मोके उदय होनेपर आत्मामें राग-द्वेप आदिकी उत्पत्ति होती है। रागादिके उदय होनेपर जैसे तपा हुआ लोहेका गोला आस पासके जलको आकर्षित करता है वैसे ही आत्मा एकक्षेत्रावगाही अर्थात् जिस आकाशके प्रदेशमें आत्मा स्थित है उसी आकाश प्रदेशमें स्थित कर्मके पुद्गलोंको ग्रहण करती है, उन रागादि-भावोंसे फिर द्रव्यकर्म કર્મમાં કાર્ય-કારણભાવ રહેલું છે. તેથી દ્રવ્યકમ, ભાવકનું કારણ છે અને કાર્ય પણ છે, તેમજ ભાવકર્મ દ્રવ્યકમનું કારણ છે અને કાર્ય પણ છે. કહ્યું છે કે જીવના રાગાદિ અશુદ્ધ ભાવેનું કારણ દ્રવ્યકર્મ છે, અને રાગાદિ અશુદ્ધ ભાવ વ્યકર્મનું કારણ છે, જેમ કોઈ પુરુષ કે ઈનો ઉપકાર કરે છે તે એ ઉપકૃત પુરૂષ એને પાછો ઉપકાર કરે છે. (૧)” સંસારી જીવ અનાદિ કાળથી કમેને બંધ કરી રહ્યો છે. એ બંધાયેલાં કમને ઉદય થતાં આત્મામાં રાગદ્વેષ આદિની ઉત્પત્તિ થાય છે. રગદિને ઉદય થતાં જેમ તપાવેલ લેખંડને ગોળ આસપાસના જળને આકર્ષિત કરી લે છે તેમ આત્મા એક-ક્ષેત્રાવાહી અથાત્ જે આકાશના પ્રદેશમાં આત્મા સ્થિત છે એ આકાશપ્રદેશમાં રહેલાં કર્મના પગલેને ગ્રહણ કરે છે, એ રાગાદિ-ભાવથી ફરી વ્યકર્મ બાંધે છે. એ રીતે દ્રવ્ય કર્મ અને ભાવકમ એક Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ श्रीपशवेकालिको टीका-'जया संघर०' इत्यादि । यदा उत्सयम् अनुतरं संग धर्म स्पृशति तदा अबोधिकलपकतम् योधनं योपि मारमनः सम्यास्तपरिणामः, तविपरीतोऽवोधिः-मिथ्यात्वाध्यवसापः स एव फलुपं पापं तेन कृतं-जनितम् अोधिकलुष कृतम्, तत्, 'फलुप' मित्पत्रानुस्वार आपः। कर्मरतः क्रियते-मिध्यावादि परिणामः सम्पावते यत्तत् फर्म, तद्विधा द्रव्य-मावमेदाद, तत्र द्रव्यतः कृषिकासभृतकज्जलयन् सफललोफसंभृता आत्मना सह पद्धा यध्यमाना वन्याश्चि तथा विधपुद्गलपरमाणवः । मावतस्तु-आत्मनो रागद्वेपादिपरिणामः, अनयोश्च वीज क्षयोरनादिकालिककार्यकारणभाववत् पारस्परिककार्यकारणभावः, तथा च-द्रव्य फर्म भावकर्मणः कारणं कार्य च । भाषकर्म च द्रव्य-कर्मणः (कारणं काये च)। 'जया संवर०' इत्यादि । जय साधु उत्कृष्ट अनुत्तर संवरधमका स्पर्श करते हैं तय आत्माके मिथ्यात्वपरिणामरूपी पापसे उत्पन्न हुए कर्मरूपी रजको धो डालते हैं। कर्मरज दो प्रकारका है (१) द्रव्यकर्मरज, और (२) भावकर्मरज। कुप्पीमें भरे हुए कज्जलकी तरह समस्त लोकाकाशमें व्याप्त तथा आत्माके साथ बंधे हुए या पंधनेवाले और पंधते हुए विशेष प्रकारक (कार्मण जातिके) पुद्गलपरमाणुओंको द्रव्यकर्म कहते हैं। आत्माक राग-द्वेष आदि विभाव-परिणामोंको भावकर्म कहते हैं । वृक्षसे बाज उत्पन्न होता है और बीजसे वृक्ष उत्पन्न होता है। दोनों में कार्य-कारणभाव अनादिकालीन है । इसी प्रकार द्रव्यकर्म और भावकर्ममें कार्य-कारण जया संवर० ७त्यादि. न्यारे साधु Bee मनुत्तर संवरधभर ५८ ४२ छ ત્યારે આત્માના મિથ્યાત્વ–પરિણામરૂપી પાપથી ઉત્પન્ન થએલે કર્મરૂપ રજને ધોઈ નાંખે છે. કરજ બે પ્રકારની છે –(૧) વ્યકરજ, અને (૨) ભાવકર્મરાજ યુપીમાં ભરેલા કાજળની પેઠે સમસ્ત કાકાશમાં વ્યાપ્ત તથા આત્માની સાથે બંધાયેલા તથા બંધનારા અને બંધાતા વિશેષ પ્રકારના (કામણ જાતિના) પુદગલપમાણુઓને દ્રવ્યકર્મ કહે છે. આત્માના રાગ-દ્વેષ આદિ વિભાવ–પરિણામે ભાવકર્મ કહે છે. વૃક્ષથી બીજ ઉત્પન્ન થાય છે અને બીજથી વૃક્ષ ઉત્પન્ન થાય છે. બેઉ કાર્ય-કારણુભાવ અનાદિકાળને છે. એ પ્રકારે દ્રવ્યકમ અને ભાવ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. २०-शुक्लध्यानस्वरूपम् थिक-पर्यायाधिकादिनानानयरर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिसहितानुचिन्तनं पृथक्त्ववितर्कसविचारम् । तत्रार्यसंक्रान्तिस्तावत्-ध्येयस्यैकपर्यायपरित्यागेन पर्यायान्तरे, व्यञ्जने, योगे चा संक्रमः । व्यञ्जन चात्र चतुर्दशपूर्वात्मकश्रुतसम्बन्धिशब्दाः, तत्रत्यं किश्चिदेकं व्यञ्जनमुपादाय ध्यानमारभ्य व्यञ्जनान्तरेऽर्थे योगे वा संक्रमणं व्यञ्जनसक्रान्तिः। योगसंक्रान्तिश्च पुनः काययोगतो मनोयोगे, मनोयोगतो वाग्योगे, इत्येवमेकस्माद् योगादन्यतरस्मिन् योगे संक्रमणम् । त्रिविधमेतत्संक्रमणं च ध्यातरनिच्छायामपि ताश-(असंक्रान्त)-ध्यानसंपादनसामर्थ्याभावाजायते । उत्पाद आदि पर्यायोंका द्रव्याधिक या पर्यायार्थिक आदि विविध नयोंसे, अर्थ, व्यसन और योगकी संक्रान्ति सहित चिन्तन करना पृथक्त्ववितर्क शुक्ल ध्यान है। ध्येय वस्तुकी एक पर्यायको छोड़कर दूसरी पर्यायका ध्यान करना या व्यञ्जन अथवा योग संक्रान्त होजाना अर्थसंक्रान्ति है। यहाँ चौदह पूर्वरूप श्रुतके शब्दोंको व्यञ्जन कहा है। उन शब्दों से किसी एक शब्दका ध्यान आरम्भ करके फिर किसी दूसरे व्यन्जनका ध्यान करने लगना, अथवा अर्थ या योगमें संक्रान्त होजाना व्यञ्जनसंक्रान्ति है। काययोगसे मनोयोगमें, मनोयोगसे वचनयोगमें, इस प्रकार एक योगसे दुसरे योगमें संक्रान्त होजाना योगसंक्रान्ति है। यह तीनों तरहका संक्रमण ध्याताकी इच्छा न होनेपर भी उतनी अधिक सामथ्र्य न होने के कारण होता है। આદિ નાના પ્રકારના પર્યાનું દ્રવ્યાર્થિક થા પર્યાયાર્થિક આદિ વિવિધ નથી, અર્થ વ્યંજન અને વેગની સંક્રાન્તિસહિત ચિંતન કરવું એ પૃથફવિતર્ક શુકલધ્યાન છે, એયવસ્તુના એક પર્યાયને છેડીને બીજા પર્યાયનું ધ્યાન કરવું યા વ્યંજન અથવા વેગમાં સંક્રાન્ત થઈ જવું એ અર્થસંક્રાતિ છે. અહીં ચોદ પૂર્વરૂપ કૃતના શબ્દોને વ્યંજન કહેલ છે, એ શબ્દમાંથી કેએક શબ્દનું ધ્યાન આરંભીને પછી કોઈ બીજા વ્યંજનનું ધ્યાન લગાવવું અથવા અર્થ છે વેગમાં સંક્રાન્ત થઈ જવું એ વ્યંજનસંક્રાન્તિ છે. કાગથી મને ગમાં, મગથી વચનગમાં, એ પ્રકારે એક પેગથી બીજા વેગમાં સંક્રાન્ત થઈ જવું એ ભેગસંક્રાન્તિ છે. એ ત્રણે જાતનું સંક્રમણ, દયતાની ઈચ્છા ન હોવા છતાં પણ એટલું અધિક સામર્થ્ય ન હોવાને કારણે થાય છે. Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ - - श्रीदनकालिको त्पादयति, वदेव रज इव रजो जीवस्य मालिन्यहेतुत्वान घातिकर्मचदृष्टयमित्यर्थः तद् धुनाति-न्यपनयति-दरीकरोतीत्यर्थः । फर्मरजोधुननं च यधपि धर्मध्यानेनापि जायते तथापि आत्यन्तिकतनिधूनने शुमध्यानेनैव भवति, यथा मलापगमेन शुचिताधर्मामिसम्बन्धात् पटः शुक इत्युः च्यते तथा रागद्वेषमलापनयनाच्चिधर्मसम्बन्धाद् ध्यानमपि गुरुमित्युच्यते, तचतुर्विधम्-(१) पृयक्त्ववितर्कसविचारम् , (२) एकत्ववितर्काविचारम् , (३) मूक्ष्मक्रियाऽनियति, (४) समुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपाति, इति । वत्र पूर्वगतश्रुतमानानुसारेण ध्येयविशेषगतोत्पादादिनानापर्यायाणां ट्रव्यापंधते हैं । इस प्रकार द्रव्यकर्म और भावकर्म एक दसरेके उत्पादक हैं। इन्हीं कौंको रज कहते हैं, क्योंकि ये आत्मामें मलिनता उत्पन्न कर देते हैं। संवरधर्मको ग्रहण करनेसे यह चार-घातिकर्मरूपी रज दर होजाती है। ___कर्मरजका दर होना यद्यपि धर्म-ध्यानसे होता है तथापि आत्य: न्तिक रूपसे तो शुक्ल-ध्यानसे ही होता है। जैसे मैलको दूर करनेस शुचिताधर्म आजाता है, इसलिए वस्त्रको शुक्ल (सफेद) वस्त्र कहते हैं, इसी प्रकार राग-द्वेपरूपी मैलके हट जानेपर शुचिताधर्मके सम्बन्धस ध्यान भी शुक्लध्यान कहलाता है। शुक्लध्यान चार प्रकारका है-(१) पृथक्त्ववितर्क-सविचार, (२) एक त्ववितर्क-अविचार, (३) सूक्ष्मक्रिय-अनिवर्ति, (४) समुच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाति। (१) पृथक्त्ववितर्क-पूर्वगत श्रुतज्ञानके अनुसार किसी ध्येय पदार्थका બીજાનાં ઉત્પાદક છે. એજ કમેને રજ કહે છે, કારણ કે તે આત્મામાં મલનતા ઉત્પન્ન કરે છે. સંવરધર્મને ગ્રહણ કરવાથી એ ચાર ઘાતિકર્મરૂપી રજ २ 25 जय छे. જે કે કર્મ રજ ધર્મધ્યાનથી દૂર થાય છે તે પણ આત્યંતિક રૂપથી 1 શકલ ધ્યાનથી જ થાય છે. જેમ મેલ દૂર કરવાથી શુચિતા-ધર્મ આવી જાય છે તેથી વસ્ત્રને શુકલ (સફેદ) વસ્ત્ર કહે છે, તેમ રાગદ્વેષરૂપી મેલ હઠી જતા શુચિતાધર્મના સંબંધથી ધ્યાન પણ શુકલધ્યાન કહેવાય છે. शुस ध्यानना या२ २ छे. (१) यत्पक्ति:-सविया२, (२) मेय. AAS-मरियार, (3) सूक्ष्मठिय मनिपति, (४) सविनय अप्रतिपाति. (૧) પૃથકત્વવિતર્ક–પૂર્વગત થતજ્ઞાનને અનુસાર કેઈ દયેય પદાર્થના ઉત્પાઇ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. २०-शुक्लध्यानस्वरूपम् ३४५ थिक-पर्यायाथिकादिनानानयैरयव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिसहितानुचिन्तनं पृथक्त्ववितर्कसविचारम् । तत्रार्थसंक्रान्तिस्वावत्-ध्येयस्यैकपर्यायपरित्यागेन पर्यायान्तरे, व्यञ्जने, योगे वा संक्रमः। व्यञ्जनं चात्र चतुर्दशपूर्वात्मकश्रुतसम्बन्धिशब्दाः, तत्रत्यं किञ्चिदेक व्यञ्जनमुपादाय ध्यानमारभ्य व्यञ्जनान्तरेऽर्थे योगे वा संक्रमणं व्यञ्जनसक्रान्तिः। योगसंक्रान्तिश्च पुनः काययोगतो मनोयोगे, मनोयोगतो वाग्योगे, इत्येवमेकस्माद् योगादन्यतरस्मिन् योगे संक्रमणम् । त्रिविधमेतत्संक्रमणं च ध्यातुरनिच्छायामपि तादृश-(असंक्रान्त)-ध्यानसंपादनसामर्थ्याभावाज्जायते । उत्पाद आदि पर्यायोंका द्रव्यार्थिक या पर्यायार्थिक आदि विविध नयोंसे, अर्थ, व्यसन और योगकी संक्रान्ति सहित चिन्तन करना पृथक्त्ववितर्क शुक्ल ध्यान है । ध्येय वस्तुकी एक पर्यायको छोड़कर दूसरी पर्यायका ध्यान करना या व्यजन अथवा योगमें संक्रान्त होजाना अर्थसंक्रान्ति है। यहाँ चौदह पूर्वरूप श्रुतके शब्दोंको व्यञ्जन कहा है। उन शब्दोंमेंसे किसी एक शब्दका ध्यान आरम्भ करके फिर किसी दूसरे व्यञ्जनका ध्यान करने लगना, अथवा अर्थ या योगमें संक्रान्त होजाना व्यञ्जनसंक्रान्ति है। काययोगसे मनोयोगमें, मनोयोगसे वचनयोगमें, इस प्रकार एक योगसे दुसरे योगमें संक्रान्त होजाना योगसंक्रान्ति है। यह तीनों तरहका संक्रमण ध्याताकी इच्छा न होनेपर भी उतनी अधिक सामर्थ्य न होनेके कारण होता है। આદિ નાના પ્રકારના પર્યાને દ્રવ્યાર્થિક થા પર્યાયાર્થિક આદિ વિવિધ નથી, અર્થ વ્યંજન અને યુગની સંક્રાતિસહિત ચિંતન કરવું એ પૃથકત્વવિતર્ક શુકલધ્યાન છે, ધ્યેયવસ્તુના એક પર્યાયને છોડીને બીજા પર્યાયનું ધ્યાન કરવું યા વ્યંજન અથવા વેગમાં સંક્રાન્ત થઈ જવું એ અર્થસંક્રાતિ છે. અહીં ચોદ પૂર્વરૂપ કૃતના શબ્દને વ્યંજન કહેલ છે, એ શબ્દોમાંથી કેઈએક શબ્દનું ધ્યાન આરંભીને પછી કઈ બીજા વ્યંજનનું ધ્યાન લગાવવું અથવા અર્થ યા યુગમાં સંક્રાન્ત થઈ જવું એ વ્યંજનસંક્રાન્તિ છે. કાયયેગથી મને ગમાં, મનેયેગથી વચનગમાં, એ પ્રકારે એક એગથી બીજા રોગમાં સંક્રાન્ત થઈ જવું એ યંગસંક્રાન્તિ છે. એ ત્રણ જાતનું સંક્રમણ, ધ્યાતાની ઈરછા ન હોવા છતાં પણ એટલું અધિક સામર્થ્ય ન હોવાને કારણે થાય છે. Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - घंधते हैं । को रज कहते हैं, करनेसे यह या ३४४ श्रीदशवकालिको त्पादयवि, तदेव रज व रनो जीवस्य मालिन्य हेतुत्वान् घातिकर्मचनुष्यमित्यवान तद् धुनातिव्यपनयतिन्दरीफरोतीत्यर्थः । फर्मरनोधुननं च यद्यपि धर्मध्यानेनापि जायते तथापि आत्यन्तिकवधूिनन शमध्यानेनैव भवति, यथा मलापगमेन शुचिताधर्मामिसम्बन्धात् पटः शुम इत्य च्यते तया रागद्वेपमलापनयनाच्छुचिधर्मसम्बन्धाद् ध्यानमपि शुक्रमित्युच्यता वचतुर्विधम्-(१) पृथक्त्ववितर्कसविचारम् , (२) एकत्लवितको विचारम् , (३) सूक्ष्मक्रियाऽनिवति, (४) समुच्छिन्नक्रियाऽमतिपाति, इति । तत्र पूर्वगतयुतशानानुसारेण ध्येयविशेपगतोत्पादादिनानापर्यायाणां द्रव्या घंधते हैं। इस प्रकार द्रव्यकर्म और भावकर्म एक दूसरेके उत्पादक है। इन्हीं कोको रज कहते हैं, क्योंकि ये आत्मामें मलिनता उत्पन कर देते हैं। संवरधर्मको ग्रहण करनेसे यह चार-घातिकर्मरूपी रज दूर होजाती है। कर्मरजका दर होना यद्यपि धर्म-ध्यानसे होता है तथापि आत्यः न्तिक रूपसे तो शुक्ल-ध्यानसे ही होता है। जैसे मैलको दूर करना शुचिताधर्म आजाता है, इसलिए वस्त्रको शुक्ल (सफेद) वस्त्र कहत इसी प्रकार राग-द्वेषरूपी मैलके हट जानेपर शुचिताधर्मके सम्बन्धस ध्यान भी शुक्लध्यान कहलाता है। शुक्लध्यान चार प्रकारका है-(१) पृथक्त्ववितर्क-सविचार, (२) एक त्ववितर्क-अविचार, (३) सूक्ष्मक्रिय-अनिवत्ति, (४) समुच्छिन्नाकर अप्रतिपाति। (१) पृथक्त्वचितर्क-पूर्वगत श्रुतज्ञानके अनुसार किसी ध्येय पदाथका બીજાનાં ઉત્પાદક છે. એજ કમેને રજ કહે છે. કારણ કે તે આત્મામાં નતા ઉત્પન્ન કરે છે. સંવરધર્મને ગ્રહણ કરવાથી એ ચાર ઘાતિકર્મ રૂપ * २ थ य छे. જે કે કમજ ધર્મધ્યાનથી દૂર થાય છે તે પણ આત્યંતિક રૂપથી : શુકલ ધ્યાનથી જ થાય છે. જેમ મેલ દૂર કરવાથી શુચિતા–ધર્મ આવી જાય તેથી વસ્ત્રને શુકલ (સફેદ) વસ્ત્ર કહે છે, તેમ રાગદ્વેષરૂપી મેલ હઠી છે શુચિતાધર્મના સંબંધથી ધ્યાન પણ શુકલધ્યાન કહેવાય છે शुत ध्यानना २ प्रा२ छ. (१) पृथपवित-सविया२, (२) मे. FRas-मविया२, (3) सूक्ष्मपिय मनिपति, (४) सरिछन्नस्य मप्रतिपाति. (૧) પૃથફત્વવિતર્ક-પૂર્વગત સુતજ્ઞાનને અનુસાર કોઈ ધ્યેય પદાર્થના ઉત્પાઇ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गो. २०-शुक्लध्यानस्वरूपम् ३४७ नन्त्रर्थव्यञ्जनयोगान्तरेषु संक्रान्तस्य मनसः स्थैर्यासम्भवाद् ध्यानत्वमनुपपनमिति चेन्न, एकमेव ध्येयं लक्ष्यीकृत्य प्रवृत्तस्य ध्यानस्यार्थादौ संक्रमणेऽपि ध्येयैकमात्रोद्देश्यकतया मनः स्थिरीकरणरूपाया ध्यानक्रियायास्तत्रापि सद्भावात् । इदं च ध्यानं भतिपाठकानां योगत्रयवतां वा मुनिपुङ्गवानां भवति । अनेन ध्यानेन क्षपकश्रेण्यां समारूढो मुनिरष्टृमगुणस्थानादारभ्य क्रमशो दशमगुणस्थानचरमसमये बलवदपि मोहनीयकर्म क्षपयित्वा द्वितीयध्यानमाश्रित्य द्वादशं गुणस्थानमधिरोहति । उपशमश्रेण्यां समादस्तु तदानीं मोहनीयकर्म शमयित्वा एकादशमुपशान्तमोहगुणस्थानमारोहति । इदं च प्रथमं ध्यानमष्टमगुणस्थानादारभ्य क्षपकश्रेण्यप्रश्न - हे गुरुमहाराज ! इस ध्यानमें अर्थ, व्यञ्जन और योगों में मन संक्रान्त होता रहता है, इस कारण स्थिरता नहीं रह सकती; फिर इसे ध्यान कैसे कह सकते हैं ? | उत्तर - हे शिष्य ! परिवर्तन तो होता रहता है, परन्तु ध्येय एक ही रहता है | ध्येयकी एकताके कारण यह ध्यान कहलाता है । यह ध्यान पूर्वधारी तीन योगवाले श्रेष्ठ मुनियोंको ही होता है। इस ध्यान से दशवें गुणस्थानके अन्त समयमें क्षपकश्रेणीमें आरूढ मुनि बलवान् मोहनीय कर्मका क्षय करके बाहरवें गुणस्थानमें पहुँच जाते हैं, और यदि उपशमश्रेणिमें आरूढ हों तो ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थानमें जाते हैं । यह प्रथम ध्यान उपशमश्रेणीकी अपेक्षासे आठवें પ્રશ્ન—હે ગુરૂમહારાજ ! આ ધ્યાનમાં અર્થ વ્યંજન અને સેગમાં મન સફ્રાન્ત થયા કરે છે તે કારણથી સ્થિરતા રહી શકતી નથી, તો પછી તેને ધ્યાન કેમ કહી શકાય ? उत्तर- हे शिष्य ! परिवर्तन तो थया रे छे, परन्तु ध्येय ४४ रहे छे. ધ્યેયની એકતાને કારણે એ ધ્યાન કહેવાય છે. એ ધ્યાન પૂર્વાંધારી ત્રણ ચેગવાળા શ્રેષ્ઠ મુનિઓને જ થાય છે. આ ધ્યાનથી દસમા ગુણસ્થાનના અંત સમયે ક્ષષકશ્રેણીમાં આરૂઢ મુનિ ખળવાન્ માનીય–કમનો ક્ષય કરીને ખારમા ગુણુસ્થાનમાં પહાંચી જાય છે; અને જે ઉપશમ–શ્રેણીમાં આરૂઢ હોય તેા અગ્યારમા ઉપશાન્તમેહ ગુણુસ્થાનમાં જાય છે. એ પ્રથમ ધ્યાન, ઉપશમ-શ્રેણીની અપેક્ષાએ કરીને આઠમા ગુણુસ્થાનથી લઈને Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३४६ श्रीदशौकाविसमा इदमन तात्पर्यम् अत्र पूर्वगताः शन्दास्तदर्या या ध्येया मयन्ति, परन्तु ध्यातुम्ता सामध्ये । भवति येन स कनिदेशं शन्दं चाय या ध्यायेत् , अत पत्र कविदेकमय वत्पर्यायं या परित्यज्येतरमर्थमितरपर्यायं या ध्यायति । इदमेव च परिवत्तेने संक्रमणशन्देनोच्यते । उक्तन-- " अर्यादर्यान्तरे शब्दाच्छन्दान्तरे च संक्रमः । योगाद् योगान्तरे पत्र, सविचारं तदुच्यते ॥ द्रव्याद् द्रव्यान्तरं याति, गुणाद् याति गुणान्तरम् । पर्यायादन्यपर्याय, सपृथक्त्वं भवत्यतः ॥” इति, तात्पर्य यह है कि इस ध्यानमें पूर्वगत शब्द या उसके अर्थका ध्यान किया जाता है, किन्तु इतनी सामर्थ्य नहीं होती कि एक ही शन्द या एक ही अर्थका ध्यान करते रहें, अत एव एक पदार्थ या उसकी पर्यायका छोड़ कर दूसरी पर्यायका ध्यान करते हैं। इसी प्रकारके परिवर्तन या पदलनेको संक्रमण कहते हैं। कहा भी है___“एक अर्थसे दूसरे अर्थमें, एक शब्दसे दूसरे शब्दमें, तथा एक योगसे दूसरे योगमें संक्रमण होता है, अतः उसे सविचार (संक्रान्ति) कहते हैं ॥१॥ अर्थ व्यञ्जन और योगकी संक्रान्ति रूप होते हुए निज शुद्ध आत्मद्रव्यको, एक गुणसे दूसरे गुणको, एक पर्यायसे दूसरी पर्यायको प्राप्त होता है, अतः उसे सपृथक्त्व कहते हैं ।।" તાત્પર્ય એ છે કે-આ ધ્યાનમાં પૂર્વગત શબ્દ તેના અર્થનું ધ્યાન કરવામાં આવે છે, કિંતુ એટલું સામર્થ્ય હોતું નથી કે એકજ શબ્દ યા એકજ અર્થનું ધ્યાન કરતે રહે તેથી કરીને એક પદાર્થ યા એના પર્યાયને છોડીને બીજા પર્યાયનું ધ્યાન કરે છે. આ પ્રકારના પરિવર્તનને યા બદલાવાને સંક્રમણે એક અર્થથી બીજા અર્થમાં, એક શબ્દથી બીજા શબ્દમાં તથા એક ગથી બીજા યુગમાં સંક્રમણ થાય છે, તેથી તેને અવિચાર (સંક્રાન્તિ) અર્થ વ્યંજન અને યુગની સંક્રાતિરૂપ થતા નિજ શુદ્ધ આત્મ-દ્રવ્યને, એક ગુણથી બીજ ગુણને, એક પર્યાયથી બીજા પર્યાયને પ્રાપ્ત થાય છે, તેથી तेने सध्यत्व ४३ छ.” (२) Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गो. २० - शुक्लध्यानस्वरूपम् ३४७ नन्वर्थव्यञ्जनयोगान्तरेषु संक्रान्तस्य मनसः स्थैर्यासम्भवाद् ध्यानत्वमनुपपनमिति चेन्न, एकमेव ध्येयं लक्ष्यीकृत्य मवृत्तस्य ध्यानस्यार्थादौ संक्रमणेऽपि ध्येयेकमात्रोद्देश्यकतया मनःस्थिरीकरणरूपाया ध्यानक्रियायास्तत्रापि सद्भावात् । इदं च ध्यानं भङ्गिकतपाठकानां योगत्रयवतां वा मुनिपुङ्गवानां भवति । अनेन ध्यानेन क्षपकश्रेण्यां समारूढो मुनिरष्टमगुणस्थानादारभ्य क्रमशो दशमगुणस्थानचरमसमये बलवदपि मोहनीयकर्म क्षपयित्वा द्वितीयध्यानमाश्रित्य द्वादशं गुणस्थानमधिरोहति । उपशमश्रेण्यां समारूढस्तु तदानों मोहनीयकर्म शमयित्वा एकादशमुपशान्तमोहगुणस्थानमारोहति । इदं च प्रथमं ध्यानमष्टमगुणस्थानादारभ्य क्षपकश्रेण्य प्रश्न - हे गुरुमहाराज ! इस ध्यानमें अर्थ, व्यञ्जन और योगोंमें मन संक्रान्त होता रहता है, इस कारण स्थिरता नहीं रह सकती; फिर इसे ध्यान कैसे कह सकते हैं ? | उत्तर - हे शिष्य ! परिवर्तन तो होता रहता है, परन्तु ध्येय एक ही रहता है । ध्येयकी एकताके कारण यह ध्यान कहलाता है । यह ध्यान पूर्वधारी तीन योगवाले श्रेष्ठ मुनियोंको ही होता है । इस ध्यान से दशवे गुणस्थानके अन्त समयमें क्षपकश्रेणी में आरूढ मुनि पलवान मोहनीय कर्मका क्षय करके बाहरवें गुणस्थानमें पहुँच जाते हैं, और यदि उपशमश्रेणिमें आरूढ हों तो ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थानमें जाते हैं । यह प्रथम ध्यान उपशमश्रेणीकी अपेक्षासे आठवें પ્રશ્ન——હે ગુરૂમહારાજ ! આ ધ્યાનમાં અર્થ વ્યંજન અને ચેગમાં મન ક્રાન્ત થયા કરે છે તે કારણથી સ્થિરતા રહી શકતી નથી, તે પછી તેને ધ્યાન કેમ કહી શકાય ? उत्तर- हे शिष्य ! परिवर्तन तो थया रे छे, परन्तु ध्येय ४४ रहे छे. ધ્યેયની એકતાને કારણે એ ધ્યાન કહેવાય છે. એ ધ્યાન પૂર્વાંધારી ત્રણ ચેગવાળા શ્રેષ્ઠ મુનિને જ થાય છે. આ યાનથી દસમા ગુણુસ્થાનના અંત સમયે ક્ષપકશ્રેણીમાં આઢ મુનિ બળવાન્ મેહનીય–કને ક્ષય કરીને ખારમા ગુણુસ્થાનમાં પઢાંચી જાય છે; અને જો ઉપશમ-શ્રેણીમાં આરૂઢ હાય તેા અગ્યારમા ઉપશાન્તમેહ ગુણુસ્થાનમાં જાય ४. એ પ્રથમ ધ્યાન, ઉપશમ-શ્રેણીની અપેક્ષાએ કરીને આઠમા ગુણુસ્થાનથી લઈને Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ श्री दशवेकालिकसूत्रे पेक्षया दशमगुणस्थानं यावत् उपशमश्रेण्यपेक्षया तु एकादशगुणस्थानं यावद्भवतीति विवेकः । (२) तथेत्यवितविचारमारभते, यथा सिद्धगाडिकादिमन्त्रः सकलशरीरस्यापि विषमं विषं मन्त्रसामर्थ्येन सर्वावयवेभ्यः समाकृष्य देशस्थाने समानीय संस्तम्भयति, तथा पूर्वगतथुतानुसारतोऽर्थ व्यञ्जन- योगसंक्रान्तिराहित्येनाशेपविषयेभ्यः संहृत्यैकस्मिन्नेव पर्याये योगस्य निर्वातस्थाने दीपशिखाबस्थिरी करणम् - एकत्ववितर्काऽविचारम् । गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक होता है। क्षपकश्रेणीकी अपेक्षासे तो अष्टम से लेकर दशम गुणस्थान तक होता है, ग्यारहवाँ गुणस्थान उपशान्तमोह होने से क्षपकश्रेणीमें आरूढ मुनि उसका स्पर्श न करते हुए दूसरे ध्यानका आरम्भ करके बारहवें गुणस्थान में जाते हैं । (२) एकत्व वितर्क - अविचार - जैसे मन्त्र जाननेवाला पुरुष समस्त शरीरमें व्याप्त fount मंत्रकी शक्तिद्वारा अन्य-अन्य अवयवोंसे खींचकर दंशस्थान ( जहां विषैला जन्तुने काटा है उस जगह ) पर स्तंभित कर देता है, वैसे ही पूर्वगत श्रुतके अनुसार अर्थ, व्यञ्जन और योगोंके परिवर्तन से रहिन होकर समस्त विषयोंसे विमुख होकर एक ही पर्यायके ध्यानमें वायुरहित स्थानमें रखे हुए दीपककी शिखा के समान स्थिर होजाना 'एकत्ववितर्क' ध्यान कहलाता है । અગ્યારમા ગુણુસ્થાન સુધી થાય છે. ક્ષપક શ્રેણીની અપેક્ષાએ કરીને તે આઠમાથી લઈને દસમા ગુણુસ્થાન સુધી થાય છે; અગ્યારમુ ગુણુસ્થાન ઉપશાન્તમેહ હાવાથી ક્ષપક શ્રેણીમાં આરૂઢ સુનિ એને સ્પર્શ ન કરતાં બીજા ધ્યાનને આરંભ કરીને બારમા ગુણુસ્થાનમાં જાય છે. (२) शेत्ववित-अवियार - प्रेम मंत्र लावावाणी ३ष आभा शरीरभा વ્યાપેલા વિષને મંત્રની શક્તિદ્વારા અન્ય અન્ય અવયવેામાંથી ખેંચી લઇને દંશસ્થાન ( જ્યાં ઝેરી જંતુ કરડયે હોય તે સ્થાન ) પર ભિત કરી દે છે, તેમ પૂગત શ્રુતને અનુસાર અાવ્યંજન અને યાગના પરિવર્તનથી રહિત થને બધા વિષયે થી વિમુખ થઈ એકજ પર્યાયના યાનમાં, વાયુરહિત સ્થાનમાં રાખેલા દીપકની શિખાની પડે સ્થિર થઈ જવું એ ‘એકવિતર્ક' કહેવાય છે M Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. २०-शुक्रध्यानस्वरूपम् ३४९ • , अयमाशयः-प्रथमं ध्यानं सपृथक्त्वं भवति, इदं तु पृथक्त्वरहितम् । अत्रैकमर्थ विहायार्थान्तरे, तथैकं शब्दं विहाय शब्दान्तरे, तथा योगाद् योगान्तरे संक्रमणं न भवति तस्मादिदमेकत्ववितर्काभिधानं ध्यानमिति । इदं च ध्यानं मनोवाकाययोगान्यतमयतामेव महामुनीनां जायते, अत्र योगानां संक्रमणाभावात् । । वथा चोक्तम्-"निजात्मद्रव्यमेकं वा, पर्यायमथवा गुणम् । . निश्चलं चिन्त्यते यत्र, तदेकत्वं विदुर्बुधाः ॥१॥ यद्वयञ्जनार्थयोगेपु, परावर्त्तविवर्जितम् ।। चिन्तनं तदविचारं, स्मृतं सद्धयानकोविदः ॥२॥” इति ॥ . तात्पर्य यह है कि पहला ध्यान पृथक्त्व (अनेकप्रकारता) सहित होता है किन्तु दूसरे भेदमें पृथक्त्व नहीं रहता। इसमें एक अर्थसे दूसरे अर्थमें संक्रमण नहीं होता, इसलिए इसे एकत्ववितर्क-ध्यान . कहते हैं । यह ध्यान मन वचन कार्ययोगोंमेंसे किसी एक योगवाले मुनिराजको ही होता है, अर्थात् इस ध्यानके समय एक ही योगमें स्थिर रहते हैं, क्योंकि इसमें योगोंका संक्रमण नहीं होता। कहा भी है- , - "जिस ध्यानमें केवल निज आत्मा का अथवा उसकी एक पर्यायका या एक गुणका. ध्यान किया जाता है उसे 'एकत्व' कहते हैं ॥१॥ जो व्यञ्जन अर्थ और योगोंके परिवर्तनसे रहित चिन्तन किया जाता है उसे 'अविचार' कहते हैं ॥२॥" . . तात्पर्य मे छ प ध्यान पृथ५५ (मने-४२t) सहित -डाय छे કિ બીજા ભેદમાં પૃથકત્વ રહેતું નથી. એમાં એક અર્થમાંથી બીજા - અર્થમાં, એક શબ્દમાંથી બીજા શબ્દમાં અને એક પેગમાંથી બીજા યુગમાં સંક્રમણ થતું નથી, તેથી એને એકવિતર્ક ધ્યાન કહે છે. . એ ધ્યાન મન વચન કાયાના એગોમાંના કેઈ એક ગવાળા મુનિરાજનેજ થાય છે, અર્થાત્ એ દયાનને સમયે એકજ એગમાં સ્થિર રહે છે, કારણ કે એમાં ગોનું સંક્રમણ થતું નથી. કહ્યું છે કે- - જે ધ્યાનમાં કેવળ નિજ આત્માનું અથવા એના એક પર્યાયનું યા એક ગુણનું ધ્યાન કરવામાં આવે છે, તેને “એકત્વ” કહે છે. (૧) વ્યંજન અર્થ અને ગોના પરિવર્તનથી રહિત ચિંતન કરવામાં આવે છે તેને “અવિચાર ४ छे. (२) " .. .. Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ३४८ श्रीववेकालियो पेक्षया दशमगुणस्थानं यावद, उपशमनेण्यपेसपा तु एकादशगुणस्थानं यावदनतीति विवेकः । (२) ततभेकसविताऽविचारमारमते, यथा सिदगारुडिकादिमन्त्रः सकलशरीरस्यापि विपमं विपं मन्त्रसामर्थ्येन सर्वाश्यवेभ्यः समाप्य दंशस्थाने समा. नीय संस्तम्भयति, तथा पूर्वगतश्रुतानुसारतोऽर्थ-व्यञ्जन-योगसंक्रान्तिराहित्येनाशेपविपयेभ्यः संवत्येकस्मिन्नेव पर्याय योगस्य निर्वावस्थाने दीपशिखावस्थिरी फरणम्-एकत्ववितोऽविचारम् । गुणस्थानसे लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक होता है। क्षपकश्रेणीका अपेक्षासे तो अष्टमसे लेकर दशम गुणस्थान तक होता है, ग्यारहवा गुणस्थान उपशान्तमोह होनेसे क्षपकोणीमें आरूढ मुनि उसका स्पश न करते हुए दूसरे ध्यानका आरम्भ करके यारहवें गुणस्थान में जाते है। (२) एकत्वचितर्क-अविचार-जैसे मन्त्र जाननेवाला पुरुष समस्त शरीरमें व्याप्त विपको मंत्रकी शक्तिद्वारा अन्य-अन्य अवयवोंसे खींचकर दंशस्थान (जहां विपैला जन्तुने काटा है उस जगह ) पर स्तमित कर देता है, वैसे ही पूर्वगत श्रुतके अनुसार अर्थ, व्यञ्जन और योगाक परिवर्तनसे रहित होकर समस्त विषयोंसे विमुख होकर एक ही पर्यायक ध्यानमें वायुरहित स्थानमें रखे हुए दीपककी शिखा के समान स्थिर होजाना 'एकत्ववितर्क' ध्यान कहलाता है। અગ્યારમાં ગુણસ્થાન સુધી થાય છે. ક્ષપક-શ્રેણીની અપેક્ષાએ કરીને તે આ માથી લઈને દસમા ગુણસ્થાન સુધી થાય છે, અગ્યારમું ગુણસ્થાન ઉપશાન્તભાઈ હેવાથી લપક શ્રેણીમાં આરૂઢ મુનિ એને સ્પર્શ ન કરતાં બીજા ધ્યાનના આરંભ કરીને બારમાં ગુણસ્થાનમાં જાય છે. (૨) એકવિતર્ક-અવિચાર–જેમ મંત્ર જાણવાવાળે પુરૂષ આખા શરીરમાં વ્યાપેલા વિષને મંત્રની શક્તિદ્વારા અન્ય અન્ય અવયવોમાંથી ખેંચી લઈને દંશસ્થાન ( જ્યાં ઝેરી જંતુ કરડ હોય તે સ્થાન) પર ખંભિત કરી દે છે, તેમ પૂર્વગત શ્રતને અનુસાર અર્થ વ્યંજન અને એમના પરિવર્તનથી રહિત થઈને બધા વિષયેથી વિમુખ થઈ એકજ પર્યાયના બયાનમાં, વાયુરહિત સ્થાનમાં રાખેલા દીપકની શિખાની પેઠે સ્થિર થઈ જવું એ “એકવિતર્ક” કહેવાય છે. Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. २१-फर्मरजोधुनने केवलज्ञानप्राप्तिः टीका-यदाऽबोधिकलपकृतं कर्मरजो धुनाति तदा सर्वत्रगं सर्वत्र गच्छति व्यामोतीति सर्वत्रगं सकललोकालोकव्यापि तद, ज्ञान ज्ञायन्ते परिच्छिद्यन्ते द्रव्य-गुण-पर्यायादयोऽनेनेति ज्ञानं केवलज्ञानमित्यर्यस्त , दर्शनं दृश्यन्ते साक्षाक्रियन्ते द्रव्यादयो येनेति दर्शनम् केवलदर्शनमित्यर्थस्तत् । “सामान्याविबोधो दर्शनं, विशेपार्थावबोधो ज्ञान"-मित्युभयोर्मेदः, तयाहि "सामगरगहणं दसगमेयं विसेसियं नाणं" इति, च समुच्चये, अभिगच्छतिकर्मजनितसकलाऽऽवरणामावादतिशयेन सम्मानोति सयोगिकेवलिगुणस्यानमारोहतीत्यर्थः ॥२१॥ केवलज्ञान केवलदर्शनयोः फलमाह-'जया सन्चत्तगं' इत्यादि । जब साधु मिथ्यात्वरूपी पापसे उत्पन्न हुए कर्मरजको नष्ट कर देते है तय समस्त लोकाकाश और अलोकाकाशमें व्यापी द्रव्य पर्यायोको जाननेवाला केवलज्ञान तथा केवलदर्शन प्राप्त होता है। पदार्थोंका सामान्य ज्ञान होना दर्शन है और विशेष ज्ञान होना ज्ञान है, यही दोनोंमें भेद है, कहाभी है- . "सामान्यका ग्रहण होना दर्शन है और विशेष का ग्रहण होना ज्ञान है।" कर्मासे उत्पन्न हुए समस्त आवरणोंके अभावसे इन दोनों (ज्ञानदर्शन)को प्राप्त करते हैं ॥ २१ ।। केवलज्ञान और केवलदर्शन का फल कहते हैं-'जया सव्वत्तगं' इत्यादि । જ્યારે સાધુ મિથ્યાત્વરૂપી પાપથી ઉત્પન્ન થએલી કર્મજને નષ્ટ કરી નાંખે છે, ત્યારે સમસ્ત લોકાકાશ અને અલકાકાશમાં વ્યાપેલા દ્રવ્ય પર્યાને જાણવાવાળું કેવળજ્ઞાન તથા કેવળદર્શન પ્રાપ્ત થાય છે. પદાર્થોનું સામાન્ય જ્ઞાન થવું એ દર્શન છે અને વિશેષ જ્ઞાન થવું એ જ્ઞાન છે. એ બેઉમાં ભેદ છે. કહ્યું છે કે “સામાન્યનું ગ્રહણ થવું એ દર્શન છે. અને વિશેષનું ગ્રહણ થવું એ शान छ." કર્મોથી ઉત્પન્ન થએલાં સર્વ આવરણના અભાવથી એ બેઉ જાન-દર્શન)ને प्रात ४३ छ. (२१) पशान भने पनि १ ४३ है-जया सचचगं त्याल. Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० भीचरकालिको इदं ध्यानं क्षीणमोहनीयगुणस्याने पत्र मावि, एतदपानपरमसमये सपा श्रेण्याल्लो मुनिनावरणीयं दर्शनावरणीयमन्तरायामय प, श्रीणि कर्माणि युग पद क्षपयति, अस्य ध्यानस्य फलं घ केरलमान केवलदर्भनाऽनन्तवीर्यमाप्तिरेत, प्रकृतध्यानद्वयमन्तरेण केवलज्ञानं लधुमशरयम् । एतयोमयं ध्यानं छपस्थाना जायते, तृतीयचतुर्थे तु केवलिनामेव भवत इति बोदव्यम् ॥२०॥ पाविकर्मक्षयननितफलं प्रदर्शयितुमुक्रमते-'जया घुगइ' इत्यादि । मूलम्-जया धुणइ कम्मरयं, अवोहिकलसंकडं । तया सबत्तगं नाणं, दंसणं चाभिगच्छद ॥२१॥ छाया-यदा धुनाति फर्मरजोऽवोधिकलपकृतम् । ___तदा सर्वत्रगं ज्ञानं, दर्शनं चाभिगच्छति ॥२१॥ सान्वयार्थः-जया जब अयोहिकलसंकडं आत्माके मिथ्यास्वपरिणाम द्वारा उपार्जित किये हुए कम्मरयं-कर्मरूपी रजको धुणइ-इटा देता है, तयार तव सव्वत्तगं-सब जगह जानेवाळे-सव पदार्थोंको जाननेवाले नाणं-ज्ञानका च-और दंसणं-दर्शनको अभिगच्छह माप्त करता है ॥२१॥ यह ध्यान क्षीणमोहनीय गुणस्थानमें ही होता है । इस ध्यानके अन्तमें ज्ञानावरणीय,दर्शनावरणीय और अन्तराय नामक तीन घात कर्मोंका एक साथ ही क्षय हो जाता है । इस ध्यानका फल केवलज्ञान, केवलदर्शन और अनन्तवीर्यकी प्राप्ति है। इन दोनों ध्यानोंके विना केवलज्ञान नहीं प्राप्त होसकता । ये दोनों ध्यान छद्मस्थोंको होते है। तथा तीसरा और चौथा ध्यान केवलियों को होता है॥२०॥ .. घातिकर्मोंके क्षय होनेसे उत्पन्न होनेवाला फल बतलाते ह-'जया धुणई' इत्यादि । એ ધ્યાન ક્ષીણુમેહનીય ગુણસ્થાનમાં જ થાય છે. એ ધ્યાનના અન્ય જ્ઞાનાવરણીય, દર્શનાવરણય અને અન્તરાય નામનાં ત્રણ ઘાતિ-કર્મોને એકસાથે જ ક્ષય થઈ જાય છે. એ ધ્યાનનું ફલ કેવળ જ્ઞાન, કેવળ દર્શન અને અનંત વીર્યની પ્રાપ્તિ છે એ બેઉ ધ્યાન વિના કેવળ જ્ઞાન પ્રાપ્ત થઈ શકતું નથી. આ બેઉ ધ્યાન છઘને થાય છે, તથા ત્રીજું અને શું ધ્યાન કેવળીએન थाय छे. (२०) धांत भाना क्षय यायी 64 यना मता -जया त्याls. Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५३ अध्ययन ४ गा. २२-लोकस्वरूपम् । मस्माभिरवलोक्यते तावानेव लोकः ?, नहि, अनन्तज्ञानसम्पन्नेन सर्वज्ञेन यो लोक्यते स लोक इति । नन्वतेनाऽलोकस्यापि लोकत्वमसनस्तस्यापि सर्वज्ञेनावलोकितत्वात् , तयाचाऽलोकोऽपि कि लोकः ? न, यतो लोक्यते धर्मास्तिकायावाधारभूत आकाशविशेपो यः स लोक इत्यवधार्यम् । स च कटितटोभयपार्वतोनिहितहस्तद्वयो विस्फारितपादयुगलोऽवस्थितः पुरुप इव मृत्यबॅरयोपासकाकृतिको वा ऊध्वोऽध-स्तियग्भेदमिन्नश्चतुर्दशरज्जुपरिमितोऽसंख्यातमदेशात्मक आकाशविशेपस्तम् । तद्विपरीतोऽलोकः । उत्तर-उतना ही नहीं है। अनन्तज्ञानी सर्वज्ञ भगवान् द्वारा जितना देखा जाता है उतना लोक है। प्रश्न-केवली भगवान् अलोकको भी देखते हैं तो उनके देखनेसे अंलोक भी लोक हो जायगा ? उत्तर-नहीं होगा। भगवान ने धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों का आधारभूत जो आकाश देखा है उसे लोक कहते हैं, ऐसा समझना चाहिये। . वह लोक कमरपर दोनों हाथ रखकर, पैर फैलाकर खड़े हुए पुरुप के आकारका, अथवा नाचते हुए भैरवोपासक (भोपा) की आकृतिका है। इसके तीन भेद है-(१) उर्ध्वलोक, (२) मध्यलोक, (३) अधोलोक। यह चौदह राजू जितना ऊंचा और असंख्यात-प्रदेशमय है । अलोकाकाश इससे विपरीत है। ઉત્તર–એટલે જ નહિ. અનંતજ્ઞાની સર્વજ્ઞ ભગવાન દ્વારા જેટલો જેવાય છે એટલે લોક છે. પ્રશ્ન–કેવળી ભગવાન તે અલકને પણ જુએ છે તે એમને જેવાથી અલેક પણ લેક થઈ જશે ? ઉત્તર–નહિ થાય. ભગવાને ધર્માસ્તિકાય આદિ દ્રવ્યનું આધારભૂત જે આકાશ જોયું છે એને લેક કહે છે, એમ સમજવું જોઈએ. એ લેક કમર પર બેઉ હાથ રાખીને, પગ ફેલાવીને ઊભેલા પુરૂષના આકારને, અથવા નાચતા વેપાસક (ભુવા)ની આકૃતિ છે. તેના ત્રણ ભેદ છે. (१) aals, (२) मध्यals, (3) अपाता. मे यो २०२५ 6य! भने અસંખ્યાત પ્રદેશમય છે. અલકાકાશ એથી વિપરીત છે. Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ श्रीदप्रकाग्निकम्त्र - . . मूलम्-जया सबत्तगं नाणं, दंसणं चाभिगच्छद। तया लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली ॥२२॥ छाया-पदा सर्वत्रगं शान, दर्शनं चामिगच्छति । तदा लोकमलोकं च, जिनो नानाति केवली ॥२२॥ सान्वयार्थ:-जया-जय सव्यत्तगं-सब जगह जानेवाले-सब पदायाँका जाननेवाले नाणं-शानको च और दसणं-दर्शनको अभिगच्छइ माप्त करता है, तया तब जिणोधीतराग केवली केवलनानी होते-हुए लोगमलोगं चलोक और अलोकको जाणइ-जानते हैं ॥२२॥ टीका-यदा केवलज्ञानं केवलदर्शनं च प्रामोति तदा जिनाम्यातिकमविजता, केवली केवलज्ञानी सन् लोकं लोक्यत इति लोकस्तं जानाति-करतलामलकर ज्ज्ञानविपयीकरोति । आह-ननु कोऽयं लोकपदार्थ:? यदि केनचिदेको ग्रामोऽवलोकितस्तर्हि कि तावानेव लोकः? न, अपरेण ततोऽप्यधिकग्रामदर्शनात् । तर्हि यावद् प्रामादिक • जय सर्वव्यापी ज्ञान तथा दर्शनको प्राप्त करते हैं तब केवली होकर लोक और अलोकको जानते हैं। ___ जो देखा जाता है उसे लोक कहते हैं। प्रश्न-यदि किसीने एक ग्राम देखा हो तो लोक क्या उतना ही होगा? उत्तर-उतना ही नहीं होगा, क्योंकि दूसरे उससे अधिक ग्राम देखते हैं ? , प्रश्न-तो हमलोग जितने ग्रामोंको देखते हैं उतना ही लोक है ? - જ્યારે સર્વવ્યાપી જ્ઞાન તથા દર્શનને પ્રાપ્ત કરે છે ત્યારે કેવળી થઈને લોક અને અલકને જાણે છે. २ शाय तेन at 88 छ. પ્રશ્ન–જે કેઈએ એક ગ્રામ જેયું હોય તે લોક શું એટલે જ હોય ? ઉત્તર એટલે જ નહિ હોય, કારણ કે બીજાઓ એથી વધારે ગ્રામ जुमे छे. પ્રશ્ન–તે આપણે જેટલાં ગ્રામને જોઈએ છીએ એટલે જ લેક છે? Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -- अध्ययन ४ गा. २२-लोकस्वरूपम् मस्माभिरवलोक्यते तावानेव लोकः ?, नहि, अनन्तज्ञानसम्पन्नेन सर्वज्ञेन यो लोक्यते स लोक इति । - नन्वतेनाऽलोकस्यापि लोकलप्रसङ्गस्तस्यापि सर्वज्ञेनावलोकितत्वात् , तथाचालोकोऽपि किं लोकः ? न, यतो लोक्यते धर्मास्तिकायाधाधारभूत आकाशविशेपो यः स लोक इत्यवधार्यम् । स च कटितटोभयपार्श्वतोनिहितहस्तद्वयो विस्फारितपादयुगलोऽवस्थितः पुरुप इव नृत्यङ्गैरवोपासकाकृतिको वा ऊवोऽध. -स्तिर्यग्मेदभिन्नवतुर्दशरज्जुपरिमितोऽसंख्यातमदेशात्मक आकाशविशेपस्तम् । तद्विपरीतोऽलोकः । उत्तर-उतना ही नहीं है। अनन्तज्ञानी सर्वज्ञ भगवान द्वारा जितना देखा जाता है उतना लोक है। प्रश्न-केवली भगवान् अलोकको भी देखते हैं तो उनके देखनेसे अलोक भी लोक हो जायगा? - उत्तर नहीं होगा। भगवान्ने धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों का आधारभूत जो आकाश देखा है उसे लोक कहते हैं, ऐसा समझना चाहिये। . वह लोक कमरपर दोनों हाथ रखकर, पैर फैलाकर खड़े हुए पुरुष के आकारका, अथवा नाचते हुए भैरवोपासक (भोपा) की आकृतिका है। इसके तीन भेद हैं-(१) उर्ध्वलोक, (२) मध्यलोक, (३) अधोलोक । यह चौदह राजू जितना ऊंचा और असंख्यात-प्रदेशमय है । अलोकाकाश इससे विपरीत है। ઉત્તર–એટલે જ નહિ. અનંતજ્ઞાની સર્વજ્ઞ ભગવાન દ્વારા જેટલા જેવાય છે मेट व . પ્રશ્ન–-કેવળી ભગવાન તે અલોકને પણ જુએ છે તે એમના જેવાથી અલેક પણ લોક થઈ જશે ? ઉત્તર–નહિ થાય. ભગવાને ધર્માસ્તિકાય આદિ દ્રવ્યોનું આધારભૂત જે આકાશ જોયું છે એને લક કહે છે, એમ સમજવું જોઈએ. એ લેક કમર પર બેઉ હાથ રાખીને, પગ ફેલાવીને ઊભેલા પુરૂષના આકારને, અથવા નાચતા ભરપાસક (ભુવા)ની આકૃતિનો છે. તેના ત્રણ ભેદ છે. (१) grals, (२) मध्य, (3) अघासा. ये यौह सन् २०3 Gयो भने અસંખ્યાત પ્રદેશમય છે. અલકાકાશ એથી વિપરીત છે. Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ श्रीवकालिको - - D . मूलम्-जया सवत्तगं नाणं, सणं चाभिगच्छद। " तया लोगमलोगं च, जिणो जाणड केवली ॥२२॥ छाया-यदा सत्रगं शानं, दर्शन पामिगनति । तदा लोकमलोकं च, जिनो जानाति केवली ॥२२॥ सान्ययार्थ:-जया-जय सत्यत्तगं-सब जगह जानेवाले-सब पदार्थाका जाननेवाले नाणं पानफो च और दंसणंदनको अभिगच्छा-माप्त करता है, तया तब जिणोधीतराग केवली केवलशानी होते हुए लोगमलोगं च लोक और अलोकको जाणइ-जानते हैं ॥२२॥ टीका-यदा केवलज्ञानं केवलदर्शनं च मानोति तदा जिना घातिकमविजता केवली-केवलज्ञानी सन् लोकं लोक्यत इति लोकस्तं जानाति-करतलामलकर ज्ज्ञानविपयीकरोति । आह-ननु कोऽयं लोकपदार्य:? यदि केनचिदेको ग्रामोऽवलोकितस्तहि कि तावानेव लोकः? न, अपरेण ततोऽप्यधिकग्रामदर्शनात् । तहि यावद् ग्रामादिक - जच सर्वव्यापी ज्ञान तथा दर्शनको प्राप्त करते हैं तब केवली होकर लोक और अलोकको जानते हैं। जो देखा जाता है उसे लोक कहते हैं। प्रश्न-यदि किसीने एक ग्राम देखा हो तो लोक क्या उतना ही होगा ? उत्तर-उतना ही नहीं होगा, क्योंकि दूसरे उससे अधिक ग्राम देखते हैं ? . प्रश्न-तो हमलोग जितने ग्रामोंको देखते हैं उतना ही लोक है ? . • જ્યારે સર્વવ્યાપી જ્ઞાન તથા દર્શનને પ્રાપ્ત કરે છે ત્યારે કેવળી થઈને લોક અને અલકને જાણે છે. रेनेशाय तnal छ પ્રશ્ન- કેઈએ એક ગ્રામ જેયું હોય તે લોક શું એટલે જ હોય ? ઉત્તર એટલે જ નહિ હોય, કારણ કે બીજાઓ એથી વધારે ગ્રામ गुमे छे. પ્રશ્ન–તે આપણે જેટલાં ગ્રામેને જોઈએ છીએ એટલે જ લેક છે? Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन ४ गा. २२-अलोकस्वरूपम् ‘लोकः सपतिपक्षः, व्युत्पत्तिमच्छुद्धपदाभिवेयत्वात् , यो हि व्युत्पत्तिमच्छुद्धपदाभिधेयः स सप्रतिपक्ष एव भवति, यया घटः । यश्च लोकमतिपक्षः स एवं सद्भूतोऽलोकः, अस्तित्ववत एवं प्रतिपक्षित्वसम्भवात् । - ननु 'न लोकोऽलोकः' इति व्युत्पत्या घटादिप्वन्यतम एवालोकः सिध्यति किं पदार्यान्तरकल्पनया ? इति चेदुच्यते-'न लोकः' इत्यत्र नत्रः पर्युदासार्थक लोक अपने प्रतिपक्ष (विरोधी-अलोक) की अपेक्षा रखता है, क्योंकि वह व्युत्पत्तिवाले समासरहित पदका वाच्य (अर्थ) है । जो जो व्युत्पतिवाले समासरहित पदका वाच्य होता है वह प्रतिपक्षसहित ही होता है, जैसे घट । घट व्युत्पत्तिवाला है और समासरहित है, अर्थात् दो पद मिल कर नहीं बना हुआ है, अत एव घटके प्रतिपक्ष अघट-पट, मुकुट, शकट, कट आदि भी अवश्य होते हैं । लोकका जो प्रतिपक्ष है वह अस्तित्ववान् अलोक है, क्योंकि अस्तित्ववान् पदार्थ ही किसीका प्रतिपक्ष हो सकता है। गधेका सींग आदि नास्तित्ववान पदार्थ किसीके प्रतिपक्ष नहीं होते ॥ प्रश्न-'जो लोक नहीं वह अलोक है। ऐसा माननेसे लोकसे भिन्न जितने घट पट आदि पदार्थ हैं वे सब अलोक होंगे, क्योंकि वे लोक नहीं है-लोकसे भिन्न हैं। फिर घट आदि पदार्थोंसे भिन्न एक अलग अलोक क्यों मानते हो ? લેક પિતાના પ્રતિપક્ષ (વિરોધી-અલેક) ની અપેક્ષા રાખે છે, કારણ કે એ વ્યુત્પત્તિવાળા સમારહિત શબ્દને વાચ્ય (અર્થ) છે. જે જે વ્યુત્પત્તિવાળા સમાસારહિત શબ્દને વચ્ચે હોય છે તે પ્રતિપક્ષસહિત જ હોય છે. જેમ ઘટ, ઘટ વ્યુત્પત્તિવાળે છે અને સમાસરહિત છે, અર્થાત બે શબ્દ મળવાથી બનેલું નથી, તેથી ઘટને પ્રતિપક્ષ-અઘટ-પટ, મુકટ, શકટ, કટ આદિ પણ અવશ્ય હોય છે. લેકને જે પ્રતિપક્ષ છે તે અસ્તિત્વવાન અલેક છે, કારણ કે અસ્તિત્વવાન પદાર્થ જ કેઈને પ્રતિપક્ષ થઈ શકે છે. ગધેડાનું શીંગડું વગેરે નાસ્તિત્વવાન પદાર્થ કોઈને પ્રતિપક્ષ થતું નથી. પ્રશ્ન-બજે લોક નથી તે અલેક છે” એમ માનવાથી લોકથી ભિન્ન જેટલા ઘટ પટ આદિ પદાર્થો છે તે બધા અલેક થશે, કારણ કે તે લેક નથી–લેકથી ભિન્ન છે. પછી ઘટ આદિ પદાર્થોથી ભિન્ન એક જૂદ અલેક કેમ માને છે ? - - - Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ भीदमेकासिम अस्तु लोको जीरपुमलादीनागनाधारतयाऽवस्थानासम्मवाद , अलोकस्तु कयम्। तस्याऽमृनत्यनेन्द्रियागोचरतगाऽस्तित्वसाधरापमाणामावान , इन्द्रियागोचरे चाचे मनःपत्तेः कदाऽप्यसम्मरादिति न शनीयम् , इन्द्रियनोइन्द्रियविषयवाभावमा दशेनेन तदस्तित्वनिराकरणस्पाऽशरथत्वात , अन्यथा हि प्रपितामहादीनामपि तन एवामाः माप्नुयात् । यतः 'आसन् मपितामहादयोऽस्मादादिशरीरस्याऽन्ययाः पपनस्वाद' इत्पनुमानेन तेपामस्तिस्त्र साध्यते चेदलोकस्याप्यनुमानेन सिद्धिरन वधैव, तयाहि प्रश्न-जीव और पुद्गल आदि विना आधारके नहीं ठहर सकते; अत: लोकाकाश मानना तो ठीक है, परन्तु अलोकाकाशके अस्तित्वम क्या प्रमाण है ?, कारण यह कि इन्द्रियोंका यह विषय नहीं है, क्योंकि अमूर्त है। जिस विपयमें इन्द्रियोंकी प्रवृत्ति नहीं होती उसमें मन । प्रवृत्त नहीं हो सकता। अत एव न इन्द्रियोंसे अलोकाकाशको जान सकते हैं और न मनसे । उत्तर-यह प्रश्न ठीक नहीं है, क्योंकि इन्द्रिय और मनका विषय न होनेसे उसके अस्तित्वका खण्डन नहीं हो सकता, अन्यथादादे परदार आदि पूर्वजोंका भी अस्तित्व सिद्ध नहीं होगा, क्योंकि वे भी इन्द्रिय और मनके विपय नहीं होते। यदि कोई इस अनुमानसे पूर्वजाक अस्तित्व सिद्ध करे कि-पितामह (दादा) आदि पूर्वजोंका किसी समय अस्तित्व था, क्योंकि उनके विना हमारा शरीर नहीं बन सकताता अनुमानसे ही अलोककी भी सिद्धि मान लेनी चाहिए।अनुमान यह हर પ્રમ–જીવ અને પુદગલ આદિ આધાર વિના રહી શક્તા નથી, તેથી કાકાશ માનવું એ તે બરાબર છે, પરંતુ અલકાકાશના અસ્તિત્વનું શું મમ છે, કારણ એ છે કે ઇંદ્રિયને એ વિષય નથી કેમકે અમૂર્ત છે. જેને ઈન્દ્રની પ્રવૃત્તિ થતી નથી તેમાં મન પણ પ્રવૃત્ત થઈ શકતું નથી. એથી ઇન્દ્રિયોથી અલકાકાશને જાણી શકાતું નથી તેમજ મનથી પણ જાણી શકાતુ ન* ઉત્તર–એ પ્રશ્ન બરાબર નથી. કેમકે ઈન્દ્રિય અને મનને વિષય છે હોવાથી તેને અસ્તિત્વનું ખંડન થઈ શકતું નથી. એમ તે દાદા પડદાદા આ પૂર્વજોનું પણ અસ્તિત્વ સિદ્ધ નહિ થાય, કેમકે તે પણ ઇન્દ્રિય અને મને વિવય નથી હોતા. જે કોઈ અનુમાનથી પૂર્વનું અસ્તિત્વ સિદ્ધ કરે છે અને મહ (દાદા) આદિ પૂર્વજોને કોઈ સમયે અસ્તિત્વ હતું, કારણ કે એના વિ આપણું શરીર બની શકે નહિ, તે અનુમાનથી જ એલેકની પણ સિદ્ધિ માન લેવી જોઈએ, અનુમાન એ છે કે सयभा सन Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - अध्ययन ४ गा. २२-अलोकस्वरूपम् ३५५ लोकः सपतिपक्षः, व्युत्पतिमच्छुद्धपदाभिधेयत्वात् , यो हि व्युत्पत्तिमच्छुद्धपदाभिधेयः स सप्रतिपक्ष एव भवति, यथा घटः। यश्च लोकमतिपक्षः स एवं सद्भूतोऽलोकः, अस्तित्ववत एव प्रतिपक्षित्वसम्भवात् । ननु 'न लोकोऽलोकः' इति व्युत्पत्त्या घटादिप्यन्यतम एवालोकः सिध्यति -किं पदार्थान्तरकल्पनया? इति चेदुच्यते 'न लोकः' इत्यत्र नत्रः पर्युदासार्थक लोक अपने प्रतिपक्ष (विरोधी-अलोक)की अपेक्षा रखता है, क्योंकि वह व्युत्पत्तिवाले समासरहित पदका वाच्य (अर्थ) है। जो जो व्युत्पत्तिवाले समासरहित पदका वाच्य होता है वह प्रतिपक्षसहित ही होता है, जैसे घट । घट व्युत्पत्तिवाला है और समासरहित है, अर्थात् दो पद मिल कर नहीं बना हुआ है, अत एव घटके प्रतिपक्ष-अघट-पट, मुकुट, शकट, कट आदि भी अवश्य होते हैं। लोकका जो प्रतिपक्ष है वह अस्तित्ववान् अलोक है, क्योंकि अस्तित्ववान् पदार्थ ही किसीका प्रतिपक्ष हो सकता है । गधेका सींग आदि नास्तित्ववान पदार्थ किसीके प्रतिपक्ष नहीं होते ॥ प्रश्न- जो लोक नहीं वह अलोक है। ऐसा माननेसे लोकसे भिन्न जितने घट पट आदि पदार्थ हैं वे सब अलोक होंगे, क्योंकि वे लोक नहीं है-लोकसे भिन्न हैं। फिर घट आदि पदार्थोंसे भिन्न एक अलग अलोक क्यों मानते हो? લેક પિતાના પ્રતિપક્ષ (વિરોધી-અલેક) ની અપેક્ષા રાખે છે, કારણ કે એ વ્યુત્પત્તિવાળ સમાસારહિત શબ્દને વાસ્થ (અર્થ) છે. જે જે વ્યુત્પત્તિવાળા સમાસારહિત શબ્દને વાર હોય છે તે પ્રતિપક્ષસહિત જ હોય છે. જેમ ઘટ, ઘટ વ્યુત્પત્તિવાળે છે અને સમાસરહિત છે, અર્થાત્ બે શબ્દ મળવાથી બનેલે નથી, તેથી ઘટને પ્રતિપક્ષ-અઘટ-પટ, મુકુટ, શકટ, કટ આદિ પણ અવશ્ય હોય છે. લેકને જે પ્રતિપક્ષ છે તે અસ્તિત્વવાન્ અલેક છે, કારણ કે અસ્તિત્વવાન પદાર્થ જ કેઈને પ્રતિપક્ષ થઈ શકે છે. ગધેડાનું શીંગડું વગેરે નાસ્તિત્વવાન પદાર્થ કોઈને પ્રતિપક્ષ થતું નથી. પ્રશ્ન- જે લેાક નથી તે અલેક છે' એમ માનવાદી લેકથી ભિન્ન જેટલા ઘટ પટ આદિ પદાર્થો છે તે બધા અલોક થશે, કારણ કે તે લેક નથી–લેકથી ભિન્ન છે. પછી ઘટ આદિ પદાર્થોથી ભિન્ન એક જૂદ અલેક કેમ માને છે ? Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ श्रीराम 3 अस्तु लोको जलादीनामनाधारतयाऽयस्थानासम्भवात्, अलोकस्नु कथम् तस्याऽमूर्त्तस्ये नेन्द्रियागोचरतयाऽस्तित्वगायक पमाणाभावात् इन्द्रियागोचरे जायें मनःपटतेः कदाऽप्यसम्भवादिति न शङ्कनीयम् इन्द्रियनोइन्द्रियविषयत्वाभावमात्रदर्शनेन तदस्तित्व निराकरणस्याऽशरथत्वात्, अन्यथा हि प्रपितामहादीनामपि तत एत्राभावः प्राप्नुयात् । यतः 'आसन मपितामहादयोऽस्मादादिशरीरस्याऽन्यथाऽनुपस्चात्' इत्यनुमानेन तेपामस्तित्वं साध्यते चेदलोकस्याप्यनुमानेन सिद्धिरन वधैव, तयाहि प्रश्न-जीव और पुल आदि विना आधारके नहीं ठहर सकते; अतः लोकाकाश मानना तो ठीक है, परन्तु अलोकश के अस्तित्वमें क्या प्रमाण है ?, कारण यह कि इन्द्रियोंका यह विषय नहीं है, क्योंकि अमूर्त है । जिस विषयमें इन्द्रियोंकी प्रवृत्ति नहीं होती उसमें मन भी प्रवृत्त नहीं हो सकता । अत एव न इन्द्रियोंसे अलोकाकाशको जान सकते हैं और न मनसे उत्तर - यह प्रश्न ठीक नहीं है, क्योंकि इन्द्रिय और मनका विषय न होनेसे उसके अस्तित्वका खण्डन नहीं हो सकता, अन्यथा दादे परदादे आदि पूर्वजोंका भी अस्तित्व सिद्ध नहीं होगा, क्योंकि वे भी इन्द्रिय और मनके विषय नहीं होते । यदि कोई इस अनुमान से पूर्वजोंका अस्तित्व सिद्ध करे कि पितामह (दादा) आदि पूर्वजोंका किसी समय में अस्तित्व था, क्योंकि उनके बिना हमारा शरीर नहीं बन सकता तो अनुमान से ही अलोककी भी सिद्धि मान लेनी चाहिए। अनुमान यह है પ્રશ્ન-જીવ અને પુદ્ગલ આદિ આધાર વિના રહી શકતા નથી, તેથી લેાકાકાશ માનવું એ તે બરાબર છે, પરન્તુ અલેાકાકાશના અસ્તિત્વનું શું પ્રમાણ છે ?, કારણ એ છે કે છીદ્રેયાના એ વિષય નથી કેમકે અમૂર્ત છે. જે વિષયમ ઇન્દ્રિયાની પ્રવૃત્તિ થતી નથી તેમાં મન પણ પ્રવૃત્ત થઇ શકતું નથી. એથી કરીને ઇન્દ્રિયેથી અલાકાકાશને જાણી શકાતું નથી તેમજ મનથી પણ જાણી શકાતું નથી. ઉત્તર——એ પ્રશ્ન ખરાબર નથી. કેમકે ઇન્દ્રિય અને મનને વિષય ન હાવાથી તેના અસ્તિત્વનું ખંડન થઈ શકતુ નથી એમ તે દાદ પૂર્વજોનું પણ અસ્તિત્વ સિદ્ધ નહિ થાય, કેમકે તે પણ ઇન્દ્રિય અને મનના વિષય નથી હાતા. જો કેાઈ અનુમાનથી પૂજાનું અસ્તિત્વ સિદ્ધ કરે કે પિતામહ ( દાદા ) આદિ પૂર્વજોનું કોઇ સમયે અસ્તિત્વ હતું, કારણ કે એના વિના આપણુ શરીર બની શકે નહિ, તે અનુમાનથી જ અલાકની પણ સિદ્ધિ પડદાદા અહિં માની Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Reapp - - अध्ययन ४ गा. २२-अलोकस्वरूपम् 'लोकः सपतिपक्षः, व्युत्पत्तिमच्छुद्धपदाभिधेयत्वात् , यो हि व्युत्पत्तिमच्छुद्धपदाभिधेयः स सपतिपक्ष एव भवति, यथा घटः । यश्च लोकमविपक्षः स एवं सद्भूतोऽलोकः, अस्तित्ववत एवं प्रतिपक्षित्वसम्भवात् । ननु 'न लोकोऽलोकः' इति व्युत्पत्या घटादिप्यन्यतम एवालोकः सिध्यति -किं पदार्यान्वरकल्पनया ? इति चेदुच्यते-' लोका' इत्यत्र नत्रः पर्युदासार्थक लोक अपने प्रतिपक्ष (विरोधी-अलोक) की अपेक्षा रखता है, क्योंकि वह व्युत्पत्तिवाले समासरहित पदका वाच्य (अर्थ ) है । जो जो व्युत्प. त्तिवाले समासरहित पदका वाच्य होता है वह प्रतिपक्षसहित ही होता है, जैसे घट । घट व्युत्पत्तिवाला है और समासरहित है, अर्थात् दो पद मिल कर नहीं बना हुआ है, अत एव घटके प्रतिपक्ष-अघट-पट, मुकुट, शकट, कट आदि भी अवश्य होते हैं । लोकका जो प्रतिपक्ष है वह अस्तित्ववान अलोक है, क्योंकि अस्तित्ववान् पदार्थ ही किसीका प्रतिपक्ष हो सकता है। गधेका सींग आदि नास्तित्ववान पदार्थ किसीके प्रतिपक्ष नहीं होते। प्रश्न-'जो लोक नहीं वह अलोक है। ऐसा माननेसे लोकसे भिन्न जितने घट पट आदि पदार्थ हैं वे सब अलोक होंगे, क्योंकि वे लोक नहीं है-लोकसे भिन्न हैं। फिर घट आदि पदार्थोंसे भिन्न एक अलग अलोक क्यों मालते हो ? લેક પિતાના પ્રતિપક્ષ (વિરોધી-અલેક) ની અપેક્ષા રાખે છે, કારણ કે એ વ્યુત્પત્તિવાળા સમાસહિત શબ્દને વાય (અર્થ) છે. જે જે વ્યુત્પત્તિવાળા સમાસારહિત શબ્દને વાસ્થ હોય છે તે પ્રતિપક્ષસહિત જ હોય છે. જેમ ઘટ, ઘટ વ્યુત્પત્તિવાળે છે અને સમાસરહિત છે, અર્થાત બે શબ્દો મળવાથી બનેલ નથી, તેથી ઘટને પ્રતિપક્ષ-અઘટ-પટ, મુકુર, શર, કટ આદિ પણ અવશ્ય હેય છે. લેકિને જે પ્રતિપક્ષ છે તે અસ્તિત્વવાન અલેક છે, કારણ કે અસ્તિત્વવાન પદાર્થ જ કિઈને પ્રતિપક્ષ થઈ શકે છે. ગધેડનું શીંગડું વગેરે નાસ્તિત્વવાન પદાર્થ કેઈને પ્રતિપક્ષ થતો નથી. પ્રશ્ન – જે લેક નથી તે અલક છે” એમ માનવાથી લેકથી ભિન્ન જેટલા ઘટ પટ આદિ પદાથે છે તે બધા અલક થશે, કારણ કે તે લેક નધી-લોકથી - થી ભિન્ન એક જૂદે અલેક કેમ માને છે ? Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ भीववेकालिको त्वात्, 'पर्युदासः सदृशग्राहीति नियमानिध्यसाशेनेर भाष्यम् , निषेध्ययात्र जीवाऽजीवाऽऽदिद्रव्याधारभूत आकाशविशेषात्मको लोकः, अतोऽलोकोऽप्याफाशविशेषरूप एव भवितुं योग्यः, यया 'अधनोऽयम् । इत्युके धनरहितो मनुष्य एव गृह्यते न तु घटपटादिः, तदाऽप्यलोको लोकानुरूप एत्र बोदव्य इति ॥२२॥ उत्तर-जो लोक नहीं यह अलोक है। यहाँ नसमास है। नमधं दो प्रकारका होता है। एक नमर्थ ऐसा होता है कि वह जिसका निषेध किया जाता है उस निपेध्यके समानका ही ग्रहण करनेवाला होता है उसे पर्युदास कहते हैं। कहा भी है कि"पर्युदास सदृशका योधक होता है।" अत एवं लोकका निषध रूप अलोक भी लोकहीके समान होना चाहिए। निषेध्य यहाँ जाव अजीव आदि द्रव्योंका आधारभूत आकाशविशेष है, अत: अलोकमा आकाशविशेष (जीव अजीव आदि द्रव्योंके आधारसे भिन्न) हाना चाहिए। जैसे किसीने कहाकि यह 'अधन' है। इस वाक्यमें 'अधन' शब्दसे यह नहीं समझा जाता है कि यह घड़ा है या कपड़ा है, किन्तु धनरहित मनुष्य अर्थ ही समझा जाता है। इसी प्रकार यहाँ 'अलाक शब्दसे घड़ा नहीं समझना चाहिए किन्तु आकाशविशेष ही समझना चाहिए। केवली भगवान् इन लोक और अलोक दोनोंको जानते है ।।२।। उत्तर-2 at नथी तमसो छ. सभा न समास छ. नार्थ र પ્રકારના હોય છે. એક નબળે એ હોય છે કે તે જેને નિષેધ કરવામાં આવે છે આ નિધ્યની સમાનના જ ગ્રહણ કરનાર હોય છે, તેને પથુદાસ કહે છે, કહ્યું છે કે પર્યદાસ સદશને બોધક હોય છે” તેથી કરીને લેકના નિષેધરૂપ એક પણ લોકની જ સમાન હોવું જોઈએ. અહીં નિષેધ્ય જીવ-અછવ આદિ ને આધારભૂત આકાશ-વિશેષ છે, તેથી અલેક પણ આકાશવિશેષ (જીવ અજીવ આદિ દ્રવ્યાના આધારથી ભિન્ન ) હવે જોઈએ, જેમકે કોઈએ કહ્યું કે એ “અધન છે, એ વાકયમાં “અધન” શબ્દથી એમ નથી સમજાતું કે એ ઘડે છે યા કપડું છે, કિન્તુ ધનરહિત મનુષ્ય” એ અર્થ જ સમજાય છે. એ રીતે અહીં - અલક શબ્દથી ઘડે યા કપડું ન સમજવું જોઈએ, કિન્તુ આકાશવિશેષ જ સમજવું જોઈએ. કેવળી ભગવાન એ લેક અને અલેક બેઉને જાણે છે. (૨૨) - Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ अध्ययन ४ गा. २३-शैलेशीकरणस्वरूपम् ३५७ ___मूलम्-जया लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली। तया जोगे निरुभित्ता, सेलेसि पडिवजइ ॥ २३ ॥ . . छाया-यदा लोकमलोकं च, जिनो जानाति केवली । तदा योगानिरुध्य, शैलेशी मतिपद्यते ॥२३॥ __ सान्वयार्थ:-जया-अब जिणो-वीतराग केवली केवलज्ञानी होये हुए लोगमलोगं च लोक और अलोकको जाणइ जानते हैं, तया तब जोगे-मनवचन-कायके योगोंका निमित्ता-निरोध करके सेलेसिम्लेशीकरणको पडि. वनइ-पाप्त करते हैं ॥२३॥ टीका-'जया लोग'-मित्यादि । यदा जिनः केवली लोकालोकं जानाति तदा योगान-मनोवाकायलक्षणान् निरुध्य, तथादि-मुक्तिपदेऽन्तर्मुहूर्नभाविनि आग्रुप्यन्तमहर्त्तमात्रावशेषे सवि यद्यपातिकर्मचतुष्टयं स्वभावतः समस्थितिक स्यात्तदा निष्कलङ्कः परमकल्याणाऽऽस्पदीभूतः केवली सूक्ष्मक्रियाऽनिवाख्यं ध्यानमारभते । उत्कृष्टत आयुपः पण्मासावशेपे समुत्पन्न केवलस्य भगवतस्तु तदा "जया लोग०" इत्यादि । जब घातिकमोंको जीतनेवाले केवली भगवान् लोक और अलोकको जान लेते हैं तब योगोंका निरोध करके शैलेशी अवस्थाको प्राप्त करते हैं। (३) अन्तमुहर्त मात्र आयु शेष रहने पर यदि बाकी रहे हुए चारों अघातिया कोकी स्थिति स्वभावसे ही बराबर हो तो निष्कलङ्क परम कल्याणके आश्रयभूत केवली प्रभु सूक्ष्मक्रिय नामक शुक्ल ध्यानके तीसरे पायेका ध्यान प्रारम्भ करते हैं, किन्तु जिन्हें उत्कृष्ट आयुकर्म छह मास अवशेप रहने पर केवलज्ञान उत्पन्न होता है उन्हें नियमसे केवलिसमुद्धात जया लोग० ४त्यादि. न्यारे घाती नि लता जी भगवान at અને અલેકને જાણી લે છે ત્યારે પેગોને નિરોધ કરીને શૈલેશી અવસ્થાને 'प्राप्त ४३ छे. (૩) અન્તર્મહત્વે માત્ર આ શેષ રહેતાં જે બાકી રહેલા ચારે અઘાતી કમની સ્થિતિ સ્વભાવથી બરાબર હોય તે નિષ્કલંક પરમ કલ્યાણના આશયભૂત કેવળ પ્રભુ સૂકમકિય નામના શુકલ ધ્યાનના ત્રીજા પયાનું ધ્યાન પ્રારંભે છે. કિન્તુ જેમને ઉત્કૃષ્ટ આયુકર્મ છ માસ અવશેષ રહેતાં કેવળજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે, તેમને નિયમથી કેવળી સમુદૂઘાત કરે પડે છે, કારણ કે એમનું આયુષ્કર્મ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - ३५८ श्रीदनकालिकमरे युपोऽत्पत्वाद् वेदनीयनामगोप्रामगांव स्थितिराहुल्या नियतममुद्रातसाद , तत्कृत्वा वेदनीयादिषु चतुर्प समस्थितिकेगु सत्सु तदारम्भः । पदा जघन्ययोगयतः सजिपर्याप्तस्य मनोद्रव्याणि समयेर निरन्धन असंख्या तसमयैः सम्पूर्ण मनोयोगं, वत्पनात्पर्याप्तीन्द्रियस्य वाग्योगपर्यायतोऽसंख्यातगुणन्यूनवाग्योगपर्यायान् प्रतिसमयं निरुधन असंख्यातसमयेः सम्पूर्णवाग्योग ततच मयमसमयसमुत्पन्ननिगोदजीवस्य जघन्यकाययोगपर्यायतोऽसंख्यातगुणहीनफाययोगं पतिसमयं निरुन्धन असंख्यातसमयैर्वादरकाययोगं च सर्वथा निरुद्ध करना पड़ता है, क्योंकि उनका आयुकर्म अल्प होता है और उनके वेदनीय नाम गोत्र फोकी स्थिति अधिक होती है, इसलिए वे पहले समुद्धातके द्वारा चारों कोंकी स्थिति यरायर करके फिर तीसरे पार्यका ध्यान आरम्भ करते हैं। __ जय जघन्य योगवाले सन्जी पर्याप्तकके मनोदव्य और मनोद्रव्य के व्यापारोंसे असंख्यात गुणहीन मनोद्रव्योंका प्रतिसमयमें निरोध करते हुए असंख्यात समयों में सम्पूर्ण मनोयोगका निरोध कर देते हैं । तब मनोयोगका निरोध करके पर्याप्त दीन्द्रियके वचनयोगकी पर्यायसि असंख्यात गुणहीन वचनयोगकी पर्यायोंका प्रतिसमय निरोध करते हुए समस्त वचनयोगका निरोध करते हैं। वचन योगका सम्पूर्ण निरोध करके प्रथम समयमें उत्पन्न निगोदिया जीवके जघन्य काययोग की पर्यायों से असंख्यातगुणहीन काययोगका प्रतिसमय निरोध करते हुए असंख्यात समयोंमें बादर काययोगका भी सर्वथा निरोध कर देते हैं। અલ્પ હોય છે અને એમનાં વેદનીય નામ ગેત્ર ની સ્થિતિ વધારે હોય છે. તેથી કરીને તે પહેલાં સમુદ્દઘાતની દ્વારા ચારે કર્મોની સ્થિતિ બરાબર કરીને પછી ત્રીજા પાયાનું ધ્યાન આરંભે છે. જ્યારે જઘન્ય વેગવાળા સંશી પર્યાપ્તકના મને દ્રવ્ય અને મનેદ્રવ્યના વ્યાપારોથી અસંખ્યાતગુણહીન મન દ્રવ્યોને પ્રતિ સમયે નિરોધ કરતાં અસંખ્યાત સમયેમાં સંપૂર્ણ મને યોગને નિરોધ કરીને પર્યાપ્ત હીન્દ્રિયના વચનયાગના પર્યાથી અસંખ્યાતગુણહીન વચનગના પર્યાયેનો પ્રતિસમય નિરોધ કરતાં સમસ્ત વચનગને નિરોધ કરે છે વચનોગને સંપૂર્ણ નિરાધ કરીને પ્રથમ સમયમાં ઉત્પન્ન નિગેદિયા જીવના જઘન્ય કાગના પર્યાથી અસંખ્યાતગુણકત કાચગને પ્રતિસમય નિરોધ કરતાં અસંખ્યાત સમમાં ખાદર કાયયેગને Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ अध्ययन ४ गा. २३-शैलेशीकरणस्वरूपम् ३५९ तदेदं सूक्ष्मक्रियाऽनिवर्तिध्यानमुपक्रमते । तत्र श्वासोच्छापस्मरूपं सूक्ष्ममपि काययोगं निरुध्य अयोगित्वं प्राप्येत्यर्थः, शैलेशीम्-शैला पर्वतास्तेपामीशः शैलेशःमुमेरुस्तद्वत् स्थैर्य यस्यामवस्थायां सा, यहा शीलं यथाख्यातचारित्रं तस्येश:-- स्वामी शीलेशस्तस्येयमवस्था शैलेशी तां प्रतिपद्यते मध्यमकालेन 'अ-इ-उ-ऋल' इत्येवंरूपपञ्चलध्वक्षरोच्चारणसमकालस्थितिकं समुच्छिन्न क्रियाऽप्रतिपातिध्यानमनुः भवतीत्यर्थः, अर्थात् समस्त मनोयोग और वचनयोगका तथा बादर काययोगका निरोध होने पर सूक्ष्मक्रियाऽनिवति नामक तीसरे ध्यानको आरंभ करते हैं। तीसरे ध्यानके समय श्वासोच्छ्वासरूप काययोगकी सूक्ष्मक्रिया ही रहती है । इस ध्यानसे उस सूक्ष्मक्रियाका भी निरोध करके अयोगी हो जाते हैं । अयोगी होकर अर्थात् तेरहवें गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थानमें पहुंचकर शैलेशी अवस्थाको प्राप्त होते हैं। जिसमें शैलों (पर्वतों) के ईश (स्वामी) सुमेरु पर्वतके समान स्थिरता रहती है उसे शैलेशी अवस्था कहते हैं। अथवा-शील (यथाख्यातचारित्र) के ईश(स्वामी) को शीलेश कहते हैं, उनकी अवस्थाको शैलेशी कहते हैं। इस शैलेशी अवस्थाको प्राप्त होकर न धीमे न जल्दी अर्थात् मध्यम काल से 'अ-इ-उ-ऋ-ल' इन पांच हस्व अक्षरोंके उच्चारणमें जितना समय लगता है उतने समय तक चौदहवें अयोगिकेवली गुणस्थानमें रह कर समुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपाति ध्यान ध्याते हैं । પણ સર્વથા નિધિ કરી નાંખે છે. અર્થાત્ સમસ્ત મનેયેગ અને વચનેગને તથા બાદર-કાગને નિરોધ થતાં સૂકમક્રિયાશનિવર્તિ નામના ત્રીજા સ્થાનને આરંભ કરે છે. ત્રીજા સ્થાનને સમય શ્વાસે રવાસરૂપ કાયાગની સૂક્ષમ-ક્રિયા જ રહે છે, એ ધ્યાનથી તે સૂકમ-ક્રિયાને પણ નિરોધ કરીને અગી થઈ જાય છે. અમેગી થઈને અર્થાત તેરમે ગુણસ્થાનેથી ચોદમાં ગુણસ્થાનમાં પહોંચીને શેલેશી અવસ્થાને પ્રાપ્ત થાય છે. જેમાં શલે (પૂર્વ)ના ઈશ (વામી) સુમેરૂ પર્વતની પઠે સ્થિરતા રહે છે તેને શેલેશી અવસ્થા કહે છે, અથવા શીલ (યથા ખ્યાત ચારિત્ર) ઈશ (સ્વામી)ને શીલેશ કહે છે, એની અવસ્થાને શશી કહે છે. એ શલેશી અવસ્થાને પ્રાપ્ત થઈને, નહિ ધીમે કે નહિ જલદી અર્થાત भयभ या अ-इ-उ-ऋ-ल थे पांय सक्षशना स्यामा २८। સમય લાગે એટલા સમય સુધી ચોદમે અગિકેવળી ગુણસ્થાનમાં રહીને સમુછિન્નક્રિયાપ્રતિપાતિ યાન બાવે છે. Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० श्रीदकालिको • ननु सक्ष्मक्रियाऽनियर्यालयस्य शुमध्यानस्य कयं ध्यानपदमतिपायता ?, ध्यानं हि नाम मनास्थैर्यम् , केवलिना तदानी मनसोऽसलादिति चेन्न, ..' स्थैर्यावस्थापनत्वमेव ध्यानत्वम् , तर यथा स्थिरीमावमापनस्य छमस्यीयमनसस्तथैव केवलिफाययोगस्यापि मुस्थिरतया मुवचम् ।। : नन्वेवमपि समुच्छिन्नक्रियाऽमतिपास्यास्यस्य मध्यानस्य कयं ध्यानतम् । तत्र फापयोगस्थाप्यभावात् , इति चेदुच्यते-यथा कुम्मकारचक्रं तद्भ्रामकदण्डा दिसम्बन्धाभावेऽपि मामालीनवेगतो भ्रमति तथा मनोवाकाययोगनिरोधेऽप्ययोगिनः प्राकृतध्यानधारावेगतो ध्यान सम्पयते । प्रश्न-हे गुरुमहाराज ! मनकी स्थिरताको ध्यान कहते है। केवली भगवान के उस समय मन नहीं रहता; अतः सूक्ष्मक्रियाऽनिवत्ति शुल ध्यान को ध्यान कैसे कहा जा सकता है ? उत्तर-स्थिरता को ही ध्यान कहते हैं। वह स्थिरता जैसे छद्मस्थक मनोयोगकी होती है वैसे ही केवलीके काययोगकी स्थिरता होती है इसलिए उसे ध्यान कहते है। प्रश्न-तो समुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपाति-शुक्ल-ध्यानको ध्यान कैस कह सकते है ? क्योंकी वहां काययोगका भी अभाव है । उत्तर-जैसे कुंभारका चाक, धुमानेवाले दण्ड आदिके संयोग न होनेपर भी पूर्वकालके वेगसे घूमता रहता है वैसे ही मन बचन काय का निरोध होजाने परभी पूर्व ध्यानकी धारा के वेगसे अयोगी केवलोक ध्यान होता है। प्रश्न- Y३ भहारा ! भननी स्थिरतान. ध्यान . छ. उणी anવાનને એ સમયે મન રહેતું નથી. એટલે સૂમક્રિયાશનિવર્તિ શુકલ યાનને ધ્યાને કેવી રીતે કહી શકાય ? ઉત્તર--સ્થિરતાને જ ધ્યાન કહે છે. એ સ્થિરતા જેવી છાસ્થના મનેગિની હોય છે તેવી જ કેવળીને કાયોગની સ્થિરતા હોય છે, તેથી તેને ધ્યાન કહે છે. પ્રશ્ન-તે સમૃછિન્નક્રિયાપ્રતિપાતિ–શુકલ-યાનને ધ્યાન કેવી રીતે કહી શકાય કારણ કે ત્યાં કાગને પણ અભાવ છે. ઉત્તર–જેમ કુંભારને ચાકડો, તેને ઘુમાવનારા દંડ આદિને સંગ ન થવા છતાં પણ પૂર્વકાળના વેગથી ધુમ્યા કરે છે, તેમજ મન વચન કાયને નિરાઇ થયા પછી પણ પૂર્વ ધ્યાનની ધારાને વેગથી અાગી કેવળીને ધ્યાન હોય છે. -- Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. २४-अयोगिनो ध्यानसिद्धिः ३६१ - किञ्च-तत्र द्रव्ययोगाभावेऽपि भावयोगस्य सत्त्वाद् ध्यानमुपपद्यते, जीवोपयोगरूपस्य भावमनसस्तत्रापि सद्भावात् । अथ च-यथा पुत्रभिन्नोऽपि पुत्रकार्यकरणेन पुत्र उच्यते तथा भवोपग्राहिकर्मनिर्जरणरूपस्य ध्यानकार्यस्य करणेन ध्यानत्वोपाचाराद् ध्यानशब्दाभिधेयत्वं सिद्धम् ।। . अथ च-यथैकस्य नानार्थकशब्दस्य बहवोऽर्था भवन्ति, तथा धातूनामनेकाथत्वाद् ध्यैधातुनिप्पादितस्य ध्यानशब्दस्यापि समुच्छिन्नक्रियाख्यं शुक्लध्यानमप्पः । अपरं च-उक्तशुक्लध्यानस्य ध्यानत्वेन जिनागमतिपाद्यतया ध्यानत्वं निर्वाधमित्यलम् ॥२३॥ मूलम्-जया जोगे निलंभित्ता, सेलेसिं पडिवज्जइ । तया कम्म खवित्ताणं, सिद्धिं गच्छइ नीरओ ॥२४॥ अथवा-द्रव्ययोगका अभाव होने पर भी भावयोगके सद्भावसे ध्यान होता है, क्योंकि जीवका उपयोगरूप भाव-मन उस अवस्थामें भी रहता है अथवा जैसे पुत्र न होकर भी यदि कोई पुत्रका कार्य करता है तो वह पुत्र कहलाता है, वैसे ही भवोपनाही कर्मोंकी निर्जरारूप ध्यानका कार्य करनेसे उपचारसे वह ध्यान कहलाता है। अथवा जैसे नानार्थक शब्दके बहुतसे अर्थ होते हैं वैसे ही धातुओंके भी अनेक अर्थ होते हैं, इसलिए यहाँ 'ध्यै' धातुसे बने हुए ध्यान शब्दका अर्थ समुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपाति-शुक्ल-ध्यान अर्थात् अयोगी गुणस्थानवालोंकी क्रिया भी समझ लेना चाहिए। अथवा जिनागममें इसको ध्यान कहा है अतः इसमें ध्यानत्व निर्वाध है ॥ २३ ॥ અથવા દ્રવ્યોગને અભાવ થયા છતાં પણ ભાવગના સદ્દભાવથી દયાન હોય છે. કારણ કે જીવના ઉપગરૂપ ભાવમન એ અવસ્થામાં પણ રહે છે. અથવા જેમ પુત્ર ન હોવા છતાં જે કંઈ પુત્રનું કાર્ય કરે છે તે તે પુત્ર કહેવાય છે, તેમજ વેપગ્રહી કર્મોની નિર્જરારૂપ ધ્યાનનું કાર્ય કરવાથી ઉપચારે કરીને તે ધ્યાન કહેવાય છે. અથવા જેમ વિવિધાર્થક શબ્દના ઘણાય અર્થે થાય છે તેમ ધાતુઓના પણ અનેક અર્થો થાય છે, અહીં દ ધાતુથી બનેલા ધ્યાન શબ્દનો અર્થ સમુચ્છિન્નક્રિયાપ્રતિપતિ-શુકલ-ધ્યાન અર્થાત્ અગી ગુણસ્થાન વાળાઓની ક્રિયા પણ સમજી લેવી અથવા જિનાગમમાં એને ધ્યાન કહ્યું છે તેથી એમાં ધયાનવ નિબંધ છે. (૨૩) Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० श्रीदशवेकालिकसूत्रे ननु सूक्ष्मक्रियाऽनिवर्त्त्यारूपस्य शुक्रभ्यानस्य कथं ध्यानपदमतिपाचता है, ध्यानं दि नाम मनःस्थैर्यम्, केवलिनभ तदानीं मनसोऽसत्रादिति चेन्न = स्थैर्यावस्थापन्नत्वमेव ध्यानत्वम्, तब यथा स्थिरीमात्रमापन्नस्य छनस्थीयHanedes haferrerोगस्यापि स्थिरतया सुत्रचम् | नन्वेवमपि समुच्छिनक्रियाऽमतिपात्याख्यस्य शुक्लध्यानस्य कथं ध्यानत्वम् ? तत्र काययोगस्पाप्यभावात् इति चेदुच्यते यथा कुम्भकारचक्रं तद्भ्रामकदण्डादिसम्बन्धाभावेऽपि माकालीनवेगतो भ्रमति तथा मनोवाक्काययोगनिरोधेऽप्ययोगिनः माक्कृतध्यानधारावेगतो ध्यानं सम्पद्यते । 1 प्रश्न- हे गुरुमहाराज | मनकी स्थिरताको ध्यान कहते हैं । केवली भगवान के उस समय मन नहीं रहता; अतः सूक्ष्मक्रियाऽनिवत्ति शुरू ध्यान को ध्यान कैसे कहा जा सकता है ? 1 उत्तर- स्थिरता को ही ध्यान कहते है। वह स्थिरता जैसे छद्मस्थके मनोयोगकी होती है वैसे ही केवलीके काययोगकी स्थिरता होती है इसलिए उसे ध्यान कहते है । प्रश्न- ता कह सकते है ? क्योंकी वहां काययोगका भी अभाव है ? । उत्तर - जैसे कुंभारका चाक, घुमानेवाले दण्ड आदिके संयोग न होनेपर भी पूर्वकाल वेगसे घूमता रहता है वैसे ही मन वचन कायका निरोध होजाने परभी पूर्व ध्यानकी धारा के वेगसे अयोगी केवलीके ध्यान होता है । समुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपाति-शुक्कु-ध्यानको ध्यान कैसे પ્રશ્ન-~હે ગુરૂ મહારાજ ! મનની સ્થિરતાને ધ્યાન કહે છે, કેવળી ભગવાનને એ સમયે મન રહેતું નથી. એટલે સૂક્ષ્મક્રિયાઽનિવૃત્તિ શુકલ ધ્યાનને ધ્યાન કેવી રીતે કહી શકાય ? ઉત્તર-સ્થિરતાને જ ધ્યાન કહે છે. એ સ્થિરતા જેવી છદ્મસ્થના મનેચાગની હાય છે તેવીજ કૅવળીના કાયયેાગની સ્થિરતા હોય છે; તેથી તેને ધ્યાન કહે છે. પ્રશ્ન—તે સમુચ્છિન્નક્રિયા અપ્રતિપાતિ-શુકલ-ધ્યાનને ધ્યાન કેવી રીતે કહી શકાય ? કારણ કે ત્યાં કાયયેગને પણ અભાવ છે. ઉત્તર-જેમ કુંભારના ચાકી, તેને ઘુમાવનારા દડ આદિને સર્ચંગ ત થવા છતાં પણ પૂર્વકાળના વેગથી ધુમ્યા કરે છે, તેમજ મન વચન કાયના નિષધ ઈ ગયા પછી પણ પૂ ધ્યાનની ધારાના વેગથી અયેગી કેવળીને ધ્યાન હોય છે. Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. २५-सिद्धानामूर्ध्वगतिस्वरुपम् टीका-'जया कम्म' इत्यादि । यदा सर्वकर्मक्षयं कृत्वा नीरजाः सिद्धि गच्छति तदा लोकमस्तकस्थः सर्वलोकोपरिस्थितः, शाश्वतः दग्धकर्मवीनत्वात्पुनः संसारसंसरणरहितो नित्या, सिद्धः कृतकृत्यो भवतीति । ननु सिद्धानां सर्वकर्मक्षयात् त्रसनामकर्मणोऽप्यविद्यमानत्वेन कयं गतिसम्भवः ? इति चेदुच्यते. यथा धनुर्मुक्तस्य घाणस्य तद्विरहेऽपि पूर्वप्रयोगसामर्थ्याद्गतिर्भवति तथा संसारावस्थायामपवर्गमाप्तये कृतानेकविधप्रणिधानवलान्मुक्तात्मनोऽपीति । ननु भवतु गतिः किन्तु सा तिर्यगधस्ताद्वा न भूत्वोयमेव भवतीति कथ 'जया कम्म' इत्यादि । जब सब कर्मोंका क्षय करके निष्कर्म होकर मोक्षगमन करते हैं तय लोकके अग्रभाग पर स्थित, सब कर्मोंसे रहित होनेके कारण कभी संसारमें न आनेसे शाश्वत, सिद्ध होजाते हैं। प्रश्न-हे गुरुमहाराज ! सिद्धोंके समस्त काँका नाश होजाता है अत एव त्रस नाम-कर्म भी नहीं रहता; फिर सिद्ध भगवान् लोकके अग्रभाग तक किस प्रकार गमन कर सकते हैं। उत्तर-हे शिप्य जैसे धनुपसे छूटा हुआ याण धनुपका सम्बन्ध न होने पर भी गति करता है, क्योंकि उसमें पहलेके व्यापारका सामर्थ्य रहता है। वैसे ही संसार अवस्थामें मोक्ष प्राप्त करनेके लिए किये हुए अनेक प्रकारके अनुष्ठानके वेगसे मुक्तात्मा भी गमन करते हैं। प्रश्न-हे गुरुमहाराज! गति तो होती है पर ऊर्च गति ही क्यों जया कम्म पत्या. न्यारे सर्व भाना क्षय श२ निभ ने भाक्षગમન કરે છે, ત્યારે લોકના અગ્રભાગ પર સ્થિત, સર્વ કર્મોથી રહિત હેવાને કારણે કદાપિ સંસારમાં ન આવવાથી શાશ્વત સિદ્ધ થઈ જાય છે. પ્રશ્નહે ગુરૂ મહારાજ! સિદ્ધોનાં બધાં કર્મોને નાશ થઈ જાય છે, એટલે સામ-કર્મ પણ રહેતું નથી, તે પછી સિદ્ધ ભગવાન લેકના અગ્રભાગ સુધી કેવે પ્રકારે ગમન કરી શકે છે? ઉત્તર–હે શિષ્ય! જેવી રીતે ધનુષ્યથી છૂટેલું બાણ ધનુષ્યને સંબંધ ન હેવા છતાં ગતિ કરે છે, કારણ કે તેમાં પહેલાંના વ્યાપારનું સામર્થ્ય રહેલું છે, તેવી રીતે સંસાર અવસ્થામાં મોક્ષ પ્રાપ્ત કરવાને માટે કરેલાં અનેક પ્રકારનાં અનુષ્ઠાના વેગથી મુકતાત્મા પણ ગમન કરે છે. પ્રશ્ન– હે ગુરૂ મહારાજ ! ગતિ તે હેય છે પણ ઊર્ધ્વ ગતિ જ કેમ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदवेकालिकमूत्र छाया~यदा योगाग्निरुध्य, शैलेगी प्रतिपद्यते । तदा फर्म भपयित्वा, सिद्धि गच्छति नीरजाः ॥२४॥ सान्वयार्थ:-जया-जय जोगे योगोंका निमित्ता-निरोध करके सेलेसिशैलेशीकरणको पडियजाम्भाप्त करते है, तया तब कम्मं कर्ममात्रकोखविताखपा करके नीरओ-कर्मरजरहित-सब फाँसे मुक्त होकर सिद्धि मोक्षको गच्छइ-जाते हैं ॥२४॥ टीका-'जया जोगे०' इत्यादि । यदा योगनिरोधं कृत्वा शैलेशी प्राप्नोति तदा कर्मवेदनीयाऽऽयुर्नामगोपाख्यमघातिकर्मचतुष्टयलक्षणं क्षपयित्वा-अयं नीला सर्वथा विनाश्येत्यर्थः 'ण'-मिति वाक्यालद्वारे, नीरजा निर्गत रजा सकलकममलं यस्मादिति, रजसः उक्तलक्षणानिष्क्रान्तो या नीरजाः सर्वकर्मोपाधिरहितः साधितात्मा प्रभुः सिदि-सिध्यन्ति=निष्ठितार्था भवन्ति यस्यां सा सिद्धि मुक्तिलक्षणा तां गच्छतिभामोति; गत्यर्थधातूनां माप्त्यर्थत्वात् ॥२४॥ मूलम्-जया कम्मं खवित्ताणं, सिद्धिं गच्छइ नीरओ। तया लोगमत्थयत्थो, सिद्धो हवइ सासओ ॥२५॥ छाया--यदा कर्म क्षपयित्वा, सिद्धिं गच्छति नीरजाः । तदा लोकमस्तकस्थः, सिद्धो भवति शाश्वतः ॥२५॥ सान्वयार्थ:-जया जब कम्मं कर्ममात्रको खवित्ता खपा करके नीरआन कमरजरहित होकर सिद्धि मोक्षको गच्छइ जाते हैं, तया-तब लोगमत्थयथालोकके अग्रभाग पर स्थित सासओ-शाश्वत-नित्य सिद्धो सिद्ध हवईहोजाते हैं ॥२५॥ 'जया जोगे' इत्यादि । जब योगोंका निरोध करके शैलेशी अवस्थाका प्राप्त होते हैं तब वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र, इन चार अघाति कर्मोंका क्षय करके सर्व कर्मोसे मुक्त होकर भगवान् मोक्षको प्राप्त होते हैं ॥ २४ ॥ जया जोगे त्यादि. न्यारे यगोन। निरोध ४शन शैलेशी सस्थान प्राप्त થાય છે, ત્યારે વેદનીય, આયુ, નામ અને ગોત્ર એ ચાર અઘાતી કર્મોને ક્ષય કરીને સર્વ કર્મોથી મુક્ત થઈને ભગવાન મોક્ષને પ્રાપ્ત થાય છે. (૨) Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAMAARADARA 'अध्ययन गा. २५-सिद्धानामृर्ध्वगतिस्वरूपम् जलोपरिमतिष्ठाना भवति तथाऽष्टविधकर्मलेपसंभारभराक्रान्त आत्मा जगजलधौ निमजति, वद्विरहितयोर्ध्वगतिधर्मस्वार्धमेव गच्छति । तथा चोक्तं भगवता___“जह मिउलेवालित्तं, गरुयं तुंवं अहो चयइ एवं । आसवयकम्मगुरु, जीवा वचंति अहरगई ॥१॥ तं चेत्र तन्चिमुझं, जलोवार ठाइ जायलहुभावं । जह वह कम्मविमुक्का, लोयगपइडिया होति ।।२॥” इति । १ छाया-" यथा मुल्लेपाऽऽलिप्त, गुरुकं तुम्बमधो बजत्येवम् । __ आश्रवकृतकर्मगुरवो, जीवा बजन्ति अधरगतिम् ॥१॥ तदेव (तुम्बं) तद्विमुक्तं (पृल्लेपविमुक्त), जलोपरि विष्ठति जातलघुभावम् । . यथा तथा कर्मविमुक्ता (सिद्धाः) लोकाग्रतिष्ठिता भवन्ति ॥२॥" आजाती है। इसीप्रकार आठ कर्मरूपी लेपके भारसे भारी आत्मा संसाररूपी समुद्र में डूबी रहती है। जब कर्मरूपी लेपसे रहित होजाती है तय अर्ध्वगमनका स्वभाव होनेसे ऊर्ध्वगमन करती है। भगवानने कहाभी है___"जैसे मिट्टीके लेपसे लिप्त तुम्बी भारी होनेसे नीचेकी ओर जाता है वैसेही आस्रवसे उत्पन्न काँसे आत्मा अधोगतिको प्राप्त होती है ॥१॥ जैसे तुम्बी लेपसे मुक्त होनेपर लघु होकर जलके ऊपर आजाती है उसी प्रकार कर्मसे मुक्त होकर आत्मा लोकके अग्रभाग पर विराजमान हो जाती है ॥२॥" એ તુંબડી નીચેથી ઉઠીને જળની ઉપર આવી જાય છે. એ જ પ્રકારે આઠ કર્મ રૂપી લેપના ભારથી ભારે એ આત્મા સંસારરૂપી સમુદ્રમાં ડુબી રહે છે. જ્યારે કમરૂપી લેપથી રહિત થઈ જાય છે ત્યારે ઊર્ધ્વગમનને સ્વભાવ છેવાથી ઊદ્ધ ગમન કરે છે. ભગવાને કહ્યું પણ છે કે જેમ મટીના લેપથી હિત તુંબડી ભારે હોવાથી નીચેની બાજુએ જાય છે, તેમજ આસવથી ઉત્પન્ન થએલા કર્મોથી આત્મા અર્ધગતિને પ્રાપ્ત થાય છે. (૧) જેમ તુંબડી લેપથી મુકત થતાં લધુ થઈને જલની ઉપર આવી જાય છે, તેમ કર્મથી મુક્ત થઈને આમા લેકના અગ્રભાગ પર વિરાજમાન થઈ જાય છે. (૨)” Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ श्रीratorfe मवसीयते इति चेच्छ्रताम्-तेषां गुरुस्वगुणाभावानास्तात्, कायादियोगपरप्रेरणयोरभावाच न तिर्यग्गतिर्भवति, यथा-नीरन्ध्रामतिशुष्कामनुपहतां चाडलाई कुशादिणेः परितः संवेष्टय तदु-परि स्निग्धमृतिका सान्द्रं विलिप्याssवपे संशोपयेत् इत्यमष्टनारानुक्तपक्रियया यथाक्रमं तृणवेष्टन - मुल्लेपन-संशोपणादीनि विधायाऽगाधसलिले प्रक्षिप्ता साऽलाबूरष्टकत्वोदत्तमूल्ले पजनितगौरवेणोर्ध्वसलिलतलमतिक्रम्य तदधस्ताद् भूतला मुत्रति, तदनु मन्दमन्दमनुक्रमतस्तेप्यष्टचार विनिहितमृल्लेषेषु सार्द्रतामुपगम्य विशीर्णेषु सत्सु मृत्तिका लेपजन्यभारराहित्येन लघुतामुपगता साऽलावूरधो भूतलमतिक्रम्य 'होती है ? नीचे की ओर अथवा तिरछी गति क्यों नहीं होती ? + उत्तर - हे शिष्य ! नीचे की ओर उसीकी गति होती है जिसमें गुरुत्व गुण (भारीपन ) पाया जाता है । सिद्ध गुरुत्व गुण नहीं है अत एव उनकी गति नीचेको ओर नहीं होती । काय आदि योग और दूसरेकी प्रेरणा न होनेसे तिरछी गति भी नहीं होती । जैसे-छिद्ररहित बिलकुल सूखी हुई, बिना टटी-फूटी तुम्बीको चारों ओर तृणपुञ्ज बांध करके धूपमें सुखा ले, आठ वार ऐसा करके अगाध जलमें तुम्बीको डाल दे तो आठवारके लेपके भारीपनसे जलके तलमें पहुँचकर वह पृथ्वीसे लग जाती है। उसके पश्चात् गीलेपन से जब धीरे-धीरे वह मिट्टीका लेप छूटने लगता तो क्रमशः मिट्टीके भार से रहित होकर लघुता (हलकापन) पाकर वह तुम्बी नीचेसे उठकर जलके ऊपर થાય છે? નીચેની બાજુએ અથવા તિછી ગતિ કેમ નથી થતી ઉત્તરš શિષ્ય ! નીચેની બાજુએ તેની ગતિ થાય છે કે જેમાં ગુરૂવ शुष्णु (भारेपायु) हाय है. सिद्धोमां गुइत्व गुप्यु नथी, तेथी तेमनी गति नीयेनी આજુએ નથી થતી કાય આદિ યાગ અને બીજાની પ્રેરણા ન ઢાવાથી તિ ગતિ પણ થતી નથી. જેમ છિદ્રરહિત, બિલકુલ સુકાયલી, તૂટયા છૂટયા વિનાની તુંબડીને ચ આજુએ ઘાસ-તરણાંથી બાંધીને તેની ઉપર ચીકણી માટીને સારી પેઠે દ્વેષ કરીને તડકામાં સૂકવી નાંખે, આઠ વાર એમ કરીને અગાધ જળમાં એ તુખીને નાંખી કે તે આઠે વારના લેપના ભારે પણાથી જળને તળીયે પહેાંચીને તે પૃથ્વીને અડીને રહે છે. પછી જ્યારે લીલાપણાથી ધીરે ધીરે એ માટીને લેપ છૂટવા લાગે છે ત્યારે ક્રમશ: માટીના ભારથી રહિત થઈને લઘુતા (હલકમ્પ્યુ) પામીતે Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - - - - अध्ययन ४ गा. २५-सिद्धानामवगाहनास्वरूपम् ३६७ उक्तस्वरूपाः सिद्धाधरमशरीरतस्तृतीयभागन्यूना उत्कृष्टतो द्वात्रिंशदङ्गलसमधिकत्रयस्त्रिंशदुत्तरशतत्रयधनुःपरिमिताः, जघन्यतोऽष्टाङ्गलाधिकरविप्रमाणाः । - यच्च मरुदेवीदेहममाणस्य सपादपञ्चशतधनुष्ट्वात्तत्तृतीयभागे पातिते तस्याः साईत्रिशतधनुःपरिमिताऽवगाहना भवति तेनात्र न विरोधः, गजाधिरूढत्वेन वृद्धत्वेन वा शरीरसङ्कोचसम्भवात् । यत्तु जघन्यतः सप्तहस्तोच्छ्रितानां सिद्धिः शास्त्रेषु श्रूयते ततीर्थकरापेक्षया, सिद्धोंके चरम शरीरसे त्रिभाग कम, उत्कृष्ट तीनसौ तेतीस (३३३) धनुप और बत्तीस (३२) अंगुलकी, तथा जघन्य एकरत्नि और आठ अंगुलकी अवगाहना होती है। __ मरुदेवीके शरीरकी अवगाहना सवा पाँचसो (५२५) धनुपकी थी, उसमेंसे तीसरा हिस्सा कम करनेसे साढे तीनसौ (३५०) धनुषकी अवगाहना होती है, किन्तु यहाँ पर उत्कृष्ट अवगाहना तीनसौ तेतीस धनुप और बत्तीस अंगुलकी बताई गई है, इससे यहां विरोध नहीं समझना चाहिए, क्योंकि मरुदेवी हाथी पर आरुढ थी, इसलिए या वृद्धावस्थाके कारण शरीरका सिकुडना (संकुचित होना) संभव है। यह जो आगममें सुना जाता है कि जघन्य सात हाथ ऊंचे शरीरवालोंको मोक्ष प्राप्त होता है सो यह नियम तीर्थंकरोंकी अपेक्षासे समझना चाहिए। तीर्थकरोंके सिवाय अन्य भव्य जीव दो हाथ ऊँचे સિદ્ધોના ચરમ શરીરથી ત્રિભાગ ઓછી, ઉત્કૃષ્ટ ત્રણસે તેત્રીસ (૩૩૩) ધનુષ અને બત્રીસ (૩૨) આંગળની તથા જઘન્ય એક પત્નિ અને આઠ આગળની અવગાહના હોય છે. | મરૂદેવીના શરીરની અવગાહના સવા પાંચસે (૫૨૫) ધનુષ્યની હતી, તેમાંથી ત્રીજો ભાગ કરવાથી સાડા ત્રણ (૩૫૦) ધનુષ્યની અવગાહના હેાય છે. કિન્તુ અહીં ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના ત્રણસને તેત્રીસ ધનુષ અને બત્રીસ આગળની બતાવી છે, તેથી વિરોધ સમજ નહિ, કારણ કે મરૂદેવી હાથી પર આરૂઢ હતી. તેને લીધે યા વૃદ્ધાવસ્થાને કારણે શરીરનું સંકુચિત થવું એ સંભવિત છે. આગમમાં જે સંભળાય છે કે-જઘન્ય સાત હાથ ઉંચા શરીરવાળાઓને જ મોક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે તે નિયમ તીર્થકરોની અપેક્ષાએ સમજવું જોઈએ. તીર્થકરે સિવાયના બીજા ભવ્ય છ બે હાથ ઉંચા શરીરવાળા હોવા છતાં પણ મુક્ત Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीरनवेकानि . अथवा-यमा वातादिरूपयापकविरहादूर्ध्वगविस्वमावायाः प्रदीपकलिकाया, चीनबन्धविच्छेदादीनकोशगोरण्डबीनस्य चोर्धगतिः संजायते तयाऽऽरमनोऽपि बादशगतिस्त्रमावस्य विरोधियमवन्धविच्छेदालगतिरेवेति । यथैरण्डवीजमूर्य गत्वा पुनःपतति तथा तु न मुक्तात्मनः पावसम्म, अब पतनहेतुभूतगुरुत्वगुणामावादिति मागुक्तमेव ।। ननु शरीराभावानेपामात्मप्रदेशाः पारददम्पयन् कयं न विकीर्गा भवन्तीति चेन्न, तद्विसर्पफनामकर्मामारात्मदेशवत्वगुणसद्भावाच । अधचा-जैसे हवा आदि किसी पाधकके न होनेसे दीपककी लो ऊपरको जाती है, धीजकोपके अन्धके दटनेपर एरण्डका धीज ऊपरको जाता है, उसी प्रकार आत्माके अर्ध्वगमनके विरोधी कर्मबन्धका सर्वधा अभाव होजानेसे आत्मा अर्ध्वगति करती है। जैसे एरण्डका चीज पहले ऊपरको जाकर फिर नीचे गिर पड़ता है वैसे आत्मा नहीं गिर सकती, क्योंकि नीचे गिरानेका कारण गुरुत्वगुण आत्मामें नहीं है, यह पहले ही कह चुके हैं। प्रश्न-हे गुरुमहाराज । शरीरका अभाव होनेसे सिद्धोंके आत्माक प्रदेश पारेके समान फैल क्यों नहीं जाते? . उत्तर-हे शिष्य । आत्मप्रदेशोंको फैलानेवाले नामकर्मका अभाव होनेसे तथा प्रदेशवत्व गुणके सद्भावसे सिद्धोंके आत्मप्रदेश नहीं फैलते हैं। न અથવા, જેમ હવા આદિ કે બાધક ન હોવાથી દીપકની જાત ઉપર જ જાય છે, બીજકોષને બંધ તૂટવાથી એરંડાનું બીજ ઉપર જ જાય છે, તેમ આત્માના ઊર્ધ્વગમનના વિધી કર્મબંધને સર્વથા અભાવ થઈ જવાથી આમા ઊર્ધ્વગતિ જ કરે છે. જેમ એરંડાનું બીજ પહેલાં ઉપર જઈને પછી નીચે પડી જાય છે, તેમ આભ પડી શકતું નથી કારણ કે નીચે પાડવાનું કારણ ગુરૂવ ગુથ આમામ નથી. એ પહેલાં કહેવામાં આવેલું જ છે. પ્રશ્ન—- ગુરૂ મહારાજ ! શરીરનો અભાવ હોવાથી સિદ્ધોને આત્માના પ્રદેશ પારાની પેઠે ફલાઈ કેમ જતા નથી ? ઉત્તર શિષ્ય ! આત્મપ્રદેશને ફેલાવનારા નામકર્મનો અભાવ હોવાથી તથા પ્રદેશવરવ ગુણને સદભાવ હોવાથી સિદ્ધોના આત્મપ્રદેશ ફેલાતા નથી Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ अध्ययन ४ गा. २६-मुगतेलभ्यम् ३६९ छाया-मुखास्वादकस्य श्रमणस्य, शाताकुलकस्य निकामशायिनः । उत्सालनामधौतस्य, दुर्लभा सुगतिस्तादृशकस्य ॥२६॥ मुगति की दुर्लभता बतलाते है सान्वयार्थ:-सुहसायगस्स-मुखकी आसक्ति रखनेवाले सायाउलगस्समुखके लिए व्याकुल रहनेवाले निगामसाइस्स-मर्यादासे अधिक सोनेवाले उच्छोलणापहोयस्स-शरीरकी विभूषा करनेवाले तारिसगस्स-ऐसे समणस्स-साधुको सुगईमुगति दुल्लहा दुर्लभ है ॥२६॥ टीका-सुखास्वादकस्य-सुखस्य-माप्तमनोरमशब्दाशुपभोगस्य आस्वादकः= आसक्त्या ग्राहकस्तस्य, शाताकुलकस्य-शातार्थम्-मुखार्थम् आकुलकाव्यग्रः उद्विग्रो वा तस्य, निकामशायिनःनिकामम् अतिशयितं मध्यवर्तियामद्वयादधिकं रात्रौ, निष्कारणं दिवसे वा शेते स्वपिति तच्छीलो निकामशायी-सूत्रार्थमननादिसमयमुल्लङ्घन्य शयानस्तस्य, उत्सालनाप्रधौतस्य-उत्क्षालनया पक्षालनया म-प्रकर्षार्थ-विभूपार्थे धौतानि-उज्ज्वलीकृतानि नयन-बदन-नख-कर-चरणवस्त्रादीनि येन स तस्य शरीरादिविभूपाकारिण इत्यर्थः । तादृशकस्य तीर्थकरा-. ऽऽज्ञाऽनाराधकस्य, श्रमणस्य श्रमणब्रुवस्य वेशमात्रेण साधोः सुगतिः सिद्धिलक्षणा गतिः दुर्लभा दुप्पापा 'भवती'-ति शेषः । • प्राप्त हुए मनोज्ञ शब्दादि उपभोगोंको आसक्तिपूर्वक ग्रहण करनेवाले, सुखप्राप्ति के लिए व्याकुल रहनेवाले, दो मध्य प्रहरोंसे अधिक रात्रिमें, या कारणविशेप विना दिनमें अर्थात् सूत्रार्थके मनन करनेके समयका उल्लंघन होने तक सोनेवाले, तथा विभूपाके लिए आँख, मुख, नख, हाथ-पैर, वस्त्र आदिको धोनेवाले अर्थात् शरीरको विभूपित करनेवाले; अतः तीर्थकरकी आज्ञाके विराधक, ऐसे श्रमणको सिद्धिगतिकी प्राप्ति दुर्लभ है। પ્રાપ્ત થએલા મને શબ્દાદિ ઉપભેગેને આસકિતપૂર્વક ગ્રહણ કરનારા, સુખપ્રાપ્તિને માટે વ્યાકુળ રહેનારા, બે મધ્ય પહેરથી વધુ ત્રિમાં યા કારણ વિશેષ વિના દિવસમાં અર્થાત સૂવાર્થનું મનન કરવાના સમયનું ઉલંઘન થાય ત્યાં સુધી સૂનારા તથા વિભૂષા (ભા) ને માટે આંખ, મુખ, નખ હાથ-પગ વસ્ત્ર આદિને ધનારા અર્થત શરીરને વિભૂષિત કરનારા એટલે કે તીર્થંકરની આજ્ઞાન વિરાધક, એવા શ્રમણને સિદ્ધિગતિની પ્રાપ્તિ દુર્લભ છે. Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ श्रीratorfengs अन्ये तु द्विहस्तोता अपि सिध्यन्ति तदपेक्षया हि प्रोक्तस्वरुपा जघन्यागाहनाऽवसेया । एवमुक्तस्वरूप जन्म-जरा-मरणा-ऽऽपि व्याधियाधापलीकडलीमागर्मनिवासत्राससन्व विविनिष्क्रान्तः शाभतः सिद्धो भवतीत्यर्थः । 'शाश्वत' पदेन चात्र "सम्माप्तसिद्धिपदो ग्रात्मा न पुनः संसारित्वमनामीति हेतोरभावात्, न च कारणमन्तरेण कार्योत्पत्तिर्जायते " इति योषितम् ||२५|| उक्तं सुगतिरूपं धर्मफलं सम्मति तत् कस्य दुर्लभं भवती ? - विदर्शयति- 'सुह सायगस्स ०' इत्यादि । २ मूलम्-सुहसायगस्स समर्णस्स, सायाउलगस्स निगामसाइस्स । ८ પ उच्छोलणापहोयस्स, दुहा सुगई तारिसगस्स ||२६|| शरीरवाले होनेपर भी मुक्त होजाते हैं। उनकी अपेक्षासे ही सिद्धोंकी जघन्य अवगाहना एक रत्नि और आठ अंगुलकी कही गई है। ऐसे सिद्ध जन्म-जरा-मरण, आधि, व्याधि, बाधा, कलङ्कीभाव ( संसारपरिभ्रमण ), गर्भवासके दुःखोंसे रहित शाश्वत सिद्ध होजाते हैं। यहाँ 'शाश्वत' पद से यह वोधित किया है कि सिद्धिपदको प्राप्त आत्मा फिर संसारी अवस्थाको प्राप्त नहीं होती है, क्योंकि संसारमें आनेके कारणभूत कर्मोंका अभाव है । कारणके विना कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती ||२५|| यहाँ तक धर्मका सुगतिरूप फल कहा, यह फल किसे दुर्लभ होता है सो दिखाते हैं-' सुहसायगस्स ' इत्यादि । થઈ જાય છે, એમની અપેક્ષાએ જ સિદ્ધોની જઘન્ય અવગાહના એક ત્નિ અને આર્ટ આંગળની કહેવામાં આવી છે. 2 शेवा सिद्धो भन्भ-४श-भर, आधि-व्याधि, गाधा, उस उसीभाव (संसारરિભ્રમણુ), ગર્ભવાસનાં દુ:ખોથી રહિત શાશ્વત સિદ્ધ થઈ જાય છે. અહીં • શાશ્વત ” શબ્દથી એમ બેધિત કરવામાં આવ્યુ છે કે સિદ્ધિપદને પ્રાપ્ત થગેલે આત્મા ફરી સસારી અવસ્થાને પ્રાપ્ત થતે નથી, કારણ કે સ`સારમાં આવવાનાં કારણભૂત કર્માંના અભાવ છે. કારણુ વિના કા'ની ઉત્પત્તિ થતી નથી. (૨૫) અહીં સુધી ધર્મનું સુતિષ ફળ કહ્યુ', એ ફળ કાને દુ`ભ થાય शनि -सुहसायगस्स श्रन्याहि. છે તે Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ गा. २९-उपसंहारः ३७३ शीघ्रम् अमरभवनम् =न म्रियन्त इत्यमर:- सिद्धा आयुषोऽभावात् तेषां भवनम् = आलय: सत्ता वा तत् सिद्धक्षेत्रं सिद्धस्त्ररूपं वेत्यर्थः । यद्वा न म्रियते यत्र तदमरम् अविनाशि तच तद् भवनं स्थानं तत् सिद्धपदमित्यर्थः । अथवा न म्रियन्ते अकालमृत्युना इत्यमरः = देवास्तेषां भवनं तत् स्वर्गलोकमित्यर्थः । बहुवचनं चोभयार्थद्योतनार्थम्, गच्छन्ति = यान्ति ||२८|| उपसंहारमाद - ' इच्चेयं ' इत्यादि । 1. २ 2 मूलम-इच्चेयं छज्जीवणियं, सम्मदिट्ठी सया जए । १० 11 दुलहं लहि सामन्नं, कम्मुणा न विराहिज्जासि-त्तिवेमि ॥२९॥ छाया - इत्येवं पड्जीवनिकार्य, सम्यग्दृष्टिः सदा यतः । दुर्लभं लब्ध्वा श्रामण्यं, कर्मणा न विराधयेत् ||२९|| इति ब्रवीमि । उपसंहार करते हैं सान्वयार्थः - सम्म हिट्टी = सम्यक्त्वी मनुष्य सुया= सदैव जप युतनावान् होकर दुलह=दुर्लभ ऐसे सामन= साधुपने को लहित्तु प्राप्त करके इच्चैर्य इस पूर्वोक्त स्वरूपवाले छज्जीवणियं षड्जीवनिकाय-छह प्रकारके जीवसमूह की कम्णा मन वचन कायके व्यापारसे न चिराहिज्जासि=विराधना न करे: तिमि सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं कि मैंने भगवान् महावीर स्वामीसे जैसा सुना है वैसा ही तुमसे कहता हूँ ॥ २९ ॥ - ॥ इति चतुर्थाध्ययनस्य शब्दार्थः ॥ ४ ॥ . 6 ૧ समान फिर संयमको ग्रहण करके शीघ्रही अमरभवन - (सिद्धिस्थान अथवा स्वर्गलोक ) को प्राप्त होते हैं । 'अमर भवन' के दो अर्थ होते हैं - (१) जहां मृत्यु नहीं होती ऐसा स्थान मोक्ष है, क्योंकि वहां आयुकर्मका सर्वथा अभाव है, और (२) अमरभवन स्वर्गलोकको भी कहते हैं, क्योंकि स्वर्गलोकमें अकाल मृत्यु नहीं होती ||२८|| उपसंहार करते हैं- 'इथे' इत्यादि । આ કુમાર, પુંડરીક આદિની પેઠે ફરી સંયમને ગ્રહણુ કરીને શીઘ્ર અમરભવન (સિદ્ધસ્થાન અથવા વલાક) ને પ્રાપ્ત થાય છે. * અમરભવનના છે. અથ થાય છે. (૧) જ્યાં મેક્ષ છે, કારણ કે ત્યાં આણુકના સર્વથા અભાવ ભવન સ્વર્ગલેાકને પણ કહે છે, કારણ કે સ્વગ્લેકમાં उपसंहार रे - इच्छेयं ० धत्याहि. મૃત્યુ હાતુ નથી એવું સ્થાન હાય છે. અને (૨) અમરઅકાલમૃત્યુ થતુ નથી. (૨૮) Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - ---- -- --- - ३७२ श्रीदशवकालिको . चारित्रस्य महलमा-पच्छाथि ते' इत्यादि । मूलम्-पच्छावि ते पयाया, खिप्पं गच्छति अमरभवणाई। जेसि पिओ तवो संजमो य खंती य वंभचेरं च ॥२८॥ छापा पयादपि ते प्रयाताः, सिमं गच्छन्त्यमरभवनानि । येपां मियं तपः संयमय, क्षान्तिय अमचर्य च ॥२८॥ चारित्र का महत्व बतलाते हैं सान्वयार्थ:-जेसि-मिनको तवोतपस्या संजमोसंयम य और खेतीक्षमा य-तथा घंभचेरं ब्रह्मचर्य पिओ प्रिय है, तेचे पच्छाविपश्चात्भी अर्याद एकवार चारित्र खण्डित हो जानेपर वापस, अथवा वृद्धावस्थामें भी पयाया-आय हुए अर्थात् चढते परिणामोंसे संयम स्वीकार कियेहुए खिप्पं शीघ्र अमरभवः णाई-स्वर्ग अथवा अपवर्ग-मोक्ष-कोभी गच्छन्तिमाप्त हो जाते हैं ॥२८॥ टीका-येषां (श्रमणानां) वप अनशनादि द्वादशविधम् , संयम सावध व्यापारविरविलक्षणः सप्तदशविधः, शान्तिा अमर्पोत्पादकाऽऽक्षेपवचनादिसहन स्वरूपा, ब्रह्मचर्य-विपयसेवनपरिहारलक्षणम् , चकाराः समुच्चयार्थाः, पियम् अभीष्टं रुचिरमित्यर्थः, ते (श्रमणाः) पश्चादपिचारित्रखण्डनानन्तरमपि वृद्धत्वेजप वा प्रयाता: पद्धभावेन गृहीतसंयमाः सन्त आर्द्रकुमार-पुण्डरीकादिवत् , क्षिण चारित्रका महत्त्व दिखाते हैं-'पच्छावि ते-' इत्यादि । जिन श्रमणोंको अनशन आदि बारह प्रकारका तप, सावध व्यापारका त्यागरूप सत्रह प्रकारका संयम, क्रोधजनक आक्षेपपूर्ण वचनोंका सहन करनारूप क्षान्ति, सर्वथा मैथुनका परित्याग, ये प्रिय होते हैं, वे कदाचित् मोहकर्मके उदयसे खण्डित-चारित्र होकर भी, अथवा वृद्ध होनेपर भी चढते परिणामोंसे आर्द्रकुमार. पुण्डरीक आदिक यारित्रनु भय सतार - पच्छावि ते. त्या જે શ્રમને અનશન આદિ બાર પ્રકારને તપ, સાવદ્ય વ્યાપારનો ત્યાગરૂપે સત્તર પ્રકારને સંયમ, ક્રોધજનક આક્ષેપ પૂર્ણ વચનેને સહન કરવારૂપ શાન્તિ સર્વથા મથનને પરિત્યાગ, એ પ્રિય હોય છે, તેઓ કદાચિત મેહકમના ઉદયથી ખડિતચારિત્ર થઈને પણ અથવા વૃદ્ધ હોવા છતાં પણ ચડતા પરિણામેથી Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७३ - अध्ययन ४ गा. २९-उपसंहारः शीघ्रम् अमरभवनम्न म्रियन्त इत्यमरा-सिद्धा आयुपोऽभावात्, तेपां भवनम् आलयः सत्ता वा तत् सिद्धक्षेत्रं सिद्धस्वरूपं वेत्यर्थः । यद्वा न म्रियते यत्र तद्मरम्-अविनाशि तच्च तद् भवनं स्थानं तत् सिद्धपदमित्यर्थः । अथवा न म्रियन्ते अकालमृत्युना इत्यमरा: देवास्तेपां भवनं तत् स्वर्गलोकमित्यर्थः। बहुवचनं चोभयार्थधोतनार्थम् , गच्छन्ति यान्ति ॥२८॥ उपसंहारमाह- इच्चेयं ' इत्यादि। मूलम् इच्चेयं छज्जीवणिय, सम्मदिट्ठी सया जए। दुल्लहं लहितु सामन्नं, कम्मुणा न विराहिनासि-त्तिवेमि ॥२९॥ छाया-इत्येतं पड्जीवनिकाय, सम्यग्दृष्टिः सदा यतः। दुर्लभं लब्धा श्रामण्यं, कर्मणा न विराधयेत् ॥२९॥ इति ब्रवीमि । उपसंहार करते हैं सान्वयार्थः-सम्मट्टिीसम्यक्त्वी मनुष्य सया-सदैव जए यतनावान् होकर दुल्लहं-दुर्लभ ऐसे सामन्नं साधुपनेको लहित्तु-माप्त करके इच्चेयं इस पूर्वोक्त स्वरूपवाले छज्जीवणियं-पड्जीवनिकाय-छह प्रकारके जीवसमूह-की कम्मुणा-मन वचन कायके व्यापारसे न विराहिज्जासि-विराधना न करे त्तिवेमि-श्रीसुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामीसे कहते हैं कि मैंने भगवान् महावीर स्वामीसे जैसा सुना है वैसा ही तुमसे कहता हूँ ॥२९॥ ॥ इति चतुर्थाध्ययनस्य शब्दार्थः ॥४॥ . समान फिर संयमको ग्रहण करके शीघ्रही अमरभवन-(सिद्धिस्थान अथवा स्वर्गलोक ) को प्राप्त होते हैं । 'अमरभवन' के दो अर्थ होते है-(१) जहां मृत्यु नहीं होती ऐसा स्थान मोक्ष है, क्योंकि वहां आयुकर्मका सर्वथा अभाव है, और (२) अमरभवन स्वर्गलोकको भी कहते हैं, क्योंकि स्वर्गलोकमें अकाल मृत्यु नहीं होती ॥२८॥ उपसंहार करते हैं-'इच्चेयं' इत्यादि । આદ્રકુમાર, પુંડરીક આદિની પેઠે ફરી સંયમને ગ્રહણ કરીને શીવ્ર અમરભવન (સિદ્ધસ્થાન અથવા સ્વર્ગક ) ને પ્રાપ્ત થાય છે. मभरमवन'नामे मथ थाय छे. (१) यां भृत्यु डा नथी मे स्थान મક્ષ છે, કારણ કે ત્યાં આયુકર્મને સર્વથા અભાવ હોય છે. અને (૨) અમરભવન સ્વર્ગલેને પણ કહે છે, કારણ કે સ્વર્ગલેકમાં અકાલમૃત્યુ થતું નથી. (૨૮) 64.२ ४२ छे-इच्चेयं. त्यालि. Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ३७४ श्रीदशकालिकम्झे टीका-सम्पष्टिसम्या-पथाऽयस्थितनाऽविपर्यस्ता दृष्टि तत्त्वरुचिरमिमायो वा यस्य स तथोक्ता, सम्यग्दर्शनकानिस्पर्यः, सदा-नित्यं यतः यतनावान् दुर्लभ दुप्पापं, श्रामण्यं श्रमणमा लब्ध्या-सम्माप्य इस्पेतम्-उक्तलक्षणम्, पढ्जीवनिकाय फर्मणा मनोवाफापन्यापारेण न विराधयेत् देशतः सर्वतो वा न ममर्दयेत् न पीढयेदित्पर्यः । 'इति बीमी'-ति मावत् ।।२९।। इति श्री-विश्वविख्यात-जगदल्लम-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशमापा-कलित-ललितफलापाऽऽलापक-अविशद-गध-पद्य-नैकग्रन्थनिर्मापक-आदिमानमर्दकशाहूछत्रपति-कोल्हापुररान मदत-जैनशास्त्राचार्य-पद-भूपितकोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकरपूज्य श्रीघासीलालबतिविरचितायां श्रीदशबैकालिकमूत्रस्याऽऽचारमणिमन्जूपाख्यायां व्याख्यायां चतुर्थे 'पद्जीवनिकाया'-ऽऽख्यमध्ययनं समाप्तम् ।। ४ ।। तत्त्वोंके यथार्थ स्वरूपका श्रद्धान करनेवाला सम्यग्दृष्टि जीव दुर्लभ श्रमणताको प्राप्त करके सदेवपहले कहे हुए स्वरूपवाले पडजीवनिकायकी मन वचन कायसे एकदेश या सर्वदेशसे कभी भी विराधना न करे पीड़ा न पहुँचावे ॥ श्रीसुधर्मास्वामी जम्बूस्वामीसे कहते हैं-हे जम्बू ! अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीरसे जैसा मैंने सुना है वैसा ही तुझे कहा है-इत्यादि पहले के समान समझ लेना ॥२९॥ इति "पजीवनिकाया "-नामक चौथा अध्ययनका हिन्दीभाषानुवाद समाप्त ॥४॥ તના યથાર્થ સ્વરૂપનું શ્રદ્ધાન કરવાવાળો સમ્યગ્દષ્ટિ જીવ દુલભ શ્રમણતને પ્રાપ્ત કરીને સદેવ પહેલાં કહેલા સ્વરૂપવાળા પરજીવનિકાયની મન વચન કાયાથી એકદેશ યા સર્વદેશે કરીને કદાપિ વિરાધના ન કરેપીડા ન ઉપજાવે. શ્રીસુધર્માસ્વામી જંબૂસ્વામીને કહે છે-હે જંબૂ! અંતિમ તીર્થકર ભગવાન મહાવીર પાસેથી જેવું મેં સાંભળ્યું છે તેવું જ તને કહ્યું છે-ઇત્યાદિ પહેલાંની પિઠે सम आयु. (२८) ઇતિ વછવનિકાયા” નામક ચેથા અધ્યયનનું ગુજરાતી ભાષાનુવાદ સમાસ. (૪) Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ अध्ययनोपक्रमः ३७५ अथ पञ्चमाध्ययनम् । गतं चतुर्थाध्ययनम् , तत्र च पद्जीवनिकायरक्षणलक्षणो भिक्षोराचारः प्रतिपादतः, स हि शरीरस्थित्यधीनपालनकः, शरीरं चाक्षम्रक्षणमन्तरेण शकटमिव इङ्गालं विना वाप्पयन्त्रमिव जठरानलतापव्याधिवाधोपशमनौपधीभूतमाहारमन्तरेण चचितुमसममतोऽस्मिन् पञ्चमाध्ययने 'संयमिना कदा, कस्मात् , केन विधिना, काहगाहारो ग्रहीतव्यः ?' इति सविस्तरं प्रतिपादयितुमुपक्रमतेयद्वा-चतुर्थाध्ययने मूलगुणाः सन्दर्शिताः, इह तु मूलगुणपोपकोत्तरगुणा पांचवां अध्ययन। चौथे अध्ययनमें पड्जीवनिकायकी रक्षा-रूप भिक्षुका आचार प्रतिपादित किया गया है। इस आचारका पालन शरीरकी स्थिति पर नभर है। जैसे विना औगन (वांगण) के गाडी नहीं चल सकती, बिना कोयलेके रेलगाड़ी नहीं चल सकती, उसी प्रकार जठराग्निके संताप रूप व्याधिकी याधाको शान्त करनेके लिए औपधिके समान आहारको ग्रहण किये विना शरीरकी स्थिति नहीं रह सकती। इसलिए पाचचे अध्ययनमें विस्तारसे यह प्रतिपादन करते हैं कि 'संयमीको कब, किससे, किस विधिसे, और किस प्रकारका आहार ग्रहण करना चाहिये। ___ अथवा-चौथे अध्ययनमें मूल गुणोंका वर्णन किया गया है, इस अध्ययनमें मृलगुणोंको पुष्ट करनेवाले उत्तर गुणोंमेंसे पिण्डैपणाका : पांच्यभु मध्ययन. ચોથા અધ્યયનમાં પહૂજીવનિકાયની રક્ષારૂપ ભિક્ષુને આચાર પ્રતિપાદિત કરવામાં આવ્યું છે. આ આચારનું પાલન શરીરની સ્થિતિ પર નિર્ભર છે. જેમ ઉંજણ વિના ગાડું ચાલી શકતું નથી અને કેયલા વિના રેલગાડી ચાલી શકતી નથી. તેમ જઠરાગ્નિના સંતાપ રૂપ વ્યાધીની બાધાને શાન્ત કર્યા વિના શરીરની સ્થિતિ રહી શકતી નથી. તે માટે પાંચમા અધ્યયનમાં વિસ્તારથી એ પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે કે “સંયમીએ કયારે, કેની પાસેથી, કેવી વિધિથી અને કેવા પ્રકારનો આહાર ગ્રહણ કરે જોઈએ? અથવા-ચેથા અધ્યયનમાં મૂળ ગુણોનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે, આ અધ્યયનમાં મૂળ ગુણને પુષ્ટ કરનારા ઉત્તર ગુણમાંથી પિંડેષણનું કથન કરવામાં આવે છે. Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ श्रीदनकालिम न्तर्गता पिण्डेपणाऽभिधीयते । पिण्टेयणान पिण्डस्य-समयमापया प्रसिदस्यान्न पानस्येपणारूपा, तत्र पिण्डनं पिण्ड: एकत्र गमुदितबहुपदार्थसमुदायः, सद्विविय:द्रव्यपिण्डो मारपिण्डस, तर क्षुधाविघातकत्येनाशनादिरूपोद्रव्यपिण्डः, कर्मविधातफत्वेन ज्ञानादिलक्षणः प्रशस्तभावपिण्डः, अपशम्तमारपिण्डस्वसंयमादिरूपः मकतानुपयोगित्यादुपेसितः द्रव्पपिण्डोहि प्रशस्तभावपिण्डपरिपोषकस्तं विना तस्याः सम्पायवाद, तथाहि-शानाधात्मकमशस्तमायपिण्डस्याराधना शरीरस्थित्यधीना, शरीरपरिस्थितियाहारं विना न यथावत्साधनायालम्, आहारादिकश्च द्रव्यपिण्ड एवेति सिद्धं द्रव्यपिण्डस्य प्रशस्तभावपिण्डपरिपोपकत्वम् । तस्य च सावनिरवध कथन करते हैं । 'पिण्ड' शास्त्रीय भाषामें अन्न-पान नामसे प्रसिद्ध है, उसकी एपणा करना 'पिण्डैपणा' है। एक स्थानपर बहुत पदाथोंका समुदाय होना पिण्ड कहलाता है । पिण्ड दो प्रकारका है-(१) द्रव्यपिण्ड और (२) भावपिण्ड अशन आदिको द्रव्यपिण्ड कहते हैं, क्योंकि उससे क्षुधाका नाश होता है । ज्ञानादि प्रशस्त-भावपिण्ड है, क्योकि वह कर्मोंका नाश करनेवाला है, अप्रशस्त-भावपिण्ड असंयमादिरूप है, उसका यहाँ अधिकार नहीं है। द्रव्यपिण्ड, प्रशस्त-भावपिण्डका पोषक है, क्योंकि उसके विना प्रशस्त-भावपिण्डकी प्राप्ति नहीं होसकती, अर्थात् ज्ञानादिरूप प्रशस्त-भावपिण्डकी आराधना शरीरकी स्थितिके अधीन है। और शरीरकी स्थिति आहारके विना नहीं होसकती। आहार आदि द्रव्यपिण्ड ही है। इससे यह सिद्ध हुआ कि द्रव्यपिण्ड प्रशस्त भाव: પિંડ” શબ્દ શાસ્ત્રીય ભાષામાં અન્નપાનના નામે ઓળખાય છે, તેની એષણ કરવી એ પિંડવણું કહેવાય છે. એક સ્થાન પર ઘણા પદાર્થોને સમુદાય હવા मे (' वाय छे. पिंड २ मारना डाय छ, (१) द्रव्य-43 मन (૨) ભાવપિંડ. અશન આદિને દ્રવ્યપિંડ કહે છે. કારણ કે તેથી સુધાને નાશ થાય છે. જ્ઞાનાદિ એ પ્રશસ્ત-ભાવપિંડ છે, કારણ કે તે કર્મોનો નાશ કરવાવાળું છે. અપ્રશસ્ત-ભાવપિંડ અસંયમાદિરૂપ છે, એને અહીં અધિકાર નથી. દ્રવ્યપિંડ એ પ્રશસ્ત-ભાવપિંડને પિષક છે, કારણ કે તેના વિના પ્રશસ્તભાવની પ્રાપ્તિ થઈ શકતી નથી. અર્થાત જ્ઞાનાદિ–રૂપ પ્રશસ્ત–ભાવપિંડની આરાધના શરીરની સ્થિતિને અધીન છે, અને શરીરની સ્થિતિ આહાર વિના હોઈ શકતી નથી. અદ્ધારાદિ દ્રવ્યપિંડજ છે તેથી એ સિદ્ધ થયું . વ્યપિડ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा.१-भक्तपानगवेपणाविधिः ३७७ भेदाभ्यां द्वैविध्येऽपि संयमिभिनिरवद्यपिण्ड एव ग्राह्य इति तदेपणाधिकारः-संपत्ते' इत्यादि। मूलम्-संपत्ते भिक्खकालम्मि, असंभंतो अमुच्छिओ। इमेण कमजोगेण, भत्तपाणं गवेसए ॥१॥ छाया-सम्माप्ते भिक्षाकालेऽसम्भ्रान्तोऽमूछितः । अनेन क्रमयोगेन, भक्तपानं गवेपयेत् ॥१॥ ॥ अथ पञ्चमाध्ययनम् ॥ सान्वयार्थः-मुनिको आहारपानी लेनेकी विधि कहते हैं-भिक्खकालम्मि गोचरीका समय संपत्ते होनेपर असंभंतो-उद्वेगरहित (और) अमुच्छिओआसक्तिरहित होकर इमेण कमजोगेण इस आगे बताई जानेवाली विधिसे भत्तपाणं-भात-पानीकी गवेसएगवेपणा करे ।। टीका-भिक्षाकाले गोचरीसमये, सम्माप्त-स्वाध्यायाधनन्तरं द्रव्यक्षेत्रकालभावानुकूलतया समायाते 'मुनि'-रिति शेपः, असम्भ्रान्तः यत्किञ्चिन्निमितजनितचित्तव्याक्षेपजन्यत्वरारहितः-अनाक्षिप्तचित्त इत्यर्थः, ईर्योपयोगवानिति भावः, 'कदा कुत्र वाऽशनादिपाप्तिर्भविष्यती' त्यादिचिन्ताऽऽहितचाञ्चल्यरहित इति पिण्डका पोपक है। व्यपिण्ड, सावद्य भी होता है और निरवद्य भी होता है। संयमीको निरवद्य पिण्ड ही ग्रहण करना चाहिए, इसलिए द्रव्यपिण्डकी एपणाका अधिकार आरम्भ किया जाता है 'संपत्ते' इत्यादि। द्रव्यक्षेत्रकालभावके अनुसार स्वाध्याय आदि क्रियाओंके पश्चात् जय गोचरीका समय हो तब मुनि किसी कारणवश उत्पन्न हुए चित्तविक्षेपजन्य धान्तिरहित होकर, अर्थात् ईयर्या (गमन ) में उपयोग रखकर, अथवा ' कब और कहाँ अशन आदिकी प्राप्ति होगी?' इस પ્રશસ્ત ભાવપિંડને પિષક છે. દ્રવ્યપિંડ સાદા પણ હોય છે અને નિરવદ્ય પણ હોય છે. સંયમીએ તે નિરવદ્યપિંડ જ ગ્રહણ કરે જોઈએ. એટલા માટે દ્રવ્યपिंडनी शेषणाना अधि२ प्रामपामा मा छ-संपत्ते भिक्खकालम्मि त्याहि. દ્રવ્ય-ક્ષેત્ર-કાળ-ભાવને અનુસાર સ્વાધ્યાયાદિ ક્રિયાઓની પછી જ્યારે ગોચરીને સમય થાય ત્યારે મુનિ કેઈ કારણવશ ઉત્પન્ન થએલા ચિત્તવિક્ષેપથી જન્મેલી ભ્રાન્તિથી રહિત થઈને અથાત્ ઈર્યા (ગમન)માં ઉપગ રાખીને, અથવા ક્યારે અને કયાં અશન આદિની પ્રાપ્તિ થશે ? એ પ્રકારની ચિંતાજન્ય Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ श्री न्तर्गत पिण्डेपणाऽभिपीयते । पिण्टेपणा न पिण्डस्य समयभावया मसिद्धस्यान पानस्येपणारूपा, तत्र पिण्डनं पिण्डः एक " पदार्थसमुदायः सद्विविध:द्रव्यविण्डो भागवण्डा, तत्र क्षुधाविघातकत्वेनावनादिरूपो द्रव्य पिण्डः कर्मविधातफत्वेन ज्ञानादिलक्षण: natana fear, anaस्तमात्र पिण्डस्वसंयमादिरूपः पवस्तभावपिण्डः, मकवानुपयोगित्वादुपेक्षितः। द्रव्य पिण्डो टि मशस्तमात्रपिण्डपरिपोषकस्तं विना तस्यासम्पाधत्वात् तथाहि ज्ञानाद्यात्मकमशस्तभावपिण्डस्याराधना शरीरस्थिस्यधीना, शरीरपरिस्थितिथाहारं त्रिना न यथावत्साधनायालम्, आहारादिक द्रव्यपिण्ड एवेति सिद्धं द्रव्यपिण्डस्य प्रशस्त भावपिण्डपरिपोषकत्वम् । तस्य च सायनकथन करते हैं । 'पिण्ड' शास्त्रीय भाषामें अन्न-पान नामसे प्रसिद्ध है, उसकी एणा करना 'पिण्डेपणा' है। एक स्थानपर बहुत पदार्थोंका समुदाय होना पिण्ड कहलाता है । पिण्ड दो प्रकारका है- (१) द्रव्यपिण्ड और (२) भावपिण्ड अशन आदिको द्रव्यपिण्ड कहते हैं, क्योंकि उससे क्षुधाका नाश होता है। ज्ञानादि प्रशस्त-भावपिण्ड है, क्योंकि वह कमका नाश करनेवाला है, अप्रशस्त-भावपिण्ड असंयमादिरूप है, उसका यहाँ अधिकार नहीं है। द्रव्यपिण्ड, प्रशस्त - भावपिण्डका पोषक है, क्योंकि उसके बिना प्रशस्त-भावपिण्डकी प्राप्ति नहीं हो सकती, अर्थात् ज्ञानादिरूप प्रशस्त-भावपिण्डकी आराधना शरीरकी स्थिति के अधीन है, और शरीरकी स्थिति आंहारके बिना नहीं होसकती । आहार आदि द्रव्यपिण्ड ही है । इससे यह सिद्ध हुआ कि द्रव्यपिण्ड प्रशस्त भाव - પિ શબ્દ શાસ્ત્રીય-ભાષામાં અન્નપાનના નામે ઓળખાય છે, તેની એષણા કરવી એ પિંડયા કહેવાય છે. એક સ્થાન પર ઘણા પદાર્થોના સમુદાય હાવા शो ‘पिंड' आहेवाय छे, पिंड ने अभरनो होय छे, (१) द्रव्य-पिंड मने (२) लाषपिंड, मशन महिने द्रव्यपिंड हे छे. अरण तेथी सुधानो नाश थाय छे. જ્ઞાનાદિ એ પ્રશરત--ભાપિંડ છે, કારણ કે તે કર્મોને નાશ કરવાવાળું છે. અપ્રશસ્ત-ભાવપિંડ અસયાદિપ છે, એના અડી અધિકાર નથી. દ્રષિડ એ પ્રશસ્ત-ભાવપિંડના પોષક છે, કારણ કે તેના વિના પ્રશસ્ત ભાર્વાષડની પ્રાપ્તિ થઈ શકતી નથી. અર્થાત્ જ્ઞાનાદિરૂપ પ્રશસ્તભાવપડની આરાધના શરીરની સ્થિતિને આધીન છે, અને શરીરની સ્થિતિ હાઈ શકતી નથી. આહારાદિ દ્રવ્યપિંઢજ છે તેથી એ સિદ્ધ થયુ કે દ્રવ્યપિંડ આહાર વિના Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - m on अध्ययन ५ उ.१ गा.१-भक्तपानगवेपणाविधिः ३७७ भेदाभ्यां वैविध्येऽपि संयमिभिनिरवद्यपिण्ड एव ग्राहा इति तदेषणाधिकारः-'संपत्ते' इत्यादि। मूलम्-संपत्ते भिक्खकालम्मि, असंभंतो अमुच्छिओ। इमेण कमजोगेण, भत्तपाणं गवेसए ॥१॥ छाया-सम्माप्ते भिक्षाकालेऽसम्भ्रान्तोऽभूञ्छितः । अनेन क्रमयोगेन, भक्तपानं गवेपयेत् ॥१॥ ॥ अथ पञ्चमाध्ययनम् ॥ सान्वयार्थः-मुनिको आहारपानी लेनेकी विधि कहते हैं--भिक्खकालम्मि:गोचरीका समय संपत्ते होनेपर असंभंतोउद्वेगरहित (और) अमुच्छिओआसक्तिरहित होकर इमेण कमजोगेण इस आगे पताई जानेवाली विधिसे भत्तपाण-भात-पानीकी गवेसएगवेपणा करे। टीका-मिक्षाकालेयोचरीसमये, सम्प्राप्त स्वाध्यायाधनन्तरं द्रव्यक्षेत्रकालभावानुकूलतया समायाते 'मुनि' रिति शेषः, असम्भ्रान्तःभ्यविचिन्निमित्तजनितचित्तव्याक्षेपजन्यत्वरारहितः-अनाक्षिप्तचित्त इत्यर्थः, ईर्योपयोगवानिति भावः, 'कदा कुत्र वाऽशनादिमासिभविष्यवी त्यादिचिन्ताऽऽहितचाश्चत्यरहित इति पिण्डका पोपक है। व्यपिण्ड, सावध भी होता है और निरवद्य भी होता है। संयमीको निरवद्य पिण्ड ही ग्रहण करना चाहिए, इसलिए द्रव्यपिण्डकी एपणाका अधिकार आरम्भ किया जाताहै 'संपत्ते' इत्यादि। द्रव्यक्षेत्रकालभावके अनुसार स्वाध्याय आदि क्रियाओंके पश्चात् जय गोचरीका समय हो तब मुनि किसी कारणवश उत्पन्न हुए चित्तविक्षेपजन्य भ्रान्तिरहित होकर, अर्थात ई- (गमन) में उपयोग रखकर, अथवा 'कब और कहाँ अशन आदिकी प्राप्ति होगी? इस પ્રશસ્ત ભાવપિંડને વિક છે. વ્યપિંડ સાવદ્ય પણ હેય છે અને નિરવઘ પણ હોય છે, સંયમીએ તે નિરવદ્યપિંડ જ ગ્રહણ કરે જોઈએ. એટલા માટે દ્રવ્યपिंनी पयानो मधि२ पारवामां आवे छे~संपत्ते भिवरखकालम्मि इत्यादि. દ્રવ્ય-ક્ષેત્ર-કાળ-ભાવને અનુસાર સ્વાધ્યાયાદિ ક્રિયાઓની પછી જ્યારે ગોચરીને સમય થાય ત્યારે મુનિ કેઈ કારણવશ ઉત્પન્ન થએલા ચિત્તવિક્ષેપથી જન્મેલી ભક્તિથી રહિત થઈને અથાત્ ઈર્ધા (ગમન)માં ઉપગ રાખીને, અથવા ક્યારે અને કયાં અશન આદિની પ્રાપ્તિ થશે? એ પ્રકારની ચિંતાજન્ય Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - ३७८ . श्रीववेकालिको गावत्, अमूच्छिवाभादारादी मनोरमशब्दादिविषयेषु या नासक्तः सन् अनेन वक्ष्यमाणे तदध्ययनव्यायणितस्वरूपेण क्रमपोगेन-कारेण भक्तपानं भरूच पानं चेत्यनयोः समाहारे भक्तपानम्, भक्तम, मोदनादिकम् , पान-द्रासादिनलं मुनियोग्यं गपयेत् भन्वेपयेत् (अन्विच्छेत) । 'संपरे' इत्पनेन मुनिना यथासमय कार्य सम्पादनीय' मित्याविष्कृतम् । 'असंमंतो' इत्पतो मनास्थेये विधेयमित्युपः दिष्टम् । 'अमुच्छिओ' इत्यनेन विपयनुत्वमपाकृतम् ॥१॥ गवेपणाविधिमाद-'से गामे था' इत्यादि। मूलम्-से गामे वा नयरे वा, गोयरग्गगओ मुणी। चरे मंदमर्णावग्गो, अवक्खित्तेण चेयसा ॥ २ ॥ छाया-स ग्रामे वा नगरे वा, गोचराग्रगतो मुनिः। __चरेन्मन्दमनुदिनोऽव्याक्षिप्तेन चेतसा ॥२॥ • सान्वयार्थ:-सेबह मुणी साधु गामेन्गॉववा-अथवा नगरेनगरमें वानिश्चयसे गोयरग्गगओ-निदीप मिक्षाके लिए गया हुआ अणुश्विग्गो उद्वेग प्रकारकी चिन्ताजन्य चंचलतासे रहित होकर आहार तथा मनोज्ञ शब्दादि विषयों में आसक्त न होता हुआ, जैसा इस अध्ययनमें वर्णन किया गया है उस विधिसे, मुनिके योग्य ओदन आदि भक्त तथा दाख आदिका धोवनरूप पानकी गवेपणा करे। गाथामें 'संपत्ते' पदसे यह सूचित किया है कि मुनिको समय पर ही कार्य करना चाहिए । 'असंभंतो' पदसे यह प्रगट किया है कि साधुका मनकी स्थिरतारखनी चाहिए । 'अमुच्छिओ' पदसे विषयोंमें आसक्तिका निराकरण किया गया है ॥१॥ ચંચલતાથી રહિત થઈને આહાર તથા મનોજ્ઞ--શબ્દાદિ વિશ્વમાં આસક્ત ન થતાં, આ અધ્યયનમાં વર્ણવ્યા પ્રમાણેની વિધિથી, મુનિને એગ્ય એદન આંદ ભાત તથા દ્રાક્ષ આદિના ધાવણરૂપ પાનની ગષણ કરે. ગાથામાં તે શબ્દથી એમ સૂચિત કરવામાં આવ્યું છે કે મુનિએ સમય પર જ કાર્ય કરવું જોઈએ. અમે શદથી એમ પ્રકટ કર્યું છે કે સાધુએ મનની થિરતા રાખવી જોઈએ અમુરિકો શાદથી વિજેમાં આસકિતનું નિર४२४ ४२वाम मायुं छे. (१) Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ १ गा. २-गोचर्या चित्तस्थैर्योपदेशः ३७९ रहित होता हुआ अव्वक्वित्तेण-शान्त-स्थिर चेयसा-चित्तसे मंद=इर्यासमिति सोधता हुआ चरे जावे ॥२॥ ___टीका-से-अय=पिण्डगवेपणासमये, यहा 'से' इति तच्छब्दस्य प्रथमैकवचनरूपं तेन सः पक्रान्तः मुनि:-मुणतिपतिजानीते सर्वसावधव्यापारोपरतिमिति, मन्यते जानाति जिनाज्ञयाऽनेकान्तात्मकजीवाऽजीवादिपदार्थसार्थमिति वा 'मुनिः अनगारः, स च द्विविधा-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतः-मुनिकर्तव्य क्रियाकलापविकलो लिङ्गमात्रोपजीवी, भावतस्तु-मोहनीयकर्मक्षय-क्षयोपशमसमुद्भूतज्ञानादिरत्नत्रयमकटीभूतात्मस्वरूपः, प्रकृते च भावमुनिः प्रसङ्गगम्यः। ...१ आये 'मुण पतिज्ञाने' अस्मादौणादिक इन्, पृपोदरादित्वाण्णस्य नः । द्वितीये-'मन ज्ञाने' इति धातोः 'मनेरुच्चे'-त्यौणादिकमत्रेण इन्प्रत्ययः स च कित् अफारस्योकारादेशश्च । यद्वा 'मुगी' इति प्राकृतसमः संस्कृत एव, शब्दसिद्धिउप्युक्तव, तदा छायायां 'मुणिः' इत्यपि समावेशमईति । अब गवेपणाकी विधि बताते हैं-'से गामे वा०' इत्यादि । 'मुनि' शब्दके अनेक अर्थ हैं-(१) जो समस्त सावद्य व्यापारके त्यागकी प्रतिज्ञा करते हैं उन्हे मुनि कहते हैं। (२) जिनेन्द्र भगवानकी आज्ञाके अनुसार जीव अजीव आदि पदार्थोंको अनेकान्तस्वरूप जानने वाले मुनि कहलाते हैं। मुनि दो प्रकारके होते हैं-(१) द्रव्यमुनि और (२) भावमुनि । मुनियोंके आचारका पालन न करनेवाला मुनिवेषधारी द्रव्यमुनि कहलाता है । मोहनीय कर्मके क्षय और क्षयोपशमसे उत्पन्न हुए सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन सम्याचारित्ररूप रत्नत्रयके द्वारा जिनकी आत्माका स्वरूप प्रकट होगया है उन्हें भावमुनि कहते हैं। यहां भावमुनिका अधिकार समझना चाहिए । वेगवेषानी विधि मतावे छे-से गामे वा० ईत्याहि. મુનિ શબદના અનેક અર્થો છે. (૧) જે સર્વ સાવદ્ય વ્યાપારના ત્યાગની પ્રતિજ્ઞા કરે છે–તેને મુનિ કહે છે. (૨) જિનેન્દ્ર ભગવાનની આજ્ઞાને અનુસાર જીવ અજીવ આદિ પદાર્થોને અનેકાન્તસ્વરૂપ જાણવાવાળા મુનિ કહેવાય છે. સુનિ બે પ્રકારના હોય છે. (૧) દ્રવ્યમુનિ અને (૨) ભાવમુનિ. મુનિઓના શારનું પાલન ન કરનારા મુનિષધારી દ્રવ્યમુનિ કહેવાય છે, મોહનીય કર્મના ક્ષય અને ક્ષપશમથી ઉત્પન્ન થએલા સમ્યગ જ્ઞાન સમ્યગદર્શન અને સમ્યકુચારિત્રરૂપ રત્નત્રયની દ્વારા જના આત્માનું સ્વરૂપ પ્રકટ થઈ ગયું છે. તેને ભાવમુનિ કહે છે. અહીં ભાવમુનિને અધિકાર સમજવું જોઈએ, Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - निशोभनदापोपयोगवनयामानाना आवाशियाकर्मादिदोषरहित - - __ श्रीदशवकालिका ग्रामे या भयवा नगरे, द्वितीय-या शन्दा खेटकवटादी, गोवराप्रगता गोरिव चरण यथायोग्यं स्वल्पस्वस्पग्रहणं गोचरः, अप्राधाकर्मादिदोषरहित तया श्रेष्ठः, स पासी गोचरति गोचरामः, मार्पवाविशेषणपूर्वनिपातामावा, अग्रगोचर इत्यर्थः, तत्र गतापमानः गोचराप्रगतः अव्याशिन-स्थिरेम भिक्षागतसफलदोषोपयोगवतेत्यर्थः, चेवसा-चित्तेन अनुधिमा अगाभादिपरापहजनितक्षोभरहितः, मन्द-निर्यधास्याच्या ईर्यापथं शोधयमित्यर्थः, चरेत् गच्छन् । ___ 'गोयरग्गगओ' इत्यनेन नवकोटिविशुद्धादारी ग्रहीतन्य इति सूचितम् । 'अन्नक्खित्तेण चेयसा' इत्यनेन चिचस्थैर्येणेव मिक्षादिशुद्धिर्भवतीति ध्वनितम् । 'अणुविग्गो' इत्यतः परीपहसइनसामर्थ्य योधितम् ॥ २॥ गोचरीगमनप्रकारानाइ-'पुरओ' इत्यादि । वह भावमुनि पिण्ड-गवेपणाका समय होने पर ग्राम, नगर खेडा, कर्चट आदिमें यथायोग्य थोड़ा-थोडा निर्दोष आहार ग्रहण करता हुआ भिक्षाके समस्त दोपोंका उपयोग रखनेवाले अर्थात् अन्याक्षिप्त चित्तत अलाभ आदि परीपह जनित क्षोभसे रहित होकर ईर्यापथ शोधते हुए मन्दगतिसे चले। 'गोयरम्गगओ' पदसे यह सूचित हुआ है कि साधुको नवकोटिविशुद्ध आहार लेना चाहिए। 'अव्यक्खित्तेण चेयसा' इससे यह धोतित होता है कि चित्तकी स्थिरतासे ही भिक्षाकी शुद्धि निभ सकती है। 'अणुव्विग्गो पदसे परीपह संहनेका सामर्थ्य प्रगट किया है ॥२॥ __ गोचरीके लिए गमनविधि बताते है-'पुरओ' इत्यादि । એ ભાવ મુનિ પિંડોષણને સમય થતાં ગ્રામ, નગર, ગામડું, કે આદિમાં યથાયોગ્ય ડે શેડે નિર્દોષ આહાર ગ્રહણ કરતાં, ભિક્ષાના બધા દેને ઉપગ રાખવાવાળે અથાત અવ્યાક્ષિત-ચિત્તથી અલાભ આદિ પર પહથી ઉત્પન્ન થતા ભથી રહિત થઈને ઈર્યાપથ શોધતાં મંદ ગતિએ ચાલે. गोयरग्गगो शपथी मेम सूयित युछ साधुरी नवोटिम्मे विशुद्ध मालार . अन्धक्खित्तेण चेयसा मेथी मेम अट थाय छ, यितना स्तिथी २४ मिक्षानी शुद्धि नली श छ, अगुम्बिग्गो शाथी पशष सई. વાનું સામર્થ્ય પ્રકટ કર્યું છે. (૨) गायराने भारे गमनविधि यता -पुरओ त्याहि. Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___३८१ - ४ अध्ययन ५ उ. १ गा. ३-गोचर्या गमनविधिः मूलम्-पुरओ जुगमायाए, पेहमाणो महिं चरे । वजंतो वीयहरियाई, पाणे य दगमट्टियं ॥ ३ ॥ छाया-पुरतो युगमात्रया, प्रेक्षमाणो महीं चरेत् । वर्जयन् वीजहरितानि, प्राणांश्च दकमृत्तिकाम् ॥३॥ . गोचरी में चलने की विधि कहते हैं सान्वयार्थ:-पुरओ-सामने जुगमायाए=धृसर प्रमाण दृष्टिसे महिपृथिवीको पेहमाणो देखता हुआ वीयहरियाई-बीज, हरी, पाणे-द्वीन्द्रियादिक पाणी य और दगमट्टियं सचित्त जल तथा सचित्त मिट्टीको वनंतोवर्जता हुआ चरे-चले ॥३॥ टीका-युगमात्रया-जूसरममाणया तत्पमाणप्रमृतयेत्यर्थः 'दृष्टये ति शेपः। वस्तुतस्तु 'कचिद्वितीयादेः' इति नियमादत्र द्वितीयार्थे पष्ठी, तेन 'जुगमायाए' इत्यस्य 'युगमात्रा-मिति च्छाया, तथाच-युगमात्रां-मोक्तार्थी स्वशरीरममितामिति भावः, महीं-भूमि मार्गभूमिमिति भावः, पुरतः स्वाग्रतः प्रेक्षमाणः सम्यगवलोकयन् वीजहरितानि पसिद्धानि, माणान् द्वीन्द्रियादिप्राणिनः, दकमृत्तिकां= सचित्तं जलं मृत्तिकां च वर्जयन्=परिहरन् चरेत् गच्छेत् ॥३॥ मूलम् ओवायं विसमं खाणू, विजलं परिवजए। संकमण न गच्छिज्जा, विजमाणे परकमे ॥४॥ छाया-अवपातं विपमं स्थाणु, विजलं परिवर्जयेत् । संक्रमेण न गच्छेत, विद्यमाने पराक्रमे ॥४॥ सान्वयार्थः-परकमे दूसरे मार्गके विजमाणे होनेपर (साधु) ओवायं जिस मार्गमें गिर पड़नेकी शंका हो विसम-खड्डे आदिके कारण विकट हो खाणु काटे हुए धान्यके डंठलोंसे युक्त (और) विजलं कीचड़वाला हो उस अपने शरीर प्रमाण रास्ता सामने भली भाँति अवलोकन करता हुआ, चीज, वनस्पतिकाय, दीन्द्रिय आदि प्राणी सचित्तजल और सचित्त मृत्तिकाको बचाता हुआ गमन करे ॥३॥ પિતાના શરીર પ્રમાણ રસ્તા સામે સારી રીતે અવકન કરતાં, બીજ, વનસ્પતિકાય, કીન્દ્રિયદિ પ્રાણ, સચિત્ત જળ અને સચિત્ત માટીને બચાવી सतां गमन २. (3) Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३८. श्रीदभरकाशिस्त्रे मामे या-भयया नगरे, द्वितीय 'या' शब्दान् खेटकटादी, गोवराप्रगतम् गोवि चरण-यथायोग्य स्वरूपस्वापदणं गोचरः, अप्रा आयाफर्मादिदोपहिततया श्रेष्ठः, स घासों गोचरति गोयरामः, आर्पस्वाहिशेषणपूर्वनिपाताभाव, अग्रगोचर इत्यर्थः, तत्र गताम्यमानः गोयराग्रगतः अव्याशिमेन स्थिरेण मिक्षागतसफलदीपोपयोगयतेत्यर्थः, चेतसाचिन अनुद्विमा अलाभादिपरीपह जनितक्षोमरहितः, मन्दंशयास्यारया ईर्यापथं शोधयमित्यर्थः, चरेत् गच्छन् । 'गोयरग्गगओ' इत्यनेन नवकोरिविशुद्धाहारों ग्रहीतन्य इति सूचितम् । 'अनविखण चेयमा' इत्पनेन चिताएँगेव मिशादिदिभवतीति ध्वनितम् । 'अणुविग्गो' इत्यतः परीपडसइनसामध्ये पोधिवम् ॥ २॥ गोचरीगमनप्रकारानाह-पुरओ' इत्यादि । वह भावमुनि पिण्ड-गवेपणाका समय होने पर ग्राम, नगर खेडा, कर्वट आदिमें यथायोग्य धोड़ा-थोडा निर्दोष आहार ग्रहण करता हुआ भिक्षाके समस्त दोपोंका उपयोग रखनेवाले अर्थात् अव्याक्षिप्त चित्तस अलाभ आदि परीपह जनित क्षोमसे रहित होकर ईर्यापथ शोधते हुए मन्दगतिसे चले। 'गोयरग्गगओ' पदसे यह सूचित हुआ है कि साधुको नवकोटिविशुद्ध आहार लेना चाहिए। 'अव्यक्वित्तेण चेयसा' इससे यह घोतित होता है कि चित्तकी स्थिरतासे ही भिक्षाकी शुद्धि निभ सकती है। 'अणुव्विग्गो' पदसे परीपह संहनेका सामर्थ्य प्रगट किया है ॥२॥ गोचरीके लिए गमनविधि बताते हैं-'पुरओ' इत्यादि । એ ભાવ મુનિ પિંડગવેવણને સમય થતાં ગ્રામ, નગર, ગામડું કરે આદિમાં યથાયોગ્ય ઘેડ ડે નિધિ આહાર ગ્રહણ કરતાં, ભિક્ષાના એવી દાને ઉપગ રાખવાવાળે અર્થાત અવ્યાક્ષિપ્ત-ચિત્તથી અલાભ આદિ પર પહથી ઉત્પન્ન થતા ભથી રહિત થઈને ઈર્યાપથ શોધતાં મંદ ગતિએ ચાલે. गोयररगाओ शण्या सेभ सूशित युछ साधु नाटिमे पशु माहार मे. अन्धक्खित्तेण चेयसा मेथी म पट थाय छ रित्तन સ્થિરતાથી જ ભિક્ષાની શુદ્ધિ નભી શકે છે, કવિ શબ્દથી પરીષહ સહે વાનું સામર્થ્ય પ્રકટ કર્યું છે. (૨) शायरी माटे मनविधि माछ-पुरो याह. Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ५-विपममार्गगमने विराधना __ ३८३ तत्र गच्छतो हानिमाह-'पवडते' इत्यादि । मूलम्-पवडते व से तस्थ, पक्खलंते व संजए। हिंसेज पाणभूयाई, तसे अदुव थावरे ॥५॥ . छाया-प्रपतंश्च स तत्र, प्रस्खलॅच संयतः। हिस्यात्माणभूतानि, असान् अथवा स्थावरान् ॥५॥ पूर्वोक्त मार्गसे जाने में दोप बताते हैं सान्वयार्थ:-से-उस मार्गसे जानेवाला वह संजए-साधु चयदि तत्यवहां पवडते-गिर जाय व अथवा पक्खलंते रपट पड़े तो तसे त्रस-द्वीन्द्रियादि अदुव अथवा थायरे स्थावर-पृथिव्यादि पाणभृयाईम्भाणी भूतोंकी हिंसेजा- हिंसा करे। अर्थात् ऐसे मार्ग में जानेसे साधुको आत्म और संयम दोनोंकी विराधनाका संभव है ॥५॥ टीका-तत्र तस्मिन् अवपातादौ प्रपतन प्रस्खलॅश्च स संयतम् साधुः प्रसान्द्वीन्द्रियादिलक्षणान् , स्थावरान् पृथिव्यायेकेन्द्रियान्, अथवा माणभूतानिअसस्थावरोभयविधान प्राणिनो हिस्यात्म्मदयेत् पीडयेदिति यावत् । पतनादिना चाऽऽत्मविराधनाद्यपि नियतं भावीति भावः ॥५॥ मार्ग न हो तो यह निषेध नहीं है-अर्थात् अन्य मार्गके अभावमें ऐसे मार्गसे भी जा सकते हैं ॥४॥ ऐसे मार्गमें चलनेसे होनेवाली हानि बताते है-'पवडते' इत्यादि। यदि अवपात आदि पूर्वोक्त मागामें गमन करनेसे गिर पडे या रपट जावे तो दीन्द्रिय आदि त्रस या पृथिवीकायिक आदि स्थावर जीवोंकी अथवा दोनों प्रकारके जीवोंकी हिंसा होती है तथा गिरने आदिसे आत्मविराधना भी अवश्य होती है ॥५॥ તે એને નિષેધ નથી–અર્થત અન્ય માર્ગને અભાવે એવા માર્ગથી પણ જઈ शय छे. (४) मेवा भाभा बालवायी थनारी पनि ताये छ- पचडते. त्याह. જે અવત આદિ પૂકત માર્ગોમાં ગમન કરવાથી પડી જાય ત્યાં લયસી જાય તે દીન્દ્રિયદિ બસ યા પૃથ્વીકાયિક આદિ સ્થાવર જીની અથવા બેઉ પ્રકારના જીવોની હિંસા થાય છે, તથા પડવાથી આત્મવિરાધના પણ અવશ્ય थाय छे. (५) Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - ૩૮૨ भीमकालिको मार्गको परिवज्जए-जोदे, तया संकमेणगीनट आदिके कारण जिस मार्गम इंट फाठ आदि लांघने के लिए रखे हों उससे भी न गोम्जा नहीं जाये ||४|| टीका-'ओयाय' इत्यादि । 'परगम' इति आक्रमणमाक्रमाअालम्बन परथासायाममश पराक्रमः परस्याऽऽक्रमो या पराक्रमस्तस्मिन् , यहा परक्रम' इविच्छाया, ततथ परभासी प्रमय परक्रमस्तस्मिन् 'सर्वया गस्त्यन्तरे' इत्ययस्तथा च-पराक्रमे अश्या परक्रमे उपाये विद्यमाने वर्तमाने सति अवपातः स्खलनस्थानं सत्यप्यालोके येन सभरणे स्खलनमवश्यसम्भाव्यं तम् , विषम-दुगमता द्विकटं मार्ग स्थाणु-लूनसस्यादिस्टं तदहलं क्षेत्रादिमार्गमित्यर्थः, विजलविगत जलं यस्मात् तथोक्तं पशिलस्थलं परिवर्जयेद-परित्यजेत, संक्रमेण संक्रम्यतन समलध्यते जलकर्दमादिबहुल विपमस्थानं येन स संक्रमा इटका-काष्ठ-पापाणाद निर्मितमार्गविशेपस्तेन न गच्छेत् न समरेत् । 'विजमाणे परकमें' इत्यनेनोपा: यान्तराभावे नायं प्रतिषेध इत्यपवादः सचितः ॥४॥ १ गतमयतया संभावितस्खलनकम् । २ उन्नताऽचनतत्वादुर्गमम् । 'ओचायं०' इत्यादि । पर अवलम्बको यहाँ पर परक्रम अथवा पराक्रमसे कहा गया है अत एव अर्थ यह है कि दसरे मार्गक रहत हुए, जिसमें चलनेसे गिर पड़नेकी संभावना हो, दुर्गम होने के कारण विकट हो, जिसमें काटे हुए ज्वार आदिके डंठल हों, और जो कीचड़ वाला हो, जल-कीचड आदिकी अधिकता होनेसे लांघनेके लिए इट, काष्ठ, पत्थर आदि रखे हुए हों, उस विपम मार्गसे गमन न करें। 'विजमाणे परकमे' इस पदसे यह सूचित किया है कि दूसरा __ ओवायं० छत्यादि. ५२ अपने सही ५२६ अथवा ५२मश्री वामा આવેલ છે, એથી એ અર્થ થાય છે કે બીજે માર્ગ હોવા છતાં, જેમાં ચાલ વાથી પડી જવાની સંભાવના હોય, દુર્ગમ હોવાને લીધે વિકટ હોય, જેમાં કાપલી જુવાર આદિનાં કૂંડાં હોય, અને જે કીચડવાળે હય, પાણી-કીચડ વગેરે વધુ હોવાના કારણે ઓળંગવા માટે ઈટ, લાકડું કે પત્થર આદિ રાખેલાં હેય, એવા વિષમ માર્ગથી ગમન ન કરે. विजमाणे परकमे मे शण्डया सेभ सूयव्यु भान्स न डाय Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८३ अध्ययन ५ उ. १ गा. ५-विपममार्गगमने विराधना तत्र गच्छतो हानिमाइ-'पवडते' इत्यादि । मूलम्-पवडते व से तत्थ, पक्खलते व संजए। हिंसेज पाणभूयाई, तसे अदुव थावरे ॥५॥ । छाया-प्रपतंश्च स तत्र, प्रस्खलॅश संयतः । हिंस्यात्माणभूतानि, प्रसान् अथवा स्थावरान् ॥५॥ पूर्वोक्त मार्गसे जाने में दोप बताते हैं सान्वयार्थः-से-उस मार्गसे जानेवाला वह संजए- साधु वयदि तत्यवहां पवडते-गिर जाय व अथवा पक्खलंतेरपट पड़े तो तसे-उस-द्वीन्द्रियादि अदुवः अथवा थावरे स्थावर-पृथिव्यादि पाणभ्याईन्भाणी भूतोंकी हिंसेजाहिंसा करे। अर्थात् ऐसे मार्गमें जानेसे साधुको आत्म और संयम दोनोंकी विराधनाका संभव है ।।५।। . टीकातत्र तस्मिन् अवपातादौ प्रपतन प्रस्खलब स संयतः साधुः सानद्वीन्द्रियादिलक्षणान, स्थावरान् पृथिव्यायेकेन्द्रियान, अथवा माणभूतानि सस्थावरोभयविधान प्राणिनो हिस्यात-मर्दयेत् पीडयेदिति यावत् । पतनादिना चाऽऽत्मविराधनाधपि नियनं भावीति भावः ॥५॥ मार्ग न हो तो यह निषेध नहीं है-अर्थात् अन्य मार्गके अभावमें ऐसे मार्गसे भी जा सकते हैं ॥४॥ ऐसे मार्गमें चलनेसे होनेवाली हानि बताते है-'पवडते.' इत्यादि। यदि अवपात आदि पूर्वोक्त मागों में गमन करनेसे गिर पड़े या रपट जावे तो दीन्द्रिय आदि वस या पृथिवीकायिक आदि स्थावर जीवॉकी अथवा दोनों प्रकारके जीवोंकी हिंसा होती है तथा गिरने आदिसे आत्मविराधना भी अवश्य होती है ॥५॥ તે એને નિષેધ નથી--અથાંત અન્ય માર્ગને અભાવે એવા માર્ગથી પણ જઈ शाय छे. (४) मे भाभा यापायी थनारी पनि तावे - पचडते. त्यादि. જે અવપત આદિ પૂર્વોકત મોંમાં ગમન કરવાથી પડી જાય છે લપસી જાય તે હીન્દ્રિયાદિ ત્રસ યા પૃથ્વીકાયિક આદિ સ્થાવર જીવેની અથવા બેઉ પ્રકારના છની હિંસા થાય છે, તથા પડવાથી આત્મવિરાધના પણ અવશ્ય थाय छे. (५) Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकालिन अप्कापादियतनामाट-'न गरेत्र' इत्यादि ! मूलम्-न घरेज चासे वासंते, मिहियाए पडतिए । महावाए व वायते, तिरिच्छसंपाइमेसु वा ॥८॥ छाया-न घरेद् वर्षे धर्पति, मिहिकार्या पतनस्याम् । महाबाते या चाति, विर्यसंपातेषु वा ||८|| अफाय आदिकी यतना कहते है- . सान्वयाथें:-चासे वासंतेर्या वरसते हुए मिहियाए पडतिए-धूअर-कुहरा गिरते हुए व-तथा महायाए वायंते महावायु-ऑपी के चलते हुए वा-भार तिरिच्छसंपाइमेसु-तीड-पतंगादिकोंके उडते हुए (साधु) न चरेजगोचरान जावे ||८॥ टीका-व वर्पतिवृष्टी सत्याम् , मिहिकायां-धूमिकायां पतन्या सत्या महाबाते प्रचण्डपवने वातिवहति सति, तिर्यसम्पातेपु-तिय पतनशाल शलभादिपु सत्सु न चरेत् । 'वासे वासंते' इत्यनेन शीकरपातसमयेऽपि गमन निषेधः तस्यापि दृष्टावन्तर्भावात् अपकायविराधनासाधनत्वाच ॥८॥ उक्ताप्रथममहायतविराधनाऽधुना चतुर्थमहाव्रतविराधनाया इतरमहाव्रतविराधना अपकायादिकी यतना कहते हैं-'न चरेज वासे० ' इत्यादि । जय वर्षा बरस रही हो, कुहरा (धूअर) पड़ रहा हो, आधा : रही हो, टिड्डी आदि उड़ रहे हों, तय साधु गमन न करे। 'वास वास इस पदसे यह भी ग्रहण कर लेना चाहिए कि जब फुहारे पड़ रह । तय भी गमन न करे, क्योंकि वह भी वर्षाहीमें अन्तर्गत है और उस समय जानेसे अपकायकी विराधना होती है ॥८॥ प्रथम महाव्रतकी विराधना घतानेके बाद अब अन्यमहाव्रतोंकी विराधन सायाहिनी यतना छ-न चरेज्ज वासे. त्याहि. न्यारे व વરસી રહ્યો હોય, ધુમસ (ઝાકળો પડી રહ્યો હોય આંધી ચાલી રહી હોય, ટી रहा अाय, त्यारे साधु गमन न ४२. वासे वासंते थे शपथी मम पछु । કરી લેવું જોઈએ કે જ્યારે વરસાદની ફરફર પડી રહી હોય ત્યારે પણ તે ન કરે, કારણ કે તે પણ વરસાદમાં જ આવી જાય છે, અને તે સમયે જ अ५४ायनी विराधना थाय छे. (८) પ્રથમ મહાવ્રતની વિરાધના બતાવ્યા પછી હવે બીજા મઠ ને ૧ વિરાધના રોડ ઉS । गमन અને તે સમયે જવાથી Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८७ - अध्ययन ५ उ. १ गा. ९-ब्रह्मचर्यवतयतना हेतुभूततया तामाह-'न चरेज्ज वेस०' इत्यादि । मूलम् न चरेज वेससामंते, बंभचेरवसाणुए। ___ वंभयारिस्स दंतस्स, हुज्जा तत्थ विसुत्तिया ॥९॥ छाया-न चरेद् वेशसामन्ते, ब्रह्मचर्यवशानुगः । ब्रह्मचारिणो दान्तस्य, भवेत्तत्र विस्रोतसिका ॥९॥ ब्रह्मचर्य ही सब व्रतों का कारण है, अतः चतुर्थत्रत की यवना कहते हैं सान्चयार्थः-घंभचेरवसाणुए ब्रह्मचर्यकी रक्षा चाहनेवाला साधु वेससामंतेवेश्याके पाड़े-मुहल्ले में न चरेज्ज-गोचरी नहीं जावे, (क्योंकि) तत्य-वहां (गोचरी जानेसे) दंतस्स इन्द्रिय और मनको कावूमें रखनेवाले वंभयारिस्स-ब्रह्मचारी साधुके भी विसुत्तिया मानसिक विकार हुज्जा पैदा हो जाता है, साधारण मनुष्यकी तो वातही क्या ? अर्थात् उसके मानसिक विकार जरूर उत्पन्न हो जाता है ॥९॥ क्योंकि टीका-ब्रह्मचर्यवंशानुगः ब्रह्मचर्य-कामवासनापरित्यागलक्षणवनं, वशं= स्वायत्तताम् अनुगमयति मापयतीति स तथोक्तः ब्रह्मचारीत्यर्थः । यद्वा 'ब्रह्मचविसानके' इति, 'ब्रह्मचर्यवशाऽऽनये' इति वा संस्कृतं, तस्य 'वेशसामन्ते' इत्यनेन विशेपणतया सम्बन्धस्तथा च-ब्रह्मचर्यस्यावसानम् अन्तो यस्मात्स तस्मिन्-ब्रह्मचर्यविनाशके इति प्रथमस्यार्थः । ब्रह्मचर्य वशमानयति-दर्शनादिना स्वाधीन करोतीति ब्रह्मचर्यवशानयस्तस्मिन् ब्रह्मचर्यभ्रंशके इति द्वितीयस्यार्थः । वेशसामन्ते वेशः वेश्यागृहम् 'वेशो वेश्यागृहे गृहे' इति कोशात्, तस्य सामन्ते समीपे वेश्यापाटके वा न चरेत्न्न गच्छेत् । का हानि ? रित्याह'ब्रह्मे'-ति, तत्र वेशसामन्ते गमनेनेति प्रसङ्गलभ्यम् , दान्तस्य जितेन्द्रियस्यापि के कारण होनेसे चतुर्थ महाव्रतकी विराधनाका कथन करते हैं-'न चरेज वेस०' इत्यादि। ब्रह्मचारी साधु गोचरीके लिए, ब्रह्मचर्यका नाश करनेवाले वेश्याघरके समीपमें या वेश्याके पाड़े (मुहल्ले) में न जावे । वहाँ जानेसे क्या हानि है ? सो बताते हैं-वेश्याके पाडेमें गमन करनेसे जितेन्द्रिय ब्रह्म१२९१ डावाने सीधे यतुर्थ भावना विराधनानु ४थन ४२ छ: न चरेज्ज वेस. त्याह. બ્રહ્મચારી સાધુ ચરીને માટે, બ્રહ્મચર્યને નાશ કરવાવાળા વેશ્યાગૃહની સમીપે યા વેસ્યાઓના મહેલામાં ન જાય. ત્યાં જવામાં શી હરત છે ? તે હવે બતાવે છે વેશ્યાના મહેલમાં ગમન કરવાથી જિતેન્દ્રિય બ્રહ્મચારી Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :३८६ अफापादियतनामाद-'न गरेन' इत्यादि । मूलम्-न चरेज वासे वासते, मिहियाए पडतिए । महावार व वायंते, तिरिच्छसंपाइमेसु वा ॥८॥ छाया-न घरेद् वर्षे वर्पति, मिहिकार्या पवनस्याम् । महावाते या याति, तिर्यसंपातेषु वा ||८|| अफाय आदिकी यतना फहते हैसान्ययाय:-चासे चासंतेवा परसते हुए मिरियाप पडतिए-अर-हरा गिरते हुए य-तथा महावाए चायंते महागायु-ऑधी के चलते हुए वा-आर तिरिच्छसंपाइमेसु-तीड-पतंगादिकोंके उडते हुए (साधु) न बरेजगचिरा जावे ||८| टीका-वर्षे वर्पतिवृष्टी सत्याम् , मिहिकायां धमिकायां पतन्त्यां सत्या महाबातेप्रचण्डपपने वाति चहति सति, तिर्यसम्पातेपु-विर्य पतनशील शलभादिपु सत्सु न चरेत् । 'वासे वासंते' इत्यनेन शीकरपातसमयेऽपि गमन निषेधः तस्यापि दृष्टावन्तर्भावात् अप्कायविराधनासाधनत्वाच ॥ll उक्तामथममहावतविराधनाऽधुना चतुर्थमहाव्रतविराधनाया इतरमहानतावरान अपकायादिकी यतना कहते हैं-'न चरेज धासे०' इत्यादि। जय वर्षा परस रही हो, कुहरा (चूअर ) पड़ रहा हो, आधी । रही हो, टिड्डी आदि उड़ रहे हों, तब साधु गमन न करे। 'वास वार इस पदसे यह भी ग्रहण कर लेना थाहिए कि जय फुहारे पड़ रहे । तब भी गमन न करे, क्योंकि वह भी वर्षांहीमें अन्तर्गत है और १ समय जानेसे अप्कायकी विराधना होती है ॥८॥ --प्रथम महावतकीविराधना बतानेके बाद अब अन्यमहाव्रतोंकी विराव सायाहिनी याना छ-न चरेज्ज चासे त्याल. न्यारे १२ વરસી રહ્યો હોય, ધુમસ (ઝાકળ પડી રહ્યો હોય. આધી ચાલી રહી હૈય, ૮૬ २हां लाय, त्यारे. साधु गमन न ४२. वासे वासंते से शण्था मेम. पY કરી લેવું જોઈએ કે જ્યારે વરસાદની ફરફર પડી રહી હોય ત્યારે પણ * ન કરે, કારણ કે તે પણ વરસાદમાં જ આવી જાય છે, અને તે સમયે જ અપકાયની વિરાધના થાય છે. તે પ્રથમ મહાવ્રતની વિરાધના બતાવ્યા પછી હવે બીજા મહા વિરાધનાની - જવાર્થી Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. १०-११-ब्रह्मचर्यव्रतयतना ३८९ छाया-अनायतने चरतः संसर्गेणाऽभीक्ष्णम् । भवेदवतानां पीडा, श्रामण्ये च संशयः ॥१०॥ वेश्या के पाड़े में एकवार जाने का दोप कह कर अब अनेक वार जानेका दोप कहते हैं सान्वयार्थः-अणाययणे वेश्याके पाड़ेमें अथवा इस प्रकारके दूसरे अयोग्य स्थानों में चरंतस्स-गोचरी जानेवाले साधुके अभिक्ख गंगारंवार संसग्गीए संसर्ग होनेके कारण वयाणं महावतोंको पीला पीडा हुज होती है अर्थात् वे पित हो जाते हैं । (इतना ही नहीं किन्तु उस साधुके) सामन्नम्मि य चारित्रसाधुपने-में भी संसओ सन्देह हो जाता है ॥१०॥ टीका-अनायतने अयोग्यस्थाने वेश्यागृहसमीपादौ अभीक्ष्णं वारंवारम् चरतःपर्यटतः साधोः संसर्गेण प्रेक्षणादिसंपर्केण (मूले प्राकृतवात्स्त्रीत्वम्) व्रतानां ब्रह्मचर्यादीनां पीडा-विराधना, चकारोऽप्यर्थे, नैतावत्येव हानिः किन्त्वन्याऽपीत्याह-श्रामण्ये चारित्रेऽपि संशयः पालनीयतासन्देहो भवेत, तथाहि " दुश्चरब्रह्मचर्यादेर्भविप्यति फलं न वा ? | चेन्न जाने कियत् कीटक, कदा वा तद्भविष्यति ॥१॥ तथाऽमाप्तसुखप्राप्ति, मुद्दिश्य विहितो मया । उपस्थितमुखत्याग उचितः किं न वोचितः ॥२॥” इत्यादि। वेश्या-घरके समीप या ऐसेही अन्य अयोग्य स्थानोंमें बार बार गमन करनेवाले साधुके वेश्याको देखने आदि संसर्गसे ब्रह्मचर्य आदि व्रतोंमें पीड़ा होजाती है, अर्थात् व्रत दूपित होजाते हैं। यही एक हानि नहीं है किन्तु उसके श्रामण्य (चारित्र)में भी संदेह होजाता है कि "इस दुश्चर ब्रह्मचर्यका फल मिलेगा या नहीं ?, यदि मिलेगा भी तो न जाने कितना मिलेगा, कैसा मिलेगा, और कय मिलेगा ? ॥१॥ मैंने अप्राप्त सुखकी प्राप्तिके लिए प्राप्त सुखका त्याग कर दिया है सो यह-उचित किया है या अनुचित ? ॥२॥" इत्यादि। વેશ્યાગ્રહની સમીપે યા એવાજ અન્ય અગ્ય સ્થાનમાં વારંવાર જવાવડે વેશ્યાને જેવા આદિ સંસર્ગથી સાધુનાં બ્રહ્મચર્ય આદિ વ્રતમાં પીડા થઈ જાય છે, અર્થાત્ વ્રત દૂષિત થઈ જાય છે. આ એક જ હાનિ નથી પરંતુ એના શ્રમણ્ય (ચરિત્ર)માં પણ સંદેહ ઉત્પન્ન થાય છે કે-“આ દુશ્ચર બ્રહ્મચર્યનું ફળ મળશે કે નહિ?, જે મળશે તે પણ શી ખબર કેટલું મળશે, કેમ મળશે અને કયારે મળશે? (૧). મેં અપ્રાપ્ત સુખની પ્રાપ્તિ માટે પ્રાપ્ત સુખને ત્યાગ કરી નાંખે છે ते मे लयित यु छ अनुथित ? (२)"त्या, Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___३८८ श्रीदनकालिको ग्रामचारिणः साधोविखोतसिकातापलावग्यावलोकन चिन्तनादि कनवरेण चेतो. नलिकासमागतानासलिलमनिरोधे अदाभूमिसमुत्पन्नग्रामचर्यमूलकाsहिंसासत्याऽस्तेयाऽपरिग्रहरूपाऽऽलवालसंदित-मान-क्रियास्कन्धमुर-समिविगु. त्यादिशाखामशाखावितता-दशसहस्रशीलापप्र-ध्यान-कुसुमा-ऽपवर्ग-फलसम्पसमृदसंयमद्रुमशोपिणी चिनविकृतिर्मवेदिति नत्रायः ॥९॥ सकृद्गमनदोपं मविपादानीमसानमनदोपान प्रदर्शयति-'अणाययणे इत्यादि। मूलम् अणाययणे चरंतस्स, संसग्गीए अभिक्खणं । हज वयाणं पीला, सामन्नम्मि य संसओ ॥१०॥ १ 'कूड़ा-करकट' 'कचरा' इति मापा । चारी साधुके भी मनमें विकार उत्पन्न होसकता है। अर्थात् वेश्याके रूप-लावण्यका अवलोकन करने और विचार करनेरूप कचरेसे चित्त रूपी नलदारा आत्मामें आता हुआ विशुद्धभावनारूप जलका प्रवाह रुक जाता है। भावना-जलका प्रवाह रुक जानेसे वह संयमरूपा तर सूख जाता है, जो तरु श्रद्धारूपी भूमिमें उत्पन्न होता है, ब्रह्मचर्य जिसका जड़े हैं, अहिंसा-सत्य-अस्तेय-अपरिग्रह-रूपी क्यारी है, जो ज्ञान आर क्रियारूपी स्कन्धसे दृढ़ है, समिति-गुप्ति आदि शाखा-प्रशाखाएँ जिसका फैली हुई हैं, अठारह हजार शीलाङ्ग जिसके पत्ते हैं, ध्यान ही जिसक पुष्प हैं, और मुक्ति-सम्पत्तिही जिस वृक्षके फल हैं ॥९॥ एकबार गमन करनेके दोष बताकर बारंबार गमन करनेके दाष कहते है-'अणाययणे०' इत्यादि। સાધુના મનમાં પણ વિકાર ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. અર્થાત વેશ્યાના રૂપ–લાવણ્યનું અવલોકન, વિચાર, ઈત્યાદિરૂપ કચરાથી ચિત્તરૂપી નળદ્વારા આત્મામાં આવતા વિશુદ્ધ ભાવના જળને પ્રવાહ રેકાઈ જવાથી એ સંયમરૂપી તરૂ સુકાઈ જાય છે, કે જે તરૂ શ્રદ્ધારૂપી ભૂમિમાં ઉત્પન્ન થાય છે. બ્રહ્મચર્ય જેનાં મૂળ છે, અહિંસા સત્ય-અસ્તેય-અપરિગ્રહરૂપી કયારી છે, જે જ્ઞાન અને ક્રિયારૂપી થડ વડે દહે છે, સમિતિ-ગુપ્તિ આદિ શાખા-પ્રશાખા જેની ફેલાઈ રહી છે, અઢાર હજાર શીલાંગ જેના દર છે. ધ્યાન જ જેનાં પુષ્પ છે અને મુક્તિસંપત્તિજ તે તરૂનાં ફળ છે. (૯).. - એકવાર ગમન કરવાના દોષ બતાવીને વારંવાર ગમન કરવાના દોષ पताछे-अणाययणे० Vत्यादि. Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. १२-मार्गगमनयतना ३९१ लक्षणं विज्ञाय-अवबुध्य एकान्तम्-एका अद्वितीयः अन्तो-निश्चयो व्रतरक्षणविषयको मोक्षप्राप्तिविपयको वा एकान्तस्तम् आश्रित:-आस्थितो मुनिः वेशसामन्तं वेश्यापाटकगमनं वर्जयेत् परित्यजेत् । ___ 'वियाणित्ता' इत्यनेन सम्यगवयोधमन्तरेण दोपपरित्यागो याथातथ्येन न संभवतीति, 'एगंतमस्सिए' इत्यनेन च मुनिना सततं मोक्षकलक्ष्येण भवितव्यमिति सूचितम् ॥११॥ मार्गयतनामेव विशिष्याऽऽह-'साणं' इत्यादि । मूलम्-साणं सूइयं गाविं, दित्तं गोणं हयं गयं । " ० ॥ १२ संडिब्भं कलह जुद्धं, दरओ परिवजए ॥१२॥ छाया-श्वानं मूतां गां, दृप्तं गोणं हयं गजम् । संडिम्भं कलहं युद्ध, दूरतः परिवर्जयेत् ॥१२॥ साधु जहाँ भिक्षा के लिये न जावे उन स्थानों को विशेप रूपसे कहते हैं सान्वयार्थ:-साणं-जहां काटनेवाला कुत्ता हो सूइयथोडे कालकी व्याई हुई गावि-गाय हो दित्तं मदमस्त गोणं-गोधा साण्ड अथवा बैल (और) हयंघोड़ा (अथवा) गयं-हाथी हो (तथा) संडिभ-जहां बच्चे खेल रहे हों कलहंपरस्पर वाग्युद्ध-गाली-गलोच-हो रहा हो जुद्ध शस्त्र आदिसे युद्ध होता हो (ऐसे स्थानको साधु) दरओ-दरसे ही परिवजएचजे, अर्थात् ऐसी जगह साधु जानकर व्रतोंकी रक्षा और मोक्षकी प्राप्तिके निश्चयमें स्थित मुनि वेश्याके पाड़े (चकले)में भिक्षा आदिके लिए न जावे। ___'वियाणित्ता' पदसे यह सूचित किया है कि भलीभाँति जाने विना दोपका अच्छी तरह परित्याग नहीं हो सकता। 'एगंतमस्सिए' पदसे यह प्रगट किया है कि मुनिको सदा मोक्षप्राप्तिका लक्ष्य रखना चाहिये॥११॥ __ मार्गकी यलनाको विशेपरूपसे बताते हैं- 'साणं०' इत्यादि । જાણીને તેની રક્ષા અને મેક્ષની પ્રાપ્તિના નિશ્ચયમાં સ્થિત મુનિએ, વેશ્યાના મહોલ્લામાં ભિક્ષા આદિને માટે જવું નહિ. वियाणित्ता शपथी गेम सूथित यु छ -सारी शले एया विना धोनी सारी पे परित्याग य श नथी. एगंतमस्सिए सण्यी सभ પ્રકટ કર્યું છે કે મુનિએ સદા મોક્ષપ્રાપ્તિનું લક્ષ્ય રાખવું જોઈએ. (૧૧) माननीयतनान विशेष३पे ताछे. साणं. त्याल. Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदassess यहा - 'चकारादत्र' का विभेद-न्माददीर्घकालिक रोग- केवलि धर्मादयो दोषः संगृद्यन्ते ॥ १० ॥ उपसंहरति-' तम्हा एवं इत्यादि । ३९० १ ३ मूलम्-तम्हा एयं वियाणिता, दोसं दुग्गइवडुणं । to वजए वेससामंतं, मुणी एगंतमस्सिए ॥ ११ ॥ छाया - तस्मादेतं विज्ञाय, दोषं दुर्गविवर्द्धनम् । वर्जयेद्वेशसामन्तं निरेकान्तमाश्रितः ||११|| 2 सान्वयार्थ :- तम्हा = इसलिए दुग्गड़वणं-दुर्गतिको बढानेवाले एवं इस दोस= दोषको वियाणित्ता = मानकर एगतमस्सिए = मोक्षाभिलाषी मुणी-मुनि वेससामंते=वेश्याके पाड़े-मोहल्ले को वजन अर्थात् भिक्षादिके लिए वहां नहीं जाये । भावार्थ - इस प्रकारके संसर्गसे साधु मन उद्विम हो जानेसे मनमें अनेक कुतर्कणाएं होने लग जाती है, तब उसका मन ज्ञान-ध्यान आदि शुभ कार्यों में नहीं लगकर आर्त- रौद्र-ध्यान करने लगता है। इसलिए साधु ऐसे संसर्गको ही टाले ॥ ११ ॥ टीका- तस्माद्धेतोः एतं =पूर्वोक्तं दुर्गतिवर्द्धनं दुर्गतिमापकं दोपंतविराधनादि अथवा गाथामें आये हुए 'च' शब्दसे विपयसेचनकी आकांक्षा; संयमसे घृणा, भेद, उन्माद, दीर्घकालिक रोग और केवलीप्ररूपित धर्म आदि अनेक दोष समझ लेना चाहिये । अर्थात् ऐसे अयोग्य स्थानों में गमन करनेसे इत्यादि दोप होते हैं ॥१०॥ उपसंहार करते हैं-- 'तम्हा एवं ' इत्यादि । इसलिए इस दुर्गतिको बढ़ानेवाले, व्रतकी विराधनारूप दोषको 5 અથવા ગાથામાં આવેલા 7 શબ્દથી વિષય સેવનની આકાંક્ષા, સંયમથી ધૃણા, ભેદ, ઉન્માદ, દીર્ધ્યકાલિક રોગ અને કેવળી-પ્રરૂપિત ધર્મોમાંથી ભ્રષ્ટતા આદિ અનેક દ્વેષે સમજી લેવા. અર્થાત્ એવાં અયેગ્ય સ્થાનામાં ગમન કરવાથી એ પ્રકારના દોષ થાય છે. (૧૦) उपसंहार करे छे- तुम्हा एयं धत्याहि. એટલા માટે, એ દુર્ગતિને વધારવાવાળા, તેની વિરાધના ૫ ટ્રાયને Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. १२ - मार्गगमनयतना ३९१ लक्षणं विज्ञाय = अवबुध्य एकान्तम् = एक: = अद्वितीयः अन्तो = निश्रयो व्रतरक्षण त्रिपयको मोक्षमाप्तिविपयको वा एकान्तस्तम् आश्रितः = आस्थितो मुनिः वेशसामन्तं=वेश्यापाटकगमनं वर्जयेत् = परित्यजेत् । 'वियाणित्ता' इत्यनेन सम्यगववोधमन्तरेण दोपपरित्यागो याथातथ्येन न संभवतीति, 'एतमस्सिए' इत्यनेन च मुनिना सततं मोक्षैकलक्ष्येण भवितव्यमिति सूचितम् ॥११॥ मार्गयतनामेव विशिष्याऽऽह - 'साणं' इत्यादि । ૨ 3 ४ ૬ ७ मूलम् - साणं सूइयं गावं, दित्तं गोणं हयं गयं । ટ્ ૧. 11 ર संडिब्भं कलहं जुद्धं, दूरओ परिवज ॥ १२ ॥ छाया - श्वानं मृतां गां हां गोणं इयं गजम् । संडिब्भं कलहं युद्धं, दूरतः परिवर्जयेत् ||१२|| साधु जहाँ भिक्षा के लिये न जावे उन स्थानों को विशेष रूपसे कहते हैंसान्वयार्थ :- साणं जहां काटनेवाला कुत्ता हो सहयं-थोडे कालकी व्याई हुई गावं गाय हो दित्तं = मदमस्त गोणं = गोधा साण्ड अथवा बैल (और) हयं = घोड़ा (अथवा ) गयं =दाथी हो (तथा) संडिग्भं जहां बच्चे खेल रहे हों कलहं= परस्पर वाग्युद्ध - गाली-गलोच - हो रहा हो जुद्धं शस्त्र आदि से युद्ध होता हो (ऐसे स्थानको साधु) दुरओ =दूरसे ही परिवज्जए =वर्जे, अर्थात् ऐसी जगह साधु जानकर व्रतोंकी रक्षा और मोक्षकी प्राप्तिके निश्चयमें स्थित मुनि वेश्याके पाड़े (चकले) में भिक्षा आदिके लिए न जावे । 'विघाणित्ता' पदसे यह सूचित किया है कि भली भाँति जाने विना दोषका अच्छी तरह परित्याग नहीं हो सकता। 'एगंतमस्सिए' पदसे यह प्रगट किया है कि मुनिको सदा मोक्षप्राप्तिका लक्ष्य रखना चाहिये ॥ ११ ॥ मार्ग की यतनाको विशेषरूपसे बताते हैं- 'साणं०' इत्यादि । જાણીને ત્રતાની રક્ષા અને મેક્ષની પ્રાપ્તિના નિશ્ચયમાં સ્થિત મુનિએ, વેશ્યાના મહેલ્લામાં ભિક્ષા દિને માટે જવું નહિ. વિયાજ્ઞિા શબ્દથી એમ સૂચિત કર્યું છે કે–સારી રીતે જાણ્યા વિના होपन! सारी पेठे परित्याग थ रातो नथी एगंतमस्सिए शहथी भ પ્રકટ કર્યું" છે કે મુનિએ સદા મેક્ષપ્રાપ્તિનું લક્ષ્ય રાખવું જોઈએ. (૧૧) भार्गनी यतनाने विशेषज्ञतावे छे. साणं० छत्याहि Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ঋীক্ষান্তি। कदापि गोचरी नहीं जाये। भावार्थ-ऐसे स्थानमें गोचरी जानेसे कुत्ते आदिके फाटरखाने आदिके कारण क्या पात्रे फूटनाने आहार गिरजाने आदि अनेक भकारसे संयम और आत्मा दोनोंकी विराधना होती है ॥१२॥ टीका-यानं कुक्कुरं, 'ER-मितीहाउपप्प सम्बध्यते, तथाच-दसम्-उदवं दंशनस्वभावम् उन्मादिनं वेत्यर्थः, नमस्तसन्या अप्युपलक्षणमेतत् । मृतांना प्रसूतां गां-सौरमेयी, नवममूतमहिप्या अप्युपलक्षणाद् ग्रहणम् , चण्डस्त्रमा गोणंचपमं, इयं घोटकं, गज हस्तिनं च, संडिन्म शिशुक्रीडनस्थान, कलहवाग्युद्ध, युद्धम् दण्डादण्डि-शखाशस्ति-प्रभृतिकम् दूरतः परिवर्जयेत् , आत्मसंयमोभयविराधनातुसात् ॥१२॥ गमनप्रकारमाह--'अणुन्नए' इत्यादि । मूलम्-अणुन्नए नावणए अप्पहिडे अणाउले। इंदियाई जहाभागं दमइत्ता मुणी चरे ॥१३॥ छाया-अनुन्नतो नावनतोऽमहष्टोऽनाकुलः । इन्द्रियाणि यथाभार्ग, दमयित्वा मुनिश्चरेत् ॥१३॥ जहां उन्मत्त (पागल हडक्या) या काटनेवाला कुत्ता, नयी बियाई हुई (प्रसूता) कुतिया, नवप्रसूता गाय या नवप्रसूता भैंस आदि, मदा न्मत्त बैल, घोड़ा हाथी हों उस स्थानको, तथा बच्चोंके खेलनेके, कलह (मुँहकी लडाई) के और युद्ध (शस्त्रकी लड़ाई) के स्थानको साधु दरसे त्यागे । अर्थात् जहाँ ये सब हों वहां न जावे-दर ही रहे, क्योंकि इससे आत्मविराधना संयमविराधना और उभयविराधना होती है ॥१२॥ चलनेका प्रकार कहते हैं-'अणुन्नए.' इत्यादि । ज्या जन्मत्त (arist-85121) अथवा १२नारोतरा, नवी वीयायसी (प्रसूता) કતરી, નવપ્રસૂતા ગાય યા નવપ્રસૂતા ભેંશ આદિ, મદેમત બળદ ઘાડે હાથ ઈત્યાદિ હોય તે સ્થાનને, તથા બાળકેએ રમવાન, કલહ (મહેની લડાઈ)ના અને યુદ્ધ (શશ્વની લડાઈ)ના સ્થાનને સાધુ દૂરથી જ ત્યાગે, અર્થાત્ જ્યાં એ બધાં હોય ત્યાં ન જાય-જૂર જ રહે, કારણ કે તેથી આત્મવિરાધના, સંમવિરાધના અને ઉભયવિરાધના થાય છે. (૧૨) पानी प्रहार ५ छे-अणुनए. त्याहि. Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. १३-गोचर्या कायचेष्टामकारः गोचरी में घूमते हुए साधु को किस प्रकार की चेष्टा रखनी चाहिये सोवताते हैं सान्वयार्थः-मुणी-गोचरीमें घूमता हुआ साधु अणुन्नए-द्रव्यसे ऊंचा नहीं देखनेवाला, भावसे जात्यादिगवरहित नावणए-द्रव्यसे शरीरको अत्यन्त नहीं नमानेवाला, भावसे दीनवारहित अप्पहिडे-मिलनेवाले आहार आदिके विचारसे रहित अणाउले इष्ट अनिष्ट आहार आदिकी प्राप्ति होना न होना आदि व्याकुलतासे रहित (साधु) इंदियाई श्रोत्र आदि इन्द्रियोंका जहाभागं यथाक्रम अर्थात् जिस समय जिस इन्द्रियका विपय उपस्थित हो उस समय उस इन्द्रियका दमइत्ता-दमन-निग्रह-करके चरे-विचरे ॥१३॥ टीका-अनुन्नतः-अनुच्छ्रितः, स च द्रव्यत ऊर्जानवलोकयिता, भावतो जात्यादिगवरहितः, नावनतः नातिमहः, स द्रव्यतो नातीवनताङ्गः, भावतो दैन्यरहितः। अमहटः अप्रमुदितः उपलप्स्यमानाहारवस्त्रपात्रादिभावनाजन्यप्रमोदरहित इत्यर्थः । अनाकुल: अक्षुब्धः इष्टाऽलाभाऽनभीष्टलाभभावनाजनितमनःक्षोभवर्जित इत्यर्थः, मुनिः इन्द्रियाणि श्रोत्रादीनि यथाभागं भज्यते-सेव्यते इति भागीविपयः, मागमनतिक्रम्य यथाभाग यथाविपयं-यस्येन्द्रियस्य यो विषयः सम्प्राप्तस्तमनुसृत्येत्यर्थः, दयिता-निगृह्य मनोज्ञा-ऽमनोज्ञशब्दादिविषयेषु रागापरागपरित्यागं कृत्वेत्यर्थः, चरेत् । मार्गमें चलते समय साधु अनुन्नत अर्थात् द्रव्यसे ऊपरकी ओर न देखता हुआ, और भावसे जाति कुल आदिके अभिमानसे रहित, नावनत अर्थात् द्रव्यसे अत्यन्त न झुका हुआ, तथा भावसे दीनतारहित, अप्रहृष्ट अर्थात् मिलनेवाले आहार आदिके विचारसे प्रमोदरहित, अनाकुल अर्थात् इष्टकी अप्राप्ति तथा अनिष्टकी प्राप्तिके विचारसे उत्पन्न होनेवाली व्याकुलतासे रहित मुनि जहाँ जिस इन्द्रियका विषय उपस्थित हो वहाँ उस इन्द्रियका दमन करके अर्थात् मनोज्ञविषयमेंराग और अमनोज्ञ विपयमें देपका परित्याग करता हुआ भिक्षा आदिके लिए विचरे। માર્ગમાં ચાલતી વખતે સાધુ અનુન્નત અર્થાત દ્રવ્યથી ઉપરની બાજુએ ન જોતાં અને ભાવથી જાતિકુળના અભિમાનથી ડિત, નાવનત અર્થાત્ દ્રવ્યથી અત્યન્ત ને નમ્યા વિના તથા ભાવથી દીનતા-રહિત, અપ્રફુણ અર્થાત મળવાને આહારદિના વિચારથી પ્રદરહિત, અનાકુલ અર્થાત્ ઈછની અપ્રાપ્તિ તથા અનિછની પ્રાપ્તિના વિચારથી ઉત્પન્ન થનારી વ્યાકુળતાથી રહિત જ્યાં જે ઇન્દ્રિયને વિષય ઉપસ્થિત હોય ત્યાં તે ઈદ્રિયનું દમન કરીને અર્થાત્ મને જ્ઞવિષયમાં રાગ અને અમને જ્ઞ-વિષયમાં દ્વેષને પરિત્યાગ કરતાં, ભિક્ષા આદિને માટે વિચરે. Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ श्रीदशवेकालिकसूत्रे 'अणुन्नए' 'नावणए' इत्येताभ्यामीर्यायतनाऽहङ्कारवर्जनदेन्यराहिल्यानि सूचितानि । 'अप्प हिडे' इत्यनेन माध्यस्थ्यं चौधितम् । 'अणाउले' इतिपदेन साधो रसलोलुपत्वं निराकृतम् । 'जहामार्ग' इत्यनेन च यत्र यस्येन्द्रियस्य विषयमाप्तिस्तत्र तस्यैव दमनं वास्तविकमिन्द्रियदमनं, न तु दर्शनविषये कर्ण पिधानमित्यादि घोध्यम् ॥१३॥ २ 3 ' 1 मूलम्-दवदवस्स न गच्छेजा, भासमाणो य गोयरे । " ७ ૧૦ १९ हसतो नाभिगच्छेजा, कुलं उच्चावयं सया ||१४|| छाया - द्रुतद्रुतस्य न गच्छेद, भाषमाणथ गोचरे । हसन नाभिगच्छेत् कुलमुच्चावचं सदा ||१४|| सान्वयार्थः- गोयरे - भिक्षाचरीमें (साधु) दवदवस्स=अति शीघ्रता से दड़बड़‍ दौड़ता हुआ तथा भासमानो बोलता हुआ न गच्छेज्जा नहीं चले (और) हसंतो - हँसता हुआ भी नाभिगच्छेला नहीं जावे, (तथा) उच्चावयं = उच्च- द्रव्यसे सप्तभूमिक महलोंवाले, भावसे- धन-धान्यादिसे समृद्ध, नीच- द्रव्यसे घासफूस की झोपडीवाले, भावसे धन-धान्यादिरहित कुलं- कुलमें सया-हमेशा जावे। (२श्रु.१अ.२उ.) आचाराङ्गसूत्रमें बताये हुए सब कुलों में भिक्षा के लिए जावे अणुन्नए' और 'नावणए' इन दो पदोंसे ईर्ष्याकी यतना, अहङ्कारका परिहार और दीनताका त्याग सूचित किया है। 'अप्पहिट्टे ' पदसे मध्यस्थता प्रगट की है । 'अणाउले' पदसे साधुकी रसलोलुपताका निराकरण किया है । 'जहाभागं' पदसे यह प्रदर्शित किया है कि जहाँ जिस इन्द्रियका विषय उपस्थित हो वहाँ उसका दमन करना ही वास्तवमें इन्द्रियदमन कहलाता है, किन्तु चक्षुइन्द्रियका विषय उपस्थित होनेपर यदि कान मूँद लिए जायें तो इन्द्रिय-दमन नहीं कहला सकता, इत्यादि ॥ १३॥ अणुन्न भने नावणए मे मे शहाथी धर्यानी यतना अरनो परि हार भने हीनताना त्याग सूचित ये छे. अप्प हिडे शहथी मध्यस्थता अट भरी छे. अगाउले शण्डधी साधुनी रसवायतानु निशशु यु छे. जहाभागं શબ્દથી એમ પ્રદર્શિત કર્યું છે કે જ્યાં જે ઇંદ્રિયને વિષય ઉપસ્થિત હાય ત્યાં તેનું દમન કરવું એજ વસ્તુત: ઇંદ્રિયદમન કહેવાય છે, કિંતુ થા ઇન્દ્રિયને વિષય ઉર્જાસ્થત થતાં જે કાન સચવામાં આવે તે તે ઇંદ્રિયદમન કહેવાતું नथी, इत्याहि. (१३) Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - अध्ययन ५ उ. १ गा. १४-गोचों कायचेष्टापकारः अर्थात् जिस समय जिस देशमें जो कुल दुगुंछित न हों उन सब कुलोंमें गोचरी जावे, साधुको चाहिए कि ईर्यासमिति सोधता हुआ रागद्वेपरहित होकर भिक्षाके लिए विचरे ॥१४॥ ___टीका-गोचरे भिक्षायां भिक्षार्थमित्यर्थः, हुतद्रुतस्य शीघ्र-शीघ्रम् 'दबदवे त्यस्याव्ययत्वेऽप्यार्पवात्सविभक्तिकत्वम् , यहा क्रियाविशेषणत्वेन द्वितीयान्त. त्वौचित्येऽप्यार्पत्वात्पष्ठयन्तसम् , न गच्छेत्न यायात् । भापमाण: संलपन चन्तथा इसन्-हास्यं कुर्वन् नाभिगच्छेत् । उच्चावचम्-उदक् च अवाक् च इत्युचांवचम्- ('मयूरन्यंसकादयश्च' (२११७२) इति निपातनात्समासः सिद्रिश्च ) उच्चनीचात्मकमनेकविधमित्यर्थः । 'उच्चावचं नैकभेद'-मित्यमरः । कुलं गृहम् । तत्र द्रव्यत उच्चगृह-सप्तभूमिकमासादादिकम् , शारदशशाङ्क-धनसार-हार-नीहार-कुन्दावदातसुधोज्ज्वलहादिकं प्रोत्तुगतोरणादिकं च । भावत उच्चगृह-धनधान्यादि १ धातूपात्तभावनां पति फलांशस्य कर्मीभूततया फलसामानाधिकरण्ये द्वितीया । २ 'कुलं जनपदे गोत्रे, सजातीयगणेऽपि च । भवने च तनौ लीव’-मिति मेदिनी ।। 'दवदवस्स०' इत्यादि ।साधु गोचरीके लिए जल्दीर (दड़बड़२) न चले। यातचीत करता हआ, तथा हँसता हआ भी गमन न करे। उच्चनीच अर्थात् धनवान और निर्धन आदिके कुलोंमें सदा भिक्षाके लिए जावे। उच्च कुल दो प्रकारका है-(१) द्रव्यसे उच्च और (२) भावसे उच्च । (१) सतमंजिला आदि, शरदऋतुके चन्द्रमा, कपूर, हार, धर्फ, या कुन्द पुष्पके समान स्वच्छ, कलई (चूना) पोतनेसे जगमगाता हुआ, और जिसका फाटक खूब ऊंचा हो ऐसे महल आदि द्रव्य-उच्च कहलाते हैं। (२) धन-धान्यरूपी सम्पत्तिसे समृद्ध कुल भावसे उच्च कहलाता है। नीचा कुल भी दो प्रकारका है दवदवस्स. त्याह. साधु शायरीने भाटे Buq ताण न यावे. વાત-ચીત કરતા કે હસતા-હસતે પણ ન ચાલે. ઉચ્ચ-નીચ અર્થાત ધનવાન-નિર્ધન આદિનાં કુળમાં સદા ભિક્ષા માટે જાય. मे प्रारनां छ: (१) व्यथा स्य मने (२) भावथा अन्य, (१) सात-भरा हत्य, २२६९तुना यंद्रमा ४५२, (भातीन) १२, १२६ या કુંદપુષ્પની પેઠે સ્વચ્છ (ત) હોય, ચૂને પેળવાથી ઝગમગતે હોય અને જેનું ફાટક ખૂબ ઉંચું હોય એ મહેલ આદિ દ્રવ્ય–ઉચ્ચ કહેવાય છે. (૨) ધન-ધાન્યરૂપી સંપત્તિથી સમૃદ્ધ કુળ ભાવથી ઉચ્ચ કહેવાય છે. નીચકુળ પણ બે પ્રકારનાં હોય છે -- Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ श्रीदशवेकालिकसूत्रे सम्पदा समृद्धम् । द्रव्पतो नीचगृहं धनधान्यादिरहितं दरिद्रग्रहम्, सदा-सर्वदा अभिगच्छेत्=चरेत् । अथवा उच्चावचशब्देन उग्रकुलादीनि गृद्यन्ते, तथाहि' उग्गकुलाणि वा भोगकुलाणि वा राइनकुलाणि वा खत्तियकुलाणि वा इक्खागकुलाणि वा हरिवंसकुलाणि वा एसियकुलाणि वा वेसियकुलाणि वा गंडाकुलाणि वा कोट्टागकुलाणि वा गामरक्खकुलाणि वा युकासकुलाणि वा अन्नयरेसु वा तपगारे कुले अदुछिएस अगरहिएस असणं वा४ फासूर्य जाव पडिगाहिज्जा (स. ११ - आचाराङ्ग २ ० १ अ. २ उ.) । अत्र 'अदुगुछिएस' 'अगरहिएस' इति पदाभ्यां यस्मिन् समये यत्कुलमजुगुप्सितमगर्हितं भवेत्तदा तस्मिन्नेत्र कुले गन्तव्यमिति वोध्यते । अत्र ' दवदवस्से ' त्यादिना पकायरक्षण विचक्षणता समाख्याता । (१) द्रव्यसे नीचा, और (२) भावसे नीचा । (१) वांस, लकडी, घास, फूससे घनेहुए झोंपड़ेको द्रव्यसे नीचा कहते हैं । (२) धन-धान्य आदि संपत्तिसे रहित निर्धनके कुलको भावसे नीचा कहते हैं । इन सब प्रकार के घरोंमें साधु भिक्षा के लिए जावे । अथवा 'उच्चावच' शब्द से उग्रकुलादि समझ लेना चाहिए। वे बारह प्रकारके कुल आचारांग सूत्रमें (२०१अ०२७०सू.११में) भगवानने कहे हैं । आचारांग सूत्रमें आये हुए 'अदुगुछिए' और 'अगरहिए' पदसे यह सूचित किया है कि जिस देश और जिस समयमें जो कुल अनिन्दित और अगर्हित हो उसमें मुनि, भिक्षाके लिए जावे । यहां 'दवदवस्स' इत्यादि पदसे पटकायकी रक्षामें सावधानी प्रगद की है । 1 (१) द्रव्यथी नीयुं भने (२) लापथी नीयु. (१) वांस, साउड, घास - पांदृडाथी અનેલાં ઝુંપડાને દ્રવ્યથી નીચું કહે છે. (૨) ધન-ધાન્યાદિ સ ંપત્તિથી રહિત નિર્ધનના કુળને ભાવથી નીચું કહે છે. એ સર્વ પ્રકારનાં ઘરામાં સાધુ ભિક્ષાને માટે જાય. અથવા સુચાવષ શબ્દથી ઉદ્મકુળાર્દિ સમજી લેવાં જોઈએ. એ ખાર પ્રકારનાં કુળા આચારાંગ સૂત્રમાં (૨:૦૧અ.રઉ સૂ૦૧૧માં) ભગવાને કહ્યાં છે. આચારાંગ સૂત્રમાં આવેલા अदुछिए भने अगरहिए शुण्डोथी शुभ सुचित युछे है ? देश ने ने સમયમાં જે કુલ અનદિત અને અહિત હાય તેમાં સુનિ ભિક્ષાને માટે જાય. अहीं दवदवस्य धत्याहि शण्डोथी चट्ट्टायनी रक्षामा सावधानी अट ४री छे. Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. १५-गोचर्या कायचेप्टाप्रकारः 'भासमाणो' पदेनैकस्मिन् समये कार्यद्वयं सोपयोगं निप्पत्तुं न संभवतीति, 'इसंतो' इत्यनेन गाम्भीर्यम् , 'उच्चावचं' इत्यादिना प्रतिवन्धराहित्यं समतासाहित्यं च घोतितम् ॥१४॥ मूलम्-आलोअं थिग्गलं दारं, संधि दगभवणाणि य । चरंतो न विणिज्झाए, संकहाणं विवजए ॥१५॥ छाया-आलोकं थिग्गलं द्वारं, सन्धि दकभवनानि च । . चरन् न विनिर्ध्यायेत्, शङ्कास्थानं विवर्जयेत् ॥१५॥ सान्वयार्थ:-चरंतो भिक्षाके लिए घूमता हुआ साधु आलोयं जाली-झरोखेकी तरफ थिग्गलं ईट आदिसे भरे हुए भीतके छिद्रकी तरफदारं दरवाजेकी तरफ संधि-भीतकी सांधकी तरफ अथवा चोरोंद्वारा किये हुए भीतके छेदकी तरफ य-तथा दगभवणाणि-पलेण्डा आदिकी तरफ न विणिज्झाए-टक-टकी लगाकर नहीं देखे, (क्योंकि ये सब) संकटाणं शङ्काके स्थान हैं, (इसलिए इन्हें) विवज्जए विशेपरूपसे त्यागे। भावार्थ ऐसे स्थानोंको देखनेसे गृहस्थको साधुके प्रति चोर लम्पट आदिका सन्देह उत्पन्न हो जाता है, तथा एपणाकी यथोचित शुद्धि भी नहीं होती ॥१५॥ टीका-'आलोअं०' इत्यादि । चरन-भिक्षितुं गच्छन् मुनिः आलोकंवातायनजालिकाप्रभृति, थिग्गलं-देशीयभापया प्रसिद्ध भित्यामिष्टकादिरचितम् , भासमाणो' पदसे यह प्रगट किया है कि एक ही साथ दो कार्य उपयोगपूर्वक नहीं हो सकते । 'हसंतो' पदसे गंभीरता द्योतित की है. और उच्चावयं०' इत्यादि पदसे प्रतिबंध (नेसराय)-रहितता और समतासे सहितता प्रगट की है ॥१४॥ 'आलोयं०' इत्यादि । भिक्षा लेने के निमित्त गमन करता हुआ मुनि झरोखा, जाली, भीत, दरवाजा, सेंध (चोरों द्वारा दीवार में किया માસના શબ્દથી એમ પ્રકટ કર્યું છે કે એકીસાથે બે કાર્યો ઉપગપૂર્વક 25 Asti नथी. इसंतो शपथी गंभीरता ५४८ ४१ छ भने उच्चावयं Vत्याह શબ્દોથી પ્રતિબંધ (નેસરાય) રહિતતા અને સમતાથી સહિતતા પ્રકટ ४२॥ छे. (१४) आलोयं त्याहि. मिक्षाने भाट गमन ४२तेमुनि ३३, नी, नीत, દરવાજો, રે પાડેલું બાંકું (ખાતરીયાથી પડેલું બાંકેરૂ) અને ઉદકભવન અર્થાત Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ श्रीदशवकालिको द्वार-विपरम् , सन्धि-तस्करादिखातमित्तिमागं दयभवनानिमलस्थानानि, 'के. ति समुचये; नम्र विनियायेत्-सविशेष विलोकयेत् । यत एतानि (आलो. कादीनि) रावास्यानानि-साधोरापारविषयफसन्देवोत्पादकस्थानानि, से नातावेकवचनम् , अतस्तानि विवर्जयेत-विशेपेण परित्यजेत् ॥१५॥ मूलम्-रन्नो गिहवईणं च, रहस्सारखियाण य । संकिलेसकरं ठाणं, दूरओ परिवजए ॥ १६ ॥ छायाझो गृहपतीनां च, रहस्यमारक्षकाणां च । संक्लेशकरं स्थानं, दूरतः परिवर्जयेत् ॥१६॥ सान्वयायः-रन्नो चक्रवर्ती आदि राजा महाराजाओंके च-तया गिहवईण शेठ आदि सद्गहस्योंके च और आरक्खियाण-नगरके रक्षक कोतवाल आदिके रहस्सं सलाह करनेके एकान्त स्थानको (साधु) दरओ-दूरबीसे परिवज्जए-त्यागे; (क्योंकि ऐसे) ठाणं-स्थान संकिलेसकरं असमाधिको पैदा करनेवाले होते हैं। भावार्थ-राजा आदिकोंके एकान्त स्थानकी तर्फ देखनेसे अथवा वहां जानेसे उनको साधुके पति क्रोध अश्रद्धा होना आदि अनेक दोषांकी संभावना है ॥१६॥ टीका:~ रनो' इत्यादि । राज्ञा चक्रवर्द्धचक्रिमभृतेः, गृहपतीनां गृहस्वा मिना श्रेष्ठयादीनाम् आरक्षकाणां नगररक्षिणां च रहस्य-रहसि-एकान्ते भव हुआ छेद-सन्धि) और उदकभवन अर्थात् परेंडा आदि की तरफ दृष्टि न डाले, क्योंकि ये शंकास्थान हैं, इनकी ओर देखनेसे लोगोंको साधुक चारित्रमें सन्देह उत्पन्न होता है, अतएव इन शंकास्थानोंका विशेष रूपसे परित्याग करना चाहिए ॥१५॥ 'रन्नो०' इत्यादि। जिस एकान्त भवनमें चक्रवर्ती, अर्द्धचक्री, माण्डलिक आदि राजा, अष्ठी (सेठ) आदि गृहस्थ और नगरकी रक्षा પાણીઆરની તરફ દષ્ટિ ન નાખે, કારણ કે એ બધાં શંકાસ્થાને છે તેની તરફ જેવાથી લેકેને સાધુના ચરિત્રમાં સદેહ ઉત્પન્ન થાય છે. તેથી એ શંકાસ્થાને विशेष३२ परित्याग ४२वी. (१५) रनो. त्यादि, stra anभा All, मही, भासि आ રાજા. શ્રેણી (શેઠ) આદિ ગૃહસ્થ અને નગરની રક્ષા કરનારા કેટવાળી વગેરે સલાહ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ ९ १० ११ १२ १२ अध्ययन ५ उ. १ गा. १६-१८-गोचर्या कुल(गृह)प्रवेशविधिः 'रहस्य मन्त्रगृहम्, संकेशकरम् असमाधिजनकं स्थानं हेतु गर्भमिदं विशेषणं तथा च संक्लेशकरत्वादित्यर्थः, दूरतः परिवर्जयेत् सर्वथा संत्यजेत् ॥१६॥ मूलम्-पडिकुठं कुलं न पविसे, मामगं परिवजए। अचियत्तं कुलं न पविसे, चियत्तं पविसे कुलं ॥१७॥ छायाप्रतिष्टं कुलं न प्रविशेत् , मामकं परिवर्जयेत् । अघियत्तं कुलं न प्रविशेद , चियत्तं प्रविशेत्कुलम् ॥१७॥ सान्वयार्यः-पडिकुठं शास्त्रनिपिद्ध कुलं-कुल-घर में न पविसे-प्रवेश नहीं करे, मामगं-कृपणके घरको परिवजए-बरजे-नहीं जावे, अचियत्तं प्रतीतिरहित अथवा मीतिरहित कुलं-कुल-घर में न पविसे प्रवेश न करे, (किन्तु) चियत्तं प्रतीति और प्रीतिवाले कुलं-घरमें पविसे प्रवेश करे ॥१७॥ टीका-'पडिकुटं०' इत्यादि । प्रतिक्रु-निपिद्धं, कुलं गृहं न प्रविशेत् , माम='मा मदीयं गृहं श्रमणाः प्रविशन्तु'-इति प्रतिषेधकारिणो गृहं तथासामयिकव्याख्यादर्शनात् , परिवर्जयेत् । अचियत्त=देशीयशब्दोऽयम्-भीतिमन् , यत्र साधुमवेशेन गृहिणामप्रीतिभवेत् तद, अप्रतीतिमद्वा अविश्वस्तमित्यर्थः, यत्र गमनेन परेपां साधुविषयेऽप्यविश्वासो भवेत् , तादृशं कुलं न प्रविशेत् , करनेवाले (कोटवाल) आदि सलाह करते हों उस भवन को दरहीसे त्यागे, क्योंकि ऐसे स्थान असमाधिको उत्पन्न करनेवाले होते हैं ॥१६॥ ___'पडिकुटुं' इत्यादि । शास्त्रोंमें निषेध किये हुए घर में साधु प्रवेश न करे। जिसने अपने घरमें आनेका निपेद्य कर दिया हो कि 'श्रमण निर्ग्रन्थ हमारे घर पर न आवें' उन घरोंका भी साधु त्याग करे । साधु के प्रवेश करनेसे जिस घरवालेको अप्रीति उत्पन्न हो, या जिस कुलमें विश्वास न हो ऐसे कुलमें भी प्रवेश न करे, क्योंकि इससे (મંત્રણ) કરતા હોય, એ ભવનને મુનિ દૂરથી જ ત્યાગે, કારણ કે એવાં સ્થાને असमाधिने उत्पन्न ४२वावाणां डाय छे. (१६) . पडिकुटुंत्या . शालोमा निषेध ४२सा मा साधु प्रवेश न ४२. को પિતાના ઘરમાં આવવાને નિષેધ કર્યો હોય કે “શ્રમણ નિષે અમારા ઘરમાં આવવું નહિ” એવા ઘરોને પણ સાધુ ત્યાગ કરે. સાધુએ પ્રવેશ કરવાથી જે ઘરવાળાને અપ્રીતિ ઉત્પન્ન થાય, યા જે કુળમાં વિશ્વાસ ન હોય, એવા કુળમાં પણ સાધુ પ્રવેશ ન કરે, કારણ કે એથી સાધુપરથી બીજાઓને પણ વિશ્વાસ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० .. श्रीदशवकालिकसूत्रे गृहस्थानां संपठेशसंभवात् । नन्वे वार्ड कुत्र माविशेतदार-चियतंभीतिमद भतीतिमा फुलं भविशेत् ॥१७॥ मूलम्-साणीपावारपिहियं, अप्पणा नवपंगुरे । कवाडं नोपलिजा, उग्गहं सि अजाइया ॥१८॥ छाया-शाणी-भावारपिहितम् आत्मना नाऽपरणुयात् । कपाटं नो प्रणुदेव, अवग्रहं तस्याऽयाचित्ला ॥१८॥ सान्वयार्थ:-सि (से)-उस गृहस्वामी की उग्गह-आज्ञा अजाइयालिये विना साणीपावारपिदिय-सन आदिके बने हुए परदेसे ढके हुए घरको अप्पणा साधु खुद नावपंगुरे-नहीं खोले, (या) कवाडं-किवाडको भी नोपपुल्लिज्जा नहीं उघाड़े, तात्पर्य यह है कि गृहस्वामीको पूछकर ही उघाड़ना चाहिए ॥१८॥ ___टीका-'साणीपावार०' इत्यादि । तस्य गृहस्वामिनः अवग्रह-निदेशम् , अयाचित्वा-अगृहीत्वा आज्ञामन्तरेणेत्यर्थः, शाणीमावारपिहितं-शाणी-शणवल्कलनिर्मितजवनिका, मावार-ऊर्णादिरचितकम्बलादिस्ताभ्यां पिहितम् आवृतम् , यद्वा शणीमावारेण शणरचितपरदया' स्थगितं 'द्वार'-मितिशेपः, आत्मना-स्व: यम् न अपवृणुयातनापसारयेत् । तथा कपाटम अररम् 'किवाडे-ति भाषाप्रसिद्ध नो प्रणुदे-न प्रेरयेत् नोद्घाटयेदित्यर्थः, तदुद्घाटनस्य स्नानभोजनादिसमासक्ताना १ परदा-परान्-परपुरुपान् दर्शनादानेन धति खण्डयतीति परदा । दूसरोंका साधुपरसे भी विश्वास हट जाता है। साधु उस घरमें प्रवेश करे जिसमें प्रवेश करनेसे गृहस्थको प्रीति और विश्वास हो ॥१७॥ 'साणीपाचार' इत्यादि । गृहस्वामीकी आज्ञा लिये विना टहर या कम्बल आदि किसी वस्तुसे ढंके हए या सनके परदास बंद द्वारको तथा किवाडको स्वयं न खोले, क्योंकि ऐसा करना स्नानादि હડી જાય છે. સાધુ એ ઘરમાં પ્રવેશ કરે છે જેમાં પ્રવેશ કરવાથી ગહસ્થને પ્રીતિ અને વિશ્વાસ ઉપજે. (૧૭) साणीपावार छत्याहि. गृहस्वाभानी माशा सीधा विना टट या sirit આદિ કઈ વરતુથી ઢાકેલું યા સણના પડદાથી બંધ કરેલું એવું દ્વાર તથા આ સાધુ પિતે ન વે; કારણ કે એમ કરવું એ નાનાદિ કરતી સ્ત્રી આદિને Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन ५ उ. १ गा. १९-गोवा मलमूत्रव्युत्सर्जनविधिः स्च्यादीनामप्रतीतिकारणत्वान, तादृशव्यवहारानौचित्याच, तस्मादावश्यकतायां तत्स्वामिनं पृष्ट्वैवोद्धाटयेदिति भावः ॥१८॥ मूलम्-गोयरग्गपविट्ठो य, वच्च-मुत्तं न धारए। ओगास फासुअं नञ्चा, अणुन्नविअ वोसिरे ॥१९॥ छाया-गोचराग्रमवष्टिश्च, वर्गों-मूत्रं न धारयेत् । ___अवकाशं प्रासकं ज्ञावा, अनुज्ञाप्य व्युत्सजेत् ॥१९॥ सान्वयार्थः-गोयरग्गपविहो-गोचरीमें गयाहुआ मुनि बच्च-मुत्तं मल और मूत्रको नधारए-नहीं रोके अर्थात् मल-मूत्र-की बाधा उपस्थित होनेपर उनके वेगका अबरोध न करे, (किन्तु) फासुयंपाशुक-जीवरहित ओगासं-स्थण्डिलभूमिका नचा-जानकर अणुनविय-गृहस्थकी आज्ञा लेकर चोसिरे मल-मूत्रका त्याग करे ॥१९॥ टीका-गोयरग्ग०' इत्यादि । पूर्व निवृत्तवाधोऽपि गौचराग्रमविष्टो मुनिः पुनस्तद्वाघायामुपस्थितायां वर्ची-मूत्र मलं प्रस्रावं च न-धारयेत्नावरुन्ध्यात् । यत उक्तम्--- " जो मुत्तनिरोहे चक्खूबधाओ भवति, पचनिरोहे जीविओवधाओ करती हुई स्त्री आदिको अप्रतीतिका कारण है, तथा लोकव्यवहारसे भी अनुचित है, अतः आवश्यकता होने पर उसके स्वामीको पूछ करके ही किवाड़ परदा आदि खोलना चाहिए ॥१८॥ 'गोयरग्ग०' इत्यादि । गोचरी जानेके पहले लघुनीत और बड़ीनीतकी शंकाको निवृत्त करलेने पर भी यदि गोचरीके लिए चले जाने पर पुनःलघुशंका आदि की शंका होजाय तोमल-मूत्र को रोके नहीं, क्योंकि कहा है "मृत्रके निरोध करने से नेत्रोंको हानि होती है और मलका અપ્રતીતિનું કારણ બને છે, તથા લેકવ્યવહારથી પણ અનુચિત છે. તેથી જરૂર પડતાં તેના સ્વામીને પૂછી લઈને જ કમાડ વડદે આદિ ખોલવાં જોઇએ. (૧૮) गोयरग्ग. त्याहि यशो ४५ पडi aनात मने पहनातनी શંકાને નિવૃત્ત કરવા છતાં પણ જે ગોચરી માટે નીકળી ગયા પછી ફરી લધુશંકા આદિની શંકા થઈ જાય તે મળ-મૂત્રને રોકવાં નહિં, કારણ કે કહ્યું છે કે મૂત્રને નિરોધ કરવાથી નેત્રને હાની થાય છે અને મળને નિષેધ કરવાથી Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशनैकालिकसूत्रे ४०० गृहस्थानां संक्लेशसंभवात् । नन्वेवं तर्हि कुत्र मविशेत्तदाह- चियचं प्रीतिमत् मतीतिमद्वा कुलं मविशेत् ॥१७॥ ४ ૫ ९ मूलम् - साणीपावारपिहियं, अप्पणा नवपंगुरे । ७ 3 कवाडं नोपपुलिजा, उग्गहं सि अजाइया ॥१८॥ छाया - शाणी मावारपिहितम् आत्मना नाऽपहृणुयात् । कपाटं नो मणुदेत्, अवग्रहं तस्याऽयाचित्वा ॥ १८॥ सान्वयार्थः - सि (से) उस गृहस्वामी की उग्गहं= आता अजाइया = लिये बिना साणीपावारपिहियं = सन आदिके बने हुए परदेसे ढके हुए घरको अप्पणा= साधु खुद नावपंगुरे नहीं खोले, (तथा) कवाडं-किवाडको भी नोपपुल्लिज्जा नहीं उघाड़े, तात्पर्य यह है कि गृहस्वामीको पूछकर ही उघाड़ना चाहिए ||१८|| टीका 'साणीपावार०' इत्यादि । तस्य गृहस्वामिनः अवग्रहं निदेशम्, अयाचित्वा = अगृहीत्वा आज्ञामन्तरेणेत्यर्थः, शाणीमावार पिडितं - शाणी - शणवल्कलनिर्मितजवनिका, मावार:=ऊर्णादिरचितकम्बलादिस्ताभ्यां पिहितम् = आवृतम्, यद्वा शणीमावारेणशणरचितपरदया' स्थगितं ' द्वार' - मितिशेषः, आत्मना स्वयम् न अपवृणुयात् = नापसारयेत् । तथा कपाटम्=अररम् 'किवाडे' ति भाषाप्रसिद्धं नो प्रणुदेदन प्रेरयेत् नोद्वाटयेदित्यर्थः, तदुद्घाटनस्य स्नानभोजनादिसमासक्तानां १ परदा - परान् = परपुरुषान् दर्शनादानेन यति खण्डयतीति परदा । दूसरोंका साधुपरसे भी विश्वास हट जाता है। साधु उस घर में प्रवेश करे जिसमें प्रवेश करनेसे गृहस्थको प्रीति और विश्वास हो ॥१७॥ 'साणीपावर' इत्यादि । गृहस्वामीकी आज्ञा लिये विना हर या कम्बल आदि किसी वस्तुसे ढंके हुए या सनके परदासे बंद द्वारको तथा किवाडको स्वयं न खोले, क्योंकि ऐसा करना स्नानादि હડી જાય છે. સાધુ એ ઘરમાં પ્રવેશ કરે કે જેમાં પ્રવેશ કરવાથી ગૃહસ્થને प्रीति भने विश्वास पत्रे. (१७) સાપાવાર॰ ઇત્યાદિ. ગૃહસ્વામીની આજ્ઞા લીધા વિના ટાટ ચા કાંખળી આાદિ કઈ વસ્તુથી ઢાંકેલું યા સણુના પડદાી અંધ કરેલું એવું દ્વાર તથા કમાડ, સાધુ પોતે ન ખેલે; કારણ એમ કરવું એ સ્નાનાદિ કરતી શ્રી દિને Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ.१ गा. २०-२२-भिक्षाथै गृहप्रवेशविधिः ४०३ नेत्याह-यत्र यस्मिन् कोष्टकादौ, अचक्षुर्विपयः अत्र 'अ' 'चक्षुपियाः' इति पृथक पदद्वयं, तत्र 'अ' इति निपातो नर्थकः 'अभावे ना-ऽ-नो-नाऽपी'-त्यमराव , तथाच-चक्षुर्विषयः चक्षुरिन्द्रियजन्यव्यापारप्रसरः अन्न भवेदिति शेपः, ततः किमित्याइमाणाद्वीन्द्रियादयः दुप्पतिलेखका दुनिरीक्ष्या भवन्ती-ति शेषः, तत्र भिक्षां गृह्णतः साधोरीय-पणयोः शुद्धिर्न जायते ॥२०॥ मूलम् जत्थ पुप्फाइं चीयाई, विप्पइन्नाई कुट्टए । अहुणोवलितं उल्लं, दट्टणं परिवजए ॥ २१ ॥ छाया-यत्र पुष्पाणि वीजानि, विप्रकीर्णानि कोष्ठके । ___ अधुनोपलिप्तमाद्र, दृष्ट्वा परिवर्जयेत् ॥२१॥ सान्वयार्थः-जत्य-जिस कुट्टए-कोठेमें पुप्फाई-फूल (और) पीयाई-बीज विप्पइन्नाई-विखरे हुए हो उस कोठेको, तथा अहुणोवलितं-तुरन्तके लिपे हुए उलंगीले कोठेको दणं-देखकर परिवज्जए-बरजे ॥२१॥ टीका-'जत्थ' इत्यादि । यत्र कोष्ठके गृहे वा सचित्तानि पुष्पाणि बीजानि वा विप्रकीर्णानि इतस्ततः प्रसूतानि भवेयुः, यद्वा तत्काललितमत एवा कोष्ठकादि तद् साधुः परिवर्जयेत् तत्र न गच्छेदित्यर्थः ॥२१॥ ग्रहण न करे । तात्पर्य यह है कि जिस कोठेमें अन्धकारके कारण नेत्रों की प्रवृत्ति न होती हो, और इसीलिए द्वीन्द्रिय प्राणी सरलतासे दिखाई न देते हों उसमें भिक्षा लेनेसे ईर्या और एपणा की शुद्धि नहीं होती ॥२०॥ ___ 'जत्थ पुप्फाइं० इत्यादि । जिस कोठे आदिमें सचित्त पुष्प सचित्त बीज विखरे हुए हों, तथा तत्काल लिपनेसे जो गीला हो उस कोठे या अन्य-गृह आदिम प्रवेश न करे ॥२१॥ છે કે જે ઓરડામાં અંધકારને કારણે ને કામ ન કરી શકતાં હોય અને તેથી કરીને હીન્દ્રિયદિ પ્રાણ સહેલાઈથી ન જોઇ શકાતાં હોય તેમાં ભિક્ષા લેવાથી સાધુની ઈય તથા એષણની શુદ્ધિ જળવાતી નથી. (૨૦) जत्थ पुप्फाइं० ४त्या. रे सा२31 मादिमा सन्धित ५ सयत भी વેરાયલાં હોય તથા તત્કાળ લીંપવામાં આવ્યું હોવાથી લીલે હોય તે ઓરડામાં या समि प्रदेश न ४२३१. (२१) Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकमन्ने man - man -- - असोहणा य आपविराहणा इत्यादि। नन्वेवं तहि किं कुर्यात् ? इत्याह-मासननिर्गन्तुकं निरवमित्ययः, अत्रकाश स्थण्डिलं शावा, अनुमाप्य-गृहस्थं समूच्य तदाशामादायेत्यर्थः, व्युत्एजेपरित्यजेत् ॥१९॥ मूलमणीयदुवारं तमसं कुट्टगं परिवजए । अचक्खुविसओ जत्थ, पाणा दुप्पडिलेहगा ॥२०॥ छाया-नीचद्वारं तामसं, कोष्ठकं परिवर्जयेत् । । . अचक्षुपियो यत्र, माणाः दुष्पतिलेखकाः ॥२०॥ सान्वयार्थ:-णीयद्वारं नीचे द्वारवालेतमसं-प्रकाशरहित कुट्टगं-कोठेको परिवज्जए-घरजे अर्थात् वहां माहार-पानी नहीं लेवे, क्योंकि जत्थ-जहाँ अचक्खुचिसओ आँखका प्रसार नहीं होता (वहां) पाणाधीन्द्रिय आदि माणियोंका दुप्पडिलेहगा-प्रविलेखन नहीं हो सकता ॥२०}} टीका~णीयदुवारं०' इत्यादि। नीचद्वारं नीचं-निम्न द्वारं--प्रवेश-निगममार्गों यस्य स तं तथोक्तम्, ताशप्रदेशे प्रवेश-निर्गमाभ्यामात्मसंयमविराधनाया: संभवात्, तामसम्तमोयुक्तममकाशमित्यर्थः, कोष्ठक-गृहाभ्यन्तरमपत्ररकादिक परिवर्जयेत् न तत्राऽऽहारादिकं गृह्णीयादित्यर्थः । किं सामान्यनायं निषेधः ? निरोध करने से जीवन को हानि पहुंचती है, तथा बुरी तरह आत्मविराधना होती है।" ___ तो क्या करे सो बताते हैं-जीवरहित (निरवद्य) स्थान देखकर गृहस्थकी आज्ञा लेकर उस स्थानमें मल-मूत्रका त्याग करे ॥१९॥ 'णीयदुवारं० ' इत्यादि । नीचे द्वारवाले कोटेमें भिक्षाके लिए नहीं जाना चाहिये, क्योंकि उसमें जाने-आनेसे आत्मा और संयमकी विराधनाका संभव है। तथा अन्धकारयुक्त कोठेमें भी आहार आदि જીવનને હાનિ પહોંચે છે, અને ખરાબ રીતે આત્મ-વિરાધના થાય છે.” તે શું કરવું, તે હવે બતાવે છેજીવરહિત (નિરવદ્ય) સ્થાન જેને ગૃહસ્થની આજ્ઞા લઈને એ સ્થાનમાં મળ-મૂત્રને ત્યાગ કરે. (૧૯) णीयवारं त्यादि. नाथ वारा सासमा भिक्षाने भाटे न , કારણ કે તેમાં જવા-આવવાથી આત્મા અને સંચમની વિરાધનાને સંભવ છે. તથા અંધકારયુક્ત એરડામાં પણ આહાર આદિ ગ્રહણ ન કરવાનું તાત્પર્ય એ - - Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. २३ - भिक्षायें स्थितस्य कायचेष्टाप्रकारः प्रलोकेत = पश्येत्, अन्यथा रागादिसम्भवात् । अतिदूरं = दातुरागमनपदेशात्परं नावलोकेत, साधौ तस्करतादिशङ्कासंभवात् । उत्फुल्लं = स्मेरं यथा स्यात्तथा नेत्रे विस्फार्येत्यर्थः न विनिर्ध्यायेत् = न पश्येत् । कदाचिद्भिक्षाया अलाभे अजल्पन्= दैन्योपालम्भवचनानि अब्रुवन् निवर्त्तत = प्रत्यावर्चेत । 'असतं' इति पदेन दृष्टयनुरागोऽपाकृतः । 'नाइदूरा०" इत्यादिना साधौ चौरत्वाद्याशङ्का निराकृता । 'उप्फुलं०' इत्यादिना, वराकेणानेन साधुना नावलोकितो नाप्पनुभूत एतादृशो विभवोऽतोऽयं दीनः' इत्याद्यागङ्का व्युदस्ता ||२३|| * ૫ २ मूलम् - अइभूमिं न गच्छिज्जा, गोयरग्गगओ मुणी । ७ ८ ११ कुलस्स भूमिं जाणित्ता, मियं भूमिं परक्कमे ||२४| अवलोकन न करे । दाता जिस स्थान से आता हो उस स्थान से ज्यादा दूर न देखे, क्योंकि दूर तक देखनेसे किसीको ऐसी शंका हो जाय कि 'यह चोर है' इत्यादि । किसी पदार्थकी ओर आंखें फाड़-फाड़ कर न देखे । यदि भिक्षाकी प्राप्ति न हो तो दीन वचन न बोले-न बड़बड़ावे, किन्तु मौनसहित पीछा फिर जावे । 'असंसत्तं पदसे नेत्रविषयक अनुराग का त्याग प्रगट किया है । 'नाइदूरा०' इत्यादि पदसे यह सूचित किया है कि साधुको ऐसा आचरण करना चाहिए जिससे किसीको चोर आदि होने का सन्देह न हो । उप्फुल्ल० ' इत्यादि पदसे इस सन्देह को दूर किया है कि कोई यह न समझे कि - 'अरे! इस बेचारे साधुने ऐसी विभूति न कभी देखी हैं और न कभी भोगी है इसलिए यह बड़ा दीन है ||२३|| , ४०५ 6 દાતા જે સ્થાનમાંથી આવતા હૈાય એ સ્થાનથી વધારે દૂર ન જોવું, કાણુ કે દૂર સુધી જોવાથી કોઇને એવી શંકા આવી જાય કે આ ચાર છે? ઈત્યાદિ. જે ભિક્ષાની પ્રાપ્તિ ન થાય તે દીન વચન ન ખાલવાં, કે ન ખડખડવું, પરન્તુ મોનસહિત પાછાં ફરવું. असंसतं० शब्दथी नेत्रविषय अनुरागनो त्याग आउट यछे नाइदूरा० ઇત્યાદિથી એમ સૂચિત કરવામાં આવ્યું છે કે સાધુએ એવું આચરણ કરવું भेडो से मेथी अहाने थोर भाहि होपान सहेड न पडे. उप्फुलं० ४त्याहि શબ્દથી એ સદૈહ દૂર કર્યાં છે કે કેઇ એમ ન સમજે કે 'अरे! या जियारा સાધુએ એવી વિભૂતિ નથી ફોઈવાર જોઈ અને નથી કોઈવાર ભાગવી તેથી એ गहु ४ हीन छे. (23) Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ १२ ___४०४ ४०४ श्रीदशवकालिकसूत्रे मूलम्-एलगं दारगं साणं, वच्छगं वावि कोहए। उल्लंधिया न पविसे, विउहित्ताण व संजए ॥ २२॥ छाया-एडकं दारकं धान, यत्सा वाऽपि कोष्टके ।। उल्लइय न भविशेद, व्यूव वा संयतः ॥२२॥ सान्वयार्थ:-एलगं-मेड दारकचालक साणं कुत्ते वच्छगं-बछड़े अपिवाइस प्रकार दूसरे अर्थात् चकरा-चकरी पाडा-पाडी आदिको उल्लंधिया लांघः करके, वा अथवा विउहित्ताण हाय आदिसे हटाकर संजए-साधु कोहएकोठे-घर में न पविसेम्प्रवेश नहीं करे ॥२२॥ टीका-'एलगं' इत्यादि । संपता मितुः, एडकबाहक, दारकम् अर्भकम्श्वान-कुक्कुर, वत्सकंगोशिशुं वा, अपिशब्दादजामहिप्यादिशिशुग्रहणम् , उल्ल छुध्य अतिक्रम्य व्यूह्य अपोह्य हस्तादिनाऽपसार्येत्ययः, कोष्ठके न भविशेत् ।।२२।। २५ मूलम्-असंसत्तं पलोइज्जा, नाइदूरावलोयए । __ उप्फुल्लं न विणिज्झाए, नियहिज अयंपिरो ॥२३॥ छाया--असंसक्तं प्रलोकेत, नातिदमवलोकेत । उत्फुल्लं न विनिायेत् निवःताऽजल्पन् ॥२३॥ सान्वयार्थ:-असंसत्तं आसक्तिरहित होकर पलोइनान्देखे अर्थात् रागादि पूर्वक किसीको न देखे, नाइदूरावलोयए अत्यन्त दूर दृष्टि डालकर-लम्बी दृष्टिस न देखे तथा उप्फुल्लं-आँखें फाड़-फाड़कर अथवा मुसकराता हुआ टकटका लगाकर नविणिज्झाए नहीं देखे, (भिक्षाकी माप्ति न हो तो) अयपिरा-कुछभा नहीं बोलता हुआ अर्थात बड़बड़ाहट नहीं करता हुआ वहां से नियहिज्जयापस लौट जावे ||२३|| टीका-'असंस०' इत्यादि। असंसक्तम् आसक्तिरहितं यथास्यात्तथा 'एलगं०' इत्यादि । भेड़ तथा बकरा, बालक, कुत्ता, बछ तथा पाडा-पाडी आदिका उल्लंघन करके, अथवा उनको हाथ आदिस हटाकर साधु कोठे आदिमें प्रवेश न करे ॥२२॥ . 'असंसत्तं०' इत्यादि । आसक्त होकर रागादिपूर्वक किसाका एलगत्या तथा १४३, , ३, पाछा तथा पा:-पारी मान બાળગીને અથવા તેને હાથ અ દિથી હઠાવીને સાધુ ઓરડામાં પ્રવેશ ન કરે. (૨) असतं. त्या. मासxt ने होनु म न न ४२९. एलग० Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3D अध्ययन ५ उ. १ गा. २४-२६-गृहस्थगृहे स्थितिविधिः ४०७ भूमिको पूंजकर खड़ा रहे और सिणाणस्स-स्नानघरकी तर्फ यम्-तथा बच्चस्सटट्टी-पेशाव-घरकी तर्फ संलोग दृष्टि परिवज्जए-न डाले ॥२५॥ टीका-तत्थेव०' इत्यादि । विचक्षणः-निपुणः तत्रैव-स्वाधिष्ठानस्थान एव भूमिभागं प्रतिलिखेत-संपश्येत् , स्नानस्य स्नानगृहस्य वर्चसा बर्चीगृहस्य च मलपरित्यागगृहस्येत्यर्थः, संलोकंप्रेक्षणं परिवर्जयेत् । 'विअक्खणो' इत्यनेनाऽगीतार्थस्य स्वतन्त्रतया गोचरीगमनं निपिद्धम् । 'सिणाणस्स' इत्यादिना च नमस्च्यादिदर्शनाद्रागादिसंभव इति सूचितम् ॥२५॥ मूलम् दगमडियआयाणे, वीयाणि हरियाणि य । परिवजंतो चिहिज्जा, सविंदियसमाहिए ॥२६॥ छाया--दकमृत्तिकाऽऽदानं, वीजानि हरितानि च ॥ परिवर्जयस्तिप्ठेत् , सर्वेन्द्रियसमाहितः ॥२६॥ सान्चयार्थः-(और वहांभी) दगमहियआयाणे सचित्त जल और मिट्टीयुक्त __ मार्गको बीयाणिशालि आदि वीजोंको य=और हरियाणि हरित कायको परिवजंतोवरजता हुआ अर्थात् उससे हटकर सबिदियसमाहिए सब इन्द्रियोंको गोपता हुआ चिहिज्जा-खड़ा रहे ॥२६॥ 'तत्थेव०' इत्यादि । विचक्षण भिक्षु जिस मर्यादित भूमिपर खड़ा है वहींके भूमिभागका प्रतिलेखन करे, स्नानघर तथा उच्चार आदिके स्थानकी ओर दृष्टि न डाले। 'वियक्खणो' पदसे अगीतार्थ साधुको स्वतन्त्र गोचरी करनेका निषेध किया गया है। 'सिणाणस्स' इत्यादि पदोंसे-'नग्नस्त्री आदि दीखजानेके कारण रागादि भाव उत्पन्न होना संभव है'-यह सूचित किया गया है ॥२५॥ તર૦ ઇત્યાદિ. વિચક્ષણ ભિક્ષુ જે મર્યાદિત ભૂમિ પર ઊભા હોય ત્યાંના ભૂમિભાગનું પ્રતિલેખન કરે, સ્નાન-ઘર તથા ઉચ્ચાર આદિના સ્થાન (an०४३)नी १२६ हरि न . बियक्खणो शपथी मीत' साधुन स्वतंत्र गायरी ४२पान निषेध ४२वाभा माव्यो , सिणाणस्स या पोथी न સ્ત્રી આદિ દેખાઈ જવાને કારણે રાગાદિ ભાવ ઉત્પન્ન થવાને સંભવ છે – એમ સંચિત કરવામાં આવ્યું છે. (૨૫) Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भार - - - মীমান্তিক্ষয় छाया-अतिभूमि न गच्छेत् , गोचराग्रगतो मुनिः । कुलस्य भूमि पात्या, मितां भूमि पराक्रामेत् ॥२४॥ सान्वयार्थः-गोयरग्गगओ-गोचरीमें गया हुआ मुणी साधु आभूमिगृहस्थकी मर्यादित भूमिसे अगाड़ी उसकी आमाके बिना न गच्छिना-नहीं जावे, (किन्तु) कुलस्स-गृहस्थके घरकी भूमि-मर्यादित भूमिको जाणिसाजानकर मियं भूमि जिस घरमें जहांतक नानेकी मर्यादा हो वहांवक ही परकमे-मावे ॥२४॥ टीका-'अइभूमि०' इत्यादि । गोचराग्रगतो मुनिः अतिभूमि-परमवेशाय गृहस्थाननुमतां भूमिमतिक्रम्य उल्लष्य न गच्छेत् । तर्हि किं कुर्यात् ? इत्याहकुलस्य भूमि-मर्यादां स्थित्ययधि ज्ञात्वा मिवांपरिच्छिन्नां स्वावस्थानयोग्याँ भूमि स्थान पराकामे गत्वा तिप्ठेतू, विपरीताचरणे हि गृहस्थरोपादिसम्भवः ॥२४॥ मूलम् तत्थेव पडिले हिज्जा, भूमिभागं वियखणो। सिणाणस्स य वच्चस्स, संलोगं परिवजए ॥२५॥ छाया--तत्रैव प्रतिलिखेत , भूमिभाग विचक्षणः । ___ स्नानस्य च वर्चसः, संलोकं परिवर्जयेत् ॥२५॥ - सान्वयार्थ:-तत्थैव-जिस मर्यादित भूमिपर खड़ा है उसी भूमिभागे-भूमिभागको वियक्खणो-विचक्षण साधु पडिलहिज्जा प्रतिलेखन फरे, अर्थात् वहाँकी 'अइभूमि० इत्यादि । जिस घरमें भूमिकी जितनी मर्यादा हो उसे उल्लंघन करके मुनि गृहस्थकी आज्ञा चिना आगे नहीं जावे, किन्तु उस कुलकी मर्यादाको जानकर गमन करने योग्य परिमित स्थान तकहीं जाकर खड़ा हो जाय-अर्थात किसीकी मर्यादाका उल्लंघन न करे। इसके विपरीत आचरण करनेसे गृहस्थको क्रोध आने आदिकी संभावना रहती है ॥२४॥ . अइमि. त्याहि. २ ५२मा भूमिनी नक्षी भर्या राय भने Gधीन મુનિ ગૃહસ્થની આજ્ઞા વિના આગળ ન જાય, પરંતુ એ કુળની મર્યાદાને જાણીને કસન કરવા ગ્ય પરિમિત સ્થાન સુધી જ જઈને ઊભા રહે, અર્થાતુ-કાઈની મર્યાદાનું ઉલંઘન ન કરે, એથી વિપરીત આચરણ કરવાથી ગૃહસ્થને ક્રોધ આદિ ઉત્પન્ન થવાની સંભાવના રહે છે. (૨૪) Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ.१ गा. २७-२९-आहारग्रहणविधिः ४०९ गृहिण्यादिः पानभोजन-पान-पेयं तिलतण्डुलादिधावनजलम् भोजनं भोज्यमन्नादिकम् आहरेत्-उपनयेत्-दद्यादित्यर्थः। तत्रायं विशेषः उपनतेषु पानभोजनादिपु अकल्पिक कल्पितुमयोग्यमनेपणीयमित्यर्थः, न गृहीयाव-नाददीत, कल्पिकं= कल्प्यं निरवयं प्रतिगृह्णीयात् ॥२७॥ मूलम् आहरंती सिया तत्थ, परिसाडिज्ज भोयणं । ८ १५ १० १२ ४ दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥२८॥ छाया-आहरन्ती स्यात्तत्र, भोजनं परिशाटयेत् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥२८॥ सान्वयार्थः-और-आहरंती आहार-पानी देती हुई वह-दात्री सिया कदाचित् अगर तत्थ-वहां भोयण भोजन-पान परिसाडिज्ज-नीचे गिरावे तो दितियं देती-हुई उस बाईसे (साधु) पडियाइक्खे-कहे कि तारिइस प्रकारका आहार-पानी मे=मुझे न कप्पइन्नहीं कल्पता है ॥२८॥ टीका-'आहरंती०' इत्यादि । आहरन्ती-भिक्षामानीय ददती गृहिणी स्यात्-कदाचित् तत्र स्थाने भोजनम् आहारं परिशाटयेत् इतस्ततो विकिरेत् जानुप्रमाणोच्चपदेशात् कणादिमात्रमपि, तदधामदेशाच्च निरन्तरं पातयेदिति वृद्धाः, तदा ददती प्रति भिक्षुः आचक्षीत-ब्रुवीत, तादृशम् उक्तमकारकमन्नादिकं मे मम न-कल्पते-न-युज्यते न ग्राह्य मिति भावः । आदि तिल तण्डुल आदिका धोवन, तथा अन्नादिक देवे तो उनमेंसे अकल्पनीय (अनेपणीय) पदार्थोंका ग्रहण न करे, कल्पनीयका ग्रहण करे ॥२७॥ 'आहरंती' इत्यादि । अशनादि देते समय दाताके हाथसे घुटनेसे ऊपरके प्रदेशसे यदि एक भी कण गिर जाय, अथवा घुटनेसे नीचेके प्रदेशसे निरन्तर गिर रहा हो तो भिक्षु दातासे कहे कि ऐसा अन्नादिक मेरे लिए ग्राह्य नहीं है। તલ તંદુલ (ચેખા) આદિનું ધાવણ તથા અન્નાદિક આપે તે એમાંથી અક૫નીય (અષણય) પદાર્થોને ગ્રહણ ન કરે, લ્પનીયને ગ્રહણ કરે (૨૭) आहरंती. त्यादि. शनाहिती वमते हाताना या घुटनी ઉપરના પ્રદેશથી જે એક પણ કણ પડી જાય, અથવા ઘુંટણથી નીચેના પ્રદેશથી નિરંતર પડી રહ્યું હોય તે ભિક્ષ દાતાને કહે કે એવાં અશનાદિ મારે ગ્રાહ્ય નથી. Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - -- - --- - - - - - - --- - - - - --- - ४०८ , श्रीदशवकालिको टीका-'दगमटियः' इत्यादि । दकमृतिकाऽऽदानंदकं च मृत्तिका वेति दफमृत्तिके, आदीयते-मानीयतेऽनेनेत्यादान मार्गः, दकमृत्तिकयोरादानं दक मृत्तिकाऽऽदान जलमृत्तिकाऽऽनयनमार्गस्तत् । वीनानि सचित्तानि झाल्यादीनि, हरितानि वनस्पतिमात्राणि, चकारादन्यान्यप्याल्प्यवस्तुजातानि परिवर्जयन्परित्यजन् सन्द्रियसमाहितः तदिन्द्रियविषयव्यासारहितस्तिष्ठेर अवस्थिति कुर्यात् ॥२६॥ मूलम्-तत्थ से चिट्ठमाणस्स, आहरे पाणभोयणं । अकप्पियं न गेणिहज्जा, पडिगाहिज कप्पियं ॥२७॥ छाया-तत्र तस्मै तिष्ठते, आहरेत्पान भोजनम् । अकल्पिकं न गृहीयाव , प्रतिग्रहीयाकल्पिकम् ॥२७॥ सान्वयार्थ:-तत्थ-वहां चिट्ठमाणस्स-खड़े हुए तस्स-उस साधुके लिए (गृहस्थ) पाणभोयणं आहार-पानी आहरे लाकर देवे तो (साधु उसमें) अकप्पियं-अकल्पनीय आहार आदि न गेण्हिज्जा नहीं लेवे, (किन्तु)कप्पियं कल्पनीय होवे तो पडिगाहिज्ज-लेवे ॥२७॥ टीका-'तत्थ से.' इत्यादि । तत्र-गृहस्थगृहे तिष्ठते तस्मै भिक्षवे १ दकशब्दो जलपर्यायवचन:-'प्रोक्तं माझे वनमतं जीवनीयं दकं च ।' इति हलायुधकोशात् । २ सूत्रे प्राकृतत्वाचतुर्थ्याः पष्ठी । 'दगमट्टियः' इत्यादि । सचित्त जल और मृत्तिका लाने के मार्गका, और शालि आदि सचित्त बीज, वनस्पतिकाय तथा अन्य अकल्प्य पदार्थोंका वर्जन करता हुआ-उनसे दूर हट कर सब इन्द्रियोंका संयम करता हुआ खड़ा होवे ॥२६॥ _ 'तत्थ से' इत्यादि । गृहस्थके घरमें खड़े हुए साधुको गृहिणी (स्त्री) दगमट्टिय० पत्याह, सथित्त मने भाटीनु भने शाति (int) le સચિત્ત બીજ, વનસ્પતિકાય તથા અન્ય અકથ્ય પદાર્થોનું વજન કરતાં તેનાથી દર હઠીને સર્વ ઈદ્રિને સંયમ કરતાં ઊભા રહે. (૨૬) तत्य से प्रत्या. या ५२मा नेता साधुने डिनी (सी) माहि Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १गा. ३०-३१ - संहरणस्य चतुर्भङ्गयः ૨ 3 ४ પ मूलम्-साहद्दु निक्खवित्ताणं, सचित्तं घट्टियाणिय । 6.. ९ : तहेव समणट्टाए, उदगं संपणुलिया ॥ ३० ॥ & ૧૦ ર ११ ओगाहइत्ता चलइत्ता, आहरे पाणभोयणं । 13 ૧૪ ૧૭ ૧૫ - ર दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ॥३१॥ छाया - संहृत्य निक्षिप्य, सचित्तं घट्टयित्वा । तथैव श्रमणार्थम् उदकं संमणुध ॥३०॥ अवगाह्य चालयित्वाऽऽहरेत्पानभोजनम् । , ४११ ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥३१॥ सान्वयार्थः - समणट्टाए= साधुके लिए साहहु = संहरण करके अर्थात् एक वरतन से दूसरे वरतन में डालकरके, निक्खिवित्ताणं = सचित्त वस्तु पर आहारा दिको रखकर अथवा आहारादिके ऊपर सचित्त वस्तुको रखकर, सचित्तं-सचित्त वस्तुका घट्टियाणिय= संघट्टा - स्पर्श करके, तहेव उसीप्रकार उदगं=सचित्त अप्कायको संपणुल्लिया = इधर-उधर रखकर, ओगाहइत्ता=वर्षासे आँगनमें भरे हुए पानीमें अवगाहन-प्रवेश-करके, चलइत्ता = रुके हुए जलको नालीद्वारा या हाथसे बाहर निकालकर यदि पाणभोयण = आहार- पानी आहरे देवे तो दितियं देती हुई उस वाईसे (साधु) पडियाइक्खे = कहे कि तारिसं=इस प्रकारका आहारपानी मे मुझे न कप्पड़ नहीं कल्पता है ||३०-३१॥ टीका - 'साहहु ० ' इत्यादि, 'ओगाहइत्ता' इत्यादि च । यदि श्रमणार्थ = भिक्षुनिमिचं संहत्य = भाजनाद्भाजनान्तरे संहरणं कृत्वा, अवस्थामें आहार लेनेसे मुझे भी इस हिंसाका भागी बनना पड़ेगा ' • ऐसा विचार करके मुनि उससे आहार न ले ||२९|| 6 'साहद्दु ' इत्यादि, और 'ओगाहइत्ता ० ' इत्यादि । यदि भ्रमणके लिए एक वर्त्तनसे दूसरे वर्त्तनमें संहरण करके ( निकालकर ), निक्षेपण મારે પણ એ હિંસાના ભાગી ખનવું પડશે.' એવા (વચાર કરીને મુનિ તેના હાયથી આહાર લે નહિ. साहहु० धत्याहि, मते ओगाहइत्ता० इत्यादि ले श्रभाणुने भाटे વાસણમાંથી ખીજા વાસણમાં સહરણ કરીને (કાઢીને ), નિશ્ચેષણ કરીને (એકને Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से परिचज्जए- इत्यादि ! प्राणापा , तदा असा ४१० श्रीदशकालिको पाकादिगृहकार्याणां मायः स्पधीनत्वेन वनोपस्थितिप्राधान्यातद्रहणम् ॥२८॥ मूलाम्-संमदमाणी पाणाणि, चीयाणि हरियाणि य । असंजमकर नचा, तारिसं परिवजए ॥ २९ ॥ छाया-संमर्दयन्ती माणान् , बीजानि हरितानि च । ___असंयमकरी ज्ञात्वा ताशी परिवर्जयेत् ॥२९॥ सान्वयार्थः-तथा-पाणाणि इन्द्रियादिक प्राणियोंको बीयाणि शालि आदि चीजोंको य और हरियाणि हरी चनस्पतिकायको संमद्दमाणी-परोसे कुचलती हुई (आहार-पानी देये तो) उसे असंजमकरि साधुके लिये अयतना करनेवाली नचा-जानकर (साधु) तारिसंसदोष आहार देने वाली उसे परिवज्जए-धरजे अर्थात् उसके हायसे आहार-पानी नहीं लेवे ॥२९॥ टीका-संमद्दमाणी' इत्यादि । प्राणान् वीजानि हरितानि च संमदयन्तीपादसंघटनादिना पौडयन्ती अशनादिकं दद्यादिति शेपः, तदा असंयमकरी-साधुः निमित्तमयतनाकारिणीम् ज्ञात्वा ताशीम-स्वरूपां सदोपमाहारादिकं ददता तां परिवर्जयेत्-प्रत्यादिशेत , तद्धस्ततो नानादिकं गृहीयादित्यर्थः । इयं भिक्षादा नामागच्छन्ती प्राणादीनि मर्दयतीति तद्विराधना मय्यप्यापद्यतेति भावयन् भिक्षा न गृह्णीयादिति भावः ॥२९॥ रसोईका काम प्रायः स्त्रियोंके अधीन रहता है और रसोईमें मुख्यतया स्त्री मौजूद रहती है, अत एव गाथामें स्त्रीका ग्रहण किया है ।।२८॥ 'संमदमाणी' इत्यादि। प्राण धीज वनस्पति आदि सचित्तको कुचलती-रौदती हुई अन्नादि देवे तो साधुके लिए अयतना करनेवाला समझकर उसे त्याग देवे, अर्थात् उसके हाथसे अन्नादि ग्रहण न कर। तात्पर्य यह है कि-'यह भिक्षा देने के लिए जो अयतना कर रही है ऐसी - રસેઇનું કામ પ્રાયઃ એને અધીન રહે છે અને રસોઈમાં મુખ્યત્વે હાજર રહે છે, તેથી ગાથામાં સ્ત્રીને ગ્રહણ કરવામાં આવી છે. (૨૮) संमद्दमाणी० या. आy भी पनपति माह सथित्तर ४५तीઢળતી (સ્ત્રી) અનાદિ આપે તે સાધુને માટે અયતના કરનારી સમજીને તેને ત્યજી દે. અર્થાત્ એના હાથથી અનાદિ ગ્રહણ ન કરે. તાત્પર્ય એ છે કે આ બિકા આપવાને જે અયતના કરી રહી છે, એવી અવસ્થામાં આહાર લેવાથી Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ३०-३१- निक्षेपणचतुर्भङ्गयः ४१५ निक्षिप्य= एकस्योपर्यन्यस्य निक्षेपणं कृत्वा । निक्षेपणं च त्रिधा सचित्तमचित्तं मिश्र चेति, एतानाश्रित्य विस्रचतुर्भङ्गयों भवन्ति । तत्र[१] सचिताऽचित्तयोश्चतुर्भङ्गी यथा : (१) सचिचे सचित्तस्य, (२) सचितेऽचित्तस्य, (३) अचित्ते सचित्तस्य, (४) अचित्ते चित्तस्य निक्षेपणम् | १ | [२] सचित्त मिश्रयो तुङ्गी यथा (१) सचित्त सचित्तस्य, ( २ ) सचित्ते मिश्रस्य (३) मिश्र सचित्तस्य, (४) मिश्र मिश्रस्य निक्षेपणम् । २ । [३] अचित्त मिश्रयचतुर्भङ्गी यथा (१) अचित्ते चित्तस्य, (२) अचित्ते मिश्रस्य, (३) मिथेऽचित्तस्य, (४) मिश्र निक्षेपण दोष तीन प्रकारका है - ( १ ) सचित्त, (२) अचित्त, और (३) मिश्र । इन तीनोंको आश्रित करके तीन चौभंगियाँ होती हैं । [१] सचित्त-अचित्तकी चोभंगी (१) सचित्तपर सचित्तका, (२) सचित्तपर अचित्तका, (३) अचित्त पर सचित्तका, (४) अचित्तपर अचित्तका । १ । [२] सचित्त मिश्रकी चौभंगी (१) सचित्त पर सचित्तका, (२) सचित्त पर मिश्रका, (३) मिश्रपर सचित्तका, (४ मिश्रपर मिश्रका निक्षेप करना | २ | [३] अचित्त-मिश्रकी चौभंगी (१) अचित्त पर अचित्तका, (२) अचित्त पर मिश्रका । (३) मिश्रपर निक्षेपणु होष त्रयु प्राश्नो छे. (१) सचित्त, (२) अभित्त, (3) मिश्र. એ ત્રણને આશ્રિત કરવાથી ત્રણ ચૌભંગીઓ થાય છે. [१] सत्ति- अयित्तनी गोलूंगी. (१) सत्ति पर सथित्तनुं, (२) सथित्तयर अथित्तनुं, (3) अथित्त ૫૨ સચિત્તનું, (૪) અચિત્તપર અચિત્તનું ।। [२] सवित्त-भिश्रनी योगी (१) सत्ति पर सवित्तनुं, (२) सत्ति पर भिश्रनुं (3) मिश्र ५२ सत्तिनुं, (४) मिश्र पर भिश्रनु, निक्षेपाशु ४२.२ [3] अथित्त-मिश्रनी ओलंगी - (१) अयित पर अभित, (२) भक्त्ति पर मिश्र, (3) मिश्र पर Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ श्रीदशवकालिकमरे (४) यहा बहुगुप्फस्य संहरणम् । [४] 'आर्दै आईस्पे'-ति चतुर्थमङ्गस्य चतुर्मट्टी यया (१) अल्पार्देऽल्पाद्रस्य, (२) अल्पा-यहाईस्य, (३) बहादेऽल्पाईस्य, (४) पहाट्टै बहाईस्य संहरणम् । आम पूर्वोक्तभट्टीपु प्रत्येकचतुर्भङ्गायाः 'अल्पशुप्केऽल्पशुष्कस्य 'बहुगुष्कल्पशुष्कस्ये-स्यादिरूपी प्रथम वृतीयभङ्गी कल्प्यो शेषावकल्प्यो, तयाग्रहणे पात्रोत्या__ पनादिना दातुः कष्ट-पात्रस्फुटन-तद्गतवस्तुविकरणाऽपीत्यादिसम्भवात् । (३) बहुत गीलेमें थोड़े सूखेका, (४) बहुत गीलेमें बहुत सूखेका । [४] 'गीलेमें गीलेका' इस चौथे भंगकी चौभंगी (१) थोड़े गीलेमें थोड़े गीलेका (२) थोड़े गीलेमें बहुत गीलेका। (३) बहुत गीलेमें थोड़े गीलेका, (४) बहुत गीलेमें बहुत गीलेका। इन चारों चौभंगियोंमेंसे 'थोड़े सूखेमें थोड़ा सूखा मिलाना' और 'बहुत सूखेमें थोड़ा सूखा मिलाना 'ये पहले और तीसरे भंग ग्राह्य हैं। दूसरे और चौथे भंग ग्राह्य नहीं हैं । इस प्रकारके ग्रहण करनेसे वर्तन उठानेके कारण दाताको कष्ट, वर्तनका फूटजाना, और वस्तुका विखरजाना, और अप्रीति होना आदि दूषण होते हैं। जैसे किसी दाताने बहुत गीलेका या बहुत सूखेका संहरण करनेके लिए बड़ा भारी वर्तन उठाया तो उसे कष्ट होगा। (3) मई eleमां थोडा सू४ानु, (४) महुदामामा महु सूनुः [४] elenvi eीसानु' मे यथा मांनी यामागी-- (१) थोडासामा थोडा दासानु', (२) थोडा दमा गई दीसा, (3) બહુ લીલામાં થોડા લીલાનું, () બહુ લીલામાં બહુ લીલાનું. આ ચાર ચૌભંગીઓમાંથી “ડા સકામાં થોડું સમું મેળવવું” અને બહુ સૂકામાં થે ડું સૂકું મેળવવું' એ પહેલા અને ત્રીજા ભાંગા ગ્રંહ્ય છે. બીજા અને ચેથા ભાંગા ગ્રાહ્ય નથી. એ પ્રમાણે ગ્રહણ કરવાથી વાસણું ઉપાડવાને કારણે દાતાને કષ્ટ, વાસણ ફૂટી જવું અને વસ્તુ વેરાઈ-ળાઈ જવી, અને અપ્રીતિ થવી આદિ દૂષણ થાય છે, જેમકે કે દાતાએ બહુ લીલાનું યા બહુ સૂકાનું સંકરણ કરવાને માટે બહુ ભારે વાસણ ઉપાડયું હોય તેને કઈ થાય. Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१५ अध्ययन ५ उ. १ गा. ३०-३१-निक्षेपणचतुर्भङ्गन्यः निक्षिप्य एकस्योपर्यन्यस्य निक्षेपणं कृत्वा । निक्षेपणं च त्रिधा-सचित्तमचित्तं मिश्रं चेति, एतानाश्रित्य तिसश्चतुर्भङ्गयो भवन्ति । तत्र [१] सचित्ता-ऽचित्तयोश्चतुर्भङ्गी यथा' (१) सचित्ते सचित्तस्य, (२) सचित्तेऽचित्तस्य, (३) अचित्ते सचित्तस्य, (४) अचित्तेऽचिचस्य निक्षेपणम् । १। [२] सचित्तमिश्रयोश्चतुर्भङ्गी यथा (१) सचित्त सचित्तस्य, (२) सचित्ते मिश्रस्य, (३) मिश्रे सचित्तस्य, (४) मिश्रे मिश्रस्य निक्षेपणम् । २। [३] अचित्त-मिश्रयोश्चतुर्भङ्गी यथा(१) अचित्तेऽचित्तस्य, (२) अचित्ते मिश्रस्य, (३) मिश्रेऽचित्तस्य, (४) मिश्रे निक्षेपण दोप तीन प्रकारका है-(१) सचित्त, (२) अचित्त, और (३) मिश्र । इन तीनोंको आश्रित करके तीन चौभंगियाँ होती हैं। [१] सचित्त-अचित्तकी चौभंगी-. (१) सचित्तपर सचित्तका, (२) सचित्तपर अचित्तका, (३) अचित्त पर सचित्तका, (४) अचित्तपर अचित्तका । १। [२] सचित्त-मिश्रकी चौभंगी (१) सचित्त पर सचित्तका, (२) सचित्त पर मिश्रका, (३) मिश्रपर सचित्तका, (४ मिश्रपर मिश्रका निक्षेप करना । २ । [३] अचित्त-मिश्रकी चौभंगी(१) अचित्त पर अचित्तका, (२) अचित्त पर मिश्रका । (३)मिश्रपर निक्षेप होप त्रय प्रश्न छ. (१) सथित, (२) अथित, (७) भित्र એ ત્રણને આશ્રિત કરવાથી ત્રણ ચોભંગીઓ થાય છે. [१] सन्धित-मयित्तन योमी. (१) सथित्त ५२ सथित्तनु, (२) सथित्त५२ मथित्तनु, (3) मथित्त પર સચિનનું. (૪) અચિત્ત પર અચિત્તનું ૧ [२] सथित्त-भिटनी यौमी (१) सयित्त ५२ सचित्त, (२) सथित्त ५२ मिश्र, (3) भित्र ५२ सयितन, (४) भित्र ५२ मिश्रनु, निपाणु ४२. (२॥ [3] अस्थित्त- भिनी योगी(१) मथित ५२ मथितर्नु, (२) अस्थित्त ५२ मिश्रन, (3) मिश्र ५२ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - ४१६ श्रीदशवकालिकम्त्रे मिश्रस्य निक्षेपणमिति । ३ । । पुनरपि पृथिव्यादिकायपट्कोपरि पृथिव्यादीनां निक्षेपणेन प्रथमचतुर्भङ्गीस्थितपथमभङ्गस्य 'सचिने सचित्तस्ये'-त्येवंरूपस्य पत्रिंशद्भेदा भवन्ति, तद्यथा (१) पृथिव्यां पृथिव्याः, (२) अपाम् , (३) तेजसः, (४) वायोः, (५) वनस्पतेः, (६) प्रसस्य निक्षेपणमिति पट् (६)। ___ एवमकायादावपि प्रत्येककायस्य निक्षेपणेन पट्त्रिंशद् भेदा जायन्ते । एवं शेपमात्रयस्यापि प्रत्येक पत्रिंशद् भेदा भवन्ति । संकलनया,प्रथमचतुझ्याअचित्तका, (४) मिश्रपर मिश्रका निक्षेप करना।३। फिर भी पृथिवी आदि पटकाय पर पृथिवीकायका निक्षेपण करनेसे प्रथम चतुर्भगीके 'सचित्त पर सचित्तका' इस प्रथम भंगके छत्तीस भंग होते हैं। वे इस प्रकार हैं (१) पृथिवी पर पृथिवीका, (२) अप्का , (३) तेजका, (४) वायुका, (५) वनस्पतिका और (६) प्रसका निक्षेपण करना। इसी प्रकार अपकाय आदि पर पृथिवीकाय आदि छह कार्योंका निक्षेपण करनेसे छत्तीस भंग होते हैं, अर्थात् छह काय पर छह कायका निक्षेपण होता है अतः छहसे छहका गुणन करनेसे प्रथम भंगके छत्तीस भेदोंकी संख्या निकलती है। ऐसे 'सचित्त पर सचित्तका' 'सचित्त पर मिश्रका' मिश्र पर सचित्तका, और 'मिश्र पर मिश्रका' इन सब (४)भंगोंकी छत्तीस छत्तीस संख्या जोड़ देनेसे (३६+३६+३६+३६)भयित्तनु, (४) भिश्र ५२ मिश्रर्नु निक्षेप ४२. 131 . વળી પણ પૃથિવી આદિ ષકાય પર પૃથિવીકાયન નિક્ષેપણ કરવાથી પ્રથમ ચઉભંગીના “સચિત્ત પર સચિત્તનું” એ પ્રથમ ભાંગાના છત્રીસ ભાંગા થાય છે. તે આ પ્રમાણે છે– (१) पृथिवी ५२ पृथिवीनु, (२) अ (Arm) (3) तन्नु (४) वायु (५) वनस्पतिर्नु, (६) सर्नु निक्षेप ४२j. એ રીતે અપકાય આદિ પર પૃથિવીકાય આદિ કાનું નિક્ષેપણ કરવાથી છત્રીસ ભાંગા થાય છે, અર્થાત્ છ કાય પર છકાયનું નિક્ષેપણ થાય છે. એટલે બને છએ ગુણવાથી પ્રથમ ભંગના છત્રીસ ભેની સંખ્યા નીકળે છે. એમ સચિત્ત પર સચિત્તનું “સચિત પર મિશ્રનું મિશ્ર પર સચિત્તનું અને શિથ પર મિશ્રનું” એ બધા (૪) ભાંગાની છત્રીસ-છત્રીસ સંખ્યા જોડી દેવાથી Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www maamaan अध्ययन ५ उ. १ गा. ३०-३१-निक्षेपणचतुर्भङ्गाया ४१७ चतुश्चत्वारिंशदुत्तरमेकशतं भङ्गा भवन्ति । उक्तप्रकारेण शेपचतुर्भङ्गीद्विकस्यापि भङ्गसम्पादने संकलनया सर्वे भेदा द्वात्रिंशदधिकानि चतु:शतानि (४३२)सम्पद्यन्ते। _ इमे एककायस्योपर्येकस्यैव कायस्य निक्षेपणभेदाः प्रदर्शिताः, किन्तु 'एककाये कायद्वयस्य, कायद्वये चैकस्य-त्यादिनिक्षेपणेन चाऽन्येपामपि संभवः, यथा-- 'पृथिव्यां पृथिव्यप्काययो-रित्यादि, पृथिव्य काययोर्वनस्पते-रित्यादि च स्वयमवसेयमिति विस्तरभयाद्विरम्यते । पूर्वोक्तषु भङ्गसमुदयेषु 'अचित्तेऽचित्तनिक्षेपण-क्षणभङ्गस्य कल्यत्वम् , शेषा एकसौ चवालीस (१४४) भंग हो जाते हैं। दूसरी दो चौभंगियोंके भी इतने ही भंग होते हैं, उनको जोड़नेसे चारसौ बत्तीस (४३२) भंग होते हैं। __ ये चारसौ यत्तीस (४३२) भंग एक काय पर एक कायका निक्षेपण करनेसे होते हैं, किन्तु एक काय पर दो कायका, जैसे पृथिवीकाय पर पृथिवीकायका और अपकायका निक्षेपण करनेसे, तथा दो कायों पर एक कायका, जैसे पूर्वोक्त दो कायों पर वनस्पति आदि किसी एक कायका निक्षेपण करनेसे और भी बहुतेरे भंग होते हैं। संयोगसे बननेवाले इन उत्तर भंगोंको स्वयं समझ लेना चाहिए, विस्तार भयसे यहाँ नहीं बताते। पूर्वोक्त भंगोंमेंसे अचित्त पर अचित्तका निक्षेपण करनेरूप एक भंग कल्पनीय है, अवशेष साक्षात् या पारम्परिक निक्षेपणरूप सब (36438+3+38) मे से युवानीस (१४४) in थाय छे. पीछमेयोनी. એને પણ એટલાજ ભેદ થાય છે, એને જોડવાથી ચારસોને બત્રીસ (૪૩૨) मांगा थाय छे. એ ૪૩૨ ભાંગા એક કાય પર એક કાયનું નિક્ષેપણું કરવાથી થાય છે, પરંતુ એક કાય પર બે કાયનું, જેમકે— પૃથિવી કાય પર પૃથિવી કાયનું અને અપકાયનું નિક્ષેપણ કરવાથી, તથા બે કાર્યો પર એક કાયનું જેમ પૂર્વોક્ત બે કાર્યો પર વનસ્પતિ આદિ કોઈ એક કાયનું નિક્ષેપણ કરવાથી બીજા પણ ઘણું ભાંગા થાય છે. એ સંગથી થતા ઉત્તર ભાગા પિતાની મેળે સમજી લેવાનું બહુ વિસ્તાર થવાને કારણે અહીં આવ્યા નથી. પૂત ભાગમાંથી અચિત્ત પર અચિત્તનું નિક્ષેપણ કરવારૂપ એક ભાગે Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ श्रीदशवेकालिको आनन्तर्यस्वरूपाः पारम्पर्यस्वरूपा वा निखिला अकल्प्या एवेति बोदव्यम् । सचित्तं सचित्तपृथिव्यादिकं घट्टयित्वा संस्पृश्य संचाल्य वा, संस्पर्शनं सचिचाऽचित्त-मिश्रभेदात्रिविधं, तदपि पृथिव्यादिकायपट्केन भिधमानमष्टादशविध, पुनव-देय भेदाभ्यां विविधतया संकलनया पत्रिंशद भेदा जायन्ते, एतेषामपि पुनः-आनन्तर्य-पारम्पर्यभेदाद द्वासप्ततिभैदा भवन्ति । एवं कायद्वयकापत्रिकादि. संस्पर्शनेनोत्तरोत्तरभूरिभेदाः स्वयमूहनीयाः प्रेक्षावद्भिरिति । ननु पारम्परिकसंघटनेन दीयमानाऽऽहारादिवर्जने पृथ्वीसंघटनमनिवार्यमितिभंग अकल्प्य हैं। संस्पर्शन तीन प्रकारका है-(१) सचित्त संस्पर्शन, (२) अचित्त संस्पर्शन, और (३) मिश्र संस्पर्शन। इन तीनोंके पृथिवीआदि षटकायके भेदसे अठारह भेद होते हैं। दाता और देय (वस्तु) के मेदसे छत्तीस भेद होते हैं। और अनन्तर तथा परम्पराके भेदसे यहत्तर (७२) भद होजाते हैं। इनके सिवाय दो कायका या तीन कायका स्पर्श करनेस और भी भेद होजाते हैं, वे भेद बुद्धिमानोंको स्वयं विचार लेने चाहिए। प्रश्न-हे गुरुमहाराज ! यदि पारम्परिक संघटनसे दिये हुए आहार आदिका भी त्याग किया जायगा तो साधु कभी आहार नहीं ले सकरा क्योंकि पृथ्वीका संघहन अनिवार्य है-आहार आदि पृथिवीपर रहते है और सचित्त जल भी पृथ्वी पर रहता है, अतःसचित्त जलकापृथिवीका કલ્પનીય છે, બાકીના સાક્ષાત્ યા પારંપરિક નિક્ષેપણુરૂપ બધા ભાંગા અકલ્પનીય છે. सस्पशन र प्रा२नां छ:-(१) सयित्त संपर्शन, (२) गायत्त स२५. ર્શન, અને (૩) મિશ્ર સંપર્શન. એ ત્રણેના પૃથિવી આદિ પકાયના ભેદ કરીને અઢાર ભેદ થાય છે. દાતા અને દેય (વસ્ત)ને ભેદે કરીને છત્રીસ ભેદ થાય છે. અને પછી તેવી જ પરંપરાના ભેરે કરીને તેર (૭૨) ભેદ થાય છે. તે ઉપરાંત બે કાને યા ત્રણ કાયને સ્પર્શ કરવાથી બીજા પણ ભેદ થાય છે. તે ભેદે બુદ્ધિમાનેએ સ્વયં વિચારી લેવા. પ્રશ્ન–હે ગુરૂ મહારાજ! જે પારસ્પરિક સંધટનથી આપેલા આહારદિને પણ ત્યાગ કરવામાં આવશે તે સાધુ કદાપિ આહાર લઈ શકશે નહિ, કારણ કે અધિવીન સંધટન અનિવાર્ય છે–આહારાદિ પૃથિવી પર રહે છે અને સચિત જળ પણ પૃથિવી પર જ રહે છે. એટલે સચિત્ત જળનું પૃથિવી સાથે સંધટન છે. Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१९ - - - अध्ययन ५ उ. १ गा. ३०-३१-संघटनमकारः तत्संघटनेऽपि वर्जनप्रसनौ भिक्षणां सर्वदाऽऽहारप्रतिषेधप्रसङ्ग इति चेन्न, पृथिव्या अचलतया तत्सञ्चलनायभावेन तत्संघटने जीवाधाया असम्भवात् , तत्संघट्टिताऽऽहाराऽऽदानं भिक्षणामप्रतिषेध्यमिति भावः । उक्तपारम्परिकसंघहिताऽऽहाराऽऽदानविपये मतिषेपश्चलाऽऽधारविषयः, तत्र प्राणिपीडासंभवात् व्यवहारदोपाचेति भावः। ___ एतेषु मध्ये गाथोक्तं सचित्तम् , अन्तभितत्वान्मिभं च संस्पृश्य सञ्चाल्य वा तथैव-पुनरपि उदकम् अप्कायं 'सचित्त'-मित्यनुवर्तते सम्प्रणुध-संमेय इतस्ततः कृत्वेत्यर्थः ॥३०॥ तथा अवगाह्य-चर्पाकाले 'गृहाङ्गणप्रतिरुद्धजलान्तः प्रविश्य, चालयित्वा प्रणालिकादिना निस्सार्य च पानभोजनमाहरेत् तदा ददतीमित्यादि पूर्ववत् ॥३१॥ पुरकर्मदोपमाह-'पुरेकम्मेण' इत्यादि । १ 'गृहाङ्गने ति तु सम्यक, तवर्गपञ्चमान्तस्याङ्गनशब्दस्यैवाकरग्रन्थेषु निर्णीतत्वादिति श्रीरुचिपत्युपाध्यायाः । संघटा है और पृथिवीका आहारादिके साथ संघटा है, इसलिए आहारादिका तथा सचित्त जलका पारम्परिक संघटा होता ही है। उत्तर-हे शिष्य ! पृथिवी अचल है, उसका संचलन नहीं होता, अत एव ऐसे संघटेसे जीवोंको बाधा नहीं होती, इसलिए पृथिवीले संघहित आहारका ग्रहण करना साधुओंके लिए निपिद्ध नहीं है। पहले पारम्परिक संघहित आहारका जो त्याग बताया गया है उसे चल-आधार विषयक ही समझना चाहिये, क्योंकि उस संघहनसे प्राणियोंको पीडा होती है तथा व्यवहारदोप भी लगता है ॥ ३०॥३१॥ अब पुरःकर्मदोष कहते हैं-'पुरेकम्मेण' इत्यादि અને પૃથિવીને આહારાદિ સાથે સંઘટન છે, તેથી કરીને આહારાદિનું તથા સચિત્ત જળનું પારસ્પરિક સંઘટન થતું જ હોય છે. ઉત્તરહે શિષ્ય! પૃથિવી અચલ છે, તેનું સંચલન થતું નથી, તેથી એવા સંઘટનથી જીવેને બાધા થતી નથી. એથી કરીને પૃથિવીથી સંઘટિત આહારનું ગ્રહણ કરવું એ સાધુઓને માટે નિષિદ્ધ નથી. પૂર્વે પારસ્પરિક સંઘટિત આહારને જે ત્યાગ બતાવવામાં આવ્યું છે, તેને ચલ-આધાર વિષયક જ સમજ જોઈએ, કારણ કે એ સંઘટનથી પ્રાણીઓને પીડા થાય છે તથા વ્યવહાદેવ ! सारे छ. (30-3१) ये ५२: ४५ ४ छ-पुरेकम्मेण० ४त्यादि. Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ श्रीदशकालिकसूत्रे आनन्तर्यस्वरूपाः पारम्पर्यस्वरूपा वा निखिला अकल्प्या एवेति योद्धव्यम् । सचित्त सचिरयिष्यादिकं घयित्वा संस्पृश्य संचाल्य घा, संस्पर्शनं सचि. ताऽचित-मिश्रमेदात्रिविध, तदपि पृथिव्यादिकायपट्कन मिश्रमानमष्टादशविध पुनव-देय-भेदाभ्यां द्विविधतया संकलनया पत्रिंशद् भेदा जायन्ते, एतेषामपि पुना-आनन्तर्य-पारम्पर्यमेदाद् द्वासप्ततिभैदा भवन्ति । एवं कायद्वयकायत्रिकादिसंस्पर्शनेनोत्तरोत्तरभूरिभेदाः स्वयभूहनीयाः मेक्षावद्भिरिति । ननु पारम्परिकसंघटनेन दीयमानाऽऽहारादिवर्नने पृथ्वीसंघटनमनिवार्यमिति भंग अकल्प्य है। ___संस्पर्शन तीन प्रकारका है-(१) सचित्त संस्पर्शन, (२) अवित्त संस्पर्शन, और (३) मिश्र संस्पर्शन। इन तीनोंके प्रथिवी आदि षटकायके भेदसे अठारह भेद होते हैं। दाता और देय (वस्तु) के भेदसे छत्तीस भेद होते हैं। और अनन्तर तथा परम्पराके भेदसे यहत्तर (७२) भद होजाते हैं। इनके सिवाय दो कायका या तीन कायका स्पर्श करनेस और भी भेद होजाते हैं, वे भेद बुद्धिमानोंको स्वयं विचार लेने चाहिए। प्रश्न-हे गुरुमहाराज ! यदि पारम्परिक संघहनसे दिये हुए आहार आदिका भी त्याग किया जायगा तो साधु कभी आहार नहीं ले सकरा क्योंकि पृथ्वीका संघटन अनिवार्य है-आहार आदि पृथिवीपर रहते है और सचित्त जल भी पृथ्वी पर रहता है, अतःसचित्त जलकापृथिवीका કલ્પનીય છે, બાકીના સાક્ષાત્ યા પારંપરિક નિક્ષેપણુરૂપ બધા ભાંગા અકલ્પનીય છે. સંસ્પર્શન ત્રણ પ્રકારનાં છે-(૧) સચિત્ત સંપર્શન, (૨) અચિત્ત સં૫ન, અને (૩) મિશ્ર સંસ્પર્શન. એ ત્રણના પૃથિવી આદિ કાયના ભેદ કરીને અઢાર ભેદ થાય છે. દાતા અને દેય (વસ્તીના ભેદે કરીને છત્રીસ લક થાય છે અને પછી તેવી જ પરંપરાના ભેરે કરીને બેતેર (૭૨) ભેદ થાય છે. તે ઉપરાંત બે કાયમ યા ત્રણ કાયને સ્પર્શ કરવાથી બીજા પણ ભેદ થાય છે. તે ભેદે બુદ્ધિમાને એ સ્વયં વિચારી લેવા. પ્રશ્ન–હે ગુરૂ મહારાજ ! જે પારસ્પરિક સંધનથી આપેલા આહારદિને પણ ત્યાગ કરવામાં આવશે તે સાધુ કદાપિ આહાર લઈ શકશે નહિ, કારણ કે પશિવન સંધટન અનિવાર્ય છે–આહાશદિ પૃથિવી પર રહે છે અને સંચર જળ પણ પૃથિવી પર જ રહે છે. એટલે સચિત્ત જળનું પૃથિવી સાથે સંધટન છે. Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन ५ उ. १ गा. ३०-३१-संघटनप्रकारः ४१९ तत्संघटनेऽपि वर्जनप्रसक्तौ भिक्षूणां सर्वदाऽऽहारमतिषेधप्रसङ्ग इति चेन्न, पृथिव्या अवलतया तत्सञ्चलनायभावेन तत्संघटने जीववाधाया असम्भवात् , तत्संघटिताऽऽहाराऽऽदान भिक्षणामपतिपेयमिति भावः । उक्तपारम्परिकसंघट्टिताऽऽहाराऽऽदानविपये प्रतिषेधश्चलाऽऽधारविषयः, तत्र माणिपीडासंभवात् व्यवहारदोपाचेति भावः। __एतेषु मध्ये गाथोक्तं सचित्तम् , अन्तर्मितत्वान्मिश्रं च संस्पृश्य सञ्चाल्य वा तथैव-पुनरपि उदकम् अकायं 'सचित्त'-मित्यनुवर्तते सम्पणुध संपेय इतस्ततः कृत्वेत्यर्थः ॥३०॥ तथा-- ___अवगाह्य-वर्षाकाले 'गृहाङ्गणप्रतिरुद्धजलान्तः प्रविश्य, चालयित्वा प्रणालिकादिना निस्सार्य च पानभोजनमाहरेत् तदा ददतीमित्यादि पूर्ववत् ॥३१॥ पुरस्कर्मदोपमाद-'पुरेकम्मेण' इत्यादि । १ 'गृहागने 'ति तु सम्यक, तवर्गपञ्चमान्तस्याङ्गनशब्दस्यैवाकरग्रन्थेषु निर्णीतत्वादिति श्रीरुचिपत्युपाध्यायाः । संघटा है और पृथिवीका आहारादिके साथ संघटा है, इसलिए आहारादिका तथा सचित्त जलका पारम्परिक संघटा होता ही है। उत्तर-हे शिष्य ! पृथिवी अचल है, उसका संचलन नहीं होता, अत एव ऐसे संघटेसे जीवोंको बाधा नहीं होती, इसलिए पृथिवीसे संघहित आहारका ग्रहण करना साधुओंके लिए निपिद्ध नहीं है। पहले पारम्परिक संघहित आहारका जो त्याग बताया गया है उसे चल-आधार विपयक ही समझना चाहिये, क्योंकि उस संघटनसे प्राणियोंको पीडा होती है तथा व्यवहारदोप भी लगता है ॥ ३० ॥ ३१ ॥ अब पुरःकर्मदोष कहते हैं-'पुरेकम्मेण.' इत्यादि અને પૃથિવીનું આહારાદિ સાથે સંઘટન છે, તેથી કરીને આહારાદિનું તથા સચિત્ત જળનું પારસ્પરિક સંઘટન થતું જ હોય છે. ઉત્તર-હે શિષ્ય! પૃથિવી અચલ છે, તેનું સંચાલન થતું નથી, તેથી એવા સંઘટનથી જેને બધા થતી નથી. એથી કરીને પૃથિવીથી સંઘટિત આહારનું ગ્રહણ કરવું એ સાધુઓને માટે નિષિદ્ધ નથી. પૂર્વે પારસ્પરિક સંઘટિત આહારને જે ત્યાગ બતાવવામાં આવ્યે છે, તેને ચલ-આધાર વિષયક જ સમજે જોઈએ, કારણ કે એ સંધનથી પ્રાણીઓને પીડા થાય છે તથા વ્યવહાર पर लागे छ. (३०-३१) वे ५२:भोप ४ -पुरेकम्मेण. त्यादि. Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ श्रीदशकालिको आनन्तर्यस्वरूपाः पारम्पर्यस्वरूपा वा निखिला पाल्प्या एवेति बोद्धव्यम् । सचित्त-सचित्तपृथिव्यादिकं घयिता-संस्पृश्य संचाल्य वा, संस्पर्शनं सवि. चाऽचित्त-मिश्रमेदात्रिविधं, तदपि पृयिव्यादिकायपट्केन भिधमानमष्टादशविध, पुनर्दार-देय-भेदाभ्यां द्विविधतया संकलनया पत्रिंशद् भेदा जायन्ते, एतेषामपि पुनः-आनन्तर्य-पारम्पर्य मेदाद् द्वासप्ततिभैदा भवन्ति । एवं कायद्वयकात्रिकादिसंस्पर्शनेनोत्तरोतरभूरिभेदाः स्वयमूहनीयाः भेक्षावद्भिरिति ।। ननु पारम्परिकसंघटनेन दीयमानाऽऽहारादिवर्जने पृथ्वीसंघटनमनिवार्यमितिभंग अकल्प्य हैं। संस्पर्शन तीन प्रकारका है-(१) सचित्त संस्पर्शन, (२) अचित्त संस्पर्शन, और (३) मिश्र संस्पर्शन। इन तीनोंके पृथिवी आदि षटकायक भेदसे अठारह भेद होते हैं। दाता और देय (वस्तु) के भेदसे छत्तीस भेद् होते हैं। और अनन्तर तथा परम्पराके भेदसे यहत्तर (७२) भद होजाते हैं। इनके सिवाय दो कायका या तीन कायका स्पर्श करनेस और भी भेद होजाते हैं, वे भेद बुद्धिमानोंको स्वयं विचार लेने चाहिए। प्रश्न-हे गुरुमहाराज ! यदि पारम्परिक संघहनसे दिये हुए आहार आदिका भी त्याग किया जायगा तो साधु कभी आहार नहीं ले सकग क्योंकि पृथ्वीका संघहन अनिवार्य है-आहार आदि पृथिवीपर रहते है और सचित्त जल भी पृथ्वी पर रहता है, अतःसचित्त जलकापृथिवीका કલ્પનીય છે, બાકીના સાક્ષાત યા પારંપરિક નિક્ષેપણરૂપ બધા ભાંગી અકલ્પનીય છે. સંપર્શન ત્રણ પ્રકારનાં છે-(૧) સચિત્ત સંસ્પર્શન, (૨) અચિત્ત સં૫ન, અને (૩) મિશ્ર સંસ્પર્શન. એ ત્રણેના પૃથિવી આદિ કાચના ભેદ કરીને અઢાર ભેદ થાય છે. દાતા અને દેય (વસ્તુ)ભેદે કરીને છત્રીસ ભેદ થાય છે. અને પછી તેવી જ પરંપરાના ભેરે કરીને બોતેર (૭૨) ભેદ થાય છે. તે ઉપરાંત બે કાને થી ત્રણ કાયને સ્પર્શ કરવાથી બીજ પણ ભેદ થાય છે. તે ભેદે બુદ્ધિમાનેએ સ્વયં વિચારી લેવા. પ્રશ્ન-હે ગુરૂ મહારાજ ! જે પારસ્પરિક સંઘનથી આપેલા આહારદિને પણ ત્યાગ કરવામાં આવશે તે સાધુ કદાપિ આહાર લઈ શકશે નહિ, કારણ કે દિન સંઘટન અનિવાર્ય છે–આહારદિ પૃથિવી પર રહે છે અને જળ પણ પૃથિવી પર જ રહે છે. એટલે સચિત્ત જળનું પૃથિવી સાથે સંબટન છે, Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१९ अध्ययन ५ उ. १ गा. ३०-३१-संघटनप्रकारः तत्संघटनेऽपि वर्जनप्रसक्तौ भिक्षुणां सर्वदाऽऽहारपतिषेधप्रसङ्ग इति चेन्न, पृथिव्या अचलतया तत्सञ्चलनायभावेन तत्संघट्टने जीववाधाया असम्भवात् , तत्संघट्टिताऽऽहाराऽऽदानं भिक्षणामप्रतिषेध्यमिति भावः । उक्तपारम्परिकसंघट्टिताऽऽहाराऽऽदानविपये प्रतिषेधश्वलाऽऽधारविषयः, तत्र प्राणिपीडासंभवात् व्यवहारदोपाचेति भावः। ____ एतेषु मध्ये गायोक्तं सचित्तम् , अन्तर्गमितत्वान्मिभं च संस्पृश्य सञ्चाल्य वा तथैव-पुनरपि उदकम् अकायं 'सचित्त'-मित्यनुवर्तते सम्प्रणुध-संप्रेर्य इतस्ततः कृत्वेत्यर्थः ॥३०॥ तथा अवगाह्यवर्पाकाले 'गृहाङ्गणपतिरुद्धजलान्तः प्रविश्य, चालयित्वा प्रणालिकादिना निस्सार्य च पानभोजनमाहरेत् तदा ददतीमित्यादि पूर्ववत् ॥३१॥ पुरःकर्मदोपमाह-'पुरेकम्मेण' इत्यादि । १ 'गृहाङ्गने ति तु सम्यक्, तवर्गपञ्चमान्तस्याङ्गनशब्दस्यैवाकरग्रन्थेषु निीतत्वादिति श्रीरुचिपत्युपाध्यायाः । संघटा है और पूथिवीका आहारादिके साथ संघटा है, इसलिए आहारादिका तथा सचित्त जलका पारम्परिक संघटा होता ही है। उत्तर-हे शिष्य ! पृथिवी अचल है, उसका संचलन नहीं होता, अत एव ऐसे संघटेसे जीवोंको बाधा नहीं होती, इसलिए पृथिवीसे संघहित आहारका ग्रहण करना साधुओंके लिए निषिद्ध नहीं है । पहले पारम्परिक संघट्टित आहारका जो त्याग बताया गया है उसे चल-आधार विषयक ही समझना चाहिये, क्योंकि उस संघटनसे प्राणियोंको पीडा होती है तथा व्यवहारदोप भी लगता है ॥ ३० ॥३१॥ अब पुरकर्मदोष कहते हैं-'पुरेकम्मेण' इत्यादि અને પૃથિવીનું આહારાદિ સાથે સંઘટન છે, તેથી કરીને આહારાદિનું તથા સચિત્ત જળનું પારસ્પરિક સંઘટ થતું જ હોય છે. ઉત્તર-હે શિષ્ય! પૃથિવી અચલ છે, તેનું સંચલન થતું નથી, તેથી એવા સંઘટનથી ને બાધા થતી નથી. એથી કરીને પૃથિવીથી સંઘટિત આહારનું ગ્રહણ કરવું એ સાધુઓને માટે નિષિદ્ધ નથી. પૂર્વે પારસ્પરિક સંઘટિત આહારને જે ત્યાગ બતાવવામાં આવ્યું છે, તેને ચલ–આધાર વિષયક જ સમજે જોઈએ, કારણ કે એ સંઘટનથી પ્રાણુઓને પીડા થાય છે તથા વ્યવહારદેવ पर दागे छ. (30-3१) व पु२:भाष छ-पुरेकम्मेण. त्यादि Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० . श्रीदशकालिकम्त्रे मूलम् -पुरेकम्मेण हत्थेण, दबीए भायणेण वा। दितियं पडिआइवखे, म में कप्पड़ तारिसं ॥३२॥ पुरःकर्म दोपरकम्मेण साधुके आने पुरस्कर्म कहलाता छायापुरकर्मणा इस्तेन, दा भाजनेन वा । ददती प्रत्याचक्षीत, तादृशं मे न कल्पते ॥३२॥ , पुरस्कर्म दोष कहते हैं-~ सान्वयार्थ:-पुरेकम्मेण साधुके आनेके पहले या सामने साधुके लिए सचित्त जलसे किया हुआ इस्तादिधायन पुरःकर्म कहलाता है, उस पुरस्कर्मवाले हत्थेण हायसे दव्चीए-उस प्रकारकी कडछी अथवा चमचासे वा अथवा भाषणेण दुसरे वरतनसे (आहारादि) दितियं देती हुईको पडियाइक्खे-कहेकि तारिसं-इस प्रकारका आहार मे-मुझे न कप्पइ-नहीं कल्पता है ॥३२॥ टीकापुरकर्मणा-पुर:=पूर्वम् अग्रतो वा कर्म-क्रिया पुरस्कर्म, तेन पुरःकर्मणा, लक्षणया पुरस्कमयुक्तेनेत्यर्थः, अस्य च हस्तादिभित्रिभिः सम्बन्धः, हस्तेनकरेण, दा-खजाकया, भाजनेन अमत्रेण वा ददती मत्याचक्षीतेत्यादि पूर्ववत् । नन्वेवं गृहस्थानां पचन-पापनादिक्रियामन्तरेणाऽऽहाराद्यसंभव इति सावा. गमनात्माक् पचनादिक्रियाऽवश्यं कर्त्तव्या, तथा सति पुरस्कर्मदोपपितत्वेन साधूके आनेसे पहले या सामने की जानेवाली क्रिया को पुरस्कम कहते हैं। पुरःकर्मयुक्त हाथसे, कुडछी (चमचा) से, अथवा वतनस देनेवालीके प्रति साधु कहे कि ऐसा आहार मुझे नहीं कल्पता है। प्रश्न-हे गुरुमहाराज ! गृहस्थ जबतक पचन-पाचन आदि क्रिया न करे तब तक आहार वन नहीं सकता है, अत एव मुनिके आगमनक पहले पचन-पाचन आदि क्रिया अवश्य करनी पड़ती है। ऐसा करनेस वह आहार पुरस्कर्मसे दूषित होगा तो भिक्षु कभी भिक्षा ग्रहण नहीं સાધુ આવતાની પહેલાં યા સાધુની સામે કરવામાં આવતી ક્રિયાને પુરક કહે છે. પુર:કર્મયુક્ત કડછીથી કે વાસણુથી દેનારીની પ્રત્યે સાધુ કહે કે એ આહાર મને કહપતે નથી. પ્રશ્ન- હે ગુરૂ મહારાજ ! ગૃહસ્થ ત્યાંસુધી પચન-પાચન આદિ ક્રિયા કરતા નથી, ત્યાં સુધી આહાર બની શકતું નથી, એટલે મુનિના આગમન પહેલાં પચનપાચનદિ ક્રિયા જરૂર કરવી પડે છે. એમ કરવાથી એ આહાર પુરકમથી દૂષિત થાય તો ભિક્ષુ કદાપિ ભિક્ષા ગ્રહણ કરી શકે નહિ. સાધુની સામે કરવામાં Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ.१ गा. ३२-पुरस्कर्मस्वरूपम् ४२१ साधूनामाहारग्रहणामसक्तिः, साधुसमक्ष क्रियमाणानां क्रियाणां पुरकर्मत्वे गृहस्थकृताऽभ्युत्थानादिक्रियाणामपि पुरस्कर्मत्वापत्तौ तद्गृहस्थमदत्तभिक्षाया अपि पुरःकर्मदोपयुक्तत्वेन ग्रहणाभावप्रसङ्गः ? इति चेत्, अत्रोच्यते व्युत्पत्त्याऽभ्युत्थानगमनपचनपाचनादीनामपि पुरःकर्मत्वसंभवेऽपि समयपरिभाषावलात् केवलं भिक्षादानतः प्राक् साधुमुद्दिश्य सचित्तोदकेन हस्तभाजनादिमक्षालनस्यैव पुरःकर्मत्वेन सिद्धान्तितत्वम्, न तु पचन-पाचनाभ्युत्थानादेरपीति। अत्र दाह-द्रव्य-गृहाण्याश्रित्याष्टौ भङ्गा भवन्ति यथाकर सकते, साधुके सामने की जानेवाली क्रियाको भी पुरकर्म माना जाय तो गृहस्थकी अभ्युत्थान-वन्दन-आदि क्रियाएँ भी पुरःकर्म कहलायेंगी, इसलिए उसके द्वारा दिया हुआ पुरस्कर्मसे दूपित आहार साधु कैसे ग्रहण करेंगे? उत्तर-हे शिष्य ! व्युत्पत्तिसे पचन-पाचन आदि क्रियाएँ भले ही पुरस्कर्म कहलावें; किन्तु समय-(शास्त्र) की परिभाषासे भिक्षादानसे पहले साधुको उद्देश्य करके सचित्त जलसे हाथ या वर्तन आदिका प्रक्षालन करना ही पुरःकर्म कहलाता है, पचन-पाचन आदि क्रियाओंको अथवा खड़े होने आदिको पुरकर्म नहीं कहते। इस पुरःकर्मके, दाता, द्रव्य और गृहकी विवक्षासे आठ भंग होते हैं, वे यहाँ बताते हैंઆવનારી ક્રિયાને પણ જે પુરક માનવામાં આવે તે ગૃહસ્થની અભ્યથાનવંદન-આદિ ક્રિયાઓ પણ પુરકર્મ કહેવાશે, તે પછી તેને હાથે આપવામાં આવેલો પુરાકથી દૂષિત આહાર સાધુ કેવી રીતે ગ્રહણ કરશે? ઉત્તર-હે શિષ્ય! વ્યુત્પત્તિથી પચનપાચન-આદિ ક્રિયાઓ ભલે પુર:કર્મ કહેવાય, પરંતુ સમય-(શાસ્ત્ર)ની પરિભાષા પ્રમાણે ભિક્ષાદાનની પહેલાં સાધુને ઉદ્દેશ્ય કરીને સચિત્ત જલથી હાથ યા વાસણ આદિ દેવા એ જ પુરકર્મ કહેવાય છે. પચન-પાચન-આદિ ક્રિયાઓ અથવા ઊભા થવા અદિની ક્રિયા એ પુર:કર્મ કહેવાતાં નથી. આ પુરકમના, દાતા, દ્રવ્ય અને ગૃહની વિવક્ષાએ કરીને આઠ ભાંગ થાય છે, તે અહીં બતાવે છે Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -- - - - - -- -- -- - - - - श्रीदशकालिकसूत्रे मूलम् -पुरेकम्मेण हत्थेण, दबीए भायणेण वा। दितियं पडिआइक्खे, न मै कप्पड़ तारिसं ॥३२॥ छाया-पुरकर्मणा इस्तेन, दा भाजनेन वा । ददती पत्याचक्षीत, तादृशं मे न कल्पते {३२१ . पुरस्कर्म दोष कहते हैं सान्वयार्थ:-पुरेकम्मेण साधुके आनेके पहले या सामने साधुके लिए सचित्त जलसे किया हुआ इस्तादिधावन पुरस्कर्म कहलाता है, उस पुरःकर्मवाले हत्थेण-दायसे दचीए-उस प्रकारकी कडछी अथवा चमचासे वा अथवा भाषणेण-दूसरे परतनसे (आहारादि) दितियं-देती हुईको पडियाइक्खे-कहेकि तारिसं-इस प्रकारका आहार मे=मुझे न कप्पह-नहीं कल्पता है ॥३२॥ ____टीका-पुरस्कर्मणा-पुर:-पूर्वम् अग्रतो वा कर्म-क्रिया पुरःकर्म, तेन पुरःकर्मणा, लक्षणया पुरस्कमयुक्तेनेत्यर्थः, अस्य च हस्वादिभित्रिभिः सम्बन्धः, हस्तेनकरेण, दया-खजाकया, भाजनेन अमत्रेण वा ददती प्रत्याचक्षीतेत्यादि पूर्ववत् । नन्वेवं गृहस्थानां पचन-पाचनादिक्रियामन्तरेणाऽऽहाराद्यसंभव इति सानागमनात्माक् पचनादिक्रियाऽवश्यं कर्तव्या, तथा सति पुरस्कर्मदोपपितत्वेन साधूके आनेसे पहले या सामने की जानेवाली क्रिया को पुरस्कर्म कहते हैं। पुरःकर्मयुक्त हायसे, कुडछी (चमचा) से, अथवा वर्तनस देनेवालीके प्रति साधु कहे कि ऐसा आहार मुझे नहीं कल्पता है। प्रश्न-हे गुरुमहाराज ! गृहस्थ जबतक पचन-पाचन आदि क्रिया न करे तय तक आहार बन नहीं सकता है, अत एव मुनिके आगमनक पहले पचन-पाचन आदि क्रिया अवश्य करनी पड़ती है। ऐसा करनेस वह आहार पुर कमसे दुपित होगा तो भिक्ष कभी भिक्षा ग्रहण नहीं - સાધુ આવતાની પહેલાં ય સાધન સામે કરવામાં આવતી ક્રિયાને પુરકમ કહે છે, પુર કર્મયુક્ત કડછીથી કે વાસણથી દેનારીની પ્રત્યે સાધુ કહે કે એ આહાર મને કહપતે નથી. પ્રશ્ન- હે ગુરુ મહારાજ ! ગૃહસ્થ જ્યાં સુધી પચન-પાચન આદિ ક્રિયા કતા નથી, ત્યાં સુધી આહાર બની શકતા નથી, એટલે મુનિના આગમન પહેલાં પચનપાચનદિ ક્રિયા જરૂર કરવી પડે છે. એમ કરવાથી એ આહાર પુરકમથી દૂષિત થાય તો ભિક્ષુ કદાપિ ભિક્ષા ગ્રહણ કરી શકે નહિ. સાધુની સામે કરવામાં Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ३२ - पुरः कर्म्मस्वरूपम् ४२१ साधूनामाहारग्रहणामसक्तिः, साधुसमक्षं क्रियमाणानां क्रियाणां पुरः कर्मत्वे गृहस्थकृताऽभ्युत्थानादिक्रियाणामपि पुरः कर्मत्वापत्तौ तद्गृहस्थप्रदत्तभिक्षाया अपि पुर:कर्मदोपयुक्तत्वेन ग्रहणाभावप्रसङ्गः ? इति चेत्, अत्रोच्यते- व्युत्पत्त्याऽभ्युत्थानगमनपचनपाचनादीनामपि पुरः कर्मत्वसंभवेऽपि समयपरिभाषाबलात् केवलं भिक्षादानतः प्राक् साधुमुद्दिश्य सचित्तोदकेन हस्तभाजनादिमक्षालनस्यैव पुरः कर्मत्वेन सिद्धान्तितत्वम्, न तु पचन - पाचनाभ्युत्थानादेरपीति । अदा द्रव्य - गृहाण्या श्रित्याष्टौ भङ्गा भवन्ति यथा - कर सकते, साधुके सामने की जाने वाली क्रियाको भी पुरःकर्म माना जाय तो गृहस्थकी अभ्युत्थान- वन्दन आदि क्रियाएँ भी पुरःकर्म कहलायेंगी, इसलिए उसके द्वारा दिया हुआ पुरः कर्मसे दूषित आहार साधु कैसे ग्रहण करेंगे ? उत्तर - हे शिष्य ! व्युत्पत्ति से पचन-पाचन आदि क्रियाएँ भले ही पुरःकर्म कहलायें; किन्तु समय - ( शास्त्र ) की परिभाषासे भिक्षादानसे पहले साधुको उद्देश्य करके सचित्त जलसे हाथ या वर्त्तन आदिका प्रक्षालन करना ही पुर:कर्म कहलाता है, पचन-पाचन आदि क्रियाओंको अथवा खड़े होने आदिको पुरः कर्म नहीं कहते । इस पुर:कर्मके, दाता, द्रव्य और गृहकी विवक्षासे आठ भंग होते हैं, वे यहाँ बताते हैं આવનારી ક્રિયાને પણ જો પુર:ક વંદનાદિ ક્રિયા પણ પુર: આવેલા પુર:કથી દૂષિત આહાર સાધુ કેવી રીતે ગ્રહણુ કરશે ? માનવામાં આવે તે ગૃહસ્થની અભ્યુત્થાનકહેવાશે, તે પછી તેને હાથે આપવામાં ઉત્તર-ડે શિષ્ય ! વ્યુત્પત્તિથી પચન-પાચન-માદિ ક્રિયાએ ભલે પુર:ક કહેવાય, પરન્તુ સમય-( શાસ્ત્ર )-ની પરિભાષા પ્રમાણે ભિક્ષાદાનની પહેલાં સાધુને ઉદ્દેશ્ય કરીને ચિત્ત જલથી હાથ યા વાસણ આદિ કહેવાય છે. પચન-પાચન-આાદિ ક્રિયાએ અથવા ઊભા થવા પુર:ક કહેવાતાં નથી. ધાવાં એ જ પુર:ક આદિની ક્રિયા એ આ પુર:કર્મોના, દાતા, દ્રવ્ય અને ગૃહની વિવક્ષાએ કરીને આઠે ભાંગા થાય છે, તે અહીં પતાવે છે— Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० श्रीदत्रैकालिकसूत्रे પ मूलम् - पुरेकम्मेण हत्थे, दवीप भायणेण वा । ७ ૧૦ ૧ दिंतियं पडिआइक्खे, न मै कप्पड़ तारिसं ॥३२॥ छाया --- पुरःकर्मणा हस्तेन, दर्या भाजनेन वा । ददतीं प्रत्याचक्षीत, तादृशं मे न कल्पते ॥३२॥. पुरःकर्म दोष कहते हैं सान्वयार्थ :- पुरेकम्मेण = साधुके आने के पहले या सामने साधुके लिए सचित्त जलसे किया हुआ हस्तादिधावन पुरःकर्म कहलाता है, उस पुरःकर्मवाले हत्थे हायसे वीएस प्रकारकी कड़छी अथवा चमचासे वा अथवा भायणे = दूसरे चरतनसे (आहारादि) दितियं देती हुईको पडियाइक्खे = कहे कि तारिसं=इस प्रकारका आहार मे=मुझे न कप्पड़ नहीं कल्पता है ||३२|| टीका -- पुरःकर्मणा = पुरः = पूर्वम् अग्रतो वा कर्म क्रिया पुर:कर्म, तेन पुर:कर्मणा, लक्षणया पुरःकर्मयुक्तेनेत्यर्थः अस्य च हस्तादिभिस्त्रिभिः सम्बन्धः, हस्तेन= करेण, दखजाकया, भाजनेन=अमत्रेण वा ददतों प्रत्याचक्षीतेत्यादि पूर्ववत् । नन्वेवं गृहस्थानां पचन - पाचनादिक्रियामन्तरेणाऽऽहाराय संभव इति साध्यागमनात्माक् पचनादिक्रियाऽवश्यं कर्त्तव्या, तथा सति पुरः कर्मदोपदपितत्वेन साधुके आने से पहले या सामने की जानेवाली क्रिया को पुरः कर्म कहते हैं। पुरःकर्मयुक्त हाथसे, कुडी (चमचा) से, अथवा वर्तनसे देनेवाली प्रति साधु कहें कि ऐसा आहार मुझे नहीं कल्पता है । प्रश्न- हे गुरुमहाराज ! गृहस्थ जवतक पचन-पाचन आदि क्रिया न करे तब तक आहार वन नहीं सकता है, अत एव मुनिके आगमन के पहले पचन - पाचन आदि क्रिया अवश्य करनी पडती है। ऐसा करने से वह आहार पुरः कर्मसे दूषित होगा तो भिक्षु कभी भिक्षा ग्रहण नहीं સાધુ આવતાની પહેલાં યા સાધુની સામે કરવામાં આાવતી ક્રિયાને પુરક કહે છે, પ્ર:કમ યુક્ત કડછીથી કે વાસણથી દેનારીની પ્રત્યે સાધુ કહે કે એવે આહાર મને કલ્પતે નથી. પ્રશ્ન-૩ ગુરૂ મહારાજ ! ગૃહસ્થ જ્યાંસુધી પચન-પાચન આદિ ક્રિયા કરતા નથી, ત્યાંસુધી બહાર બની શકતા નથી, એટલે મુનિના આગમન પહેલાં પચનપાચનાદિ ક્રિયા જરૂર કરવી પડે છે. એમ કરવાથી એ આહાર પુર:કમથી દૂષિત થાય તા ભિક્ષુ કદાપિ ભિક્ષા ગ્રહણ કરી શકે નહિ. સાધુની સામે કરવામાં V Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - अध्ययन ५ उ. १ गा. ३२-पुरस्कर्मपिताहारनिषेधः ४२३ साधूनुदिश्य करदादिप्रक्षालने पुरस्कर्मनिमित्तको दोपो भवत्येवेति न तदिने तत्राशनादिकं ग्राह्यम् । ननु कस्मिंश्चिद्भवने येन पुरस्काचरितं तदितरस्य करतो भिक्षोपादाने कथं दोपः? इति चेदुच्यते यथा येन विपाक्तमन्नं सम्पाद्यते तदितरस्य इस्तादप्युपादीयमानं तदेवान्नं महतेऽनर्थाय कल्पते, तथा पुरस्कर्मपितमपि । अत्रायं विशेपः-यत्र गृहे पुरस्कर्म समाचरितं तत्र तस्मिन् दिवसे सर्व द्रव्यमकल्प्यमेव ॥३२॥ यह सदा स्मरण रखना चाहिये कि यदि साधुके निमित्त हाथ या कुड़छी आदिको धोया हो तो पुरःकर्म दोष लगता ही है, इसलिये उस घरमें साधु, भिक्षा नहीं लेवे। प्रश्न-हे गुरुमहाराज! किसी मकानमें एकने पुरःकर्म किया तो उससे आहार आदि न लेकर, दूसरे वर्त्तन या दूसरे व्यक्तिके हाथसे लिया जाय तो क्यों दोप लगता है ? उत्तर-हे शिष्य ! जैसे-किसीने विष-मिश्रित आहार बनाया हो तो बनाने वालेसे न लेकर दूसरेके हाथसे लिया जाय तो भी वह आहार महान् अनर्थकारी होता है, उसी प्रकार, पुरःकर्म-दुपित आहार आदि भी अनर्थकारक होता है। . . . . . इतनी फिर विशेपता समझनी चाहिये कि, जिस घरमें पुरस्कर्म किया गया हो उस घरमें उस दिन सब द्रव्य अकल्प्य होते हैं ।। ३२ ।। એ વાત સદા યાદ રાખવી કે જે સાધુને નિમિત્તે હાથ યા કડછી આદિને વાં હોય તે પુરકમ દેષ લાગે છે જ, તેથી એ દિવસે એ ઘરમાં સાધુ ભિક્ષા લે નહિ. પ્રશ્ન-હે ગુરૂ મહારાજ ! ઈ મકાનમાં એક પુરકર્મ કર્યું હોય તે ત્યાં તેનાથી આહારાદિ ન લેતાં, બીજા વાસણથી યા બીજી વ્યક્તિના હાથથી લેવામાં આવે તે કેમ દોષ લાગે? ઉત્તર-હે શિષ્ય! જેવી રીતે કેઈએ વિષમિશ્રિત આહાર બનાવ્યું હોય તે બનાવનારના હાથથી ન લેતાં બીજાના હાથથી લેવામાં આવે તે પણ એ આહાર મહાન્ અનર્થકારી થાય છે, તેમ પુર કમંદૂષિત આહારદિ પણ અનર્થકારક थाय छ, એટલી વિશેષતા સમજવી જોઈએ કે, જે ઘરમાં પુરકમ કરવામાં આવ્યું હેય તે ઘરમાં એ દિવસે બધાં દ્રવ્યો અકલ્પનીય બને છે. (૩૨) Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशकालिकमूत्रे - (१) स दाता (पुरस्कमर्चा), अन्यद् द्रव्यम् , अन्यगृहम् । (२) स दाता, अन्यद्रव्यम् तद्गृहम् (यत्र पुरस्कर्म कृतम् )। (३) स दाता, तद्रव्यम् (यद्रव्यमुद्दिश्य पुर:फर्म कृतम्), अन्यगृहम् । (४) स दाता, तव्यं, वगृहम् ।। (५) अन्यो दावा, वन्यं, तद्गृहम् ।। (६) अन्यो दाता, तद्रव्यम् , अन्यद्गृहम् । (७) अन्यो दाता, अन्यद्रव्यं, तद्गृहम् । (८) अन्यो दाता, अन्यट्टव्यम् , अन्यद्गृहम् । एण्वष्टम भङ्गेपु मथमाऽटमी भगौ साधूनां कल्प्यौ, तदितरे भगा अकल्प्याः। १- वही (पुर कर्म करनेवाला) दाता, अन्य द्रव्य, अन्य गृह । २- वही दाता, अन्य द्रव्य, वही गृह । ३-- वही दाता, वही द्रव्य, अन्य गृह । ४- वही दाता, वही द्रव्य, वही गृह। ५- अन्य दाता, वही द्रव्य, वही गृह । ६- अन्य दाता, वही द्रव्य, अन्य गृह । ७- अन्य दाता, अन्य द्रव्य, वही गृह । ८- अन्य दाता, अन्य द्रव्य, अन्य गृह। इन आठ भंगोमेंसे पहला भंग और आठवाँ भंग साधुके लिये कल्प्य हैं और अन्य सब अकल्प्य हैं। मे (५२:४ ४२२) हता, सन्य द्रव्य, અન્ય ગ્રહ सत्य द्रव्य, એજ ગ્રહ એજ દાતા, અન્ય ગૃહ એજ દાતા, स४ २०य, એજ ગ્રહ અન્ય દાતા, मेर द्रव्य, એજ ગૃહ अन्य Edi, એજ દ્રવ્ય, अन्य atta मन्य द्रव्य એજ ગૃહ अन्य हाता, અન્ય દ્રવ્ય, અન્ય ગ્રહ આ આઠ ભાગમાંથી પહેલે ભાંગે અને આઠમા ભાગે સાધુને માટે કલ્પનીય છે અને બીજા બધા અકલ્પનીય છે. म द्रव्य, अन्य Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ३३-३५-पश्चात्कर्मपिताहारनिपेधः ४२५ विन्दुनिपातरहित इति यावत् , सरजस्का सचित्तरजोऽवगुण्ठितः, हस्तादिवोद्धव्यः, तथा मृत्तिका साधारणसचित्तमृत्तिका, ऊपः क्षारमृत्तिका, · हरितालं स्वनाममसिद्धपीतवर्णधातुविशेषः, हिङ्गलकं स्वनामख्यातपायिवरागद्रव्यविशेषः, मनःशिला-स्वनामख्यातरक्तवर्णधातुविशेषः 'मेनसील' इतिपसिद्धः अञ्जनं सौवीराञ्जनम् , लवण-सचित्तसामुद्रिकलवणम् , गैरिक-वर्णिक-सेटिका-सौराष्ट्रिका-पिष्टकुक्कुसा इति, मूले आपत्वाल्लप्तविभक्तिकं पदम् , तत्र गैरिका स्वनामप्रसिद्धो धातुः, वर्णिका-पीतवर्णमृत्तिका, सेटिका-श्वेतमृत्तिका 'खडी' इतिभापामसिद्धा, सौराष्टिका-गोपीचन्दनं पिष्ट-गोधूमादिचूर्णम् , कुकुसा तत्कालकण्डितधान्यतुपः, च-पुनः उत्कृष्टं-कूप्माण्डा-लावू-त्रपुप-तरम्बुजादीनां शस्त्रकृतं श्लक्ष्णखण्डम् , एतैर्मृत्तिकादिभिरसंसृष्टः साघवे भिक्षां ददामीतिकृत्वा संसर्गसम्माजनेन तदलिप्तः, संसृष्टः तत्संसर्गसम्मार्जनेनापि तल्लिप्त एव कृतः विहितो हस्तादिर्वोध्यः। पुर:कर्मयुक्तेन हस्तादिनेव उदकार्दादिहस्तादिना, तथामृत्तिकादिसंमृष्टहस्तादिकं केनापि विधिना साधुनिमित्तमसंसृष्टीकृत्य सम्माज्य, एवं मृत्तिकादिसंसृष्टहस्तादिना च ददती प्रत्याचक्षीत-तादृशं मे न कल्पत इति ॥३३॥३४॥ (हाथकी रेखा गीली हो), सचित्त रजसे सहित तथा साधारण सचित्त मिट्टी, खारी मिट्टी, हरताल, हिंगुल, मैनसील, अंजन, सचित्त नमक, गेरू, पीली मिट्टी, खडिया मिट्टी, गोपीचन्दन, ताजा पीसा हुआ गेहूं आदिका आटा, तत्काल खांडा हुआ धान्यका तुष (वुस्सा), कुम्भड़ा (कहू), तुम्बा (ककड़ी), तथा लरबूजके छोटे२ खंड, इन सबसे हाथ लिप्त हो अथवा किसी प्रकारसे साधुके लिये उसे (सचित्तसे लिप्त हाथको) अलिप्त किया हो और उस हाथसे भिक्षा देवे तो साधु कहें कि 'ऐसा आहार हमें नहीं कल्पता है' ॥ ३३ ॥ ३४ ॥ રેખાઓ લીલી હોય,) સચિત્ત રજથી સહિત, તથા સાધારણ સચિત્ત માટી, ખારી માટી, હરતાલ, હિંગળ, મણસીલ, સુમે, સચિત્ત મીઠું, ગેરૂ, પીળી માટી, ખડીની માટી, ગોપીચંદન, તાજા દળેલા ઘઉં આદિને આટે, તાજા ખાંડેલા ધાન્યના તુવ (થૂલું), કેહલું, દૂધી તથા તડબૂચના કકડા, એ બધાથી હાથ લિસ હોય, અથવા કોઈ પ્રકારે સાધુને માટે તેને (સચિત્તથી ખરડાયેલા હાથને) અલિપ્ત કર્યા હોય અને એ હાથથી ભિક્ષા આપે તે સાધુ કહે કે 'मेव मा२ भने ४६५तो नथी.' (33-३४) Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ श्रीदशनैकालिकसूत्रे मूलम् एवं उदउल्ले ससिणिद्धे ससरखे महिया ऊसे । हरियाले हिंगुलए, मणोसिला अंजणे लोणे ॥३३॥ tt ૧૨ 16 13 गेरु वन्निय- सेडिय, सोरहिय-पिट्ट-कुक्कुल कए य । १४ ૧૫ १७ 16 उहि संसट्टे, संसट्टे चैव बोद्धवे ॥ ३४ ॥ छाया - एवम् उदकाः सस्निग्धः, सरजस्को मृत्तिका ऊपः । - हरिवालं लिकं मनःशिलाऽञ्जनं लवणम् ||३३|| गैरिक वर्णिक - सेटिका, सौराष्ट्रका पिष्ट- कुकुसाः कृतव । उत्कृष्टम संसृष्टः संसृष्ट एव बोद्धव्यः ||३४|| सान्वयार्थ :- एवं इसी प्रकार उदउल्ले-टपकते हुए जलसहित ससणिद्वे - गीली रेखाओंसे सहित या ससरक्खे-सचित रजसे गुण्ठित-सहित हाथ आदि हो, (तथा) महिया = सचित्त मिट्टी ऊसेसाजीखार हरियाले = हरताल हिंगुलप= हिंगलू मणोसिला=मैनसिल अंजणे-सौवीराञ्जन लोणे-सचित्त नमक ॥ गेरुय= गेरु वन्निय= पीली मिट्टी सेडिय= श्वेत मिट्टी-खड़ी सोरद्विय- सोरठी मिट्टी-गोपीचन्दन पिट्ठ-तत्कालका पीसा हुआ आटा (तथा) कुक्कुस - तत्कालके खांडेहुए धान्यके तुप भूसे से भरे हुए और कि चाकूसे बनाये हुए कोले, तूंबे, ककड़ी आदि के कोमल कोमल टुकड़े, इन पूर्वोक्त किसी वस्तु से भी असंस - खरडे - लिपे हुए हाथ आदिको साधुके लिए किसी प्रकारसे अलिप्त बनाया हो, धोकर या पूंछकर साफ किया हो, ऐसे हाथको संसद्वे चैव कए लिप्तही बोद्धव्वे = जान लेवे, अर्थात् इस प्रकारके असंसृष्ट हाथ आदिसे अथवा इनसे संसृष्ट हाथ आदि से साधु आहार- पानी नहीं लेवे, यह प्रकरणगत सम्बन्ध है ||३३-३४॥ टीका--' एवम् उदउल्ले० ' इत्यादि । एवम् इत्थमेव पुरः कर्मवदित्यर्थः । उदकाद्रः=गलत्सचित्तजलबिन्दुकः, सस्त्रिग्धः = ईपदार्द्र: - आर्द्राभूतहस्त रेखादिक:एवं उदउल्ले' इत्यादि, 'गेरुय' इत्यादि च । इसी प्रकार, गिरते हुए सचित्त जलकी बूंदोंसे युक्त, सचित जलकी बूंदोंसे युक्त, थोडा, गीला एवं उदउले धत्याहि गेरुय धत्याहि. " એ પ્રમાણે, પડતાં સચિત્ત જળનાં બિંદુએથી યુકત, ચેડા લીલા (હાથની Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२७ - ५ अध्ययन ५ उ. १ गा. ३६-३७-आहारग्रहणविवेकः सचित्तजलेन तत्करादिक्षालनसम्भवः, तच प्रक्षालनादिकं भिक्षुनिमित्तकमिति पश्चात्कर्मदोपो विज्ञेयः, यद्येवं विधेनापि हस्तादिना स्वयं भुञ्जीतान्यस्मै वापरिवेपयेतदा न पश्चात्कर्मदोपः, तत्र पश्चाद्भाविनः प्रक्षालनादेभिक्षुनिमित्तत्वाभावात् , यत्र दादौ पश्चात्कर्मदोपसम्भावनाया अभावस्तत्र नायं प्रतिषेध इत्याशयः ॥३५॥ मूलम्-संसट्टेण य हत्थेण, दवीए भायणेण वा । दिजमाणं पडिच्छिज्जा, जं तत्थेसणियं भवे ॥३६॥ छाया--संसृप्टेन च इस्तेन, दा भाजनेन वा । दीयमानं प्रतीच्छेत् , यत्तत्रपणीयं भवेत् ॥३६॥ सान्वयार्थ:-संसट्टेण-व्यञ्जनादिसे लिप्त हत्येण हाथ य-या दब्बीएकडछी वा अथवा भायणेण-बरतनसे दिजमाणं-दियाजानेवाला आहारादि हो तत्यवहां-उस आहारादिम जंजो एसणियं-उद्गम उत्पादना-आदि-दोपरहित भवे-हो, उसे पडिच्छिज्जा-लेवे ॥३६॥ टीका-'संसट्टेण' इत्यादि । टीका स्पष्टा ॥३६॥ और वह प्रक्षालन साधुके निमित्तसे होगा, इसलिये वहाँ पश्चात्कर्मदोप लगता है। यदि ऐसे (लिप्त किये हुए) ही हाथसे स्वयं भोजन करे या दुसरेको परोसे तो पश्चात्कर्मदोप नहीं लगता, क्योंकि यादमें होने वाले उस प्रक्षालन आदि कर्मका निमित्त, साधु नहीं रहता है-अर्थात् जिस कुडछी आदिमें पश्चात्कर्म होनेकी सम्भावना न हो वहाँ यह निषेध नहीं है यानी वह लेना कल्पता है ॥३५॥ 'संसटेण' इत्यादि । संसृष्ट हाथ, कुडछी और वर्तनसे दिये जानेवाले आहारमेंसे जो एपणीय अर्थात् उद्गम-उत्पादना-आदिदोपरहित हो वह साधु ग्रहण करें ॥३६॥ પ્રક્ષાલન સાધુના નિમિત્તે થાય, તેથી તેમાં પશ્ચાત્કર્મદેપ લાગે છે. જે એવા (લિસ કરેલા–ખરડાયલા)જ હાથથી પિતે ભજન કરે છે બીજાને પીરસે તે પશ્ચાત્કર્મદેવ લાગતું નથી, કારણ કે ત્યારબાદ થનારૂં પ્રક્ષાલન–આદિ કર્મનું નિમિત્ત સાધુ રહેતો નથી. અર્થાત્ જે કડછી આદિમાં પશ્ચાત્કમ થવાની સંભાવના નહિ હોય, ત્યાં એ નિવેધ નથી. એટલે કે એ આહાર લેવે સાધુને કપે છે. (૩૫) संसष्टेण त्याहि. सं पाय, ४७ मत पासी मापवामा माता આહારમાંથી જે એષણીય અર્થાત ઉદ્દગમ-ઉત્પાદન-આદિ દેવથી રહિત હોય તે साधु प्रहषु ४२. (३१) Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकमूत्रे - - - - - - मूलम्-असंसहेण हत्थेण, दचीए भायणेण वा । दिजमाणं न इच्छिज्जा, पच्छाकम्म जहिं भवे ॥३५॥ छाया-असंसृष्टेन हस्तेन, दा भाजनेन वा । दीयमानं नेच्छेत् , पश्चात्कर्म यत्र भवेत् ॥३५॥ सान्वयार्थ:-जहि-जहां पच्छाकम्मं पश्चात्कर्म-साधुको आहार आदि देनेके वाद सचित्त जलसे हाथ आदिका धोना भवे होनेवाला हो उस प्रकारके असंसटेण व्यञ्जन शाक कड़ी आदि-से अलिप्त याने साफ 'ऐसे' हत्थेण हाथ दवीए कडछी वा=अथवा भायणेणबरतनसे दिज्जमाणं-दिये जानेवाले आहार आदिकी साधु न इच्छिज्जा=इच्छा न करे, अर्थात् उस आहारादिको साधु न लेवे ॥३५॥ ___टीका-पश्चात्कर्म-दोपमाह-'असंसदेण' इत्यादि । यत्र-हस्तादौ पश्चात् दानानन्तरं कर्म भवेत् सम्भवेत् तादृशेन असंसृप्टेन व्यन्जनादिनाऽलिप्तेन हस्तेन दा भाजनेन वा 'असंसप्टेने'-त्येतत्मत्येकं सम्बध्यते, दीयमानमाहारादिकं नेच्छेत् नाभिलपेत् मनसाऽपीत्यर्थात् । यत्र स्वार्थ व्यञ्जनादिना हस्तादिकं नोपलिप्तं किन्तु भिक्षुमुद्दिश्य भक्तादिदानार्थं हस्तायुपलेपो जायते, तत्र दानानन्तरं अब पश्चात्कर्मदीप बताते हैं-'असंसद्वेण' इत्यादि । भिक्षा देनेके अनन्तर गृहस्थको साधुके निमित्तसे सचित्त जल आदिके द्वारा हाथ आदि प्रक्षालन करने की संभावना हो तो साध, ऐसे व्यञ्जन आदिसे अलिप्स हाथ, कुडछी अथवा वर्तनसे दिये जानेवाले आहारकी अभिलापा न करे। __ गृहस्थके हाथ अपनेलिये व्यञ्जन आदिसे लिप्त न हों तो उन हाथोंसे साधुको भिक्षा देवे, तदनन्तर सचित्त जलसे हाथका धोना सम्भव है वे पश्चाभोष मतावे छे-असंसटेण त्या. ભિક્ષા આપ્યા પછી સાધુને નિમિત્તે સચિત્ત જળ આદિ દ્વારા હાથ આદિ જોઈ નાંખવાની ગૃહસ્થને માટે સંભાવના હોય, તે સાધુ એવા વ્યંજન આદિથી અલિપ્ત હાથ, કડછી અથવા વાસણથી આપવામાં આવનારા આહારની અભિલાષા ન કરે. ગૃહસ્થના હાથ પોતાને માટે વ્યંજનાદિથી લિસ ન હોય તે એ હાથથી સાધુને ભિક્ષા આપે, પછી સચિત્ત જળથી હાથ દેવાને સંભવ છે અને એ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ३८-३९ - आहारग्रहणविवेकः २ ४ ૧ मूलम्-दुण्हं तु भुंजमाणाणं, दोषि तत्थ निमंत । ७ ak १२ . ८ ૧૦ दिज्जमाणं पडिच्छिज्जा, जं तत्थेसणियं भवे ॥३८॥ छाया - द्वयोस्तु भुञ्जानयो, विपि तत्र निमन्त्रयेताम् | -- दीयमानं प्रतीच्छे, यत्तत्रेपणीयं भवेत् ||३८|| सान्वयार्थ :- अगर - भुंजमाणाणं भोजन या खाद्य पदार्थोंके रक्षण करते हुए दुहं = दोमें से तुम्यदि तत्थ=वहां दोवि= दोनों ही निमंतए = निमन्त्रण करे आहारादि धामे तो तत्थं उस आहारादिमेंसे जं-जो एसणियं = एपणीय-निर्दोष हो वह दिनमाणं दिया जानेवाला आहारादि पडिच्छिज्जा = लेवे ||३८|| टीका-भावपि निमन्त्रयेतां तदा तत्र यदेपणीयं तद् गृह्णीयादित्यर्थः ॥३८॥ ૧ ૨ 3 ४ मूलम् - गुहिणीए उवण्णत्थं, विविहं पाणभोयणं । ४२९ ૫ 至 ७ भुंजमाणं विवज्जिज्जा, भुत्तसेसं पडिच्छए ॥ ३९ ॥ छाया - गुर्विण्यै उपन्यस्तं विविधं पान -भोजनम् । भुज्यमानं विवर्जयेद्, भुक्तशेषं प्रतीच्छेत् ||३९|| सान्वयार्थ :- गुब्विणीए गर्भवती के लिए उवण्णत्थं बनाकर रखा हुआ विवि= नाना प्रकारका पाणभोयणं = खान-पान ( यदि वह ) भुंजमाणं = खा रही हो तो ( उस आहारादिको साधु) विवज्जिज्जा = बरजे न लेवे, (किन्तु ) भुत्तसे सं=गर्भवती के भोजन करलेनेके बाद जो शेष रहा हो तो उसे पच्छिए = लेवे ॥३९॥ टीका- 'गुब्विणीए०' इत्यादि । गुर्विण्यै गर्भवत्यै, उपन्यस्तं=गर्भपोपणार्थ= तदीयरुच्यनुकूलतया सम्पादितं स्थापितं वा विविधं नैकप्रकारं पान - भोजनं== यदि वे दोनों आहार देनेको उद्यत हों और वह आहार एपणीय हो तो ग्रहण कर लेवे ॥ ३८ ॥ ८ गुणी.' इत्यादि । गर्भवती स्त्रीकी इच्छा के अनुसार अर्थात् उसके लिये बनाये हुए तथा गर्भको पुष्ट करनेवाले अनेक प्रकारके पान જો ચ્યાહાર આપવામાં એ બેઉ ઉદ્યત હાય અને એ આહાર એષણીય હોય તે સાધુ તે ગ્રહણ કરે. (૩૮) ક્રુત્રિળી૬૦ ઇત્યાદિ. ગર્ભવતી સ્ત્રીની ઇચ્છાને અનુસરીને અર્થાત્ એને માટે મનાવેલાં તથા ગર્ભને પુષ્ટ કરનારાં અનેક પ્રકારનાં પાન અને ભેજન Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ श्रीदशवकालिको मूलम्-दुण्हं तु मुंजमाणाणे, एगो तत्थ निमंतए। दिज्जमाणं न इच्छिज्जा, छदं से पडिलेहए ॥३७॥ छायाद्वयोस्तु भुजानयोः, एकस्तत्र निमन्त्रयेत् । - दीयमानं नेच्छेद, छन्दं तस्य प्रविलेखयेत् ॥३७॥ सान्वयार्थः-तत्य-वहां भुंजमाणाण-भोजन करते हुए दु-दोनों से तुयदि एगो एक आदमी निमंतए-निमन्त्रित करे-आहारादि देना चाहे तो दिज्जमाणं-वह दियाजानेवाला आहारादि (साधु)नइच्छिज्जान्न चाहे-नलेवे; (किन्तु) से उस नहीं निमन्त्रण करनेवालेके छंद अभिमायको पडिलेहएदेखे ॥३७॥ टीका-'दुण्हं तु' इत्यादि । तत्र-तयोः एकवस्तुस्वामित्वेन प्रसिद्धयोः, द्वयोः भुञ्जानयोः (अत्र सप्तम्यर्थे पष्ठी भुजधातुश्च पालनाभ्यवहारोभयायकस्ततश्च) पालयतोः, भोक्तुमुद्यतयोश्च मध्ये (पालनार्थकत्वे तु परस्मैपदं स्वयमूहनीयम्) (यदि) एका अन्यत्तरः निमन्त्रयेदातुमुवतेत, तदा दीयमानम् (आहारादि) भिक्षुः नेच्छेत् , किन्तु तस्य-दानोधतेतरस्य छन्द अभिप्राय भू-नेत्रविकारादिरूपचिह्नः प्रतिलेखयेत प्रेक्षेत-'दानमस्येष्टं न वे'-ति निश्चिनुयादित्यर्थः ॥३७|| ततः किं कुर्यादित्याह-'दुण्हं तु ' इत्यादि । 'दुण्हं तु०' इत्यादि । यदि एक वस्तुके दो स्वामी हों तथा दो गृहस्थ भोजन करनेके लिये उद्यत हुए हों, और उन दोनोंमेंसे एक व्यक्ति आहार देनेके लिये उद्यत हो तो ऐसे आहारकी इच्छा भिक्षु न करे, किन्तु दूसरेके भोह नेत्र आदि विकारसे अभिप्रायका अनुभव करे कि वहरान (देने)में इसकी सम्मति है या नहीं ? ॥ ३७॥ __इसके पश्चात् क्या करे ? सो कहते हैं-'दुण्हं तु०' इत्यादि। સુપ ૪૦ ઈત્યાદિ. જે એક વસ્તુના બે સ્વામી હોય તથા બે ગૃહસ્થ ભજન કરતા હેય અને એ બેમાંથી એક આહાર આપવા માટે ઉદ્યત હોય તે એવા આહારની ઈચ્છા ભિક્ષુ ન કરે. પરંતુ બીજાના પભ્રમરે, નેત્ર, આદિના વિકારથી અભિપ્રાયને અનુભવ કરે કે વહેરાવવામાં એની સંમતિ છે કે નહિ? (૩૭) से पछी शु२१ ते छ-दुण्डं तु. ५त्या. Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ४०-४१आहारग्रहणविवेकः तं तु-तो वह भत्तपाणं आहार-पानी संजयाणं-साधुओंके लिए अक्रप्पियंअकल्पनीय भवे-होता है, (अतः) दितियं देनेवालीसे (साधु)पडियाक्खे-कहे कि तारिसं-इस प्रकारका आहारादि मे मुझे न कप्पइ-नहीं कल्पता है।४०४१॥ टीका-'सिया य०' 'तं भवे' इत्यादि । -पुनः उत्थिताब्दण्डवत्समवस्थिता, . कालमासिनी कालमासशब्देनात्र प्रसवकालमासो गृह्यते, स च सप्तमासादारभ्य सार्द्धसप्तरात्राधिकं नवमासं यावत् , तद्वती-प्राप्तमसवयोग्यसमयेत्यर्थः, गुर्विणीगर्भवती, स्यात्-कदाचित् , श्रमणार्थ- साधुनिमित्तं-साथवे दातुमित्यर्थः, निपीदे= उपविशेत् , वा अथवा, निपण्णा-उपविष्टा पुनरुत्तिष्ठेत् , तदा तत्-तया दीयमानं भक्त-पानं तु संयतानां-संयमवताम् अकल्पिक(ताम् अग्राह्यम् , अतो ददती मत्याचक्षीतेत्यादि पूर्ववत् । सर्व वाक्यं साधारणं भवती'-तिन्यायेन उत्थिता यदि दातुमुपविशेदेव, सियाय०' इत्यादि तं भवे०' इत्यादि च । प्रसव-काल-भासवाली अर्थात् सात महीनेसे आरम्भ करके साढ़े सात रात सहित नववे महीने तक, अर्थात् सातवें महीनेके बाद प्रसव होनेतकके समयवाली स्त्री, यदि खड़ी हुई हो और साधुको भिक्षा देने के लिये बैठे, अथवा धैठी हुई हो किन्तु भिक्षा देने के लिये उठे तो उसके द्वारा दिया जानेवाला आहार, संयमियोंके लिये कल्प्य नहीं है, अतः देनेवाली (स्त्री) से कहे कि 'ऐसा आहार हमें कल्पता नहीं है।' सब वाक्य, 'सावधारण अर्थात निश्चय करानेवाले होते हैं। इस न्यायके बलसे यहाँ पर यह तात्पर्य निकलता है कि यदि देनेवाली बैठी हो और खड़ी होकरके ही आहार देवे, याखडी हो किन्तु बैठ करके ही सिया २० या तं भवे. त्याहि. अस२७७-भासपाणी अर्थात् सातमा મહીનાથી આરંભીને સાડા સાત રાત સહિત નવમા મહીના સુધી, એટલે કે સાતમા મહિના પછી પ્રસવ થાય ત્યાંસુધીના સમયવાળી સ્ત્રી જે ઊભી હોય અને સાધુને ભિક્ષા આપવાને માટે બેસે, અથવા બેઠી હોય પરંતુ ભિક્ષા આપવાને માટે ઉઠે તે તેણે આપેલે આહાર સંયમીઓને માટે કપનીય નથી, દેનારી સ્ત્રીને કહેવું કે એ આહાર મને કલ્પત નથી.” બધાં વાકયે સાવધારણ અર્થાત નિશ્ચય કરાવવાવાળાં હોય છે એ ન્યાયાનુસાર અહીં એ તાત્પર્ય નીકળે છે કે જે આપનારી બેઠી હેય અને ઊભી થઈને જ આહાર આપે થા ઉભી ડેય પરતું બેસીને જ આહાર આપે તે એ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीदर्शकालिकसूत्रे पानं पेयं अपाणकादिकं, भोजनंम्भोज्यं मोदकादिकं (तया) मुज्यमानम् उपभुज्यमानं च विवर्जयेत्न गृहीयात् यतस्तदर्थोपकल्पिताऽऽहारादिग्रहणे यथारुच्याहाराधभावातदिच्छामगस्ततध गर्भपीडा-तत्पातादिसम्भवः । ननु तर्हि किं सर्वथा विवर्जयेदित्याह-'भुक्ते'ति-भुक्तशेष-भुक्तादवशिष्टं भवीच्छेद उपाददीत ॥३९॥ मूलम्-सिया य समणटाए, गुत्रिणी कालमासिणी। १२ १० ॥ उहिया वा निसीएजा, निसन्ना वा पुणुटए ॥४०॥ १३ १४ १५ १७ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं । .. .२० ३ २२ २४ २५. दितियं पडिआइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ॥४१॥ छाया--स्यान श्रमणार्थ, गुर्विणी कालमासिनी ।। उत्थिता वा निपीदेव , निपण्णा वा पुनरुत्तिष्ठेत् ॥४०॥ तद्भवेद्भक्त पानं तु, संयतानामकल्पिक(त)म् ।। ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥४१॥ सान्वयार्थ:-य-और कालमासिणीनजदीक प्रसवकालवाली गुठ्विणीगर्भवती स्त्री सियाम्यदि-कदाचित उहिया वा-पहलेसे खड़ी हो (किन्तु) सम णहाए-साधुके लिए अर्थात् साधुको आहारादि देने के लिए निसीएज्जाबठ वा अथवा निसन्ना-पहले से बैठी हुई (साधुके लिए) पुण-फिर उट्टए-ऊठे, और भोजन (मोदक आदि) का और वह जिसका उपभोग कर रही हो उस आहारका (साधु) त्याग करे-ग्रहण न करे। क्योंकि उसक लिये बनाये हुए भोजनको ग्रहण करनेसे उसकी इच्छाका भंग होकर गर्भको पीडा पहुँचेगी, और गर्भपात तक होनेका सम्भव हो जायगा। तो क्या चैसा आहार लेवे ही नहीं? सो कहते हैं-गर्भवती के भोजन कर लेने बाद जो आहार अवशेष रहे उसे ग्रहण करने में दोष नहीं है ।।३।। (મોદક આદિ)ને અને તે જેને ઉપભેગ કરી રહી હોય તે આહારનો સાધુ ત્યાગ કરે-ગ્રહણ ન કરે, કારણ કે એને માટે બનાવવામાં આવેલા ભેજનને શહણ કરવાથી તેને રૂચિને અનુસાર ભેજન નહિ મળે, તેથી એની ઈચ્છાને ભગ થશે અને ગર્ભને પીડ પહોંચશે, અને ગર્ભપાત પણ થઈ જવાનો સંભવ રહેશે. તે શું એ આહાર લેવેજ નહિ ? તે માટે કહે છે કે ગર્ભવતી ભજન કરી રહે ત્યારપછી જે આહાર અવશેષ રહે તેને ગ્રહણ કરવામાં દોષ નથી. (૩૯) Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन ५ उ. १ गा. ४२-४३-आहारग्रहणविधिः छाया-स्तन्यं पाययन्ती (च), दारकं वा कुमारिकाम् । तं निक्षिप्य रुदन्त,-माहरेत्पान-भोजनम् ॥४२॥ तद्भवेद्भा-पानं तु, संयतानामकल्पिक(त)म् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥४३॥ सान्वयार्थः-दारगं लड़के कुमारियं लड़की वा अथवा नपुंसक किसीभी वञ्चेको थणगं-स्तन्य-ध पिज्जमाणी-पिलाती हुई तं-उस बच्चेको रोयंत-रोते हुएको निक्खिवित्तु-भूमि आदि पर रखकर (यदि) पाण-भोयणं आहारपानी आहरे-देवे, तं तु-तो वह भत्तपाणं आहार-पानी संजयाणं-साधुओंके लिए अकप्पियं-अकल्पनीय भवे होता है, (अतः) दितियं देनेवालीसे पडियाइक्खे-कहे कि तारिसं-इस प्रकारका आहारादि मे=मुझे न कप्पइनहीं कल्पता है ॥४२-४३॥ टीका-'धणगं' इत्यादि । दारक-शिशुम्, कुमारिकां-बालिकाम् , 'या' शब्दात्संगृहीतं नपुंसकञ्च, स्तन्य-दुग्धं पाययन्ती, तंपियन्तं शिशुप्रभृतिक रुदन्तं क्रन्दन्तं निक्षिप्य भूम्यादौ निधाय पान-भोजनमाहरेत् तदा तद्भक्त-पानं तु संयतानामकल्पिक(त) भवेत् , अतो ददती प्रत्याचक्षीत-तादशं मे न कल्पत इति । अत्रायमभिसन्धिः-यदि दारकादिः केवलं स्तन्यपानोपजीवी स्तन्यपानान्नभोजनोभयोपजीवी वा भवेत् तं पाययन्ती स्तन्यपानं सन्त्याज्य पानभोजनंदद्यात्, 'थणगं' इत्यादि, 'तं भवे' इत्यादि । स्त्री यदि, लड़के, लड़की या नपुंसकको दूध पिलाती हो और उस पीनेवाले रोते हुए पालक आदिको, जमीन पर रख कर, पान-भोजन देवे तो साधु कहे कि 'ऐसा आहार, मुझे नहीं कल्पता है, यहाँ तात्पर्य यह है कि, यदि बालक दूधमुहाँ हो अथवा दूध भी पीता हो और अन्न भी खाता हो, उस बालकको स्तनपान छुड़ा कर आहार पानी देवे, थणगं. त्यादि, तं भवे. त्याहि. જે સ્ત્રી પુત્ર પુત્રી કે નપુંસકને દૂધ પાતી હોય અને એ પીનારા રોતા બાળક આદિને જમીન પર મૂકીને ભજન-પાન આપે તે સાધુ કહે કે “એ આહાર મને કલ્પત નથી. અહીં તાત્પર્ય એ છે કે જે બાળક દૂધમુખ (દૂધ પર જ) હેય અથવા દૂધ પીતું હોય તથા અન્ન પણ ખાતું હોય, તે એવા બાળકને સ્તનપાન છેડાવીને આહાર-પાછું આપે; અથવા કોઇ બાળક સ્તનપાન Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ - २ श्रीदशवकालिको उपविष्टा योनिप्ठेदेय तदा दीयमानमाहारादिकमकल्पि(त) स्यादिति । तत्तारपर्याऽवधारणेनेदमायाति-उत्थिता तादशी गर्भवती यत्थितेव, उपविष्टा वोपविष्टेव दद्यातदा साधूनां नाऽकल्पि(त) किन्तु ग्राामेयेति स्थविरकल्पिकापेक्षमिदम् । जिनकल्पिभिस्तु प्रथमदिवसादेव तया दीयमानं न गृदाते इति रद्धाः ।। 'कालमासिनी' पदेन, पष्ठमासानन्तरं गर्भस्य गुरुत्वेनोत्यानादिक्रियायां तत्सन्चलनादिना तस्या गर्भस्य च पीडाऽवश्यंभाविनीति संसूचितम् ॥४०॥४१॥ मूलम्-थणगं पिजमाणी (य), दारगं वा कुमारियं । तं निक्खिवितु रोयतं, आहरे पाण-भोयणं ॥४२॥ ११९ १२. तं भवे भत्त-पाणं तु, संजयाण अकप्पियं। . ૨૧ ૨૦ ૨૨ ૨૯ दितियं पडियाइक्खे, न मै कप्पइ तारिसं ॥४३॥ आहार देवे तो उससे दिया जानेवालाआहार अकल्प्य होता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि ऐसी गर्भवती स्त्री यदि बैठी हो और बैठी बैठीही आहार देवे या खड़ी हो और खड़ी-खड़ी ही आहार देवे तो साधुआत लिये अकल्प्य नहीं है, किन्तु कल्पनीय ही है। यह बात, स्थविर-कल्पकी अपेक्षासे समझनी चाहिये। वृद्धोंका मत है कि जिनकल्पी महाराज, गर्भके प्रथम दिनसे ही गर्भवती स्त्रीके हाथसे दिया जानेवाला आहार सर्वथा नहीं लेते हैं। 'कालमासिनी' पदसे यह सूचित किया है कि छठे महीने के बाद गर्भ भारी हो जाता है, इस कारणहिलने डोलनेसे गर्भवतीको तथा उसके गर्भको पीडा अवश्य होती है।॥ ४०॥४१॥ રીતે આપવામાં આવતો આહાર અક બને છે. એનું તાત્પર્ય એ થયું કે એવી ગર્ભવતી સ્ત્રી જે બેઠા હોય તે બેઠી બેઠી જ આહાર આપે યા ઊભી હોય તે ઊભી ઊભી આહાર આપે તે સાધુને માટે તે અકયું નથી, પરંતુ કમ્પનીય છે. આ વાત સ્થવિરકલ્પની અપેક્ષાએ સમજવી જોઈએ. વૃદ્ધોને મત એ છે કે જિનકલ્પી મહારાજ ગર્ભના પ્રથમ દિવસથી જ ગર્ભવતી સ્ત્રીના હાથથી આપવામાં આવો આહાર સર્વથા લેતા નથી. कालमासिनी से शाथी सूशित ४२वामा मा०यु छ ? ७४t महीना पछी ગલું ભારે થઈ જાય છે તેથી હિલચાલ કરવાથી ગર્ભવતી તથા એના ગર્ભને अवश्य पोय याय छे. (४०-४१) Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ.१ गा. ४२-४३-आहारग्रहणविधिः ४३३ छाया-स्तन्यं पाययन्ती (च), दारकं वा कुमारिकाम् । तं निक्षिप्य रुदन्त,-माहरेत्पान-भोजनम् ॥४२॥ तद्भवेद-पानं तु, संयतानामकल्पिक(त)म् । ददती मत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥४३॥ सान्वयार्थः-दारगं लड़के कुमारियं लड़की वा अथवा नपुंसक किसीभी बच्चेको थणगं-स्तन्य-दूध पिज्जमाणी=पिलाती हुई तं-उस बच्चेको रोयंत-रोते हुएको निक्खिवित्तु-भूमि आदि पर रखकर (यदि) पाण-भोयणं आहारपानी आहरे-देवे, तं तुम्तो वह भत्तपाणं आहार-पानी संजयाणं-साधुओंके लिए अकप्पियं अकल्पनीय भवे होता है, (अतः) दितियं=देनेवालीसे पडियाइक्खे-कहे कि तारिसं-इस प्रकारका आहारादि मे=मुझे न कप्पइ= नहीं कल्पता है ॥४२-४३॥ टीका-यणगं' इत्यादि । दारकं शिशुम्, कुमारिकां वालिकाम् , 'वा' शब्दात्संगृहीतं नपुंसकञ्च, स्तन्यं दुग्धं पाययन्ती, तं-पिवन्तं शिशुप्रभृतिक रुदन्तं क्रन्दन्तं निक्षिप्य भूम्यादौ निधाय पान-भोजनमाहरेत् तदा तद्भक्त-पानं तु संयतानामकल्पिक(न) भवेत् , अतो ददतीं प्रत्याचक्षीत-तादशं मे न कल्पत इति । अत्रायमभिसन्धिः-यदि दारकादिः केवलं स्तन्यपानोपजीवी स्तन्यपानान्नभोजनोभयोपजीवी वा भवेत् तं पाययन्ती स्तन्यपानं सन्त्याज्य पानभोजनंदद्यात् , 'थणगं' इत्यादि, 'तं भवे' इत्यादि । स्त्री यदि, लड़के, लड़की या नपुंसकको दूध पिलाती हो और उस पीनेवाले रोते हुए बालक आदिको, जमीन पर रख कर, पान-भोजन देवे तो साधु कहे कि 'ऐसा आहार,मुझे नहीं कल्पता है, यहाँ तात्पर्य यह है कि, यदि पालक दूधमुहाँ हो अथवा दूध भी पीता हो और अन्न भी खाता हो, उस बालकको स्तनपान छुड़ा कर आहार पानी देवे, थणगं० [त्यादि, तं भवे० ४त्या. જે સ્ત્રી પુત્ર પુત્રી કે નપુંસકને દૂધ પાતી હોય અને એ પીનારા રેતા બાળક આદિને જમીન પર મૂકીને ભજન-પાન આપે તે સાધુ કહે કે એ આહાર મને ક૫તે નથી.” અહીં તાત્પર્ય એ છે કે જે બાળક દૂધમુખ (દૂધ પર જ) હોય અથવા દૂધ પીતું હેય તથા અન્ન પણ ખાતું હોય, તે એવા બાળકને સ્તનપાન છોડાવીને આહાર-પાણી આપે; અથવા કેઈ બાળક સ્તનપાન Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D me - - - प - - - श्रीदशवकालिकमूत्रे उपविष्टा घोत्तिष्ठेदेव तदा दीयमानमाहारादिकमकल्पिक(त) स्यादिति । तत्तात्पयोऽवधारणेनेदमायाति-उत्थिता तादशी गर्मवती यात्थितेव, उपविष्टा योपविष्टेर दद्यात्तदा साधनां नाऽकल्पिक(न) किन्तु ग्रापामेति स्थविरकरिपकापेक्षमिदम् । जिनकल्पिमिस्तु प्रथमदिवसादेव तया दीयमानं न गाते इति श्रद्धाः ।। 'कालमासिनी' पदेन, पष्टमासानन्तरं गर्मस्य गुरुत्येनोत्यानादि क्रियायां तत्सन्चलनादिना तस्या गर्भस्य च पीडाऽवश्यंभाविनीति संग्रचितम् ॥४०॥शा मूलम्-थणगं पिज्जमाणी (य), दारगं वा कुमारियं । तं निखिवित्तु रोयतं, आहरे पाण-भोयणं ॥४२॥ तं भवे भत्त-पाणं तु, संजयाण अप्पियं । १७ . १८२१ २० २२४ दातय पडियाइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ॥४३॥ आहार देवे तो उससे दिया जानेवालाआहार अकल्प्य होता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि ऐसी गर्भवती स्त्री यदि चैठी हो और बैठी बैठी हा आहार देवे या खड़ी हो और खड़ी-खड़ी ही आहार देवे तो साधुआक लिये अकल्प्य नहीं है, किन्तु कल्पनीय ही है। यह बात, स्थविर-कल्पका अपेक्षासे समझनी चाहिये। वृद्धोंका मत है कि जिनकल्पी महाराज, गर्भके प्रथम दिनसे ही गर्भवती स्त्रीके हाथसे दिया जानेवाला आहार सर्वथा नहीं लेते हैं। 'कालमासिनी' पदसे यह सूचित किया है कि छठे महीने के बाद गर्भ भारी हो जाता है, इस कारण हिलने डोलनेसे गर्भवतीकोतथा उसके गर्भको पीडा अवश्य होती है ॥४०॥४१॥ રીતે આપવામાં આવતા આહાર અકસ્થ બને છે. એનું તાત્પર્ય એ થયું કે એવી ગર્ભવતી સ્ત્રી જે બેઠી હોય તે બેઠી બેઠી જ આહાર આપે યા ઊભી હોય તો ઊભી ઊભી આહાર આપે તે સાધુને માટે તે અકખ્ય નથી. પરંતુ ક૯૫નીય છે. આ વાત સ્થવિર-કલ્પની અપેક્ષાએ સમજવી જોઈએ વૃદ્ધોને મત એ છે કે જિનકલ્પી મહારાજ ગર્ભના પ્રથમ દિવસથી જ ગર્ભવતી સ્ત્રીના હાથથી આપવામાં આવતે આહાર સર્વથા લેતા નથી. कालमासिनी से शाथी सुमित ३२वामा माव्यु छ ७१ महीना पछी ગર્ભ ભારે થઈ જાય છે તેથી હીલચાલ કરવાથી ગર્ભવતી તથા એના ગર્ભને भवश्य पी. थाय छे. (४०-४१) Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० - २३ २२ २४ २१ अध्ययन ५ उ. १ गा. ४४-४६-शङ्कित-मुद्रिताहारनिषेधः टीका--'जं भवे०' इत्यादि । यद्भक्त-पानं तु कल्प्याकल्प्ये अल्प्यं च अकल्प्यश्चेति समाहारद्वन्द्वे कल्प्याकल्प्यं तस्मिन् , भावप्रधानश्चायं निर्देशस्ततश्च कल्प्यत्वेऽकल्प्यत्वे चेत्यर्थः, कल्प्यत्वमुद्मादिदोपरहितत्वमकल्प्यत्वं च तत्सहितत्वम् , तत्र शङ्कित शङ्का(संशय)युक्तत्वम् 'इदं भक्तपानं कल्प्यमकलप्यं वेत्येवंविधसंशयविपयीभूतमित्यर्थः, भवेत् तत् ददती भत्याचक्षीत-तादृशं मे न कल्पत इति ॥४४॥ मूलम्-दगवारेण पिहियं, नीसाए पीढएण वा । लोढेण वा विलेवेण, सिलेसेण वि केणइ ॥४५॥ ૧૨ ૧૩ ૧૫ ૧૬ ૧૪ ૧૮ ૧૭ तं च उभिदिआ दिज्जा, समणट्टाए व दावए । दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥४६॥ छाया-दकबारेण पिहितं, निश्रया पीठकेन वा । लोप्टेन वा विलेपेन, पेण वा केनापि ॥४५॥ तचोद्भिद्य दद्यात् , श्रमणार्थ वा दापयेत् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ।।४६।। सान्वयार्थः-दगवारेण जलके भरे हुए घड़ेसे नीसाए घंटीके पुडियेसे या पीसनेकी शिलासे वा अथवा पीढएण-पीढेसे लोढेण-लोडेसे वा=अथवा विलेवेण-मिट्टी आदिके लेपसे वि-अथवा केणइ-दूसरे किसी प्रकारके सिलेसेण-मोम लाख आदि चिकने पदार्थसे पिहियं आच्छादित या मुद्रित कियाहुआ अशनादिका वरतन हो, तं च-उसे यदि समणहाए साधुके लिए उम्भिदिआ उघाड़ (खोल) कर दिज्जा-खुद देवे वा अथवा दावए-दूसरेसे दिलावे तो दितियं-देती हुईसे साधु पडियाइक्खे कहे कि तारिसं ऐसा आहारादि मे-मुझे (लेना) न कप्पइ-नहीं कल्पता है ॥४५-४६॥ 'जं भवे' इत्यादि । 'यह भक्त-पान कल्प्य है या अकल्प्य' इस प्रकार जिसमें सन्देह हो वह भक्त-पान देनेवालीसे साधु कहे कि ऐसा आहार मुझे ग्राह्य नहीं है ।। ४४ ॥ जं भवे. त्याEि. सोन-पान प्य छ भय से भरना જેમાં સંદેહ ઉત્પન્ન થાય તે ભેજન-પાન આપનારીને સાધુ કહે કે એવો આહાર भने पाहा नथी. (४४) - - Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४३४ श्रीदशवेकालिकसूत्र अथवा यः शिशुः स्तन्यमपियन समीपे या तिष्ठेतं परित्यज्य दातुं पृथग्भूतायां तस्यां यदि स रुधात् तदापि तया दीयमानमाहारादिकं संपतानामकल्पिक(त), शिश्वाधाहारान्तराय-कर्मशहस्त-भूमि-मनकादिस्पर्शजनितपीड़ा-मांसाभिमानारकुपुरादिजन्तुकृतोपघातादिसम्भवाद , दश्यते हि कचन निर्जनादी स्थाने शृगा. लादयो बालानपहत्य पलायन्त इति ॥४२॥४३॥ मला मूलम्-जं भवे भत्तपाणं तु, कप्पाकप्पंमि संकियं । दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ॥४४॥ छाया~-यद्भवेद्भक्त-पानन्तु, कल्प्याकल्प्ये शशिवम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तदृशम् ॥४४॥ सान्वयार्थ:-जंजो भत्तपाणं तु अशनादि कप्पाकप्पम्मि-कल्प्य अकल्प्यके विषयमें संकियंशतित-शङ्कास्पद भवे हो तो दितियं देनेवालीसे पडिया इनखेकहे कि तारिसं इस प्रकारका आहारादि मे मुझे न कप्पइ-नहीं कल्पता है ॥४४॥ या कोई बालक, स्तन-पान न करताहुआ भी गोदमें या समीपमें बैठा हो, उसे छोड़कर स्त्री आहार देनेके लिये जावे और बालक रोने लगे तो भी उसके द्वारा दिया जानेवालाआहार, संयमियोंको ग्राह्य नहीं है, क्योंकि इससे उसके बालकके आहारमें अन्तराय पड़ती है, मात-चिरहजन्य दुःख होता है, कठोर हाथ, भूमि, खाट आदिके स्पर्शसे पीड़ा होती हैं और मांसभोजी बिलाव कुत्ते आदि जानवरोंके द्वारा उपघात होनेका सम्भव रहता है। कहीं२ (पहाड़ी प्रदेशोंमें) शृगाल (गीदड़), बालकोंको उठा कर ले भागते हैं ऐसा देखा जाता है ॥ ४२ ॥४३॥ ન કરતુ હોય પણ મેળામાં ય સમીપમાં બેઠું હોય, તેને છેડીને સ્ત્રી આહાર આપવાને માટે જાય અને બાળક જેવા લાગે તો પણ તેણે આપેલ આહાર સંયમીઓને માટે ગ્રાહ્ય નથી, કારણ કે તેથી તેના બાળકના આહારમાં અંતરાય પડે છે, માતૃવિરહજન્ય દુઃખ થાય છે, કોર હાથ, ભૂમિ, ખાટલા આદિના સ્પર્શથી પીડા થાય છે અને માંસજી બીલાડાં કુતરાં આદિ જાનવર દ્વારા ઉપઘાત થવાને પણ સંભવ રહે છે. કયાંક કયાંક (પહાડી પ્રદેશોમાં) શિયાળ બાળકને ઉઠાવી જાય છે, એવું જોવામાં આવે છે (૨-૪૩) Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ४७-४८-दानार्थोपकल्पिताहारनिषेधः ४३७ छाया-अशनं पानकं वापि खाद्यं स्वाद्यं तथा । यज्जानीयात् शृणुयाद्वा, दानार्थ प्रकृतमिदम् ॥४७॥ तद्भवेद्भक्त-पानं तु, संयत्तानामकल्पिक(त)म् । ददती मत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥४८॥ सान्वयार्थः-ज-जो असणं ओदन आदि अशन पाणगं=दाख आदिका धोवन वावि-अथवा खाइमं केला आदि खाद्य तहा और साइम-एलची लूंग आदि स्वाध इमं यह 'दाणहा' पथिकों को देनेके लिए पगड-उपकल्पितनिकाला हुआ है जो अपने या अपने कुटुम्बके लिए काममें नहीं लाया जावे ऐसा जाणेज्ज-जान लेवे वा=अथवा सुणिज्जा--किसीसे सुन लेवे तो तंबह भत्तपाणं तु आहार-पानी संजयाणं-साधुओंके लिए अकप्पियं-अकल्पनीय भवे होता है, (अतः) दितियं देती हुईसे साधु पडियाइक्खेकहे कि तारिसइस प्रकारका आहारादि मे-मुझे (लेना) न कप्पइ-नहीं कल्पता है ।।४७-४८॥ टीका-'असणं०' इत्यादि, 'तं भवे०' इत्यादि च । यत् अशनं भोज्यमोदन-पूरिकादिकं, पानकंन्द्राक्षादिनलम् , अपिवा=अथवा खाद्यं कदलीफलादिकं, स्वायम् एला-लवङ्ग-कर्पूर-पूगीफलादिकम् , 'दानार्थ-देशान्तरादागतेन वणिगादिना साधुवादार्थ स्वकीयप्रशंसानिमित्तं दातुम् , इदं प्रकृतं नियतरूपेणोपकल्पितम्' इति जानीयात्-आमन्त्रणादिना अवगच्छेत् , शृणुयाद्वा=कुतश्चि'असणं०' इत्यादि, तथा 'तं भवे०' इत्यादि। ओदन-आदि अशन, दाखका जल आदि पान, केला आदि खाद्य, लोंग, कपूर, इलायची, सुपारी आदि स्वाद्य, 'यह देशान्तरसे आये हुए वणिक आदिने अपनी प्रशंसाके निमित्त देनेके लिये रक्खा है।' ऐसा जो समझे या किसीसे सुने तो वह अशनादि, संयमियोंको कल्पनीय नहीं है, असणं त्यादि, तथा तं भवेत्याहि. એદન આદિ અશન, દ્રાક્ષના ધાવણનું જળ આદિ પાન, કેળાં આદિ माध, बी, ५२, सायची, सोपारी स्वाध, “ ! देशान्तरथी माता વણિક આદિએ પિતાની પ્રશંસાને લીધે આપવાને માટે રાખેલ છે.” એવું જે સમજવામાં કે કઈ પાસેથી સાંભળવામાં આવે તે એ અશનાદિ સંયમીઓને Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे टीका-'दगवारेण.' 'तंच' इत्यादि । दकति दफ-जन (पोक्तं पाझे वनममृतं जीवनीयं दकं च' इति हलायुधः,) वारयति यहिनिःसरणतो निरुगद्धीति दक वारस जलसंभृत-कलसादिमाजनं तेन, निश्रया घरटेन पेपणचक्रेण शिलापट्टेन (पेपणार्यपापाणेन) या, पीठकेन-काप्ठनिमिताऽऽसनेन, लोप्टेन-शिलादिखण्डेन, विले पेन-मृत्तिकादिपेन, केनापि पेण-सिक्य-लासादिना वा पिहिवम् आच्छादितं मुद्रितं वा यदन्नादिभाजनमिति मसगलभ्यं भवेद, तच श्रमणार्थमुद्भिध-उद्घाटय (स्वयं) दयादापयेद्वा तदा गुरुतरवस्तूत्यापनशहिंसादिसम्भावनया ददती प्रत्याचक्षीतेत्यादि पूर्ववत् ॥ ४५ ॥ ४६॥ मूलम्-असणं पाणगं वा वि, खाइमं साइमं तहा । जं जाणेजा सुणेजा वा, दाणहा पगडं इमं ॥४७॥ ૧૫ ૨૦ ૧૬ ૧૭ ૧૮ ૧૯A तं भवे भत्त-पाणं तु, संजयाण अकप्पियं । २१ २२ २५ २४ २५ २३ . दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥४॥ 'दकवारेण' इत्यादि, 'तंच' इत्यादि। जलसे भरेहुए वर्तनसे, चक्की के पुडसे, मसाला. आदि पीसनेका शिलासे, पीढ़े (बाजोट) से,लोढे (मसाला आदि पीसनेके वजनदार पत्थर) से ढके हुए, तथा मिट्टी आदिके लेपसे,अथवा अन्य किसीसे छांदे या लाख आदिसे मुद्रित किया हुवा अन्न-पान, साधुके लिये उघाड़कर स्वयं देवे या दूसरेसे दिलावे तो क्लेश और हिंसाकी सम्भावनाके कारण देनेवालीका कहे कि ऐसा आहार हमें ग्राह्य नहीं है। तात्पर्य यह है कि, भारी वस्तुके उठानेमें स्व-पर-विराधना आदि अनेक दोषोंकी सम्भावना होनस यह निषेध किया गया है ॥ ४५ ॥ ४६॥ दकवारेण त्यातच त्याहि.. જળથી ભરેલા વાસણથી, ઘંટીના પડથી. મસાલે વાટવાના રશિયાથી બાજોઠથી, મસાલે વાટવાના વજનદાર પત્થરથી ઢાંકેલું તથા માટી આદિના લેપથી અથવા અન્ય કોઈ પદાર્થથી છાંદેલું કે લાખ આદિથી બંધ કરેલું વાસણ સાધુને માટે ઉઘાડીને અન્ન-પાન પિતે આપે યા બીજા પાસે અપાવે તે કલેશ અને હસાની સંભાવનાથી આપનારીને સાધુ કહે કે એ આહાર અને ગ્રાહૃા નથી. તાત્પર્ય એ છે કે ભારે વસ્તુ ઉપાડવામાં સ્વપર-વિરાધના આદિ અનેક દેની સંભાવના હોવાથી એ નિધિ કરવામાં આવ્યું છે. (૪૫-૪૬) Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ४९-५०-पुण्यार्थीपकल्पिताहारनिषेधः माणत्वादन दीनेभ्यो वितरणार्थमिदं प्रकृतम् उपकल्पितम्-स्व-स्वपोष्यवर्गोभयोपभोग्यभिन्नतया स्थापितमिति यावत्' इति जानीयात् शृणुयाद्वा सद्भक्तपानमित्यादि पूर्ववत् । पूर्वगाथायां 'दाणहा' इत्यत्र दान-शब्देन स्वमर्शसाथै दानं गृह्यते, प्रकृते 'पुण्णहा' इत्यत्र पुण्य-शब्देन स्वप्रशंसाव्यतिरिक्तफलाभिसन्धानेन दानं गृह्यते, इति दानपुण्ययोर्भेदः । 'महाव्रतधारिभ्य एवं यद्दीयते तत्रैव पुण्यं न तु तदितरेभ्यः प्रदाने, तथा सति हि मत्युत पापकलापः समुत्पद्यते' इति केचिदाहुः, ('तेरहपंथी' शब्देन मसिद्धाः साधव आहुः,) तद् भ्रान्तिविलसितम् , देनेके लिये है-अर्थात् पुण्यार्थ बनाया गया है। ऐसा जाने या सुने तो वह संयमीके लिये ग्राह्य नहीं है, अत एव ऐसा आहार देनेवालीसे कहे कि-'यह भक्त-पान लेना मुझे नहीं कल्पता है। पहली गथामें आये हुए 'दाणट्टा' पदके 'दान' शब्दसे 'अपनी प्रशंसाके लिये दिया जानेवाला दान' अर्थ ग्रहण किया है, किन्तु इस गाथामें 'पुण्णट्ठा के 'पुण्य' शब्दसे अपनी प्रशंसाके सिवाय अन्य किसी प्रयोजनसे दिया जानेवाला दान' अर्थ होता है-दान और पुण्यमें यही अन्तर है । ___ 'कोई-कोई कहते हैं कि-"महाव्रतधारी मुनियोंको जो दान दिया जाता है उसीमें पुण्य है-दूसरोंको देने में नहीं, दूसरोंको देनेसे उलटा पाप लगता है" । उनका यह कहना भ्रान्ति-मूलक है, क्योंकि, भगवान्ने १ तेरहपंथी संप्रदाय के साधु । માટે છે, અર્થાત્ પુણ્યાર્થ બનાવવામાં આવ્યાં છે.” એવું જાણવામાં ય સાંભળવામાં આવે તે એ સંચમીને માટે ગ્રાહા નથી. તેથી કરીને એ આહાર આપનારીને સાધુ કહે કેએ ભોજન-પાન લેવાં મને કલ્પતાં નથી. પહેલી ગાથામાં આવેલા રાજદ પદના ટાન શબ્દથી “પોતાની પ્રશંસાને માટે આપવામાં આવતું દાન” એ અર્થ ગ્રહણ કર્યો છે, પણ આ ગાથામાં પુuદા માંના પુષ્ય શબ્દથી પિતાની પ્રશંસા સિવાયના અન્ય કોઈ પ્રજનથી આપવામાં આવતું દાન” એ અર્થ થાય છે. દાન અને પુણ્યમાં એ અંતર છે. કે.કેઈ કહે છે કે-“મહાવ્રતધારી મુનિઓને જે દાન આપવામાં આવે છે તેમાં પુણ્ય છે. બીજાઓને દેવામાં પુણ્ય નથી, બીજાઓને દેવામાં ઉલટું પાપ सागे छे." मेमनु मे ९ प्रतिभा छ, २९५ मावाने पुण्णट्ठा पगडं ૧રપથી સંપ્રદાયના સાધુઓ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ - श्रीदशकालिकाचे दाकर्णयेद्वा तद्भक्तपानं तु संयतानामकल्पिकं भवेत्, अतस्तपदतीमत्याचक्षीत-ताशे मे न कल्पत इति ॥ ४७ ॥ ४८ ॥ मूलम्-असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । जं जाणेज सुणेज्जा वा, पुण्णटा पगडं इमं ॥४९॥ १५ २०१७ तं भवे भत्त-पाणं तु संजयाण अप्पियं । दितिय पडियाइक्खे, न में कप्पइ तारिस ॥५०॥ छाया-अशनं पान वापि, खाद्यं स्वाधं तथा । यज्जानीयाच्छृणुयाद्वा, पुण्यार्थ प्रकृतमिदम् ॥४९॥ तद्भवेद्भक्तपानं तु, संयतानामकल्पिक(तम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते वादृशम् ॥५०॥ सान्वयार्थ:-जं असणं पाणगं वावि खाइमं तहा साइमं जो अशन पान खादिम स्वादिम इमं पुण्णट्ठा पगडं' यह करुणावुद्धिसे दीन-हीन-जनोंके लिए पुण्यार्थ निकाल रखा है। इस प्रकार जाणेज जान लेवे वा अथवा सुणिनाकिसी दूसरेसे सुन लेवे तो तं-वह भत्तपाणं तु आहार-पानी संजयाणसाधुओंके लिए अकप्पियं-अकल्पनीय भवे होता है, (अतः) दितिय देती हुईसे साधु पडियाइक्खे-कहे कि तारिसं-इस प्रकारका आहारादि मे-मुझे (लेना) न कप्पइनहीं कल्पता है ॥४९॥-५०॥ टीका-'असणं.' इत्यादि, 'तं भवे०' इत्यादि च। यदशनादिक 'पुण्याथै पुण्याय-सुकृतायेदं दयाधिया,वनीय(प)क-श्रमणार्थोपकल्पितस्याग्रे वक्ष्यइसलिये ऐसा भक्त-पान आदि देनेवाली से कहे कि यह मुझे नहीं कल्पता है ॥४७॥४८॥ 'असणं.' इत्यादि, तथा 'तं भवे०' इत्यादि । जो 'अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य दया-बुद्धिसे दीन-हीन जनोंको માટે કલપનીય નથી તેથી એવાં ભેજન પાન આદિ આપનારીને સાધુ કહે કે मे भने ४६५ता नथी. (४७-४८) असणं. त्याहि, तथा तं भवे. त्यादि. "240 मशन, पान, माध, स्वाय, या युद्धिया दीनहीन बनाने मापाने " Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - - - अध्ययन ५ उ. १ गा. ४९-५०-पुण्यार्थोपकल्पिताहारनिषेधः माणत्वादत्र दीनेभ्यो वितरणार्थमिदं प्रकृतम्-उपकल्पितम्-स्व-स्वपोष्यवर्गोभयोपभोग्यभिन्नतया स्थापितमिति यावत्' इति जानीयात् शृणुयाद्वा तद्भक्तपानमित्यादि पूर्ववत् । पूर्वगाथायां 'दाणट्टा' इत्यत्र दान-शब्देन स्वप्रशंसार्थ दानं गृह्यते, पकृते 'पुण्णहा' इत्यत्र पुण्य-शब्देन स्वपशंसाव्यतिरिक्तफलाभिसन्धानेन दानं गृहाते, इति दानपुण्ययोमेंदः । 'महाव्रतधारिभ्य एव यद्दीयते तत्रैव पुण्यं न तु तदितरेभ्यः प्रदाने, तथा सति हि प्रत्युत पापकलापः समुत्पद्यते' इति केचिदाहुः, ('तेरहपंथी' शब्देन प्रसिद्धाः साधव आहुः,) तद् भ्रान्तिविलसितम्, देनेके लिये है-अर्थात् पुण्यार्थ बनाया गया है। ऐसा जाने या सुने तो वह संयमीके लिये ग्राह्य नहीं है, अत एव ऐसा आहार देनेवालीसे कहे कि-'यह भक्त-पान लेना मुझे नहीं कल्पता है। पहली गथामें आये हुए 'दाणट्टा' पदके 'दान' शब्दसे 'अपनी प्रशंसाके लिये दिया जानेवाला दान' अर्थ ग्रहण किया है, किन्तु इस गाथामें 'पुण्णहा के 'पुण्य' शब्दसे अपनी प्रशंसाके सिवाय अन्य किसी प्रयोजनसे दिया जानेवाला दान' अर्थ होता है-दान और पुण्यमें यही अन्तर है। 'कोई-कोई कहते हैं कि-"महाव्रतधारी मुनियोंको जो दान दिया जाता है उसीमें पुण्य है-दूसरोंको देने में नहीं, दूसरोंको देनेसे उलटा पाप लगता है"। उनका यह कहना भ्रान्ति-मूलक है, क्योंकि, भगवान्ने १ तेरहपंथी संप्रदाय के साधु । માટે છે, અર્થાત્ પુણ્યા બનાવવામાં આવ્યાં છે. એવું જાણવામાં ચા સાંભળવામાં આવે તે એ સંયમીને માટે ગ્રાહ્ય નથી. તેથી કરીને એ આહાર આપનારીને સાધુ કહે કે-એ ભોજન-પાન લેવાં મને ક૯પતાં નથી. પહેલી ગાથામાં આવેલા સાદ પદના ચાર શબ્દથી પોતાની પ્રશંસાને માટે આપવામાં આવતું દાન” એ અર્થ ગ્રહણ કર્યો છે, પણ આ ગાથામાં પુછઠ્ઠા માંના પુષ્ય શબ્દથી પિતાની પ્રશંસા સિવાયના અન્ય કે પ્રજનથી આપવામાં આવતું દાન” એવો અર્થ થાય છે. દાન અને પુણ્યમાં એ અંતર છે. કઈ-કોઈ કહે છે કે“મહાવ્રતધારી મુનિઓને જે દાન આપવામાં આવે છે તેમાં પુણ્ય છે. બીજાઓને દેવામાં પુણ્ય નથી, બીજાઓને દેવામાં ઉલટું પાપ लागे छ." समर्नु अबु हे प्रान्तिमा छ, १२९५ मावाने पुण्णहा पगडं ૧ હપંથી સંપ્રદાયના સાધુએ ! Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - - - ४४० श्रीदशवकालिकमूत्रे भगवता हि 'पुण्णहा पगई' इत्यनेन 'पुण्यार्थमुपकल्पितं द्रव्यं साधूनामकल्यमिति घोधितं, तन महावतधारकेतरेभ्यः मदातमुपकल्पितस्य द्रव्यस्य तन्मते पुण्यार्थत्वाभावेन 'पुण्णहा पगढ़' इति वाक्यं निविपयतामपोत । ननु पुण्यार्थीपकल्पितद्रव्यस्याकल्यत्वस्वीकारे साधोः शिष्टकुले भिक्षाग्रहणमेवाकल्प्यं स्यात्, पुण्यार्यमेव तेषां पास्महत्तेन तु शुद्रनन्तवत्स्वोदरपूर्तिमात्रार्थमिति चेन, तथाहि यधपि शिष्टकुले सम्पादितमन्नं पुण्यार्थमकृतं तयापि यदन्येभ्यो 'पुण्णहा पगडं' इस कथनसे पुण्यके लिये निकाले हुए द्रव्यको साधुओंके वास्ते अकल्पनीय बताया है। यदि महानतियोंको छोड़कर अन्य किसीको देने में पुण्य न हो तो भगवानका किया हुआ यह निषेध किस पर लाग पड़ेगा,तात्पर्य यह है कि पुण्यके लिये निकाले हुए व्यको, मुनियों के लिये अकल्प्य घतानेसे यह सिद्ध होता है कि दसरोंको दान देनेसे भा पुण्यकी प्राप्ति होती है। शंका-यदि पुण्यार्थ निकाला हुआ द्रव्य, साधुओंको ग्राह्य नहीं है तो शिष्टकुलमें साधु, कभी भिक्षा ग्रहण कर ही नहीं सकते, क्योकि शिष्ट जन, पुण्यके लिये ही रसोईका आरम्भ करते हैं, साधारण (क्षुद्र) माणियोंकी तरह अपने ही उद्रकी प्रतिके लिये नहीं। समाधान-यद्यपि शिष्टकुलमें तैयार किया हुआ आहार पुण्यके लिये ही संपादित होता है तथापि जो आहार दूसरोंको ही देनेके लिये बनाया એ કથન વડે પુણ્યને માટે કાઢેલા દ્રવ્યને સાધુઓને માટે અકલ્પનીય બતાવ્યું છે. જે મહાવ્રતીએ સિવાયના બીજાઓને આપવામાં પુણ્ય ન હોય તે ભગવાન કરેલે એ નિધિ કોને લાગુ પડશે ?, તાત્પર્ય એ છે કે પુણ્યને માટે કહેલા દ્રવ્યને મુનિઓને માટે અકય બતાવ્યું હોવાથી એમ સિદ્ધ થાય છે કે બીજો એને દાન આપવાથી પણ પુણ્યની પ્રાપ્તિ થાય છે. રાંકા--જે પુણ્યાર્થ કાઢેલું દ્રવ્ય સાધુઓને માટે ગ્રાહ્ય ન હોય તે શિષ્ટ કુળમાં સાધુ કદાપિ ભિક્ષા ગ્રહણ કરી શકશે જ નહિ, કારણ કે શિwજન પુણયને માટે જ રઈનો આરંભ કરે છે. સાધારણ (ક્ષક) પ્રાણીઓની પેઠે માત્ર પિતાનું જ ઉદર ભરવાને માટે નહિ. સમાધાન-જે કે શિષ્ટ કુળમાં તૈયાર કરવામાં આવતે આહાર પુણ્યને ? માટે જ સંપાદિત હોય છે, તે પણ જે આહાર બીજાઓને આપવા માટે બનાવવામાં भाव छ, पाताना Gunने भाटे नहि, ते पुण्णहा पगडं (पुण्यार्य निष्पादित Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ५१-५२-चनीपकार्थोपकल्पिताहारनिषेधः ४४१ दातुमेव निष्पादितं न तु स्वोपभोगार्थ तदेवान्नं 'पुण्यार्थप्रकृत' शब्देनात्र गृह्यते, एतदेव देयमित्युच्यते । ईदृशस्यैव ग्रहणे प्रतिषेधः, आरम्भान्तरायादिदोपभसगात् । यत्तु स्वस्य स्वपोष्यवर्गस्य चोपभोगार्थमुदारबुद्धया सम्पादितं, तच्चानियतदानार्थवाददेयमित्युच्यते । अस्य ग्रहणे साधो रम्भादिदोपप्रसङ्गः, साध्वयंपाकपत्तेरभावात् । किश्च-शास्त्रे, शिष्टकुले भिक्षाग्रहणस्य विधानान तथाविधाऽऽहारग्रहणे दोप इत्यलं पल्लवितेन ॥ ४९ ॥ ५० ॥ मूलम्-असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । १३ १४ । जं जाणेज सुणेज्जा वा, वणिमहा पगडं इमं ॥५१॥ जाता है अपने उपभोगके लिये नहीं, वही 'पुण्णहा पगडं ' (पुण्यार्थ निष्पादित) और वही 'देय' कहलाता है। इस प्रकारके आहारको ही ग्रहण करनेका निषेध किया गया है। क्योंकि, उसे लेलेनेसे आरंभ और अन्तराय आदि दोपोंका प्रसंग होता है। जो आहार, अपने और अपने आश्रित जनोंके उपभोगके लिये उदार बुद्धिसे निप्पन्न किया जाता है, वह अनियत दानके लिये होनेसे 'अदेय' कहलाता है। इस अदेय आहारको ग्रहण करनेसे साधुको आरम्भ-आदि दोप नहीं लगते हैं, क्योंकि वह साधुके निमित्त नहीं घनाया जाता है, तथा शास्त्रमें, शिष्टकुलमें भिक्षा ग्रहण करनेका विधान है, इसलिये भी शिष्टकुलमें आहार ग्रहण करने में दोप नहीं आसकता, इतना ही समाधान काफी है ॥ ४९ ।। ५०॥ અને એજ “દેય” કહેવાય છે. એ પ્રકારના આહારને પણ ગ્રહણ કરવાનો નિષેધ કરવામાં આવ્યું છે, કારણ કે એ લેવાથી આરંભ અને અંતરાય આદિ દેને પ્રસંગ ઉત્પન્ન થાય છે. જે આહાર પિતાને માટે અને પિતાનાં આશ્રિત જનના ઉપભેગને માટે ઉદાર-બુદ્ધિથી નિષ્પન્ન કરવામાં આવે છે તે અનિયત દાનને માટે લેવાથી ‘ અદેય’ કહેવાય છે. એ અદેય આહાર ગ્રહણ કરવાથી સાધુને આરંભ-આદિ દે લાગતા નથી, કારણ કે એ સાધુને માટે બનાવવામાં આવેલ હતું નથી, તથા શાસ્ત્રમાં શિફળમાં ભિક્ષા ગ્રહણ કરવાનું વિધાન છે, તેથી પણ શિgકુળમાં આહાર ગ્રહણ કરવામાં દેય લાગી શકતો નથી. એટલું જ સમાધાન ५२ छे. (४५-५०) Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ . श्रीदशकालिकम - - तं भवे भत्त-पाणं तु, संजयाण अप्पियं । २४ २५ २४ १९२ ० दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ॥५२॥ छाया-अशनं पानकं चापि, खाधं स्वायं तथा । यज्जानीयाच्छृणुयाहा, वनीय-(प)-कार्य प्रकृतमिदम् ॥५१॥ तद्भवेद्भक्त-पानं तु, संयतानामकल्पिकम् ।। ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादशम् ॥५२।। सान्वयार्थ:-जं असणं पाणगं वावि खाइमं तहा साइमं जो अशन पान खादिम स्वादिम इमं वणिमहा पगडं यह भिखारी और दरिद्रोंके लिए उपकल्पित है ऐसा जाणेज जान लेवे वा अथवा सुणिजा=किसी दूसरेसे सुन लेवे तो तंवह भत्तपाणं तु-आहार-पानी संजयाण साधुओंके लिए अकप्पियं-अकल्पनीय भवे होता है, (अतः) दितियं देती हुईसे साधु पडियाइक्खे-कहे कितारिसंइस प्रकारका आहारादि मे=मुझे (लेना) न कप्पइन्नहीं कल्पता है ॥५१-५२॥ टीका-'असणं.' इत्यादि 'नं भवे.' इत्यादि च । यद् अशनादिकं वनीय(प)कार्थम्बनीय(प)का याचकमात्रं, यद्वा सिद्धान्नमात्रोपजीवी, अथवा बनी स्वकीयदुरवस्थामदर्शनपुरःसरं मियाऽऽलापादिना लभ्यद्रव्यं, तां यातिप्रामोतीति वनीयः, स एव वनीयका, 'वनीपके'तिपाठपक्षे तु तां पूर्वोक्तां बनी पिवति आस्वादयतीति, पाति रक्षति वा वनीपः, स एव वनीपकः, अथवा वनुते पायो दातुः सम्माननीयेप्वात्मनो भक्तिं प्रकटयन् याचत इति वा, ('वनु याचने' अस्माद्धातोरौणादिक ईपकप्रत्ययः।) यदिवा सान्त्वन-बुभुक्षाजनिततापा 'असणं०' इत्यादि, तथा 'तं भवे०' इत्यादि। याचकमात्रको अथवा सिद्ध (तैयार) भिक्षा लेकर जीवन-निर्वाह करनेवालेको वनीयक कहते हैं, 'वनीपक' पाठपक्षमें-दाताके माननीय गुरु आदिमें भक्ति प्रकट करके लीजानेवाली भिक्षाको वनी कहते हैं, और ऐसी भिक्षा लेनेवाला 'वनीपक' कहलाता है, अथवा जो, भूखका ताप असणंत्यात तथा तं भवेत्याहि. યાચક-માત્રને અથવા સિદ્ધ (તયાર) ભિક્ષા લઈને જીવન નિર્વાહ કરनाराने 'वनीय' ४३ छे. वनीपक पाहना पक्षमा-हाताना भाननीय गु३माहिभां ભક્તિ પ્રકટ કરીને લેવામાં આવતી ભિક્ષાને વરી કહે છે, અને એવી ભિક્ષા લેનાર વનીક કહેવાય છે. અથવા જે ભૂખને તાપ મિટાવીને સાંત્વના આપે Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन ५ उ. १ गा. ५३-५४ श्रमणार्थोपकल्पिताहारनिषेधः ४४३ पशमनलक्षणं नयति मापयतीति वनीः, यद्वा वन्यते-याच्यते भिक्ष्यत इति वनी भिक्षणीयद्रव्यम् , ('वनु याचने' अस्मादौणादिक इन् कृदिकारादिवि डीप) तां पाति-उपकल्प्य रक्षतीति बनीपा गृहस्थस्त कायति-प्रार्थयते मियोत्यादिनेति वनीपकस्तदर्यमिदं प्रकृतमित्यादि पूर्ववत् ।। ५१ ॥ ५२ ।। मूलम्-असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । ૧ ૧૨ ૧૩ ૧૪ ૯ ૧૧ ૧૦ जं जाणेज्ज सुणेज्जा वा, समणहा पगडं इमं ॥५३॥ ૧૫ ૨૦ ૧૬ ૧૭ ૧૮ ૧૯ तं भवे भत्त-पाणं तु, संजयाण अप्पियं । ૨૨ ૨૩ ૨૪ ૨૬ ૧૩ दंतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तादिसं ॥५४॥ छाया-अशनं पानकं वापि, खाचं स्वाद्यं तथा । यजानीयाच्छृणुयाद्वा, श्रमणार्थ प्रकृतमिदम् ॥५३॥ तद्भवेद्भक-पानं तु, संयतानामकल्पिकम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥५४॥ सान्वयार्थः-जं असणं पाणगं वावि खाइमं तहा साइम-जो अशन पान खादिम स्वादिम इमं समणट्ठा पगडं-यह निर्ग्रन्थ शाक्य तापस गैरिक और आजीवक, इन पांच प्रकारके श्रमणों के लिए उपकल्पित है, ऐसा जाणेज्ज-मान लेवे वा अथवा सुणिज्जा=किसी दूसरेसे मुन लेवे तो तंवह भत्तपाणं तुआहार-पानी संजयाणं-साधुओंके लिए अकप्पियं-अकल्पनीय भवे-होता है, (अतः) दितियं देती हुईसे साधु पडियाइक्खे-कहे कि तारिसं-इस प्रकारका आहारादि मे-मुझे (लेना) न कप्पइ-नहीं कल्पता है ॥५३-५४॥ मिटाकर सान्त्वना प्रदान करे उसे वनी (भिक्षा देने के लिये रखा हुआ अन्नादि) कहते हैं, उसको सुरक्षित रखनेवाला गृहस्थ 'वनीप' कहलाता है, और उस वनीप (गृहस्थ)से प्रार्थना करके भिक्षा प्राप्त करने वालेको 'वनीपक' कहते हैं। उस वनीपकके लिये बनाया हुआ देवे तो देनेवा___लीसे कहे कि ऐसा आहार मुझे कल्पता नहीं है ।। ६१ ॥५२॥ तेने यनी (भिक्षा मापपान समेत मनाहि छ भने सुरक्षित रामनार स्थ वनीप आय छ, भने से बनीप (2) प्रार्थना शन मिक्षा પ્રાપ્ત કરનારને વન કહે છે. એ વનપકને માટે બનાવેલ આહાર આપે તે આપનારીને સાધુ કહે કે એ આહાર મને ક૯પતે નથી. (પ૧–પર) Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ श्रीदशकालिकमूत्रे ___टीका-'असणं.' इत्यादि, तथा 'तं भवे' इत्यादि । श्रमणार्य श्रमणा:लोकमसिद्धयनुरोधतो निर्ग्रन्य-शाक्य-तापस-गैरिका-ऽऽजीवकमेदेन पधा, तत्र निर्ग्रन्थाः पञ्चमहायतधारिणः, शाक्या: सौगताः, तापसा: नटाधारिणः, गैरिकाः रक्तवर्णधातुविशेपरञ्जितयत्रधारिणः, परित्रानका इत्यर्थः, आजी. वकाः गोशालकमतानुयायिनस्तदर्थमिदं कृतमित्यादि प्राग्वत् ॥५३॥५४॥ मूलम्-उद्देसियं कीयगडं, पूइकम्मं च आहडं । अज्झोयरय पामिच्चं, मीसजायं विवजए ॥५५॥ छाया-औद्देशिकं क्रीतकृतं, पुतिकर्म चाभ्याहृतम् । , अध्यवपूरकं प्रामित्यं, मिश्रजातं विवर्जयेत् ॥५५॥ सान्वयार्थः-उद्देसियं औदेशिक-किसी एकको उद्देश करके बनाये हुए अशनादिको कीयगडं-खरीदे हुएको पूइकम्मं आधाकर्मादिदोपसे दुषित ऐसे आहारसे मिले हुएको आहडं-सामने लाये हुएको पामिच-उधार लायें हुएको च=और मीसजाए अपने तथा साधुओंके लिए मिश्रित (भेला) करके वनाये हुए अशनादिको (साधु) विवज्जए घरजे, अर्थात् ऐसा आहार हो तो नहीं लेवे ॥ ५५॥ 'असणं.' इत्यादि तथा 'तं भवे.' इत्यादि । लोकमें पाँच प्रकारके श्रमण होते हैं-(१)निर्ग्रन्थ (पंच-महाव्रतधारी), (२) सौगत (बुद्धके अनुयायी), (३) तापस (जटाधारी), गरिक (गेरुआ वस्त्र पहिननेवाले), (६) आजीवक (गोशालके मतानुयायी)। इनके लिये जो आहार बनाया गया हो वह, संयमियोंके लिये कल्प्य नहीं है, अत एव ऐसा आहार देनेवालीसे साधु कहे कि मुझे नहा कल्पता है ॥५३ ॥५४॥ असणं० पत्याहि तथा तं भवे. त्याहि. सोभा पाय प्रा२ना श्रम डाय छे. (१) नि (यभाप्रतधारी), (२) सौगत (मुन मनुयायी), (3) तापस (टाधारी), (४) २ि४ ( ગેરૂઆ વસ્ત્રો પહેરનાર), (૫) આજીવક (ગોશાળના મતાનુયાયી). એમને માટે જે આહાર બનાવવામાં આવ્યા હોય તે સંયમીઓને માટે કપ્ય નથી, તેથી એવો આહાર આપનારીને સાધુ કહે કે તે મને કલ્પત નથી. (૫૩-૫૪) Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- --- अध्ययन ५ उ. १ गा. ५५-औदेशिकक्रीतकृताहारस्वरूपम् ४४५ टीका-'उदेसियं०' इत्यादि । १-औदेशिकम् उद्देशनमुद्देशस्तेन कृत-मौदेशिकम् । तविविधं-सामान्यौदेशिकं विशेषौदेशिकं च, तत्राद्य-पतिदिनं स्वार्थ सम्पायते तावत्सम्पादनप्रवृत्ती सत्यां "भिक्षादानं गृहस्थाऽऽचारः' इति बुद्धया 'यः कश्चित्साधुरागच्छेत्तस्मै देय'-मिति सामान्यत उद्दिश्य समधिकं निष्पादितम् । द्वितीयं-कमप्येकं साधु व्यक्ति-विशेषरूपेणोद्दिश्य सम्पादितम् । २-क्रीतकृत-क्रयणं गृहस्थकर्तृकं, तेन सम्पादितं क्रीतकृतं क्रीतमित्यर्थः, तत्रिविधं-द्रव्यक्रीतं, भावक्रीतं, मिश्रक्रीतञ्च, तत्र द्रव्य-क्रीतं-स्त्रपरतदुभयभेदेन निधा-स्वद्रव्यक्रीतं, परद्रव्यक्रीतम् , उभयद्रव्यक्रीतश्च। तदपि सचित्ताऽ-चित्त-मिश्रभेदात्मत्येक 'उद्देसियं' इत्यादि। किसीको उद्देश करके बनाया हुआ आहार, औदेशिक कहलाता है। यह दो प्रकारका है-१-सामान्य औद्देशिक और २-विशेप-औदेशिक । जितना आहार, प्रतिदिन गृहस्थ बनाता है उतना आहार बनाते समय ऐसा विचार करना कि 'भिक्षा देना गृहस्थका कर्तव्य है, इसलिये जो कोई साधु आवेगा उसे दे देंगे' ऐसा विचार कर बनाया हुआ आहार 'सामान्य औदेशिक' और किसी एक साधुके निमित्त बनाया हुआ आहार, 'विशेप-औद्देशिक' कहलाता है। [२] खरीद किया हुआआहार क्रीतकृत कहलाता है। वह तीन प्रकारका है (१)-द्रव्य-क्रीत(२)-भावक्रीत (३)-मिश्रक्रीत।द्रव्यक्रीततीन प्रकारका है. (१)-अपने द्रव्यसे खरीदा हुआ, (२)-पराये द्रव्यसे खरीदा हुआ, (३)-दोनों द्रव्योंसे खरीदा हुआ। ये तीनों भेद तीन२ प्रकारके हैं। स्वद्रव्य उद्देसियं० (त्या (१)-इन देशाने माटो मा १२ भौशिवाय छ ते 2 रन डाय छे. (१) सामान्य-मोशि: मन (२) विशेष-योदेशि४. જેટલે આહાર પ્રતિદિન ગૃહસ્થ બનાવે છે એટલે આહાર બનાવતી વખતે એ વિચાર કરો કે ભિક્ષા આપવી એ ગૃહસ્થનું કર્તવ્ય છે, તેથી જે કઈ સાધુ આવશે તે તેને આપીશ.” એ વિચાર કરીને બનાવેલે આહાર સામાન્ય શિક, અને કઈ એક સાધુને નિમિત્ત બનાવેલે આહાર વિશેષ-ઓશિક डेवाय छे. (૨)-ખરીદ કરેલે આહાર કિતકૃત કહેવાય છે. તે ત્રણ પ્રકારને છે– (१) द्रव्यात, (२) माहीत, (3) भिक्षीत. यात त्राण प्राश्ना छ-(१) पाताना द्रव्यथा भरीदेसा, (२) ५०या व्यथा मशी , (3) मे द्रव्याथी मरीही. Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ श्रीदवेकालिकसूत्रे ? त्रिविधं - सचित्तस्वद्रव्यक्रीतम्, अचित्तस्वद्रव्यक्रीतं, मिश्रस्वद्रव्यक्रीतं, सचित्तपरद्रव्यक्रीतम् अचित्तपरद्रव्यक्रीतं, मिश्रपरद्रव्यक्रीतं, सचित्तोभयद्रव्यक्रीतम्, अचित्तोभयद्रव्यक्रीतं, मिश्रोभयद्रव्यक्रीतश्चेति । इत्यं द्रव्य क्रीतं नवधा भवति । भाव क्रीतं द्विविधं स्वभावकीतं परमात्रकीतन; तत्र स्वमात्रक्रीतं सांगी समुपागते तदर्थे गृहस्येन स्त्रविद्या - मन्त्रादि दत्त्वा क्रीतम् । परभात्रक्रीतं -विद्या १ - विद्या- ससाधना रोहिणीमशप्त्यादिरूपा, मन्त्रः-- असाधनो वशीकरणादिः । क्रीतके भेद - (१) अपने सचित्त द्रव्यसे खरीदा हुआ, (२) - अपने अचित्त द्रव्यसे खरीदा हुआ, (३) - अपने सचित्त और अचित्त, दोनों प्रकारके द्रव्यसे खरीदा हुआ । परद्रव्यक्रीतके भेद - (१) - दूसरेके सचित्त द्रव्यसे खरीदा हुआ, (२)-दुसरेके अचित्त द्रव्यसे खरीदा हुआ, (३) दूसरेके दोनों प्रकारके द्रव्यसे खरीदा हुआ । उभयक्रीतके भेद - (१) - दोनोंके सचिन्त द्रव्यसे खरीदा हुआ (२) दोनोंके अचित्त द्रव्यसे खरीदा हुआ (३) दोनोंके सचित्त और अचित्त द्रव्यसे खरीदा हुआ। ये सब द्रव्यक्रीत हैं । भाव क्रीत, दो प्रकारका है - (१) - स्व-भावक्रीत, (२) - पर भावक्रीत । साधुके आने पर, साधुके लिये, अपनी विद्या या अपना मन्त्र दे कर, गृहस्थद्वारा खरीदा हुआ आहार स्वभावक्रीत है, दूसरेने विद्या-मंत्र એ ત્રણે ભેદ ત્રણ-ત્રણ પ્રકારના છે. સ્વદ્રવ્યક્રીતના ભેદ–(૧) પેાતાના ચિત્ત દ્રવ્યથી ખરીદેલા, (૨) પેાતાના અચિત્ત દ્રવ્યથી ખરીદેલા, (૩) પાતાના ચિત્ત અને અચિત્ત બેઉ પ્રકારના દ્રવ્યથી ખરીદેલેા. પરદ્રવ્યમ્રીતના ભેદ—(૧) ખીન્તના સચિત્ત દ્રવ્યથી ખરીદેલે, (૨) ખીજાના ચિત્ત દ્રવ્યથી ખરીદેલા, (૩) ખીજાના બેઉ પ્રકારના દ્રવ્યથી ખરીદેલા. ઉભયક્રીતના ભેદ (૧) એઉના સચિત્ત દ્રવ્યથી ખરીદેલે, (૨) બેઉના અત્તિ દ્રવ્યથી ખરીદેલા, (૩) બેઉના સચિત્ત અને અચિત્ત દ્રવ્યથી ખરીદેલે. એ બધે દ્રવ્યક્રીત છે આવે लावडीत मे प्राश्ना छे. (१) स्व-लावडीत, (२) पर-लावडीत, साधु ત્યારે સાધુને માટે પેાતાની વિદ્યા યા પેાતાને મંત્ર આપીને ગૃહસ્થદ્વારા ખરી ૉલેા આહાર એ સ્વ-ભાવીત છે. બીજાએ વિદ્યા-મંત્ર આ સાધુને માટે Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन ५ उ. १ गा. ५५-क्रीतकृताहारस्वरूपम् ४४७ मन्त्रादि दत्त्वा साधुकृते परेण क्रीतमुपलभ्यान्येन गृहस्थेन दीयमानं तदनेकविधं स्वयमूह्यम् । मिश्र-(द्रव्य-भावरूप)-क्रीवस्य च नव भङ्गाः, यथा-- १-स्वकीयेन द्रव्येण स्वकीयेन भावेन । २--स्वकीयेन द्रव्येण परकीयेण भावेन । ३-परकीयेण द्रव्येण स्वकीयेन भावेन । ४-परकीयेण द्रव्येण परकीयेण भावेन । ५-स्वकीय-द्रव्य-भावाभ्यां परकीयेण द्रव्येण । ६- स्वकीय-द्रव्य-भावाभ्यां परकीयेण भावेन । देकर, साधुके लिये आहार आदि खरीदा हो और साधुके आने पर उस आहारको दूसरा लेलेवे तो उसे परभाव-क्रीत कहते हैं, वह अनेक प्रकारका है सो स्वयं समझ लेना चाहिये। मिश्र-(द्रव्य-भावरूप) क्रीतके नौ भंग होते हैं१-अपने द्रव्यसे अपने भावसे । २-अपने द्रव्यसे परके भावसे। ३-परके द्रव्यसे अपने भावसे। ४-परके द्रव्यसे परके भावसे । ५-अपने द्रव्य-भावसे परके द्रव्यसे । ६-अपने द्रव्य-भावसे परके भावसे । આહારાદિ ખરીદેલાં હોય અને સાધુ આવે ત્યારે એ આહારને બીજે લઈ લે તે તે પરભાવકીત કહેવાય છે. તે અનેક પ્રકારના હોય છે તે પિતાની મેળે સમજી લેવું. भि (व्य-मा१३५) जीतना न मांगा थाय छे. ૧ પિતાના દ્રવ્યથી પિતાના ભાવથી. ૨ પિતાના દ્રવ્યથી પરના ભાવથી. ૩ પરના દ્રવ્યથી પિતાના ભાવથી. ૪ પરના દ્રવ્યથી પરના ભાવથી. ૫ પિતાના દ્રવ્ય-ભાવથી પરના દ્રવ્યથી. ૬ પિતાના દ્રવ્ય-ભાવથી પરના ભાવથી, Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ श्रीदर्शनेकालिकसूत्रे , त्रिविधं - सचित्तस्वद्रव्यक्रीतम्, अचिनस्वद्रव्यक्रीतं, मिश्रस्वद्रव्यक्रीतं, सचित्तपरद्रव्यक्रीतम् अचित्तपरद्रव्यक्रीतं, मिश्रपरद्रव्यक्रीतं, सचित्तोभयद्रव्यक्रीतम्, अचित्तोभयद्रव्यक्रीतं, मिश्रोभयद्रव्यक्रीतश्चेति । इत्थं द्रव्य क्रीतं नवधा भवति । भाव क्रीतं द्विविधं स्वभावata rearratra तत्र समावक-सांचौ समुपागते तदर्थे गृहस्थेन स्वविधा मन्त्रादि दत्वा क्रीतम् । परभावक्रीतं विद्या १- विद्या साधना रोहिणीमप्यादिरूपा, मन्त्रः - असाधनो वशीकरणादिः । क्रीतके भेद - (१) अपने सचित्त द्रव्यसे खरीदा हुआ, (२) - अपने अचित्त द्रव्यसे खरीदा हुआ, (३) - अपने सचित्त और अचित्त, दोनों प्रकारके द्रव्यसे खरीदा हुआ । परद्रव्यक्रीतके भेद - (१) - दूसरेके सचित द्रव्यसे खरीदा हुआ, (२) - दुसरे के अचित्त द्रव्यसे खरीदा हुआ, (३) दूसरेके दोनों प्रकारके द्रव्यसे खरीदा हुआ । उभयक्रीतके भेद - (१) - दोनोंके सचित्त द्रव्यसे खरीदा हुआ (२) दोनोंके अचित्त द्रव्यसे खरीदा हुआ (३) दोनोंके सचित्त और अचित्त द्रव्यसे खरीदा हुआ। ये सब द्रव्यक्रीत हैं । भाव क्रीत, दो प्रकारका है - (१) - स्व-भावक्रीत, (२) - पर भावक्रीत । साधुके आने पर, साधुके लिये, अपनी विद्या या अपना मन्त्र दे कर, गृहस्थद्वारा खरीदा हुआ आहार स्व-भावक्रीत है, दूसरेने विद्या-मंत्र એ ત્રણે ભેદ ત્રણ-ત્રણુ પ્રકારના છે. સ્વદ્રવ્યીતના ભેદ–(૧) પેાતાના ચિત્ત દ્રવ્યથી ખરીદૅલે, (૨) પેાતાના અચિત્ત દ્રવ્યથી ખરીદેલા, (૩) પોતાના ચિત્ત અને ચિત્ત બેઉ પ્રકારના દ્રવ્યથી ખરીદેલ પદ્રવ્યમ્રીતના ભેદ (૧) બીજાના ચિત્ત દ્રવ્યર્થી ખરીદેલા, (૨) ખીજાના અચિત્ત દ્રવ્યથી ખરીદેલેા, (૩) ખીજાના બેઉ પ્રકારના દ્રવ્યથી ખરીદેલેા. ઉભયક્રીતના ભેદ (૧) બેઉના સચિત્ત દ્રવ્યથી ખરીદેલા, (૨) બેઉના અત્તિ દ્રવ્યથી ખરીદેલા, (૩) બેઉના સચિત્ત અને અચિત્ત દ્રવ્યથી ખરીદેલા. એ બધ द्रव्यद्वीत छे. भावडीत मे प्राश्नो छे. (१) स्व-लावीत, (२) प२- भावडीत, साधु आवे ત્યારે સાધુને માટે પેાતાની વિદ્યા ચા પાતાના મત્ર આપીને ગૃહસ્થદ્વારા ખરી દેલે આહાર એ સ્વ-ભાવક્રીત છે. ખીજાએ વિદ્યામંત્ર આપીને સાધુને માર્કે Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन ५.उ. १ गा. ५५-आहृताद्याहारस्वरूपम् ४४९ यानपि मुरासंसर्गः, यद्वा पायसादिपवित्रभोक्तव्यपदार्थे क्षतादिक्षरद्रक्त-पूयादिविन्दुमात्रस्यापि मिश्रणम् । भावतः—विशुद्ध आहारादावाधाकर्मादिदोपपितानादेः सिक्थमात्रेणापि मेलनम्, तदशनेन च साधूनां चारित्रमालिन्यं भवतीति भावपूतिरभिधीयते । • दोपोऽयमाधाकर्मादिदोपपितान्नादिसंसृष्टहस्तभाजनादिनिमित्तेनापि सम्भ• यति । - ४-आहतं साधुनिमित्तं गृहादितोऽभिमुखमानीतम् । ५-'अज्झोयरय' इति लुप्तविभक्तिकं पदम् , 'अध्यवपरक' मिति तच्छाया, स्वार्थ पाकक्रियायां समारब्धयां खाने योग्य खीर आदिमें रक्त पीप आदि अपवित्र पदार्थका मिल जाना। (२) विशुद्ध आहार आदिमें आधाकर्मी आदि दोपोंसे दूपित अन्नका एक भी सीध (कण) मिल जाना, भाव-पूतिकर्म है। ऐसा आहार लेनेसे मुनियोंके चारित्रमें मलिनता आजाती है, इस कारण इसे भावपूति कहते हैं। आधाकर्मी दोपसे दृपित अन्न आदिसे भरे हुए हाथ या वर्तनके निमित्तसे भी यह दोप लग जाता है। [४]-आवृत-साधुके लिये साधुके सामने लाया हुआ आहार आदि अभ्याहृत कहलाता है, ऐसा आहार लेना अभ्याहृत-दोप-पित आहार है। [५] अध्यवपूरक-अपने लिये भोजन बनाना प्रारम्भ किया हो उस समय, 'गाँवमें साधु पधारे हैं' यह सुनकर और अधिक मिला कर લેહી પરૂ આદિ અપવિત્ર પદાર્થનું પડી જવું. (૨) વિશુદ્ધ આહારાદિમાં આધાકમી આદિ દેથી દૂષિત અન્નને એક પણ કણ મળી જ એ ભાવપૂતિ કર્મ છે. એ આહાર લેવાથી મુનિઓના ચારિત્રમાં મલિનતા આવી જાય છે. તેથી તેને ભાવપૂતિ કહે છે. આધાકમી દેવથી દૂષિત અન્નાદિથી ભરેલા હાથ યા વાસણના નિમિત્તથી પણ એ દેવ લાગી જાય છે. (૪) આદત-સાધને માટે સાધુની સામે લાવેલો આહાર આદિ અભ્યાહત કહેવાય છે. એ આહાર અભ્યાહત દેશ-દ્રુષિત આહાર છે, . (૫) અધ્યવપૂરક-પિતાને માટે ભેજન બનાવવાને પ્રારંભ કર્યો હોય, તે સમયે ગામમાં સાધુ પધાયા છે' એમ સાંભળીને બીજું વધારે મેળવીને બના Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ श्रीदशकालिको • ७-~-परकीयद्रव्य-मायाभ्यो सीयेन द्रव्येण । ८-~-परकीय-द्रव्य मावाभ्यां स्वकीयेन मायेन । ९-स्वकीय-द्रव्य-माराभ्यां परकीय-द्रव्यभावाभ्यान क्रीतम्, इति । एप च दोष उद्गमदोपान्तर्गतत्वेन गृहस्थोत्थितः, उक्त"सोलस उग्गम-दोसे, गिहिणो उ समुहिए बियाणादि । उपायणा य दोसे, साहूओ समुटिए जाण ॥ १॥ इवि' ३-पूतिकर्म-पूते अपवित्रस्य कर्ममिलनरूपं पूतिकर्म लक्षणया तेन युक्तं पूतिकर्म । पूतिकरणं द्रव्यभावमेदाद्विपकारकम् , तत्र द्रव्यतो यथा-शुचिद्रव्येऽपवित्र-सम्मेलन, यथा पेय-पयःपरिपूरितपात्रेऽल्पा ७-परके द्रव्य-भावसे अपने न्यसे। ८-परके द्रव्य-भावसे अपने भावसे। ९-अपने द्रव्य-भावसे और परके द्रव्य-भावसे खरीदा हुआ। यह क्रीतकृत दोप, उद्गमदोपोंके अन्तर्गत है, इसलिये गृहस्थक बारा लगता है। कहा भी है "सोलह उद्गम दोप, गृहस्थके द्वारा लगते हैं और उत्पादना दोष, साधु द्वारा लगते हैं।" [२] पूतिकर्म-पवित्र वस्तुमें अपवित्र वस्तुके मिल जानेको पूतिकर्म कहते हैं, यह दो प्रकारका है-(१)-द्रव्य-पूतिकर्म और (२) भाव-पूर्तिकमा (१)-पवित्र द्रव्यमें अपवित्र द्रव्य मिलाना द्रव्य-पूति-कर्म है, जैसें पीन योग्य धसे भरे हुए वर्तनमें धोडीसी भी मदिराका मिलजाना, अथवा ૭ પરના દ્રવ્ય-ભાવથી પિતાના દ્રવ્યથી. ८ ५२ना द्रव्य साथी पोताना माथी. ૯ પિતાના દ્રવ્ય-ભાવથી અને પરના દ્રવ્ય ભાવથી ખરીદેલ. એ ક્રિતિકૃત દેષ ઉદ્દગમ દોષની અંદર રહેલું છે, તેથી કરીને ગૃહસ્થની દ્વારા લાગે છે. કહ્યું છે કે-“સેળ ઉદ્દગમદોષ ગૃહસ્થદ્વારા લાગે છે અને ઉપદનાદેશ સાધુકારા લાગે છે.” (3) પૂતિકર્મ-પવિત્ર વસ્તુમાં અપવિત્ર વસ્તુ મળી જાય તેને પૂતિક छ. मे प्रा२नु छे. (१) य-पूतिम सने (२) माप-पुतिम. (१) पवित्र દ્રવ્યમાં અપવિત્ર દ્રવ્ય મેળવવું એ દ્રવ્ય-પૂતિક છે, જેમકે પીવા ગ્ય દૂધથી ભરેલા વાસણમાં થોડીક મદિરાનું મળી જવું, અથવા પીવા ચગ્ય ખીર આદિમાં Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ.१गा. ५५-आहताधाहारस्वरूपम् यानपि सुरासंसर्गः, यद्वा पायसादिपवित्रभोक्तव्यपदार्थे क्षतादिक्षरद्रक्त-पूयादिविन्दुमात्रस्यापि मिश्रणम् । भावतः-विशुद्ध आहारादाबाधाकर्मादिदोपद्घितानादेः सिस्थमात्रेणापि · मेलनम् , तदशनेन च साधूनां चारित्रमालिन्यं भवतीति भावपूतिरभिधीयते । - दोपोऽयमाधाकर्मादिदोपपितान्नादिसंमष्टहस्तभाजनादिनिमित्तेनापि सम्भचति । - ४-आहृतं साधुनिमित्तं गृहादितोऽभिमुखमानीतम् । ५-'अझोयरय' इति लाविभक्तिकं पदम् , 'अध्यवपूरक' मिति तच्छाया, स्वार्थ पाकक्रियायां समारब्धायां खाने योग्य खीर आदिमें रक्त पीप आदि अपवित्र पदार्थका मिल जाना। (२) विशुद्ध आहार आदिमें आधाकर्मी आदि दोपोंसे दूपित अन्नका एक भी सीथ (कण) मिल जाना, भाव-पूतिकर्म है। ऐसा आहार लेनेसे मुनियोंके चारित्रमें मलिनता आजाती है, इस कारण इसे भावपूति कहते हैं। आधाकर्मी दोपसे दुषित अन्न आदिसे भरे हुए हाथ या वर्तनके निमित्तसे भी यह दोप लग जाता है। [४]-आहृत-साधुके लिये साधुके सामने लाया हुआ आहार आदि अभ्याहृत कहलाता है, ऐसा आहार लेना अभ्याहृत-दोप-दूषित आहार है। - [२] अध्यवपूरक-अपने लिये भोजन यनाना प्रारम्भ किया हो उस समय, 'गाँवमें साधु पधारे हैं। यह सुनकर और अधिक मिला कर લેહી પરૂ આદિ અપવિત્ર પદાર્થનું પડી જવું. (૨) વિશુદ્ધ આહારાદિમાં આધાકર્મી આદિ દેથી દૂષિત અન્નને એક પણ કણ મળી જ એ ભાવપૂતિ કર્મ છે. એ આહાર લેવાથી મુનિઓના ચારિત્રમાં મલિનતા આવી જાય છે. તેથી તેને ભાવપૂતિ કહે છે. આધાકમી દેવથી દૂધિત અન્નાદિથી ભરેલા હાથ યા વાસણના નિમિત્તથી પણ એ દેપ લાગી જાય છે. (૪) આહુત-સાધુને માટે સાધુની સામે લાવેલો આહાર આદિ અભ્યાહત કહેવાય છે એ આહાર અભ્યાહતદેષદૂષિત આહાર છે. (૫) અથવપૂરક-પિતાને માટે ભેજન બનાવવાનો પ્રારંભ કર્યો , તે સમયે ગામમાં સાધુ પધાયા છે' એમ સાંભળીને બીજું વધારે મેળવીને બના Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० श्रीदवेकाकि ग्रामे साधुसमागमनं निशम्य तदर्थमधिकनिक्षेपणेन सम्पादितमिति तदर्थः । इदमत्र हृदयम् - यद्येवमन्यलिङ्गनिमित्तमधिकं पूरितं तत्र तानानन्तरमवशिष्टमन्नादिकं साधुभिर्ग्रा, तत्रान्तरायदीपानयतारादिति । ६ - प्रामित्यं = साधुनिमित्तमुद्वाररूपेण कुतश्विदानीय दीयमानम् 13- मिश्रजातं = मिश्रेण मिश्रभावेन पूर्वत एव दातृ-मिश्राचरोभयानुसन्धानेनेत्यर्थः जातं = निष्पन्नम् । तद्विविधं सामान्य मिश्रजातं विशेषमिश्रजातं चेति, तत्र - सामान्यमिश्रजातं = सामान्यरूपेण स्वपोष्यवर्गार्थे गृहस्थागृहस्थसाधु-पाखण्डिमभृतिभिक्षाचरार्थञ्चैकत्र रन्धितम्, विशेष मिश्रजातं यद्दानिमि १ पूर्वतः = पाकार्थे मत्तेः मागेव । बनाया हुआ आहार अध्यवपूरक कहलाता है, तात्पर्य यह कि यदि अन्यलिङ्गियोंके निमित्त अधिक आहार मिला कर बनाया हो तो उन्हें दे देनेके बाद बचा हुआ आहार, साधुओंको ग्राह्य है, क्योंकि वहाँ अन्तराय-दोप नहीं लगता.। [६] प्रामित्य-साधुके निमित्त कहीं से उधार लेकर दिया जानेवाला आहार, प्रामित्य कहलाता है । [७] मिश्रजात - पहले से ही दाता और भिक्षु दोनोंके लिये बनाया हुआ आहार, मिश्रजात है । मिश्रजात के दो भेद हैं- ( १ ) - सामान्य मिश्रजात और (२)-विशेष मिश्रजात । (१) - साधारण तौर पर अपने पोष्यवर्गके लिये तथा गृहस्थ, अगृहस्थ, साधु, पाखण्डी आदिके लिये मिलाकर रांधा हुआ आहार सामान्य मिश्रजात' कहलाता है। (२) -जो आहार आदि अपने लिये વેલેા આહાર અધ્યવપૂરક કહેવાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે જે અન્યલિંગી ( અન્યધમી એ )ને નિમિત્તે વધારે આહાર મેળવીને બનાવ્યેા હાય તો તેને આપી દીધા પછી વધેલા આહાર સાધુઓને માટે ગ્રાહ્ય અને છે, કારણ કે તેમાં અંતરાય દોષ લાગતા નથી. ८ (૬) પ્રામિત્ય-સાધુને નિમિત્તે કહીંથી ઉધાર લાવીને આપવામાં આવેલે આહાર પ્રામિત્ય કહેવાય છે. (૭) મિશ્રજાત–પહેલાં જ દાતા અને ભિક્ષુ બેઉને માટે બનાવેલ આહાર भिश्रमत छे. भिश्रन्नतना में लेह छे. (१) सामान्य-मिश्रलत (२) विशेष-मिश्र જાત. (૧) સાધારણ રીતે પેાતાના પાથ્યવર્ગને માટે તથા ગૃહસ્થ, અગૃહસ્થ, સાધુ પાખંડી આદિને માટે એકઠી કરીને રાંધેલે આહાર સામાન્ય કહેવાય છે + Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ५६ - निःशङ्किताहारग्रहणाज्ञा ४५१ केवलं साधुनिमित्तश्च सहैव निष्पन्नमन्नादिकम्, तद् विवर्जयेत् = परित्यजेत् न गृह्णीयादित्यर्थः साधुरिति शेषः । औद्देशिका ध्यत्रपूरक-मिश्रजातेषु परस्परमेप विशेषःऔदेशिकं - पाकमवृत्त्यनन्तरं साध्यागमनात्मागेकमेव साधुं सामान्यरूपेण विशेपरूपेण वोद्दिश्य सम्पादिते सम्भवति । अध्यत्र पूरकं = साधुसमागमश्रवणसमनन्तरमधिकनिक्षेपेण जायते । मिश्रजातं - पाकमवृत्तिसमय एव गृहस्थ- भिक्षाचरयोः कृते संमिश्रितेऽन्नादौ समुत्पद्यते ।। ५५ ।। ७ ૫ ૧ २ 3 ४ मूलम् - उग्गमं से अ पुच्छिज्जा, कस्सहा केण वा कडं ? | ટ્ ૧૧ ૧૨ 13 १० सुच्चा निस्संकियं सुद्धं, पडिगाहिज्ज संजओ ॥५६॥ छाया——उद्गमं तस्य च पृच्छेत्कस्यार्थं केन वा कृतम् ? | श्रुत्वा निःशङ्कितं शुद्धं, प्रतिगृह्णीयात्संयतः ॥५६॥ १ इतर भिक्षाचरव्यतिरेकेण । और साधुके लिये मिलाकर बनाया जाय उसे 'विशेषमिश्रजात' कहते हैं । ऊपर कहे हुए सब प्रकारके आहारका अनगारको परिहार करना चाहिये । औदेशिक, अध्यवपूरक और मिश्रजात दोषोंमें यह भेद है- भोजन बनाने में प्रवृत्त होनेके पश्चात् और साधुके आने से पहले, किसी भी एक साधुके लिये अथवा अमुक एक साधुके लिये बनाये हुए आहारमें औदेशिक दोष होता है । आहार बनाते समय, साधुका आगमन सुन कर अधनमें अधिक ऊर ( डाल ) कर बनानेसे अध्यवपूरक दोप होता है। भोजन बनाते समय, गृहस्थ और भिक्षु, दोनोंके लिये भोजन चनानेसे मिश्रजात दोष लगता है ॥५५॥ (૨) જે આહાર આદિ પેાતાને માટે અને સાધુને માટે એકઠા કરીને મનાવવામાં આવે તેને વિશેષ-મિશ્રાત કહે છે. ઉપર કહેલા બધા પ્રકારના આહારને અણુગારે પરિહાર કરવુ જોઇએ. ઔદ્દેશિક, અધ્યવપૂરક અને મિશ્રન્નત માં આ ભેદ છે ભેજન અનાવવામાં પ્રવૃત્ત થયા પછી અને સાધુ આવ્યા પહેલાં, કાઇ પણ એક સાધુને માટે અથવા અમુક એક સાધુને માટે બનાવેલા આહારમાં ઔદ્દેશિક ઢાપ લાગે છે. આહાર બનાવતી વખતે સાધુનું આગમન સાંભળીને આંધણુમાં વધારે એરી દેવાથી અધ્યવપૂરક દોષ લાગે છે. ભાજન બનાવતી વખતે ગૃહસ્થ અને ભિક્ષુ બેઉને માટે લેાજન બનાવવાથી મિશ્રજાત દ્વેષ લાગે છે. (૫૫) Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५. भीदो कालिको ग्रामे साधुसमागमनं निशम्य तदर्यमधिकनिक्षेपणेन सम्पादितमिति तदर्थः । इद मत्र हृदयम्-योगमन्यलिनिमितमधिकं पूरितं, तत्र तानानन्तरमवशिष्टमन्नादि साधुभिदां, तत्रान्तरायदोपानरतारादिति। ६-प्रामिस्पं साधुनिमित्तमदाररूपेण फुलविदानीय दीयमानम् ।७ मिश्रनातंमिश्रेण मिश्रमावेन 'पूर्वत एव दाल-मिलाचरोमपानुसन्धानेनेत्यर्थः जातं-निष्पन्नम् । तद्विविधं सामान्यमिश्रनातं विशेषमि नातं चेति, वत्र-सामान्यमिश्रनातं सामान्यरूपेण स्वपोप्यवर्गार्थ गृहस्थायहस्थसाधु-पाखण्डिमभृतिभिक्षावरार्थश्चैका रन्धितम् , विशेपमिश्रनातं यानिमित्त १ पूर्वतः पाकार्य प्रत्तेः मागेत्र । बनाया हुआ आहार अध्ययपूरक कहलाता है, तात्पर्य यह कि याद अन्यलिङ्गियोंके निमित्त अधिक आहार मिला कर बनाया हो तो उन दे देनेके याद घचा हुआ आहार, साधुओंको ग्राह्य है, क्योंकि वहा अन्तराय-दोप नहीं लगता. [६] प्रामित्य-साधुके निमित्त कहींसे उधार लेकर दिया जानेवाला आहार, प्रामित्य कहलाता है। [७] मिश्रजात-पहलेसे ही दाता और भिक्षु दोनोंके लिये बनाया हुआ आहार, मिश्रजात है। मिश्रजातके दो भेद हैं-(१)-सामान्य मिश्रजात और (२)-विशेष मिश्रजात । (१)-साधारण तौर पर अपने पोष्यवर्गके लिये तथा गृहस्थ, अगृहस्थ, साधु, पाखण्डी आदिके लिये मिलाकर रांधा हुआ आहार "सामान्य मिश्रजात' कहलाता है । (२)--जो आहार आदि अपने लिय વેલે આહાર અધ્યપૂરક કહેવાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે જે અન્યલિંગી (અન્યધમીઓને નિમિત્તે વધારે આહાર મેળવીને બનાવ્યું હોય તો તેને આપી દીધા પછી વધેલે આહાર સાધુઓને માટે ગ્રાહ્ય બને છે, કારણ કે તેમાં અંતરાય દેષ લાગતું નથી. (૬) પ્રામિંત્ય-સાધુને નિમિત્તે કહીંથી ઉધાર લાવીને આપવામાં આવેલા આહાર પ્રામિત્ય કહેવાય છે. (૭) મિશ્રજાત પહેલાં જ દાતા અને ભિક્ષુ બેઉને માટે બનાવેલે આહાર भिन्नत छ. भिन्नतना छे. (१) सामान्य- भिनत (२) विशेष-भ જાત. (૧) સાધારણ રીતે પિતાના પપ્પવર્ગને માટે તથા ગૃહસ્થ, અગ્રહસ્થ, સાધુ પાખંડી આદિને માટે એકઠો કરીને રાંધેલા આહાર “સામાન્ય-મિ, ' કહેવાય છે. Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १० अध्ययन ५ उ. १ गा. ५७-५८-पुष्पादिमिश्रिताहारनिषेधः ४५३ सान्वयार्थः-असणं पाणगं वावि खाइमं तहा साइमं अशन पान खादिम तथा स्वादिम (यदि) पुप्फेसु-सचित्त फूलोंसे बीएसु-शालि आदि बीजोंसे वाअथवा हरिएसु-दरित कायसे उम्मीसं-मिश्रित होजन्हो तो वह भत्तपाणं तु अशनादि संजयाणं साधुओंके लिए अकप्पियं-अकल्पनीय भवे है, (अतः) दितियं-देती हुईसे साधु पडियाइक्खे-कहे कि तारिसं-इस प्रकारका आहारादि मे मुझे (लेना) न कप्पइ-नहीं कल्पता है ॥५७||-५८॥ . टीका-'असणं.' इत्यादि, 'तं भवे०' इत्यादि च । यदशनादिकं सचित्तपुष्प-धीज-हरितकायैरुन्मिश्र=संयुक्तं भवेत्तदकल्प्यमिति वाक्यार्थः । सूत्रे 'पुप्फेम' इत्यादौ तृतीयार्थे सप्तमी ॥५७।५८॥ मूलम्-असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा। उदगम्मि होज निक्खित्तं, उत्तिंगपणगेसु वा ॥५९॥ ૧૩ ૧૮ : ૧૪ ૧૫ ૧૬ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं । ર૦ ર૩ રર ર૪ ર૧ दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥६०॥ छाया-अशनं पानकं वापि, खाद्यं स्वाद्यं तथा । उदके भवेनिक्षिप्तमुत्तिङ्गपनकेपु वा ॥५९॥ तद्भवेद्भक्त-पानं तु, संयत्तानामकल्पिक(त) म् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादशम् ॥६०॥ सान्वयार्थः-असणं पाणगं वावि खाइमं तहा साइमं जो अशनादि चार प्रकारका आहार (यदि) उदगम्मि-सचित्त जलके ऊपर वा अथवा उत्तिंगपणगेसु-कीड़ियोंके दरके ऊपर या लीलन-फूलन पर निक्खित्तं रखा 'असणं०' इत्यादि, तथा 'तं भवे' इत्यादि। जो अशन पान आदि, सचित्त पुष्प, सचित्त धीज और हरितकायसे युक्त हो वह, संयमीके लिये कल्पनीय नहीं है, अतः ऐसा आहार देनेवालीसे साधु कहे किऐसा आहार मुझे नहीं कल्पता है ॥५७॥५८॥ असणं० धुत्या, तथा तं भवे० इत्यादि. २ मशनपान माह, सथित પુષ્પ, સચિન બીજ અને હરિતકાય (વનસ્પતિ) થી યુકત હોય તે સંચમીને માટે કલ્પનીય નથી, એટલે એ આહાર આપનારીને સાધુ કહે કે–એ આહાર भने नथी. (५७-५८) Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ भीदनौकालिकाने सान्चयार्थ:-से-उस आहारादिकी उग्गम उत्पत्ति पुच्छिज्जा-पूछ कि-(यह अशनादि) फस्सहा-किसके लिए चा और केण=किसने कडंबनाया है ?, फिर सुचापृहस्थके मुख से भशनादिकी उत्पति सुनकर (यदि वह) निस्संकियं भौशिक आदि शहारहित य और सुद्ध-निर्दोष हो तो संजए-साधु पडिगाहिज्ज-ग्रहण कर लेवे ॥५६॥ टीका-'उग्गम' इत्यादि । फस्यार्थ किंनिमित्तम , केन वा का कृतंनिप्पादितम् , अन्नादी 'विशुदमविशुद्धं वेति संशये निराकरणाय तस्य संशयितस्यानादेः उद्गमम् उद्गमनमुद्गमस्तम् उत्पत्तिमित्यर्थः, पृच्छेत् भतिवचनन ज्ञातुमिच्छेत् , श्रुत्वा प्रतिवचन'-मिविशेषः, संयतः शङ्किताऽऽहारग्रहणभीरुः साधुः, निःशङ्कित दोपशङ्कावर्जितम् अत एव शुद्ध-निरवधं प्रतिगृहीयात्-निरवचत्वेन निश्चये सतीति भावः ॥ ५६ ॥ मूलम्-असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । पुप्फेसु होज उम्मीसं, वीएसु हरिएसु वा ॥५७॥ ૧૪ ૧૯ ૧૫ ૧૬ ૧૭ तं भवे भत्त-पाणं तु, संजयाण अकप्पियं । ૨૪ ૨૩ ૨૫ ૨૨, दितियं पडियाइक्वे, न मे कप्पइ तारिसं ॥५॥ छाया-अशनं पानकं वापि, खाचं स्वायं तथा । पुप्पैर्भवेदुन्मिथ, वीजैईरिता ॥५७।। तद्भवेद्भक्त-पानं तु, संयतानामकल्पिक(त)म् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥५८॥ 'उग्गमं०' इत्यादि । 'आहार अशुद्ध है या विशुद्ध है' इस प्रकारका सन्देह होने पर साधु, ऐसा पूछ लेवें कि यह आहार, किसके लिय बनाया गया है और किसने बनाया है, इसका उत्तर सुन कर निरः वद्यताका निश्चय करके निःशंकित अत एव निरवद्य आहार हो तो साधु, ग्रहण करें ॥५६॥ STનં. ઈત્યાદિ. “આહાર અશુદ્ધ છે કે વિશદ્ધ છે” એ પ્રકારને સદેહ પડતાં સાધુ એવું પૂછી લે કે આહાર કેને માટે બનાવેલ છે અને તેણે બનાવ્યા છે ?, એને ઉત્તર સાંભળીને નિરવઘતાને નિશ્ચય કરીને નિઃશંક્તિ, એટલે નિરવદ્ય આહાર હોય તો સાધુ ગ્રહણ કરે. (૫૬) Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ मा ५९-६४ - तेजोविराधनायामाहारनिषेधः ४५५ खादिम स्त्रादिम तेउम्मि= तेजस्काय पर निक्खित्तं = रखा हुआ हुज्ज= हो च= अथवा तं =उस तेजस्कायको संघट्टिया = संघट्टा (छू) करके दए - देवे तो तं बह भत्तपाणं तु अशनादि संजयाणं = साधुओंके लिए अकप्पियं =अकल्पनीय भवे = है, (अतः) दितियं = देती हुईसे साधु पडियाइक्खे = कहे कि तारिस = इस प्रकारका आहारादि मे = मुझे न कप्पड़ नहीं कल्पता है || ६१ ॥ ६२ ॥ टीका- 'असणं' इत्यादि, 'तं भवे०' इत्यादि च । यदशनादिकं तेजसि= तेजस्कायोपरि निक्षिप्तं = निहितं भवेत् यच तत् = तेजः अग्निकायमित्यर्थः, संघट्टच = संस्पृश्य दद्यात्, तत् = उभयविधं भक्तपानं तु संयतानामकल्पिकं (तं भवेत्, अतस्तहृदतीं प्रत्याचक्षीत - तादृशं मे न कल्पत इति ॥ ६१ ॥ ६२ ॥ | ૧ ૨ 3 ४ ૫ मूलम् - एवं उस्सिकया ओसिक्किया, उज्जालिया पज्जालिया । ७. १० ૧૧ निवाविया उस्सिचिया, निस्सिचिया ओवत्तिया ओयारिया दए ॥ ६३ ॥ ८ ૧૨ १७ १३ ९४ ૧૫ ૧૬ तं भवे भत्त-पाणं तु, संजयाण अकप्पियं । ૧. ૧૯ २२ २१ २३ २० दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ॥ ६४ ॥ छाया - एवम् उत्क्षिप्य अवक्षिप्य उज्ज्वाल्य प्रज्वाल्यू | निर्वाप्य उत्सिच्य, निषिच्य अपवर्त्य अवतार्य दद्यात् ॥६३॥ तद्भवेद्भक्त पानं तु, संयतानामल्पिक (त) म् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् || ६४॥ अग्निकाय के साक्षात संघट्टेका निषेध करके अब परम्परा संघट्टेका निषेध करते हैंसान्वयार्थः = एवं = जिस प्रकार अग्निकायको स्पर्श करके दिया जानेवाला अशनादि नहीं लेते, उसी प्रकार उस्सिक्किया = चूल्हे आदिमें इन्धनको अन्दर 'असणं' इत्यादि, तथा 'तं भवे०' इत्यादि । जो अशन पान आदि, तेजस्काय पर रक्खा हो अथवा अनिकायका संघट्टा करके देवे तो वह, साधुके लिये ग्राह्य नहीं है । अतः देनेवाली से कहे कि -' ऐसा आहार, मुझे नहीं कल्पता है ॥ ६१ ॥ ६२ ॥ असणं० छत्याहि, तथा तं भवे० પર રાખેલા હેય અથવા અગ્નિકાયનું ગ્રાહ્ય નથી. એટલે તે આપનારીને नथी.' (६१-६२) ४त्याहि ने मशन पान साहि तेरडाय સંઘટન કરીને આપે તે તે સાધુને માટે સાધુ કહે કે એવા આહાર મને કલ્પતા " Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ श्रीशने कालिकसूत्रे हुआ होज्ज=दो तो तं=ह भत्तपाणं तुभशनादि संजयाणं साधुअंक लिए अकप्पियं=अकल्पनीय भवे = है, (अतः) दितियं देती हुईसे साधु पडियाले= कहे कि तारि= इस प्रकारका महारादि मेने (टेना) न कप्पड़ नहीं कल्पता है ॥५९॥६०॥ टीका- 'असणं' इत्यादि, 'तं भवे० ' इत्यादि च । यदशनादिकमुके सचिचजलोपरि, उचिङ्गपनकादिपु उषिताः = भूमी वर्तुलविवर विधायिनो गर्दभमूखाऽऽकृतयः क्षुद्रकीटविशेषाः, फीटिफानगरादयों वा, पनक: अङ्कुरितोऽनङ्कुरितो वा पञ्चवर्णानन्तकाय वनस्पतिविशेषः, तत्र निक्षिप्तं = स्थापितं भवेत्, तद्भक्त पानं संयतानामकल्पिक (त) - मित्यादि पूर्ववत् ॥ ५९ ॥ ६० ॥ १ २ ૫ 15 मूलम् - असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । . ૧૦ ११ १३ १२ ૧૪ तेउम्मि हुज्ज निक्खित्तं, तं च संघट्टिया दए ॥ ६१॥ 6 ૧૫ ૨૦ 15 १७ ૧૮ ૧૯ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं । ૧ २१ २५ २४ २९ २३ दिंतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ॥ ६२ ॥ छाया - अशनं पानकं वापि, खाद्यं स्वाद्यं तथा । तेजसि भवेन्निक्षिप्तं तच्च संघट्टय दद्यात् ॥ ६१ ॥ तद्भवेद्भक्तपानं तु, संयतानामकल्पिक (त) म् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ||६२|| सान्वयार्थ :- असणं पाणगं वावि खाइमं तहा साइमं जो अशन पान असणं० ' इत्यादि, तथा 'तं भवे० ' इत्यादि । जो अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य सचित्त जल पर रखा हुआ हो तथा किडीनगर (चिउँटियोंके समूह ) या लीलन- फूलन पर रक्खा हो वह, संयमियोंके लिये कल्प्य नहीं है, अतः ऐसा आहार देनेवालीसे कहे कि ' ऐसा आहार मुझे कल्पता नहीं है ' ॥ ५९ ॥ ६० ॥ असणं० छत्याहि, तथा तं भवे० त्याहि ? अशन, पान, खाद्य, स्वाध સચિત્ત જળ પર રાખેલે હેાય, તથા કીડીનગર ( કીડીઓને સમૂહ) ચા લીલન-ફૂલન પર રાખેલા હાય, તે સંચમીએને માટે કલ્પનીય નથી. એટલે એવા આહાર આપનારીને સાધુ કહે કે એવા આહાર મને કલ્પતે નથી.’’(૫૯-૬૦) Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ अध्ययन ५ उ.१ गा. ६५-६६-दुर्गममार्गगमननिषेधः ४५७ निधाय, अवतार्य=अन्नादिसहितं भाजनमेवोत्तार्य वा दद्यात् , तद्भक्त पानं तु संयतानामकल्पिक(त) भवेदतस्तद्ददती प्रत्याचक्षीत-'तादृशं मे न कल्पते' इति ६३॥६४॥ .. मूलम् हुज्ज कटं सिलं वावि, इटालं वावि एगया। __ . . १२ १३ १५ १४ । ठवियं संकमहाए, तं च होज चलाचलं ॥६५॥ न तेण भिक्खू गच्छेजा, दिवो तत्थ असंजमो। गंभीरं झुसिरं चेव, सबिदिय-समाहिए ॥ ६६ ॥ छाया-भवेत्काप्ठं शिला वाऽपि, इट्टालं वाऽप्येकदा । स्थापितं संक्रमाणे, तच्च भवेच्चलाचलम् ॥६५॥ . न तेन भिक्षुर्गच्छेदृष्टस्तत्रासंयमः ॥ गम्भीरं शुपिरं चैव, सर्वेन्द्रिय-समाहितः ॥ ६६ ॥ सान्वयार्थ:-एगया=किसी समय अर्थात् वर्षा आदिके समय संकमाए जाने-आनेके लिए कर्ट काठ वावि या सिलं-शिला वावि अथवा इट्टालंईटका टुकड़ा ठवियं-रखा हुआ हुन्ज हो च और तं-वह (यदि) चलाचलं अस्थिर-डग-मगाता हुज्ज-हो तो तेण-उस मार्ग से तथा जो गंभीरं-उंडा-गहरा और झुसिरं-पोला स्थान हो उससे सबिदियसमाहिए-समस्त इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाला भिक्खू-साधु न गच्छेज्जा नहीं जावे, (क्योंकि) तत्थ-वहां पर केवली भगवानने असंजमो असंयम दिट्ठो देखा है ॥६५॥६६॥ . टीका-हुज्ज कढ०' इत्यादि, 'न तेण' इत्यादिच! एकदा एकस्मिन् काले वर्पादौ यत् काष्ठं-सञ्चरणोपयोगि दारु, अपिवा शिला-प्रस्तरखण्डम् अपिवा वर्तनको नीचे उतार कर यदि आहार देवे तो वह आहार अनगारके लिये ग्रहण करने योग्य नहीं है। अतः देनेवालीसे कहे कि-'ऐसा आहार मुझे नहीं कल्पता है॥६३ ॥ ६४॥ 'हुन्ज कटुं०' इत्यादि, तथा 'न तेण०' इत्यादि। नदी आदिमें बरसात आदिके समय, जाने-आनेके लिये जो काठ, ઊતારીને જે આહાર આપે છે તે આહાર અનગાર ને માટે ગ્રહણ કરવા યોગ્ય નથી मेटले ते आपनारीने साधु ४९ है-'मे 201२ भने ४६पता नथी.' (१३-१४) हुज्ज कटुं० ईत्यादि तथा न तेणत्याहि. નદી આદિમાં વરસાદને વખતે આવવા-જવા માટે જે લાાં, પત્થર, ઈટ Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ श्रीकालिकसूत्रे सरका कर ओसिफिया=अधिक इन्धनको चूल्हेके भन्दरसे बाहर निकालकर उज्जालिया मुझी हुई भूमि को फूंक आदि उरीपित सलगा कर पज्जालिया= जलती हुई अमिको अधिक मदीस कर निव्याविया = अमिको पानी आदिसे घुझाकर उस्सि चिया=भमिपर पकते हुए अन्नादिको कुछ बाहर निकाल कर निस्सिचिया उमरते हुए दुग्धादिमें जल छिड़ककर ओवरिया = अप्रिपर रहे हुए अन्नादिको दूसरे परतनमें निकालकर ओयारिया=अप्रिपर रहे हुए अना दिके पतनको नीचे उतारकर अर्थात् अनिकायका परम्परासे संघट्टा करके दग= अशनादि देवे तो तंत्र भत्तपाणं तु भवनादि संजयाणं = साधुओं के लिए अकप्पियं =अकल्पनीय भवे है, (अतः) दितियं देती हुईसे साधु पडियाइक्खे = कहे कि तारिसं=इस प्रकारका आहारादि मे = मुझे (लेना) न कप्पड़नहीं पता है ||६३ ॥६४॥ - * टीका- 'एचं०' इत्यादि, 'तं भवे०' इत्यादि च । एवम् उक्तप्रकारेण तेजस्कायविपय इवेति भावः, उत्क्षिप्य = 'यावत्कालं साधवेन्नादिकं ददामि तावत्कालमर्मा प्रशाम्यतु' इति बुद्धया चुल्लयादाविन्धनमुत्सार्य, अत्रक्षिप्य = दाइभयादिन्धनं निःसार्य, उज्ज्वाल्य अनुज्ज्वलितं फूत्कारादिनोद्दीप्य, प्रज्वाल्य-उद्दीप्तं, प्रकर्षेण संवर्ध्य, निर्वाप्य=प्रशान्तीकृत्य, उत्सिच्य= अग्न्युपरिस्थितमन्नादिकं किञ्चिअहिष्कृत्य, निपिच्य= उद्वलदुग्धादिकं जलेन प्रशाम्य, अपवर्त्य भाजनान्तरे ' एवं उस्सिक्किया० ' इत्यादि, तथा 'तं भवे' इत्यादि । 6 जब तक आहार देती हूं तब तक, अग्नि न वुझ जाय ' ऐसा विचार कर चूल्हे में इंधन सुलगाकर, अन्न आदि जलनेके भयसे इंधन बाहर निकाल कर, फूँक आदिसे चूल्हा जला कर, जलती अग्निको तेज कर या बुझाकर, अग्नि पर पकते हुए आहारको कुछ एक ओर कर, तथा पानी डाल कर उबाल (उफान ) को शान्त कर, अथवा अन्न आदि सहित एवं उस्सि किया० त्याहि, तथा तं भवे० धत्याहि. 1 · જ્યાં સુધી આહાર આપતી હાઉં, ત્યાં સુધી અગ્નિ હાલવાઇ ન જાય, એવા વિચાર કરીને ચૂલામાં ઈંધણાં સળગાવીને, અન્નાદિ ખળી જવાના ભયથી ઈંધણાં બહાર કાઢીને, કૈંક આદિથી ચૂલો સળગાવીને, બળતા અગ્નિને તેજ કરીને ચા ખુઝાવીને, અગ્નિ પર પાકતા આહારને કાઈ એક બાનુએ કરીને તથા પાણી નાંખીને ઊભરાને શાંત કરીને, અથવા અન્નદિ સહિત ત્રાસણને ' નીચે Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न तेण भिक्खू गच्छेज्जा, दिवो तत्थ असंजमो । अध्ययन ५ उ.१ गा. ६५-६६-दुर्गममार्गगमननिषेधः ४५७ निधाय, अवतार्य-अन्नादिसहितं भाजनमेवोत्तार्य वा दद्यात् , तद्भक्त-पानं तु संयतानामकल्पिक(त) भवेदतस्तद्ददती प्रत्याचक्षीत-'तादृशं मे न कल्पते' इति ६३॥६४॥ ११. २. ५ ४.३ ८ ... मूलम् हुज कटं सिलं वावि, इटालं वावि एगया। ૧૨ ૧૩ ૧૫ ૧૪ . ठवियं संकमट्टाए, तं च होज चलाचलं ॥६५॥ २५ स्थ असंजमो। गंभीरं झुसिरं चैव, सविदिय-समाहिए ॥६६॥ छाया-भवेत्काष्ठं शिला वाऽपि, इटालं वाऽप्येकदा । स्थापितं संक्रमार्थ, तच्च भवेच्चलाचलम् ॥ ६५ ॥ न तेन भिक्षुर्गच्छेदृष्टस्तत्रासंयमः ॥ गम्भीरं शुपिरं चैव, सर्वेन्द्रिय-समाहितः ॥ ६६ ॥ सान्वयार्थ:--एगया किसी समय अर्थात वर्षा आदिके समय संकमट्टाएजाने-आनेके लिए कहें काठ वाविया सिलं-शिला वाविअथवा इहालं ईटका टुकड़ा ठविध-रखा हुआ हुज-हो च और तंबह (यदि) चलाचलं अस्थिर-डग-मगाता हुज्ज हो तो तेण-उस मार्ग से तथा जो गंभीरं झंडा-गहरा और झुसिरं-पोला स्थान हो उससे सबिदियसमाहिए-समस्त इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाला भिक्ख साधु न गच्छेज्जा नहीं जावे, (क्योंकि) तत्थ-वहां पर केवली भगवानने असंजमो असंयम दिट्टो देखा है ॥६५॥६६॥ टीका-'हुज्ज कह०' इत्यादि, 'न तेण' इत्यादि च। एकदाएकस्मिन् काले वर्षादौ यत् काष्ठं-सश्चरणोपयोगि दारु, अपिवा शिला-पस्तरखण्डम् अपिवा वर्तनको नीचे उतार कर यदि आहार देवे तो वह आहार अनगारके लिये ग्रहण करने योग्य नहीं है। अतः देनेवालीसे कहे कि-'ऐसा आहार मुझे नहीं कल्पता है' ।। ६३ ॥ ६४ ॥ 'हुन्ज कटुं०' इत्यादि, तथा 'न तेण.' इत्यादि। नदी आदिमें बरसात आदिके समय, जाने-आनेके लिये जो काठ, ઊતારીને જે આહાર આપે છે તે આહાર અનાર ને માટે ગ્રહણ કરવા યોગ્ય નથી मेटो ते मापनारीने साधु - वो आडार भने ४६५ते। नथी.' (१३-१४) हुन्ज कटुं० त्या तथा न तेणत्याहि. નદી આદિમાં વરસાદને વખતે આવવા-જવા માટે જે લાકડાં, પત્થર, ઈટ Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ श्रीदकालिको इटालमटकाशकलं, संकमा-गमनागमनार्य स्यापितम् आरोपितं मवेत्। तत्र फाप्ठादिकं यदि चलाचलम् अस्थिर फम्पमानं भवेत् तदा तेन काष्ठादिना सन्द्रिः यसमाहितः वशीकृतसफलेन्द्रियो मिसाधुः न गच्छेत् । 'चेव' शन्दः समुचये अपिवेत्यर्थः, गम्भीरं-निम्नत्वेन प्रकाशशून्यं, शुपिरंगहरवरसावकानं प्रदेशमिति शेपः, न गच्छेदिति पूर्वेण सम्बन्धः । अगमने हेतुमाह-तत्रेति, तत्र तस्मिन् असंयमा स्वपरविराधनादिरूपो एअवलोकितः केवलिभिरिति शेषः । चलाचलविशेपणककाष्ठादिपदेन प्रस्खलन-पतनादिनाऽऽरमविराधना, एकेन्द्रियः द्वीन्द्रियादिपाणिगणोपमर्दनेन पर-विराधनासम्भावना च मूचिता । गम्भीर रादिप्रदेशगमनेनापि प्रोक्तदोपसमधिकाहिंसादिजन्तुजनितोपघातादिप्रचुरदोषसम्भवः मूचितः । ___ 'सबिदियसमाहिए' इतिपदेन साधोरिन्द्रियविषयाऽऽसक्तिनिराकरणपत्थर या ईंट आदि रोप दिया हो और यदि वह हिलता हो तो समाधिमान संयमी, उस मार्गसे गमन न करे। और जो प्रदेश, नीचा होनस अन्धकारमय हो या खट्टेवाला हो उससे भी साधुको गमन नहीं करना चाहिये, क्योंकि ऐसे मार्गमें गमन करनेसे स्व-पर-विराधना-रूप असंयम केवली भगवान्ने देखा है। हिलते हुए काठ आदिपर चलनेसेरपटने या गिर पड़नेसे आत्मविराधः नाकी और एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय आदि प्राणियोंके उपमर्दनसे पर-विराधनाका सम्भावना सूचित की है। गहरे (नीचे) प्रदेशमें गमन करनेसे उक्त दोषोंके सिवाय हिंसक जन्तुओंसे उत्पन्न होनेवाला उपघात आदि बहुतसे दोषोंका होना सूचित किया है। 'सञ्चिदियसमाहिए' पदसे यह વગેરે રેપિલાં હોય અને જે તે હલતાં હોય તે સમાધિવાન સંયમી એ મા ગમન ન કરે અને જે પ્રદેશ નીચે હોવાથી અંધકારમય હાય યા ખાડાવાળા હાય તે માગે પણ સાધુએ ગમન કરવું ન જોઈએ, કારણ કે એવા માગ ગમન કરવાથી સ્વસ્થરવિરાધનારૂપ અસંયમ કેવળી ભગવાને જે છે. હલતાં લાકડાં આદિ પર ચાલવાથી લપસી જવાથી યા પડી જવાથી આત્મવિરાધનાની અને એકેન્દ્રિય કીન્દ્રિય પ્રાણીઓના ઉપમર્દનથી પરવિરાધનાની સંભાવના સૂચિત કરી છે. નીચાણવાળા પ્રદેશમાં ગમન કરવાથી ઉકત ઉપરાંત હિંસક જંતુઓથી ઉત્પન્ન થનારે ઉપઘાત આદિ ઘણા દે હોવાનું सथित यु छ. सन्विदियसमाहिए ५४थी मेम डपामा मा०यु छ साधुमार Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - - अध्ययन ५ उ. १ गा. ६७-६९-मालाहतभिक्षानिपेधः ४५९ परायणता प्रतिपादिता । 'भिक्खु' पदेन च यमनियमपूर्वकमेव भिक्षाग्राहित्वमिति बोधितम् ॥ ६५ ॥ ६६ ॥ मूलम्-निस्सेणिं फलगं पीढं, उस्सविताणमारुहे। मंचं कीलं च पासायं, समणहाए व दावए ॥६७॥ १८ रमाणीप डेजा, हत्थं पायं च लूसए। पुढवीजीवेवि हिंसेजा, जे य तन्निसिया जगे ॥६॥ एयारिसे महादोसे, जाणिऊण महेसिणो। રપ ૩૧ ૩૨ ૩૩ ૩૪ ૨૯ तम्हा मालोहडं भिक्खं,न पडिगिण्हंति संजया॥६९॥ छाया-निश्रेणि फलक पीठम्, उत्सृज्य आरोहेत् । मञ्चं कीलञ्च प्रासाद, श्रमणार्थमेव दायिका ॥६७॥ दुरा (द) रोहन्ती प्रपतेत , हस्तौ पादौ च लूपयेत् । पृथ्वीजीवानपि हिंस्या,-धानि च तन्निाश्रितानि जगन्ति ॥६८॥ एतादृशान्महादोपान् , ज्ञाला महर्षयः । तस्मान्मालापहृतां भिक्षां, न गृह्णन्ति संयताः ॥६९॥ सान्वयार्थः-दावए दान देनेवाली स्त्री यदि समणट्ठा एव-साधुके लिएही निस्सेणि-नसनी-निसरणी-सीढी फलगं-पाटे पीढं-पीढे मंच-खाट च और कोलंकीलेको उस्सचित्ताणं-ऊंचा-खड़ा करके पासायंभ्यासाद-मंजिल पर आरुहे-चढे तो दुरूहमाणी इस प्रकार कष्टसे चढती हुई वह पवडेज्जा-शायद गिर जायगी व और अपना हत्थं हाथ पाय-पैर लसए-तोड़ बैठेगी तथा पुढवीजीवे अवि-पृथिवीकायके जीवोंको भी च और जेम्जो तन्निस्सियाउस पृथ्वीकी नेसरायमें रहे हए जगे-द्वीन्द्रियादि जीव हैं उन्हें भी हिंसेज्जा मारेगी ॥६७॥६८॥ प्रकट किया गया है कि साधुओंको इन्द्रिय-चपलताका त्याग करना चाहिये । 'भिक्खु' पदसे घोतित किया गया है कि साधुओंको यमनियमाका पालन करते हुए ही भिक्षा ग्रहण करना चाहिये ॥६५॥६६॥ छन्द्रिय असताना त्यास १२ न. भिक्खु शपथी मेम प्रट ४२वामा આવ્યું છે કે સાધુઓએ યમ-નિયમનું પાલન કરતાં જ ભિક્ષા ગ્રહણ કરવી Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ श्रीदकालिको इटालमटकाशमलं, संगमार्य गमनागमनार्य स्थापितम् भारोपितं भवेत्, तब फाप्ठादिकं यदि चलायलम् अस्थिरं कम्पमानं भवेत् तदा तेन काष्ठादिना सान्दिः यसमाहितः वशीकृतसफलेन्द्रियो मि: साधुः न गच्छेत् । 'वे' भन्दः समुपये अपिचेत्ययः, गम्भीर-निम्नत्वेन प्रकाशशून्प, पिरं-बाहरवस्मारकानं प्रदेशमिति शेपः, न गच्छेदिति पूण सम्बन्यः । अगमने हेतुमार-तत्रेति, तरन्तस्मिन् असंयमः स्वपरविराधनादिरूपो अवलोकितः केवलिमिरिति शेषः । चलाचलविशेषणककाष्ठादिपदेन प्रस्खलन-पतनादिनाऽऽरमविराधना, एकेन्द्रियद्वीन्द्रियादिपाणिगणोपमर्दनेन पर-विराधनासम्भावना च भूचिता । गम्भीर रादिपदेशगमनेनापि प्रोक्तदोपसमधिकहिंसादिजन्तुजनितोपघातादिमचुरदोषसम्भवः भूचितः । 'सबिदियसमाहिए' इतिपदेन सापोरिन्द्रियविषयाऽऽसक्तिनिराकरणपत्थर या ईट आदि रोप दिया हो और यदि वह हिलता हो तो समाधिमान संयमी, उस मार्गसे गमन न करे। और जो प्रदेश, नीचा होनेस अन्धकारमय हो या खड़ेवाला हो उससे भी साधुको गमन नहीं करना चाहिये, क्योंकि ऐसे मार्गमें गमन करनेसे स्व-पर-विराधना-रूप असंयम केवली भगवान्ने देखा है। हिलते हुए काठ आदिपर चलनेसेरपटने या गिर पड़नेसे आत्मविराध नाकी और एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय आदि प्राणियोंके उपमर्दनसे पर-विराधनाकी सम्भावना सूचित की है। गहरे (नीचे) प्रदेशमें गमन करनेसे उक्त दोषोंके सिवाय हिंसक जन्तुओंसे उत्पन्न होनेवाला उपघात आदि बहुतसे दोषोंका होना सूचित किया है। 'सन्विदियसमाहिए' पदसे यह વગેરે રોપેલાં હોય અને જે તે હલતાં હોય તે સમાધિવાન સંયમી એ માર્ગે ગમન ન કરે અને જે પ્રદેશ ના હોવાથી અંધકારમય હાય યા ખાડાવાળા હાય તે માગે પણ સાધુએ ગમન કરવું ન જોઈએ, કારણ કે એવા માગે ગમન કરવાથી સ્વ-પર-વિરાધનારૂપ અસંયમ કેવળી ભગવાને જોયે છે. હલતાં લાકડાં આદિ પર ચાલવાથી લપસી જવાથી યા પડી જવાથી આત્મવિરાધનાની અને એકેન્દ્રિય કીન્દ્રિય પ્રાણીઓના ઉપમનથી પરવિરાધનાની સંભાવના સૂચિત કરી છે. નીચાણવાળા પ્રદેશમાં ગમન કરવાથી ઉક્ત ઉપરાંત હિંસક જંતુઓથી ઉત્પન્ન થનાર ઉપઘાત આદિ ઘણા દો હોવાનું अथित यु छ. सञ्चिदियसमाहिए ५४थी मेम अपामा मान्छे । साधुमारे Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ६७-६९-मालाहतमिक्षास्वरूपम् ४६१ श्रितानि जगन्ति माणिनस्तानि हिंस्यादिति पूर्वेण सम्बन्धः तस्मात यतो निश्रेण्यादिना समारोहणे पतनादिद्वारा दातुः स्व-परोभयविराधना सम्भवति अतः कारणात् एतादृशान् उक्तलक्षणान् महादोपान्दावप्रभृतीनां मृत्योरपि सम्भवेन दारुणकर्मविपाकहेतुत्वात्मकृष्टपणानि ज्ञात्वा संयता सकलसावधयोगसमुपरताः महर्षयः घोरपरीपहोपसर्गसहिष्णुत्वान्महामुनयः, मालापहृतां-मालो भूमिकावाची देशीयशब्दः, ततः अपहृताम् आनीतां भिक्षां न प्रतिगृह्णन्ति न स्वीकुर्वन्ति । ___मालापहृता भिक्षा भूमिकाया ऊर्धाधस्तियंग्भेदेन त्रिविधा-ऊधमालापहृता, अधोमालापहृता, तिर्यमालाऽपहता चेति । तत्रोर्ध्वमालापहृता पूर्व व्याख्याता। अधोमालाऽपहृता यस्या भूमिकाया निश्रेण्यादिनाऽवरुह्य आनीता । तिर्यमाला___ १ माल: 'मंजिल' इति भापापसिद्धः । तथा जो प्राणी, पृथ्वीपर सञ्चार कर रहे हों उनकी भी हिंसा होजाय, इसलिये ऐसी अवस्थामें स्व, पर और उभयकी विराधनाका होना सम्भव है, यहाँ तककि दाताकी मृत्यु भी हो जा सकती है, अतः इन महादोपोंको अत्यन्त दुःखदायी जान कर, संयमी महामुनि, नसैनी (सीढ़ी) आदि द्वारा माला (मंजिल) से उतारा हुआ आहार आदि स्वीकार नहीं करते ॥ ___मालाके भेदसे मालापहृत भिक्षा, तीन प्रकारकी है-(१) ऊर्ध्व-मालापहृत (२)-अधो-मालापहृत और (३)-तियंग्मालापहृत । इनमें, ऊर्ध्वमालापहृत भिक्षाका विवेचन, पहले कह आये हैं। ऊपरके मंजिलसे नीचेकी ओर नसैनी (निसरणी) लगाकर, लाई हुई भिक्षा, अधोमालाવિરાધના થાય, તથા જે પ્રાણી પૃથ્વી પર સંચાર કરી રહ્યા હોય તેમની પણ હિસા થઈ જાય; તેથી એવી અવસ્થામાં સ્વ, પર અને ઉભયની વિરાધના થવી સંભવિત છે, એટલે સુધી કે દાતાનું મૃત્યુ પણ થઈ જઈ શકે છે, તેથી કરીને એ મહાદેને અત્યંત દુઃખદાયી જાણીને સંયમી મહામુનિ નીસરણી આદિદ્વારા માળથી ઉતારેલો આહાર આદિ સ્વીકારે નહિ. __ भाण-महा-ना हे शने भातायात निक्षा र प्रारनी छे. (१) 6. भातापत, (२) अामाबापत मन (3) तिय-मालापाहत. सभा 4માલાપહત ભિક્ષાનું વિવેચન પહેલાં કરવામાં આવ્યું છે. ઉપરના મજલાથી નીચેની બાજુએ નીસરણી લગાવીને લાવેલી ભિક્ષા અહેમાલાપડુત કહેવાય છે. Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० भीषकारियो तम्हा-इसीलिए एयारिसे ऐसे पूर्वोक्त प्रकारके महादोसेन्दाताकी मृत्यु तक होनेफी संभावनाके कारण महादोषीको जाणिकण-जानकर संजयान सफल सावध व्यापारसे विरत हुए महेमिणो-मापि लोग मालोहामालापहन (मालसे लाई हुई) भिवं-मिक्षाको न पडिगिणहति-नहीं लेते। ॥६९|| ____टीका-मालापहतमिक्षादोपमाह-'निस्सेणि' इत्यादि । 'दावए' इत्यत्र माकृतत्याल्लिङ्गव्यत्ययस्तथा च दायिका-दात्री, श्रमणार्थमेव साधुनिमितमेव-साथवे भिक्षादानार्थमेवेत्यर्थः, निश्रेणि-वंशादिनिमितं सोपानं, फलकन्यनोपयोगि दारुमयाऽऽसनं, पीठं काष्ठनिमितोपवेशनोपयोगि लघ्वासन-'पाहा' इति मसिद्ध, मञ्च खवां वंशदलादिरचितोचासनं या, कोलंबई, चकारान् सलादिकम् उत्सृज्य-अर्चीकृत्य, मासादम-उचगृहं तत्रानेकभूमिकासम्भवना ऽऽरोहणादिकं युज्यत इति तद्भमिकायां लक्षणा, तया च-उचगृहभूमिकामित्यया, आरोहेद-उपलक्षणया गच्छेदित्यर्थः । तेन विसषु वक्ष्यमाणासु मालापहवास भिक्षासु समन्वयः। निश्रेण्यादिना सदुःखमारोहणं भवतीत्यत आह-दुरा (द। रोहन्ती सदुःखमूर्ध्वपदेशमासादयन्ती सती प्रपतेव, हस्तौ पादौ च लूपये त्रोटयेत् , पृथ्वीजीवानपि हिंस्यात्-पीडये, यानि च तन्निाश्रितानि-पृथिव्या मालापहृत भिक्षाके दोप बताते हैं-'निस्सेणि' इत्यादि, 'दुरूहमाणी' इत्यादि, तथा 'एयारिसे' इत्यादि। दाता, यदि साधुके लिये नसैनी, सीढी (निसरणी), पाटा, पीढा (धाजोट), मांचा, खूटी अथवा मूसल आदिको ऊँचा करके ऊच मकानकी दूसरी मंजिल पर चढ़ कर, आहार लावे तो वह आहार आदि मालापहृत कहलाता है। नसैनी (सीढी) आदि पर चढनेसे यदि गिर पड़े तो हाथ पैर टूट जायँ, पृथ्वीकाय-आदि जीवोंकी विराधना होजाय वे भातापत लिक्षानहोपो ता छ-निस्सेणिं त्याल, दुरुहमाणी. छत्याल, तया एयारिसे त्यादि. ने हात साधुन भाटे साद (नासा ), पार, माले, माया, भूर અથવા મૂશળ (સાંબેલું) આદિને ઉંચા કરીને ઉંચા મકાનના બીજા મજલા પર ચઢીને આહાર લાવે છે તે આહાર માલાપહત કહેવાય છે. સીડી આદિ પર ચડવાથી જે પડી જાય તે હાથ–પગ તૂટી જાય, પૃથ્વીકાય આદિ જીની Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अध्ययन ५ उ. १ गा. ६७-६९-मालाहृतभिक्षास्वरूपम् श्रितानि जगन्ति-माणिनस्तानि हिंस्यादिति पूर्वेण सम्बन्धः तस्मात यतो निश्रेण्यादिना समारोहणे पतनादिद्वारा दातुः स्व-परोभयविराधना सम्भवति अतः कारणात् एतादृशान्-उक्तलक्षणान् महादोपान्म्दावप्रभृतीनां मृत्योरपि सम्भवेन दारुणकर्मविपाकहेतुत्वात्मकृष्दूपणानि ज्ञात्वा संयता सकलसाक्प्रयोगसम्परताः महर्पयाम्योरपरीपहोपसर्गसहिष्णुत्वान्महामुनयः, मालापहृतांमालो भूमिकावाची देशीयशब्दा, ततः अपहताम् आनीतां भिक्षा न प्रतिगृह्णन्ति न स्त्रीकुर्वन्ति । ___ मालापहृता भिक्षा भूमिकाया ऊर्धाधस्तिर्यग्भेदेन त्रिविधा-अर्चमालापहृता, अधोमालापहता, तिर्यमालाऽपहता चेति । तत्रोलमालापहता पूर्व व्याख्याता । अधोमालाऽपहता यस्या भूमिकाया निश्रेण्यादिनाऽबरुह्य आनीता । तिर्यमाला १ माल: 'मंजिल' इति भापापसिद्धः । तथा जो प्राणी, पृथ्वीपर सञ्चार कर रहे हों उनकी भी हिंसा होजाय, इसलिये ऐसी अवस्थामें स्व, पर और उभयकी विराधनाका होना सम्भव है, यहाँ तककि दाताकी मृत्यु भी हो जा सकती है, अतः इन महादोपोंको अत्यन्त दुःखदायी जान कर, संयमी महामुनि, नसैनी (सीढ़ी) आदि द्वारा माला (मंजिल) से उतारा हुआ आहार आदि स्वीकार नहीं करते ॥ __मालाके भेदसे मालापहृत भिक्षा, तीन प्रकारकी है-(१) अर्ध-माला. पहृत (२)-अधो-मालापहृत और (३)-तिर्यग्मालापहृत। इनमें, ऊर्ध्वमालापहृत भिक्षाका विवेचन, पहले कह आये हैं। ऊपरके मंजिलसे नचिकी ओर नसैनी (निसरणी) लगाकर, लाई हुई भिक्षा, अधोमालाવિરાધના થાય, તથા જે પ્રાણી પૃથ્વી પર સંચાર કરી રહ્યા છે તેમની પણ હિંસા થઈ જાય; તેથી એવી અવસ્થામાં સ્વ, પર અને ઉભયની વિરાધના થવી સંભવત છે, એટલે સુધી કે દાતાનું મૃત્યુ પણ થઈ જઈ શકે છે, તેથી કરીને એ મહાદને અત્યંત દુ:ખદાયી જાણીને સંયમી મહામુનિ નીસરણ આદિદ્વારા માળથી ઉતારેલ આહાર આદિ સ્વીકારે નહિ. માળ-મજલાના ભેદે કરીને માલાપહત ભિક્ષા ત્રણ પ્રકારની છે. (૧) ઉર્વ. भादापात, (२) मामासायात मन (3) तिय-भासापाहत. मे -- માલાપાશ્રુત ભિક્ષાનું વિવેચન પહેલાં કરવામાં આવ્યું છે. ઉપરના મજલાથી નીચેની બાજુએ નીસરણ લગાવીને લાવેલી ભિક્ષા માલાયહુત કહેવાય છે. Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० भीश्वकालिका ___ तम्हाइसीलिए पपारिसे ऐसे पूोक प्रकारके महादोसे-दाताकी मृत्यु तक होनेकी संभावनाके कारण महादीपोंको जाणिकण-नानकर संजयान सफल सावध व्यापारसे विरत हुप महसिणो मागि लोग मालोहर-मालापात (मालसे लाईई) मिक्वं-मिताको न पडिगितिन्नहीं लेते हैं ॥६९।। टीकामालापदतभिक्षादोपमा-'निस्सेणि' इत्यादि । 'दावए' इत्यत्र प्राकृतत्वाल्लिङ्गव्यत्ययस्तया च दायिफादात्री, श्रमणार्थमेव साधुनिमियमेव-साधये मिसादानार्थमेयेत्यर्थः, निश्रेणि-शादिनिर्मितं सोपानं, फलक सय नोपयोगि दारुमयाऽऽसन, पीठ-काष्टनिमितोपवेशनोपयोगि लघ्वासन-पाहा' इति मसिद्धं, मयखट्वां चंशदलादिरचितोचासनं वा, कोलंबई, चकारान् सलादिकम् उत्सृज्य उर्वीकृत्य, प्रासादम् उचगृहं तत्रानेकभूमिकासम्भवना ऽऽरोहणादिकं युज्यत इति तद्भमिकायां लक्षणा, तथा च-उबहभूमिकामित्या, आरोहेद-उपलक्षणया गच्छेदित्यर्थः । तेन तिसपु वक्ष्यमाणामु भालापहतास मिक्षामु समन्वयः। निश्रेण्यादिना सदुःखमारोहणं भवतीत्यत आह-दुरा (दू। रोहन्ती सदुःखमूलप्रदेशमासादयन्ती सती प्रपतेत, इस्ती पादौ च लूपये त्रोटयेत् , पृथ्वीजीवानपि हिंस्यात्म्पीडयेव, यानि च तन्निाश्रिवानि पृथिव्या मालापहृत भिक्षाके दोप बताते हैं-'निस्सेणि' इत्यादि, 'दुरूहमाणी' इत्यादि, तथा 'एयारिसे' इत्यादि । दाता, यदि साधुके लिये नसैनी, सीढी (निसरणी), पाटा, पीढा (बाजोट), मांचा, खूटी अथवा मूसल आदिको ऊँचा करके जर मकानकी दूसरी मंजिल पर चढ़ कर, आहार लावे तो वह आहार आदि, मालापहृत कहलाता है । नसैनी (सीढी) आदि पर चढनेसे यदि गिर पड़े तो हाथ पैर टूट जाय, पृथ्वीकाय-आदि जीवोंकी विराधना होजाय वे म त लिझाना होष! मताचे छ-निस्सेणि त्याह, दुरुहमाणी त्याल, तथा एयारिसे त्याह. ने हाती साधुने भाटे सीढी (नीसहरी), पाट, मान, भान्या, यूट? અથવા મૂશળ (સાંબેલું) આદિને ઉંચા કરીને ઉંચા મકાનના બીજા મજલ પર ચઢીને આહાર લાવે તે તે આહાર માલાપહત કહેવાય છે. સીડી આદિ પર ચડવાથી જે પડી જાય તે હાથ-પગ તૂટી જાય, પૃથ્વીકાય આદિ જીની Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २०१५ २१ अध्ययन ५ उ.१ गा. ७०-७२-आहारग्रहणविवेकः टीका-'कंद' इत्यादि । कन्द, मूलम् , इमे माग्व्याख्याते, वा अथवा 'मलम्बस्तालादिफलम् आमम् अपक्वं-सचित्तमित्यर्थः । चन्पुनः छिन्नंकलितमपि सन्निरं-पत्रशाकं वास्तूकादिकं, तुम्बकम्=अलावूविशेष, शृङ्गवेरम् आर्द्रकं चकारादन्यदपि प्रत्येकसाधारणवनस्पतिमात्रम् आमकम् अपक्वं सचित्तं परिवर्जयेत्-त्यजेत्-न गृह्णीयादित्यर्थः ॥७०॥ मूलम् तहेव सत्तुचुन्नाई कोल-चुन्नाई आवणे । सक्कुलिं फाणियं पूअं, अन्नं वावि तहाविहं ॥७१॥ विकायमाणं पसढं, रएणं परिफासियं । दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥७२॥ छाया-तथैव सक्तु-चूर्णानि, कोल-चूर्णानि आपणे। शप्कुली फाणितं, पूपमन्यद्वापि तथाविधम् ॥७१॥ विक्रीयमाणं मसह्य, रजसा परिस्पृष्टम् ।। ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥७२॥ सान्वयार्थः-तहेव-जिसमकार सचित्त कन्दादि अग्राह्य हैं उसीप्रकार सत्तुचुन्नाईन्भुने हुए जौ या चनेका आटा-सत्तू कोलचुन्नाइंधेरोंका चूरा सक्कुलिंतिलपापड़ी फाणियं गीला गुड़ पूर्य-मालपूना (तथा) तहाविहं-उसीपकारके अन्नं वावि औरभी पदार्थ जो आवणे-दुकानपर विकायमाणं बेचने के लिए रखे हुए हैं वे (यदि) पसदं वस्त्रसे आच्छादित होनेपर भी रएणं सचित्त सूक्ष्म रजसे परिफासियं व्याप्त हों तो दितियं देनेवाली से पडियाइक्खेकहे कि 'कंद' इत्यादि । सचित्त कन्द, मूल, ताड-फल आदि तथा कटा हुआ भी सचित्त पत्तोंका शाक-बथुआ आदि, और सचित्त तुम्बा तथा अदरख भी साधु ग्रहण न करे । 'च' शब्दसे यह भी समझना चाहिये कि इनके सिवाय कोई भी सचित्त-प्रत्येक या साधारण वनस्पति, साधुको नहीं कल्पती है ॥ ७० ॥ __ कंदं त्या सयित्त है, भू, dism माह तथा अपेक्षा छापा छतi સચિત્ત પાંદડાંનું શાક-બથુઆની ભાજી આદિ અને સચિત્ત દૂધી આદિ તથા આદુ પણ સાધુ ગ્રહણ ન કરે. ૨ શબ્દથી એમ પણ સમજવું કે તે ઉપરાંત કેઈ પણ સચિત્ત-પ્રત્યેક યા સાધારણ વનસ્પતિ સાધુને ક૫તી નથી. (૭૦) Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवकामिनो पद्धता तु यस्या भूमिका यागिका तिष्ठेसम्यामेव, नयादी जलप्रवाहावरोधिसेतुवसिश्रेण्यादिकं तिर्गत संस्गाप्प सहारा गरिमापरभागे गमनागमनेनाऽऽनीता। दुप्मापशिश्यादिस्यस्यातिगम्भीरनामूलादिस्यस्य चामादेहणे चरणोन्नमनादिना नेकविधफटसम्मवादेवंविधापि मिक्षा सदन्तयेति ॥६७।६८॥६९।। मूलम्कंदं मूलं पलंवं वा, आमं छिन्नं च सन्निरं । तुंवागं सिंगवेरं च, आमगं परिवजए ॥ ७० ॥ छाया-फन्दं मूलं प्रलम्यं या, आमं छिनं व समिरम् । तुम्बकं शृगवेरञ्च, आमदं परिवर्जयेत् ।।७०॥ सान्वयार्थ:-आम सचित्त कंद-मरण आदि कन्द मुलं-विदारिकादि मूल पलंय-ताल आदिके फल चा-तथा छिन्नं चकाटी हुई भी सन्निरनपुर आदिकी भाजीको (तथा) आमगं-सचित्त तुंयाग-तूंचे च और सिगवर अदरख-आदे-को साधु परिवज्जए-बरजे ॥७०॥ पहृत कहलाती है । जिस मंजिलमें देनेवाली मौजूद हो उसीकी बराबरी पर, दूसरी ओर जानेके लिये पुलकी तरह नसैनी (निसरणी) या लकड़ी आदिको तिरा रख कर चढे तो वहाँसे लाई हुई भिक्षा, तिया मालापहृत कहलाती है । बड़ी कठिनाईसे पहुंचने योग्य छींके या आलम तथा गहरी कोठरीमें रक्खी हुई भिक्षा ग्रहण करनेसे पैर उठाने आदि अनेक कष्ट होते हैं इसलिये, ऐसी भिक्षा भी इसी मालापहृत भिक्षाम अन्तर्गत समझनी चाहिये। यह सब प्रकारकी भिक्षा साधुका अकल्प्य है ॥ ॥ ६७॥६८ ॥ ६९॥ જે મજલામાં ભિક્ષા આપનારી હાજર હોય, તેની બરાબર, બીજી બાજી જવાને માટે પૂલની પિઠે નીસરણી યા લાકડું પાટિયું તીખું રાખીને ચડે " ત્યાંથી લાવેલી ભિક્ષા તિર્યમાલાપત કહેવાય છે. બહુ મુશ્કેલીથી પહે શકાય એવાં સી કાં, યા છાજલીમ તથા ઉડી કોટડીમાં રાખેલા અશનાદિ ગ્રહણ કરવાથી પગ ઉપાડવા આદિનાં અનેક કષ્ટ પડે છે, તેથી એવી ભિક્ષા પણ આ (માલાપહત) ભિક્ષામાંજ સમાયેલી સમજી લેવી. એ સર્વ પ્રકારની ભિક્ષા સાધુને भाटे मप्य छे. (१७-१८-te) Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ.१ गा. ७०-७२-आहारग्रहणविवेकः ४६३ टीका-'कंदं' इत्यादि । कन्द, मूलम्, इमे माग्व्याख्याते, वा अथवा मलम्ब-तालादिफलम् आमम् अपक्वं-सचित्तमित्यर्थः । च-पुनः छिन्नंकलितमपि सन्निरं-पत्रशाकं वास्तूकादिकं, तुम्बकम् अलाबूविशेष, शृङ्गबेरम्-आर्द्रकं चकारादन्यदपि प्रत्येकसाधारणवनस्पतिमात्रम् आमकम् अपक्वं सचित्तं परिवर्जयेत्त्य जेत्-न गृह्णीयादित्यर्थः ॥७०॥ मूलम् तहेव सत्तुचुन्नाई कोल-चुन्नाई आवणे । सक्कुलिं फाणियं पूअ, अन्नं वावि तहाविहं ॥७१॥ विकायमाणं पसढं, रएणं परिफासियं । - ૧૭ ૨૦ ૧૬ ૨૧ ૧૬ दितियं पडियाइक्वे, न मे कप्पइ तारिसं ॥७२॥ : छाया-तथैव सक्तु-चूर्णानि, कोल-चूर्णानि आपणे। शप्कुली फाणितं, पूपमन्यद्वापि तथाविधम् ॥७१॥ विक्रीयमाणं प्रसह्य, रजसा परिस्पृष्टम् ।। ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥७२॥ सान्वयार्थः-तहेव-जिसप्रकार सचित्त कन्दादि अग्राह्य हैं उसीप्रकार सत्तु. चुन्नाई-भुने हुए जौ या चनेकाआटा-सत्तू कोलचुन्नाई-बेरोंका चूरा सक्कुलि= तिलपापड़ी फाणियंगीला गुड़ पूयं मालपूवा (तथा) तहाविहं-उसीप्रकारके अन्नं वावि औरभी पदार्थ जो आवणे-दुकान पर विकायमाणं बेचने के लिए रखे हुए हैं वे (यदि) पसदंबस्त्रसे आच्छादित होनेपर भी रएणं सचित्त मूक्ष्म रजसे परिफासियं व्याप्त हों तो दितियं देनेवालीसे पडियाइक्खे-कहे कि __ 'कंदं ' इत्यादि । सचित्त कन्द, मूल, ताड-फल आदि तथा कटा हुआ भी सचित्त पत्तोंका शाक-बथुआ आदि, और सचित्त तुम्बा तथा अदरख भी साधु ग्रहण न करे । 'च' शब्दसे यह भी समझना चाहिये कि इनके सिवाय कोई भी सचित्त-प्रत्येक या साधारण वनस्पति, साधुको नहीं कल्पती है ॥ ७० ॥ कंद. त्याहसचित्त , भूग, तm माह तथा पिसा डापा छतi સચિત્ત પાંદડાંનું શાક-બથુઆની ભાજી આદિ અને સચિત્ત દૂધી આદિ તથા આદુ પણ સાધુ શહગ ન કરે. ૨ શબ્દથી એમ પણ સમજવું કે તે ઉપરાંત કૈઈ પણ સચિત્ત-પ્રત્યેક યા સાધારણ વનસ્પતિ સાધુને કલ્પતી નથી. (૭૦). Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ भीदवालिका तारिसं-इस प्रकारका माहारादिमे मुसे (लेना)नकप्पा-नहीं करपतार ।।२।। टीका-'सहेय' इत्यादि, 'विकायमाणं' इत्यादि च। तये-पवा पूर्वोकं सचितफन्दादिकमग्रा तेनेर प्रकारेण सन्तु-नृणांनि सक्तब एत्र चूर्गानि तानि सक्तनित्यर्थः, भूप्रयादिवर्णान्येव सक्ता उन्यन्ते, कोल-चूर्गानिबदरी फलचूर्णानि, शप्फुलीं-तिलपर्पटिकां, फाणितं श्रुतगुडं, पूपम् अपूपम् , तयाविष तादृशम् अन्यदपिया दध्यादिकम्, आपणे क्रय-विक्रयस्याने, विक्रीयमाणविक्रयाथै स्याप्यमानं, रजसा-सचित्तरेणुना, मसबठात् वनादिनाऽऽच्छादनेशप यथास्यचित्मकारेणेति भावः, परिस्पृष्ठं व्याप्त-चायुसमुस्थितरजासंस्पृष्टम् ददता प्रत्याचक्षीत-'तादृशं मे न कल्पत' इति ॥७२॥७२॥ मूलर-बहुट्टियं पुग्गलं, अणिमिस वा बहुकंटयं । अच्छियं तिंदुयं विलं, उच्छृखंडं व सिंबलिं ॥७३॥ अप्पे सिया भोयणजाए, वहु उज्झणधम्मिए । दितियं पडियाइखे, न में कप्पइ तारिसं ॥४॥ २१ २०२२ 'तहेव' इत्यादि, तथा 'विकायमाणं' इत्यादि । जैसे, सचित्त कन्द, मूल आदि त्याज्य हैं वैसेही सत्तू, बेरीका चूर्ण, तिलपापडी, पिघला हुआ गुड, पूआ तथा ऐसी दही आदि अन्यान्य वस्तुएँ, बेचनेके लिये दुकानमें रक्खी हों, और सचित्त रजसे व्याप्त हो, अर्थात् वस्त्रसे ढंक रखने पर भी पवनके द्वारा पहुँची हुई सूक्ष्म सचित्त रजसे युक्त हों तो वह आहार कल्पनीय नहीं है। इसलिये साधु, देनेवालीसे कहे कि 'ऐसा आहार, मुझे नहीं कल्पता है ।। ७१।। ७२॥ तहेव त्या तथा विकायमाणं त्याह. જેમ સચિત્ત કંદ-મૂળ આદિ ત્યાજ્ય છે, તેમજ સત્ત, બેરનું ચૂર્ણ તલપાપડી, નરમ ગોળ, તથા એવા પ્રકારની બીજી દહીં આદિ નરમ વસ્તુ વેચવાને માટે દુકાનમાં રાખી હોય અને સચિત્ત રજથી વ્યાપ્ત હોય અથત વસ્ત્રથી ઢાંકી રાખ્યા છતાં પવનદ્વારા પહેચેલી સૂમ સચિત્ત રજથી યુક્ત હોય તે તે આહાર કલ્પનીય નથી. તેથી સાધુ તે આપનારીને કહે કે એ આહાર भने ४६५ता नथी. (७१ ७२) Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ.१ गा. ७३-७४-फलपकरणे त्याज्यफलनामानि छाया-बहष्ठिकं पुद्गलम् , अनिमिपं वा बहुकण्टकम् । असीवं तिन्दुकं विल्वम् , इक्षुखण्डं वा शाल्मलिम् ||७३।। अल्पं स्यादोजनजातं, वहज्झनधर्मिकम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥७४॥ सान्वयार्थ:-यहुअढियंबहुवीजा अर्थात् सीताफल अणिमिसं-अनन्नास यहुकंटयंपनस-कटहल अच्छियं-शोभाञ्जनकी फली, जो 'मुनगा' नामसे मसिद्ध है; तिदुयं तेन्दु विल्लंघेल सिंबलिं-सेमल इन नामके पुग्गलं-फलोंको व और उच्छुखंड-गन्ने-शेरडी के टुकड़ोंको, तथा जिस पदार्थमें भोयणजाए खानेयोग्य अंश अप्पे सिया-थोड़ा हो और उज्झणधम्मिए डालदेनेयोग्य अंश यहुबहुत हो ऐसे फल आदि दितियं देनेवाली से साधु पडियाइक्खे कहे कि तारिसं-इस प्रकारका आहारादि मे मुझे (लेना) न कप्पा-नहीं कल्पता है ॥७३॥७४॥ टीका-'बहुअडियं०' इत्यादि, 'अप्पे सिया' इत्यादि च। ववस्थिकम् बहूनि, अस्थीनि-बीजानि-अस्थिवीमिति रायमुकुटः, वैद्यकश्चेति शब्दकल्पद्रुमः; यस्मिन् , यद्वा बहूनि अस्थिकानि ‘अस्थिकधीजे मेदोजधातौ चेति राजनिघण्टुः' इति वैद्यकशब्दसिन्धुः; यस्मिंस्तत् , वहुवीजकं-योगरूढमेतत् , सीताफलादिकमित्यर्थः_ 'बहुअट्टियं ' इत्यादि तथा 'अप्पे सिया' इत्यादि । 'अस्थि' शब्दका अर्थ, बीज होता है, रायमुकुट तथा वैद्यकोषोंमें 'अस्थि' शब्दका चीज ही अर्थ है, ऐसा 'शब्दकल्पद्रुम' अभिधानमें भी लिखा है । अत एव वहस्थिंक शब्दका अर्थ है-बहुत बीजोंवाला । यह शब्द योगरूढ है, अत एव सीताफल अर्थ होता है। निघण्टुमें भी सीताफल (सरीफा)के इतने नाम गिनाये हैं बहुअहियं० /त्याहि, तथा अप्पे सिया० Vत्या. मस्थि' शहना अर्थ બીજ (ઠળીયે) થાય છે. રાયમુકુટ તથા વેકેમાં અસ્થિ શબ્દને બીજ એવો જ અર્થ છે, એમ “શબ્દકલ્પદ્રુમ માં પણ લખ્યું છે. એટલે વાચિક શબ્દનો અર્થ થાય છે બહુ બી જે વાળું, એ શબ્દ ગઢ છે, એટલે સીતાફળ અર્થ થાય છે. નિઘંટુમાં પણ સીતાફળનાં આટલાં નામ ગણાવ્યાં છે Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ भीदनोकासिम "सीताफलं गढमा, मैदेशीम तया । कृष्णपीनं गाग्रिमागणमानणं पसीनाम् ॥१॥ इति निघण्टुकोषः पहा 'महिय' इत्यस्य 'याष्टिक मितिछाया, 'फलबीजे पुमानष्ठिः' इति फोपात् अस्तून एका पुललम्स दधारमकपूरणपरिपाकानन्तराय:पतनात्मक लगधर्मकत्वात्पुनलः फलसामान्यं तम, अंग्रेऽप्यस्य सम्बया, सीताफलादिनामक फलमिति मायः भनिमिपम्-अनक्षासम् अन्तर्बहि:सफण्टकं आदिदेमसिदम् । पहफण्टाफटकिफल-पनर 'यटहर' इत्यनेन प्रसिद्धम , अस्य त्वग्माव, ता ययावच्छेदेन कण्टकच्याप्पया यहाटया सिध्यति, अनिमिषपदार्थस्य खन्तवा सकण्टकत्वेऽपिविरलकवादस्मादामसीन्गोमाजनम् फलप्रकरणात्तत्कालका त्वचः स्थौल्य-काश्याधिक्यदोपेभ्यो वीजानां वाइल्याचास्यधिकत्याज्यभागा 'मुनिगा' इति देशविशेषमसिद्धाम् । तिन्दुकम अण्डाकृतिकं फलविशेपम् अल्पा कारस्याप्यस्य फलस्य वीजानां स्थौल्यवाहुल्यादिदं त्याज्यांशबहुलं तदु' "सीताफल, गण्डमात्र, वैदेहीवल्लभ, कृष्णयीज, अग्रिम, आत्य और पहुबीजक ॥१॥" इनमें 'पहुचीजक' शब्द भी सीताफलके लिये आया है, और यह ऊपर बताया ही जा चुका है कि 'अस्थि' शब्दका अर्थे बीज होता है। इसलिये बहुवीजक और बहस्थिक एक हा है, अतः बहस्थिकका अर्थ सीताफल ही है। अथवा 'अहिय का छाया, 'अष्ठिकं होती है, कोपमें लिखा है कि फलके बीजको 'आठ' कहते हैं । इससे भी पूर्वोक्त अर्थ ही सिद्ध होता है, इसलिये, सीता फलको तथा बंग आदि अन्य अन्य देशों में प्रसिद्ध अनन्नाश(अनास)फल विशेष, कटहर, मुनिगा (सोहिंजन) की फली, तेन्दु, बेल, गन्नेका खण्ड "सीता, मात्र, हामी अभिभ, भातप्यमने डमी." એમાં “બહુબીજક” શબ્દ પણ સીતાફળને માટે આવ્યો છે, અને " બતાવવામાં આવ્યું જ છે કે “અસ્થિ” શબ્દનો અર્થ “બીજ’ થાય છે એટલે બહુબીજી અને લિંક એક જ છે, અર્થાત્ બડ્ડસ્થિકનો અર્થ સીતાફળ જ છે. અથવા अद्रिय नी छाया अप्ठिक थाय छ, औषमा सयु छ है ना पीने 'अष्ठि' કહે છે. તેથી પણ પૂર્વોક્ત અર્થ જ સિદ્ધ થાય છે. એ રીતે સીતાફળ, તથા અંગ આદિ અન્ય-અન્ય દેશોમાં પ્રસિદ્ધ અન્નનાસ, કટર, મુનિગાની (એક પ્રકારની કળી. તેન્દુ, બિવફળ, (બીલા) શેરડીની કાતળી, સેમલ આદિ ફળ, જેમાં ખાઇ Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ७५-पानग्रहणविधिः ४६७ M मसिद्धम् । विल्वम्, इक्षुखण्डं, शाल्मलि च, एतानि प्रसिद्धार्थकानि । तथा यत्र भोजनमात भोज्यांशः अल्प-स्वल्पम् , उज्झनधर्मिकं त्याज्यांशः बहु-अधिकं स्यात् भवेत् तत्फलादिकमन्यदपि ददती प्रत्याचक्षीत-तादशं मे न कल्पते इति । सामान्यलक्षणेन त्याज्यफलादिज्ञानं शिष्याणां दुष्करं स्यादिति प्रथमं विशेषरूपेण कतिचित्फलानि मदर्य त्याज्यसामान्यलक्षणं निरूपितं तेन न पूर्वगाथायास्तात्पर्यानुपपत्तिरिति दिक् ॥७॥७४॥ मूलम् तहेवुच्चावयं पाणं, अदुवा वार-धोयणं । संसेइमं चाउलोदगं, अहुणाधोयं विवज्जए ॥७५॥ एवं सेमल आदि फल, जिनमें खाद्य अंश कम हो तथा त्याज्य अंश अधिक हो उन सब फल आदिको देनेवालीसे कहे कि ऐसा आहार, मुझे नहीं कल्पता है। : अनन्नासमें भीतर भी काँटे होते हैं और बाहर भी, और कटहरके छिलकेमें सर्वत्र काँटे ही काँटे होते हैं। दोनों बहुकण्टक हैं, किन्तु अनन्नासमें काँटे कम और तीखे होते हैं, अतः वह कटहरसे भिन्न है। अन्य भेद लोक-प्रसिद्ध ही हैं। सामान्य लक्षण करनेसे त्यागने योग्य फलोंका ज्ञान शिष्योंको कठिनतासे होता, अतः पहले कुछ विशेप फलोंके नाम गिना कर, उस प्रकारके सभी-फलोंका त्याग बताया है। इसलिये, पहली गाथासे इसका सम्बन्ध ठीक बैठता है ।। ७३ ॥ ७४ ॥ અંશ ઓછો હોય તથા ત્યાજ્ય અંશ વધારે હોય એ બધાં ફળ આદિ આપનારીને સાધુ કહે કે એ આહાર મને કપતે નથી. અનન્નાસમાં અંદર કાંટા હોય છે અને બહાર પણ હોય છે, અને કટરના છેતરામાં સર્વત્ર કાંટા જ હોય છે. બેઉ બહુકંટક છે, પરંતુ અનન્નાસમાં કાંટા ઓછા અને તીખાં હોય છે, તેથી તે કટહારથી જૂદું ફળ છે. અન્ય ભેદ as-प्रसिद्ध छे. સામાન્ય લક્ષણ બતાવવાથી ત્યાગવા યોગ્ય ફળોનું જ્ઞાન શિને અશ્કેલીથી થાય છે, એટલે પહેલાં કેટલાંક વિશેષ ફળનાં નામ ગણાવીને એ પ્રકારનાં બધાં ફળને ત્યાગ બતાવ્યું છે. તેથી પહેલી ગાથાથી અને સંબંધ ઠીક બંધ બેસે छ. (७३-७४) Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ श्रीदनकारिको - -- - - - -- "सीतापम गठमान, मेदहीम तया । कृष्णपीनं गानिमारगमावणं परवीनस्म ॥१यति निघण्टुकोषः। या 'यामहि त्यस्य 'यष्टिर' मितिन्छाया, 'फलत्रीजे पुमानाष्ठ: शत फोपान , अर्थलून पर। पुनलम्स दधारमपुरणपरिपाकानन्तरायःपतनात्मकन लगधर्मफस्यात्पुनलः फलसामान्यं तम, अग्रेऽप्यस्य सम्बन्धः, सीताफलादिनाम फलमिति भावः । अनिमिपम् अनसासम् अन्तर्वहिसाण्टकं वादिदेवमसिद्धम् । पहुकण्टक-फण्टफिफलं-पनसं 'कटहर' इत्यनेन प्रसिदम् , अस्य स्वग्माव, H वयशरच्छेदेन कण्टकच्याफ्या बहुकम्टक सिध्यति, अनिमिपपदार्थस्य स्वन्तवाद सकण्टकत्वेऽपिचिरलकत्वादस्मादः अक्षीयं-शोमाअनम् फलपकरणातत्कालका त्वचः स्थौल्य-काश्याधिक्यदोपेभ्यो वीजानां बाहुल्याचात्यधिकत्याग्यमा" 'मुनिगा' इति देशविशेपमसिद्धाम् । तिन्दुकम् अण्डाकृतिकं फलविशेषम् असा कारस्याप्यस्य फलस्य वीजानां स्थौल्यवाहुल्यादिदं त्याज्यांशबहुलं तदु' । "सीताफल, गण्डमात्र, वैदेहीवल्लभ, कृष्णयीज, अग्रिम, आदृष्य और यहुयीजक ॥१॥" इनमें 'यहवीजक' शब्द भी सीताफलके लिये आया है। और यह ऊपर बताया ही जा चुका है कि 'अस्थि' शब्दका अर्थे बीज होता है। इसलिये बहुधीजक और बहस्थिक एक है है, अतः यहस्थिकका अर्थ सीताफल ही है। अथवा 'अहिय का छाया, 'अप्टिकं' होती है, कोपमें लिखा है कि फलके बीजको 'छि कहते हैं । इससे भी पूर्वोक्त अर्थ ही सिद्ध होता है, इसलिये, सीता फलको तथा बंग आदि अन्य अन्य देशों में प्रसिद्ध अनन्नाश(अनास) कल विशेप, कटहर, मुनिगा (सोहिंजन) की फली, तेन्दु, बेल, गन्नेका ख "Alain, मात्र, वडापन, ४२७४मी अभिभ, मातथ्य मन मधुमी." એમાં “બહુબીજક? શબ્દ પણ સીતાફળને માટે આવ્યું છે, અને ૭૧ બતાવવામાં આવ્યું જ છે કે અસ્થિ શબ્દનો અર્થ બીજ થાય છે એટલે બહુબીજી અને બહંસ્થિક એક જ છે, અર્થાત્ બસ્થિકનો અર્થ સીતાફળ જ છે. અથવા अद्विय नी छाया अप्टिक थाय छ, अषमा सयु छाना भी 'अप्ठि' કહે છે. તેથી પણ પૂર્વોક્ત અર્થ જ સિદ્ધ થાય છે. એ રીતે સીતાફળ, તથા બંગ આદિ અન્ય-અન્ય દેશમાં પ્રસિદ્ધ અન્નનાસ, કટર, મુનિશાની (એક પ્રકારની) जी, तन्, , (मlel) शेनी ती, सेभल माणि , रेभा पाय Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अध्ययन ५ उ. १ गा. ७५-पानग्रहणविधिः ४६९ हूर्त्तान्तर्घातं चेदित्यर्थस्तदा विवर्जयेत्न गृह्णीयात् । उपलक्षणमेतत् , उक्तचाऽऽचाराङ्गे श्रीभगवता "से भिक्खू वार जाव अणुपविढे समाणे से जंपुण पाणगजायं जाणेजा, तं जहा-उस्सेइमं वा संसेइमं वा चाउलोदगं वा अन्नयरं वा तहप्पगारं पाणगजातं अहुणाधोयं अणविलं अबोकंतं अपरिणत अविद्धत्यं अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा । अह पुण एवं जाणेज्जा चिराधोयं अविलं वोकतं परिणतं विद्धत्थं फासुयं जाव पडिगाहेज्जा । से भिक्खू वार जाव अणुप्पविद्वे समाणे से जं पुण पाणगजातं छाया-१-“अथ भिक्षुर्वा भिक्षुकीवा यावत्-अनुपविष्टः सन् स यत्पुनः पानकजातं जानीयात्, तद्यथा-उत्स्वेदिमं वा संस्वेदिमं वा तण्डुलोदकं वा अन्यतरद्वा तथामकारं पानकजातम् अधुनाधौतम् अनम्लम् अव्युत्क्रान्तम् अपरिणतम् अविध्वस्तम् अमामुकं यावत् नो मतिगृहीयात् । अथ पुनरेवं जानीयात्-चिरद्योतम् 'अम्लं व्युत्क्रान्तं परिणतं विध्वस्त पासुकं यावत् प्रतिग्रहीयात् । अथ भिक्षुर्वा २ यावत्अनुपविष्टः सन् स यत्पुनः पानकजातं जानीयात्, तद्यथा-तिलोदकं वा इनको ग्रहण न करे । ये तो उपलक्षण मात्र हैं, आचारांग सूत्रमें भगवानने कहा है "साधु अथवा साध्वी पानीके लिए गृहस्थके घरमें प्रवेश करकेआटेके वरतनका धेोवन, शाक आदिका बाफा हुआ पानी, चावलाका धोवन तथा इस प्रकारका और भी कोई पानी तुरतका धोया हुआ हो, स्वादसें चलित न हुआ हो अर्थात् जिसका धोवन हो उस वस्तुका स्वाद न आता हो, जिसका वर्ण रस गन्ध स्पर्श न बदला हो-सर्वथा अचित न हुआ हो, शस्त्र-परिणत न हो तो ग्रहण न करे। यदि तुरतका धोया हुआ न हो-बहुत देरका धोया हुआहो, स्वादसे चलित हो गया हो અર્થાત્ અંતર્મુહૂર્તની અંદર અંદરની ધોલાં હોય તે તેને ગ્રહણ કરવાં નહિ, એ તે ઉપલક્ષણમાત્ર છે. આચારાંગ સૂત્રમાં ભગવાને કહ્યું છે કે સાધુ અથવા સાધ્વી પાણીને માટે ગૃહસ્થના ઘરમાં પ્રવેશ કરીને આટાના વાસણનું ધાવણ, શાક આદિ જેમાં બાફેલાં હોય તે પાણી, ચેખાનું ધાવણ, તથા એ પ્રકારનું બીજું પણ કઈ પાણી તુરતનું ઘેલું છે. સ્વાદથી ચલિત થયું ન હોય, અથાત્ જેનું ધાવણું હોય તે વસ્તુને સ્વાદ ન આવત હાય, જેનાં વર્ણ રસ ગંધ સ્પર્શ ન બદલાયાં હાય-સર્વથા અચિત્ત ન થયું હોય, શસ્ત્રપરિણુત ન હોય, તે તે ગ્રહણ ન કરે. જે સુરતનું ઘોએલું ન હાય-બહુ વખતનું ધાએલું હેય, સ્વાદથી ચલિત થયું હોય, અને શસ્ત્રપરિણત હેય તે Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ श्रीदशकालिको - - - - -- छाया-तयोगानं पान, मगया वारकधावनम् । संस्थे दिमं तन्दलोदयम, अधुनापोतं विपर्नयेत् ॥७५|| अब पान ग्रहण करने की विधि बताते हैं सान्वयार्थ:-तहेव-जैसे अशन उसीमकार पाण-पान उमावयंउन-मुन्दर वर्णादिसे युक्त, जैसे दाख आदिका धोयन, आच-मुन्दर वर्णादिसे रहित जैसे मेयी केर आदिका धोवन धारधोयणं-गुढ़के घड़ेका धोवन संसहम-भानीका तया आटेकी थालीका धोवन अदुवा अथवा चाउलोदगं-चावलोंका घोवन (ये सब यदि) अहणाधोयं तुरन्तका धोया हुआ हो तो उसे (साधु) विवज्जएवर्जे-न ठेचे ॥७५॥ टीका-अशनग्रहणविधेरनन्तरं पानग्रहणविधिमाह-तहेवुचावयं' इत्यादि । तथैव यथाऽशनं तेनैव प्रकारेण, पान-पेयं, कर्मणि न्युट, उच्चावचमिति उदर च अवाक् च उच्चावचम्-अनेकमकारम् , उत्कृष्टानुकृष्टमित्यर्थः, तत्र उत्कृष्ट सावर वर्णगन्धरसस्पर्शयुक्तं द्राक्षादिधावनजलं पाणकादिकं च, अनुत्कृष्ट चिर वर्णादिहीनं मेथिका-करीर-शमीफलिका-तिलादिधावनजलम् । वारकथावन गुड घट-धृतघटादि धावनजलं, संस्वेदिमचयथितशाकादिजलंपिष्टस्थालीप्रक्षालनजलच, तण्डुलोदकं तण्डुलधावनजलम् । एतत्सर्वम् अधुनाधौतम् तत्काल-धोतम्-अन्तः अशन ग्रहण करनेकी विधि बताकर अब पान ग्रहण करनेकी विधि दिखाते हैं-' तहेवुच्चावयं' इत्यादि । - उच्च (उत्कृष्ट) मनोज्ञ वर्ण गन्ध रस स्पर्शवाला दाख आदिका धोवन तथा शबत आदि पान, अवच (अनुत्कृष्ट) अमनोज्ञ वणे गन्ध रस स्पर्शवाला मेथी केर साँगरी तथा तिल छाछ आदिका धोवन आदि पान, गुड़ या घीके घड़ेका धोवन, औटाये (उबाले) हुए हरा शाक आदि. का पानी, आटेकी थाली आदिका धोवन, चावलका धोवन । ये सब यदि तत्कालके धोये हुए हों अर्थात् अन्तर्मुहर्त्तके अभ्यन्तरके धोये हों तो અશન ગ્રહણ કરવાની વિધિ બતાવીને હવે પાન ગ્રહણ કરવાની વિધિ सतावे छे:-तहेवुचावयं Uत्या. ઉરચ (ઉત્કૃષ્ટ) મનહર વર્ણ બંધ રસ સ્પર્શવાળું દ્રાક્ષ આદિનું ધાવણ તથા શરબત આદિ પાન, અવચ (અનુકૂઈ) અમનેસ વર્ણ ગંધ રસ સ્પર્શવાળું મેથી, કેરી, ખીજડાની ફળી (સાગરિઓ) તથા તલ છાશ આદિનું ધાવણ આદિ પાન. ળ યા ઘીના ઘડાનું ધાવણ, ઉકાળેલા લીલા શાક આદિનું પાણી, આટાની થાળી આદિનું ધાવણ, ચાખાનું ધાવણ, એ બધાં જે તાજા એલાં હોય Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____४७१ ૧૬ अध्ययन ५ उ. १ गा. ७६-७७-पानग्रहणविधिः ४७१ १"तिलतंडुल-उसणोदय,-चणोदय-तुसोदय-अविद्धत्थं । अण्णं तहाविहं वा, अपरिणदं व गेण्हिज्जा ॥४७३॥" इति । इति गाथार्थः ॥७२॥ तहिं कीदृशं पानं गृह्णीयात् ? इत्यत आह-जं जाणेज' इत्यादि, 'अजीवं' इत्यादि च । मूलम्-जं जाणेज चिराधोयं, मईए दंसणेण वा। पडिपुच्छिऊण सुच्चा वा, जं च निसकियं भवे ॥६॥ अजीव परिणयं नच्चा, पडिगाहिज्ज संजए । अह संकियं भविजा, आसाइत्ताण रोयए ॥७७॥ छाया-यज्जानीयाचिराद्धोतं, मत्या दर्शनेन वा । मतिपृच्छय श्रुत्वा वा, यच्च निश्शङ्कितं भवेत् ॥७६॥ अजीवं परिणतं ज्ञात्वा, प्रतिगृह्णीयात्संयतः । अथ शङ्कितं भवेत, आस्वाध रोचयेत् ॥७७|| सान्वयार्थः-मईए-धुद्धिसे चा-अथवा दसणेण देखनेसे पडिपुच्छिण छाया-१ तिलतण्डुलोप्णोदकं चणकोदकं तुपोदकम् अविध्वस्तम् ।। ___अन्यत् तथाविधं वा, अपरिणतं नैव गृह्णीयात् ।।४७३॥ "तिलोदक, तन्दुलोदक, उष्णोदक, चनेका पानी, तुपका पानी, तथा इस प्रकारका और भी जल यदि अविश्वस्त (सचित्त) हो और शस्त्रपरिणत न हो तो ग्रहण नहीं करना चाहिए अर्थात् शस्त्रपरिणत हो तो लेना कल्पता है ॥१॥” (मूलाचार गा. (४७३) ॥७५ ।। कैसा धोवन ग्रहण करना चाहिए ? सो बताते हैं-'जं जाणेज्ज' इत्यादि, 'अजीवं' इत्यादि । "dिars, arrants, Ex, यार्नु पाणी, तुपर्नु पाली, तथा मे પ્રકારનું બીજું પણ જળ જે અવિશ્વસ્ત (સચિત્ત ) હોય અને શસ્ત્રપરિણુત ન હેય તે ગ્રહણ કરવું ન જોઈએ અથત શસ્ત્રપરિણત હોય તે લેવું કલ્પે છે. (भूलाया२ ॥. ४७3) (७५) युं धापy As] ४२९ नये ? मताव छ:-जं जाणेज्ज० पत्या, तथा अजीवं त्यादि. Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० श्रीदभवकालिकाने जाणेना महा-तिलोदगं गा गोदगं या योदगं या आयाम वा सोवीरं वा मुदवियर या मणगरं या तापगार पाणगनायं पुण्यामेव आलोपजा-आउसोति पा० ७ । से मिपम् पा२ जाव समाणे से पूण जाणेना नहा-अंबपाणगं या अंपाडगपाणगं या फरिद्धपाणगंग मानलिंगपाणगं या मुरियापाणगं वा दालिमपाणगं या खजूरपाणगं या नालिकेरपाणगं या करीरपाणगं या कोलपाणग या आमलगपाणगं या चिचापाणगं या अनयर या तहप्पगारं पाणगजाय इत्यादि। उक्तं दिगम्बराचार्येण केरस्वामिनाऽपि मृलागारेतुपोदकं वा गबोदकं या आयाम वा सौवीरं या शदविकृतं वा अन्यतरत् वा तयाप्रकारं पानकनातं पूर्वमेव आलोचयेद-आयुप्मन् ! इति या ७ । अथ भिनुवार यावत् अनुमविष्टः सन् स यत्पुनर्जानीयात् , तद्यथा-आम्रपानकं वा आम्रातकपान वा कपित्यपानकं वा मातुल्लगपानकं या मृद्वीकापानकं वा दाडिमपानकं वा खजूर पानकं वा नालिकेरपान वा फरीरपानकं वा कोलपानकं वा आमलपानक वा चिश्चापानकं बा, अन्यतरद्वा तथाप्रकारं पानकजातम्" इत्यादि । और शत्रपरिणत हो तो ग्रहण करे। तिलोदक, तुषोदक, यवोदक, ओसामण, सोचीर (अगछण), उष्णोदक तथा इस प्रकारका और पानी गृहस्थका दिया हुआ कल्पता है। साधु यदि आमका धावन, अंबाडगका धोवन, कविठ (कैथ)का धोवन, विजौरेका धोवन, द्राक्षका धोवन, अनारका धोवन, खजूरका धोवन, नारियलका पानी (धोवन । केरका धोवन, वेरका धोवन, आँवलेका धोवन, इमलीका धावन अथवा इस प्रकारका और भी धोवन जाने और यदि वह अत्यम्लनहा, तुरतका धोया हुआ न हो, स्वादचलित हो और शस्त्रपरिणत हो तो कल्पता है।" दिगम्बराचार्य वट्टकेर-स्वामीने भी मूलाचारमें कहा हैગ્રહણ કરે. તિલેદક, તુદક, વેદક, ઓસામણ, વીર, ઉસ્તાદક તથા એ પ્રકારનું બીજું પણ પાણી ગૃહસ્થ આપેલું હોય તે કહપે છે. જે સાધુ કેરી વણ, અંબાડગ (ઓબેળિયાંનું) ધવણ, કઠાનું ધાવણુ, બીરાનું ધાવણ દ્રાક્ષને ધાવણુ, અનારનું ધાવણુ, ખજૂરનું વણ, નારિયેળનું પાણી (ધાવણ, કેરા ધાવણ, બોરનું ધોવણ, આંબળાનું ધોવણ, આંબલીનું ધાવણ, અથવા આ પ્રકારનું બીજું પણ વણ જાણે અને જે તે બહુ અલ (ખાટું) ન હોય. તરતને ધોખેલું ન હોય, સ્વાદચલિત હોય અને શસ્ત્રપરિણત હોય તો કપે છે." દિગંબરાચાર્ય વક્કેરવવામીએ પણ મૂલાચારમાં કહ્યું છે – Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪. ૧૫ २२ अध्ययन ५ उ. १ गा. ७६-७७-पानग्रहणविधिः "तिलतंडुल-उसणोदय, चणोदय-तुसोदय-अविद्धत्यं ।। अण्णं तहाविहं वा, अपरिणदं णेव गेण्हिज्जा ॥४७३॥” इति । इति गाथार्थः ॥७॥ तहि कीदृशं पानं गृहीयात् ? इत्यत आह-जं जाणेज' इत्यादि, 'अजीवं' इत्यादि । मूलम्-जं जाणेज चिराधोयं, मईए दसणेण वा। पडिपुच्छिऊण सुच्चा वा, जं च निस्संकियं भवे ॥७६॥ अजीब परिणयं नञ्चा, पडिगाहिज्ज संजए। ૧૯ ૨૦ ૨૧ ૨૨ ૨૩ अह संकियं भविजा, आसाइत्ताण रोयए ॥७७॥ छाया-~~-यजानीयाचिराद्धोतं, मत्या दर्शनेन वा । मतिपृच्छय श्रुत्वा वा, यच निश्शङ्कितं भवेत् ॥७६|| अजीवं परिणतं ज्ञात्वा, प्रतिगृह्णीयात्संयतः। अथ शङ्कितं भवेत, आस्वाद्य रोचयेत् ।।७७॥ सान्वयार्थः-मईए-बुद्धिसे वा-अथवा दसणेण देखनेसे पडिपुच्छिऊण:छाया-१ तिलतण्डुलोप्णोदकं चणकोदकं तुपोदकम् अविध्वस्तम् । अन्यत् तथाविधं वा, अपरिणतं नैव गृह्णीयात् ॥४७३॥ "तिलोदक, तन्दुलोदक, उष्णोदक, चनेका पानी, तुपका पानी, तथा इस प्रकारका और भी जल यदि अविश्वस्त (सचित्त) हो और शस्त्रपरिणत न हो तो ग्रहण नहीं करना चाहिए अर्थात् शस्त्रपरिणत हो तो लेना कल्पता है॥१॥" (मूलाचार गा. (४७३) ॥७५ ॥ कैसा धोवन ग्रहण करना चाहिए ? सो बताते हैं-'जं जाणेज्ज' इत्यादि, 'अजीचं' इत्यादि। "dिents, digars, Guptax, यथानु पाणी, तुपर्नु पाथी, तथा से પ્રકારનું બીજું પણ જળ જે અવિશ્વસ્ત (સચિત ) હાય અને શસ્ત્રપરિણત ન હોય તે ગ્રહણ કરવું ન જોઈએ અથત શસ્ત્રપરિણત હોય તે લેવું ક૯પે છે. (भूतासार 1. ४७3) (७५) युं धाप अधु ४२वु ? ते तावे छ:-जं जाणेज० प्रत्याहि, तया अजीव Vत्यादि Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ श्रीदभनेकामिकत्र पूजफर याभाग मुगा पार करते हुए सुनकर जनिस घोक्नको निराधोयनिरपोत-पात देरफा भोगा मानाणेजिमनाने,गम्या जन्मोनिरसकिय 'ससे वपा भान्त होगी या नहीं?' प्रकारकी गारहित भव हो तो उसे अजीव-जीवरहित-अनित और परिणामपरिणत नमाम्नानकर संजा साधु पटिग्गाहिये; आर-भय-अगर या संकियं इससे ठपाबूमेगी या नहीं? इस प्रकारको महासे युक्त भविज्जा हो तो उसे आमाइसाण-वसर करके रोयग-निर्णय फरे ॥७६||७७|| टीका-मत्या युदधा दर्शनेन प्रिया या पीतनले तदीयवर्णादिपरिज्ञानाय तत्राऽऽगमानुगामिन्या मनीपया दृष्टिनिपातेन वेति भावः, प्रतिपृच्छय-सन्य पृष्ठा श्रुत्वा वा तत्मविवचनं प्रश्नमन्तरेणाऽपि कस्यचिन्मुखाद्वा निशम्य यदाचरा दोतं जानीयात् , यच निश्शङ्कितम् अनुपयोगित्वशङ्कारहितं भवेत् तद् अनाव-भा. मुकं परिणतं स्वपरशस्त्रादिनाऽवस्यान्तरं प्राप्त मात्वा संयतः साधुः प्रतिगृहाचा ये तु 'घटिकाद्वयानन्तरं धावनजलं सचित्तं भवतीति मुहर्तात्परं तत्तीयमानुपा देय मित्याहुः, तन्न समीचीनम्, व्यञ्जनायुपलिप्तकरदधिावनार्थ पाकमदेश पुत्र आगमानुसार बुद्धि अथवा दृष्टिसे धोवनका वर्ण आदि जान कर पूछ कर अथवा किसीसे सुन कर धोवन बहुत देरका धोया हुआ हाता ग्रहण करे । तथा 'उपयोगी है या अनुपयोगी ?? इस प्रकारकी शकाका निर्णय करके प्रासुक तथा अवस्थान्तरको प्राप्त होगया जानकर साधु ग्रहण करे। जो लोग यह कहते हैं कि-' धोवन जल दो घड़ीके बाद सचित्त होनेसे अग्राह्य है। यह उनका कहना ठीक नहीं, क्योंकि, यदि दा घड़ीके बाद धोवन जल सचित्त हो जाय तो शाक आदिसे लिप्त हाथ આગમાનુસાર બુદ્ધિ અથવા દૃષ્ટિથી ધાવણ વદિ જાણી-પૂછીને અથવા કેઈ પાસેથી સાંભળીને ધાવણ બહુ વખતથી ઘેએલું હોય તે તે ગ્રહણ કરે તેમજ ઉપગી છે કે અનુપયેગી?' એ પ્રકારની શંકાને નિર્ણય કરીને પ્રાસુક તથા અવસ્થાતરને પ્રાપ્ત થએલું જાણીને સાધુ તે ગ્રહણ કરે. જે લોકો કહે છે કે-ધવણનું પાણી બે ઘડી પછી સચિત્ત હોવાથી અગ્રાહ્ય છે”તે તેમનું કહેવાનું બરાબર નથી. કારણ કે જે બે ઘડી પછી છેવણનું જળ સચિત્ત થઈ જાય તે શાક આદિથી ખરડાયેલા હાથ યા કડછી-આદિ Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ७६-७७ - पानग्रहणविधिः ] स्थापितजलस्य मुहूर्त्तानन्तरं तन्मते सचित्ततायां तदानीं तदुदकक्षालितकरदयदिना निरवद्याशनग्रहणमपि तेषां दोपावहं भवेत्, तत्संमतसचितजल संसृष्ट करदवसंसर्गवत्त्वात् । मुहूर्तात्परमेत्र धावनजलस्य सचिचत्वाङ्गीकारे 'अहुणाधोयं विवज्जए' इति प्रकृतमूत्रस्य 'जं जाणेज्ज चिराधोयं ' इति प्रकृतमुत्रस्य च विरोधापति:, तथाहि अघुनाधीतस्य मुहूर्त्तान्तर्गततया तत्र तन्मते सचितताया अभावे तद्वर्जनोपदेशाऽसङ्गतिः, चिराद्धौतस्य च मुहूर्त्तानन्तरं तन्मते सचित्ततया तदुपादानोपदेशस्य चासङ्गतिः स्यात्, तस्मात् पिपासापनोदनशक्तिशालिनचिराद्धौतस्य ग्रहणं शास्त्रसंमतमित्यवधेयम् । ४७३ 6 या कुडी आदि धोनेके लिए गृहस्थ (रसोया) रसोईके समय अपने पास एक पानीका बर्तन रखता है, उस जलसे हाथ और कुडछी धो धो कर दाल आदि परोसता है, ऐसी दशामें उक्त मतसे देर तक रक्खे रहने के कारण यदि वह हाथ या कुडछी आदिका धोवन सचित्त हो जाता है तो उस धोवनमें धोयी हुई कुडछी या हाथसे दिया जानेवाला निरवद्य अन्नादि भी उनको अग्राह्य हो जायगा । 'तहेबुचाचयं ' इस गाथाके अन्तिम चरणमें 'अहुणाधोयं विवज्जए ' यह कह कर भगवानने यह स्पष्ट कर दिया है कि तुरतका घोया हुआ जल अग्राह्य है, और इसीको 'द्विद्धं सुबद्धं भवति' इस न्यायसे 'जं जाणेज्ज चिराघोयं ' इस गाथासे सुस्पष्ट कर दिया है कि देरका धोया हुआ धोवन ग्रहण करना चाहिए । अतः दो घड़ीके बाद धोवनमें जीवोंकी उत्पत्ति मानना जैनागमसे विरुद्ध है और उत्सूत्र- प्ररूपणाका भागी बनना है । ધવાને માટે ગૃહસ્થ (સેાઇયે) સેાઇન સમયે પાતાની પાસે પાણીનું એક વાસણ રાખે છે, એ જળથી હાથ અને કડછી ધા–ધાઈને દાળ આદિ પીરસે છે, એવી દશામાં ઉક્ત મત પ્રમાણે કેટલાક સમય સુધી રહેલું હોવાને કારણે જો એ હાથ યા છી આદિનું ધાવણ ચિત્ત થઈ જાય તેા એ ધાવણમાં ધાએલી કછી ચા હાથથી આપવામાં આવતું નિરવદ્ય અન્નાદિ પણ એમને અગ્રાહ્ય नय तहेवुच्चावयं मे गाथाना अंतिम यशुभां अहुणाधोयं विवज्जए એમ કહીને ભગવાને એ સ્પષ્ટ કરી આપ્યું છે કે તુતનું ધેએલું જળ અગ્રાહ્ય छे, भने ने द्विर्वद्धं सुबद्धं भवति मे न्याये उसने जं जाणेज्ज चिराधोयं मे ગાથાથી સુસ્પષ્ટ કરી આપ્યું છે કે કેટલાક સમય પહેલાંનું ધએવુ ધવણુ ગ્રહણુ કરવું જોઇએ, એટલે એ ઘડી પછી ધાવણમાં જીવાની ઉત્પત્તિ માનવી એ જૈનાગમથી વિરૂદ્ધ છે અને ઉત્સૂત્રપ્રરૂષણાના ભાગી બનવું છે. અની Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीrathifora अथ शङ्कित= पिपासाऽपनोदकं न वा ?' इति संशयविषयो भवेत्सदा आस्वाथ= उक्तसंशयापनोदार्थं कचित्पीत्वा रोचयेत्= निर्णयेत् ॥ "अजीव" - मित्यनेन जीवराहित्यं 'परिणत'- मित्यनेन च सर्वयाऽचिखलं सूचितम् ॥७६॥७७॥ आस्वादनविधि प्रदर्शयन् निर्णयमकारमा 'धोय०' इत्यादि । ४७४ मूलम्-थोवमासायणट्ठाए, हत्थगम्मि दलाहि मे । ૧૨ ૧૧ * १० ८ मा मै अच्यंबिल पूर्य, नालं तिहं वित्तिय ॥७८॥ छाया -- स्तोकमास्वादनार्थे, हस्तके देहि मे । मा मे अत्यम्लं पूति, नालं तृष्णां विनेतुम् ॥७८॥ सान्वयार्थ:-(निर्णय करनेके लिए साधु दावासे कहे कि हे आयुष्मन् 1 ) आसायणट्टाए = चखनेके लिए धोवं=थोडासा घोक्न मे= मेरे हत्थगम्मि = हाथमें दाहि=दो, (हाथमें लेकर चखने पर यदि निश्चय हो जाय कि वह धोवन) अचविले= अत्यन्त खट्टा पूर्य-दुर्गन्धित और तिप-प्यास वित्तिए बुझानेके लिए नालं समर्थ नहीं है इसलिये यह मे=मेरे लिए उपयोगी मानहीं है ॥७८॥ तथा 'इससे प्यास मिट जायगी या नहीं ?" ऐसा सन्देह उत्पन्न हो जाय तो उस सन्देहको दूर करनेके लिए थोड़ासा पानी चख कर निर्णय करे । 'अजीव' पदसे जीवराहित्य और 'परिणयं ' पदसे मिश्रकी शंकाका अभाव सूचित किया है ॥ ७६ ॥ ७७ ॥ आस्वादन ( चखने) की विधि बताते हुए निर्णय करनेका प्रकार बताते हैं-' धोव० ' इत्यादि । તેમજ ૬ એથી તરસ મટશે કે નહિં ?? એવા સદૈડ ઉત્પન્ન થાય તે એ સદેહ દૂર કરવાને ચેહું પાણી ચાખીને નિર્ણય કરવા ગમીય શબ્દથી જીવાહિત્ય અને પાય શબ્દથી મિશ્રની શંકાના અભાવ સૂચિત કર્યાં છે. ( ૭૬-૭૭) આસ્વાદન (ચાખવા)ની વિધિ મતાવતાં નિર્ણય કરવાના પ્રકાર ખતાવે छे- थोत्र० धत्याहि. Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - IN अध्ययन ५ उ. १ गा. ७८-८१-पानग्रहणविधिः ४७५ टीका-आस्वादनार्थम् उपयोगित्वाऽनुपयोगित्वज्ञानार्थ स्तोकं स्वल्पं तिलतण्डुलादिजलं मे मम हस्ते 'देहि' इति दात्रीमुदिश्य वदेदिति भावः । तदत्तं धौतमलमास्वाय निश्चिनुयात्-इदम् अत्यम्ल पूति-अनिष्टगन्धयुक्त तृष्णां-पिपासां विनेतुम् अपाकर्तुं नालंन समर्थम्, इति मे मम मा नहि उपयोगीति शेपः॥७८|| निश्चयानन्तरं कर्त्तव्यमाह-'तं च' इत्यादि । — मूलम्-तं च अञ्चविलं पूर्य, नालं तिण्हं विणित्तए। १ १२ १३ डियाइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ॥ ७९ ॥ छाया-तचाऽत्यम्लं पूति, नालं तृप्णां विनेतुम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥७९॥ तब वह साधु क्या करे ?, सो बताते है-- सान्वयार्थः-अचंचिलं अत्यन्त खट्टे पूर्य-दुर्गन्धियुक्त और तिण्हं विणित्तए नालं-प्यास मिटानेके लिए असमर्थ ते च-उस धोवनको दितियं= देनेवालीसे साधु पडियाइक्खे-कहे कि तारिसं इस प्रकारका धोवन मे मुझे न कप्पड़ नहीं कल्पता है ॥७९॥ टीका-तच धौतजलमत्यम्लं पूति तृष्णां विनेतुं नालमिति ददतीं प्रत्याचक्षीत-तादृशं मे न कल्पते इति ॥७९॥ 'धोवन उपयोगी है या नहीं? इस शंकाका निवारण करने के लिए देनेवाली बाईसे साधु कहे कि-'मेरे हाथमें थोड़ासा पानी दो।' उस दिये हुए धोवनका आस्वादन करके निश्चय करे कि-'यह बहुत खट्टा है, दुर्गन्धवाला है, प्यास शान्त करनेके लिए समर्थ नहीं है अतः मेरे लिए उपयोगी नहीं है ॥७८॥' ऐसा निश्चय करके क्या करना चाहिए ? सो कहते हैं-तंच' इत्यादि। उस बहुत खट्टे, दुर्गन्धित और प्यास बुझाने में असमर्थ धोवनको देनेवाली बाईसे कहे कि ऐसा धोवन मुझे नहीं कल्पता है ॥ ७९ ॥ ધોવણ ઉપયોગી છે કે નહિ ?” એ શંકાનું નિવારણ કરવાને માટે વણ આપનારી બાઈને સાધુ કહે કે “મારા હાથમાં ડું પાણી આપે.' એ આપેલા ધાવણનું આસ્વાદન કરીને નિશ્ચય કરે કે “આ બહુ ખાટું છે, દુર્ગધ વાળું છે, તરસ શાંત કરવા માટે સમર્થ નથી, તેથી મારે માટે ઉપયોગી નથી.” (૭૮) એ નિશ્ચય કરીને શું કરવું જોઈએ? તે હવે કહે છે-૪૦ ઈત્યાદિ, એવા બહુ ખાટા, દુર્ગધિત અને તરસ છીપાવવામાં અસમર્થ ધાવણને આપનારી બાઈને સાધુ કહે કે એવું ધાવણ મને ક૫તું નથી (૭૯) Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ श्रीशकालिक 3 1 ་་ मूलम् तं च होज्ज अकामेणं, चिमणेण पडिच्छियं । ७ ८ . 11 12 12 tr तं अप्पणा न पिबे, नो वि अन्नस्स दावए ॥८०॥ छाया - तथ भवेद् अकामेन, विमनसा प्रतिगृहीतम् । तद् आत्मना न पिवेत्, नो अपि अन्यस्मै दापयेत् ||८०| सान्ययार्थ:-तंत्र उस मकारका घोवन यदि अकामेण विना इच्छा से दाताके अनुरोधसे तथा चिमणेणं=मनके दूसरी तरफ होनेके कारण पडिच्छिय-लेलिया गया हो तो धोको न तो अप्पणा= अपने खुद पिये-पिये और नो-न अन्नस्स अवि=दूसरोंकोभी दावए-देवे ॥ ८० ॥ टीका- 'तं च' इत्यादि । तच घौतजलं यदि अकामेन = स्वानिच्छया, दात्र्यनुरोधेनेति भावः विमनसा=अन्यमनस्कतया, 'हेती तृतीया' मतिगृहीतं तद् आत्मना स्वयं न पिवेत् नो अपि अन्यस्मै दापयेत् ||८०|| तर्हि किं कुर्यात् ? इत्याह- 'एगंत०' इत्यादि । २ मूलम् - पगतमवक्कमित्ता, अचित्तं पडिलेहिया । ૧ जयं परिहविज्जा, परिदृप्प पडिक्कमे ॥ ८१ ॥ छाया -- एकान्तमत्रक्रम्याऽचित्तं प्रत्युपेक्ष्य | यतं परिष्ठापयेत् परिष्ठाप्य मतिक्रामेत् ॥ ८१ ॥ उस धोका क्या करे ? सो बताते हैं--- सान्वयार्थः- एगतं एकान्त स्थानम अवकमित्ता=जाकरके अचित्तं = एके न्द्रियादिमाणीरहित अचित्त स्थानको पडिलेहिया=पूंजकर उस धोवनको जयं= 'तं च ' इत्यादि । यदि ऐसा पानी अनिच्छापूर्वक दाताके अनु रोधसे अथवा विना ध्यान से ग्रहण कर लिया हो तो स्वयं उसे न पिये और न दूसरेको पिलावे ॥ ८० ॥ फिर क्या करे सो कहते हैं- 'एगंत०' इत्यादि । તે ચ ઈત્યાદિ. ને એવું પાણી અનિચ્છાપૂર્વક દાતાના અનુરોધથી અથવ મે–ધ્યાનથી ગ્રહણ કરી લીધુ હાય તે પોતે તે ન પીએ અને ન ખાને चीवडावे. (८०) यही शुं ते छे - एगंत० धत्याहि. Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ८२-८३-कारणे गोचया भोजनविधिः ৪৩৩ यतनासे परिदृविज्जा-परिठवे-डाले, परिहप्प-परिठवके आकर पडिक्कमे इरियावहिया पडिकमे-करे ॥८१॥ . टीका-एकान्तं विविक्तमदेशम् , अवक्रम्यात्वा तत्र अचित्तम् एकेन्द्रियादिमाणिवर्जितं प्रत्युपेक्ष्य-निरीक्ष्य यत=सयत्नं यथास्यात्तथा परिठापयेत्, सविधि “योसिरे" इति त्रिरुच्चार्य व्युत्सृजेत् । परिष्ठाप्य परिष्ठापनानन्तरं ग्रामादहिरवहिर्वाऽऽसन्नभूमिमागत्य प्रतिक्रामेत् ऐर्यापथिकी कुर्यात् ॥८१॥ _' अशनपानग्रहणविधेरनन्तरं भोजनविधिमाह-'सिया' इत्यादि, 'अणुन्नवित्तु' इत्यादि च । मूला-सिया य गोयरग्गगओ, इच्छिज्जा परिभुत्तुळं । कुटगं भित्तिमूलं वा, पडिलेहिताण फासुयं ॥२॥ अणुन्नवित्तु मेहावी, पडिच्छन्नम्मि संवुडे । १७ हत्थगं संपमजित्ता, तत्थ भुंजिज्ज संजए ॥३॥ छाया-स्याच गोचराग्रगतः इच्छेत् परिभोक्तुम् कोष्ठकं भित्तिमूलं वा, प्रत्युपेक्ष्य मासुकम् ॥८२॥ अनुज्ञाप्य मेधावी, प्रतिच्छन्ने संते । हस्तकं संप्रमृज्य तत्र भुञ्जीत संयतः ॥८३॥ एकान्त स्थानमें जाकर एकेन्द्रिय आदि प्राणियोंसे रहित स्थान देखकर यंतनापूर्वक "वोसिरे" ऐसा तीन बार उच्चारण करके परिठवे। परिठवनेके पश्चात् गाँवमें या गाँवके बाहर ठहरनेके स्थान पर आकर इरियावहियाका प्रतिक्रमण करे ।। ८१॥ __ अशन-पान ग्रहण करने की विधि बतानेके याद आहार करनेकी विधि बताते हैं-'सिया य' इत्यादि, 'अणुन्नवित्तु' इत्यादि । એકાંત સ્થાનમાં જઈને એકેન્દ્રિય આદિ પ્રાણીઓથી રહિત સ્થાન જઈને यतनापू चोसिरे' मे पा२ भ्याए शन प२ि४वे. परिठया पछी ગામમાં યા ગામની બહાર રહેવાના સ્થાન પર આવીને ઈરિયાવહિયાનું प्रतिभए ४२. (८१) અશન-પાન ગ્રહણ કરવાની વિધિ બતાવ્યા બાદ આહાર કરવાની વિધિ मतावे छे-सिया यया तया अणुनवित्त एत्या. Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ श्रीदuestion सान्ययार्थः- गोयरग्गगओ गोरीमें गया हुआ मेहावी-सामाचारी जानकार मंजए साधु सिया ग्र=कदाचिद अगर बाल्यावस्थाके अथवा ला पनेके कारण वहीं परिभुक्षु-माहार करना इच्छिज्जा चाहे तो वहां फासूर्यमागुरु-एकेन्द्रियादिमाणी रति कुगं=कोठेको वा मात्रा भित्तिमूलं = मौतके समीपके स्थानको पढिलेहिताण = पुंजकर तथा दृष्टिसे देखकर अणुन्नवितु गृहस्थकी आज्ञा मांगकर तत्यां परिच्छन्नम्म ऊपरसे छाये हुए और संबुठे=चारों तर्फसे घिरे हुए स्थानमें हत्थगं हार्थोको अथवा अपने शरीरको संपमज्जित्ता = पुंजकरके (साधु) भुंजिज्ज आहार करे ||८२||८३ || टीका -- स्याच= कदाचित् गोचरागतः = भिक्षामनुप्रविष्टो मुनिः, बाल्य-लानत्य-पिपासादिकारणवशात्परिभोक्तुमिच्छेत् तदा प्राकम् = एकेन्द्रियादिप्राणिविवर्जितं कोष्टकम् =अन्तर्गृहादिकं वा = अथवा भित्तिमूलं कुड्यसमीपवर्तिप्रदेशं प्रत्युपेक्ष्य=दृष्ट्या विलोक्य अनुज्ञाप्य तत्स्वामिनोऽनुङ्गामादाय तत्र प्रतिच्छन्ने ऊर्ज तस्तृणादिभिराच्छादिते, सहते समन्तत आवृते किन्तु प्रकाशयुक्त प्रदेशे, यहा 'संवृतः' इति प्रथमान्तं संयतस्य विशेषणं तेन, मेधावी साधुसामाचारीकुशलः संयतः=साधुः संवृतः=मनोवाक्कायगुप्तः सन् हस्तकं हस्तौ संप्रमृज्य= संशोध्य, अथवा 'हस्तकम्' इति तृतीयार्थे प्रथमा, तथा च-दस्तकेन = इस्तं कायति = धातूना यदि भिक्षा के लिए गये हुए भिक्षुको बालकपन, ग्लानता अथवा प्यास आदि किसी कारणसे आहार करनेकी इच्छा हो जाय तो वहाँ प्राक कोठा अथवा भींतके पास कोने आदिकी प्रतिलेखना करके मकान के स्वामीकी आज्ञा लेकर ऊपरको तृण आदिसे छाये हुए चारों ओरसे चन्द किन्तु प्रकाशयुक्त स्थान में स्थित होकर मन वचन कायकी सम्यक् प्रकार प्रवृत्ति करता हुआ साधुसामाचारीका ज्ञाता मुनि हाथोंको જો શિક્ષાને માટે ગએલા ભિક્ષુને બાળકપણા, ગ્લાનતા અથવા તરસ આદિ કાઇ કારણે આહાર કરવાની ઈચ્છા થઈ જાય તે ત્યાં પ્રાસુક કાઠો અથ ભીંતની પાસે ખૂણુા આદિની પ્રતિલેખના કરીને ઇને ઉપર ઘાસ આદિથી છાએલા ચારે બાજુથી મધ પરન્તુ પ્રકાશયુક્ત મકાનના સ્વામીની આજ્ઞા થાનમાં રહીને મન વચન કાયાની સમ્યક્ પ્રકારે પ્રવૃત્તિ કરતાં સાધુ સમાચારીને નાતા મુનિ હાથને પ્રમાર્જિત કરીને (સાફ કરીને) યા હસ્તક (હસ્તગત તેણી Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ अध्ययन ५ उ. १ गा. ८२-८३-कारणे गोचर्या भोजनविधिः ४७९ मनेकार्थत्वात्मामोतीति हस्तकम् , ('आतोऽनुपसर्गे का' इति कमत्ययः) रजोहरणं तेन, तस्य धारणे हस्तस्य सर्वथा निमित्तत्वात्, मायः कक्षप्रदेशे धारणेऽपि हस्ताश्रयं विना तदीयधारणासम्भवाच । संप्रमृज्य-तत्स्थानं कायं च संशोध्य - भुञ्जीत अभ्यवहरेत् । यत्तु "हस्तकं मुखवस्विकारूपमादाय तेन कार्य संप्रमृज्य" इति व्याख्यातं तदयुक्तं, 'हस्तक' पदार्थस्य 'संप्रमृज्य' पदार्थेऽन्वयसम्भवे आदाये'-ति पदान्तराक्षेपपूर्वकमन्यपदार्थेऽन्वयकल्पनाया अनौचित्यात् । किञ्च कोप-व्याकरणादिपु हि हस्तकशब्दो मुखवस्विकारूपेऽर्थे न दृश्यते । शास्त्रेऽपि-"मुहपत्तिं पडिलेहिता" इत्यादि दृश्यते न तु 'हत्यगं' पडिलेहिता' इत्यादि । _यच्च-"विधिना तेन मुखवस्त्रिकारूपेण हस्तकेन कार्य प्रमृज्य तत्र भुञ्जीत" प्रमार्जित (साफ) करके या हस्तक अर्थात् हस्तगत रजोहरणसे काय __ और स्थानकी प्रमार्जना करके आहार करे । . किसी-किसीने 'हस्तकं संप्रमृज्य' का ऐसा अर्थ किया है कि 'मुखवस्त्रिका लेकर उससे शरीर--प्रमार्जना करे' ऐसा अर्थ करना ठीक नहीं है, क्योंकि मुखवस्त्रिकाके साथ प्रमार्जन करनेका सम्बन्ध मिलते न देख उन्हें एक 'आदाय' शब्द (लेकर) अपनी ओरसे मिला दिया है। इस प्रकार सम्बन्ध मिलाना उचित नहीं है। इसके सिवाय कोपोंमें कहीं 'हस्तक' शब्दका अर्थ मुखवस्त्रिका नहीं किया है और न व्याकरणमें ही ऐसा देखाजाता है। आगमोंमें 'मुहपत्ति पडिलेहित्ता' इत्यादि पद देखे जाते हैं, किन्तु 'हत्थगं पडिलेहित्ता' कहीं नहीं देखा जाता। तथा "मुखवस्त्रिकारूप हस्तकसे कायकी प्रमार्जना करके आहार करे" કાયા અને સ્થાનની પ્રાર્થના કરીને આહાર કરે. -ये हस्तकं संप्रमृज्य । सो म यो छ -'भुमपक्षिा લઈને તેથી શરીરની પ્રમાર્જના કરે, પણ એ અર્થ કરે એ બરાબર નથી, કારણ કે મુખવસ્ત્રિકાની સાથે પ્રમાર્જન કરવાને સંબંધ મળતો નહિ જેવાથી તેમણે એક માત્ર શબ્દ (લઈને) પિતાની તરફથી મિલાવી દીધો છે. આ પ્રમાણે સંબંધ મિલાવી દે એ ઊંચતા નથી. વળી તેમાં કયાંય હસ્તક” શબ્દને અર્થ મુખવસ્ત્રિકા કર્યો નથી અને વ્યાકરણમાં પણ એ અર્થ જોવામાં આવતું નથી, આગમમાં મુavā વિદિત્તા ઈત્યાદિ પદ જેવામાં આવે છે, डिन्तु इत्थगं पडिलेहिता ध्याय नपामा मापतुं नया તથા “મુખવસ્ત્રિકાર હસ્તકથી કાયની પ્રમાર્જન કરીને બહાર કરે” Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - ૪૮૦ श्रीदशकालिकमले इति व्याख्यातं तदप्ययुक्ततरम् । हस्ते मुखत्रिकाधारणे मुखयविकारणोदयभू. ताया: मूक्ष्मव्यापिसम्पातिमवायुकायादिनीवहिंसानिटनेरसिदया मुखपत्रिका मुख एष धारणीयेत्याशयस्य जागरूकत्यान, अत एव भगवताऽपि मूक्ष्मव्यापिसम्पातिमवायुकायादिनीयाऽयतनानिये मुखोपरि धारणीयसदोरकाटपुटमुखपगाणवस्वरवण्डरूपेऽर्षे मुखयतिकागदः प्रयुक्तो, न तु हस्तपत्रिकागन्द इति कथमपि दस्त कशब्देन मुखररिफारूपोऽयों न लभ्यते । एवं च तेन कायममार्जनफयनं सर्वथाऽऽगमविरुद्धमेवेति योध्यम् ॥८२||८३॥ ऐसी व्याख्या करना भी अत्यन्त अयुक्त है, क्योंकि मुखस्त्रिका धारण करनेका प्रयोजन सूक्ष्म, व्यापी, सम्पातिम तथा वायुकाय आद जीवॉकी हिंसाका परिहार करना है। मुखवत्रिकाको हाथमें रग्बनेस उक्त प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। इससे यह सिद्ध होता है कि मुख वस्त्रिका मुखपर ही धारण करनी चाहिए। इसलिए मुखके निमित्तसे होनेवाली, सूक्ष्म, व्यापी, सम्पातिम और वायुकाय आदि जीवाका विराधनाकी निवृत्तिके लिए मुख पर धारण करने योग्य उस मुख परिमाण सदोरक और आठ पुड़वाले वस्त्रखण्डको भगवानने मुख: चत्रिका' शब्दसे कहा है, 'हस्तवत्रिका' शब्दका प्रयोग कहीं नही किया, अत एव 'हस्तक' शब्दसे मुखवस्त्रिकाका अर्थ किसीभी प्रकार नहीं निकल सकता। इस प्रकार 'उससे कायकी प्रमार्जना करना' यह अर्थ आगमसे सर्वथा विरुद्ध है ।। ८२ ।। ८३ ।। એવી વ્યાખ્યા કરવી એ પણ અત્યંત અયુકત છે, કારણ કે મુખ વશ્વિક ધારણ કરવાનું પ્રયોજન સૂક્ષમ, વ્યાપી, સમ્પતિમ તથા વાયુકાય આદિ જુની હિંસાને પરિહાર કરે એ છે. મુખવસ્ત્રિકાને હાથમાં રાખવા ઉક્ત પ્રયજન સિદ્ધ થઈ નથી. એથી એમ સિદ્ધ થાય છે કે મુખવસ્ત્રિકા મુખ પર જ ધારણ કરવી જોઈએ તેથી મુખને નિમિત્ત થનારી સૂમ, વ્યાપી, સંપતિમ અને વાયુકાય આઇ જીવોની વિરાધનાની નિવૃત્તિને માટે મુખ પર ધારણ કરવા એગ્ય એ સુખ પરિમાણું દેરા સાથેના અને આઠ પડવાળા વખંડને ભગવાને “મુખત્રિકા” કહી છે, “હરતસ્ત્રિકા' શબ્દને પ્રગ કર્યો નથી. એટલે ‘દુસ્તક” શબદ શક્ષિકાને અર્થ કઈ પણ પ્રકારે નીકળી શકતું નથી. એ રીતે “સબઝિ થી કાયાની પ્રાર્થના કરવી” એ અર્થ આગમથી સર્વથા વિરૂદ્ધ છે, (૮૨-૮૩) Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ८४-८६-आहारगतवीजादिपरिठापनविधिः ४८१ - मूलम्-तत्थ से भुजमाणस्स, अद्वियं कंटओ सिया। तण-कढ-सकरं वावि, अन्नं वावि तहाविहं ॥८॥ ૧૩ ૧૪ ૧૫ ૧૬ ૧૭ ૧૮ ૧૯ तं उक्खिवित्तु न निक्खिवे, आसएण न छड्डए । ૨૧ ૨૦ ૨૨ ૨૩ ૨૪ हत्थेण तं गहेऊण, एगंतमवक्कमे ॥८५॥ छाया-तत्र तस्य भुञानस्य, अष्ठिकं कण्टका स्यात् । तृण-काठ-शकर वाऽपि, अन्यद्वापि तथाविधम् ।।८४॥ तद् उत्क्षिप्य न निक्षिपेत्, आस्येन नोज्झेत् । हस्तेन तद् गृहीत्वा, एकान्तमपक्रामेत् ॥८५॥ सान्वयार्थः-तत्यवहां कोठे आदिमें भुंजमाणस्स आहार करते हुए सेउस साधुके (आहारमें) अट्ठियंधीज कंटओ-कांटा तण-तिनका कह-काठ वावि और सकरं छोटा कंकर वा तथा अन्नं वावि औरभी तहाविहं-उस प्रकारका पदार्थ सिया-आगया हो तो तं-उसे उक्खिवित्तु निकालकर न निक्खिवे इधर-उधर नहीं डाले, तथा आसएणं-मुखसे भी न छड्डएन फेंकेने यूके (किन्तु)तं-उसे हत्थेण-हाथसे गहेऊण लेकर एगंत-एकान्त स्थानमें अवकमे जावे ॥८४॥८५॥ टीका-'तत्थ से' इत्यादि, 'तउक्खिवित्त' इत्यादिच। तत्र कोष्टकादिस्थाने भुञ्जानस्य तस्य भिक्षोभॊजने अष्ठिकं बीज, कण्टका तीक्ष्णानों द्वम-गुल्म-लताघविशेपः, अपिवा तृण-काष्ठ-शर्कर-तृणं च काष्ठं च शर्करा चैतेपां समाहारः। तत्र वर्ण-कुशादिकं, का;-खदिरादिसमुद्भवं दारु, शर्करा क्षुद्रपापाणखण्डम् । अन्यदपि वा तथाविध तज्जातीयं स्यात् भवेत् तद् अप्ठिकादिकम् उत्क्षिप्य न निक्षिपेत्-उत्क्षेपणं कृत्वा यत्र तत्र न क्षिपेत्, आस्येन मुखेनापि नोझेत्-थूत्कृत्य 'तत्थ से ' इत्यादि, 'तं उक्खिवित्तु' इत्यादि । उस कोठे आदिमें आहार करनेवाले भिक्षके भोजनमें बीज, काँटा, तिनका, लकडी, किराकरा-ककर या और कोई उस प्रकारकी वस्तु हो तो उसे निकाल कर जहाँ-तहाँ न डाले तथा मुखसे भी न थूके किन्तु उसको हाथमें तत्थ से० पत्या, तथा तं उक्खिवित्त० पत्या. स मां माहार કરનારા ભિક્ષુના જનમાં બીજ, કોટા તણખલાં, લાકડું, કાંકરી-કાંકરા યા એવા પ્રકારની બીજી કોઈ વસ્તુ હોય તે તે કાઢી નાંખી ત્યાં-ત્યાં નાંખે નહિ, તથા Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - श्रीदशवकालिको इति व्याख्यातं तदप्ययुक्ततरम् । हस्ते मुख्य निकाधारणे मुखपत्रिकाधारणोदेश्यभू. ताया: गृहमन्यापिसम्पातिमवायुकायादिनीवर्टिसानिटरसिया मुखरखिका मुख एवं धारणीयेत्यागयस्य जागरूपत्यान, अत एव भगवताऽपि मूक्ष्मव्यापिसम्पातिमवायुकायादिनीवाऽयतनानिपत्तये मुखोपरि धारणीयसदोरकाटपुटमुखप्रयाणवखरखण्डरूपेऽथे मुखयरित्रकारान्दः प्रयुक्तो, न तु इस्तवत्रिकाशब्द इति कयमपि हस्तकशब्देन मुखाग्निकारूपोऽयों न लभ्यते । एवं च तेन कायप्रमार्जनफयनं सर्वयाऽऽयमविरुद्धमेवेति योध्यम् ॥८२||८३॥ ऐसी व्याख्या करना भी अत्यन्त अयुक्त है, क्योंकि मुखस्त्रिका धारण करनेका प्रयोजन सूक्ष्म, व्यापी, सम्पातिम तथा वायुकाय आदि जीवोंकी हिंसाका परिहार करना है। मुखयस्त्रिकाको हाथमें रखनस उक्त प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। इससे यह सिद्ध होता है कि मुख वस्त्रिका मुखपर ही धारण करनी चाहिए । इसलिए मुखके निमित्तस होनेवाली, सूक्ष्म, व्यापी, सम्पातिम और चायुकाय आदि जीवाका विराधनाकी निवृत्तिके लिए मुख पर धारण करने योग्य उस मुखः परिमाण सदोरक और आट पुड़वाले वस्त्रखण्डको भगवानने 'मुखः यस्त्रिका' शब्दसे कहा है, 'हस्तवत्रिका' शब्दका प्रयोग कहीं नहा किया, अत एव 'हस्तक' शब्दसे मुखवत्रिकाका अर्थ किसीभी प्रकार नहीं निकल सकता। इस प्रकार 'उससे कायकी प्रमार्जना करना' यह अर्थ आगमसे सर्वथा विरुद्ध है ।। ८२ ॥ ८३ ॥ એવી વ્યાખ્યા કરવી એ પણ અત્યંત અયુકત છે, કારણ કે મુખવસ્ત્રિકા ધારણ કરવાનું પ્રયોજન સૂક્ષમ, વ્યાપી, સાતિમ તથા વાયુકાય આદિ જેની હિસાબી પરિહાર કરે એ છે. મુખવસ્ત્રિકાને હાથમાં રાખવા ઉક્ત પ્રયજન સિદ્ધ થતું નથી. એથી એમ સિદ્ધ થાય છે કે મુખવસ્ત્રિકા મુખ પર જ ધારણ કરવી જોઈએ તેથી સુખના નિમિત્ત થનારી સૂમ, વ્યાપી, સંપતિમ અને વાયુકાય આ જીવોની વિરાધનાની નિવૃત્તિને માટે મુખ પર ધારણ કરવા યોગ્ય એ મુખ પરિમાણું દેરા સાથેના અને આઠ પડવાળા વસ્ત્રખંડને ભગવાને મુખવસ્તિકા” हे छ, तपक्षिा ' शहनी प्रयोग या नथी. मेरो स्त' श६॥ મુખત્રિકાને અર્થ કોઈ પણ પ્રકારે નીકળી શકતા નથી. એ રીતે મુખવાસ્ત્રિ , કાયાની કમાર્જના કરવી” એ અર્થ આગમથી સર્વથા વિરૂદ્ધ છે. (૮૨-૮૩) Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८३ - - अध्ययन ५ उ. १ गा. ८७-८८-उपाश्रयागतस्य भोजनविधिः विनयेन भविश्य, सकाशे गुरोर्मुनिः। ऐर्यापथिकीमादाय, आगतश्च प्रतिक्रामेत् ॥८८॥ सान्वयार्थ:-सिया य-अगर भिक्खू साधु सिज्ज वसति उपाश्रयमें ही आगम्म आकरभुत्तु आहार करना इच्छिज्जा चाहे तो सपिंडवायं-भिक्षाके सहित आगम्म-आकर विणएण- मत्थएण वंदामि निस्सीहि' इस प्रकार वोलनेरूप विनयसे पविसित्ता उपाश्रयमें प्रवेश करके से-वहां उड्डयं भोजनके स्थानको पडिलेहिया अच्छी तरह देखकर गुरुणो-रत्नाधिकके सगासेसमीप आगओ य आया हुआ मुणी=मुनि इरियावहियं-इरियावहियाका पाठ आयाय-लेकर-पढकर पडिकमेकायोत्सर्ग करे। तात्पर्य यह है कि प्रवल पिपासा आदि खास कारण के विना तो उपाश्रयमें आकर ही साधुको आहार करना चाहिये किन्तु गृहस्थके घरमें नहीं करे ।।८७॥८८। ___टीका-सियाय' इत्यादि, 'विणएणं इत्यादि च। भिक्षुः साधुः शय्यां= वसतिं स्यात् एव आगम्य भोक्तुमिच्छेत् । 'अत्र स्यादित्यव्ययमवधारणाथै तेन 'प्रवलपिपासादिकारणाभावे वसति विहायाऽन्यत्र न भोक्तव्य'मिति तात्पर्य गम्यते। तदा सपिण्डपानं-पिण्डपातो-भिक्षालाभस्तेन सहाऽऽगम्य विनयेन-" मत्थएण वंदामि निस्सीहि" इतिपठनलक्षणेन प्रविश्य उपाश्रयमिति शेपः, से सः, यद्वा सेशब्दो मगधदेशप्रसिद्धः 'तत्र'-शब्दार्थ वर्तते तेन से-तत्र उन्दुकं स्थानं प्रत्यु 'सिया य' इत्यादि, 'विणएणं' इत्यादि। साधु उपाश्रयमें आकर ही आहार करनेकी इच्छा करे। यहाँ 'स्यात्' अव्यय निश्चयघोधक है इससे यह तात्पर्य प्रगट होता है कि पिपासा आदि किसी प्रबल कारणके विना उपाश्रयके सिवाय अन्यत्र आहार नहीं करना चाहिए । अत एव भिक्षा लाकर "मत्थएण चंदामि निस्सीहि यह पाठ उच्चारण करके उपाश्रयमें प्रवेश करे फिर भोजन करनेके स्थानकी सिया य० त्यादि, तथा विणएणं त्या. साधु उपायमा मापीने कर આહાર કરવાની ઈરછા કરે, અહીં સ્પાત અવ્યય નિશ્ચયધક છે, તેથી એ તાત્પર્ય પ્રકટ થાય છે કે તરસ આદિ કેઈ પ્રબળ કારણ વિના ઉપાશ્રય સિવાય अन्यत्र मार न वो नये सेट मि सापाने मत्थएण वंदामि निस्सीहि એ પાઠ ઉચ્ચારીને ઉપાશ્રયમાં પ્રવેશ કરે. પછી ભજન કરવાને સ્થાનની સમ્યક્ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ श्रीaatnifera नक्षिपेत् । तहिं किं कुर्यात् इत्याह-तद् हस्तेन गृहीला - एकान्तमापक्रामेत् गच्छेत् ॥८४॥८५॥ मूलम् - एगंतमवकमित्ता, अचित्तं पडिलेहिया ५ ७ जयं परिहविजा, परिहृप्प पडिक्कमे ॥ ८६ ॥ छाया --- एकान्तमुपक्रम्याऽचितां मत्युपेक्ष्य | यत परिष्ठापयेत्, परिमाप प्रतिक्रामेत् ॥८६॥ एकान्त में जाकर क्या करे ? सो बताते हैं- सान्वयार्थ:- एतं = एकान्त स्थानमें अवकमित्ता=जाकर के अचित्तं = एकेन्द्रियादिमाणीरहित अचित स्थानको पडिलेहिया पुंजकर उस घोवनको जयन यवना से परिहविज्जा = परिटवे डाले, परिट्टप्प=परिठत्रके आकर पडिकमे-रियावहिया पडिक - करे ॥८६॥ टीका- 'एगंत०' इत्यादि । त्रिजनप्रदेशं गत्वां अचितां भूमिं चक्षुषा निरीक्ष्य वीजादिकं सपत्नं व्युत्सृजेत्, तदनु स्थानमागत्य प्रतिक्रामेदऐर्यापथिकों कुर्या दिति भावः । * ૧ ૧ 3 પ मूलम् - सिया य भिक्खू इच्छिजा, सिजमागम्म भुतुरं । सपिंडपायमागम्म उडुअं से पडिलेहिया ॥ ८७ ॥ १३ ११ १४ ૧૦ 11 ૧૬ ૧૫ 16 विणएणं पविसित्ता, सगासे गुरुणो मुणी । २० ૧ ૧૭ ૧૮ ૨૧ इरियra forमायाय, आगओ य पडिकमे ॥ ८८ ॥ छाया - स्याच्च भिक्षुरिच्छेत् शय्यामागम्य भोक्तुम् । सपिण्डपातमागम्य, उन्दुकं से (तत्र) प्रत्युपेक्ष्य ॥८७॥ लेकर एकान्त स्थानमें जावे ॥ ८४ ॥ ८५ ॥ 'ein' इत्यादि । एकान्त में जाकर अचिन्त भूमि देख कर वहाँ earth साथ उस बीज काँटे आदिको डाले। फिर अपने स्थान पर आकर ईरियावहियाका प्रतिक्रमण करे ॥ ८६ ॥ મુખથી પણ થૂકે નહિ, પરંતુ તેને હાથમાં લઈને એકાન્ત ંત ઇત્યાદિ. એકાન્તમાં જઇને અચિત્ત ભૂમિ એ ખીજ કાંટા આદિને નાંખે. પછી પેાતાના સ્થાન પ્રતિક્રમણુ કરે. (૮૬) સ્થાનમાં જાય. (८४-८५) જોઇને ત્યાં ચતનાપૂર્વક પર આવીરે પાડયાર્ન Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ८९-९१ - गोचरी गतातिचारालोचनाविधिः ४८५ टीका - संयतः = कायोत्सर्गस्थो मुनिः, गमनागमने गतागते चैव भक्ते पाने च संजातं निश्शेष= समग्रम् अतिचारं = मुनिमर्यादालङ्घनलक्षणम् यथाक्रमम् आभोग्य== सोपयोगं विचिन्त्य ऋजुमज्ञः = सरलबुद्धि : अनु द्विग्नः = प्रशान्तः, अन्याक्षिप्तेन = अव्याकुठेन चेतसा = मनसा गुरुसकाशे =शुद्धं ममादादिवशेनाऽशुद्धं वा यद् यस्माद् यत्र वा यथा गृहीतं भवेत् तदपि गुरुसमीपे कथयेदित्यर्थः । 'उज्जुपपन्नो' इत्यनेनाऽकुटिलमतिरेव सम्यगालोचयतीति सूचितम्। 'अणुविग्ग' अनेन क्षुधादिपरिपहजेतृत्वमावेदितम् । 'अव्यक्श्वित्तेण चेयसा' इत्यनेन 'एकाग्र चितेनैवाऽविचारस्य सम्यक् स्मरणं भवती' ति स्पष्टीकृतम् ||८९ ||१०|| कायोत्सर्ग में स्थित होकर गमनाऽऽगमनमें, तथा आहार पानीके लेनेमें जो अतिचार लगे हों उन सबका क्रमशः चिन्तन करके सरलबुद्धि शान्त-चित्तवाला संयमी व्याकुलतारहित चित्तसे गुरुके समीप आलोचना करे । प्रमाद आदिके वशसे जहां जैसा शुद्ध या अशुद्ध आहार आदि लिया गया हो वह भी गुरुसे निवेदन करे | $ 'उज्जुप्पन्नो ' पदसे यह सूचित किया है कि कुटिलतारहित बुद्धिवाला ही यथार्थ आलोचना कर सकता है। 'अणुविग्गो' पदसे क्षुधा आदि परीपहोंका जीतना प्रगट किया है। 'अव्वक्खिन्तेण चेधसा ' पदसे यह सूचित किया है कि एकाग्र चित्तसे ही अतिचारोंका अच्छी तरह स्मरण हो सकता है ॥ ८९ ॥ ९० ॥ કાર્યોત્સર્ગોમાં સ્થિર થઈને ગમનાગમનમાં, તથા આહારપાણી લેવામાં જે અતિચાર લાગ્યા હાય તે સર્વાંનું ક્રમશઃ ચિંતન કરીને સરલબુદ્ધિ શાન્ત-ચિત્તવાળા સચમી વ્યાકુળતા-રહિત ચિત્તથી ગુરૂની સમીપે આલેચના કરે. પ્રમાદ આદિને વશ થઇને જ્યાં જેવે! શુદ્ધે યા અશુદ્ધ માહાર આદિ લેવામાં આવેલ હોય તે પશુ ગુરૂને નિવેદન કરે, ઉન્નુન્પો શબ્દથી એમ સૂચિત કરવામાં આવ્યું છે કે કુટિલતારહિત युद्धिवासो यथार्थ आलोचना श्री शडे छे, अणुव्विग्गो शब्दथी क्षुधा माहि परीषहोने लतवानु अउट करवामां मायुं छे. अव्त्रक्खित्तेण चेयसा शब्दथी એમ સૂચિત કર્યું છે કે એકાગ્ર-ચિત્તથી જ અતિચારાનું સારી રીતે સ્મરણ થઈ राधे छे. (८-७०) Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीदशवकालिको पेक्ष्य-सम्पद निरीक्ष्य गुरोरत्नाधिकस्य सफाशे आगतन मुनिः ऐयापयिकी: "इच्छामि पडियामि" इत्यादिलक्षणाम् आदाय-पटिस्या पविक्रामेत्-कायोत्सो कुर्यात् ॥८॥८॥ तंत्र (कायोत्सर्गे) किंपुर्यात् इत्याह-'आमोहताण' इत्यादि, 'उज्जुप्पन्नों इत्यादि च। मूलम्-आभोइत्ताण नीसेसं, अइयारं जहक्कम । गमणागमणे चैव, भत्ते पाणे य संजए ॥८९॥ उज्जुप्पन्नो अणुविग्गो, अवक्खित्तेण चेयसा। आलोए गुरुसगासे, जं जहा-गहियं भवे ॥९० ॥ छाया-आभोग्य निश्शेषम् , अविवार ययाक्रमम् । गमनागमने चैव, भक्त पाने च संयतः १८९॥ ऋजुप्रज्ञः अनुद्विग्नः, अन्याक्षिप्लेन चेतसा। आलोचयेद् गुरुसकाशे, यद् यथा गृहीतं भवेत् ।।९०॥ सान्वयार्थ:-संजए-कायोत्सर्गमें रहा हआ मुनि गमणागमणे-जानेआनेभ वेव और भत्ते-आहार य-तथा पाणे-पानीके ग्रहण करनेमें (लगे हुए। नीसेसं-सब प्रकारके अइयारं अतिचारोंको, तथा जंजो अशनादि जहार जिस प्रकार गहियं भवे ग्रहण किया हुआ हो उसे भी, जहक्कम यथाक्रमअनुक्रमसे आभोइत्ताण-उपयोगसहित चिन्तन करके, उज्जुप्पन्नी-सरल बुद्धि वाला अणुश्विग्गो-उद्वेगरहित वह मुनि अव्वक्खित्तण-विक्षेपरहित-एकान चेयसा-चित्तसे गुरुसगासे-गुरुके समीप आलोए-आलोवे ।।८९॥९०। सम्यक् प्रकार प्रतिलेखना करके दीक्षामें बड़े मुनिके समीप आकर "इच्छामि पडिकमि” इत्यादि ईरियावहियाका पाठ बोल करक कायोत्सर्ग करे ॥ ८७॥ ८८ ॥ कायोत्सर्गमें क्या करना चाहिए सो कहते हैं-'आभोइत्ताण' इत्यादि, 'उज्जुप्पन्नो' इत्यादि। १३ प्रतिमना शर ीक्षामा माटो मुनिनी सभी२ मावीर इच्छामि पडिकमिउँ ઈત્યાદિ ઈરિયાવહિયાને પાઠ બેલીને કાર્યોત્સર્ગ કરે. (૮૭-૮૮). अयोसभा शु ४२वु नये ते ४ छ-आभोइत्ताणत्या . तथा उज्जुप्पन्नो० ७त्यादि. Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ९२-९४-कायोत्सर्गादौ चिन्तनमकारः ४८७ छाया- अहो ! जिनैः असावया, रतिः साधुभ्यो देशिता । मोक्षसाधनहेतोः, साधुदेहस्य धारणाय ||९२।। सान्वयार्थ:-अहो आश्चर्य है कि-मोक्खसाहणहेउस्स-मोक्ष प्राप्तिके निमित्तभूत साहुदेहस्स-साधुशरीरके धारणा-निर्वाह-स्थितिमात्र के लिए साहण-मुनियोंको जिणेहि-तीर्थङ्कर भगवानने असावज्जा-निर्दोष वित्तीभिक्षावृत्ति-(आचार) देसिया बताई है ॥१२॥ ___टीका--अहो आश्चर्ये मोक्षसाधनहेतोः अपवर्गसिद्धिनिमित्तभूतस्य साधुशरीरस्य धारणाय स्थितिमात्रार्थ साधुभ्यः मुनीनुद्दिश्य जिनैः तीर्थङ्करैः, असाक्या-दोपरहिता वृत्तिः भिक्षालक्षणा देशिता-उपदिष्टा ॥१२॥ मूलम् णमुक्कारेण पारित्ता, करित्ता जिणसंथवं । सज्झायं पट्टवित्ताणं, वीसमेज खणं मुणी ॥१३॥ छाया-नमस्कारेण पारयित्वा, कृत्वा जिनसंस्तवम् । __ स्वाध्यायं पठित्वा, विश्राम्येत् क्षणं मुनिः ॥१३॥ सान्वयार्थः-कायोत्सर्ग में पूर्वोक्त प्रकार से चिन्तन करनेके वाद मुणी-साधु नमुक्कारेण नमस्कार मन्त्रसे पारित्ता-कायोत्सर्गको पार-समाप्त करके जिणसंथवं"लोगस्स उज्जोयगरे" इत्यादि संपूर्ण जिणसंथव-(जिन भगवान्की स्तुति) करित्ता-करके तथा सज्झायं-सज्झाय-कमसे कम मूलशास्त्रकी पांच गाथाओंका स्वाध्याय पट्ठवित्ता-पढकर खणं क्षणभर 'जितनेमें दूसरे मुनिराज भी शामिल हो जाते हैं' इस अभिमायसे कुछ देर बीसमेज्ज-विश्राम करे ॥१३॥ _____टीका–णमुकारेण' इत्यादि । मुनिः संयतः नमस्कारेण= णमो अरिहंताणं' इत्युच्चारणलक्षणेन कायोत्सर्गमिति शेपः, पारयित्वा-समाप्य जिनसंस्तव"लोगस्स अहो! यह शरीर मोक्षकी सिद्धिका कारण है अतः इसकी स्थितिके लिए तीर्थङ्कर भगवानने साधुओंको निर्दोप भिक्षा लेनेका उपदेश दिया है ॥ ९२ ॥ __ 'णमुकारेण' इत्यादि । मुनि 'णमो अरिहंताणं' पदका उच्चारण करके कायोत्सर्गको समाप्त करे । फिर 'लोगस्स उज्जोयगरे' इत्यादि અહો! આ શરીર મેક્ષની સિદ્ધિનું કારણ છે, એટલે એની સ્થિતિને માટે તીર્થકર ભગવાને સાધુઓને નિર્દોષ ભિક્ષા લેવાને જ ઉપદેશ આપે છે. (૨) णमुक्कारेण त्यादि. मुनि णमो अरिहंताणं पहनु स्यारए प्रशन यो. ત્સર્ગને સમાપ્ત કરે, પછી સ્ત્રીનસ ૩જોયા ઈત્યાદિ જિનસંસ્તવ પૂર્ણ કરીને Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ भीमकालियो किया है वह और पीछे लगे हर किया हो तो तस्सा रहा है मूलम् न सम्ममालोइयं हुजा, पुचि पच्छा व जं कडं। पुणो पडिकमे तस्स बोसहो चिंतए इमं ॥९१ ॥ छायान सम्पगालोचितं भवेद, पूर्व पाहा यकृतम् । पुनः मतिकामेत्तस्य, व्युत्पप्रणिन्तयेदिदम् ॥९॥ सान्वयार्थ:-जै-जो अविवार पुब्धि-पहले वन्तया पच्छा-पीछे कई किया है वह सम्मं सम्यक प्रकारसे अच्छी तरह याने 'पहले लगे हुए पापको पहले आलोवे और पीछे लगे हुए पापको पीछे आलोवे' इस प्रकार आलो. इयंभालोचित न फुज्जा नहीं किया हो तो तस्स-उस अविचारको पुणोफिरसे पडियमे आलोवे, (और) चोसहोल्कायोत्सर्गमें रहा हुआ साधु इमइस आगे कहा जानेवाला' मकार चिंतए-चिन्तन करे ॥१॥ टीका---'न सम्मः' इत्यादि । यत् व्यस्मादेतोः पूर्व पत्राद्वा कृतविचार सम्यक-मापत मागालोचितव्यं पवात्कृतं च पश्चादालोचितव्यमिति क्रमेण आला चितकार्शितं न भवेदतः तस्य अविचारस्य (सम्बन्धसामान्ये पष्ठी) पुनः प्रतिक्रामेत् । व्युत्स्ट कायोत्सर्गस्थः इदं वक्ष्यमाणं चिन्तयेत् ।।९१॥ तदेवाऽऽह-'अहो' इत्यादि। मूलम्-अहो जिणेहिं असावजा, वित्ती साहूण देसिया । मोक्खसाहणहेउस्स, साहुदेहस्स धारणा ॥ ९२॥ " 'न सम्म' इत्यादि। आगे-पीछे किये हुए अतिचारोंकी सम्यक प्रकार अर्थात् पहले किये हुए अतिचारोंकी पहले और पश्चात् किय हुएकी पश्चात-आलोचना न की गई हो तो अतिचारोंका पुनः प्रतिक्रमण करना चाहिए और कायोत्सर्गमें स्थित होकर ऐसा ( अगली गाधाम कहे जानेवाला) विचार करे॥९॥ उसी विचारको कहते हैं-'अहो' इत्यादि । જ ર૦ ઇત્યાદિ. આગળ પાછળ કરેલા અતિચારની સમ્યક પ્રકારે અર્થાત પહેલાં કરેલા અતિચારની પહેલાં અને પાછળ કરેલા અતિચારની પાછળ આલોચના ન કરવામાં આવી હોય તે અતિચારોને પુન:પ્રતિક્રમણ કરવું જોઈએ અને કાસગમાં સ્થિત થઈને એવા (આગલી ગાથામાં કહેવામાં આવનાર છે. વિચાર કરે (૯૧). विवार ३ ४ छे-अहो. त्याहि. Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ९४-९५ - अन्यमुनिभ्य आहारग्रहणार्थना ४८९ एवं विचिन्त्य पूर्वे स्वभागमन्नादिकं ग्राहयितुं सर्वेषु मुनिषु रत्नाधिकं मायेत् । यदि गृह्णीयात्तर्हि सम्यक् नाङ्गीकुर्याच्चेदेवं निवेदयेत् - "आर्यपादाः ! कस्मैचिन्मुनये भवद्भिः स्वयमेव वितीर्यता " मिति । अथ रत्नाधिको यथेच्छं दद्यात् । यदि चादत्वा रत्नाधिकः 'त्वमेव यथेच्छं प्रयच्छे' ति ब्रूयात् तदा तेन शिष्येण किं कर्त्तव्यम् ? इत्याह- 'साहो' इत्यादि । २ 1 3 ५ * मूलम- साहवो तो चियत्तेणं, निमंतिज्ज जहक्कमं । { ७ . * ૧૧ ૧૨ १३ जह तत्थ केइ इच्छिजा, तेहिं सद्धिं तु भुंज ॥ ९५ ॥ छाया - साधून ततः चियत्तेणं, निमन्त्रयेद् यथाक्रमम् | यदि aasu इच्छेयुः तैः सार्द्धं भुञ्जीत ॥९५॥ " कर्मोकी निर्जराका अभिलापी साधु विश्राम करते समय इस मुक्ति रूप हितके करनेवाले अर्थका चिन्तन करे - यदि कोई मुनिराज मुझ पर अनुग्रह करके मेरे भागके अन्न आदिको ग्रहण करें तो मैं इस दुस्तर भवसागर से तिर जाऊँ ॥ ९४ ॥ ऐसा विचार करके प्रथम सब मुनियोंमे जो रत्नाधिक (दीक्षा में घड़े ) हों उनसे अपना भाग ग्रहण करनेकी प्रार्थना करे। यदि ग्रहण करें तो अच्छा ही है । न ग्रहण करें तो ऐसा निवेदन करे - 'हे भदन्त ! आप ही किसी मुनिको यह आहार वित्तीर्ण कीजिए' फिर रत्नाधिक इच्छानुसार देदेवें । यदि वे न देकर यह आज्ञा देवें कि- 'तुम्ही इच्छानुसार देदो ' तो शिष्यको क्या करना चाहिए ? सो बताते हैं- 'साहवो' इत्यादि । કર્માની નિર્જરાને અભિલાષી સાધુ વિશ્રામ કરતી વખતે આવા કિતરૂપ હિતના કરવાવાળા અર્થનું ચિંતન કરો કેઇ મુનિરાજ મારા પર અનુગ્રહ કરીને મારા ભાગના અન્ન આદિને ગ્રહણ કરે તે હું આ દુસ્તર ભવસાગરથી તરી જઉં.(૯૪) એવા વિચાર કરીને પહેલાં અધા નિઓમાં જે રાધિક ( દીક્ષામાં વડા ) હોય તેમને પેાતાને લાગ શ્રૃણ કરવાની પ્રાર્થના કરે. જો તે ગ્રહણ કરે તે સારૂં, ન ગ્રહણ કરે તે એવું નિવેદન કરે કે હે ભદત ! આપ જ કઈ નિને આ આહાર વહેચી આપે. પછી રત્નાધિક ઈચ્છાનુસાર આપે, જે તે ન આપતાં એવી આજ્ઞા કરે કે ' તમે ઇચ્છાનુસાર આપી દે' તે શિષ્યે શું કરવુ ? ते तावे छे -साहत्रो० हत्याहि. Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ श्रीदशवकालिकलने उजोयगरे"इत्यादिलक्षणं सम्पूर्ण कला-विधाय स्वाध्याय-"धम्मो मंगलमुकि" इत्यादिगाधापसमादन्यून मूलगानं परिला सणसणमा 'मन्डलेऽन्यमुनयोऽपि समागत्य समिलिता भवन्तु' इत्याशयेन विधाम्पत्-विश्रान्ति कुर्यात् १९३।। विश्राम्यन् मुनिः किं कुर्यात् ? इत्याह--- मूलम्-वीसमंतो इमं चिंते, हियम लाभमहिओ । जइ मे अणुग्गहं कुज्जा, साह हुज्जामि तारिओ ॥९॥ छाया-विश्राम्यन् (मुनिः) इदं चिन्तयेत्, हितमर्थ लामायिकः । यदि मम अनुग्रहं कुर्यात, साधुभवामि तारितः ॥१४॥ विश्रामके समय मुनि क्या फरे ? सो बताते हैं सान्वयार्थ:-चीसमतो-विश्राम करता हुआ लाभमहिओ-कर्मनिर्जराका अभिलापी साधु इम-इस-इसी गायाके उत्तरार्द्धमें कहेजानेवाले प्रकार हियमोक्षप्राप्तिरूप हितके करनेवाले अटे भावी प्रयोजनको चिते-चिन्तन करे, जैसे जह-यदि-अगर साहकोईभी मुनिराजमे मेरे ऊपर अणुग्गहं कुज्जा अनुग्रह करें अर्थात्-मेरे भागके आहारमें से कुछ आहार लेलें तो मैं तारिओ हुज्जाइस संसार-समुद्रको तैर जाऊं-पार कर जाऊं ।।९४॥ टीका-विश्राम्यन् विश्रान्ति कुर्वाणो लाभार्थिका कर्मनिर्जराभिलापी इदंगाथोत्तरार्दे वक्ष्यमाणं हित मुक्त्यवाप्तिरूपम् अर्थ-भाविपयोजनं चिन्तयेत्-विचारयेत, यदि कोऽपि साधु-मुनिः मम मदुपरि अनुग्रह-मया मदथै वोपनीतस्यानादेहणलक्षणं कुर्यात् तर्हि अहं तारितः-दुस्तरभवसागरतः समुत्तारितो भवा. मीत्यर्थः ॥१४॥ जिन संस्तव पूर्ण करके 'धम्मो मंगलमुकिह' इत्यादि कमसे कम पांच गाथाओंकी मूल-शास्त्रकी सज्झाय करके थोड़ी देर विश्राम करे कि जिससे अन्य मुनि भी आकर शामिल हो जावें ॥१३॥ विश्राम करता हुआ मुनि क्या करे सो कहते हैं-'बीसमंतो' इत्यादि। धम्मो मंगलमुफिट त्या मामा माछी पांच यानी भूशानी समय કરી ડીવાર વિશ્રામ કરે કે જેથી અન્ય મુનિ પણ આવીને શામિલ થઈ જાય (૯૩) विधान त भुनि शुधरे ते ७ वीसमंतो.त्याह, Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m ammewwwwwwwwwwwwww अध्ययन ५ उ. १ गा. ९६-९७-आहारपरिभागविधिः ४९१ छाया-अथ कोऽपि न इच्छेत्, ततो भुञ्जीत एककः । आलोके भाजने साधुः, यतम् अपरिशातयन् ॥१६॥ सान्चयार्थ:-अह-अथ-यदि कोई-कोई न इच्छिज्जा-आहार लेना नहीं चाहे तो तओ-फिर साहबह साधु एगओ-अकेला-द्रव्यसे स्वयं एक ही, भावसे राग-द्वेप-संग-रहित आलोए-काशयुक्त-चौड़े मुंहवाले भायणे-पात्रमें जयं यतनापूर्वक अर्थात् मांडलेके दोपोंको टालकर अपरिसाडिय-सीय-कणका विन्दु-मात्र भी आहार नहीं गिराता हुआ भुजिज्ज आहार करे ।।९६॥ टीका-'अह' इत्यादि। यदि कोऽपि ग्रहीतुं नेच्छेत् वदनन्तरं साधु एकका द्रव्येण स्वयमेव, भावेन रागद्वेषरहितः आलोके प्रकाशमाने भाजने मशकादिक्षुद्रजन्तवो यथा दृष्टिपथमागच्छेयुस्तदर्थमिति भावः । यत-सयतनं मण्डलदोपभावानुसन्धानपूर्वकम् अपरिशातयन् सिक्यादिकमविकिरन भुञ्जीत ॥१६॥ मूलम् -तित्तगं च कडुयं च कसायं, अविलं च महुरं लवणं वा। १९ १४१३५ १६ १७ । एय लद्धमन्नपउत्तं, महुघयं व अॅजिज्ज संजए ॥२७॥ छाया--तिक्तकं च कटुकं च कपायम्, अम्लं च मधुरं लवणं वा । . एतल्लब्धमन्यार्थप्रयुक्तं, मधु-घृतमिव भुञ्जीत संयतः ॥१७॥ सान्वयार्थः वह आहार यदि-तित्तगं तीखा कडयंकड़वा च और कसायंकपायला च और अंक्लिं खट्टा च और महुरं-मीठा वा अथवा ___ 'अह' इत्यादि । यदि कोई भी मुनि आहार ग्रहण करने की इच्छा प्रकाशित न करेंअर्थात् न लें तोअकेला-रागद्वेषरहित वह साधु, ऐसे पात्रमें भोजन करे जिसमें प्रकाश पड़ रहा हो । प्रकाश-युक्त पात्रमें आहार करनेका विधान इसलिए किया है कि मच्छर आदि सूक्ष्म जन्तु दीख सके । मण्डल दोपोंका विचार करता हुआ सीध-मात्र भी अन्नादि न बिखेरता हुआ आहार करे ।। ९६ ।। બ૦ ઈત્યાદિ. જે કંઈ પણ મુનિ આહાર ગ્રહણ કરવાની ઈચ્છા પ્રકાશિત ન કરે અર્થાત્ ન લે તે એકલા-રાગદ્વેષરહિત તે એવા પાત્રમાં ભેજન કરે કે જેમાં પ્રકાશ પડતે હોય. પ્રકાશયુકત પાત્રમાં આહાર કરવાનું વિધાન એટલા માટે કર્યું છે કે મરછર આદિ સૂકમ જંતુ દેખી શકાય મંડલ દેને વિચાર કરતાં એક કણ જેટલું પણ અન્ન ન વેરાવા દેતાં માહાર કરે. (૬) Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - -- - - - - - - - - - - - - --- - - - - - - - ४९० श्रीदशकालिकसने पूर्वोक्त प्रकार से चिन्तन करके अपने हिस्से का अशनादिको लेनेके लिये सब मुनियों में से रत्नाधिक-दीक्षा म बड़े मुनिसे पहले प्रार्थना करे, यदि वे ले तो अच्छा ही है, अगर वे न ले तो उनसे कहे-'हे भगवन् ! आपही अपने हाथ से किसी दूसरे सन्त को दीजिये ऐसा कहने पर यदि वे अपने हाथ से किसी को दें तो ठीक ही है, यदि खुद न देकर उसी से कह दे कि 'तुमही तुम्हारी इच्छा के अनुसार जो लेवे उसको दे दो' तब उसे क्या करना चाहिये, सो बताते हैं सान्वयार्थ:-तो-इस प्रकार गुरु महारानकी आज्ञा प्राप्त होने पर वह साधु साहवो सब सन्तोंको चियत्तेणं त्याग-पुद्रिसे अर्थात् उदार चित्तसे जहकर्मरत्नाधिकके क्रमानुसार निमंतिज्ज-निमन्त्रण करे-आहार धामे, जह-यदि-अगर तत्य-उनमें से केइ-कोई साधु इच्छिज्जा-आहार लेना चाहें तो (उन्हें देकर) तेहिं सद्धिं तु उनके साथ बैठकर मुंजए-खुद भी आहार करे ॥९॥ ___टीका-तो-ततः गुरोरादेशाऽनन्तरम् असौ साधन चियत्तेणे-देशीयशब्दोऽयम्' परमप्रीत्या उदारचेतसेत्यर्थः, यथाक्रम-रत्नाधिकक्रममनुसृत्य निमन्त्रयेस्वभागग्रहणाय प्रार्थयेत् इदं गृहीत्वाऽनुगृह्यता'-मिति वदेदित्यर्थः । यदि तत्रमुनीनां मध्ये केऽपि मुनय इच्छेयुः ग्रहीतुमभिलपेयुस्तदा तेभ्योऽपि वितीय तैः सार्दै स्वयमपि भुञ्जीत 'चपड़-चपड़े' ति शब्दमकुर्वन्नभ्यवहरेत् ॥९५॥ मूलम्-अह कोइ न इच्छिज्जा, तओ भुजिज्ज एगओ। आलोए भायणे साह, जयं अपरिस्साडियं ॥ ९६ ॥ गुरुकी आज्ञा मिलनेके अनन्तर प्रसन्न चिससे उदारताके साथ दीक्षा में बड़े-छोटेके क्रमसे साधुओंको अपना भाग ग्रहण करनेकी प्रार्थना करे, अर्थात् 'यह आहार ग्रहण करनेका अनुग्रह कीजिए ऐसा कहे। उन मुनियोंमेंसे कोई ग्रहण करनेकी इच्छा करें तो उन्ह वितीर्ण करके उनके साथ आप भी चपड़-चपड़ शब्द न करता हुआ आहार करे ।।९५॥ ગુરૂની આજ્ઞા મળ્યા પછી પ્રસન્ન ચિત્તથી ઉદારતાની સાથે દીક્ષામાં મોટા નાનાના ફેમે કરીને સાધુઓને પિતાને ભાગ ગ્રહણ કરવાની પ્રાર્થના કરે અથતિ આ આહાર ગ્રહણ કરવાને અનુગ્રહ કરે' એમ કહે. એ અનિઓમાંથી કે ગ્રહણ કરવાની ઈરછા કરે તે તેમને વહેંચી આપીને તેમની સાથે પોતે પણ २५-२५ सपा या om माहा२ ३२. (५) Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ९८-९९-आहारपरिभोगविधिः ४९५ यद्वा अर्द्धस्विन्नमापः 'उडदवाकुला' इति भापापसिद्धः । एतत् पूर्वोक्तं सर्वम् उत्पन्नं-शास्त्रमर्यादयोपलब्ध, मासुकं निर्जीवं, मुधालब्ध-मन्नतन्त्रादिमकारमन्तरेण प्राप्त, तद् यदि अल्पं स्वल्पं सरसमन्नादिकं, वा अथवा बहु प्रचुरम् असारमशनादिकम् , उपलक्ष्येति शेषः, नातिहीलयेत्-न निन्देत् । अल्पीयसि सरसवस्तुनि लब्धे-"कथमेतावतेयोदरपूत्तिर्भवेत्" इति, एवमसारवस्तुनि प्रचुरतरे लब्धे सति "किमनेन प्रचुरतरेणापि निष्पयोजनेने"-त्येवंरूपां निन्दां न कुर्यादिति हृदयम् । किन्तु मुधाजीवी-मुधा-व्यर्थ-निष्पयोजन शरीरेन्द्रियपुष्टिप्रयोजनविकलं जीवितुं शीलमस्येति सः, संयमयात्रानिर्वाहार्थमेव भिक्षाग्रहणशील इति भावः। यद्वा मुधाजीवी निर्दोपभिक्षाजीवी-जात्याधनाविकरणपूर्वकभिक्षाग्राहक इत्यर्थः, दोपवर्जित संयोजनादिमण्डलदोपा यथा न भवेयुस्तथा भुञ्जीत । 'उत्पन्नं' इत्यनेन भोजन । ये सब यदि शास्त्रोक्त विधिसे प्राप्त हुए हों, प्रासुक हों, मंत्रतंत्र आदिका प्रयोग किये विना मिले हों, थोड़े ही या बहुत हों अर्थात् सरस अन्नादि थोड़ा हो और नीरस आहार बहुत हो तो मुधाजीवीअर्थात् संयमयात्राके निर्वाहके लिए जीवन धारण करनेवाला, अथवा निर्दोप अर्थात् जाति-आदिको न प्रगट करके भिक्षा लेनेवाला साधु उस आहारकी अवहेलना न करे । तात्पर्य यह है कि-सरस आहार कम मिले तो ऐसा न कहे कि-'इतने थोड़े आहारसे उदपूर्ति कैसे होगी।' नीरस आहार अधिक मिले तो ऐसा न कहे कि 'इस बहुतेरे व्यर्थ आहारसे क्या लाभ?।' इस प्रकार आहारकी निन्दा न करे, किन्तु आहारके संयोजना आदि मण्डल दोपोंको टाल कर भोगे। અથવા કળથી યા અડદના બાકળાનું ભજન, એ સર્વ જે શાસ્ત્રોકત વિધિથી પ્રાપ્ત થયાં હય, પ્રાસુક હૈય, મંત્ર-તંત્ર આદિને પ્રયોગ કર્યા વિના મળ્યા હોય, હા હાય યા વધારે હોય, અર્થાત્ સરસ અન્નાદિ હોય અને નીરસ આહાર વધારે હોય, તે મુધાવી–અર્થાત સંયમયાત્રાના નિર્વાહ માટે જીવન ધારણ કરનારે અથવા નિર્દોષ અર્થાત, જાતિ આદિને પ્રકટ કર્યા વિના ભિક્ષા લેનારે સાધુ એ આહારની અવહેલના કરે નહિ, તાત્પર્ય એ છે કે-સરસ આહાર એ છે મળે તે એમ ન કહે કે “આટલા શેડા આહારથી ઉદરપૂર્તિ કેવી રીતે થશે?” નીરસ આહાર વધારે મળે તે એમ ન કહે કે “આ ઘણા બધા વ્યર્થ આહારથી શું લાભ?” એ પ્રમાણે આહારની નિન્દા ન કરે, પરતું આહારના સંયેજના આદિ મંડલ દેને ટાળીને ભગવે. Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ श्रीववेकालिकम्ने छाया-अरसं विरसं वाऽपि, सचित वा अग्नचितम् । आर्द्र वा यदि या शुष्क, मन्यु-कुल्माप-भोजनम् ।।९८॥ उत्पन्नं नातिहीलयेव, अल्पं या बहु मारकम् । मुधालब्धं मुधाजीची, भुञ्जीत दोपवर्जितम् ॥१९॥ सान्वया:-अरसं-नमक आदि रसरहित वाविन्तया विरसं अधिक दिनोंकी बनी हुई विरस-यासी-मूखी-रोटी आदि या पुराने चॉक्ल आदिका भोजन सूइयं हींग आदिका घार (छोंक) दिया हुआ वा अथवा असूइयंत्र नहीं बघार दिया हुआ शाक आदि उहंगीला-करंवा, राइता आदि वान्तथा सुफ मूखा-भुने हुए चने-भूगडे-आदिजइवा अथवा मंयुकुम्मासभोयणं-धेरके चूरेका भोजन या कुलथीका भोजन अथवा उड़दका वाकुला (यह पूर्वोक्त सब प्रकारका अशनादि) उप्पण्णं-जो गोचरीके समय शास्त्रमर्यादासे मिल गया वह अप्प-योड़ा हो वा या बहुबहुत हो उसकी नाइहीलिज्जा अबहेलना न करे, किन्तु फासुयंभामुक-अचित्त और मुहालद्धं निष्काम-विना किसी प्रत्युपकारक प्राप्त हुए-उस अशनादिको मुहाजीवी-निष्काय-सिर्फ संयम-यात्राका निर्वाहसेजीनेवाला अर्थात् निरपेक्ष भिक्षा लेनेवाला साधु दोसवज्जियंभोजनक संयोजनादि दोपोंको टालकर भुजिज्जा-भोगवे ॥९८॥१९॥ टीका-'अरसं' इत्यादि, 'उप्पण्णं' इत्यादि च । अरसं लवणादिरसरहितम् । अमाप्तरसं वालचणकादिनिष्पादित वा, अपिवा विरसं-चिरकालनिष्पादितत्वेन विगतरसं, पुराणौदनादिकं वा, सूचित-हिङ्वादिसंस्कृतं वा अथवा अभूचित-- तद्वर्जितम्, आईकरम्भादिकं, शुष्कं भर्जितचणकादिकम् । मन्युकुल्मापभाजन मन्युश्च कुल्मापश्चाऽनयोः समाहारे मन्थुकुल्मापं, तद्, भुज्यते यत्तद्भोजनं, मन्धुकुल्मापं च तद्भोजनं चेति विग्रहः, तत्र मन्थुः बदरचूर्णादिकम् , कुल्माप-कुलस्था, 'अरसं' इत्यादि, 'उप्पण्णं' इत्यादि च । नमकरहित तथा पाल चणक आदि अरस या बहुत पुराना ओदन आदि विरस, हींग आदि द्वारा छोंका हुआ या न छोंका हुआ, गीला करंषा आदि, सूखे-भुने हुए चने आदि, वेरका चूर्ण आदि, अथवा कुलथी या उड़दके बाकलाका ઈત્યાદિ, તથા તcof. ઇત્યાદિ. મીઠાથી રહિત તથા વાલ-ચણ આદિ અરસ ચા બહુ જૂને એદન–આદિ વિરસ, હીંગ આદિથી વઘારેલું યા ન વઘારેલું, લીલે ક આદિ, સૂકા-ભૂજેલા ચણ આદિ, બોરનું ચૂર્ણ આદિ Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. १००-मुधादायि-मुधाजीविनोर्मोक्षावाप्तिः ४९७ रखकर-निरपेक्ष-लेनेवाले भी दुल्लहा दुर्लभ है, क्योंकि मुहादाई-निष्काम देनेवाले और मुहाजीवी-निष्काम-निरपेक्ष लेनेवाले दावि-ये पूर्वोक्त दोनों ही सुग्गई मोक्षगतिको गच्छंतिम्माप्त होते हैं। श्री सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामीसे कहते हैं कि हे जम्बू ! ति भगवान् महावीर स्वामीने जैसा फरमाया है वैसा ही तुझे वेमि में कहता हूं ॥१०॥ ॥इति श्रीदशवकालिक मृत्रके पांचवें अध्ययनके पहले उद्देशका सान्वयार्थ संपूर्णी। टीका-'दुलहाओ' इत्यादि । मुधादातारम् प्रत्युपकारानभिलापिणो दायकाः दुर्लभाः दुप्पापास्तादृशानां विरलत्वात्, मुधानीविनोऽपिन्दाकार्यानपेक्षनिरपेक्षभिक्षाग्राहिणोऽपि दुर्लभाः, मुधादातारः मुधाजीविनश्च द्वावपि-दाता भिक्षुश्च उभावप्युक्तविधी मृगति--सिद्धगति गच्छतःमाप्नुतः । 'मुधादातारः' 'मुधाजीविनः' इत्यत्र बहुवचनं व्यक्तिविवक्षया । 'द्वात्रपि' इत्यत्र द्विवचनं तु मुधादातृत्व-मुधाजीवित्योभयधर्मगतद्वित्वसंख्याविवक्षयेति बोध्यम् ॥ इति ब्रवीमीति माग्वत् ॥१०॥ । इति श्री-दशवकालिकमत्रस्याऽऽचारमणिमञ्जूपाख्यायां व्याख्यायां पञ्चमाध्ययनस्य प्रथमोद्देशक : समाप्तः ॥५-१। 'दुल्लहाओ' इत्यादि । प्रत्युपकार (बदला) की आशान रखनेवाले दाता दुर्लभ हैं, और दाताका कार्य न करके भिक्षा ग्रहण करनेवाले साधु भी विरले होते हैं। प्रत्युपकारकी चाह न रखनेवाले दाता और किसीका कार्य विना किये भिक्षा ग्रहण करनेवाला आत्मार्थी साधु, इन दोनोंको मोक्षगतिकी प्राप्ति होती है। ___ श्रीसुधर्मास्वामी जम्बूस्वामीसे कहते हैं-हे जम्बू ! चरम जिनेश्वर भगवान महावीर स्वामीने जैसा उपदेश दिया है वैसा मैंने कहा है ॥१०॥ इति दशवकालिक सूत्रके पांचवें अध्यनके पहले उद्देशका हिन्दी-भापानुवाद समाप्त ॥५-१॥ दुल्लहाो . त्या निम-प्रत्यु५॥२ (TERI)नी IAL न रामनार-हता દુર્લભ છે અને નિષ્કામ-દાતાનું કાર્ય ન કરતાં ભિક્ષા ગ્રહણ કરનાર–સાધુ પણ વિરલ જ હોય છે. પ્રત્યુપકારની ઈચ્છા ન રાખનાર દાતા અને કેઈનું કાર્ય કર્યા વિના ભિક્ષા ગ્રહણ કરનાર આત્માથી સાધુ, એ બેઉને મેક્ષ ગતિની પ્રાપ્તિ થાય છે શ્રી સુધર્મા સ્વામી જંબુ સ્વામીને કહે છે કેજંબૂ! ચરમ જિનેશ્વર ભગવાન્ મહાવીર સ્વામીએ જે ઉપદેશ આપે છે તે જ મેં કહ્યો છે. (૧૦૦) ઈતિ દશવૈકાલિકસૂત્રના પાંચમાં અધ્યયનને પહેલા ઉદેશાને ગુજરાતીभाषानुवाद समाप्त. (५-१) Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवेकालिकमूत्रे शास्त्रमर्यादयैव गीतार्थेनानादि ग्राममिति रचितम् । 'फामु' अनेन सचित्तमचित्तं वेति परीक्ष्य ग्रहीतव्यमिति दशितम् । 'मुद्दालन्द्रं' इतिपदेन दातुरुपकारं विधाय भिक्षाग्रहणे आधाकर्मादयो वायो दोपाः समापवन्तीति तथा नोपादेयमिति प्रकटितम् । 'दोसवज्जियं' इतिपदेन निर्दोपमिकामासायपि मण्डलदोपवत्वेन सदोपत्वं दुर्निवारमिति मण्डलदोपरहित भोक्तव्यमिति मादुष्कृतम् ॥९८॥९॥ मूलम्-दुल्लहाओ मुहादाई, मुहाजीवी वि दुल्लहा। मुहादाई मुहाजीवी, दोवि गच्छंति सुग्गई ॥१०॥ ॥तिवेमि॥ छाया-दुर्लभा मुधादातारः, मुधाजीविनोऽपि दुर्लभाः। मुधादावारः मुधाजीविनः, द्वावपि गच्छतः सुगतिम् ।।१००॥ इति ब्रवीमि ॥ सान्वयार्थ:-मुहादाई-निष्काम-प्रत्युपकारकी आशा न रखकर-देनेवाल दुल्लहाओ-दुर्लभ हैं और मुहाजीवीवि=निष्काम-दाताके कार्यकी अपेक्षा न 'उप्पन्न' पदसे यह सूचित किया है कि गीतार्थ साधुको शास्त्रकी मर्यादाके अनुसार ही आहार ग्रहण करना चाहिए । 'फासुर्य' पदुस सचित्त-अचित्तकी परीक्षा करके ग्रहण करना द्योतित किया है। 'मुहालद्ध' पदसे यह दर्शाया है कि दाताका उपकार करके भिक्षा ग्रहण करनेसे आधाकर्म आदि बहतसे दोष आते हैं, अतः ऐसी भिक्षा नहीं लेनी चाहिए।'दोसवज्जिय पदसे यह प्रगट किया है कि निदोष भिक्षा उपलब्ध होजाने पर भी मण्डल दोप लगनेसे वह भिक्षा अवश्य दृषित होजाती है, इसलिए उनका परिहार करके ही आहार करना चाहिए ।। ९८॥९९॥ । ઉપૂરો શબ્દથી એમ સૂચિત કરવામાં આવ્યું છે કે ગીતાર્થ સાધુએ शानी भर्याने मनुसा२४ माडार अडएर ४२२. नये. फासुर्य शण्या सन्धित मथितनी परीक्षा शने यह ४२पानु उपाभा सायु छ. मुहालद्ध શબ્દથી એમ દર્શાવવામાં આવ્યું છે કે દાતાને ઉપકાર કરીને ભિક્ષા ગ્રહણ કરવાથી આધાકર્મ આદિ ઘણું દે લાગે છે, તેથી એવી ભિક્ષા ન લેવી જોઈએ. રીકવ િશબ્દથી એમ બતાવવામાં આવ્યું છે કે નિદેવ ભિક્ષા ઉપલબ્ધ છતાં પણ મંડલ દોષ લાગવાથી એ ભિક્ષા અવસ્ય દૂષિત થઈ જાય છે. તેથી એના પરિહાર કરીને જ આહાર કરવો જોઇએ. (૯૮-૯૯) Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % E - - - ૨૦ ૨૧ अध्ययन ५ उ. २ गा. १-आहारपरिभोगविधिः निष्पादितं शीतमुणं वाऽनम्, अम्लतक्रपाचितवल्लचणकचूर्णनिष्पादितं शीतमुष्णं वा शाकविशेषादिकं, पर्युपिततक्रादिरूपं पानं च, तेपाममनोज्ञगन्धवत्त्वादिति भावः । सुगन्ध-मुरभिगन्धयुक्तं वा घृतपूरपायसादि तस्यैलालबङ्गकेसरकपूरादिमनोज्ञगन्धववादिति भावः। सर्व मनोज्ञामनोज्ञरूपं सकलं भुञ्जीत न तु मुश्चेत् परित्यजेत्-नावशेषयेदिति भावः ॥ १॥ मूलम् सेजा निसीहियाए, समावन्नो य गोयरे । अयावयट्टा भुञ्चाणं, जइ तेणं न संथरे ॥२॥ तओ कारणमुप्पण्णे, भत्तपाणं गवेसए। पुचउत्तेण इमेणं उत्तरेण य ॥३॥ छाया-शय्यायां नैपेधिक्यां, समापनश्च गोचरे । अयावदर्थ भुक्त्वा , यदि तेन न संस्तरेत् ॥ २॥ ततः कारणे उत्पन्ने, भक्त-पानं गवेपयेत् । विधिना पूर्वोक्तेन, अनेन उत्तरेण च ॥३॥ सान्वयार्थ:-सेज्जा वसति-उपाश्रय में निसीहियाए आहार करने के स्थान पर य अथवा गोयरे-भिक्षाचरीमें समावन्नोपाप्त हुआ मुनि अयावयट्ठाजरूरीसे कम अर्थात् थोड़ा भुच्चाणं-खाकर-खालेनेपर जइभ्यदि-अगर तेणंउस अशनादिसे न संथरेन सरे अर्थात् संयमयात्राका निर्वाह के लिए पर्याप्त -पूरा न हो तओन्तो कारणं क्षुधा-वेदनीयकी शान्ति न होनेरूप कारण के उप्पन्ने-उत्पन्न होनेपर साधु पुग्धउत्तेण-पूर्वोक्त-" संपत्ते भिक्खकालम्मि" खट्टी छाछकी बनी हुई ठंढी या गर्म कढी आदि शाक, पर्युपित (वासी) खट्टी छाछ आदि पान, ये अमनोज्ञ गन्धवाले होते हैं। और घेवर पायस आदि, एलची लवंग केसर आदिके मिश्रित होनेसे मनोज्ञ गन्धवाले होते हैं, इन सबको समभावसे भोगवे ॥१॥ ચણ આદિની બનાવેલી ઠંડી યા ગરમ રોટલી આદિ અન્ન, ખાટી છાશની બનેલી ઠંડી યા ગરમ કઢી આદિ શાક, પર્યેષિત ખાટી છાશ આદિ પાન, એ બધાં અમનેણ ગંધવાળાં હોય છે. અને ઘેબર, પાયસ (દૂધપાક) આદિ, એલચી, લવીંગ, કેસર આદિથી મિશ્રિત હેઈને મનેઝ ગંધ વાળાં હોય છે, એ प्रधान समभावसागव. (१) Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ श्रीदशवकालिको ॥ अथ पञ्चामाध्ययनस्य द्वितीय उदेशः ॥ प्रथमोद्देशकथितपिण्डैपणाया अपशिष्टविधिमाद-पडिग्गह' इत्यादि । मूलम्-पडिग्गहं संलिहित्ताणं, लेवमायाइ संजए । दुगंधं वा सुगंधं वा, सर्व भुंजे न छड्ए ॥१॥ छाया-प्रतिग्रहं संलिा, लेपमर्यादया संयतः । दुर्गन्धं या सुगन्धं वा, सर्व भुञ्जीव न मुश्चेत् ॥१॥ सान्वयार्थ:-पडिग्गह-पानेको लेवमायाए लेपकी मर्यादासे अर्थात् जब तक छांछ मादिका लेप लगा रहे तब तक संलिहिताणं अंगुलीसे पोछकर संजए साधु दुगंधं वा-अनिए गन्धवाला हो चाहे सुगंध वा-सुरभि गन्धवाला पदार्थ हो उस सवं-सबको मुंजे-भोगवे; किन्तु न छड्डए-कुछभी न छोड़ेजूठन न डाले ॥१॥ टीका-प्रतिग्रह-पात्रं लेपमर्यादया लेपं मर्यादीकृत्य यथा लेपसम्बन्धः पात्रे नावतिष्ठेत तथा संलिह्य पात्रस्थं तकादिलेपमङ्गल्यादिना निश्शेष प्रोम्छ्य संयतः मुनिः, दुर्गन्धम् अनिष्टगन्धयुक्तं पुरातनगोधूमवर्जरिकावल्लचणकादि ।पांचवाँ अध्ययनका दूसरा उद्देश । प्रथम उद्देशमें कही हुई विधिके अतिरिक्त-अवशिष्ट पिण्डेषणाकी विधि इस दूसरे उद्देशमें कहते हैं-'पडिग्गह' इत्यादि । आहार करनेके पात्र में जो लेप लगा रह जाय उसे अंगुली-आदि द्वारा पोंछकर मुनि अमनोज्ञ गन्ध या मनोज्ञ गन्धवाले समस्त अन्न पानको भोगे; उसे छोड़े नहीं, अर्थात् सीथ मात्र भी जूठा न डाले। पुरान गेहूँ, बाजरे, बाल, चने आदिकी बनी हुई ठंडी या गर्म रोटी आदि अन्न, ययन पायभु-देश भीन्न. પ્રથમ ઉદેશમાં કહેલી વિધિ ઉપરાંત વિશિષ્ટ પિંડેષણની વિધિ આ भी देशमा छ-पडिगगई यादि. આહાર કરવામાં પાત્રમાં જે લેપ લાગેલ રહી જાય, તેને આંગળી આદિ વડે લૂછીને મુનિ અમનેસ ગંધ યા મનેણ ગંધવાળા બધા અન્નપાનને ભેગને, તેને છેડે નહિ, અર્થાત્ જરા પણ બાકી ન રાખે. જૂના ઘઉં, બાજરી, વાલ, Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. २-४-आहारापर्याप्तौ पुनर्गोचरीगमनविधिः ५०१ . तमेव विधिमुपदर्शयन् कालयतनामाह-कालेण' इत्यादि । मूलम् कालेण णिक्खमे भिक्खू , कालेण य पडिक्कमे । अकालं च विवजित्ता, काले कालं समायरे ॥४॥ छाया-कालेन निष्क्रामेद् भिक्षुः, कालेन च प्रतिक्रामेत् । - अकालं च विवर्य, काले कालं समाचरेत् ॥ ४ ॥ अब भिक्षा लेने की विधि बताते हैं सान्वयाथः-भिक्खू-मुधाजीवी मुनि कालेण-गोचरीके समयसे-जिस देशमें जो समय भोजनका हो उस समय के होनेसे णिक्खमे भिक्षाके लिए जावे, य= और कालेण-समयसे ही वापस आनेका उचित समय हो जानेसे पडिकमे= वापस लौट आवे, च और अकालं-भिक्षाके अनुचित समयको विवज्जित्ता छोड़कर काले उचित समयमें कालं-भिक्षादिकसमायरे-आचरे-गोचरीके लिए घूमे ॥४॥ टीका-भिक्षुः मुधाजीयो मुनिः कालेन-भिक्षोचितसमयेन यस्मिन् देशे यो गृहस्थानां भोजनसमयः स एव भिक्षुणां भिक्षाकालस्तेनेत्यर्थः निष्कामेत्-निर्गच्छेत्, भिक्षायै इति शेपः; कालेनैव मत्यागमनोचितसमयेनैव, यथा स्वाध्यायभतिवन्धो न भवेत् तथा भिक्षां गतस्य साधोः परावर्तनसमयो निर्दिष्टस्तेनैवेति भावः । (करणे सहाथै वा तृतीया)। 'चकारोऽत्र 'एव'-कारार्थकः' पतिक्रामेत्-प्रत्यागच्छेत् । अकालं-भिक्षानुचितसमयं विवज्य परित्यज्य कालेभिक्षोचितवेलायां कालं-लक्षणया तत्कालोचितकृत्यं भिक्षादिकं समाचरेत-मिक्षार्थ उसी विधिको दिखाते हुए कालकी यतना कहते हैं-'कालेण' इत्यादि । . जिस देश में गृहस्थोंके भोजनका जो समय हो वही समय भिक्षको भिक्षाके लिए उचित है, अत एव भिक्षाके लिए उसी समय जाना चाहिए और गोचरीके लिए गये हुए साधुको ऐसे उचित समय पर लौट आनाचाहिए, जिससे स्वाध्याय आदि क्रियाओंमें अन्तराय न पड़े। मे विधिन तातi sinी यत: ४ छ :-कालेण. त्या. જે દેશમાં ગૃહસ્થના ભજનને જે સમય હોય તે સમય ભિક્ષાને માટે ઉચિત છે, તેથી ભિક્ષા માટે તે સમયે જવું જોઈએ. અને ગોચરીને માટે ગએલા સાધુએ એવા ઉચિત સમયે પાછા ફરવું જોઈએ કે જેથી સ્વાધ્યાય આદિ ક્રિયાઓમાં અંતરાય ન પડે. તથા જે સમય ભિક્ષાને Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० श्रीशवेकालिकसूत्रे इत्यादिरूप विधिसे य-तथा इमेण= इस उत्तरेण= आगे कहे जानेवाली "कालेण fread भिक्खु" इत्यादिरूप विधि भत्ताणं = आहार- पानी गवेसए= गवेषे अर्थात् भिक्षा लेनेके लिए जाये ||२||३|| टीका 'सेज्जा' इत्यादि, 'तभ' इत्यादि च । शय्यायां सती, नेपेधिक्यां= निपदनस्थाने स्वाध्यायभूमिकायामित्यर्थः, गोचरे - भिक्षाचर्यायांचा समा पन्नः सम्माप्तो मुनिः उपलब्धमन्नादिकम् अयावदर्थम् = अपरिसमाप्तम् अल्प= धोपशमनानमित्यर्थः संयमनिर्वाहार्थं याचतानादिकेन भाव्यं तावन्नेति यावत् शुक्त्वा यदि तेन भोजनेन न संस्तरेत्संयमयात्रां निर्दोढुं न शक्नुयात् |२| वतः तदनन्तरं फारणे = प्रयोजने आर्पस्वात्सप्तम्यर्थे प्रथमा, उत्पन्ने सवि= क्षुधावेदनोपशमनाभावे पूर्वोक्तेन" संपत्ते भिक्खकालम्मि" इत्यादिरूपेण अनेन उत्तरेण= " कालेन क्खिमे भिक्खू० " इत्यादिवक्ष्यमाणलक्षणेन विधिना=प्रकारेण भक्तपानं गवेपयेत् = अन्वेषयेत् पुनर्भिक्षार्थं गच्छेदिति सुत्रार्थः ॥ ३ ॥ 'सेज्जा' इत्यादि, 'तओ' इत्यादि । उपाश्रयमें बैठने के स्थान में अर्थात् स्वाध्याय भूमिमें तथा गोचरीमें गए हुए मुनिको अल्प, अर्थात् क्षुधाकी शान्ति न हो सकने योग्य अन्न आदि मिला हो और उससे संयमयात्राका निर्वाह न हो सके, अर्थात् लाया हुआ आहार पर्याप्त नहो तो ऐसा कारण उत्पन्न होने पर, अर्थात् क्षुधावेदनीय के शान्त न होने पर " संपत्ते भिक्वकालम्मि" इत्यादि पूर्वोक्त विधिसे, तथा "कालेण fread भिक्खु" इस गाथासे प्रारम्भ करके आगे बताई जाने वाली विधिसे भक्त पानकी गवेषणा करे, अर्थात् भिक्षाके लिए फिर गमन करे ॥ २ ॥ ३ ॥ सेना० छत्याहि, तथा तओ० धत्याहि उपाश्रयमां मेसवाना स्थानमां अर्थात સ્વાધ્યાયભૂમિમાં તથા ગોચીમાં ગએલા મુનિને અલ્પ અર્થાત્ ક્ષુધાની શાન્તિ ન થઇ શકે અર્થાત્ લાવેલા આહાર પૂરતા ન હોય, તે એવું કારણુ ઉત્પન્ન થતાં અર્થાત્ ક્ષુધાવેદનીય શાન્ત नथवाने सीधे संपत्ते भिक्खकालम्मि छत्याहि यूर्वेति विधिथी, तथा कालेण णिक्खमे भिक्खू भो गाथाथी प्रारंभ उरीने આગળ પતાવવામાં આવનારી વિધિથી ભકત-પાનની ગવેષણુા કરે અર્થાત્ ભિક્ષાને માટે ક્રીથી ગમન કરે. (૨~૩) Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. ५-६-समयमर्यादया गोचरीगमनोपदेशः पडिलेहिसी नहीं देखते, अतः अप्पाणं आत्माको किलामेसि-किलामनाखेद-पहुंचाते हो च-और संनिवेसंगामकी गरिहसि-निन्दा करते हो । तात्पर्य यह हुआ कि गोचरीका समय हुए विना घूमनेसे साधु भगवानकी आज्ञाका विराधक होता है, और दीनता मगट करनेके कारण उसके चारित्रमें मलिनता होती है; अतः जिस देशमें जो भिक्षाका समय हो उसी समयमें साधुको मिक्षाके लिए जाना चाहिये ॥५॥ ___टीका-हे भिक्षो ! त्वम् अझाले असमये चरसि-भिक्षार्थ गच्छसि किन्तु कालं-भिक्षोचितसमयं न प्रत्युपेक्षसेन्नाद्रियसे, तेन च हेतुनाऽऽत्मानं लमयसि पीडयसि मिक्षालाभाभावेन भ्रमणाधिक्येन चेति भावः । संनिवेशं ग्रामं च पुनः गईसे-निन्दसि । भगवदाज्ञाविराधकत्वेन दैन्यप्रकाशनेन च चारित्रमालिन्यं जायते, ततोऽनुचितकाले भिक्षार्थ न गन्तव्यमिति ॥ ५ ॥ मूलम्-सइ काले चरे भिक्खू , कुजा पुरिसकारियं । अलाभु-त्ति न सोइजा, तनु-त्ति अहियासए ॥६॥ छाया-सति काले चरेद् भिक्षुः, कुर्यात्पुरुपकारम् । अलाभ इति न शोचेन, तप इति अधिपहेत ॥ ६॥ सान्वयार्थ:-भिक्खू साधुको काले भिक्षाका समय सइन्होनेपर चरेगोचरीके लिए घूमना चाहिए और पुरिसकारियं उत्साह पूर्वक घूमनेरूप हे भिक्षु ! आप असमयमें भिक्षाके लिए जाते हैं, समयका खयाल नहीं रखते। इसी कारण अधिक भ्रमण करनेसे या भिक्षाके न मिलनेसे तुम अपनी आत्माको पीडित करते हो, और ग्राम-नगरकी निन्दा करते हो। अकालमें भिक्षाके लिये गमनरूप भगवानकी आज्ञाकी विराधना करनेसे तथा दीनताप्रगट करनेसे चारित्रमें मलिनता आती है इसलिए अनुचित समयमें भिक्षाके लिए नहीं जाना चाहिए ॥५॥ હે ભિક્ષા આપ અસમયમાં ભિક્ષા માટે જાઓ છે, સમયને ખ્યાલ રાખતા નથી. એ કારણે વધારે કરવાથી યા ભિક્ષા ન મળવાથી તમે તમારા આત્માને પીડિત કરે છે અને ગ્રામ-નગરની નિંદા કરે છે. અકાળે ભિક્ષાને માટે જવારૂપી ભગવાનની આજ્ઞાની વિરાધના કરવાથી તથા દીનતા પ્રકટ કરવાથી ચારિત્રમાં મલિનતા આવે છે, તેથી અનુચિત સમયે ભિક્ષા માટે જવું ન ले . (५) Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदवकालिको क्रामेदित्ययः । बहुशः कालशन्दोपादानं 'मुनीनां यथाकालमेव सकलं कस्य विधेय'-मिति ध्वनयति ॥ ४ ॥ ___ अकालचारित्वेनाइलन्धमिलो भिक्षुः केनचित्साधुना "म:! मिक्षा लया लब्धा न या" इति पृष्टो वदति-"कुतोऽत्र मिवम्पचानां हीनदीनानां प्रामे भिक्षालाम:?" तदाऽसी अकालचारिणं कथयति-'अकाले' इत्यादि । मूलम्-अकाले चरिसी भिक्खू, कालं न पडिलेहिसि । अप्पाणं च किलामेसि, संनिवेसं च गरिहसि ॥५॥ छाया-अकाले चरसि मिक्षो!, कालं न प्रत्युपेक्षसे । आत्मानं च लमयसि, संनिवेशं च गईसे ।।५।। अकालचारी होने के कारण भिक्षा नहीं मिलने पर असन्तुष्ट हुए साधुका कालचारी साधु पूछता है-हे साधु! आपको भिक्षा मिली कि नहीं, तब वह कहता है-इस कंजूसों के गाम में भिक्षा कहाँ पड़ी है। इस पर वह कालचारी साधु उससे कहता है सान्वयार्थ:-भिक्खू हे भिक्षु! आप अकाले असमयमें भिक्षाका समय न होनेपर ही चरिसी-गोत्ररी फिरते हो, च और कालं-गोचरीका समय न तथा जो समय भिक्षाके लिए उचित न हो उसका परिहार करके द्रव्य क्षेत्र काल भावसे उचित समय पर ही भिक्षाके लिए जाना चाहिए। गाथामें बहुत चार काल शब्दका प्रयोग करनेसे यह आशय प्रगः होता है कि साधुओंको प्रत्येक क्रिया उचित समय पर ही करनी चाहिए ॥४॥ कोई साधु असमयमें भिक्षाके लिए जानेवाले दूसरे साधुसे पूछा गया कि-'हे भिक्षु ! तुम्हें भिक्षाका लाभ हुआ या नहीं?' तर उसने कहा-'इन कंगाल कंजूसोंके गाँवमें भिक्षाकहाँप्राप्त होसकती है। तब वह अकालमें गोचरी करनेवालेकेप्रतिकहता है-'अकाले०' इत्यादि। માટે ઉચિત ન હોય તેને પરિહાર કરીને દ્રવ્ય ક્ષેત્ર કાળ ભાવથી ઉચિત સમયે જ ભિક્ષા માટે જવું જોઈએ ગાથામાં ઘણીવાર કાલ શબ્દ પ્રયોગ કરવાથી એ આશય પ્રકટ થાય છે કે-સાધુઓએ પ્રત્યેક ક્રિયા ઉચિત સમયે જ કરવી જોઇએ. (૪) કઈ સાધુ અસમયમાં ભિક્ષાને માટે જનાર બીજા સાધુને પૂછયું કેહે ભિક્ષ! તમને ભિક્ષાને લાભ થશે કે નહિ?” ત્યારે તેણે કહ્યું “આ કંગાલ કંજુસેના ગામમાં ભિક્ષા કયાંથી પ્રાપ્ત થઈ શકે ?” ત્યારે એ અકાળે ગોચરી उनास साधु प्रत्ये ४३ 8-अकाले० या. Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. ७-८-गोचर्या क्षेत्रयतना क्षेत्रपतनामाह-' तहेवु०,' इत्यादि। मूलम्-तहेवुच्चावया पाणा, भत्तद्वाए समागया। तं उज्जुयं न गच्छिज्जा, जयमेव परकमे ॥७॥ छाया--तथैवोचावचाः माणाः, भक्तार्थ समागताः । . तेपास्त्रजुकं न गच्छेत्, यतमेव पराक्रामेत् ॥७॥ सान्वयार्थ:-तहेव-उसीप्रकार उच्चावया उच्च जातिके इंसादिक अवच-नीच जातिके कौए आदि पाणान्माणी (यदि) भत्तहाए-चुगा-पानीके लिए समा. गया-आये हों-इकटे हुए होंतोतं उज्जुयं-उन प्राणियों के सामने न गच्छिज्जानहीं जावे, (किन्तु) जयमेव यतनापूर्वक ही-आसपाससे अथवा अन्य मार्गसे अथात् जिस तरह उन माणियोंको किसी प्रकारका त्रास न पहुंचे उसीतरह परकमे-जावे ||७|| . टोका-तथैव-तद्वत उच्चावचा तत्र उदञ्चः-उच्चजातीया हंसादयः, अवाश्च = नाचजातीयाः काकपभृतयः, यद्वा उन्नावचा: अनेकविधाः, "उच्चावचं नैकभेद”. मित्यमरात् , माणा: माणिनः भक्तार्थम् अन्न-पानार्थ मार्गादौ समागताः समायाता भवन्ति चेत् 'तं!--तेपाम् , आपत्वात् पष्ठीबहुत्वे प्रथमैकवचनम्, ऋजुकंसमुख न गच्छेत्, तेपामन्नपानान्तरायादिप्रचुरदोपापातात् । तहिं किं कुर्यात् ? यतमेव-सयतनमेवन्यथा तेषां संत्रासो न भवेत्तथा पराक्रामेत चरेत अन्यमार्गेण ..अब क्षेत्रकी यतना हैं-'तहेवु० इत्यादि। । हंस-आदि उच्च-जातीय और काक-आदि नीच-जातीय प्राणी यदि नाजन-पानके लिए रास्तेमें आये हों तो उनके सामने न जावें । सामने जानेसे उनके चुगे-पानी में विघ्न पड़ जानेके कारण भक्त-पानकी अन्तराय आदि अनेक दोष लगते हैं. अतः यतना-पूर्वक, अर्थात् जिसस भयभीत न हों उस प्रकार दसरे मार्गसे या एक किनारेसे गमन करें। वे क्षेत्रनी यतना डे छ:-तहेवु. त्या. હું સ-આદિ ઉર-જાતીય અને કાગડો-આદિ નીચ જાતીય પ્રાણી જે જન-પાનને માટે રસ્તામાં આવેલા હોય તે તેની સામે ન જવું. સામે જવાથી પાણી પીવા ચણવા વગેરેમાં વિદન પડવાથી ભકત-પાનની અંતરાય આદિ અનેક દોષ લાગે છે. એટલે યતનાપૂર્વક અર્થાત જે રીતે તેઓ ભયભીત ન થાય એ રીતે બીજે માગે છે. એક બાજુએથી નમન કરવું. તાત્પર્ય એ છે * Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ श्रीदर्शवकालिकमृत्रे पुरुषार्थ भी कुजा करना चाहिये, और मिक्षा न मिलने पर वह अलाभु-आन मुझे भिक्षा नहीं मिली त्ति इस मकार न सोइज्जा-सोच न करे, किन्तु तवुआज मेरे अनशन ऊनोदरी आदि तप हुआ है ति इस प्रकार सोचकर अहियासए क्षुधा-परीपहको सहन करे-सन्तुष्ट रहे । तात्पर्य यह है कि साधुओंको सिर्फ भिक्षाके ही लिए गोचरीमें घुमना नहीं है किन्तु वीर्याचारके लिए भी भगवान ने गोचरी धुमना कहा है ॥६॥ टीका-'सइ' इत्यादि । भिक्षुः काले-भिक्षोचितसमये माने सति, यद्वा 'सइकाले' इत्यस्य 'स्मृतिकाले' इतिच्छाया तत्र-स्मर्यन्ते साधको दावभिर्दानार्थ यस्मिन् समये तस्मिन्नित्यर्थः, चरेद-भिक्षार्थ गच्छेत् । पुरुषकारं-पराक्रमम् उत्साहपूर्वकभिक्षार्थभ्रमणलक्षणं कुर्याद-विदध्यात् । कदाचिदलाभे सति अलाभाअध भिक्षालाभो न संजात इति न शोवेदन परितपेव, किन्तु तपा- अध मेऽनशनात्रमौदरिकादिरूपं तपः सम्पन्नमिति कृत्वा अधिपहेत-सन्तुप्येत । भिक्षाया अलाभेऽपि वीर्यचारो मया सम्यगाराधितः, यतो न केवलमन्नार्थमेव भिक्षाचरणं भिक्षुणां, किन्तु वीर्याचारार्थमपि भगवता समादिष्टमिति भावार्थः ॥ ६ ॥ 'सइ काले' इत्यादि। भिक्षु उचित समय प्राप्त होनेपर ही भिक्षाके लिए जावें। उत्साहपूर्वक भिक्षार्थ भ्रमणरूप पुरुषार्थ करें । कभी भिक्षाका लाभ न हो तो ऐसा सोच न करें कि 'आज मुझे भिक्षा नहीं मिली, किन्तु ऐसा विचार करके सन्तुष्ट रहें कि-आज भिक्षा न मिली तो सहज ही मेरे अनशन आदि तप होगया, अर्थात् भिक्षाका लाभ न होनेपर भी मैंने भली भाँति वीर्याचारका आराधन किया है। साधु केवल अनादिककी प्राप्तिके लिए भिक्षाचरी नहीं करते किन्तु वीयोंचारकी आराधनाके लिए भी भिक्षाचरीमें जानाभगवान्ने बताया है ॥६॥ सइ काले० ७त्या. लि लयित समय Unior लक्षाने भाटे जय. ઉત્સાહપૂર્વક ભિક્ષાર્થ ભ્રમણરૂપ પુરૂષાર્થ કરે. કેઈવાર ભિક્ષાને લાભ ન થાય તે એ વિચાર ન કરે કે “આજ મને ભિક્ષા ન મળી.” પરંતુ એ વિચાર કરીને સંતુષ્ટ રહે કે-આજ ભિક્ષા ન મળી તે સહેજે મારાથી અનશન આદિ તપ થઈ ગયું. અર્થાત ભિક્ષાને લાભ ન થવાથી પણું મેં હીપેઠે વીર્યાચારનું આરાધન કર્યું છે સાધુ કેવળ અન્નદિની પ્રાપ્તિને માટે જ ભિક્ષાચરી કરતા નથી, કિ તું વીર્યાચારની આરાધનાને માટે પણ ભિક્ષચરીમાં જવું सावाने व्युं छे. (६) Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. ७-८-गोचयों क्षेत्रयतना ५०५ - - ५ क्षेत्रयतनामाह-'तहेवु०' इत्यादि। मूलम्-तहेवुच्चावया पाणा, भत्तट्टाए समागय तं उज्जुयं न गच्छिज्जा, जयमेव परकमे ॥७॥ छाया-तथैवोच्चावचाः प्राणाः, भक्तार्थ समागताः । तेपात्रजुकं न गच्छेत्, यतमेव पराक्रामेत् ।। ७॥ सान्वयार्थ:-तहेव-उसीप्रकार उच्चावया उच्च जातिके इंसादिक अवच-नीच जातिके कौए आदि पाणा-यागी (यदि) भत्तहाए चुगा-पानीके लिए समागया-आये हों-इकटे हुए होंतोतं उज्जुयं-उन माणियोंके सामने नगच्छिज्जा नहीं जावे, (किन्तु) जयमेवयतनापूर्वक ही-आसपाससे अथवा अन्य मार्गसे अर्थात् जिस तरह उन प्राणियों को किसी प्रकारका त्रास न पहुंचे उसीतरह परकमे-जावे ॥७॥ टीका-तथैव-तद्वत् उच्चावचा:-तत्र उदश्च: उच्चजातीया ईसादयः, अवाञ्चः% नचिजातीयाः काकमभृतयः, यद्वा उच्चावचा अनेकविधाः, "उच्चावचं नैकभेद"मित्यमरात्, प्राणा:-माणिनः भक्तार्थम् -अन्न-पानार्थ मार्गादौ समागताः समायाता भवन्ति चेत् 'तं'-तेपाम् , आपत्वात् पष्ठीबहुत्वे प्रथमैकवचनम् , ऋजुकं संमुखं न गच्छेत्, तेपामन्नपानान्तरायादिप्रचुरदोपापातात् । तहि किं कुर्यात् ? यतमेव-सयतनमेव यथा तेपां संत्रासो न भवेत्तथा पराकामेत् चरेत् अन्यमार्गेण अव क्षेत्रकी यतना हैं-तिहेचु० इत्यादि। . हंस-आदि उच्च-जातीय और काक-आदि नीच-जातीय प्राणी यदि भोजन-पानके लिए रास्तेमें आये हों तो उनके सामने न जावें । सामने जानेसे उनके चुगे-पानीमें विघ्न पड़ जानेके कारण भक्त-पानकी अन्तराय आदि अनेक दोप लगते हैं, अतः यतना-पूर्वक, अर्थात् जिससे वे भयभीत न हों उस प्रकार दूसरे मार्गसे या एक किनारेसे गमन करें। हवे क्षेत्रनी यतना ४ छ:-तहेवु० त्याहि. હંસ—આદિ ઉચ્ચ-જાતીય અને કાગડે–આદિ નીચ જાતીય પ્રાણી જે ભજન-પાનને માટે રસ્તામાં આવેલા હોય તે તેની સામે ન જવું. સામે જવાથી તેમને પાણી પીવા ચણવા વગેરેમાં વિન પડવાથી ભકત-પાનની અંતરાય આદિ અનેક દે લાગે છે. એટલે ચેતનાપૂર્વક અર્થાત્ જે રીતે તેઓ ભયભીત ન થાય એ રીતે બીજે માગે યા એક બાજુએથી ગમન કરવું. તાત્પર્ય એ છે કૅ Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ श्रीदर्शवेकालिकसूत्रे पुरुषार्थ भी कुजा करना चाहिये, और भिक्षा न मिलने पर वह अलामु आज मुझे भिक्षा नहीं मिली इस मकार न सोइज्जा =सोच न करे, किन्तु तबु = आज मेरे अनशन कनोदरी आदि त हुआ हे तिस प्रकार सोचकर अfिerrer=ut ourको सहन करे-सन्तुष्ट रहे । तात्पर्य यह है कि साधुओंको सिर्फ भिक्षाके डी लिए गोचरीमें घुमना नहीं है किन्तु वीर्याचार के लिए भी भगवान्ने गोचरीमें घुमना कहा है ||६|| टीका- 'सह' इत्यादि । भिक्षुः काले भिक्षोचितसमये माप्ते सति, यहा ' सइकाले ' इत्यस्य 'स्मृतिकाले' इतिच्छाया तत्र स्मर्यन्ते साधवो दाभिर्दाना यस्मिन् समये तस्मिन्नित्यर्थः, चरेत् = भिक्षार्थं गच्छेत् । पुरुषकारं = पराक्रमम् उत्साहपूर्वक भिक्षार्थभ्रमणलक्षणं कुर्यात् विदध्यात् । कदाचिदलाभे सति अलाभ = अ भिक्षालाभो न संजात इति न शोचेत् न परितपेत्, किन्तु तपः = अग्र मेऽनशनात्रमौदरिकादिरूपं तपः सम्पन्नमिति कृत्वा अधिपत= सन्तुष्येत । भिक्षाया terest वीर्यचारो मया सम्यगाराधितः, यतो न केवलमनार्थमेव भिक्षाचरणं भिक्षूणां किन्तु वीर्याचारार्थमपि भगवता समादिष्टमिति भावार्थः ॥ ६ ॥ 'साले' इत्यादि । भिक्षु उचित समय प्राप्त होनेपर ही भिक्षाके लिए जावें । उत्साहपूर्वक भिक्षार्थ भ्रमणरूप पुरुषार्थ करें। कभी भिक्षाका लाभ न हो तो ऐसा सोच न करें कि-'आज मुझे भिक्षा नहीं मिली,' किन्तु ऐसा विचार करके सन्तुष्ट रहें कि आज भिक्षा न मिली तो सहज ही मेरे अनशन आदि तप होगया, अर्थात् मिक्षाका लाभ न होनेपर भी मैंने भली भाँति वीर्याचारका आराधन किया है। साधु केवल अनादिककी प्राप्तिके लिए भिक्षाचरी नहीं करते किन्तु वीर्या चारकी आराधना के लिए भी भिक्षाचरीमें जाना भगवान् ने बताया है ॥६॥ સ ારે ઇત્યાદિ ભિક્ષુ ઉચિત સમય થતાં જ ભિક્ષાને માટે જાય. ઉત્સાહપૂર્વક ભિક્ષા ભ્રમણુરૂપ પુરૂષાર્થ કરે. કેઈવાર ભિક્ષાને લાભ ન થાય તા એવા વિચાર ન કરે કે આજ મને ભિક્ષા ન મળી.' પરંતુ એવે વિચાર કરીને સંતુષ્ટ રહે કે—માજ ભિક્ષા ન મળી તે સહેજે મારાથી અનશન આદિ તપ થઈ ગયું. અર્થાત્ શિક્ષાને લાભ न થવાથી પશુ મેં ભુલીપે વીર્યાચારનું આરાધન કર્યું છે. સાધુ કેવળ અન્નાદિની પ્રાપ્તિને માટે જ શિક્ષાચરી કરતા નથી, કિન્તુ વીર્યાચારની આરાધનાને માટે પણુ ભિક્ષાચરીમાં જવું ભગવાને બતાવ્યું છે. (૬) Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. १२-१३-भिक्षार्थ गृहप्रवेशविधिः .. छाया-वनीपकस्य वा तस्य, दायकस्योभयो । .. . अमीविकं स्याद् भवेत, लघुत्वं प्रवचनस्य वा ॥१२॥ पूर्वोक्त विधिके अपालन में दोप बताते हैं सान्वयार्थः-(ऐसा न करनेसे) सिया कदाचित्-शायद तस्स-उस वणीमगस्स-श्रमणादि वनीपक पर्यन्तको वा अथवा दायगस्सन्दाताको वा-या उभयस्स-दोनों-दाता और याचक-को अप्पत्तिय अपीति-द्वेप या मनमें खेद हो जाती है, वा और पवयणस्स-जिनशासनकी लहुत्त लघुता हुज्जा होती है॥१२॥ टीका-स्यात् कदाचित् बनीपकस्य याचकविशेषस्य वा अथवा तस्य= श्रमणादेः, दायकस्य दातुर्वा, उभयोः दाव-याचकयोर्वा अप्रीतिक द्वेपः, मन:खेदो वा भवेत्, प्रवचनस्य-जिनशासनस्य लघुत्वं लघुता वा भवेदिति सम्बन्धः॥१२॥ कदा गन्तव्य ?-मित्याह-पडिसेहिए' इत्यादि। मूलम्-पडिसेहिए व दिन्ने वा, तओ तम्मि नियत्तिए । उवसंकमिज भत्तहा, पाणहाए व संजए ॥ १३ ॥ छाया-प्रतिपेधिते वा दत्ते वा, ततस्तस्मिन् निवृत्ते । . उपसंक्रामेत् भक्तार्थ, पानार्थ वा संयतः ॥१३॥ कब जाना चाहिये, सो बताते हैं सान्वयार्थ:-पडिसेहिए-दाताके निषेध कर देने पर व-अथवा दिने अन्नादिके दिये जाने पर वा-या-दाताके मौन साधने पर तओ-उस स्थानसे संभव है, उन्हें उल्लङ्घन करके जानेसे या उनके सामने खड़े रहनेसे उस वनीपक या दाताको अथवा दोनोंको देप तथा खेद उत्पन्न हाजाय । तथा प्रवचनकी लघुता होती है। अतः उन्हें उल्लंघन करके जाना साधुका कल्प नहीं है ॥१२॥ कर जाना चाहिए ? सो कहते हैं-'पडिसेहिए' इत्यादि। સંભવિત છે તેમને ઓળંગીને જવાથી યા એમની સામે ઊભા રહેવાથી એ વનીપક યા દાતાને અથવા બેઉને દ્વેષ તથા ખેદ ઉત્પન્ન થઈ જાય. તથા પ્રવચનની લધુતા થાય છે, એટલે એમને ઓળંગીને જવું એ સાધુને કલ્પ ४यारे नये ? -पडिसेहिए. ईत्यादि. नथी. (१२) Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपशवेकालिकमूत्रे ___ सान्वयार्थ:-संजए-साधु भत्तहा अनके लिए और पाणट्ठा एव-पानीके लिए ही उवसंकमंत-गृहस्थके घर परमाते हुए समण-निर्गन्य मुनिको वाविअथवा माहणं माणको क्रिविणं-कृपण वा अथवा धणीमगंदरिद्रीभिखारीको (देखकर) तं-उन श्रमणादिको अहमितु-लांधकर न पविसे-- गृहस्थके घरमें न जावे, नवि-औरन चक्खुगोयरे-उनके दृष्टिगोचर-दृष्टिमार्गमें चिट्ठठहरे, (किन्तु) एगंतं एकान्त स्थानमें-जहां उनकी दृष्टि न पडती हो ऐसी जगह अवामित्ता-जाकर संजए-इन्द्रियोंका संयम करता हुआ चुपचाप तत्य-वहां चिठे-खड़ा रहे ॥१०॥११॥ टीका-'समणं' इत्यादि, 'तमइ०' इत्यादि च। संयतः, गृहस्थद्वारे भक्तार्थमेव पानार्थमेव, एक्शन्दस्योभयत्र सम्बन्धः । उपसंक्रामन्तं समीपमायान्तं यान्तं वा श्रमणादिकं दृष्ट्रेति शेषः । तत्र वनीपकाम्याचकविशेषः, अन्यत् सुगमम् । तं श्रमणादिकम् अतिक्रम्य-उल्लङ्घन्य तस्याग्रतो भूत्वेत्यर्थः गृहस्थगृहे न प्रविशेष, एतावदपि न, तेपां चक्षुर्गोचरेऽपि दृष्टिपथेऽपि न तिष्ठेद किन्तु स संयत एकान्तं यत्र तेषां दृष्टिर्न पतेत् तं प्रदेशम् अवक्रम्य गत्वा तत्रतिष्ठेत् ॥१०॥११॥ पूर्वोकविधेरपालने दोपमाह-वणीमगस्स' इत्यादि। . ' मूलम् वणीमगस्स वा तस्स, दायगस्सुभयस्स वा। ८ . .. १२ ११ १. अप्पत्तियं सिया हना, लहत्तं पवयणस्स वा ॥१२॥ 'समणं' इत्यादि, 'तमइ०' इत्यादि । श्रमण, ब्राह्मण, कृपण और वनीपकको गृहस्थके दर्याजे पर भोजन या पानीके लिए आया देखकर साधु उसे उल्लङ्घन करके गृहस्थके घरमें प्रवेश न करें, इतना ही नहीं, जहाँ उनकी दृष्टि पड़ती हो ऐसे स्थान पर भी खड़े न हों, किन्तु एकान्त प्रदेशमें जाकर स्थित होवें, जहां उनकी दृष्ठिन पहुँचे॥१०॥११॥ ऐसा न करनेमें दोप कहते हैं-'वणीमगस्स' इत्यादि । समणं. त्याहि तथा तमइ० या श्रमा, AAY, १५९५ मने वनीપકને ગૃહસ્થના દરવાજા પર ભેજન યા પાણીને માટે આવેલા જોઈને સાધુ એમને ઓળંગીને ગૃહસ્થના ઘરમાં પ્રવેશ ન કરે, એટલું જ નહિ જ્યા એમની દણિ પડતી હોય એવા સ્થાન પર પણું ઊભું ન રહે, કિંતુ એકાંત પ્રદેશમાં જઈને ઊભે રહે કે જ્યાં એમની દૃષ્ટિ પહોંચે નહિ (૧૦-૧૧) सम न ४२वामा ३५ हे 8-'वणीमगस्स०'त्याह. Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. १४ - १७ - पुष्प संस्पर्शकहस्ताद्भिक्षानिषेधः ५११ टीका- ' उप्पलं ' इत्यादि 'तं भवे' इत्यादि च । उत्पलं= श्यामल-धवललोहित-भेदेन त्रिविधं कमलम्, अपित्रा पद्मं सूर्यविकासि कमलं, कुमुदं = चन्द्रविकासि कमलं वा = अथवा मगदन्तिकां = मालतीपुष्पम्, अन्यद्वा पुष्पस चित्तं= पुष्पेषु सचित्तं पुष्पस चित्तं सचित्तपुष्पमात्रमित्यर्थः तच्च संवन्ध्य= संधि यदि दात्री भक्त पानं दद्यात्, तर्हि तद् भक्तपानं तु संयतानामग्राह्यं भवेदिति ददतीं प्रत्याचक्षीत - तादृशं दोपयुक्तं मे मम न कल्पत इति ।। १४ ।। १५ ।। ૧ ♦ 3 २ ५ ७ मूलम् - उप्पलं परमं वावि कुमुयं वा मंगदंतियं । ક to ૧૧ ૧૨ 13 ૧૪ अन्नं वा पुप्फसचित्तं तं च संमदिया दए ॥ १६ ॥ ૧૫ ૨૦ ૧૬ १७ ૧૮ ૧૯ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं । ૧ २२ २५ २४ २९ २३ दिंतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ १७ ॥ छाया -- उत्पलं पद्मं वाऽपि कुमुदं वा मगदन्तिकाम् । अन्यद्वा पुष्पसचित्तं तच समर्थ दद्यात् ॥ १६ ॥ तद् भवेद् भक्तपानं, तु संयतानामकल्पिकम् । ददतीं प्रत्याचक्षीत न मे कल्पते तादृशम् ॥ १७ ॥ सान्वयार्थः- उप्पलं= नील कमल पउमं=रक्त कमल वावि =अथवा कुमुयं = चन्द्रविकासी कमल वा-या मगदंतियं = मालती- मोगरेके फूलको वा = अथवा अन्नं दूसरे भी इसी प्रकारके जो पुप्फसचित्तं=सचित्त पुष्प हैं तंच उनको भी (अगर ) संमद्दिया=पैरों आदिसे कुचलकर दए-देवे तो वह भत्तपाणं तु= 'उप्पलं' इत्यादि, 'तं भवे' इत्यादि । दाता नीला सफेद और लाल कमल, सूर्यविकासी कमल, चन्द्रविकासी कमल, मालतीका फूल तथा अन्य सचित्त पुष्प तोड़ कर आहारपानी देवे तो वह संयमियोंके लिए ग्राह्य नहीं है इसलिए देनेवाली से कहे कि ऐसा दोपयुक्त आहार मुझे नहीं पता है ॥ १४ ॥ १५ ॥ उप्पल धत्याहि तथा तं भवे० त्याहि ले हाता, नीलु सह या લાલ કમળ, સૂવિકાસી કંમળ, ચંદ્રવિકાસી કમળ, માલતીનું પુલ તથા અન્ય સચિત્ત પુષ્પ તાડીને પછી આહાર પાણી આપે તે તે સયમીઓને માટે ગ્રાહ્ય નથી. તેથી તે આપનારીને સાધુ કહે કે એવે દોષયુકત આહાર મને કલ્પતા नथी (१४-१५) Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवकालिकसूत्रे तम्मि-उन श्रमणादिकोंके नियत्तिए चले जाने पर संजए साधु भराहाआहार व अधया पाणहाए-पानीके लिए अवसंकमिज्ज-जावे |१३|| टीका-प्रतिपेथितेन्दामा प्रतिपेय प्राप्त वा अथवा दत्ते अनादिके, वाशदादास्तूष्णीभावावलम्बनाद् विलम्यादिनिमित्तयशाद्वा तस्वस्थानात् तस्मिन् बनीपकादौ निरचे प्रतिनिवृत्ते सति संयतः भक्तार्थ पानार्य का उपसंकामे भिक्षा ग्रहीतुं गच्छेत् ॥ १३॥ मूलम् उप्पलं पउमं वावि, कुमुयं वा मगदंतियं । ८ . १९ .. अन्नं वा पुप्फसञ्चित्तं, तं च संलुचिया दए ॥ १४ ॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं । २९ . . २२ . २५ २४ २५ २३ दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥१५॥ छाया-उत्पलं पझं वाऽपि, कुमुदं वा मगदन्तिकाम् । अन्यद्वा पुप्पसचित्तं, तच्च संलुन्च्य दद्यात् ॥ १४ ॥ तद् भवेद् भक्तपानं तु संयतानामकल्पिकम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे करपते तादृशम् ।। १५ ॥ सान्वयार्थ :-उप्पलं नील कमल पउमंगरक्त कमल वावि-अथवा कुमुर्गचन्द्रविकासी कमल वाया मगदनिय मालती-मोगरेके फूलको वा अथवा अन्नं दुसरे भी इसी प्रकारके जो पुप्फसचित्तं-सचित्त पुष्प हो तंच उनकी भा (अगर) संलंचियाम्लोंच करके दए देवे तो तं-वह भत्तपाणं तु आहारपानी संजयाण संयमियोंको अकप्पियं अकल्पनीय भवे होता है, अत: दितियं देनेवालीसे पडियाइवरखे कहे कि तारिसं-इस प्रकारका आहार में-- मुझे न कम्पइ-नहीं करपता है |१४||१५|| दाताके वनीपक आदिको दान देनेकी मनाकर देने पर, अथवा अन्न आदिके दे देने पर या मौन साध लेने पर, अथवा विलम्ब होने आदिक कारणसे जब वह वनीपक आदि उस घरसे लौट जाय तब संयमीको भक्त-पानके लिए उस घरमें जाना चाहिए ॥१३॥ દાતાએ વનપક આદિને દાન દેવાની મનાઈ કર્યા પછી અથવા અન્ન આદિ આપી ચૂકયા પછી યા મોન સાધી લીધા પછી, અથવા વિલંબ છે ઈયાદિને કારણે જયારે એ વનીપફ આદિ એ ઘરથી પાછા ફરે ત્યારે સંયમીએ ભકત-પાનને માટે એ ઘરમાં જવું જોઈએ (૧૩) Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. १४-१७-पुष्पसंस्पर्शकहस्ताद्भिशानिषेधः ५११ टीका-'उप्पलं' इत्यादि 'तं भवे' इत्यादि च । उत्पलं श्यामल-धवललोहित-भेदेन त्रिविधं कमलम् , अपिवा पद्मभूर्यविकासि कमलं, कुमुदं चन्द्रविकासि कमलं वा अथवा मगदन्तिकां मालतीपुष्पम् , अन्यद्वा पुष्पसचित्तं पुप्पेषु सचित्तं पुप्पसचित्तं सचित्तपुप्पमात्रमित्यर्थः, तच्च संलुन्च्य-संधि यदि दात्री भक्त पानं दद्यात, तर्हि तद् भक्तपानं तु संयतानामग्राह्यं भवेदिति ददती मत्याचक्षीत-तादृशंन्दोपयुक्त मे मम न कल्पत इति ॥ १४ ॥ १५ ॥ मूलम्-उप्पलं पउमं वावि कुमुयं वा मंगदंतियं । ८. १० ११ १२ १३ १४ अन्नं वा पुप्फसचित्तं, तं च संमदिया दए ॥१६॥ १५ २० १ ९ . ७, १८ १८ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं । २२ - २५ २४ २५ २३ . दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥१७॥ छाया-उत्पलं पद्मं वाऽपि कुमुदं वा मगदन्तिकाम् । अन्यद्वा पुप्पसचित्तं तच्च संमद्यं दद्यात् ॥ १६ ॥ तद् भवेद् भक्तपानं, तु संयतानामकल्पिकम् । ददतीं प्रत्याचक्षीत न मे कल्पते तादृशम् ॥ १७ ॥ सान्वयार्थ:-उप्पलं नील कमल पउम-रक्त कमल वावि-अथवा कुमुयंचन्द्रविकासी कमल वा-या मगदंतियन्मालती-मोगरेके फूलको वा-अथवा अन्नदूसरे भी इसी प्रकारके जो पुप्फसच्चित्त-सचित्त पुष्प हैं तंच-उनको भी (अगर) संमदिया-पैरों आदिसे कुचलकर दए-देवे तो तंबह भत्तपाणं तु 'उप्पलं' इत्पादि, 'तं भवे' इत्यादि । दाता नीला सफेद और लाल कमल, सूर्यविकासी कमल, चन्द्रविकासी कमल, मालतीका फूल तथा अन्य सचित्त पुष्प तोड़ कर आहारपानी देवे तो वह संयमियोंके लिए ग्राह्य नहीं है इसलिए देनेवालीसे कहे कि ऐसा दोपयुक्त आहार मुझे नहीं कल्पता है ॥ १४॥ १५॥ उप्पलं. त्या तथा तं भवेत्यादि. ने हता, नी सई या दास કમળ, સૂર્યવિકાસી કમળ, ચંદ્રવિકાસી કમળ, માલતીનું પુલ તથા અન્ય સચિત્ત * તાડીને પછી આહાર પાણી આપે છે તે સયમીઓને માટે ગ્રાહ્ય નથી. તે આપનારીને સાધુ કહે કે એ દેષયુક્ત આહાર મને કહપતે नया (१४-१५) Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ श्रीदशवेकालिक सूत्रे आहार- पानी संजग्राणं संयमियोंको अकप्पियं=अकल्प्य भवे=होता है, (अतः) दितियं = देनेवाली से पडियाले = कहे कि तारिसं=इस प्रकारका आहार मे= मुझे न कप्पड़ नहीं कल्पता है ||१६|| १७|| टीका – 'उप्पलं' इत्यादि, 'तं भवे' इत्यादि च । उत्पलादिकं संमर्थ = करचणादिना तत्समर्दनं कृत्वा, अशनादि दद्यात् तद् भक्त पानं तु संयतानामग्राह्यमित्यादि पूर्ववद् व्याख्येयम् । अत्र 'समर्थ' शब्देन संमर्दनं यथा कथञ्चित्स्पर्शमात्रमपि गृह्यते, उत्पलादिगतमक्ष्मजीवानां तात्रताऽपि पीडोत्पत्तेरवश्यम्भावात् । ' संमदमाणी परणाणि वीयाणि हरियाणि य' इत्यस्यैव प्रथमोद्देशके समस्तत्रनस्पतीनां ग्रहणेऽपि पुनस्त्रोत्पलादीनां ग्रहणं न पुनरुक्तिदोपजनकं, पूर्वत्र सामान्यरूपेणाऽत्र च विशेषरूपेणोपादानादिति बोध्यम् ॥ १६ ॥ १७ ॥ 'उप्पलं' इत्यादि, 'तं भवे' इत्यादि । पूर्वोक्त उत्पलादिकों में से किसी सचित्त फूलको मर्दन करके अथवा संघटा मात्र भी करके आहार देवे तो देने वाली से साधु कहे कि ऐसा आहार लेना मुझे नहीं कल्पता है ॥ यहां 'मर्दन ' शब्दसे स्पर्शमात्रका भी ग्रहण होता है, क्योंकि कमल आदिके जीवोंको स्पर्श करनेसे भी अवश्य पीडा होती है । प्रथम उद्देशमें “संमद्दमाणी पाणाणि बीयाणि हरियाणिय' इस पदसे ही सब वनस्पतिकायका ग्रहण कर लिया था, यहाँ फिर उत्पल आदिका ग्रहण किया है यह पुनरुक्ति दोष नहीं समझना चाहिए, क्योंकि पहले सामान्यरूप से निषेध किया था और यहां विशेषरूपसे निषेध किया है ॥ १६ ॥ १७ ॥ उप्पलं. धत्याहि, तथा तं भवे त्याहि यूर्वोश्त उमण सहिभांथी अ સચિત્ત ફૂલનું મર્દન કરીને અથવા માત્ર સઘટન પણ કરીને આહાર આપે તે આપનારીને સાધુ કહે કે એવા આહાર લેવે મને કલ્પતે નથી. અહીં’ ‘મન’ શબ્દથી સ્પ-માત્રનું પણ ગ્રહણ થાય છે, કારણ કમળ આદિના જીવાને સ્પર્શ કરવાથી પણ અવશ્ય थीडा थाय छे. प्रथम उद्देशमां संमद्दमाणी पाणाणि वीयाणि हरियाणि य से पहथी ४ गधी वनस्पतिप्रायनुं ग्रहषु ४रवामां मन्यु હતુ, અહીં ફરીથી કમળ આદિનું ગ્રહણ કર્યું છે, એ પુનઃકિત દોષ સમજવે નહિ, કારણ કે પહેલાં સામાન્યરૂપે નિષેધ કર્યાં હતા, અને અહીં વિશેષરૂપે निषेध ! छे, (१९--१७) Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययनं ५ उ. २ गा. १८ - २० - सचितहरितकायनिषेधः २ * ૧ मूलम्-साल्लुयं वा विरालियं, कुमुयं उप्पलनालियं । ५१३ ७ ૯ मुणालयं सासवनालियं, उच्छुखंडे अनिव्वुडं ॥ १८ ॥ ૧૧ ૧૭ ૧૯ ૧૮ ૧૦ १२ तरुणगं वा पवालं, स्वखस्स तणगस्स वा । 18 ૧૬ ૧૫ ૧૪ ૨૦ ૧ अन्नरस वावि हरियस, आमगं परिवज्जए ॥ १९ ॥ छाया - शालूकं वा विरालिकां, कुमुदम् उत्पलनालिकाम् । मृणालिकां सर्पपनालिकाम्, इक्षुखण्डम् अनिर्वृतम् ॥ १८ ॥ तरुणकं वा मत्रालं, वृक्षस्य, तृणकस्य वा । अन्यस्य वाऽपि हरितस्य, आमक परिवर्जयेत् ॥ १९ ॥ सान्वयार्थः- सालुयं = कुमुदादिका मूल विरालियं = पलासका कन्द-साधारण वनस्पतिविशेष कुमुयं = चन्द्रविकासी श्वेत कमल उप्पलनालियं = कमलनाल मुणालयं = कमलतन्तु सासवनालियं = सरसोंकी भाजी या कान्दल वा अथवा उच्छुखंडं=गन्नेके टुकड़े, (ये सब यदि ) अनिन्युर्ड - शस्त्रपरिणत -अचित्तन हों तो, (तथा) रुक्खस्स = इमली आदि वृक्षके वा= अथवा तरुणगस्स = मधुर तृणादिकोंके वा=और अन्नस्सवि=दूसरे प्रकारके भी हरियस्स - हरित काय - = कोंपल पत्ते आदि वा अथवा पवाले कच्ची कोंपल नहीं खिले हुए पत्तेआदि आमगं-सचित्त हों तो उन्हें परिवज्जए बरजे नहीं लेवे ||१८|| १९ ॥ टीका- 'सालु' इत्यादि 'तरुण गं' इत्यादि च । शालूकं कुमुदादिमूल, बिरालिका = पलाशकन्दं साधारण वनस्पतिजातिविशेपं, कुमुदं = चन्द्रविकासिश्वेतकमलम्, उत्पलनालिकां= कमलनालं, मृणालिकां= विसं 'भे' इति भाषामसिद्धां, सर्पपनालिका = सर्पपपत्रशाकं सर्पपकन्दलीं वा, इक्षुखण्डम् इक्षुशकलं वा एतत्सर्वम् अनिर्वृतम् = शस्त्राऽपरिणतम् । तथा वृक्षस्य = अम्लिकादेः वा अथवा 'सालय' इत्यादि, 'तरुण' इत्यादि । कमलका मूल, पलाश (क) का मूल अर्थात् साधारण वनस्पतिकी जातिविशेष, तथा सफेद कमल, कमलकी नाल, सरसोंके पत्तेका शाक, गन्नेका खण्ड, ये सब सालुगं० धत्याहि, तरुण गं० त्याहि उभानुं भूण, पसाशनुं भूझ, अर्थात् સાધારણ વનસ્પતિની જાતિ વિશેષ, તથા સફેદ કમળ, કમળની તાળા, સરસવનાં પાંદડાંનું શાક, શેરડીની કાતળી, એ બધાં જે શસ્ત્રથી પણિત ન હોય તે એના Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ श्रीदवेकालिकमृत्रे तृणकस्य मधुरतृणादेः, अन्यस्य हरितस्यापि वा हरितकायमात्रस्य तरुण-तरुणदशाऽऽपन्नं पत्रादिकं, भवालं सुकुमारं पत्रादिकं या, आमकं सचित्तं परिवर्जयेत् ॥ १८ ॥ १९ ॥ मूलम्-तरुणियं वा छिवाडिं, आमियं भजियं सई । १. १२ दितियं पडियाइखे, न में कप्पड़ तारिस ॥२०॥ छाया-तरुणिकां वा छियाडीम् , आमिका भजितां सकृत् । ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥ २० ।। सान्ययाः-तरुणियं-कची जिसके वीज पके नहीं हो ऐसी वा=अथवा सह-एक बार भज्जिय-भुनी हुई आमियं-सचित्त छिवाडि-फलीको दितिय%D देनेवालीसे (साधु) पडियाइक्खे कहे कि तारिसं-इस प्रकारका आहार मे= मुझे न कप्पइ-नहीं कल्पता है ॥ २० ॥ ___टीका-'तरुणियं' इत्यादि। तरुणिकाम् अपरिपक्यबीजाम् अपरित्यक्तत्वकसंश्लेपावस्थापन्नामित्यर्थः, छिवाडी देशीयोऽयं शब्दः' मुद्ग-चवल-तुवरिकादिफलिका सकृद्भर्जिताम्-एकवारं भृष्टां वा अथवा आमिकां सचित्तां ददती प्रत्याचक्षीत तादृशं मे न कल्पत इति । ॥२०॥ यदि शस्त्रसे परिणत न हों तो इनका, तथा-इमली आदि वृक्षके, मधुर तृण आदिके तथा अन्य हरेक वनस्पतिके पत्ते कोंपल आदि जो सचित्त हों तो उनका त्याग करना चाहिए ॥ १८॥ १९ ॥ ___ 'तरुणियं' इत्यादि। जिसके बीज न पके हों ऐसी मूंग, चवला, तुअर (अरहर) आदिकी फली एक-वार पूँजी हुई हो तथा सचित हो तो देनेवाली घाईसे साधु कहे कि यह लेना मुझे नहीं कल्पता है ॥ २० ॥ તથા આંબલી આદિનાં વૃક્ષનાં, મધુર તૃણ આદિનાં, તથા બીજી બધી વનસ્પતિના પાંદડા, કુંપળ, આદિ જો સચિત્ત હોય તે એને ત્યાગ કર જોઈએ. (૧૮) (૧૯) तरुणियं या न भी पायां न खाय मे भर, स्याणा, तु३२ આદિની સીંગ એકવાર ભૂંજેલી હોય તથા સચિત્ત હોય તે તે આપનારી બાઈને સાધુ કહે કે એ લેવી અને કલ્પતી નથી. Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययनं ५ उ. २ गा. २१-२२-सचित्ताहार-पाननिषेधः - मूलम्-तहा कोलमणुस्सिन्नं, वेलुयं कासवनालियं । तिलपप्पडगं नीम, आमगं परिवज्जए ॥ २१ ॥ छाया-तथा कोलमनुत्स्विन्नं, वेणुकं काश्यपनालिकाम् । तिलपर्पटकं नीपम् , आमकं परिवर्जयेत् ।। २१ ॥ - सानयार्थः-तहा-उसी प्रकार अणुस्सिन्न-विना उबाले हुए कोलंबेर तथा वेलुयं-केर या वांसकी कोंपल कासवनालियं-श्रीपर्णीका फल तिलपप्पडगं तिलपापड़ी नीम कदम्बका फल (ये सब यदि) आमगं-सचित्त हो तो उन्हें परिवज्जएवजे ॥२२॥ टीका-'तहा' इत्यादि । तथा तद्वत् अनुत्स्विन्न सलिलानलसंयोगेनाऽनुकालितम् – अथितमित्यर्थः, कोलं-बदरीफलम्, आमकम् अशस्त्रोपहतम् , अस्य वेणुकादौ सर्वत्र सम्बन्धः, वेणुकंबंशकरीरं वंशाङ्कुरमित्यर्थः, काश्यपनालिकां श्रीपर्णीफलम्, अत्र - 'आमग'-मित्यस्य लिङ्गविपरिणामेनान्वयः। तिलपर्पटकं प्रसिद्धमेव, नीपं कदम्बफलं परिवर्जयेत् ।। २१ ॥ ___ मूलम्-तहेव चाउलं पिटं, वियडं वा तत्तनिव्वुडं । तिल-पिटं पूइ-पिन्नागं, आमगं परिवजए ॥२२॥ छाया-तथैव ताण्डुलं पिष्टं, विकटं वा तप्तनितम् । . तिलपिष्टं पूतिपिण्याकम् , आमकं परिवर्जयेत् ।। २२ ।। सान्वयार्थः-तहेव-उसी प्रकार चाउलं पिहुंचाँवलोंका आटा तथा और भी किसी तरहका आटा वा अथवा तत्तनिव्वुडं पहले गर्म किया हुआ किन्तु १ 'नोम' इत्यत्र 'नीपाऽऽपीठे मोवा' (मा. ८1१।२३४) इति प्राकृतमूत्रेण पस्य मः। 'तहा कोल.' इत्यादि । इसी प्रकार जल और अग्निमें नहीं उबाले हुए वेर, सचित्त बाँसके अंकर तथा काश्यपनालिका (गंभारीफल) तिलपापडी और कदम्बके फल ये सब यदि सचित्त हों तो इनका लाग करे-ग्रहण न करे ॥२१॥ ___ तहा कोल. त्या प्रमाणे ४७ मन ममिमा न8 Bidaiमार, સચિત્ત વાંસના અંકુર તથા કશ્યપનાલિકા (રંભારી ફળ), તલપાપડી અને કદનાં ફળ જે સચિત્ત હોય તે એને ત્યાગ કરવ-પ્રહણ કરવાં નહિ. (૨૧). Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ श्रीदशवेकालिकसूत्रे फिर ठंडा होया हुआ विग्रई = पानी तिलपि = तिलकुट्टा पपिनार्ग= सरसोंकी खल (ये) आमगं=सचित्त हो तो परिवज्जए=बरजे ||२२|| टीका - 'तव' इत्यादि । तथैव तेनैव प्रकारेण ताण्डुले = तण्डुलसम्बन्धि पिष्टं= चूर्णम्, उपलक्षणमेतद्बोधूमादेरपि वा = अथवा तप्तनिर्वृतं = पूर्वे व पान [त शीतलं यत्तत्तथोक्तम्, उष्णोदकं यदा शैत्यापनं ततः कालादारभ्य ग्रीष्मे यमपञ्चका शीतकाले यामचतुष्यात्परं वर्षाकाले च महरत्रयानन्तरं सचितं जायते | अत्रेयं सङ्ग्रहगाथा - "जम्मि समयम्मि उहो, दगं च सीयं भवे तओ पच्छा । पंच-च-तिय- जामा, गिम्हे हेमंत पाऊसे ॥ १ ॥” इति ॥ चिकटं =समयपरिभाषया सलिलं, तिलपिष्टं तिलकुटं प्रसिद्धं, पूतिपिण्याॐ= सर्पपकल्कम् आमकं=सचित्तं परिवर्जयेत् ॥ २२ ॥ १ छाया - " यस्मिन् समये उष्णोदकं च शीतं भवेत्ततः पश्चात् । पञ्चचतुस्त्रिकयामाः, ग्रीष्मे हेमन्त प्रावृपः ॥ १ ॥ 'तहेव' इत्यादि । इसी प्रकार तत्कालका पीसा हुआ चावल गेहूँ आदिका आटा तथा पहले अचित्त होने पर भी कालकी मर्यादा व्यतीत होने पर पुनः सचित्त हुआ जल, तुरतका बना हुआ तिलकुट, तत्कालकी सरसों आदिकी खली, इन सचित्त वस्तुओंको ग्रहण न करे । गर्म पानी के अचिन्त रहनेकी मर्यादा ठंढा होजाने पर ग्रीष्म ऋतुमें पांच पहर, शीतकाल में चार पहर और वर्षाकालमें तीन पहरकी होती है, उसके बाद वह (जल) सचित्त होजाता है । इस विषयमें एक संग्रह गाथा है जो संस्कृत टीकामें लिखी गई है | २२ ॥ તદ્દેશ્ર્વ॰ ઇત્યાદિ. એ જ પ્રમાણે તત્કાળને દળેલે ચાખા ઘઉં દિને આટે, તથા પહેલાં ચિત્ત હૈાવા છતાં પણ કાળની મર્યાદા વ્યતીત થતાં પુનઃ સચિત્ત થએલું જળ, તુરતને બનાવેલે વલકુ±, તુરતની સરસવ આદિની ખેાળ એ સચિત્ત વસ્તુઓને પણ ગ્રહણ ન કરે. ગરમ પાણી અચિત્ત રહેવાની મર્યાદાઠંડુ થઈ ગયા પછી શ્રીષ્મ ઋતુમાં પાંચ પહેાર, શીયાળામાં ચાર વર્ષાઋતુમાં ત્રણ પહેરની હોય છે, ત્યારબાદ એ જળ સચિત્ત મની એ વિષયમાં એક સબ્રઢગાથા છે તે સંસ્કૃત ટીકામાં લખી છે. (૨૨) પહેાર અને लय छे. Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. २३-२४-सचित्ताहारनिषेधः मूलम् -कविलु माउलिंग च, मूलगं मूलगत्तियं । आम असत्थपरिणयं, मणसावि न पत्थए ॥ २३ ॥ छाया-कपित्यं मातुलिङ्गं च, मूलकं मूलकर्तिकाम् । आमम् अशस्त्रपरिणत, मनसाऽपि न प्रार्थयेत् ॥ २३ ॥ सान्वयार्थ :-कविटुं कैथ कविठ माउलिंग-विजौरा मूलगं-मूला च और मूलगत्तियन्मूलेके कन्दका टुकड़ा आमं-कचा असत्यपरिणयं-स्वकाय परकाय आदि शस्त्रसे परिणत न हुआ हो तो उसे मणसावि-मनसे भी न पत्थए-- न चाहे ॥२३॥ टीका-'कविर्ट' इत्यादि। कपित्थं 'कैथ कविठ' इति भापायां, मातुलिङ्ग-धीजपूरकं 'विजौरा नींबू' इति भापायां, मूलक-सपत्रं, मूलकत्र्तिकां भूलककन्दखण्डम्, आमम् अपकम् , अशस्त्रपरिणतम् अलब्धस्वपरकायादिशस्त्रयोगं मनसाऽपि न प्रार्थयेट-एतद्विपयिणीमिच्छामपि न कुर्यादित्यर्थः। 'आमम्' इत्यस्य 'अशस्त्रपरिणतम्' इत्यस्य च लिङ्गविपरिणामेन 'मूलकतिका'-मित्यत्र सम्बन्धः । मूलकस्याऽनन्तकायत्वात् शस्त्रपरिणतिर्दुष्करेति बोधयितुमेकार्थकस्याऽऽमादिशब्दद्वयस्योपादानम् ॥ २३॥ . मूलम्-तहेव फलमंथूणि, वीयमथूणि जाणिय। विहेलगं पियालं च, आमगं परिवजए ॥ २४ ॥ छाया-तथैव फलमन्थन् वीजमन्यून ज्ञात्वा । विभीतक पियालं च, आमक परिवर्जयेत् ॥ २४ ॥ 'कवि' इत्यादि । कैथ (कविठ) विजौरा नीबू, मूला और मूलेके खण्ड यदि अचित्त-शस्त्रपरिणत न हों तो इन्हें ग्रहण करनेकी इच्छा भी नहीं करनी चाहिए। मूला अनन्तकाय है, अतः उसका शस्त्रपरिणत होना कठिन है इसीसे यहां एक अर्थवाले 'आमक' और 'अशस्त्रपरिणत' ये दो शब्द दिये हैं ॥ २३ ॥ कविट्ट-त्याहो मान-दीशु, भूप अने भूाना ४४१ ने ચત્ત-શસ્ત્રપરિણત ન હોય તે તે ગ્રહણ કરવાની ઈચ્છા પણ ન કરવી જોઈએ. મૂળે અનંતકાય છે એટલે એ શસ્ત્રપરિણત B કઠિન છે, તેથી અહીં એક मर्थ वा माम' भने 'शख-परित' मेवा मे शण्ही भाचमा छे. (२३) Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - PARA 1 . श्रीदर्शकालिकमंत्र सान्वयार्थः-तहेव इसी प्रकार फलमंधूणिम्चेर आदि फलोंका चूर्ण चूरा पीयमंधूणि-शालि आदि बीजोंका चूर्ण चूरा विहेलगंबहेडा च और पियामायण अथवा दाख (इन्हें) आमगं सचित्त जाणिय-जानकरमाने तो परिवज्जए-बरजे-न ले ॥ २४ ॥ टीका--'तहेव फल.' इत्यादि । तथैव-तहत् फलमन्धून बदरादिचूर्णान्, वीजमन्यून फलवीजचूर्णान्, विभीतकं 'बहेडा' इति प्रसिद्धं, च-पुनः प्रियाले राजादनफलं 'रायण' इति भापापसिद्धम् । यद्वा 'प्रियाला'-मिति च्छाया, प्रियालांन्द्राक्षाम् , आम-सचितं ज्ञात्वा परिवजयेद, सचित चेन्न गृहीयादित्यर्थः । यद्वा 'जाणिय' इत्यस्य 'याँथे-तिच्छाया; याँश्च वीजमन्यूनित्यन्वयः ॥ २४॥ मूलम्-समुयाणं चरे भिक्खू, कुलं उच्चावयं सया। नीयं कुलमइकम्म, ऊसदं नाभिधारए ॥ २५ ॥ छाया समुदानं चरेद् भिक्षुः, कुलमुञ्चावचं सदा । नीचं कुलमतिक्रम्य, उच्छ्रितं नाभिधारयेत् ॥२५}} सान्वयाय:-भिक्खू साधुको सया-हमेशा उच्चावयं-ऊंच-नीच अर्थात् धनवान् और गरीव कुलं-कुल-घर में समुयाण-शुद्ध भिक्षाका अनुसन्धान पूर्वक चरे-घूमना चाहिए, (किन्तु) नीयं-गरीव कुलं-कुल-घर-को अइकम्म छोड़कर ऊसहन्धनवानके घरपर नाभिधारएनहीं जाना चाहिए ॥२५॥ टीका-'समुयाणं' इत्यादि । भिक्षुः सदा-नित्यम् उच्चावचम्-उदउच्चं धनधान्पादिसमृद्धम् , अवाक् अवच-तद्विकलं कुलं भति सधुदान-गृहस्थ 'तहेव फल.' इत्यादि। इसीप्रकार बेर आदिका चूरा, फलके बीजोंका चूरा, तथा बहेडा,रायण अथवा दाख,ये सचित्त हों तो ग्रहण न करे ॥२४॥ . 'समुयाणं' इत्यादि । भिक्ष सदा धन-धान्य आदिसेसमृद्ध कुलोमें तथा धन-धान्यहीन कुलोंमें समुदानी भिक्षाके लिए गमन करें। एकही तहेव फल. त्या, 2 रे मा२ महिन यूथ, नां मीलनु यूए. તથા બહેડા, રાયણ અથવા દ્રાક્ષ એ સચિત્ત હાથ તે ગ્રહણ કરવાં નહિ. (૨૪) 'समुयाणं. त्यादि लिखु सहा धन-धान्य माहिया समृद्ध जोभा तथा ધન-ધાન્યથી હીન કુળોમાં સમુદાની ભિક્ષા માટે ગમન કરે. એક જ ઘરથી Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. २५ - २६ - भिक्षाचरणे विवेकोपदेशः समुदायसम्बन्धि भैक्ष्यं, न त्वेकस्मिन्नेव गृहे तत्राऽऽधाकर्मादिदोपसम्भवादिति भावः, चरेत्= गच्छेत् । नीचे - विभवविधुरं कुलम् अतिक्रम्य उल्लङ्घन्य परित्यज्येति यावत्, उच्छ्रित=समृद्धं कुलं नाभिघारयेत् = न गच्छेत् प्रचुरसरसभक्तपानादिलिप्सया निर्धनं विहाय विभवसंपन्नं सदनं नाभिगच्छेत्, किन्तु उभयत्रापि यायादिति भावः । 'समुयाणं' इति - पदेनाऽनेकगृहतः स्वल्पं स्वल्पं ग्रहणाद् भिक्षाया निर्दोषता सूचिता । ' उच्चावयं' इति पदेन समभावो व्यक्तीकृतः । 'नीयं कुलं ' इत्युत्तरार्द्धेन रसलोलुपता परित्याग आविष्कृत इति ॥ २५ ॥ . ८ 1 मूलम् - अदीणो वित्तिमेसिजा, न विसीएज्ज पंडिए । ७ २ ४ ૫ अमुच्छिओ भोयणम्मि, मायने एसणारए ॥ २६ ॥ छाया -- अदीनः वृत्तिमेपयेत्, न विपीदेत् पण्डितः । ५१९ अमूच्छितो भोजने, मात्राज्ञ एपणारतः ||२६|| सान्वयार्थ :- पंडिए= बुद्धिमान् साधु भोयणम्मि=भोजनमें अमुच्छिओ= वृद्धि-लोलुपता - रहित मान्ने = आहार- पानीकी मात्रा को जाननेवाला एसणारए= आहारकी शुद्धिमें तत्पर अदीणो दीनता नहीं दिखलाता हुआ वित्ति-भिक्षागोवरी - की एसिज्जा = गवेषणा करे, (किन्तु भिक्षा न मिलने पर) न विसीएज्ज= खेद न करे ||२६|| घरसे भिक्षा न लें, क्योंकि आधाकर्म आदि दोष लगने की संभावना है । निर्धन को छोड़कर सरस भक्त-पानकी लालसा से सम्पत्तिशाली कुलमें भिक्षाके लिए नहीं जाना चाहिए । 'समुयाणं' पदसे यह सूचित किया है कि अनेक कुलोंसे थोड़ीथोड़ी भिक्षा लेने से ही भिक्षाकी निर्दोषता होती है । 'उच्चावय' पदसे समभाव सूचित किया है । 'नीयं कुल' इत्यादि उत्तरार्द्धसे रसलोलुपताका त्याग व्यक्त किया है ।। २५ ।। ભિક્ષા ન લે, કારણ કે આધાક આદિ દ્વેષ લાગવાના સંભવ છે, નિર્ધન કુળને છેડીને સરસ ભકત-પાનની લાલસાથી સંપત્તિશાળી કુળમાં ભિક્ષાને માટે જવું नले. સમુવાળ પદથી એમ સૂચિત કરવામાં આવ્યું છે કે અનેક કુળમાંથી ચેડી-થોડી ભિક્ષા લેવાથી જ ભિક્ષાની નિર્દેષિતા भजवाय े. उच्चावयं शब्दथी समभाव सूचित ये छे. नीयं कुलं धत्याहि उत्तरार्धथी रस-सोलुपताना त्याग व्यय है. (२५) Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० श्रीदशवकालिकमूत्रे टीका-'अदीणो' इत्यादि । पण्डितः सफलमिक्षादोपज्ञः साधुः भोजने आहारे अमन्छिता अगृध्नुः मात्रात: मात्रां=भक्तपानेन स्वकीयोदरपूर्तिप्रमाणं क्षुनिमित्तकवैकल्यपशमनैकसाधनप्रमाणं वा जानातीति मात्राज्ञः, प्रमाणाधिकभोजनेन प्रमादादिदोपोद्भवस्य संभवेन साधनामाहारममाणमवश्यं विधेयमिति । एपणारतः उद्गमादिदपणव्यतिरिच्यमानगवेषणपरायणः, अदीन: दैन्यरहितः सन् एति-मिक्षालक्षणाम् एपयेत् अन्वेपयेत, अलामे सति न विपीदेव न खिघेत् । 'अदीणो' इति-पदेन स्वदेन्याऽऽविष्करणेनाऽऽत्मनोऽधःपतनं शासनलघुना च प्रसज्यते, इति व्यज्यते । 'न विसीएज्ज' अनेन भिक्षायाअलामेऽपि स्वात्मप्रसन्नतां न परित्यजेदिति घोतितम् । 'पंडिए' इत्यनेन सर्वथापरिशुद्ध "अदीणो' इत्यादि। भिक्षाके समस्त दोपोंका ज्ञाता मुनि आहारमें मृर्छा न रखें और आहारके परिमाणका ख्याल रखें। जितने आहारसे क्षुधावेदनीय उपशान्त होजाय वही आहारका परिमाण है, उसस अधिक आहार करनेसे प्रमाद आदि दोष उत्पन्न होते हैं, इसलिए साधुओंको आहारका परिमाण अवश्य करना चाहिए । साधु उद्गम आदि दोषोंको नलगाते हुए दीनताका त्याग करके भिक्षाकी गवेषणा करें, और मिक्षाका लाभ न हो तो खेद न करें। 'अदीणो' पदसे यह प्रगट होता है कि दीनता दिखानेसे आत्माका अधःपतन और जिनशासनकी लघुता होती है। 'न विसीएज्ज' पदसे यह सूचित किया है कि आहार-लाभन हो तो भी आत्मिक प्रसन्नताका परित्याग न करना चाहिए । 'पंडिए' पदसेसर्वथाशुद्ध भिक्षा ग्रहण अदीणो० त्या. मिक्षाना या होपना ज्ञाता मुनि माडारमा भू न રાખે અને આહારના પરિમાણનો ખ્યાલ રાખે જેટલા આહારથી ક્ષુધા-વેદનીય ઉપશાન્ત થઈ જાય તે જ આહારનું પરિમાણ છે એથી વધારે આહાર કરવાથી પ્રમાદ આદિ દેષ ઉત્પન્ન થાય છે, તેથી સાધુઓએ આહારનું પરિમાણ અવશ્ય કરવું જોઈએ. સાધુ ઉગમ આદિ દે ન લાગવા દેતાં દીનતાને ત્યાગ કરીને ભિક્ષાની ગષણા કરે, અને ભિક્ષાને લાભ ન થાય તે તેથી ખેદ ન કરે, अदीणो शपथा सम प्रट याय छ, हीनता यावाथी भाभार्नु Rध:पतन मन जिनशासननी मधुता थाय छे. न विसीएन्ज ०६था सेभ सूयित કઈ છે કે અહરલાભ ન થાય તે પણ આત્મિક પ્રસન્નતાનો પરિત્યાગ ની કરવો જોઈએ પણ શબ્દથી સર્વથા શુદ્ધ ભિક્ષા ગ્રહણ કરવાની યોગ્યતા Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ___ अध्ययन ५ उ. २ गा. २७-२८-भिक्षाचरणे विवेकोपदेशः ५२१ भिक्षाग्रहणयोग्यताऽऽवेदिता। 'अमुच्छिओ' इतिपदेनाऽऽहारादिलोलुपता निराकृता । 'मायन्ने' इत्यनेन निर्दोपसरसभक्तपानादौ प्राचुर्येण दीयमानेऽपि ममाणाधिकं न ग्रायमिति स्पष्टीकृतम् । 'एसणारए ' इति-पदेनाऽऽधाकर्मादिसकलभिक्षादोपानुसन्धानेनैव विशुद्धभिक्षाग्रहणं भवितुमर्हतीत्याविष्कृतम् ॥२६॥ २ ३ ४ मूलम्-वहुं परघरे अस्थि विविहं खाइम साइमं। १४५२ न तत्थ पंडिओ कुप्पे, इच्छा देज परो न वा ॥२७॥ छाया-बहु परगृहे अस्ति. विविध खाद्य स्वाघम् । न तत्र पण्डितः कुप्येत् , इच्छा दद्यात् परो न वा ॥२७॥ सान्वयार्थ:-परघरे गृहस्थके घरमें विविहं-नाना प्रकारका खाइमन्दाख पिस्ता वादाम आदि खाद्य साइमं-एलची लूंग आदि स्वाध पहुं बहुत अस्थिहै, (किन्तु) इच्छा-इच्छा-मरजी-है कि परो-गृहस्थ देज्ज-देवे वा अथवा नन देवे । नहीं देने पर तत्व-उस गृहस्थ पर पंडिओधुद्धिमान साधु न कुप्पे कुपित न होवे ||२७|| टीका-'पहुं' इत्यादि । परगृहे गृहस्थभवने विविधं नैकपकारं खाद्यन्द्राक्षापिस्तवादामादिकं, स्वायम् एलालबङ्गादिकम् बहु-प्रभूतमस्ति, किन्तु इच्छा चेत् कनेकी योग्यता व्यक्त होती है। 'अमुच्छिओ' पदसे आहार आदिकी लोलुपताका त्याग ध्वनित होता है । 'मायन्ने पदसे यह सूचित किया है कि निर्दोष और सरस आहार अधिक प्राप्त हो रहा हो तो भी प्रमाणसे अधिक नहीं ग्रहण करना चाहिए । 'एसणारए' पदसे यह द्योतित किया है कि आधाकर्म आदि भिक्षाके समस्तदोपोंका अनुसन्धान करनेसे ही विशुद्ध भिक्षाका ग्रहण होना संभव है ॥ २६ ॥ ___ 'बहुं' इत्यादि । गृहस्थके घरमे भाँति-भाँतिके खाद्य और भातिभातिके स्वाद्य विद्यमान रहते हैं, उसकी इच्छा हो तो देवे, न हो तो વ્યકત થાય છે ગાજિયો શબ્દથી આહાર આદિની લેલુપતાને ત્યાગ ઇવનિત थाय छे. मायन्ने शपथा सर सथित ४२वामां मा०यु छ , निहार भने सरस આહાર વધારે પ્રાપ્ત થઈ રહ્યો હોય તે પણ પ્રમાણુથી વધારે ગ્રહણ ન કરે જઈએ. एसणारए शपथी मेम सूयित ४२वामां आव्यु छ : आधाभ माहि मिक्षाना બધા દેનું અનુસંધાન કરેવાથી જ વિશુદ્ધ ભિક્ષાનું ગ્રહણ સંભવિત છે. (૨૬) वहुं० त्या गृहस्थना धरम तरे-तरेनi vili मने सात-मातना વાઘ વિદ્યમાન હોય છે, તેની ઈચ્છા હોય તે આપે અને ન હેય તે ન આપે. Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ - - - - - -- - - श्रीदशकालिकमले परम् गृहस्थः दयात् न वा दद्यात्, तत्रदातरि, यद्वा तत्र खाये स्वा तु अदीयमाने सति न कुप्येदन अध्येत् कीदृशोऽयमविवेकी ? प्रचुरेऽपि बहुविधखाधादिके विद्यमाने साधये न ददातीति क्रोधावेशदपितान्तःकरणो न भवेत् । अत्र 'पंडिए' इति-पदेन सदसद्विवेकशालित्वं, तेन च मनोविजयित्वमादितम् ॥२७॥ एतदेव प्रपन्च्यते-'सयणा०' इत्यादि। मूलम्-सयणासणवत्थं वा, भत्तं पाणं व संजए । अदितस्स न कुप्पज्जा, पञ्चक्षेवि य दीसउ ॥२८॥ छाया- शयनासनवस्त्रं वा, भक्तं पानं वा संयतः । __ अददतो न कुप्येत्, प्रत्यक्षेऽपि च दृश्यमाने ॥२८॥ पूर्वोक्त विषय को ही विशद करते हुए कहते हैं सान्वयार्थ:-सयणासणवत्य-शयन-वसति, आसन-पाटलादिक, वख चादर आदि वा अथवा भत्तं आहार व-तथा पाण-पानी आदि किसी भी वस्तुके पचक्खेवि यम्प्रत्यक्ष-सामने पड़ी दीसउदीखने पर भी अदितस्स-नहीं देते हुए गृहस्थ पर संजए साधु न कुप्पेज्जा-कोप न करे, (क्योंकि)-"इच्छा देज परो न वा" देवे न देवे गृहस्थकी मरजी है, ऐसा पूर्व गाथासे संबंध है ॥२८॥ टीका-संयतः शयनासनवस्त्रंशयनं च आसनं च वस्त्रं चेत्येषां समाहारः, तत्र शय्यतेऽस्मिनिति शयनं वसतिः, आस्यते उपविश्यतेऽस्मिन्निति-आसनपीठफलकादिक, वस्यते-आच्छाधते शरीरमनेनेति वस्त्र-शाटकादिकं, भक्तन देवे । यदि न दे तो साधुको ऐसा क्रोध न करना चाहिए कि-' यह कैसा अविवेकी है कि इतना बहत खाद्य स्वाद्य मौजूद होने पर भी साधुको नहीं देता।' यहा 'पंडिए' पदसे सत् और असत्का विवेक प्रगट किया है और उससे मनको जीतना सूचित किया है ॥२७॥ इसीका विस्तार-पूर्वक कथन करते हैं-'सयणा०' इत्यादि। यदि कोई गृहस्थ शय्या, आसन, वस्त्र, भक्त या पान सामन જે ન આપે તો સાધુએ એ ક્રોધ ન કરવો જોઈએ કે, આ કે અવિવેકી છે કે “આટલાં બધાં ખાદ્ય સ્વાદ્ય હાજર રહેવા છતાં પણ સાધુને આપતા નથી. અહીં gિ શબ્દથી સત્ અને અસતને વિવેક પ્રકટ કર્યો છે, અને તેથી મનને જીતવાનું સૂચિત કર્યું છે. (ર) मेनु विस्तारपूर्ण ४थन ४३ छ-सयणात्याहि. જે કે હથ શવ્યા, આસન, વસ્ત્ર, ભન યા પાન સામે દેખાતાં Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. २९-३०-भिक्षाचरणे विवेकोपदेशः ५२३ भोज्यं, पानं-पेयम् अददतः अप्रयच्छतः, (अत्र सम्बन्धसामान्ये पप्ठी, प्रत्यक्षेऽपि दृश्यमाने शयनादौ न कुप्येत् कोपावेशेन चित्तविकृतिं न कुर्यादिति मूत्रार्थः॥२८॥ मूलम् इत्थियं पुरिसं वावि, डहरं वा महल्लगं । ૮ ૯ ૧૦ ૧૪ ૧૫ ૧૬ ૧૩ ૧૫ वंदमाणं न जाएजा, नो अणं फरसं वए ॥२९॥ छाया--स्त्रियं पुरुपं वाऽपि, डहरं वा महान्तम् । वन्दमानं न यावेत, नो च तं परुपं वदेत् ।। २९ ॥ सान्वयार्थः-इत्थियं-स्त्री वावि अथवा पुरिसं-पुरुप डहरं छोटा-बालक वा-या महल्लगंबड़ा-जुवान या युट्ठा हो वंदमाणं वन्दना करते हुएको नजाएज्जान जाँचे-उससे भिक्षाके लिए याचनान करे, (और दूसरे समय याचना करने पर यदि किसी कारण वश वह भिक्षा न दे तो) णं-उस गृहस्थके प्रति साधु फरुसंकठोर वचन नो यन्नहीं वए-चोले ॥२९॥ ____टीका-'इत्थिर्ग' इत्यादि । स्त्रियम् अपिवा पुरुपं डहरं बालकं, 'देशीयोऽयं शब्द: जन्मतः पञ्चदशवर्षे यावत्, वा अथवा महान्तं तरुणं स्थविरं वा वन्दमानं वन्दनां कुर्वन्तं न याचेतन-भिक्षेत। वन्दनमवृत्तस्य गृहस्थस्य याचनायां चित्तविक्षेपादिना वन्दनान्तरायः, चित्तवैरस्यप्रसङ्गश्च - ' कीदृशोऽयं कुक्षिम्भरिः साधुयद्वन्दनसमयेऽपि न धैर्य दधाति, भिक्षायामेव दत्तचित्तो रङ्कच'-दित्यादि । दिखाई देनेपर भी साधुको न दे तो भी साधु क्रोध न करें ॥ २८॥ 'इथिय' इत्यादि । स्त्री, बालक, युवक (जुवान) या वृद्ध, वन्दना कर रहा हो तो उससे उस समय भिक्षाकी याचनानहीं करनी चाहिए। कोई वन्दना कर रहा हो और उससे याचना करे तो वन्दनामें अन्तराय पड़ती है, और गृहस्थके मनमें ऐसा विचार आता है कि-'देखो यह साधु कैसा पेटू (पेट-भरा) है कि चन्दना करते समय भी धीरज नहीं હેવા છતાં પણ સાધુને ન આપે તે પણ સાધુ કોધ ન કરે. (૨૮) इथियं० त्याहि. श्री, पा, नुवान या वृद्ध पहना ४री रह्यां जाय તે તે વખતે તેમની પાસે ભિક્ષાની યાચના કરવી ન જોઈએ. કેઈ વંદના કરી રહ્યાં હોય અને તેમની પાસે યાચના કરવામાં આવે તે વંદનામાં અંતરાય પડે છે, અને ગૃહસ્થના મનમાં એ વિચાર આવે છે કે “જાઓ, આ સાધુ કે પેટ ભરે છે કે વંદના કરતી વખતે પણ ધીરજ ધરતે નથી, રંકની પેઠે Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - -- श्रीदभवकालिकम अन्यदा याचितेऽपि भकपानाधभावादददाने तं च गृहस्यं परुपं-निष्ठुरवाक्यं न वदेव मुनिरिति शेषः । यथा व्यर्थव स्वहन्दनचेष्टा, नालं साधुतोषाय, केत्रलं. किंशुककुसुमवदायरमणीयतामात्रमाकलयसी'-त्यादि ॥२९॥ मूलम्-जे न वंदे न से कुप्पे, बंदिओन समुकसे। एवमन्नेसमाणस्स, सामन्नमणुचिट्टई ॥३०॥ छाया-यो न वन्दते न तस्य कुष्येत्, वन्दितो न समुत्कर्पयेत् । एवमन्वेपमाणस्य, श्रामण्यमनुतिष्ठति ॥ ३० ॥ सान्वयार्थ:-जे-जो गृहस्थ न चंदे साधुको वन्दना न करे तो से उस पर न कुप्पे-क्रोध न करे (और) चंदिओ-वन्दना किया हुआ न समुकसे गवित न होवे-घमंड न करे। एवं इस प्रकार अन्नेसमाणस्स-जिनशासनकी आराधना करनेवाले के सामन्नं साधुपना-चारित्र अणुचिट्ठह-आराधित स्थिर होता है, अर्थात् मान अपमानमें समान रहनेवाले मुनिको ही सम्यक् प्रकारसे चारित्रकी आराधना होती है ॥३०॥ टीका-'जे' इत्यादि । यो गृहस्थः साधु न वन्दते सेन्तस्य अवन्दमानस्य न कुप्येत् कीदृगयं विवेकषिकला, यन्मामुपस्थितं साधुमत्रमन्यते' इति कृत्वा धरता, रंककी तरह केवल भिक्षाकी चिन्ता कर रहा है। अन्य समय याचना करने पर भी यदि गृहस्थ भिक्षा न दे तो कठोर वचन न बोले कि-'बस रहने दे, तेरी चन्दना वृथा है, इससे साधुओंको सन्तोष नहीं हो सकता, तू टेसू (पलाश-केसूडा) के फूलकी नाई दिखावटी रमणीयता (नम्रता) धारण करता है' इत्यादि ॥२९॥ 'जे' इत्यादि। कोई साधुको चन्दनान करेतोउसे उसपर कुपित न होना चाहिए कि-'यह कैसा अविवेकी है कि सामने उपस्थित साधुका કેવળ ભિક્ષાની ચિંતા કરી રહ્યો છે. બીજા સમયે યાચના કરતાં પણ જે ગૃહસ્થ ભિક્ષા ન આપે તે સાધુ કઠેર વચન ન બેલે કે “બસ, રહેવા દે, તારી વંદના વૃથા છે, તેથી સાધુઓને સંતોષ નથી થઈ શકત; તું કેસૂડાંના કુલની પેઠે દેખાડવાની રમણીયતા (નમ્રતા) ધારણ કરનારે છે,” ઈત્યાદિ. (૨૯) जे. त्या साधुने बहन न ४३ तो साधुसे तना ५२ एपित न શકે કે “આ કે અવિવેકી છે કે સામે ઊભેલા સાધુને અનાદર કરે છે? Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन ५ उं. २ गा. ३१-३२-भिक्षाऽपनवनिषेधः, तदोपाच ५२५ कोपावेशेन मनो विकृतं न विध्यात् । वन्दितः सार्वभौमादिनाऽपि नमस्कृतश्च न समुत्कर्पयेत् आत्मानमिति शेपः, 'अहमेतादृशो माननीयो जगति, यदेवंविधा नरेन्द्रादयोऽपि मम चरणी प्रणमन्ती'-त्याधभिमानं न कुर्यादित्यर्थः। एवम् उक्तप्रकारेण अन्वेपमाणस्य-जिनशासनमनुतिष्टतः साधोः श्रामण्यं साधुत्वं चारित्रमिति यावत् अनुतिष्ठति=स्थिरीभवति, मानापमानसमानमानसस्यैव साधोनिरविचारचारित्रं सम्पद्यत इति भावः ।। ३० ॥ स्वपक्षे चौर्य निषेधयति-सिया' इत्यादि ।। मूलम्-सिया एगइओ लद्धं, लोभेण विणिगृहइ । मामेयं दाइयं संतं, दट्टणं सयमायए ॥३१॥ छाया स्यात् एककः लन्ध्या, लोभेन विनिगृहते । ___ ममेदं दर्शितं सद्, दृष्ट्वा स्वयमाददीत ॥ ३१ ।। अब स्वपक्ष-साधुपक्ष में चोरी का निषेध बताते ह. सान्वयार्थ:-सिया-कदाचित-अगर एगइओ-जघन्यप्रकृतिवाला अकेला गोचरी गया हुआ साधु लद्धं-सरस अशनादि पाकर लोभेण-खानेके लोभसे (उसे) विणिगृहइ-छिपा लेवे-नीरस वस्तुको ऊपर रखकर सरस वस्तुको उसके नांचे दया रखे, क्योंकि मम-मेरी दाइयं संतं दिखलाई हुई एयं इस वस्तुको दणं-सरस देखकर सयं स्वयं आचार्य आदि खुद आयए-लेलंगे अर्थात् मुझे नहीं देंगे या थोड़ी देंगे ॥३१॥ अनादर करता है, तथा चक्रवती आदि राजा-महाराजा भी वन्दना करें तो आत्मप्रशंसा (घमंड) न करे कि-'मैं संसारमें ऐसा माननीय है कि ऐसे राजा महाराजा भी मेरे चरणोंमें गिरते हैं। इस प्रकार जिन-शासनमें स्थित साधुका चारित्र स्थिर (दृढ) रहता है, अर्थात् सत्कार और तिरस्कार होने पर अन्तःकरणमें विकार न करनेवाले अनगारका आचार निरतिचार पलता है ॥ ३०॥ स्वपक्षमें चौर्यका निषेध करते हैं-'सिया' इत्यादि । તથા ચક્રવતી આદિ રાજા-મહારાજા પણ વંદના કરે તે આત્મપ્રશંસા (ઘમંડ) ન કરે કે હું જગતમાં એ માનનીય છું કે એવા રાજા મહારાજા પણ મારા ચરણમાં પડે છે.” એ રીતે જિનશાસનમાં સ્થિત એવા સાધુને ચારિત્ર સ્થિર (દઢ ) રહે છે, અર્થાત્ સત્કાર અને તિરસ્કાર થતાં પણ અંત:કરણમાં વિકાર ન કરનારા અનગારને આચાર નિરતચાર પણે પલે છે. (૩૦) २१५क्षमा योयना निषेध ४३ -सिया त्या. Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवेकालिकसूत्रे = टीका- स्यात् = कदाचित् एककः = कविज्जघन्यमतिकः साधुः माध्य आहारादिकमिति शेषः लोमेन=उत्कृष्टतरसवस्तु लिप्सया विनिगूहते= संतृ णुते - नीरस वस्तुजातमुपरि कृत्वोत्कृष्टरसवस्तु समपहुते । अपहवे हेतुमाह-ममेदमुत्कृष्टं वस्तु 'दाइयं दर्शितं सत् दृष्ट्वा आचार्यादिः स्वयमेवाऽऽददीव-गृहीयात्, न मां दास्यति अल्पं वा दास्यतीति भावः ॥ ३१ ॥ अपहरकरणस्य दोपमाह - 'अत्तट्ठा' इत्यादि । ५२६ २ 3 Y પ मूलम्-अन्तद्वागुरुओ लुडो, बहु पात्रं पवई । 6 १० ११ १२ १३ दुत्तोसओ य से हो, नाणं च न गच्छई ॥ ३२ ॥ ی छाया --- आत्मार्थगुरुको लुधः, बहुपाएं प्रकुरुते । दुस्तोपकथ स भवति, निर्वाणं च न गच्छति ॥ ३२ ॥ पूर्वोक आचरण करने वाले साधु की क्या दशा होती है? सो बताते हैंसान्वयार्थः - अन्तट्टागुरुओ=अपने स्वार्थ साधनमें लगा हुआ लुद्धो= जिद्दाका लोलुपी से वह साधु बहुबहुत पावं-पाप पकुब्बई = करता है, य= और (इस भवमें) दुत्तोसओ =असन्तोषी होइ बना रहता है, च = तथा निव्वाणंमोक्षको न गच्छड़ नहीं पाता है, अर्थात् अनन्तसंसारी होकर चतुर्गतिमें भट कता है ॥ ३२ ॥ टीका- आत्मार्थगुरुकः = आत्मनः अर्थः = प्रयोजनमित्यात्मार्थः स एव गुरुः= प्रधानं यस्य स तथोक्तः स्वार्थसाधन समर्थ इत्यर्थः, यद्वा आत्मार्थमेव गुरु=पधानं वस्तु यस्य स तथोक्तः अन्याऽलक्षितोत्कृष्टसर सवस्तुजाताऽऽस्वादकः अत एव लुब्धः = मनोरमरसाभिलापी सन् बहु प्रचुरं पापम् = आत्ममालिन्यजनकं दुष्कर्म जो क्षुद्रप्रकृतिवाला साधु उत्कृष्ट सरस आहार प्राप्त करके इस विचार से उसे छिपा लेता है कि मैं इसे दिखा दूंगातो आचार्य आदि इसे ले लेंगे- मुझे न देंगे अथवा घोड़ासा देंगे ॥ ३१ ॥ 'अत्तट्ठा' इत्यादि । वह दूसरोंसे छिपाकर सरस आहार करनेवाला स्वार्थ साधनमें समर्थ साधु मनोज्ञ रसका अभिलापी होकर अत्यन्त ही જો ક્ષુદ્ર પ્રકૃતિવાળા સાધુ ઉત્કૃષ્ટ સરસ આહાર પ્રાપ્ત કરીને એવા વિચારથી એને છુપાવે કે હું એને બતાવીશ તો આચાય આદિ એ લઈ લેશે, મને નહિ આપે અથવા થા જ આપશે’ (૩૧) અન્નદા॰ ઇત્યાદિ એ ખીન્તથી છુપાવીને સરસ આહાર કરનારી સ્વાથ સાનમાં સમર્થ સાધુ નૈદ રસના અભિલાષી થઈને અત્યંત પાકમનું Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. ३३ - गुरुपरोक्षे भिक्षापहारिलक्षणम् ५२७ करोति विधत्ते, स चाऽस्मिन् जन्मनि दुस्तोषकः = अन्तमान्ताद्याहारेण दुःसम्पादनीयतोपः - असन्तोषी भवति, निर्वाण=मोक्षं च न गच्छति नोपैति । 1 'अत्तट्ठागुरुओ' इत्यनेन पुद्गलानन्दित्वं, 'लुद्धो' अनेन मायापरत्वं तस्करवृत्तित्वं च प्रकटितम्, 'दुत्तोसओ' इत्यनेन चेप्सितवस्त्वमाप्तौ सन्तोषाभावः सूचितः ॥ ३२ ॥ गुरुसमक्षापहारकमुक्त्वा गुरुपरोक्षतोऽपहारकमाह- 'सिया' इत्यादि । 1 २ ૫ 3 ४ मूलम् - सिया एगइओ लहुं, विविहं पाण- भोयणं । ૧. ११ 5 ૬ ७ ari rei भोच्च विन्नं विरसमाहरे ॥ ३३ ॥ छाया -- स्यात् एककः लब्ध्वा विविधं पान- भोजनम् । भद्रकं भद्रकं क्या, विवर्णे विरसमाहरेत् ॥ ३३ ॥ सान्वयार्थः- एगइओ=अकेला पूर्वोक्त स्वभाववाला रसलोलुपी साधु गोचरी गया हुआ सिया=कदाचित कोई बख्त ऐसा भी करे कि विवि-नाना प्रकारके पाणभोयणं=आहार-पानीको ल= पाकर (उसमेंसे) भद्दगं-भद्दगं=अच्छे-अच्छे सरस आहारको चाहीं कहीं एकान्त स्थानमें खाकर विविन्न विकृत वर्णपापकर्मका उपार्जन करता है। वह इस जन्ममें साधारण, नीरस आहारसे कभी सन्तुष्ट नहीं होता, न मोक्ष प्राप्त कर सकता है । 'अन्तहागुरुओ' इस पद से पुद्गलानन्दीपन, 'लुडो' पदसे मायाचार में परायणता तथा तस्करवृत्ति (चोरी) और 'दुत्तोसओ' पदसे अभीष्ट वस्तु न मिलने पर असन्तोष सूचित किया है ॥ ३२ ॥ गुरुसमक्षका अपहार कहकर अब गुरुके परोक्षका अपहार कहते हैं'सिया' इत्यादि । ઉપાર્જન કરે છે. તે આ જન્મમાં સાધારણુ નીરસ આહારથી કર્દાપિ સંતુષ્ટ ન થતાં મેક્ષને પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી, अत्तट्ठागुरुओ मे पद्दथी युगसान ही पशु, लुद्धो पाथी भायायारसां પરાયણતા તથા તસ્કવૃત્તિ ( ચોવૃત્તિ ) અને કુત્તોતો પદથી અભીષ્ટ વસ્તુ ન મળવાથી ઉપજતા અસ ંતોષ સૂચિત કર્યાં છે. (૩૨) ગુરૂ સ..ક્ષને અપહાર કડ્ડીને હવે ગુરૂની પરાક્ષને અપહાર કહે છે सिया० छत्याहि. Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ श्रीदatकालिकसूत्रे वाले वाल चने आदिका बना हुआ तुप आदि जिसमें बहुत ही ऐसे (तथा) विरसं लवणादि रस सहित अशनादिको आहरे उपाश्रयमं लावे ||३३|| टीका -- स्यात् = कदाचित् एकः कथित् रसलोलुपी त्रिविधं पान - भोजनं लब्ध्वा भिक्षाचर्यायामेव यत्र कुत्रचिदलक्षितप्रदेशे भद्रकं भद्रकम् उत्कृष्टमुत्कृष्टं बहुविधानादिषु प्रशस्तं प्रशस्तमेव घृतपूराऽपूपादिकं भुक्वा विवर्णविकृतवर्ण वल्लचणकादिनिष्पनं तुपादिबहुलं विरसं लवणादिरसनर्जितमनादिकम् आहरेद= आनयेत् वसताविति शेषः ॥ ३३ ॥ एवं करणे किं प्रयोजनम् ? इत्याह- 'जाणंतु' इत्यादि । ૧ ५ ४ ५ १ ६ 3 मूलम्-जाणंतु ता इमे समणा, आययही अयं मुणी ૧ ૧. संतु सेवई पंत, गृहवित्त सुतोसओ ||३४|| و छाया --- जानन्तु तावत् इमे श्रमणाः आत्मार्थी अयं मुनिः । सन्तृष्टः सेवते मान्तं रूक्षवृत्तिः सुतोपकः ॥ ३४ ॥ वह ऐसा क्यों करता है ? इसमें कारण कहते हैं सान्वयार्थः - ता=प्रथम इमे= ये उपाश्रय में रहे हुए दूसरे समणा= साधु (मुझे इस प्रकार) जाणंतु=जानें कि अयं यह मुणी-साधु आय यही=मोक्षार्थी- आत्मार्थी है, संतुट्ठो जैसा मिला उसीमें सन्तोष करनेवाला लहवित्ती=सरस स्निग्धादि आहारकी अभिलापारहित सुतोसओ थोड़े आहारसे भी संतोषी है और पतंवासी कुमी तथा निस्सार अन्नादिका सेवई सेवन करता है ||३४|| कदाचित् कोई रसलोलुपी साधु विविध प्रकारका पान भोजन पाकर अच्छा-अच्छा भोजन भिक्षाचरीमें ही किसी एकान्त स्थान में खावे, और बाल चणक आदि अन्त-प्रान्त तथा विना नमक मसालेका ठंढा आहार उपाश्रयमें ले आवे ॥ ३३ ॥ ऐसा करनेका प्रयोजन कहते हैं-'जाणंतु' इत्यादि । કદાચિત્ કાઈ રસલેાલુપી સાધુ વિવિધ પ્રકારનાં પાન-ભાજન મેળવીને સારૂં સારૂ ભોજન ભિક્ષાચરીમાં જ કઇ એકાંત સ્થાનમાં ખાઈ લે અને વાલ ચણા આદિ અત-પ્રાંત તથા મીઠા-મરચા વિનાના નીરસ ઠંડા આહાર ઉપાશ્રયમાં सावे. ( 33 ) शोभ उश्यानु प्रयोजन हे छे. -जाणंतु प्रत्याहि. O Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - -- - अध्ययन ५ उ. २ गा. ३४-३५-भिक्षापहारे दोपाः ५२९ टीका-तावत् निश्चयेन इमे-मानसपत्यक्षविपयाः उपाश्रयस्थाः श्रमणा:साधवः- 'अय मुनिः आत्मार्थी-आत्महितार्थी सन्तुष्टः यथालब्धसन्तोपी रुक्षति सरसाऽनभिकाङ्की मृतोपका अल्पेनापि परितोपशीलः प्रान्त=पर्युपितं निस्सारं वाऽनादिकं सेवते' इति मां जानन्तु ॥ ३४ ॥ - किमर्थ स्वदोपगोपनमाचरती -त्याह-'पूयणटा' इत्यादि । मूलम्-पूयणट्टा जसोकामी, माणसम्माणकामए । __ वहुं पसबई पावं, मायासलं च कुवइ ॥३५॥ छाया-पूजनार्थः यशःकामी, मानसम्मानकामुकः । . बहु प्रमते पापं, मायाशल्यं च कुरुते ॥३५॥ उपयुक्त साधु के दोप बताते हैं. . . सान्त्वयार्थः-पूयणटा=वस्त्र-पात्रादिसे सत्कार चाहनेवाला जसोकामी __ अपने महत्व और प्रसिद्धिका इच्छुक माणसम्माणकामए मान-सम्मानका अभिलापी साधु पहुं-बहुत पावं-पाप-मोहनीयादि-को पसवई-पैदा करता है, च-और मायासलं कपटरूप भावशल्यको कुव्वइ उत्पन्न करता है । तात्पर्य यह है कि-हृदयमें खुचे हुए वाणके अग्रभागरूप द्रव्य-शल्यकी तरह हृदयमें रहा हुआ यह मायारूप भाव-शल्य मनुष्यको, अनन्त दुस्सह दुःखोंका कारणभूत चतु___गेतिक संसारमें घूमाता हुआ अविचलशान्तिमय सुखसे वञ्चित कर देता है ॥३५॥ __ ये उपाश्रयमें स्थित साधु मुझे ऐसा समझें कि-' यह साधु आत्मार्थी है, जैसा मिला उसीमें सन्तोपी है,सरस आहारकी आकांक्षा नहीं करता, थोड़े ही आहारसे सन्तुष्ट हो जाता है और साररहित ठंढा __ अन्त-प्रान्त आहारका सेवन करता है' ॥३४॥ अपना दोप छिपाता क्यों है? सो कहते हैं-'पूयणट्ठा' इत्यादि । આ ઉપાશ્રયમાં રહેલા સાધુ મને એવું માને કે-“આ સાધુ આત્માથી છે, જે આહાર મને તેમાં સંતોષ માનનારે છે, સરસ આહારની આકાંક્ષા કરતું નથી. થોડા જ આહારથી સંતુષ્ટ થઈ જાય છે, અને સારરહિત ઠંડા मत-प्रांत माहारनु सेवन ४२ छ,' (३४) पोताना भ छुपा छ? ते ४ -पूयणहा त्याहि. Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० श्रीदशवेकालिकमुत्रे I टीका -- पूजनार्थ : = पूजन = पात्रा ऽन्नपानादिना सहकारः स एवार्थः= प्रयोजनं यस्य स तथोक्तः प्रशस्तवस्तुपभोगार्थीत्यर्थः, अत एव यशःकामी = यशः= स्वमहच्चमसिद्धिस्तत्कामयते इच्छतीति 'अहो ! अयमेव सः' इत्येवं मशंसावचना भिलापीत्यर्थः, मानसम्मानकामुक : मानव सम्मानचेति मान-सम्मानौ तयोः कामुक इति विग्रहः, तत्र मानः = अभ्युत्थानादिलक्षण आदरः, सम्मानः = गुणोत्कीर्त्तनेन गौरवमकटनम्, आदरगौरवाभिलाषुक इत्यर्थः । एवं कुर्वन् साधुः किं सम्पादयती ? त्याह-बहु प्रभूतं पापं दुष्कृतं प्रभूते जनयति, च= पुनः मायाशल्यै=माया=शाठयेन मनोवाक्कायमवृत्तिः, सेव शल्यं = शल्यते = वाध्यते पीडयते आत्माऽनेनेति विग्रहः, मायालक्षणं भावशल्यं कुरुते - उत्पादयति, हृदयनिखातत्रुटितवाणाग्ररूपद्रव्यशल्यवदिदं मायारूपं भावशल्यं हृदयस्थितं सद् निरन्तराऽनन्तदुस्सहदुःखकारणीभवत् चतुर्गतिकसंसारे भ्रामयत् अविचलशान्तिसुखाद् दूरaarta तादृशं साधुमिति भावः ||३५|| अच्छे-अच्छे वस्त्र पात्र अन्न पान आदिसे अपना सत्कार चाहनेवाला, प्रशस्त वस्तुओंके भोगका लोलुपी, 'अहो ! यह वही है' ऐसे यशका अभिलाषी, मान ( आनेपर खड़ा होजाना ) तथा सम्मान ( गुणगान द्वारा गौरव प्रगट करना) की इच्छावाला साधु बहुत पापको तथा कपरूप मायाशल्यको उत्पन्न करता है । छातीमें चुभकर वहीं टूट जानेवाले द्रव्य- शल्य (नीरकी नोंक) की तरह हृदयमें स्थित मायारूप भावशल्य निरन्तर असीम व्यथाका कारण होता है, तथा चतुर्गति संसारमें इधर-उधर भटकाता हुआ अविचल शान्तिमय सुखसे उस साधुको वञ्चित ( अलग) कर देता है ||३५|| સારાંસારાં વસ્ત્ર-પાત્ર-અન્ન-પાન આદિથી પોતાને સત્કાર ચાહના, પ્રશસ્ત વસ્તુઓનાલેગને લેલુપી~મહે ! એ આ જ છે’ એવા યશને અભિલાષી, માન (આવતાં જ ઉભા થઈ જવું) તથા સમ્માન ( ગુણગાનદ્વારા ગૌરવ પ્રકટ કરવું) ની જીંછાવાળા સાધુ ઘણાં પાપાને તથા કટપ માયા-શલ્યને ઉત્પન્ન કરે છે. છાતીમાં પેસીને ત્યાં જ તૂટી જનારા દ્રવ્ય-શલ્ય (તીરની અણી) ની પેઠે હૃદયમાં રહેલું માયારૂપ ભાવ-શલ્ય નિરંતર અસીમ વ્યથાનું કારણુ બને છે, તથા ચતુતિ સંસારમાં અહીં-તહીં ભટકાતાં અવિચલ શાન્તિમય સુખથી એ સાધુને વચિંત (रहित) इरी नांचे छे. (34) · Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. ३६-मद्यपाननिषेधः - - - - मद्यपानप्रतिषेधमाह-'सुरं वा' इत्यादि । १० ११ १२ मूलम् सुरं वा, मेरगं वावि, अन्नं वा मज्जगं रसं । ૧૩ ૧૪ ૧૫ ससक्खं न पिवे भिक्ख, जसं सारक्खमप्पणो ॥ ३६॥ छाया-सुरां वा मेरकं वाऽपि, अन्यद् वा माधकं रसम् । ससाक्षि न पिवेद् भिक्षुः, यशः संरक्षन् आत्मनः ॥३६।। अब मद्यपान का दोप बताते हैं सान्वयार्थः-भिक्खु-साधु अप्पणो अपने जसं-संयमको सारक्वंबचाता हुआ सुरंगौड़ी, माध्वी और पैष्टी, इन तीनों प्रकारकी मदिराको वा'वा' शब्दसे अथवा बारहों प्रकारकी मदिराको वावि-तथा मेरगं-सरकेको अन्नंचा और भी दूसरे प्रकारके मज्जगं-मदजनक भंग गांजा अफीम चरस आदि मादक रसं रस-द्रव्य-को ससक्खं केवली भगवान्की साक्षीसे अर्थात् उनका ज्ञान सर्वव्यापक होनेसे एकान्तमें भी न पिवे नहीं पिये। मदिराके बारह भेद इस प्रकार है-(१) महुआ, (२) फणस, (३) द्राख, (४) खजूर, (५) ताड (ताडी), (६) गन्ना शेरडी, (७) धावड़ीके फूल, (८) मक्खियोंकी शहद, (९) कठ (कठोती), (१०) मधु (अन्य प्रकारकी शहद), (११) नारियल, और (१२) पिष्ट (आटा), मदिरा इन बारह वस्तुओंसे बनती है ॥३६॥ । टीका-भिक्षः आत्मनःस्वस्य यश संयम संरक्षन् मुरां-मदिरां, सा च त्रिविधा-गौडी, मावी, पैष्टी चे -ति । तत्र गौडी-गुडनिष्पादिता, माध्वी मधु(महुडा) संपादिता, पेटीबीह्यादिपिष्टनित्तेति । यद्वा 'पिटेण सुरा होइ' इति मद्य-पानका निषेध कहते हैं-'सुरं वा' इत्यादि। जो साधु अपने संयमकी रक्षा करना चाहते हैं उन्हें मदिरा या सिरका एकान्तमें भी कदापि न पीना चाहिए । मदिरा तीन प्रकारकी है (१) गौड़ी(२)माध्वी और (३) पैटी। गुड़से बनाई हुई गौडी, महुआसे पनाई हुई माध्वी तथा धान्य आदिके पिष्ठ (आटे) से बनाई हुई पैप्टी कहलाती है । 'पिटेण सुरा होइ' इस बचनसे यही जान पडता है कि भधपान निषेध छ-सुरं वा. त्याहि. જે સાધુ પિતાના સંયમની રક્ષા કરવા ઈચ્છે છે, તેણે મદિરા ચા સરક એકાંતમાં પણ કદાપિ પીવો ન જોઈએ. મદિરા ત્રણ પ્રકારની છે. (૧) ગોડી, (૨) માથ્વી, (૩) પછી. ગોળમાંથી બનાવેલી ગોડી, મહુડાંમાંથી બનાવેલી માધ્વી તથા ધાન્ય આદિના પિs (આટા) માંથી બનાવેલી પિછી કહેવાય છે. Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - A . - श्रीदसवेकालिकमरे वचनाद्वीद्यादिपिटनिवृत्तव सुरेत्युच्यते । चन्द्रहासाभिध मयमिति वा । मेरकसरकानामधेयं मद्यम् । अन्यद्वा माध-मदजनक रसम् । मादकत्वेन द्वादशविधमयस्य तदितरस्य विजयादेव सर्वस्य संग्रहः, तदुत्तमितरत्र मदहेतद्रवदन्यं मद्यमित्यभिधीयते' इति। द्वादशविधमयानि यया "माध्वीकं पानसं द्राक्षे, खाजूंरं तालमेक्षवम् । मेरेयं माक्षिकं टाकं, माधुकं नारिकेलनम् ॥१॥ मुख्यमन्नविकारोत्यं, मधानि द्वादशैव च।" इति । एतत्सर्वं मुरादिकं ससाक्षि न पिवेत, सासिमिः केवल्यादिभिः सहेति ससाक्षि धान्य आदिके आटेसे मदिरा बनती है। अथवा पैष्टी मदिरा 'चन्द्रहास' नामकी मदिरा समझनी चाहिए । इनके सिवाय भंग गाजे आदि और कोई भी नशैली वस्तुका साधुको सेवन नहीं करना चाहिए जैसा कि कहा है-'मदके कारण-स्वरूप पिघले हुए पदार्थको मद्य कहते हैं।' मद्य पारह प्रकारके समझने चाहिए वे ये हैं "(१) महुआका, (२) पनसका, (३) दाखका, (४) खजूरका, (५) ताड़का (ताड़ी), (६) सांठेका, (७) मैरेय-धौ-धावड़ीके फूलका, (८) माक्षिक (मक्खियोंकी शहद) का, (९) टंक (कवीठ-कैथ) का, (१०) मधुका, (११) नारियलका और (१२) पिष्ट (आटे) का बना हुआ मद्य । ये मद्यके मुख्य भेद बारह हैं।" इन सबको केवली भगवानकी साक्षीसे न पिये । केवल भगवानकी पिटेण सुरा होइ से क्याथी म भाशुभ प छ-धान्य माहिना माटायी મદિરા બને છે. અથવા પછી મદિરા “ચંદ્રહાસ નામની મદિરા સમજવી જોઈએ. તે ઉપરાંત ભાંગ, ગાજે, બીજી બીજી કઈ , પણ કેરી વસ્તુનું સેવન સાધુ ન કરે, જેમકે કહ્યું છે કે મદના કારણ સ્વરૂપ પીગળેલા પદાર્થને મધ કહે છે” મઘ બાર પ્રકારના સમજવા, તે નીચે મુજબન્ને "(१) भाना, (२) ३९सना, (3) द्राक्षन। (४) मारना (4) Nat (asi), (6) शेरीना, (७) भैश्य-धापरीनiaR, (८) भाक्षिा-भधना, (6) ८५ (ast)ना, (१०) मधुना, (११) नारिणी , मने (१२) (4e (८) । બનેલ મા. એમ મઘના મુખ્ય ભેદ બાર છે. એ બધાને કેવળી ભગવાનની સાક્ષીએ પીએ નહિ. કેવળી ભગવાનની સાક્ષી Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. ३७-मद्यपायिनो दोपप्रकटनम् केवल्यादीनां साक्षित्वं कदापि कचिदपि प्रतिरो मशक्यं, तेषां सर्वज्ञत्वात्सर्वदशित्वाच, तेन एकान्तेऽपि न पिवेदित्यर्थः ॥३६॥ मूलम्-पियए एगओ तेणो, न में कोई वियाणइ । तस्स पस्सह दोसाई, नियर्डि च सुणेह मे ॥ ३७॥ छाया-पिवति एककः स्तेनः, न मे कोऽपि विजानाति । .. तस्य पश्यत दोपान् , निकृति च शृणुत मे ||३७॥ सान्वयार्थः-तेजो-जो भगवानकी आज्ञाके विना ग्रहण करनेवाला होनेके कारण चोर साधु एगओ अकेला, एकान्तमें रहा हुआ अर्थात् अपने सहचर धर्मको भी छोड़ा हुआ, 'मे मेरे-इस मदिरापान-को या मुझे कोई कोई भी न वियाणइनहीं जानता है। (ऐसा समझ कर) पियए-मदिरा पीता है, तस्स-3 उस साधुके दोसाई-संयममें मलिनता पैदा करनेवाले दोपोंको पस्सह-देखो, चार नियडिं-एक कपटको छिपानेके लिए किये जानेवाले दूसरे कपटको मेमेरेसे सुणे-मुनो ॥३७|| टीका--'पियए' इत्यादि । यः स्तेनः तीर्थङ्करानादिष्टत्वेनाऽदत्ताऽऽदायिवाचौरः, एकका एकान्तस्थितः आत्मसहचरं धर्ममपि विहाय वर्गमानः सन् 'न मेन मां, न मम मुरादिपान वा कोऽपि विजानाति' इति मत्वा पिवविद्यालविलाधःसंयोगानुकूलव्यापारविपयं करोति सुरादिकमिति शेपः, तस्य-द्रव्यालसाक्षी कभी कहीं नहीं रुक सकती, क्योंकि वे सर्वदर्शी है, अतः तात्पर्य यह हुआ कि एकान्तमें भी मद्य न पिये ॥ ३६ ॥ 'पियए' इत्यादि । है शिष्य ! भगवान् तीर्थङ्करकी आज्ञाके विना ग्रहण करनेवाला, अत एव चीर, आत्माके सहचर धर्मको भी त्याग कर एकान्तमें स्थित होकर ऐसा समझता है कि-'मुझे या मेरे मदिरा-पानको कोई नहीं जानता' ऐसा जानकर मदिरा-पान करता है, उस द्रव्यलिंगी કદાપિ કયાંય રોકાતી નથી, કારણ કે તે સર્વદશ છે, એટલે તાત્પર્ય એ છે કે એકાંતમાં પણ મદ્ય પીવે નહિ, (૩૬) . पियए० ७त्यादि.शिष्य ! सगवान् तीर्थ ४२नी माज्ञा विना अडथ ४२नार એટલે ચેર, આમાના સહચર ધર્મને પણ ત્યાગીને એકાંતમાં સ્થિત થઈને એમ સમજે છે કે–“મારે આ મદિરાપાનને કઈ જાણતું નથી.' એમ સમજીને જે મદિરાપાન કરે છે તે વ્યલિંગી સાધુના સંયમને દૂષિત કરનારી છાઓ Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - ५३४ भीदशकालिकमरे जिनः साधोः दोपान-संयममालिन्यकारिचेष्टाविशेषात् पश्यत-झानविषयीगुरुत, च-पुनः निकृति पूर्वकृतकपटावरणाय कपटान्तरकरणलक्षणां मायां, प्रथमकपट मुरापानं, द्वितीयमनृतभाषणेन तत्संगोपनमितिभावः, मे मम निरूपयतः सकाशाद शृणुतम्श्रवणगोचरीकुरुत । गुरुः शिष्यानामन्य फययतीति भावः ॥३७॥ ___ पूर्वपतिज्ञातदोषानुपदर्शयति-'बई' इत्यादि । मूलम् वदुई सुंडिया तस्स, माया मोसं च भिक्खुणो। अयसो य अनिवाणं, सययं च असाहुया ॥ ३८॥ छाया-बीते शौण्डिका तस्य, माया मृपा च भिक्षोः । अयशव अनिर्वाणं, सततं च असाधुता ॥३८॥ सान्वयार्थ:-तस्स-उस मदिरा पीनेवाले भिक्खुणो साधुकी सुंडिया मधपान संवन्धी आसक्ति माया-कपट च और मोसं-झूठ अयसोअपकीर्ति यस्तथा अनिव्वाणं अतृप्ति, ये सब दोप सययं-निरन्तर वडाबंढते रहते है च-और (आखिर उसके) असाहुया असाधुता हो जाती है, अर्थात् वह असाधुपनको प्राप्त हो जाता है, यानी चारित्रसे भ्रष्ट हो जाता है ॥३८॥ टीका तस्य-सुरापायिनः भिक्षोः साधोः सततं-निरन्तरं शौण्डिका-मद्य.पानविषयासक्तिः, च-पुनः, माया-निकृतिः, मृपा-असत्यभाषणम् , यद्वा 'मायासाधुके संयमको दक्षित करनेवाली चेष्टाओं (दोषों) को तो देखो ! एक तो मदिरापानका मायाचार, फिर उसे छुपानेके लिए दूसरे अनेक मायाचार और मृषावाद आदिका सेवन किया जाता है सो मुझसे सुनो, अर्थात् गुरुमहाराज शिष्यको आमन्त्रित करके कथन करते है॥३७॥ पूर्वप्रतिज्ञात दोप कहते हैं-'बड्डई' इत्यादि । मदिरापान करनेवाला साधु सदा मदिरा पीनेमें ही मन रहता है। वह मायाचार करता है, मृषा बोलता है, अथवा कपट-सहित झूठ ( )ને તે જુઓ ! એક તે મદિરાપાનને માયાચાર, વળી તેને છુપાવવા માટે બીજા અનેક માયાચાર અને મૃષાવાદ આદિનું સેવન કરવામાં આવે છે તે મારી પાસેથી સાંભળે-અર્થાત્ ગુરૂ મહારાજ શિષ્યને આમંત્રિત કરીને કથન કરે છે. (૩) , પૂર્વ પ્રતિજ્ઞાત દે કહે છે– ૨૦ ઈસ્યાદિ. મદિરાપાન કરનાર સાધુ સદા મદિરા પીવામાં જ મગ્ન રહે છે. તે માયા ચાર કરે છે, મૃષા બેસે છે, અથવા કપટસહિત જુઠું બોલે છે. દુરાચારી હેવાને Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. ३८-३९-मद्यपायिनो दोपप्रकटनम् ५३५ मोम' इत्येकं पदं तेन मायया सह मृपा मायामृपा-परमतारणपूर्वकमसत्यभापणमित्यर्थः, च=पुनः, अयशः असत्तत्वेनाऽपकीतिः, अनिर्वाणम् अनुपशान्तिरतृप्तिः उत्तरोत्तरस्पृहावर्द्धनात् , च तथा असाधुता=असंयतत्वं साधूचिताचारराहित्येन साधुपदाऽनईत्वमित्यर्थः, वर्द्धतेवृद्धिं गच्छति । ___'सुंडिया' इत्यनेन मद्यपायिना मद्यासक्तिरपरिहार्या भवतीति सूचितम् । मद्यासक्तौ सत्यां माया मृपा च कदापि तं न विजहाति, मायामुपाद्धौ स्वपरपक्षे निन्दाऽवश्यम्भाविनी, निन्दायामपि सत्यां मद्यपानासक्तस्याऽनितिः साहचर्य न मुञ्चति, तथा मनि सर्वथा साधुपदानधिकारित्वमुपजायतेऽतः सर्वानर्थमूलं मद्यपानमिति बोध्यम् ॥३८॥ योलता है । दुराचारी होने के कारण उसकी अपकीर्ति फैल जाती है। उसकी लोलुपता अधिकाधिक चढती चली जाती है-उसे कभी तृप्ति नहीं होती । तथा मुनिके योग्य आचरणसे हीन होनेके कारण वह साधु कहलाने योग्य नहीं रहता, अतः उसकी असाधुता बढती है। - 'सुंडिया' पदसे यह सूचित किया है कि शराबीकी शराब पीनेकी आदत छूटनी कठिन होती है। मदिरामें आसक्ति होने पर माया-मृपा मदिरापायीका काना-पीछा नहीं छोड़ती, अर्थात् वह माया-मृपा दोपोंमें तत्पर रहता है। माया और मृपाकी वृद्धि होनेपर स्वपक्ष परपक्षमें निश्चय ही निन्दा होती है और निन्दा होनेपर भी मदिरा पानमें मस्त होकर मदिरा-पान नहीं त्यागता। ऐसी अवस्थामें यह साधु कहलाने योग्य विलकुल ही नहीं रहता ॥ ३८॥ કારણે તેની અપકીતિ ફેલાઈ જાય છે, એની લેલુપતા અધિકાધિક વધતી જાય છે, તેથી કદાપિ તૃપ્તિ થતી નથી. મુનિને આચરણથી હીન હોવાને કારણે એ સાધુ કહેવાવાને ગ્ય નથી રહેતું, એટલે એની અસાધુતા વધે છે. 'मुंडिया' शण्यो सेभ सूथित :यु छ है शमीनी शराम पीवानी આદત છૂટવી કઠિન હોય છે. મંદિરમાં આસકિત થતાં માયા-મૃષા મદિરાપાન કરનારને પીછે છેડતી નથી, અર્થાત એ માયા-મૃષા માં તત્પર રહે છે. માયા અને મૃષાની વૃદ્ધિ થતાં સ્વ-પક્ષ પર-પક્ષમાં જરૂર નિંદા થાય છે, અને નિંદા થતાં છતાં પણ મદિરાપાનમાં મસ્ત થઈને તે મદિરાપાન ત્યાગતું નથી. એવી અવસ્થામાં તે જરાએ સાધુ કહેવાવાને યોગ્ય રહેતું નથી. (૩૮) Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ श्रीaatnifosसूत्रे उक्तमेवार्थ प्रकारान्तरेण द्रढयति- 'निच्चुव्विग्गो' इत्यादि । ४ २ 3 ' मूलम् -निच्चुद्विग्गो जहा तेणो, अत्तकम्मेहिं दुम्मई । પ ર तारिसो मरणंतेऽपि, नाराहेइ संवरं ॥ ३९ ॥ छाया - नित्योद्विमः यथा स्तेनः आत्मकर्ममिदुर्मतिः । ७ तादृशः मरणान्तेऽपि न आराधयति वरम् ॥ ३९ ॥ सान्वयार्थ :- जहा = जिस प्रकार तेणो-चोर अत्तकम्मेहि-अपने किये हुए दुखरित्रोंसे निच्चुच्विग्गो = हमेशा व्याकुल बना रहता है, उसी तरह तारिसो= मदिरा पीनेवाला यह दुम्मई-दुर्बुद्धि साधु भी नित्य उद्विझ बना रहता है, फिर वह मरणंतेवि मरण समय तक भी संवरं = संवरधर्मचारित्रको नाराहेइ = नहीं आराध सकता है, अर्थात् वह साधु जिन्दगीभर चारित्र वञ्चित रहता है ||३९|| • टीका -- यथा स्तेनः तस्करः आत्मकर्मभिः स्वकीयदुखरितैः नित्योद्विप्र:= सदा व्याकुलः चित्तोपशान्तिरहितो भवति, तादृशः स्तेनसदृशः, यथा चौर:' मदीयमिदं दुश्चरितं कोऽपि मा विद्यात्, अन्यथा राजगृहीतस्य मम प्राणाद्यपहारो भवे ' -दिति चिन्तया कदाचिदपि चेतसि नोपशान्ति गच्छति, तथा मद्यसेवी साधुरपि स्वकीये दुवरिते प्रकटिते सति पूजाप्रतिष्ठादिमविघातशङ्कया स्वकृत इसी विपयको दूसरी तरहसे कहते हैं- 'निच्चुग्विग्गो' इत्यादि । जैसे चोर अपने कुकर्मोंके कारण सदा व्याकुल बना रहता है अर्थात् उसे सदा यही भय बना रहता है कि मेरे कुकर्मको कोई जान न ले, नहीं तो राजा मुझे पकड़ लेगा और प्राणोंसे हाथ धोना पड़ेगा । इस प्रकारकी चिन्तासे चोरके चित्तमें सदा धुकधुकी ( खल-बली मची रहती है । उसी प्रकार मदिरा पान करनेवाले मुनिके मनमें हमेशा असमाधि रहती है कि-कहीं मेरा मदिरापानका दुराचार प्रगट न हो जाय, नहीं तो मान सम्मान सब मिट जायगा । इस प्रकारकी आशंकासे वह मे विषयने भील रीते छे -निच्चुविग्गो० प्रत्याहि જેમ ચાર પાતાના કુકર્મોને કારણે સદા વ્યાકુળ રહ્યા કરે છે, અર્થાત્ તેને સદા એવા ભય રહે છે કે મારાં કુકર્મોને કાઈ જાણી ન લે, નહિ તે રાજા મને પકડી લેશે અને પ્રાણ ગુમાવવા પડશે. બે પ્રકારની ચિંતાથી ચારના ચિત્તમાં સદા ખળભળાટ મચ્યા કરે છે. એજ રીતે દિરાપાન કરનાર મુનિના સનમાં હંમેશાં અસમાધિ રહે છે કે--કર્યાંક મારે મંદિરાપાનના દુરાચાર પ્રકટ ન થઇ જાય, નહિ તે માન સન્માન બધું નાશ પામશે. એ પ્રકારની આશંકાથી તે Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. ४०-४१-मद्यपायिनो दोपप्रकटनम् ५३७ दुष्कृतसंगोपनाय नवनवमायामृपाकल्पितवचनरचनादिनानाप्रकारकोपायमनुसंदधानो न जातु संयमसमाधिमधिगच्छतीति भावः । दुर्मतिः विपर्यस्तबुद्धिः साधुः, मरणान्तेऽपि मरणावधिसमयेऽपि संवरं सर्वसावधविरतिलक्षणं चारित्रं कदापि नाराधयतिब्न निष्पादयति, चारित्रसाधकशुद्धपरिणामाभावात् । 'निच्चुश्विग्गो' इत्यनेन पापात्मनां नित्यशङ्कितत्वं सचितम् । 'दुम्मई'__पदेन व्यसनिनां मतिमालिन्यमवश्यम्भावीत्याविष्कृतम् ॥ ३९ ॥ मूलम्-आयरिए नाराहेइ समणे आवि तारिसो। गिहत्था वि णं गरिहंति, जेण जाणति तारिसं ॥ ४०॥ छाया-आचार्यान् नाराधयति, श्रमणाश्चापि तादृशः । गृहस्था अपि तं गहन्ते, येन जानन्ति तादृशम् ॥४०॥ सान्वयार्थः-तारिसो-उस-पूर्वोक्त-प्रकारका दुराचारी साधु आयरिएरत्नाधिकोंको अवि य-तथा समणे साधुओंको भी नाराहेइ-विनय वैयावच्च आदिसे नहीं आराध सकता है, जेण-जिस कारणसे निहत्था वि-गृहस्थ भी णंअपने किये हुए दुराचारको छिपानेके लिए मायाचार और असत्य आदिके नये-नये उपाय सोचा करता है। उसकी संयम सम्बन्धी समाधि किसी प्रकार भी नहीं रहती। ऐसा दुर्बुद्धि साधु मृत्युकी अवधिके समय भी सर्वसावद्ययोगके त्यागरूप संवर की आराधना नहीं करता, क्योंकि उसके वैसे विशुद्ध भाव नहीं होते। 'निच्चुग्विग्गो' इससे ऐसा सूचित किया है कि पापी सदा सशंक रहता है। 'दुम्मई' पदसे यह प्रगट किया है कि कुव्यसनीकी मतिमें मलिनता अवश्य आजाती है ॥ ३९॥ પિતાના દુરાચારને છુપાવવાને માયાચાર અને અસત્ય આદિના નવા નવા ઉપાયે વિચાર્યા કરે છે. એની સંયમ સંબંધી સમાધિ કઈ પ્રકારે રહેતી નથી. એ દુબુદ્ધિ સાધુ મૃત્યુની અવધિના સમયે પણ સર્વસાવદ્યાગના ત્યાગરૂપે સંવરની આરાધના કરતું નથી, કારણ કે તેના એવા વિશુદ્ધ ભાવ થતા નથી. निच्चुबिग्गो vथी मेम सूयित ४२वाम भाव्यु छ ? पापी सहा सश' २९ छ. दुम्मई थी मेम प्र थुछ दुव्र्यसनीनी मतिमा मलिनता अवश्य आवे छे. (36) Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ श्रीदशवकालिकमूत्र उसे तारिसं-उस प्रकारका अर्थात् मद्य पीनेवाला जाणंति जानलेते हैं (अतः वे उसकी) गरिहंति-निन्दा करते हैं ॥४०॥ टीका-'आयरिए' इत्यादि । तादृशाम्पुरोदीरितदुराचारशीलः साधुः आचार्यान् अपिच श्रमणान् रत्नाधिकान् साधुन् नाराधयति कलपितान्त:करणत्वादिति भावः, पेन हेतुना गृहस्था अपि तादृशं तथाविधं दुराचारिणं जानन्ति तेन हेतुना पंतं साधु गहन्ते-निन्दन्ति, स सकलजननिन्दनीयो भवतीति सूत्रार्थः ॥ ४० ॥ अकृत्यसेविदोपानुपसंहरनाह--'एवं तु' इत्यादि । मूलम्-एवं तु अगुणप्पेही, गुणाणं च विवजए । तारिसो मरणंतेवि, नाराहेइ संवरं ॥४१॥ छाया-एवं तु अगुणप्रेक्षी, गुणानां च विवर्जकः । - तादृशः मरणान्तेऽपि, नाराधयति संवरम् ॥४१॥ सान्वयार्थ:-एवं तु इस प्रकार अगुणप्पेही प्रमादादिदोपोंको ग्रहण करनेवाला च और गुणाणं-ज्ञानादि गुणोंका विवजए-त्यागी तारिसो उस प्रकारका साधु मरणतेविस्मरणकालमें भी संवर-संवर-चारित्र-की नाराहेइ-आराधना नहीं कर सकता ॥४१॥ ___टीका-एवम् उक्तरीत्या तु अशुणप्रेक्षीदोपदी. प्रमादादिदोपनिरत 'आयरिए' इत्यादि। ऐसा दुराचारी साधु आचार्य तथा रत्नाधिक श्रमणकी भी आराधना नहीं करता, क्योंकि उसका अन्तःकरण कलुषित होजाता है, जिससे कि गृहस्थ भी उस साधुको पहचान लेते हैं और उसकी निन्दा करते हैं। तात्पर्य यह है कि ऐसा साधु सबका निन्दनीय घन जाता है ॥ ४० ॥ ‘एवं तु ' इत्यादि । प्रमाद आदि दोपोंमें लीन, सम्यग्ज्ञान-दर्शन आयरिए० Vत्या. मेरे दुशयारी साधु माया तथा ताधि श्रभनी પણુ આરાધના કરતા નથી, કારણ કે એનું અંતઃકરણ કલુષિત થઈ જાય છે, જેથી ગૃહસ્થ પણ એ સાધુને પિછાણી લે છે અને એની નિંદા કરે છે. તાત્પર્ય सछमेव साधु सोन निनीय मनी नय छ. (४०) ર૦ ઈત્યાદિ. પ્રમાદ આદિ માં લીન, સમ્યગજ્ઞાનદર્શનચારિત્ર Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ maya - अध्ययन ५ उ. २ गा. ४२-४३-मधादिविरतस्य गुणपकटनम् ५३९ इत्यर्थः, गुणानां च ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणानां क्षान्त्यादीनां वा विवर्जका परित्याजकः गुणाऽनाराधक इत्यर्थः, तादृशो मरणान्तेऽपि संवरं नाराधयतीति व्याख्यातपूर्व सुगमं चेति ॥४१॥ पूर्वोक्तदोपपरित्यागिनो गुणानाह-तवं इत्यादि । मूलम् तवं कुछड़ मेहावी, पणीयं वज्जए रसं । मज्जप्पमायविरओ, तपस्सी अइउक्कसो ॥ ४२ ॥ छाया-तपः कुरुते मेधावी, प्रणीतं वर्जयति रसम् । . मद्यप्रमादविरतः, तपस्त्री अत्युत्कपः ॥४२॥ सान्वयार्थः-मजप्पमायविरओ-जो मा और प्रमादसे रहित तवस्सीतपस्वी साधु मेहावी-आगमोक्त मर्यादामें चलनेवाला अइउकसोधमंड नहीं करता हुआ तवं-तपस्या कुबड़-करता है, (और) पणीयं-स्निग्ध रसरसवाले पदार्थ घी दूध घेवर आदिको बजए-त्यागता है ॥४२॥ टीका-यः तपस्वी साधुः मद्यप्रमादविरतः मादयति=विवेकविकलीकरोस्यात्मानमिति म मादकद्रव्य, तदेव ममादजनकत्वात्ममाद इति मद्यप्रमादस्तस्माद्विरतस्तद्वक इत्यर्थः, मेधावी आगमोक्तविध्यनुस्मरणशील: संयममर्यादाsवस्थित इत्यर्थः, अत्युत्कपः उत्कर्षः-'अहं तपस्वी-त्याधभिमानस्तमतिक्रम्यउल्लङ्घय-परित्यज्य वर्तत इति अत्युत्कपा, तपःप्रधानगुणाभिमानशून्यः सन् तपाचारित्र तथा क्षान्ति आदि गुणोंका त्याग करनेवाला ऐसा साधु मृत्युसमय भी संवरकी आराधना नहीं करता ॥४१॥ पूर्वोक्त दोपोंके त्यागीके गुण कहते हैं-'त' इत्यादि । जो तपस्वी साधु आत्माको विवेक-विकल बनानेवाले शरायसे विरत रहते हैं, प्रवचन-प्रतिपादित संयम-मर्यादामें स्थित हैं, 'सबसे बड़ा तपस्वी में ही हूँ' ऐसा तपका दर्प (अभिमान) नहीं करते हुए चतुर्थ તથા ક્ષત્તિ આદિ ગુણેને ત્યાગ કરનાર એ સાધુ મૃત્યુ સમયે પણ સંવરની આરાધના કરતા નથી. (૪૧) પૂર્વોક્ત દેના ત્યાગીના ગુણ કહે છે–ઇત્યાદિ જે તયસ્વી સાધુ આત્માને વિવેકવિકળ બનાવનાર શરાબથી વિરત રહે છે, તે પ્રવચનપ્રતિપાદિત સંયમમર્યાદામાં સ્થિત રહે છે, સૌથી ભેટે તપસ્વી હું છું એ તપનો દઈ (અભિમાન) ન કરતાં ચતુર્થ ભક્ત આદિ તપ કરે છે, Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५४० श्रीदसवैकालिको चतुर्यभक्तादिकं करोति पुनरपि मणीतं गलस्नेहविन्दुकं गृहस्नेह वा भोज्यं, स्नेहावगाहं कृशरादि, गूढस्नेई घृतपूरादिकं, रसंघृतदुग्धादिकं वर्नयति-परित्यजति ॥४२॥ मूलम्-तस्स पस्सह कल्लाणं, अणेगसाहुपइयं । विडलं अत्थसंजुत्तं, कित्तइस्सं सुणेह मे ॥४३॥ छाया-तस्य पश्यत कल्याणम् , अनेकसाधुपूजितम् । विपुलार्थसंयुक्तं, कीर्तयिष्यामि शृणुत मे ॥४३॥ सान्वयार्थ:-तस्स-उस साधुके अणेगसाहुपूइयं अनेक मुनियोंके वन्दनीय विउलं-मुक्तिपदका साधक होनेसे महान् अत्यसंजुत्तमोक्षरूप अर्थ-पयोजनसे युक्त ऐसे कल्लाणं-कल्याण-संयम-को पस्सह देखो, (और मैं उसके गुणोंका) कित्तइस्सं-वर्णन करूंगा, (तुम) मे=मुझसे सुणेह-मुनो ॥४३॥ टीका-'तस्स' इत्यादि । तस्य-उक्तगुणवतः साधोः अनेकसाधुपूजितंमुनिन्दवन्दितं विपुलं महत् मुक्तिपदसाधकत्वात् , अर्थसंयुक्तम् अर्थः मुमुक्षुणां प्रयोजनं मोक्षलक्षणं तेन संयुक्त संवलितं तत्फलदातृत्वात् , कल्याण नितान्तसुखावहत्वात्संयम पश्यत अवलोकयत भोशिप्याः ! इति शेपः । कीर्तयिष्यामि तद्गुणान् वर्णयिष्यामि मे-मम सकाशात् शृणुत आकर्णयत ॥४३॥ भक्त आदि तप करते हैं, तथा घेवर आदि प्रणीत भोजनको और घी-दूध आदि पुष्टिकर रसीको त्याग देते हैं ॥ ४२ ॥ 'तस्स' इत्यादि। हे शिष्य ! उस उक्तगुणविशिष्ट साधुके अनेक मुनि-समूहसे प्रशंसित, मुक्तिपदका साधक होनेसे महान् , मोक्षरूपी अथेसे युक्त, अनन्त सुखदाता कल्याण अर्थात् संयमको देखो। मैं उसके गुणोंका वर्णन करूंगा, तुम मुझसे सुनो ।। ४३॥ તથા ઘેવર આદિ પ્રણીત ભજનને અને ઘી દૂધ આદિ પુષ્ટિકારક સેને त्यागे छ. (४२) तस्स. त्या शिष्य ! 6 गुणविश या साधुन मन-मुनिસમૂહથી પ્રશંસિત, મુકિતપદને સાધક થવાથી મહાન, મેક્ષરૂપી અર્થથી યુકત, અનંતસુખદાતા કલ્યાણ અર્થાત્ સંચમને જુએ. હું એના ગુણોનું વર્ણન કરીશ, તે તમે સાંભળો (૪૩) Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. ४४-४५-मधादिविरतस्य गुणप्रकटनम् ५४१ मूलम्-एवं तु गुणप्पेही, अगुणाणं च विवजए । तारिसो मरणंतेवि, आराहेइ संवरं ॥४४॥ छाया--एवं तु गुणप्रेक्षी, अगुणानां च विवर्जकः । - तादृशः मरणान्तेऽपि आराधयति संवरम् ॥४४॥ सान्वयार्थः-एवं तु इस प्रकार गुणप्पेही ज्ञानादि गुणोंके ग्रहण करनेमें तत्पर च-और अगुणाणं-प्रमादादि दोपोंका विवज्जए त्यागी तारिसो इस प्रकारका साधु मरणतेवि-मरणान्त-समयमें अवश्य, अथवा मरणान्त कष्ट पड़नेपर भी संवरं चारित्रको आराहेइ-आराधता है-नहीं छोड़ता है ॥४४॥ टीका-'एवं तु' इत्यादि । एवं तु गुणप्रेक्षी-गुणदर्शी ज्ञानादिगुणोपार्जनदत्तचित्त इत्यर्थः, अगुणानां च-प्रमादादिदोषाणां विवर्जकः परित्यजनशीलः तादृशः तथाविधःसाधुर्मरणान्ते-मरणसमये अपिनिश्चयेन संवरं चारित्रम् आराधयति सेवते । यद्वा मरणान्तेऽपि मरणसमक्लेशोपस्थितावपि संवरमाराधयति न परित्यजतीत्यर्थः ॥४४॥ मूलम्-आयरिए आराहेइ, समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं पूयंति, जेण जाणति तारिसं ॥ ४५ ॥ छाया-आचार्यान् आराधयति, श्रमणान् अपि च तादृशः । ____ गृहस्था अपि तं पूजयन्ति, येन जानन्ति तादृशम् ॥ ४५ ॥ सान्वयार्थ:-तारिसो-पूर्वोक्त गुणवाला साधु आयरिए-आचार्यादिकोंकी अवि य और समणे साधुओंकी भी आराहेइ-आराधना करता है, जेण-जिस 'एवं तु' इत्यादि । इस प्रकार ज्ञानादि-गुणोंके उपार्जनमें लीन, प्रमाद आदि अवगुणोंके त्यागी ऐसे साधु मृत्यु समयमें अवश्य संघरचारित्र-धर्मकी आराधना करते हैं । अथवा मृत्युके समान कष्ट उपस्थित होनेपर भी वे संवरकी आराधना करते हैं, अर्थात् उस समय भी वे संवरका त्याग नहीं करते ॥४४॥ एवं तु० छत्यादि. 2 रीते ज्ञानादि-गुना पानभा सीन, प्रभा माह અવગણના ત્યાગી એવા સાધુઓ મૃત્યુ સમયે અવશ્ય સંવર=ચારિત્ર-ધર્મની આરાધના કરે છે. અથવા મૃત્યુસમાન કષ્ટ ઉપસ્થિત થતાં પણ તેઓ સંવરની આરાધના કરે છે, અર્થાત એ સમયે પણ તેઓ સંવરનો ત્યાગ કરતા નથી. (૪) Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - -- - - १० ५४२ श्रीदसर्वकालिकम कारणसे गिहत्याविगृहस्थ भी -उसे तारिसं-उस प्रकारका जाणंति= जानते हैं, (अतः उसका) पूयंतिम्चन पात्रादिसे सम्मान करते हैं, तथा साधु भी उसकी प्रशंसा करते हैं ॥४५॥ टीका~'आयरिए' इत्यादि । तादृशः उक्तगुणविशिष्टः साधुः आचार्यान् श्रमणाश्चाप्याराधयति-स्वकीयसंयमोत्कर्पणाऽऽचार्यादीन् मसादयतीत्यर्थः, येन हेतुना गृहस्थाः तं साधु तादृशं तथाविधं जानन्ति तेन कारणेन पूजयन्ति वस्त्रपात्रादिपुरस्कारेण मानयन्ति । 'अपि' शब्देन न केवलं गृहस्थाः किन्तु साधवोऽपि पूजयन्ति-प्रशंसन्तीति मूत्रार्थ ॥४५॥ मूलम् तवतेणे वयतेणे, रूवतेणे य जे नरे। आयारभावतेणे य, कुबई देवकिविसं ॥४६॥ छाया-तपास्तेनो वास्तेनी, रूपस्तेनश्च यो नरः। - आचारभावस्तेनथ, कुरुते देवकिल्विपम् ।।४६।। सान्वयार्थ:-जे-जो नरे साधुतवतेणे-तपस्याका चोर-दुसरेकी तपस्याका अपनेमें आरोप करनेवाला, बयतेणे-वचनका चोर-दूसरेके व्याख्यानका अपनेमें आरोप करनेवाला, य-तथा स्वतेणे-रूपका चोर-दूसरेके रूपका अपनेमें आरोप करनेवाला, य और आयारभावतेणे-आचारका चौर-दूसरेके ज्ञानादि आचारोंका अपनेमें आरोप करनेवाला, भावका चोर-जीवादि पदार्थीका जानकार नहीं होने पर भी अपनेको जानकार बतानेवाला होता है, वह देवकिविसं 'आयरिए' इत्यादि । ऐसे साधु आचार्योंकी तथा श्रमणोंकी आराधना करते हैं, अर्थात् आचार्यादिकोंको अपने संयमकी उत्कृष्टतासे प्रसन्न करते हैं, जिससे गृहस्थ भी उन्हें वैसाही उत्कृष्ट समझते और सन्मान करते हैं । केवल गृहस्थ ही उनका सन्मान नहीं करते किन्तु साधु भी उनकी प्रशंसा करता हैं ॥४॥ आयरिए त्याहि. मे साधु-मा, यानी तथा श्रममनी साराधना કરે છે, અર્થાત્ આચાર્યાદિકને પિતાના સંયમની ઉત્કૃષ્ટતાથી પ્રસન્ન કરે છે, જેથી ગૃહસ્થે પણ તેમને એવા જ ઉત્કૃષ્ટ સમજે છે અને તેમનું સન્માન કરે છે. કેવળ ગૃહસ્થ જ એમનું સન્માન નથી કરતા, પરતું સાધુઓ પણ એમની प्रशंसा ४२ छे. (४५) - Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. ४६ - तपआदिचोरस्य दोषप्रकटनम् ५४३ किल्वि नामके देवभवको कुबई = करता है, अर्थात् देवलोक में किल्विपिक देवने उत्पन्न होता है ॥ ४६ ॥ टीका- 'तचतेणे' इत्यादि । [१] यो नरः = यः साधुः तपः स्तेनः - तपश्चौरः, अत्र चौर्य परकीयतपोऽपहरणं स्वपूजाद्यर्थ स्वस्मिन्नारोपणम् । स च तपः स्तेनत्रिविधो यथा - स्वयमतपस्त्री कश्चित्साधुः केनचित् 'तपस्वी भवान् ?' इति पृष्टः सन् ‘अहमस्मि तपस्त्री'- ह्यसूचकः प्रथमः (१) । द्वितीयो विनैव तपसा स्वभाबाद् रोगादिकारणान्तरवशाद्वा कृशशरीरः साधुः केनचित् 'किं भवानेव श्रुतपूर्वस्तपस्त्री ?' इति पृष्टः सन् 'साधवस्तपस्विन एव भवन्ति किमनेन प्रश्न ? ' इत्युत्तरप्रदः (२) । 'तवतेणे' इत्यादि । जो साधु तपके चोर, वचनके चोर, रूपके चोर अथवा आचारके चोर और भावके चोर होते हैं वे देवोंमें उत्पन्न होकरके भी किल्विष ही होते हैं । तात्पर्य यह है कि परकी तपस्याको अपनी प्रतिष्ठाके लिए अपनी बताना तपकी चोरी है । [१] तपके चोर तीन प्रकारके हैं(१) किसी अतपस्वी साधुसे किसीने पूछा- 'क्या आप तपस्वी हैं ?" इसके उत्तर में 'हो मैं तपस्वी हूँ' ऐसा कहनेवाला तपचोर है। (२) विना तपस्या किये रोग आदि किसी कारणसे या स्वभावसे क्षीण शरीर वाले साधुसे किसीने पूछा- क्या आप ही वह तपस्वी हैं, जिनकी कीर्ति पहले हमने सुनी है ? ' ऐसा पूछनेपर 'साधु तो तपस्वी होते ही हैं, यह प्रश्न करना ही वृथा है इस प्रकारका उत्तर देनेवाला तपचोर है । तत्रतेणे० छत्याहि ने साधुग्यो तपना चोर, वथनना शोर, ३पना थोर અથવા આચારના ચાર તથા ભાવના ચાર હાય છે, તેઓ દેવેશમાં ઉત્પન્ન થઈને પણ કિલ્લિી જ બને છે. તાત્પર્ય એ છે કે-પરની તપસ્યાને પાતાની પ્રતિષ્ઠાને માટે પાતાની મતાવવી એ તપની ચારી છે. (૧) તપના ચાર ત્રણ પ્રકારના છે. (१) अ) अतपस्वी साधुने ओध पूछे है-' आाप तपस्वी हो ? ' तेना उत्तरभां 'डा, हुं तपस्वी छु' सेभ उडेनार तयार छे, Gr (૨) તપસ્યા કર્યાં વિના ગાદિ જેવા કઇ કારણે ચા સ્વભાવથી ક્ષીણુ શરીરવાળા સાધુને કઈ પૂછે ‘શું આપ એજ તપસ્વી છે કે જેમની કીતિ અમે પહેલાં સાંભળી છે?' એમ પૂછતાં ‘સાધુ તેના તપસ્વી होय छे, આ પ્રશ્ન કરવા જ વૃથા છે, એવા પ્રકારના ઉત્તર આપનાર તે તપ ચાર છે. Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदशवेकालिकमुत्रे तृतीयस्तु - 'उग्रतपस्वी भवानेव किम् ? इति केनचित्पृष्टः सन् स्त्ररुयातिकामनया केवल मौनमालम्यते न तु किञ्चित्मविमापते तेन प्रच्छकोऽधिगच्छतिअयं महातपस्वी यतः स्वगुणाख्यानं कर्नु मनागपि नोत्सहते, पृष्टोऽपि च प्रतिवचनं न प्रयच्छतीति (३) । ५४४* [२] वचःस्तेनः वचः = वाक्यं तस्य स्तेन:, यथा- 'धर्म देशनामत्रीणतया श्रयमाणो मुनिर्भवानेव किम् ?' इति केनचित्पृष्टः 'साधवो धर्मदेशनानिपुणा एव भवन्ती'त्यादिवका तूष्णींभूत । अथवा स्वस्य शास्त्रानभिज्ञत्वेऽपि वागाडम्बरमात्रेण परिषदि मसादितायां सत्यां केनचित् 'आचारायङ्गोपाङ्ग विज्ञो भवान्' इति पृष्टः (३) 'क्या आपही उग्र तपस्वी हैं?' ऐसा मन करनेपर स्वकीय कीर्तिकी कामना करके केवल मौन साध लेनेवाला- कुछ न बोलनेवाला तपचोर है, क्योंकि मौन साधनेसे प्रश्न कर्त्ता यह समझ लेता है कि'ये बड़े भारी तपस्वी हैं कि अपने गुण वर्णन करनेमें तनिक भी प्रवृत्त नहीं होते, यहां तक कि पूछने पर भी उत्तर नहीं देते ।' [२] वाक्यके चोरको वचनचोर कहते हैं। जैसे किसीने पूछा- 'जो धर्मदेशना देनेमें अत्यन्त निपुण सुने जाते हैं वे क्या आपही है ?' इस प्रश्नके उत्तरमें ऐसा कहना कि - 'साधु, धर्मदेशना देनेमें निपुण होते ही हैं, ', अथवा चुप्पी साध लेना, अथवा हो तो शास्त्रोंसे अनभिज्ञ; किन्तु वागाडम्बर से परिषद्को प्रसन्न करनेपर कोई पूछे कि - 'आप अंग उपांगका जानते हैं क्या?' ऐसा प्रश्न करनेपर 'साधु, अंग उपांगोंके ज्ञाता (૩) ‘શુ આપ જ ઉગ્ર તપસ્વી છે ?” એવા પ્રશ્ન પૂછવામા આવતાં પેાતાની ફીતિની કામના કરીને કેવળ મૌન સાધનાર કાઇ ન ખેલનાર પણ તચાર છે, કારણ કે મોન સાધવાથી પ્રશ્નકર્તા એમ સમજી લે છે કે-એ બહુ મોટા તપસ્વી છે, તેથી પોતાના ગુણ વર્ણન કરવામાં જરા પણ પ્રવૃત્ત થતા નથી, એટલે સુધી કે પૂછતાં છતાં ઉત્તર પણ નથી આપતા’ [૨] વાકયના ચારને વચનચાર કહે છે જેમ કે, કેઇ પુછે જે ધર્મદેશના આપવામાં અત્યંત નિપુણ સભળાય છે તે શું આપ જ છે ?' એ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં એમ કહેવું કે 'સાધુ ધ દેશના આપવામાં નિપુણુ જ હાય છે ' અથવા ચુપકી પકડવી અથવા શાસ્ત્રોથી અનભિજ્ઞ હાવા છતાં વાગાડમ્બરથી પરિષદ્ધે પ્રસન્ન કરતા કંઇ પૂછે કે આપ અંગ-ઉપાંગને જાોા છે કે ? એવા પ્રશ્નના ઉત્તરમાં " Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. ४६-तपआदिचोरस्य दोपप्रकटनम् ५४५ 'साधवस्तज्ज्ञा भवन्त्येवे'तिमत्यायकः । [३] रूपस्तेनः स्वात्मनि परकीयरूपारोपणकारकः, यथा प्रकृष्टरूपवन्तं साधु समालोक्य 'किमसौ ज्ञातपूर्वरूपवान् भवानेव ?' इतिपृष्टो वागादिना तदङ्गीकुर्वाणो मौनावलम्बी वा। . आचारभावस्तेनः आचारच भावचेति द्वन्द्वे आचारभावौ, तयोः स्तेनः, तेन-आचारस्तेनः भावस्तेनश्चेति फलितम् , 'द्वन्द्वादी द्वद्वान्ते वा श्रूयमाणं पदं प्रत्येकमभिसम्बध्यते' इति न्यायेन द्वन्द्वोत्तरस्थस्य स्तेनपदस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् । तत्र___ [४] आचारस्तेनः-परकीयज्ञानाद्याचारपश्चकस्य स्वस्मिन्नारोपयिता, यथा-'श्रूयमाणः क्रियापात्रं भवानेव किम् ?' इति केनाप्यनुयुक्तः सन् पूर्ववत्समाधायकः । __ [५] भावस्तेनश्व-भावो जीवादिपदार्थस्तस्य स्तेनः, सूत्रार्थसन्देहं गीतार्थात् होते ही हैं। ऐसा कथन करनेवाला वचनचोर है। . [२] परके रूपका अपने में आरोपण करनेवाला रूपचोर कहलाता है। जैसे किसीने पूछा-'पूर्वज्ञात रूपवान् क्या आप ही हैं ?' इसके उत्तरमें वचनसे स्वीकार करनेवाला अथवा चुप रह जानेवाला रूपचोर है। __[४] परके ज्ञानादि पाँच आचारोंको अपने में आरोपित करनेवाला आचारचोर कहलाता है। जैसे किसीने पूछा-'क्या सुने जानेवाले उत्कृष्ट क्रियापात्र आप ही हैं ? ' ऐसापूछने पर पूर्वकी भाँति समाधान करनेवाला, अर्थात् 'साधु तो क्रियापात्र होते ही है ऐसा कहनेवाला आचारचोर है। [५] किन्हीं गीतार्थ मुनिसे सूत्रार्थका सन्देह निवारण करके ऐसा कहे कि સાધુ અંગ ઉપાંગેના જ્ઞાતા જ હોય છે એમ કહેનાર વચનાર છે. [] પરના રૂપનું પિતામાં આરોપણ કરનાર રૂપર કહેવાય છે. જેમકે કઈ પૂછે કે “પૂર્વજ્ઞાત રૂપવાનું શું આપ જ છો?” તેના ઉત્તરમાં વચનથી સ્વીકાર કરનાર અથવા ચૂપ રહેનાર રૂપર છે. [૪] પરના જ્ઞાનાદિ પાંચ આચારને પિતામાં આરેપિત કરનાર આચારચાર કહેવાય છે. જેમ કે કોઈ પૂછે “શું સાંભળવામાં આવતા ઉત્કૃષ્ટ ક્રિયાપાત્ર આપ જ છે?” એમ પૂછવામાં આવતાં પહેલાંની પેઠે સમાધાન કરનાર અર્થાત સાધુ તે ક્રિયાપાત્ર જ હોય છે” એમ કહેનાર આચારચોર છે. ૫] કેઈ ગીતાર્થ મુનિ પાસેથી સૂત્રાર્થને સંદેહનું નિવારણ કરીને એમ કહે કે Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदर्शवेकालिकसूत्रे टीका - सः किविपदेवः ततोऽपि किल्विदेवभवादपि न्युता=प्रच्युत्य मनुष्यभवेऽपि एलमूकलम् = भाषणश्रवणोभयशक्तिशून्यत्वं, लप्स्यते = प्राप्स्यति, ततोऽपि मृला नरकं तिर्यग्योनिं चा लप्स्यते यत्र = मनुष्यादिभवे बोधिः = सम्यक्त्वं सुदुर्लभा=अतिशयेन दुष्प्रापा भविष्यतीति भावः ॥ ४८ ॥ उपसंहरन्नाह - 'एयं च' इत्यादि । ५४८ २ ३ પ ४ १ मूलम्-एयं च दोसं दद्दृणं, नायपुत्रेण भासियं । વ ७ अणुमायंपि मेहावी, मायामोस विवज्जए ॥ ४९ ॥ ܙ छाया --- एतं च दोपं दृष्ट्वा, ज्ञातपुत्रेण भाषितम् । अणुमात्रमपि मेधावी, माया मृपा विवर्जयेत् ॥ ४९|| सान्वयार्थ :- एयं च = इस पूर्वोक्त प्रकारके दोसंदीप पापको नायपुत्ते = महावीर भगवानने दहूणं केवल ज्ञान से देखकर भासिय= फरमाया है, (अतः) हावी = कृत्याकृत्य में कुशल साधु अणुमायंवि=अणुमात्र थोड़े भी माया - मोसं= कपट और झूठको विवज्जए बरजे न आचरे ॥ ४९ ॥ टीका -- एवं च पूर्वमतिपादितं दोपं पापं गृहीतेऽपि चारित्रे किल्विपिकदेवस्वाद्यापादकलक्षणं ज्ञातपुत्रेण ज्ञातः - सिद्धार्थ भूपस्तस्य पुत्रो ज्ञातपुत्रः = महावीरस्तेन वह किल्विष देव देव भवसे चवकर मनुष्य भवमें अज (बकरे ) की तरह पोलनेवाला- गूँगा होगा, और फिर नरकगति या तिर्यञ्च गतिको प्राप्त होगा, जहाँ पर बोधि (सम्यक्त्वकी प्राप्ति ) अत्यन्त दुर्लभ है ||४८ || उपसंहार करते हुए कहते हैं-'एयं च' इत्यादि । चारित्रको अंगीकार करनेके पश्चात् भी किल्विष - देवत्व की प्राप्ति आदि दोष ज्ञातपुत्र ( सिद्धार्थनन्दन) भगवान् वर्द्धमान स्वामीने केवल એ કિહિવષી દેવ દેવભવથી થવીને મનુષ્ય ભવમાં मन (जरा) नी ખેલનાર-માખડા થશે, અને પછી નરકગતિ યા તિર્યંચ તિને પ્રાપ્ત થશે, કે त्यां बोधि (सभ्यत्वनी प्रति) अत्यंत दुर्लभ छे. (४८) साररत छे - एयं च० इत्याहि. ચારિત્રને અગીકાર્યો પછી પણુ કિષિ-દેવત્વની પ્રાપ્તિ આદિ ટ્રાવ જ્ઞાતપુત્ર ( સિદ્ધા ન દન) ભગવાન્ વર્ધમાન સ્વામીએ કેવળજ્ઞાનથી જાણીને Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन ५ उ. २ गा. ४९-५०-उपसंहारः ५४९ दृष्ट्वा केवलालोकेनाऽऽलोक्य भापितं कथितम्-अर्थत उपदिष्टमित्यर्थः, अतः मेधावी-कृत्याकृत्यविवेककुशलः, अणुमात्रमपि स्वल्पमपि मायामृपा-मायामृपावादं विवर्जयेत् संत्यजेत्-नाऽऽचरेदिति भावः ॥४९॥ मूलम्-सिखिऊण भिक्खेसणसोहिं, संजयाण बुद्धाण सगासे। तत्स्थ भिक्खु सुप्पणिहि-इंदिए, तित्वलज्जगुणवं विहरिनासि-त्तिवेमि ॥५०॥ छाया-शिक्षित्वा भिक्षेपणशोधि, संयतानां युद्धानां सकाशे । तत्र भिक्षुः मुपणिहितेन्द्रियः, तीव्रलज्जागुणवान् विहरेत् । इति ब्रवीमि ॥५०॥ सान्वयार्थः-बुद्धाण सकल तत्वोंके जाननेवाले संजयाण-मुनियों के सगासे समीप भिक्खेसणसोहि-भिक्षाके आधाकर्मादि दोपोंकी शुद्धिको सिक्खिऊण सीखकर तिव्वलज्जगुणवं-अकृत्याचरणमें अत्यन्त लज्जावान् सुप्पणिहिइंदिए-जितेन्द्रिय-एकाग्रचित्तवाला भिक्खु-साधु तत्यवहांभिक्षाकी एपणामें विहरिज्जासि-विचरे-लगे। त्तिवेमिः श्रीसुधर्मास्वामी जंवूस्वामीसे कहते हैं कि जैसा भगवान् महावीर स्वामीने फरमाया है वैसाही मैं तेरेसे कहता हूँ ॥५०॥ । इति पांचवे अध्ययनके दूसरे उद्देशका सान्वयार्थ समाप्त ॥ ५-२ ॥ ।। इति श्रीदशवैकालिकसूत्रके पांचवें अध्ययनका सान्वयार्थ समाप्त ॥५॥ टीका-'सिरिखऊण' इत्यादि। भिक्षुः बुद्धानाम् अवगतसकलतत्त्वानां, संयतानां संयमयतां सकाशे-समीपे भिक्षेपणशोधि-भिक्षागताऽऽधाकर्मादिदोपज्ञानसे जानकर प्रतिपादन किये हैं, इसलिए कार्य-अकार्यके विवेकी श्रमणोंको अणुमात्र भी माया-मृषावादका आचरण नहीं करना चाहिए, अर्थात् मुनि माया-मृपावादका थोड़ा भी सेवन नहीं करें ॥ ४९ ॥ 'सिक्खिऊण' इत्यादि । भिक्षु, तत्त्वके ज्ञानी संयमियोंके समीप પ્રતિપાદન કર્યા છે. તેથી કરીને કાર્ય–અકાર્યના વિવેકી શ્રમણેએ અણુમાત્ર પણ માયા-મૃષાવાદનું આચરણ ન કરવું જોઈએ, અર્થાત્ મુનિ માયા-મૃષાવાદનું ઘેટું पा सेवन न ४२. (४८) સિવિઝન ઈત્યાદિ. તત્વના જ્ઞાની સંયમીઓની સમીપે આધાકર્મ આદિ Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - m - - - - - - - - - - - - - - ५५० . श्रीदशवकालिकमूने संशुद्धि-दोपज्ञानपूर्वकतत्परिहारविधिमित्यर्थः, शिक्षित्वा सम्यगभ्यस्य सुप्रणिहितेन्द्रिया-सुवशीकृतेन्द्रियः-एकाग्रचेता इत्यर्थः । तीवलज्जागुणवान् अकृस्याऽऽचरणेऽतीवलज्जाधारकः, तत्र-भिक्षेपणविपये विहरेत-विचरेत् ।। ___ 'संजयाण युद्धाण' इतिपदाभ्यां ज्ञान क्रियोभयवद्भय एवं शिक्षाशुदिर्जायत इति, 'सुप्पणिहिइंदिए' इत्यनेन शिष्येण एकाग्रचेतसा भाव्यमिति, 'तिव्वलज्जगुणवं' इति पदेन लजावानेव मवचनमर्यादां पालयतीति च प्रकटीकृतम् । इति ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥५०॥ । इति पञ्चमाध्ययनस्य द्वितीयोदेशः समाप्तः ॥ आधाकर्म आदि दोपोंके ज्ञानपूर्वक आहारकी विधिको सम्यक् प्रकार जान करके जितेन्द्रिय हो कर तथा अकार्य करनेसे तीव्र लना पाते हुए विचरें॥ 'संजयाण बुद्धाण' इन दोनों पदोंसे यह ध्वनित किया है कि ज्ञान और क्रिया दोनोंसे ही भिक्षाशुद्धि होती है। 'सुप्पणिहिइंदिए' पदसे यह सूचित किया है कि शिष्यको एकाग्रचित्त होना चाहिए। 'तिव्वलज्जगुणवं' से यह प्रदर्शित किया है कि लज्जावान ही प्रवचनप्रतिपादित मर्यादा (आचार) का परिपालन करता है। श्री सुधर्मा स्वामीजम्बूस्वामीसे कहते हैं कि-हे जम्बू! मैंने भगवान् श्रीमहावीरस्वामीसे जैसा सुना वैसा ही तुमसे कहा है ॥ ५० ॥ । इति पांचवें अध्ययनका दूसरा उद्देश समाप्त । દેનું જ્ઞાન મેળવીને, આહારની વિધિને સમ્યક પ્રકારે જાણીને, જિતેન્દ્રિય થઈને તથા અકાર્ય કરવાથી તીવ્ર લજજા પામતાં ભિક્ષુ વિચરે. संजयाण घुद्धाण ये RS Avatथी म पनित यु ज्ञान भने ક્રિયા બેઉથી જ ભિક્ષા-શુદ્ધિ થાય છે ગુજળદિતિ એ પદથી એમ સૂચિત है शिष्य सायथित ५j . तिब्बलज्जगुणवं थी ओम शित કર્યું છે કે લજજાવાન્ જ પ્રવચનપ્રતિપાદિત મર્યાદા (આચાર)નું પરિપાલન કરે છે. શ્રી સુધમ સ્વામી જખ્ખ સ્વામીને કહે છે કે- જમ્મ! મેં ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વામી પાસેથી જેવું સાંભળ્યું તેવું જ તમને કહ્યું છે (૫૦) ઈતિ પાંચમા અધ્યયનને બીજો ઉદેશે સમાપ્ત. Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५१ - - अध्ययन ५ उ. २ गा. अध्ययनपरिसमाप्तिः इति श्री-विश्वविख्यात-जगहल्लभ-मसिद्धवाचक-पञ्चदशभापा-कलित-ललितकलापाऽऽलापक-प्रविशुद्ध-गद्य-पद्य-नैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दकशाहूत्रपति- कोल्हापुररानप्रदत्त-जैनशास्त्राचार्य-पद-भूपितकोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकरपूज्य-श्रीघासीलालबतिविरचितायां श्रीदशवैकालिकमूत्रस्याऽऽचारमणिमञ्जूपाख्यायां व्याख्यायां पञ्चमं 'पिण्डैपणा'ऽऽ-ख्यमध्ययनं समाप्तम् ॥ ५॥ इति श्रीदशवैकालिकसूत्रके "पिण्डैपणा" नामक पाँचवें अध्ययनकी 'आचारमणिमञ्जूपा' टीकाका हिन्दीभापानुवाद समाप्त ॥५॥ ઈતિ શ્રીદશવૈકાલિકસૂત્રના પિંડેપણુ” નામક પાંચમા અધ્યયનની “આચારમણિમંજૂષા” ટીકાને ગુજરાતી ભાષાનુવાદ સમાસ (પ) समाप्त Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ == = ==== == છ ત્ર === === પૂજ્ય આચાર્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજનાં બનાવેલાં સને. કાશ્મીર....થી.....કન્યાકુમારી તે મ જ કે રાં ચી....થી.... ક લ ક ત્તા સુધી દરેક સ્થળે હોંશથી વંચાય છે. કારણ , આવી રીતે શાસ્ત્રો તૈયાર કરવાનું અનોખું કાર્ય હજુ સુધી કેઇ કરી શકયું નથી. શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સમાજ ઉ પ ર તે શ્રી દેરાવાસી સંપ્રદાયના મહાન આચાર્યશ્રી રામવિજયસૂરીજી તથા અન્ય મુનિવરોએ તેમજ તેરાપંથી મહાસભા કલકત્તાવાળાએ આ સૂત્ર અપનાવ્યાં છે. * દેશ-પરદેશના મેમ્બરો સૂરો વાંચી જૈન ધર્મના થતજ્ઞાનને અમે લાભ લઈ રહ્યા છે. હાલમાંજ લંડનના ઈન્ડીઆ એક્ટીસ લાયબ્રેરીએ આ મૂ મંગાવ્યા છે. આપ રૂપીઆ ૨૫૧-૦-૦ મોકલી મેમ્બર તરીકે નામ નોંધાવી હપ્ત હતું લગભગ રૂપીઆ પાંચ સુધીની કિંમતનાં શાસ્ત્રો વિના મૂલ્ય મેળવી શકે છે. વધુ વિગત માટે લોઃ છે. ગ્રીન લેજ પાસે, મંત્રિ ગરેડીઆ કુવા રેડ } શ્રી અખિલ ભારત છે. સ્થા. જૈન રાજકેટ. } શોદાર સમિતિ, Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી અખિલ ભારત શ્વેતામ્બર સ્થાનકવાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ ગરેડીઆ કુવા રોડ-ગ્રીન લેજ પાસે રા જ કે , સમિતિની શરૂઆત તા૧૮-૧૦-૪૪ થી તા. ૩૦-૪-૧૭ સુધીમાં દાનવીર મહાશા તરફથી મળેલી રકમોની નામાવલી. rણ અઢીસેથી ઓછી રકમ આ યાદીમાં સામેલ કરેલ નથી.] Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૦૦૦૦ ૬૦.૦ પરમા ૫૦૦૧ ૩૬૦૫ ૩૧૦૧ ૨૫૦૦ ૨૦૦૦ ૨૦૦૦ ૨૦૦૦ આધ સુરક્ખીશ્રી-૪ (ઓછામાં ઓછી રૂ. ૫૦૦૦ ની રકમ આપનાર) શેઠ શાંતિલાલ મગળદાસભાઇ, પ્રમુખ સાહેબ શેઠ હરખચંદ કાલીદાસભાઈ ૧૯૬૩ ૧૦૦૧ ૧૦૦૧ ૧૦૦૦ (હા. શેઠ લાલચંદભાઇ, જેચંદભાઇ, નગીનદાસભાઇ, વૃજલાલભાઈ તથા વલ્લભદાસભાઈ) કાઠારી જેચ'દભાઈ અજરામર હા. હરગોવિંદભાઈ જેંચદ શેઠ ધારશીભાઈ જીવનભાઈ ૩૦૪ ૩૨૮ાાના મહેતા ગુલાબચંદ પાનાચંદ મુરખ્ખીશ્રીઓ-૨૦ (ઓછામાં ઓછી રૂા. ૧૦૦૦ ની રકમ આપનાર) વકીલ જીવરાજ વમાન હા, કાઠારી કહાનદાસભાઈ તથા વેણીલાલભાઈ દેશી પ્રભુદાસ મુળજીભાઇ સંઘવી પીતામ્બરદાસ ગુલામચંદ શેઠ શામજીભાઈ વેલજી વીરાણી નામદાર ઠાકાર સાહેબ લખધીરસી હજી બહાદુર શેઠ લહેરચંદ કુંવરજી હા. શેઠ ન્યાલચ ંદભાઇ લહેરચંદ શાહુ છગનલાલ હેમચંદ વસા હા. મેાહનલાલભાઈ તથા માતીલાલભાઈ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંધ શેઠ આત્મારામ માણેકલાલ શેઠ માણેકલાલ ભાણજીભાઈ શેઠ સેમચંદ તુલસીદાસ ૧૦૦૦ કાહારી છમીલદાસ હરખચંદ ૧૦૦૦ કોઠારી ર'ગીલદાસ હરખચંદ ૧૦૦૨ ખગડીઓ જગજીવનદાસ રતનશી ૧૦૦૧ શ્રીમાન ચદ્રસિંહજી મહેતા ( રેલ્વે મેનેજર સાહેબ ) ૧૦૦૧ મહેતા પેાપટલાલ માવજીભાઇ ૧૦૦૧ ૧૦૦૧ શાહ હરીલાલ અનુપચંદ ૧૦૦૨ મહેતા સામચંદ્ર નેણુશીભાઇ ( કરાંચીવાળા ) દેશી કપુરચંદ અમરશી હા. દલપતરામ કપુરચંદ શી અમદાવાદ ભાણવડ # રાજકોટ સાલાપુર જેતપુર રાજકોટ ,, જામનગર રાજકોટ મારી સીપુર મુ ંબઈ મારી અમદાવાદ પારમંદર રતલામ મુંબઇ શીહાર દામનગર કલકત્તા જામજોધપુર મારી ખંભાત જામ જોધપુર Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૫૦ ૭પ૦ ७०० ૫૦૧ ૫૦૦ ૫૦૦ ૫૦૦ ૫૦૦ ૫૦૦ ૫૦૦ ૫૦૦ ૫૦૦ ૫૦૧ ૫૦૧ ૫૦૧ ૫૦૧ ૫૦૧ ૫૦૦ ૫૦૧ સહાયક મેમ્બર–૨૧ (ઓછામાં ઓછી રૂા. ૫૦૦ ની રકમ આપનાર ) શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ હા. શેઠે ઝુઝભાઈ વેલસીભાઇ માદી કેશવલાલ હરખચંદ શેઠ નરાત્તમદાસ એડભાઇ શેઠ શીવલાલ ડમરભાઈ ૧૦૦ ૫૦૦ કામદાર તારાચંદ પેપટલાલ ધેારાજીવાળા શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંધ શેઠ તારાચંદજી પુખરાજજી શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ ૧૫૦ શેઠ શેષમલજી જીવરાજજી ૧૨૫ અનરાજજી લાલચંદ્રજી ૧૨૫ કડચંદજી રૂપ’દજી દગડુમલજી ચાંદમલજી ૩ 13 29 29 શેઠ ચંદુલાલ છગનલાલ સ્વ. કાંતીલાલભાઈના સ્મરણાર્થે હુ, શેઠ આલચંદ વઢવાણુ :શહેર સાબરમતી જોરાવરનગર મહેતા મેહનલાલ કપુરચંદ શેઠ ગોવીદજી પૈાપટભાઈ મહેતા મુળચંદ રાઘવજી હા. મગનલાલભાઈ તથા દુર્લભજીભાઈ શેઠ હરખચંદ્ન પસાત્તમ હા, ભાઇ ઇન્દુકુમાર શેઠ ખીમજી ખાવાભાઈ હા. તેમના પુત્ર ફુલચંદભાઈ નાગરદાસભાઇ, જીલાખચ ંદભાઈ, તથા જમનાદાસભાઈ શેઠ મણીલાલ મેહનલાલ ડગલી હા. શેઠે મુલજીભાઇ મણીલાલ શેઠ ઇશ્વરલાલ પુરૂષોતમદાસ સાકરચંદ અ. સૌ. મેન મણીગૌરી મગનલાલ તે મહેતા સામચંદ તુલસીદાસનાં ધર્મપત્નિ સ્વ. પીતાશ્રી નંદાજીના સ્મરણાર્થે હ. વેણીચંદ શાંતીલાલ (જામુવાળા) લીંબડી રાજકોટ થાનગઢ ઓર ગામાદ ઓર શાખાદ રાજકોટ રાજકોટ ધ્રાફા ચારવાડ મુખઈ મુંબઇ અમદાવાદ અમદાવાદ મુંબઇ તલામ મેઘનગર Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૭૫૧ ૫૦૧ ૪૦૨ ૪૦૦ ૩૫૩ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ શાહુ રંગજીભાઈ ચૈહનલાલ કામદાર રતીલાલ દુર્લભજી જેતપુરવાળા પ્રથમ વર્ગના મેમ્બરા (ઓછામાં ઓછી રકમ !. ૨૫૦ આપનાર) ૨૫૧ ૨૫૧ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ ધી વાડીલાલ ડાઇંગ એન્ડ પ્રિન્ટીંગ વર્કસ શેઠ રતનશી હીરજીભાઇ હા. ગોરધનદાસભાઇ શેઠે જેચંદભાઇ માણેકચ સંઘવી માણેકચંદ માધવજી શેઠે લાલજીભાઈ માણેકચદ (લાલપુરવાળા) શેઠ રામજી ઝીણાભાઈ પંચમીયા ભવાનભાઈ કાળાભાઈ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ શેઠ રતીલાલ ન્યાલચંદ ખાણુ પરશુરામ છગનલાલ શેઠ (ઉદેપુરવાળા) શેઠે મગનલાલ છગનલાલ વિશ્રામ (ધ્રાžાવાળા) શેઠ જેઠાલાલ ગોરધનદાસ સ્વ. બહેન સાક કચરા હા. આતમખાઇ, ટાલાલભાઈ તથા અમૃતલાલભાઈ વાલજી (કલ્યાણુવાળા) શેઠ ખુશાલચંદભાઈ કાનજીભાઇ હા. શેઠ પ્રતાપભાઈ ૨૫૧ ૪૭૭૧ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ ૨૫૧ શેઠ છેોટાલાલ કેશવજી ૨૫૧ શાહુ લક્ષ્મીચંદ કપુરચંદ ૨૫૧ શાહ ચતુરદાસ ઠાકરશીભાઇ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ખઢરીયા કાન્તીલાલ મકલાલ (સ્ટેશન મૉસ્તર) શાહ કેશવલાલ જેચંદ શાહ ખીમચંદ શોભાગચંદ વસનજી અમદાવાદ મુંબઈ સ્વ. માખડા વચ્છરાજ તુલસીદાસનાં ધર્મપત્ની કમળખાઈ તરફથી હા. માણેકચંદભાઇ તથા કપુરચંદભાઇ શેઠ છગનલાલ નાગજીભાઇ ઘેલાણી ત્રીકમજી લાધાભાઈ ધ્રાફા રાજકોટ જામજોધપુર ભાણવડ ભાણવડ ભાણવડ ભાણવડ વડી વાંકાનેર રાજકોટ રાજકોટ રાજકેટ ઉપલેટા ઉપલેટા ઉપલેટા ખાખીજાળીયા જામનગર જેતલસર જંકશન જામનગર સુરેન્દ્રનગર વેરાવલ વેરાવલ ગોંડલ મુંબઇ જીનારદેવ Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૨૫. ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ RST આણંદ ૨૫૧ ૨૫૦ ૨૫૧ પs રપ૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ શેઠ ગીરધરલાલ કરમચંદ અમદાવાદ શેઠ છેટાલાલ વખતચંદ મ્પમદાવાદ સલિયા હરિલાલ લાલચંદ અમદાવાદ શેઠ પ્રેમચંદ માણેકચંદ અમદાવાદ શેઠ માણેકલાલ ભગવાનદાસ ખંભાત શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ હા. શેઠ મેહનલાલ ઈચ્છારામ ખંભાત શેઠ રમણીકલાલ એ. કપાસી બહેન સુરીબહેન (લક્ષ્મીબેન) હા. મહેતા હરીલાલ પીતામ્બરદાસ પાલણપુર શેઠ વાડીલાલ નેમચંદ વકીલ વિરમગામ શાહ વીઠલદાસ મેદી માસ્તર વિરમગામ શાહ નાગરદાસ માણેકચંદ વિરમગામ શાહ મણીલાલ જીવણલાલ વીરમગામ શાહ નાગરદાસ વાઘજીભાઈ અમલનેર શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ અમલનેર શેઠ મનુભાઈ મુળચંદ (ઈજીનીયર સાહેબ) રાજકેટ શેઠ શાંતિલાલ પ્રેમચંદ [તેમનાં ધર્મપત્નીના વરસીતપ પ્રસંગે ખુશાલીના] રાજકોટ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ હા. ચંપાલાલજી માર ડાંડાઈચા શેઠ મેંતીલાલજી રણજીતલાલજી હીંગડે શેઠ બાદરમલજી સુરજમલજી બેન્કર્સ યાદગીરી શેઠ ગોપાલજી મીઠાભાઈ હાટીના માળીયા ઉદાણી ન્યાલચંદ હાકેમચંદ (વકીલ) રાજકોટ શેઠ પ્રજારામ વીઠલજી રાજકેટ શેઠ મેઘરાજજી દેવીચંદજી મહેતા મદ્રાસ પટેલ ગોવીંદલાલ ભગવાનજી કેલકી. પટેલ ખીમજી જેઠાભાઈ વાઘાણી કોલકી શેઠ હકમીચંદ દીપચંદ ગોંડલવાળા [સ્ટેશન માસ્તર ભક્તિનગર રાજેકેટ શેઠ વસનજી નારણજી જામખંભાળીયા શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ જામખંભાળીયા શેઠ કીશનલાલ પૃથ્વીરાજ ખીચન (પાલી) શેઠ પદમસી ભીમજી ફરીયા ભાણવડ ૨૫૦ ઉદેપુર ૨૫૧ ૨૫૦ ૨૫૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૨ ૨પ૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ધોરાજી ૨૫૧ ૨૫૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ જેતપુર ૨૮૭ ૨૫૧ ૨૫૦ ધરાજી ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ અ.સૌ. બહેન બચીબહેન બાબુભાઈ શેઠ નેમચંદ સવજીભાઈ મોદી લાલપુર શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. પ્રમુખ શોઠ પ્રેમચંદ ભગવાનલાલ નંદુરબાર શેઠ અમૃતલાલ હીરજીભાઈ જસાપરવાળા હા. નરભેરામભાઈ જેતપુર દેશી છોટાલાલ વનેચંદ કામદાર લીલાધર જીવરાજના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્ની બાઈ ઝબકબહેન તરફથી હ. ભાઈ શાંતિલાલ જેતલસર શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ જામજોધપુર સ્વ. બહેન વિયાગૌરી રાયચંદ હા. શેઠ રાયચંદ પાનાચંદ રાજી ગાંધી પિપટલાલ જેચંદભાઈ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ હા. પ્રમુખ રાયચંદ વૃજલાલ અજમેરા વીંછીયા શેઠ મુળચંદ પિપટલાલ હ. મણીલાલભાઈ તથા જેસીંગલાલભાઈ લાલપુર શેઠ મણીલાલ મીઠાભાઈ હ. હરિલાલભાઈ હાટીના માળીયાવાળા જુનાગઢ સ્વ. વસાણી હરગોવીંદદાસ છગનલાલના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્ની બાઈ છબલબેન તરફથી બોટાદ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ ચુડા (ઝાલાવાડ) શેઠ મગનલાલજી બાગટેચા ઉદેપુર શેઠ ચાંપશીભાઈ સુખલાલ સુરેન્દ્રનગર શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ બોટાદ સ્વ. પૂજ્ય માતુશ્રી સમરતબાઈના સ્મરણાર્થે હા. ડાકટર સાહેબ નરોત્તદાસ ચુનીલાલ કાપડીયા રાણપુર 4. તુરખીયા લહેરચંદ માણેકચંદ સુદામડાવાળાના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્ની જીવતીબાઈ તરફથી હા. જયંતીલાલ લહેરચંદ શ્રી સ્થા. જૈન મેટા સંઘ ધ્રાંગધ્રા શાહ દિલીપકુંવર સવાઈલાલ હા. શેઠ સવાઈલાલ સંબકલાલ વઢવાણ શહેર શેઠ છોટુભાઈ હરગોવીંદદાસ કટેરીવાળા રા. ૨. નાથાલાલ ડી. મહેતા મેમ્બાસા સંઘવી પ્રાણલાલ લવજીભાઈ જામખંભાળીયા ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ હભાસ ૨૫૧ ૨૫૧ મુંબઈ ૨૫૧ ૨૫૧ ข Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ધંધુકા બાવીશી મણીલાલ ચત્રભુજના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્ની બાઈ મીબેન તરફથી હા, ભાઈ રસીક્વલ, અનીલકાંત તથા વિદાય આસનસોલ શેઠ માણેકલાલ અમુલખરાય મહેતા ઘાટકે પર ભાવસાર ખેડીદાસ ગણેશભાઈ શાહ પિટલાલ ધનજીભાઈ સ્વ. ગુલાબચંદભાઈના સ્મરણાર્થે હા. વેરા પિપટલાલ નાનચંદ ધંધુકા શેઠ ચત્રભુજ વાઘજીભાઈ વસાણું ધંધુકા સ્વ. મેહનલાલ નરસીદાસના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્ની સુરજબેન મોરારજી તરફથી બરવાળા શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ પાણશણા (લીંબડી) સંધાણું મુળશંકર હરજીવનભાઈના સ્મરણાર્થે હા. તેમના પુત્ર જયંતિલાલભાઈ તથા રમણીકલાલભાઈ ઉપલેટા શહ મગનલાલ ગોકળદાસ હા, રતીલાલ મગનલાલ વઢવાણ શહેર સંઘવી મુળચંદ બેચરભાઈ હા. જીવનલાલ ગફલદાસ વઢવાણ શહેર બહેન સુર્યબાળા નોતમલાલ જસાણી [ વરસીતપનાં પારણાંની ખુશાલીમાં] રાજકેટ શાહ રાયચંદ ઠાકરશીના સ્મરણાર્થે હા. ભાઈ શાંતીલાલ રાયચંદ લખતર ભાવસાર હરજીવનદાસ પ્રભુદાસના સ્મરણાર્થે હા. ભાઈ ત્રિીભવનદાસ હરજીવનદાસ લખત૨ શાહ તલકશી હીરાચંદના સ્મરણાર્થે હા, ભાઈ અમૃતલાલ તલકશી લખતર શાહ ચુનીલાલ માણેકચંદ લખતર શેઠ વૃજલાલ સુખલાલ વઢવાણ શહેર શેઠ કાંતિલાલ નાગરદાસ વઢવાણ શહેર પર ચત્રભુજ મગનલાલ વઢવાણ શહેર સંઘવી શીવલાલ હીમજીભાઈ વઢવાણ શહેર શાહ દેવશીભાઈ દેવકરણ વઢવાણ શહેર ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૦ ૨પ૧ ૨૫૧ મુંબઈ ૨૫૧ ૨૫૧ શાહ જાદવજી ઓઘડભાઈ રાદાદવાળાના સ્મરણાર્થે હા. ભાઈ શાંતીલાલ જાદવજી લખતર ભાવસાર ચુનીલાલ પ્રેમચંદભાઈ સુરેન્દ્રનગર શ્રી વર્ધમાન વેતામ્બર સ્થા. શ્રાવક સંઘ હા. શેઠ કેસરીમલજી અનોપચંદજી ગુગળીયા મલાડ (મુંબઈ) દેશી ઠાકરશી ગુલાબચંદના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્ની સમરતબેન વૃજલાલ તરફથી હા, ભાઈ જયંતિલાલ ઠાકરશી લખતર શાહ અમુલખ ઉફે બચુભાઈ નાગરદાસનાં ધર્મપત્ની અ. સો. બેન લીલાવતીને વરસી તપનાં પારણની ખુશાલીમાં હા, ભાઈ કાંતીલાલ નાગરદાસ વિરમગામ કામદાર કેશવલાલ હીપતરામ પ્રોફેસરસાહેબ (ગાંડલવાળા) વડોદરા શેઠ ડુંગરશી હંસરાજ વસરીયા શેઠ ધનરાજ મુળચંદ સુથા * * લેનાવાલા (પુના) મહેતા નાનાલાલ છગનલાલનાં ધર્મપત્ની સ્વ. ચંચળબેન તથા પુરીબેનના સ્મરણાર્થે હા. ભાઈ મનહરલાલ નાનાલાલ મુ. વણી (વીરમગામ) દેશી ચુનીલાલ ફુલચંદ મેરબીવાળા સુ. શાલ બની (બંગાળ) શાહ હીરાચંદ છગનલાલ હા. શાહ ચીમનલાલ હીરાચંદ સાણંદ શેઠ મોહનલાલ જેઠાભાઈના સ્મરણાર્થે હિ. શેઠ આત્મારામ મેહનલાલ કલેલ શાહ રમણીકલાલ કાળીદાસ તથા અસૌ. કાંતાબેન રમણીકલાલ (ધ્રાંગધ્રાવાળા) મુંબઈ ડાકટર મયાચંદ મગનલાલ હ. ડે. રતનચંદ મયાચંદ કલેલ સ્વ, શાહ નાથાલાલ ઉમેદચંદના સ્મરણાર્થે હી. શાહ રતીલાલ નાથાલાલ કલેલ શ્રી સ્થા. દરીયાપુરી જૈન સંઘ હ. ભાવસાર દામોદરદાસ ઈશ્વરભાઈ શાહ મણીલાલ તલકચંદના સ્મરણાર્થે હા, મારફતીયા ચંદુલાલ મણીલાલ કલેલ અ. સો. ચંપાબેન હ. શેઠ જીવરાજ લાલચંદ દેશી સાણંદ પટેલ મહાસુખલાલ ડોસાભાઈ સાણંદ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સાણંદ ૨૫ મુંબઈ ૨૫ સાબરમતી સાબરમતી અમદાવાદ ર૫૧ વીરમગામ વીરમગામ વિરમગામ વિરમગામ ર૫૧ શાહ સાકરચંદ કાનજીભાઈ શાહ હીંમતલાલ હરજીવનદાસ શાહ જીતેન્દ્રકુમાર વાડીલાલ માણેકચંદ (રાજસીતાપુરવાળા) અ, સૌ. સમરતબેન પ્રેમચંદ Cl૦ પ્રેમચંદ માણેકચંદ (રાજસીતાપુરવાળા) શા. કાંતીલાલ ત્રીભોવનદાસ સવ. શેઠ ઉજમશી નાનચંદના સ્મરણાર્થે તેમના પુત્ર તરફથી હશેઠ ચુનીલાલ નાનચંદ સ્વ. શાહ મણીલાલ લક્ષ્મીચંદના સ્મરણાર્થે તેમના પુત્રે તરફથી હા, ખીમચંદભાઈ સ્વ. શેઠ હરીલાલ પ્રભુદાસના સ્મરણાર્થે હ. શેઠ અનુભાઈ હરીલાલ સંઘવી જેચંદભાઈ નારણદાસ સ્વ. શાહ વેલશીભાઈ સાકરચંદના સ્મરણાર્થે હા ચીમનલાલ વેલશી કત્રાજવાળા શાહ પાચાલાલ પીતામ્બરદાસ પારેખ મણીલાલ ટેકરશી લાતીવાળા તરફથી મેટીબેનના મરણાર્થે શાહ નારણદાસ નાનજીભાઇના સુપુત્ર વાડીભાઈનાં ધર્મપત્ની અ. સો. નારંગીબેનને વરસીતપ નિમીતે હા. શાંતીભાઈ શાહ પોપટલાલ મેહનલાલ શેઠ પ્રેમચંદ સાકરચંદ લાલા પુરણચંદજી જેન (સેન્ટ્રલબેંકવાલા) સ્વ. છબીલદાસ ગોકળદાસના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્નિ કમળાબેન તરફથી હા. મંજુલાકુમારી શાહ રતીલાલ વાડીલાલ શેઠ લાલભાઈ મંગળદાસ અ. સો. કમળાબેન તે કામદાર ગોરધનદાસ મગનલાલનાં ધર્મપનિ (વઢવાણવાળા) રા ડેસાભાઈ લાલચંદ સ્થા. જૈન સંઘ હ. વેરા નાનચંદ શીવલાલ વીરમગામ અમદાવાદ ૨૫૧ ૨૫૧ વીરમગામ ૨૫૧ વીરમગામ ર૫૧ અમદાવાદ અમદાવાદ ૨૫૦ દીલ્હી ૩૫૧ ૨૫૬. વીરમગામ અમદાવાદ અમદાવાદ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ રંગુન ૨૫૧ વઢવાણ શહેર Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ મુંબઈ ૨૫૧ શાહ જાદવજી ઓઘડભાઈ સદાદાવાળાના સ્મરણાર્થે હા. ભાઈ શાંતીલાલ જાદવ લખતર ભાવસાર ચુનીલાલ પ્રેમચંદભાઈ સુરેન્દ્રનગર શ્રી વર્ધમાન વેતામ્બર સ્થા. શ્રાવક સંઘ હા. શેઠ કેસરીમલજી અને પચંદજી ગુગળીયા મલાડ (મુંબઈ) દેશી ઠાકરશી ગુલાબચંદના મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્ની સમરતબેન વૃજલાલ તરફથી હા, ભાઈ જયંતિલાલ ઠાકરશી લખતર શાહ અમુલખ ઉર્ફ બચુભાઈ નાગરદાસનાં ધર્મપત્ની અ. સૌ. બેન લીલાવતીના વરસી તપના પારણાની ખુશાલીમાં હા. ભાઈ કાંતીલાલ નાગરદાસ વીરમગામ કામદાર કેશવલાલ હીમતરામ પ્રેફેસર સાહેબ (ડલવાળા) વડેદરા શેઠ ડુંગરશી હંસરાજ વીસરીયા શેઠ ધનરાજ મુળચંદ થા . લોનાવાલા (પુના) મહેતા નાનાલાલ છગનલાલનાં ધર્મપત્ની સ્વ. ચંચળબેન તથા પુરીબેનના સ્મરણાર્થે હા, ભાઈ મનહરલાલ નાનાલાલ ૪. વાણી (વીરમગામ) દેશી ચુનીલાલ ફુલચંદ મેરબીવાળા મુ. શાલની (બંગાળ) શાહ હીરાચંદ છગનલાલ હા. શાહ ચીમનલાલ હીરાચંદ સાણંદ શેઠ મેહનલાલ જેઠાભાઇના સ્મરણાર્થે હા. શેઠ આત્મારામ મેહનલાલ કલેલ શાહ રમણીકલાલ કાળીદાસ તથા અ. સો. કાંતાબેન રમણીકલાલ (ધ્રાંગધ્રાવાળા) મુંબઈ . ડિકટર મયાચંદ મગનલાલ હ. ડે. રતનચંદ મયાચંદ કલેલ સ્વ. શાહ નાથાલાલ ઉમેદચંદના સ્મરણાર્થે હા. શાહ રતીલાલ નાથાલાલ લ શ્રી સ્થા. દરીયાપુરી જૈન સંઘ હ. ભાવસાર દામોદરદાસ ઈશ્વરભાઈ શાહ મલાલ તલકચંદના સ્મરણાર્થે હી. મારફતીયા ચંદુલાલ મણીલાલ કલેલ અ. સો. ચંપાબેન હ. શેઠ જીવરાજ લાલચંદ દોશી સાણંદ પટેલ મહાસુખલાલ ડોસાભાઈ સાણંદ ૨૫. ૩૦૧ ૨૫૧ ૨પ૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫ ૨૫૧ સાણંદ મુંબઈ ર૫૧ સાબરમતી ૨૫૧ સાબરમતી અમદાવાદ ૨૫૧ ૨૫૧ વિરમગામ ૨૫૧ વીરમગામ ૫૧ ૨૫૧ વીરમગામ વીરમગામ ૨૫૧ શાહ સાકરચંદ કાનજીભાઈ શાહ હીંમતલાલ હરજીવનદાસ શાહ જીતેન્દ્રકુમાર વાડીલાલ માણેકચંદ (રાજસીતાપુરવાળા) અ. સૌ. સમરતબેન પ્રેમચંદ Cl૦ પ્રેમચંદ માણેકચંદ (રાજસીતાપુરવાળા) શા. કાંતીલાલ ત્રીભવનદાસ સ્વ. શેઠ ઉજમશી નાનચંદના સ્મરણાર્થે તેમના પુત્ર તરફથી હા. શેઠ ચુનીલાલ નાનચંદ સ્વ. શાહ મણીલાલ લક્ષ્મીચંદના સ્મરણાર્થે તેમના પુત્ર તરફથી હા. ખીમચંદભાઈ સ્વ. શેઠ હરીલાલ પ્રભુદાસના સ્મરણાર્થે હિ. શેઠ અનુભાઈ હરીલાલ સંઘવી જેચંદભાઈ નારણદાસ સ્વ. શાહ વેલશીભાઈ સાકરચંદના સ્મરણાર્થે હા ચીમનલાલ વેલશી કત્રાજવાળા શાહ પિોચાલાલ પીતામ્બરદાસ પારેખ મણલાલ ટેકરશી લાતીવાળા તરફથી મેટીબેનના સ્મરણાર્થે શાહ નારણદાસ નાનજીભાઈના સુપુત્ર વાડીભાઈનાં ધર્મપત્ની અ. સો. નારંગીબેનના વરસીતપ નિમીતે હ. શાંતીભાઈ શાહ પિટલાલ મેહનલાલ શેઠ પ્રેમચંદ સાકરચંદ લાલા પુરણચંદજી જૈન (સેન્ટ્રલ બેંકવાલા) સ્વ. છબીલદાસ ગોકળદાસના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્નિ કમળાબેન તરફથી હા. મંજુલાકુમારી શાહ રતીલાલ વાડીલાલ શેઠ લાલભાઈ મંગળદાસ અ. સો. કમળાબેન તે કામદાર ગોરધનદાસ મગનલાલનાં ધર્મપનિ (વઢવાણુવાળા) વેરા ડેસાભાઈ લાલચંદ સ્થા. જૈન સંઘ હા. વેરા નાનચંદ શીવલાલ વીરમગામ ૨૫૧. અમદાવાદ ર૫૧ વિરમગામ ૨૫૧ વીરમગામ ૨૫૧ ૨૫૦ ૩૫૧ ૨૫૧ અમદાવાદ અમદાવાદ દીલ્હી ૨૫૧ ૨૫૧ વીરમગામ અમદાવાદ અમદાવાદ ૨૫૧ રંગુન ૨૫૧ વઢવાણ શહેર Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૫૧ ૨૫૧ ૫૧ ૫૧ ૩૧ ૨૫૧ ૧૦ વેશ ધનજીભાઈ લાલચંદ્ર સ્થા. જૈન સંધ હા. વારા પાનાથદ ગાગરદાસ સ્વ. અમૃતલાલ વમાનના સ્મરણાર્થે હા, કહાનજીભાઈ અમૃતલાલ દેશાઈ શ્રી વીરમગામ સ્થા. જૈન શ્રાવિકા સઘ સ્વ. ત્રિભાવનદાસ દેવચંદ તથા સ્વ. અ. સૌ, ચંચળબેનના સ્મરણાર્થે હા, ડોકટર હિંમતલાલ સુખલાલ શાહે મુલચંદ્ર કાનજીભાઇ તરફથી હા. શાહ નાગરદાસ એઘડભાઈ શેઠ ઐહનલાલ પીતાંબરદાસ હા. ભાઇ કેશવલાલ તથા મનસુખલાલભાઈ શાહ રતનશી મેણુશીની કાં. ભાવસાર ભોગીલાલ જમનાદાસ શાહ શીવજી માણેકભાઇ શાહે લુણાજી ગુલામચ ંદ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. શાહુ પ્રેમચંદ દલીચંદ શાહુ કુંવરજી શુલાખચ દ શાહુ પાનાચંદ સંઘજીભાઇ હા. ત્રકલાલ રતીલાલ શાહે અમુલખભાઈ મુળજી હા. પ્રકાશચંદ્ર અમુલખ સ્વ. એન ચંદ્રકાંતાના સ્મરણાર્થે` હા. અમુલખ મુળજીભાઈ સ્વ. પદમશી સુરચંદના સ્મરણાર્થે હા. શીવલાલ પદ્દમશી શાહ ગળદાસ શામજી ઉદાણી પાટવીયા ગીરધરલાલ પ્રમાણ દ હા, અમીદ ગીરધરલાલ શ્રીમતિ અ. સૌ. બેન ચંદ્રાવતી તે શ્રીમાન અહાતલાલજી નાહેરનાં ધમ નિ. હા. શેઠ રણજીતલાલજી હીગઢ છાજેડ ઘાસીરામ ગુલામચંદ મહેતા પ્રભુદાસ મુળજીભાઈ શ્રીમતી હીરાબેન નથુભાઈના વરસીતપ નીમીત્તે હા. નથુભાઈ નાનચંદ શાહુ સ્વ. મણિયાર પરસેતમ સુંદરજીના સ્મરણાર્થે હા, સાફરચંદ પરસાતમ વઢવાણ શહેર વીરમગામ વીરમગામ વીરમગામ મુખ′ અમદાવાદ મેરાઝા (કચ્છ) સજેલી (પંચમહાલ) સજેલી (પંચમહાલ) લીમડી (પંચમહાલ) સ્વ. શેઠ વીરચંદભાઇ જેસીંગ લખતરવાળાના સ્મરણાર્થે હા. કેશવલાલ વીરચંદ શેઠે અમદાવાદ વીરમગામ મુંબઈ હારીજ હારીજ ભેંસાણા એડન કેમ્પ ખાખીનનીયા ઉદેપુર મુંબઇ લીમડી (પંચમહાલ) ધારાળ વીરમગામ વીરમગામ Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૭૭ અમદાવાદ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ શેઠ મણીલાલ શીવલાલ વિરમગામ શાહ ત્રીભોવનદાસ ભગવાનજી પાનેલીવાળા જામજોધપુર શાહ નટવરલાલ ચંદુલાલ અમદાવાદ શાહ ત્રીભવનદાસ છગનલાલ ગોધરા શાહ નરસીદાસ ત્રીભોવનદાસ અમદાવાદ બીપીનચંદ્ર તથા ઉમાકાંત ચુનીલાલ ગોપાણી હા. ગોપાણી ચુનીલાલ માણેકચંદ રાણપુર શ્રી શાહપુર દરીયાપુરી આઠ ટી સ્થા. જૈન ઉપાશ્રય હા. વહીવટ કરનાર શેઠ ઈશ્વરદાસ પુરૂષોત્તમદાસ અમદાવાદ શ્રી છીપાળ દરીયાપુરી આઠ ટી સ્થા. જૈન સંઘ હ. શેઠ ચંદુલાલ અમૃતલાલ અમદાવાદ શ્રી સ્થાનકવાસી છકેટી જેન સંઘ હા. મહેતા ચુનીલાલ વેલજી માંડવી (કચ્છ) વકીલ મણીલાલ કેશવલાલ શાહ વડોદરા વોરા મણીલાલ પિપટલાલ શાહ ચીનુભાઈ બાલાભાઈ દo શાહ બાલાભાઈ મહાસુખરામ અમદાવાદ શાહ ભાઈલાલ ઉજમશી અમદાવાદ સ્વ. કેશવલાલ મુળજીભાઈનાં ધર્મપત્ની, સ્વ. અમૃતબાઈના સ્મરણાર્થે હા. ભાઈલાલ કેશવલાલ થાનગઢવાળા સુરેન્દ્રનગર પુરીબેન ચીમનલાલ કલ્યાણજી સંઘવી લીમડીવાળાના સ્મરણાર્થે હા. વાડીલાલ મેહનલાલ કોઠારી સાણંદ પારેખ નેમચંદ મોતીચંદ મુળીવાળાના સ્મરણાર્થે હા. ભીખાલાલ નેમચંદ સાણંદ સંઘવી નારણદાસ ધરમશીના સ્મરણાર્થે હા. જયંતીલાલ નારણદાસ સાણંદ શા. પ્રવિણચંદ્ર નરસીદાસ સાણંદવાળા બેડલી (ગુજરાત) માસ્તર જેઠાલાલ મનજીભાઈ હ. મહેતા અમૃતલાલ જેઠાલાલ સીવીલ ઈનજીનીયર સાહેબ લાખેરી (રાજસ્થાન) શ્રી સુખલાલ ડી. શેઠ હા. ડે. કુ. સરસ્વતી બહેન શેઠ અમદાવાદ શ્રી સૌરાષ્ટ્ર સ્થા. જૈન સંઘ હા. શાહ કાંતીલાલ જીવનલાલ સ્વ. શેઠ કબુલાલજી લેઢાના સ્મરણાર્થે હ. શેઠ દેલતસિંહજી લેઢા ૨૫૧ ૨પ૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ અમદાવાદ ૨૫૧ ઉદેપુર Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૨૫૧ માનકુવા (કચ્છ) અમદાવાદ, અમદાવાદ ૨૫ ૨૫૧ ઉદેપુર ૨૫૧ અમદાવાદ ૨૫૧ વઢવાણ શહેર ૨૫૧ વઢવાણ શહેર ૨૫૧ સ્વ. મહેતા કુંવરજી નાથાભાઈના સ્મરણાર્થે હા તેમનાં ધર્મપત્નિ કુંવરબાઈ હરખચંદ તરફથી (માનકુવા સ્થા. જૈન સંઘને માટે) મેદી નાથાલાલ મહાદેવદાસ શાહ મેહનલાલ ત્રિકમદાસ સ્વ. શેઠ પ્રતાપમલજી રાખવાના સ્મરણાર્થે હ. પ્રાણલાલ હીરાલાલ સાખલા શ્રી કેદી સ્થા. જૈન સંઘ હા, શાહ પિચલાલ પીતામ્બરદાસ દેશી વીરચંદ સુરચંદ હા. દેશી નાનચંદ ઉજમશી સવ, વેરા મણીલાલ મગનલાલ હિ. વોરા ચત્રભુજ મગનલાલ શાહ પિટલાલ હંસરાજના સ્મરણાર્થે હા. શાહ બાબુલાલ પિપટલાલ શાહ કુંવરજી હંસરાજ દેશાઈ અમૃતલાલ વર્ધમાન પેદરાવાળા હા, ભાઈલાલ અમૃતલાલ દેસાઈ દેશાઈ અમૃતલાલ વર્ધમાન બે પેદરાવાળા હા. દલીચંદ અમૃતલાલ દેશાઈ શાહ સાકરચંદ મેહનલાલ શાહ નવનીતલાલ અમુલખરાય શાહ મણીલાલ આશારામ શેઠ ચીનુભાઈ સાકરચંદ અ. સ. ચંપાબેન ગોસલીયા હા. ગેસલીયા હરીલાલ લાલચંદ શ્રી વટામણ સ્થા. જૈન સંઘ હા. શ્રી ડાહ્યાભાઈ હલુભાઈ અમદાવાદ ૨૫૧ મુંબઈ ૨૫૧ અમદાવાદ રપ૧ ૨પ૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ મુંબઈ ખંભાત અમદાવાદ અમદાવાદ અમદાવાદ ૨૫૧ અમદાવાદ ૨૫૧ વટામણ ળકા) કુલ મેમ્બરની સંખ્યા ૪ આદ્ય મુરબ્બીશ્રીઓ ર૦૩ પ્રથમ વર્ગના મેમ્બરે ર૦ મુરબ્બીશ્રીએ ૮૭ બીજા વર્ગના મેમ્બરે ૨૧ સહાયક મેમ્બરે ૩૩૫ કુલ્લ મેમ્બરે (બીજા વર્ગને સદંતર બંધ કરવામાં આવેલ છે) Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના ટુંક પરિચય..... જૈન સમાજ અને ખાસ કરીને શ્રી સ્થા, જૈન સમાજ માટે ગૌરવને વિષય છે કે આગમેાદ્ધારક પૂજ્ય આચાર્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ જેવા પ્રખર વિદ્વાન સમાજમાં અગ્રસ્થાને ખીરાજે છે. તેમની અદ્ભુત સ્મરણ શક્તિ તેમજ વિદ્વતાના લાભ સમાજને મળી શકે તેવા ઉચ્ચ આશયથી તેઓશ્રી પાસેથી ત્રીસ આગમાના જુદી જુદી ભાષાના અનુવાદ આ સમિતિ કરાવી રહી છે, અને વીર-વાણીને ખ રસ આજના સમાજને આપી રહી છે, અને ભવિષ્યની પેઢી દર પેઢી માટે ખરા વારસા અનામત મૂકવાનું મહદ્ કાર્ય કરી રહી છે. છેલ્લાં તેર વર્ષ થયાં આ સમિતી શાસ્ત્રોના પ્રાકૃત-સ ંસ્કૃત-હિન્દી અને ગુજરાતી ભાષામાં અનુવાદો તૈયાર કરાવી છપાવવાનું કાર્ય કરી રહી છે અને તે કાર્યને સૌરાષ્ટ્રની, ગુજરાતની અને હિન્દના જુદા જુદા ભાગની જનતાએ તનમન અને ધનથી સહકાર આપ્યા છે. અને હજુ અસ્ખલિત પ્રવાહ મદને માટે ચાલુ છે જેથી સમિતિના કાર્ય વાહકા કાર્યને હીંમતથી આગળ ધપાવી રહ્યા છે. ખાલી લાંબી વાત કરનારા કે ચાજનાએ કે ઠરાવેા કરી બેસી રહેનારાએ માટે લેકને આ જમાનામાં વિશ્વાસ રહે તેમ નથી, સમાજ માગે છે રચનાત્મક કાર્ય, સ્થા. જૈન સમાજ માટે, અત્યાર સુધી શ્રીકલ્પ સૂત્ર જેવું અગત્યનું મહાન સૂત્ર કોઇ પણ મહાત્માએ તૈયાર કરેલ નથી જે મહદ્ કાર્ય પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજે પેતાની અખુટ જ્ઞાન શકિતથી અનેખી રીતે તૈયાર કરી સમાજ સમક્ષ રજુ કર્યું છે અને આપણે આપણી અપૂર્ણતાને પૂર્ણ કરી દીધી છે જે મહાન ઉપકાર કોઈ કાળે ભૂલી શકાય એમ નથી. પૂજ્યશ્રીની તખીયત વૃદ્ધાવસ્થાને કારણે નરમ ગરમ રહ્યા કરે છે તે છતાં શાસ્ત્રોદ્ધારનું કાર્ય જુદા જુદા સ્થળાએ વિહારમાં પણુ સતત ચાલુ જ રાખી રહ્યા છે, જી ખાકીનાં શાઓ લખવાનું કાર્ય પાંચથી સાત વર્ષ સુધીનું બાકી છે. આ અપૂર્ણ કા Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪ ઝડપી બનાવવાને માટે સમિતીએ નિણય લીધા છે અને તે મુજબ અમદાવાદમાં જ પૂજ્યશ્રીને આ કાર્ય પૂર્ણ કરવા માટે સ્થીરવાસ બિરાજવાને વિનંતી કરવામાં આવી છે અને તે પ્રમાણે હાલમાં જ વીરમગામથી વિહાર કરી તેએશ્રી સરસપુરના ઉપાશ્રયે પધારી આ કાર્ય આગળ ધપાવશે. શાસ્ત્રો છપાવવાનું કાર્ય માટે ભાગે અમદાવાદમાંજ છે. પૂજ્યશ્રી અમદાવાદમાં ખીરાજશે તેથી પંડીતે પણ ત્યાંજ હશે જેથી મુક્ તપાસવાનું તેમજ છાપવાનું કાર્ય પણ ઝડપી બનશે. અમદાવાદ આ કાર્ય માટે વધુ સગવડતાવાળુ સમિતીને જોવામાં આવ્યું છે કારણ કે ત્યાં પૂજ્ય આચાર્યશ્રી ઈશ્વરલાલજી મહારાજ સ્થીરવાસ બિરાજે છે અને તેઓશ્રીના આ કાર્યોંમાં પૂર્ણ સહકાર છે તે ઉપરાંત સમિતીના પ્રમુખ મહાશય શેઠ શાંતિલાલભાઈ ત્યાંજ હાવાથી અવારનવાર સલાહ સૂચના મેળવી શકાય. આ સિવાય ત્યાંના દરેક સંધના અગ્રેસરાના સંપૂર્ણ સહકાર મળી રહ્યો છે. શેઠ ઇશ્વરલાલ પુરૂષેત્તમદાસ, શેઠ કાંતિલાલ જીવણુદાસ, શેઠ ભેગીલાલ છગનલાલ, શેઠ પોપટલાલ મોહનલાલ, શેઠ પાચાલાલ પીતામ્બરદાસ, શૈઠ ચ ુલાલ અમૃતલાલ, શેઠ લાલભાઈ મંગળદાસ, શેઠ ચંદુલાલ છગનલાલ અને ગાસલીઆ હરીલાલ લાલચંદ વીગેરે અગ્રેસરોની આ કાર્ય માટે જે ધગશ જોવામાં આવે છે તે નેતાં અમદાવાદ કાર્યો સફળ રીતે પાર પાડશે તેમ અમેને સંપૂર્ણ શ્રદ્ધા છે. સમિતીએ છેલ્લા અઢી વર્ષ થયાં વ્યવસ્થિત કાર્ય કરવા માટે રાજકેટ મુકામે રીતસરની એડ્ડીસ ખેલી છે અને જેના મંત્રી તરીકે શ્રી સાકરચંદ ભાઈચંદ્ર શેઠ તમામ કાર્યો સભાળી રહ્યા છે. હાલની પ્રગતિ કેટલી ઝડપથી કેટલી આગળ વધી રહી છે તે નીચેના આંકડાઓ જોવાથી ખાત્રી થઈ શકશે ૧૦ વર્ષની આખરે મેમ્બરાની સખ્યા ૧૧મા વર્ષની આખરે 23 ૧રમા તા. ૩૦-૪-૫છના રાજ ૧૦ વષઁની આખરે સમિતી પાસે લગભગ રૂા. ૬૦૦૦ની સીલીક હતી. જે સૂત્રાની છપાઇ કાગળ તેમજ પગાર ખર્ચ વીગેરે જતાં અત્યારે રૂા. ૨૧૦૦૦ સીલીક છે. * 21 31 "" "" 17 * 13 ૧૬૮ ૨૩૭ ૩૩૫ Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આપ આ સમિતિના કાર્યમાં કઈ રીતે .. ...... ... મદદગાર થઈ શકે ? રૂ. 5000 ઓછામાં ઓછા આપીને સંસ્થાના આદ્ય મુરબ્બીશ્રી તરીકે મુબારક નામ લખાવી શકે છે, આપને ફેટે તથા આપનું જીવનચરિત્ર શાસ્ત્રમાં છાપવામાં આવે છે. રૂા. 3000] ઓછામાં ઓછા આપીને આપના વડીલના સ્મરણાર્થે એક શાસ્ત્ર આપના નામથી છપાવી શકે છે સમીતિને એક શાસ્ત્ર છપાવવામાં લગભગ રૂા. 6000 થી રૂા. 8000 ખર્ચ થાય છે. તેમ છતાં ત્રણ હજારમાં આપને નામે શાસ્ત્ર બહાર પાડવામાં આવશે. રૂ. 251, ઓછામાં ઓછા આપીને લાઈફ મેમ્બર તરીકે આપનું નામ દાખલ કરાવી શકે છે આપને 32 સૂત્રે તથા તેના તમામ ભાગે મત મળી શકે છે. (રૂા. પ૦૦ ની કીંમતનાં શાસ્ત્રો હતે હફતે આપને મળી શકે છે.) સ્થાનકવાસી સમાજમાં આ એક જ સંસ્થા શાસ્ત્રો ચાર ભાષામાં પ્રગટ કરીને સર્વ ઉપગી વાંચન રજુ કરે છે આપને જ્યારે કે શાસ્ત્રની જરૂર હેય ત્યારે તેમજ કઈ સાધુ મુનીરાજને વહોરાવવાની ઈચ્છા હોય ત્યારે શાસ્ત્ર બીજેથી નહિ મંગાવતાં આ સમિતિ પાસેથી મંગાવી લેવા વિનંતી છે. એક અપીલ ! 1 દીક્ષા પ્રસંગે. 2 વરસીતપ અને બીજી તપશ્ચર્યાઓનાં પારણું પ્રસંગે. 3 મહાવીર જયંતી, પર્યુષણ, તથા દિવાળી જેવા તહેવાર પ્રસંગે. 4 લગ્ન પ્રસંગે. 5 પુત્ર જન્મની ખુશાલીમાં. 6 વડીલના સ્મરણાર્થે તેમની તિથી પ્રસંગે. તેમજ બીજા સર અવસરે બનતી મદદ આ સંસ્થાને મેકલવા ખાસ નેધ રાખશે.