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श्रीदशवकालिको सान्वयार्थ:-जहा जैसे, भमरो मारा, दुमस्स-क्षके पुप्फेसु-फूलोंमें (रहे हुए) रसरसको आवियह-मर्यादानुसार पीता है, य-और पुष्प-फूलको ण कीलामेइ-पीडित नहीं करता है, अतोभी सोबह मौरा अप्पयं-अपनेको पीणेइ सन्तुष्ट कर लेता है । अर्थात्-जैसे भौंरा अनेक क्षोंके फूलोंसे थोड़ा थोड़ा रस उचित मात्रामें लेता है, ऐसा करनेसे वह सन्तुष्ट भी होजाता है और फूलोंकोभी फट नहीं देता ॥ २ ॥
टीका-यथा भ्रमरः-भ्राम्यति एकत्र नावविप्ठत इति भ्रमरम्म्चतुरिन्द्रियजातिमान् भृङ्गपर्यायवाच्यः माणिविशेपः । द्वमस्य, जात्येकत्वादेकवचनम्, 'सा गच्छति' इत्यादिवत् , तेन द्वमाणामित्यर्थः, मपदेन योगमर्यादया लतादीनामपि ग्रहणं वोद्धव्यम् , पुप्पेपु स्थितमित्यस्याध्याहारः, रसम्मकरन्दम् आपिवति आ-मर्यादा-पूर्वकम् उचितादधिकं परित्यज्य पियति पानविषयं करोति, अल्प गृहातीति भावः । चकारी हेत्वर्थे, तेन-च-अत एव पुष्पं न कामयति-नं पांड: यति-लेशवोऽपि न म्लानयतीति यावत् , च-किञ्च सा-भ्रमरः आत्मानस्व मीणाति-तोपयतीत्यर्थः ।
पुष्पाणि तु द्रुमलतादीनामेव भवन्ति पुन?मपदोपादानम्-यथा भ्रमरः सर्वे पामेव गुमलतादीनां पुप्पेपु रसमापियति न चोचनीचादिभेदभाव रक्षति 'वृक्षोऽय
जैसे भ्रमर, भ्रमण करके अनेक वृक्ष लता आदिकोंके पुष्पोंका थोडा२ रस मर्यादासे लेता है, अधिक नहीं, यानी ऐसा कि किसीकामा पीडा न देते हुए वह अपनी आत्माको तृस कर लेता है।
प्रश्न-वृक्ष और लताओंमें ही फूल होते हैं फिर हुम (वृक्ष) शब्द देनेका क्या अभिप्राय है ।
उत्तर-जैसे भौंरा सभी वृक्षों और लताओंके फूलोंका रस पीता है, ऊंच-नीच भेद-भाव नहीं रखता कि-इस वृक्षमें कम फूल हैं आर
જેમ ભ્રમર બ્રમણ કરીને અનેક વૃક્ષ લતા આદિનાં પુષ્પને થે છેડે રસ મર્યાદાપૂર્વક લે છે, વધુ લેતું નથી, અને એવી રીતે લે છે કે કોઈ પણ પુષ્યને જરાએ પીડા થાય નહિ; એમ તે પિતાના આત્માને તૃપ્ત કરી લે છે.
प्रश्न-वृक्ष भने सतामा ५२ १ यूटा थाय छ, ते जी द्रम (११) शws કહેવાને હેતુ છે.
ઉત્તર–જેમ ભમરે બધાં વૃક્ષે અને લતાઓનાં ફૂલેનો રસ પીએ છે, 62-नयना सहसाब समता नया 8-40 वृक्ष ५२ मा
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