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________________ २२० श्री कामिक पदम् तंत्र तृणादिर्मादीनि लताः चम्पकाशीवासस्यादयः, वनस्पति फायिकाः- वनस्पतिकाय भेदाः - अग्रवीजादयः सर्वेऽपि वनस्पतिकायिका एवं पुनर्वनस्पतिकायिकग्रहणं स्वगतसूक्ष्मादिफलभेदरूपानार्थम् । स्वबीजापूर्ण विहितस्वस्वनामगोत्रप्रत्युद्यात्मक कारणत्रन्तः, अर्थात् पूर्वोक्ता अग्रवीजाद esi feedः) इत्यादीनां व्याख्या पूर्ववत् । इति पञ्चस्था कार्यनिरूपणम् ॥५॥ कार्यस्वरूपमाद' से जे० ' इत्यादि । सम्मर्त क्रममा मूलम् - से जे पुण इमे अणेगे बहवे तसा पाणा, तंजहा- अंडया पोयया जरायुयां रसया संसेइमा समुच्छिमा उच्भिया उववाइया । ( दूब आदि) तृण, चम्पक, अशोक और वासन्ती आदि लताएँ और areers भेद अग्रवोज आदि सर्व वनस्पतिकायिक है । सूत्रमें दूसरी बार 'वनस्पतिकायिक' पदका ग्रहण इसलिए किया है कि - ऊपर बताये हुए भेदोंके सिवाय सूक्ष्म पादर आदि और भी समस्त भेदोंका ग्रहण होजावे | ये सब पहले दिखलाये हुए अपने अपने नाम - गोत्ररूप प्रकृतिके उदयरूप कारणवाले है । अर्थात् पूर्वोक्त बीज आदि सब सचित्त हैं और पृथक-पृथक स्पर्शरूप एक इन्द्रियवाले हैं ॥ ५ ॥ यह पांच स्थावरकायका निरूपण समाप्त हुआ । अय क्रमप्राप्त प्रेसकार्यका स्वरूप कहते हैं- 'से जे' इत्यादि । તૃણુ, ચ પંક, શેક, અને વાસતી આદિ ‘લતાએ અને વનસ્પતિકાયના ભેદ અગ્ર બીજ દિ ણધાં વનસ્પતિયિક છે. સૂત્રમાં બીજી વાર વર્નસ્પતિકાયિક’ શબ્દનું ગ્રહણ એટલા માટે કરવામાં આવ્યું છે કે—ઉપર અતાવેલા ભેદે ઉપરાંત સૂક્ષ્મ બોદર આદિ ખીજા પણ બધા ભેદોનું ગ્રહણ થઈ જવા પામે. એ અધા પહેલાં મત્તાયેલા પાત- પેાતાનાં નામ – - गोत्र-श्य अद्धतिना उदय - ३५ अरवाजा छे, અર્થાત્ પૂર્વોક્ત ખીજ આદિ બધાં ચિત્ત છે અને પૃથક પૃથક સ્પર્શરૂપ એક इन्द्रियवाणां छे. (च) धति पथ - स्थावर - अयनुं निश्चायु समाप्त, ये सायनुं स्व३५ ४ छे :- से जे धत्याहि.
SR No.009362
Book TitleDashvaikalika Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1957
Total Pages725
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size21 MB
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