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अध्ययन १ गा.१ अहिंसासंयमतपोविवेकः
रक्षकाविवाऽहिंसावतस्य संरक्षके। यद्वा एतवयस्याहिंसापरिपोषकतया पृथक्निर्देशः संगच्छते । - अन्यच्च अहिंसा माणव्यपरोपणनिवृत्तिप्रधाना, संयमस्तु श्रोत्रादीन्द्रियनिग्रहप्रधान इति महद्वैलक्षण्यमुपलभ्य पृथनिर्देशः । तपसो वैलक्षण्यं तु न कस्यचित् संशयगोचरः स्वरूपत एव परस्परं भेदार , तथाहि-अहिंसा नाम स्वतः परतो चा माणव्यपरोपणनित्तिकरणं, तपस्तु क्षुत्पिपासाशीतोष्णादिसहिष्णुत्वरूपमिति । राजाके आत्मरक्षकोंकी तरह अहिंसाव्रतके रक्षक है, जबतक संयम और तप न हों तबतक अहिंसाका सम्यक पालन नहीं हो सकता।
एक समाधान औरभी है-अहिंसामें प्राणोंके व्यपरोपणकी निवृत्तिकी ' प्रधानता है, और संयममें श्रोत्र आदि इन्द्रियोंके निग्रहकी प्रधानता है।
इस प्रकार इनमें कितनी ही प्रकारकी बड़ी २ विशेषताएँ देखकर सूत्रकारने पृथक् कथन किया है। तपके स्वरूपमें तो इतना भेद है कि किसीको सन्देह हो ही नहीं सकता। अपने या दूसरेके द्वारा प्राणव्यपरोपणकी निवृत्ति करनेको अहिंसाकहते हैं, और क्षुधापिपासा शीत उष्ण आदिको सहन करना तप कहलाता है । . प्रश्न-भगवान्ने अहिंसा संयम और तप इन तीनोंमें नाई अन्तमें क्यों कहा? આત્મરક્ષકની પિઠે અહિંસાવ્રતના રક્ષક બને છે. જ્યાં સુધી ? ન થાય ત્યાં સુધી અહિંસાનું સમ્યફ પાલન થઈ શકતું નથી.
मे समाधान भी पर छे. मसि प्रति નિવૃત્તિની પ્રધાનતા છે. અને સંયમમાં શ્રોત્ર આદિ ઇતિ દક એ રીતે એમાં અનેક પ્રકારની મેટી મેથી દા . १३४ ४थन यु छ. तपना स्१३५मां तो यह
नडि. पाताना अथवा मानना HE १२वी तेने महिंसा डे छ, भने भूम * as a त५ उपाय छे.
प्रश्न-भगवाने मडिया, यर કેમ કહ્યું ?