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________________ ४९८ श्रीदशवकालिको ॥ अथ पञ्चामाध्ययनस्य द्वितीय उदेशः ॥ प्रथमोद्देशकथितपिण्डैपणाया अपशिष्टविधिमाद-पडिग्गह' इत्यादि । मूलम्-पडिग्गहं संलिहित्ताणं, लेवमायाइ संजए । दुगंधं वा सुगंधं वा, सर्व भुंजे न छड्ए ॥१॥ छाया-प्रतिग्रहं संलिा, लेपमर्यादया संयतः । दुर्गन्धं या सुगन्धं वा, सर्व भुञ्जीव न मुश्चेत् ॥१॥ सान्वयार्थ:-पडिग्गह-पानेको लेवमायाए लेपकी मर्यादासे अर्थात् जब तक छांछ मादिका लेप लगा रहे तब तक संलिहिताणं अंगुलीसे पोछकर संजए साधु दुगंधं वा-अनिए गन्धवाला हो चाहे सुगंध वा-सुरभि गन्धवाला पदार्थ हो उस सवं-सबको मुंजे-भोगवे; किन्तु न छड्डए-कुछभी न छोड़ेजूठन न डाले ॥१॥ टीका-प्रतिग्रह-पात्रं लेपमर्यादया लेपं मर्यादीकृत्य यथा लेपसम्बन्धः पात्रे नावतिष्ठेत तथा संलिह्य पात्रस्थं तकादिलेपमङ्गल्यादिना निश्शेष प्रोम्छ्य संयतः मुनिः, दुर्गन्धम् अनिष्टगन्धयुक्तं पुरातनगोधूमवर्जरिकावल्लचणकादि ।पांचवाँ अध्ययनका दूसरा उद्देश । प्रथम उद्देशमें कही हुई विधिके अतिरिक्त-अवशिष्ट पिण्डेषणाकी विधि इस दूसरे उद्देशमें कहते हैं-'पडिग्गह' इत्यादि । आहार करनेके पात्र में जो लेप लगा रह जाय उसे अंगुली-आदि द्वारा पोंछकर मुनि अमनोज्ञ गन्ध या मनोज्ञ गन्धवाले समस्त अन्न पानको भोगे; उसे छोड़े नहीं, अर्थात् सीथ मात्र भी जूठा न डाले। पुरान गेहूँ, बाजरे, बाल, चने आदिकी बनी हुई ठंडी या गर्म रोटी आदि अन्न, ययन पायभु-देश भीन्न. પ્રથમ ઉદેશમાં કહેલી વિધિ ઉપરાંત વિશિષ્ટ પિંડેષણની વિધિ આ भी देशमा छ-पडिगगई यादि. આહાર કરવામાં પાત્રમાં જે લેપ લાગેલ રહી જાય, તેને આંગળી આદિ વડે લૂછીને મુનિ અમનેસ ગંધ યા મનેણ ગંધવાળા બધા અન્નપાનને ભેગને, તેને છેડે નહિ, અર્થાત્ જરા પણ બાકી ન રાખે. જૂના ઘઉં, બાજરી, વાલ,
SR No.009362
Book TitleDashvaikalika Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1957
Total Pages725
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size21 MB
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