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अध्ययन ५ उ. १ गा. ६७-६९-मालाहतभिक्षानिपेधः
४५९ परायणता प्रतिपादिता । 'भिक्खु' पदेन च यमनियमपूर्वकमेव भिक्षाग्राहित्वमिति बोधितम् ॥ ६५ ॥ ६६ ॥
मूलम्-निस्सेणिं फलगं पीढं, उस्सविताणमारुहे।
मंचं कीलं च पासायं, समणहाए व दावए ॥६७॥
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रमाणीप
डेजा, हत्थं पायं च लूसए। पुढवीजीवेवि हिंसेजा, जे य तन्निसिया जगे ॥६॥ एयारिसे महादोसे, जाणिऊण महेसिणो।
રપ ૩૧ ૩૨ ૩૩ ૩૪ ૨૯ तम्हा मालोहडं भिक्खं,न पडिगिण्हंति संजया॥६९॥ छाया-निश्रेणि फलक पीठम्, उत्सृज्य आरोहेत् ।
मञ्चं कीलञ्च प्रासाद, श्रमणार्थमेव दायिका ॥६७॥ दुरा (द) रोहन्ती प्रपतेत , हस्तौ पादौ च लूपयेत् । पृथ्वीजीवानपि हिंस्या,-धानि च तन्निाश्रितानि जगन्ति ॥६८॥ एतादृशान्महादोपान् , ज्ञाला महर्षयः ।
तस्मान्मालापहृतां भिक्षां, न गृह्णन्ति संयताः ॥६९॥ सान्वयार्थः-दावए दान देनेवाली स्त्री यदि समणट्ठा एव-साधुके लिएही निस्सेणि-नसनी-निसरणी-सीढी फलगं-पाटे पीढं-पीढे मंच-खाट च और कोलंकीलेको उस्सचित्ताणं-ऊंचा-खड़ा करके पासायंभ्यासाद-मंजिल पर आरुहे-चढे तो दुरूहमाणी इस प्रकार कष्टसे चढती हुई वह पवडेज्जा-शायद गिर जायगी व और अपना हत्थं हाथ पाय-पैर लसए-तोड़ बैठेगी तथा पुढवीजीवे अवि-पृथिवीकायके जीवोंको भी च और जेम्जो तन्निस्सियाउस पृथ्वीकी नेसरायमें रहे हए जगे-द्वीन्द्रियादि जीव हैं उन्हें भी हिंसेज्जा मारेगी ॥६७॥६८॥ प्रकट किया गया है कि साधुओंको इन्द्रिय-चपलताका त्याग करना चाहिये । 'भिक्खु' पदसे घोतित किया गया है कि साधुओंको यमनियमाका पालन करते हुए ही भिक्षा ग्रहण करना चाहिये ॥६५॥६६॥ छन्द्रिय असताना त्यास १२ न. भिक्खु शपथी मेम प्रट ४२वामा આવ્યું છે કે સાધુઓએ યમ-નિયમનું પાલન કરતાં જ ભિક્ષા ગ્રહણ કરવી