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________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ५-विपममार्गगमने विराधना __ ३८३ तत्र गच्छतो हानिमाह-'पवडते' इत्यादि । मूलम्-पवडते व से तस्थ, पक्खलंते व संजए। हिंसेज पाणभूयाई, तसे अदुव थावरे ॥५॥ . छाया-प्रपतंश्च स तत्र, प्रस्खलॅच संयतः। हिस्यात्माणभूतानि, असान् अथवा स्थावरान् ॥५॥ पूर्वोक्त मार्गसे जाने में दोप बताते हैं सान्वयार्थ:-से-उस मार्गसे जानेवाला वह संजए-साधु चयदि तत्यवहां पवडते-गिर जाय व अथवा पक्खलंते रपट पड़े तो तसे त्रस-द्वीन्द्रियादि अदुव अथवा थायरे स्थावर-पृथिव्यादि पाणभृयाईम्भाणी भूतोंकी हिंसेजा- हिंसा करे। अर्थात् ऐसे मार्ग में जानेसे साधुको आत्म और संयम दोनोंकी विराधनाका संभव है ॥५॥ टीका-तत्र तस्मिन् अवपातादौ प्रपतन प्रस्खलॅश्च स संयतम् साधुः प्रसान्द्वीन्द्रियादिलक्षणान् , स्थावरान् पृथिव्यायेकेन्द्रियान्, अथवा माणभूतानिअसस्थावरोभयविधान प्राणिनो हिस्यात्म्मदयेत् पीडयेदिति यावत् । पतनादिना चाऽऽत्मविराधनाद्यपि नियतं भावीति भावः ॥५॥ मार्ग न हो तो यह निषेध नहीं है-अर्थात् अन्य मार्गके अभावमें ऐसे मार्गसे भी जा सकते हैं ॥४॥ ऐसे मार्गमें चलनेसे होनेवाली हानि बताते है-'पवडते' इत्यादि। यदि अवपात आदि पूर्वोक्त मागामें गमन करनेसे गिर पडे या रपट जावे तो दीन्द्रिय आदि त्रस या पृथिवीकायिक आदि स्थावर जीवोंकी अथवा दोनों प्रकारके जीवोंकी हिंसा होती है तथा गिरने आदिसे आत्मविराधना भी अवश्य होती है ॥५॥ તે એને નિષેધ નથી–અર્થત અન્ય માર્ગને અભાવે એવા માર્ગથી પણ જઈ शय छे. (४) मेवा भाभा बालवायी थनारी पनि ताये छ- पचडते. त्याह. જે અવત આદિ પૂકત માર્ગોમાં ગમન કરવાથી પડી જાય ત્યાં લયસી જાય તે દીન્દ્રિયદિ બસ યા પૃથ્વીકાયિક આદિ સ્થાવર જીની અથવા બેઉ પ્રકારના જીવોની હિંસા થાય છે, તથા પડવાથી આત્મવિરાધના પણ અવશ્ય थाय छे. (५)
SR No.009362
Book TitleDashvaikalika Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1957
Total Pages725
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size21 MB
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