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________________ अध्ययन ५ उ. २ गा. १२-१३-भिक्षार्थ गृहप्रवेशविधिः .. छाया-वनीपकस्य वा तस्य, दायकस्योभयो । .. . अमीविकं स्याद् भवेत, लघुत्वं प्रवचनस्य वा ॥१२॥ पूर्वोक्त विधिके अपालन में दोप बताते हैं सान्वयार्थः-(ऐसा न करनेसे) सिया कदाचित्-शायद तस्स-उस वणीमगस्स-श्रमणादि वनीपक पर्यन्तको वा अथवा दायगस्सन्दाताको वा-या उभयस्स-दोनों-दाता और याचक-को अप्पत्तिय अपीति-द्वेप या मनमें खेद हो जाती है, वा और पवयणस्स-जिनशासनकी लहुत्त लघुता हुज्जा होती है॥१२॥ टीका-स्यात् कदाचित् बनीपकस्य याचकविशेषस्य वा अथवा तस्य= श्रमणादेः, दायकस्य दातुर्वा, उभयोः दाव-याचकयोर्वा अप्रीतिक द्वेपः, मन:खेदो वा भवेत्, प्रवचनस्य-जिनशासनस्य लघुत्वं लघुता वा भवेदिति सम्बन्धः॥१२॥ कदा गन्तव्य ?-मित्याह-पडिसेहिए' इत्यादि। मूलम्-पडिसेहिए व दिन्ने वा, तओ तम्मि नियत्तिए । उवसंकमिज भत्तहा, पाणहाए व संजए ॥ १३ ॥ छाया-प्रतिपेधिते वा दत्ते वा, ततस्तस्मिन् निवृत्ते । . उपसंक्रामेत् भक्तार्थ, पानार्थ वा संयतः ॥१३॥ कब जाना चाहिये, सो बताते हैं सान्वयार्थ:-पडिसेहिए-दाताके निषेध कर देने पर व-अथवा दिने अन्नादिके दिये जाने पर वा-या-दाताके मौन साधने पर तओ-उस स्थानसे संभव है, उन्हें उल्लङ्घन करके जानेसे या उनके सामने खड़े रहनेसे उस वनीपक या दाताको अथवा दोनोंको देप तथा खेद उत्पन्न हाजाय । तथा प्रवचनकी लघुता होती है। अतः उन्हें उल्लंघन करके जाना साधुका कल्प नहीं है ॥१२॥ कर जाना चाहिए ? सो कहते हैं-'पडिसेहिए' इत्यादि। સંભવિત છે તેમને ઓળંગીને જવાથી યા એમની સામે ઊભા રહેવાથી એ વનીપક યા દાતાને અથવા બેઉને દ્વેષ તથા ખેદ ઉત્પન્ન થઈ જાય. તથા પ્રવચનની લધુતા થાય છે, એટલે એમને ઓળંગીને જવું એ સાધુને કલ્પ ४यारे नये ? -पडिसेहिए. ईत्यादि. नथी. (१२)
SR No.009362
Book TitleDashvaikalika Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1957
Total Pages725
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size21 MB
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