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________________ ४३८ - श्रीदशकालिकाचे दाकर्णयेद्वा तद्भक्तपानं तु संयतानामकल्पिकं भवेत्, अतस्तपदतीमत्याचक्षीत-ताशे मे न कल्पत इति ॥ ४७ ॥ ४८ ॥ मूलम्-असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । जं जाणेज सुणेज्जा वा, पुण्णटा पगडं इमं ॥४९॥ १५ २०१७ तं भवे भत्त-पाणं तु संजयाण अप्पियं । दितिय पडियाइक्खे, न में कप्पइ तारिस ॥५०॥ छाया-अशनं पान वापि, खाद्यं स्वाधं तथा । यज्जानीयाच्छृणुयाद्वा, पुण्यार्थ प्रकृतमिदम् ॥४९॥ तद्भवेद्भक्तपानं तु, संयतानामकल्पिक(तम् । ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते वादृशम् ॥५०॥ सान्वयार्थ:-जं असणं पाणगं वावि खाइमं तहा साइमं जो अशन पान खादिम स्वादिम इमं पुण्णट्ठा पगडं' यह करुणावुद्धिसे दीन-हीन-जनोंके लिए पुण्यार्थ निकाल रखा है। इस प्रकार जाणेज जान लेवे वा अथवा सुणिनाकिसी दूसरेसे सुन लेवे तो तं-वह भत्तपाणं तु आहार-पानी संजयाणसाधुओंके लिए अकप्पियं-अकल्पनीय भवे होता है, (अतः) दितिय देती हुईसे साधु पडियाइक्खे-कहे कि तारिसं-इस प्रकारका आहारादि मे-मुझे (लेना) न कप्पइनहीं कल्पता है ॥४९॥-५०॥ टीका-'असणं.' इत्यादि, 'तं भवे०' इत्यादि च। यदशनादिक 'पुण्याथै पुण्याय-सुकृतायेदं दयाधिया,वनीय(प)क-श्रमणार्थोपकल्पितस्याग्रे वक्ष्यइसलिये ऐसा भक्त-पान आदि देनेवाली से कहे कि यह मुझे नहीं कल्पता है ॥४७॥४८॥ 'असणं.' इत्यादि, तथा 'तं भवे०' इत्यादि । जो 'अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य दया-बुद्धिसे दीन-हीन जनोंको માટે કલપનીય નથી તેથી એવાં ભેજન પાન આદિ આપનારીને સાધુ કહે કે मे भने ४६५ता नथी. (४७-४८) असणं. त्याहि, तथा तं भवे. त्यादि. "240 मशन, पान, माध, स्वाय, या युद्धिया दीनहीन बनाने मापाने "
SR No.009362
Book TitleDashvaikalika Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1957
Total Pages725
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size21 MB
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