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________________ अध्ययन ५ उ. १गा. ३०-३१ - संहरणस्य चतुर्भङ्गयः ૨ 3 ४ પ मूलम्-साहद्दु निक्खवित्ताणं, सचित्तं घट्टियाणिय । 6.. ९ : तहेव समणट्टाए, उदगं संपणुलिया ॥ ३० ॥ & ૧૦ ર ११ ओगाहइत्ता चलइत्ता, आहरे पाणभोयणं । 13 ૧૪ ૧૭ ૧૫ - ર दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ॥३१॥ छाया - संहृत्य निक्षिप्य, सचित्तं घट्टयित्वा । तथैव श्रमणार्थम् उदकं संमणुध ॥३०॥ अवगाह्य चालयित्वाऽऽहरेत्पानभोजनम् । , ४११ ददतीं प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥३१॥ सान्वयार्थः - समणट्टाए= साधुके लिए साहहु = संहरण करके अर्थात् एक वरतन से दूसरे वरतन में डालकरके, निक्खिवित्ताणं = सचित्त वस्तु पर आहारा दिको रखकर अथवा आहारादिके ऊपर सचित्त वस्तुको रखकर, सचित्तं-सचित्त वस्तुका घट्टियाणिय= संघट्टा - स्पर्श करके, तहेव उसीप्रकार उदगं=सचित्त अप्कायको संपणुल्लिया = इधर-उधर रखकर, ओगाहइत्ता=वर्षासे आँगनमें भरे हुए पानीमें अवगाहन-प्रवेश-करके, चलइत्ता = रुके हुए जलको नालीद्वारा या हाथसे बाहर निकालकर यदि पाणभोयण = आहार- पानी आहरे देवे तो दितियं देती हुई उस वाईसे (साधु) पडियाइक्खे = कहे कि तारिसं=इस प्रकारका आहारपानी मे मुझे न कप्पड़ नहीं कल्पता है ||३०-३१॥ टीका - 'साहहु ० ' इत्यादि, 'ओगाहइत्ता' इत्यादि च । यदि श्रमणार्थ = भिक्षुनिमिचं संहत्य = भाजनाद्भाजनान्तरे संहरणं कृत्वा, अवस्थामें आहार लेनेसे मुझे भी इस हिंसाका भागी बनना पड़ेगा ' • ऐसा विचार करके मुनि उससे आहार न ले ||२९|| 6 'साहद्दु ' इत्यादि, और 'ओगाहइत्ता ० ' इत्यादि । यदि भ्रमणके लिए एक वर्त्तनसे दूसरे वर्त्तनमें संहरण करके ( निकालकर ), निक्षेपण મારે પણ એ હિંસાના ભાગી ખનવું પડશે.' એવા (વચાર કરીને મુનિ તેના હાયથી આહાર લે નહિ. साहहु० धत्याहि, मते ओगाहइत्ता० इत्यादि ले श्रभाणुने भाटे વાસણમાંથી ખીજા વાસણમાં સહરણ કરીને (કાઢીને ), નિશ્ચેષણ કરીને (એકને
SR No.009362
Book TitleDashvaikalika Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1957
Total Pages725
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size21 MB
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