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अध्ययन ५ उ. १ गा. ५३-५४ श्रमणार्थोपकल्पिताहारनिषेधः ४४३ पशमनलक्षणं नयति मापयतीति वनीः, यद्वा वन्यते-याच्यते भिक्ष्यत इति वनी भिक्षणीयद्रव्यम् , ('वनु याचने' अस्मादौणादिक इन् कृदिकारादिवि डीप) तां पाति-उपकल्प्य रक्षतीति बनीपा गृहस्थस्त कायति-प्रार्थयते मियोत्यादिनेति वनीपकस्तदर्यमिदं प्रकृतमित्यादि पूर्ववत् ।। ५१ ॥ ५२ ।। मूलम्-असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा ।
૧ ૧૨ ૧૩ ૧૪ ૯ ૧૧ ૧૦ जं जाणेज्ज सुणेज्जा वा, समणहा पगडं इमं ॥५३॥ ૧૫ ૨૦ ૧૬ ૧૭ ૧૮ ૧૯ तं भवे भत्त-पाणं तु, संजयाण अप्पियं ।
૨૨ ૨૩ ૨૪ ૨૬ ૧૩ दंतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तादिसं ॥५४॥ छाया-अशनं पानकं वापि, खाचं स्वाद्यं तथा ।
यजानीयाच्छृणुयाद्वा, श्रमणार्थ प्रकृतमिदम् ॥५३॥ तद्भवेद्भक-पानं तु, संयतानामकल्पिकम् ।
ददती प्रत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥५४॥ सान्वयार्थः-जं असणं पाणगं वावि खाइमं तहा साइम-जो अशन पान खादिम स्वादिम इमं समणट्ठा पगडं-यह निर्ग्रन्थ शाक्य तापस गैरिक और आजीवक, इन पांच प्रकारके श्रमणों के लिए उपकल्पित है, ऐसा जाणेज्ज-मान लेवे वा अथवा सुणिज्जा=किसी दूसरेसे मुन लेवे तो तंवह भत्तपाणं तुआहार-पानी संजयाणं-साधुओंके लिए अकप्पियं-अकल्पनीय भवे-होता है, (अतः) दितियं देती हुईसे साधु पडियाइक्खे-कहे कि तारिसं-इस प्रकारका आहारादि मे-मुझे (लेना) न कप्पइ-नहीं कल्पता है ॥५३-५४॥ मिटाकर सान्त्वना प्रदान करे उसे वनी (भिक्षा देने के लिये रखा हुआ अन्नादि) कहते हैं, उसको सुरक्षित रखनेवाला गृहस्थ 'वनीप' कहलाता है, और उस वनीप (गृहस्थ)से प्रार्थना करके भिक्षा प्राप्त करने वालेको 'वनीपक' कहते हैं। उस वनीपकके लिये बनाया हुआ देवे तो देनेवा___लीसे कहे कि ऐसा आहार मुझे कल्पता नहीं है ।। ६१ ॥५२॥ तेने यनी (भिक्षा मापपान समेत मनाहि छ भने सुरक्षित रामनार
स्थ वनीप आय छ, भने से बनीप (2) प्रार्थना शन मिक्षा પ્રાપ્ત કરનારને વન કહે છે. એ વનપકને માટે બનાવેલ આહાર આપે તે આપનારીને સાધુ કહે કે એ આહાર મને ક૯પતે નથી. (પ૧–પર)