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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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2273
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श्रीवीतरागाय नमः ।
भगवान महावीर -
क्र. ६७०
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महात्मा बुद्धी.
- प्रथमावृत्ति ]
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वीर स० २४५३
मूल्य रु०१-८-0
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लेखक. -
बाबू कामताप्रसाद जैन, एम. आर. ए. एस. (लॅन्दन), ऑन० संपादक "वीर ” और भगवान महावीर, सत्यमार्ग, महाराणी चेलनी, सक्षिप्त जैन इतिहास, प्राचीन जैन लेखसंग्रह आदि आदि ग्रन्थोंके रचयिता ।
मुद्रक व प्रकाशकः
मूलचन्द किसनदास कापड़िया, " जैन विजय " प्रिन्टिंग प्रेस, खपाटिया चकला - मूरत ।
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“ दिगंबर जैन " के २०वें वर्षका उपहारग्रन्थ ।
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भमिका |
प्राचीन भारतका इतिहास प्रायः बिल्कुल अन्धकारमें है । प्राचीन भारतीय साहित्य में कोई भी ऐसा ग्रन्थ नहीं है जो प्राचीन भारतके नियमित और व्यवस्थित दर्शन आज हमको करा सके । ऐसी दशामें यह संभव नहीं है कि उस प्राचीनकालमें हुये किन्हीं महापुरुषोंका एक यथार्थ चरित्र ग्रंथ लिखा जा सके किन्तु इस कठिनाईके होते हुये भी प्रस्तुत पुस्तकमें भगवान महावीर और म० गौतमबुद्धके पारस्परिक जीवन - सम्बन्धोंको प्रकट करनेका जो साहस किया गया है, उसमें मूल कारण हृदयकी भक्ति तो है ही, पर हमारे पूज्य पूर्वजोंके साहित्यक ग्रन्थ, शिलालेख और मुद्रालेख इसमें पूर्ण प्रेरक और सहायक है। सचमुच इसी प्राचीन भारतीय साहित्यके अस्तव्यस्त ऐतिहासिक सामग्री के बलपर इस पुस्तकको लिखनेका प्रयास किया गया है परन्तु हमारे लिये यह कहना असंभव है कि वस्तुतः हम अपने इम प्रयासमें किस हदतक सफलमनोरथ हुये है ।
म० गौतमबुद्धका नाम
आज ससारके समस्त धर्माचायोंमें चहुप्रख्यात है । दुनियांमें सबसे अधिक संख्या में मनुष्य उन्हींके अनुयायी है किन्तु इतना होते हुये भी भगवान महावीर एक अनुपम तीर्थंकर थे, वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी थे; यह बात स्वयं चौद्धग्रन्थो से प्रमाणित है, अतएव एक अनुपम तीर्थंकरका और साथ ही एक युगप्रधान महात्माका पूर्ण चरित्र प्रकट करनेका
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(३)
प्रयत्न करना एक धृष्टता मात्र है। परिमित ज्ञानशक्तिको रखनेवाले छद्मस्थ मनुष्यके लिये एक तरहसे यह असंभव ही है । पर यह सब कुछ मानते हुये भी आखिर यह पुस्तक लिखी ही गई है, इसका सब कुछ श्रेय हृदय-प्रेम, प्राचीन भारतीय साहित्य और समयकी मांगको है। अस्तु;
___ म० बुद्ध बौद्धधर्मके संस्थापक थे । उन्होने ईसवी सनसे 'पहले छठी शताब्दिमें एक समयानुकूल धर्मका बीजारोपण किया था और उसे वे अपने ही जीवन में पल्लवित कर सके थे । उस समयके प्रचलित मत-मतान्तरोमें परस्पर ऐक्य लानेका उद्देश्य ही इस नवीन धर्मकी स्थापनामें था। इन सब बातोका स्पष्ट दिग्दर्शन 'प्रस्तुत पुस्तकमें यथास्थान पाठकोंको मिलेगा। किन्ही महाशयोंकी
आज भी यह मिथ्या धारणा बनी हुई है कि म० बुद्धके इस नवस्थापित बौद्धधर्मसे ही जैनकर्मका विकाश हुआ था; परन्तु इस पुस्तकके पढ़नेसे वे जान सकेंगे कि वस्तुतः जैनधर्म बौद्धधर्मसे प्राचीन है । भगवान महावीरके पहलेसे ही जैनधर्म चला आ रहा था। उनके एक बहुत ही दीर्घकाल पहले २३ तीर्थकर और हो चुके थे, जिनमें से २३वें श्रीपार्श्वनाथजी भगवान महावीरसे केवल १५० वर्ष पहले हुये थे । इस युगके सर्व प्रथम तीर्थकर भगवान ऋषभदेव थे; जिनका उल्लेख हिन्दुओके भागवतमें (अ० ५) आठवें अवतार रूपमें हुआ है । वेदोमें चारवें वामन अवतारका उल्लेख है । इस अपेक्षा जैनधर्मके इस युगके संस्थापक भगवान ऋषभदेव वेदोंसे भी पहले हुये प्रमाणित होते हैं । यही कारण है. कि आधुनिक विद्वान् अपने अध्ययनके उपरान्त इस निर्णयको
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( ४ )
पहुंचे हैं कि संभवतः जैनधर्म ही भारतका सर्व प्राचीन धर्म है । * अबतक जो शिलालेख आदि मिले हैं उनसे भी जैनधर्मकी वहुप्राचीनताका पता चलता है । इस दशामें यह नहीं कहा जासक्ता कि जैनधर्मकी उत्पत्ति बौद्धधर्मसे या वैदिक धर्मसे हुई थी । इसी तरह भगवान महावीरजीको अथवा श्रीपार्श्वनाथजीको जैनधर्मका संस्थापक कहना निरा भूलभरा है 1
जैनधर्मके किन्हीं सिद्धान्तोकी सदृशता यद्यपि बौद्धधर्ममें मिलती है. परन्तु दोनों ही धर्मोंमें जमीन आस्मानका अंतर है, यह बात पाठकगण प्रस्तुत पुस्तकके पाठसे जान सकेंगे । जिस तरह मबुद्ध और भ० महावीरके जीवनसम्बन्ध बिल्कुल विभिन्न थे वैसे ही उनके धर्म थे, यह व्याख्या आधुनिक प्राच्यविद्याविशारदोको भी मान्य है । + जो सिद्धान्त बौद्धधर्ममें मिलते है जैनधर्म में उनका प्राय. अभाव है । बुद्धके निकट तपश्चरणकी मुख्यता. स्थान नही रखती थी । उनने जैनमुनिकी अवस्थासे भ्रष्ट होकर अपने लिये एक 'मध्यका मार्ग दृढ निकाला था और उसीका, उपदेश अपने शिष्योंको दिया था किन्तु भगवान महावीरने ज्ञान-ध्यानगय साधु - जीवनमें तपश्चरणको भी मुख्य माना थाः यद्यपि ' केवल कायक्लेशको उनने भी बुरा बतलाया था । इसी तरह अहिंसाको यद्यपि म० बुद्धने भी स्वीकार किया था, परन्तु उसका वह व्यापक रूप उनको स्वीकृत नहीं थाः जो उसको जैनधर्ममें नसीव रहा है । कर्मसिद्धान्तको भी म० बुद्धने माना था पर कर्मको एक
देखो 'वीर' वर्ष ३ अंक १२-१३.
+ पेम्ब्रेज हिस्ट्री ऑफ इन्डिया पृ० १६१.
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(५) सूक्ष्म पौगलिक पदार्थ नहीं माना था; जैसे कि जैनधर्ममे माना गया है । सिद्धान्तोंके अतिरिक्त जाहिरदारीकी मोटी बातोंमें भी दोनों धर्मोमें अन्तर मौजूद रहा है । बौद्ध भिक्षु वस्त्र धारण करते, निमंत्रण स्वीकार करते और मृत पशुओंका मांस भी ग्रहण करते रहे हैं, परन्तु जैन साधु सर्वोच्च दशामें सर्वथा नग्न रहते, निमंत्रण स्वीकार नहीं करते, उद्देशिक भोजन नहीं करते और मांसभोजन सर्वथा नहीं करते रहे हैं। बौद्धसंघ और जैनसंघमे बड़ा अन्तर है । बौद्धसंघमें केवल भिक्षु और भिक्षुणी सम्मिलित थे, परन्तु जैनसंघमें साधु-साध्वियोंके अतिरिक्त श्रावक-श्राविकायें भी सम्मिलित थे। कोई विद्वान् इसी विशेषताके कारण जेनसघका अस्तित्व भारतमें अनेकों आफतें सहकर भी रहते स्वीकार करते हैं। इसी प्रकारके प्रकट भेद जैन और बौद्धमतोंमें मिलते हैं, जिनका दिग्दर्शन प्रस्तुत पुस्तकमें यथासंभव करा दिया गया है । अस्तु,
इस पुस्तकके अन्तमें जो परिशिष्ट बौद्धसाहित्यमें आए हुए जैन उल्लेखोंका दे दिया गया है; उससे जैनसिद्धांतो और नियमोंका परिचय समुचित रूपमें होता है। उनसे स्पष्ट प्रगट है कि जैनसिद्धांत निसप्रकार आजसे ढाई हजार वर्ष पहले भगवान् महावीरजी द्वारा प्रतिपादित हुआ था ठीक उसीप्रकार वह आज हमको मिल रहा है । इतने लम्बे कालान्तरमें भी उसका यथाविधि
रहना उसकी पूर्णता और वैज्ञानिकताका द्योतक है। इससे जैनधर्मकी ___ आर्षता और वैज्ञानिकता प्रमाणित है । इस परिशिष्टको श्रीमान्
जैनधर्मभूषण धर्मदिवाकर ब्र० शीतलप्रसादनीने देखकर हमें उचित ..सम्मतियोंसे अनुग्रहीत किया है, यह प्रगट करते हमें हर्ष है ।
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इसके अतिरिक्त श्रीमान् डॉ. विमलचरण लॉ० एम० ए०, वी० एल०, पी एच० डी०, एफ० आर० हिस्ट० एस० (लंडन) वकील व जमीन्दार कलकत्ताने जो अंग्रेजीमें प्रस्तावना लिख देनेकी उदारता दिखाई है, उसके लिए हम उनके बडे आमारी है। आपने प्रस्तुत पुस्तकके महत्वको प्रकट करते हुये चौद्ध और जैनधर्मके कतिपय सिद्धांत-भेदोंको परिमित शब्दोंमें समुचित रीतिसे स्पष्ट कर दिया है। आप बतलाते है कि जैनधर्मका आकाश द्रव्य बौद्ध धर्ममें नहीं मिलता है। कर्मसिद्धात यद्यपि जैन और बौद्धधर्मों में स्वीकृत है, परन्तु जैनधर्ममें वह एक पौगलिक पदार्थ है और बौद्धधर्ममें केवल एक नियम मात्र ही है । डॉ० सा०का भी भाव केवल बाह्य सदृशताको बतलानेका है। जीव-अजीव तत्त्व बौद्धधर्ममें जैनधर्मसे विरुद्ध अर्थको लिए हुए बतलाये है। चौद्धधर्ममें जीवसे भाव 'प्राण' के और अजीवसे प्राणहीनके हैं । आश्रव तत्वके भाव भी दोनो धर्मोमे विभिन्न हैं। जैनधर्ममें कर्मवर्गणाओका आगमन आश्रव बतलाया गया है, जब कि बौद्धधर्ममें इसके माने 'पाप' (Sin)के लिये गए हैं । जैनधर्मका 'बंध' तत्व बौद्धधर्मके "सवर" तत्वके समान कहा गया है। बौद्धधर्ममें 'बंध' संयोजनाके भाव व्यवहृत हुआ मिलता है । जैन 'निर्जरा' तत्त्वके समान कोई तत्त्व बौद्धदर्शनमें नहीं है । जैनियोके 'मोक्ष' तत्त्वका भाव भी बौद्धधर्ममें कहीं नही मिलता है । जैनियोंके धर्मास्तिकाय' द्रव्यंकी समानता डॉ० मा० प्रायः बौद्धोंके 'पटिच्चसमुप्पाद' (Patrccasamuppada) से करते है । यह केवल बाह्यरूपमें भले ही हो, वैसे यह द्रव्य केवलं जैनदर्शनकी ही अनूठी वस्तु
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है। शेषके पांच द्रव्य भी जो जैनधर्ममें स्वीकृत हैं बौद्धधर्ममें नहीं मिलते हैं। जैनशास्त्रोंमें 'श्रावक' शब्दके भाव एक जैनी गृहस्थके हैं, परन्तु बौद्धोंके निकट इसके भाव एक बौद्ध भिक्षुके हैं। इसीतरह बौद्धोंका रत्नत्रय जैन 'रत्नत्रय'के नितान्त विपरीत है। ऐसे ही खास २ भेदोंको डॉ. साहबने अपनी प्रस्तावनामें अच्छी तरह दर्शा दिया है। अंग्रेजी विज्ञ पाठक उसको पढ़कर विशेष लाभ उठा सकेंगे, इसके लिये हम डॉ. सा० का पुनः आभार स्वीकार करते हैं तथापि उन सब आचार्यों और लेखकोंके भी हम आभारी है, जिनके ग्रन्थोंसे हमने यह पुस्तक लिखनेमें सहायता ली है।
___ अन्तमें हम अपने प्रियमित्र सेठ मूलचन्द किसनदासजी कापडियाको धन्यवाद दिये विना भी नहीं रह सक्ते, जिनकी कपासे यह पुस्तक प्रकाशमें आरही है और "दिगम्बर जैन" के ग्राहकोंको भेंट स्वरूप भी मिल रही है व इस तरहपर इसका जल्दी ही बहुप्रचार होरहा है। हमें विश्वास है कि विद्वजन इसे विशेष उपयोगी पायेंगे और यदि कोई त्रुटि इसमें देखेंगे तो उसको सूचित कर अनुग्रहीत बनायेंगे । इत्यलम् ।
जसवन्तनगर (इटावा)
माघ शुक्ला पूर्णिमा, बीर नि० स०२४५..
विनीत__ कामताप्रसाद जैन।
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पूज्या माताजीकी पवित्र स्मृतिमें।
उत्सर्गीकृत है।
-लेखका
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-90-9-9ESBSC)
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FOREWORD.
It gives me great pleasure to accede to the request of Mr. Kamba Prasad Jain, to put down a few words of introduction to his volume on es Bhagvän Mahävira aur Sambuddha.” Mr. Jain has already made his name as a researcher in the, field of Janism by his well-known works, “Bhagvẩn Mahãvira” and “Bhagvẩn Mahävıra aur Unků Upadesa" The present volume is very useful addition to the literature on the subject. It is ably written in very simple Hindi. The author has, in this treatise, discussed the following topics:-India at the time of Mahavira and the Buddha, early life of these two teachers, their household and religious life, attainment of knowledge, preachings and the respective dates of their advent He has elaborately dealt with the Dharma of Mahavira and the Buddha, and has noted points of similarity and dissimilarity between the two religions In the footnotes he has acknowledged his indebtedness to the authors from whom he has taken help. He has taken pains to consult the original Buddhist and Jain texts.
Jainism played an important part in the religious history of Ancient India There can be no doubt that it is older than Buddhism. According to tradition the principles of Jainism existed in India from the earliest times There is probably a refernce to Jainism in the Adiparva of the Mahabharata.
It appears from the, Samyutta, Nikãya,that Mahãvıra was senior to the Buddha in age (1.68) The traditional date of Mahavira's death corresponds to the year 470 before the foundation of the Vikrama Era, i. e 528 B.C.
(Cambridge History of Ancient India, Vol. I, p. 155 ).
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(10) Dr Charpontior rejects the data nnd prefer the dnto 468 B. C. Ilus viow in, however, contradicted by a passage in the Digha Nilaya (1. JOG) Wo koor on the authorities of tho Simngilina Sutlaats of ** Majjhima Nikaya (II, 23) and tho Palha Satuabia 4 tho Digha Nikija (III., P 1.) tint Blahirira preda ceased Buddhn by a few seara Dr. llocralo thinks Dahărirn died some firo soins before the Buddha. 16 niny rory well assume that the great prophet of about 500 B. C. 10 round numbre Tarjhnunna do 3 vira tag undoubtedly a roscaler of things seen *F* heard by him Ho maa highly cuteomed by tho people The Rccords describo him ng noblu, worioua, fall of Isito, kaotlodge and rirtuo, the best of thown who towy Nirvana Buddha, his contemporary, sny alro afore preachor Io well, I think, not bo quito out of place discuss here a low topics of tho royal religious founded by these liro eminent toon and noto their points of similarity and dissimilarity.
Akäsit-In Jainism at menna spacc. Space hast divisions -Loko (universe) and Aloha (tho popudITA In the upiyorse there aro six Drasyns. In tho Aloha to is only endless space. We do not find oxactly this in Buddhism
Karina-Jaipiam recognises various kinds of unrhe Mabū vira holds that the evil or good which is given all sentient crcatures is the fruit of tho karmn of lo oxistences They áro born through the causo anu reason of love and desire. Through cau80 atd. are old age and disease. Wo find tho 8amo ided Buddhism. Mabăvira holds that many mor havo 'born according to their morit as inhabitants
Tants of this
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human world. Undoubtedly he had a strong faith in theeffect of karma. In Buddhism too there are various divisions of karma and there are many kinds of acts or consequences which are manifested in their true aspecte in the Buddha's knowledge or the consequences of karma.
Jiva and Ajiva-According to Jainism Jiva means soul, Ajiva means non-soul. In Buddhism Jiva means living principle (life, prán). Ajiva means lifeless thing. According to Jainism Jiva and Ajiva are in combination and the link between them is that of karma. (of Outlines of Jainsim by Mr. Jagmanderlal Jaini)
Soul-In Jainism it is affected by attachment, aversion, affection, infatuation, in the form of the four passions helped by the activity of body, mind and speech. This activity is known as Yoga There are two kinds of Asrava Bnavasrava and Dravyasrava. Bhavasrava means the condition of the soul which makes Asrava possible and Dravyasrava means the actual matter attracted by the soul It is what the Jains call objective Asrava. This idea is quite different from that of Buddhism. In Buddhism ǎsrva means sin and it refers to karma (sensual pleasure), bhava (birth), ditthi (false belief) and avijjă (Ignorance).
Bandhana-In Jainism it means bondage and it is of four kinds. In Buddhism it meane Samyojana Bandhana in Jainism is almost akin to Samvara in Buddhism which means restraint in body, mind and speech. It really means that the inflow of karmic matter may be stopped for the soul is independent.
A
Nirjard-There 18 nothing like this in Buddhism. In Jainism it means the falling away of the karmic matter from soul. The fetters themselves may fall down, and the soul may become free.
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pro Mohhha-In Jainism it means a complete freedom of the soul from the karmic matter. This idea is unknown to Buddbisin,
There are many things in Jainism which are unknown to Buddhism e g. sàdhana, adhikarana, Sthiti, Vidhing etc,
Sravaka-- In Jainism any householder who follows the teaching of the Tirthankaras is called & srâval. In Buddhism srõvake means generally a Bhikkhu or & Sramana, particularly an Arahat or a disciple of the Buddha who has destroyed all sins, and has obtained Nirvīns in this present existence.
Right Conduct-It is the third jewel in Jainism. It means leading & life according to the light gained jointly by the first two, viz , right conviction and right knowledge. This idea is quite different from that of the Buddhist Tiratans ( three jewels )
Right Knowledge. The Buddhist view is to see things as they are, and not to take & wrong viery of things. The Jaina viey 18 exactly the same. But in Jainism there are fire kinds of right knowledge wbich are absent in Buddhism.
False knowledge According to the Buddhists, false knowledge is not to bave any snowledge of four noble truths, Dukkban, Dukkhasamoděyam, Dukkbanirodban, and Dukkhanirodhagãminipatipadā. This idea is absent in Jainism,
As to the ethics of the Jains and the Buddhists we should note that both the Jains and the Buddhists prohibit the slaughter of living beings. All kinds of intoxicants are prohibited in Jainism as well as Buddhism. Certain trades are probibited to the Jainas, viz. fishing, butchery,
bolesale slaughter of living beings, brewing, and to the
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Buddhists the following pannaca vānijyā are prohibited sale of living beings, sale of weapons, snle of fish, sale of flesh and the sale of spirituous liquor. It is no doubt true that a true Jaing and a true Buddhist will" not hurt the feelings of others, por will they violate tho principles of Jainism and Buddhism. The most important precept of Jainism is "Do your duty, do it as humanely as you can." Thus we see that both the Jains and Buddhists propound the most noble doctrines wbich are beneficial to the world
Sex hinds of substances or Dravyas are recognised in Jainism .-(1) Dharndstikdya, (2) Adharmastihâya, (3) Aldishastıkaya, (4) Pudgalâstikaya, (5) Turistikaya and (6) Kala.
(1) Dharmástkaya-The Jaina idea of Dharmástihdya. is almost similar to Paticcasamuppāda ( dependant ori. jination ) of the Buddhists
(2, 3 & 5) Adharmãstrlaya, Aláshastıkaya and Jivastikaya are unknown to Buddhism
(4) Predgalîstıkaya --According to the Jains, it is the substance, the nature of which is that its qualities, colour, eto increase and decrease. Matter is made up of atom8 The atom 18 minute, permanent and has no pradesas This idea is absent in Buddhism, Buddhism preaches impermanency of all things except Arbbanc and ählisadhâtı
God-In Buddhism as well as Jainism there is no creator-agod. But however in Jainism we have the foilowing conception of God.
(1) Something superior to ordinary man (2) A real living being, not a bare principle. (3) Self-existent
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(4) A source of scriptures. (5) A being worthy of worship.
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Hell-It is interesting to note that both Buddhist and -Jain ideas of suffering in hell are almost identical. Among the Jains we have the belief that in hell there is suffering from heat and cold. The sinners are out, pierced and hacked to pieces by swords and other weapone. They undergo very acute and horrible pain. If they commit evil deeds and injure others without repentance they go to hell and cross the river Bartaráni, the waves of which cut like sharp razars In Asurya hell they are roasted. The sinners are hewn with axes like pieces of timber in another hell There are other
hells according to the Jains where sinners suffer accord
•
ing to their sinful deeds done by them while on earth The noses, ears and lips of sinners are out by razors and the tongues are pulled out by sharp pikes, they are thrown into large couldrons and boild there, they are compelled to drink molten lead when they are thirsty. The evil doers are tortured more than a thousand years in the terrible Baitālika mountain in hell. The sinners are tortured day and night. They cry at the top of their voice in a dreadful hell which contains various implements of torture. Almost identical ideas of suffering in Buddhist hells can be gathered from the account of hells given in my work," Heaven and Hell in Buddhist Perspective" (p. 92 et seq)
Bimala Churn Law,
MA B. L. Ph. D FR HISг. S. (London).
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विषय-सूची।
भारत
...
...
परिच्छेद भ० भूमिका ... ... ब० अंग्रेजी प्रस्तावना १. भगवान महावीर और मा
बुद्धके समयका भारत राजनैतिक परिस्थिति सामाजिक परिस्थिति, धार्मिक परिस्थिति पूर्णकाश्यप, मक्खलिगोशाल ... ... ... १७-१९ संजय पैरत्यी पुत्र ... ... ... ... २१ अजितकेशकम्बलि, पकुड़कात्यायन
... २५-२६ २. भगवान महावीर और म. वुद्धका
प्रारम्भिक जावन ... ... ... ... २६ ३. गृहत्याग और साधुजोवन
म.बुद्ध जैन साधु रहे थे, भ०महावीर दिगम्बर मुनि थे ४८-५४
चौद्ध शामें दि० जैनमुनियोंकी क्रिया ४. ज्ञानप्राप्ति और धर्मप्रचार ... ... ... ६८
म. बुद्धका ज्ञान, भ. महावीर सर्वज्ञ थे ... ... म. बुद्धका धर्मप्रचार, भ० महावीरका विहार ... ९१-१४
म. महावीरका धर्म विदेशोंमें, मोक्षलाम ... ... ९६-९७ ५. पारस्परिक कोलनिर्णय ... ... ६. भगवान महावीर और म. बुद्धका धर्स ७. उपसंहार ... ... ... ... ... ८. परिशिष्ट-बौद्धसाहित्यमें जैन उल्लेख
मज्झिमनिकायमें भ० महावीरकी सर्वज्ञताके उल्लेख भंगुत्तरनिकायमें श्रावकोंके प्रोषधादि व्रत ... दीघनिकायमें जैन उल्लेख
" भ० महावीरका निर्वाण ... संयुत्तनिकायमें पंचाणुव्रत व भ०की संवैज्ञता । सुमगलविलासिनीमें जीवादि जनतत्व
७२-८८
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(१६) डायोलॉग्स आफ बुदमें जैन उल्लेख ... ... २१९ पार्श्वनाथजीके तीर्थके मुनि ... ... ... २२० चातुर्याम संवर, विनयपिटको उल्लेख ... २२२-२३१ पार्वतीर्थके मुनि नग्न थे, मिलन्द पन्हमें जैन उल्लेख २३७-२४० थेर-थेरी गाथामें जैन आर्यिकाके नियम ... ... २५६ शेष जैन उल्लेख ...
,
-
"
... ... २६१
जैन!
शुद्धाशुद्धि पत्र । लाइन
अशुद्ध
जैन १२ फुट नोट १
चदिन
चरित्र
केवल के बल ४३
आवजीविकों आजीविकों
आरदिकालम भारादकालाम ५१ फु० नो.
बनकर
बनवा ५१ , ५
सुपाय सुपार्श्वनाथ भरविना
भरविन्ग महावीरके महावीरके द्वारा अवस्था भी अवस्थामें भी दिगम्वरी व दिगम्बरी
ववरवाहन (नरवाहने) ૧૧ दजकी
दरजेकी परिवर्तन
प्रवर्तन ૧૧ एवं भादर्श
आदर्श
जैन बुद्धधर्म जेन बुद्धधर्म १९१
(Zen Buddhism) मघवान
भगवान २१० फु० नो० ३
पृष्ट
पृष्ठ ६१ २२० फुट नोट
पृष्ठ १२३
१८.
૧૦
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IMAndrums
प्राचीन भारत
-TRIMULATPAYearn
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GuptNTIPS
IRC
PANIPAT
PARELA
मुख्य प्रदेश और नदियां ।
परनी
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ब्रहावा
SARAFYINDEMIUM
Aasranik
APP-MAtmasuatraamany HEADLINEDALSIPRARAMUnres:
सि मल
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काहाल
विह
कामरूप
अमराव
बस का
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090am
HTINAN
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डक्षिणापथ
गादावरी
कम्प
'महाराष्ट्र
मुख्य नगर रणनाई द्वारा बतला दिये गये हैं:१ अयोध्या २. श्रावस्ती ३. प्रयाग ४. मिथिला ५, पाटलीपुत्र ६ कान्यकुन ७. कुण्डपुर ८ वशाली ९ मथुरा १० इन्द्रप्रस्थ ११ तक्षशिला १२. राजगृह १३ भृगकच्छ १४ उज्जनी १० वजयन्ती १६. काञ्ची
सामय लीयो वकम, सुरत
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ॐ नमः सिद्धभ्य ।
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भगवान महावीर और
महात्मा बुद्ध ।
मगलाचरण । " यो विश्व वेद वेद्यं जननजलनिर्भगिनः पास्श्वा__ पौर्वापर्याविरुद्धं वचनमनुपम निष्कलंक यदीयम् ।"
तं वन्दे साधुवन्धं सकलगुणनिधि ध्वस्तदोषद्विपंतबुद्धं वा वर्द्धमानं शतदलनिलयं केशवं वा शिवं वा ।।
-श्रीअकलकहि ।
भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध
समयका भारत । भारतवर्ष वही है जो पहले था। इसके नाममें, इसके रू इसके वेषमें, इसके शरीरमे-हा किसी तरफसे भी विरुद्धता नहीं आती। वही पृथ्वी है, वही नीलाकाश है, वही कलकल रखकारिणी सरितायें हैं, वही निश्चल निस्तब्ध गंभीर पर्वत है। सचमुच सबकुछ वही वही दृष्टि आता है । जो जैसा था वैसा दृष्टिगत होरहा है-कही मी अन्तर दिखाई नहीं पड़ता है । मनुष्य वही आर्य है-आर्यखडके अधिवासी प्रतीत होते हैं । यद्यपि इनके
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२]
[ भगवान महावीरविषयमें यह अवश्य संशयात्मक है कि वस्तुतः क्या इनमे सर्व ही आर्यवंशन हैं ? परन्तु इतना तो स्पष्ट ही है कि मूल में भारतवासी आर्य हैं और जब यह आर्य है तब इनके रीति रिवाज भी प्राचीन आर्यों जैसे होना ही चाहिये ! किन्तु यदि यही बात सच है कि जो दशा पहले-मुद्दतों-युगो पहले थी वही आज है तो फिर ससारमें परिवर्तनशीलताका अस्तित्व कहां रहा ? क्या युगों पहलेके भारतवर्षमे और आनके भारतवर्षमें कुछ भी अन्तर नहीं है ? भारतवर्षका ज्ञात इतिहास इस बातका स्पष्ट दिग्दर्शन करा देता है कि नहीं, भारतवर्ष जैसा १५ वीं ६ वी शताब्दिमे था वैसा आन नहीं है और जैसा ईसाकी प्रारभिक शताब्दियोंमें था वैसा उपरोक्त मध्यकालीन शताब्दियोमें नही था तो फिर उसका सनातनरूप कहां रहा ? वह जैसा पहले था वमा आज है यह कैसे माना जाय ? बात बिल्कुल ठीक है, भारतका रूप, भारतकी दशा और भारतकी आकति समयानुसार रङ्ग बदलती रही है, परन्तु क्या कभी उस क्षेत्रका अभाव हुआ जो भारतवर्ष कहलाता है अथवा वहाके अधिवासियों का अन्त हुआ नो भारतवासी कहलाते हैं ? नहीं, यह सब बातें ज्योंकी त्यो रही है। ऐसी अवस्थामें सामान्यत यहां पर एक गोरखधन्धाता नेत्रोके अगाडी उपस्थित होजाता है, किन्तु यदि उमका निर्णय यथार्थ सत्यके प्रकाशमेंवस्तु-स्थितिक धवल उज्ज्वल आलोकमे बरें तो हम स्थितिको सहन सहज समझ जाते है।
समारमें जितनी भी वस्तुयें है वह सत्रूप है। उनका कभी नाश नहीं होता, किन्तु उनमें परिवर्तन अवश्य होता रहा है ।
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- और म० वुद्ध ]
[ ३
एक अवस्थाका जन्म होता है तो उसका अस्तित्व होजाता है; परन्तु उसके नाशके साथ ही दूसरी अवस्था उत्पन्न हो जाती है । यह क्रम योही चालू रहा है और अगाडी रहेगा । यही संसार है । अब हम सहज समझ सक्ते हैं कि भारतवर्ष मूलमें तो वही है जो युगो पहले था, परन्तु उसकी हर अवस्थामें अनेकों रूपान्तर समयानुसार अवश्य हुए हैं । यही उसका वास्तविक रूप है । अस्तु;
भारतवर्ष मूलमें तो वही है जो भगवान महावीर और म० बुद्धके समयमें था; परन्तु तबकी दशा और अत्रकी दशा इस प्राचीन भारतकी अवश्य ही जमीन आस्मान जैसा अन्तर रखती है। इतना महत अंतर और फिर एकता । यही यथार्थ सत्यकी विचित्रता है । आज कर्णफूलों और गले बन्दसे कामिनीकी शोभा बढ रही थीकल तबियत बदली - कर्णफूल और गलेबन्द नष्ट कर दिये गये - चदनहार और कंपन उसके वक्षस्थल एव करोंको अलंकृत करने लगे। यहां तो पूरा कायापलट होगया, परंतु सोना तो वहीका वही रहा; मूल उसका जब था सो अब
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अस्तु, भारतवर्ष वही है जो भगवान महावीर और म० बुद्धके समयमें था; परन्तु उसमे हर तरफसे उलट फेरके चिन्ह नजर आते | आज यहांके मनुष्य ही न उतने प्रतिभा और शक्तिसम्पन्न है और न उतने दीर्घजीवी हैं । आजके भारतकी नैतिक और धार्मिक प्रवृत्ति न उस समय जैसी है और न उसकी प्रधानताका सिक्का किसीके हृदयपर जमा हुआ है । आज यहांके निवासी बिलकुल दीन-हीन रक बने हुये है । वुद्धि, बल, ऐश्वर्य सबका दिवाला निकाले वैठे हैं । तबके भारतका अनुकरण अन्य देश करते थे और उसको
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४]
[ भगवान महावीर
अपना गुरु मानकर यूनान सदृश उन्नतशाली देशके विद्वान् जैसे पैरहो ( Pyrrho ) यहां विद्याध्ययन करने आते थे, परन्तु आज उल्टी गंगा बह रही है। स्वयं भारतीय इन विदेशों में जाकर ज्ञानोपार्जनका मिस कर रहे है और उन देशोकी नकल आंख मींचकर किये चले जारहे हैं । इस भौतिक-सभ्यताकी उपासनाका कितना क्टु परिणाम भारतको शीघ्र ही भुगतना पड़ेगा, यह अभी इस देशके अधिवासियोकी समझमें नहीं आया है, परन्तु जमाना उनकी आंखें खोलेगा अवश्य । और तब वे प्राचीन भारतकी और आशाभरे नेत्रो से देखेंगे । इसलिये यहापर प्राचीन और अर्वाचीन भारतकी तुलना न करके हम उसकी ईसासे पूर्व छठी शताब्दिमे जो दशा थी उसका ही किचित् दिग्दर्शन करके उस समयके उन दो चमकते हुये रत्नोका परिचय प्राप्त करेंगे, जिनके प्रति भाज पाश्चमीय सभ्यता के विद्वान् भौरे बने हुये है ।
किसी भी देशकी किसी समयकी हालत जाननेके लिये उस देशकी राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक परिस्थितिको जानना आवश्यक है । जबतक उस देशकी इन सब दशाओं का चित्र हमारे नेत्रोके अगाडी नही खिच जायगा तबतक उस देशका सच्चा और यथार्थ परिचय पाना कठिन है । आज भारतियोके पतनका यह भी एक मुख्य कारण है कि वे अपने प्राचीन पुस्पोके इतिहास से प्रायः अनभिज्ञ है । प्रत्येक जातिका उत्थान उसके प्राचीन आढगको उसके प्रत्येक सदस्यके हृदयमें बिठा देने पर बहुत कुछ अवलम्बित है, अतएव यहांपर हम उस समयके भारतकी इन दशाओंका विचित वृत्त निम्न मे अंकित करते हैं ।
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-और म० बुद्ध ]
[५
ईसाकी छठी शताब्दि भारतके लिये ही नहीं बल्कि सारे संसारके लिए एक अपूर्व शताब्दि थी। कोई भी देश ऐसा न बचा था जो इसके क्रांतिकारी प्रभावसे अछूता रहा हो । भारतमें इसका रोमांचकारी प्रभाव खूब ही रङ्ग लाया था। राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक सब ही अवस्थाओमें इसने रूपान्तर लाकर खडे कर दिये थे । मनुष्य हर तरहसे सच्ची स्वाधीनताके उपासक बन गये थे, परन्तु इसमें उस समयके दो चमकते हुए रत्नों -भगवान महावीर और म० बुद्ध-का अस्तित्व मूल कारण था ।
____ उस समय यहांकी राजनैतिक परिस्थिति अनव रङ्ग लारही __ थी। साम्राज्यवादका प्रायः सर्व ठौर एकछत्र राज्य नहीं था, प्रत्युत प्रजातंत्रके ढंगके गणराज्य भी मौजूद थे। एक ओर स्वाधीन राजा
ओकी वांकी आनमें भारतीय प्रजा सुखकी नींद सो रही थी; तो दूसरी ओर गणराज्योंके उत्तरदायित्वपूर्ण प्रवधमें सब लोग स्वतंत्रता पूर्वक स्वराज्यका उपभोग कर रहे थे । दोनो ओर रामराज्य छा रहा था। इन गणराज्योका प्रबंध ठीक आजकलके ढंगके प्रनातत्रात्मक राज्योकी तरह किया जाता था। नियमितरूपसे प्रति. निधियोंका चुनाव होता था; जो राज्यकीय मन्डल अथवा 'सांथागार' में जाकर जनताके सच्चे हितकी कामनासे व्यवस्थाकी योजना करते थे । न्यायालयोंका प्रबंध भी प्रायः आजकलके ढंगका था; परन्तु उस समय वकील-वैरिटरोंकी आवश्यक्ता नहीं थी। न्यायाधीश स्वयं वादी-प्रतिवादीके कथनकी जांच करते थे और यही नहीं कि प्रारंभिक न्यायालय जो जांच करदे वही बहाल रहे, प्रत्युत ऊपरके न्यायालय भी स्वयं स्थितिकी पड़ताल करते थे। प्रचलित
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[ भगवान महावीर
कानूनोकी किताव भी मौजूद थी और 'फुलवेन्चकी' तरह 'अट्ठकूलको न्यायालय सदृश न्यायालय भी थे । इस प्रजातत्रात्मक गणराज्यका आदर्श हमें उस समय के लिच्छवि क्षत्रियोंके विवरणमे मिलता है।' जैन और बौद्ध ग्रथ इनके. विषयमे प्रचुर प्रकाश उपस्थित करते है। इन ग्रथोके अध्ययनसे मालूम होता है कि उस समय प्रख्यात् गणराज्य इसप्रकार थे
(१) लिच्छिवि गणराज्य-इसमें इक्ष्वाक्वंशीय क्षत्रियोंका आधिक्य था और इसकी राजधानी विशाला अथवा वैशाली विशेष समृद्धिशाली नगरी थी । इस गणराज्यके प्रधान राजा चेटक थे। बौद्धग्रंथ इस राज्यमें आठ कुलोंके क्षत्रियोका प्रतिनिधित्व बतलाते है, परन्तु जैनोके ग्रंथमें उनकी संख्या नौ है । इस गणराज्यकी राजधानी वैशालीके निकट अवस्थित कुन्डपुर अथवा कुन्डनगरके क्षत्रिय राजा सिद्धार्थ थे, जो भगवान महावीरके पिता थे। वे सभवतः इसी गणराज्यमें समिलित थे और इसी कारण भगवान महावीरका उल्लेख कभी २ 'वैशालिय' के रूपमें हुआ है । वह गणराज्य विशेष समृद्धिशाली था और यहां जैनधर्मकी मान्यता अधिक थी। काशी और कौशलके गणराज्य, जिनके प्रतिनिधि (जो 'राजा' कहलाते थे) श्वे. जैन शास्त्र कल्पसूत्र में अठारह बतलाये गये है, सभवतः इनसे सम्बंधित थे । इन सब गणराज्योकी
१. देखो वर्तमान लेखककी 'भगवान महावीर' नामक पुस्तक । (पृष्ट ५७)
२. जैनसूत्र । सेक्रेड बुक्स ऑफ दी ईस्ट । भाग २२ पृष्ट २६६ ।
३. क्षत्रिय क्लैन्स इन बुधिस्ट इन्डिया-(वैशाली और लिच्छिवि) पृष्ट ८६ ।
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-और म० वुद्ध]
व्यवस्थापक सभा 'वज्जियन राजसंघ' कहलाती थी। उस समय इन लोगोकी शक्ति विशेष प्रबल थी। यहातक कि मगधाधिपति भी सहसा इनपर आक्रमण नहीं कर सके थे; बल्कि पहले तो स्वय चेटकने एकदफे जाकर राजगृहका घेरा डाल दिया था। और अन्तत. राजा श्रेणिक और चेटकमे समझौता होगया था।'
(२) शाक्य गणराज्य-इसकी रानधानी कपिलवस्तु थी और यहाके प्रधान राजा शुद्धोदन थे । यही म० बुद्धके पिता थे । बुद्धकी जन्मनगरी यही थी। इनकी भी सत्ता उस समय अच्छी थी।
(३) मल्ल गणराज्यमें मल्लवंशीय क्षत्रियोंकी प्रधानता थी। बौद्ध ग्रन्थोंसे पता चलता है कि यह दो भागोमे विभानित था। कुसीनारा जिस भागकी राजधानी थी उससे म० बुद्धका सम्बध विशेष रहा था और दूसरे भागकी राजधानी पावा थी, जहांसे भगवान महावीरने निर्वाण लाभ किया था। श्वेताम्बरियोके 'कल्पसूत्र' में यहाँके प्रधान राजा हस्तिपाल और नौ प्रतिनिधि राजाबतलाये गये हैं।
(४) कोल्यि गणराज्य था । इसकी राजधानी रामगांम थी और इसमें कोल्यि जातिके क्षत्रियोका प्रावल्य था।
शेषमें सुन्समार पर्वतका भग्ग गणराज्य, अल्लकप्पके बुलिगण, पिप्पलिवनके मोरीयगण आदि अन्य कई छोटे मोटे गणराज्य भी थे जिनका विशेष वर्णन कुछ ज्ञात नहीं है । इनके अतिरिक्त दूसरी प्रकारकी राज्यव्यवस्था खाधीन राजाओंकी थी। इनमें विशेष प्रख्यात प्रजाधीश निम्नप्रकार थे:
(१) मगध-के सम्राट् श्रेणिक विम्बसार । इनकी राजधानी १. देखो वर्तमान लेखकका 'भगवान महावीर' पृष्ट १४।।
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८]
[ भगवान महावीरराजगृह थी । यह पहले बौद्ध थे, परन्तु उपरात रानी चेलनीके प्रयत्नसे जैनधर्मानुयायी हुए थे।
(२) उत्तरीय कौशल-काराज्य मगधसे उत्तर पश्चिमकी ओर था, जिसकी राजधानी श्रावस्ती थी। यहांके राजा पहले अग्निदत्त (पसेनदी) थे। उपरांत उनके पुत्र विदुदाम राज्याधिकारी हुए थे।
(३) कौशलसे दक्षिणकी ओर वत्स राज्य था और उसकी राज्यधानी कोशाम्बी यमुना किनारे थी। यहांके राजा उदेन (उदायन) थे, जिनके पिताका नाम परन्तप, बौद्ध शास्त्रोंमें बतलाया गया है। जैन शास्त्रोंमें जो राजा उदायन अपने सम्यक्त्वके लिये प्रसिद्ध हैं, वह इनसे भिन्न है। श्वे० शास्त्रोंमे इनके पिताका नाम शतानीक बतलाया है । तथापि यही नाम दि० सम्प्रदायके उत्तरपुराणमें भी बतलाया गया है।*
(४) इससे दक्षिणकी ओर अवन्तीका राज्य स्थित था, जिसकी राजधानी उज्जयनी थी, और यहाके राजा चन्द्रप्रद्योत विशेष प्रख्यात थे। जैन शास्त्रोंमें इनके विषयमें भी प्रचुर विवरण मिलता है।
(५) कलिङ्गके राजा नितशत्रु थे और यह भगवान महावीरके फूफा थे।
(६) अन पहले दधिवाहन रानाके आधीन स्वतंत्र राज्य था; परन्तु उपरात मगधाधिपके आधीन होगया था और यहांके राजा कणिक अजातशत्रु हुये थे, जो सम्राट् श्रेणिकके पुत्र थे।
१ देखो हमारा 'भगवान महावीर पृष्ट १४२-१४८ । २ बुद्धिस्ट इडिया पृष्ठ । 3 एन इपीटोम ऑफ जैनीजम पृष्ठ ६५० । * उत्तर पुराण पृष्ठ ६३४ ।
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-और म० बुद्ध ]
इनके अतिरिक्त और भी छोटे मोटे राज्य थे जिनका विशेष - परिचय यहांपर कराना दुष्कर है। इतना स्पष्ट है कि उस समय
जो प्रख्यात राज्य थे फिर चाहे वह गण राज्य थे अथवा स्वाधीन साम्राज्य; उनकी संख्या कुल सोलह थी। मि० हीस डेविड्स उनकी गणना इस प्रकार करते हैं:---
(१) अङ्ग-राजधानी चम्पा; (२) मगध-राजधानी राजगृह; (३) काशी-रा० धा० वनारस; (४) कौशल (आधुनिक नेपाल)रा० धा० श्रावस्ती; (५) वज्जियन-रा० धा० वैशाली; (६) मल्ल
रा० धा० पावा और कुसीनारा; (७) चेतीयगण-उत्तरीय पर्वतोंमें __ अवस्थित था; (८) वन्स या वत्स-रा० धा० कौशाम्बी; (९)
कुरु-राजधानी इंद्रप्रस्थ (दिल्ली)। इसके पूर्वमें पाञ्चाल और दक्षिणमें मत्स्य था । रत्थपाल कुरुवंशीय सरदार थे, (१०) पाञ्चाल, यह कुरुके पूर्व में पर्वतों और गगाके मध्य अवस्थित था और दो विभागोमें विभाजित था, राधा० कंपिल्ल और कन्नौन थी, (११) मत्स्य-कुरुके दक्षिणमे और जमनाके पश्चिममें था; (१२)सूरसेनजमनाके पश्चिममें और मत्स्यके दक्षिण-पश्चिममें था;-राधा मथुरा (१३) अस्सक-अवन्तीके उत्तर-पश्चिममें गोदावरीके निकट अवस्थित था-रा० धा० पोतन या पोतलि, (१४) अवन्ती-रा०या० उज्जयनी; ईशाकी दूसरीशताब्दि तक यह अवन्ती कहलाई, परन्तु ७वीं या (वीं शताब्दिके उपरांत यह मालव कहलाने लगी; (१५) गान्धार-आजकलका कन्धार है-राधा० तक्षशिला, राजा पुक्कु साति और (१६) कम्बोज-उत्तर-पश्चिमके ठेठ छोरपर थी, राजधानी द्वारिका थी।
१ बुद्धिस्ट इढिया पृष्ट २३ ।
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१०]
[ भगवान महावीर__इन राज्योंमे परस्पर मित्रता थी और बहुधा वे एक दूसरेसे सम्बंधित भी थे; परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि इनमें कमी परस्पर रणभेरी न वनती हो। यदाकदा संग्राम होनेका उल्लेख भी हमें शास्त्रोंमें मिलता है, किन्तु इतना स्पष्ट है कि इन राज्योकी प्रना विशेष शांति और सुखका उपभोग करती थी। उसे ऐसा भय नही था जो वह अपनी उभय उन्नति सानन्द न कर सक्ती । साम्राज्यके आधीन भी वह सुखी थी और गणराज्योकी छत्रछायामे उसे किसी बातकी तकलीफ नहीं थी । इस प्रकार उस समयकी राज्यनैतिक परिस्थितिका वातावरण था। यह सर्वथा प्राचीन आर्योंके उपयुक्त था । सचमुच आजकी दुनियाके लिए वह अनुकरणीय आदर्श है।
उस समयकी सामाजिक परिस्थिति भी अजीब हालतमें थी। उस समयके पहले एक दीर्घकालसे ब्राह्मणोकी प्रधानताका सिक्का समाजमें जम रहा था । ब्राह्मणोंने सामाजिक व्यवस्थाको एकतरहसे अपनी आजीविकाका कारण बना लिया था। उसी अपेक्षा उन्होने धर्मशास्त्रोके पठन पाठनका अधिकार इतरवर्णो-अर्थात् क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रों-को नही दे रक्खा थाप्रत्युत उनके आत्मकल्याणके .. लिये अपने आपको पुजवाना ही इष्ट रक्खा था। जनताको बतलाया था कि तुम अमुक प्रकार यज्ञ आदि क्रियाओको कराकर हमारी सतुष्टि करो तो तुमको वर्गसुखकी प्राप्ति होगी और इस स्वर्गसुखके लालचमे लोग उस समय भी यज्ञवेदीको निरापराध मूक पशुओंके रक्तसे रगते नहीं हिचकते थे। यहां भी शूद्रादि मनुष्योको बहुत ही नीची दृष्टिसे देखा जाता था। परिणामतः
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-और म० चुद्ध
[११ राज्यकीय स्वतत्रताके उस युगमे लोगोको ब्राह्मणोकी यह भेदव्यवस्था और एकाधिपत्य अखर उठा । प्रचलित सामाजिक व्यवस्थाके इन्धनोका उल्लंघन किया जाने लगा। सचमुच वर्तमानमें जो सामाजिक क्रान्ति कुछ अस्पष्ट रूपमे दिखाई पड़ रही है, ठीक वैसी ही क्रान्ति उस समय के समाजमे अपना रंग ला रही थी । ब्राह्मणोंने नहा स्वार्थभरे कठोर नियम सिरज रक्खे थे वहां बिल्कुल ढिलाईसे काम लिया जाने लगा । सामाजिक नियमोमे सबसे मुख्य विवाह नियम है सो उस समय इसका क्षेत्र विशेष विस्तृत था
और इसकी वह दुर्दशा नहीं थी जो.आजकल होरही है । युवावस्थामें वर-कन्याओके सराहनीय विवाह सम्बन्ध होते थे | उनमें गुणोका ही लिहाज किया जाता था । जैन और बौद्धशास्त्रोमे
इस व्याख्याकी पुष्टिमे अनेकों उदाहरण मिलते है। ऐसा मालूम __ होता है कि उस जमानेमें व्यक्तिगत विवाह सम्बन्धकी स्वाधीनताने
इतना उग्ररूप धारण किया था कि किन्हीं २ राज्योमें विवाहसम्बन्धके खास नियम भी बना लिये गये थे। इस व्याख्याके अनुरूप अभीतक केवल एक वेशालीके लिच्छवियोके विषयमें विदित है। उनके यहां यह नियम था कि वैशालीकी कन्यायें वैशालीके वाहर न दी जावें । तथापि जिस तरह वैशाली तीन खण्डों-(१) क्षत्रिय खण्ड, (२) ब्राह्मण खण्ड और (३) वैश्य खण्ड-में विभाजित थी उसी तरह इनके निवासियोमे अपने और अपनेसे इतर खण्डकी कन्यासे विवाह करनेका नियम नियत था। शायद इस ही कारणसे
१ देखो विवाहक्षेत्रप्रकाश । २ देखो 'हिस्टॉरीक्ल ग्लीनिन्गूस' पृष्ठ ७३ ।
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१२]
[ भगवान महावोर
·
'सम्राट् श्रेणिकके साथ राजा चेटक अपनी कन्याका विवाह नहीं करेंगे' यह संभावना जैन शास्त्रों में की गई है । यद्यपि वहां इसका कारण राजा चेटकका जैनत्व और सम्राट् श्रेणिकका वौद्धत्व बतलाया गया है । ' इसमें भी संशय नहीं है कि राजा चेटक जैन धर्मानुयायी थे, परन्तु इससे वैशालीमें उक्त प्रकार नियम होने में कोई बाधा उपस्थित नही होती । वस्तुत' वैशाली, जहा जैनधर्मका प्रचार प्रारम्भसे अधिक था, यदि अपनी सामाजिक परिस्थितिको नये सुधारके प्रचलित रिवाजोंसे कुछ विलक्षण रखने में गर्व करे तो कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि यह हमको ज्ञात ही है कि लिच्छविगण बडे स्वात्माभिमानी थे और वह अपने उच्चवंशी जन्मके कारण सारी समाजमें अपना सिर ऊचा रखते थे । किन्तु इससे भी उस समय की सामाजिक क्रांतिके अस्तित्वका समर्थन होता है, जिसके विषयमें प्राच्य विद्या महार्णव स्व० मि० हीसडेविड्स भी लिखते है कि उस समय:
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"ऊपरके तीन वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य) तो वास्तव मूलमे एक ही थे, क्योकि राजा, सरदार और विप्रादि तीसरे वर्ण वैश्यके ही सदस्य थे, जिन्होने अपनेको उच्च सामाजिक पदपर स्थापित कर लिया था । वस्तुतः ऐसे परिवर्तन होना जरा कठिन थे परन्तु ऐसे परिवर्तनोका होना संभव था । गरीब मनुष्य राजा - सरदार (Nobles) वन सक्ते थे और फिर दोनो ही ब्राह्मण होसते थे । ऐसे परिवर्तनोंके अनेकों उदाहरण ग्रन्थोंमे मिलते है ।
• ....
१ देखो 'श्रेणिकचरित्र' ।
२ देखो 'दी क्षत्रिय फैन्स इन बुद्धिष्ट इडिया ' . पृष्ठ ८२ ।
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________________ -और म० बुद्ध ] इसके अतिरिक्त ब्राह्मणोके क्रियाकांडके एव सर्व प्रकारकी सामाजिक परिस्थितिके पुरुष-स्त्रियोंके परस्पर सम्बन्धके भी उदारण मिलते हैं और यह उदाहरण केवल उच्च परिस्थितिके ही पुरुष और नीच कन्याओंके संबंधके नहीं है, बल्कि नीच पुरुष और उच्च स्त्रियोके भी हैं।'' अतएव वस्तुत. उस समय ऐसी सामाजिक परिस्थित होना कुछ अचरज भरी बात नहीं है। स्वयं म० बुद्ध और भगवान महावीरके उपदेशसे सामाजिक परिस्थितिकी उल्झी गुत्थी प्रायः सुलझ गई थी। म० बुद्धने स्पष्ट रीतिसे कहा था कि कोई भी मनुष्य जन्मसे ही नीच नहीं होता है बल्कि वह द्विजगण जो हिंसा करते नहीं हिचकते हैं और हृदयमें दया नहीं रखते है, वही नीच है। 'वासेट्ठसुत्त' मे जब ब्राह्मणोसे वाद हुआ तब बुद्धने कहा कि "जन्मसे ब्राह्मण नही होता है, न अब्राह्मण होता है कितु कर्मसे ब्राह्मण होता है और कर्मसे ही अब्राह्मण होता है / " 3 भगवान महावीरने अपने अनेकात तत्वके रूपमे इस परिस्थितिको विलकुल ही स्पष्ट कर दिया। उन्होने कहा कि जन्मसे भी ब्राह्मण आदि होता है और कर्मसे भी। आचरणपर ही उसका महत्व अवलवित बतलाया / स्पष्ट कहा है कि: " संताणकमेणागय जीवयणरस्स गोदमिदि सण्णा / उच्चं नीचं चरण उच्च नीच हवे गोदं // " // गोमहसार // - - 1 देखो बुद्धिस्ट इडिया' पृष्ठ 55-59 / 2 सुत्तनिरात (SBE) 117 / 3 सुत्तनिपात (SBE ) 135 /
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१४]
[ भगवान महावीर। अर्थात्-सतान क्रमसे चले आये हुये जीवके आचरणकी / गोत्र सज्ञा है। जिसका ऊंचा आचरण हो उसका उच्च गोत्र और । जिसका नीच आचरण हो उसका नीच गोत्र है।" यह नही है
कि यदि कोई व्यक्ति नीच वर्णमे उत्पन्न हुआ है और वह सत्संगतिको पाकर अपने आचरणको सुधारकर उन्नत बना ले तो भी वह नीच बना रहे, प्रत्युत उसके उचाचरणी होने पर उसका गोत्र भी यथा समय उच्च हो जावेगा। भगवान महावीरके इस यथार्थ सदेशसे जनताको वास्तविक परिस्थितिका पता चल गया और वह आपसके अमानुषी व्यवहारको तिलाञ्जलि देकर प्रेमपूर्ण व्यवहार करने पर उतारु हो गई । आधुनिक विद्वान् भी इस अपूर्व घटनापर आश्चर्य प्रगट करते हैं, किन्तु सत्यके साम्राज्यमें ऐसी घटनाओका घटित होना स्वाभाविक है।
इस तरह उस समयकी सामाजिक परिस्थिति भी इस समयसे विशेष उदार थी और थोथी ढकोसलेवानीको उसमें स्थान शेष नहीं रहा था । भगवान पार्श्वनाथके दिव्योपदेशसे सामाजिक व्यव
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, कवि सम्राट् सर खोन्द्रनाथ ठाकुरने स्पष्ट शब्दोंमें भगवान महावीरके इस दिव्य प्रभावका महत्व स्वीकार किया है। देखो "भगवान महावीर" पृष्ट २७१५.15 .. २ भगवान पार्श्वनाथ, भगवान महावीरके पूर्वागामी और जैन धर्म माने- हुए २४ तीर्थरोंमें २ थे। आधुनिक विद्वानोंने इनको ईसासे ८वीं-९वीं शताब्दिका ऐतिहासिक व्यक्ति स्वीकार किया है। २२वें तीर्थकर भगवान नेमिनाथ इनसे बहुत पहले हुए थे। वे श्री कृष्णके समकालीन थे।
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- और म० बुद्ध ]
[ १५
स्थामें हलचल खड़ी हो गई थी; क्योंकि भगवान नेमिनाथके दीर्घ अन्तराल कालमें - ब्राह्मण संप्रदायका प्राबल्य अधिक बढ़ गया था और चिप्रगण अपने स्वार्थमय उद्देश्योंकी पूर्तिमे मनुष्य समाजके प्रारंभिक स्वत्वोंको अपहरण कर चुके थे। इस दशा में जब भगवान पार्श्वनाथने जनताको वस्तुस्थिति बतलाई तो उसके कान खडे हो गये, और उसमेंसे प्रभावशाली व्यक्ति अगाडी आकर-ब्राह्मणों द्वारा प्रचलित सामायिक व्यवस्थाके विरुद्ध लोगोको उपदेश देने लगे । फलतः एक सामाजिक क्रातिसी उपस्थित हुई । जिसका शमन म० बुद्ध और फिर पूर्णतः भगवान महावीर के अपूर्व उपदेशसे हुआ । जिन सुधारोंकी आवश्यक्ता थी, वह सुगमतासे पूर्ण हुए और मनुप्योमें आपसी भेद अधिक बढ़ रहे थे उनका अन्त हुआ । तत्कालीन जैन और बौद्ध विवरणोत्रो ध्यान पूर्वक पढ़नेसे यही परिस्थिति प्रति भाषित होती है । सचमुच इस समय भी आर्यत्वकी रक्षा के लिये भगवान महावीरके दिव्य सदेशको दिगन्तव्यापी बनानेकी आवश्यक्ता है । मनुष्य समाज उससे विशेष लाभ उठा सक्ता है ।
जिस तरह हम सामाजिक परिस्थितिके सम्बन्धमें देखते हैं कि उस समय उसमे एक क्रान्तिसी उपस्थित थी; ठीक यही दशा धार्मिक वातावरण में होरही थी । सर्वत्र अशान्तिका साम्राज्य था । ईसासे पूर्व आठवीं शताव्दि में भगवान पार्श्वनाथने जो उपदेश दिया उसका जो प्रभावकारी फल हुआ उसका दिग्दर्शन हम ऊपर कर चुके हैं । सचमुच लोगोको राज्यनैतिक और सामाजिक स्वत
नाके उस समृद्धशाली जमानेमे अपने असली स्वाधीनता - आत्मस्वातंत्र्यको प्राप्त करनेकी धुन सवार होगई थी और वह प्रचलित
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१६ ]
[ भगवान महावीर
२
थोथे क्रियाकाण्डोको हेय दृष्टि से देखने लगे थे । इस दशामे उस समय धार्मिक वातावरण में दो विभाग स्पष्टतः नजर आते थे । एक तो प्राचीन क्रियायों और यज्ञ रीतियोंका कायल ब्राह्मण वर्ग था और दूसरा नवीन सुधारको समक्ष लानेवाला 'समण' (भ्रमण) दल थी । यह द्वितीय दल अनेक प्रतिशाखाओं में विस्तृत मिलता था । जैन शास्त्र इनकी संख्या तीन सौ त्रेसठ बतलाते हैं, परन्तु बौद्ध सिर्फ त्रेसठ ही, इस मतभेदका निष्कर्ष यही प्रतीत होता है कि उस समय अनेक विविध पंथ प्रचलित थे । सामाजिक क्रांतिके दौरदौरेमे जो कोई भी ब्राह्मणके विरुद्ध कितने भी लचर सिद्धातोको लेकर खडा हो जाता था, उसीको लोग अपनाने लगते थे । विशेषकर क्षत्रिय वर्ण ऐसे विरोधकोंका सहायक बन रहा था और वह उनके लिये मंदिर, आराम आदि भी बनवा देता था । *
४
प्रथम ब्राह्मण वर्ग विशेषकर यज्ञ क्रियाओं और पशु बलि दानको मुख्यता देता था और उनमें जो विशेष उन्नति किए हुए परिव्राजक लोग थे, जिनकी उपनिषद् आदि रचनायें प्रसिद्ध हैं, वह ज्ञान और ध्यानको ही आत्मस्वातंत्र्यके लिये आवश्यक समझते थे ।" ऋपिगण भगवान पार्श्वनाथ के पहिलेसे ही बलिदान
१ सुत्तनिपात (S. B. E. Int10) XII.
२ अगपण्णन्ति गाथा न० ७३ ।
३ सुत्तनिपात ( S. B. E ) ५३८ ।
४ सान्डर्स गौतमबुद्ध पृष्ठ १७ ।
५ साख्नसूत्र २१२४, न्यायसूत्र १-१-१, और पेशे पत्रसूत्र *१-१--४ ।
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- और म० बुद्ध ]
[ १७
पोषक विप्रोके साथ २ चले आरहे थे । अन्ततः भगवान पार्श्वनाथके उपदेशको सुनकर इनमें से भी ऋषिगण अलंग होकर अपनी स्वतंत्र आम्नाय “आजोवक” नामक बना चुके थे'। इनकी गणना दूसरे दल में की जाती है । यह दूसरा दल ज्ञान और ध्यानके साथ २ चारित्रको विशेष आदर देता थी । इसकी मान्यता थी कि विना चारित्रके मनुष्य आत्मोन्नति कर ही नहीं सक्ता है । इस दलके प्रख्यात प्रवर्तकों की संख्या म० बुद्धने अपने सिवाय छह बतलाई है । इनको वह 'तित्थिय' कहते थे । इनके नाम इस तरह बताये गये है (१) पूर्णकाश्यप (२) मस्करि गोशा लिपुत्र ( मक्खलि गोशाल) (३) सजयवैरत्थी पुत्र (४) अजितकेशकम्बलि (५) पकुढकात्यायन और (६) निगन्थनातपुत्त ( महावीर ) । और यह प्रत्येक अपने २ "सघके नेता, गणाचार्य, तीर्थकर, तत्ववेत्तारूपमे विशेष प्रख्यात्, मनुष्यों द्वारा पूज्य अनुभवशील और दीर्घ आयुके समन (श्रमण) "* बतलाये गए हैं । इनमें म० बुद्ध और भगवान महावीर विशेष प्रख्यात है । अतएव इनके विषय मे खासी तौरपर परिचय पानेका प्रयत्न निम्न पृष्ठों किया जायगा, परन्तु शेषके पांच मतप्रवर्तकोंके विषयमे भी यहां पर किंचित ज्ञान प्राप्त कर लेना बुरा नही है ।
पहले पूर्णकाश्यपके विषयमें बतलाया गया है कि वह नग्न श्रमण थौं । नग्न श्रमण वह कैसे हुआ इसके लिये एक अटपटी
१ भेरा "भगवान महावीर" पृठ १७७-१७९ ।
२ जैसे मं०' बुद्धका 'मध्ये मार्ग (महावगा १-६) और जैनियों का 'मोक्षमार्ग ( तत्वार्थत्र १ - १ )
3 दिव्यावदान पृ० १४३ | ४ दीघनिकाय प्रथम भाग पृष्ठ ४७-४९ ॥ ५ मरा "भगवान महावीर" पृ० १८४ |
૨
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१८]
[ भगवान महावीरकथा मिलती है। जिस पर विश्वास करनेको जी नहीं चाहता। वस्तुतः उस कालमें नग्नत्व साधुपनेका एक-चिह्न माना जाने लगा था, जैसे हम अगाडी देखेंगे, परन्तु यहांपर इससे यह स्पष्ट है कि इस समय जो. नग्न श्रमण जैसे पूर्णकाश्यप, मक्खलि गोशाल
आदि मिलते थे वह नग्नभेष इसी जनमान्यताके अनुसार ग्रहण किये हुये थे । बौद्धग्रन्थमें पूरणके विषयमें यही कहा गया है कि पूरणने वस्त्र ग्रहण करनेसे इसीलिए इन्कार कर दिया था कि नग्न दशामें उसकी मान्यता विशेष होगी। अस्तु ("Pumara Kassapa declined accepting clothes thinking that as a Digambara le would be better respected. " Ind. Ant : Vol. IX. P. 162 ). पूर्णकाश्यप एवं अन्य चारों मत. प्रवर्तक भगवान महावीर और म० बुद्धसे आयुमें बडे थे।' और यह अपनेको तीर्थकर कहते थे, उसका कारण शायद यह था कि भगवान पार्श्वनाथके उपरांत एक तीर्थङ्करका जन्म लेना और अवशेष था इसलिये यह लोग अपनेको ही तीर्थदर प्रक्ट वरने लगे थे।' इन नामधारी तीर्थक्षरोंमे केवल निग्रन्थ नातपुत्त (महावीर) को छोड़कर शेष सबका तीव्र खण्डन बौद्ध ग्रन्थोमें किया गया है। वहा पूर्णकाश्यपकी मान्यताओंका उल्लेख हमें यह मिलता है कि "मनुष्य जो कार्य स्वयं करता है अथवी दूसरेसे करवाता है, वह उसकी आत्मा नहीं करती है और न करवाती है। (एवम् अकार्यु अप्पा) ।" इस अपेक्षा न और बौद्ध दोन ने इसके मतकी गणना
१ हिस्टॉरीक्ल लीनिन्गस पृ०1१-301
२ टेखो हमारा 'भा वान महावीर पृष्ठ १८५।। ३ हिटॅरीव ल न्लीनिःग् पृष्ठ १७-१८१४ सूत्रराङ्ग १-१-१३
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-और म० बुद्ध ]
[१९ 'अक्रियावाद में की है। यद्यपि दिगम्बर शास्त्र 'दर्शनसार ' में मस्करि गोशालि पुत्र ( मक्खलिगोशाल) और पूर्णकाश्यपको एक व्यक्ति मानकर इनके मतकी गणना 'अज्ञानवाद में की है। इस मतभेदका कारण अन्यत्र देखना चाहिये। पूर्णकाश्यपकी इसप्रकार आत्माके निष्क्रियपनेकी मान्यताका आधार ब्राह्मण ऋषि भारद्वाज और नचिकेतोंके सिद्धान्तमें ख्याल किया जाता है; यद्यपि श्वे० टिकाकार शीला काश्यपके सिद्धान्तोकी सादृश्यता सांख्यमतसे बतलाता है। (देखो प्री० बुद्धिस्टक इन्डियन फिलासफी पृष्ठ २७९ ) परन्तु यदि हम भगवान पार्श्वनाथके उपदेश पर दृष्टि डालें तो हम जान जाते है कि काश्यपने भगवान पार्श्वनाथकी निश्चयनयका महत्व भुलाकर केवल एक पक्ष केवल अपने मतकी पुप्टी की थी। निश्चयनयकी अपेक्षा मूलमें आत्मा.सब सांसारिक क्रियायोसे विलग है, यही भगवान पार्श्वनाथका उपदेश था । अतएव फाश्यप पर उन्हींक उपदेशका प्रभाव पड़ना चाहिए।
इसके बाद दूसरे मतप्रवर्तक मक्खलिगोशालथे । यह भी नग्न रहते थे। यह पहले भगवान पार्श्वनाथकी शिष्यपरंपराके एक मुनि थे; परन्तु निस समय भगवान महावीरके समवशरणमें इनकी नियुक्ति गणधरपद पर नहीं हुई तो यह रुष्ट होकर श्रावस्तीमें
आकर आजीवकोंके सम्प्रदायके नेता बन गये और अपनेको तीर्थ• .' - हिस्टॉरिकल ग्लीनिन्गस पृष्ठ ३६ । '
२-इसका क्या कारण है, इसके लिए हमारा लेख "वीर" वर्ष । के जयंती अंक' और 'दिगम्बर जैन' के वीर नि० सं० २४५२ के विशेषांकमें देखना चाहिये ।
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२०]
। भगवान महावीरकर बतलाकर यह उपदेश देने लगे कि ज्ञानसे मोक्ष नहीं होता, अज्ञानसे ही मोक्ष होता है। देव या ईश्वर कोई है ही नहीं। इसलिए स्वेच्छापूर्वक शून्यका ध्यान करना चाहिये।'भावसंग्रह' नामक प्राचीन दि० जैन ग्रन्थमें इसके विषयमें यही कहागया है, परन्तु यहां पर किसी कारणवश मस्करि और पूरणका उल्लेख एक साथ किया है, ' यथा.
"मसर्यरि-पूरणारिसिणो उप्पण्णो पासणाहतित्थम्मि । सिरिवीर समवशरणे अगहियझुणिणा नियत्तेण ||१७६|| वहिणिग्गएण उत्तं मज्झं एयारसांगधारिस्स। णिग्गइ झुणी ण, अरुहो णिग्गय विस्सास सीसस्स ॥१७॥ ण मुणइ जिणकहिय सुयं संपइ दिक्खाय गहिय गोयमओ। विप्पो वेयभासी तम्हा मोक्खं ण णाणाओ ॥१७८॥ अग्णाणाओ मोक्खं एवं लोयाण पयडमाणो हु । देवो अणत्थि कोई सुण्णं झाएह इच्छाए ॥ १७२ ॥ ___ इसके अतिरिक्त 'दर्शनसार' और 'गोम्मटसार जीवकाण्ड' मे भी मक्खलिगोशालकी अज्ञानमतमे गणना की है। बौद्धोके समन्न फलसुत्तमे भी गोशालकी इस मान्यताका उल्लेख इस प्रकार मिलता है कि 'अज्ञानी और ज्ञानवान संसारमे भ्रमण करते हुए समान रीतिसे, दुखका अन्त करते है' (सन्धावित्वा संसरित्वा. दुःखस्सा
१ इस सबके लिये उक्त लेख और हमारी पुस्तक 'भगवान महावीर' में 'मक्ख गोशीले और पूरण वाया शीर्षक परिच्छेद देखना चाहिय ।
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-और म. वुद्ध]
[२१ न्तम् करिस्सन्ति)।' पाताअलिने भी अपने पाणनिसूत्रके भाष्यमें गोशालके सम्बन्धमें कुछ ऐसा ही सिद्धान्त निर्दिष्ट किया है। वहां लिखा है कि वह 'मस्करि' केवल बांसकी छड़ी हाथमें लेनेके कारण नहीं कहलाता था; प्रत्युत इसलिए कि वह कहता था-" कम मत करो, कर्म मत करो, केवल शान्ति ही वाञ्छनीय है ।" (मा कत कर्माणि, मा कृत कर्माणि इत्यादि)। 'इसतरह मक्खलिगोशालकी मान्यता थी, परन्तु अन्तमें भगवान महावीरके दिव्य उपदेशके धवल प्रकाशमें मक्खलिगोशालका महत्त्व जाता रहा और वह एक पागलकी भांति मृत्युको प्राप्त हुआ। श्वेताम्बर शास्त्रोंमें इसे भगवान महावीरका शिप्य बतलाया है, परन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि भगवान महावीर छद्मस्थ अवस्थामें उपदेश देते • अथवा बोलते नहीं थे, यह स्वय श्वेताम्बर शास्त्र प्रकट करते हैं । ऐसी दशामें उस अवस्थामें गोशालका भगवानका शिष्य होना असंगत है।
श्वे० के इस मिथ्या कथनके आधारसे लोगोंका ख्याल है कि महावीरजीने गोशालसे बहुत कुछ सीखा था और वह नग्न इसीके देखादेखी हुये थे, परतु ऐसी व्याख्यायें निरी निर्मूल हैं, यह हम अन्यत्र बता चुके हैं। ( वीर वर्ष ३ अंक १२-१३ स्वयं श्वे० ग्रन्थ भगवतीसूत्रमें कहा गया है कि जब गोशाल महावीरजीसे मिला था तब वह वस्त्र पहने हुए था और जब
१ हिस्टॉरीकल ग्लीनिन्गस पृष्ठ ३९ । २ आजीविक्स प्रथम भाग पृर १२ । ३ हमारा 'भगवान महावीर ' पृष्ठ १७९ । ४ दी हार्ट ऑफ जैनीम पृष्ठ ६० । ५ “भगवतीसूत्र १५। ६ आचारागसूत्र (S. B.E ) पृष्ठ ८०-८७
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२२]
[ भगवान महावीरमहावीरजीने उसे शिष्य बनाया तब उसने वस्त्रादि उतारकर फेंक दिये थे। (देखो उपाशकदशासुत्र Biblo Ind. का 'परिशिष्ट) इस दगामें महावीरजी पर गोशालका प्रभाव पड़ा ख्याल करना कोरा ख्याल ही है।
तीसरे संजयवैरत्थीपुत्रको बौद्धशास्त्रोमें मोग्गलान (मौद्गलायन) और सारीपुत्तका गुरु वतलाया गया है। उपरान्त संजयके यह दोनो शिप्य बौद्धधर्ममें दीक्षित होगये थे। मौदलायनके विषयमें हमे श्री अमितगति आचार्यके निम्न श्लोकसे विदित होता है कि यह पहिले जैन मुनि था:
"रुष्टः श्रीवीरनाथस्य तपस्वी मौडिलायनः। . शिष्यः श्रीपार्श्वनाथस्य विदधे बुद्धदर्शनम् ॥६॥
शुद्धोदनसुतं बुद्धं परमात्मानमब्रवीत् ।"
अर्थात-"पार्श्वनाथकी शिष्यपरम्परामें मौडिलायन नामका तपस्वी था । उसने महावीर भगवानसे रुष्ट होकर बुद्धदर्शनको चलाया और शुद्धोदनके पुत्र बुद्धको परमात्मा कहा " श्लोकके इस कथनपर शायद कतिपय पाठक ऐतराज करें, क्योंकि बौडदर्शनके संस्थापक तो स्वयं म० बुद्ध थे, परन्तु बौद्ध शास्त्रोमें मौडिलायन (मौद्गलायन) और सारीपुत्त विशेष प्रख्यात् थे और वे बौद्धधर्मके उत्कट प्रचारक थे, ऐसा लेख है । इस अपेक्षा यदि मौद्गलायनको ही बौद्धदर्शनका प्रवर्तक बतलाया गया है, तो कुछ अत्युक्ति नही है। स्वयं बौद्ध ग्रन्थों में भी भगवान महावीरके सम्बन्धमें ऐसी ही गल्ती कीगई है। उनमें एक स्थान पर उनका उल्लेख 'अग्गिवेसन'
, महावग्ग ।। २३-२४ । २ हिस्टॉकिलग्लीनिंग्स पृष्ठ ४५ ॥
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-और म० बुद्ध
(अग्निवैश्यायन)के नामसे किया है, परन्तु हम जानते हैं कि भगवान महावीरका गोत्र काश्यप था और उनके गणधर सुधर्मास्वामीका अग्निवैश्यायन गोत्र था। इस तरह महावीरजीके शिष्यकी गोत्र अपेक्षा उनका उल्लेख करके बौद्धाचार्य ने भी जैनाचार्यकी भांति गल्ती की है। अतएव इसमें संशय नहीं कि मौद्गलायन भगवान पार्श्वनाथकी शिष्यपरंपराका एक जैनमुनि था। जैनग्रन्थोमें इनके गुरुका नाम नहीं दिया गया है, परन्तु बौद्धशास्त्र इनके गुरूका नाम संजय अथवा संनयवैरत्थीपुत्र* बतलाते है । जैनशास्त्रोमें भी हमें इस नामके एक जैन मुनिका अस्तित्व उस समय मिलता है । यह चारणऋहिधारी मुनि थे और इनको कतिपय शङ्कायें थीं जो भगवान महावीरके दर्शन करते ही दूर होगई थीं । श्वेताम्बरोंके उत्तराध्ययन सूत्रमें भी एक संजय नामक जैन मुनिका उल्लेख है। ऐसी अवस्थामें जैन मुनि मौद्गलायनके गुरू संजयका जैनमुनि होना बिल्कुल सभव है और यह संभवतः चारणऋद्धिधारी मुनि संजय ही थे। इसकी पुष्टि दो तरहसे होती है। पहिले तो संजयकी शिक्षायें जो बौद्धशास्त्रोमें अंकित हैं वह जैनियोंके स्याद्वाद सिद्धा
१ जनसूत्र (S. B.E.) भाग २ XXI
* बौद्ध शास्त्रों में संजय रथीपुत्र और सजय परिव्राजक नामक दो व्यक्तियों का उल्लेख मिलता है। विद्वानोंको सशय है कि यह दोनों एक व्यक्ति थे। किन्तु महावस्तु (III P. 59) में इन दोनों व्यक्तियों को एक ही बतलाया है । अतएव यहा परिव्राजकके अर्थ साधारण विचरते हुए भिक्षुके समझना चाहिये । इसी भाव, यह शब्द पहले व्यवहृत होता था। देखो हिस्टॉरीकल ग्लीनिस पृष्ठ ९ २महावीर चरित्र पृष्ठ २५५ १३ उत्तराध्ययन (S. B. E.) पृष्ठ ८२ ॥
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२४]
[ भगवान महावारन्तकी विकृत रूपान्तर ही हैं। इससे इस बातका समर्थन होता है कि स्याद्वादसिद्धान्त भगवान महावीरसे पहिलेका है, जैसे कि जेनियोंकी मान्यता है; और उसको संजयने पार्धनाथकी शिष्य परंपराके किसी मुनिसे सीखा था, परन्तु वह उसको ठीक तौरसे न समझ सका और विकृत रूपमें ही उसकी घोषणा करता रहा। जैनशास्त्र भी अव्यक्त रूपमे इसी वातका उल्लेख करते हैं. अर्थात् वह कहते हैं कि सनयको शङ्कायें थीं जो भगवान महावीरके दर्शन करनेसे दर होगई। यदि यह वात इस तरह नही थी तो फिर भगवान महावीर और म० वुद्धके समयमें इतने प्रख्यात मतप्रवतकका क्या हुआ, यह क्यों नहीं विदित होता? इसलिए हम जैन मान्यताको विश्वसनीय पाते हैं और देखते है कि संजय वैरत्थी पुत्र, नो मोग्गलान (मोद्गलायन) के गुरू थे यह जैन मुनि सजय ही थे। दूसरी ओर इस व्याख्याकी पुष्टि इस तरह भी होती है कि इन संनयकी शिक्षाकी सादृश्यता यूनानी तत्ववेत्ता पर्रहोकी शिक्षाओंसे बतलाई गई है। एक तरहसे दोनोमें समानता है और इस पैहोने नम्नोसूफिट्स सूफियोंसे, जो ईसासे पूर्वकी चौथी शताब्दिमें यूनानी लोगोंको भारतके उत्तर पश्चिमीय भागमें मिले थे, यह शिक्षा ग्रहणकी थी। यह जैम्नोसूफिट्स तत्ववेत्ता निर्ग्रन्थ दिगम्बर साधुओंके अतिरिक्त और कोई नहीं थे। यूनानियोंने इन जैन साधुओंका नाम 'जैम्नोसूफिट्स' रक्खा था, अतएव जैन साधुओंसे शिक्षा पाये हुये १'समन्नफलसुत्त' 'डायोलॉग्स ऑफ बुद्ध' (8. B. B.Vel II) २ हिस्टॉरकल ग्लीनिंग्स पृष्ठ ४२ । ३ हिस्टॉरीकलग्लीनिगस पृष्ठ ४२। ४ इन्सालोपेडिया बेटेनिका भाग १५ ।
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[२५
-और म० बुद्ध] यूनानी तत्ववेत्ता पैर्रहो की शिक्षाओंसे उक्त संजयकी शिक्षाओंका सामञ्जस्य बैठ जाना, हमारी उक्त व्याख्याकी पुष्टिमें एक और स्पष्ट प्रमाण है। इस तरह यह तीसरे प्रख्यात मतप्रवर्तक जैन मुनि थे इसमें संशय नहीं है, अतएव इनकी गणना 'अज्ञानमत'में नहीं होसक्ती. और न यह कहा ना सक्ता है कि इनकी शिक्षाओंका संस्कृतरूप - भगवान महावीरका स्याहाद सिद्धान्त है; जैसे कि कतिपय विद्वान् खयाल करते हैं। 22730
. चौथे मत प्रवर्तक अजित केशकम्बलि थे। यह वैदिक क्रियाकाण्डके कट्टर विरोधी-थे और पुनर्जन्म सिद्धान्तको अस्वीकार करते थे। इनका मत था कि.लोक पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुका .समुदाय है और आत्मा पुगलके कीमयाई-ढंगका परिणाम है। इन चारों चीजोंके विघटते ही वह भी विघट जाता है । इसलिए वह कहता था कि नीव और शरीर एक हैं ("तम् जीवो तम् सरीरम् ") और प्राणियोंकी हिसा करना दुष्कर्म नहीं है । इसकी इस शिक्षामें भी जैन सिद्धान्तके.व्यवहारनय अपेक्षा आत्मा और पुद्गलके समिश्रणका विकृतरूप नजर आता है । भगवान- पार्श्वनाथने इस सिद्धान्तका प्रतिपादन किया था ही, उसहीके आधार पर अजितने अपने इस सिद्धांतका निरूपण किया, जिसके अनुसार हिसा करना भी बुरा नहीं था। विद्वान लोग अजितको ही भारतमें केवल पुगलवादका आदि प्रचारक ख्याल करते हैं। चार्वाक मंतकी सृष्टि
१ अनसुत्र (S. B.E.) भाग २. भूमिका XXVII. : २.हिस्टॉरीकलग्नीनिंग्स पृष्ठ ३५॥ ३ अनसूत्र (S. B.-E.) भाग २ भूमिका XXIII.
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२६]
[ भगवान महावीरअजितके सिद्धान्तोके वल हुई हो तो आश्चर्य नहीं ! (देखो प्री० बुद्धिस्टिक इन्डियन फिलासफी पृष्ट २८८)।
पांचवें मतप्रवर्तक पकुडकात्यायन थे । 'प्रश्नोपनिषद' में इनको ब्राह्मण ऋपि पिप्पलादका समकालीन बतलाया गया है और यह ब्राह्मण थे ।* इनकी मान्यता थी कि 'असत्तामेंसे कुछ भी उत्पन्न नहीं होता और जो है उसका नाश नहीं होता ।' (सतो नच्चि विनसो, असतो नच्चि सम्भवो । सूत्रकृताङ्ग २-१-२२) इस अनुरूपमें इनने सात सनातन तत्व बतलाये; यथा.(१) पृथ्वी (२) जल (३) अग्नि (8) वायु (५) सुख, (६) दुःख और (७) आत्मा, इन्हीं सातके सम्मिलन और विच्छेदसे जीवन व्यवहार है। सम्मिलन सुखतत्वसे होता है और विच्छेद दुखतत्वसे । इस कारण इनका परस्पर एक दूसरे पर कुछ प्रभाव है नहीं, जिससे किसी व्यक्तिको खास नुक्सान पहुंचाना भी मुश्किल है। पकुडकी प्रथम मान्यता साख्य, वैशेषिक, वेदात, उपनिषध, जैन और बौद्धोंके अनुरूप है। यद्यपि अतिम कुछ अटपटे ही ढंगका विवेचन है। यह शीत जलमें जीव होना भी मानते थे। ' इन मत प्रवर्तकोमें हम इस बातका खास उद्देश्य देखते हैं कि वह पुण्य-पापको मेटकर हिंसावादकी पुष्टि करते है। मबुद्धने भी मृतपशुओंके मांस खानेका निषेध नहीं किया, जैसे कि हम अगाडी देखेंगे। अस्तु, इससे जैनधर्मका इनसे पहिले अस्तित्व प्रमा
*प्री बुबिस्टिक इन्डियन फिलासफी 'पृष्ट २८ । १ जैनसूत्र (S. B. E.) भाग २-भूमिका XXIV. २ हिस्टॉरीकलग्लीनिंग्स पृष्ठ ३४ । ३ जैनस्त्र (S. B. E.) भाग २ भूमिका XXIV.
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11
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-और म० बुद्ध ]
[२७ णित होता है। अर्थात् भगवान पार्श्वनाथकी शिष्यपरम्पराके ऋषिगण भी इस समय मौजूद थे और उन्होने जो अहिसामई स्याहादकर संयुक्त धर्म प्रतिपादन किया था उससे लोग भड़क गये थे, परन्तु वे सहसा अपनी मासलिप्साका मोह नहीं त्याग सके थे। इसी कारण उन्होने भगवान पार्श्वनाथके उपदेशको विकृतरूप देकर अपनी जिह्वालम्पटताके उद्देश्यकी सिद्धि की थी* यहां तक कि ऐसे तापस
* सचमुच जैनधर्मके दिव्य उपदेशसे प्रभावित हो यह मतप्रवर्तक भगवान महावीरके पहिलेसे विकृतरूप में अपने मनोनुकूल धर्मका प्रचार कर रहे थे: इसका स्पष्ट समर्थन भाधुनिक विद्वान भी करते दृष्ट पड़ते हैं । स्व० जेम्स डेऽलिस साहवके लेखसे स्पष्ट है कि 'दिगम्बर' एक प्राचीन संप्रदाय समझा जाता था भौर उपरोक्तलिखित मतप्रवर्तकोंके सिद्धान्तोपर जैनधर्मका प्रभाव पडा नजर पड़ता है। (In James d Alwis' paper ( Ind. Anti: VIII.) on the six Tirthakas the “Diyambaias" appear to bave been regarded as an old order of ascetics and all of these horetical teachers betray the influence of Jaluism in their doctrines." Ind. Ant. Vol. IX. P. 161). यही बात जैनदर्शनदिवाकर डॉ. हर्मन जैकोबी भी प्रकट करते मालूम पड़ते हैं यथा
“The preceding four Tirthakas appear all to have adopted some or other doctrines or practices, which wakes part of the Jaina System,. probably from the Jains themselves. ....It ap. pears from the preceding remarks thut Jaina idens and practices must have been current at the time of Mahavira and independently of him,
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२८]
[ भगवान महावीरभी मौजूद थे जो वर्षभरके लिए एक हाथीको मारकर रख छोड़ते थे और उसी द्वारा उदरपूर्ति करते हुए साधु होनेकी हामी भरते थे।
सारांशतः यह प्रकट है कि उस समय धार्मिक प्रवृत्ति भी बड़ी ही नाजुक अवस्थामें हो रही थी। भगवान महावीर और म० बुद्धके समय उपरोक्त मत प्रवर्तकों द्वारा इसका सुधार नहीं हो पाया था। परिणामतः इस सामाजिक और धार्मिक क्रान्तिके अवसर पर म• बुद्धने परिस्थितिको बहुत कुछ सुधारा और फिर भगवान महावीरके दिव्योपदेशसे जनता-यथार्थताको पागई और अपनी सुखसमृद्धशाली दशामें सामाजिक उदारता और आत्मिक स्वाधीनताके सुख-स्वप्नमें लीन होगई । अतएव निनके पृष्ठोमें हम तुलनात्मक रीतिसे म० बुद्ध और भगवान महावीरके जीवनों और उनके सिद्धान्तोंपर एकदृष्टि डालेंगे।
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This Combined with other arguments, leads us to the opinion that the Nirgranthas were really in existence long before Mahavira, who was the reformer of the already existing sect. ” (Ind. Ant. Vol. IX. P. 162).
१ जैन सत्र (स्त्रवाट २-५-५२ S. B.E.) पृष्ठ ४९८ ।
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और म० वुद्ध ]
[२९
भगवान महावीर और म० बुद्धका
प्रारंभिक जीवन। · ईसासे पूर्वकी छठी शताब्दिके भारतमें जो क्रान्ति उपस्थित थी उसके शमन करनेके लिये ही मानो भगवान महावीर और म० बुद्धका शुभागमन हुआ था। यह दोनो ही महानुभाव इक्ष्वाक वंशीय क्षत्रियोके गृहमें अवतीर्ण हुये थे।' यद्यपि दोनों ही युगप्रधान पुरुष हम आप जैसे मनुष्य थे; परन्तु अपने पूर्वभवोमें विशेष पुण्य उपार्जन करनेके कारण उनके जीवन साधारण मनुष्योसे कुछ अधिकता लिये हुये थे । यही बात बौद्ध और जैन ग्रन्थ प्रगट करते है। बौद्धशास्त्र कहते हैं कि जिस समय मं० बुद्धका जन्म हुआ उस समय कतिपय अलोकिक घटनायें घटित हुई थी और जब वे अपनी माताके गर्भ में आये थे तब उनकी माताने शुभ स्वम देखे थे। भगवान महावीरके विषयमें भी कहा गया है कि जब वे अपनी माताके गर्भमे आये थे तब उनकी माताने सोलह शुभ स्वप्न देखे थे जिनके सांकेतिक अर्थसे एवं उस समय स्वर्गलोकके देवगणों द्वारा उत्सव मनानेसे यह ज्ञात होगया था कि अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीरका जन्म शीघ्र ही होगा। चैत्र शुक्ला त्रयोदशीके रोन जव उनका जन्म हुआ तब दिशायें निर्मल होगई थीं, समुद्र स्तब्ध । १ बुद्ध जीवन (3. B.E XIX) पृष्ट ५-१० भऔर जैनसुत्र (S. BE.) भाग १ पृष्ठ १४१ ।
२ बुद्ध जीवन (S. B. E. XIX) पृष्ट ५-१० ।
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[भगवान महावीर
होगया था, पृथ्वी किंचित् हिल गई थी और सब जीवोंको क्षणभरके लिए परम शातिका अनुभव मिल गया था। इस समय भी एव अन्य दीक्षा धारण, केवलज्ञान प्राप्ति और मोक्षलाभके अवसरोंपर भी देवगणोंने आकर उत्सव मनाये थे।'
म. बुद्धका पूर्ण नाम गौतमबुद्ध था और वह सिद्धार्थके नामसे भी ज्ञात थे, किन्तु उनकी प्रख्याति आजकल केवल म बुद्धके नामसे होरही है। यद्यपि वस्तुतः यह उनका एक विशेषण ही है, जैसे भगवान महावीरको तीर्थकर बतलाना । बौद्धधर्ममें बुद्ध शब्दका प्रयोग इसी तरह हुआ है जिस तरह 'तीर्थकर' शब्दका व्यवहार जैनधर्म में होता है । तथापि जिस तरह जैन शास्त्रोंमें भगवान महावीरके पूर्वभवोंका दिग्दर्शन कराया गया है-उसी तरह म० गौतम बुद्धके भी पूर्वभवकी कथायें बौद्ध साहित्यमें “जातक कथाओं" के नामसे विख्यात हैं । म० बुद्धने भी तिर्यश्च, मनुप्य,देव आदि कितनी ही योनियोंमें जीवन व्यतीत करके अन्ततः देव योनिसे चयकर राजा शुद्धोदनके यहां जन्म धारण किया था । कहा जाता है कि इस घटनासे बीस 'मसंख्य-कप-लक्ष' अर्थात् वुद्ध होने के 'मनोपरिनिदान' से अपने जन्मतक बुद्धने तीस 'पारिमिताओं' का पूर्ण पालन किया था, तब ही वह बुद्ध हुये थे। यह पारिमितायें'
मूलमें दस हैं; परन्तु साधारण, उर और परमार्थक भेदसे-वे ही तीस - प्रकारकी है। बुह पदको प्राप्त होनेके लिए उनका पालन कर,लेना आवश्यक है। वे यह हैं, (१) दानपारिमिता-चौद्धोंके तीन प्रका
१ उत्तरपुराण पृष्ट -६०५-६१४ भौर जैनसूत्र (S. RE) माग पृट-२१०-२७० ।
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-और म० बुद्ध ]
[३१ रका दान देना, * (२) शीलपारिमिता-बौद्ध व्रतोका पालन करना, (३) नैसकर्मपारिमिता-संसारसे विरक्त होकर त्यागावस्थाका अभ्यास करना, (४) प्रज्ञापारिमिता- बुद्धिसे प्राप्त गुणोंको प्रगट करना, (५) वीर्यपारिमिता-दृढ़ वीरत्वको प्रगट करनेवाला साहस, (६) शान्ति पारिमिता--उत्कृष्ट प्रकारकी सहनशीलता, (७) सत्तपारिमिता-सत्य भाषण; (८) अदिष्टान पारिमिता-दृढ़-प्रतिज्ञाकी पूर्णता; (९) मैत्री पारिमिता-प्रेम और दयाका व्यवहार करना, (१०) और उपेक्षा पारिमिता-शत्रु मित्रपर समान भाव रखना । म० बुद्धने-अपने पूर्वभवों में इनके- अभ्यासमें कमाल हासिल कर लिया था, यह बात बौद्ध शास्त्रों में कही गई है। यह भी कहा गया है कि बुद्ध देवलोकमें अधिक नहीं ठहरते थे-वह अपने उद्देश्य प्राप्तिके लिए मनुष्य भवको ही बार२ प्राप्त करनेका प्रयत्न करते थे क्योंकि देवलोकमें रहकर वह अपने उद्देश्यकी प्राप्ति नहीं कर सक्ते थे । जैनधर्म में भी परमार्थ साधन और सर्वज्ञपद पानेके लिए मनुष्यभव लानमी बतलाया गया है। परन्तु वहां तीर्थङ्करपद पानेके लिए निदान बांधना आव. श्यक नहीं है। जैसा कि गौतमबुद्धने बुद्धपद पानेके लिए अपने एक पूर्वभवमें किया था । निदान बांधना जैन धर्ममें एक निकृष्ट क्रिया है। जबकि बौद्ध धर्ममें वह ऐसी नहीं मानी गई है। पारिमिताओंक
नेत्रम, रक्त भादि शरीर- अवयवोंका देना साधारण दान है। यह प्रथम प्रकारका दान मौन धर्ममें बतलाया गया है । दूसरे प्रकारका दान संतान बी, घोडे, पशुधन, पृथिवी, हीरा,जवाहिगत अदिको देना है। यह पहिलेसे रत्तम है और तीसरा सर्वोत्तम दानं प्राणोकी परवा न करके शरीरको पशुओं या राक्षसोको भक्षण करने देना है । (Manual of Buddhisni. P. 102). 25
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३२ ]
[ भगवान महावोर
साथ २ बुद्ध पदको पानेके लिए निम्नके आठ गुण भी उसे व्यक्ति में होना आवश्यक है: - (१) वह मनुष्य होना चाहिये, न कि देव । इसी लिये बोधिसत् (बुद्धपद पानेका इच्छुक ) दस शील त्रतोंको पालन करते हैं कि उसके फल स्वरूप वह मनुष्यका जन्म धारण करें, (२) वह पुरुष होना चाहिये, न कि स्त्री: * (३) उनका पुण्य इतना प्रबल होना चाहिये, जिससे वे अर्हत् हो सकें: (४) यह अवसर भी उसको मिल चुका हो जिसमें उसने एक परमोत्कृष्ट बुद्धकी उपासना की हो और उनमें पूर्ण श्रद्धा रक्खी हो; (५) विरक्त- गृहत्याग अवस्थामें रहना आवश्यक है, (६) ध्यान आदि क्रियायोंके साधन से प्राप्त फलका वह अधिकारी होना चाहिए, (७) उसे विश्वास होना चाहिए कि जिस वुद्धसे वह बातचीत (Communicates) करता है वह शोकसे परे है और वह स्वयं उस दशाको प्राप्त होगा, (८) और उसे बुद्ध पद प्राप्तिके निमित्त दृढ निश्चय करना चाहिए। इन आठ गुणोको भी गौतमबुद्धने प्राप्त किया था । इसी कारण वह बुद्धपदके अधिकारी हुये थे । (Haidy's Maunal of Buddhism, P. P. 101-106). अपने वेस्सन्तरभवसे वह देवलोकके तुसित विमानमे सन्तुतुसित नामक देव हुये थे । वहां वह बड़ी विभूति सहित १७ कोटि ६० लाख वर्ष तक रहे थे, यह बौद्ध शास्त्र प्रगट करते है । इस अंतरालके अन्त में जब देवोंने जाना कि एक बुद्धका जन्म होगा और
* दिगम्बर जैन शास्त्र भी तीर्थ करपदके लिये पुरुषलिंग ही आवश्यक " बतलाते हैं। हां, श्वतावर स्त्रियोंको भी इस पदका अधिकारी प्रगट करते हैं, परन्तु उनकी इस मान्यताका निर्सन दि० शांखों में उचित रीति से किया हुआ मिलता है। बौद्धोंकी उक्त मान्यता भी दिव्मतकी पोषक है ।
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[३३ वह सन्तुतुसित हैं तो वे सब इनके पास जाकर बुद्धपदको धारण करनेके लिए कहने लगे । इसपर बुद्धने वहां 'पंच महाविलोकन' किये अर्थात् इन पांच बातोंको जाना कि (१) उस समय मनुष्यकी आयु १०० वर्षकी थी, जो बुद्धपदके लिए उपयुक्त काल था, (२) बुद्ध जम्बूद्वीपमें जन्म लेते है, (३) मध्य मण्डल अथवा मगधका प्रदेश उत्तम क्षेत्र है, x (४) उस समय क्षत्रिय वर्ण प्रधान था, इसलिए उसमे जन्म लेना उचित है, (९) और राजा शुद्धोदनकी रानी महामायाके मृत्यु दिवससे ३०७ दिन पहिले उनके गर्भमे उनको पहुच जाना चाहिये । इस तरह इन पांच बातोंको जानकर उनने नियत समयमे राजा शुद्धोदनकी रानी महामायाके गर्भ में पदार्पण किया और फिर उनका जन्म हुआ, यह हम ऊपर देख चुके हैं।
भगवान महावीरने तीर्थकर पद प्राप्त करनेके लिए वैसा कोई निदान नही वाधा था जैसा कि म० बुद्धको करना पड़ा था। हां, यह अवश्य है कि जैनधर्ममे भी खास भावनायें और विशेष गुण तीर्थकर पद प्राप्त करनेके लिए आवश्यक बतलाये गये है। इन खास भावनाओ और गुणोके आराधनसे उस पुरुषके ' तीर्थकर नामकर्म ' नामक कर्मका बंध होता है, जिससे वह स्वभावतः उस परमपदको प्राप्त करता है। श्री तत्वार्थसूत्रनीमें इस सम्बन्धमें यही कहा गया है। यथाः
x जैन शास्त्रोंमें भी तीर्थकरोंकी जन्मभूमिया गंगा और जमुनाके मध्य प्रदेशमें ही बताई गई है, किन्तु उनका यह कथन है कि तीर्थकर सदैव क्षत्रीय वंशम ही जन्म लेते हैं ।
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३८]
[ भगवान महावीरशुद्धोदन उन्हीके उपासक हो। डॉ० स्टीवेन्सन साहब इस ही मतकी पुष्टि अपने “ कल्पसूत्र और नक्तत्व " की भूमिकामें करते है। इसके साथ ही राजा शुद्धोदनके गृहमें जैनधर्मकी मान्यता थी इसकी पुष्टि बौद्धग्रन्थ 'ललितविस्तर 'के इस कथनसे भी होती है कि 'बाल्यावस्थामे बुद्ध श्रीवत्स, स्वस्तिका, नन्द्यावर्त और वर्तमान यह चिन्ह अपने शीशपर धारण करता था।'' इनमे पहिले तीन चिन्ह तो क्रमश गौतलनाथ, सुपार्श्वनाथ और अर्हनाथ नामक जैन तीर्थकरोंके चिन्ह है और अतिम वर्डमान स्वयं भगवान महावीरका नाम है । अतएव यह कहा जासक्ता है कि राजा शुद्धोदन भगवान पार्श्वनाथके तीर्थके जैन श्रमणोंके भक्त थे । इन्हीं जेन श्रमणोकी उपासना भगवान महावीरके पिता राजा सिद्धार्थ किया करते थे।" इस प्रकार दोनों समकालीन युगप्रधान पुरुषोंके पितृकुलका विवरण है।
जैनीज्म-दी भफैिथ ऑफ अशोक। २ जैनसुत्र (S. B.E) भाग : पृ० १९४।अव यह विल्कुल प्रमाणित होचुका है कि जैनधर्मका अस्तित्व भगवान महावीरके पहिले भी था। बौद्ध ग्रन्यों में इसका उल्लेख 'निगन्थ के धर्मरूपमें किया गया है, वह इसका साक्षी है। जैसे कि डॉ. जैकोवीने जैन सूत्रोंकी (S. B.E.) भूमिकामे प्रमाणित किया है । मुत्तनिपात (S. B. E.) की भूमिकांसे यह स्पष्ट है कि उस समय मुख्यत. दो सम्प्रदाय श्रमण और ब्राह्मणोकी थीं। मुत्तनिपातमें चार प्रकारके श्रमण बताये है। इनमें प्रारम्भके तीन ठीक वही है जो जैनियोंके पंचपरमेष्ठियों में अईत आचार्य, उपध्याप और साधु बताये गये है । तथापि जैनधर्म समणधर्म कहलाता था यह भी ज्ञात है (कल्पसूत्र पृ० ८३) अतएव इस तरह भी जैनधर्मका अस्तित्व भगवान महावीरसे प्राचीन प्रमाणित होता है । चौथे प्रकारके जो श्रमण मुत्तनिपातमें बताये है, वह इतर श्रमणआजीविकादि समझना चाहिये।
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[ ३९
इस तरह स्वाधीन गणराज्योमे प्रधान प्रमुख राजाओंके समृद्धशाली क्षत्रिय कुलो में जन्म लेकर दोनों ही युगप्रधान पुरुष दिनोंदिन चन्द्रमाकी भांति बढ़ रहे थे । शीघ्र ही ये कौमार अवस्थाको प्राप्त हुये और कौमारकालकी निश्चिन्त रंगरलियों में व्यस्त होगये, किन्तु आजकलके युवकों की भांति विलासिताकी आधीनता इनके निकट छू भी नहीं गई थी । यह हो भी कैसे सक्ता था ? वे स्वाधीन वातावरणमें जन्म लिये युगप्रधान पुरुष थे; और आजकलके युवक परतंत्रताके आधीन अल्प भाग्यवान् व्यक्तियां हैं । इसलिए इनके शरीर और मन सर्वथा गुलामीकी बूसे भरे हुये हैं । वस्तुतः इन विलासिताके गुलाम युवकोंके लिये इन दोनों युगप्रधान पुरुषों के बालपनके चरित्र अनुकरणीय आदर्श हैं ।
कौमारावस्थामें म० बुद्ध अपने कुलके अन्य राजपुत्रोके साथ आनन्दसे क्रीडायें किया करते थे । स्वाधीन अहिसाप्रिय कुलमें जन्म लेकर उनका हृदय पितृसंस्कृतिके अनुरूप अति कोमल और दयार्द्र था । एक दिवस वह अपने चचेरे भाई देवदत्तके साथ घर्नुकौशलका अभ्यास कौतूहलवश कर रहे थे । यकायक देवदत्तने एक बाण उड़ते हुये पक्षीके मार दिया । वह बेचारा निरापराध पक्षी धडामसे इन दोनोंके अगाडी आ गिरा ! बुद्धके लिये वह करुणाजनक दृश्यं अश्रुत और असह्य था । वह झटसे उस घायल पक्षीकी ओर लपके और देवदत्तके इस दुष्कृत्यपर घृणा प्रकट करते हुए उस घायलपक्षीके शरीरमेंसे वाण खींच लिया और उसकी उचित सुश्रूषा की । दयाका क्या अच्छा नमूना है ! आजके नवयुवकोंको भी निरपराध पशुओंके प्राण लेनेका. शौक चर्राया हुआ है ! उन्हें म० बुद्धके इस चरित्रसे शिक्षा लेना आवश्यक है ।
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४० ]
[ भगवान महावीर -
भगवान महावीरके विषयमें भी हमें ज्ञात है कि वे अपनी कौमारावस्थामें राजकुमारों, मंत्रीपुत्रो और देवसहचरोंके साथ अनेक प्रकारकी क्रीड़ायें करते थे । स्वाधीन क्षत्रीयकुलमें परमोच्चपदवीको प्राप्त करनेके लिये जन्म लेकर उन्होंने अपने बाल्यजीवनसे ही अहिंसा, त्याग और शौर्यत्वका आदर्श लोगोंके समक्ष रक्खा था । आठ वर्षकी नन्हींसी अवस्थामें ही उन्होंने जानबूझकर किसीके प्राणोंको पीडा न पहुंचानेका संकल्प कर लिया था । दृढ़ निश्चय कर लिया था कि किसी दशामें भी जान बूझकर प्राणि हिसा नहीं करूगा और सदैव सत्यका ही अभ्यास करूगा । पराई वस्तु ग्रहण करके वे किसीको मानसिक दुःख नहीं पहुचाते थे । पूर्ण ब्रह्मचर्यका पालन करते हुये, वे विलासिता और वासनातृप्तिसे कोसो दूर थे । परिमितरूपमें वे आवश्यक सामग्रीको रखते थे । शौकके लिये अनावश्यक वस्तुओंके ढेर एकत्रित नही करते थे । ऐसा संयममय जीवन व्यतीत करते हुये, वे वीर भेषमें कुमारकालीन क्रीडायें करते विचरते थे । एक दिवस राज्योद्यानमे वे अपने अन्य सहचरों सहित क्रीडा कररहे थे कि एक ओरसे विकराल सर्प उनपर आ धमका | विचारे अन्य सखा भयभीत हो इधर उधर भाग निकले; परन्तु भगवान महावीर जरा भी भयभीत नहीं हुये । उन्होने घातकी बातमें उस विषधरको वश कर लिया और उसपर दया करके उसे वैसा ही छोड़ दिया । वास्तवमें यह स्वर्गलोकका एक देव था, जो भगवानके दयालु चित्त और अपूर्व बलशाली शरीरकी प्रसिद्धि सुनकर इनकी परीक्षा लेने आया था । इसतरह भगवानकी परीक्षा करके वह विशेष हर्षित हुआ और भगवानकी
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[४१ वंदना करके अपने स्थानको चला गया । भगवानका यह बाल्यावस्थाका चरित्र हमारे लिए एक अत्युत्तम अनुकरणीय आदर्श है।'
कुमारकालमें दोनों ही युगप्रधान पुरुषोंने किस प्रकारकी शिक्षा ग्रहणकी यह ज्ञात नहीं है । भगवान महावीरके विषयमें जैन शास्त्रोंमें कहा गया है कि वह जन्मसे ही मति, श्रुति और अवधिज्ञानकर संयुक्त थे। इस अपेक्षा उनका ज्ञान बाल्यावस्थासे ही विशिष्ट था। इसमें संशय नहीं कि उस समय जो शिक्षायें और कलायें प्रचलित थीं, उनमें ये दोनों युगप्रधान पुरुष पारांगत थे । साथ ही इन दोनोंका शारीरिक बल और सौन्दर्य भी अपनी सानीका निराला था । म० बुद्धके विषयमे कहा गया है कि वे जन्मसे ही महापुरुपके बत्तीस लक्षणोंकर संयुक्त सुंदर शरीरके धारी थे। भगवान महावीरके विषयमें भी हमें विदित है कि वे एक हजार आठ लक्षणो कर चिन्हित थे और उनके शरीरकी आकति और शोभा अपूर्व थी । उन्होंने अपने पूर्व जन्मोंमें इतना विशेष .पुन्य उपार्जन किया था कि उनका शरीर विल्कुल विशुद्ध, मलमूत्र आदिकी वाधाओंसे रहित था । प्रत्युत उनके शरीरसे हर समय एक अच्छी सुगंध निकलती रहती थी। उनके शरीरका रुधिर दुग्धवत था । उनका पराक्रम अतुल था और शरीरमे क्षति पहुंचना असंभव थी। म० बुद्ध और भ० महावीर सदैव मिष्ट
१ भगवान महावीरके विशद दिव्य चरित्रके लिये 'उत्तरपुराण' 'महावीर पुराण', 'महावीरचरित' और 'भगवान महावीर' नामक ग्रन्थ देखना चाहिये । २ महावीरपुराण । ३ बुद्ध जीवन (S. B.E. XIX) पृ० १२ इत्यादि । ४ उत्तरपुराण पृ० १०७ और जैनसुत्र (S. B.E.) भाग १ पृष्ठ २५०-२५२ ।
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४२]
[ भगवान महावीरभाषण करते थे, यह भी दोनों सम्प्रदायोंके गास्त्रोंमे ज्ञात है।
इस प्रकार जब ये सुन्दर शुभग गरीरके धारी राजकुमार युवावस्थाको प्राप्त हुये तो उनके माता-पिताको उनके पाणिग्रहण करानेकी सुध आई । राना शुद्धोदन अपने पुत्रका विवाह करा देनेमें बड़े व्यन थे, क्योंकि उन्हें भय था कि कहीं वैराग्य उनके पुत्रके कोमल हृदयपर अपना प्रभाव न जमा ले । तदनुसार न बुद्धका शुम विवाह यशोदा नामकी एक रानकन्यासे होगया और वह दाम्पत्य सुखका उपभोग करने लगे। इन्हीं यगोदाके गर्भ और म० बुद्धके औरससे राहुल नामके पुत्रका जन्म हुआ था। भगवान महावीरके माता-पिताको भी उनकी युवावस्था निहारकर विवाह करा देनेकी आयोजना करनी पड़ी थी। देशदेशांतरोंके राजागण अपनी कन्याओंको भगवानके साथ परणवाना चाहते थे। इनमें प्रख्यात राजा नितशत्रु अपनी कन्या यशोदाको विशेष गति और आमहसे भगवानको समर्पण करना चाहते थे; परन्तु विशिष्ट ज्ञानी, त्यागी प्रत्यक्ष मुर्ति भगवान महावीरको यह रमणीरत्न भीन मोह सका!
१ वुद जीवन (S. B.E. XIX ) पृ० १२ इत्याद । २ श्वेताम्बर शानोमे कहा गया है कि भगवानने अपने मातापिताके भाप्रहसे यशोदरा नामक कन्यांसे पाणिग्रहण कर लिया था
और उनके एक पुत्रीको भी जन्म हुर्भा था। उपरान्त जब उनके माता-पिता स्वर्गवास कर गये आप अपने भाई नन्दिवदनकी अनुमतिसे उन्होंने गृहत्याग कर मुनिव्रत धारण किया था। इस मतभेदका कारण समझमें नहीं भाता । दिगम्बर शास अन्य तीर्यवरोका विवाह होना बतलाते हैं, परन्तु उनके पुत्रीका जन्म होना स्वीकार नहीं करते । संभव है कि इसी सिद्धान्तभेदको पुष्टि देनेके लिये श्वे० प्रन्यों में यह कमा लिसी
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[४३ उन्होंने संसारके कल्याणके लिए अपने सर्वस्वका त्याग करना ही परमावश्यक समझा। माता-पिताने बहुत समझाया परन्तु वैराग्यका गाढ़ा रङ्ग जिसके हृदय पर चढ़ गया हो, फिर वह उतारे नहीं उतरता। भगवान महावीरने विवाह करना अस्वीकार किया । उन्होंने उस समयके रानोन्मत्त युवा राजकुमारों और आवनीविकों तथा ब्राह्मण ऋषियों जैसे साधुओंको मानो पूर्ण ब्रह्मचर्यका महत्व हृदयंगम कराया। जहां ऋषिगण भी इन्द्रियनिग्रह और सयमसे विमुख हों वहां ऐसे आदर्शकी परमावश्यक्ता थी । भगवान महावीरके गई हो । बौद्ध ग्रथोंमें भी भगवान के भाई और जमाई व खी आदिका कोई उल्लेख नहीं मिलता है । तिसपर उस समय सामाजिक वातावरणमें ब्रह्मचर्यका महत्व कम हो चला था । इस तरह अपने अखण्ड ब्रह्मचपैसे मानो उसको शिक्षा देना भगवानको अभीष्ट था । दि. शाख यशोदराके साथ विवाह करनेकी भायोजनाका जिक्र करते है, परन्तु भ० महावीरने स्वीकार नहीं किया यह स्पष्ट कहते हैं -
'भवान किं श्रेणिक वेत्ति भूपति, नृपेन्द्र सिद्धार्थकनीयसीपतिं । इम प्रसिद्ध जितशत्रुमाख्यया, प्रतापपन्त जितशत्रुमण्डलम् ॥ ६ ॥ जिनेन्द्रवीरस्य समुद्भवोत्सवे, तदागतः कुंडपुर मुहृवृत । सुपूजितः कुण्डपुरस्य भभूता नृपोऽययाखण्डलनुयलविक्रमः ॥७॥ यशोदयायां मुतया यशोदया पवित्रत्या वीरविवाहमगलम् । अनेक कन्या परिवाग्याऽऽरुहत्समीक्षितुं तुगमनोरथ तदा ॥ ८ ॥
-हरिवंशपुतण । १ भगवान महावीर पृष्ठ २३९ । २ जैन और बौद्ध प्रथ प्रकट करते हैं कि भाजीविकगण ब्रह्मचर्यको अनावश्यक समझ व्यभिचार रत . होते भी नहीं हिचकते थे। (देखो आजीवक्स माग १) तथापि ब्राह्मण ऋषियोंके पलिया थीं यह सर्व प्रक्ट है। बौद्धोंके मुत्तनिपातके तेविजनुत्तमें इसका स्पष्ट उल्लेख है।
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४४ ]
[ भगवान महावीर
दिव्य चरित्रमें जनताको इस आदर्श दर्शन होगये । आजके असयममय बीभत्स वातावरणमें प्रत्येक देशके नवयुवकों के समक्ष ऐसा आदर्श उपस्थित करना परम आवश्यक है । जिस पवित्र भारतवर्ष में भगवान महावीरके दिव्य अखण्ड ब्रह्मचर्या अनुपम आदर्श उपस्थित रहा था, वहीं आज ब्रह्मचर्यका प्रायः सर्वथा अभाव देखकर हृदय थर्रा जाता है । भारतवर्ष के लिये भगवान महावीरका आदर्श परम शिक्षापूर्ण और हितकर है।
इस प्रकार दोनो युगप्रधान पुरुष अपने गृहस्थ जीवनमें सानन्द काल यापन कर रहे थे । भगवान महावीरने अपने गृहस्थ जीवनसे ही संयम और त्यागका अभ्यास करना प्रारम्भ कर दिया था और म० बुद्ध नियमित ढंगसे दाम्पत्यसुखका उपभोग कर रहे थे । अस्तु ।
(३)
गृहत्याग और साधुजीवन ।
मनुष्य अपनी जानमें अपनेको बडा कुशल और चतुर समझता है । वास्तवमें जीवित संसारमें उससे बढ़कर और कोई बुद्धिमान् प्राणी है भी नहीं, किन्तु उसकी बुद्धिमत्ता, कुशलता, और चतुरताके भी खट्टे दांत कर देनेवाली एक शक्ति भी इस संसारमें विद्यमान है । यह शक्ति यद्यपि जीती जागती शक्ति नहीं 'है, परतु इसका प्रभाव स्वयं मनुप्यकी जीती जागती क्रियापर ही जमा हुआ है । मनुष्य अपनी आंखोंसे देखता रहता है और यह शक्ति अपना कार्य करती चली जाती है। उसके जीवनकी
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- और म० बुद्ध ]
[ ४५
दशाओका अंत यही लाती है । इसीको लोग काल कहते हैं । सचमुच कालकी शक्ति अति विचित्र है । कालचक्र सांसारिक परिवर्तनमें एक मुख्य कारण है । इस ही कालचककी कृपा से प्रत्येक क्षणमे संसारका कुछका कुछ होजाता है । ऐसे प्रबल कालचक्रका प्रभाव बडे बड़े आचार्यो और चक्रवर्तियों का भी लिहाज नहीं करता है ।
भगवान महावीर और म० बुद्ध भी इसी कालचक्रकी इच्छानुसार अपने बाल्य और कुमार अवस्थाको त्यागकर पूर्ण युवावस्थाको प्राप्त होगये थे । म० बुद्ध रानी यशोदा के साथ सांसारिक सुखका उपभोग कर रहे थे कि एक दिन वे नगरमे होते हुये वन-विहारके लिये निकले । उन्होने रास्तेमे एक रोगीको देखकर अपने साथसे उसका हाल पूछा । रोगोंके आताप और बुढ़ापेके दुःख सुनकर उनका हृदय व्यथासे व्याकुल होगया । इस आकुल-व्याकुल हृदयको लिए वे अगाडी बढे कि मृत पुरुषको लिए विलाप करते स्मशान भूमिको जाते अनेक मनुष्य दिखाई दिये । सार्थीसे फिर पूछा और हकीकतको जानकर उनका आकुल हृदय एकदम थर्रा गया । उन्होंने कहा जब यह शरीर नश्वर है; युवावस्था हमेशा रहनेकी नही; बुढ़ापे के दुख दर्द सबको सहने पड़ते हैं; तो इससे उत्तम यही है कि उस मार्गका अनुसरण किया जाय जिससे इन जन्मजरा के दुखोको न भुगतना पड़े। इसके साथ ही हृदयपर इन विचारोंका इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि म० बुद्ध फिर लौटकर राजमहलमें अधिक दिन नहीं ठहरे । एक दिन रात्रिके समय छन्न नामक सार्थीको लेकर और घोडे पर सवार होकर निकल पडे । बहुत दूर चलकर आखिर उनने सार्थीके सुपुर्द सब वस्त्राभूषण किये और
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४६ ]
[ भगवान महावीर
आप साधारण वस्त्रोंको धारण करके एकाकी वनकी एक ओरको चल दिये । इस फिकरमें घरसे निकल पडे कि कोई सच्चे सुखके मार्गका जानकार कामिल पुरुष मिले तो मैं उसके चरणोंकी सेवा करके आर्योंके उत्तम ज्ञानका अधिकारी बनूं । इसही विचारमें निमग्न म० बुद्ध जारहे थे कि पीछेसे इनके पिताके भेजे हुये मनुप्य मिले । उन्होंने म० बुद्धको घर लौट चलनेके लिये बहुत समझाया । परन्तु पिताके अनुरोध और पत्नीकी करुण कातर प्रार्थनायें निरर्थक गई । म० वुद्ध अपने निश्चयमें दृढ़ रहे । वे लोग हताश होकर कपिलवस्तुको लौट गये । '
अगाडी चलकर म० बुद्ध परिव्राजक ब्रह्मचारियोंके आश्रम में पहुचे और वहां साधु आरादकालमकी प्रशंसा सुनकर वह उनके पास चले गए। इन साधुका मत साख्यदर्शन से बहुत कुछ मिलता जुलता था । म० बुद्ध इस मतका अध्ययन कुछ दिवस करते रहे । किंतु अन्तमें उन्हें विश्वास होगया कि "जो कुछ आरादने बतलाया है उससे मेरे हृदयकी संतुष्टि नहीं हो सक्ती है ।"" इसलिये वे वहासे भी प्रस्थान कर गये और ऋषि उद्ररामके पास पहुचे । वहां भी कुछ दिन रहे । उपरात वहांसे भी निराश होकर किसी उत्तम मार्गको पानेकी खोजमे अगाडी चल दिये । आखिरकार वे पवर्त 'क्या -ची' (गया- वापसवन) ने पहुंचे। यहां एक परीपह-जय-वन ( run-Suffering forest ) नामक ग्राम था। यहां पहलेसे पांच भिक्षु मौजूद थे । म० वुद्धने देखा कि ये पांचों भिक्षु अपनी इंद्रियों को पूर्णत वश किये हुये है और उत्तम चारित्रके नियमोंका
१ बुद्ध जीवन (S.BE. XIX.) पृष्ठ १३०... २ पूर्व पृष्ठ १३१
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और म० बुद्ध
[४७ पालन कर रहे हैं तथापि तपश्चरणके भी अभ्यासी है। यह देखकर म० बुद्ध विचारमग्न होगये। उपरांत उन भिक्षुओका अभिवादन और नियमित क्रियाओ-सेवाओ (Having finished ther attentions and dutiful services ) से निर्वृत होकर उनने वही नैरवरा नदीके निकट एक स्थानपर आसन जमा लिया और अपने उद्देश्य सिद्धिके लिये वे तपश्चरण करने लगे। शारीरिक विषय कपायका निरोध करने लगे और शरीर पतिका ध्यान विल्कुल छोड बेठे । 'हृदयकी विशुद्धता पूर्वक वे उन उपवासोंका पालन करने लगे, जिनको कोई गृहस्थ सहन नहीं कर सक्ता । मौन और शांत हुये वे ध्यानमग्न थे । इस रीतिसे उन्होंने
भिक्षु' शब्दका व्यवहार जैनों और बौद्धोके लिये पहिले होता था परन्तु उपरान्त केवल वौद्ध साधुओंके लिये ही उसका व्यवहार सीमित हो गया बतलाया गया है । यद्यपि जैन मुनिके पर्याय वाची शक्के रूपमें अव भी इस शब्द ( भिक्षु ) का व्यवहार जैन लेखकों द्वारा होता है । ( देखो वृहद् जैन शब्दार्णव भाग १ पृष्ठ ४ ) मि० होस डेविड का कथन है कि 'भि शब्द पहिले पहिले जनों अथवा वौद्धों द्वारा व्यवहत हुआ था । ( • Perhaps the Jain or the Buddhists first used it." Dialogues of Buddha. Intro. S. B. B. Series ) ऐसी दशाम यहा पर जिन भिक्षु. भोंका उल्लेख छिया जा रहा है वह जैन भिक्षु हों तो कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि म० बुद्धके पहिले बौद्धधर्मका अस्तित्व अभीतक तो प्रमाणित हुमा नहीं हैं । उसको पुष्टि उपरोक्तके अगाड़ी जो विवरण मिलता है, उससे भी होती है । अस्तु यह भिक्षु जैन साधु ही थे। इनके नाम भी जैन साधुओंके ना से मिलते जुलते हैं, यथा कौन्डिन्यकुलपुत्त, दशवल, काश्यप, वाण, अश्वजित और भद। २ बुद्ध जीवन (S. B. E. XIX) पृष्ठ १४१ । ३ पूर्ववत् ।
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४८]
[ भगवान महावीरछः वर्ष निकाल दिये ।'
म० बुद्धने जो इस प्रकार छः वर्ष तक साधु जीवन व्यतीत किया था, वह जैन साधुकी उपवास और ध्यानमय, मौन और कायोत्सर्ग शांत अवस्थाके विल्कुल समान है। अतएव इस अवस्थामें यह जैन शास्त्रोकी इस मान्यताका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि म० बुद्ध अपने साधु जीवनमे किसी समय जैन मुनि भी रहे थे। जैन शास्त्रकार कहते है कि " श्री पार्श्वनाथ भगवानके तीर्थमे सरयू नदीके तटवर्ती पलाश नामक नगरमें पिहिताश्रव साधुका शिष्य बुद्धकीर्ति मुनि हुआ जो महाश्रुत या बडा भारी शास्त्रज्ञ था । परंतु मछलियोंके आहार करनेसे वह ग्रहण की हुई दीक्षासे भ्रष्ट होगया
और रक्ताम्बर (लाल वस्त्र धारण करके उसने एकातमतकी प्रवृति की । फल, दही, दूध, शक्कर आदिके समान मासमे भी जीव नहीं है, अतएव उसकी इच्छा करने और भक्षण करनेमें कोई पाप नहीं है । जिस प्रकार जल एक द्रव द्रव्य अर्थात् तरल या वहनेवाला पदार्थ है उसी प्रकार शराब है, वह त्याज्य नही है। इस प्रकारकी
१. " With full purpose of heart (he set himself) to endure mortification, to restrain every bodily passion, and give up thought about sustenance. With purity of heart to obsei vo the fast zules, which no worldly man (active man) can bear, silent and still, lost in thoughtful meditation, and so for six years he continued " बुद्धजीवन (S. B. E. XIX) पृ० १४१ २ जैनसुत्र (S BE.) भाग १ पृष्ठ ३९-४१ और रत्नकरण्डक श्रावकाचार १-१०.
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घोषणा करके उसने संसार में सम्पूर्ण पापकर्मकी परिपाटी चलाई । एक पाप करता है और दूसरा उसका फल भोगता है, इस तरहके सिद्धान्तकी कल्पना करके और उससे लोगोको वशमे करके या अपने अनुयायी बनाकर वह मृत्युको प्राप्त हुआ ।" जैन शास्त्रका - रके इस कथनको सहसा हम अस्वीकार नहीं कर सक्ते हैं। अंतिम वाक्योंसे यह स्पष्ट है कि शास्त्रकार बौद्ध धर्म और म० बुद्धका उल्लेख कररहा है, क्योकि 'क्षणिकवाद' बौद्धधर्मका मुख्य लक्षण है जिसका ही प्रतिपादन इन वाक्योंमें किया गया है । इतनेपर भी जो जैन शास्त्रकारने वौद्धोंके प्रति मद्यपान करनेका लाञ्छन लगाया है वह ठीक नही है ।" इसमें किसी प्रकारकी भूल नजर आती है, किन्तु इसके कारण हम उक्त वाक्योकी सर्वथा उपेक्षा नही कर सक्ते ! बेशक यह उस जमानेकी - ईसाकी नवीं शताव्दिकी रचना है, जब
१. सिरियासणाइतित्थे सरयूतीरे पलासणयरस्यो । पिहिया सस्स सिस्सो महासुदो वुडकित्तिमुणी ॥ ६ ॥ तिमिपूरणासणेहिं अहिगयपवनाओ परिभट्टो | रत्तवर धरिता पवट्टिय तेण एयत ॥ ७ ॥ मसल्स णत्थि जीवो जहा फजे दहिप-दुद्ध- सक्करए । तम्हात षछित्ता त भक्ततो ण पाविट्ठो ॥ ८ ॥ मन ण वनणिज दवदव्व जहजलं तहा एद । इदि टोए घोसित्ता पट्टिय सव्वसावज ॥ ९ ॥ अध्णो करेदि कम्मं अण्णो त भुजदीदि सिद्धतं । परिकपिउण णूण वसिकिचा निरयमुवण्णो ॥ १० ॥
- दर्शनसार । २ बौद्धों के पच व्रतो में अन्तिम 'मद्यपान त्याग' है । इस कारण यहापर किसी तरह की भूल नज़र पड़ती है । ( महावग्ग ) ।
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५०]
[ भगवान महावीरभारतीय मतोमे पारस्परिक स्टर्धा वहुत स्पष्ट और अधिकतापर हो गई थी, अतएव जैनाचार्यका तत्कालीन परिस्थितिके अनुसार म० बुद्धका उक्त प्रकार उल्लेख करना कुछ अनोखी क्रिया नहीं है, परन्तु इसपर भी जो कुछ उन्होने लिखा है, उसमे केवल मद्यपानकी वातको छोडकर शेष सब यथार्थताको लिए हुए हैं । जिस स्थानपर पहिले पहिल म० बुद्धने जैन मुनिकी दीक्षा ग्रहण की थी उसका नाम ठीकसे बतलाया गया है । जैन और बौद्ध दोनो ही उस स्थानको वनग्राम (बौद्ध Forest town और जैन पलाशग्राम-पलाश-वनग्राम ) बतलाते है और कहते हैं कि नदी उसके पासमे थी, जैसे कि हम ऊपर देख चुके है । तथापि वौद्ध शास्त्रकार म० बुद्धकी दीक्षा ग्रहण करनेकी क्रियाका भी उल्लेख "अभिवादन और नियमित क्रियायो और सेवायोसे निवृत्त होने ।" (Haying finished their attentions and dutiful sery. ices) रूपमें करता है, और अतिम वाक्योंके द्वारा जो जैनाचार्यने बौद्ध मान्यताओका उल्लेख किया है, सो भी विलकुल ठीक है। बौद्धधर्मका क्षणिकबाद विख्यात ही है, तथापि बौद्ध धर्ममे प्रारंभसे ही मृत मांसको भोजनमें ग्रहण करना बुरा नहीं बतलाया गया है। जो जैनोके अनुसार एक असद् क्रिया है। इस दशामें हम जैन शास्त्रकारके कथनको मान्यता देनेके लिये वाध्य हैं। इसके साथ ही हमको ज्ञात है कि जब म० बुद्ध सर्व प्रथम अपने धर्म प्रचारके लिये
१ मच्छा और मृतमास, यदि खासकर न 'या गया हो, तो बौद्ध भिक्षु स्वीकार करते थे, यह बौद्धशाम्रोके निम्न उन रणोसे प्रमाणित है.-महाग ६,१.१1 और १४,६,२३,२,६,२५,२, महापरिनिवान मुत्त ४,१७-१८; और सुत्तनिपात २४१ (पृष्ठ ४०)।
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- और म० युद्ध ]
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राजगृहमें गये थे तो वहाके 'सुप्पतित्थ' नामक मदिरमें ठहरे थे।' इसके उपरांत फिर कभी भी उनका उल्लेख हमे इस या ऐसे मंदिर में ठहरनेका नही मिलता है। इस मंदिरका नाम जो 'सुप्पतित्य' है, जो उसका सम्बंध किमी ' तित्थिय' मतप्रवर्तकसे होना चाहिये, परन्तु हम देखते है कि उस समयके प्रख्यात् छ' मतप्रवर्तकों में इस तरहका कोई नाम नहीं मिलता ! हां, जन नीर्थकरों में एक सुपार्श्वनाथनी अवश्य हुये है और उनके संक्षिप्त नामकी अपेक्षा उनके मूल नायकत्वका मंदिर अवश्य ही 'सुप्पतित्थ' का मंदिर कहला सक्ता है। जैन तीर्थकरोंके नामका उल्लेख ऐमे सप्तिरूपमें होता था, यह हमें जन शास्त्रों के उल्लेग्बो में मिलता है । 'दर्शनसार ' ग्रन्थ में 'विपरीतमत' की उत्पत्ति बतलाते हुये आचार्य लिखते है:" मुव्नयतित्थे उज्झो खीरकदंबुत्ति युद्धसम्मत्तो ।" इसमें बाबीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथजीका नामोल्लेख केवल 'सुव्यय' के रूपमें किया गया है । इसी तरह लेक व्यवहारतः संक्षेपमें सुपार्श्वनाथनीका नामोल्लेख 'सुप्प' के रूप में किया जासक्ता है । इस रीतिसे जिस 'सुप्पतित्थ' के मदिरमें म० बुद्ध पहिले पहिल ठहरे थे, वह जैन मंदिर ही था । + और उसमें उसके बाद
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१ महायुग १-२२-१३ ( S. B. E. पृष्ठ १४४ ) में स्पष्ट लिखा है कि मन्त्र पहिले ही जब अपने धर्मका प्रचार करने आये तो राजगृह में लठोपनमें 'सुप्यति' के मंदिरमें ठहरे। यहा से निय बिम्बसार ने उनका उपदेश सुना तो उनके लिए वेलुयनमें एक आराम' चनकर दिया। उस समय इस प्रकार सातवें तीर्थंकर श्री सुपार्श्वयजीका मन्दिर विद्यमान होना, जैन तीर्थकरोंकी ऐतिहासिकता और जनधर्मकी विशेष प्राचीनताका द्योतक है ।
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५२ ]
[ भगवान महावार
फिर उनके ठहरनेका उल्लेख नही मिलता है, उसका यही कारण प्रतीत होता है कि जैनियोने जान लिया कि बुद्ध अब जिनप्रणीत धर्मके विरुद्ध होगये है; इसलिये उन्होंने भ्रष्ट जैन मुनिको पुनः आश्रय देना उचित नहीं समझा। इस तरह भी जैनोकी इस मान्यताका समर्थन होता है कि म० वुद्ध एक समय जैन मुनि भी रहे थे ।
अन्ततः म ० वुद्ध स्वयं अपने मुखले नियोकी इस मान्यताको स्वीकार करते है । एक स्थानपर वे कहते है कि " मैंने सिर और दाढी के बाल नोचनेकी भी परी पह सहन की है ।" यह मुनियोकी केशलोच क्रिया है । अतएव इसका अभ्यास बुद्धने तब ही किया होगा जब वह जैन मुनि रहे होंगे । इस तरह यह स्पष्ट है कि म० बुद्ध अपने धर्मका प्रचार करनेके पहिले जैन मुनि थे और हम देखते है कि उन्होने किसी एक सप्रदायकी मुनि-क्रियायों का पालन नही किया था। एक समय वे वानप्रस्थ सन्यासी थे तो दूसरे समय जैन मुनि थे । ** भगवान महावीरके विषय में जब हम विचार करते है तो देखते हैं कि उनका साधुजीवन म० बुद्धके विपरीत एक निश्चित और सुव्यवस्थित जीवन था । जैन शास्त्रोके अध्ययनसे हमको ज्ञात होता है कि भगवान महावीर बाल्यावस्था से ही श्रावकके व्रतोंका अभ्यास करते हुये अपने पिताके राज्यकार्यमे सहायक बन रहे थे । वे इस गृहस्थावस्था से ही संयमका विशेष रीतिसे अभ्यास
१. ' डिस्कोस ऑफ गौतमबुद्ध' और मि० सॉन्डर्सका 'गौतमबुद्ध' पृष्ठ १५.२. मूलाच'र १२९ और जैनसूत्र (SBE.) भाग 1 पृष्ठ ५६. डॉ० भाण्डारकरने भी म० बुचका जैनमुनि होना स्वीकार किया है । देखो जैनहितैषी भाग ७ अंक १२ पृष्ठ १.
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-और म० युद्ध ] कर रहे थे । एक दिवस ऐसे ही विचारमग्न थे कि सहसा उनको अपने पूर्वमवस स्मरण हो आया और आत्मज्ञान प्रगट हुआ। उन्होंने विनारा कि वो अपूर्व विषयसुखोंसे मंगै कुछ नृप्ति नहीं हुई तो यह सांसारिक क्षणिक इन्द्रियविषयसुख किस तरह मुझे मुनी बना सक्त हैं ? हा ' वृथा ही मैंने यह अपने तीस वर्ष गुना दिये। मनुप्पजन्म अति दुर्लभ है, उसको वृथा गवा देना उनित नहीं । यही बात उत्तरपुराणमें इस प्रकार कही गई है:
"त्रिंगछरदिस्तस्यैव कौमारमगमदयः। ननोन्येशुमानज्ञानमयोपगमभेदनः ।। २९६ ।। समुत्पन्नमहाबोधिः स्मृतपूर्वभवांतरः । लोकांनिकापरः पाप्य प्रस्तुतस्तुतिभिः स्तुतः ॥२९७।। मकलामरसंदोहकृतनिश्क्रमणक्रियः ।
स्ववाकपीणितसदधुसंभावितविसर्जनः ।। २९८ ॥ अर्थात-"इमप्रकार भगवानके कुमारकालके तीस वर्ष व्यतीत हुए। उसके दूसरे ही दिन मतिजानके विशेष क्षयोपशमसे उन्हें आत्मज्ञान प्रगट हुआ और पहिले भवका जातिस्मरण हुआ। उसी समय लौकांतिक देवोंने आकर समयानुसार उनकी स्तुति की और इंद्रादि सव देवोंने आकर उनके दीक्षाकल्याणकका उत्सव मनाया। भगवानने मीठी वाणीसे सब भाईवन्धुओंको प्रसन्न किया और सबसे विदा ली।"
इस तरह सबको संतुष्ट करके वे भगवान अपनी चन्द्रप्रभा पालकीपर आरून होकर वनपंड नामक वनमें पहुंचे। वहांपर आपने अपने सब वस्त्राभूषण आदि उतारकर वितरण कर दिये और सिन्होंको नमस्कार करके उत्तराभिमुख हो पंचमुष्टि लोचकर परम
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[ भगवान महावीर
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उपासनीय निर्ग्रन्थ मुनि होगये। यह अगहन वदी दशमीका शुभ दिवस था, वास्तवमें संसारका कल्याण जिसके निमित्तसे होना अनिवार्य था और जिसके भवितव्यमें त्रिलोकवन्दनीय होना अंकित था, उसकी प्रत्येक जीवनक्रिया इतनी स्पष्ट और प्रभावशाली हो तो कोई आश्चर्य नही । भगवान महावीर ऐसे ही एक परमोत्कृष्ट महापुरुष थे । वे अपने इस जीवनमे ही अनुपम जीवित परमात्मा हुये थे यह हम अगाडी देखेंगे। _भगवान महावीरने निर्यन्थ मुनिकी दिगम्बरीय (नग्न) दीक्षा गृहण की थी, यह दिगम्बरशास्त्र प्रगट करते हैं, परन्तु श्वेताम्बर संप्रदायके शास्त्र इससे सहमत नहीं है। उनका कथन है कि भगवानने दीक्षासमयसे एक वर्ष और कुछ महीने उपरान्त तक 'देवदृप्य वरन' धारण किये थे, पश्चात् वे नग्न हो गये थे। 'देवदूष्य वनकी व्याख्यामे कुछ भी स्पष्ट रीतिसे नही बतलाया गया है कि इसका यथार्थभाव क्या है ? इतना स्पष्ट किया है कि इस क्त्रको परिने ये भी भगवान नग्न प्रतीत होते है। श्वेतान्यरियोके इस । कथनले एक निष्पक्ष र उनके FREE विधारा नहीं कर ला पदृप्या पहिले हुये भी ये नन्द दिखते थे, इसका स्पष्ट बर्थ दी है कि नग्न थे।
१. जेनरात्र (S.BE.) १ ९ ८२ २ डॉ० स्टीवेन्मन साहेबने श्वेताम्बरोके इस कवनपर यही प्रकट किया है, यथा"Jaidas do not understand properly vnat at mcans, ou do not ielu to explain it. It wight have nicapt, he become a Digamvara, had this not been opposed to what follows" (Kalpasutra &Navatattwa. FN.P 85).
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- और म० वुद्ध ]
[ ५५
यदि हम श्वेताम्बर आगम ग्रंथोंपर इस सम्बन्धमे एक गंभीर दृष्टि डालें तो उनमें भी हमे नग्नावस्थाकी विशिष्टता मिल जाती है । अचेलक - नग्न अवस्थाको उनके 'आचाराङ्गसूत्र' में सर्वोत्कृष्ट 1 बतलाया है । उसमे लिखा है कि "उपवास करते हुये नग्न मुनिको जो पुगलका सामना करता है, लोग गाली भी देंगे, मारेंगे और उपसर्ग करेंगे और उसकी संसार अवस्थाकी क्रियायोको कहकर चिढ़ायेंगे और असत्य आक्षेप करेंगे: इन सब उपसर्गोको - कार्योंको चाहे वे प्रियकर हों या अप्रियकर हो, पूर्वकमका फल जानकर, उसे शांतिसे सतोषपूर्वक विचरना चाहिये । सर्व सासारिकताको त्यागकर सम्यक्दृष्टि रखते हुये सब अप्रिय भावनायें सहन करना चाहिये । वही नग्न हैं और सांसारिक अवस्थाको धारण नही करते. प्रत्युत धर्मपर चलते हैं । यही सर्वोत्कृष्ट किया है । इसके उपरान्त उमी सूत्रमें इसकी प्रशंसा करके कहा है कि 'तीर्थ
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१ " 'The naked, fasting (monk ), w1o combits L 'aus
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the flesh, will be thusal of strue's he will be cared with his for 1eviled with untrue lepronel e (for this tucatnent ) by his former hus knowing pleasent and unpleasant ce urences he should patiently wandei about. Omitting all worldliness one should bear all (disagreable) feelings, being possessed of the 11ght view (2) Those are called naked, who in this world, never returning ( to a worldly state ), ( follow ) my religion according to the commandment. This highest doctrine has here been declared for men. (Js. Pt. I. P. P. 55-56. )
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[ भगवान महावीर
ङ्करोंने भी इस नग्नवेशको धारण किया था।' ऐसी अवस्थामे स्पष्ट है कि न केवल भगवान महावीर और ऋषभदेवने ही इस नग्नावस्थाको धारण किया था, प्रत्युत प्रत्येक तीर्थकरने अपने मुनि जीवनमें इस परीषहको सहन किया था।
वास्तवमें श्वे० ग्रन्थोमें भी जैन मुनियोंका प्रायः वैसा ही मार्ग निर्दिष्ट किया गया है जैसा दि० शास्त्रोमें बतलाया गया है। यदि उसमें अन्तर है तो वह उपरान्तके टीकाकारोके प्रयत्नोका फल है। उनके इसी आचाराङ्गसूत्रमें सर्वोत्कृष्ट नग्न-अचेलक अवस्थाका निरूपण करके अगाडी क्रमशः तीन वस्त्रधारी, दो वस्त्रधारी और एक वस्त्रधारी या नग्न साधुका रूप और उसका कर्तव्य प्रतिपादित किया गया है । एक वस्त्रधारी और नग्न मुनिको उनने एक ही कोटिमें रखकर प्राकृत अनियमितता प्रकट की है। इनके उपदेशक्रमसे यह स्पष्ट है कि वे वस्त्रको त्याग करना आवश्यक समझते थे और यह है भी ठीक, क्योंकि यदि वस्त्रधारी अवस्थासे मुक्ति लाभ होसक्ता तो कठिन नग्न दशाका प्रति. पादन करना वृथा ठहरता है। इसीलिये श्वेताम्बर शास्त्रोंमें वस्त्रधारी साधुओंको ऐसे साधु बतलाये हैं जो सांसारिक बन्धनोंसे छूटनेके लिये प्रोत्साहित होरहे हैं । (Asparing to freedom from bonds) और एक वस्त्रधारी साधुको नग्नभेष धारण करनेका भी परामर्श दिया गया है। दिगम्बर आम्नायमें वस्त्रधारी
१. जैनसूत्र (S. B. B) भाग १ पृष्ठ ५७-५८. २. पूर्व पृष्ठ ६७-६८. ३. पूर्वपृष्ठ ६९-७०. ४. पूर्व पृष्ठ ७१-७२. ५. पूर्व पृष्ठ ७३-७४. ६. पूर्व पृष्ठ १९-७१. ७. पूर्व पृष्ठ १.
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-और म० बुद्ध ]
[५७ साधु उदासीन श्रावक माने गये हैं और उत्कृष्ट श्रावक क्षुल्लक' 'ऐलक' कहलाते हैं । श्वे० के उत्तराध्ययनसूत्र में भी क्षुल्लकको लक्ष्यकर एक व्याख्यान लिखा गया है। अतएव यह शब्द वहां भी उदासीन उत्कृष्ट आवकके लिए व्यवहृत हुआ प्रतीत होता है । ऐसी दशामें यह स्पष्ट है कि श्वे आचार्य भी मुनिके लिये नग्न अवस्था आवश्यक समझते हैं और वही सर्वोत्कृष्ट क्रिया है । तथापि तीर्थकर भगवानका जीवन सर्वोत्कृष्ट होता है । इसलिये उनकेद्वारा सर्वोत्कृष्ट क्रियाका पालन और प्रचार होना परम युक्तियुक्त और आवश्यक है। इसीलिये अन्ततः श्वे० आचार्यको भी भगवान महावीरके विषयमें कहना पडा है कि "उन ( भगवान् )के तीन नाम इस प्रकार ज्ञात हैं अर्थात् उनके माता-पिताने उनका नाम वईमान रखखा था, क्योंकि वे रागद्वेषसे रहित थे, वे 'श्रमण इसलिये कहे जाते थे कि उन्होंने भयानक उपसर्ग और कष्ट सहन किये थे, उत्तम नग्न अवस्थाका अभ्यास किया था, और सासारिक दुःखोंको सहन किया और पूज्यनीय श्रमण महावीर, वे देवों द्वारा कहे गये थे।
१. जैनसूत्र (S. B.E) भाग २ पृष्ठ २४-२७. २. "His three names have thus been recorded by tradition : by his parents he was called Vardhamana, because he is devoid of love and hate ; ( he is called ) Sramana (i. e. Ascetic ), because he sustains dreadful dangers and fears, the noble nakedness, and the miseries of the world; the name Venerable Ascetic Mahavira has been given to him by the gods." ( Jaina Sutras. S. B.E. Pt. I. P. 193).
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५८]
[भगवान महावीर
इसी प्रकार श्वेतावर टीकाकारोके कथनका अभिप्राय है। उन्होंने उक्त वर्णनका भाव 'जिनकल्पी' और 'स्थिविरकल्पी' प्रभेदमे जो लिया है, वह भी हमारे उक्त कथनकी पुष्टि करता है। 'जिनकल्पी' के भाव यही होसक्ते हैं कि 'जिनकल्प'के और 'स्थिविरकल्पी के इसी तरह स्थिविरकल्प'के समझना चाहिये, और यह भाव श्वे० मान्यताके अनुकूल है, क्योकि तीर्थक्षरोके समयमें तो वे नग्न जिनकल्पी साधुओका होना मानते ही है। स्वयं तीर्थकर भगवानने नग्न भेषको धारण किया था । अतएव 'जिनकल्प'के तीर्थंकर भगवानके समयके साधुओंको 'जिनकल्पी' बतलाना ठीक ही है और उपरांत 'स्थिविरकल्प ' पंचमकालमें वस्त्रधारी मुनियोंको 'स्थिविरकल्पी' संज्ञा अपनी मानताके अनुसार देना युक्तियुक्त है। अतएव इस प्रभेदसे भी नग्न अवस्थाका महत्व और प्राचीनत्व प्रमाणित है।
वारतवमें सासारिक वधनोसे मुक्ति उस ही अवस्थामे मिल सक्ती है जब मनुष्य वाह्य पदार्थोसे रन मात्र भी सम्बध या ससर्ग नहीं रखता है। इसीलिये एक जैन गुनि अपनी इच्छाओ और सासारिक आमाक्षाओपर सर्वथा विनयी होता है । इस विजयमे उसे सवारि 'लज्जा'को परास्त करना पड़ता है। यह एक प्राछतिक और परगावश्यक क्रिया है। उस व्यक्तिकी निस्टहता और इंद्रियनिग्रहतामा प्रत्यक्ष प्रमाण है। इस अवस्थामे सासारिक ससर्ग छूट ही जाता है। एक आयरलैण्डवासी लेखकके शब्दोमें "कपडोकी झझटसे छूटनेपर मनुष्य अन्य अनेक झंझटोसे छूट जाता है, एक जैनके निकट विशेष आवश्यक जोजल है, सो इस अवस्थामें उनको धोनेके लिये उसकी जरूरत ही नही पड़ती! वस्तुतः हमारी
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[ ५९
बुराई भलाईकी जानकारी ही हमारे मुक्त होनेमें बाधक । मुक्ति लाभ करनेके लिये हमें यह भूल जाना चाहिये कि हम नग्न हैं । जैन निर्ग्रन्थ इस बातको भूल गये हैं, इसीलिए उनको कपडोकी आवइयक्ता नही है" ।" यह परमोत्कृष्ट और उपादेय अवस्था है । दि० और श्वे० शास्त्र ही केवल इस अवस्थाकी प्रशंसा नही करते, प्रत्युत अन्य धर्मोमे भी इसको साधुपनेका एक चिह्न माना गया है। हिंदुओंके यहा भी नग्नावस्थाको कुछ कम गौरव प्राप्त नही हुआ है। शुकाचार्य दिगम्बर ही थे, जिनके राजा परीक्षितकी सभामे आनेपर हजारों ऋपि और स्वयं उनके पिता एवं परपिता उठ खडे हुए थे ।' हिन्दुओके देवता शिव और दत्तात्रय नग्न ही हैं। यूनानवासियोके यहां भी नग्न देवताओकी उपासना होती थी । ईसाईयोकी वायविलमे भी नग्नता साधुताका चिह्न स्वीकार की गई है, यथा:"और उसने अपने वस्त्र उतार डाले और सैमुयलके रामक्ष ऐसी ही घोषणा की और उस सपूर्ण दिवस और रात्रिको वह नग्न रहा । पर उन्होने कहा, क्या आत्मा भी पेगम्बरोमेरो
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है ?" -- ( सेनुवल, १९-२४ )
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उसी समय प्रभृने अमोजके पुत्र ईसाय्यासे कहा, जा और अपने वस्त्र उतार डाल और अपने पैरोसे नृते निकाल डाल और उनने यही किया, नग्न और नंगे पैरो विचरने लगे । - ( ईसाय्या २० - २ ) मुसलमानोके बारेमे भी कहा गया है कि "अरवोके यहा भी
१. दी हार्ट ऑफ जैनीज्म पृष्ठ ३५० २. जेन इतिहास सीरीज़ भाग १. पृष्ठ १३. १३. पूर्वप्रमाण.
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[ भगवान महावीरनग्न अवस्था संसार त्यागका एक चिह्न माना जाता था। मि० वाशिङ्गटन अरविन्ना अपनी "लाइफ ऑफ मुहम्मद" {Appendix) में कहते है कि 'तौफ अर्थात् कावाका परिक्रमा देना मुहम्मदसे पहिलेकी एक प्राचीन क्रिया थी और स्त्री-पुरुष दोनों ही नग्न होकर इस क्रियाको करते थे। मुहम्मदने इस क्रियाको बन्द किया
और इहराम अर्थात यात्रीके वस्त्रकी व्यवस्था की थी। ईसामसीहका विना सिया हा कोट अलंकृत भाषामें नग्नताका द्योतक है। St. John, XIX, 23)."" इस प्रकार यह प्रगट है कि एक समय ससारमें सर्वत्र नग्नता साधुपनेका आवश्यक चित्र समझी जाती थी। भगवान महावीरके समयमें आजीवक आदि भी नग्न रहते थे, यह हम देख चुके है । आज भी हिंदुओंमे नंगे साधु मिलते हैं । उमी तरह जेन निग्रंथ साधु भी प्राचीन दिगम्बर भेपमें विचरते दृष्टि पडते है।
इस परिस्थितिमें यह सहसा जीको नहीं लगता कि उस प्राचीन कालमें जैन निग्रंय मुनि वस्त्रधारी होते हों । जेन शास्त्रोके अतिरिक्त बौद्ध शास्त्रोमे जैन मुनियोंका उल्लेख नग्नरूपमें किया गया है। साथ ही उनमें 'एक वस्त्रधारी' और 'श्वेतवस्त्रधारी' निगन्य साक्को (श्रावकों ) का भी उल्लेख मिलता है। और यह
१. सप्लीमेन्ट इ टी कॉन्फुयेन्स ऑफ ओपोजिस पृष्ठ २७. २. देतो दिव्यावदान पृष्ठ १६५; जातक्माटा (S. B. B Vol. ) पृष्ठ १४.; विशाखापत्यु-धम्म पदत्य कथा ( P. T. S. Vol. I). भाग २ १४ ३८४, रायोलॉग्स ऑफ दी बुद्र भाग ३ पृष्ठ १४; महावग्ग ८,१५,७.१,३८६, चुम्वग८,२८,३,सयुत्तनिकाय २,३,१०,५. १.न्टयन एन्टोरी माग ४३,
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[६१ दिगम्बर जैन शास्त्रोंके सर्वथा अनुकूल है । व्रती श्रावकोंको श्वेतवस्त्र धारण करनेका विधान उनमे मिलता है तथा ग्यारहवीं प्रतिमाधारी श्रावक 'एक वस्त्रधारी' कहा गया है । इसके अतिरिक्त बौद्धशास्त्रमें जैन मुनियोंकी कतिपय प्रख्यात् दैनिक क्रियायोका भी इस प्रकार वर्णन मिलता है
"डायोलॉग्स ऑफ बुद्ध" नामक पुस्तक (S. B. B.) के 'कस्सप-सिहनाद-सुत्त' में विविध साधुओंकी क्रियायोका वर्णन दिया हुआ है । उनमें एक प्रकारके साधुओंकी क्रियायें निम्नप्रकार दी हैं और यह जैन साधुओंकी क्रियायोंसे बिलकुल मिल जाती हैं। इसलिये हम दोनोंको यहांपर देते है:वौद्धशात
१-" वह नग्न विचरता है।" जैनशास्त्र
१-यह जैन मुनिके २८ मूलगुणों से एक है और यों है:'वत्थाजिणवक्केण य अहवा पत्ताइणा असंवरणं । णिभूसण णिग्गंथं अचेलकं जगदि पूज्जं ॥३०॥-मूलाचार । २-" वह ढीली आदतोंका है। शारीरिक कर्म और भोजन वह 1. यथा:-सद्वधा प्रथम स्मश्रुमूर्धजानअपनाययेदते ।
सितकौपीन सं व्यानः कर्तर्या वा क्षुरेण वा ॥३०॥ तद्वत् द्वितीयः किन्वार्यसंज्ञो हुँचत्यसौ कचान । कौपीनमात्रयुग्धत्ते यतिवत्प्रतिभासनम् ॥४८॥
-सागारधर्मामृत। "उत्कृष्ट श्रावको भवेत् द्विविधः पवैकधर प्रथम. कोपीनपरिग्रहोऽन्यस्तु।"
-स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका।
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[ भगवान महावीर -
खडे २ करता है, (भले मानसोंकी भांति झुककर या बैठकर
नहीं करता । "
२ - इसमें २४ वें (अस्नान ) २६ वें (अदन्तघर्पण) और २७ वें ( स्थितभोजन) मूलगुणोका उल्लेख है ।
३ - " वह अपने हाथ चाटकर साफ करलेता है ।"
३ - जैन मुनि हाथोकी अञ्जलिमें जो भोजन रक्खा जावेगा उसे वैसा ही खा लेते हैं, ग्रास बनाकर नही खाते। यहांपर बौद्धाचार्य इसी क्रियाको विकृत आक्षेपरूपसे बतला रहे हैं। ४ - ( जब वह अपने आहारके लिये जाता है, यदि सभ्यतापूर्वक नजदीक आनेको या ठहरनेको कहा जाय कि जिससे भोजन उसके पात्र में रख दिया जाय तो) वह तेजी से चला जाता है ।" ४ - यह मूलाचार की ऐषणा समितिकी टीकामे स्पष्ट कर दिया गया है, यथा:
६२]
“भिक्षावेलायां ज्ञात्वा प्रशान्ते धूममुशलादिशब्दे गोचरं प्रविशेन्मुनिः । तत्र गच्छन्नातिद्रुतं, न मन्दं, न विलम्वितं गच्छेत् ॥ १२१ ॥"
- " वह (उस) भोजनको नहीं लेता है । (जो उसके निकट आहा/ रके लिये निकलने के पहिले लाया गया हो ) ।
५ - ऐषणा समिति मुनिको ४६ दोषरहित, मन, वचन, कायकृत, कारित अनुमोदनाके ९ प्रकारके दोषोसे रहित भोजन ग्रहण करना आवश्यक बतलाया है, अतएव लाया हुआ भोजन खास उनके निमित्तसे बना जानकर वे ग्रहण नहीं -करते ।
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६ - 'वह ( उस भोजनको भी) नही लेता है ( यदि बता दिया जाय कि वह खासकर उसके लिये बनाया गया है) । '
६ - इसमें भी कारित अनुमोदना दोष प्रकट है । ७ - ' वह कोई निमंत्रण स्वीकार नहीं करता
७ - यहा भी उक्त दोष है, जैन मुनि निमंत्रण स्वीकार नहीं करते । ८ - ' वह नही लेगा ( भोजन जो उस वर्तनमें से निकाला गया होगा ) जिसमें वह रांधा गया हो
८ - यह ' स्थापित या न्यस्त' दोष है ।
९ - ( वह भोजन ) नहीं (लेगा ) आंगनमें से ( कि शायद वह वहां खासकर उसके लिये ही रक्खा हो) '
१०- ( वह भोजन) नहीं (लेगा ) जो लकडियों के दरमियान रक्खा गया हो ।'
ין
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९-१०. प्रादुष्कर दोष है ।
११ - ( वह भोजन ) नही (लेगा) जो सिलवट्टे के दरमियान रक्खा हो । ११ - यहां 'उन्मिश्र अशन दोष' का भाव है ।
१२ - जब दो व्यक्ति साथ२ भोजन करते हैं तो वह नही लेगा केवल एक ही देगा ।
१२ - यह अनीश्वर व्यक्ताव्यक्त अनीशार्थ दोषका रूपान्तर है । १३ - ' वह दूध पिलाती हुई स्त्रीसे भोजन नहीं लेगा.... ।' १४ - ' वह पुरुषके सग रमण करती हुई स्त्री से भोजन नही लेगा।' १३-१४ - यह दायक अशनदोषके भेद हैं ।
१९ - ' वह
•
भोजन नहीं लेगा (जो अकालके समय ) एकत्रित किया गया हो ।'
..
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६४]
[ भगवान महावीर१५-यह अभिघट उद्गम दोष दीखता है। १६-'वह वहां भोजन स्वीकार नहीं करेगा जहा पासमें कुत्ता खडाहो।' १६-प्रथम पादातर जीव सम्पात या दशक अन्तराय दोप है ।
श्वे० के यहां भी यह स्वीस्त है । १७-वह वहां भोजन नही लेगा जहां मक्खियोका ढेर लगा हो। १७-यहां 'पाणिजंतुवध' अन्तरायका अभिप्राय है । १८-वह (भोजनमें) मच्छी, मास, मद्य, आसव, सोरवा ग्रहण
नहीं करेगा। १८-यह स्पष्ट है, यथाः"खीरदहिसप्पितेल गुडलवणाणं च ज परिचयणं । तित्तकटुकसायंविलमधुररसाणं च जं चयणं ॥१५॥ चत्तारि महावियडी य होति णवणीद मज्जमांसमधू । कंखापसंगदप्पा संजमकारीओ एदाओ ॥ १५६ ॥" .
-मूलाचार। १९-वह ' एक घर जानेवाला ' होता है. एक ग्रास भोजन
करनेवाला होता है या वह 'दो घर जानेवाला' होता है.. दो ग्रास भोजन करनेवाला है. या वह 'सात घर जानेवाला है-सात ग्रास तक करनेवाला है। वह एक आहार निमित्त
दो निमित्त या ऐसे ही साततक जानेका नियमी होता है। १९-यह वृत्तिपरिसख्यान क्रिया है। २०-वह भोजन दिनमे एक वार करता है, अथवा दो दिनमे
एकवार अथवा ऐसे ही सात दिनमें एक वार करता है। इस प्रकार वह नियमानुसार नियमित अन्तरालमे-अर्ध मास तकमें-भोजन ग्रहण करता रहता है।
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-और म० बुद्ध ]
२०-यह सांकाक्षानशन नामक व्रत है।
इन क्रियायोके विशद विवेचनके लिये 'वीर' वर्ष २ अंक २३में 'जैन मुनियों का प्राचीन भेष' शीर्षक लेख देखना चाहिए।
इसके साथ ही ब्राह्मणोंके शास्त्रोमें भी जैन मुनियोका भेष नग्न बतलाया गया है। इन सब प्रमाणोंको देखते हुये यही उचित मालूम होता है कि जैन तीर्थंकरोंने निर्ग्रन्थ मुनिका भेष नग्न ही बतलाया था । और जब उन्होंने इस तरह इसका प्रतिपादन किया था तो वह स्वयं भी नग्न भेषमें अवश्य रहे थे यह प्रत्यक्ष है।
__ अतएव भगवान् महावीरने परम उपादेय दिगम्बरीय दीक्षा धारण करके दाई दिनका उपवास (वेला) किया था। उसके उपरांत जब वह सर्व प्रथम मुनि अवस्थामें आहार निमित्त निकले तो कूलनगरके कूलनृपने उनको पडगाहकर भक्तिपूर्वक आहारदान दिया था। यही बात श्री गुणभद्राचार्यनी निम्न श्लोकों द्वारा प्रकट करते है:
१. ऋग्वेद १०।१७९, वराहमिहिर सहिता १९६१ और ४५१५८ महाभारत ॥२६॥२७, रामायण बाउकाण्ड भूषण टोका १४।२२; विष्णुपुराण ३१८ अध्याय, वेदान्तसुत्र २।२।३३-३६, दशकुमार चरित २. २. महावीर पुराण, ३. राजा और नगरका एक ही नाम होना हमें सदेहमें डाल देता है कि कहीं यहाँ किसी गणराज्यके राजाका उल्लेख न किया गया हो। इसी अनुरूप हमने अपने 'भगवान महावीर' में इन राजाको 'कोल्यिगणराज्य' का एक राजा और उसके गणराज्यकी राजधानी 'देवक लिं' को कुलग्राम वतलाया है। किन्तु प० विहारीलाल जी. सी. टी. का कयन है कि यह नगर भगवान महावीरके कुलका नगर अर्थात कुण्डग्राम होना चाहिये, क्योकि भगवानने भाने जन्मस्थानके निकट ही दीक्षा ग्रहग करके योग धारण किया था। यह भी अनुमान 'कुल प्राम' के अर्थ 'कुलका ग्राम
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६६]
[ भगवान महावीर" अथ भट्टारकोप्यस्मादगात्कायस्थितिं प्रति । कुलग्रामपुरीं श्रीमत् व्योमगामिपुरोपमं ।। ३१८ ॥ कूलनामा महीपालो दृष्ट्वा तं भक्तिभावितः। प्रियंगुकुममांगाभः त्रिः परीत्य प्रदक्षिणं ।। ३१९ ॥ प्रणम्य पादयोki निधि वा गृहमागतं । प्रतीक्ष्यार्घादिभिः पूज्यस्थाने मुस्थाप्य मुव्रतं ।।३२०॥ गंधादिभिर्विभूष्यैतदपादोपांतमहीतलं । परमानं विशुद्ध्यास्मै सोदितेष्टार्थसाधनं ॥ ३२१ ॥"
उत्तरपुराण । अर्थात्-"अथानंतर पारणाके दिन वे भट्टारक महावीरस्वामी आहारके लिये निकले तथा स्वर्गकी नगरीके समान कुलग्राम नामकी नगरीमें पहुंचे । प्रियंगुके फूलके समान (कुछ लालवर्णी) कातिको लेनेसे युक्तिसगत बैठता है, किन्तु इस दशामें कुल्नएका पता लगाना शेष रहता है। इसी कारण हमने आपके इ५ मतसे असहमतता प्रकट की थी। परन्तु अव विशेष अध्ययनके उपरान्त यह ज्ञात हुआ है कि उस समय कुलका भाव शब्दार्थम प्रायः पश या गणका लिया जाता या। वौदोंके शाखोंमें हमें ऐसे ही उदाहरण मिलते है। 'थेरगाथा में कई स्थलोपर 'कुलगेहे शनका व्यवहार हुभा मिलता है । इसका अनु. वार मिज हीस डेविड्सने Clansman's family किया है। (See The Psalts of Brethern. P.51) इस अपेक्षा यह स्पष्ट है कि कुलनगर भगवान महावीरके कुल अथवा गणका नगर था और कूलप भी उसी गणके एक राजा थे, कि यह हमको मालूम ही है कि शादशी, लिच्छवि आदि कुल वाजयन गराज में सम्मिलित थे और वे लोग राजा कहलाते थे। इसीलिये दि० जेन ग्रंथो में जो उक्त प्रकार उल्लेख है यह गणराज्यापेक्षा है।
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[६७ धारण करनेवाले उन भगवानको उस राजाने पूज्य स्थानपर विराजमान कर अर्घादिकसे उनकी पूजा की। उनके चरणकमलके समीपवर्ती एथिवीका भाग गंधादिकसे विभूषित किया और बड़ी विशुद्धिके साथ उन्हें इष्ट अर्थको सिद्ध करनेवाला परमान्न समर्पण किया।"
भगवान पारणा करके पुनः वनमें आकर ध्यानलीन और तपश्चरण रत होगये । 'वहांपर निशंकरीतिसे रहकर उन्होंने अनेक योगोंकी प्रवृत्ति की और एकात स्थानमें विराजमान होकर बारबार दश तरहके धर्मध्यानका चितवन किया । ' उपरान्त विचरते हुये वे उज्जयनीके निकट अवस्थित अतिमुक्तक नामक श्मशानमें पहुचे
और वहां प्रतिमायोग धारण करके तिष्ठ गये । उसी समय एक रुद्रने आकर उनपर घोर उपसर्ग किया, किन्तु भगवान जरा भी अपने ध्यानसे चलविचल नहीं हुये । हठात् रुद्रको लज्जित होना पड़ा और उसने भगवानकी उचित रूपमें संस्तुति की। सचमुच जो धीर वीर होते हैं वे इस प्रकार उपसर्ग आनेपर उद्देश्य-पथसे विचलित नहीं होते है। कितनी ही बाधायें आयें, कितने ही संकट उपस्थित हो, और कितने ही कण्टक मार्गमें बिछे हों; परन्तु धीर वीर मनीषी उनको सहर्ष सहन करके अपने इष्ट स्थानपर पहुंच जाते हैं । उन्हें कोई भी इष्ट पथसे विचलित नहीं कर सत्ता ।
भगवान महावीर परम धीरवीर गंभीर महापुरुष थे। वास्तवमें वे अनुपमेय थे । उन्होने नियमित ढंगसे वाल्यपनेके नन्हें नीवनसे संयमका अभ्यास किया था । क्रमानुसार उसमें उन्नति करते हुये वे उसका पूर्ण पालन करनेके लिये परम दिगम्बर मुनिभेषमे सुशो
१. उत्तरपुराण पृष्ठ ६१२-११३.
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६८]
[ भगवान महावीरमित हुये थे और इस अवस्थामें उन्होने लगातार-बारह वर्षका ज्ञान ध्यानमय तपश्चरण किया था। इस तरह म० बुद्ध और भगवान महावीरके साधुनीवन व्यतीत हुये थे । म० बुद्धने किसी नियमित साधुसप्रदायका व्यवस्थित अभ्यास नही किया था और भगवान महावीरने प्राचीन निर्ग्रन्थ श्रमणोकी क्रियायोंका पालन अपने गृहत्यागके प्रथम दिनसे ही किया था। अतएव इन दोनों युगप्रधान पुरुषोंके साधुनीवन भी बिल्कुल विभिन्न थे।
ज्ञानप्राप्ति और धर्मप्रचार।
'मनुष्यमें पूर्णपनेकी संपूर्ण शक्ति विद्यमान है' यह विश्वास ___ आत्मवादके सुरम्य जमानेमें प्रत्येक व्यक्तिको हृदयङ्गम था । किन्तु
इस आधुनिक पुद्गलवादके दौरदौरेमे यह विश्वास बहुत कुछ लुप्त होरहा है। लोग इस प्राकृतिक श्रद्धान-आत्मविश्वासकी
ओरसे विमुख होरहे है । आत्मवादकी रहस्यमय घटनाओंको उपहासकी दृष्टिसे देखरहे है। मनुष्यकी अपरिमित आत्मशक्तिमें आन प्रायः लोगोंको अविश्वास ही है, किन्तु सत्य कभी ओझल हो नहीं सका । धूलकी कोटिराशि उस पर डाली जाय, परन्तु उसका प्रखर प्रकाश ज्योंका त्यों रहेगा । आत्मवाद एक प्राकृतिक सिद्धान्त है उसका प्रभाव कभी मिट नही सक्ता । परिणामतः आन इस भौतिक सभ्यतामें लालित पालित और शिक्षित दीक्षित हुये विद्वान ही इसके अनादिनिधन सिद्धान्तोंको प्रत्यक्ष प्रमाणों
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[ ६९
द्वारा स्वीकार करनेको बाध्य हुये हैं । सर ओलीवर लॉज महोदय इन विद्वानों में अग्रगण्य हैं । इन्होंने अपने स्वतंत्र प्रयत्नों और 1 आविष्कारों द्वारा यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्यमें अनन्त शक्ति है । स्वयं परमात्माकी प्रतिमूर्ति उसके भीतर मौजूद है । इस शरीर के नाशके साथ, उसका अन्त नहीं होजाता । वह जीवित रहता और परमोच्च जीवनको प्राप्त करता है ।
ये उद्गार यथार्थ सत्य हैं। 'भारतमें इनकी मान्यता और उपासना युग पहिलेसे होती आई है । और आज भी इस पवित्र I भूमिमें इस मान्यता को ही आदर प्राप्त है, किन्तु नूतनं सभ्यताके मदमाते नवयुवकं आज इस प्राचीन सत्यको सहसा गलें उतारने में हिचकते दृष्टि पडते हैं । अतएव आत्मवादके लिये भौतिक संसारके प्रख्यात् विद्वान्के उक्त उद्गार हर्षोत्पादक शुभ चिन्ह हैं । इनमे आंशाकी वह रेखा विद्यमान है जो निकट भविष्यमें संसार को आत्मवादके सुखमार्ग पर चलतें दिखायगी ! उस समय सारा संसार यदि जैनाचार्यके साथ यह घोषणा करते दिखाई दे तो कोई आश्चर्य नहीं किः - 'यः परात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्तथा ।
I
"
4
अहमेव मयोपास्यो नान्यः कश्चिदिति स्थितिः।। ' भावार्थ- 'जो परमात्मा है वही मैं हूं तथा जो मैं हूं सो ही परमात्मा है । इसलिये। मैं ' ही मेरे द्वारा भक्ति किये जानेके योग्य' हूं और कोई नहीं; ऐसी वस्तुकी स्थिति है ।' वस्तुतः इस यथार्थ वस्तुस्थितिके अनुरूपमें यदि मनुष्य निरालम्ब हो पौगलिक : प्रभावसे मुख मोड़ले तो वह इस सत्यके दर्शन सुगम करले |
1
१. देखो जोम्बेक्रॉनिकल' - भाँग १३ संख्या ४८ डी. पृष्ठ ११
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७.]
[ भगवान महावीरफिर इसी धुनमें उसे शांति और सुखका अनुभव प्राप्त हो और वह इसी सत्यकी उच्च तान लगावे और कहे:
'निज घटमें परमात्मा, चिन्मूरति मइया । ताहि विलोक सुदृष्टिधर, पंडित परखैय्या'॥
यही प्राचीन सत्य है । भारतके पुरुषोंने इस ही की सर्वथा घोषणा की थी ! धोषणा ही नहीं, प्रत्युत तदप आचरण करके उन्होने यथार्थताके वस्तुस्थितिके-प्रत्यक्ष दर्शन लोगोको करा दिये थे। भगवान महावीर और म० बुद्ध भी उन्ही भारतीय पुरातन पुरुषोंकी गणनामेंसे बाहिर नहीं है; यद्यपि म० बुद्धके विषयमें इतना अवश्य है कि उन्होंने सामयिक परिस्थितिको सुधारनेके लिये प्रगटरूपमें आत्माके अस्तित्वसे इन्कार किया था, परन्तु अन्ततः अस्पष्टरूपमें उनको उसका अस्तित्व और महत्व स्वीकार करना पड़ा था, यह हम अगाडी देखेंगे, अतएव यहापर हमको देखना है कि इन दोनों युगप्रधान पुरुषोने किसरीतिसे इस यथार्थ आर्य सत्यके दर्शन किये थे?
म० बुद्धके विषयमें हम देख आये हैं कि वे परिबाजक आदि साधुओंके मतोका अभ्यास करके, जैन साधुकी ज्ञान-ध्यानमय अवस्थाको प्राप्त हुये थे । उस अवस्थामें उन्होंने छः वर्षका कठिन तपश्चरण धारण किया था। इस तपश्चरणमें उनका शरीर बिल्कुल सूखगया था। वे विलकुल शिथिल हो गये थे परन्तु उनने यह सब तपश्चरण निदान बाधकर प्रबुद्ध होनेकीतीव्र आकान्क्षासे किया था, इसीलिये वह इच्छित फलको न दे सका ! बस,
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-और म० बुद्ध
[७१ म० बुद्धने जब देखा कि इस कठिन तपश्चरण द्वारा भी उनको उद्देश्यकी प्राप्ति नही होती, तो उन्होंने कहाः
___"न इन कठिनाइयोके सहन करनेवाले नागवार मार्गसे मैं उस अनोखे और उत्कृष्ट पूर्ण (आर्योंके) ज्ञानको, जो मनुष्यकी बुद्धि के बहार है, प्राप्त कर पाऊंगा । क्या सम्भव नही है कि उसके प्राप्त करनेका कोई अन्य मार्ग हो ?" ।
(E. R. E. Vol. II. P. 70.) __इसके साथ ही उन्होंने शरीरका पोषण करना पुनः प्रारम्भ कर दिया, परन्तु इस दशामें भी उनका श्रद्धान आर्योंके उत्कृष्ट एव विशिष्ट ज्ञानमें तनिक भी कम न हुआ । उनको उस उत्कृष्ट ज्ञानके पानेकी लालसा अब भी रही और वह उसको अन्य सुगम उपायों द्वारा प्राप्त करनेके प्रयत्नमें सलग्न होगये; किन्तु इतना दृढ़ श्रद्धान म० बुद्धको जो आत्माके उत्कृष्ट ज्ञानकी शक्तिमें हुआ, सो कुछ कम आश्चर्यपूर्ण नहीं है । अवश्य ही इतना दृढ़ श्रद्धान इस उत्कृष्ट ज्ञानमें उसी अवस्थामें हो सक्ता है जब उसके साक्षात दर्शन उस श्रद्धानीको होगये हों। अतएव इसमें संशय नहीं कि म० बुद्धने अवश्य ही भगवान पार्श्वनाथके तीर्थक किसी केवलज्ञानी ऋषिरानके दर्शन किये होंगे | इसी कारण उनका इतना दृढ़ श्रद्धान था।
___म बुद्ध अपने इस दृढ़ श्रद्धानके अनुरूपमें अन्य सुगम रीतिसे इस उत्कृष्ट आर्यज्ञानको प्राप्त करनेमें संलग्न थे। इतनी कठिन तपश्चर्या जो उन्होंने की थी वह वृथा ही जानेवाली न थी।
१ बुद्ध जीवन (S. B.E.XIX) पृष्ट १४७...
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७२]
[ भगवान- महावीरपरिणामतः उनको बोधि-वृक्षके निकट उस 'मार्ग 'के दर्शन होगये, जिसकी वे खोनमें थे । बौद्ध शास्त्रोंका कथन है कि इस अवसरपरउनको पूर्ण ज्ञानकी प्राप्ति हुई थी और वे 'तथागत' होगये थे।' बौद्धोंके इस कथनमें कितना तथ्य है, यह हम उन्हीके शास्त्रोंसे देखेंगे।
म. बुद्ध तथागत होगये, परन्तु इस अवस्थामें भी वे उन सब प्रभोंका उत्तर नहीं देते थे, जो सैद्धांतिक विवेचनमें सर्वप्रथम अगाडी आते हैं और सामान्य लोगोंको एक गोरखधंधासा समझ पडते हैं। अतएव इन बातोंको ध्यानमें रखते हुए हम सहसा बौद्धोंकी उक्त मान्यताको स्वीकार नहीं कर सक्ते 'म बुद्धको 'वोधिवृक्ष के नीचे किसी प्रकारके उच्चज्ञानके दर्शन अवश्य हुये थे, परन्तु क्या वह पूर्ण ज्ञान (केवलज्ञान) था, यह-विचारणीय है। इसके लिये हम स्वयं कुछ न कहकर केवल बौद्धोंके मान्य औरप्राचीन ग्रंथ 'मिलिन्द-पन्ह के शब्द ही उपस्थिता करेंगे। यहां म० बुद्धके पूर्णज्ञान-(केवलज्ञान या सर्वज्ञता)के विषय में पूछे जानेपर बौद्धाचार्य-कहते हैं:___ "वह ज्ञानकी दृष्टि उनके निकट हर-समय नहीं रहती थी। भगवतकी सर्वज्ञता विचार करनेपर, अवलम्बित थी,.. और जब वह विचार करते थे तो वह उस बातको जान लेते थे, जिसको वह जानना चाहते थे।" ____ इसपर प्रश्नकर्ता राजा मिलिन्द उनसे कहते हैं किः
मिहावग्गं पृष्ट -७४ । ३ दी गयोलॉग्स भाँफबुद्ध-पोत्यपादसत (S: BB Vol. ii.' २४ भौरे कार्यको बुटिस्ट फिलासफी' पृष्ट ३६ और ।
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-और-म० बुद्ध]
[७३. " इस दशामें जब कि विचार करनेसे बुद्धः किसी बातको __ जानते थे, तो वह सर्वज्ञ नहीं हो सक्ते।"
चौद्धाचार्य राजाके इस कथनको किन्हीं अशोंमें स्वीकार करते हुये कहते हैं:
"यदि ऐसे ही है; संम्राट् ! तो हमारे बुद्धको ज्ञान अन्य बुद्धोंके ज्ञानकी अपेक्षा सूक्ष्मतामें कम होगा और इसका निश्चय लगाना कठिन है।"
बौद्धशास्त्रके इस कथनसे यह स्पष्ट प्रकट है कि पूर्णज्ञान सर्वव्यापक और उसके अधिकारीमें सर्वथा' सदा रहना चाहिये । जैन शास्त्रोमें सर्वज्ञताकी यही व्याख्या की गई है। इस दशामें यह सहसा नहीं कहा जा सक्ता है कि म बुद्धको बोधि वृक्षके निकट 'सर्वज्ञता' की प्राप्ति हुई थी। जिस प्रकार सर्वज्ञताकी व्याख्या .
9: "...thies insight' öf“ knowledge KS not always tant contisience : ( consciously ) present with him. The omniscience of thé- Blessed Onewas dependent on reflection. Būt if he did reflect hé krew whatever be wanted to know. Tñen it ig sdid; Buddha canvõtrhavel.beeti" omniscient, if this all-embracing knowledge was reached through investigation.". Nagsen replied : " If so, Great King, our, Buddha's knowledge must have been less in degree of fineness than' that oEother Buddhas. And thatruis a conclusion hard. to draw. '-Milinda-Panhå ( S. B. E. Vol: XXXV. P. 154:)
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७४]
[भगवान महावीरउक्त बौद्ध ग्रन्थमें की गई है उस प्रकार म० बुद्धका ज्ञान प्रकट नहीं होता । इसी हेतुसे हम इतना कहनेका साहस कर रहे हैं, वरन् वृथा ही किसीकी मान्यताको अस्वीकार करनेकी धृष्टता नहीं की जाती । तिसपर यह व्याख्या केवल उक्त बौद्ध अन्य पर ही अवलम्बित नहीं है। प्रत्युत म० बुद्धने स्वयं इस बातको स्पष्टतः स्वीकार नहीं किया है। जब उनसे सर्वज्ञताके विषयमें प्रश्न हुआ तो उन्होंने टालनेकी ही कोशिश की थी। एकवार राना पसेनदीने उनसे पूछा कि:
“ अर्हतों (सर्वज्ञों) में कौन सर्व प्रथम है ?"
बुद्धने कहा कि “ तुम गृहस्थ हो, तुम्हें इन्द्रिय सुखमे ही आनन्द आता है। तुम्हारे लिये संभव नहीं है कि तुम इस प्रश्नको समझ सको।"
इसतरह यह प्रत्यक्ष प्रकट है कि बोधिवृक्षके निकट जिस दिव्यज्ञानके दर्शन म० बुद्धको हुये थे वह पूर्णज्ञान अथवा सर्वज्ञता नहीं थी; प्रत्युत उससे कुछ हेय प्रकारका वह ज्ञान था। जैन दृष्टिसे उसे हम अवधिज्ञान (विभंगावधि) कह सक्ते हैं । 'थेरीगाथा' की भूमिकामें बौद्धाचार्य म० बुद्धकी इस ज्ञानप्राप्तिके
१. महापरिनिवानमुत्त (S. B. E Vol. XI.) पृष्ठ १४. २. "He (King Pasenadi ) once asked the Buddha, " who is the foremost among the Arahats ? " The Buddha replied, "You are a householder, you find delight in sensual pleasures. It will not be possible for you to unerstand this question "-Samyutu-Nikaya. Pt. I. P.P.78-79.
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- और म० बुद्ध ]
[ ७५.
विषयमें कहते है कि ' इस समय रातके प्रथम प्रहरमे उन्होने अपने पूर्व जन्मोंके वृतान्तोंको जान लिया, मध्यरातमें उनकी दिव्य दृष्टि पवित्र होगई, और अंतिम प्रहर में कार्य कारणके सिद्धान्तकी तली तक पैठकर उन्होंने उसको जान लिया । ' इस कथन से हमारे उक्त अनुमानकी पुष्टि होती है । अवधिज्ञान द्वारा विचारकर किसी खास विषयकी परिस्थिति बतलाई जासक्ती है और अवधि - ज्ञानी अपने व किसीके भी पूर्वभव जान सक्ता है । इसप्रकार इसमें संशय नहीं कि म ० बुद्धको बोधिवृक्षके निकट अवधिज्ञानकी प्राप्ति हुई थी ।
इस तरह जब म ० बुद्धको साधारण ज्ञानसे कुछ अधिककी प्राप्ति हुई, जो कि उनके जीवनकी एक अलौकिक और प्रख्यात घटना है, तो उनके भक्तोंने उनकी 'तथागत' या 'बुद्ध' कहकर ख्याति प्रकट की । भगवान महावीरका भी उल्लेख इन नामोसे हुआ मिलता है, परन्तु उनकी जो 'तीर्थङ्कर' उपाधि थी, वह म० बुद्ध से बिल्कुल विलक्षण और सार्थक है । म० बुद्धके निकट उसका भाव विधर्मी मत प्रवर्तकका था । अस्तु ।
जब म ० बुद्धको 'सम्बोघी' की प्राप्ति हो चुकी तो उन्होंने उस समयसे धर्मप्रचार करना प्रारंभ नहीं किया था, उनको
१. In the first watch of the night he recalled his former lives, in the middle watch he purified the eye celestial; in the last watch he sounded the depth of the knowledge of the Causal Law -- Psalms of the Sisters. P. 5. २. जैनसूत्र ( S. B. E) भाग १ भूमिका XX
"
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७६]
[ भगवान महावीरसंशय था कि शायद ही जनता उनके 'संदेश' को समझ सके इसलिये वह कुछ समय तक एकान्तमें रहकर शान्तिका उपभोग करने लगे। ' परन्तु अन्ततः वह अपनी इस कमजोरीको दूर करके धर्मप्रचारके लिये उद्यत हुए । वौद्ध कहते हैं कि इस समय स्वयं ब्रह्माने आकर उनको उत्साहित किया था। अतएव अपने धर्मका प्रचार करनेका दृढ़ निश्चय जब उन्होने करलिया, तो उनको इस बातकी फिकर हुई कि किस व्यक्तिको उपदेश देना चाहिये । इसपर उन्होने अपने पूर्वगुरु 'आरादकालार्म'को इस योग्य पाया, किन्तु इसी समय किसी देवताने उनसे कहा कि आरादकालामकी मृत्यु हो चुकी है । इसके साथ ही उन्होने अपनी ज्ञानदृष्टिसे काम लिया तो यही बात प्रमाणित हई। फिरें दूसरे गुरु उद्दकरामपुत्तके विषयमें भी यही घटना उपस्थित हुई । अन्ततः उन्होंने
१. महावग्ग १, ५, १ (S B B. Vol. XIII. P. 84.) २ बुद्धजीवन (S. B. E. XIX) पृष्ठ १४८... ३. “ The Buddha thought-to whom shall I preach the doctrine first He thought of his first tencher-Aldra-Kalama, but a deity- told that-he died seven days ago...then 'Knowledge sprang up jr the-Blessed One's-mind that-AlaraKålàña died seven days ago.' Then he thought of his second Teacher Uddaka Raipatti, but the same fate turn out of him too." महावग्ग १,६,-५ (S. B B Vol. XIII P. 89 ). इस कथनसे भी म० वुदका ज्ञान पूर्णज्ञान प्रगट नहीं होता, प्रत्युत उस भवधिज्ञानकी पुषि होती है जिसका उल्लेख हम पहिले कर चुके है। ४. पूर्व १,६,४.
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-और म० बुद्ध]
[७७ उन पांच ऋषियोंको उपदेश देना उचित समझा जिनके साथ उन्होंने छः वर्ष तक घोर तपश्चरण किया था । उस समय उन पांचोंको ऋषिपट्टन-बनारस में स्थित जानकर म० बुद्ध उस ही ओर प्रस्थान कर गये ।' सम्बोधीके पश्चात म० बुद्धने अपने आप आहार करना नियम विरुद्ध समझा था । इसलिये उनका प्रथम आहार तपुस्स और भल्लिक वणिकोंके यहां मार्गमें हुआ था।
उक्त प्रकार जब म० बुद्ध बनारसको अपने धर्मप्रचारके लिये जा रहे थे, तो मार्गमें उनको एक ' उपाक' नामक आजीवक भिक्षु मिला था। इसके पूछनेपर उन्होंने अपनेको 'सम्बुद्ध' प्रकट
१. महावग्ग १,६,५ पनारसके निकट ऋषिपटनमें उक्त पांचों ऋषियोंका रहना, जो सभवत. जैन मुनि थे, इस बातका द्योतक है कि यह स्थान जैन मुनियों की तपश्चर्याका मुख्य केन्द्र था। इसकी पुष्टि उत्तरपुराण के इस कथनसे होती है कि भगवान पाश्वनाथने बनारसके निकट अवस्थित धन में दीक्षा ग्रहण की थी और यहींपर उनको केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई थी। इस अवस्थागे यह स्थान जैनमुनियोंकी पाली हो तो कोई विस्मय नहीं। मजिझमनकायमें म० बुद्धने एक 'ऋषिगिरि' का उल्लेख क्रिया है और वहा जैन मुनियोका होना बतलाया है। (P. T. S. Vol 1..P P.92-93). यदि ऋषिपटन' और 'ऋषिगिरि' एक ही स्थान है तो हमारे उक्त अनुमानका यह एक और प्रमाण है। साथ ही 'बुद्धजीवन' (S. B. E. XIX. P. 168)में इस स्थान (बनारस) को 'प्राचीन ऋषियोंका निवास स्थान' (Where dwelb the ancient Rishis) बतलाया है, अतएव इसका जैनस्थान होना विस्कुल स्पष्टसा मालूम होता है । २. महावग्ग ११५ (S BE. XIII. P. 82) भगवान महावीर प्रबुद्ध होने उपरांत कवलाहार नहीं करते थे। उनकी सत्तासे वेदनीय कर्मके अभाष हो जानेसे इसकी आवश्यक्ता नहीं रही थी ।
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-७८]
[भगवान महावीरकिया था, परन्तु उस भिक्षुकको इस कथनपर संतोष नहीं हुआ। उसने कहा, 'जो आप कहते हैं शायद वही ठीक हो । आखिर वह वनारस पहुचगये । वहां ऋषिपट्टनमें उन्होंने अपने पूर्व परिचयके पांच ऋषियोंको पाया। पहिले पहिल उन्होंने म० बुद्धके कथनपर विश्वास नही किया और उनका उल्लेख सामान्य रीतिसे 'मित्र'के रूपमें किया। इसपर म० बुखने विशेषरीतिसे उनको समझाया और आश्वासन दिया एवं अपनेको 'तथागत' कहनेका आदेश किया । तब उन्होंने म० बुद्धके कथनको स्वीकार किया और उन्हें अपना गुरु माना । इनमें मुख्य कौन्डिन्य कुलपुत्रको सर्व प्रथम म० बुद्धके 'मध्यमार्ग' में श्रद्धान हुआ इसलिये वे ही म० बुद्धके पहिले अनुयायी थे। उपरान्त यहीं 'यश' नामक वणिकपुत्रको भी बुद्धने चमत्कार दिखलाकर अपने मतमें दीक्षितकर भिक्षु बनाया था। इस समय म० बुद्धके अनुयायी सात थे और इनको वे 'अईत्' कहते थे। भगवान महावीरको भी मनुष्येतर दिव्य शक्तिकी प्राप्ति थी; परन्तु उन्होंने न कभी किसीको अपना शिष्य बनानेकी इच्छा की और न इस शक्तिका उपयोग इस ओर किया। इस प्रकार जव म बुद्धके अनुयायी ६१ (अईत) होगये तब उनने भिक्षुओसे कहा कि "हे भिक्षुओं । मैं मानवी देवी सब वन्धनोसे मुक्त हुआ हूं। हे भिक्षुओ | तुम भी मानवी और देवी सब बन्धनोंसे मुक्त हुए हो । अब तुम, हे भिक्षुओ ' अनेकों
१. महावरग १९४८ (पृष्ट ९१)२ महावग्ग ११६९. ३ महावग्ग १२६१२. (पृष्ठ ९२) ४. महावग्ग १६२० और 'बुद्धजीवन' (S. B.B.XIX) पृष्ठ १७२. ५. महावग्ग १८ (पृष्ठ १०२)
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[ ७९
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शिष्योंके लाभके लिये, अनेकोंकी भलाईके लिये, सतारपर दया लाकर, मनुष्यों और देवोंके लाभ और भलाईके लिये जाओ ।" इस समय 'मार' नामक देवताने आकर पुनः म० बुद्धको अपने धर्मप्रचार करनेसे रोका, परन्तु उन्होने उपेक्षा की और अपने भिक्षुओंको स्वयं ही अन्य शिष्य दीक्षित करने- 'उपसम्पदा' देनेका अधिकार देकर चहुंओर भेज दिया ।
अतएव यह स्पष्ट है कि म० बुद्धने तत्कालीन अवस्थाको सुधारनेके भावसे अपने धर्मका नींवारोपण किया था । उन्होंने प्रचलित रीति रिवाजोको लक्ष्य करके विना किसी भेदभावके मनुष्योंको अपने धर्म में दीक्षित करनेका द्वार खोल दिया था। इससे सामाजिक वातावरणमे भी सुधार हुआ था । तथापि उनका पूर्ण लक्ष्य अपने धर्मको स्थापित करनेमें प्रचलित साधु धर्मका सुधार करनेका था । उस समय साधुगण आपसी शास्त्रार्थो और वादों में ही समयको नष्ट कर देते थे। वर्षभर में वे तीन चार महीनोंके सिवाय शेष सर्व दिनों में सर्वथा इधर उधर विचर कर सैातिक वादविवादोंमें ही प्रायः
1. "I am delivered, O Bhikkhus, from all fetters, human and divine You, O Bhikkhus, are also delivered from all fetters, human and divine Go ye now, O Bhikkhus, and wander, for the gain of the many, for the welfare of the many, out of compassion for the world, for the good, for the gain, and for the welfare of gods and men. etc.” (Mahavagge. I, II, I). २. महाव ૧૧૧૧ર મૌર્ ારા૧.
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-८० ]
[-भगवान महावीर
व्यस्त रहते थे । ' इसी कारण म० बुद्धने इन साधुओं को इस रोगसे छुडाकर आत्मस्थितिको प्राप्त करानेके लिये सैद्धांतिक विवेचनका सर्वथा विरोध किया। विरोध ही नही प्रत्युत उसको आत्मोनतिके मार्ग में अर्गला खरूप घोषित किया । यह बतलाया कि वादविवादमे आत्मशुद्धि नहीं है । स्पष्ट कहा:
'या उन्नतीसास्स विघातभूमि, मानातिमानम् वदते - पनयेसो । एतमपि दिसवा न विवादयेथ, नहि तेन सुद्धिम् कुसलवदंति ॥ ८३० || सुत्तनिपात ॥*
भावार्थ - " जो वाद एक समय वादीके हर्षका कारण है, वही उसके परास्त होनेका स्थल होगा, इसपर भी वह मान और घमंडके
१. “ There were teachers teachers or sophists who spent eight or nine months of every year wandering about precisely with the object of engaging in conversational discussions on matters of ethics and philosophy, nature lore and mysticism. Like the sophists among the Greeks, they differed very much in intelligence, in ealnestness and in honesty "-Buddhist India P. 141. भगवान महावीर के धर्ममें भी कोरे सिद्धान्तिक वादविवादको दृष्टिसे देखा गया है। जैनाचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकरके निम्न श्लोक इसी बातको प्रकट करते है:
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"
क्व च तत्त्वाभिनिवेश क्व च संरम्भातुरेक्षण वदनम् । क्व च सा दीक्षा विश्वसनीयरूपतानृजुर्वाद ॥ २ ॥ अन्यत एव श्रेयास्यन्यत एव विचरन्ति वादि वृषाः । वाकूसरम्भः कचिदपि न जगाद सुनि शिवोपायम् ॥ ७ ॥
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[८१ आवेशमें वाद करता है । इसको देखते हुये, किसीको भी वाद नहीं करना चाहिये; क्योकि कुशल पुरुष कहते हैं कि इसके द्वारा शुद्धि नहीं होती ।" इस प्रकार मुख्यत. उस समयकी परिस्थितिको लक्ष्य करके उन्होने सैद्धांतिक वादविवादको अनावश्यक बतलाया, परन्तु उस समयके शास्त्रीय वातावरणको वह एकदम पलट न सके । आखिर स्वय उनको भी सैद्धां तक बातों का प्रतिगदन गोगरूपमें करना ही पडा, यह हम अगाड़ी देखेंगे, किन्तु यह स्पष्ट है कि म० बुद्धका उद्देश्य सामयिक परिस्थितिको सुधार कर लोगोको नाहिरा शातिमय जीवन व्यतीत करनेका मार्ग सुझाना था। उनका सासारिक जीवन सुविधामय साधु जीवन हो, यही उनको इष्ट था। सांसारिक बधनोंमे पडे हुये लोगोंको गृहस्थीनेसे निकाल कर इस मार्गपर लगाना ही उनका ध्येय था। वह येनकेन प्रकारेण मनुप्योके वर्तमान जीवनको सुवित्रापूर्ण सुखमय देवना चाहते थे। उनके सघके भिक्षुभिक्षुणी भी इस ही प्रकार के सुधारक थे । 'थेरगाथा' की भूमिकामे यी कहा गया है कि 'ये बौद्ध भिक्षु सामयिक सुधारके लिये कटिबद्ध थे | वे जनताको. धर्म, प्रेम, सादा जीवन व्यतीत करने, यज सम्बन्धी हिंसासे दूर रहने और जाति पातिके बन्धनोकी उपेक्षा करने के उपदेश देते थे '' तरह म० बुद्धने निम धर्मशीनीक
1. डॉ. कथकी चुद। फको ' ठ ३३ .,"ty (.3nd lhist rulus ' esset lue the soul je orius Ito a dos 1.1111! ! odas, siy, tla. 101! 'if, th: isinin of Shaus in d other silvier, all in lori sofinha dirish.,' - link. Paellunu is hieu luciu XLVII.
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८२ ]
[ भगवान महावीर -
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डाली थी, वह वस्तुतः प्रारम्भमें एक सामयिक सुधारकी लहर ही थी ! वास्तवमे म० बुद्धका 'मध्य मार्ग' 'जिसका प्रतिपादन उन्होंने सर्व प्रथम बनारसमे किया था । एक तरहसे हिन्दुओंकी जाति व्यवस्था और जैनियोकी कठिन तपश्चर्याकि विरोधके सिवा और कुछ न था । कमसे कम प्रारम्भमें तो वह एक सैद्धांतिक धर्म नहीं था । इसकी घोषणा निम्नरूपमें म० बुद्धने स्वयं की थी:हे भिक्षुओ, दो ऐसी अति हैं जिनसे गृहत्यागियोको बचना चाहिये । यह दो अति क्या हैं ? एक आमोद प्रमोदमय जीवन; वह जीवन जो केवल इन्द्रियजनित सुख और वासना के लिये हो; यह नीच बनानेवाला है । इन्द्रियजनित, उपेक्षाके योग्य और लाभरहित है और अन्य तपश्चरणमय जीवन है; यह पीडा - मय उपेक्षा योग्य और लाभरहित है । इन दोनो अतिसे बचनेपर हे भिक्षुओ, तथागतको 'मध्यमार्ग ' का ज्ञान प्राप्त हुआ है; जो बुद्धि, ज्ञान, शाति, सम्बोधि, और निर्वाणका कारण है । ""
*
इम कथनसे स्पष्ट है कि म० बुद्धने उस समय प्रचलित मतमतान्तरोमें स्वय 'माध्यमिक' वनकर एक 'मझोला' - मध्यम का मत स्थापित किया था । इसमें उनका पूर्ण लक्ष्य अपने लिये एवं उन सबके लिये, जो उनके मतको माननेके लिये तैयार थे, किमी रीतिमे भी पीडाका अन्त कर देना था । इसलिये यथार्थमें
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1 मध्यमार्ग ' एक ओर तो कर्मयोग के रूप में प्रचलित अनियमित सांसारिक साधुजीवनके, जिसमें सत्र ही सांसारिक कार्य विना
१. महाग्न १६१०२. मि. कीथको 'बुद्धिस्ट फिॉसफी
पृ ६२.
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-और म० बुद्ध ]
[८३ फलप्राप्तिकी इच्छाके किये जाते थे, और दूमरी ओर तपश्चरणके मध्य एक ' राजीनामा ' था।'
यह भावित होता है कि म० बुद्धने अपने मतके सिद्धान्तोंकी आर्पता और वैज्ञानिकताकी ओर ध्यान ही नहीं दिया। उन्होंने सैद्धान्तिक विवेचनमें पडनेको एक झंझट समझा। बस उनका ध्येय एक मात्र वर्तमान जीवनकी पीडाके दारुण क्रन्दनसे लोगोंको हटानेका था। इसीलिये उन्होंने तपश्चरणको भी एक पीडोत्पादक अति समझा, और कहा कि:- “दुःख बुरा है और उससे बचना चाहिये। अति (Excess ) दुःख है । तप एक प्रकारकी अति है, और दुःखवर्धक है । उसके सहन करनेमें भी कोई लाभ नहीं है। वह फलहीन है। "- ( ERE. Vol. II P. 10).
किन्तु म० बुद्धने तपश्चरण किस अनियमित ढंगसे किया था, यह हम देख चुके हैं । वह श्रावककी आवश्यक क्रियाओका अभ्यास किये विना ही साधुनीवनमे कमाल हासिल करना चाहते थे। आर्योंके उल्लष्ट ज्ञानकी तीव्र आकांक्षा रखकर-उसको पानेका निदान बॉधकर वह तपश्चरणका अभ्यास कररहे थे। इस दशामें तपश्चरण पूर्ण कार्यकारी नहीं हो सक्ता था । पर्वतकी शिखरपर पहुंचनेके लिये सीडियोंकी आवश्यक्ता है और फिर जब संतोपपूर्वक उन सीड़ियोंका सहारा लिया जायगा तब ही मनुष्य शिखिर पर पहुंच सक्ता है । मालूम पड़ता है कि म बुद्धने इस ओर ध्यान नहीं दिया । इस ही कारण वह उसके द्वारा पूर्णताको प्राप्त न कर सके । परन्तु तो भी उनका यह प्रयास बिल्कुल विफल नहीं गया " १." कॉन्फ्लुयन्स ऑफ ऑपोज़िटस' पृष्ठ १४९.
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[ भगवान महावीर
था, यह हम देख चुके है । यदि म० बुद्धने इस ओर ध्यान दिया होता तो वस्तुतः हम उनसे और कुछ अधिक ही उत्तम वस्तु पाने ! भगवान महावीरने एक नियमित रीतिसे साधुनीवनका अभ्यास क्यिा था और व्यवस्थित ढगसे तपश्चरणका पालन किया था। इसीरिये वह पूर्ण कार्यकारी हुआ, यह हम आगे देखेंगे । वैसे भगवान महावीरने भी ऐसे थोथे तपश्चरणको बुरा बताया है। उनके निकट वह केवल कायक्लेश और बालकोंका तप है। परन्तु वह जानते थे कि ज्ञान ध्यानमय अवस्थाके साथ साथ परमपद प्राप्तिके लिये तपश्चरण भी परमावश्यक है। उनके निक्ट तपश्चर्या वह कीमियाई क्रिया थी जो आत्मामेंसे कर्ममलको दूर करके उसे बिल्कुल शुद्ध बना देती है। यह तपश्चर्या ससारी मनुष्यको पहिले पहिल तो अवश्य ही जरा कठिन और नागवार मालूम पड़ती है, परन्तु जहा मनुप्यको सम्यक् अहान हुआ वहा तत्काल ही इसकी आवश्यक्ता नजर पड जाती है और फिर इसके पालनमें एक अपूर्व आनन्दका स्वाद मिलता है । वस्तुत मिहनतका फल भी मीठा होता
१ पामम्मिय ठिो को कुणदि तव पद च धार यदि ।
ते सच वाटतवं बाउकति सम्वण्हू ॥ १९॥ वदणियमाग रता सौराणि तहा तष च कुध्यता।
परमह वाहिरा जेण ते होति अण्णाणी ६०॥ कुन्दकुन्दाचार्य। बौद्रोके 'मझिम निकाय' ।।२:५.२१८) में भी भगवा महावीरकी सह मानता स्वीकार की गई है । वक्षा सञ्चक श्रावक, सष्ट कहता है कि भगवान महावीरने का देशको ज्ञानसहित परना आवश्यक बतलाया था । दोनों को अधिनाभावी प्राट पिया था । (सायन्वय चित्तं हे ति, रित्तन यो कयो हति)।
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[८५ है । तपश्चरण एक परमोत्कृट प्रकारकी मिहनत है. निसका फल भी परमोल्लष्ट है। अतएव पवित्र साधुनीवनका यह एक भूषण है । प्रत्येक मत-प्रवर्तकको इम भूषणको किसी न किसी रूपमें धारण अवश्य करना पड़ता है । म० युद्धने अवर इममा विरोध किया परन्तु अन्ततः उनको भी इने किचित न्यूनरूपमें स्वीकार करना ही पडा!'
इस तरह म० बुद्धकी ज्ञान प्राप्तिके तो दर्शन कर लिये, अब पाठकगण आइये, भगवान महावी के ज्ञान प्राप्तिके दिव्य अवसरका भी दिग्दर्शन कर लें। भगवान महावीरने व्यवस्थित रीत्या श्रावक अवस्थासे ही सयमका अभ्याम करके मुनिपनको धारण किया था। मुनि अवस्थामें भी पहिले उन्होंने ढाई दिन (वेला)का उपवाम किया था और फिर एक बारह वर्षके तपश्चरणकी परीषहोको उन्होने सहन किया था। इस प्रकार क्रमवार आत्मउन्नति करते हुये वे इस १२ वर्षके तपश्चरणको पूर्ण करके विचररहे थे, कि वैशाख सुदी दसमीके दिन वे जम्भक ग्रामके बाहर ऋजुकूला नदीके वामतटपर एक सालवृक्षके नीचे विराजमान् हुये तिष्ठने थे। ज्ञान-ध्यानमें लीन थे । समय मध्याह्नका हो गया था ! सूर्य अपने प्रचण्ड प्रकाशसे तनिक स्खलित हो चले थे । उसी समय इन भगवान महावीरको दिव्य केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई। मानो इस परम प्रखर आत्मप्रकाशका दिव्य उदय जानकर ही उस समय दिनकर महारानका भौतिक प्रकाश फीका पड चला था।
१. मुत्तनिपात (5. B.E) पृष्ठ ६० ६३, और १४६-१४८, रात्र धम्मपद अध्याय १.२ जैनसूत्र (S. B.E) भाग 1 पृष्ठ २०१ और उत्तरपुराण पृष्ठ ६१४.
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८६]
[ भगवान महावीर
भगवान महावीर उस सुवर्ण अवसरपर केवलज्ञानी हो गये। साक्षात् तीर्थकर बन गये । तीनो लोककी चराचर वस्तुयें उनके ज्ञाननेत्र में झलकने लगी । वे सर्वज्ञ हो गये । त्रिलोकवदनीय बन गये । ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मोंका उनके अभाव हो गया, इसलिये वे ससारमें ही साक्षात् परमात्मा होगये - सयोग केवली वन गये । उस समयसे एक क्षणके लिये भी उनका ज्ञान मन्द न पडा । वह ज्योका त्यो प्रकाशमान रहा और यूं ही हमेशा रहेगा । यही दिव्यजीवन है । परमोत्कृष्ट प्रकाश है ! साक्षात् ज्ञान, शांति और सुख है ।
1
+7+
जिससमय भगवान महावीर सर्वज्ञ हुये, उस समय संसार में अलौकिक घटनायें घटित होने लगीं, जिससे भगवानको सर्वज्ञताका लाभ हुआ जानकर देवलोकके इन्द्र और देवतागण वहा उनके निकट आनन्दोत्सव मनाने आये थे । भगवानकी वन्दना उन्होने
अनेक प्रकारकी थी । हम भी उस दिव्य अवसरका स्मरण करके मन, वचन, कायकी विशुद्धता से भगवान के पवित्र ज्ञानवर्द्धक चरणोंमें नतमस्तक होते है ।
उसी समय इन्द्रने भगवानका सभाभवन - समवशरण रचदिया था, जिसकी विभूतिका वर्णन जैन ग्रन्थोमें खूब मिलता है । *इसी समवशरणकी गधकुटीमें अंतरीक्ष विराजमान होकर भगवान महावीर सर्व जीवोंको समान रीतिसे कल्याणकारी उपदेश देते थे । . इस समवशरण में १२ कोठे थे, जिनमें ऋषिगणके उपरांत स्त्रियोको आसन मिलता था । इनके बाद पुरुष और तिर्यंचोंके लिये स्थान १. पूषन २. महावीरचरित्र पृ० २६० - २६७
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[८७ नियत था। इस रीतिसे भगवानका उपदेश तिर्यचोंतकको होता था । वस्तुतः भगवानके दिव्य उपदेशसे पशुओंको अपने प्राणोका भय चला गया था । वे सुरक्षित और अभय हो गए थे। इस ही दैवी समवशरण सहित भगवान सर्वत्र विहार करते थे । इस विहारमें उनके साथ चतुर्निकायक संघ और मुख्य गणधर भी रहते थे। भगवानके सर्व प्रथम शिष्य और मुख्य गणधर वेदपारांगत प्रख्यात् ब्राह्मण इन्द्रभूति गौतम थे। भगवान महावीरने सनातन सत्यका उपदेश सर्व प्रथम इन्हीको दिया था। इनको मनःपर्ययज्ञानकी प्राप्ति हुई थी और इन्होंने ही मुख्य गणधरके पदपर विराजमान होकर भगवानकी द्वादशाङ्ग वाणीकी रचना की थी।
भगवान महावीरका उपदेश सनातन यथार्थ सत्यके सिवा और कुछ न था। उन्होंने अपनी सर्वज्ञता द्वारा सर्व वस्तुओंका यथार्थरूप विवेचित किया था इसलिये वस्तुस्थितिके अनुरूपमें ही उनका उपदेश था। उन्होने किसी नवीन मतकी स्थापना नहीं, की थी, बल्कि प्राचीन जैनधर्मको पुनः जीवित किया था। जैनधर्मका अस्तित्व उनसे भी पहिले विद्यमान था; परन्तु भगवान महावीरके समयमे उसको विशेष प्रधानता प्राप्त नहीं थी, इसलिये भगवान महावीरके समयानुसार उसका पुनः निरूपण हुआ था । यह सनातन धर्म अव्यावाध सर्व सुखकारी और अमर जीवनको प्रदान करनेवाला था । जिस तरह वस्तुकी मर्यादा थी उसी तरह उसमें बताई गई थी। यही धर्म आज जैनधर्मके नामसे विख्यात है।
१. उत्तरपुराण पृष्ठ ६१४ भौर जैनसुत्र (S. B. E.) भाग २ पृष्ठ ४१ नोट २. २. उत्तरपुराण पृष्ठ ६१६.
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८८]
[ भगवान महावीरइस तरह भगवान महावीर सर्वत्र थे और उनका धर्म यथार्थ सत्य था । यह मान्यता केवल जनोंकी ही नहीं है. प्रत्युत बोर
और ब्राह्मण शास्त्र भी इस ही यातकी पुष्टि करते हे ।' एकसार म० बुद्धने स्वयं कहा था --- ___भाइयो ! कुछ ऐसे सन्यामी है, ( अचेलक, आनीविक, निगथ आदि ) जो ऐसा श्रद्धान रखने और उपदेश करते हैं कि प्राणी जो कुछ सुख दुःख व समभाषका अनुभव करता है वह सब पूर्व कर्मके निमित्तसे होता है। और तपश्चग्णसे, पूर्व कर्मके नागसे, और नये ोके न करनेसे, आश्रवके कनेसे कमा क्षय हे ता है और इस प्रकार पापका क्षय और सर्व दुखका विनाश है । भाइयो, यह निर्ग्रन्थ (जैन ) कहते हैं मैंने उनसे पूछा क्या यह सच है कि तुम्हारा ऐसा श्रद्धान है और तुम इसका प्रचार करते हो . उन्होने उत्तर दिया हमारे गुरु नातपुत्त सर्वज्ञ हैं.. उन्होंने अपने गहन ज्ञानसे इसका उपदेश दिया है कि तुमने पूर्वमें पाप किया है, इसको तुम उग्र और दुस्सह आचाम्से दूर करो और जो आचार मन वचन कायसे दिया जाता है उससे आगमी जन्म बुरे कर्म कट जाते हैं इस प्रकार सब कर्म अन्तमें क्षय हो जायगे
१. बौद्ध शखोमें निम्न स्थानोंपर भगवान मावीरकी सर्वज्ञ ।। सीकार की गई है --मजिझमनिकाय ॥२३० और १२-९३; अगुर निक य ३/७४ न्यायबिन्दु अध्याय । अन्तिममें सजनाका निरूण करके उदाहरणमें ऋषम और बद्धपार (महाबोर) का उल्लेख किया है; यथाः सज्ञ आहोवा सज्योर्तिज्ञानादिकमुदिष्टवान् ॥ यथा । ऋरम वर्धमानादिरिति ।' (न्यायबिन्दु ) ब्रह्मण उल्लेख केरल 'पात्र (Keilhorn, V. I.) में मिलता है।
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- ओर म वुद्र ]
[ ८९
और सारे दुःखका विनाश होगा | उस समे इन सहमा है । "
( मज्झिम २/२१४ )
स्वीकार किया गया है ।
इस उद्धरण में स्पष्ट रीतिसे भगा मानोरी सर्वज्ञना और उनके द्वारा प्रतिपादिन धर्मसिद्धान्त वास्तव में भगवान महावीरने इन्हीं बातो उपदेश दिया था, जिला उल्लेख उक्त उद्धरणने है । इये यह भी प्रत्यक्ष है कि आज जो धर्म प्राप्त है वह मूलमे वहीं है जिसका प्रतिपादन भगवान महावीर ने किया था । हा, उसके बह्यभेपने अन्तर पड़ा हो तो कोई वि मय नहीं ।
भगवान महावीर की सर्वझत के सब मे आजकल के विद्वान् भी हमारे उपरोक्त कथनका म थे. करने है । डॉ० विमलचरण लॉ I एम० ए०, पी० एच० डी० अदि बौद्ध प्रथो के सहारेसे लिखते 'है कि ' वे भगवान सर्वज, सर्वदर्शी, अनन्त वेवलज्ञानके धारी, चलते - ने सोने-जागते सब समय सर्वज्ञ थे । वे जानते थे कि किमने किस प्रकारका पाप किया है और किमने पाप नहीं किया है । वे प्रख्यात् ज्ञात्रिक महावीर अपने दप्योके पूर्वभव मी बता सक्त थे । ' आप ही बौद्धोके ' रुयुक्त निकाय ' में लिखा बतलाने है कि 'जात्रि क्षत्रिय महावी• बहुत ही होशियार और परम विद्वान्, एक दातार पुरुष, चतुप्रेसर से इन्द्रियनिग्रह में दत्तचित्त और स्वयं देखी सुनी वस्तुओ को बतलानेवाले थे । जनता उनको बहुत ही पूज्यदृष्टिसे देखती थी । + एक अन्य विद्वान्, बौद्धोंके
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१ जैन सूत्रं (S. B. E ) भाग २ भूमिका पृष्ठ १५ सम क्षत्रिय टूइन्स आफ ऐन्तियेन्ट इन्ड पृ० १०८ + पूर्व पृ० १२.
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९०]
{ भगवान महावोरसिंहल मान्यताके आधारसे, भगवान महावीरके अनन्तज्ञानके संबंधमे कहते हैं कि 'ये महावीर अपनेको पापसे रहित बतलाते थे
और यह घोषणा करते थे कि निप किसीको कोई शंका हो अथवा किसी विषयका समाधान करना हो, वह हमारे पास आवे, हम उसको अच्छी तरह समझा लेंगे।' इसका भाव यही है कि भगवान प्राकृत रूपमें अपने धवल केवलज्ञानसे लोगोका पूर्ण समाधान कर देते थे, वे पूर्ण सर्वज्ञ थे-उने सगक होनेसे कोई कारण शेप नहीं था।
इस प्रकार भगवान महावीर और म० बुद्धके धर्मप्रवतक रूपमे भी एक समान दर्शन नहीं होते । भगवान महावीरने सर्वज्ञ होनेपर किसी नवीन मतकी स्थापना नहीं की थी। म० बुद्धन 'मध्यमार्ग' को वोधिवृक्षके निकट जान लेनेपर एक नवीन मतकी स्थापना की थी। जिसप्रकार प्रारम्भसे ही इन दोनो युगप्रधान पुरुषों के जीवन में कोई विशेष साम्यता नहीं थी, उसीप्रकार इस अवस्था भी हमको कोई समानता देखनेको नहीं मिलती। म० बुद्धने अपनी ३५ वर्षकी अवस्थासे ही अपने धर्मका प्रचार करना प्रारभ कर दिया था,' और भगवान महावीरने तबतक कोई उपदेश नहीं दिया जबतक कि उन्होने करीब ४३ वर्षकी अवस्थामें उक्त प्रकार सर्वज्ञता प्राप्त न कर ली। फिर धर्मप्रचारके लिये जो उन्होंने सर्वत्र विहार किया था, वह भी एक दूसरेसे बिल्कुल विभिन्न था।
x स्पेन्स हार्डी, मैनुभल ऑफ बुद्धिज्मः पृ० ३०२. १ बुद्धजोवन (S B.E) भाग १९. २ जैनसूत्र (S B. E.) भाग १ पृष्ठ २१९ और भगवान महावीर पृष्ठ २१३.
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[९१
म० बुद्धने बोधिवृक्षसे चलकर सर्व प्रथम बनारसमें उपदेश दिया था । और फिर वे क्रमशः उरुवेला, गयासीप्त, राजगृह, कपिलवस्तु, श्रावस्ती, राजगृह, कोदनावत्थु, राजगृह, श्रावाती, राजगृह, बनारस, भदिय, श्रावस्ती, राजगृह, श्रावस्ती, राजगृह, बनारस, अन्धकबिन्दु, राजगृह, पाटलिगाम, कोटिगाम, नातिका, आपन, कुसीनारा, आतूम, श्रावस्ती, राजगृह, दक्षिणागिरि, वैशाली, बनारस, श्रावस्ती, चम्पा, कोशाम्बी, पारिलेय्यक, श्रावस्ती, बालकालोन्करगाम, वेलुव, कुसीनारामें विचरते रहे थे। बनारसमें ही उन्होंने शिष्योंको 'उपसपदा' देने-शिष्य बनानेकी आज्ञा दे दी थी। गयासीसमें जब मौजूद थे तब उनके शिष्योरी संख्या एक हजार थी। पहिले ही राजगृहमे जब पहुचे तब सजयके शिप्य सारीपुत्त और मौद्गलायन उनके मतमें दीक्षित हुये । इनके विषयमें हम पहिले ही लिख चुके है । इसके बाद ही उन्होने ' उपाध्याय ' और 'आचार्य' पद नियुक्त किये परन्तु इन दोनोके कर्तव्य एक थे। यह एव अन्य क्रियायें म० बुद्धने अन्य मतोमें प्रचलित रीतियोके प्रभावानुसार स्वीकृत की थीं। इसी समय उन्होंने शाक्यवंशी व्यक्तियोके लिये खास रियायत करनेका भी आदेश दिया था। फिर द्वितीय बार जब श्रावस्तीसे वे रानगृह आये तो राजा श्रेणिक बिम्बसारके आग्रहसे 'तित्थियों की भांति अष्टमी, चतुर्दशी और पूर्णमासीके दिनोपर एकत्रित होकर उपदेश देनेका आदेश भिक्षुओंको दिया। इसके
१. महावग्ग (S. BF.) में जिस प्रकार यह विवरण दिया है वैसे ही यहां पर दिया गया है। २. महावग्ग (S BE) पृष्ठ १३४. ३ पूर्व पृष्ठ १५० और १७८. ४. पूर्व पृष्ठ १९१. ५. महाग (S. B. B.) पृष्ठ २४०.
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गगन महागोर. गद फिर ना वह राजाह भाये तब गंगा बात करनेपर उन्होंने 'पी' गाने चि भिक्षुओरो एकानगर ठहरने का नियम बनगरा।' यह नियम दिवस मिनुभो हाग पहिले ही वीरत था | उरान्त अन्यापिनमें जर मा बुह थे तब उनके साथ १९६० शिशु थे। फिा व आपनसे दुमीताराशे वे गये तो उनके साथ केवल २५० रिक्षु र गरे थे।' यहामे जब आतम तो हुथे वे श्रार ती पहुचे. नत्र भिक्षुओ परम्पर मत भेद और
गद खडा हो गया था और निम समारोगाम्बी में मौजूद थे, उम समा उनके झगडेने विकटरूप धरण पर लिया था। यहातक कि म बुद्ध के समझाने पर भी वे न माने. और उनसे सप्ट कर देश कि ' आप शातिमे अपने प्रत सुखका उपभोग कीनिये । हम लोग अपने आप निबट लगे !''म० युद्ध इनसे भला बुरा कहकर पालम्लोइम्गामको चले गये। यहांपर एक चागवानने बगीचे में जानेमे उनसे टोका था। फिर म० बुद्ध परिय्यक और श्रावस्तीको गये थे। अन्तिम 'सा' उन्होंने वैगालीके निकट अवस्थित वेलुरमें विताई थी और अन्ततः कुसीनारामें वह प्राप्त हुये थे। वेलुबमें कोई कठिन रोगसे वे पीड़ित हुये थे। उम रोगको उन्होंने अपने योगवलसे शमन किया था । इन रोगमे मुक्त होकर जब वे कुसीनारारो ना रहे थे, तो मार्गमें
१. पूर्व ( २) पृष्ट ०९८ २. महावग्ग (. B E VI. 25 2 ) भ ग र पृष्ट १०. ३ पूर्ण (VI 36 ) पृष्ठ १२५ * पू (VI 39) पृष्ठ १४, ५. पू( 23) पृष्ठ २९३ .. ६. पूर्व (x 47 ) पृष्ठ ३१३. . बुद्धिस्टकृत (S. B. LXI ) पृष्ठ ३४.
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[ १३
चन्ड लुहारके यहां उन्होने सुअर के मांस के सोरदेका अन्तिम भोजन किया था । अन्तत कुशीनारामें उन्होने शिष्यो था और आनन्दसे कहा था कि.. -
उपदेश दिया
""
अतएव हे आनन्द ! तुम अपने आप अपने तई प्रकाश रूप बनो । अपने अपनी ही अपनी शरण समझो । किसी ब'ह्य शरणका आसरा न ता । सत्यको प्रकाशरूप जानकर उसको ही अच्छी तरह ग्रहण करो। उसी सत्यको त्राणदाता जानो । अपने आपके सिवा किसी अन्यमे शरणकी लालमा मत रक्खो । "*
इसी अवसर पर अनन्दने किसी प्रख्यात् नगर चम्पा आदिमें अपने अन्तिम दिवस व्यतीत करने का आग्रह म ० वुद्धसे किया था । इसपर म० बुद्धने कुमीना की पूर्व विभूतिका स्मरण कराकर आनन्दको शान्त किया था । वस्तुत: यहापर उन्होने आनन्द के तीव्र मोहको अपने मेंसे हटाने के लिये यह सब उपदेश दिये थे । आखिर उन्होने अपने अन्तिम जीवनका सभ्य निर्दिष्ट करते हुये अनन्दने वहा था
3
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" आनन्द ' अन तुम कुसीनारामें जागर कुमीनागके ग्ल राजाओसे कहो, 'आजके दिन, हे वासेदुगण, त्रिके अन्तिम पहरमे तथागतका सर्व अन्तिम मरण होगा । हे वागण, कृपालु होओ, यहां कृपालु होओ। इसके व द अपने आपको यह कहने अवसर न दो, हमारे ही ग्राममें तथागतकी मृत्यु हुई और हमो तथागत अन्तिम समयमे दर्शन न कर पाये ' I
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१. महापरिने वानमृत AI पृष्ठ ३८ ) २ बुद्धिन् दृष्ड ४. पूर्व पृष्ठ ९९.४ Go non Aaa, and e to in o
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९४]
[भगवान महावोर___ इस हीके अनुरूपमें म० बुद्धका जीव उस रात्रिको इस नश्वर शरीरको त्याग गया। उनके अनुयायियोंने उनके शरीरकी अन्त्येष्ठ क्रिया की । उपरान्त चौद्धशास्त्र कहते है कि लिच्छवि, मल्ल, कोल्यि, शाक्य आदि क्षत्रिय राजाओने उनके शरीरकी भस्मको मंगवाकर, उसकी स्मृतिमें स्तूप बनवाये थे। इस तरह म० बुद्धका धर्मप्रचार और अन्तिम समय पूर्ण हुआ था।
__ भगवान महावीरने भी अपने समवशरणकी विमृति सहित सर्वत्र विहार किया था। दिगम्बर और श्वेताम्बर शास्त्रोंमें इसमें भी अन्तर अवश्य है, परन्तु वह कुछ विशेष महत्व नहीं रखता । श्वेताम्बर शास्त्र उसका उल्लेख वर्षाऋतु व्यतीत करनेके रूपमें करते है । दिगम्बर कहते है कि तीर्थकरावस्था, वर्षाऋतु व्यतीत करनेकी आवश्यक्ता नहीं, क्योकि तीर्थकर भगवानका शरीर इतना विशुद्ध हो जाता है कि उसके द्वारा किसी प्रकारकी हिंसा होना विल्कुल असंभव है। अतएव श्वे० के अनुसार " भगवान महावीरने प्रथम चातुर्मास अस्थिकग्राममें, फिर तीन चातुर्मास चम्पा Kusipari, and inform the Nollas of Kusin,rå, srying, 'This day.O Vasett has, in the last ratch of the night, the final passing away of the Tathngata will take place. B, fivourable herein, O Vasetthas, bo favourabilt, Give no ojcasion to 2cproach yourselves hereafter, saying, In our own village did the death of our Tathagata took place, and we took pot the opportunity of visiting the Tathagats in his last hours."
-Mahapariniblana Sutta. V. 45.
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- और म० युद्ध ]
[ १५
और दृष्टिचम्पामें, बारह वैशाली और वाणिज्यग्राममें, चौदह राजगृह और नालन्दमें, छै मिथिलामें, दो भद्रिका में, एक आलभिकामें, एक पनितभूमिमें, एक श्रावस्तीमें, एक पावामें राजा हस्तिपालकी कचहरी में व्यतीत किये थे । "" और दिगम्बरी व शास्त्र इसप्रकार चतलाते हैं कि " जिसप्रकार भव्यवत्सल भगवान ऋषभदेवने पहिले अनेक देशों में विहार कर उन्हें धर्मात्मा बनाया था उसी प्रकार भगवान महावीर ने भी मध्यके ( काशी, कौशल, कौशल्य, कुसध्य, अश्वष्ट, त्रिगर्तपचाल, भद्रकार, पाटचार, मौक, मत्स्य, कनीय, सूरसेन एव वृकार्थक ), समुद्रतटके (कलिंग, कुरुजागल, कैकेय, आत्रेय, काबोज, वारुहीक, यवनश्रुति, सिंधु, गांधार, सौवीर, सूर, भीरु, दशेरुक, वाडवान, भरद्वान और क्वाथतोय ! और उत्तर दिशा के ( तार्ण, कार्ण, प्रच्छल, आदि ) देशोमें विहार कर उन्हें धर्मकी ओर ऋजु किया था ! महावीरपुराण के अनुसार विदेहमे ( वज्जियनराजसनो ) राजा चेटकने भगवान के चरणोका आश्रय लिया था | अगदेशके शासक कुणिकने भी भगवानकी विनय की थी और वह कौशाम्बी तक भगवान के साथर गया था । चौशाम्बी मे वहाके नृपति शतानीकने भी भगवानकी उपासना की थी और वह अन्तमें भगवान के संघ में सम्मिति होगया था । मगधेश श्रेणिक भगवानके अनन्य भक्त थे और इन्हींकी राजधानी राजगृह में भगवानने अधिक समय व्यतीत किया था । राजपुरके सुरमलय उद्यानमें जिससमय भगवान विराजमान थे, उससमय
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१. जैनमुत्र ( S. B. E) भाग १ पृष्ठ २६४ २. हरिवशपुराग ( कलकत्ता संस्करण ) पृष्ठ १८
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[ भगवान महायोर
वहाँके राना जीवंधरने दीक्षा गृहण की थी। तथापि निससमय भगवान सर्व प्रथम रानगृह नगर आये थे, उस समय वेदपारागत
विद्वान इन्द्रभूति गौतम उनके साथ थे। इनके अतिरिक्त और ___ बहुतसे ब्राह्मण और क्षत्री रानपुत्र तथा यणक सेठ आदि भगवानके बिहार और धर्मप्रचारसे प्रबुद्ध हुए थे। राजकुमार अभय, शतवाहन
आदि मुनिधर्ममें लोन हुए थे । ज्येष्टा, चन्दना सदृश रानकुमारिया भी आर्यिका हुई थी । रानगृहके सेठ शालिभद्र, धन्यकुमार, प्रीतकर आदि महानुभाव वणि नेसे परम पुरुषार्थक अभ्यासी हुए थे । अन्तमे धर्मप्रचार करते हुए भगवान पावापुर पहुंचे थे और वहीमे उन्टोने मोक्षलाग लिय ।
नोट-कुछ लोगो का म्थ्य ला कि भगवान महावीरवा धर्म भारतमे ही सीमित रहा था परन्तु यह उनका कोरा ख्याल ही है। अन्धपोने बत्ला दिया है कि नमुनि यूनान, रूम और ना जैसे सुदूर देशोंमें धर्मप्रच येन थे। (देखो भगगन महावीर पृ. ७) अकीबारे नये गा प्रदेशमें यूनानियोको गमुनि (Gymooltaic) मि ऐशय टिक रिसर्चेन भाग ३ पृ० ६) यूनानमें आनतकनगुनिका समाधिस्थान हाकी राजधानी अथेन्समे त्रः ।हमनमुनि श्रमणाचा नामक थे और भृगुकम्छसे गये थे। . न हन्टॉरीकल क्वार्ट भाग २ पृ. २९३) मध्यऐ गया । नवला हुआ था, यह भी प्राट है। (डुबोई. डिम्बी. करेन आफ इडियन पोपुल,
i. उत्त'पुःन पृष् ५, २ नपार (BLI पृष्ठ i०८
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- और म० बुद्ध ]
[ ९७
भूमिका) इन्डोचाइना (Indo- China ) में भी जैनधर्मके अस्तित्वके चिन्ह मिलते है | वहांके सन् ९१८ के एक शिलालेखमे राजा भद्रवर्मन तृतीयको जिनेन्द्र के सागरका एक मीन लिखा है तथा जैनाचार्यकृत काशिकावृत्ति व्याकरणका उसे पारगामी बताया है । ( इंडि० हिस्टा • क्वार्टर्ली भाग १ ० ६०९) तथापि जावासे एक ऐसी मूर्तिके दर्शन वि० वा० चम्पतरायजीने वरलिनके अजायब घरमें किये हैं, जो जैन मूर्तियो के समान है । अतएव इन थोडेसे उदाहरणोंसे स्पष्ट है कि जैनधर्म भारतमें ही सीमित नहीं रहा था । बौद्ध धर्मकी तरह वह भी एक समय विदेशो में फैला था ।
इसप्रकार दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनोंही इस बातको प्रगट करते हैं कि भगवान महावीरकी मोक्षप्राप्तिका स्थान पावा है । यह नगरी धनसम्पदामे भरपूर मल्ल राजाओकी राजधानी थी ।' यहाके लोग और राजा हस्तिपाल भगवान महावीरके शुभागमनकी बाट जोह रहे
।
थे । इसलिये म ० वुद्धके अन्तिम समयके वरअक्स भगवान महावीरको कोई खबर कही को नहीं भेजने पड़ी थी । वस्तुत. भगवान कृतकृत्य हो चुके थे, इच्छा और वाञ्छासे परे पहुंच चुके थे इसलिये उनके विपयमें ऐसी बातें बिल्कुल ही सभव नहीं थी । श्रीगुणभद्राचार्यजी भगवान के अन्तिम दिव्य जीवनकालका वर्णन निम्नप्रकार करते हैं: - 46 क्रमात्पावापुरं प्राप्य मनोहरवनांतरे ।
वहूनां सरसां मध्ये महामणिशिलातले ।। ५०२ ॥ स्थित्वा दिनद्वयं वीतविहारो वृद्ध निर्जरः । कृष्ण कार्तिकपक्षस्य चतुर्दश्यां निशात्यये ॥ ५१०॥
१ सुत्तनिपात ( S. B. E. ) १०८८.
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९८]
[ भगवान महावीरस्वातियोगे तृतीयेद्धशुरुध्यानपरायणः । कृतत्रियोगसंरोधसमुन्छिन्नक्रियं श्रितः ।।५११॥ हताघातिचतुष्कः सन्नशरीरो गुणात्मकः ।
गता मुनिसहस्रेण निर्वाणं सर्ववांछितं ॥२१॥"
भावार्थ-" विहार करते २ अन्तमें वे (भगवान) पावापुर नगरमे पहुचे और वहाके मनोहर नामके वनमे अनेक सरोवरोंक मध्य महामणियोंकी शिलापर विराजमान हुये । विहार छोड़कर (योगनिरोधकर ) निराको वाते हुए वे दो दिन तक वहा विराजमान रहे और फिर कार्तिक कृष्णा चतुर्दशीकी रात्रिके अंतिम समयमें स्वाति नक्षत्रमें तीसरे शुक्लध्यानमे तत्पर हुये । तदनन्तर तीनो योगोंको निरोधकर समुच्छिन्नक्रिया नामके चौथे शुक्लध्यानका आश्रय उन्होंने लिया और चारो अघातिया कर्मों को नाशकर शरीर रहित केवल गुणरूप होकर एकहजार मुनियोके साथ सबके द्वारा वाञ्छनीय ऐसा मोक्षपद प्राप्त किया।"
इसप्रकार मोक्षपदको प्राप्तकर पुरुषार्थके अंतिम अनन्तसुखका उपभोग वे उसी क्षणसे करने लगे। भगवानके इस पतिम दिव्य अवसरके समय भी स्वर्गलोकके इन्द्र और देवतागण आये थे.और उन्होने मोहको नाश करनेवाले भगवानके शरीरकी पूना वंदना की थी। इस समय भी अलौकिक घटनायें घटित हुई थी और अंधेरीगत्रिमें एक अपूर्व प्रकाश चहुओर फैल गया था । अन्ततः उन देवोंने उस पवित्र शरीरको अग्निकुमार देवोंके इन्द्र के मुकुटसे प्रगट हुई अग्निकी शिखामें स्थापन किया था। इसी अवसरपर
१. उत्तरपुराण पृष्ठ.७४४-७४५.
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- और म० बुद्ध ]
[ ९९
आसपासके प्रसिद्ध राजा लोग भी पावापुर में पहुंचे थे और वहा - पर दीपोत्सव मनाया था । ' कल्पसूत्र' में इनका उल्लेख इस प्रकार किया गया है:
"उस पवित्र दिवस जब पूज्यनीय श्रमण महावीर सर्व सांसारिक दुःखोसे मुक्त हो गये तो काशी और कौशल के १८ राजाओने, ९ मल्ल राजाओंने और ९ लिच्छवि राजाओंने दीपोत्सव मनाया था । यह प्रोषधका दिन था और उन्होंने कहा - 'ज्ञानमय प्रकाश तो लुप्त हो चुका है, आओ भौतिक प्रकाशसे जगतको दैदीप्यमान चनायें ।"
१
मानो उस समय आजकल के भौतिकवादके प्रकाशकी ही भविष्यवाणी उन राजाओने की थी । इस प्रकार उस दिव्य अवसरके अनुरूप आजतके यह दीपोत्सवका त्योहार चला आरहा है।
भगवान महावीरके परमश्रेष्ठ लाभकी पुण्य स्मृति और पवित्रता इस त्योहारमें गर्भित है । इस तरह भगवान महावीर और म० बुद्धके अन्तिम जीवनका वर्णन है । भगवान महावीर के दर्शन साक्षात् परमात्मारूप में होते है । वस्तुतः उनका यह जीवन अनुपम था । उनके जीवनसे म० बुद्धके जीवनकी तुलना करना एक निष्फल क्रिया हैं, परन्तु जब संसार दोनों व्यक्तियोंको समानता देता है तो तुलनात्मक अध्ययन करना आवश्यक ही था ।
१ जैनसूत्र (S. B. E. भाग १ पृष्ठ २६६.
1
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१.०० ]
[ भगवान महावीर -
(५)
पारस्परिक कालनिर्णय ।
भगवान महावीर और म० बुद्धके पारस्परिक जीवनका हम तुलनात्मक रीति से अध्ययन कर चुके हैं और हमने उसमें कहीं भी साम्यता नहीं पाई है । प्रत्युत जीवन घटनाओकी विभिन्नता ही सर्वथा दृष्टि पडती रही है। ऐसी अवस्थामें यह स्पष्ट है कि भगवान महावीर और म० बुद्ध एक ही व्यक्ति न होकर दो समकालीन युगप्रधान पुरुष थे ! समकालीन अवस्था में भी इनके जीवनोका पारस्परिक सम्बन्ध क्या था, यह जानना भी आवश्यक है, परन्तु भारतीय इतिहास जितना अस्पष्ट और अंधकारमय है उसको देखते हुये आजसे करीब ढाईहजार वर्ष पहिले हुये युगप्रधान पुस्पोंके पारस्परिक जीवन सम्बन्धोका ठीक पता लगा लेना बिल्कुल असम्भव बात है । तो भी जो साहित्यसामग्री उपलब्ध है उसका आश्रय लेकर हम इस विषय मे एक निर्णयपर पहुंचने का प्रयत्न करेंगे ।
9
यह हमको मालूम है कि भगवान महावीरको निर्वाणलाभ उस समय प्राप्त हुआ था जब वे करीब बहत्तर वर्षके थे । और म० बुद्धका 'परिनिव्वान' जैसा कि बौद्ध कहते है, उनकी अस्सी वर्षकी अवस्थामें हुआ था । इससे यह बिल्कुल स्पष्ट है कि म० बुद्धकी उमर भगवान महावीरसे अधिक थी । अब इन दोनों युगप्रधान पुरुषोंके जन्म समय में कितना अन्तर था, यह जानना शेष
१. जैनसूत्र ( S. B, E) भाग १ पृष्ट २६९. २ बुद्धिस्ट सुनस (S. B. E. ) प्रष्ट ९ - १०१.
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-और म० युद्ध
[ १०१ है । उनका पारस्पारिक जन्म अंतर प्राप्त होनेके साथ ही हमको उनकी अन्य जीवनघटनाओका सम्बन्ध स्पष्टतः ज्ञात हो जायगा।
इस विषयमें डॉ. हार्नलेसाहबने विशेष अध्ययनके उपरात यह निर्णय प्रगट किया है कि भगवान महावीरके निर्वाणलाभके पश्चात पांच वर्षतक म० बुद्ध और जीवित रहे थे। उस मान्यताको मान देते हुये हमें म० बुद्धका जन्म भगवान महावीरके जन्मने तीन वर्ष पहिले हुआ प्रमाणित मिलता है । दूसरे शब्दोमें डॉ० हानलेसाहवकी गणना के अनुमार म० बुह भगवान महानीरके जन्म समय तीन वर्षकै थे, उनके गृहत्यागके अवसरपर वे तेतीस वर्षके ये और नन भगवान महावीरने अपनी करीव बियालीस वर्षकी यवस्था सर्वज्ञता प्राप्त कर चुकनेपर उपदेश देना प्रारम्भ किया तब वे प्रायः पैतालीस वर्षके थे। इसी तरह जव म० बुद्धने अपनी पेंतीस वर्षकी उमरमें 'मध्यमार्ग' का उपदेश देना प्रारम्भ किया था, तब भगवान महावीर करीब तेतीस वर्ष के थे। इसप्रकार डॉ० हानलेकी मान्यताके अनुसार इन दोनो युगप्रधान पुरुषोंके पारस्परिक सम्बंध ज्ञात होते है, किन्तु इनको विशेष प्रमाणिक जाननेके लिये डॉ० हार्नलेसाहबकी गणनाके औचित्यपर भी एक दृष्टि डाल लेना आवश्यक है।
डॉ० हानले साहब जो इस गणनापर पहुंचे है वह विशेष प्रमाणोको लिये हुये है । तथापि उनकी इस गणनाका समर्थन ऐनिहासिक साक्षीसे भी होता है । प्रो० कर्न सा० के मतानुसार सत्राट.
1. भाजिवक्स, हेस्टिन्गाका इन्सालकोपेठिया भोफ रिलीजन एण्ड इंथिक्स
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१०२]
भिगवान महावीरश्रेणिक विम्बसारकी मृत्यु उस समय हुई थी जव म बुद्ध बहत्तर वर्षके थे और देवदत्त द्वारा जो बौद्ध सघमे विच्छेद खड़ा हुआ था वह इस घटनासे कुछ ही काल उपरान्त उपस्थित हुआ था। साथ ही मज्झिमनिकायके अभय राजकुमार सुत्तसे यह स्पष्ट है कि भगवान महावीरको बौद्ध सघके इस विच्छेदका ज्ञान था। दि० जैन शास्त्रोसे भी इस व्याख्याकी पुष्टि इस तरह होती है-उनमे लिखा है कि सम्राट् श्रेणिक विम्बसारकी मृत्युके साथ ही कुणिक अजातशत्रु विधर्मी-मिथ्यात्वी होगया और रानी चेलनीने भगवान महावीरके समवशरणमें जाकर आर्याचदनाके निकट दीक्षा ग्रहण की। इससे यह साफ प्रकट है कि भगवान महावीर इस समय विद्यमान थे और वौद्धोंके सामयगामसुत्त और पाटिकसत्तसे यह प्रमाणित ही है कि भगवान महावीरके निर्वाणलाभके उपरान्त कुछ कालतक म० बुद्ध जीवित रहे थे। इसलिये वह अधिकसे अधिक पाच वर्षे ही जीवित रहे होगे, क्योंकि बौद्ध और जैन दोनोंके मतसे सम्राट श्रेणिक बिम्बसारकी मृत्युके समय भगवान महावीर मौजूद थे। और जब म बुद्ध इस समय ७२ वर्षके थे तो भगवान महावीर अबश्य ही करीब ६९ वर्षके थे। इससे यह स्पष्ट है कि भगवान महावीरके निर्वाणलाभ करनेके बाद म० बुद्ध पाच वर्षसे अधिक जीवित नहीं रहे थे।
इसके अतिरिक्त हम म० बुद्धके वाल्यपनके विवरणमें देख
• १ इन्डियन बुद्धिस्म पृष्ट ३८-३९ २ हिस्टॉरीकल ग्लीनिन्गस पृष्ट
७८, ३ मेरा भगवान महावीर पृष्ट १५२. ४ मज्झिमनिकाय भाग २ (P. T. S.) पृष्ट २४३, ५ दीर्घनिकाय (P. T. S.) भाग ३.
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-और म० बुद्ध
चुके हैं कि म० बुद्ध जो उस सुकुमार अवस्थामे चार प्रकारके लक्षण धारण करते थे, उनमे तीन तो जैन तीर्थङ्करोंके चिह्न थे, परन्तु चौथा स्वयं भगवान महावीर वर्द्धमानका नाम था। इससे यह झलकता है कि उस समय भगवानका जन्म नहीं हुआ था। यदि जन्म हुआ होता तो उनका उल्लेख भी पिहरूपमें होता, क्योकि जन्मसे ही तीर्थकर भगवानके पगमें यह चिह्न होता है। अतएव इससे भी म० बुद्धका जन्म भ० महावीरसे पहिले हुआ प्रमाणित होता है।
डॉ० हार्नले सा०की गणनाका समर्थन उस कारणको जाननेसे भी होता है, जिसकी वजहसे म० बुद्धके ६० से ७० वर्षके मध्य जीवनकी घटनाओका उल्लेख नहीके बराबर ही मिलता है। रेवरेन्ड बिशप विगन्डेट साहबका कथन है कि यह अन्तराल प्रायः घटना. ओके उल्लेखसे कोरा है। (An almost blank)' अतएव इस अभावका कोई कारण अवश्य होना चाहिये । अब यदि यहां भी हम डॉ० हानेलेसाहबकी उक्त गणनाको मानता देवे तो यह कारण भी ज्ञात होजाता है। क्योकि जब भगवान महावीरने अपना धर्मप्रचार प्रारम्भ किया था उस समय म. बुद्ध अपने धर्मकी घोषणा करचुके थे और अनुमानत. ४५ वर्षके थे जैसे कि हम देखचुके हैं । अतएव पाच वर्षके भीतर भीतर भगवान महावीरके वस्तु स्थितिरूप उपदेशका दिगन्तव्यापी हो जाना बिल्कुल प्राकत है । इस दशामे यदि इन पांच वर्षोंमें म० बुद्धका प्रभाव प्रायः उठसा
१ लाइफ एण्ड लीजेन्ड औफ गौतम और के० जे० सान्डर साहबका " गौतम बुद्ध " पृ. ४५.
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१०४ ]
[ भगवान महावीर
जावे और उनकी ५० वर्षकी उमरसे ७० वर्षतक कोई पूर्ण घटनाक्रम न मिले तो कोई आश्चर्य नहीं है । यही समय भगवान महावीरके धर्मप्रचारका था । इसलिये म० बुद्ध के जीवन के उक्त अतरालकालकी घटनाओके भभावका कारण भगवान महावीरका सर्वज्ञावस्थामें प्रचार करना ही प्रतिभाषित होता है । इस अवस्थामें हमको डॉ० हार्नलेसाहबकी उक्त गणना इस तरह भी प्रमाणित मिलती है और यह प्राय ठीक ही है कि भगवान महावीरके निर्वाणोपरान्त म० वुद्ध अधिक से अधिक पाच वर्ष और जिये थे ।
किन्तु उक्त प्रकार म० बुद्धकी जीवनघटनाओंके अभावका कारण निर्दिष्ट करते हुये बौद्ध शास्त्रकार के इस वथनका भी समाधान करलेना आवश्यक है कि म० बुद्धके दिव्य धर्मोपदेशके समक्ष निगन्य नातपुत ( महावीर ) का प्रभाव क्षीण होगया, जो पहिले विशेष प्रभावको लिये हुये था' । बौद्ध शास्त्रकार के इस कथन समान ही जैनाचार्यने भी यही बात भगवान महावीरके विषय नही है कि उनके धर्मोपदेशके उदय होते ही एकान्तमत अंधका रमें विलीन होगये । इस दशानें यह दोनों कथन एक दूमरेके १ फॉम्बल्स जातक भाग ३ पृ० १२८ और हिस्टोरी नाम पु० ०८.
जयति कलावपि गुणानुशासनविभव ।
२ " तब जिनशासनवि दोषकशासनविभवः स्तुवेति चैनं प्रभाकुशासन विभवः ॥ १३७ ॥ अनवद्य वास्तव दृष्टेष्टाविरोधत स्वावा.
इट न पाहादोस द्विवयविरोधान्नीश्वराऽस्य द्वाः ॥ १३८ ॥ त्वमसि सुगसुग्महितो अधिकत्वाशयप्रणामामहितः । टोकपपरम हितोऽनावरण ज्योतिकञ्चर द्वामहितः ॥ १३९ ॥
बृहद् स्वयंभूस्तोत्र ।
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-और म० युद्ध ]
[१०५ विरुद्ध पड़ते हैं, परन्तु उक्त प्रकार म० बुद्धकी जीवनघटनाओंके अभावका कारण भगवान महावीरका धवल धर्मप्रभाव मानते हुये, हमे जैनाचार्यका कथन यथार्थताको लिये हुये मिलता है परन्तु ऐतिहासिकताके नाते हम बौद्ध शास्त्रकारके कथनको भी एकदम नहीं भुला सक्त है। वात वास्तवमें यो मालूम देती है कि जिस समय भगवान महावीरका धर्मप्रचार होता रहा, उस समय अवश्य ही उनके प्रभावके समक्ष शेष धर्म अपनी महत्ताको खो बैठे, जैसे कि जैनाचार्य कहते है और जो म० बुद्धके सम्बन्धमे ऊपर एवं निनकी भाति प्रमाणित होता है, परन्तु जब भगवान महावीरका निर्वाण होनेको था तब हमको मालम है कि राजा कुणिक अनातशत्रु जैनधर्मके विमुख होगया था। इसके जैनधर्म विमुख होनेका कारण सम्राट् श्रेणिककी अकाल मृत्यु और वजियन राज्यपर आक्रमण करना कहे जा सक्ते हैं; क्योंकि क्षायिक सम्यक्त्वी सम्राट् श्रेणिकके मरणका कारण बनकर एवं भगवान महावीरके पितृ और मातृकुलोपर आक्रमण करके सम्राट् कुणिक अजातशत्रु अवश्य ही जैनियोद्वारा घृणाकी दृष्टि से देखा जाने लगा होगा। ऐसे अवसरपर बौद्ध भिक्षु देवदत्त, जिसका सम्बन्ध इनसे पहिलेका ही था, यदि अजातशत्रुको बौद्धानुयायी बनाले तो कोई अद्भुत बात नहीं है, अतएव सम्राट् कुणिक अजातशत्रुके बौद्ध हो जानेसे मगध और अंगका
१ उत्तरपुगणमें लिखा है कि जब भगवान महावीर मोक्ष चले गए और सुधर्मास्वामी प्रचार करते राजगृह आए तब फिर कुणिक अजात. शत्रुने जैनधर्म धारण किया था। (पृष्ट ७०२) और अग्रेजी जनगजट भाग २१ पृष्ट २५४. २ के. जे सोन्डर्स " गौतमबुद्ध " पृष्ठ ७१.
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१०६ ]
[ भगवान महावीर -
राजधर्म, जो पहिले जैनधर्म था, अवश्य ही बौद्धधर्म हो गया । और यह भगवान महावीरके शासनकी प्रभावनामे एक खासा धक्का था । फिर लगभग इस समयके कुछ बाद ही भगवान महावीरका निर्वाण हुआ था यह हमारे ऊपरके कथनसे प्रगट है। इसके साथ ही कुछ समयके उपरान्त आजीवकोंके सरक्षक राजा पद्मद्वारा जैनियोका सताया जाना, अवश्य ही ऐसे कारण हैं, जो हमें इस बात को माननेके लिये वाध्य करते है कि वीरशासनका प्रभाव भगवान महावीरके उपरान्त अवश्य ही किचित फीका पड गया था। और इस तरहपर बौद्धाचार्यका कथन भी ठीक बैठ जाता है । अतएव जैन और बौद्धाचार्योंके उपरोल्लिखित मत हमारी इस मान्यतामें बाधक नहीं है कि भगवान महावीरके दिव्योपदेशके कारण म० बुद्धका प्रभाव बहुत कुछ कम होगया था कि जिससे उनके जीवन के उस अन्तराल - कालका प्रायः पूरा पता नही चलता ! उधर भगवान महावीरके दिव्य प्रभावको बौद्धाचार्य स्वीकार करते ही है । अस्तु,
'भगवान महावीरके धर्मोपदेशका विशेष प्रभाव म० बुद्धके जीवनमें आडा आया था, इसका समर्थन स्वय वौद्ध ग्रन्थोंसे भी होता है । देवदत्तद्वारा जो विच्छेद बौद्ध संघ में भगवान महावीरके निचार्णकालके ढोतीन वर्ष पहिले ही खडा हुआ था, वह भी हमारी व्याख्याकी पुष्टि करता है । देवदत्तने म० बुद्धसे भिक्षुओको दैनिक क्रियाओको अधिक सयममय बनानेको, एवं मासभोजनकी मनाई करनेको कहा था। इस ही पर बौद्ध सघमे विच्छेद
१ आजीविक्स भाग 1 पृष्ठ ५८.२ सान्डर्स 'गौतमबुद्ध पृष्ठ ७२-७३०
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-और म० वुद्ध]
[१०७ खडा हुआ था। अब यह स्पष्ट ही है कि उस समय सिवाय भगवान महावीरके अन्य कोई प्रख्यात् मतप्रवर्तक ऐसा नहीं था जिसने अहिमा धर्मके महत्वको पूर्ण प्रगट किया हो और मांस खानेको पापक्रिया बताई हो। बौद्धोंके मांसभक्षण और साधु अवस्थामें भी शिथिलता रखनेके लिये जैन शास्त्रोमें उनपर कटाक्ष किये गये है । तथापि बौद्ध संघके इस विच्छेदके कितने ही वो पहिलेसे भगवान महावीर अहिसा और तपस्याका उपदेश देही रहे थे । इस अवस्थामें यह स्पष्ट है कि बौद्ध सघमे यह विच्छेद भगवान महावीरके दिव्योपदेशके कारण ही खडा हुआ था। इसके साथ ही बौद्धोंके 'महावग्ग' से विदित होता है कि इसी समय म° बुद्धके पास एक बौद्ध भिक्षु नग्न होकर आया था और नग्नावस्थाकी विशेष प्रशंसा करके बौद्ध साधुओंको उसे धारण करनेकी आज्ञा देनेकी उनसे प्रार्थना करने लगा था। यह भी हमारी व्याख्याका समर्थन करता है, क्योंकि उस समय म० महावीरके दिव्योपदेशसे दिगंवरता (नग्नत्व) का प्रभाव विशेष बढा था और यही कारण म० बुद्धके साथ भिक्षुओंकी सख्याके
१. उस समय शेषमें ब्राह्मण, आजीविक, अचेलक आदि सप्रदाय थे। सो इनमें किसीको माससे परहेज नहीं था। ब्राह्मण लोग खुले रूपमें मासा. भिषिक्त क्रियाको मान दे रहे थे। आजीविक भी मास खाना बुरा नहीं समझते थे यह वौन्त्रों और जैनोंके शास्त्रोंसे प्रकट है । अचेलक-मत-प्रर्वतक • पुन्य-पाप कुछ मानते ही नहीं थे, सो मास खाना उनके निकट भी दुक्रिया नहीं होसक्ती । इस तरह उस समय भगवान महावीरने हो इसको दुनिया प्रगट किया था। २. जैन सत्र (S. BE.) भाग २ पृष्ठ ४४. 3. महावग्ग (S. B. E) १२८ पृष्ठ २४५
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१०८]
[ भगवान महावीरघटनेका मालूम पड़ता है । हम पूर्व परिच्छेदमें देख चुके है कि जब म बुद्ध अन्धकविन्दमें थे तब उनके साथ १२५० भिक्षु थे, परन्तु बौद्ध सघ विच्छेद अवसरके लगभग ही जब वे आपनसे कुसीनाराको गये थे तब उनके साथ सिर्फ ५० भिक्षु रह गये थे । इससे यह स्पष्ट है कि इस समय भगवान महावीरके धर्मकी मान्यता जनतामे विशेष हो गई थी, जिसका प्रभाव म० बुद्ध और उनके सघपर भी पड़ा था ।
वास्तवमें जैन तीर्थङ्करके जीवन में केवलज्ञान (सर्वज्ञता) प्राप्त करके धर्मोपदेश देनेका ही एक अवसर ऐसा है जो अनुपम
और अद्भुत प्रभावशाली है । इस बातकी पुष्टि प्राचीनसे प्राचीन उपलब्ध जैनसाहित्यसे होती है । अतएव उक्त प्रक्रार नो हम भगवान महावीरके इस दिव्य अवसरका दिव्य प्रभाव म० बुद्ध और उनके सघ परं पडा देखते है सो उसमें कुछ भी अत्युक्ति नही है । तीर्थकर भगवानका विहार समवशरण सहित और उनका उपदेश वैज्ञानिक ढंगपर होता है, क्योकि
१ बौद्ध प्रन्थ "चुश्वग्ग" (VII 3,14,में यह इस प्रकार स्वीकार किया गया है। __ " The people bolneve in 1ough neasures." अर्थात् -साधारण जनता कठोर नियमों में विश्वास रखती है और यह विदित ही है कि जैनियोंने बौद्धोपर उनके शिथिल साधु जीवनके वारण कटाक्ष किये थे, अतएव यहागर परोक्ष रीतिसे भगवान महावीरके सिद्धान्तोंका प्रभाव स्वीकार किया गया है। इसी बौद्ध प्रथमें अगाड़ी यह भी कहा गया है कि लोग म.बुद्धर आशायसो जीवन व्यतीत करनेका लाञ्छन लगाने लगे थे।' .( VIII 3 16 ) इसे स्पष्ट है कि इस समय अवश्य ही भगवान महावीरका दिव्योपदेश जनताके हृदयमें घर कर गया था।
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-और म० बुद्ध ]
[१०९ वे सर्वज्ञ होते है, जैसे कि हम भगवान महावीरके विषयमें देख चुके है। तथापि सर्वज्ञ तीर्थकर भगवानकी पुण्य प्रतिके प्रभावसे ४०० कोसतक चहुओर दुर्भिक्ष आदि दूर हो जाते हैं
और उनके समवशरणमें मानस्तंभके दर्शन करते ही लोगोंका मिथ्या ज्ञान और मान काफूर होनाता है। इस दशामे अवश्य ही भगवान महावीरका दिव्यप्रभाव सर्वत्र अपना कार्य कर गया होगा, जैसा कि वौद्धग्रन्थोसे झलकता है, अतएव म० बुद्धके जीवनपर भगवान महावीरका प्रभाव पडा व्यक्त करना बिल्कुल युक्तियुक्त मालूम होता है । यही कारण प्रतीत होता है कि म० बुद्ध ७२ वर्षकी अवस्थामे सामान्यरूपसे राजगृहमें आकर पूछकर एक कुम्हारके यहां रात्रि विताते है।
इसके साथ ही भगवान महावीरके निर्वाणलाभके समाचार बौद्धसंघके लिये एक हर्षप्रद समाचार थे, यह बौद्धग्रन्थके निम्न उद्धरणसे प्रमाणित है । वहां लिखा है कि
"पावाके चन्ड नामक व्यक्तिने मल्लदेशके सामगांममें स्थित आनन्दको महान् तीर्थंकर महावीरके शरीरान्त होनेकी खवर दी थी । आनंदने इस घटनाके महत्वको झट अनुभव करलिया और कहा 'मित्र चन्ड ' यह समाचार तथागतके समक्ष लानेके योग्य हैं । अस्तु, हमे उनके पास चलकर यह खबर देना चाहिये । वे बुद्धके पास दौड़े गए, जिन्होने एक दीर्घ उपदेश दिया ।"२ • इस वर्णनके शब्दोंमें स्पष्टतः एक हर्षमाव झलकरहा है और
१. के. जे. सॉन्डर्ड " गौतम बुद्ध" पृष्ठ ७५. २. सादिक मुतन्त इन दी डॉयोलॉग्स ऑफ बुद्ध भाग 3 पृष्ठ ११२.
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११० ]
[ भगवान महावोर
हर्ष तब ही होता है जब कोई बाधक वस्तु उद्देश्यमार्गमे से दूर हुई हो । इसलिए इससे भी साफ प्रकट है कि भगवान महावीर के धर्मप्रचारके कारण बुद्धदेवको अवश्य ही अपने मध्यमार्गके प्रचार में शिथिलता सहन करनी पडी थी और वह शिथिलता भगवान महावीरके निर्वाणासीन होते ही दूर होगई, जैसे कि हम पहिले देख चुके हैं । इस विषयमे एक प्राच्यविद्याविशारदका भी वही कथन है कि भगवान महावीरके निर्वाणलाभसे म० बुद्ध और उनके मुख्य शिप्य सारीपुत्तने अपने धर्मका प्रचार करनेका विशेष लाभ उठाया था।
अतएव यह स्पष्ट है कि म० बुद्धके १० से ७० वर्षके जीवन अतरालके घटनाक्रमका प्राय न मिलना भगवान महावीरके दिव्योपदेशके कारण था और इस दशामें डॉ० हार्नले साहेबकी उपरोल्लिखित गणना विशेष प्रमाणिक प्रतिभाषित होती है, जिसके कारण म ० बुद्ध और भगवान महावीरके पारस्परिक जीवन सबन्ध वैसे ही सिद्ध होते है जैसे कि हम ऊपर डा० हार्नलेसाहिबकी गणनाके अनुसार देखचुके है, किन्तु बौद्धशास्त्रों में एक स्थान पर म० बुद्धको उस समयके प्रख्यात मतप्रवर्तकों में सर्वलघु लिखा है, परन्तु उन्हीके एक अन्य शास्त्रमें म० बुद्ध इस बात का कोई स्पष्ट उत्तर देते नहीं मिलते हैं। वह वहां प्रश्नको टालनेका ही 'प्रयत्न करते हैं । इससे यही विशेष उपयुक्त प्रतीत होता हैं कि आयुमें भगवान महावीरसे तो कमसे कम म० बुद्ध अवश्य ही बड़े थे, परन्तु एक मत प्रवर्तककी भांति वे जरूर ही सर्वलघु थे; क्योंकि
१ क्षत्रिय लेन्स इन ' बुद्धिस्ट - इन्डिया पृष्ठ १७६. २. हिस्टॉरिकल ग्ली निन्ग्स पृष्ठ २४ 3 सुत्तनिपात ( S. B. E. Vol. X. ) पृष्ठ ८७.
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- और म० युद्ध !
[ १११
अन्य सर्व मत म ० वुद्धसे पहिलेके थे। इस तरह भगवान महावीर और म० बुद्धके पारस्परिक जीवन संबन्ध वह ही ठीक जचते है जो हम पूर्व में बतला चुके हैं । अस्तु ।
3
भगवान महावीर और म० बुद्धके पारस्परिक जीवन संबन्ध तो हमने जान लिये, परन्तु भगवान महावीरको मोक्षलाभ और म० बुद्धका 'परिनिव्वान', जैसा कि चौद्ध कहते है, कब हुआ यह जान लेना भी आवश्यक है । भगवान महावीर के निर्वाणलाम कालके विषयमें तीन मत पाये जाते है । एकके अनुसार यह घटना ईसवी सन्से ५२० वर्ष पहिले घटित हुई बतलाई जाती है ।" दूसरेके मुताविक यह ४६८ वर्ष पहिले मानी जाती है । और तीसरा इसको विक्रमासे १५० वर्ष पहिले घटित हुआ बतलाता है। इनमे पहिले मतकी मानता अधिक है और जैन समाजमे वही प्रचलित है । दूसरा डॉ० जार्ल चारपेन्टियरका मत है, जिसका समुचिंत प्रतिवाद मि० काशीप्रसाद जायसवालने प्रक्ट कर दिया है और वस्तुतः वौद्ध शास्त्रो के स्पष्ट उल्लेखों को देखने हुये यह जीको नही लगता कि भगवान महावीरका निर्वाण म० दुद्धके उपरान्त हुआ हो । यह हमारे पूर्व जीवन संबन्ध विवरण से भी बाधित है । और तीसरा मत श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमीका है। उनके आधार देवसेनाचार्य
१. डिस्टॉरीकल ग्लं निन्ग्स १ष्ठ २१-३०. २. लाइफ ऑफ महावीर और जैनसूत्र (SB E भाग २ भूमिका. 3. इन्डियन एन्टीक्केरी भाग १३ । ४. रत्नकरण्ड श्रावकाचार (माणिकचन्द अन्यमाला) पृष्ठ १५० - १०२ । ५. जैनसाहित्यशोधक प्रथम खडके ४ थे अकमें ऐसा उल्लेख है। शायद यह प्रतिवाद इन्डियन ऐन्टीक्केरी भाग ४९ पृष्ठ ४३... मे. किया गया है ।
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११२] ।
[ भगवान महावीरऔर अमितगत्याचार्यके उल्लेख है, जिनमें समयको निर्दिष्ट करते हुये 'विक्रम नृपकी मृत्युसे' ऐसा उल्लेख किया गया है । इसके विषयमें जैन विद्वान् प० युगलकिशोरनी लिखते हैं कि "यद्यपि, विक्रमकी मृत्युके बाद प्रनाके द्वारा उसका मृत्यु सवत प्रचलित किये जानेकी बात जीको कुछ कम लगती है, और यह हो सकता है कि अमितगति आदिको उसे मृत्यु सवत् समझनेमे कुछ गलती हुई हो, फिर भी ऊपरके उल्लेखोसे इतना तो स्पष्ट है कि प्रेमीनीका यह मन नया नही है-आजसे हजार वर्ष पहिले भी उस मतको माननेवाले मौजूद थे और उनमें देवसेन तथा अमितगति से आचार्य भी शामिल थे।"' इतना होते हुये भी हमें उपरोक्त जीवन संवन्ध विवरणको देखते हुये मुख्तार साहबसे सहमत होना पड़ता है। इसके साथ ही यह दृष्टव्य है कि 'त्रिलोकप्रज्ञप्ति मे जहा अन्यमत वीरनिर्वाण सवत्मे बतलाये गये है, वहा इसका उल्लेख नहीं है। इस अवस्थामें देवसेनाचार्य और अ मतगति आचार्यने भूलसे ऐसा उल्लेख किया हो, तो कोई आश्चर्य नही । निसप्रकार हमने म० बुद्ध और भगवान महावीरका सबन्ध स्थापित किया है, उसको देखते हुये यही ठीक प्रतीत होता है।
अव रहा केवल प्रथम मत नो प्राय. सर्वमान्य और प्रचलित है। इस मतकी पुष्टि में निम्न प्रमाण बतलाये जाते है.-। (१) सत्तरि चदुसढजुत्तो तिणकाला विक्कमो हवइ जम्मो ।
अठवरस वाललीला सोडसवासेहि भीम्मए देसे ॥१८॥
१. रलकरण्ड श्रावकाचार (मा० प्र०) पृष्ठ १५१-१५२. २. पूर्व पृष्ठ १५३-१५४.
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-और म० बुद्ध ]
[११३ यह नन्दिसंघकी दूसरी पट्टावलीकी एक गाथा है, और 'विक्रमप्रबन्ध में भी पायी जाती है। (जैनसिद्धान्तभास्कर किरण ४ पृ.७५) (२) णिवाणे वीरजिणे छव्वाससदेस पंचवरिसेसु।।
पणमासेमु गदेसु संजादो सगणिओ अहवा ।। ८१॥
यह गाथा आजसे करीब १५०० वर्ष पहिलेकी रची हुई 'तिलोयपण्णत्ति'की गाथा है और इसमें वीर निर्वाण प्राप्तिसे ६०६, वर्ष ५ महीने बाद शक राना हुआ ऐसा उल्लेख है। (३) पण छस्सयवस्सं पणमास जुदं गमिय वीरणिचुइदो।
सगराजो तो कक्की चदुनवतियमहिय सगमासं॥८५०॥ __यह त्रिलोकसारकी गाथा है और इसमें 'तिलोयपण्णत्ति की: उपरोक्त गाथाकी भांति वीर निर्वाणसे ६०५ वर्ष ५ महीने बाद शक राजाका और ३९४ वर्ष ७ महीनेबाद कल्किका होना बतलाया है।
(४) 'आर्यविद्यासुधाकर' में भी लिखा है:'ततः कलिनात्र खंडे भारते विक्रमात्पुरा । स्वमुन्यं बोधि विमते वर्षे निराहयो नरः॥॥ प्राचारजैनधर्म बौद्धधर्मसमप्रभम् ।
(६) सरस्वतीगच्छकी भूमिकामें भी स्पष्टरूपसे वीरनिर्वाणसे ४७० वर्ष बाद विक्रमका जन्म होना लिखा है; यथा'-'बहुरि श्री वीरस्व.मोडूं मुक्ति गये पीछे च्यारसैसत्तर ४७० वर्ष गये पीछे श्रीन्महाराज विक्रम राजाका जन्म भया ।'
(६) नेमिचन्द्राचार्य के 'महावीर चरिय' (देखो " भारतके प्राचीन राजवंश" भा० २१-४२) मे भी महावीरस्वामीसे ६०९ वर्ष ५ मास उपरान्त शक राजाका होना लिखा है ।
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११४]
[ भगवान महावीर यहां नं० १ और नं. ५ के प्रमाणोंमें विल्कुल स्पष्ट रीतिसे चीरनिर्वाणके ४७० वर्ष उपरान्त विक्रमका जन्म होना लिखा है।
और यह ज्ञात ही है कि वीरनिर्वाण ५२७ वर्ष पहिले जो ईसासे माना जाता है वह वीर निर्वाणसे ४७० वर्ष वाद नृप विक्रमका राज्यारोहण माननेसे उपलब्ध हुआ है क्योकि यह प्रमाणित है कि नृप विक्रमका सवत् उनके १८ वर्षकी अवस्थामें राज्यारोहणसे प्रारम्भ होता है।' इस अवस्थामें स्वीलत निर्वाणकालमें १८ वर्ष जोड़ना आवश्यक ठहरता है, क्योकि उक्त गाथाओमें स्पष्टरीतिसे वीरनिर्वाणसे ४७० वर्ष वाद विक्रमका जन्म हुआ लिखा है । इस तरहपर प्रचलिन वीरनिर्वाण सम्वत् शुद्ध रूपमे ईसासे पूर्व ५४९ वर्ष ( ५२७+१८) मानना चाहिये। इस ही मतको श्रीयुत काशीप्रमाद जायसवाल और पं० विहारीलालजी बुलन्दशहरी प्रमाणिक बतलाते है। जैनदर्शनदिवाकर डॉ० कोवी भी इस मतको स्वीकार करने प्रतीत होते है, जैसा उनके उस पत्रसे प्रकट है जो उन्होंने हमको लिखा था और जो 'वीर' वर्ष २ पृष्ठ ७८-७९में प्रकाशित हुआ है। इसके साथ ही अन्य प्रमाणो में कोई स्पष्ट उल्लेख
नहीं है। ऐसी अवस्थामें यदि शकरानाका जन्म भी ६०५ वर्ष • ६ महीने बाद वीरनिर्वाणसे माना जावे तो कुछ असगतता नजर
नहीं आती। इस दशामें वीरनिर्वाण ईसासे पूर्व ५२७ वर्ष पहिले __-'माननेका शुद्ध रूर ६४६ वर्ष पहिले मानना उचित प्रतीत होता..
है । यह निर्माणकाल हमारे उक्त पारस्परिक जीवन सम्बन्धमे भी। ठीक बैठ जाता है; क्योंकि सिंहलबौद्धोकी मानताके अनुसार म.
१ मदन कोष और भारतके प्राचीन राजवश ।
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- और म० वुद्ध ]
[ ११५
बुद्धका परिनिव्वान ईसासे पूर्व ५४३ वर्षमें घटित हुआ था ।बौद्धोंकी इस मानताको लेकर विशेष गवेषणाके साथ आधुनिक विद्वानोने इसका शुद्धरूप ईसासे पूर्व ४८० वां वर्ष बतलाया है, किन्तु खण्डगिरिकी हाथीगुफासे जो सम्राट् खारवेलका शिलालेख मिला है उससे बौद्धोंकी उक्त मानताका पूरा समर्थन होता है ! * इस दशामें भगवान् महावीरका निर्वाणकाल ईसासे पूर्व ५४५ वर्ष पूर्व मानने से और म० बुद्धका परिनिव्वान ईसासे पहिले ५४३ वें वर्षमे हुआ स्वीकार करनेसे, हमारे उक्त जीवनसम्बन्ध निर्णयसे प्रायः सामञ्जस्य ही बैठ जाता है । क्योंकि स्वयं बौद्धोके कथनसे श्रमाणित है कि म० बुद्ध भगवान महावीरके पहले ही अपनेको स्वयं बुद्ध मानकर उपदेश देने लगे थे । 'संयुक्त निकाय ' में (भाग ११-६८) में स्पष्ट कहा है कि बुद्ध अपनेको 'सम्मा बुद्ध' कैसे कहने लगे जब निगथ नातपुत्त अपनेको वैसे नहीं कहते हैं। इससे स्पष्ट है कि हमारी पूर्वोक्त मान्यता के अनुसार म० बुद्ध भगवान महावीर के धर्मोपदेश देनेके पहले ही उपदेश देने लगे थे और इसतरह पूर्वोल्लिखित पारस्परिक संबंध ठीक ही है । हाँ, एक दो वर्षका अन्तर गणनाकी अशुद्धिके कारण रहा कहा जासक्ता है । अतएव आजकल भगवान महावीरका निर्वाण संवत् २४७१ वर्ष मानना विशेष युक्तिसंगत है।
'हिन्दी विश्वकोष ' के निम्न कथनसे भी यही प्रमाणित है ।
१ भारतक प्राचीन गजवश भाग २ पृष्ठ ३४ २ इन्डियन ऐन्ट' क्वेरी XLVIII 25 ff, 214 ff & 29 ff and XLIX 48 ff at JBORS. IV. 364 ff.; V. 88 ff.
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११६]
[ भगवान महाबीरवहां (भाग २ ४० ३५०) पर लिखा है कि 'तीत्युगलियपयन'
और 'तीर्थोद्धार प्रकीर्ण' नामक प्राचीन जैनशास्त्रके मतसे जिस रातको तीर्थंकर महावीरस्वामीने सिद्धि पायी, उसी रातको पालक राना अवन्तीके सिंहासनपर बैठे थे । पालकवंश ६०, उसके बाद नन्दवंश १५५, मोर्यवंश १०८, पुष्पमित्र ३०, बलमित्र एवं भानुमित्र ६०, नरसेन बबरवाहन ४०, गर्दभिल्ल १३ और शकरानने ४ वर्ष राजत्व किया । महावीरस्वामीके परिनिर्वाणसे शकराजके अभ्युदयकाल पर्यन्त ४७० वर्ष बीते थे । इधर सरस्वती गच्छकी पट्टावलीसे देखते, कि विक्रमने उक्त शकराजको हराया सही, किन्तु सोलह वर्ष तक राज्याभिषिक्त न हुए । उक्त सरस्वती ग्रच्छकी गाथामें स्पष्ट लिखा है-“वीरात् ४९२, विक्रमजन्मान्त वर्ष २२, राज्यान्त वर्ष ४" अर्थात् शकराजके ४७० और विक्रमाभिषेकाव्दके ४८८ अर्थात् सन् ई० से ५४५-४. वर्ष पहिले महावीरस्वामीको मोक्ष मिला था " अतएव यही समय निर्वाणकालका ठीक जंचता है।
इस प्रकार म० बुद्ध और भगवान महावीरकी जीवनघटनाओंका तुलनात्मक रीतिसे अध्ययन करनेपर हमने उनकी पारस्परिक विभिन्नताको विल्कुल स्पष्ट कर दिया है और अब हम सुगमतासे उनके भिन्न व्यक्तित्व एवं समकालीन संवधोंके विषयमें एक निश्चित मत स्थिर कर सक्ते हैं। इस विवेचनके पाठसे पाठकोको उस मिथ्या मानताकी असारता भी ज्ञात हो जायगी जो इस उन्नतशील जमानेमें भी कहीं कही घर किये हुये है कि जैनधर्मकी उत्पत्ति बौद्धधर्मसे हुई थी अथवा म० बुद्ध और भगवान महावीर एक व्यक्ति थे।
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-और म० बुद्ध
[११७ यद्यपि यहांतकके विवेचनसे हम म० बुद्ध और भ० महा__ वीरके पारस्परिक जीवनसम्बन्धोंका दिग्दर्शन कर चुके हैं, परन्तु
इससे दोनों युगप्रधान पुरुषोंने जो शिक्षा जनसाधारणको दी थी, __ उसका पूरा पता नहीं चलता है, इसलिए अगाडीके पृष्ठोमें हम
जैनधर्म और बौद्धधर्मका भी सामान्य दिग्दर्शन करेंगे।
भगवान महावीर और म० बुद्धका धर्म!
म बुद्धने किस धर्मका निरूपण किया था, जब हम यह जाननेकी कोशिश करते हैं तो उनके जीवनक्रमपर ध्यान देनेसे असलियतको पा जाते हैं ! वस्तुतः म० बुद्धका उद्देश्य आवश्यक सुधारको सिरननेका था । इसलिये प्रारम्भमें उनका कोई नियमित धर्म नहीं था और न उन्होंने किसी व्यवस्थित धर्मका प्रतिपादन किया था, किन्तु अपने सुधारक्रममें उन्होंने आवश्यक्तानुसार जिन सिद्धान्तोंको स्वीकार किया था, उनका किचित दिग्दर्शन हम यहां करेंगे।
सर्व प्रथम उनके धर्मके विषयमें पूंछते ही हमें बतलाया जाता है कि "वह प्रकृतिके नियमोंको बतलाता है, मनुष्यका शरीर नाशक. नियमके पल्ले पड़ता है; यही बुद्धका अनित्यवाद है। जो कुछ अस्तित्वमें आता है उसका नाश होना अवश्यम्भावी है।"* भगवान महावीरने भी धर्मका वास्तविक रूप वस्तुओंका प्राकृतिक स्वरूप ही
1 की 'बुदिस्टफिलोसफी पृ. ६९-७०.
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११८]
[ भगवान महावीरबतलाया था। कहा था "वस्तुस्वभाव ही धर्म है।" और इसतरह जाहिरा यहांपर दोनो मान्यताओंमें साम्यता नजर पड़ती है; परन्तु यथार्थमें उनका भाव एक दूसरेके बिल्कुल विपरीत है।म बुद्धके हाथोसे इस सिद्धान्तको वह न्याय नहीं मिला जो उसे भगवान महावीरके निकट प्राप्त था । इसी कारण चौद्धदर्शनका अध्ययन करके सत्यके नाते विद्वानोको यही कहना पड़ा है कि बुद्धके सैद्धान्तिक विवेचनमें व्यवस्था और पूर्णता दोनोकी कमी है।' बुद्धके निकट सैद्धातिक विवेचन ससारदुःखका कारण था। ऐसी दशामें इन प्रश्नोंका वैज्ञानिक उत्तर म० बुद्धसे पाना नितान्त असम्भव है। इन प्रश्नोको उनने 'अनिश्चित वातें ठहराया था। जब उनसे पुछा गया कि
"क्या लोक नित्य है ? क्या यही सत्य है और सब मत मिथ्या है ?" उन्होंने स्पष्ट रीतिसे उत्तर दिया कि "हे पोत्थपाद, यह वह विषय है जिसपर मैंने अपना मत प्रकट नहीं किया है।" तब फिर इसी तरह पोत्थपादने उनसे यह प्रश्न किये । (२) क्या लोक नित्य नही है ? (३) क्या लोक नियमित है ? (४) क्या लोक अनन्त है ? (५) क्या आत्मा वही है जो शरीर है ? (६) क्या शरीर भिन्न है और आत्मा भिन्न है ? (७) क्या वह जिसने
. १ 'धम्मो पत्थुसहावो समादिभावो य दसविहो धम्मो । रयणतयं च धम्मो, जीवाम रक्खणं धम्मो ॥ ४७६ ॥ ,
. स्वामि कार्तिक्यानुपेक्षा । २ की 'बुद्धिस्ट फिलोसफी-भूमिका. २ बुद्धिज्मः इट्स हिस्टरी एण्ड लिटरेचर पृ० ३९.
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-और- म० बुद्ध
[११९ सत्यको जान लिया है मरणोपरान्त जीवित रहता है ? (८) अथवा वह जीवित नहीं रहता है ? (९) अथवा वह जीवित भी रहता है और नही भी रहता है १ (१०) अथवा वह न जीवित रहता है और न वह नही जीवित रहता है ? और इन सबका उत्तर म० Qखने वही दिया जो उन्होने प्रथम प्रश्नके उत्तरमें दिया था। इस परिस्थितिमें यह स्पष्ट अनुभवगम्य है कि म० बुद्धने सैद्धांतिक विवेचनकी प्रारंभिक वातोका स्थापन प्रकृतिके नियमोके रूपमें पूर्ण रीतिसे नहीं किया था जैसाकि बतलाया जाता है। भगवान महावीरके विषयमें हम अगाडी देखेंगे। ___अतएव जब कभी म० बुद्धके निकट ऐसी अवस्था उपस्थित हुई तो उनने उसका समाधान कुछ भी नहीं किया। बौद्धदर्शनके विद्वान् डा० कीथ बुद्धकी इस परिस्थितिको बिल्कुल उचित वतलाते हैं। वह कहते है कि बुद्धने पहिले ही कह दिया था कि वह अपने शिष्योंको इन विषयोंमें शिक्षा नहीं देंगे । म० बुद्ध एक ऐसे हकीम हैं जो ऐसी शिक्षा देते हैं जिससे शिष्यका वर्तमान जीवन सुखमय बने, किन्तु वास्तवमें इन बातोको अस्पष्ट छोड़ देनेसे बुद्धने लोगोंको अपने मनोनुकूल निर्णयको माननेकी स्वतंत्रता दी है और यह क्रिया एक 'माध्यमिक 'के सर्वथा योग्य थी।
ऐसा प्रतिभाषित होता है कि बुद्धने वस्तुओंके स्वभाव पर केवल उनकी सासारिक अवस्थाके अनुसार दृष्टिपात किया था। - उन्होंने स्पष्ट कहा था कि 'लोकमें कोई भी नित्य पदार्थ नहीं है
१ डोयलोग्स आफ दी बुद्ध (S. B. B. Vol. II.) पृ०२५४. २ कीथम 'बुद्धिस्ट फिलासफी पृ० ६२.
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१२० ]
[ भगवान महावीर
और न ऐसे ही पदार्थ हैं जिनका सर्वथा नाश होजाता है, प्रत्युत समस्त लोक एक घटनाक्रम है, कोई भी वस्तु किसी समय में यथार्थ नहीं हो सक्ती ।' इसलिये ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जो आत्मा हो । शरीर (रूप) आत्मासे उसी तरह रहित है जिस तरह गङ्गा नदीमें उतराता हुआ फेनका बबूला है।' ( सयुत निकाय ३ – १४० ). परन्तु विस्मय है कि बुद्धने एकान्तवाद - अनित्यताका भी निरूपण पूरी तरह नहीं किया है। तो भी यह बतलाया गया है कि चार पदार्थ हैं: - ( १ ) पृथ्वी (२) अग्नि (३) वायु और (४) जल | आकाश भी कभी २ गिन लिया गया है। किन्तु म ० बुद्धने उनको किस ढंगसे स्वीकार किया था यह ज्ञात नहीं है । केवल यह प्रकट है कि "प्रत्येक पौलिक पदार्थ एक मिश्रण (संखार Compound) है, जो शरीरकी तरह किसी समयतक बना रहेगा, परन्तु अन्तमें नष्ट हो जावेगा । पदार्थ अनित्य है । प्रारंभिक बौद्ध धर्ममें वे क्षणिक स्वीकृत नहीं है । यह उपरान्तका सुधार है । ""
विशेषकर बुद्धके निकट लोक केवल अनुभवका एक पदार्थ था । उन्होंने इसकी नित्यता और अनन्तता के सम्बन्धमें कुछ कहने से साफ इन्कार कर दिया था, किंतु इननेपर भी यह स्पष्ट है कि म० बुद्धने जो उक्त चार पदार्थोंको स्वीकार किया था सो उसमें उन्होंने यथार्थ बाद (Realistic View ) को अन्ततः गौणरूपमें स्वीकार ही किया था । इससे उनके विवेचन की अनियमितता भी प्रकट है।
१. कीन बुट फिलॉसफो पृष्ठ ९४ और दी साम्स ऑफ दी चरन पृष्ठ ६८. २० की ० दु० फि० पृष्ठ १३ और मिलिन्द - पन्ह २१/१ (S.BE ) पृष्s ४०. ३. की० ० कि० पृष्ठ ९२. ४. पूर्ववत ५. पूर्ववत् ६. पूर्व पृष्ठ ८५.
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-और म० वुद्ध
[ १२१ उक्त चार पदार्थोके अतिरिक्त बुद्धने उनके साथ निर्वाण और विज्ञान (Conception of Consciousness) की गणना करके अपना सैद्धान्तिक मत छै तत्वोपर प्रारम्भ किया था। विज्ञानमें दुःख और सुखको अनुभव करनेका भाव गर्भित था। यह सब पदार्थ नित्य ही थे और इनहीके पारस्परिक सम्बन्धसे संसारका अस्तित्व बतलाया था।
इस सिद्धान्तविवेचनमें बुद्धसे प्राचीन मतोंका प्रभाव स्पष्ट प्रतीत होता है । इनमें मुख्यतः ब्राह्मण और जैनधर्मका प्रभाव दृष्टव्य है। जो चार पदार्थ म बुद्धने स्वीकार किये हैं वह ब्राह्मण धर्ममें पहिलेसे ही स्वीकृत थे इसलिए वह उन्होंने वहांसे लिये थे। परन्तु उन्होंने उनको जिस ढंगसे प्रतिपादित किया है वह जैनधर्मकी लोकमान्यतासे मिलता जुलता है । जैनियोंके अनुसार भी छै द्रव्योकर युक्त यह लोक है, परन्तु यह छै द्रव्य म० बुद्ध द्वारा स्वीकृत छ तत्वोंसे विल्कुल भिन्न थे जैसे हम अगाडी देखेंगे। इसके अतिरिक्त वुद्धने जो धमकी व्याख्या की थी वह भी सामान्यतया जैन व्याख्यासे मिलती जुलती थी, जैसे कि हम देख चुके हैं । फिर बुद्धने जो उसके दो भेद आभ्यन्तिरिक (अज्झत्तिक)
और वाह्य (वाहिर) किये थे. वह भी सामान्यतः जैन सिद्धान्तके निश्चय और व्यवहार धर्मके समान हैं। किन्तु फर्क यहां भी विशेष मौजूद है, क्योंकि बौद्धोंके निकट इनका सम्बन्ध सिर्फ बाह्य जगत और मानसिक सम्बन्धोंसे है, और जैन सिद्धान्तमें इनके अलावा
१. पूर्व पृष्ठ ९४-९५. २. पूर्व पृष्ठ ४२. ३. कीथम बुद्धिस्ट फिलासफी पृष्ठ ७४. ४. तत्वार्थसत्र (S.B.J. II) पृष्ठ १५.
बुद्धिस्ट फिलासफी पृष्ठ ७४.
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१२२]
[ भगवान महावीरपदार्थके वास्तविक स्वरूपसे भी यह सम्बन्धित है। इससे यह साफ प्रकट है कि म० बुद्धने केवल जैनियोके व्यवहार धर्मका किंचित आश्रय लेकर अपने सिद्धान्तोंका निरूपण किया था इसीलिये जैनशास्त्रोमे म० बुद्धके धर्मकी गणना एकान्तवादमें की गई है। श्री गोम्मटसारजीका निम्न श्लोक यही प्रकट करता है:
'एयंत बुद्धदरसी विवरीओ वंभ तावसो विणओ। इंदो वि य संसइओ मक्कडिओ चेव अण्णाणी ॥'
'इसमें बौद्धको एकान्तवादी, ब्रह्म या ब्राह्मणोको विपरीतमत, तापसोको वैनयिक, इन्द्रको साशयिक, और मखलि या मस्करीको अज्ञानी बतलाया है। किन्तु श्वेताम्बर ग्रन्थोमें बौद्ध धर्मको 'अक्रियावादी' लिखा है, जो स्वयं बौद्धोंके शास्त्रोंके उल्लेखोसे प्रमाणित है। यहां पर श्वेताम्बराचार्य वौद्धोके अनात्मवादको लक्ष्य करके ऐसा लिखते हैं, जब कि दिगम्बराचार्य उनके सैद्धान्तिक विवेचनको पूर्णतः लक्ष्य करके उसे एकान्तवादी ठहराते हैं। अक्रियाबाद एकान्तमतका एक भेद है । स्वय दिगम्बर जैनोंकी 'तत्वार्थ राजवार्तिक' ( ११० ) में बौद्ध धर्मके मुख्य प्रणेता मौद्गलायनका उल्लेख अक्रियावादियोमें किया गया है । अस्तु । ___आइए पाठक अब जरा भगवान महावीरके धर्म पर भी एक दृष्टि डाललें । उन्होंने जिस प्रकार धर्मकी व्याख्याकी थी, उसीके अनुसार समस्त सत्तावान पदार्थोके विषयमें सनातन सत्यका निरू, पण किया। उन्होंने कहा कि यह लोक प्रारंभ और अन्त रहित
१. जैनसूत्र ( S. B. E. ) भाग २ भूमिका.
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-और म० बुद्ध ]
[१२३ अनादिनिधन है।' यह द्रव्योंका लीलाक्षेत्र है; जो द्रव्य अनादिसे सत्तामें विद्यमान हैं और अनन्तकाल तक वैसे ही रहेंगे । इस तरह इसलोकमें न किसी नवीन पदार्थकी सृष्टि होती है और न किसीका सर्वथा नाश होता है । केवल द्रव्योकी पर्यायोमे उलट फेर होती रहती है, जिससे लोककी एक खास अवस्थाका जन्म, अस्तित्व
और नाश होता रहता है। इस कार्यकारण सिद्धान्तमें इसप्रकार किसी एक सर्व शक्तिवान् कर्ता-हर्ताकी आवश्यक्ता नहीं है। वस्तुतः एक प्रधान व्यक्तिके ऊपर ससारका सर्वभार डालकर स्वयं निश्चिन्त हो जाना कुछ सैद्धान्तिकता प्रकट नहीं करता । ससारका रक्षक होकर संसारी जीवपर वृथा ही दुःखोके पहाड उलटना कोई भी बुद्धिवान स्वीकार नहीं करेगा। सचमुच सांसारिक कार्योको अपने जुम्मे लेकर वह ईश्वर स्वय राग और द्वेषका पिटारा बन जायगा और इस दशामे वह सांसारिक मनुष्यसे भी अधिक बन्धनोमें बंध जायगा । इस अवस्थामें ईश्वरको अनादिनिधन माननेके स्थानपर स्वयं लोकको ही अनादिनिधन मान लेनेसे यह झंझटें कुछ भी सामने नहीं आती हैं । वस्तुतः भारतीय षट्दर्शनोंका सूक्ष्म अध्ययन करनेसे उनमे भी एक कर्ताहर्ता ईश्वरकी मान्यताके कहीं दर्शन नहीं होते ! ऐसा प्रतीत होता है कि यह उपरान्तके भीरु और आलसी मनुष्योकी रचना ही है जो परावलम्बी रहने में ही आनन्द मानते हैं । अस्तुः।
१. बौद्धशान ' सुमङ्गलाविलासिनी ' (P. T.S, P. 119) में जैनों की इस मान्यताका उल्लेख है. २. तत्वार्थसूत्र (S. B. J. II) पृष्ठ १२०-१२१. 3. अप्रेजी जैनगजट भाग २. पृष्ट १७ और B. R.E. Vol. II. P. 185 ff.
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१२४]
[ भगवान महावीर इस प्रकार लोकको अनादिनिधन प्रकट करके भगवान महावीरने इस लोकमें मुख्य दो द्रव्य (१) जीव और (२) अनीव वतलाये थे। जीव वह पदार्थ बतलाया जो उपयोग और चेतनामय हो।' और अनीव वह सब पदार्थ हैं जो इन लक्षणोसे रहित हों। यह द्रव्य पाच प्रकारका है (१) पुद्गल, (२) आकाश, (३) काल, (४) धर्म और (५) अधर्म । अतएव भगवान महावीरके अनुसार इस लोकमें कुल छै द्रव्य हैं। इन छहोंके विशद विवरणसे जैन शास्त्र भरे हुये है, किन्तु यहांपर सक्षेपमें विचार करनेसे हम उनका स्वरूप इस तरह पाते हैं। इनमें (१) आत्मा या जीव एक उपयोगमई, अपौगलिक, अरूपी और अनन्त पदार्थ है । (२) पुद्गल एक पौद्गलिक रूपी पदार्थ है, जो स्पर्श, रस, गंध, वर्ण कर संयुक्त है, इसके परमाणु और स्कष भी अनन्त और विभिन्न हैं, किन्तु वे सख्यात और असंख्यात रूपमें भी मिलते है । (३) आकाश एक समूचा अनंत, अमूर्तीक
और अविभाजनीय पदार्थ है । यह सर्व पदार्थीको अवकाश देता है और दो भागोंमें विभाजित है अर्थात् लोकाकाश और अलोकाकाश, यह इसके दो भेद है और यह धर्म अधर्म द्रव्योंके कारण है । जहातक ये द्रव्य हैं वहींतक लोकाकाश है, इसीके भीतर जीव और अजीव पदार्थ फिरते है। (१) काल अमर्तीक और स्थिर द्रव्य है, यह द्रव्यों और उनकी पर्यायोंमें रूपान्तर उपस्थित करने में एक परोक्ष कारण है। यह कालाणु असंख्यात हैं और सम
१. उपरोक्त बोनशान 'सुम्सलाविलासिनी में भी जैनियोका आत्माके सम्पन्धर्म यही मत प्रकट किया है। कहा है कि नियों के अनुसार भारमा भरपी और ज्ञानधान है। (भरूरी भत्ता सजी) (P.T.S. P. 119,.
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- और म० बुद्ध ]
[ १२५
स्त लोक इनसे भरा पड़ा है । (५) धर्म वह अमूर्तीक द्रव्य है जो लोकके समान व्यापक है और जीव, अजीवके गमनमें उसी तरह सहायक है जिस तरह मछलीको जल चलने में सहायक है । (६) और अंतिम अधर्म द्रव्य भी अमूर्तीक और सर्वलोकव्यापक है । इसका कार्य द्रव्योको विश्राम देना है ।'
इनमें केवल जीव और पुद्गल ही मुख्य हैं, शेष द्रव्य उनके अननुगामी है । इनके मुख्य चार कर्तव्य हैं अर्थात् वे आकाश में स्थान ग्रहण करते हैं, परावर्त होते हैं और चलते है अथवा स्थिर रहते है । प्रत्येक कार्य में दो कारण होते हैं, एक मुख्य उपादान कारण और दूसरा सामान्य - निमित्त ( Auxiliary ) कारण सोनेकी अंगूठीमें मुख्य उपादान कारण सोना है, परन्तु उसके सामान्य निमित्त कारण अग्नि, सुनार, औजार आदि कई है । इसलिए जीव और अजीवके उक्त चार कर्तव्योका मुख्य कारण स्वयं जीव और अजीव है, और सामान्य कारण उपरोल्लिखित शेष चार द्रव्य है । इसप्रकार यह लोक अकृत्रिम और यथार्थ छै द्रव्यों कर पूर्ण है और इसमें जो कुछ पर्यायें और दशायें उपस्थित होती हैं वह इन जीव एवं अजीवकी पर्यायोंके कारण होती हैं; जो शेष चार द्रव्योके साथ हरसमय क्रियाशील रहती हैं । "
इतना जानलेने पर हम भगवान महावीर और म० बुद्धकी प्रारंभिक शिक्षाओका विशद अन्तर देखनेमे समर्थ हैं । यद्यपि म० बुद्धने अपने सिद्धांतोंको जिस ढंग और क्रमसे स्थापित किया है वह जाहिरा भ० महावीर के धर्म निरूपण-ढंगसे सादृश्यता रखता १ तत्वार्थ सूत्र भ० ५. २ दी प्रिन्सिल्स आफ जैनीज्म पृ० ४
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१२६]
[ भगवान महावीर है, किन्तु इतनेपर भी वह भ० महावीरके ढंगके समान नहीं है। वह अनात्मवाद पर अवलवित है और स्वयं अपरिपूर्ण है, परन्तु भगवान महावीरने उसी सनातन धर्मका प्रतिपादन किया था; निसको उनके पूर्वगामी तीर्थङ्करोने वस्तुस्थितिके अनुरूपमें बतलाया था, और जिसमें आत्माकी मान्यता सर्वाभिमुख थी। सर्वज्ञ तीर्थकरद्वारा प्रतिपादित हुआ धर्म किसी दृष्टिमें भी अपरिपूर्ण नहीं होता। यही दशा भगवान महावीरके धर्मके विषयमें है। __म० बुद्धने अपने सैद्धान्तिक विवेचनमें 'सावार' मुख्य बतलाये थे, किन्तु इनका भी एक स्पष्टरूप नही मिलता है । तो भी इतना स्पष्ट है कि जैन सिद्धान्तमें यह कहीं नहीं मिलते है। अतएव यह वस्तुत सांख्यदर्शनके 'संस्कार' सिद्धान्तके रुपान्तर ही है और प्रायः वहींसे लिये गये प्रतीत होते हैं | इन साखारोकी उत्पत्ति म० बुद्धने चार वातोकी अज्ञानतापर अवलम्बित बताई है, अर्थात् दुख, उसके मूल, उसके नाश और उसके मार्गकी अजानकारी ही सखारोकी जन्मदात्री है। यह 'संखार' मुख्यतः मन, वचन, कायरूपमें विभाजित है। यदि एक भिक्षु यह निदान वाधे कि मै मृत्यु उपरान्त अमुक कुलमें उत्पन्न होऊं तो वह अपने इस तरहके बाधे हुये संखारके कारण अवश्य ही उस कुलमें जन्म लेगा। किन्तु डॉ० कीथसाहब इस मतसे सहमत नहीं है। वे कहते है कि दूसरा जन्म देवल मानसिक निदानके बल नही हो सक्ता । यह सिद्धान्त स्वयं चौद्ध शास्त्रोंके कथनसे बिलग पड़ता है। बौद्धशास्त्रोसे यह ज्ञात है कि जब शरीर विद्यमान होता है तव ही शारीरिक या कायिक संखार बांधा जा सका है। इस
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-और म०.बुद्ध
[१२१ लिये आगामी के लिये संखार बांधना मुश्किल है । तिसपर यह बात मी ध्यानमें रखनेकी है कि बुद्धने जिन पांच स्खण्डों या स्कंधोका समुदाय व्यक्ति बतलाया है उनमें एक खण्ड संखार भी है। इस अवस्थामे संखारका भाव अलग निदान बांधनेका नही हो सक्ता । इसीलिये डॉ. कीथसाहब भावो (Dispositions) को ही संखार बतलाते हैं: जो सांख्यदर्शनके 'सस्कार के समान ही है, जिनका व्यवहार वहां पर पहिले विचारों और कार्योद्वारा छोड़े गये संस्कारों (Impressions) के प्रभाव फलके रूपमें हुआ हैं ।' म० बुद्धके बताये हुये जाहिरा कार्य-कारण लड़ीमें इन संखारोकी मुख्यता इसीरूपमें मौजूद है । इन्ही संखारोकी प्रधानताको लक्ष्य करते हुये म० बुद्धने अपनी कार्य-कारण लडीका निरूपण इस तरह किया है:
"अज्ञानसे संस्कारकी उत्पत्ति होती है। इससे विज्ञान (Apprehension) की; जिससे नाम और भौतिक देह उत्पन्न होती फिर नाम और भौतिक देहसे षट्-क्षेत्रकी सृष्टि होती है, जो इन्द्रियों और विषयोको जन्म देती है । इन इन्द्रियो और उनके विषयोंके आपसी सघर्पसे वेदना उत्पन्न होती है । वेदनासे तृष्णा होती है, जिससे उपादान पैदा होता है, जो भवका कारण है। भवसे जन्म होता है। जन्मसे बुढ़ापा, मरण, दुख, अनुसोचन + (Rmo 1st) यातना, उद्वेग और नैरास्य उत्पन्न होते हैं । इस तरह दुखका साम्राज्य बढ़ता है।"
१ इय विवरणके लिए डॉ. कीथसा की "बुद्धिस्ट फिलासफो* नाम पुन: (पृष्ठ ५०-५1) देखना चाहिए ।
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१२८]
[ भगवान महावीरइस विवरणसे हमें म० बुद्धका संसार प्रवाह जाहिरा कार्यकारणके सिद्धान्त पर अवलंबित नजर आता है। इसी कारणउसके अनुसार भी संसारमें सनातन और अविच्छन्न प्रवाह मिलते हैं। इस अवस्थामें यह जैनसिद्धांतमें स्वीकृत जन्म-मरण सिद्धान्त (Transmigration Theory) का रूपान्तर ही है । इनमें जो भेद है वह यही है कि बौद्धोंके अनुसार प्रारंभमें सर्व कुछ (Form and mode) अज्ञान ही था। जैनसिद्धान्तमें ससारपरिभ्रमण सिद्धान्तका प्रारंभ माना ही नहीं गया है । वह वहां अनादिनिधन है । इसतरह बुद्धका संसारप्रवाह मूलसे ही जैनसिद्धान्तके विरुद्ध है
म. वुद्धके उक्त विवरणमें यदि हम यह जाननेकी कोशिश करें कि जन्म किसका होता है, तो हमें निराशा ही हाथ आयगी; क्योकि आत्माका अस्तित्व म० बुद्धने स्वीकार ही नही किया था। यद्यपि इस विषयमे लोगोंको अपनी मर्जी के मुताबिक श्रद्धान बांधनेकी भी छुट्टी म बुद्धने देदीथी, जिससे बौद्ध शास्त्रों में भी आत्मबादकी झलक कही २ दिखाई पड जाती है, परन्तु उन्होने स्वयं अनात्मवादको ही प्रधानता दी थी। अभिधर्मका निरूपण करते हुये बुद्धने यही कहा था कि 'न कोई आत्मा है, न पुद्गल है, न सत्व है और न जीव है। यहा केवल ब्राह्मण सिद्धान्तमें माने हुये आत्माका ही खण्डन नहीं है, बल्कि उस सिद्धांतका भी जो शरीरसे भिन्न एक जीवितपदार्थमानकर संसारपरिभ्रमणकी घोषणा करता है। उनके अनुसार मनुप्य पांच स्कन्धोंका समुदाय है, अर्थात रूप
१ धम्मपद (S. B. E) और थेरथेरी गांधा देखो.
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- और म० बुद्ध ]
[ १२९
(Material element ), संज्ञा, वेदना, संस्कार और विज्ञान । मनुष्यका वर्णन उसके उन भागोके वर्णन में किया गया है जिनसे वह बना है और उसकी समानता एक रथसे की है जो विविध अवयवोंका बना हुआ है और स्वयं उसका व्यक्तित्व कुछ नहीं है ।'' ।'' यह मानता वुद्धके उपरान्त उनकी हीनयान सम्प्रदायको अब भी मान्य है; किंतु महायान सम्प्रदाय इससे अगाडी बढकर पदार्थोंके अस्तित्वसे ही इन्कार करती है। उसके निकट सब शून्य है, यह उपरान्तका सुधार है । म० बुद्धके निकट तो अनित्यवाद ही मान्य था । इस अवस्थामें इस प्रश्नका संतोषजनक उत्तर पाना कठिन है कि जन्म किसका होता है ?
3
म० बुद्धने प्रायः इस प्रश्नको अधूरा ही छोड दिया है । परन्तु जो कुछ उनने कहा है उसका भाव यही है कि एक व्यक्ति जन्म लेता है और यह व्यक्ति केवल पांच वस्तुओं का समुदाय है जिनको हम देख चुके । इससे यह व्यक्ति कोई सनातन नित्य पदार्थ नही माना जासक्ता । सत्ता तो वह है ही नहीं । जिस प्रकार सब अवयवोके पहिलेसे मौजूद रहनेके कारण शब्द ' रथ ' कहा जाता है वैसे ही जब उपरोल्लिखित पाच वस्तुयें एकत्रित हुई तब बुद्धने 'व्यक्ति' शब्दका उच्चारण किया । यह बौद्धोंकी मान्यता है ! और इससे हमारा प्रश्न हल नही होता, क्योकि जिन पांच स्कन्धोका समुदाय व्यक्ति बताया गया है वह उस व्यक्तिके साथ ही खतम हो जाते हैं ! अस्तु,
1
१ इन्साइकोपेडिया आफ रिलीजन एण्ड इथिक्स भाग ९ पृ. ८४७. २ कान्फ्लुयेन्स आफ ओपोजिट्स पृ० १४७. ३ मिलिन्दपन्ह २1१1२.
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१३.]
[भगवान महावीर ___ अगाड़ी इसी कार्य-कारण-लड़ीके अनुसार कहा गया है कि पर्यायावस्था (Becoming) चालू रहती है और वस्तुतः यहां
सिवाय पर्यायान्तरित होनेके कोई व्यक्ति है ही नही।' इस पर्या• यावस्थामे पुरानी और नवीन पर्यायका सम्बन्ध चालू रखनेके लिये,
महानिदान सूत्र में, माताके गर्भमे विज्ञान (Consciousness) का उतरना बतलाया है। डॉ० कीथ इस मतको स्वीकार करते हैं
और कहते हैं कि "इस वक्तव्य-विशेषणसे कि 'विज्ञानका उतराव होता है। ( Descent of the Consciousness ) विज्ञानका पुरानी पर्यायसे नवीनमें जाना बिल्कुल स्पष्ट है। और यह सभव है कि यह विज्ञान किसी प्रकारके शरीर सहित आता हो । म० बुद्ध विज्ञानके चालू रहनेसे विल्कुल सहमत हैं । " इसप्रकार यद्यपि म० बुद्धने एक नित्य सत्तात्मक व्यक्ति का अस्तित्व स्वीकार किये विना ही अपना सिद्धान्त निरूपित करना चाहा और संज्ञा (Consciousness) की उत्पत्ति अपने आप पांच स्कन्धोम होती स्वीकार की, जिस तरह साख्यदर्शन बतलाता है, परन्तु अंततः उनको पर्याय-प्रवाहमें संज्ञा-विज्ञान-Conserousness का चालू रहना मानना ही पड़ा । इस तरह इस निरूपणकी कोजाई साफ जाहिर है । भला विना किसी सत्तात्मक नित्य नीवके सांसारिक पर्यायोका किला कसे वाधा जासक्ता है ? किन्तु इस निरूपणमैं भी जैन सिद्धातकी झिलमिली अलक नजर पड़ रही है । जैनियोंक अनुसार इच्छा ही कर्मवधकी कारण है, जिसका मूल श्रोत कर्मन- १ बुद्धिज्म-इट्स हिस्टरी एन्ड स्टिरेचर पृष्ठ १२४. २ दीपनि। काय २१६३.३, बुद्रिस्ट फिलॉसफी पृष्ट ८०.
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__-और म० बुद्ध ]
[१३२ नित मोहावस्थामें है। इसलिए सत्तात्मक व्यक्ति (जीव)-निसका लक्षण उपयोग संज्ञा है, इस अवस्थामें सांसारिक दुःख और पीडाको भुगतता संसारमें रुलता है। इस संसारपरिभ्रमणमें जब वह एक शरीरसे दूसरे शरीरमें जाता है तो उसके साथ सूक्ष्म कार्माण शरीर भी जाता है, जिसके कारण दूसरे शरीरमें उसका जन्म होता है। म० बुद्धके उक्त विवरणमें हमें इस सिद्धांतके विक्रतरूपमें किञ्चित दर्शन होते हैं।
अब जरा और बढ़कर बौद्धदर्शनमें यह तो देखिये कि वह कौनसी शक्ति है जो 'विज्ञान'को उसका नवीन जन्म देती है ? म० बुद्धने यह शक्ति कर्म वतलाई है। कर्ममें भी 'उपादान' इसके लिये मुख्य कारण है। इस कर्मसम्बंधमें भी डॉ. कीथसाहब हमें विश्वास दिलाते हैं कि 'इस बातपर बौद्धशास्त्र प्रायः स्पष्ट हैं। कर्मका जोर किसी रीतिसे भी टाला नहीं जासक्ता बहानेबाजी
वहां काम नहीं देती। कर्मका दण्ड अवश्य ही सहन करना पड़ेगा __ हां, उस दशामें यह निरर्थक हो जाता है जब ससार-प्रवाहकी
लड़ीको नष्ट करनेका साधन मिल गया हो। यहांपर भविष्यके लिये तो कर्म लागू नहीं हो सक्का, किन्तु गत कर्मोका कार्यमें ले आना आवश्यक है जिससे उनका महत्व ही जाता रहे। अनेक
१. म० बुद्धने भी इच्छाको-तृष्णाको दुःखका कारण बतलाया है, परन्तु उसके भावको दोनों स्थानोंपर दूसरी तरह ग्रहण किया गया है, यह प्रकट है। तथापि बुद्धने इन्द्रियोंकी संख्या, नाम और उनका विषय ठीक जैनधर्मके अनुसार बतलाया है। मनकी व्याख्या जो उनने की है वह भी सामान्यत. जैनधर्मकी व्याख्यासे मिलती जुलती है । इसके लिये तत्वार्थसूत्र अ० २ देखना चाहिये।
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१३२]
[ भगवान महावीरहत्यायोंके अपराधीकी छुट्टी इस अवस्थामें थोड़ेसे मुक्कोंके खानेमें ही हो जाती है। इससे स्पष्ट है कि गत संस्कारों और विज्ञान (Consciousness)का दूसरे भवमे चला आना अवश्यंभावी है। ____ इस तरह जितने भी अज्ञानीव्यक्ति तृष्णाके आधीन हुये उसको तृप्त करनेकी कोशिश करते रहते है, उनके विषयमें बुद्ध कहते हैं, कि वे संसारमें फंसे रहते है, और अपने कृतकर्मोके फल अनुरूप नवीन व्यक्तित्वको जन्म देते हैं। यह कर्मशक्ति किस तरह अपना कार्य करती है, अभाग्यवश यह हमको नहीं बताया गया है। यह भी बुद्धकी 'अनिश्चित बातों मेसे एक है । म० बुद्ध कर्मकी कार्यशक्ति तो मानते है, परन्तु वह यह नहीं बतलाते कि वह किस तरह कार्य करती है। यही कारण है कि स्वयं बौद्धग्रन्थोंमें इस विषयपर पूर्वापर विरोधित मत मिलते है । जरा 'मिलिन्द-पन्ह'को ले लीजिए। एक स्थानपर इसमें केवल कर्मको ही दुःख व पीडाका कारण नहीं बतलाया है बल्कि पित-श्लेष्म आदिके आधिक्यरूप आठ कारण और बतलाये है, और कहा है कि जो कर्मको ही सब पीडाओंका मूल बतलाते है वे झूठे है। किन्तु इसी ग्रन्थमें अन्यत्र कर्मके प्रभावको ही सर्वोपरि स्वीकार किया है। कहा है कि यह कर्म ही है जो शेष सब बातोपर अधिकार जमाये हुये है। उसीकी तूती सर्वथा वोलती है। इस तरह बौद्ध धर्ममें कर्मसिद्धान्तका निरूपण भी पूर्णरूपमे नही मिलता है। इस कमताईका दोष म०
१. यहा जैनधर्मके वर्म संक्रमण, अतिक्मणका दृश्य है ।२. बुद्धिस्ट फिलॉसफी पृष्ठ १०२. ३. कथ्स 'बुद्धिस्ट फिलॉसफी' पृष्ठ १०९ १. मिलिन्द-पन्ह ४ २. ५. मि. प. ४४१३,
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• -और म० बुद्ध]
[१६३ बुद्धपर आरोपित नहीं किया जासक्ता, क्योकि उन्होंने पहिले ही सैद्धांतिक वातावरणमें आनेसे इन्कार कर दिया था। वे थे तत्कालीन परिस्थितिके सुधारक और सुधारक भी माध्यमिक कोटिके ! इसलिये उनका सैद्धांतिक विवेचन पूर्णताको लिये हुये न हो तो कोई आश्चर्य नहीं! वौद्धधर्मका सैद्धांतिक विकास बहुत करके म० बुद्धके उपरान्तका कार्य है।
किन्तु इतनेपर भी यह स्पष्ट है कि म० बुद्धके अनुसार भी संसार एक सनातन प्रवाह है, जिसका प्रारम्भ और अन्त अनंतके गर्तमें है । तथापि वह असत्तात्मक ( Unsubstantial ) और कर्मके आश्रित हैं । कर्म स्वयं किसी मनुष्यका नैतिक कार्य नहीं बतलाया गया है, परन्तु वह एक सार्वभौमिक सिद्धान्त माना गया है। उसे किसी बाह्य हस्तक्षेपकी जरूरत नहीं है जो उसका फल प्रदान करे । कर्म स्वयं स्वाधीन है, इसलिये बुद्धके निकट भी एक जगत नियंत्रक ईश्वरकी मानताको आदर प्राप्त नहीं है।
इस प्रकार सामान्यतः भगवान महावीर और म० बुद्धका कर्म सिद्धान्त विवरण भी किंचित बाह्य सादृश्यता रखता है। कर्मका स्वभाव और प्रभाव दोनों ओर एकसाही माना गया है। किन्तु यह एकता केवल शब्दोमें ही है। मूलमें दोनोंमें आकाश पातालका अन्तर हैं। भ० महावीरके अनुसार कर्म एक सूक्ष्म सत्तामय पौगलिक पदार्थ है; जो संसारी जीवके बन्धनका कारण है। म० वुद्धके निकट
वह असत्तात्मक (Unsubstantial) नियम है। विद्वानोंने परि__णामतः खोन करके यह प्रगट किया है कि म० बुद्धने कर्मसिद्धांट
तकी बहुतसी बातोंको जैनधर्मसे गृहण किया था। माधव, संवर
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[ भगवान महावारगब्द, जो बौद्ध धर्ममें शब्दार्थमें व्यवहृत नहीं होते, मूलमें जैन धर्मके हैं।' अस्तु।
दूसरी ओर म० बुद्धके उपदेशके विपरीत भगवान महावीरका सिद्धान्त विवेचन आत्मवादपर आश्रित था। आत्मा उसमें मुख्य मानी गई थी, जैसे हम देखचुके है। भगवानने कहा था कि अनन्तकालसे आत्माका पुद्गलसे सम्बंध है। यद्यपि यह आत्मा -अपने स्वभावमें अनंतदर्शन, अनतज्ञान, अनंतवीर्य और अनंतसुख कर पूर्ण स्वाधीन है, किन्तु इसके उक्त सम्बन्धने इसके असली रूपको मलिन कर दिया है । इसी मलिनताके कारण वह ससारमें अनादिकालसे परिभ्रमण कररही है। इस तरह जो आत्मायें संसार परिभ्रमणमें फंसी हुई है, वे घोर यातनायें और पीड़ायें सहन करती है। उनका यह पौद्भलिक सम्बन्ध उनमे इन्द्रियजनित इच्छाओ
और वाञ्छाओंकी ऐसी जबरदस्त तृष्णा उत्पन्न करता है कि वह दिनरात उसीमें जला करती हैं। उनके साथ इस परिभ्रमणमे एक कार्माणशरीर लगा रहता है, जो पुण्यमई और पापमई कर्मवर्गणाओंका बना हुआ है। इस कार्माण-शरीरमें मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिके अनुसार प्रत्येक क्षण नवीन कर्मवर्गणायें आती रहती हैं और साथ ही पुरानी झडती रहती है। ये कर्मवर्गणायें जो आत्मामें आनवित होती हैं वे किसी नियत कालके लिए ही आत्मासे सम्बन्धित होती है । ज्यों ही आत्माको वस्तुस्थितिका भान होता है और उसे भेद विज्ञानकी प्राप्ति होती है, त्यो ही वह सांसारिक कार्यों और झूठे मोहसे ममत्व त्याग देती है। इस दशामें वह आत्म-ध्यान
१. इन्साइक्लोपडिया ऑफ रिलीजन एण्ड इपिक्स भाग पृष्ठ ४.२.
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-और म० बुद्ध ]
[१३५ और तप-उपवासका आश्रय लेती है, जिसके सहारे क्रमश आत्मोन्नति करते हुये वह एक रोज कर्मबन्धनोसे पूर्णतः मुक्त हो जाती है । भगवद कुन्दकुन्दाचार्य यही बतलाते हैं."जीवा पुग्गलकाया अण्णोण्णागाढगहणपडिबद्धा। काले विजुज्जमाणा मुहदुक्खं दिन्ति भुञ्जन्ति ॥६७॥"
भावार्थ-आत्मा और कर्मपुद्गल दोनो एक दूसरेसे बारबार सम्बन्धित होते है, किन्तु उचितकालमें वे अलग २ होजाते हैं। वही दुख और सुखको उत्पन्न करते हैं जिनका अनुभव आत्माको करना पडता है।
इस प्रकार मुख्यतः कर्म ही सर्व सांसारिक कार्योका मूल कारण है । जो कुछ एक संसारी आत्मा बोता है, वही वह भोगता है।
और जब कि यह कर्मवद्ध आत्मा ही शेष पाच द्रव्योंके साथ कार्य कर रहा है, तब संसारकी सब क्रियायें इसी कर्मपर अवलम्बित हैं। इस कर्मका प्रभाव सारे लोकमें व्याप्त है और संसारप्रवाह भी इस हीके बलपर चालू है। इसका फल भी अटल है । कभी जाहिराहमें भले ही उसका फल कार्य करता नजर न आता हो, परन्तु तो भी सामान्यतया कर्म निष्फल नहीं जा सकता । संसारमें हम एक पापीको फूलता फलता अवश्य देखते है और एक पुण्यात्माको दुःख उठाते, किन्तु इससे भी यह स्वीकार नहीं किया जा सका कि पापकर्मीका फल पापीको और पुण्यकर्मीका फल पुण्यात्माको नही मिलेगा। जैनाचार्य कहते हैं:
"याहिंसावतोऽपि समृद्धिः अर्हत पूजावतोऽपि दारिद्याप्तिः साऽक्रमेण मागुपात्तस्य पापानुबन्धिनः पुण्यस्य पुण्वानुवन्धिनः
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१३६]
[ भगवान महावीरपापस्य च फलम्। तत् क्रियोपात्तं तु कर्मजन्मान्तरेफलिष्यतीति नात्र नियतकार्यकारेण व्यभिचारमा"
भावार्थ-पापी मनुष्यकी अभिवृद्धि और अर्हतपूजारत पुण्यात्माकी दयाननक स्थिति उन दोनोके पूर्वसंचित कर्मोका फल समझना चाहिये। उनके इस जन्मके पाप और पुण्य दूसरे भवमे अपना फल दिखावेंगे, इसलिये कर्म नियम किसी तरह बाधित नहीं है। ___ सचमुच भगवान महावीर सर्वज्ञ थे-साक्षात् परमात्मा थेइसलिये उनका उपदेश वैज्ञानिक और व्यवस्थित होना ही चाहिये। इस हीके अनुरूपमे जैनशास्त्रों जैसे-गोम्मटसार, पञ्चास्तिकायसार आदिमें कर्मसिद्धान्तका पूर्ण और वैज्ञानिक विवेचन ओतप्रोत भरा हुआ है । उसका सामान्य दिग्दर्शन कराना भी यहां मुश्किल है। तो भी यह स्पष्ट है कि कर्मसिद्धांतके अस्तित्व और उसकी क्रियासे इन्कार नहीं किया जासक्ता । कार्य-कारण सिद्धातका प्राकृतिक नियम है, इस विषयमें इतना ध्यान अवश्य रखना चाहिये कि आत्मा स्वयं अपने स्वभावमें ही क्रिया करता है और वह अपने आप अपने भावका कारण है । वह कर्मकी विविध अवस्थाओका मूल कारण नहीं है, इसी तरह कर्म भी स्वयं अपनी पर्यायोका कारण है । वह स्वयं अपने आपमें क्रियाशील है। श्री नेमिचन्द्राचार्यजी उनके पारस्परिक सम्बन्धको स्पष्ट प्रगट कर देते है - पुग्गलकम्मादीण कत्ता ववहारदो दुणिञ्चयदो। चेदणकम्माणादा मुद्धणया सुद्धभावाणम् ॥ ८॥ द्रव्यसंग्रह ॥
भावार्थ-व्यवहारनयकी अपेक्षा आत्मा कर्मकी पर्यायोंका कारण है; अशुद्ध निश्चयनयसे आत्मा स्वयं अपने उपयोगमयी
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[१३७
भावोंका कारण है और शुद्ध निश्चयनयसे वह पवित्र स्वाभाविक दशाका कारण है।
इसप्रकार उक्त विवेचनसे यह स्पष्ट है कि संसार अवस्थामें भटकती हुई आत्मा अपनी खाभाविक अवस्थाके गुणोंका उपभोग करने में असमर्थ है। इसकी अशुद्ध अवस्थामें राग, द्वेष आदि जैसे विभाव उत्पन्न होते रहते हैं, जो इसके सांसारिक बन्धनको और भी बढ़ाते हैं । भगवद् कुन्दकुन्दाचार्य यही बतलाते हैं:'भावनिमित्तो वन्धो भावोरदि रागद्वेषमोहजुदो।'
अर्थात-वन्ध भावके आधीन है जो रति, राग, द्वेष और मोहकर संयुक्त है । अतएव इस लोकमें भरी हुई कर्मवर्गणाओंको जो आत्माकी ओर आकर्षित करते हैं वह भाव हैं, अर्थात् मिथ्यादर्शन, अवरति, प्रमाद, कषाय और मन, वचन, कायरूप योग। यही भाव कर्मबद्ध आत्माको शुभ और अशुभ क्रियाओंके अनुसार पाप और पुण्यमय कर्माश्रवके कारण हैं । इस तरहपर कर्म मुख्यता दो प्रकारका है:-(१) भावकर्म (२) और द्रव्यकर्म । आत्मामें उदय होनेवाले भाव भावकम हैं और जो कर्मवर्गणायें उसमें आश्रवित होती हैं वह द्रव्यकर्म हैं। यह कर्मोका आगमन 'आश्रव' कहलाता है। यह जैनसिद्धान्तमें स्वीकृत सात तत्वोमें तीसरा तत्व है । जीव और अजीव प्रथम दो तत्व है।
इस सैद्धान्तिक विवेचनमें जिस प्रकार उक्त तीन तत्व प्राकृत १. तत्वार्थसत्र (S. B. J. Vol. II.) पृष्ठ १५५. बौद्धोके मज्झिमनिकाय (P. T. S. Vol. I. P. 372) में भी जैनियोके इस योगका उल्लेख है।
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१३८]
[ भगवान महावीर
आवश्यक है, उसी तरह शेषके तत्व है । इनमें चौथा तत्व बंध हैं। यह आश्रवित कर्मको आत्मासे एक कालके लिये सम्बन्धित करानेके लिये आवश्यक ही है । इसका कार्य यही है।' इसका कार्य यही है, परन्तु इस बंधकी अवधि उससमयके कषायोंकी तीव्रतापर अवलम्बित है; जिससमय कर्माश्रव होरहा हो । इस अवधिमे संचित कर्म अपना शुभाशुभ फल देता है और पूर्ण फलको देनेपर आत्मासे अलग होजाता है।
यहांतक तो कर्मोंके संचय और उनके प्रभावका दिग्दर्शन किया गया है, किन्तु पांचवें तत्वसे इस कर्म से छुटकारा पानेका भाव शुरू होता है । यह तत्व संवर है । कर्मोंसे छुटकारा पानेके लिये उस नलीका मुख बन्द करना आवश्यक है जिसमेंसे कर्माश्रव होता है। यह प्रतिरोध ही संवर हैं । मन, वचन, कायके योग और उनके आधीन इन्द्रियजनित विषयवासनाओं पर विजय प्राप्त करना मानो आगामी कर्मों के आगमनका द्वार बंद करना है । फिर इस अवस्थामें केवल यही शेष रह जाता है कि जो कर्म सत्तामें हो उनको निकाल दिया जावे। यह निकालना छट्टा तत्व निर्जरा है और इसके द्वारा कमको नियत समयसे पहिले ही झाड देना है । यह संयम और तपश्चरणके अभ्यास से होता है । अन्ततः कर्मोंसे पूर्ण छुटकारा पाना सातवां तत्व मोक्ष है । मुक्त हुई आत्मा लोककी शिखिरपर स्थित सिद्धशिलामें पहुंचकर हमेशा के लिये अपने स्वभावका भोक्ता बन जाती है। उस दशामें वह अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य और अनन्त सुखका उपभोग करती है । इसप्रकार यह प्राकृतिक सिद्ध सात तत्व है और इनमें किसी प्रकारकी कमीवेशी करनेकी
१. त० सू० पृष्ठ १५७... २. त० सू० पृष्ठ १७५.
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-और म० बुद्ध
[ १३९ गुञ्जाइश नहीं है । इसलिये आज भी हमको यह उसी रूपमें मिलते है जिस रूपमें भगवान महावीरने ढाई हजार वर्ष पहिले पुन बतलाये थे । इन्हीं तत्वोंमें पुण्य और पाप मिलानेसे नौ पदार्थ होजाते हैं। अस्तुः ____ अब जरा पाठकगण, इन कर्मके भेटोपर भी एक दृष्टि डाल लीजिये, जो संसारप्रवाहमें इतना मुख्य स्थान गृहण किये हुये है। भगवान महावीरने सामान्यतः यह आठ प्रकारका वतलाया था; यथा---
(१) ज्ञानावर्णीय-ज्ञानको आवरण (ढकने) करनेवाला कर्म । (२) दर्शनावर्णीय-देखनेकी शक्तिमे बाधा डालनेवाला कर्म। (३) मोहनीय-वह कर्म जो आत्माके सम्यक् श्रद्धान और
आचरणमें बाधक है। (४) अन्तराय-,,, , की स्वतंत्रतामे वाधक है। (६) वेदनीय-,,, सुख-दुःखका अनुभव कराता है। (६) नाम- ,, , , संसारकी विविध गतियोंमें लेजाने
का कारण है, जैसे देव,मनुष्यादि। (७) गोत्र- "" , उच्च-नीच कुलमें जन्म लेनेका
कारण है। (८) आयु- ,,, ,, एक नियत काल तक एक
गतिमें रखता है। यह आठ प्रकारके कर्म पुनः अतभेदोमें विभाजित है, जो कुल १४८ कर्मप्रतियां कहलाती हैं। जिस प्रकृतिका जिस समय उदय होगा उस समय आत्माकी अवस्था वैसी ही हो जावेगी।
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१४०]
[भगवान महावीरइसकी सूक्ष्मता यहा तक व्याप्त है कि जीवित प्राणीके गरीरकी हड्डियोंको रचनेवाला एक अस्थि-नाम-कर्म है । कोई दशा और कोई अवस्था कर्मप्रभावके अतिरिक्त कुछ नहीं है और जब यह कर्म स्वयं प्राणीके मन, वचन, कायकी क्रियाओंके अनुसार सत्तामें आता है, तब यह इस प्राणीके आधीन है वह चाहे जिस प्रकारके कर्मको अपनेमें संचय करे अथवा उसको विल्कुल ही आश्रवित न होने देनेका उपाय करे ! मतलब यह कि मनुष्यका भविष्य स्वयं उसकी मुट्ठीमें है । भगवान महावीरके बताये हुये कर्मवादका पारगामी विल्कुल स्वावलम्बी और स्वाधीन होता ही नजर आयगा। परावलम्बिता और पराश्रिताको यहा स्थान प्राप्त नहीं है। वादका पूर्ण दिग्ददर्शन गोम्मटसारादिजैन ग्रंथोंसे करना आवश्यक है।
अब यह तो जान लिया कि इस अनादिनिधन लोकमें कर्मजनित परस्थितिमें अनन्त आत्माएं अपने स्वभावको गंवायें भटक रहीं है; परन्तु इस भटकनका भी कोई क्रम है या नहीं ? भगवान महावीरने इसका भी एक क्रम हमको बतलाया है। यह क्रम जीवनके विविध रूप नियत करता है । जैन धर्ममें इनका उल्लेख 'गति' के नामसे किया गया है और ये चार प्रकार है-(१) देवगति, (२) मनुष्यगति, (३) तिर्यंचगति और (४) नर्कगति । देवगतिमें आत्मा स्वर्गों में जन्म लेता है, जहां विशेष ऐश्वर्य और सुखका उपभोग वह करता है, किन्तु यहां भी वह दुःख और पीड़ासे बिल्कुल मुक्त नहीं है। दूसरी गति मनुष्यभव है और इसके भाग्यमें सुख और दुःख दोनों ही बदे हैं; तिसपर उसमें दुःखकी मात्रा ही अधिक है । तीसरी तिर्यञ्चगतिमें पशु, पक्षी, कीड़े, मकोड़े, वृक्ष,
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-और म० बुद्ध
[१४१ लता, अग्नि, जल, वायु आदि जीवन-भवगर्भित हैं । इस गतिमें आत्माको और अधिक दुःख और पीड़ा भुगतनी पडती है। अंतिम नर्कगति नर्कका वास है। यहां घोर दुःख और असह्य पीड़ायें सहन करनी पड़ती हैं। इन चारकी भी अन्तर्दशायें है; परन्तु इन सबका लक्षण जीना और मरना ही है । इन गतियोंमेंसे आत्मा किसी मी गतिमें नावे उसके शुभाशुभ कर्म अपने आप उसके साथ जावेंगे। इसलिये किसी भवमें भी उपार्नन किया हुआ पुण्य अकारथ नहीं जाता है । इनमेंसे स्वर्ग और नर्ककी वासी आत्मायें अपने आयुके पुरे दिनोका उपभोग करती है-इनकी अकाल मृत्यु नही होती, परन्तु शेप दो गतियोंके जीव अपनी आयुके पूर्ण होनेके पहिले भी मरण कर जाते हैं। नरकगतिमें शरीरके टुकडे २ भी कर दिये जाय, परन्तु वह नष्ट नहीं होती। पारेकी तरह वह अलग होकर भी जुड़ जाता है । तिर्यञ्चगतिमे दो प्रकारके जीव हैं:-(१) समनस्क अर्थात् मनवाले और (२) अमनस्क अर्थात् विना मनवाले जीव । यह फिर स्थावर-जो चल फिर न सकें और त्रस-जो चल फिर सकें के रूपसे दो प्रकार हैं । जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी, वनस्पति आदिके रूपकी आत्मायें स्थावर है । वे एक इन्द्री रखते हैं और भय लगने पर भी भाग नही सक्ते हैं । और त्रस पशु, पक्षी आदि हैं। मनुप्य मुख्यतः आर्य और म्लेच्छ दो भेदोमें विभाजित हैं।
प्रत्येक संसारी आत्माके उसकी गतिके अनुसार एक प्रकारके
१. बौनोंके शखोंमें भी नियोंकी इस मान्यताका उल्लेख है :सुमहालाविलासिनी पृष्ठ १६८ और मिलिन्दपन्ह ४६५४. २. वौद्धधर्ममें भी यही दशा नारकियोंकी मानी है, देखो-'दी हेवन एण्ड हेल इन बुद्धिस्ट परस्पेक्टिव' पृष्ठ १०२.
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१४२]
[भगवान महावार
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प्राण भी हैं। यह प्राण संसारी आत्माके शरीर द्वारा प्रगट हुए उपयोगका एक रूप है। ये कुल दस हैं। (१) पांच इन्द्रियां (स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु, श्रोत्र); (६) मनशक्ति, (७) वचन शक्ति, (८) कायशक्ति, (९) आयु और (१०) श्वासोश्वास । इन प्राणोके अनुसार ही आत्मा कर्म संचय कर सक्ती है और कपायोंको रख सक्ती है इसीलिये आत्माओकी छे लेश्यायें ( Thought Colours) बताई है। इनसे आत्माके कषायोंकी तीव्रता ज्ञात होती है। यह मक्खेंलि गोशालके छै अभिजाति सिद्धान्तके समान नहीं है । उसके अनुसार तो मनुष्य आत्मायें ही छै प्रकारको ठहरती है, परन्तु जैनसिद्धान्तमें सब आत्मायें अपने असली रूपमें 'एक समान बताई गई हैं।
म० बुद्धने भी 'व्यक्ति' के छै प्रकारके जीवन बताये हैं और यह संभवत स्वर्ग, नर्क, मनुष्य, पशुपक्षी, प्रेत और असुर रूप हैं। जल, अग्नि, वायु और पृथ्वीमें बुद्धने जीव स्वीकार नहीं किया है यद्यपि वनस्पतिमें जीव स्वीकार किया गया प्रतीत होता है। परंतु इनमेसे किसीका भी पूर्ण मार्मिक विवरण हमे बौद्ध धर्ममे सामान्यतः नही मिलता है। इतना ज्ञात है कि पुण्य पापमें कर्म नो अज्ञानताके कारण किये जाते है उनसे इन जीवनोमें व्यक्तिका सद्भाव होता है।
यह जानने का प्रयत्न करने पर कि यह जीवनक्रम लोकमे किस तरह पर अवस्थित है, म० वुद्ध बतलाते है कि इस लोकमें अगणित ससार क्षेत्र है, जिनके अपने २ स्वर्ग और नर्क है।
1.हे. ए० हे० पृष्ठ ९२. २ मिलिन्द ४।३७. 3. है. ए० हे. पृष्ठ १३.
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-और म०, बुद्ध.]
[१४३ ___ जहांतक एक सूर्य अथवा चन्द्रमाका प्रकाश पहुंचता है वहांतकका प्रदेश एक 'सक्कल' कहलाता है । प्रत्येक सक्कलमें पृथ्वी, खण्ड, प्रान्त, द्वीप, समुद्र, पर्वत आदि होते हैं और उसके मध्यमें 'महामेरु' पर्वत होता है। प्रत्येक सक्कलका आधार 'अनताकाश' है। जिसके ऊपर 'वापोलोव' अर्थात् वायुपटल ९६० योजन मोटा है। वापोलोवके बाद नलपोलोव है जो ४८०,००० योजन मोटाईका है। ठीक इसके ऊपर महापोलोव अर्थात् पृथ्वी है जो २४०,००० योजन मोटी है। इस तरह प्रत्येक सक्कल अर्थात क्षेत्रको म० बुद्धने तीन प्रकारके पटलोंसे वेष्टित वतलाया था। यहां भी जैनसिद्धांतकी सादृश्यता दृष्टव्य है । अगाडी पाठक देखेंगे कि जैनसिद्धान्तमें भी लोकको तीन वलयोसे वेष्टित किस तरह बतलाया गया है। महामेरु जैनधर्मका सुमेरु पर्वत प्रतीत होता है। वौद्ध इसे १६८००० योजन ऊंचा और इसके शिखिर पर 'तबुतिश' नामक देवलोक बतलाते है । जैनियोका सुमेरुपर्वत एक लाख योजन ऊंचा है और उसकी शिखिरके किञ्चित अन्तरसे स्वर्ग लोकके विमान प्रारंभ होते बताये गए हैं। इससे एक बाल बराबर अन्तर पर सौधर्म वर्गका विमान है। यहां भी सादृश्यता दृष्टव्य है। उपरान्त पत्येक सक्कल या पृथ्वीमें चार द्वीपकी गणना बौद्धशास्त्रोमें की गई है अर्थात् (१) उत्तर कुरुदिवयिन जो महामेरुकी उत्तर ओर चौकोंने ८००० योजनके विस्तारका है, (२) पूर्व विदेश-जो महामेरुकी पूर्व ओर अर्धचद्राकार ७००० योजन विस्तारका है। (३) अपरगोदान, जो।।
१ Haidy's Manual of Buddhism p. p. 2-3... 2. Ibid.
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१४४.
[ भगवान महावीरमहामेरुकी पश्चिम ओर गोल दर्पणके आकारका ७००० योजनके विस्तारका है; (४) और जम्बूद्वीप जो महामेरुकी दक्षिण ओर त्रिकोन आकारका १०००० योजनके विस्तारका है। जैन विवरण इससे नहीं मिलता है । वहां मध्यलोकमें जम्बूद्वीप आदि अनेक द्वीप समुद्र बताये हैं। इन द्वीपसमुद्रोके ठीक बीचोबीचमें जम्बूद्वीप बतलाया है जो गोल आकारका है और जिसके मध्यमें मनुष्य शरीरमें नाभिकी भांति मेरु पर्वत है । जम्बूद्वीप एक लाख योननके विस्तारका है । उत्तरकुरु और पूर्वविदेह उसमें वे क्षेत्र हैं जहां भोगभूमि है; परन्तु बौद्धोंके अपरगोदान द्वीपका पता कहीं नहीं लगता है । बौद्धोने अपने 'उत्तरकुरुदिवयिन' द्वीपका जो विवरण दिया है उससे स्पष्ट है कि वे भी वहां एक तरहकी भोगभूमि मानते हैं। उनके अनुसार वहाके निवासी चौकोल मुखके है, जो न कभी बीमार होते हैं और न कोई आकस्मिक घटना उनपर घटित होती है । स्त्री पुरुष दोनो ही सदा षोडशवर्शीय सुन्दर अवस्थाको धारण किये रहते हैं। वे कोई कार्य धन्धा भी नही करते है, क्योंकि जो कुछ वे चाहते हैं वह उनको 'कल्पवृक्षो' से मिल जाता है।' यह वृक्ष १०० योजन ऊचे है। वहां माता, पिता, भाई आदिका कोई रिश्ता नही है । स्त्रिये देवोसे भी सुन्दर हैं । वहां वर्षा नही होती जिससे घरोकी भी आवश्यक्ता नहीं है। मनुष्योकी आयु यहां एक हजार वर्षकी है। यह विवरण जैनियोंकी भोगभूमिसे बहुत मिलता जुलता है । यद्यपि वहां भोगभूमियोकी आयु बहुत ज्यादा बतलाई है। इस भेदका कारण यही है कि जैनधर्ममें सख्या परिमाण
१. Ibrd P. 4. २. Iuid P. P. 14-15.
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-और म० बुद्ध]
[१४५ बौद्धोसे बहुत अधिक है । बौद्धोकी उत्कृष्ट संख्या असंख्यात है; जबकि जैनोंकी सख्या इससे बढ़कर अनन्तरूप है । वुद्ध यह मानते हैं कि यह लोकप्रवाह सनातन है, परन्तु वह इस वातको भी जैनियोके साथ २ स्वीकार करते हैं कि उन देशोका नाश और उत्पाद भी होता है, जिनमे मनुष्य रहते हैं। नाशके तरीके वे तीन प्रकार बतलाते हैं अर्थात् सक्वल सातवार तो अग्निसे नष्ट होते हैं, आठवींवार पानीसे और हर ६४वी दफे हवासे । उनमें इस नाशक्रमका व्यवहार कल्पोपर नियत रक्खा है। कहा गया है
कि जिस अन्तराल कालमे मनुष्यकी आयु १० वर्षसे बढ़ते २ __ एक असंख्यकी होजाती है और एक असंख्यसे घटते २ दस
वर्षकी फिर रह जाती है वह बौद्धोंका एक अन्तःकल्प होता है । इन २० अन्तःकल्पोका एक असख्यकल्प होता है और चार असंख्य कल्पका एक महाकल्प होता है । जैनधर्ममें भी क्ल्पकाल माने गये है, परन्तु उनका परिणाम इनसे कहीं अधिक है । जैनियोने दस कोडाकोड़ी व्यवहार सागरोपमकालका एक अवसर्पिणीकाल माना है और वीस कोड़ाकोड़ी व्यवहार सागरोपमकाल-एक उत्सपिणी और एक अवसर्पिणी दोनोंका एक कल्पकाल माना है। तथापि असख्यात उत्सर्पिणी व अवसर्पिणीका एक महाकल्पकाल माना है। इनके विशद विवरणके लिए त्रिलोकसार बृहद जैन . शब्दार्णव आदि ग्रंथ देखना चाहिए । यहां तो मात्र सामान्य दिग्दर्शन कराना ही संभव है । सारांशतः कल्पकालका भेद जैन और बौद्ध मानतामे स्पष्ट है। अगाडी बौद्धशास्त्र एक अन्तःकल्पमें
१. Ibrd P. 7
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१४६]
[ भगवान महावोरआठ युग बतलाते है, जिनमें चार उत्सर्पिणी और चार अर्पणी कहलाते है । उनके उत्सर्पिणीमें हरवातकी वृद्धि होती है-इसलिए वह ऊर्द्धमुख भी कहाती है और अर्पणीमे घटती, इस हेतु वह अधोमुख कही जाती है। यहा भी जैन धर्मका प्रभाव दृष्टव्य है। भगवान महावीरने भी कल्पकालके दो भेद उत्सर्पिणी और अविसर्पिणी बतलाये हैं । इनका प्रभार भी वही बतलाया गया है जो बौद्धोके उत्सर्पिणी और अप्पिणी युगोका बतलाया गया है । सचमुच नाम और भावकी सादृश्यता इस बातकी प्रकट साभी है कि म. बुद्धने अपने कालनिर्णयमें भी अपने प्रारभिक श्रद्धानके धर्मजैनधर्मसे बहुत कुछ लिया था । हा, यहा यह अन्तर वेशक है कि ना म० बुद्धने उत्सर्पिणी और अपिणी दोनोमें प्रत्येक चार २ युग बतलाये है, तब जैनशास्त्रोमे उत्सप्पिणी और अवसप्पिणी अर्थ कल्पोमें प्रत्येकमें छे काल होते लिखे है: अर्थात (१) सुखमा-सुखमा, (२) सुखमा, (३) सुखमा-दुखमा, (४) दुःखमा-सुखमा, (६) दुखमा; और (६) दुखमा-दुखमा । यह क्रम अविसर्टिपणी अर्थकल्पका है। उत्सपिणी अर्धकसमें प्रत्येक पदार्थकी उन्नति होती है, इसलिये उसका पहला काल दुखमादुःखमा है और फिर इसी क्रमसे अन्यकाल समझना चाहिये। बौद्धोने अपने उत्सपिणीके चार युग (१) कलि, (२) हापुर, (३) त्रेता, (४).और कर बतलाये है। एव उनके अपिगीके युगोंका क्रम इनसे बरअक्स है अर्थात् उसमे प्रथम युग कृत है और शेष भी इसी तरह क्रमवार है। इन युगोके नाम ब्राह्मणधर्मके
7. Ibid.
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- और म० बुद्ध ]
[ १४७
समान हैं । इसतरह यह अनुमान किया जासक्ता है कि यहां भी बुद्धने अपनेसे प्राचीन धर्म जैन और ब्राह्मणसे उचित सहायता ग्रहण की थी।
अब पाठकगण, जरा आइए म० बुद्धके बताये हुये लोकप्रलयका भी किञ्चित् दिग्दर्शन करलें । कहा गया है कि एक कल्पके प्रारंभ में वर्षा होती है - इसे 'सम्पत्तिकर - महा-मेघ' कहते हैं । यह उन सर्व व्यक्तियोंके समूहरूप पुण्यके बलसे उत्पन्न होता है, जो ब्रह्मलोकों और बाहिरी सक्कलों में रहते हैं । पहले बूदें ओसकी तरह छोटी २ होतीं हैं, परन्तु वे धीरे २ बढ़ते हुये खजूरके पेड़ इतनी बडी होजातीं हैं । वह सब स्थान जहां पहलेके 'कैललक्ष' लोक अग्निसे नष्ट हो चुके हैं, अब ताजे पानीसे भर जाते हैं । यह ध्यान रहे कि बौद्धजन पहले सातवार अग्निद्वारा मनुष्यलोका नाश होना मानते हैं । इसी तरह इप कल्पनाके प्रारंभ में यहां अग्निद्वारा नाश हुआ था। नष्ट हुये स्थान जहां जलसे भरे कि यह वर्षा बन्द हुई । वर्षाके बन्द होनेपर एक हवा चलती है, जिससे भरा हुआ पानी प्राय सूख जाता है; केवल समुद्रोके लायक ही पानी रह जाता है । इसके दीर्घकाल उपरान्त यहा शेखर (इन्द्र) का महल प्रकट होता है, जो सर्व प्रथम रचना होती है । महलके बाद नीचे ब्रह्मलोक और देवलोककी सृष्टि होजाती है । इन्द्र इसी समय आकर कमलपुष्पों को देखते है । यदि कमलपुष्प हुये तो जान लिया जाता है कि इस कलमें बुद्ध होगे । बुद्धोंके वस्त्र, कमण्डल आदे भी यहीं उत्पन्न होनाने हैं । इन्द्र पृथ्वीका अंधकार मेटकर इन वस्त्रादिको उठा ले जाता है । पहले लोकके नाश
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१४८]
[ भगवान महावीरहोते समय यहाके पुण्यात्मा जीव अभस्सर ब्रह्मलोकमें जन्म ले लेते है । वही यहां फिर बसते हैं। उनका जन्म छायारूप (Appatitional) होता है । इसलिये उनके शरीरमें देवलोकके कतिपय लक्षण यहां भी शेष रह जाते है । उन्हें भोजनकी आवश्यक्ता प्रायः नहीं पडती, वे आकाशमे उड सक्ते है। उनके शरीरकी प्रभा इतनी विशद होती है कि उस समय सूर्य और चंद्रमाकी आवश्यक्ता ही नहीं होती है । इस हेतु वहा ऋतुयें भी नहीं होती है । और न दिनरातका भेद होता है । तथापि उन लोगोमें लिङ्गभेद भी नहीं बतलाया गया है। कई युगो तक यह ब्रह्मलोकके वासी आनन्दसे इसीतरह यहाँ रहते है। उपरान्त पृथ्वीपर एक ऐसा पदार्थ उगता दिखाई पड़ता है जैसे दूधपर मलाई पड़ती है। एक ब्रह्म उसे उठाकर चाट लेता है । इसके स्वादकी चाट सबको पड़ जाती है और यह अधिक २ खाया जाता है । बस इसहीके बदौलत यह ब्रह्मलोग अपनी विशुद्धता गंवा देते है; जिससे इनके शरीरकी प्रभा मन्द पड़ जाती है। इसपर सूर्य-चन्द्र आदि प्रकाश देनेवाले पदार्थोंका प्रादुर्भाव होता है। इनकी उत्पत्ति भी वे मिलकर अपने पुण्यवलके प्रभावसे कर लेते है । वौद्ध धर्ममें नाश और उत्पत्ति व्यक्तियोके पाप और पुण्यवलके कारण होते वतलाये गये है । इसतरह सूर्य-चन्द्रद्वारा किये गये दिन रातके भेदमें रहते हुए और पृथ्वीका पदार्थ खाते हुये इन लोगोके शरीरोंकी त्वचा कड़ी पड़ जाती है, जिससे किसीका रंग काला और किसीका जरा स्वच्छ रहता है। इसपर यह आपसमें मान-घमंड करके लड़ते है। परिणामतः वह पदार्थ
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-और म० बुद्ध ]
[१४९ लुप्त होजाता है और एक तरहका मक्खन-मिश्री-मिश्रित पदार्थ सिरज जाता है । इसपर भी लडाई होती है। आखिर लतादि उत्पन्न होते २ चांवल उत्पन्न होते हैं जिनको खानेसे इन लोगोके शरीर आजकलके मनुष्यों जैसे होते हैं, जिससे कषाय और विषयवासनायें आकर सताने लगती हैं। इसपर वह ब्रह्मलोग जो पवित्रतासे रहते हैं अपने उन साथियोंको निकाल बाहर कर देते हैं जो विषयवासनाके वशीभूत होकर पवित्रतासे हाथ धो बैठते हैं। यह बहिष्कृत ब्रह्मलोग अलग जाकर एकान्तमें मकान बनाकर रहने लगते हैं। यहां रहकर वे आलस्यके प्रेरे कई दिनके लिये इकट्ठे चावल ले आने लगते हैं । इसपर चावल धानरूपमें पलट जाते हैं और जहांसे एक दफे वे काटे गये वहां फिर वे नही उगने लगते हैं । इस दुर्भाग्यसे उन्होंको आपसमें खेतोंको बांट लेना पड़ता है; किन्तु कतिपय ब्रह्म अपने भागसे संतुष्ट नहीं होते हैं । सो वे दूसरोंके भागमेंसे धान चुराने लगते हैं । इसपर एक नियंत्रणकी आवश्यक्ता उत्पन्न होती है जिसके अनुसार सब ब्रह्म एकत्रित होकर अपनेमेसे एकको अपना सरदार चुन लेते हैं। यह 'सम्मत' कहलाता है । वह खेतोंपर अधिकारी होनेके कारण ही 'खत्तियो' या क्षत्रिय नामसे प्रसिद्ध होता है । उसकी संतान भी इसी नामसे विख्यात् हुई । और इस तरह राज्यवंश अथवा क्षत्रिय वर्णकी उत्पत्ति होजाती है । उन ब्रह्मोंमें कतिपय ऐसे भी होते हैं जो बदमाशोंकी बदमाशी देखकर अपनेको संयममें रखनेका अभ्यास करने लगते हैं । इस अभ्यासके कारण वे ब्राह्मण कहलाते हैं और इसप्रकार ब्राह्मण वर्णकी सृष्टि हो जाती है। उनमें ऐसे भी
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[भगवान महावीर ब्रह्म होते हैं जो शिल्पादि कलाओमें निपुण होते हैं और इस निपुणतासे वे सम्पत्ति एकत्रित करते हैं । यही लोग वैश्य नामसे प्रगट होते हैं । अन्ततः ऐसे भी नीच प्रतिके ब्रह्म हैं जो आखेट खेलते हैं। इसलिये वे लुद्दया सुद्द कहलाने लगते हैं । इसप्रकार प्राकृत चार वर्ण उत्पन्न हो जाते है। यद्यपि मूलमें वह एक ही जाति ब्रह्मरूप होते हैं। इन्हींमेसे जो गृह त्यागकर जंगलका वास गृहण करते हैं, वे श्रमण कहलाते हैं । इसतरह संसार-प्रवाह चल जाता है। उपरान्त नियत समयमे पुनः अग्निद्वारा पृथ्वीका नाश होता है और इसी ढंगसे सृष्टि होती है। इसीतरह नियत समयमें अग्नि, जल और वायुसे नाश नियमानुसार होता रहता है; जिसका विशद विवरण बौद्ध ग्रन्थो अथवा Manual of Buddhismसे जानना चाहिये।
इसप्रकार म० बुद्धने इस पृथ्वीका नाश और उत्पादक्रम बतलाया था। इसमें भी जैन सहशता बहुत कुछ दृष्टि पड़ रही है। जैनशास्त्रोमें कहा गया है कि प्रत्येक अवसर्पिणी अन्तिम कालके अन्त समयमें (भरत और ऐरावत क्षेत्रोंमें ही) पानी सब सुख जाता है-शरीरकी भाति नष्ट हो जाता है। इस समय सब प्राणियोंका प्रलय हो जाता है। केवल थोडेसे जीव गंगा, सिंधु
और विजयाई पर्वतकी वेदिकापर विश्राम पाते है। यह लोग मछली, मेढक आदि खाकर रहते हैं । तथापि अन्य दुराचारी जीव छोटे २ विलोंमे घुस जाते है । साथ ही यह ध्यान रहे कि जैनधर्म
और अग्निका लोप पाचवे ही कालमें हो चुक्ता है। तदनंतर सात दिनतक अग्निकी वर्षा, सात दिनतक गीत जलकी, सात दिनतक सारे पानीकी, सात दिनतक विपकी, सात दिनतक दुस्सह अग्निकी,
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[ १५१
सात दिनतक धूलिकी और फिर सात दिनतक धूमकी वर्षा होतीं है । इसके बाद पृथिवीका विषमपना सब नष्ट हो जाता है और चित्रा पृथ्वी निकल आती है । यही अवसर्पिणीके अन्तिम कालका अन्त हो जाता है । और उत्सर्पिणीका प्रथम अति दुःखमा काल चलता है, जिसमें प्रजाकी वृद्धि होने लगती है । इसके प्रारम्भमें क्षीर जातिके मेघ सात सात दिनतक रातदिन बरावर जल और दूधकी वर्षा करते है जिससे पृथ्वीका रूखापन नष्ट हो जाता है । इसीसे यह पृथ्वी अनुक्रमसे वर्णादि गुणोंको प्राप्त होती है। इसके बाद अमृत जातिके मेघ सात दिनतक अमृतकी वर्षा करते है जिससे औषधियां, वृक्ष, पौधे और घास आदि पहले अविसर्पिणीके समान निरंतर होने लगते है । तदनंतर रसादिक जातिके बादल रसकी वर्षा करते है जिससे सब चीजोंमें रस उत्पन्न होता है । उत्सर्पिणी कालमें सबसे पहले जो मनुष्य चिलोंमें घुस जाते है वे निकलकर उस रसके संयोगसे जीवित रहने लगते है । ज्यो ज्यो काल वीतता जाता है त्यो २ शरीरकी ऊंचाई, आयु आदि जिन २ चीजोंकी पहले अविसर्पिणी में कमी होती जाती थी उन सबकी वृद्धि होती है । उपरान्त दूसरे कालमें सोलह कुलकर होते है । इनके द्वारा क्रमकर धान्यादि और लज्जा, मैत्री आदि गुणोंकी वृद्धि होती है । लोग अग्निमें पकाकर भोजन करते हैं । दूसरेके बाद तीसरे कालमें भी लोगोंके शरीर आदि वृद्धिको प्राप्त होते है । इस समय २४ तीर्थंकर आदि महापुरुष जन्म लेते हैं । और प्रथम तीर्थंकर द्वारा कर्मक्षेत्रकी सृष्टि होती है । फिर चौथे कालमें शरीर, आयु आदिमें और वृद्धि होती है और उसके थोड़े ही वर्ष बाद वहां जघन्य
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१५२ ]
[ भगवान महावीर
भोगभूमिकी स्थिति हो जाती है। इसीतरह पांचवे कालमें भी मध्यम भोग की सृष्टि होती है और छट्टे कालमें उत्तम भोगभूमिकी स्थिति रहती है । इसके साथ ही उत्सर्पिणी कालका अन्त और अवसर्पिणीका प्रारम्भ हो जाता है । जिसके प्रारम्भके साथ ही अवनति क्रम चालू होता है । हम जिस कालमें रह रहे हैं यह अवसर्पिणीका पांचवा काल है । इसके प्रारम्भके तीन कालों में यहां भोगभूमि थी । भोगभूमिमें युगल दम्पति जन्म लेकर आनन्दसे जीवन व्यतीत करते थे । कल्पवृक्षोसे उनको भोगोपभोगकी सब सामिग्री प्राप्त होती थी । सूर्य चन्द्र नहीं थे । माता-पिता आदि रिश्ते प्रचलित नहीं थे । यहासे मरकर जीव नियमसे देवगतिको प्राप्त होते थे । अन्तत' तीसरे कालके अन्त होने के कुछ पहिले १६ कुलकर उत्पन्न हुये थे; जिनके समय में जिस २ बातकी तकलीफ लोगों को हुई उसकी उन्होंने व्यवस्था की, क्योकि क्रमकर कल्पवृक्ष तो ह्रासको प्राप्त होते जारहे थे । इनका विशद विवरण हमारे "संक्षिप्त जैन इतिहास " अथवा अन्य जैन ग्रथोमें देखना चाहिये। आखिर चौथे कालके प्रारम्भसे किञ्चित् पहले ही प्रथम तीर्थकर ऋषभदेवजीका जन्म होगया था | इन्ही द्वारा कर्मभूमिका प्रादुर्भाव हुआ । 1 जनताको असि, मसि, कृपि आदि कर्म इन्होने ही बतलाये । इसी समय चार वर्णोकी स्थापना होगई । जिन्होंने जनताकी रक्षाका भार लिया वे क्षत्री हुये और जो व्यवसाय व शिल्पमें व्यस्त हुये वे वैश्य कहलाये और दस्युकर्म करनेवाले शूद्रवर्णके हुये । ब्राह्मणवर्णकी स्थापना उपरान्त सम्राट् भरत द्वारा व्रती श्रावकों में से हुई । इसतरह कर्मभूमिका श्रीगणेश हुआ । उपरान्त समयानुसार हर
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-और म० वुद्ध]
[१५३ बातकी अवनति चालू रही और समयानुसार तीर्थकर भगवान एवं अन्य महापुरुष होते रहे । फिर भगवान महावीरके निर्वाणलाभसे कुछ महीने बादसे ही यह पंचमकाल प्रारंभ होगया था। इसमें भी शासक्रम चालू है। इसके अन्तमें ही जैन धर्म और अग्निका लोप होजायगा । और फिर जो होगा वह उत्सप्पिणीकालके वर्णनमें बतलाया जाचुका है। इसतरह यह कल्पकाल है । यही विधि सर्वथा चालू रहेगी । म० बुद्धके कालक्रम और इसमें किंचित् सदृशता है । वाह्य रेखायें एक समान है, यद्यपि मूलमें अन्तर विशेष है । अस्तुः
यह भेद तो जान लिया, परन्तु भगवान महावीरके मतानुसार लोकका स्वरूप तो अभी तक नहीं जान पाया। अतएव आइये पाठकगण, अब यहापर यह देखलें कि भगवान महावीरने लोकके विषयमें क्या कहा था ? ___भगवान महावीरने भी असंख्यात् द्वीप समुद्र बतलाये थे, परन्तु उस सबके लिये स्वर्ग-नर्क आदि उन्होंने एक ही बतलाये थे उनके अनुसार वह लोक तीन भागोमें विभाजित है और उसे तीन प्रकारकी वायुसे वेष्टित बतलाया गया है। यह तीन भाग ऊर्च, मध्य और अधोलोक कहे गये हैं। ____ अधोलोकके सर्व अन्तिम भागमें 'निगोद' है । यह वह स्थान है जिसमें निगोद जीव रहते हैं । यह निगोद जीव एकेन्द्रीनीवसे भी हीन अवस्थामें हैं और अनन्त हैं। यहां स्पर्शन इन्द्री भी पूर्ण व्यक्त नही है । जीव समुदाय रूपमें इकट्ठे एक शरीरमें रहते हैं । इनकी आयु भी अत्यल्प है। वे एक श्वासमें १८ वार जन्मते
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१५४ ]
[ भगवान महावार
मरते हैं । इस निगोदमें से हमेशा नियमानुसार जीव निकलते रहते है और वे उस कमीको पूरी कर देते है जो जीवोके मुक्त होजानेसे होती है । इसतरह यह जीवराशि कभी निबटती नही । यूंही अनादिनिधन है । जीव त्रस नाडीमे भ्रमण करते हैं ।
जैनोके तीन लोकके नकशे में बताये हुये 'मध्यलोक' में ही वे सब ससार क्षेत्र है जिनका उल्लेख हम ऊपर कर चुके है। और इसके 'ऊर्ध्व' और 'अघो' लोकमे क्रमश. स्वर्ग और नर्क अवस्थित हैं । बुद्धने भी लोकको तीन 'अवचारो' (Regions) में अथवा 'धातुओं' में विभक्त बतलाया है: (१) काम धातु (२) रूप धातु और (३) अरूप धातु ।' यहां भी जैन सिद्धान्तकी सादृश्यता दृष्टि पडती है । इसके अतिरिक्त, बौद्ध शास्त्रोमें नर्कगतिके और नर्कों के जो वर्णन, पीड़ायें, वैतरनी नदी, इसे दुग्गति बतलाना, प्रेतों- असुरोका स्थान, इत्यादि जैन धर्मके अनुसार बताये हैं । " किन्तु इतनेपर भी बुद्धदेवने नर्क उतने नहीं बतलाये है जितने जैन धर्म में स्वीकृत हैं । भगवान महावीर ने नर्क सात बताये है और उनकी पृथ्वियोंके नाम यो कहे है:
(१) रत्नप्रभा - आलोक इसका रत्न कैसा है और यह गर्म है ।
।
(२) शर्कराप्रभा -,, (३) वालुकाप्रभा,” (४) पङ्कप्रभा - " (५) धूमप्रभा -
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केवल ३ लाख पटलोंमें- शेष ठडा है ।
१. हेवन्स एन्ड हेल्स इन बुद्धिस्ट पर्सपेकिव पृष्ट ८३. २. पूर्व पृष्ट ९२से जैन मानताकी तुलना करो. तत्वार्थसूत्र अ० ३
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-और म० बुद्ध ]
[१५५ (६) तमप्रभा- , , अंधकार , और सर्द है। (७) महातमप्रभा-, , घोर अंधकार , , ,
इन सबमें भिन्नर संख्यामे ८४ लाख बड़े
विले हैं, जिनमें नारकी जन्म लेते हैं। ___ म० बुद्धने सामान्यतया ८ नर्क बतलाये थे; यद्यपि इनके अतिरिक्त वह और बहुतसे छोटे नर्क बतलाते थे। शायद वह इन्ही आठके अन्तर्भाग हों। ये आठ इसप्रकार बताए गए हैं:
(१) सज्जीव, (२) कालसूत्र, (३) सघात, (४) रौरव, (१) महारौरव, (६) तापन, (७) प्रतापन और (८) अवीची। उत्तरीय वौद्धोकी प्राचीन मानतामें इतने ही ठडे नर्क भी थे।
इसतरह बौद्धोके नर्क सम्बन्धी विवरणमें बहुतसी बातें जैन धर्मसे मिलती जुलती है । वास्तवमे जैन धर्मसे बौद्ध धर्मकी जो सादृश्यता विशेष मिलती है वह म० बुद्धके प्रारभिक जैन विश्वासके कारण ही समझना चाहिए।म० वुद्धने एक माध्यमिकके तरीके उस समय प्रचलित प्रख्यात् मतोंमसे कुछ न कुछ अवश्य ही ग्रहण किया था । ब्राह्मणोंके स्वर्ग-नर्क सिद्धान्तोंसे भी किचित् सहशता बौद्ध मान्यताकी बैठती है। यही कारण है कि सर्व प्रकारके विश्वासोंवाले विविध पन्थ अनुयायियोको अपने धर्ममें लानेके लिये म० बुद्धने इसप्रकार क्रिया की थी, जिसके समक्ष उन्होने अपने सिद्धान्तोकी वैज्ञानिकता और औचित्यपर भी ध्यान नहीं दिया! किन्तु इस ओर उनके धर्मकी विशेष सहशता जैनधर्मसे वैठती है, जो ठीक भी है, क्योंकि हम देख चुके हैं,
१. हेवन्म एण्ड हेल्स इन बुद्धिस्ट परस्पेकिन पृष्ट ६४. . '
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१५६]
[ भगवान महावीरकि जैन धर्मका प्रभाव उनके जीवनपर किस अधिकतासे पड़ा था। दोनों मतोमें व्यवहृत शब्द भी जैसे आचार्य, उपाध्याय, आश्रव, संवर, गंधकुटी, शासन आदि प्रायः एकसे हैं, यद्यपि यह बौद्ध धर्ममें बहुत करके अपने शाब्दिक भावको खो बैठे हैं। ___नोंके विवरणकी तरह स्वर्गलोकके विवरणका भी किंचित सामञ्जस्य जैन मानतासे वैठ जाता है। भगवान महावीरने चार प्रकारके देव वतलाये थे, (१) भवनवासी (२) व्यन्तर (३) ज्योतिष्क (४) और वैमानिक । इन प्रत्येकके दस दरें हैं; इन्द्र, सामानिक त्रायविश, पारिपद, आत्मरक्षक, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, अभियोग्य, और किल्विषक । बौद्धोंके यहा भी प्रथम प्रकारके देव 'भुम्मदेव' के नामसे ज्ञात हैं। दूसरे प्रकारके प्रेत, असुर आदि है। तीसरे प्रकारके सूर्य, चद्र, आदि बतलाये थे
और अन्तिम प्रकारके देव वह समझना चाहिये जो कामश्वरलोक आदिके विमानोंमे मिलते हैं। इनमें अन्तिम प्रका• रके देव ही स्वर्गलोकमें विमानोमें रहते है। जैनसिद्धान्तमें वतलाया गया है कि यह विमान मेरुपर्वतके तनिक अन्तरसे ही तराजूके पलडोकी तरह दो २ ऊपर २ अवस्थित है । यह कुल १६ है । इनके कार ग्रैवेयक, अनुदिश, अनुत्तर और सर्वार्थसिन्दि विमान है । इन ग्रेवेयकाढिके निवासी देव सब पुरुषलिङ्ग ही है और कामवासनासे रहित हैं । यह अहमिन्द्र कहलाते
१ चौदों यहा भी यही क्रम कुछ २ मिटता है। उनके यहां 'प्रायविश' न मा एक अलग ही स्वर्ग ६. २. दे. हे. ६० बु० ५० पृष्ट ७.३ पूर्व पृष्ठ ४३. ४. पृष्ट ३१.५ पूरे प्रष्ट २०
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-और म० बुद्ध
[१५७ हैं। बुद्धने जो रूपलोकके स्वर्ग बताये थे, वह भी इस ही प्रकारके हैं। जैनसिद्धान्तके लौकान्तिक देव जो ५ वे स्वर्गके सर्वोपरि भागमें अवस्थित ब्रह्मलोकमें रहते हैं और जो आत्मोन्नति विशेष कर चुके है कि दूसरे भवसे ही मोक्षलाभ करेंगे, वह भी बौद्धोके ब्रह्मलोकके देवोके समान हैं । बौद्ध कहते हैं कि यह देव ब्रह्मलोकमे विशेष ध्यान करनेके उपरान्त पहुंचते हैं। किन्तु इतनी सदृशता होनेपर भी बौद्धोने जितने स्वर्ग बताये है उतने जैनसिद्धान्तमें स्वीकृत नहीं है; यद्यपि एक स्थानपर उनके यहां भी १६ ही बताये गये है । सचमुच बौद्धशास्त्रोमे इनकी कोई निश्चित संख्या नहीं मिलती है वे सात, आठ, सोलह और सत्तरह भी बताये गये है। किन्तु इतनेपर भी यह स्पष्ट है कि बौद्धोके स्वर्ग विवरणमें भी जैनधर्मकी छाप लगी दृष्टिगत होती है। यहांपर उनका तुलनात्मक पूर्ण विवेचन करना कठिन है। यद्यपि यह स्पष्ट है कि अन्ततः बौद्ध और जैन दोनों ही यह स्वीकार करते हैं कि स्वर्गलोकमें वही जीव जन्मते है जो विशेष पुण्य उपार्जन करते है । आत्मवाद परोक्षरूपमें म० बुद्धको भी अस्पष्टरूपसे स्वीकार करना पड़ा था, यह हम देख चुके हैं। जैनसिद्धान्तमें स्वर्गलोकसे मोक्षलाभ करना असभव बतलाया है; बौद्ध देवोंद्वारा निर्वाणलाम मानते है । किंतु यह वात दोनों ही मानते है कि देवोंमें विक्रिया शक्ति है और हेयसे हेय अवस्थाका जीव स्वर्ग सुखका अधिकारी हो सक्ता है। जैनशास्त्रोमें कथा प्रचलित है कि जब राजा श्रेणिक भगवान महा
१. हेवेन्स एण्ड हेल्स इन बुद्धिस्ट पर्सपक्टिव पृष्ठ ८०...२ पूर्व पृष्ठ २ ३. पूर्व पृष्ठ ३४.
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१५८]
[ भगवान महावीर
वीरकी वन्दनाको विपुलाचल पर्वतको जा रहे थे, तब एक मेंढकके मी भाव भक्तिसे भर गए थे और वह भी भगवानके समोशरणकी ओर पूज्य भावोंका भरा हुआ जा रहा था कि मार्गमें राजाके हाथीके परसे दबकर मर गया और इस पुण्यभावसे वह देव हुआ। चौद्धोंके यहां भी एक ऐसी ही कथा "विशुद्धि माग्ग" नामक ग्रंथ में कही गई है।' फिर दोनों ही मत यह मानते हैं कि देवगतिमें भी देवगण अपने शुभाशुभ परिणामोंके अनुसार सुखदुखका अनुभव करते हैं, किन्तु दोनोंमें ऐसे भी देव माने गये हैं जो मोहके अंभावमें दुःखका अनुभव करते ही नहीं है तथापि दोनोंही धर्मोंमे देवोंके मरण समयका वर्णन भी प्रायः एकसा है। बौद्ध शास्त्र कहते हैं कि स्वर्गसे चय होनेके कुछ ही पहिले उस देवके (१) वस्त्र अपनी स्वच्छता खो बैठते हैं, (२) मालायें और उसके अन्य अलकार मुरझाने लगते हैं, (३) शरीरसे ओसकी तरहका पसीना निकलने लगता है, (४) और महल जिसमें उसका निवास होता है वह अपनी सुन्दरता गवा देता है। ( Manual of Buddhism p 141) जैनशास्त्रोमें भी मरणके छै महीने पहिलेसे माला मुरझानेका उल्लेख मिलता है। साथ ही जैनसिद्धान्तमे देवोके अव. धिज्ञानका होना माना गया है, परन्तु बौद्धोंके यह स्वीकृत नहीं है।
इसप्रकार इन उक्त गतियों में परिभ्रमण करती हुई संसारा आगये दुख और पीडाको भुगनती हैं। किन्तु भगवान कहते हैं कि जो सत्यकी उपासना करते है और स्वध्यानमें लवलीन रहते है वे भेदविज्ञान ( Discrimuating sight) को पाजात ह
१. पूर्व पृष्ठ १९.
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-और म० बुद्ध
.[१५९ और भेदविज्ञान नहां एकवार प्राप्त हुआ कि वहां फिर सम्यक् मार्गमें दिवस प्रति दिवस उन्नति करते जाना अवश्यम्भावी है। जैनाचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी कहते हैं
'गुरूपदेशादभ्यासात्संवित्तेः स्वपरांतरं। जानाति यः स जानाति मोक्षसौख्यं निरंतरम् ॥३३॥
भावार्थ-जिसने आत्मा और पुद्गलके स्वरूपको जानकर भेदविज्ञान प्राप्त करलिया है चाहे वह गुरूकी कपासे प्राप्त किया हो अथवा वस्तुओंके स्वभाव पर बारम्वार ध्यान करनेसे या आभ्यन्तरिक आत्मदर्शनमे पाया हो-वह आत्मा मोक्ष सुखका उपभोग सदैव करता है।
भगवान महावीरने संसारजालसे छूटकर मोक्षलाम करनेका मार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र कर सयुक्त बतलाया था। व्यवहार दृष्टिसे सम्यग्दर्शन पूर्वोल्लिखित जैन तत्वोमें श्रद्धान करना है। इन्हीं तत्वोंका पूर्ण ज्ञान सम्यग्ज्ञान है । और जैनशास्त्रमें बताये हुये आचार नियमोका पालन करना सम्यग्चारित्र है। किन्तु निश्चय दृष्टि से यह तीनों क्रमशः आत्माका श्रद्धान्, ज्ञान और स्वरूपकी प्राप्ति है। सचमुच निश्चय सम्यक्चारित्र सिवाय आत्मसमाधिके और कुछ नहीं है । व्यवहारदृष्टि निश्चयका निमित्त कारण समझना चाहिये।
व्यवहार सम्यग्चारित्र दो प्रकारका है:-(१) एकदेश गृहस्थोके लिये और (२) पूर्ण जो साक्षात् मोक्षका कारण है साधुओंक लिये । गृहस्थ सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानको धारण करता हुआ अहिसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रइसे सम्यग्चारित्रका अभ्यास प्रारम्भ करता है । यद्यपि इससे नीचे दर्नेका गृहस्थ मात्र
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१६.]
[ भगवान महावीरश्रद्धानी मद्य, मांस, मधु और पांच उदुम्बर फलोंका ही त्यागी होता है । और सबसे नीचे दर्नेका व्यक्ति कोरी श्रद्धानी होता है । परन्तु उक्त पंचअणुव्रतोके पालनसे वह व्रती गृहस्थ अथवा श्रावक सम्यग्चारित्रके मार्ग में क्रमशः उन्नति करना प्रारम्भ करता है। इस उन्नतिक्रमका विधान, भगवानने ११ प्रतिमाओमे किया है। इन ११ प्रतिमाओका अभ्यास करके वह साधुके व्रतोको पालन करनेका अधिकारी होता है । इन प्रतिमाओंसे भाव, व्यक्तिविशेषकी आत्माने पूर्व प्रतिमासे जो उन्नति की है उसको व्यक्त करना है। इनमे विविध प्रकारके व्रत जैसे गुणव्रत, शिक्षाव्रत, सामायिक, प्रोषध इत्यादि गर्भित है । इन प्रतिमाओंको पूर्ण करके वह साधुओंके महाव्रतोका अभ्यासी होता है। इस अवस्थामे वह उक्त व्रतोको पूर्णरूपमे पालता है। ___ आत्म-समाधिकी प्राप्तिके लिये गृहस्थो और साधुओके लिये नित्यके छै आवश्यक कर्तव्य बतलाये गए हैं । साधुओंके लिये वह इस प्रकार है।
१. वीरोंके शानोमें भी जैन श्रावकके इस व्रता उल्लेख है अर्थात् भगवान महावीरके समयसे अबतक यह प्रत अविच्छन्न रूपमें यो ही चले आरहे है । देखो अगुत्तरनिकाय 315013. २. प्रोपध नियमका उल्लेस चोदोके उक्त शानमें इस प्रशर है-'पोपध के दिवस वे (निगन्य जेनी) एक कसे कहते है भाई, भर तुम अपने सब बस उतारकर एक और रस दो और कहो 'न को हमाग है और न हम किसीके है। यह भी जैन विवरणमे प्रायः मिलता है। नग्नावस्थामें प्रोषष करनेका मी उस अर पातों में है। (दयो सागारधर्मामृत पृष्ठ ४२१)।
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-और म० वुद्ध]
[ १६१ 'समदा थवो य वंदण पाडिक्कमण तहेव णादव्वं । पञ्चक्खाण विसग्गो करणीयावासया छप्पि ॥२२॥
अर्थात्-(१) समता-सर्वके प्रति-सबमें समता भाव रखना, (२) स्तव-तीर्थकर भगवानका स्तवन करना, (३) वन्दना-देवशास्त्र गुरुकी वंदना करना, (४) प्रतिक्रमण-कृतपापोकी आलोचना करना, (६) प्रत्याख्यान अमुकर पदार्थोके त्याग करनेका नियम करना
और (६) व्युत्सर्ग-अपनी देहसे ममता हटाकर उसे तपश्चर्या में लगाना । इस प्रकार साधुके लिये यह नित्यप्रतिके 'षडावश्यक' वताये गये है। श्रावकके लिये भी छै बातोका रोजाना करना लाजमी बतलाया गया है। जैसे कि आचार्य कहते हैं:
" देवपूजागुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः। दानञ्चेति गृहस्थाणां षट्कर्माणि दिनेदिने ॥"
पद्मनंदिपचविंशतिका । अर्थात्-(१) जिन भगवानकी पूजा करना, उनके गुणोंको स्मरण करके । जिन प्रतिमायें ध्यानाकार होती है जिससे वे पुजारीके हृदयपर आत्मभावको अकित करनेमें सहायक है । (२) गुरुजगनिर्ग्रन्थमुनि और साधुननकी उपासना करना और उनकी शिक्षाओको ग्रहण करना । (३) संयमका अभ्यास करना जिससे मन और इंद्रियोपर अधिकार रहे, जैसे नियम करना कि मै आज नाटक देखने नहीं जाऊंगा, केवल दोवार ही भोजन करूगा, इतर फुलेल नहीं लगाऊगा इत्यादि । यह साधारण नियम है, परन्तु आत्मोनतिमें सहायक है। (४) स्वाध्याय-शास्त्रोंका अध्ययन, अध्यापन और मनन करना । ( ५ ) सामायिक अर्थात् एकान्त स्थानमें
૧૧
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१.६२ ]
[ भगवान महावीर
प्रात: और सायंकालको बैठकर अथवा केवल प्रातःको बैठकर एक नियत समय तक तीर्थङ्कर भगवानके परमस्वरूपका अथवा आत्मगुणोका चिन्तवन और ध्यान करना । इससे आत्मशक्ति -बढ़ती है और समताभावकी प्राप्ति होती है । (६) दान - आहार, औषधि, शास्त्र और अभयरूपी दान सब ही पात्रोंको देना चाहिये । इन है आवश्यक बातोंको करनेसे उस आत्मदशाकी प्राप्ति होती है जिसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र साक्षातरूप विराजमान है। यही वह मार्ग है जिसमे कर्मोंका क्षय होता है और आत्मा विशुद्ध और स्वतंत्र होती जाती है ।
आत्मस्थितिमे अथवा आत्मध्यानमें उन्नति करना गुणस्थानक्रम बतलाया गया है । यह गुणस्थान कुल १४ हैं । इनका पूर्ण विवरण जैन शास्त्रोसे देखना चाहिये, किन्तु यहां यह जान लीजिये कि १३ वे गुणस्थान में पहुचकर मुनि चार घातिया कर्मोंका अर्थात् ज्ञानावर्णी, दर्शनावर्णी, मोहनीय और अन्तराय कर्मोंको, जो आत्माके स्वभाव के घातक है, उनका नाश कर देता है और इम अवस्थामें केवलज्ञान - सर्वज्ञताको प्राप्त करके अर्हत् सयोगकेवली अथवा सकल सशरीरी परमात्मा होजाता है । यह जीवित परमात्मा दो प्रकारके होते है. (१) सामान्यकेवली और (२) तीर्थङ्कर । सामान्यकेवली स्वयं निर्वाणलाभ करते है एवं अन्योको भी मोक्षमार्ग दर्शाते है, परन्तु उनके समवशरण आदिकी विभूति नहीं होती है। तीर्थकरों के समवशरण होता है और वे वहासे ' तीर्थ ' के भव्योंको मोक्षमार्गका सनातन उपदेश देते है । यह तीर्थ सघ चार प्रकारका होता है । (१) मुनि, (२) आर्यिका, (३) श्रावक, (४) श्राविका । इसी चतु
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[१६३ निकाय संघको तीर्थकर भगवान अपनी गंधकुटीसे प्राकृतिक रूपमें उपदेश देते हैं, जिसको सबकोई अपनी२ भाषामें समझ लेता है।
श्री नेमिचन्द्राचार्यनी अर्हत भगवानका स्वरूप यों बतलाते हैं"णहचदुघाइकम्मो दसणमुहणाणवीरिय मइओ। मुहदेहत्थो अप्पा मुद्धो अरिहो विचिंतिज्जो ॥५०॥"
अर्थात्-अर्हतु वह हैं जिन्होने चार प्रकारके घातिया कर्मोको नष्ट कर दिया है और जो अनन्तचतुष्टय-अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतवीर्य, अनतसुखकर पूर्ण हैं, जिनका शरीर अपूर्व प्रभामय और विशुद्ध है । वास्तवमें अहंतु भगवानके मोहनीयादि कर्मोके
अभावसे भूख, प्यास, भय, ईर्ष्या, द्वेष, मोह, जरा, रोग, मृत्यु, ___ पीड़ा आदि कुछ भी साधारण मानुषिक कमजोरियां शेष नहीं रहती हैं । इस अवस्थामें वे साक्षात् जीवित परमात्मा होते हैं, उनके शरीरकी प्रभा भी इस उच्चपदके सर्वथा उपयुक्त होती है । यही मालूम होता है मानो एक हजार सूर्य एकदम प्रगट होगये है। यह इच्छाओंसे सर्वथा रहित और विलकुल विशुद्ध होते हैं। यह पंचपरमेष्टियोंमें सर्व प्रथम हैं, जिनकी उपासना आदर्शवत् जैनी करते हैं।
___ अतएव जब यह सशरीरी परमात्मा चौदहवें गुणस्थानमें पहुंच जाता है, तब वह अयोगकेवली-कम्परहित पूर्ण शुद्ध आत्मा (Non- Vibrating Perfect Soul) होजाता है। यह अवस्था उन भगवानको मोक्षप्राप्तिसे इतने अल्प समय पहिले प्राप्त होती है कि अ, इ, उ, ऋ, ल, इन पांच अक्षरोका उच्चारण किया जासके । यह बहुत ही सूक्ष्म समय है। इसके बाद शरीरको त्यागकर आत्मा अपने यथार्थ स्वरूपमें सदाके लिये तिष्ठ जाती है और सिद्ध कहाती
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१६४]
| भगवान महावीर
है । सिद्धभगवान फिर कभी लौटकर इस संसारावस्थामें नहीं आते हैं। वह सिद्धशिला में तिष्ठे अपने स्वाभाविक आनंदका उपभोग सदा करते रहते हैं ।
सिद्धभगवान एक पूजनीय परमात्मा हैं, जिनका यद्यपि संसारसे सम्बन्ध कुछ भी नहीं है, तो भी उनका चितवन शुभ भावो और आत्मध्यानके लिये एक साधन है। आचार्य कहते है:" णट्टकम्मदेहो लोयालोयस्स जाणओ दट्ठा । पुरिसायारो अप्पा सिद्धो ज्झाएह लोयसिहरत्थो ॥२१॥"
भावार्थ - " नष्ट कर दिये है अष्टकर्म देहसे जिसने लोकालोकका जाननेवाला और देखनेवाला देहरहित पुरुषके आकार लोकके अग्रभागमे स्थित ऐसा आत्मा सिद्ध परमेष्ठी है सो नित्य ही ध्याया जावे अर्थात् स्मरण करने योग्य है । " अस्तु,
इस प्रकार भगवान महावीरने समार सागरमे रुलती हुई आत्माओको उससे निकलकर सच्चा स्वाधीन सुख पानेका मार्ग सुझाया था, जो पूर्ण स्वावलम्बन कर सयुक्त है । सारांशतः उन्होंने बताया था कि अनादिकालसे कर्मके कुचक्रमे पडी हुई आत्मा अपनी ही मोहजनित मूर्ख नाके कारण संसार मे भटकती हुई दुख और पीडाका अनुभव कररही है, अतएव जब वह अपने निजी स्वभावको और परद्रव्यो के स्वरूपको स्वयं अपने अनुभव द्वारा अथवा गुरुके उपदेशसे हृदयङ्गम करलेती है तब यह रत्नत्रयरूपी मोक्षमार्गका अनुसरण करना प्रारम्भ करदेती है। तथापि दृढ़तापूर्वक उसका अभ्यास किये जानेसे एकदिन वह कर्मरूपी परतत्रताकी बेडियां काट डालती है और स्वयं स्वाधीन होकर परमात्मावस्थाके परमोत्कृष्ट
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[ १६५
स्वराज्यका उपभोग करती है । सच्चा स्वराज्य यही है, इसीको पानेका उपदेश भगवान महावीरने दिया था । इस हिंसक जमाने में सच्चे भारतवासियोंको इस स्वराज्यप्राप्तिके मार्ग में दृढ़ता से कर्तव्यपरायण हो जाना परम उपादेय है । अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अचौर्य और अपरिग्रहका अभ्यास प्रारम्भ करना स्वयं उनकी आत्मा एवं भारतके हितका कारण है । अहिंसामें गंभीरता है, शौर्य्यता है । सत्यतामें दृढता है | जहां शौर्यता और दृढ़ता प्राप्त हुई वहां लोभ कषायको तिलाञ्जलि देते हुये आकांक्षा और वाञ्छाको नियमित किया जाता है और स्वावलम्बी बननेकी तीव्र अभिलाषा अपना जोर मारने लगती है जिसकी प्रेरणासे वह आत्माभिमुख हुआ वीर संयमका अभ्यासी हो जाता है और क्रमशः आत्मोन्नति करता हुआ पूर्ण स्वाधीनताको पालेता है । यही सच्चा सुख है। भारतीयताके लिये भगवान महावीरका उपदेश अतीव कल्याणकारी है । लोकके कल्याणकी भावनाका जन्म उसको आदर देनेसे होता है ।
अब जरा आइये पाठकगण, म० बुद्ध के विषय में भी किञ्चित् और विचार करलें । दुःख और पीड़ा कहां हैं, कैसे हैं और किसको हैं, यह हम उनके बताये मुताबिक पहिले देख चुके हैं । उपरान्त उन्होंने इस दुःख और पीड़ासे छूटनेका उपाय यो बतलाया था ।
" हे राजन् ! सब ही अज्ञानी व्यक्ति इंद्रियसुखमें आनन्द मानते हैं, उन्हींकी वासनापूर्ति में सुखी होते हैं, उन्हीके पीछे लगे रहते हैं। इसलिए वे मानुषिक कषायोंकी बाड़में बहे चले जाते 1
हैं । वे जन्म, जरा, मरण, दुःख, शोक, आशा, निराशा से मुक्त नहीं हैं। मैं कहता हूं वे पीडासे मुक्त नहीं होते हैं, किन्तु राजन् !
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१६६ ]
[ भगवान महावीर -
जो ज्ञानवान है, तथागतोंके अनुयायी हैं, वे न इंद्रियवासनाओ में आनंद मानते न उनसे सुखी होते है और न उनके पीछे लगे रहते है, और जब वे उनके पीछे नहीं लगते हैं तो उनमें तृष्णाका अभाव हो जाता है। तृष्णाके अभावसे ग्रहण करना (Grasping) बन्द होजाता है । इसके बंद होनेसे भव धारण करनेका (Becoming) अन्त हो जाता है । और जब भवका ही नाश हो गया तब फिर जन्म, जरा, रोग, शोक, मृत्यु, पीडा आदि सब बन्द होजाते हैं । इस प्रकार इस अभावक्रमसे (Cessation) पीडाके समुदायका (Aggregation of Pain ) का अन्त हो जाता है, बस यही अभाव निर्वाण है । " ( मिलिन्दपन्ह ३ | ४|५ )
यह पीडाके अन्त करनेका मार्ग है और प्रायः ठीक ही है, परन्तु इसका क्रियात्मकरूप इसका भेद प्रगट कर देगा । इस मतको प्रगट करते हुये भी म० बुद्धके चारित्र नियम निर्माणमे इसको पूर्ण आदर नहीं दिया गया है। हम अगाडी यही देखेंगे। भगवान महाचीरने भी इन्द्रियजनित विषयवासनाओसे दूर रहनेका उपदेश दिया था, परन्तु म ० बुद्धकी तरह उनका उद्देश्य 'पूर्ण अभाव' नहीं था । उनका उद्देश्य एक वास्तविक पदार्थ था जिसको पाकर आत्मा स्वाधीन परमात्मा हो जाता है । भगवान महावीर और म० बुद्धके मतोंमें यही विशेष दृष्टव्य अन्तर है । एक रकसे राव बनानेका मार्ग है, दूसरा रकसे अगाडी उठाकर उसका कुछ भी नहीं रखता है ।
अस्तुः
इसतरह म० बुद्धका सर्वोत्कृष्ट उद्देश्य पूर्ण अभाव (Complete passing away ) था और इसी उद्देश्यके लिए उनका
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-और म० चुद्ध]
[१६७ चारित्र नियम निर्मित था।' इस चारित्र नियममें आठ बातें गर्मित थी; अर्थात् (१) सत्य दृष्टि (Right Viewe), (२) सत्य उद्देश्य (Right Aspirations), (३) सत्यवातों (Right Speech) (४) सत्य आचरण (Right Conduct), (५) सत्य जीवन
(Right Livlilhood), (६) सत्य एकाग्रता (Right Mindfu___Iness), (७) सत्य प्रयास ( Right Effect ), (८) और सत्य
ध्यान अवस्था अर्थात मानसिक शांति ( Right Raptune)।' इस अष्टाङ्ग मार्ग द्वारा ही संसारप्रवाहसे व्यक्तिको छुटकारा पाकर अपने उदेश्यकी प्राप्ति होते मानी गई है। किन्तु यह अष्टांग मार्ग फेवल भिक्षुओ और भिक्षुणियोके लिये है । गृहस्थ अनुयायियोकी गणना बौद्ध संघमे नही की गई है । इसका यही कारण है कि बुद्धने गृहस्थोके लिये कोई खास आत्मोन्नतिक्रम नियत नहीं किया था, जैसा कि जैनधर्ममें ( ११ प्रतिमायें) है। सचमुच बौद्ध भिक्षुओका जीवन भगवान महावीरके संघके इन व्रती श्रावकोंसे भी सरल था। बुद्धकी मान्यता थी कि मुविधामय सुखी सांसारिक जीवन व्यतीत करनेपर भी संसारसे मुक्ति मिल सक्ती है, परन्तु जनधर्ममें यह म्धीस्त नहीं है। वस्तुतः जबतक संसारसे बिल्कुल ही संबंध नही त्याग दिया जायगातबतक फर्मोसे छुटकारा मिलना असंभव है। चौ साधुओंने सुविधामय जीवनकी अपेक्षा ही बौद्ध सघमें व्रती श्रावकोको कोई भी स्थान प्राप्त नहीं था । हां, सामान्य ग्रहस्थ अनुयायी दुखदेवके थे,जैसे कि जन सघमें संमिलित व्रती श्रावकोंक अतिरिक्त भगवान महावीरफे साधारण श्रद्धानी श्रावक भीये| अन्तः
मिरिन्दन २१.५.२. बुट्रिस्टग्लिॉसफी पृष्ट ११५ ३ मजितमारा ९३ 1
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१६८]
[ भगवान महावीरबुद्धदेवके उक्त अष्टांगमार्गमें 'साक्यपुत्तीयसमणो' के लिये जो चारित्रनियम नियत थे, वह सब गर्भित हैं । बौद्ध आचारनियमोंमें जो 'शील' मुख्य माने गये है, वह भी इसीमे सम्मिलित हैं । बौद्धोके यह 'शील' जैनोके १२ शीलवतो (५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत और ४ शिक्षाव्रत)से सामान्यतः मिलते जुलते प्रतीत होते हैं। बौद्धशास्त्रोमें यह शील आठ बतलाये गए है; और बौद्ध साधुओंके लिये इनका पालन करना आवश्यक है । यह आठ इस प्रकार हैं:-(१) अहिसा, (२) अचौर्य, (३) पाप और कामसेवनका त्याग, (४) सत्य, (५) मादकवस्तुओका त्याग, (६) अनियमित समयों और रात्रिको भोजन करनेका त्याग, (७) नाचने, गाने, इतरफुलेलके व्यवहार आदिका त्याग, (८) और जमीनपर चटाई विछाकर सोना।' इनमें से पहिलेके चार तो जैनियोके अणुव्रतोंके समान ही दिखते है, किन्तु जैनियोका पाचवा अणुव्रत बौद्धोके पांचवें शीलसे नितान्त विभिन्न और विशुद्ध है। उपरोक्तमें शेष तीन जो रहे वे जैनियोंके शिक्षाव्रतके ही संक्षिप्त और विकृत रुपान्तर है । यह सामञ्जस्य जाहिरा इतना स्पष्ट है कि हमें यह कहनेमें सकोच नही है कि इन नियमोंको बुद्धने जैनधर्मसे ग्रहण किया था किंतु बुद्धके निकट इन नियमोका वास्तविक महत्व प्रायः बहुत हल्का हो गया है। बौद्ध शास्त्रोंमे इनके लिये जो शब्द व्यवहृत हुये है, वह भी इसी बातके द्योतक हैं । ' दीघनिकाय' ( P. T. S. Vol. I. P. 4) में हिसाके लिए 'पाणातिपात'
१. हीस डेविडसकी " बुद्धिज्म " पृष्ट १३८ इन नियमोंमें प्रारभके पाचका पालन करना पौद्ध गृहस्योंके लिये भी आवश्यक बतलाया गया है।
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और म० बुद्ध]
[ १६२ चोरीके लिए 'अदिन्नादान' कुशीलके लिये 'अब्रह्मचर्य' और 'असत्सके लिये 'मुसाबाद' शब्द व्यवहृत हुये हैं । जैन शास्त्रोमें भी ऐसे ही शब्द मिलते हैं । अतएव यह स्पष्ट है कि यहां भी जैन प्रभाव बाकी नहीं है। फिर महावग्ग और चुल्लवग्गमें जो बौद्ध नियमोंका निर्माणक्रम वर्णित है वह हमारी उक्त व्याख्याकी और भी पुष्टि करता है । इससे ज्ञात है कि बौद्ध नियम एकदम एक साथ निर्मित नहीं हुए थे। जैसे२ जिस बातकी आवश्यक्ता पडती गई वैसे वैसे वह स्वीकार की गई। साधुओंको आचार्य, उपाध्याय
आदिमें विभाजित करना जैन धर्ममें ही मिलता है तथापि 'वस्सा' (चातुर्मास) नियम खास जैनियोंका हैं। इसी तरह गंधकुटी, शासन, आश्रव, संवर आदि शब्द मूलमें जैनियोके ही हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि आचारनियमोंको नियत करनेमें भी म० बुद्धने जैन आचारनियमोंसे सहायता ली थी।
किंतु इस विषयमें यह भूल जाना ठीक नहीं है कि यद्यपि १० कोवीने जैन सूत्रोंकी भूमिकामे प्रगट किया है कि जैन और बौद्ध दोनोंने इन नियमोंको ब्राह्मण श्रोतसे ग्रहण किया था। किन्तु इस व्याख्याका प्रमाणित होना अभी शेष है कि सचमुच जैन धर्मकी उत्पत्ति ब्राह्मण धर्मके बाद हुई थी। अबतक जो कुछ भी शास्त्रीय और शिलालेखीय साक्षी प्राप्त हुई है वह जैनधर्मका अस्तित्व ब्राह्मण धर्मके साथ २ प्रकट करती है । स्वयं वेदोंमें जैन तीर्थंकरोंका नामोल्लेख है । तथापि ऋग्वेदमें (३॥३॥२॥१४) एक यज्ञद्रोही सपदायके .. रूपमें जैनधर्मके भस्तित्वको स्वीकार किया गया है । (देखो अंग्रेजी
नगजट भाग २१) तिसपर अन्तत: डॉ. जैकोवीने जैनधर्मके प्राचीनतम अस्तित्वको स्वीकार किया है । (देखो जैन श्वः कान्फ्रेन्स हेरल्ड भाग १० पृ० २५२-२५३) ।
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१७.]
[ भगवान महावीरजैन आचारनियमोसे बौद्ध नियमोकी इतनी सदृशता है, परन्तु बौद्ध नियम जैन नियमोंके समान ही विशद और गंभीर नहीं है। एक व्रती श्रावकके पालन करने योग्य अणुव्रतो जितना भी महत्त्व उनका नहीं है। इस व्याख्याकी याथार्थता दोनो धर्मोके नियमोका तुलनात्मक विवेचन करनेसे स्वयं प्रमाणित.हो जावेगी, किन्तु विस्तारभयके कारण हम यहांपर केवल दोनो धर्मोके अहिसानियमको लेते हैं। जाहिरा इसका भाव दोनो धर्मोमें एक है, परन्तु एक बौद्ध श्रमण इसका पालन करते हुये भी मांस और मच्छीको मोननमें ग्रहण करनेसे आगा पीछा नहीं करेगा। इसके विपरीत एक जैन गृहस्थ उनका नाम सुनना भी पसन्द नहीं करेगा। यद्यपि वह जैन मुनियोकी अपेक्षा बहुत नीचे दनकी अहिंसाका पालन करता है। बौद्ध भिक्षु स्वय तो किसी जीवका बध नहीं करेगा, परन्तु यदि कही मृत मांस मिल जावे तो उसको ग्रहण करनेमें संकोच नहीं करेगा। स्वयं म० बुद्धने कईवार मांसभोज किया था। वैशालीमें सेनापति सिंहके यहा जब मांसभोजन बुद्ध एवं बौद्ध साधुओको कराया गया तो जैनियोंने उसी समय इसका प्रकट विरोध किया, किन्तु यह समझमें नहीं आता कि जब वौद्ध गृहस्थोके लिये भी अहिसाव्रत लागू है तब वे किस तरह चौद्ध भिक्षुओंके लिये मांस भोजन तैयार करसकते है ? परन्तु बौद्धशास्त्रोमें अनेक स्थलोंपर मांस भोजन तैयार किये जानेका उल्लेख मिलता है और एक स्थलपर
१. महावग्ग ६।२३।२; २५२,३१, और १४ २. रत्नकरण्ड आपकाचार । 3. अगुत्तरनिकाय-अहकनिपात-सहीसुत १२, महापरित निव्यानुसुत्त ४१४१८, अंगुत्तरनिकाय-पचकनिपात-उगागहपतिमुत. ४. महावग्ग ९३१.
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और म० बुद्ध]
[ १७१ जब मांस बाजारमें नहीं मिला तो बौद्ध गृहस्थिनने स्वयं अपनी जांघको काटकर मांस भोजन तैयार करके बौद्ध संघको खिलाया था यह उल्लेख है। इससे स्पष्ट है कि म० बुद्धकी अहिसा जैन अहिंसासे कितनी हेय प्रकारकी थी। जैन अपेक्षा वह हिसा ही है। म० बुद्धने केवल प्रकटरीतिसे प्राणी बध करनेको-जैसे यज्ञमें होम कर पशुओंको नष्ट करनेका विरोध किया था। सुक्ष्म हिंसाकी ओर उन्होने दृष्टिपात ही नहीं किया। यह खयाल ही नहीं किया कि मृत मांसमे भी कोटिराशि सूक्ष्म जीवोकी उत्पत्ति होती रहती है, जैसे कि आजकल विज्ञान (Science)से भी प्रमाणित है। इस अवस्थामे भी मांसको खाना स्पष्टतः हिसा करना है । इस तरह जैन अहिसाका महत्त्व प्रकट है। स्वय आधुनिक बौद्ध विद्वान श्री धर्मानंद कोसाम्बीका निम्न कथन जैन अहिंसाकी विशेषताको प्रकट करता है। वह लिखते है कि " म० बुद्धपर यह आरोप था कि लोगोके घर आमंत्रण स्वीकार करके वह मांस भोजन करते थे और गृहस्थ लोग उनके लिये प्राणियोंका बध करके वह मांस भोजन तैयार करते थे। जैन श्रमण दूसरेके घरका आमंत्रण स्वीकार नही करते। यदि खास उनके लिये कोई अन्न तैयार किया गया हो (उदिसकट) तो वे उसको निषिद्ध समझते थे और अव भी समझते है, क्योकि उसके तैयार करनेमें अग्निके कारण थोड़ी बहुत हिंसा होती ही है और स्वीकार करनेसे श्रमण उस हिसाका मानो अनुमोदन ही करता है । अहिसाकी यह व्यापक व्याख्या बुद्धभगचानको पसंद नहीं थी। जानबूझकर किसी भी प्राणीको क्रूरता
१. Vinaya Texts.
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१७२
[ भगवान महावीरपूर्वक न मारना चाहिये, सिर्फ यही उनका कहना था,"' अतएव म० बुद्धके चारित्रनियम जैनधर्मकै अणुव्रतोंसे भी समानता नहीं करसक्ते यह प्रकट है। वास्तवमें निसप्रकार सिद्धान्त विवेचनमें म० बुद्धने वैज्ञानिकता और पूर्णताका ध्यान नहीं रक्खा वैसे ही चरित्रनियमोके विषयमें देखने मिलता है। एक आधुनिक विद्वान् इस विषयमें जो लिखते है वह दृष्टव्य है:___ "परीक्षा करनेपर यह प्रकट हो जाता है कि बौद्धधर्मका सुन्दर आचार वर्णन एक कपित नींवपर स्थिर है । हमें वेदोकी प्रमाणिकताका निषेध करना है, अच्छी बात है । हमें अहिंसा और त्यागका पालन करना है, अच्छी बात है। हमें कोंके बन्धन तोडने हैं, अच्छी बात है, परन्तु सारे संसारके लिए यह तो बताइये हम है क्या ? हमारा ध्येय क्या है ? स्वाभाविक उद्देश्य क्या है ? इन समस्त प्रश्नोका उत्तर बौद्धधर्ममें अनूठा पर भयावह है, अर्थात 'हम नहीं है। तो क्या हम छायामें श्रम परिश्रम कर रहे है ? और क्या अंधकार ही अतिम ध्येय है ? क्यों हमे कठिन त्याग
१. पुरातत्व भाग ३ ४ ३२७. इश्री लेखमें बौद्र लेखकने जन प्रमोंपर मास मक्षणका आरोप करनका प्रयत्न श्वे० ग्रन्थोके आधारसे किया है, किन्तु आचारागसूत्रके जिस अशको उन्होंने पेश किया है उसका अनुवाद डॉ. जैकोषीने (Jam Sutras I ) में यह नहीं किया है जो इन वौद्ध लेखकने दिया है । इमलिये इस अशसे भी यह मारोप प्रमाणित नहीं है। फिर यदि जन प्रमाण मास भोजन करते होने, तो क्या चौर इनको यों ही छोड़ देने जर ये शालीम उनश गुला विरोध कर रहे थे? नय चौद्र प्रन्यों मे जैन प्रमोशी निरामिपता प्रमाणित है। (देसो दी जेन होटल मंगजीन भाग ६ न. २ पृष्ठ ८-२१ भोर इन्द्रियन हिस्टोरील बारटनी भाग २ अंक ४)
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-और म० बुद्ध]
[ १७२. करना है और हमें क्यो जीवनके साधारण इंद्रियसुखोंका निरोध करना चाहिए ! केवल इसलिए कि शोकादि नष्टता और नित्य मौन निकटतर प्राप्त हो जाएं। यह जीवन एक भ्रान्तवादका मत है और दूसरे शब्दोमें उत्तम नहीं है । अवश्य ही ऐमा आत्माके अस्तित्वको न माननेवाला विनश्वरताका मत सर्वसाधारणके मस्तिष्कको सतोपित नहीं कर सक्ता ! बौद्धमतकी आश्चर्यजनक उन्नति उसके सैद्धातिक नश्वरवाद (Vahila. ) पर निर्भर नहीं थी, बल्कि उसके नामधारी "मध्यमार्ग" की तपस्याकी कठिनाईके कम होनेपर ही थी।""
बौद्ध धर्ममे अगाडी कहा गया है कि वह व्यक्ति जो बुद्ध धर्म और संघमें खासकर बुद्धमें-श्रद्धा प्राप्त करलेता है और मोहजनित अज्ञानता (Delusion) को छोड़ देता है वह आभ्यन्तरिक दृष्टि (Inner sight) को पाकर अन्तत. अर्हत् हो जाता है।' बुद्धने जिस समय सर्व प्रथम कौन्डन्यको अपने मतमें दीक्षित किया तो उन्होंने कहा कि 'अन्नासि वत भो कोन्डण्णो !' अर्थात सचमुच कोन्डन्यने जान लिया है। क्या जान लिया है ? वही मार्ग निसको बुद्धने देखा था (अन्नात-Has that which is porceiv-d). इसके साथ वह अर्हत् कहलाने लगा। वास्तवमें बुद्धके प्रारंभिक शिष्य अपनी उपसम्पदा ग्रहण करनेके साथ ही 'अर्हता
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१, जैनगजटगे मि० हरिसत्यभट्टाचार्य एम ए. आदि भाग ११ अक ५.२ की बुद्धिष्ट फिलासफी पृष्ट १२२. ३ विनय-टेश्वट्स १।८८.
• कौन्दन्य गोत्रके कई साधुओंका उल्लेख श्रवणवेलगोलके जैन शिलालेखोंमें है। इसलिए इन कौन्डन्य कुटपुत्त नामक भिक्षुको जो हमने पहले जैन मुनि बतलाया है वह ठीक है।
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-१७४ ]
[ भगवान महावीर
कहलाने लगे थे, जैसे कि हम देख चुके हैं। इस अवस्था में बौद्धोंके निकट 'अर्हत्' शब्द कितने हल्के अर्थ में व्यवहृत होता था, यह स्पष्ट है | स्व० मि० ही सडेविड्स हमको यही विश्वास दिलाते हैं कि 'व्यक्तित्वकी अज्ञानताके नाशसे जो विजय प्राप्त होती है, वह गौतमबुद्धकी दृष्टिसे, इसी जीवनमें और केवल इसी जीवन में प्राप्त करके भोगी जासक्ती है । यही भाव बौद्धोकी अर्हतावस्थासे है । अर्हत् वह है जिसका जीवन आंतिरिक दृष्टिसे पूर्ण बन गया है, जो ' उत्तम अष्टांग मार्ग' का बहुत कुछ अभ्यास कर चुका है और जिसने बन्धनोंको तोड दिया है एवं जिसने चौद्ध धर्मके चारित्र नियम और संयमका पूर्णत अभ्यास कर लिया है ।" यह बौद्धो अर्हत्का स्वरूप है । जिस समय व्यक्ति अष्टाङ्गमार्गका पूरा अभ्यास कर लेता है और ध्यान आदिमें भी उन्नति प्राप्त कर चुकता है, बुद्ध कहते हैं, उसे आर्य ज्ञानका प्रकाश दृष्टि पडता है । यह म० बुद्धका 'निर्वाण' है और व्यक्तिके मरण पहिले ही यह प्राप्त होता है । " अंतिम मरण 'परिनिव्वान' है । 'निव्यान' अवस्थामें आनन्दकी प्राप्ति होती है, परन्तु इसके उपरान्त व्यक्तिकी क्या दशा होती है इसपर बुद्ध चुप हैं । यदि कहीं यह मौन भन किया गया है तो वहां स्पष्टताका अभाव है । कभी पूर्ण नाशका प्रतिपादन है तो कभी किसी यथार्थ दशाका | किन्तु पूर्ण अभावको ही प्रधानता प्राप्त है। परिनिव्वानमें व्यक्तिका पूर्ण क्षय (खय) हो जाता है । यही म० बुद्धका परम उद्देश्य है ।
भङ्ग
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१. बुद्धिज्म: इट्स हिस्ट्री एन्ड लिटरेचर पृष्ठ १९३० २० बुद्धिस्ट फिलासफी पृष्ठ ६१.
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[१७५
-और में बुद्ध 1
प्रकट रीतिसे हम म० बुद्धके बताये हुए अर्हत् और निर्वाण पदोंकी तुलना जैनसिद्धान्तके क्षायिक सम्यक्त्व और अर्हत पदसे क्रमशः कर सके हैं; किन्तु यह तुलना केवल बाह्यरूपमें ही है। मूलमे बौद्धोंके अर्हत्पदकी समानता जैनोंके अर्हत्पदसे नहीं की नासक्ती! प्रत्युत बाह्यरूपमें जैन अईतावस्थाके समान म० बुद्धका निव्वानपद भी है जिसका विवरण जाहिरा जैनविवरणसे सहशता रखता है; यद्यपि मूलमें वहां भी पूर्ण भेद विद्यमान है। अस्तु, __इस प्रकार म० बुद्ध और भगवान महावीरका उपदेश वर्णन है और यहा भी दोनोमें पूरापुरा अन्तर मौजूद है। भगवान महाचीरका दिव्योपदेश एक सर्वज्ञ परमात्माके तरीके बिल्कुल स्पष्ट, पूर्ण और व्यवस्थित, वैज्ञानिक ढंगका प्रमाणित होता है। म० बुद्धका उपदेश तत्कालीन परस्थितिको सुधारनेकी दृष्टिसे हुआ प्रतीत होता है और उसमें प्रायः स्पष्टताका अभाव देखनेको मिलता है। वास्तवमे न म० बुद्धको ही अपने उपदेशकी सैद्धांतिकताकी ओर ध्यान था और न उनके अनुयायियोंको । उनके उपदेशकी मान्यता जो इतनी विशद हुई थी उसमें उनका प्रभावशाली व्यक्तित्व कारण था ! उनके निकट पहुंचकर व्यक्ति मोहनमंत्रकी तरह मुग्ध हो जाता था और उसे उनके धर्मके औचित्वको जाननेकी खबर ही नहीं रहती थी। इसी वातको लक्ष्य करके उनका उपदेश भी विविध मान्यताओंको लिये हुये था। प्रत्येक मतके अनुयायीको अपना भक्त बनानेके लिये म० बुद्धने अपने सिद्धांतोंको
१ बुद्धिष्ट फिलामकी पृष्ट १४-१५ और के० जे० सॉन्डर्स गौतमबुद्ध पृष्ट ७.
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२७८]
[ भगवान महावीरयही पवित्रताका मार्ग है । " (२०२७७ ) भगवान महावीरके स्याद्वाद सिद्धान्तमें इनका उपदेश एकांत दृष्टिसे नहीं दिया गया है । उसका श्रद्धानी स्पष्ट प्रकट करता है किः"एकः सदा शापतिको ममात्मा, विनिर्मलः साधिगमखभावः। वहिभवाः सन्सपरे समस्ता, न शाश्वताःकर्मभवाःस्वकीया॥२६
सामायिकपाठ॥' __ अर्थात्-'मेरा आत्मा अपने स्वभावमें सदेव एक है, नित्य है, विशुद्ध है और सर्वज्ञ है। शेष जो है वे सब मेरेसे बाहिर हैं, अनित्य है और कर्मके ही परिणाम रूप हैं । इसीलिए:'संयोगतो दुःखमनेकभेदं, यतोऽश्नुते जन्मवने शरीरी। ततनिधासौ परिवर्जनीयो, यियासुनानितिमात्मनीनाम् ।।२८
अर्थात'शरीरके सयोगमें पड़ा हुआ यह आत्मा विविध प्रकारके दुःखोका अनुभव करता है । इसलिये जिन्हें अपनी आत्माकी मुक्ति वाछनीय है उन्हें इस शारीरिक सम्बन्धकोमन, वचन, कायकी अपेक्षा त्यागना चाहिये।
इसतरह स्याद्वादकी अपेक्षा वस्तुका यथार्थरूप प्रकट होनाता है। म० बुद्धकी तरह भगवान महावीरने भी संसारको अनित्य और नाशवान प्रकट किया है, किन्तु यह केवल व्यवहार नयकी अपेक्षा है, जिसके अनुसार ससारमें पर्यायें उपस्थित होती रहती हैं । मूलमें संसारके सामान्य अपेक्षा ससार नित्य है, क्योंकि संसार-प्रवाहका कभी अन्त नहीं होता है। इसीलिए जैनदर्शनमें द्रव्यकी व्याख्या "सद द्रव्यलक्षणम् ॥ २९ ॥ उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत ॥३०॥९॥" की है । अर्थात् द्रव्य सत्तावान नित्य है
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और म० बुद्ध]
[१७९ और यह वही है ओ उत्पाद व्यय ध्रौव्य कर संयुक्त है। इसतरह वस्तुओंके यथार्थ और व्यावहारिक दोनों रूपोंका विवरण वास्तविक रीत्या जैन धर्ममें दिया हुआ है। बौद्ध धर्मके समान एकांत वादको यहां आदर प्राप्त नहीं है । इसलिए उचित रीतिमें ही आचार्य मल्लिसेन भगवान महावीरका यशोगान करते हैं:"अन्योन्यपक्षमतिपक्षभावात् यथा परे मत्सरिणः भवादाः। नयानशेपा नपिशेपमिच्छन् न पक्षपातो समयस्तथा ते ॥"
भावार्थ-भगवन् ! आपकी वह पक्षपातमय एकान्त स्थिति नहीं है, जो कि उन लोगोकी है जो एक दूसरेके विरोधी और आपके मतसे विपरीत हैं। क्योंकि आप उसी वस्तुको अनेक दृष्टियोंने प्रतिपादित करते हैं।
इसतरह जैन सिद्धांत-स्याहादका महत्व प्रकट है। सचमुच यदि इसका उपयोग हम अपने दैनिक जीवनमें करें तो हमारी धार्मिक असहिष्णुताका अन्त हो नावे । सब प्रकारके सिद्धान्तोंकी मानताकी मसलियत इसके निकट प्रगट होजाती है। यही कारण है कि भगवान महावीरके दिव्योपदेशके उपरांत उस समयमें प्रचनिमतसे मत मतांतर लुप्त होगये थे और मनुष्य सत्यको जानकर लामी प्रेमले गले मिले थे। इसप्रकार भगवान महावीर और म० बुद्धके पनौका दिग्दर्शन करके हम अपने उद्देशित स्थानको प्रायः पचनते हैं अर्थात् भगवान् महावीर और म० बुद्धकी विभिन्न
भोदन घटनाओं का पूर्ण दिग्दर्शन कर चुकते हैं।
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[ भगवान महावीर (७)
उपसंहार । भगवान् महावीर और म० बुद्धके विभिन्न जीवन एक दूसरेके नितान्त विपरीत थे, यह अब हमें अच्छी तरह ज्ञात है। हम निस आशाको लेकर इस ओर प्रयत्नशील हुये थे, वह प्रायः फलवती दिखाई पड़ रही है । उसके फलके अनुसार भगवान महावीरके सम्बंधमें जो मिथ्या भ्रम फैल रहा है उसका वास्तविक निराकरण हमारे नेत्रोके अगाडी है । हम जानते है कि भगवान महावीर म० बुद्धसे अलग एक ऐतिहासिक महापुरुष थे। उन्होने म० बुद्धकी तरह किसी नवीन मतकी स्थापना नहीं की थी; बल्कि पहिलेसे जो जैनधर्म चला आरहा था, उसका पुनरुत्थान मात्र किया था। जैन धर्मकी स्थापना म० बुद्ध द्वारा बौद्ध धर्मका परिवर्तन होनेके बहुत पहिले हो चुकी थी !
किन्तु इममें संशय नहीं कि भारतके ये दो चमकते हुये रत्न सार्वभौमिक प्रकाशको पा रहे हैं । इन दोनों युगप्रधान पुरुषोंका व्यक्तित्व प्रारम्भसे ही एक दूसरेसे विभिन्न रहा है। अथ च नन्हीं अवस्थासे ही वह अतीव प्रभावशाली था। अहिसाका दिव्य उपदेशउनके व्यक्तित्वसे किस तरह प्रगट होरहा था यह हम प्रगट कर चुके है । सचमुच भगवान् महावीरके दिव्य जीवनमें मुख्यता यह थी कि वह यथार्थ सत्यके अन्वेषीका एक अनुपम आदर्श था। अनुपम इसलिये था कि उन्होने अध्ययन, मनन और तपश्चरण द्वारा पूर्ण उत्कृष्टताके परमात्म पदको उस ही जीवनमें प्राप्त कर लिया था। जरा विचारिये तो कि ज्ञानोपार्जनका मार्ग
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-और म० बुद्ध ]
[ १८१ 'कितना नीरस है ! उसमें पगपगपर विविध संशयात्मक विषयों और भयानक ध्येयसे विचलित करनेवाले कन्टकोंका समागम होता है। किन्तु भगवान महावीरका अपूर्व साहस और शौर्य इन सब कठिनाइयोंपर विनयी हुआ था। उनको आत्माकी अपूर्व ज्ञानादि शक्तियोंमें दृढ़ श्रद्धान था। उसीके अनुरूप उन्होंने नियमित ढंगसे "उस परमोत्कृष्ट अवस्थाको प्राप्त करनेके अतुल प्रयत्न किये थे। परिणामतः वह ज्ञान एवं प्रकाशके सनातन स्थानको प्राप्त हुए थे। इस सर्वज्ञावस्थामें उन्होंने वस्तुस्थितिरूपमें वैज्ञानिक रीतिसे प्रत्येक पदार्थका निरूपण किया था, जिससे सर्वप्रकारकी शंकाओंका अन्त होकर बुद्धिकी सतुष्टि होगई थी। उनके वैज्ञानिकधर्मोपदेशमें प्रत्येक आत्माकी स्वाधीनता सिद्ध हो गई थी। प्रत्येक प्राणीको अपने ही शुभाशुभ कर्मोंमें सुख-दुःखका कारण प्रतीत होगया था और यह भी भान होगया था कि वे प्रत्येक अपने ही पुरुषार्थके बल परम सुखी होसक्ते हैं । अन्य कोई उनको सुखी नही बना सक्ता । जिस समय वह स्वयं परावलंबिताकी उपेक्षा करके स्वावलम्बी बनकर सन्मार्गका अनुसरण करेगा तब ही उसको आनंदमय दशाका अनुभव प्राप्त होगा। परतंत्रताको नष्ट करना ही उसमें मुख्य था। इसके साथ ही उनका उपदेश व्यक्तिको उदारताका पाठ 'पढ़ानेवाला था। हृदयसंकीर्णता बुरी है! एकान्त दृष्टि मिथ्या है। अनेकांतका आश्रय लेना उपादेय है। अनेकांतीके निकट सर्व मतोंके आपसी विरोध और उल्झी गुत्थिया सहजमें सुलझ जाती हैं। तथापि उदार दृष्टिको रखते हुये भी कोरी बाह्य क्रियायोंसे पूर्ण कर्मकाण्ड अथवा इंद्रियलिप्साके मार्गमें फंसा रहना भी कार्यकारी
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१८२ ]
[ भगवान महावीर
नहीं है । यह भगवान् महावीरके चरित्र और उपदेशसे स्पष्ट प्रगट है । उद्देश्य प्राप्तिके लिये अपनी परमोत्कृष्ट अवस्थामें भगवानने एक नितान्त, सरल और वैज्ञानिक मार्ग बतलाया था, जैसे कि हम देख चुके हैं । इस मोक्षमार्गपर चलता हुआ प्राणी साम्य भावका पक्का हिमायती होता है । प्रत्येक जीवात्माको अपने समान समझकर वह किसी भी प्राणीको मन, वचन, काय द्वारा कष्ट नहीं देता है । तथापि गृहस्थावस्थामें रहते हुये भी वह नियमित ढंगसे सांसारिक कार्यों को पूर्ण करता है । इस रीतिसे वह अपना जीवन व्यवहार बनाता है कि वह स्वयं उद्देश्य प्राप्तिकी ओर अग्रसर होता जाय और दूसरोंको भी उस ओर चलनेमे सहायता दे ! सचमुच भगवानका दिव्योपदेश सार्वभौमिक प्रेम, शौर्य और सहनशीलताका खासा पाठ पढ़ाता है; जिसका पालन करनेसे केवल भारतका नहीं, प्रत्युत समग्र मानव समाजका दुःख सर्वथा नष्ट होसक्ता है । इस प्रकार उत्तम और सरल जीवन व्यतीत करनेका विधान हमे अन्यत्र कठिनतासे मिलता है । इसका कारण यही है कि भगवानने अटल विश्वासके साथ घोर परिश्रम करके अपने पुरुषार्थके बल उस पर - मोत्कृष्ट अवस्थाको प्राप्त कर लिया था जिसमें ज्ञान और प्रकाश स्वयं मूर्तिमान् हो आ विराजते है ! अतएव भगवानका दिव्य जीवन हमको ज्ञानोपार्जन में पूर्ण दत्तचित्त रहनेका प्रगट उपदेश देरहा है ।
म० बुद्धको भी आर्योंके उत्कृष्ट ज्ञानमें दृढ़ श्रद्धान था वह इतना अटल था कि छः वर्षकी कठिन तपस्या करनेपर भी जब उनको उसकी प्राप्ति नही हुई तब भी उनका विश्वास उसमें से जरा भी ढीला न पड़ा ! उन्होंने यही कहा कि इस कठिन मार्गके अति
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-और म० बुद्ध ]
[१८३ रिक्त उसको प्राप्त करनेका कोई दूसरा मार्ग होना चाहिये। परिणामतः उन्होंने उसकी प्राप्तिका एक मध्य मार्ग ढून्ढ लिया । उस समय उन्हे इस दृढ़ श्रद्धानके अनुरूप साधारण ज्ञानसे एक उच्च प्रकारके ज्ञानकी प्राप्ति हुई थी, जैसे कि हम देख चुके हैं। वास्तवमें पुरुषार्थ अकारथ जानेवाला न था। उन्होंने अपने उस मध्यमार्गका प्रचार सर्वत्र किया ! यद्यपि पूर्ण सर्वज्ञताके अभावमें उनका धर्मोपदेश पूर्णता और सैद्धांतिकतासे रहित था; परन्तु उन्होंने तात्कालिक आवश्यक सुधारसे अपनी मोहनी सुरतके बल उसका बहुत कुछ प्रचार कर लिया। उस समय लोग आपसी विवादोमे ही समय नष्ट करते थे, उन्होंने उसको अधर्ममय ठहरा कर एक नियमित ढंगसे जीवन व्यतीत करनेका उपदेश दिया। सार्वभौमिक प्रेमका उपदेश उन्होंने भी दिया था, किन्तु वह पूर्णत: सबके लिये समान हितकारी नहीं था। विचारे निरापराध पशुओको यद्यपि यज्ञवेदीसे बहुत कुछ छुटकारा मिल गया था, परन्तु मनुष्योंकी जिह्वा लम्पटताके कारण उनके प्राण संकट में ही रहे थे। बुद्धने इस ओर ध्यान नहीं दिया। किन्तु इस असैद्धांतिकताके रहते हुए भी म० बुद्धका जीवन भी ज्ञानोपार्जनके लिए दृढतासे प्रयत्न करनेका ही उपदेश देता है । केवल साधन और साध्यके उचित खरूपका ध्यान रखना यहां आवश्यक है।
दूसरी ओर भगवान महावीरका जीवन परम उदारताके साथ साथ समयानुसार परिवर्तनके लिये तैयार रहनेकी प्रकट शिक्षा देता है। उनके परम उदार धर्मोपदेशसे सर्व जाति और पांतिके एवं सर्व प्रकारकी सभ्यताके मनुष्य प्रतिबुद्ध होकर परस्पर गले मिले थे। क्षत्री, ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र, चाण्डाल, पशु, पक्षी सबहीने भगवा
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१.८४]
[भगवान महावीरनके उदार धर्मोपदेशसे लाभ उठाया था। उनका उपदेश किसी खास सम्प्रदायके लिये नहीं था। खासकर सामान्य जनता (Masses) को लक्ष्यकर उनका उपदेश होता था । यही कारण था कि उनके उपदेशसे मनुष्य अपने आपसी प्रभेदको भूल गये थे । इससे स्पष्ट प्रकट है कि भगवान समयानुसार परिवर्तन-सुधारको आवश्यक समझते थे। उस समय साम्प्रदायिकता वेहद बढ़ी थी, उसका अत होना लाजमी था। भगवानके दिव्योपदेशसे उसका अन्त होगया। यही नहीं उस समय कठिन ब्रह्मचर्य और तपश्चरणकी भी आवश्यक्ता थी, भगवानने अपने दिव्य जीवनसे इसका आदर्श उपस्थित कर दिया था। आजीवक ब्राह्मण आदि साधुजन जिस समय ब्रह्मचर्यकी आवश्यक्ता नहीं समझ रहे थे, उस समय भगवानको ब्रह्मचर्य और कठिन तपश्चरणका उपदेश अपने चारित्र द्वारा गृहस्थ अवस्थासे प्रकट करना लानमी ही था। आज भी भारतहितके लिये हमको भगवानके इस आदर्शका अनुकरण करना श्रेयस्कर है।
म. बुद्ध भी सामायिक सुधारके पक्के हामी थे। उन्होंने समयकी परिस्थितिके अनुसार बहुत कुछ सुधार किया था, यह हम देख चुके हैं। उनके उपदेशसे भी लोग अपनी साम्प्रदायिकताको गंवा बैठे थे। इस तरह उनका जीवन भी सामयिक सुधारके लिये हर समय तैयार रहनेका ही उपदेश देता है।
तीसरी मुख्य बात भगवान महावीरके जीवनकी यह है कि उन्होंने स्त्रियोंका विशेष आदर दिया था। उनके समवशरणमें पुरुषोंक पहिले स्त्रियोंको स्थान प्राप्त था। यद्यपि स्त्रियोंको भी समान धर्माधिकार प्राप्त थे परन्तु उनको स्त्री योनिसे मोक्ष लाम करनेकी
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-और म० बुद्ध ]
[१८५
योग्यता प्राप्त नहीं थी। इसी कारण वे परम निग्रन्थ रूप धारण नहीं कर सक्तीं थी। उस समय-भगवान महावीरके शासनकी श्राविकायें विशेष ज्ञानवान और विदुषीं थीं। आज भारत हितके नाते 'प्रत्येक भारतीयको भगवानके इस दिव्य चरित्रसे शिक्षा लेना उत्तम है। भारतीय स्त्रियोकी दशा जिस समय ज्ञानवान और आदरमय होगी उसी समय हमारे जीवन भी उत्कृष्ट बनेंगे, तब ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, पुरुषार्थोकी सिद्धि होसक्ती है । म० बुद्धने भी गृहस्थ सुखके लिए स्त्रियोंको ज्ञानवान बनाना और उन्हें आदरकी 'दृष्टिसे देखना आवश्यक बतलाया था।
अन्ततः भगवान महावीरका जीवन उन युवकोंके लिये एक अनुकरणीय एवं आदर्श है जो उन्नति करके सत्कीर्तिका मुकुट अपने शीशपर रखना चाहते हैं। उन्हें अपने उद्देश्य प्राप्तिके लिए दृढ़प्रयत्न होना चाहिये । उद्देश्यमें श्रद्धान जमा लेना आवश्यक है। उद्देश्यहीन जीवन एक दुःखमय जीवन है। फिर इस उद्देश्यको क्रमवार-नियमित ढंगसे प्राप्त करना लाजमी है। धीरता और संतोषपूर्वक कर्तव्यपरायण रहना उसमें आवश्यक है। धीरे २ ही मनुष्य उन्नति कर सकता है। वह एकदम उन्नतिकी शिखिरपर नहीं पहुंच सका है । भगवान् महावीरने इसीप्रकार उन्नति करके निर्वाणपदको प्राप्त किया था। इसके विपरीत म० बुद्धने साधुके एक नियमित जीवनक्रमका अभ्यास नहीं किया था. जिसके कारण वे पूर्ण ज्ञानको प्राप्त करने में असमर्थ रहे थे। यद्यपि ध्येयमें उनका श्रद्धान भी . अटल था किन्तु उसकी आतुरताने उनको उससे वंचित रक्खा। फिर
भी उनको साधारण ज्ञानसे कुछ अधिककी प्राप्ति हुई हीथी। अस्तु,
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१८६]
[भगवान महावीरइसप्रकार भगवान महावीर और म. बुद्धके जीवन है और उनसे जो शिक्षायें हमें प्राप्त होती हैं वह भी प्रकट है। दोनों ही युगप्रधान पुरुष समकालीन और क्षत्री राजकुमार थे । भ० महावीरसे म० बुद्ध प्रायः तीन वर्ष उमरमें बड़े थे। उन्होंने गृहत्याग करके विविध धर्मपन्योका अभ्यास किया था और वे एक समय जैन मुनि भी रहे थे। उपरांत मध्यमागको प्राप्त करके ३५ वर्षकी अवस्थासे उन्होंने उसका प्रचार करना प्रारम्भ किया था। इस समय भगवान महावीर एक सामान्य मुनिकी तरह छमस्थावस्थामें थे। इस उपदेशमें म० बुद्धने सामयिक परिस्थितिको बहुत कुछ सुधारा था; परन्तु अपने पूर्ण जानके अभावमें उनका उपदेश सेन्डातिकतासे रहित था। इसपर भी तपस्याकी कठिनाईके अभाव और म० बुद्धके व्यक्तिगत प्रभावसे उसका प्रचार विशेप हुआ था।
इसप्रकार स्वयं म० बुद्धद्वारा बौद्धधर्मकी सृष्टि हुई थी। उनसे पहले यह धर्म भारतमें नहीं था क्योकि यदि यह होता तो म० बुद्ध अन्यत्र कहीं न भटककर अपनेसे पहले हुये बुद्धोके बताये मार्गका अनुसरण करते । यही कारण है कि बौद्धग्रन्थों में बुद्धोकी संख्या भी ठीकसर एक नहीं बताई गई है । भगवान् महावीरने इसके विपरीत अपने पूर्वगामी तीर्थंकरों के समान ही एक नियमित साधुनीवनका अभ्यास किया था और अन्ततः सनातन जैनधर्मका पुनरुद्धार किया था, जो देश-विदेशोंमें फैल गया ! म० बुद्धका वौडधर्म सम्राट अशोकद्वारा विदेशोंमें-खासकर चीन, जापानमें-विशेष फैलाया गया था किन्तु जैनधर्म इसके पहले ही जैनमुनियों द्वारा यूनान आदि देशोंमें पहुंच चुका था । चंद्रगुप्त मौर्य
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-और म० बुद्ध ]
[ १८७
और सम्प्रति मौर्य सम्राटोंद्वारा इसका प्रचार अशोकके पहले ही होचुका था । फिर खारवेल, महामेघवाहनने जैनधर्मकी प्रभावना भारतव्यापी किंवा जावा आदि देशोंमें की थी। चीन और जापानमें भी जैनधर्म एक समय अवश्य रहा था, इसका प्रमाण वहांकी एक सम्प्रदायविशेषके अस्तित्वसे होता है। जो अहिंसाको विशेष मानते
और रात्रिभोजन नहीं करते है । जैन बुद्धधर्म' नामक चीनाई धर्मकी सदृशता साधारणतः जैनधर्मसे है । वह भेदविज्ञानको मुख्य मानते है। (देखो, दी रिलीजन्स आफ एम्पाइर ट० १८७)। इसतरह भगवान् महावीरद्वारा पुन. घोषित होकर जैनधर्म बहु प्रचलित होगया था ।
भगवान् महावीरने गृहस्थावस्थामें ब्रह्मचर्य पूर्वक श्रावकके व्रतोका अभ्यास करके करीब ३० वर्षकी अवस्थामें गृहत्यागकर दिगम्बर मुनिके व्रत धारण किये थे । बारह वर्ष तक घोर तपस्या
और ध्यान करनेपर उनको करीव ४३ वपकी अवस्था में सर्वजताका लाभ हुआ था। इसी समयसे वे अपना उपदेश देने लगे थे। भगवानकी सर्वज्ञताको मवुद्धने भी स्वीकार किया था और उसका प्रभाव म० वुद्धके जीवनपर इतना पड़ा था कि उनके जीवनकी तत्कालीन घटनाओका प्रायः अभाव ही है। अन्ततः भगवान महावीरने पावापुरसे जब निर्वाण लाम किया था तब म० बुद्ध जीवित थे। उपरांत म० बुद्ध करीब पांच वर्षतक और उपदेश देते रहे थे इस समय राजा अजातशत्रुने उनके धर्मको अपनाया भी था आखिर बौद्धशास्त्र कहते हैं कि कुसीनारामें म० बुद्धका 'परिनव्यान' घटित हुआ था। संक्षेपमें दोनो युगप्रधान पुरुषोती ये जीवन घटनाये हैं इनमें भगवान महावीरके दर्शन हम एक साक्षात् परमात्मा रूपमें करते है। वे एक अनुपम तीर्थकर थे। यह प्रस्ट है। इतिगम !
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१८८]
[भगवान महावार
परिशिष्ट। चौद्ध साहित्यमें जैन उल्लेख । __ भारतीय साहित्यमें उपलब्ध बौद्ध साहित्य भी विशेष प्राचीन है। बौद्धधर्मके प्रख्यात् विद्वान् प्रा. हीसडेविड्स अन्य विद्वानोंके साथ यह सिद्धकर चुके हैं कि बौ डोके पालीग्रन्थोंकी रचना आजसे करीब २२०० वर्ष पहिले होचुकी थी। अशोकके समय अर्थात् ईसवी सनसे पूर्व तीसरी शताब्दिमें इन ग्रन्थोंका अधिकांश भाग प्रायः उसी रूपमें स्थिर होचुका था जैसा उसे हम आज पाते हैं।' तथापि मिसिन हिसडेविड्सका कथन है कि यह ग्रन्थ ईसवीसन्से पूर्व ८० वर्षमें लिपिवद्ध होचुके थे। ऐसी दशामें इन बौद्ध ग्रन्थोंमें जैनधर्मके सम्बन्धमें जो उल्लेख है वे विशेष महत्त्वके हैं। क्योंकि उनके कथन भगवान महावीरके बहुत निकटवर्तीकालके हैं। ___ हमें बतलाया गया है कि 'बौद्धोंके समस्त धार्मिक ग्रन्थ तीन भागोंमें विभक्त हैं, जो 'त्रिपिटक' कहलाते हैं। इनके नाम क्रमशः "विनयपिटक', 'सुत्तपिटक' और ' अभिधम्म' पिटक हैं । प्रथम पिटकमे बौद्ध मुनियोके आचार और नियमोंका, दूसरेमें महात्मा बुद्धके निज उपदेशोंका और तीसरेमें विशेषरूपसे बौद्ध सिद्धान्त
और दर्शनका वर्णन है । 'सुत्तपिटक के पांच 'निकाय ' व अग हैं। इनमें अनेक स्थानोंपर जैन धर्मका उल्लेख करके वर्णन कियाँ गया है। इनमें से जिनका अध्ययन करनेका सौभाग्य हमें प्राप्त हुओं
१. भगवान महावीर परिशिष्ट पृष्ट. २७५. २. दी, साम्स ओफ दी सिसटर्स भूमिका पृष्ट. १५ ३. भगवान महावीर पृष्ट २७५.
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-और म. बुद्ध]
[ १८९ है और उनमें जैनधर्म सम्बन्धी उल्लेख जो हमें मिले हैं उनको हम विवेचन सहित निम्नप्रकार पाठकोंके समक्ष उपस्थित करते हैं।
'सुत्तपिटक' का द्वितीय अंग 'मज्झिमनिकाय' है। इसमें जो जैन उल्लेख आये हैं, उनमें से कतिपय इस प्रकार है । एक स्थानपर बुद्ध कहते हैं:
'एक मिदा हं, महानाम, समयं राजगहे विहरामि गिझकूटे पब्बते । तेन खो पन समयेन संबहुला निगण्ठा इसिगिलिपस्से काल सिलायं उन्मत्थका होन्ति आसन पटिक्खित्ता, ओपक्कमिका दुक्खा तिप्पा कटुका वेदना वेदयन्ति । अथ खोह, महानाम, सायण्ह समयं पटिसल्लाणा बुद्वितो येन इसिगिलि पस्सम कालसिला येनते निगण्ठा तेन उपसंकमिम् । उपसंकमित्त्वा ते निगण्ठे एतदवोचम्: किन्नु तुम्हे आधुसो निगण्ठा उन्भट्टका आसन पटिक्खित्ता, ओपकीमका दुक्खा तिप्पा कटुका वेदना वेदियथाति । एवं वुत्ते, महानाम, ते निगण्ठा में एतदवोचु, निगण्ठो, आबुसो नाथपुत्तो सबजु, सब्बदस्सावी अपरिसेस ज्ञाण दस्सनं परिजानातिः चरतो चमे तिट्ठतो च सुत्तस्स च जागरस्स च सततं समितं ज्ञाण दस्सनं पच्चुपट्टिततिः, सो एवं आहः अस्थि खो वो निगण्ठा पूब्वे पापं. कम्मं कतं, तं इपाय कटुकाय दुकरिकारिकाय निजरेथ; यं पनेत्त्य एतरहि कायेन संयुता, बाचाय संयुता, मनसा संवुता तं आयर्ति पापस्स कम्मरस अकरणं, इति पुराणानं कम्मानं तपसा व्यन्तिभावा, नवानं कम्मानं अकरणां आयति अनवस्सवो, आयति अनवस्सवा कम्मक्खयो, कम्मक्खया दुक्खक्खयो, दुक्खक्खया वेदनाक्खयो, वेदनाक्खया सब्बं दुक्खं निजिण्णं भविंस्सति तं च पन् अम्हाक
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१९०]
[ भगवान महावीर- . रुच्चति चेव खमति च तेन च आम्हा अत्तमना ति" __इसका भावार्थ यह है कि म० बुद्ध कहते हैं: “ हे महानाम, मैं एक समय राजगृहमें गृडकूट नामक पर्वत पर विहार कर रहा था। उसी समय ऋषिगिरिके पास 'कालशिला' (नामक पर्वत) पर - बहुतसे निर्ग्रन्थ (जैनमुनि) आसन छोड उपक्रम कर रहे थे और तीव्र तपस्यामें प्रवृत्त थे। हे महानाम, मै सायंकालंके समय उन निग्रंथोके पास गया और उनसे बोला, 'अहो निग्रन्थ ! तुम आसन छोड़ उपक्रम कर क्यों ऐसी घोर तपस्याकी वेदनाका अनुभव कर रहे हो? हे महानाम ! जब मैने उनसे ऐसा कहा तब वे निग्रन्थ इस प्रकार वोले-'अहो, निग्रन्थ ज्ञातपुत्र सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं, वे अशेष ज्ञान और दर्शनके ज्ञाता हैं। हमारे चलते, ठहरते, सोते, जागते समस्त अवस्थाओंसे सदैव उनका ज्ञान और दर्शन उपस्थित रहता है। उन्होने कहा है:-'निर्ग्रन्थो ! तुमने पूर्व (जन्म)में पापकर्म किये हैं, उनकी इस घोर दुश्चर तपस्यासे निर्जरा कर डालो । मन, वचन और कायकी संवृतिसे (नये ) पाप नहीं चंधते और तपस्यासे पुराने पापोंका व्यय होजाता है। इस प्रकार नये पापोंके रुक जानेसे आयति (आश्रव) रुक जाती है, आयति रुक जानेसे कर्मोका क्षय होता है, कर्मक्षयसे दुक्खक्षय होता है, टुक्खक्षयसे वेदना-क्षय और वेदना-क्षयसे सर्व दुखोंकी निर्जरा होजाती है।' इसपर बुद्ध कहते है - यह कथन हमारे लिये रुचिकर प्रतीत होता है और हमारे मनको ठीक जंचता है।
१ जिसमनिकाय (P. T.S) भाग १ पृष्ठ ९२-९३. २ भगवान महावीर पृष्ट २५६-२७७. (परिशिष्ट ३)
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-और म० बुद्ध]
[१९१ इसमें म० बुद्धने भघवान महावीर (निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र )के अस्तित्व और उनकी सर्वज्ञता तथा उनके द्वारा उपदिष्ट कर्म सिद्धान्तको प्रकट किया है। यह ठीक उसी तरह है, जिस तरह जैन ग्रन्थोंमें बताया गया है। ऐसाही प्रसंग 'मज्झिमनिकाय में एक स्थान पर और आया है। इसका अनुवाद हम मूल पुस्तकमें पहिले यथास्थान लिख चुके है। उसमें भी इसी प्रकार भगवान महावीर
और उनकी सर्वज्ञता एवं उनके द्वारा प्रतिपादित कर्मसिद्धान्तको स्वीकार किया गया है। जैन धर्मकी मानताओके यह स्पष्ट और महत्वशाली प्रमाण हैं।
इनके अतिरिक्त 'मज्झिमनिकाय ' में एक 'अभयराजकुमार । सुत्त है और इसमें श्रेणिक विम्बसारके पुत्र अभयकुमारका वर्णन
है । यह अभयकुमार वही हैं निन्होंने भगवान महावीरके समव__ शरणमें दीक्षा ली थी और जो पहिले बौद्धधर्मावलम्बी थे। जैन
शास्त्रोंमें इनका विशद वर्णन मौजूद है, किन्तु बौद्धोंके उक्त सुत्तमें कहा गया है कि जिस समय बुद्ध राजगृहके वेलुवनमें मौजूद थे, उस समय निगन्थ नातपुत्त (भगवान महावीर ) ने इनको सिखलाकर म० बुद्धके पास भेना कि जाकर बुद्धसे पूछो कि तुम किसीसे कठोर या अनुचित शब्द कहते हो या नहीं। यदि वह उत्तरमें हां कहें तो उनसे पूछना कि तुममें और साधारण मनुष्योंमें फिर क्या अन्तर है ? यदि वह इन्कार करें तो कहना कि इन शब्दोंका व्यवहार तुमने कैसे कियाः
१ मज्झिमनिकाय (P. T.S) भाग २ पृष्ठ २१४-२१८. २ मूल पुस्तक पृष्ठ ८८. ३. P. T. S. भाग १ पृष्ट ३८२ इत्यादि.
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[ भगवान महावीर
"
आपा यिको देवदत्तो, निरविको देवदत्तो इत्यादि । इससे बुद्धको नीचा देखना पडे यह भाव था, परन्तु जिस समय अभयकुमार म० बुद्धके निकट पहुंचे तो उन्होंने अभयकुमारका समाधान कर दिया और वे म० युद्धके अनन्य भक्त होगये । इस कथानक में कितना तथ्य है यह सहज अनुभवगम्य है । वास्तव में बौद्ध ग्रंथ साम्प्रदायिकताके पक्षसे अछूते नहीं है और उनकी एक खासयित यह है कि उनमें कहीं भी ऐसा वर्णन नहीं है जिसमें एक बौद्धानुयायी के विधर्मी होनेका जिकर हो । कमसे कम हमारे देखने में ऐसा उल्लेख नहीं आया है । इसके प्रतिकूल विधर्मी जैनादिके बौद्ध होनेका उल्लेख उनमें अनेक स्थानोंपर मिलता है । इससे इस ओर बौद्ध शास्त्रोके कथनको यथातथ्य स्वीकार करना जरा कठिन है । उसके जैनधर्म सम्बन्धी उल्लेखों का विवेचन करते हुए हम इस व्याख्याका प्रकट स्पष्टीकरण निम्नकी पंक्तियोंमें देखेंगे । इसके अतिरिक्त जैनग्रन्थोमें हमे बौद्धग्रन्थोसे प्रतिकूल दर्शन होते है । वहां खुले शब्दो में एक जैनके विधर्मी होजानेकी घटना स्वीकार की गई है ।' ऐसी दशामें हम सहसा बौद्धग्रंथों के उल्लेखों को बिल्कुल यथार्थ सत्य स्वीकार नहीं कर सक्ते । तिसपर उनमें एक ही कथा अपने एक दूसरे ग्रन्थके विरुद्ध वर्णन भी रखती है । इन्हीं अभयराजकुमारके सम्बन्धमें हमें बौद्धों के 'तिब्बतीय दुल्ब' में बतलाया गया है कि वे वैशालीकी वेश्या आम्रपालीके गर्भ और राजा श्रेणिकके औरससे जन्मे थे । किन्तु यह
११२]
१. उत्तरपुराण, श्रेणिकचरित्र, आराधना कथाकोप इत्यादि ग्रंथ देखना चाहिए. २. दी क्षत्रिय लेन्स इन बुद्धिस्ट इन्डिया पृष्ट १२७-१२८.
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- और म० युद्ध ]
[ १९-३
कथन उनके पाली ग्रन्थोंके विपरीत हैं ।' 'थेरीगाथा' में कहा गया है कि वे उज्जैनीकी वेश्या पद्मावती के गर्भ और सम्राट् श्रेणिक विम्बसारके औरस से जन्मे थे । इस अवस्थामें यहां यथार्थताका पता लगाना कठिन है ! प्रत्युत यही प्रतिभाषित होता है कि उपरान्त अभयकुमार जैन मुनि होगये थे, इसीलिए बौद्ध ग्रंथोंमें उनको नीचा दिखानेके लिए ऐसा वर्णन लिखा है । इसी तरह कुणिक अजातशत्रु जबतक अपने प्रारंभिक जीवनमें जैनी
ग्रंथो में
'सर्व दुष्कृत्यका
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वौद्ध होगए तब इस प्रकार
रहे थे तबतक उनका उल्लेख बौद्ध करनेवाला' रूपमें हैं । उपरान्त जब वे उनका उल्लेख नहीं किया गया है । इस परस्थितिमें यह स्पष्ट है कि अभयराजकुमार के सम्वन्धमें नही है ।
उनका उल्लेख यथार्थ
तिसपर उपरोक्त सुत्तमे जो यह कहा गया है कि भगवान महावीरने उनको सिखलाकर भेजा था, यह जैन शास्त्रोके प्रतिकूल है । जैन शास्त्र स्पष्ट प्रकट करते है कि तीर्थङ्करावस्थामे भगवान् महावीर रागद्वेष रहित थे । उनको न किसीसे राग था और न किसीसे द्वेष | उनका उपदेश अव्यावाघ, सर्व हितकारी वस्तुस्थितिरूपमें होता था ! इस कारण यह संभव नहीं कि भगवान् महावीरने म० बुद्धको नीचा दिखानेके लिये अभयकुमारको सिखाकर उनके पास भेजा हो ! तिसपर यह भी तो जरा विचारनेकी बात है कि उन्होने उन खास शब्दोको कैसे बतलाया होगा जो अशोकके
१. पूर्ववत् २ दी साम्य ऑफ दी सिस्टर्स पृष्ठ ३०. १. हम रा भगवान महावीर पृष्ठ १३५
૧૩
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१९४]
[ भगवान महावीरजमानेमें आकर बौद्ध साहित्यके संकलित होनेपर निर्दिष्ट हुये थे!इस अपेक्षा बौद्धोंका उक्त कथन ठीक नहीं जंचता ।
उपरान्त इसी निकायके 'चूल सकुलदायी सुत्त' मैं भगवान् महावीर द्वारा बताए गये पंचव्रतोका यथार्थ उल्लेख है। वहां भी इनको अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह बतलाया है तथा इन्हें आत्माकी सुखमय दशाको प्राप्त करनेका कारण जतलाया है। यह चूल सकलोदायी जैन मुनि थे तथापि इसमें अन्यत्र 'उपालीसुत्त' द्वारा अहिंसा सिद्धान्तका प्रभेद प्रकट किया है। उपाली एक जैन श्रावक था। वह म० बुद्धके पास गया था। उसने वहां यह प्रकट किया था कि हिंसा चाहे जानबूझकर की गई हो या विना जानेबुझे, परन्तु वह पापचंधका कारण अवश्य है । यह जैन दृष्टिसे अहिसाकी परमोच्च व्याख्या है। विना जाने भी जो हिसा होगी उसका पापवध अवश्य भुगतना पडेगा, यद्यपि श्रावकोंके लिये अहिंसाकी मान्यता अन्य प्रकारकी है। वह सिर्फ उसका पालन एकदेशरूपमें करते हैं, केवल जानबूझकर किसीको मारने अथवा पीडा पहुंचानेका ही उनके त्याग होता है, अन्यथा वे आरम्भी और उद्योगी हिंसाके भागी होते ही हैं। अपनी रक्षाके लिये और धर्म-मर्यादाको स्थिर करनेके लिये वे लडाइयां भी लड़ते हैं परन्तु एक मुनि डम अहिसाका पालन पूर्ण रीतिमें करता है। वह अपने शरीर-पोषगके लिये भी हिसा नहीं करता है। जो कुछ श्रावकोने अपने लिये भोजन बनाया होगा उसीमेंसे अल्प मात्रामें
१ मज्झिमनिकाय भाग २ पृष्ठ ३५-१६ । २. म. नि. भाग १ पृष्ठ ३७१ । ३. रत्नारण्डश्रावकाचार (मा० प्र०) पृष्ठ ४३ ।
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[१९५ वह शरीररक्षाके निमित्त ग्रहण कर लेता है । तथापि इस अवस्थामें भी अज्ञातावस्थामें जो हिंसा होती है उसके लिए वे मुनिगण प्रतिक्रमणादि करते हैं । आचार्य अमितगति यह भावना इस तरह प्रकट करते हैं:'एकेन्द्रियाद्या यदि देव देहिनः, प्रमादतः संचरता इतस्तः। क्षता विभिन्ना मिलिना निपीडिना, तदस्तु मिथ्या दुरनुष्ठितं
तदा ॥५॥ __ भावार्थ-यत्रतत्र विचरण करते हुए प्रमादवश यदि कोई हिसा हुई हो या किसी प्राणीको दुःख पहुंचा हो, अथवा उसको अनिष्ट संयोग मिला हो तो उस एक या अधिक इन्द्रियवाले प्राणीको उक्त प्रकार पीड़ा पहुंचानेका यह दुष्कृत्य दूरहो। इस प्रकार जैनसिद्धांतमें अज्ञात अवस्थाकी हिसा भी पापबंधका कारण मानी गई है और उपाली इसी दृष्टिसे उसका प्रतिपादन म० बुद्धके निकट करता है। किन्तु म बुद्ध जैन अहिंसाकी इस व्यापकताको स्वीकार नहीं करते हैं, यह हम पहिले ही देख चुके हैं । वह केवल जानबूझकर किसीको मारने या पीड़ा पहुंचानेको ही हिसा मानते हैं । श्वेताम्बरोंके सूत्रकृताङ्गमें बुद्धकी इस मान्यताका खण्डन किया गया है। वहां एक बौद्ध कहता है कि यदि कोई व्यक्ति धोखेमें किसी प्राणीको मारदे और उसका आहार बौद्ध अमणोंको दे तो वे इसे स्वीकार करलेंगे क्योंकि उस प्राणीको मारनेके भाव तो उस व्यक्तिके थे ही नही । इसलिए इसमे हिसा भी नहीं समझना चाहिये। तथापि यदि कोई व्यक्ति
१. मूलाचार पृष्ठ १९७-१९८ । २. सामा काठ ५13 जैनसूत्र (S B.E.) भाग २ पृष्ठ ४१४-४१६.
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[ भगवान महावीर
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निर्जीव वस्तुमें एक प्राणीकी कल्पना करके उसका घात करे तो वह हिसा कही जायगी और बही पापका कारण है । उचित शब्दों द्वारा वहां बौद्धोंकी इस व्याख्याका विरोध किया गया है। सचमुच म० बुद्ध अपने एकान्तमतकी अपेक्षा केवल एक दृष्टिसे ही यहां हिसाका प्रतिपादन कर रहे हैं । वह मन, वचन, काय द्वारा जो हिसा होती है, उसको उसी दशामें पापमय समझते हैं, जिस समय वह व्यक्ति जानबूझकर उसको कररहा हो । जैन मान्यता इसके प्रतिकूल है। उसके अनुसार यह एकदेशी अहिंसा है, जैसे कि हम देख चुके हैं । अतएव जैन सिद्धान्तमें मन, वचन, कायिक तीन प्रकार के डन्ड पापबंधके कारण बताये है । प्रमादवश कायिक दन्ड जैसे चलते फिरते चींटी आदिका मरना भी पापबंधका कारण है । उपाली इन तीनो दण्डों का उल्लेख करता है परन्तु बुद्ध इसको स्वीकार नहीं करते । अन्ततः कहा गया है कि उपाली बुद्धके उपदेश से प्रतिबुद्ध हो गया । इसमे कहातक तथ्य है, यह हम कह नहीं सक्ते । जैन शास्त्रोंमें उपालीका उछेख हमारे देखने में नहीं आया है तथापि यह स्पष्ट है कि जैनधर्मका अहिंसावाद भगवान महावीर के समय से ही वैसा है जैसा कि आज उसे हम पारहे है ।
इसके अतिरिक्त अन्यत्र जैनियोंकी यह मान्यता बताई गई है कि व्यक्तिको अपना स्वार्थ साधना चाहिये, फिर चाहे मातापिताकी भी हत्या क्यों न करनी पड़े ! यह जैन मान्यता के प्रतिकूल है, उसके अनुसार बिल्कुल मिथ्या है। मात्रम होता है यहां
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१. मनिकाय भाग ११४३५२, २. जातक भाग ५ १४ ૧૨૨ મૌ ફિલ્ટરીનિZY ૮૨.
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-और 'म बुद्ध
[१९७ पर बुद्ध नैनियोंके इस उपदेशको व्यक्त कररहे हैं कि मुमुक्षुको सब बातोंको गौण करके अपना आत्महित सबसे पहिले साधन करना चाहिये । इसका यह अर्थ नहीं है कि वह अपने मातापिताके प्राणोंतककी परवा न करे । ऐसा यदि वह करेगा तो वह अपने अहिंसावतके विरुद्ध नायगा। इस अवस्थामें बुद्ध जैनियोंपर इस मान्यताके कारण उसी डालको काटनेका लाञ्छन आरोपित नहीं कर सक्ते जो स्वयं उनकी छाया देती हो। जैनदृष्टिसे यह पल्ले दर्जेकी कृतघ्नता है। __तथापि उपालीमुत्तके अन्तमें कहा गया है कि दीघतपस्सीको उपालीके बौद्ध होनेके समाचारों पर विश्वास नहीं हुआ। वह निगन्य नातपुत्तके पास गया और उपालीके चावत उनसे सब कहा। इसपर वह संघ सहित उपालीके निकट गये और उसे समझाने लगे, पर वह न माना।' यह कथन भी कुछ अटपटा है। एक श्रावकके लिये, जो कोई विशेष प्रभावशाली व्यक्ति भी नहीं था, उसके निकट भगवान महावीर गये हों! यह वर्णन जैन मान्यताके विरुद्ध है । तीर्थकरावस्था में वे भगवान प्राकृतरूपमें रागद्वेष और वाञ्छासे रहित होकर उपदेश देते थे। इसलिये उनका वहां जाना केवल नैनियोंकी मान्यताके विपरीत नहीं है, बल्कि प्रकृत अयुक्त है । अतएव बौद्ध अन्धका यह कथन मिथ्या प्रतीत होता है। जन शास्त्रों में ऐसा उल्लेख नहीं मिलता जिससे यह प्रकट हो कि भगवान सर्वज्ञावस्थामें किसीके गृहादिको गये हों, पत्युत उनका विहार सबै संघसहित होता था।
• सिमनिाग भाग १ पृष्ठ ३01-20७.
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१९८]
[ भगवान महावीरउपरोक्त दीघतपस्सी निर्ग्रन्थ मुनि बताये गये हैं और पहिले इन्हींसे म० बुद्धका वार्तालाप हुआ था और इनके कहनेपर ही उपाली भी बुद्धसे उक्त प्रकार बातचीत करने गया था। दीघतपस्सीके सम्बन्धमें कहा गया है कि " जब नालन्दाके आम्रबनमें म० बुद्ध ठहरे हुये थे उस समय आहारोपरान्त दीघतपस्सी नामक एक निग्रन्थ (मुनि) उनके निकट जाकर उपस्थित हुआ। बुद्धके कहनेपर वह एक नीचे आसनपर बैठा और परस्पर अभिवादन किया। उपरान्त बुद्धने पूछा, 'पापकर्म करनेके कितने द्वार है और पाप क्तिने है ?" इसके उत्तरमें उन्होने कहा, 'हमारे निकट पाप नहीं बल्कि डन्ड मुख्य है। तब बुद्धने पूछा, 'तो निर्ग्रन्थ कितने प्रकारके 'डन्ड' बतलाते हैं ? निम्रन्थ (मुनि) ने उत्तर दिया, 'डन्ड तीन प्रकारके है। कायडन्ड, वचनडन्ड और मनडन्ड । फिर बुद्धने प्रश्न किया, 'क्या- यह तीनो एक दूसरेसे भिन्न हैं ?' मुनिने कहा, हां, वे भिन्न है।' इसपर बुद्धने पूछा कि 'इन तीनोमें सबसे अधिक पापपूर्ण कौनसा है ?' उत्तरमें कहा गया कि 'निगन्योंके अनुसार कायडन्ड अधिक पापपूर्ण है । इसके उपरान्त उन मुनिने बुद्धसे पूछा कि तुम कितने प्रकारका डन्ड बतलाते हो। इसपर बुद्धने उत्तर दिया कि 'मैं डन्डका प्रतिपादन नहीं करता। मै.कम्म (कर्म-Deed) का उपदेश देता हूं।' यह सुनकर निग्रंथ मुनिने कहा कि 'तो तुम कायक्रम, वचिकम्म और मनोकम्म उसी तरह मानते हो जिस तरह हम कायडन्डो, वच्डिन्टो और मनोडन्डो मानते है। ठीक है, परन्तु इन तीनों में अधिक पापपूर्ण किसको स्वीकार करते हो ' दुद्धने वहा कि 'हम मनोकामको अधिक पाप
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-टा
-और म० बुद्ध]
[ १९९. पूर्ण समझते हैं। इस तरह पर यह वार्तालाप पूर्ण हुआ। दीघतपस्सी अपने स्थानपर लौट आये | इसमें तीन डन्डोंका कथन है वह प्राय. जैनधर्मके अनुसार ही है। जैनधर्ममें भी यह तीनों डन्ड इसी तरह स्वीकार किये हुये आज भी मिलते हैं । केवल क्रमका अन्तर है, बौड कायडण्डको पहिले गिनाते हैं, जबकि मनडन्ड गिनाना चाहिये । उनके इसी मज्झिमनिकायके पूर्व कथनसे यह वात प्रमाणित है । वहांपर भगवान महावीरको मन-कम्म (डन्ड)
और काय-कम्म (डन्ड) पर बराबर जोर देते लिखा है ।* अस्तु, मज्झिमनिकायमें भगवान् महावीरके विशेषणोंमें यह भी बतलाया है कि वे जानते थे कि किसने किस प्रकारका कर्म किया है और किसने नही किया है। (MN PTS. Vol. II. Pt II. pp. 224-228.)x इससे भी भगवानकी सर्वज्ञताकी सिद्धि होती है। इन सर्वज्ञ भगवान द्वारा ही अंग और मगध देशोंमें पहलेसे प्रचलित सिद्धांतवादको नवजीवन प्राप्त हुआ था, यह बात इसी बौद्ध ग्रन्थसे प्रमाणित है। (म०नि० भाग २ ८० २)।
'मज्झिमनिकाय' में अन्यत्र निगन्थपुत्त सञ्चक और बुद्धका कथानक है। कहा गया है कि जिस समय बुद्ध वैशालीमें थे, पांचसौ लिच्छवि कार्यवश सन्थागारमें एकत्रित हुये। इसी स्थानपर निगन्थपुत्त सच्चक पहुंचा और यह लिच्छवियोंसे बोला:-"आज लिच्छवियोंको आना चाहिये; मैं समन गौतमसे बाद करूंगा। यदि
१. पूर्ववत. । पूर्व भाग १ पृ. २३८ x दी समक्षत्री कैन्स ऑफ एन्शियेन्ट इडिया पृ० ११८ । २. मज्झिमनिकाय (P.T.S.) भाग ! पृ० २२५-२२६ । .
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२००]
[ भगवान महावारसमन (श्रमण ) गौतम (बुद्ध) मुझे उसी स्थानको प्राप्त करा देंगे, जिस स्थानपर सावक (श्रावक) अस्सनीने मुझे पहुंचाया है, तो मैं समन गौतमको बाद द्वारा उसी तरह परास्त करूंगा जिस तरह एक बलवान पुरुष बकरीको बालोंसे पकड़ लेता है और उसे निधर चाहता है उधर घुमाता है ।" यही नहीं सच्चकने उन सव उपायोको भी बतलाया जिनके द्वारा वह बुद्धको परास्त करेगा। कतिपय लिच्छवियोंने इसपर उससे पूछा कि 'समन गौतम निगन्थपुत्त सच्चकके प्रश्नोका उत्तर किस तरह देंगे अथवा वह किस तरह उनके प्रश्नोंका उत्तर देगा ? अन्योंने भी इसी तरह सञ्चकके विषयमें पूछा । अन्ततः सञ्चक अपने साथ पांचसौ लिच्छवियोंको बादमे ले जानेको सफलीभूत हुआ। वह वहां पहुंचा नहा भिक्षुकगण इधर उधर घूम रहे थे और उनसे कहा कि "हम गौतम महात्माके दर्शन करनेके इच्छुक हैं । उस समय बुद्ध महाक्नमें एक वृक्षके नीचे ध्यान करनेके लिये बैठे थे। निगन्थपुत्त सच्चक बहुतसे लिच्छवियोंके साथ उनके निकट पहुंचा और पारस्परिक अभिवादन करके जरा दूरीसे एक ओर बैठ गया। कतिपय लिच्छवियोंने बुद्धको प्रणाम किया, कतिपयने पारस्परिक मैत्रीवर्धक आभिवादन किये और किन्हींने हाथ जोडकर नमस्कार किया और वे एक ओर बैठ गए तथापि कतिपय प्रख्यात लिच्छवियोंने अपने और अपने कुलोंके नाम प्रकट करके एक ओर आसन ग्रहण किया, कतिपय विल्कुल मौन रहे और कुछ फासलेसे बैठ गए । उपरांत बुद्ध और सच्चकके मध्य संघों और गणों तथा बौद्धसिद्धांतके सम्बन्धमें वाट प्रारम्भ हुआ। सच्चक उसमें परास्त हुआ और बुद्धको अपने घर आहार ग्रहण
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- और म० बुद्ध ]
[ २०१ .
करनेके लिए निमंत्रित किया । बुद्धने यह आमंत्रण स्वीकार कर लिया । लिच्छवियोंको भी इस आमंत्रणकी खबर पड़ी और उनसे कहा गया कि जो वस्तु वे देना चाहें खुशीसे ले आयें । प्रातः ही लिच्छवि बुद्धके लिये पांचसौ थालियां भोजनकी लाये । सच्चक और लिच्छवियोंने भक्तिभावसे बुद्धको आहार दिया । इस तरह यह कथानक है । सच्चक एक जैनीका पुत्र है परन्तु वह स्वय जैन नहीं है यह इसी ग्रन्थ अन्यत्र के एक उल्लेखसे प्रमाणित है । 'जैन ग्रन्थोंमें इसके विषयमें कोई चर्चा नहीं है । यद्यपि यह स्पष्ट है कि. इस कथानकसे जैनधर्मका अस्तित्व बौद्धधर्मसे पहिलेका प्रमाणित होता है जैसा कि डॉ० जैकोबीने प्रकट किया है। सचमुच जब वह बादी जिसका पिता जैन था, म० बुद्धका समकालीन है, तो यह कदापि सम्भव नहीं है कि जैनधर्मकी स्थापना म० वुद्धके जीवन में हुई हो, जैसे कि हम अपनी मूल पुस्तकमें भी देख चुके हैं । तथापि सञ्चकका यह कथन कुछ तथ्य नहीं रखता कि उसने महावीरस्वासीको वाद में परास्त किया हो, क्योंकि वह स्वय म० वुद्धसे वादमें पराजित हुआ है, जिनका ज्ञान भगवान महावीरके ज्ञानसे हेय प्रकारका था । इस दशामें वह भगवानसे वाद करनेका घमंड नहीं कर सक्ता। यहां भी जैन तीर्थंकर के महत्वको हेय प्रकट करनेके लिये चौद्धोंका यह प्रयत्न है ।
अन्यत्र मज्झिमनिकाय में म० वुद्ध यह भी मत निर्दिष्ट करते हैं कि सुखसे ही सुखकी प्राप्ति होती है । इसपर वहां जैन मुनि
१. पूर्व पृ० २०० । २. जैन सूत्र (S. B. E.) भाग २ भूमिका पृ० २३ । ४. देखो मूळ पुस्तक पृ०
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२०२]
[ भगवान महावीरइसका विरोध करते हैं, वह कहते हैं, "नहीं गौतम, सुखसे सुखकी प्राप्ति नहीं होती, किन्तु कष्ट सहन करनेसे होती है ।" ( Nay friend, Gotana, bappiness is not to be got at by happiness, but by suffering ). * HET HN तपश्चरणको मुख्यता देनेका है। जिसको म० बुद्ध स्वीकार नहीं करते । जैन धर्ममे परमसुख प्राप्त करनेके लिए तपश्चरण भी मुख्य माना गया है । यही मत उस समयके मुनिमहाराज प्रकट कररहे हैं, सो ठीक है । तपश्चरण स्वयं सुखरूप है, इसलिए वह सुखमई मार्ग है। बुद्ध उसको कष्टमय समझते हैं यह उनका भ्रम है । अन्ततः मज्झिमनिकायमे जैन उल्लेख 'सामगामसुत' में और देखनेको मिला है और वह इस तरह है:
"एकम् समयम् भगवा सक्केसु विहरति सामगामे, तेन खो, पन समयेन निग्गन्थो नातपुत्तो पावायम् अधुना कालकत्तो होति । तस्स कालकिरियाय भिन्ननिग्गन्थ वधिकनाता, भन्डनजाता, कलहजाता विवादापन्ना उण्णमण्णम् मुखसत्तीहि वितुदन्ता विहरिन्ता।""
इससे स्पष्ट है कि म० बुद्ध जिस समय सामगामको जारहे थे उस समय उन्होंने निग्रंथ नातपुत्त (भगवान महावीर ) क निर्वाण पावामें होते देखा था। उपरान्त कहा गया है कि भगवान महावीरके निर्वाणलाम करनेके वाद निर्मथ संघमें मतभेद और कलह खड़े हो गये थे जिसके कारण वे दो विभागोंमें विभाजित हो विहार करने लगे। इससे यह समझना ठीक प्रतीत नहीं होता कि भगवानके निर्वाणलाभके साथ ही यह दशा उपस्थित हो गई थी.
* म. नि. भाग १ पृ. १३ । १. मज्झिमनिकाय भाग २ पृ० १४३ ।
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-और म० बुद्ध ]
[ २०३
किन्तु जिस समय राजा अशोकके राज्यकाल में यह बौद्धग्रन्थ संकरित हुये थे उस समय अवश्य ही यह परस्थिति घटित हो गई थी । इस कारण यदि यहां उक्त प्रकार उल्लेख किया गया है तो कुछ बेजा नहीं है। इससे प्रकट है कि जैनसंघ में पूर्ण भेद क्रमशः हुआ था । इस प्रकार मज्झिमनिकायके जैन उल्लेख जो हमारे देखने में आए उनका वर्णन है ।
अब पाठकगण, आइये बौद्धग्रन्थ ' अङ्गुत्तरनिकाय ' में जैन उल्लेखोंका दिग्दर्शन करलें । इसमें एक स्थलपर जैन श्रावकोंकी. क्रियायोंका विवेचन किया गया है ।' उसका अनुवाद इस प्रकार है कि " हे विशाखा ! एक ऐसे भी समण हैं जो निगन्थ कहलाते है । वे एक श्रावकसे कहते हैं: - 'भाई, यहांसे पूर्व दिशामें एक योजन तक प्राणियोंको पीडा न पहुंचानेका नियम ग्रहण करो। इसी तरह यहांसे पश्चिम, उत्तर, दक्षिण में एक योजनतक प्राणी हिंसा न करनेकी प्रतिज्ञा लो ।' इस प्रकार वे दयाका विधान कतिपय प्राणियोंकी रक्षा करनेमें करते हैं; तथापि इसी अनुरूप वे अदयाकी शिक्षा अन्य जीवोंकी रक्षा न करने देनेके कारण देते हैं ।"
।
यहां बौद्धाचार्य जैनियोंके दिखतका उल्लेख कर रहा है इस व्रतके अनुसार एक श्रावक दिशा विदिशाओं में नियमित स्थानोंके भीतर ही जाने आने और व्यापार करनेका नियम ग्रहण करता है। इसका भाव यह है कि साधारणतया मनुष्योंको कोई रोकटोक कही भी आने जानेकी न होनेसे उनके व्यापारादि निमित्त हिंसा
દ
१. अंगुत्तरनिकाय 3-७०-३ १२. रत्नकरण्ड श्रावकाचार (मा० प्र०) पृ० ६० ।
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२०४]
[ भगवान महावीरकरनेकी मर्यादा नहीं होती है किन्तु इस नियमको धारण करनेसे यह मर्यादा उपस्थित होजाती है और फिर वह व्यापार निमित्त भी पहलेसे कम हिंसा करनेका भागी होता है । यह ध्यानमें रखनेकी बात है कि श्रावकको आरंभी हिंसाका त्याग नहीं है। वह केवल जानबूझकर हिंसा नहीं करेगा, क्योंकि वह अहिंसाका पालन एकदेश रूपमें करता है । बौद्धाचार्यने यहांपर जैनाचार्यके भावको गौण करके उल्टा उनपर अदयाकी शिक्षा देनेका मिध्या लाञ्छन आरोपित किया है। यही बात डॉ० हर्मन जैकोबी इस सम्बन्धमें जैनसूत्रोंकी भूमिकामें प्रकट करते हैं। वे लिखते हैं:
We cannot espect one sect to give a fair and bouest esposition of the tenets of their opponents, it is but natural that they should put tbem in such a foriu as to make the objec. tions to be raised against them all the better applicable. (Jaipa Sutras. S. B. E. Pt. II. In tro. XVIII).
भावार्थ-यह आशा नहीं की जासक्ती है कि एक सम्प्रदाय अपने विपक्षी सम्प्रदायकी मान्यताओंका यथार्थ विवेचन करे । यह स्वाभाविक है कि वे उनको ऐसे विकृतरूपमें रखें कि जिससे उनपर अधिकसे अधिक आरोप अगाड़ी लाये नासकें। इस प्रकार चौद्ध अन्यमें जो रक्त प्रकार जेन नियम 'दिग्वत' पर लांछन लगाया गया है, वह ठीक नहीं है । तथापि यह दृष्टव्य है कि यह नियम मेगवान महावीरके समयसे अबतके अपने अविरतरूपमें हमको मिल रहा है।
अगाडी उक्त उल्लेखमें कहा गया है कि "पोपटके दिन चे (निगन्य) एक सावक (श्रावक )मे प्रेरणा करके कहते हैं-भाई,
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[२०५
- और म० बुद्ध __ तुम अपने सब वस्त्र उतार डालो और कहो, न हम किसीके हैं,
और न कोई हमारा है । परन्तु उसके माता पिता उसे अपना पुत्र
जानते हैं और वह उन्हें अपने मातापिता जानता है । उसके पुत्र ___ या पत्नी उसे क्रमश अपना पिता या पति मानते हैं और वह भी
उनको अपना पत्र अथवा पत्नी जानता है। उसके नौकर-चाकर उसे अपना मालिक मानते हैं और वह उन्हें अपने नौकर-चाकर जानता है इसलिये (निगन्थगण) उससे उस समय असत्य भाषण कराते हैं, जब वे उससे उपर्युक्त वाक्य कहलाते हैं । इस कारण मैं उनपर असत्य भाषणका आरोप करता हूं। उस रात्रिके उपरांत वह उन वस्तुओका उपभोग करता है जो उसे किसीने नहीं दी है, इस कारण मै उसपर उन वस्तुओंको ग्रहण करनेका लांछन लगाता हूं जो उसे नही दी गई है।"
यहां बौद्धाचार्य जैन श्रावकके प्रोषधोपवासका उल्लेख कर रहे हैं किन्तु इसमें भी उन्होने उक्त प्रकार चित्र चित्रण किया है। जिस समय श्रावक प्रोषधोपवास कालके लिये उक्त प्रकार प्रतिज्ञा . करता है उस समय वह सांसारिक सम्बन्धोसे विल्कुल ममत्व हटा लेता है और उसकी वह प्रतिज्ञा उसी नियत कालके लिये थी. इस कारण उसपर असत्य भाषण और अदत्त वस्तुओको ग्रहण करनेका आरोप युक्तियुक्त नहीं है किन्तु चौद्ध ग्रन्थके उक्त वर्णनसे यह प्रतिभाषित होता है कि प्रोषधके दिन श्रावककी चर्या विल्कुल मनिवत होजाती है, उसे सब वस्त्र उतारकर मोहको हटानेवाली उक्त प्रकारकी प्रतिज्ञा करते बताई गई है। परन्तु जेन शास्त्रोंमें
१. अंगुतरनिकाय ३-७०-3. और जनसूत्र भाग २ भूमिका ।
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२०६ ]
[ भगवान महावोर
इस व्रतका वर्णन इस प्रकार मिलता है । ' रत्नकरण्डश्राव काचार 'में यह इसप्रकार बतलाया गया है:--
' पर्वण्यष्टम्यां च ज्ञातव्यः प्रोषधोपवासस्तु । चतुरभ्यवहार्याणां प्रसाख्यानं सदेच्छाभिः ॥ १६ ॥ पंचानां पापानामलंक्रियारम्भगन्धपुष्पाणाम् । स्नानांजनस्यानामुपवासे परिहृतिं कुर्यात् ॥ १७ ॥ धर्मामृतं सतृष्णः श्रवणाभ्यां पितु पाययेद्वान्यान् । ज्ञानव्यानपरो वा भवतूपवसनतन्द्रालुः ॥ १८ ॥'
भावार्थ- 'पर्याणि (चतुर्दशी ) और अष्टमीके दिनोंमें सदेच्छासे जो चार प्रकारके आहारका त्याग किया जाता है, उसे प्रोपधोपवास समझना चाहिये | उन उपवासके दिनों में हिंसादि पचपापोंका, अलंकार, पुष्पगंध आदि धारण करनेका, वाणिज्य व्यापार आदि व्यवहारके आरभका तथा गीतनृत्यादि, स्नान, अञ्जनका परित्याग करना चाहिये । इनका परित्याग करके उन दिनोंमें धर्मामृतका पान सतृप्ण हो स्वय करे एवं धर्मात्माओंको करावे और ज्ञानध्यानमें लीन होकर द्वादशानुप्रेक्षाओका चितवन करे ।' इसमें यह स्पष्ट नही किया गया है कि ज्ञान ध्यानके समय उस श्रावकको क्या प्रतिमायोग धारण करना चाहिये अथवा आचार्यके उपदेशसे मोह दूर करनेवाला वाक्य कहकर नग्नवृत्तिमें कायोत्सर्ग करना चाहिये, जैसे कि उक्त बौद्ध उद्धरणमे कहा गया है । परन्तु सागारधर्मामृतजीमें स्पष्टतः यह कह दिया गया है कि रात्रिके समय वह श्रावक प्रतिमायोग (नग्न होकर ) धारण करके कायोत्सर्ग कर सक्ता है । यथा:
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- और मॅ० बुद्ध ]
'निशां नयतः प्रतिमायोगेन दुरितच्छिदे । ये क्षोभ्यते न केनापि तान्तु मस्तुर्य भूमिगाव ॥ ७ ॥
अ० ७ श्लोक ७ पृष्ठ ४२१ ।
इससे चौद्ध उद्धरणके उक्त कथनका एक तरहसे समर्थन होता है । बौद्ध उद्धरणमें रात्रि और दिनका भेद नही किया गया है । संभव है कि समयानुसार इस क्रियामें ढिलाई कर दी गई हो और आज तो इसका उल्लेख भी मुश्किलसे मिलता है । परन्तु उस प्राचीन समयमें इस शिक्षाव्रतके अनुसार नग्न होकर कायोत्सर्ग करना चहुत प्रचलित था । सेठ सुदर्शनके सम्बन्धमें हमें स्पष्ट वतलाया गया है कि उन्होने नग्न होकर कायोत्सर्ग किया था । यही बात अन्य कथाओसे भी सिद्ध है । प्रभाचंद्रजी अपनी 'रत्नकरण्ड' की टीका में ऐसा ही उल्लेख करते मालूम होते है, यथा: - 'मगधदेशे राजगृहनगरे जिनदत्तश्रेष्ठी कृतोपवासः कृष्णचतुर्दश्यां रात्रौ स्मशाने कायोत्सर्गेण स्थितो दृष्टः । ततोऽमितप्रभदेवेनोक्तम् । दूरे तिष्ठतु मदीया मुनयोऽमुं गृहस्थं ध्यानाच्च व्येति । अतएव चौद्धोंका उक्त कथन तथ्यपूर्ण है । इसमें कोई संशय नहीं कि ये व्रत श्रावकको त्याग अवस्थाकी शिक्षा देनेके उद्देश्य से नियत हैं । इसलिए उनमें उक्त प्रकार नग्न होकर कायोत्सर्ग करने का विधान होना युक्तियुक्त है ।
•
इसी निकाय में अन्यत्र एक सूची उस समयके साधुओंकी दी है और उसमें निगन्थोकी गणना आजीवकोके बाद दूसरे नम्बरपर की है; सो इससे भी जैनधर्मकी प्राचीनता स्पष्ट है । यह सूची इस प्रकार है:
(१) आजीवक, (२) निगन्थ, (३) मुण्ड - सावक, (४)
[२०७
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२०८ ]
[ भगवान महावीर
जटिलक, (५) परिव्वाजक, (६) मागन्डिक, (७) तेडन्डिक, (८) अविरुद्धक, (९) गोतमक, (१०) और देवधौमनिक
वह
इनमें नं० २ और नं० ३ की व्याख्या करते हुये बुद्धघोषने निगन्थों को ग्रन्थियोंरहित और नातपुत्तके नेतृत्वका साधु संघ लिखा है तथा यह भी लिखा है कि वे एक लंगोटी धारण करते हैं । इसके साथ ही वुद्धघोषने मुण्ड सावकोकी गणना भी इन्हींमें की है। यहां बौद्धाचार्य, बुद्धघोष, ऐलक, क्षुल्लक और व्रती श्रावकों का उल्लेख कर रहे हैं; क्योकि यदि यहां निगन्यका भाव मुनिसे होता तो उन्हें लंगोटी धारण करनेवाला वह व्यक्त नहीं करते; जब कि अपनी अन्य रचनाओं (धम्मपदत्थकथा आदि) में जैन मुनि - योंको नग्न प्रकट कर रहे हैं । तिसपर बुद्धघोष प्रायः ईसाकी पांचवीं शताब्दि के विद्वान हैं, सो उनके समय श्वेतांबर भेद भी जैन सघमें होगया था और इस दशा में संभव भी है कि वह श्वेतांबर संप्रदायके वस्त्रधारी मुनियोंका उल्लेख करते होते; परन्तु वह भी ठीक नहीं बैठता, क्योकि श्वे ० साधु केवल लंगोटी धारण नहीं करते और फिर वह साथ ही लगोटीधारी निगन्थके साथ मुण्डसावक - निगन्थका भी उल्लेख कर रहे हैं। इससे स्पष्ट है कि के प्राचीन जैन संघके ऐलक और व्रती श्रावकों का उल्लेख कर रहे हैं, जैसे कि दिगवर शास्त्र प्रकट करते हैं । उनका यह वक्तव्य कि ' श्रेष्ठ निगन्थ' ( Better Niganthas ) जो नग्न रहते थे, वे कहते है कि हम अपने कमण्डलको ढक लेते हैं कि कहीं जीवधारी
Dialogues of the Buddha S. B B. Vol.
II Intro to Kaesapa- Sihanada, Sutta.
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- और म० वुद्ध ]
[२०९.
पृथ्वीके कण, उसमें नं गिरें, + यह स्पष्ट कर देता है कि बुद्धघोष उक्त उद्धरणमे जैन मुनि और उत्कृष्ट श्रावक ऐलकका भेद ही प्रगट कर रहे है | अस्तु ! *
अंगुत्तरनिकाय में अन्यत्र एक दूसरा उल्लेख है; उससे भी भगवानके सर्वज्ञ होनेकी पुष्टि होती है। लिखा है कि " जब आनंद (बुद्धके मुख्य शिष्य ) वैशाली में थे, तब अभयं नामक लिच्छवि राजकुमार और पंडितकुमार नामक लिच्छवि आनंन्दके पास आये । अभयने आनन्दसे कहा कि 'निर्ग्रन्थ नातपुत्त (भागवान महावीर ) सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं। वह ज्ञानके प्रकाशको जानते हैं (अर्थात् केवलज्ञानी हैं) । उन्होंने जाना है कि ध्यानद्वारा पूर्व कर्मो को नष्ट किया जासक्ता है । कर्मोके नष्ट होने से दुःखका 1 होना बन्द होजाता है | दुःख ( Suffering) के बन्द होजानेसे हमारी विषयवासना नष्ट होजाती है और विषयवासनाके क्षय होजानेसे संसारमे दुःखका अन्त होजाता है । " २
+ Dhammapadam, Fausboll, P. 398 * यद्यपि 'मुण्डक श्रावक' का अर्थ बुद्धघोषके अनुसार हमने क्षुल्लक - ऐलकसे टिया है, किन्तु डॅ ० वी० एम० वारुआ अपनी 'प्री-बुद्धिष्ट इन्डियन फिलासफी' नामक पुस्तक में 'मुण्ड-साधक' सप्रदायको 'मुण्डक उपनिषद्' के परिव्राजक बहलाते हैं । बुद्धघोषने इनका स्वतंत्र उल्लेख किया है. इसलिए इनका स्वाधीन परिवाजक होना बहुत संभव है। सम्पर्क निगन्धोंसे होगा । इसलिए उम्रने उनकी गणना १. यह अभय सम्राट् श्रेणिकके पुत्र अभयकुमारसे भिन्न है, ऐसा डॉ० जैकोचीने प्रकट किया है । ( जैनसूत्र भाग २ की भूमिका ) २. P. T. S. Vol. I. pp. 220-221.
किन्तु इनका कुछ
निगन्योंमें की है ।
૧૪
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२१०]
[ भगवान महावीरइसमें केवल भगवान महावीरजीकी सर्वज्ञताका ही निरूपण नहीं किया गया है, प्रत्युत उनके बताये हुये मार्गका भी दिग्दर्शन कराया गया है, जो प्रायः ठीक ही है। इस निकायमें भी लिच्छवि सेनापति सीहका कथानक दिया है जिसका पूर्ण दिग्दर्शन हम अगाडी करेंगे । यहां बौद्धाचार्य भगवान् महावीरको कर्म-फलमें विश्वास करनेवाले क्रियावादी बतलाते हैं । (अ० नि० भाग ४ ४० १८०)। इसमें भगवान महावीरजीको यह कहते भी चतलाया है कि "वह सर्व लोकको देखते हैं जो उनके परिमित ज्ञानसे सीमित है ।" वुद्ध उस मतका खंडन करते है ।* यहांपर भगवानके ज्ञानमें लोकालोक स्पष्ट दिखता था इस अपेक्षा उनके निकट लोक सीमित रूपमें स्वीकार किया बतलाया गया मालूम पड़ता है । इसी निकायमे अन्यत्र उदासीन निगन्थ (जैन) साधु (उत्कृष्ट श्रावक) एक वस्त्रधारीका भी उल्लेख है। यह इसप्रकार है:"लोहिताभिजातिनाम निगन्था एकसाटका तिवदति।।'
इसका अर्थ यही है कि रक्त प्रकार ( लोहिताभिनाति ) के . निगन्थ है, जो एक वस्त्रधारी नामसे भी विख्यात् है । दि. जैन शास्त्रोमें ये एक वस्त्रधारी गृहत्यागी 'क्षुल्लक' नामसे ज्ञात हैं, जैसे कि हम मूल पुस्तकमे देख चुके है । 'क्षुल्लक' पदसे ही 'निगन्ध-अचेलक' पद प्राप्त होता है । इसतरह बौद्धग्रन्थका यह कथन भी जेनमान्यता के अनुकूल है। परन्तु इसमें उनको 'लोहिताभिनाति' का क्सि अपेक्षासे बनलाया है, यह दृष्टव्य है। आनी
* अगुमर० भाग ४ पृ. ८२९. १. भंगुननिय भाग ३ पृष्ट ३८३. २. पृष्ट
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-और म० बुद्ध ]
[२११ वकोंने इस अभिनाति सिद्धांतको प्रकट किया था तथा इसके द्वारा मनुण्य समानको छै अभिजातोंमें विभक्त किया था। हलिद अभिजातिमें आजीवक श्रावकोको रक्खा था, शुक्लमें आनीवक भिक्षु-भिक्षुणियोंको एवं आजीवक नेताओंको परमशुक्ल अभिजातिका बतलाया था । उपरोक्त उद्धरण इनके उपरांत आया है। अतएव इससे यहांपर भाव आजीविक सिद्धांतके मनुष्य विभागसे है । अंगुत्तरनिकायमें यह अभिजाति सिद्धांत भ्रमवश पूरणकस्सपका चतलाया गया है किन्तु वास्तवमें यह आनीवकोका है और उन्होंने अपने श्रावकोको हलिद अभिजातिमें रखकर निगन्थों (नैनो) के उत्कृष्ट श्रावकको लोहिताभिनातिमें रक्खा है। सचमुच यदि निगन्थ सप्रदाय उस समय ही स्थापित हुई होती तो उसका उल्लेख इसप्रकार होना कठिन था । इसतरह यह अंगुत्तरनिकायके उल्लेख हैं।
दीघनिकाय' में भी कतिपय जैन उल्लेख हमारे देखनेमें आये हैं । एक स्थानपर उसमें उस समयके प्रख्यात मतपर्वतकोंका वर्णन करते हुये भगवान महावीरके सम्बंधमें भी राजा अजातशत्रुके मुखसे
कहाया गया है कि:
"अन्नतरो पि खो राजामच्चो राजानाम् मगधम् अनातसत्तम् वैदेही पुत्तम् एतद अबोचः 'अयम् देव निगन्ठो नातपुत्तो सघी चेव गणी च गणाचार्यों च ज्ञातो यसस्ती तित्थकरो साधु सम्मतो वह जनस्स रत्तस्सू चिर-पब्ब जितो अडगतो वयो अनुप्पत्ता । २
१. भंगुत्तानिकाय भाग ३ पृष्ट ३८४. २. दीवनिकाय (P. T." S.) भाग १ पृष्ट ४८-४४.
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२१२]
[ भगवान महावारभावार्थ-यह सबके नेता हैं, गणाचार्य हैं, दर्शन विशेषके. प्रणेता है, विशेष विख्यात् हैं, तीर्थकर हैं, मनुष्यो द्वारा पूज्य हैं, अनुभवशील हैं, बहुत कालसे साधु अवस्थाका पालन कर रहे हैं, और अधिक वय प्राप्त हैं ।' यह वर्णन प्रायः ठीक ही है । इसके अतिरिक्त अन्यत्र इसी निकायमें एक 'पाटिकसुत्त' नामक सुत्तन्तुमे जैन विवरण है।' उससे प्रकट है कि म० बुद्धके जीवनमे ही भगवान् महावीरका निर्वाण होचुका था।
इसी सुत्तन्तमें एक कन्डर मसुक नामक मुनिका उल्लेख है। इन्होने नो नियमित दिशाओं में जानेकी प्रतिज्ञा की थी, उससे प्रतिभाषित होता है कि वह जैन मुनि थे। जैन मुनि ऐसे नियमका पालन करते हैं, यद्यपि बौद्ध कहते हैं कि लिच्छवियोको खुश करनेके लिये उन्होने यह प्रतिज्ञा ली थी। मूल इसप्रकार दिया हुआ है।
"एकम इदाहम् भग्गव समयम् वेसालियम् बिहरामि महावने कूटागार-सालायम् । तेन खो पन समयेन अचेलो कन्डरममुको वेसालियम् पटिवसति लाभग्ग-प्पत्तोच एव यसग्ग, प्रत्तोच वज्जि गामे। तस्स सत्तवत्त-पदानि समत्तानि समादिन्नानि होन्ति-'यावनीवम् अचेलको अस्सम् , न वत्थम् परिदहेय्यम् : यावजीवम् ब्रह्मचारी अस्सम् न मेथुनम् पटिसेवेय्यम् यावनीवम सुरा-मांसेन एव यापेय्यम्, न ओदन कुम्मासम् भुजेय्यम् पुरस्थिमेन वेसालियम् उदेनम् नाम चेतियम् तम् नातिक्कमेय्यमः दक्खिणेन वेसालियन् गोतमकम् नाम चेतियम् तम् नातिकमेय्यम् पच्छिमेन वेसालियम् सतम्बम् नाम चेतियम् तम् नातिक्कमेव्यम् उत्तरेन वेसालियम् बहुपुत्तम् नाम
१. दी० नि० (P.T.S) भाग 1 पृष्ट १-३५
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और म० बुद्ध ]
[२१३ चेतियम् तम् नातिक्कमेय्यम् न ति ।' सो इमेसम् सत्तन्नम् वत्त-पदानम् समादान हेतु लाभग्ग प्पत्तो च एव यसग्ग पत्तो च वलिगामे ।" दीघनिकाय ( P. T. S.) भाग ३ पृष्ठ ९-१० ।
इसमें पहिले अचेलक होकर यावज्जीवम् ब्रह्मचर्य धारण सुरा मांस त्याग आदिकी प्रतिज्ञा की हुई बतलाई गई है। सम्भव है कि पहिले कन्डरमसुक अनैन साधु होगा अथवा भ्रष्ट मुनि होगा। इसलिए उपरांत उसने ऐसी प्रतिज्ञा की ! जो हो, इतना स्पष्ट है कि इसमें जो प्रतिज्ञायें की गई हैं वह जैन मुनिकी चर्या में मिलती हैं। अस्तु; 'दीघनिकाय' के 'पासादिक सुत्तन्त' और 'संगीत सुत्तन्त' में भी जैन उल्लेख हैं। उनसे भी यह स्पष्ट है कि भगवान महावीरका निर्वाण म० बुद्धके जीवनकालमें होगया था। पासादिक सुत्तन्त' में यह इसप्रकार है:
"एकम् समयम् भगवा सक्केसु विहरति । (वेधज्जा नाम सेकया, तेसम् अम्बवने पासादे), तेन खोपन समयेन निगन्ठो नाथपुत्तो पावायम् अधुना कालकतो होति । तस्स कालकिरियाय भिन्ना निगन्ठं द्वेधिक जाता, भण्डन जाता, कलह जाता, विवादापन्ना अंजमंजम् मुख सत्तीहि वितूदन्ता विहरन्ति 'न त्वं इमं धम्म विनय आजानासि ? अहं इमं धम्म-विनयं आजानामि, किं त्वं इम धम्म विनयं आजानिस्ससि !' मिच्छा पटिपन्नो त्वं असि, अहं अस्मि सम्मा पंटिपन्नो, सहितम् मे, असहितन् ते, पुरे वचनीय पच्छा अवच, पच्छा बचनीय पुरे अवच, अविचिण्णन ते विपरावत्तं आरोपितो ते बादो, निग्गहीतो सि चर वादप्पमोक्खाय, निब्बेठेहि वा सचे यहोसीति ।' वधो एव खो मंजे निगन्ठेसु नाथपुत्तिनेसु वत्तति । ये
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२१४]
। भगवान महावारपि निगन्ठस्स नाथपुत्तस्स सावका गिही ओदात बसना, ते पि निगन्ठेसु नाथपुत्तियेसु निविण्ण रूपा विरत रूपा पटिवान रूपा, यथा तं दुरक्खाते धम्म विनये दुप्पवेदिते अनिय्यानिके अनुपसम संवत्तनिके असम्मा सम्बुद्धप्पवेदिते भिन्न धूपे अप्पटिसरणे ।" ( P. T. S. Vol. III. P. 117-118)
इसका भाव यही है कि जिस समय म० बुद्ध विहार कर रहे थे उस समय पावामें निगन्य नातपुत्त (महावीरखामी)का निर्वाण होरहा था। इसके बाद निगन्य संघमें भेद खड़ा हो गया और मुनिगण यह कहते आपसमें झगड़ते विचरने लगे कि 'तुम धर्मका खरूप नही जानते वह वैसे ठीक है जैसे हम कहते हैं । इस तरह मुनिजनको आपसमें झगड़ते देखकर श्वेतवस्त्र धारी निय श्रावक बड़े खेदखिन्न होरहे थे।
ऐसा ही उल्लेख मज्झिमनिकायमें भी है, जिसका दिग्दर्शन हम पहिले कर चुके है। उपरोक्तके अगाड़ी 'संगीत सुसन्त' (एष्ट २०९-२१०)में भी यही उल्लेख है । इससे स्पष्ट है कि मूलमें जैन संघ एक था। भगवान महावीरके निर्वाणके उपरांत ही उसमे झगडा खड़ा हुआ था। कितने काल उपरांत ? यह इन उद्धरणोंमें स्पष्ट नहीं है, किन्तु केवलज्ञानियों और शायद अंतिम श्रुतकेवली तक जव दि० और खे० दोनों ही एकमत हैं तब यह स्पष्ट है कि उस समय तक यह मतभेद अथवा झगड़ा जैनसघमें खडा नहीं हुआ था। श्रुतकेवली भद्रबाहुके समयमें ही यह दुःखद घटना घटित हुई थी और वहींसे परस्पर विद्वेषबीन पड़ गया था। यह समय चन्द्रगुप्तके राज्यके अंतिम अथवा किर्चित उपरान्त कालका
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-और म० बुद्ध
[ २१५ है। इस अवस्थामे सम्राट अशोकके राजत्व कालमें एकत्रित और मानित हुये उपरोक्त बौद्धसुत्तोंमें इसप्रकार जैन मुनियो-आचार्योका परस्पर झगड़नेका उल्लेख होना युक्तियुक्त ही है । उस उद्धरणमें श्वेतवस्त्रधारी जैन श्रावकोका भी उल्लेख है, जो जैन संघमे व्रती श्रावकके रूपमे होते ही हैं। इस तरह इस उल्लेखका खुलासा है।
इनके अतिरिक्त 'संयुत्तनिकाय' मे भी एक विषय उल्लेखनीय है। उसमें एक स्थलपर कहा गया है कि "भगवान महावीरने हिंसा, चोरी, झूठ, अब्रह्मचर्य और मादक वस्तु सेवनके त्यागका उपदेश दिया है तथा कहा है कि जितने समयतक किसी व्यक्तिने जीव वध किया हो, उस समयसे अधिकतक यदि वह दयाधर्मका अभ्यास करे और उसका समाधिमरण भी उस समयसे अधिक हो
तो वह व्यक्ति नर्कमे नहीं जायगा ।" इसमें बहुत कुछ अयथार्थ __ वर्णन किया गया प्रकट होता है । भगवान महावीरने जिन पांच
पापोका त्याग करनेका उपदेश दिया था, उनमें पांचवा मद्यपान त्याग न होकर परिग्रहपरिमाण व्रत था। मद्यपान त्यागका समावेश तो प्रथम व्रत हिंसा-त्यागमें होचुका है। वस्तुतः जिसप्रकार पांच बातोका त्याग यहां बताया गया है वह स्वयं बौद्धधर्ममें स्वीकृत हैं। तथापि इसके उपरान्त जो समाधिमरण आदिकी बात कही गई है, वह भी ठीक है । इसके अतिरिक्त 'संयुत्तनिकाय' में कहा गया है कि प्रख्यात् ज्ञात्रिक महावीर बतला सक्त थे कि उनके शिष्य कहाँ पन जन्मे थे और उनमेंसे मुख्य कहां उत्पन्न हुआ था। (S N.
१ संयुत्तनिकाय भाग ४ पृष्ट 31७. ३. हिस्टोरिकल ग्लीनिंग्स प्रष्ट ८०. 3. रलकरण्ट (मा० प्र.) पृष्ट ४३,
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२१६]
[ भगवान महावीरP. T.S. IV. 398 )। इससे भी भगवानकी सर्वज्ञता प्रमाणित है। उसमें यह भी लिखा है कि ज्ञात्रिक क्षत्री एक भिक्षु, चातुर्याम संवरसे सुरक्षित, देखी और सुनी बातोको बतानेवाले और जनता द्वारा बहु मान्य थे ।* इतनेपर भी इसमें भ० महावीरको म. बुद्धके तुल्य नहीं बतलानेx में पक्षपातसे काम लिया है। अगाडी इस निकायमें लिखा है कि जिस समय निगन्थ नातपुत्त महावीर संघसहित मच्छिकाखण्डमें ठहरे हुए थे, उससमय गृहपति चित्तो नामक जमीन्दार उनके निकट आया और उनको नमस्कार की । भगवानने उससे कहा कि 'क्या तुझे विश्वास है कि श्रमण गौतम (बुद्ध) का ध्यान अवितर्क और अविचार श्रेणिका है और उनने वितर्क और विचारको नष्ट कर दिया है ? गृहपति चित्तो बोला कि उसे इसमें विश्वास है। इसी कारण वह बुद्धके पास नहीं गया है । यह सुनकर निगन्थ नातपुत्तने अपने शिष्योसे कहा कि देखो शिष्यो । गृहपति चित्तो कितना सरल और सलज्ज है। तब चित्तोने नातपुत्तसे पूछा कि 'श्रद्धा और ज्ञानमे कौन मुख्य है ?' नातपुत्तने-कहा कि 'ज्ञान मुख्य है।' इसपर चित्तो बोला कि 'मुझे चारो ज्ञान प्राप्त करनेकी इच्छा है।' यह सुनकर निगन्थ नातपुत्त अपने शिष्योसे- बोले कि- 'देखो, चित्तो गृहपति कैसा शठ और मायावी है ?' तदुपरान्त चित्तोको महावीरकी शिक्षाका जो महत्व था वह मालूम होगया और वह कुछ और प्रश्नोत्तर करके चला गया । (सं० नि• P. T.S भाग ४४० २८७)। ___ * दी बुक ओफ दी किन्डर्ड सेयन्स भा० १ पृ. ९१. x सं. नि. P. T. S. भा० १ पृ० १९.
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-और म० बुंद]
[२१७ इसमें यद्यपि भगवान महावीरके प्रति सद्भाव नहीं रक्खे गए हैं; परन्तु इसमें जिन सिद्धांतोका उल्लेख है वह आज भी जैनधर्ममें मिलते है । तत्वार्थाधिगम् सूत्रके ९वें अध्याय श्लो० ४१-४३४४ में अवितर्क और अविचार श्रेणिके ध्यान और वितर्क एवं वीचार शब्दोंका अर्थ क्रमशः दिया हुआ है। यह पहले दो प्रकारका शुक्लध्यान है । इसतरह जैनधर्मके प्रायः सब ही सिद्धान्त आजतक अपने प्राचीन रूपमे मिलते हैं-यह इसकी सैद्धांतिक पूर्णताका प्रत्यक्षप्रमाण है । अस्तु,
'दीघनिकाय' की टीका ‘सुमंगलविलासिनी' में भी कतिपय जैन उल्लेख हमारे देखनेमें आये है। उसमें एक स्थानपर जैनियोंकी इस मान्यताका स्पष्ट उल्लेख है कि सचित्त जलमें भी जीव है। उसमें इसका स्थापन इन शब्दोमें किया गया है:-" सो किर सीतोदके सत्तसज्जी होति । अर्थात् __ ठंडे जलमें जीव होते है। इसी कारणसे जैन मुनि शीतं जेलका
व्यवहार नहीं करते हैं, क्योंकि वे अहिसाव्रतका पूर्ण पालन करते _हैं। इससे प्रकट है कि जैनियोंकी यह मान्यता बहुत प्राचीन है।
उपरान्त इसी बौद्ध ग्रन्थमें अगाडी आत्मा सम्बन्धी जैन मान्यताका उल्लेख है। उसमें जैन दृष्टिसे आत्माका स्वरूप ( अरूपी अत्तों
संण्णी)' अरूपी और संज्ञी (उपयोगमई-Concsious ) बत__ लाया है और यह ठीक ही है । जैन ग्रन्थों में आत्मा अपनी स्वाभाविक अवस्थामें अरूपी और ज्ञानदर्शन पूर्ण बतलाई गई है।
१. हिस्टोरीकल- ग्लीनिंग्स-पृष्ट ८१. - सुमगलापिलासिनी पृष्ठ.. १६. ३ सु० वि० पृष्ठ ११८ (P. T.S)
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२१८]
[ भगवान महावीरकिन्तु इसमें जो अगाड़ी 'अरोगो' (रोगरहित) बताया है। उसका भाव क्या है यह सहसा समझमें नहीं आया तो आश्चर्य नहीं किन्तु यह उल्लेख आत्माका अस्तित्व मृत्यु उपरान्त रहता है यह निर्दिष्ट करते हुये बतलाया गया है। अतएव इस अवस्थामें यह स्पष्ट हो जाता है कि बौद्धाचार्य यहांपर आत्माकी संसार अवस्थाको लक्ष्य करके कह रहा है कि इस दशामें भी वह संसार-परिभ्रमणमें रोग आदिसे अछूता रहता है। वास्तवमें जैनियोका भी यह विश्वास है कि सांसारिक दुख-सुखमे उनका आत्मा विलग है। उसे न दुःख सताता है न इंद्रियसुख आल्हाद पहुंचाता है, वह अपने स्वभावमें स्वयं पूर्ण सुखरूप है। यही भाव पूज्यपादस्वामी निन्न श्लोके द्वारा प्रगट करते हैं.
'न मे मृत्युः कुतो भीतिर्न मे व्याधिः कुतो व्यथा । नाहं वालो न वृद्धोहं न युवैतानि पुद्गले ॥२०॥
भावार्थ-'मूलमें जो 'म' आत्मा हूं, वह मैं न मृत्युका स्थान हूं, फिर भला मुझे मृत्युसे क्या भय होना चाहिये ? तथापि न मेरेमें रोगको स्थान प्राप्त है, इसलिए कोई भी वस्तु मुझे पीड़ा नहीं पहुंचा सक्ती! फिर न मैं बालक हूं, न मैं वृद्ध हूं, न मैं युवक हूं। यह सब बातें तो पुद्गलसे सम्बंध रखती है ! जैनियोंके इसी भावको बौद्धाचार्यने उक्त प्रकार व्यक्त किया है। _अगाड़ी इस ' विलासिनी ' में कहा गया है कि ' भगवान महावीरकी मान्यता है कि आत्मा और लोक ( 'अत्ताचलोकोच दोनों ही नित्य हैं। यह किसी नवीन पदार्थको जन्म नहीं देते
१ इष्टोपदेश २९.
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-भार म० बुद्ध ]
[२१९
हैं । वह उसी तरह स्थिर हैं जिस तरह पर्वतकी शिखर अथवा 'एक स्थम्भ हैं। यह भी आत्मा और लोकके मूल स्वभावको लक्ष्य करके ठीक ही है । जैन दर्शनमें यह इसी तरह स्वीकृत है, जैसे कि हम अन्यत्र पहले मूल पुस्तकमें देख चुके हैं।
अगाड़ी डायोलॉग्स ऑफ बुद्धमें जो जैन उल्लेख हमें प्राप्त हुये वे इसप्रकार हैं। पहले ही 'ब्रह्मनालसुत्त' में जहां नित्यवादियों ( Eternalists)का वर्णन है, वह सचमुच जैनियोके प्रति कहा गया प्रतीत होता है । कहा गया है कि "भिक्षुओ, पहिले ही एक ऐसे ब्राह्मण अथवा समण हैं जो प्रयत्न और तीक्ष्ण विचार आदि द्वारा हृदय आल्हादकी उस अवस्थामें पहुंचते हैं जिसमें वह हृदयमें लीन हो जाकर अपने मन द्वारा पूर्वभवोंका एक, दो, तीन, चार, पांच, दस, वीस, तीस, चालीस, पचास, सौ, हजार, बल्कि लाख पूर्वभवोका स्मरण करते हैं । उस स्मरणमें जानते हैं कि 'तक मेरा यह नाम था....और मैं इतने वर्ष जीवित रहा था। वहांसे मृत्यु होनेपर मेरा जन्म यहां हुआ है। इस तरह वह पूर्वस्मरण अपने पहलेके घर.आदिके रूपमें कर लेता है और फिर वह विचारता है कि "जीव नित्य है। लोक किसी नवीन पदार्थको जन्म नहीं देता है । वह पर्वतकी भांति स्थिर है स्थम्भकी तरह नियत हैं और यद्यपि यह जीवित प्राणी संसारमें परिभ्रमण करते हैं और मरणको प्राप्त होते है, एक भवका अन्त करके दूसरे में जन्मते हैं, तो भी वे हमेशाके हमेशा वैसे ही रहते हैं । इत्यादि।"
सु० वि० (P. T. S) पृष्ठ ११९ २ पृष्ठ. ३-Dialognes -of the Buddha.S B. B. Series,
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२२० ]
[ भगवान महावीर -
यहां बौद्धाचार्यने स्पष्ट रीतिसे उस धर्मका नामोल्लेख नहीं किया है जिसके सम्बंध में वह यह वर्णन कर रहा है, किन्तु जो वर्णन उन्होंने जीव और लोककी नित्यतामें दिया है, वह ठीक जैनधर्मके अनुसार है । अपनी मूल पुस्तकेंमें हम पंहिले ही जैनियोंकी इस मान्यताका दिग्दर्शन कर चुके हैं।' जैन पुराणों में इसी तरहसे पूर्वभव स्मरण और जातिस्मरण के उल्लेख हमको मिलते हैं। तथापि विशेष ज्ञानधारी मुनिजन व्यक्तियोंके पूर्वभवोंका वर्णन करते मिलते हैं । इसके लिए जैनियोके 'महापुराण' 'उत्तरपुराण' आदि ग्रंथ देखना चाहिये । उक्त विवरणमें बौद्धाचार्यने अंगाडी जैनियोंकी इस मान्यताको निस्सार बतलाया है, किन्तु उस समय वह उनकी 'निश्चय' और 'व्यवहार' नयोंको भूल गया । 'निश्वनय' की अपेक्षा जीव और लोक नित्य है, परन्तु 'व्यवहार नय' की दृष्टिसे वे दोनों अनित्य भी हैं । इस कारण जैनियोका यह सिद्धान्त बाधित भी नहीं है । फिर यह भी ध्यान में रखनेकी बात है 1 कि यहां म० बुद्ध उन मतमतांतरोंके सिद्धांतोंकी आलोचना कर रहे हैं, जो उनसे पहिलेके चले आरहे थे । इस अपेक्षा उक्त प्रकार जैन सिद्धांतका उल्लेख इस आलोचनामें होना जैनधर्मकी प्राचीनताका द्योतक है । इससे यह भी स्पष्ट है कि भगवान पार्श्वनाथके तीर्थ में भी यह सिद्धांत उसी रूप में प्रचलित था जैसे कि आज जैन शास्त्रोमें मिलता है । तथापि इसके साथ ही जैन शास्त्रोंक वर्णनकी सत्यता और आर्षता प्रकट है ।
इस सुत्तकी चौथी आलोचना तक इस ही सिद्धांत का प्रति
१. मूळ पुस्तक पृष्ठ
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-और म बुद्ध]
[२२१ *पादन किया गया है और बतलाया गया है कि तर्कवादसे वे श्रमण
और ब्राह्मण इस सिद्धान्तको सिद्ध करते है । सो यह सब कथन भगवान पार्श्वनाथके तीर्थके मुनियोंसे लागू है । इस तीर्थके कतिपय मुनिगण प्रथम उल्लेखकी तरह आत्मवादकी सिद्धि करते प्रतीत होते हैं और चौथेमें जो . तर्कवादसे इस सिद्धांतको प्रमाणित करनेवाले मुनि बतलाये गये हैं, उनसे भाव 'वादानुपूर्वी' मुनियोंसे होना प्रतीत होता है । जैन शास्त्रोमें अलग२ प्रकारके मुनियोंका अस्तित्व प्रत्येक तीर्थकरके संघमें बतलाया गया है। भगवान पार्श्वनाथनीके संघमें इनकी संख्या इस तरह बतलाई है:"प्रथम स्वयम्भू प्रमुख प्रधान । दस गनधर सर्वागम जान ।। पूरवधारी परम उदास । सर्व तीनसै अरु पंचास ॥८३॥ सिप्य मुनीसुर कहे पुरान । दसहजार नौसे परवान ।। अवधिवंत चौदहसै सार । केवलग्यानी एकहजार ॥८४॥ विविध विक्रिया रिद्धि बलिष्ट । एकसहस जानो उत्कृष्ट । मनपर जय ग्यानी गुनवंत । सात सतक पंचास महंत ॥२८॥ छसै वादविजयी मुनिराज । सव मुनि सोलहसहस समाज || सहस छवीस अजिंका गनी एकलाख श्रावक व्रतधनी २८६"
इनमेंके अवधिज्ञानी, मन पर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी मुनिराज पूर्वभवोका दिग्दर्शन स्वयं कर सक्ते हैं। और दूसरोको बतला सक्ते हैं। इनके उपदेशसे भव्योको श्रद्धान होना लाजमी ही है। वादानुपूर्वी मुनिजन वादद्वारा अपने पक्षकी सिद्धि अर्थात उत्त जैन सिद्धान्तकी प्रमाणिकता स्थापित करते थे। इन्हीं मुनियोंका • १. पार्श्वपुराण पृष्ठ १००.
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२२२]
[ भगवान महावीरअलग २ उल्लेख उपरोक्त बौद्ध सुत्तमें किया गया है। भगवान महावीरके संघमें भी ऐसे ही मुनिनन थे । उनकी संख्या इसप्रकार थी। ९९०० साधारण मुनिः ३०० अंगपूर्वधारी मुनिः १३०० अवधिज्ञानधारी मुनि; ९०० ऋद्धिविक्रियायुक्त; ५०० चार ज्ञानके धारी; १००० केवलज्ञानी; ९०० अनुत्तरवादी, सब मिलकर १४००० मुनि थे। इसप्रकार उक्त बौद्ध उद्धरणसे जैन शास्त्रोंकी प्रमाणिकता और उसकी प्राचीनता प्रकट है।
उपरान्त इस ब्रह्मनालसुत्तमें संजयवैरत्थीपुत्तके विक्रत स्याहाद सिद्धांतका विवेचन है, जिसके विषयमें हम पहिले मूल पुस्तकमें ही विचार प्रकटकर चुके हैं। इसके पश्चात् 'समन्नफलसुत्त' है।
इसमें मुनि अवस्थाके लाभका दिग्दर्शन कराया गया है। मगध सम्राट् अजातशत्रु साधारण आजीविकोपार्जनके उपायोंका लाभ बतलाकर पूंछते हैं कि घर छोड़कर साधुभेष धारण करनेसे फायदा क्या है ? इसके उत्तरमें साधु अवस्थाके लाभोको गिनाया गया है । इसीमें अजातशत्रु उन उत्तरोको भी बतलाता है जो उसके प्रश्नके जवाबमे अन्य मतप्रवर्तकोने दिये थे। भगवान महावीरके सम्बन्धमे कहा गया है कि जब अजातशत्रुने साधु जीवनके लाभके बारेमें उनसे पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया कि "हे राजन् ! एक निगन्थ चार प्रकारसे सवरित हैं। वह सर्व प्रकारके जलसे विलग रहकर जीवन व्यतीत करते हैं; सब पापसे दूर रहते हैं; सब पापको उनने धो डाला है और वह पाप-वासनाको रोककर पूर्ण हुये जीवन व्यतीत करते है । इस तरहका यह चतुर्यामसंवर है.
१. हमारा भगवान महावीर' पृष्ठ ११८.
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-और म० बुद्ध
[२२३ और जब वह इस चतुर्यामसंवरसे युक्त है, तब इसीलिये वह निगन्थो, गतत्तो, यतत्तो और थितत्तो कहलाते हैं।'
ठीक इस ही प्रकारके उल्लेख दीघनिकाय, अडतरनिकाय और मिलिन्दपन्हमें भी आये हैं । यहां निर्ग्रन्थ (जैनमुनि) के साधु जीवनका महत्व प्रदर्शित किया गया है । इसपर प्राच्यविद्याविशारदोंमें विशेष मतभेद प्रचलित है। कोई इसका भाव कुछ लगाते हैं और कोई कुछ । सचमुच विधर्मी विद्वानोंके लिए यह सुगम नहीं है कि वह किसी धर्मकी मान्यताको सहन समझ सकें तो भी उनके उद्योग सराहनीय हैं । इसमें संशय नहीं कि बौद्धग्रन्थमें जो इस तरह क्लिष्ट और अस्पष्ट रूपमें इस उत्तरको अंकित किया गया है, वह भगवान महावीरकी दिव्यध्वनिके प्रति उपहास भावको प्रकट करता है । डॉ० दिस डेविड्स भी यही समझते हैं
और वे इस विषयमे अन्य पाश्चात्य विद्वानोके भावार्थोपर विवेचन करते हुए लिखते हैं:
-बारी-बारिता
एवम् खो
१ मूल इस प्रकार है.-"एवम् दुत्त भन्ते निगन्ठो नातपुत्ता मम् एतद् अवाचः 'इध महाराज निगन्ठो चातु-याम-सवर-सवुतो होति । कथं च मह राज निगन्ठो चातु-याम-सबर-संवुतो होति ? इध महाराज निगन्ठो सम-वारी-वारितोच होति, सच-वारी-युतो च, सब-यारीधतो च, सम-धारी-पुठो च । एवम् खो महाराज निगन्ठो चातु-यामसवर-वना होति । यो खो महाराज निगन्ठो एवम् चातु-यामसंवर-सवुनी होति, भयम् बुचवि महाराज निगन्ठो गतत्तो च यतत्तो च थितनो चाति ।' इत्यम् खो मे भन्ते निगन्ठो नातपुत्तो सन्दिथिकम् सामनफलम् पुढो समानो चातु-याम-संवरम् व्याकसि ।...... दीघनिकाय (P. T. S.) भाग १ पृ० ५७-५८ ।
नगन्ठो एवम
च यतत्तो
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२२४]
[भगवान महावार'इस कठिन उद्धरणमें गोरख धन्धेकेसे पेच नजर पड़ रहे हैं वह संभवतः निगन्य ( भगवान महावीर ) के उपदेशकमकी नकल उपहासरूपमें प्रकट करनेके प्रयत्न है। जॉनरलीसाहबने इसके साधारण भावको ग्रहण अवश्य किया है, परन्तु उनका अनुवाद बहुत स्वतंत्र है और दो शब्दोंके सम्बन्धमे अयथार्थ है
और उससे भाषाकी उस विचित्रताका दिग्दर्शन नहीं होता जैसा वह मूलमें है । बारनफ साहवने जो इसका भाव प्रकट किया है वह विल्कुल विषयान्तर है । इस ' चतुर्यामसंवर' में पहिला तो
का विशेष प्रख्यात नियम जलको ग्रहण न करना है जिसमें वे जीव खयाल करते हैं । (मिलिन्द २,८५-९१). प्रा० जैकोबी साहबने (जैनसूत्र २ भूमिका २३ ) इनको भगवान पार्श्वनाथके चार व्रत खयाल किये हैं परन्तु यह कभी भी नहीं होसक्ते क्योकि यह उपरोक्तसे बिल्कुल भिन्न है।"
इस तरह इस कथनसे यह स्पष्ट है कि पाश्चात्य विद्वान् अभीतक बौद्धशास्त्रके इस जैन उल्लेखका एक स्पष्ट भाव नहीं बतला सके है अतएव आइये पाठकगण हम इस उलझी गुत्थीको सुलझानेका किञ्चित् प्रयास कर लें। जैन शास्त्रोपर दृष्टि डालनेसे हमें श्रीमद्भगवतसमन्तभद्राचार्यके प्रख्यात ग्रंथ 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' में एक जैनमुनिका स्वरूप इस तरह बतलाया हुआ मिलता है (अथेदानी श्रद्धानगोचरस्य तपोभृतः स्वरूपं प्ररूपयन्नाह)-'
"विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः ।
ज्ञानध्यानतपोरलस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥१०॥" १ मा० प्र० पृष्ठ ८.
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- भौर म० बुद्ध ]
[ २२५
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इसमें तपस्वी अथवा मुनि वह बतलाया गया है जो विषयोकी आशा और आकांक्षा से रहित हो, ( विषयेषु सम्वनितादिष्वाशा आकांक्षा तस्या वशमधीनता, तदतीतो विषयाकांक्षा रहितः 1); निरारम्भ हो, ( परित्यक्तकृप्यादि व्यापारः । ); अपरिग्रही हो, ( बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहितः ।) और ज्ञानध्यानमय तपको धारण करे हुये तपोरत्न ही हो, (ज्ञानध्यानतपांस्येव रत्नानि यस्य एतद् - गुणविशिष्टो यः स तपस्त्री गुरु: 'प्रशस्यते ' मध्यते) । यहां भी निर्ग्रन्थ मुनिके चार ही विशेषण बतलाये गये हैं । अब इनकी तुलना जरा उपरोक्त बौद्ध उद्धरणसे करके देखें कि वस्तुतः क्या इन्हीं का उल्लेख इसमें किया गया है ? वौद्ध उद्धरणमे पहिले कहा गया है कि एक निर्ग्रन्थ मुनि सब प्रकारके जलखे विलग रहता है । इसका भाव यही है कि वह आरंभी आदि सब प्रकारकी हिंसा से दूर रहता है । जैन मुनि अपने निमित्त जल भी स्वयं ग्रहण नही करते: जिस समय वे आहारके निमित्त श्रावकके यहां पहुंचते हैं, उस समय श्रावक स्वय ही उनके कमण्डलुको प्रासुक जलसे भर देता है । इसलिए यहापर बौद्धग्रन्थ उनकी निरारम्भ अवस्थाको व्यक्त करता है, जैसा कि उपरोक्त जैन श्लोकमें भी स्वीकार किया गया है । केवल अन्तर इतना है कि बौद्धग्रन्धमें इसको पहले गिना गया है और जैन श्लोकमें दूसरे नम्बरपर, परन्तु इस क्रम अन्तरसे मूल भावमें कोई अन्तर उपस्थित नही होता । उपरात बौद्ध उद्धरणमे बतलाया है कि वे 'सब पापसे दूर रहते हैं' । यह ठीक ही है । उक्त श्लोक में पहिले ही उनको 'विपयाशावशातीतो ' बता दिया है । विषय-वासनायें ही पाप है और वह उनसे रहित
१५
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२२६]
[ भगवान महावीरहैं ही। इस तरह यह दूसरा विशेषण भी दोनो स्थानोंपर एक समान मिलता है। तीसरा विशेषण बौद्धशास्त्रमें बतलाया है कि सब पापको उनने धो डाला है ' इसका भाव आभ्यन्तर परिग्रहसे भी वे रहित है, यही है । जैनमुनि बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकारके परिग्रहोंसे रहित होते हैं । आभ्यन्तरपरिग्रहमी जिनके नहीं है. उनके पापका भभाव ही होगा, पाप उनके निकट छू भी नहीं सत्ता । यही बात उपरोक्त जैन श्लोकमें 'अपरिग्रही' विशेषणसे जाहिर कीगई है। चौथा और अन्तिम विशेषण बौद्धग्रन्थमें "पापवासनाको रोककर पूर्ण हुये जीवन व्यतीत करना बतलाया है। जीवनको ज्ञान, ध्यान, तपश्चरणमें लगानेसे ही मुनि अपने पूर्णपनेको प्राप्त होता है । शांत ज्ञान-ध्यानमय अवस्थामें पापाश्रवका होना असंभव है। वहां संवर ही संभाव्य है । इसतरह चौथा विशेषण भी दोनो स्थलोंपर एकसा ही है। अतएव बौद्धग्रंथके उक्त उल्लेखका भाव वही है जो उक्त दि. जैन श्लोकमें बतलाया गया है। इसप्रकार इनका भाव श्वे०की मान्यताके अनुसार भगवान पार्श्वनाथके चार व्रत नहीं हो सकते । खेताम्बरोंके इस कथनकी पुष्टि उपरोक्त गैद्ध उद्धरणसे होती बतलाई जाती है। परन्तु अब हम देखते है कि यह मिथ्या है और श्वेताम्बरोके इस कथनका कोई आधार शेष नहीं है।
अब रही धात उक्त उद्धरणमें व्यवहृत 'गतनो', 'यतत्तो' और 'थितत्तो' शब्दोंकी सो बौद्धाचार्य 'सुमगलविलासिनी' नामक टीकाने उनका भाव निम्नप्रकार स्पष्ट करते है:-'
१ हिस्टोरीकल ग्लीनिन्गस पृष्ठ ८१ ।
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- और म० बुद्ध ]
[ २२७
P
'गवत्तो - जिसका मन अन्तको पहुंच गया है अर्थात् जिसने
अपने उद्देश्यको पा लिया है ।"
यतत्तो - जिसका मन संयमित है ।
थितत्तो - जिसका मन खूब थिर होगया है ।'
अतएव इन भावोंको व्यक्त करनेवाले ये विशेषणोंका जैन मुनियोंकी प्रख्यातिके लिये उस समय प्रचलित होना बिल्कुल संभव है; किन्तु यह अवश्य है कि उपलब्ध जैन साहित्य में हमें इनका व्यवहार कहीं नज़र नहीं पडा है । शायद प्रयत्नशील होकर खोज करनेपर अगाध जैनसाहित्यमें इनका पता चल जावे ! इतनेपर भी यह स्पष्ट है कि जो भाव इन शब्दोंका बतलाया गया उसीके अनुसार जैनशास्त्रोंमें जैनमुनियोंका स्वरूप निर्दिष्ट किया गया है । देखिये ईसाकी प्रथम शताव्दिके विद्वान् कुन्दकुन्दाचार्य इस विषयमें निरूपण करते हैं:
" जधजादरूवजादं उप्पाडिद केसमंसुगं सुद्धं । रहिदं हिंसादीदो अप्पाड़िकम्पं हवदि लिंगं ॥ ५ ॥ मुच्छारंभविजुत जुत्तं उवजोग जोग सुद्धीहिं । लिगं ण परावेक्षं अणभव कारणं जो एहं ॥ ६ ॥
2
प्रवचनसार
भावार्थ- 'मुनिलिंग नग्न, सिर व डाढ़ी केशरहित, शुद्ध, हिंसादि रहित, शृंगार रहित, ममता आरम्भ रहित, उपयोग व योगकी शुद्धि सहित, परद्रव्यकी अपेक्षा रहित, मोक्षका कारण होता है ।' तथापि और भी कहा है :
-
'इहलोग णिरावेक्खो अप्पदिवद्धो परम्मिलोयम्मि ।
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२२८]
[भगवान महावारजुत्ताहारविहारो रहित कसाओ हवे समणो॥ ४२ ॥
भावार्थ-'इसलोक परलोककी इच्छारहित, कपायरहित व योग्य आहारविहार सहित साधु होता है ।' श्री पूज्यपादस्वामीजी भी अपने 'इष्टोपदेश' ग्रन्थमें निम्न श्लोकोंद्वारा मुनिके उक्त विशेषणोंका प्रायः समर्थन करते हैं:_ 'अभवञ्चित्तविक्षेप एकाते तत्त्वसंस्थितिः।
अभ्यस्येदभियोगेन योगी तत्वं निजात्मनः ॥३६॥
भावार्थ-जिसके मनमें किसी प्रकारका विक्षेप उत्पन्न नहीं होता अर्थात् निसका मन थिर है और जो आत्मध्यानमे स्थिर होचुका है, ऐसे ही साधुको एकान्त स्थानमें बैठकर अपनी आमाका अविरल ध्यान करना चाहिये।' अगाडी और बतलाया है कि
"ब्रुवन्नापि न हि ब्रूने गच्छन्नपि न गच्छति । स्थिरीकृतात्मतत्वस्तु पच्यन्नपि न पश्यति ॥ ४१॥ किमिदं कीदृशं कस्य कस्मारकेस विशेषयन् । खदेहमपि नावैति योगी योगपरायणः ॥ ४२॥"
भावार्थ-'जो अपनी आत्माके ज्ञानमें खूब स्थिर है, ऐसा ही योगी बोलते भी नहीं बोलता है, चलने हुए भी नही चलता है और देखते हुए भी नहीं देखता है । ऐसा योगी जो अपने आत्मखरूपकी प्राप्तिमें सलग्न है वह अपने शरीर तकके अस्तित्वसे विज्ञ नहीं रहता है। वह आत्मा क्या है ? उसका स्वभाव क्या है ? उसका स्वामी कौन है ? इत्यादि प्रश्नोंसे अछूता बना शात रहता है। इन उद्धरणोसे स्पष्ट है कि जिन विशेषणोंका व्यवहार चौद्ध पुस्तकमे क्यिा गया है वह नेन शास्त्रोके अनुसार
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- और म० बुद्ध ]
[ २२९
भी ठीक है। इसप्रकार उक्त बौद्ध उद्धरणका अभिप्राय स्पष्ट हो जाता है उपरान्त 'महालीसुत्त' में बौद्धधर्म के दस 'अव्यक्तनी' बातोश विवरण है अर्थात् उन सिद्धान्तोका जिनपर बुद्धने अपना कोई अंत प्रकट नहीं किया है । इन अव्यक्त बातोमें एक यह भी हैं कि 'आत्मा वही है जो अरीर है अथवा भिन्न है ?' यह प्रश्न मनदिस्स परिव्राजक (Wanderol) और दारुपात्तिक (काष्ट कमण्डल सहित मनुष्य ) के शिष्य जालियने उपस्थित किये थे । वह जालिय और उनके गुरु हमें जैनमुनि प्रतिभाषित होते हैं; क्योंकि जैन मुनियोंके पास सदैव काष्टका कमण्डलु और पीछी होती है। तथा यह प्रश्न भी जैन सिद्धान्तकी अपेक्षा महत्वका | इसके श्रद्वान पर ही आत्मोन्नति निर्भर है । जेनसिद्धान्तमें यह 'भेदविज्ञान' के नाम से विख्यात है । इसलिये जालिय और उनके गुरुका नैनमुनि होना स्पष्ट है ।
फिर 'कस्सपसीहनाद' सुत्तमें जो जैन मुनियोंकी क्रियाओंका उल्लेख है, सो उसका विवेचन हम मूल पुस्तकमें पहले और अन्यत्र कर चुके है इसलिये यहां उसको दुहराना ठीक नहीं है । इसके बाद ' पोत्यपाद' सुच है । इसमें समण ' पोत्थपाद '
१. दीर्घनिकाय (P. T..S.) भाग १ पृष्ठ १५९. मूल इस प्रकार :- "एक समयम् भगवा कोसाम्बीयम् विहरति घोसितारामे । अथ खो द्वे पव्वजिता मन्दिस्तो च परिव्याजको जालियो च दारुपत्तिक- अन्तेचाती येन भगवातेन उपसंस्कमित्वा भगवता सद्विम् सम्मोदिसु, सम्मोदनीयम् कथम् सारणीयम् वीति सारेत्वा एकमन्तम् असु । एकमन्वम् थिता खो द्वे पब्बजिता भगवन्तम् एवद अवोचुम्ः 'किन नु खो आप गोतम तम् जीवम् तम् सरीरम् उदाहु भन्नम् जीवम् अन्नम् सरीरनति ? 2
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२३०]
[ भगवान महावीरम० बुद्धसे कहता है कि "महाराज, एक दीर्घकाल पहिले जब अमण और ब्राह्मण एवं अन्य आचार्य, एकत्रित होकर परस्पर मिलते थे, तब एकवार ये सन्थागारमें बैठे थे कि विषय ध्यानका छिड़ गया और अन्ततः यह प्रश्न अगाड़ी आया, 'फिर महाशयो; उपयोग अथवा संज्ञा (Consciousness) का अन्त किसतरह हो जाता है ? इसके उत्तरमें पोत्थपाद वे सब विवरण पेश करता है निनको विविधमतप्रवर्तकोंने बतलाया था। उनमें एक इसप्रकार है
"इसपर एक अन्यने कहा कि यह ऐसे नहीं होसक्तानसे कि आप कहते है । उपयोग अथवा संज्ञा, महाशयो ! मनुष्यकी आत्मा है । यह आत्मा ही है जो आती और जाती है । जब एक मनुप्यमें आत्मा आनाती है तब वह उपयोग-संज्ञामय होनाता है
और जब वह चली जाती है तब वह उपयोग अथवा संज्ञारहित हो जाता है।" इसतरह एक अन्यलोग उपयोगकीव्याख्या करते हैं।' *
अब यह हमको मालम ही है कि नसिद्धान्तके अनुसार आत्मा उपयोगमई पदार्थ है और उसीके आने जानेपर मनुप्यका पौगलिक शरीर संज्ञा या चेतनामय और संज्ञा या चेतना रहित होता है । इस अवस्थामें यहां बहुत कम स्थान संशयको रह नाता है कि जिस व्यक्तिने इस सिद्धान्तका प्रतिपादन किया था वह जैन ही था और यह बाद म० बुद्धसे एक दीर्घकाल पहिले हुआ था, इसलिए इससे भी जैनधर्मका अस्तित्व म० बुद्धसे बहुत पहलेका प्रमाणित होता है।
एक अन्य सुत्तन्तमें कहा गया है कि निगन्य नातपुत्त * दीपनिकाय ( P. T. S.) भाग १. पृ. १७९ ।
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-और म० बुद्ध
[२३१ (भगवान महावीर) के अनुसार निगन्थके भाव ग्रन्थियोंसे मुक्तके हैं.।' सो ठीक ही है; बाह्याभ्यन्तर परिग्रहसे रहित मुनि होते ही हैं । वे ही निर्ग्रन्थ (निगन्थ) कहलाते हैं । अन्यत्र कहा गया है कि वे अन्योंकी अपेक्षा तपश्चरणमें सरलता रखते थे। सचमुच पंचाग्नितपना, उल्टे लटकना इत्यादि कायदण्डरूपके तपको जैन हेय दृष्टिसे-देखते हैं और उसको 'बालतप' अथवा 'मिथ्यातप' ठहराते हैं, यह हम पहिले ही देख चुके हैं। इसलिए बौद्धोंका यह कथन ठीक ही है । अस्तु:___अब पाठकगण ! आइये, बौद्धोंके 'विनयपिटकपर भी एक दृष्टि डाल लें । विनयपिटकमें प्रख्यात् 'महावग्ग' ग्रन्थ है । इसमें एक कथानक भगवान महावीरके सम्बन्धमें है। उससे जैनधर्मकी व्यापकता उस समय जो थी वह प्रकट है । यह बात आधुनिक विद्वानोंको भी मान्य है कि भगवान महावीरके सर्वज्ञ होनेपर सर्व प्राणियोको हितकर उनका धर्मोपदेश पूर्णरीतिसे वजिदेश और मगधमें व्याप्त होगया. था। लिच्छवियोंमें उनके उपासक अधिक संख्यामें थे और उनमें ऐसे भी प्रभावशाली मनुष्य थे जो वैशालीमें उच्च और प्रतिष्ठित पदोंपर नियुक्त थे । यह बात स्वयं बौद्ध ग्रन्थोके विवरणोंसे ही प्रमाणित है | अस्तु; उक्त महावग्गमें एक स्थलपर कहा गया है कि सीह (सिंह) नामक लिच्छवियोका सेनापति भी निगन्य नातपुत्त (भगवान महावीर)का शिष्य था । सन्थागारमें समण गौतमकी प्रशंसा लिच्छवियोमें होते सुनकर इस
१. Dialogues of Buddha, Vol, 11, pp. 74 75.' २. पूर्व पृष्ट २२१. ३. हिस्टॉरीकल ग्लीनिन्गेस पृष्ठ ८३. ४. महावग्ग (S. B. B Vol. XVII.)-पृष्ठ ११९,
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२३२ ]
[ भगवान महावीर
सेनापति सीहका हृदय बुद्धकी ओर आकर्षित हुआ था । एक रोज विशेष प्रख्यात् लिच्छवि एकत्रित हुये सन्थागार में बैठे थे कि वे आपस में बुद्ध, उनके धर्म और संघकी प्रशसा विविध रीतिसे करने . लगे । उस समय सीह भी उस सभामें बैठा हुआ था । यह सब सुनकर वह सोचने लगा कि ' सचमुच गौतम समण अवश्य ही अर्हत् बुद्ध होंगे, तब ही तो यहांपर यह एकत्रित हुये इतने लिच्छवि उनकी, उनके धर्म और संघकी प्रशंसा कर रहे है ।" इसके उप
रान्त सीहने निगन्थ नातपुत्तसे बुद्धके पास जानेकी आज्ञा मांगी; जिन्होने उनको ऐसा करने से मना किया और बुद्ध द्वारा प्रतिपादित धर्मकी कमलाइयां प्रकट करते वे बोले कि 'सीह ! तृ कर्मोंके फल अर्थात् क्रियावादमें विश्वास रखता है, इसलिये समण गौतमके पास जाकर क्या करेगा ? जो कर्मोंके फलमें विश्वास नहीं रखता है, • अक्रियावादका प्रतिपादन करता है और इसी धर्मकी शिक्षा वह अपने शिष्योंको देता है ।" इसपर सीहकी उत्कण्ठा समण गौतमके पास जानेको कुछ दिनोंके लिये दूर होगई किन्तु पूर्वोक्त प्रकार अन्य लिच्छवियोंके मुखसे बुद्धका बखान सुनकर अन्तत वह म० बुद्धके निकट पहुंच ही गये, जिन्होंने एक लम्बा चौड़ा उपदेश उनको किया । इस उपदेशको सुनकर बौद्ध कहते हैं कि सीह बौद्ध होगया । बौद्ध होजानेपर सीहने बुद्ध और वौद्धभिक्षुओं को अपने यहां आमंत्रित किया और बाजार से मांस लाकर उनके लिये भोजन बनवाया । इसपर महावग्गमें लिखा है कि जैनियोने प्रवाद उठाया और 'एक बड़ी संख्यामें वे ( निर्ग्रन्थ लोग ) वैशालीमें, सड़कर और चौराहे चौराहे पर यह शोर मचाते दौड़ते फिरे कि आज
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-पार म० बुद्ध]
[२३३ सेनापति सीहने एक बैलका वध किया है और उसका आहार समण गौतमके लिये बनाया है । समण गौतम जानबूझकर कि यह वेल मेरे आहार निमित्त मारा गया है, पशुका मांस खाता है। इसलिए वही उस पशुके मारनेके लिए बधक है। हम अपने जीवनके लिये कभी भी जानबूझकर प्राणी वध नहीं करते हैं।" तथापि इसमें यह उल्लेख है कि जब सीह बौद्ध होगया तव म० बुद्धने उनसे कहा:___"For a long time, Siha, drink has been offered to tho Niganthos in your house. You should therefore decni it liglet (also ju tho future) to give them focd, when thoy como. ( to you on then ainaspingrimage ):-(Mahavagga VI. 31. II.)
भावार्थ-सीह । तुम्हारे यहां दीर्घकालसे निगन्योको पड़गाहा जाता रहा है इसलिए भविष्यमें भी तुम्हें उनको आहारदान देना चाहिये जब वे उसके निमित्त आवें। इस कथानकमें निस सीह अथवा सिंहका वर्णन है, उसका नामोल्लेख भी हमें जैन शास्त्रोंमें देखनेको नहीं मिला है। अलबत्ता दि. जैनशास्त्र 'उत्तरपुराण' में राजा चेटकके जो पुत्र बताए है उनमें एक 'सिहभद्र' भी है। संभव है, यही लिच्छवियोंके सेनापति हो, क्योंकि जब इनके पिता गणराज्यमें प्रधानपद पर आसीन थे तो उन्होंने स्वभावतः अपने पुत्रको ही सेनापति पदपर नियुक्त किया होगा किन्तु बौद्धशास्त्रमें इनके पिताके सम्बन्धमें कोई उल्लेख नहीं है, तथापि उक्त जैनशास्त्रमें भी इनके विषयमें सिवाय
१. उत्तरपुराण पृष्ठ ६३४ ।
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२३४]
[भगवान महावीरनामोल्लेखके और कुछ विवरण नहीं दिया है इस लिए यह स्पष्ट नहीं है कि यह सीह अथवा सिंह कौन थे ? और. क्या वस्तुतः वह बौद्धधर्मानुयायी होगये थे ? इसको जाननेके भी - साधन प्राप्त नहीं हैं । बौद्धशास्त्र कहते हैं कि वह अन्ततः बौद्ध होगए थे । जो हो, बौडग्रंथके उक्त विवरणसे यह प्रकट है कि बौद्धदर्शन उस समय भी अक्रियावादके रूपमें विख्यात् था, उसमें आत्माका अस्तित्व स्वीकार नहीं किया गया था और जैनदर्शन क्रियावाद माना जाता था, वह भी दृष्टव्य है । श्वे० के 'सूत्रकताङ्ग (१।१२।२१) में एक श्रमणके लिये यह आज्ञा है कि वह क्रियावादको भी प्रतिपादन कर सका है । तथापि उनके 'आचाराङ्ग सूत्र में ( १४) इसकी व्याख्या इसतरह की है। कि एक क्रियावादकी आत्मा, लोक, कर्म और कर्मफलमें विश्वास रखता है।' क्रियावादकी यह व्याख्या दिगम्बर सिद्धान्तके भी विरुद्ध नहीं है । इसतरह उस समय जो जैनी क्रियावादके रूपमें प्रख्यात् थे, वह ठीक ही है।
__ अगाड़ी जो उक्त विवरणमें निगन्योंको वैशालीमें दौड़ते और बौद्धोंको लाञ्छन लगाते बताया गया है, वह जैनियोंके अहिंसा. सिद्धान्तको व्यक्त करता है । जैनदृष्टिसे बाजारमें विकते हुए डलीवत, मांसको-ग्रहण करना भी हिंसा है। इसी. भावको लेकरवे लोग बुद्धके इस कृत्यकी गणना दुष्कृत्यमें करते वैशालीमेंविचर रहे प्रतीत होते हैं । यहां सिद्धान्त भेद स्पष्ट है.। अन्तमें
१. जनसत्र (S. B. B.XLV.). भूमिका- पृष्ठ १६1२.. रत्नकरण्ड (मा०-) पृष्ट ४१-४3-1-~~
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-मा
-और म० वुद्ध]
[२३५ वे कहते भी हैं कि हम अपने जीवन-रक्षाके लिये कभी भी जान बूझकर प्राणीबध नहीं करते हैं।' इन निगन्थोके इस कथनसे यह स्पष्ट है कि यह निगन्थ-सावक (जेनगृहस्थ) थे। सचमुच बौद्धग्रन्थोंमें कही यह शब्द जैनमुनिके लिये व्यवहृत हुआ मिलता है और कहीं जैन श्रावकोंके लिये । इसलिए इस शब्दके यथार्थ भावको ग्रहण करनेमें होशियारीसे काम लेना आवश्यक है । यहा यह विल्कुल ही संभव नहीं है कि शालीमें जों निगन्थ चौराहे २ पर दौड़ रहे थे वे जैन मुनि थे, क्योंकि जनमुनि रागद्वेषसे रहित होते हैं, यह बात स्वयं बौद्ध ग्रंथोंसे प्रमाणित है। इस दशामें वे जैनमुनि नहीं हो सक्ते । तिसपर उनका यह कहना 'हम अपने जीवन-रक्षाके लिए भी प्राणी वध जानबूझकर नहीं करते' इसमें कोई संशय नहीं छोड़ता कि यह निगन्य गृहस्थ जैनी थे, क्योंकि जैनमुनि अपने भोजनके लिए स्वयं प्रबन्ध नहीं करता। भोजनकी फिकर द्वारापेषण रूपमें गृहस्थलोग ही रखते हैं और वही उसके लिए भी प्राणी क्य नहीं करते. हैं, अतएव यहांपर 'निगन्थ' शब्दका भाव नैननावकोसे है । - इसके साथ ही इस विवरणसे यह भी स्पष्ट है कि उससमय भी नैनियोंकी संख्या वैशाली में अधिक थी। सीहका धर्मपरिवर्तन जैसा कि बौद्ध कहते हैं बुद्धके अंतिम समयमें हुआ था इस कारण बुद्धके वारम्वार वहापर धर्मप्रचार करनेपर भी नैनियोंकी संख्या कम नहीं हुई थी। तथापि म० बुद्ध सीहसे जो भविष्यमें
१. मूाचार पृ० ३-११ २. दीघ० मा० १ पृ० १७९-६२.. ____३. मूलाचार १६८-१६९ । . .
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२३६]
[ भगवान महावीरभी निर्ग्रन्थ मुनियोंको आहार देनेकी आज्ञा कर रहे हैं उसमें यह शब्द दृष्टव्य हैं कि सीहके गृहमें दीर्घकालसे जैनमुनियों (निग्रंथों) को पड़गाहा जाता रहा है । इससे भी जैनधर्मका अस्तित्व बौद्ध धर्म अथवा म० वुद्धसे प्राचीन सिद्ध होता है; क्योकि जब उसका अस्तित्व म० बुद्धसे पहिलेका होगा तब ही सीह बहुत पहिलेसे जैन मुनियोंको आहारदान देसका है।
'महावग्ग' में उपरोक्तके अलावा कोई विशेष उल्लेखनीय जैन विवरण नहीं है। किन्तु उसमे एवं अन्यत्र 'चुल्लवग्ग' आदिमें जो 'तित्थिय' के रूपमें साधुओंका उल्लेख मिलता है, वह हमारी समझसे बहुत कुछ पार्श्वनाथनीकी शिष्यपरम्पराके मुनियोंके लिये लागू है । इतना तो स्पष्ट ही है कि 'तित्थियगण' म० बुद्धसे प्राचीन सम्प्रदायोंके साधु थे परन्तु उनमें प्राचीन जैनमुनियोंका भी उल्लेख उसी रूपमें किया गया प्रतीत होता है क्योंकि जैन सम्प्रदाय म० वुद्धसे पहलेकी प्रमाणित होती है । अतएव इन उल्लेखोंको उपस्थित करके हम यह देखनेका प्रयत्न करेंगे कि वह किस तरह प्राचीन जैनमुनियोसे सम्बन्ध रखते हैं । 'महावग्ग में एक स्थानपर निन्न उल्लेख है:
at that time the Bhikkhus conferred tho Upasampadil ordination on persons that had Deither alms-bovl nor robes Thcy went out for alws baked and (received alios) with their hands. People wro annoyed, murmared and became angry, saying, 'Like I'be Titthiyas, 1.70 3.2"
१. हिस्टोरीकल ग्ठीनिग्म पृष्ठ 11-१२. २. Vinaya Tests. S. B. E Vol. XIII. P.223.
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-और म० बुद्ध ]
[२३७ - इन उद्धरणोमें भिक्षुओद्वारा उन लोगोंको अपने मतमें दीक्षित करनेका उल्लेख है जिनके पास न भिक्षापात्र था और न वस्त्र थे । उन्होंने नग्नदशामें ही जाकर अपने हाथोमें भोजन गृहण किया। इसपर, वौद्धाचार्य कहता है कि लोगोंने उनका अपवाद किया और कहा 'यह तो तित्थियोंकी तरह करते है ।' अब यह स्पष्ट ही है कि जैनमुनि आहार हाथकी अंजुलिमें लेते है और वे नग्न रहते है । न उनके पास भिक्षापात्र होता है और न वस्त्र होते है । इस अवस्थामे यहां जो यह क्रिया तित्थियोंकी बतलाई है, तो यह तित्थिय जैनमुनि होना चाहिये। ___ - इसके साथ ही यह भी दृष्टव्य है कि यह उस समयका वर्णन है जब म० बुद्धने अपने 'मध्यमार्ग' का प्रचार प्रारम्भ ही किया था और वे अपनी सम्प्रदायके आचार, नियम आदि नियत करते जारहे थे । इस समय भगवान महावीर छद्मस्थ थे और उन्होने अपने धर्मका प्रचार करना प्रारंभ नहीं किया था, यह बात हम अपनी मूल पुस्तकमें पहले देख चुके हैं। इस कारण यह
स्पष्ट है कि ये जैनमुनि, जिनका उल्लेख तित्थियरूपमें किया । गया है भगवान महावीरके संघके मुनियोंसे पहलेके जैनमुनि हैं,
अर्थात् पार्श्वनाथनीकी शिष्यपरंपराके मुनि हैं। उनका उल्लेख 'तित्थिय' रूपमें करना ही उनको भगवान महावीरसे पहलेका प्रमाणित करता है । अतएव इस उद्धरणसे यह स्पष्ट है कि भगवान पार्श्वनाथकी शिप्यपरंपराके मुनि भी नग्न रहते थे और हाथोंमें
१. अन्यत्र बौद्ध उद्धरणसे यह वात प्रमाणित है (पृष्ठ १८) तिसपर मूलाचार (पृष्ठ १ और २४४) दृष्टव्य है । २. पृष्ट. '
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२३८ ]
[ भगवान महावीर -
ही आहार ग्रहण करते थे, जैसी कि दिगंबर जैन सम्प्रदायकी -मान्यता है । श्वेताम्बरोंके 'उत्तराध्ययन सूत्रमें ' जो भगवान पार्श्वनाथकी शिष्यपरंपरा के मुनियोंका मेल भगवान महावीरभीके संघसे हुआ बतलाया गया है, वह कुछ उचित नहीं जंचता है । यहां श्वेताम्बराचार्य प्राचीन मुनियोंको वस्त्रधारी बतलाते हैं और उनके व्रत चार ही प्रगट करते हैं । ब्रह्मचर्य का समावेश प्रथम व्रतमें किया हुआ बतलाया गया है । किन्तु यह बात हमारे उपरोक्त बौद्ध उद्धरणके विवेचनसे बाधित है और वह स्वयं श्वेतांवरशास्त्रोंके अन्य कथनोंकी समानतामें उचित नही जंचती है । हम पहले ही देख चुके हैं कि श्वे ० के आचाराङ्गसूत्र में सर्वोत्कृष्ट साधु अवस्था नग्न बतलाई गई है और तीर्थङ्करपद सर्वोच्च पद है, अतएव सर्वोच्चपद पर आसीन तीर्थकर भगवान ही जब सर्वोत्कृष्ट नियमका पालन नहीं करेंगे तब फिर और- कौन करेगा ? फिर जरा यह भी सोचनेकी बात है कि जब विशेष पुण्यमई अवसर अर्थात् कर्मयुग प्रारंभ में स्वयं ऋषभदेवने अब नग्नताको मोक्ष प्राप्तिमें आवश्यक माना था और उसी रूपको धारण किया था, जैसे कि श्वेतांवरशास्त्र प्रकट करते हैं, तो नफर उपरांतके पुण्यहीन कालमें इसकी आवश्यक्ता क्यों घट गई ? और फिर भगवान महावीरने उसका प्रतिपादन पुनः क्यों किया ? यदि मान लिया जाय कि बीचके मुनि वस्त्र धारण करते थे तो
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१. जैन सूत्र (S. BE ) भाग २ पृष्ठ १२१. २. जैन-सू० भाग २ पृष्ट ५०-५५. ३. जैनसूत्र ( S. B. R ) भाग १ पुष्ठ ૨૬-૨૮૪
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-और म० युद्ध ]
[२३९ फिर वह क्यों उस सुगम मार्गको त्यागकर कठिन मार्गको ग्रहण करते? उस दशामें तो म० बुद्धका मध्यमार्ग उनके लिये पर्याप्त-था। तिसपर यदि यही सुगमता पहलेसे श्रमणसम्प्रदायमें प्रचलित होती तो म० बुद्ध एक अलग सुगम वस्त्रधारी संप्रदाय किस लिये स्थापित करते? इसके साथ ही यदि यह प्रभेद वास्तवमें था तो फिर जैनधर्मकी वह मान्यता कहां रही कि उसका सनातनरूप एक समान है ? तिसपर इस घटनाका उल्लेख श्वे० के उत्तराध्ययनसूत्रके
अतिरिक्त किसी प्राचीन ग्रन्थमें नहीं है और और यह उत्तराध्ययनसुत्र अगबाह्य रचना है।' इस दृष्टिमें इसके कथनपर सहसा विश्वास नही किया जासक्ता । उसका कथन आचारांगसूत्रके और बौद्धशास्त्रोंके उक्त कथनके प्रतिकूल है । तिसपर उसमें जो क्षुल्लक अधिकारके बाद ऐलक नामक अधिकार दिया है, उससे स्पष्ट है कि प्राचीन क्रम साधु दशाका क्षुल्लक, ऐलक और फिर अचेलक निम्रन्थरूप था । श्वे० आचार्यने यहां यद्यपि क्षुल्लक, ऐलकका उल्लेख किया है परन्तु उनने ऐलकका अर्थ एक 'भेड़ (Ram)से किया है और उसके उदाहरणसे साधुको शिक्षा* दी है। खे०
शास्त्रोके इन उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि श्वे. आचार्योंसे परोक्षरूपमें 'प्राचीन मार्गका उल्लेख करके अपनेको लांछित होनेसे बचा लिया है और उनकी इन सब बातोंसे मुनियोका अचेलक वेष स्पष्ट हो जाता है । इस दशामें भगवान पार्श्वनाथजीकी परम्पराके मुनि नग्नावस्थामें रहते थे यह प्रकट हो जाता है । रहा चार व्रतोंका
१. सार्थसूत्रम् (S. B. J ) भाग २ पृष्ठ १७. * उत्तरा ध्ययनसूत्र (UPSALA Ed) पृ. ८८-८.
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२४०]
[भगवान महावारउल्लेख उसका विवेचन हम पहले कर चुके हैं।
उपरोक्त उद्धरणोंके अतिरिक्त 'महावग्ग' में निम्नके परोक्ष जैन उल्लेख और मिलते हैं - .
1 "At that time the Parbbájnkas belonging to Titthiya schools assembled on the fourteenth, fifteenth and eighth day of each half month and recited their Dhamma, The people went to them in order to hear the Dhamma. They rere filled with favour towards and were filled with faith in the Paribbajakas belonging to Titthiya schcols, The Paribbajakas belonging-to Tittbiga School gained adheronts "l II, I, I. -
2 "How can these Sakyaputtiya Samnas go on their travels alike during rioter, summer and the rainy season? They crush the green heb', they irurt Vegetable life, they destroy the life of mauy small liviug things. Shall the ascet.cs who belong to Totthiya Schcols,...) etile during the rainy season etc.': III, 1,2.
3. "Let no one, O Bhikkhus, take upon himself the vos of silence, as the Tittligas do. He who dces, commits a dukhata nffence."s IV, 1,13.
__पहले उद्धरण में तिथियोके साधुओंका यह नियम बतलाया है कि वे प्रतिपक्षकी अष्टमी, चतुर्दशी और पूर्णमासीको एकत्रित
१. Vinayn Tests S. B. I XIII. p. 239. १ २. Itd. p 238. ३. Ibrd p. 328.
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:-और म० बुद्ध ..
[२४१ होकर अपने धर्मका पाठ करते हैं जिसको सुनकर साधारण जनता उनकी उपासक बनती है । यह नियम भी जैनमुनियोंसे लागू है क्योंकि जब पर्व दिनोंमें श्रावकोके लिये ही यह उपदेश है कि वे मुमुक्षुजनोंको धर्मामृतका पान करावें तो मुनियोके लिए तो इसका अभ्यास करना परमावश्यक होनाता है। तथापि यह उद्धरण भी म० बुद्धके प्रारंभिक जीवनका है जब कि भगवान महावीरका उप-- देश प्रारंभ नहीं हुआ था इसलिए यह नियम भगवान पार्श्वनाथकी शिष्यपरपरामें भी मान्य था यह स्पष्ट है, जैसी कि जैनियोंकी मान्यता है । उपरोक्त उद्धरणोमें अवशेषका भी यही हाल है। दूसरेमें शाक्यपुत्तीय (बौद्ध) समणोके बारेमें कहा गया है कि वे किस तरह वर्षाऋतुमें भी यत्रतत्र विचरण करते है और हरित किलों, वनस्पतिकाय और बहुतसे सुक्ष्मजीवोकी हिसा करते हैं; परंतु तित्थियसपके साधुलोग वर्षाऋतु एक स्थानपर रहकर मनाते है।
इस नियमके बारेमें कुछ कहना ही फिजूल है । चाहे कोई जैनसाधुओको इसका 'अभ्याप्त करते आज देख सक्ता है । अथच इसमें जो हरित, वनस्पतिकाय और सूक्ष्मजीवोंकी हिसाका कारण दिया है वह जैन वर्णनसे विल्कुल ठीक बैठ जाता है। जैनशास्त्र भी वर्षाऋतुमें इन्हीकी हिंसासे बचनेके लिए चतुर्मास एक नियत स्थान पर करनेका उपदेश करते है । अतएव यह स्पष्ट है कि यहां जिन तित्थिय साधुओंका उल्लेख है वह प्राचीन जैनसाधु ही थे । समण संप्रदायमें वे ही इस नियमका पालन पहिलेसे कर
१. रलकरण्ड ( मा० चं० प्र० ) पृष्ठ ७७. २. मूलाचार पृ० ९३-९" और २९०-२९३०
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२४२ ]
[ भगवान महावीर
रहे थे। तीसरे उद्धरणमें बौद्ध भिक्षुओंको मौनव्रत पालन करनेकी मनाई की गई है और कहा गया है कि इस नियमका पालन तो तित्थिय' करते हैं । जैनसाधुओंके लिए मौनव्रत पालन करनेका विधान है' इस दशामें यहां भी बौद्धाचार्य 'तित्थिय' शब्दका प्रयोग प्राचीन जैनसाधुओंके लिये कर रहे है । इसके अतिरिक्त एक अन्य उल्लेख 'महावग्ग'' में इस प्रकार है:
?
Many Tittbiyas saw Mendaka the house'holder ( of Bhaddiya ) as he was coming from afar; and when they had seen him, they said to Mendaka the householder : 'whither, O honseholder, are you going ?' 'I am going, sirs, to visit the Blessed One, the Samana Gotamɛ. ' • But why, O householder, do you, being & Kiriya - Vadi, go out to visit the Blessed One, who is an Akiriya Vadi ! For O householder, the Samana Gotama, who is an Akiriya-Vâdi teaches Dhamma without the doctrine of action." Vol. 34, 12/13.
"I
इसमें कहा गया है कि तित्थियोंने मेंडक नामक गृहस्थको आते देखकर उससे पूछा कि वह कहा जारहा है ? उत्तरमें जब उसने कहा कि मैं श्रमण गौतमके पास जा रहा हूं तो उन्होंने कहा कि तू क्रियावादी होकर उनके पाम क्यों जा रहा है ? वह तो अक्रियावादी है और कर्मवादके विना ही उपदेश देता है ।
१. पू० पृ० १३५. २. Viraya Texts. S. B. E. पूर्व Vol. XIII. P. 125.
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- और म० बुद्ध ]
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हम ऊपर सीहके सम्बन्धमें देख चुके हैं कि जैनमुनि अथवा जैनी चौद्धग्रंथों में क्रियावादी के रूपसे परिचित हैं । अतएव यहांपर जो तित्थिय साधु क्रियावादका पक्ष ले रहे हैं और मेंडक गृहस्थको बुद्धके पास जाने में अलाभ बतला रहे हैं, वे अवश्य ही जैन साधु हैं । तथापि इनका उल्लेख निगन्धों के नामसे न किया जाकर जो “तित्थिय' के नामसे किया जा रहा है, इसका वही कारण है कि ये भगवान महावीरकी शिष्यपरंपरासे पहलेके जैन मुनि थे । इसके साथ ही अन्य समणोंका उल्लेख भी जो कहीं मुश्किलसे एकाध जगह इसी ' तित्थिय ' शब्द द्वारा किया गया है, उसका कारण यही है, जैसे कि हम मूल पुस्तकके प्रथम परिच्छेद में बतला चुके हैं कि वे सब भगवान पार्श्वनाथके दिव्योपदेशके उपरान्त उनके 'तीर्थ' मेंसे उत्पन्न हुये थे । इसी कारण उन समणलोगोंके सिद्धान्त भी जैनधर्म से सादृश्य रखते हैं अथवा उसके सिद्धान्तोके विक्रतरूप ही हैं । अतएव ' महावग्ग' में जो तित्थिय - साधु ' हैं उनको प्राचीन जैनसाधु समझना ठीक है ।
'चुल्लवग्ग' में भी 'तित्थिय' साधुका उल्लेख एक स्थलपर निम्नरूपमें आया है:
"Now at that time the Bhikkhus went on their round for alms, carrying water-jugs made -out of gourds or water pots. People murmured, were shocked, and indignant saying, As the Titthiyas do' V, 10, 1."
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इसमें बौद्धसाधुओंके बारेमें कहा गया है कि वे आहार १. Ibid. P. 88.
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२४४]
[भगवान महवोरनिमित्त जब जाते थे तब वे जल रखनेके बरतन साथमें ले जाने लगे । लोग कहने लगे कि यह तो तित्थियोंकी तरह करते हैं। यहां भी तित्थिय शब्दका व्यवहार जैनसाधुके लिए हुआ प्रतीत होता है । जैनसाधु जब आहारके लिए जाते हैं तंब वे कमण्डलु, (प्रासुक जलके लिए बरतन) और पीछी साथमें रखते है। इसतरह जहां भी चौडग्रंथोंमे 'तित्थिय' शब्दका व्यवहार किया गया है वहां उसका भाव जैनमुनिसे ही प्रमाणित होता है, जैसा कि हम देखते हैं । और इस शब्दका व्यवहार जो 'निगन्थ शब्दके साथ किया गया है उसका भाव यही है कि वह भगवान महावीरके संघसे पहलेके जैनमुनियों के लिये व्यवहृत हुआ है।
अब रहा ' अभिधम्म' पिटक सो इसके ग्रन्थोंको देखनेका अवसर हमें नहीं मिला है और हम उनके सम्बन्धमें कुछ कह भी नहीं सक्ते है । अनुमानतः उनमें जैन उल्लेखोका होना बहुत कम समवित है तो भी 'चुल्लनिस' में कहा गया है कि 'निर्ग्रन्थ श्रावकोंके देवता निर्घन्य हैं। (निगन्ठ सावकानाम् निगन्ठो देवता) इस तरह बौद्धोंके पिटकग्रन्थोमें हम जैन उल्लेखोका दिग्दर्शन करते है। इनके अतिरिक्त अशोकके उपरांतका रचा हुआ वौद्धसाहित्य भी बहुत है । उसमें भी देखनेसे हमें जेन उल्लेख मिल जाते है।
इसी अनुरूप आर्यसुरकी ' जातककथाओं में भी हमें जैन उल्लेख मिलते है। उनकी 'घटकथा' में, जहां मदिरापानके निषेधका विवेचन है, कहा गया है:--- • १. मूलाचार पृ. १३०. २. पृष्ठ १७३-१०४ । ३ S, B. Br Vol IP.145.
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"Even the bashful lose shame by drinking it and will have done with the trouble and res. traint of diess; unclothed like Nirgranthas, they will walk boldly on the highway crowded with
people. »
- अर्थात्-इसके पीनेसे लज्जावान भी लज्जाको खो बैठते हैं और वस्त्रोंके कष्टो और बन्धनोंसे विलग होकर निर्ग्रन्थोंकी तरह नग्न होकर वे जनसमूहकर पूर्ण राजमार्गोंपर चलते हैं। यहां जैनमुनिकी नग्न दशापर कटाक्ष किया गया है। इससे भी जैन मुनियोंका नग्न होना स्पष्ट है।
'बावेरु जातक' में म० बुद्धके अतिरिक्त अन्य छह मतप्रवर्तकोकी उपमा, जिनमें भगवान महावीरको भी गिना गया है, उस कउवेसे दी गई है जो अपनी प्रतिष्ठासुन्दर मोरके आनेपर खो बैठा हो। यहां मोर म० बुद्ध बताये गये हैं और टीकाकारने कउवेकी समानता भगवान् महावीरसे की है। (तदा काको निगन्ठो नातपुत्तो)' इस विद्वेषभावका भी कहीं ठिकाना है। सचमुच वौद्धोंको भगवान् महावीरके धर्मप्रचारसे विशेष हानि सहनी पड़ी थी, इसीलिए वे उनका उल्लेख इस तरह कर रहे हैं । इस सांप्रदायिकताके विषवीजने ही अन्तमें भारतको पीडाकी भट्टीमें ला रक्खा है, यह स्पष्ट है। इसी तरहका एक अन्य उल्लेख एक अन्य जातकमें है।
वहां लिखा है कि अचेलक (नग्न) नातपुत्तने धोखेसे बुद्धको पंकी हुई मछली खानेको दी और बुद्धने उसे खा ली; तब नातपुत्तने उनपर पापोपार्जन करनेका लाञ्छन लगाया और कहा कि “शठ चाहे
१. भाजीवरस भाग 1 पृ० १६ ।
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२४६]
[ भगवान महावारमारकर, पकाकर खानेको भले ही दे, पर जो उसे खाता है वह पापी है।" बुद्धने उत्तरमें कहा कि "शठ दानके लिए भले ही पत्नी व पुत्रका वध करे, पर साधु उस मांसके खानेसे पापलिप्त नहीं होता (जातक भा०२ पृष्ठ १८२) यहांपर जैन और बौद्ध अहिंसाके प्रभेदको प्रकट करनेमें किस नीचतासे काम लिया है, यह स्पष्ट है । इससे यह भी स्पष्ट है कि बुद्ध मांस खाते थे और उसके खानेमे पाप नहीं समझते थे ! जब कि भगवान महावीर जानबूझकर मारना और मांस भक्षण करना पापका कारण बतलाते थे। यही बात तेलोवाद जातक' से भी प्रमाणित है। वहां कहा गया है कि बौद्ध भिक्षु सांथागारमें इकट्ठे हुए कह रहे थे कि 'नातपुत्त मुंह चढ़ाये यह कहते जारहे हैं कि बुद्ध जानबूझकर खास उनके लिए पकाये गए मांसका भक्षण कर रहे हैं।' यह सुनकर बुद्धबोले कि 'भिक्षुओ, यह बात पहली दफेहीकी नहीं है बल्कि नातपुत्त इससे पहले भी कई दफे खास मेरे लिए पके हुए मांसको मेरे भक्षण करनेपर आक्षेप कर चुके हैं । (जातक-कावेल भाग २४० १८२) इसपर डॉ. विमलचरण लॉ० कहते हैं कि 'इस वर्णनसे स्पष्ट है कि म. बुद्धने भरसक प्रयत्न भ० महावीरको नीचा दिखानेके लिए किये थे।' (सम क्षत्रिय छैन्स ऑफ एन्शियेन्ट इंडिया पृ० १२५) किन्तु दुर्भाग्यसे वह इसमें सफल नहीं हुए यह प्रत्यक्ष प्रगट है।। ___अन्यत्र बौद्धग्रन्थोंके आधारसे भगवान महावीरको कर्मसिद्धांतका प्रतिपादक बताया गया है और कहा गया है कि कर्मोको नाश करनेके लिए मोक्षमार्गपर पहुंचने तक बीचके पथमें पुत्र और. पौत्रादिका जन्म इन जीवोंके होजाता है। फिर वह मोक्षमार्गको
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-आर म. बुद्ध]
[२४७ पाते हैं । ( Rockhill, Life of the Buddha P. 259.) इससे वर्णाश्रम 'सिद्धांतका बोध होता है कि ब्रह्मचर्याश्रमसे गृहस्थाश्रममें पहुंचकर पुत्रादिका सुख भोगकर जीव वानप्रस्थ और सन्यास आश्रमोंमें मोक्षमार्गपर लग जाता है । इस उल्लेखसे इस सिद्धान्तकी प्राचीनता स्पष्ट है ।
'दिव्यावदान' के भी एक उल्लेखमें भगवान महावीरकी गणना' अन्य पांच मतप्रवर्तकों के साथ २ की गई है। तथापि अन्यत्र इसी ग्रन्थमें जैन मुनियों की नग्नावस्थापर आक्षेप किया गया है। यथाः
'कथम् स बुद्धिमान भवति पुरुषो व्यज्ञनावितः। लोकस्य पश्यतो योऽयम् ग्रांमे चर्ति नग्नकः ॥ यस्यायम् ईदृशो धर्मः पुरसताल लम्बते दशा । तस्य वै श्रवणौ राजा क्षुरप्रेरगावक्रिन्ततु ॥" __ और फिर इसी ग्रन्थमें म० बुद्धकी आत्मऋद्धि द्वारा निगन्या नातपुसके परास्त होनेकी शेखी मारी गई है । (दिव्यायदान १० १४३). .
उपरान्त 'मिलिन्दपन्ह' में भी कतिपय जैन उल्लेख हमारे देखने आये हैं । यह बौद्धग्रन्थ ईसासे पूर्व दुसरी शताब्दिकी रचना है । प्रारंभमें ही जो उसमें यह कथानक दिया हुआ है कि पांचसौ - योंकाओं (यूनानियों) ने आकर राजा मिलिन्द अथवा मेनेन्डर ( Menander') से निगन्य नातपुत्त ( भगवाना
1. पृष्ट १४३.२. दिव्यावदाने पृष्ट १९ . the Questions... of Milinda, S. B. E. Vol. XXÀV., P. 8. .
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२४८]
[ भगवान महावीरमहावीर ) के पास चलने और उनके निकट अपनी शंकाओंको हल करनेके लिये कहा, उससे प्रकट है कि ईसासे पूर्व दूसरी शताब्दिमें जब यूनानी लोग भारतके सीमाप्रान्त पर बस गये थे तव उनमें भी जैनधर्मका प्रवेश होगया था | मिलिन्द-पन्हमें यहां जो स्वयं भगवान महावीरका उल्लेख किया गया है वह ठीक नहीं है क्योकि 'मिलिन्दपन्ह' से प्राचीन वौद्धग्रन्थोमें भगवानको अजातशत्रुका समकालीन लिखा है । अस्तु; यहां विशेष दृष्टव्य यह है कि केवल यूनानियोके साधारण मनुष्योमें ही-जैनधर्मकी मान्यता घर नहीं कर गई थी बल्कि विविध कारणोंवश हमें यह विश्वास हुमा है कि स्वय यूनानी सम्राट् मिलिन्द भी किसी समय अवश्य ही जैनधर्मानुयायी रहे थे । इस वौडग्रथमें उनकी राजधानीमें अन्य समणोंका प्रभाव वर्णित किया है और राजा मिलिन्दको एक मिथ्यात्वीकी भांति चौद्धधर्मपर आक्रमण करते लिखा है तथा चौड शिष्य नागसेनको उसे परास्त करनेके लिये भेजा गया अकित किया है । इन नागसेन और राना मिलिन्दमें जो वाद हुआ था, उसमें जैन मान्यताकी झलक ननर पड़ रही है। आत्माका अस्तित्व, छह इंद्रियां, जलमें जीव, निर्वाण आदिका प्रतिपादन जो उन्होंने किया है वह ठीक जैन धर्मके अनुसार है । अतएव इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि राना मिलिन्द जैन धर्मानुयायी हो । अन्यत्र इस सम्बन्धमें विस्तृत विवेचन देखना चाहिये । सचमुच जब जन सम्राट् चंद्रगुप्तका विवाह सम्बंध तक यूनानी राजा सेल्यूकसकी पुत्रीसे हुआ था और सिकन्दरआजम अपने साथ जैन मुनियोंको ले
१ 'वीर' २ पृष्ठ ४१३. २. भारतके सचीन राजवंश. ,
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-और म० वुद्ध ]
[२४९
गया था' तो यह बिल्कुल संभव है कि जैनधर्मका प्रचार यूनानवासियोंमें विशेष होगया हो। इस व्याख्याकी प्रामाणिकताका विश्वास इस कारण और होता है कि यूनानी विद्वानोंकी शिक्षा नैना धर्मसे बहुत सादृश्य रखती है । उनके तत्ववेत्ता पर्रहो (Pyrrho) ने स्वयं जैनमुनियोंके निकटसे तात्विक शिक्षा ग्रहण की थी इस परिस्थितिमें विशेष अनुसन्धान यदि किया जाय तो यूनानमें जैनधर्मकी व्यापकताका विशेष पता लगना संभवित है।
. उपरोक्तके उपरान्त 'मिलिन्दपन्ह' में जैनियोंकी जल सम्बन्धी मान्यताका उल्लेख है कि जलमें भी जीव होता है । राजा मिलिन्द कहते है कि जलमें भी जीव होता है और उसे वे विविध रीतिसे प्रमाणित करते है; किन्तु उत्तरमें नागसेन कहते हैं कि 'नहीं, राजन, जलमे कोई जीव नहीं है। यह जैनियोकी मान्यताका स्पष्ट उल्लेख है । इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थमें कोई उल्लेख हमारे देखने में नहीं आया है।
बौद्धसाहित्य अगाड़ी 'धम्मपदत्यकथा' में भी जैन उल्लेख मिलते है । एक स्थलपर (भाग २ १० ४३४-४४७) उसमें श्रावस्तीके श्रीगुप्त और गरहदिन्नकी कथा लिखी है । श्रीगुप्त बौद्धमती था और गरहदिन्न एक जैन था । गरहदिन्नके निर्ग्रन्थ गुरुओंको बौद्ध बतलाते है कि वे सब कुछ जानते थे। उनके ज्ञानसे अगोचर कोई पदार्थ शेप नहीं है । भूत, भविष्य, वर्तमानको सब बातें और मन, वचन, कायिक सब कर्म तथा जो कुछ होनी और
१. “जैन. सिद्धारत भास्कर" किरण २-३ पृष्ठ ९. २. मूल पुस्तक. पृ० २६-२७. 3. Milinda, S. B.E. XXXV. P. 85.
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२५०]
[ भगवान महावीरअनहोनी है, वह सब वे जानते हैं। अगाडी इस बौद्ध कयामें लिखा है कि गरहदिनके अनुरोधसे श्रीगुप्तने जैनमुनियोंको आहारनिमित्त निमंत्रित किया और अपने घरमें दो गढे मिष्ठा आदिसे भरवाकर ढकवा दिये और जाहिरा ऐसा उत्सव किया कि मानो यह बड़े ठाठसे जैनमुनियों (Wanderers) को आहार देरहा है। नियत कालमें सब ही निर्यन्य साधु उसके यहां पहुंचे बतलाये हैं । उस श्रीगुप्तके कहनेके मुताबिक उनको अपना२ बरतन लेकर अलगर बैठ जाना और फिर मिष्ठासे भरे गढ़े में गिर जाना लिखा है।गरहदिनको इन समाचारोंसे बड़ा दुःख हुआ और रानासे कहकर उसने श्रीगुप्तको दण्डित कराया। आखिर गरहदिन्नने भी बुद्धको नीचा दिखानेके लिये उनको आमंत्रित किया और अपने घरमें एक गमें राख भरवाकर उसे कपड़ेसे ढकवा दिया । बौद्ध कहते हैं कि बुद्धने अपने ज्ञानबलसे गरहदिनकी यह कारस्तानी जान ली, परन्तु उनको 'अन्तर्दृष्टि दिलानेके अर्थ वे भिक्षुओं सहित आहाके लिए उसके यहां चले आये और अपने प्रभावसे भिक्षुओंसहित भरपेट आहार किया और सबको धर्मका उपदेश दिया। कौतूहलसे बहुतसी भीड़ वहां हो गई और बुद्धको इस प्रकार आनंदपूर्वक देखकर वे उन बुद्धको पूज्य दृष्टि से देखने लगे | बहुतेरे मनुष्योंको बौद्धधर्ममें विश्वास हुआ और वे उसके धर्मको सुनकर बड़े हर्षित
हुये। श्रीगुप्त और गरहदिन अर्हत होगये ।"" ... बौडग्रन्थकी इस कथामें जैनमुनियोंको नीचा दिखानेका कटु भाव ओतप्रोत भरा दृष्टिगोचर' होरहा है । इस कथानकमें
.. हिस्टारीकल ग्लीनिन्यस पृ० ०९-८१ ।
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-और-म० बुद्ध
[२५१ कितना तथ्य है यह इसीसे प्रमाणित है। मालूम होता है कि जैन-- शास्त्रोमें चौद्धभिक्षुओंके सम्बन्धमे जो एक ऐसी ही कथा हमें मिलती है, उस हीके उत्तरमें यह कथा बुद्धघोषको गढ़नेकी आवश्यक्ता पड़ी है। जैन कथामें सम्राट श्रेणिक और उनकी पट्टरांनी चेनीका सम्बन्ध है । राना चेटककी पुत्री जैन थी और श्रेणिक बौद्ध थे किन्तु अपने पतिको भी जिनेन्द्रभक्त बनानेके लिए राजा चेटककी पुत्री चेलनीने बौद्ध भिक्षुओको निमंत्रित किया था, मलिन पदार्थ जहां गढ़े हुये थे वहां उन्हें बैठाया, परन्तु उन्हें इसघातकाभान नहीं हुआ और फिर उन्हींके जूतोंके टुकड़े करके भोजनमें उन्हें खिला दिये, परन्तु तब भी उन्हें कुछ ज्ञान नहीं हुआ। इस तरह सम्राट् श्रेणिकको अपने गुरुओंकी सर्वज्ञताको प्रमाणित करनेमें असफलता देखनी पड़ी। फिर श्रेणिकने किस तरह इसका बदला जैनमुनिको त्रास देकर लिया तथा उनकी सहनशीलता देखकर उसे जैनधर्ममें प्रीति हुई फिर भी वह बौद्धोके कहनेसे बौद्ध रहा और अन्ततः भगवान महावीरके समवशरणमें उसे जैनधर्मका क्षायिकसम्यक्त्व प्राप्त हुआ ये सब बातें जैनशास्त्रोमें वर्णित हैं । इसी जैन वर्णनके उत्तरमें बौद्ध ग्रन्थमें उक्त प्रकार कथा दी गई हो तो कोई आश्चर्य नहीं ! सचमुच यह कथा जैनियोंकी उक्त कथाके उत्तरमें लिखी गई थी। इसका यही प्रमाण है कि द्वेषसे प्रेरित बौद्ध आचार्य जैनमुनियोंकी चर्याक विरुद्ध भी कथन कर गये है । जैनमुनि कभी भी निमंत्रण स्वीकार नही करते, वे खडेर ही भोजन ग्रहण करते है, ये बातें स्वयं बौद्धग्रंथोंसे प्रमाणित हैं परन्तु फिर भी यहांपर- कहा गया,
१. अणिक चरित्र ।
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२५२]
[ भगवान महावीरहै कि जैनमुनियोंको पहले ही निमंत्रित किया गया था और उन्हें एक स्थानपर बैठनेके लिये आसन दिया गया था । अतएव इसमें संशयको स्थान नहीं रहता कि बौद्धाचार्यने उक्त जैनकथाके उत्तरमें यह मनगढन्त कथा रच डाली थी और इस रूपमें इसका महत्व कुछ भी नहीं है । ईसाकी ६ वी ७वीं शताव्दियोमें पारस्परिक विद्वेष खूब जोर पकड़े हुए था । उसी समयकी यह रचना है। इस कारण इस तरह भी वह विश्वसनीय नही है।
इसी चौद्धग्रन्थमें एक अन्य कथा भी इसी दंगकी दी हुई है' उसमें कहा गया है कि अंग राज्यके भद्दियनगरमें रहनेवाले मेन्डकसेठीके पुत्र धनंजय सेठीकी पुत्री विशाखा थी। मेन्डकसेठीका परिवार म० बुद्धका अनन्य भक्त था । धनंजयसेठी कौशलके राजा यसेनदीके कहनेसे उनकी राजधानी साकेतमें जारहे ! विशाखाका विवाह मिगारसेठीके पुत्र पुनवडनसे होगया था। मिगार सेठी निगन्थोंका भक्त था । विवाहोपरांत विशाखाकी विदा श्वसुरगृहको श्रावस्ती होगई। एक दिवस मिगार सेठीने ६०० दिगम्बर जैन मुनियों (निर्ग्रन्थों)को आमंत्रित किया और जब वे आगए तो उनने
अपनी वहूसे उन अर्हतों (साधुओं)को प्रणाम करनेके लिये कहा। .अहतो (साधुओ)की बावत सुनकर वह भगी आई और उन्हें देखकर वोली, "ऐसे बेशरम व्यक्ति अरहत (साधु) नहीं होसक्ते ? मेरे श्वसुरने वृथा ही मुझे क्यों बुलाया ?" इस तरह अपने श्वसुरपर लांछन लगाकर वह चली गई। नग्न निगन्थोंने इसपर रोष किया और सेठीसे उसे घरसे वाहिर निकाल देनेके लिये कहा क्योंकि
1. विसाखावत्यू (P. T. S.Vol, I) भाग २ पृष्ट ३८४ ! .
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- और म० बुद्ध ] -
[ २५३
वह समण गौतमकी भक्त थी किन्तु सेठीके लिए ऐसा करना सम्भव नही था, इसलिए उसने क्षमा याचना करके उन्हें विदा किया । इस घटना के उपरांत सेठी बहुमूल्य आसनपर बैठा सोनेके कटोरेसे मधुमिश्रित दूध पीरहा था और विशाखा पास में खड़ी पंखा झल रही थीं। उसी समय एक वौद्ध भिक्षु वहां आखड़ा हुआ । . किन्तु सेठीने उसकी ओर ध्यान भी नहीं दिया । यह देखकर विशाखाने उस थेर (भिक्षु) से कहा, "महाराज, अन्य घरको जाइए; मेरे श्वसुरजी अशुद्ध वासी पदार्थ ग्रहण कर रहे हैं ।" इसपर वह श्रेष्ठी बहुत नाराज हुआ। उसने उसी समय दूध पीना बंद करके नौकरोसे कहा कि विशाखाको मेरे घरसे निकाल बाहर करो । . इसपर विशाखा ने कहा कि मेरे अपराधकी भी तो परीक्षा कर लीजिए | सेठीने यह बात मान ली और उसके रिश्तेदारों को बुलाकर उनसे कहा कि जब मै दुग्धपान कर रहा था तब विशाखाने बौद्ध . भिक्षुसे कहा कि मै अशुद्ध वासी पदार्थ ग्रहण कर रहा हूं । विशाखाके रिश्तेदारोने इस बातकी हकीकत दर्याफ्त की । विशाखा ने कहा कि उसने यह बात कही ही नही । उसने केवल यही कहा था कि उसके श्वसुर अपने पूर्वभव के पुण्यका फल भोग रहा है । इसप्रकार विशाखाने अपने अपराधको निर्मूल प्रमाणित कर दिया । जब वह निरपराध ठहरी तब उसने अपने श्वसुरगृहसे चला जाना ही मुनासिब समझा, इसपर श्रेष्ठीने उससे क्षमा याचना की और घर में रहने के लिये ही अनुरोध किया । वह केवल एक शर्तपर रहनेको मजूर हुई कि मुझे बौद्ध गुरुओकी उपासना करनेकी आज्ञा मिल जानी चाहिए । श्रेष्ठीने यह शर्त मंजूर कर ली । दूसरे दिन उसने बुद्धको अपने
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२५४]
[भगवान महावीरयहां निमंत्रित किया । जव नग्न निर्गन्थोंने यह जाना कि बुद्ध मिगारसेट्ठीके घरमें मौजूद हैं तो उन्होंने उनके घरको घेर लिया। विशाखाने अपने श्वसुरसे भी बुद्धका सत्कार करनेके लिए कहा। 'नग्न निग्रन्थोनें श्रेष्ठिको वहां जानेसे रोका । इसपर विशाखाने स्वयं ही बुद्धको आहार दिया। बुद्ध और उनके शिष्य जब आहार कर चुके तब विशाखाने फिर अपने श्वसुरसे आकर उपदेश सुननेका आग्रह किया । नग्न निग्रन्थोंने इस समय भी सेठीको वहां जानेसे रोका; किन्तु जब वह नहीं माना तो उन्होने वहां पर्दा डालकर उसके पिछाड़ी सेठीको बिठा दिया। सेठीने वहींसे बुद्धका उपदेश सुना और उसमें उनको विश्वास हो गया । वह अपनी वहूके पास पहुंचे और बोले, "आजसे तू मेरी माता है ।" उसी "समयसे विशाखा मिगारमाताके नामसे प्रख्यात् हुई। उसने करोड़ों रुपये खर्च करके बुद्ध के लिए श्रावस्ती में एक आराम बनवा दिया।""
इस कथामें भी जैनधर्मके प्रति कटुभाव झलक रहे है। यहां भी बौद्धाचार्यका उद्देश्य जैनसाधुओंको हेय प्रकट करनेका है। इस ‘दशामें इसमें कितना तथ्य है, यह सहन अनुभवगम्य है। किन्तु इससे __ यह स्पष्ट है कि जैनमुनियोंका भेष नग्न था,जैसे कि अन्य उद्धरणोंसे __ 'प्रमाणित है। साथ ही यह भी दृष्टव्य है कि उस समय श्रावस्तीमें
जैनियोंकी संख्या अधिक थी। इसमें भी श्रेष्ठीका मधुमिश्रित दूध 'पीना, मुनियोंद्वारा रोका जाना आदि बातें जैन नियमोंके विरुद्ध हैं।
___ 'धम्मपद' में नग्नता भी साधुपनेका एक चिह्न वतलायी गयी है। इसपर टीका करते हये टीकाकार एक और कथा लिखते हैं,
१ हिस० ग्ली. पृ० १३-१५ . धमापद (S. B. B. Vol.x) पृष्ठ ३८ 1
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-और म० बुद्ध]
[२५५ जो उपरोक्तसे बहुत मिलती-जुलती है । 'सुमागधा-अवदान' में कहा गया है कि "अनार्थापण्डककी पुत्रीके गृहमें बहुतसे नग्नसाधु एकत्रित हुये । इसपर उसने अपनी बहू सुमागधाको उनके दर्शन करनेके लिये बुलाया और कहा, 'ना और उन परमपूज्य मुनियोंके दर्शन कर ।' सुमागधा सारीपुत्त, मौग्गलान सदृश साधुओंको देखनेकी संभावनासे एकदम भगी आई किन्तु जब उसने इन साधुओंको देखा जिनके बाल कबूतरोंके पंख जेसे मिट्टीसे सने हुये थे, और जो देखनेमें राक्षस जैसे थे, वह म्लानमुख हो गई । इसपर उसकी सासने पूछा कि तू उदास क्यों होगई ?' सुमागधाने कहा कि "यदि यही साधु हैं तो फिर पापी कैसे होंगे ?" इसमें जैन साधु
ओंका उल्लेख है वे जैनसाधु नहीं हैं, प्रत्युत आजीवक प्रतीत होते हैं किन्तु इससे यह स्पष्ट है कि उस समय नग्नता साधुपनेका एक चिद्र मानी जाती थी । 'धम्मपद' के संपादक महोदयने इस पर एक नोट दिया है और उसमें कहा है कि 'वॉरनफ साहवके मतानुसार जैन साधु ही नग्न होने थे और वुद्ध नग्नताको आवश्यक नहीं समझते थे' यह ठीक है।
अन्यत्र गरुढ़ गोस्वामिन्की 'अमावटूर में भी एक जैन उल्लेख मिलता है। वहां कहा गया है कि लिच्छविराजपुत्र सुणक्खत्तने अन्ततः बौद्धसंघसे संबन्ध त्यागकर कोरखत्तियकी शरण ली। उपरान्त उनके निकटसे भी रुष्ट होकर वह जैनमुनि कलारमत्युकके शिष्य हो गये । जैनमुनिके निकट कुछ दिन रहकर वह फिर म० .. बुद्धके पास पहुंच गये । फिर भी म० बुद्धसे असंतुष्ट होकर वह पाटिकपत्र नामक जैनमुनिके निकट आगये। आखिर वह आजी
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२५६]
[ भगवान महावीरवक हो गये ।* इसमें जिन सुणक्खत राजपुत्रका उल्लेख आया है, वे भगवान महावीरके शिष्य थे, यह श्वेताम्बरियोंके 'भगवतीसूत्र से प्रमाणित है। दिगंबर शास्त्रोंमें हमें कोई ऐसा नाम देखनेको मिला नहीं है। संभव है विशेष रीतिसे अध्ययन करनेपर दिगंवर शास्त्रोंमे इन जैन मुनियोंका विवरण मिल जावे । विद्वानोंको ध्यान देना चाहिये। ___अन्ततः धम्मपालकी थेर और थेरीगाथाकी टीका 'परमत्थ'दीपनी में जैन उल्लेख इस प्रकार मिलते हैं। यद्यपि यह टीका
अर्वाचीन रचना है, परन्तु गाथामें जो इसमें विविध भिक्षु भिक्षुणियोंकी संग्रहीत है, वे अवश्य ही बौद्ध पिटक ग्रंथों जितनी प्राचीन है। इस दशामें इनके उल्लेख भी विशेष महत्व है। इनमें उन कतिपय भिक्षु-भिक्षुणियोंका भी उल्लेख है जो जैनधर्मसे बौद्धधर्ममें दीक्षित हुये बतलाए हैं। बौद्धोंके इन धर्म परिवर्तन उल्लेखोमें कितना तथ्य है, यह हम कुछ कह नहीं सके; परन्तु जैसे कि हम प्रारंभमे कह चुके हैं, बौद्धोंके उल्लेखोमें सर्वथा विधर्मियोको स्वधर्ममें ग्रहण करनेका विवरण मिलता है; उनके स्वयं अपने अनुयायियोंके विधर्मी होनेका कहीं कोई उल्लेख सहसा देखनेमें नहीं आता है।
और यह संभव नहीं है कि उनके अनुयायी विधर्मी न हुये हों। ऐसी दशामें उनके कथनकों यथातथ्य स्वीकार करना जरा कठिन है। खैर जो हो, यहां इनका दिग्दर्शन करलेना इष्ट है।
पहिले ही 'थेरी गाथा की टीका कतिपय जैन आर्यिकाओके बौद्ध भिक्षुणी होनेका उल्लेख है। यहां पहिले ही अभयकुमारकी माताका चौद्ध भिक्षुणी होना बतलाया गया है। उसका नाम पद्मावती *माजीव भाग पृष्ट ३५११.Psalme of the sisters.P.30.
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- और म० बुद्ध ]
[ २५७
और वह उज्जैनीकी वेश्या बतलाई गई है । महाराज श्रेणिककेऔरस से अभयकुमारका जन्म हुआ बतलाया गया है । उपरान्त कहा है कि जब निगन्थ - नातपुत्तके उकसानेपर अभयकुमारने म० बुद्धसे प्रश्न किये थे और उनका यथार्थ उत्तर पाया था, तब वे बौद्ध हो गए थे । बौद्ध होनेपर उन्हीके उपदेशसे उनकी माताने बौद्धधर्म में श्रद्धान ग्रहण किया था । इस विवरण में कितना तथ्य है, यह हम पहिले ही देख चुके है। सचमुच अभयकुमार जैन थे, इसी कारण उनका जन्म वेश्याके गर्भ से हुआ बतलाया गया है । वरन् हम जानते हैं कि वे वेणातट नगरके एक श्रेष्ठीकी कन्या थी । अगाड़ी मद्दगणराज्यकी राजधानी सागलके को सियवशके ब्राह्मणकी पुत्री भद्दाका विवरण है।' उसका पालनपोषण बडे लाड़चावसे हुआ था और उसका विवाह मगधके महातित्थ नामक ग्रामके राजकुमार पिप्पलिसे हुआ था । जब पिप्पलि साधु हो गया तब उसने भी अपनी सम्पदा अपने सम्बंधियोको देकर साधु अवस्था धारण कर ली । कहा गया है कि वह पांच वर्ष तक श्रावस्तीके जेतवनमें स्थित 'तित्थिय आराम' में रही और अन्त में 'पजापती गोतमी' ने उनको बौद्धधर्ममे दीक्षित किया । इसमें स्पष्ट रीतिसे नहीं कहा गया है कि वह पांच वर्ष तक किस आम्नायकी साधु संप्रदायका पालन करती रही थी. किंतु तित्थिय आराममे वह रही थी, इससे संभव है कि वह प्राचीन जैनसंघमे सम्मिलित रही हो, क्योकि हम देख चुके हैं कि 'तित्थिय' शब्दका विशेष प्रयोग प्राचीन जैनसाधुओके लिये बौद्धशास्त्रोमे किया गया है । अस्तु;
१. Psalms of the Sisters P. 48.
૧૭
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Bhe moon, thership and ago
२५८]
[ भगवान महावीरइसके उपरान्त थेरीगाथामें स्पष्ट जैन उल्लेख भिक्षुणी नदोत्तराके विवरणमें है।' इस कथामें कहा गया है कि " कौरवोके राज्यमें स्थित कम्मासदम्म ग्रामके एक ब्राह्मणवंशमे इसका जन्म हुआ था । जब निगन्थोंके निकटसे उसने शिक्षा ग्रहण करली थी, तब वह उन्हींके संघमें सम्मिलित हो गई। वह अपनी बादशक्तिके लिये प्रख्यात् थी सो सर्वत्र विचर कर वाद करती थी। इसी परिभ्रमणमे उसकी भेंट वौद्धाचार्य महामोग्गलानसे हो गई । उनसे वादमें वह परास्त हुई और इसपर उनके उपदेशसे उसने बौद्धभिक्षुणीके व्रत ग्रहण किये । एक दफे अपनी ध्यानावस्थामें उसने कतिपय गाथायें कही थी, जिनका अनुवाद इस प्रकार है:" Fire and the moon, the sun and cle the gouls,
I once was wont to worship and adore, Forcgathcring on the nver banks to go, Dorn in the waters for the bething riles S;. Ay, manifold observances I lud Upon me, for I shaicd one half my heid Nor laid mc down to rest save on the curih, Nor cor broke my fast at close of any ss "
भावार्थ-"एक समय मैंने अग्नि, चद्रमा, सूर्य और देवताओंकी उपासना की और नदियोके स्नान करनेके लिये वहा भगी गई। फिर अनेक प्रकारके व्रत मैने धारण किये, मै आधे सिरको मुडाती थी, पृथ्वीपर सोती थी और सूर्य अस्त होनेके पश्चात् भोजन ग्रहण नहीं करती थी।"
इस कथासे जेनसावियोमें जीवनकी झलक हमें मिलती है। मचमुच निस वीरमघकी साध्वी ऐकाकी सर्वत्र विचर कर
१. .७...
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-और म० बुद्ध ]
[२५९ वादका नाद घोषित करती थीं, उसकी मन्दाकिनी उस समय पूर्णताको ही प्राप्त होगी! वास्तवमें जैनसाधु और साध्वियोके जीवन धर्मप्रचारके आदर्श होते है। वे वर्षके चार महीनोंको छोड़कर शेषके सर्व दिनोंमें सर्वत्र विहार करके जनताको सच्चे सुखका मार्ग बताते हैं । यही दशा नन्दोत्तराके सम्बन्धमें प्रकट है । कितु उसने जो अपनी जीवनचर्याका विवरण दिया है, उसपर भी तनिक ध्यान दीजिये । हमारे विचारसे पहिली गाथामें तो उसने अपने ब्राह्मणपनेकी अवस्थाका उल्लेख किया है और दूसरेमे जैन उदासीन श्राविकाकी क्रियायोंका दिग्दर्शन कराया है। उदासीन श्राविकाओंको सिर मुड़ाना पडता है और वे पृथ्वीपर शयन करती एवं रात्रिभोजनकी त्यागी होती हैं । यही क्रियायें नन्दोत्तरा भी गिना रही है तथापि जो उसने जैनसाधुओंके निकट रहकर शिक्षा ग्रहण की थी, यह भी जैनशास्त्रोके अनुकूल है । जैनशास्त्रोंमें ऐसे कई उल्लेख है। इस तरह इस उल्लेखसे जैन क्रियाओका महत्व प्रकट है।
उपरान्त भद्दा (भद्रा) कुन्दलकेसाका कथानक है। यह पहिले जैनी थी। इसके सवधमे यह कहा गया है कि वह राजगृहके राज्य-कोठारीकी पुत्री थी । एक दफे वहाके पुरोहित-पुत्र सत्युकको डकैतीके अपराधमें प्राणदण्ड मिला । बधक लोग उसे शूलीपर चढ़ानेको लिये जा रहे थे। भद्दाकी दृष्टि कहीं उसपर पड़ गई और वह तत्क्षण उसपर आसक्त होगई । उसके पिताको जव यह बात मालूम हुई और पुत्रीकी अन्यथा शांति होना कठिन समझी, तब उसने बधकोंको धूंस देकर उस पुरोहितपुत्रको छुड़ा । १. Psalms of the Sisters P. 63.
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२६०]
[भगवान महावीर
लिया । वह सत्युक डाकू भद्दाके संग आनन्द भोग करता अवश्य था परन्तु उसकी नियत सदा उसके गहनो पर रहती थी। एक रोज वह उसे वाहिर ले गया और वहा उसने गहने मागे । भदाने उसे प्रेमसे समझाना चाहा, पर जब देखा कि यह तो गहनोंका ही भूखा है; तब उसने प्रेमालिंगनके बहाने उसे एक गहरे गढ़ेमें ढकेल दिया । उसका हृदय संसारकी परिस्थिति देखकर थर्रा गया। वह वहांसे सीधी निगन्य सघमें पहुची और वहां आचार्यसे दीक्षा देनेकी प्रार्थना की । इसपर वौद्धाचार्य कहते हैं कि निगन्थोने उससे पूछा "तू किस कक्षाकी दीक्षा ग्रहण करेगी ?" उत्तरमें उसने उनसे सर्वोत्कृष्ट कक्षाकी दीक्षा देनेका अनुरोध किया। इसपर उन्होंने ताडकी कंघी (Palusyra Comb)से उसके बाल नुचवा (tone out) दिये और वह दीक्षित कर ली गई किन्तु उसकी संतुष्टि इस दशामें नहीं हुई इसलिये वह वहांसे चली गई । उपरान्त श्रावस्तीमे, बौद्धाचार्य सारीपुत्तसे वह वादमें हार गई और बौद्ध होगई। वोद्ध भिक्षुणीकी दशामें उसने एक दफे निम्न शब्द कहे थे:“ Harless, dirtladen and half-clads so fared I formerly, dceming that harmless things Had harm nor was I 'ware of harm In many things whcreir, in sooth, harm lay 107."
इनमें उसे यह कहती प्रगट किया गया है कि "पहिले मैं केश रहित, मैलसे लदी और एक कपड़ा पहिने विचरा करती थी, मै यह विचारती थी कि उन वस्तुओंमे भी नुकसान है जो सचमुच नुकसानदह नहीं है और उन वस्तुओंसे मैं अजानकार थी जिनमे वस्तुतः नुकसान है ।
: Literally, haying one garment or cloak.
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[२६१
इसप्रकार यह कथा है । इसमें वर्णित जैनआर्यिकाओंकी क्रियाओपर हमें ध्यान देना चाहिये । नन्दोत्तरा और इस भद्दाकी जीवनक्रियाओंमें अन्तर है। इसका कारण यही है कि नन्दोत्तरा तो उदासीन श्राविका थी और भद्दा आर्यिका थी। वह जेनाचार्यसे परमोत्कृष्ट दीक्षा देनेका अनुरोध भी करती है । इससे प्रकट है कि जैन संघमें स्त्रियोंके साधुनीवनकी भी कक्षाएं नियत थी । यह जेनशास्त्रोके सर्वथा अनुकूल है। जैनसंघमे चार कक्षाएं स्थापित थीं, जैसे कि आन भी है, अर्थात् (१) मुनि, (२) आर्यिका, (३) श्रावक और (४) श्राविका । यह श्रावक और श्राविकायें उदासीन गृहत्यागी ही होते थे। अस्तु, अगाडी जो वाल नोंचनेकी वाचत कहा गया है, सो श्वेतांबर संप्रदायकी वाबत तो डॉ० जैकोबी प्रकट करते हैं कि शायद उनके यहां यह नियम नहीं है' पर दिगम्बर संप्रदायमें मुनि और आर्यिकाके मूलगुणोमें अन्तर नहीं है । उनके उत्तरगुणोंमें परस्पर अन्तर है । प्रायश्चित्तविधानके निर्णयमें 'छेदशास्त्र'का निम्नश्लोक यही प्रकट करता है:'यथा श्रमणानां भणितं श्रमणीनां तथा च भवति मलहरणं । वर्जयित्वा त्रिकालयोग दिनप्रतिमां छेदमूलं च ॥
'अस्यार्थः-यत्प्रायश्चित्तं ऋषीणा यथा तेन विधिना आर्यिकाणां दातव्यं परं किन्तु त्रिकालयोग सूर्यप्रतिमा न भवति । उत्तर गुणानां समाचारो न भवति । केन कारणेन मूलच्छेदे नाते सति उपस्थापवायां न याति ।
१. जैनसूत्र ( S. B.E. ) भाग २ पृष्ठ १८ फुटनोट. २. प्रायश्चित्तसंग्रह (मा० प्र०) पृष्ठ ९८.
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२६२]
[ भगवान महावोरइस अपेक्षा दिगम्बर दृष्टिसे आर्यिकाको केशलोंच करनेका अधिकार प्रमाणित होता है। श्रीपद्मपुराणनी (पृ. ८८३) में सीताजीको दीक्षा लेते समय केशलोच करते लिखा है अतएव बौद्धशास्त्रका यह उल्लेख भी यथार्थता लिए हुए है।
__ इसके अतिरिक्त 'थेरीगाथा मे अन्य कोई उल्लेख स्पष्टतः जैनधर्मके संबंध नहीं है, किन्तु 'इसिदासी' (ऋषिदासी) शीर्षक नो कथा दी हुई है, वह अवश्य ही जैनदंगकी मालूम होती है। वह इस प्रकार है, "ऋषिदासीने पूर्वभवमें व्यभिचारमय जीवन व्यतीत किया था। इसलिये इस पापके कारण उसे तीन भव पशु योनिमें, एक नपुंसक रूपमें और दो स्त्रीलिंगके धारण करने पड़े। उपरान्त वह उज्जैनीके एक प्रख्यात , धनी और धर्मात्मा वणिकके यहां पुत्री हुई थी। यहां इसका नाम ऋषिदासी रक्खा गया था। जब वह पुत्री हुई तब उसके पिताने उसका विवाह एक सुयोग्य वणिकपुत्रके साथ कर दिया। एक मास तक वह अपने पतिके साथ अच्छी तरह रही पश्चात् उसके पूर्व कर्मके फल स्वरूप उसका पति उससे विरक्त होगया और उसे घरमेंसे निकाल बाहर किया। वह अपने पितृगृह पहुंची। वहां उसके पिताने उसका विवाह फिर कर दिया, किन्तु फिर भी उसकी उसके पतिसे न पटी। इसप्रकार बारवार विवाह कर देने और निकाली जानेसे वह धवड़ा गई और उसने जिनदत्ता नामक थेरी (साध्वी)से दीक्षा ग्रहण कर ली। इस दीक्षित अवस्थामें एक दिवस वह पटनामें आहार ग्रहण - करके, गंगा तटपर आकर बैठ गई और वहां अपनी साथिन भिक्षुणीसे अपनी पूर्व कथा कहने लगी। किसतरह पूर्वभवमें उसने पाप किये,
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[२६३ कैसे उनका फल भुगता, फिर इस भवमें साकेतके वणिकपुत्रसे उसका विवाह हुआ, पति रुट हुवा, घरसे निकाली गई, पितृगृह आई, पुन. पुन. विवाह हुये, अन्ततः जिनदत्ताके निकट उसने दीक्षा ग्रहण की यह सब उसने कहा। इस विवरणमें एक स्थलपर निम्न शव्द आये हैं:" But of my father I,
W ceping and holding out clasped hands, be sought : 'Nay' but the cril Karma I have done, That would I expiate and wear away 431"
भावार्थ-उसने अपने पितासे रोकर और हाथ जोडकर कहा कि 'नहीं, पितानी, मैंने जो अशुभकर्म उपार्जन किया है उसकी निर्जरा अव मुझे (निज्जरेस्सामि ) कर लेने दीजिये । यही कह कर वह साध्वी होगई थी।'
इस कथामें कर्मके प्रभावको व्यक्त करनेका प्रयास है जो जैनधर्ममें मुख्य स्थान रखता है। जैनकथाओमें पूर्वकृत कर्मके फल भुगतनेका चित्रचित्रण विशेष मिलता है तथापि जो यहां कर्मोंकी निर्जरा करनेकी घोषणा है, वह स्पष्ट कर देती है कि यह कथा जैनसे सम्बन्ध रखती है। ऋषिदासी, जिनदत्ता ये नाम भी जैनियोके समान हैं इस कारण यही प्रतीत होता है कि यह कथा जैनियोंकी है । निर्जरा तत्व बौद्धधर्ममें स्वीकृत नहीं है, प्रत्युत म० बुद्धने जैनियोंके इस तत्वकी तीव्र समालोचना 'देवदत्त सुत्त' में की है। यही मत 'थेरीगाथा' की सम्पादिका श्रीमती मिसिस हिसडेविडसका है। आप इस कथाके विषयमें लिखती हैं कि:--
१. Psalms of the Sisters P. 156. २. मज्झिमनिकाय भाग २ पृष्ठ २१४॥
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२६४ ]
[ भगवान महावीर -
"
"But in the case of the last two Psalms (Isidâsi and Sumedhâ XVIII.) There are features pointing to different and possibly later conditions attending their compilation. Isidasi's poem, for one who comes to it steeped in the phraseology of the preceding Psalms, strikes a strangely varied, almost a discordent note. The scene is Pato.í, a city rising on the decline of the Kosalan and Magadhese capitals, but alone that of Kási (Benares ). The wretched gul's plea to join the -older of Bhikkhunis might be that of a Jain, so Jainistic is her aspiration. The name of her sponsor Bhikkhuni—Jindattâ—which does not occur elsewhere in the Canon is possibly significant.' 1 भावार्थ- ' किन्तु अतिम दो गाथाओ (इसिदासी और सुमेधा ) के सम्बन्धमें ऐसे लक्षण है जो उसकी अन्योसे विलक्षणता और उपरांतकी रचनाके द्योतक हैं । इसिदासीकी गाथा यद्यपि पूर्वगाथाओंकी भाति रची गई हैं, किंतु उसमे विलक्षण भेद स्पष्ट है । घटना पटनामें घटित हुए बतलाई गई है । यह नगर कौशल और मगधकी राजधानियोंके नष्ट होनेके बाद आविर्भूत हुआ था। संभवत इसिदासीका अनुरोध जैनसंघकी भिक्षुणियोंके व्रत धारण करनेका होगा, उसका उद्देश्य बिल्कुल जैनियों जैसा है । उसकी दीक्षादात्री जिनदत्ताका - नाम भी बौद्धशास्त्रोमें अन्यत्र कहीं देखनेको नही मिलता है। यह भी इस अनुमानका एक प्रत्यक्ष प्रमाण है।' इस दशामें इस कथाको जैनकथा कहना कुछ अनुचित नहीं है ।
"
१. Psalms of the Sisters. Introduction. XXII.
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- और म० बुद्ध ]
[ २६५
1
किन्तु इसमें जो ऋषिदासीके पुर्नविवाहका उल्लेख है वह कुछ अटपटा ही है । जैन कथाओंमें हमें कोई ऐसा उल्लेख देखनेको नही मिलता है । संभव है बौद्ध लेखकने इसको विकृत रूप देनेके लिये अपने आप यह कथन गढ़ लिया हो और इस कथाको अपना लिया हो। इसके लिये हमें देखना चाहिये कि जैनशास्त्रों में भी कोई ऐसी कथा अथवा इससे सादृश्य रखनेवाली कथा है ? हमारे देखनेमें ' उत्तरपुराण' में एक कथा आई है, जिससे उक्त कथाका सम्बन्ध हो तो कोई आश्चर्य नहीं !' वहां लिखा है कि सम्राट् श्रेणिकके प्रश्नके उत्तरमें प्रधान गणधर इन्द्रभूति गौतम कहते हैं कि वीरभगवानके तीर्थमे अंतिम केवलज्ञानी जम्बूकुमार होंगे। उस दिनसे, जिस दिन यह प्रश्न पूछा गया था, सातवें दिन इन जंबूकुमारका जन्म राजगृहनगरमें होना बतलाया गया है । इनके पिताका नाम 'अर्हदास' और माताका नाम 'जिन्दासी' लिखा गया है । उपरान्त कहा है कि जब भगवान महावीर के निर्वाणोपरांत पुनः गौतम गणधर सुधर्माचार्य सहित यहां आयेंगे तत्र राजा कुणिक अजातशत्रु पूजा वंदना करने आवेगा और जंबूकुमार भी वैराग्यको धारण करेगे किन्तु माता-पिता दीक्षा धारण नहीं करने देंगे । इस घटना के बाद जम्बूकुमारका विवाह पद्मश्री, कनकमाला और कनकीके साथ हो जावेगा, परन्तु वह संसारभोगसे विरक्त रहेगा। ये सब तें घटित हुई और इसी समय एक विद्युच्चोर जम्बूकुमारके घर आ निकला था । इन दोनोमे परस्पर संसारकी असारता पर वाद हुआ था, जिसके अन्तमें जम्बूकुमार और उनके माता
१. उत्तरपुराण पृष्ठ ७०२.
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२६६]
[ भगवान महावारपिता तथा स्त्रिय और विधुच्चोर आदि सब दीक्षा धारण कर गये थे। भगवान महावीरके चौवीस वर्ष बाद जम्बूकुमार केवलज्ञानी, हुए थे। केवलज्ञानी होकर उन्होंने अपने भव नामक शिष्यके साथ चालीस वर्षतक विहार और धर्मप्रचार किया था। जैनियोके अंतिम केवलीकी यह कथा है और विशेष प्रख्यात है। संभव है इसीको बौद्धाचार्यने किसी कारणवश अपना लिया हो। यहां जम्बूकुमारकी माता जिनदासी वाई गई है और बौद्धकथामें ऋषिदासीका उल्लेख है तथापि जिनदत्ता भिक्षुणीका | भगवान महावीरके निर्वाणोपरांत एक वीस-तीस वर्षके अन्तरालमें पटनाका आविभूत हो जाना संभवित है । इन्ही जिनदासीका नाम बौद्धाचार्यने 'जिनदत्ता' रख दिया हो और इनकी किसी शिष्याका 'ऋषिदासी' रख लिया हो तो कोई अनोखी बात नही है। अथवा यह हो सकता है कि नियोंके अंतिमकेवलीकी माताको हेय प्रकट करने के लिये उन्होने उनके नामको ऋषिदासीमें पलटकर उनके जीवनको नीची दृष्टिसे प्रगट किया हो। जो हो, इसमें संशय नहीं कि बौद्धाचार्यने इस कथाको किसी रूपमें अवश्य ही जैनधर्मसे ग्रहण किया था। संभव है कि जैनकथाग्रंथोमें
और कोई कथा उपरोक्तसे मिलती-जुलती मिल जावे यह ढूंढ़नेसे मालूम होसक्ता है। इस प्रकार थेरीगाथाके जैन उल्लेख पूर्ण होते है।
अब पाठकगण आइए, एक दृष्ठि 'थेरगाथा' पर भी डाललें। इसमें भी सबसे पहिले अभयकुमारके संबन्धमें जैन उल्लेख मिलता है। इसके विषयमे हम पहिले ही देख चुके हैं, उपरान्त एक कथा 'अज्जुन' शीर्षक की है। इसमें कहा गया है कि वह सावत्थी
१. Psalms of the Brethren. P. 30. २, पूर्व पृष्ठ ८३.
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और म० बुद्ध ]
[२६७ (श्रावस्ती) के एक कुलपुत्र (Councillon's) के वंशमे जन्मा था। जब वह युवा था तब ही उसने एक जैनमुनिके निकट दीक्षा ग्रहण करली थी। किन्तु अन्तमें वह किसी कारणसे बौद्ध होगया बतलाया गया है। इसके विषयमें अधिक कुछ न कहकर यह बतलाना ही पर्याप्त है कि जैनसाहित्यमें ऐसा कथानक हमारे देखनेमे नही आया है ।
इसके अतिरिक्त 'गंगातीरिय' भिक्षुके सम्बन्धमे कहा गया है कि उसने गृहत्याग कर एक वर्षतक मौनव्रत धारण किया था। यह हमको मालूम है कि म० बुद्धने मौनव्रत पालनेके लिए मनाई की थी इसलिए सभव है कि यह साधु जैनमुनि हों। गंगा किनारे रहनेके कारण यह 'गंगातीरिय' कहलाते थे।
उपरान्त इसमें एक कथानक 'अंगुलिमाल' शीर्षकका है ।' यद्यपि इसका संबंध जैन संप्रदायसे कुछ भी नहीं बताया गया है; परन्तु इसके विवरणक्रमसे यही प्रतीत होता है कि यह कथा भी जैनसाहित्यसे अपनाली गई है, जैसा कि हम ऋषिदासीकी कथाके सम्बन्धमे देख चुके है। यह कथा इसप्रकार बतलाई गई है कि 'अंगुलिमाल-कौशलके राजाके पुरोहित ब्राह्मण भग्गवका पुत्र था । पुरोहितने उसके जन्म लक्षणोसे-जान लिया था कि वह पक्का चोर होगा। यह समाचार उन्होंने रानासे भी कहे; जिससे उनके मनको भी पीड़ा सहन करनी पड़ी थी। उसके द्वारा राजाको पीडा सहन करनी पडी, इसलिये उसकी ख्याति 'हिसक' रूपमें होगई । वह बलवान भी विशेष था। सात हाथियोंका बल उसे प्राप्त था। उचित वय प्राप्त करनेपर उसे तक्षशिलामें विद्याध्ययन करनेके लिये १. पूर्व पृष्ठ ११२. २. Psalms of the Brethren. P. 318,
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२६८]
[ भगवान महावोरभेज दिया गया । तक्षशिलामें विद्याध्ययन करते वह अपनी गुरु. आनीकी विशेष सेवा सुशूपा किया करता था इस कारण गुरुके गृहसे उसे अधिकतर निमत्रण मिलते रहते थे। इस बातको और शिप्य सहन न कर सके। उन्होंने गुरु और इसके बीच कुसम्प लानेके प्रयत्न किये और वे सफल भी हुए । गुरु 'हिंसक' से रुष्ट होगये और उससे कहा कि मुझे गुरुदक्षिणा रूपमें एक हजार अंगुलिया मनुष्योंके सीधे हाथकी लाकर दो। वह समझते थे कि उससे यह कार्य नहीं होगा और इसपर उसे दण्ड दिया जासकेगा किंतु 'हिंसक गुरुकी आज्ञाको शिरोधार्य कर कौशलके जालिनी वनमें पहुच गया और वहासे जो यात्री निकलते, वह उनकी उंगलियां काट लेता और उन्हें सुखाकर उनकी माला बनाकर गलेमें पहिन लेता इसही कारण वह 'अंगुलिमाल' नामसे प्रकट होगया । जब उसकी उद्धतता ज्यादा बढ़ गई तो राजाने उसको पकडनेके लिये सेना भेजनेकी व्यवस्था की। यह समाचार जानकर उसकी मातांका हृदय थर्रा गया। वह ममताकी प्रेरी अपने पुत्रको समझानेके लिये निकल पड़ी। इस समय 'अंगुलिमाल' ने अपनी माताको आते देखा; परन्तु उसे तो अंगुलियोंसे मतलब था। उसने माताका भी ध्यान नहीं किया ! अगाडी चौद्धाचार्य कहते है कि म० बुद्धने इस दशाको जाना तो वे घटनास्थलपर पहुच गये । उनको आता देखकर ' अंगुलिमाल' ने अपनी माताको छोड दिया और उनके पीछे हो लिया परन्तु भागकर भी वह उनको नहीं पकड़ -सका । अन्तत. बुद्धके प्रभावसे उसने वह हिसाकर्म छोड़ दिया
और वह बौद्ध होगया । बौद्ध भिक्षु होनेपर भी लोग उसको विशेष
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-और म० बुद्ध
[२६९ रीतिसे सताते थे परंतु वह सब यातनायें चुपचाप सह लेता। इसलिये वह अन्तमें 'अहिसक' नामसे प्रख्यात हुआ। इस दशामे उसने बहुतसी गाथायें कही थी। उनमेंसे एकका अनुवाद इसप्रकार है:“For such a foc pould verily not work me harm,
Nor any other creature wheresoever found He would himself attain the peace in ffable, And thus attaning chensh all both bad and good"
भावार्थ-'ऐसे शत्रु मुझे कुछ भी हानि नहीं पहुचाते हैं। और न कोई अन्य जीवित प्राणी ऐसा दिखता है जो मुझे हानि पहुंचा सके । वह अपने आप अपूर्व शांतिको प्राप्त करेगा और उसको पाकर वह सबको-दोनो त्रस और स्थावरको अपना लेगा।'
इस गाथामे जो भाव और 'तस-थावरे' शब्द व्यवहृत किये गये हैं, वह हमारे उक्त अनुमानको और भी प्रबल कर देते है। त्रस-स्थावर (तस-थावरे) जैन सिद्धान्तके खास शब्द हैं और वे वहां त्रस-चलने फिरनेवाले और स्थावर-एक स्थानपर स्थिर रहनेवाले प्राणियोके लिये व्यवहारमें लाये जाते है । उक्त अनुवादमें जो उनका भाव बुरे-भले प्राणियोसे लिया गया है, वह ठीक नहीं है किन्तु अनुवादक श्रीमती हिसडेविड्स महाशया करतीं भी क्या ? क्योंकि वह फुटनोट द्वारा यथास्थान प्रगट करती है कि बौद्धधर्ममें इस शब्दका यथार्थ भाव नहीं मिलता है । इसका अर्थ अस्पष्ट है। Admittedly a term of doubtful meaning ). इस परिस्थितिमें इस कथाका सम्बन्ध मूलमें जैनधर्मसे होना बहुत कुछ स्पष्ट है। 'अङ्गुलिमाल' जिन शब्दोका प्रयोग करता है वह अपने यथार्थ भावमें
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२७० ]
[ भगवान महावीर
जैनियोके हैं । तथापि गाथामें आत्माके असली स्वभावमें दृढ़ श्रद्धान भी झलक रहा है । जैनियोकी निश्चयनयसे 'आत्माको कोई भी किसी तरहसे हानि नहीं पहुंचा सक्ता' यह प्रकट है और अङ्गुलिमाल यह श्रद्धान उक्त गाथामें स्पष्ट प्रकट कर रहा है, जो बौद्धमान्यता के प्राय विरुद्ध ही है क्योकि बौद्धधर्म अनात्मवादका
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प्रतिपादन करता है । इस अपेक्षा भी अङ्गुलिमालका जैन होनेका विश्वास होना और इस कथाका संबंध जैन साहित्यसे होना प्रमाणित होता है । किन्तु यह भी देखना चाहिये कि जैन साहित्ययें भी कोई ऐसी या इससे मिलती जुलती कथा मिलती है क्या ? हत्भाग्यसे अभीतक हमारे देखने में ऐसी कोई कथा जैनसाहित्यमें नही आई है और इस कारण इसके विषय में कुछ अधिक नही कहा जाता है। बौद्धसाहित्यके उपरोल्लिखित स्थानोपर जैन सम्बन्धोका विवरण हम देख लेते है और वास्तवमे उन्हें विशेष महत्वका पाते है । भगवान् महावीरके बिल्कुल निकटवर्ती कालकी वह रचना है इस अवस्थामे इससे ऐसा महत्वपूर्ण विवरण पाना उचित भी था । सचमुच चौडशास्त्रोमे जो उक्त प्रकारके जैन सम्बन्धमें स्पष्ट उल्लेख मिलते हैं उनके लिये हमें उनकी उपयोगिता स्वीकार करनी पडती है । यद्यपि उनमें प्राय. जैनधर्मके सम्बन्धमें अयथार्थ और द्वेपपूर्ण विवेचनका अभाव नहीं किन्तु उनमे ऐसा होना प्रकृत हैं, क्योंकि आखिर वे जैनियोंके विपक्षी एक विधर्मी दलकी रचनायें हैं। उतनेपर भी उनकी उपेक्षा करके यदि हम राजहस नीतिका अवलम्बन लें तो हमें उनमें बहुत कुछ महत्वशाली तथ्यपूर्ण विवरण मिलता हैं, जैसे कि हम पूर्व पृष्ठों में देख चुके है । हम अपने
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-और म० बुद्ध
[२७१ इस विवेचनसे जिस निर्णयको पहुचे है उसके बलसे यह प्रकट करते हमें हर्षका अनुभव होरहा है कि (१) जैनियोंकी मान्यताओंका समर्थन विधर्मी शास्त्र भी करते है और भगवान् महावीरको सर्वज्ञ और सर्वदर्शी प्रकट करते है, सो उनकी इस मान्यताकी स्वीकारता बौद्धग्रन्थ खय जो अपनी प्राचीन मान्यताके अनुसार भगवान महावीरके समकालीन म० बुद्धसे करते है, जैसे कि हम देख चुके है। विधर्मी मतप्रवर्तक द्वारा इस तरह जैन मान्यताकी पुष्टि होना कुछ कम गौरवकी बात नहीं है, (२) उक्त विवेचनसे यह भी स्पष्ट है कि जैनधर्मका अस्तित्व भगवान महावीरसे बहुत पहिलेसे चला
आरहा था और उसके सिद्धांत भी भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित धर्मके समान ही थे; (३) श्वेतावरियोकी जो यह मान्यता है कि भगवान पार्श्वनाथकी शिष्यपरम्पराके मुनि वस्त्र धारण करते थे
और उनके चार व्रत थे, वह वौद्ध उद्धरणोके उक्त विवेचनसे वाधित है, (४) और अन्ततः आजपर्यंत मैन सिद्धातोंका अविकतरूप और दिगम्बर जैनशास्त्रोकी प्रामाणिकता भी प्रकट है। आगामी वही सिद्धांत हमें मिलते है जो सवा दो हजार वर्ष पहिले प्रचलित बताये गये है और वह दि० जैनशास्त्रोके सर्वथा अनुकूल हैं।
इस रूपमे जैन साहित्य और जैनधर्मके संवधमें एक विपक्षी मतके ग्रन्थोसे महत्व प्रगट किया हुआ मिलता है। हमको विश्वास है कि आगामी पठन-पाठनमें प्राच्यविद्यामहार्णव यथार्थताका प्रतिपादन कर इसे उपयोगी पायेंगे ।
॥ इति शम्॥
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rundmandum drampumigramikamgrumdramdumanderarmseumons श्री० बाबू कामताप्रसादजीकृत ग्रन्थ।।
भगवान महावीर-अर्थात् आधुनिक शैलीपर तुलनात्मक दृष्टिसे लिखा हुआ संक्षिप्त जैन इतिहास, श्री विद्यावारिधि जैनदर्शनदिवाकर वेरिस्टर चम्पतरायनीकी भूमिका सहित । पृष्ठ ३०० उत्तम कागन, उत्तम छपाई, उत्तम बाईन्डिग । मूल्य सादी १॥) पक्की जिल्द २)।
महाराणी चेलनी-श्रेणिक महाराजकी धर्मपत्नी । महाराणी चेलनीका आधुनिक ढंगपर लिखा हुआ उत्तम
चरित्र । ए० संख्या १७२, उत्तम कागज व उत्तम छपाई। @ मूल्य ||)।
___संक्षिप्त जैन इतिहास-जैनधर्मकी प्राचीनता व उत्तमता का बतानेवाला अपूर्व ग्रन्थ । पृष्ठ १४० मूल्य ॥=)।
प्राचीन जैन लेख सं4-अनेक प्रतिमाओं व यंत्रोंके लेखोका संग्रह मूल्य १)।
भगान महावीर और महात्मा बुद्ध-अपूर्व ऐतिहासिक ग्रन्थ । मूल्य १॥)।
पार्श्वनाथ चरित्र-तयार हो रहा है। ____ सब जगहके सब तरहके जैनग्रन्थ मिलनेका पता
मैनेजर, दिगम्बर जैन पुस्तकालय-चंदावाड़ी-मरत । Salirmid orumdmimdimumdomganiprogre maramdomamisamarmi burmust
Samani kamundanusmsnilnumandumundumu domumni Asurandanumidnump-domings
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