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[ भगवान महावीर इस प्रकार लोकको अनादिनिधन प्रकट करके भगवान महावीरने इस लोकमें मुख्य दो द्रव्य (१) जीव और (२) अनीव वतलाये थे। जीव वह पदार्थ बतलाया जो उपयोग और चेतनामय हो।' और अनीव वह सब पदार्थ हैं जो इन लक्षणोसे रहित हों। यह द्रव्य पाच प्रकारका है (१) पुद्गल, (२) आकाश, (३) काल, (४) धर्म और (५) अधर्म । अतएव भगवान महावीरके अनुसार इस लोकमें कुल छै द्रव्य हैं। इन छहोंके विशद विवरणसे जैन शास्त्र भरे हुये है, किन्तु यहांपर सक्षेपमें विचार करनेसे हम उनका स्वरूप इस तरह पाते हैं। इनमें (१) आत्मा या जीव एक उपयोगमई, अपौगलिक, अरूपी और अनन्त पदार्थ है । (२) पुद्गल एक पौद्गलिक रूपी पदार्थ है, जो स्पर्श, रस, गंध, वर्ण कर संयुक्त है, इसके परमाणु और स्कष भी अनन्त और विभिन्न हैं, किन्तु वे सख्यात और असंख्यात रूपमें भी मिलते है । (३) आकाश एक समूचा अनंत, अमूर्तीक
और अविभाजनीय पदार्थ है । यह सर्व पदार्थीको अवकाश देता है और दो भागोंमें विभाजित है अर्थात् लोकाकाश और अलोकाकाश, यह इसके दो भेद है और यह धर्म अधर्म द्रव्योंके कारण है । जहातक ये द्रव्य हैं वहींतक लोकाकाश है, इसीके भीतर जीव और अजीव पदार्थ फिरते है। (१) काल अमर्तीक और स्थिर द्रव्य है, यह द्रव्यों और उनकी पर्यायोंमें रूपान्तर उपस्थित करने में एक परोक्ष कारण है। यह कालाणु असंख्यात हैं और सम
१. उपरोक्त बोनशान 'सुम्सलाविलासिनी में भी जैनियोका आत्माके सम्पन्धर्म यही मत प्रकट किया है। कहा है कि नियों के अनुसार भारमा भरपी और ज्ञानधान है। (भरूरी भत्ता सजी) (P.T.S. P. 119,.
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