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- और म० बुद्ध ]
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स्त लोक इनसे भरा पड़ा है । (५) धर्म वह अमूर्तीक द्रव्य है जो लोकके समान व्यापक है और जीव, अजीवके गमनमें उसी तरह सहायक है जिस तरह मछलीको जल चलने में सहायक है । (६) और अंतिम अधर्म द्रव्य भी अमूर्तीक और सर्वलोकव्यापक है । इसका कार्य द्रव्योको विश्राम देना है ।'
इनमें केवल जीव और पुद्गल ही मुख्य हैं, शेष द्रव्य उनके अननुगामी है । इनके मुख्य चार कर्तव्य हैं अर्थात् वे आकाश में स्थान ग्रहण करते हैं, परावर्त होते हैं और चलते है अथवा स्थिर रहते है । प्रत्येक कार्य में दो कारण होते हैं, एक मुख्य उपादान कारण और दूसरा सामान्य - निमित्त ( Auxiliary ) कारण सोनेकी अंगूठीमें मुख्य उपादान कारण सोना है, परन्तु उसके सामान्य निमित्त कारण अग्नि, सुनार, औजार आदि कई है । इसलिए जीव और अजीवके उक्त चार कर्तव्योका मुख्य कारण स्वयं जीव और अजीव है, और सामान्य कारण उपरोल्लिखित शेष चार द्रव्य है । इसप्रकार यह लोक अकृत्रिम और यथार्थ छै द्रव्यों कर पूर्ण है और इसमें जो कुछ पर्यायें और दशायें उपस्थित होती हैं वह इन जीव एवं अजीवकी पर्यायोंके कारण होती हैं; जो शेष चार द्रव्योके साथ हरसमय क्रियाशील रहती हैं । "
इतना जानलेने पर हम भगवान महावीर और म० बुद्धकी प्रारंभिक शिक्षाओका विशद अन्तर देखनेमे समर्थ हैं । यद्यपि म० बुद्धने अपने सिद्धांतोंको जिस ढंग और क्रमसे स्थापित किया है वह जाहिरा भ० महावीर के धर्म निरूपण-ढंगसे सादृश्यता रखता १ तत्वार्थ सूत्र भ० ५. २ दी प्रिन्सिल्स आफ जैनीज्म पृ० ४