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________________ १२६] [ भगवान महावीर है, किन्तु इतनेपर भी वह भ० महावीरके ढंगके समान नहीं है। वह अनात्मवाद पर अवलवित है और स्वयं अपरिपूर्ण है, परन्तु भगवान महावीरने उसी सनातन धर्मका प्रतिपादन किया था; निसको उनके पूर्वगामी तीर्थङ्करोने वस्तुस्थितिके अनुरूपमें बतलाया था, और जिसमें आत्माकी मान्यता सर्वाभिमुख थी। सर्वज्ञ तीर्थकरद्वारा प्रतिपादित हुआ धर्म किसी दृष्टिमें भी अपरिपूर्ण नहीं होता। यही दशा भगवान महावीरके धर्मके विषयमें है। __म० बुद्धने अपने सैद्धान्तिक विवेचनमें 'सावार' मुख्य बतलाये थे, किन्तु इनका भी एक स्पष्टरूप नही मिलता है । तो भी इतना स्पष्ट है कि जैन सिद्धान्तमें यह कहीं नहीं मिलते है। अतएव यह वस्तुत सांख्यदर्शनके 'संस्कार' सिद्धान्तके रुपान्तर ही है और प्रायः वहींसे लिये गये प्रतीत होते हैं | इन साखारोकी उत्पत्ति म० बुद्धने चार वातोकी अज्ञानतापर अवलम्बित बताई है, अर्थात् दुख, उसके मूल, उसके नाश और उसके मार्गकी अजानकारी ही सखारोकी जन्मदात्री है। यह 'संखार' मुख्यतः मन, वचन, कायरूपमें विभाजित है। यदि एक भिक्षु यह निदान वाधे कि मै मृत्यु उपरान्त अमुक कुलमें उत्पन्न होऊं तो वह अपने इस तरहके बाधे हुये संखारके कारण अवश्य ही उस कुलमें जन्म लेगा। किन्तु डॉ० कीथसाहब इस मतसे सहमत नहीं है। वे कहते है कि दूसरा जन्म देवल मानसिक निदानके बल नही हो सक्ता । यह सिद्धान्त स्वयं चौद्ध शास्त्रोंके कथनसे बिलग पड़ता है। बौद्धशास्त्रोसे यह ज्ञात है कि जब शरीर विद्यमान होता है तव ही शारीरिक या कायिक संखार बांधा जा सका है। इस
SR No.010165
Book TitleBhagavana Mahavira aur Mahatma Buddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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