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________________ । -और म० बुद्ध [ १३९ गुञ्जाइश नहीं है । इसलिये आज भी हमको यह उसी रूपमें मिलते है जिस रूपमें भगवान महावीरने ढाई हजार वर्ष पहिले पुन बतलाये थे । इन्हीं तत्वोंमें पुण्य और पाप मिलानेसे नौ पदार्थ होजाते हैं। अस्तुः ____ अब जरा पाठकगण, इन कर्मके भेटोपर भी एक दृष्टि डाल लीजिये, जो संसारप्रवाहमें इतना मुख्य स्थान गृहण किये हुये है। भगवान महावीरने सामान्यतः यह आठ प्रकारका वतलाया था; यथा--- (१) ज्ञानावर्णीय-ज्ञानको आवरण (ढकने) करनेवाला कर्म । (२) दर्शनावर्णीय-देखनेकी शक्तिमे बाधा डालनेवाला कर्म। (३) मोहनीय-वह कर्म जो आत्माके सम्यक् श्रद्धान और आचरणमें बाधक है। (४) अन्तराय-,,, , की स्वतंत्रतामे वाधक है। (६) वेदनीय-,,, सुख-दुःखका अनुभव कराता है। (६) नाम- ,, , , संसारकी विविध गतियोंमें लेजाने का कारण है, जैसे देव,मनुष्यादि। (७) गोत्र- "" , उच्च-नीच कुलमें जन्म लेनेका कारण है। (८) आयु- ,,, ,, एक नियत काल तक एक गतिमें रखता है। यह आठ प्रकारके कर्म पुनः अतभेदोमें विभाजित है, जो कुल १४८ कर्मप्रतियां कहलाती हैं। जिस प्रकृतिका जिस समय उदय होगा उस समय आत्माकी अवस्था वैसी ही हो जावेगी।
SR No.010165
Book TitleBhagavana Mahavira aur Mahatma Buddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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