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________________ १४०] [भगवान महावीरइसकी सूक्ष्मता यहा तक व्याप्त है कि जीवित प्राणीके गरीरकी हड्डियोंको रचनेवाला एक अस्थि-नाम-कर्म है । कोई दशा और कोई अवस्था कर्मप्रभावके अतिरिक्त कुछ नहीं है और जब यह कर्म स्वयं प्राणीके मन, वचन, कायकी क्रियाओंके अनुसार सत्तामें आता है, तब यह इस प्राणीके आधीन है वह चाहे जिस प्रकारके कर्मको अपनेमें संचय करे अथवा उसको विल्कुल ही आश्रवित न होने देनेका उपाय करे ! मतलब यह कि मनुष्यका भविष्य स्वयं उसकी मुट्ठीमें है । भगवान महावीरके बताये हुये कर्मवादका पारगामी विल्कुल स्वावलम्बी और स्वाधीन होता ही नजर आयगा। परावलम्बिता और पराश्रिताको यहा स्थान प्राप्त नहीं है। वादका पूर्ण दिग्ददर्शन गोम्मटसारादिजैन ग्रंथोंसे करना आवश्यक है। अब यह तो जान लिया कि इस अनादिनिधन लोकमें कर्मजनित परस्थितिमें अनन्त आत्माएं अपने स्वभावको गंवायें भटक रहीं है; परन्तु इस भटकनका भी कोई क्रम है या नहीं ? भगवान महावीरने इसका भी एक क्रम हमको बतलाया है। यह क्रम जीवनके विविध रूप नियत करता है । जैन धर्ममें इनका उल्लेख 'गति' के नामसे किया गया है और ये चार प्रकार है-(१) देवगति, (२) मनुष्यगति, (३) तिर्यंचगति और (४) नर्कगति । देवगतिमें आत्मा स्वर्गों में जन्म लेता है, जहां विशेष ऐश्वर्य और सुखका उपभोग वह करता है, किन्तु यहां भी वह दुःख और पीड़ासे बिल्कुल मुक्त नहीं है। दूसरी गति मनुष्यभव है और इसके भाग्यमें सुख और दुःख दोनों ही बदे हैं; तिसपर उसमें दुःखकी मात्रा ही अधिक है । तीसरी तिर्यञ्चगतिमें पशु, पक्षी, कीड़े, मकोड़े, वृक्ष,
SR No.010165
Book TitleBhagavana Mahavira aur Mahatma Buddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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