SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -और म० बुद्ध [१४१ लता, अग्नि, जल, वायु आदि जीवन-भवगर्भित हैं । इस गतिमें आत्माको और अधिक दुःख और पीड़ा भुगतनी पडती है। अंतिम नर्कगति नर्कका वास है। यहां घोर दुःख और असह्य पीड़ायें सहन करनी पड़ती हैं। इन चारकी भी अन्तर्दशायें है; परन्तु इन सबका लक्षण जीना और मरना ही है । इन गतियोंमेंसे आत्मा किसी मी गतिमें नावे उसके शुभाशुभ कर्म अपने आप उसके साथ जावेंगे। इसलिये किसी भवमें भी उपार्नन किया हुआ पुण्य अकारथ नहीं जाता है । इनमेंसे स्वर्ग और नर्ककी वासी आत्मायें अपने आयुके पुरे दिनोका उपभोग करती है-इनकी अकाल मृत्यु नही होती, परन्तु शेप दो गतियोंके जीव अपनी आयुके पूर्ण होनेके पहिले भी मरण कर जाते हैं। नरकगतिमें शरीरके टुकडे २ भी कर दिये जाय, परन्तु वह नष्ट नहीं होती। पारेकी तरह वह अलग होकर भी जुड़ जाता है । तिर्यञ्चगतिमे दो प्रकारके जीव हैं:-(१) समनस्क अर्थात् मनवाले और (२) अमनस्क अर्थात् विना मनवाले जीव । यह फिर स्थावर-जो चल फिर न सकें और त्रस-जो चल फिर सकें के रूपसे दो प्रकार हैं । जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी, वनस्पति आदिके रूपकी आत्मायें स्थावर है । वे एक इन्द्री रखते हैं और भय लगने पर भी भाग नही सक्ते हैं । और त्रस पशु, पक्षी आदि हैं। मनुप्य मुख्यतः आर्य और म्लेच्छ दो भेदोमें विभाजित हैं। प्रत्येक संसारी आत्माके उसकी गतिके अनुसार एक प्रकारके १. बौनोंके शखोंमें भी नियोंकी इस मान्यताका उल्लेख है :सुमहालाविलासिनी पृष्ठ १६८ और मिलिन्दपन्ह ४६५४. २. वौद्धधर्ममें भी यही दशा नारकियोंकी मानी है, देखो-'दी हेवन एण्ड हेल इन बुद्धिस्ट परस्पेक्टिव' पृष्ठ १०२.
SR No.010165
Book TitleBhagavana Mahavira aur Mahatma Buddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy