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[भगवान महावीर
इसी प्रकार श्वेतावर टीकाकारोके कथनका अभिप्राय है। उन्होंने उक्त वर्णनका भाव 'जिनकल्पी' और 'स्थिविरकल्पी' प्रभेदमे जो लिया है, वह भी हमारे उक्त कथनकी पुष्टि करता है। 'जिनकल्पी' के भाव यही होसक्ते हैं कि 'जिनकल्प'के और 'स्थिविरकल्पी के इसी तरह स्थिविरकल्प'के समझना चाहिये, और यह भाव श्वे० मान्यताके अनुकूल है, क्योकि तीर्थक्षरोके समयमें तो वे नग्न जिनकल्पी साधुओका होना मानते ही है। स्वयं तीर्थकर भगवानने नग्न भेषको धारण किया था । अतएव 'जिनकल्प'के तीर्थंकर भगवानके समयके साधुओंको 'जिनकल्पी' बतलाना ठीक ही है और उपरांत 'स्थिविरकल्प ' पंचमकालमें वस्त्रधारी मुनियोंको 'स्थिविरकल्पी' संज्ञा अपनी मानताके अनुसार देना युक्तियुक्त है। अतएव इस प्रभेदसे भी नग्न अवस्थाका महत्व और प्राचीनत्व प्रमाणित है।
वारतवमें सासारिक वधनोसे मुक्ति उस ही अवस्थामे मिल सक्ती है जब मनुष्य वाह्य पदार्थोसे रन मात्र भी सम्बध या ससर्ग नहीं रखता है। इसीलिये एक जैन गुनि अपनी इच्छाओ और सासारिक आमाक्षाओपर सर्वथा विनयी होता है । इस विजयमे उसे सवारि 'लज्जा'को परास्त करना पड़ता है। यह एक प्राछतिक और परगावश्यक क्रिया है। उस व्यक्तिकी निस्टहता और इंद्रियनिग्रहतामा प्रत्यक्ष प्रमाण है। इस अवस्थामे सासारिक ससर्ग छूट ही जाता है। एक आयरलैण्डवासी लेखकके शब्दोमें "कपडोकी झझटसे छूटनेपर मनुष्य अन्य अनेक झंझटोसे छूट जाता है, एक जैनके निकट विशेष आवश्यक जोजल है, सो इस अवस्थामें उनको धोनेके लिये उसकी जरूरत ही नही पड़ती! वस्तुतः हमारी