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-और में बुद्ध 1
प्रकट रीतिसे हम म० बुद्धके बताये हुए अर्हत् और निर्वाण पदोंकी तुलना जैनसिद्धान्तके क्षायिक सम्यक्त्व और अर्हत पदसे क्रमशः कर सके हैं; किन्तु यह तुलना केवल बाह्यरूपमें ही है। मूलमे बौद्धोंके अर्हत्पदकी समानता जैनोंके अर्हत्पदसे नहीं की नासक्ती! प्रत्युत बाह्यरूपमें जैन अईतावस्थाके समान म० बुद्धका निव्वानपद भी है जिसका विवरण जाहिरा जैनविवरणसे सहशता रखता है; यद्यपि मूलमें वहां भी पूर्ण भेद विद्यमान है। अस्तु, __इस प्रकार म० बुद्ध और भगवान महावीरका उपदेश वर्णन है और यहा भी दोनोमें पूरापुरा अन्तर मौजूद है। भगवान महाचीरका दिव्योपदेश एक सर्वज्ञ परमात्माके तरीके बिल्कुल स्पष्ट, पूर्ण और व्यवस्थित, वैज्ञानिक ढंगका प्रमाणित होता है। म० बुद्धका उपदेश तत्कालीन परस्थितिको सुधारनेकी दृष्टिसे हुआ प्रतीत होता है और उसमें प्रायः स्पष्टताका अभाव देखनेको मिलता है। वास्तवमे न म० बुद्धको ही अपने उपदेशकी सैद्धांतिकताकी ओर ध्यान था और न उनके अनुयायियोंको । उनके उपदेशकी मान्यता जो इतनी विशद हुई थी उसमें उनका प्रभावशाली व्यक्तित्व कारण था ! उनके निकट पहुंचकर व्यक्ति मोहनमंत्रकी तरह मुग्ध हो जाता था और उसे उनके धर्मके औचित्वको जाननेकी खबर ही नहीं रहती थी। इसी वातको लक्ष्य करके उनका उपदेश भी विविध मान्यताओंको लिये हुये था। प्रत्येक मतके अनुयायीको अपना भक्त बनानेके लिये म० बुद्धने अपने सिद्धांतोंको
१ बुद्धिष्ट फिलामकी पृष्ट १४-१५ और के० जे० सॉन्डर्स गौतमबुद्ध पृष्ट ७.