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________________ -१७४ ] [ भगवान महावीर कहलाने लगे थे, जैसे कि हम देख चुके हैं। इस अवस्था में बौद्धोंके निकट 'अर्हत्' शब्द कितने हल्के अर्थ में व्यवहृत होता था, यह स्पष्ट है | स्व० मि० ही सडेविड्स हमको यही विश्वास दिलाते हैं कि 'व्यक्तित्वकी अज्ञानताके नाशसे जो विजय प्राप्त होती है, वह गौतमबुद्धकी दृष्टिसे, इसी जीवनमें और केवल इसी जीवन में प्राप्त करके भोगी जासक्ती है । यही भाव बौद्धोकी अर्हतावस्थासे है । अर्हत् वह है जिसका जीवन आंतिरिक दृष्टिसे पूर्ण बन गया है, जो ' उत्तम अष्टांग मार्ग' का बहुत कुछ अभ्यास कर चुका है और जिसने बन्धनोंको तोड दिया है एवं जिसने चौद्ध धर्मके चारित्र नियम और संयमका पूर्णत अभ्यास कर लिया है ।" यह बौद्धो अर्हत्का स्वरूप है । जिस समय व्यक्ति अष्टाङ्गमार्गका पूरा अभ्यास कर लेता है और ध्यान आदिमें भी उन्नति प्राप्त कर चुकता है, बुद्ध कहते हैं, उसे आर्य ज्ञानका प्रकाश दृष्टि पडता है । यह म० बुद्धका 'निर्वाण' है और व्यक्तिके मरण पहिले ही यह प्राप्त होता है । " अंतिम मरण 'परिनिव्वान' है । 'निव्यान' अवस्थामें आनन्दकी प्राप्ति होती है, परन्तु इसके उपरान्त व्यक्तिकी क्या दशा होती है इसपर बुद्ध चुप हैं । यदि कहीं यह मौन भन किया गया है तो वहां स्पष्टताका अभाव है । कभी पूर्ण नाशका प्रतिपादन है तो कभी किसी यथार्थ दशाका | किन्तु पूर्ण अभावको ही प्रधानता प्राप्त है। परिनिव्वानमें व्यक्तिका पूर्ण क्षय (खय) हो जाता है । यही म० बुद्धका परम उद्देश्य है । भङ्ग । १. बुद्धिज्म: इट्स हिस्ट्री एन्ड लिटरेचर पृष्ठ १९३० २० बुद्धिस्ट फिलासफी पृष्ठ ६१. +
SR No.010165
Book TitleBhagavana Mahavira aur Mahatma Buddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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