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-और म० बुद्ध]
[ १७२. करना है और हमें क्यो जीवनके साधारण इंद्रियसुखोंका निरोध करना चाहिए ! केवल इसलिए कि शोकादि नष्टता और नित्य मौन निकटतर प्राप्त हो जाएं। यह जीवन एक भ्रान्तवादका मत है और दूसरे शब्दोमें उत्तम नहीं है । अवश्य ही ऐमा आत्माके अस्तित्वको न माननेवाला विनश्वरताका मत सर्वसाधारणके मस्तिष्कको सतोपित नहीं कर सक्ता ! बौद्धमतकी आश्चर्यजनक उन्नति उसके सैद्धातिक नश्वरवाद (Vahila. ) पर निर्भर नहीं थी, बल्कि उसके नामधारी "मध्यमार्ग" की तपस्याकी कठिनाईके कम होनेपर ही थी।""
बौद्ध धर्ममे अगाडी कहा गया है कि वह व्यक्ति जो बुद्ध धर्म और संघमें खासकर बुद्धमें-श्रद्धा प्राप्त करलेता है और मोहजनित अज्ञानता (Delusion) को छोड़ देता है वह आभ्यन्तरिक दृष्टि (Inner sight) को पाकर अन्तत. अर्हत् हो जाता है।' बुद्धने जिस समय सर्व प्रथम कौन्डन्यको अपने मतमें दीक्षित किया तो उन्होंने कहा कि 'अन्नासि वत भो कोन्डण्णो !' अर्थात सचमुच कोन्डन्यने जान लिया है। क्या जान लिया है ? वही मार्ग निसको बुद्धने देखा था (अन्नात-Has that which is porceiv-d). इसके साथ वह अर्हत् कहलाने लगा। वास्तवमें बुद्धके प्रारंभिक शिष्य अपनी उपसम्पदा ग्रहण करनेके साथ ही 'अर्हता
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१, जैनगजटगे मि० हरिसत्यभट्टाचार्य एम ए. आदि भाग ११ अक ५.२ की बुद्धिष्ट फिलासफी पृष्ट १२२. ३ विनय-टेश्वट्स १।८८.
• कौन्दन्य गोत्रके कई साधुओंका उल्लेख श्रवणवेलगोलके जैन शिलालेखोंमें है। इसलिए इन कौन्डन्य कुटपुत्त नामक भिक्षुको जो हमने पहले जैन मुनि बतलाया है वह ठीक है।
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