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[ भगवान महावीरयही पवित्रताका मार्ग है । " (२०२७७ ) भगवान महावीरके स्याद्वाद सिद्धान्तमें इनका उपदेश एकांत दृष्टिसे नहीं दिया गया है । उसका श्रद्धानी स्पष्ट प्रकट करता है किः"एकः सदा शापतिको ममात्मा, विनिर्मलः साधिगमखभावः। वहिभवाः सन्सपरे समस्ता, न शाश्वताःकर्मभवाःस्वकीया॥२६
सामायिकपाठ॥' __ अर्थात्-'मेरा आत्मा अपने स्वभावमें सदेव एक है, नित्य है, विशुद्ध है और सर्वज्ञ है। शेष जो है वे सब मेरेसे बाहिर हैं, अनित्य है और कर्मके ही परिणाम रूप हैं । इसीलिए:'संयोगतो दुःखमनेकभेदं, यतोऽश्नुते जन्मवने शरीरी। ततनिधासौ परिवर्जनीयो, यियासुनानितिमात्मनीनाम् ।।२८
अर्थात'शरीरके सयोगमें पड़ा हुआ यह आत्मा विविध प्रकारके दुःखोका अनुभव करता है । इसलिये जिन्हें अपनी आत्माकी मुक्ति वाछनीय है उन्हें इस शारीरिक सम्बन्धकोमन, वचन, कायकी अपेक्षा त्यागना चाहिये।
इसतरह स्याद्वादकी अपेक्षा वस्तुका यथार्थरूप प्रकट होनाता है। म० बुद्धकी तरह भगवान महावीरने भी संसारको अनित्य और नाशवान प्रकट किया है, किन्तु यह केवल व्यवहार नयकी अपेक्षा है, जिसके अनुसार ससारमें पर्यायें उपस्थित होती रहती हैं । मूलमें संसारके सामान्य अपेक्षा ससार नित्य है, क्योंकि संसार-प्रवाहका कभी अन्त नहीं होता है। इसीलिए जैनदर्शनमें द्रव्यकी व्याख्या "सद द्रव्यलक्षणम् ॥ २९ ॥ उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत ॥३०॥९॥" की है । अर्थात् द्रव्य सत्तावान नित्य है