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और म० बुद्ध]
[१७९ और यह वही है ओ उत्पाद व्यय ध्रौव्य कर संयुक्त है। इसतरह वस्तुओंके यथार्थ और व्यावहारिक दोनों रूपोंका विवरण वास्तविक रीत्या जैन धर्ममें दिया हुआ है। बौद्ध धर्मके समान एकांत वादको यहां आदर प्राप्त नहीं है । इसलिए उचित रीतिमें ही आचार्य मल्लिसेन भगवान महावीरका यशोगान करते हैं:"अन्योन्यपक्षमतिपक्षभावात् यथा परे मत्सरिणः भवादाः। नयानशेपा नपिशेपमिच्छन् न पक्षपातो समयस्तथा ते ॥"
भावार्थ-भगवन् ! आपकी वह पक्षपातमय एकान्त स्थिति नहीं है, जो कि उन लोगोकी है जो एक दूसरेके विरोधी और आपके मतसे विपरीत हैं। क्योंकि आप उसी वस्तुको अनेक दृष्टियोंने प्रतिपादित करते हैं।
इसतरह जैन सिद्धांत-स्याहादका महत्व प्रकट है। सचमुच यदि इसका उपयोग हम अपने दैनिक जीवनमें करें तो हमारी धार्मिक असहिष्णुताका अन्त हो नावे । सब प्रकारके सिद्धान्तोंकी मानताकी मसलियत इसके निकट प्रगट होजाती है। यही कारण है कि भगवान महावीरके दिव्योपदेशके उपरांत उस समयमें प्रचनिमतसे मत मतांतर लुप्त होगये थे और मनुष्य सत्यको जानकर लामी प्रेमले गले मिले थे। इसप्रकार भगवान महावीर और म० बुद्धके पनौका दिग्दर्शन करके हम अपने उद्देशित स्थानको प्रायः पचनते हैं अर्थात् भगवान् महावीर और म० बुद्धकी विभिन्न
भोदन घटनाओं का पूर्ण दिग्दर्शन कर चुकते हैं।