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-ओर म० बुद्ध ]
[८५ है । तपश्चरण एक परमोत्कृट प्रकारकी मिहनत है. निसका फल भी परमोल्लष्ट है। अतएव पवित्र साधुनीवनका यह एक भूषण है । प्रत्येक मत-प्रवर्तकको इम भूषणको किसी न किसी रूपमें धारण अवश्य करना पड़ता है । म० युद्धने अवर इममा विरोध किया परन्तु अन्ततः उनको भी इने किचित न्यूनरूपमें स्वीकार करना ही पडा!'
इस तरह म० बुद्धकी ज्ञान प्राप्तिके तो दर्शन कर लिये, अब पाठकगण आइये, भगवान महावी के ज्ञान प्राप्तिके दिव्य अवसरका भी दिग्दर्शन कर लें। भगवान महावीरने व्यवस्थित रीत्या श्रावक अवस्थासे ही सयमका अभ्याम करके मुनिपनको धारण किया था। मुनि अवस्थामें भी पहिले उन्होंने ढाई दिन (वेला)का उपवाम किया था और फिर एक बारह वर्षके तपश्चरणकी परीषहोको उन्होने सहन किया था। इस प्रकार क्रमवार आत्मउन्नति करते हुये वे इस १२ वर्षके तपश्चरणको पूर्ण करके विचररहे थे, कि वैशाख सुदी दसमीके दिन वे जम्भक ग्रामके बाहर ऋजुकूला नदीके वामतटपर एक सालवृक्षके नीचे विराजमान् हुये तिष्ठने थे। ज्ञान-ध्यानमें लीन थे । समय मध्याह्नका हो गया था ! सूर्य अपने प्रचण्ड प्रकाशसे तनिक स्खलित हो चले थे । उसी समय इन भगवान महावीरको दिव्य केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई। मानो इस परम प्रखर आत्मप्रकाशका दिव्य उदय जानकर ही उस समय दिनकर महारानका भौतिक प्रकाश फीका पड चला था।
१. मुत्तनिपात (5. B.E) पृष्ठ ६० ६३, और १४६-१४८, रात्र धम्मपद अध्याय १.२ जैनसूत्र (S. B.E) भाग 1 पृष्ठ २०१ और उत्तरपुराण पृष्ठ ६१४.