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[ भगवान महावीर
था, यह हम देख चुके है । यदि म० बुद्धने इस ओर ध्यान दिया होता तो वस्तुतः हम उनसे और कुछ अधिक ही उत्तम वस्तु पाने ! भगवान महावीरने एक नियमित रीतिसे साधुनीवनका अभ्यास क्यिा था और व्यवस्थित ढगसे तपश्चरणका पालन किया था। इसीरिये वह पूर्ण कार्यकारी हुआ, यह हम आगे देखेंगे । वैसे भगवान महावीरने भी ऐसे थोथे तपश्चरणको बुरा बताया है। उनके निकट वह केवल कायक्लेश और बालकोंका तप है। परन्तु वह जानते थे कि ज्ञान ध्यानमय अवस्थाके साथ साथ परमपद प्राप्तिके लिये तपश्चरण भी परमावश्यक है। उनके निक्ट तपश्चर्या वह कीमियाई क्रिया थी जो आत्मामेंसे कर्ममलको दूर करके उसे बिल्कुल शुद्ध बना देती है। यह तपश्चर्या ससारी मनुष्यको पहिले पहिल तो अवश्य ही जरा कठिन और नागवार मालूम पड़ती है, परन्तु जहा मनुप्यको सम्यक् अहान हुआ वहा तत्काल ही इसकी आवश्यक्ता नजर पड जाती है और फिर इसके पालनमें एक अपूर्व आनन्दका स्वाद मिलता है । वस्तुत मिहनतका फल भी मीठा होता
१ पामम्मिय ठिो को कुणदि तव पद च धार यदि ।
ते सच वाटतवं बाउकति सम्वण्हू ॥ १९॥ वदणियमाग रता सौराणि तहा तष च कुध्यता।
परमह वाहिरा जेण ते होति अण्णाणी ६०॥ कुन्दकुन्दाचार्य। बौद्रोके 'मझिम निकाय' ।।२:५.२१८) में भी भगवा महावीरकी सह मानता स्वीकार की गई है । वक्षा सञ्चक श्रावक, सष्ट कहता है कि भगवान महावीरने का देशको ज्ञानसहित परना आवश्यक बतलाया था । दोनों को अधिनाभावी प्राट पिया था । (सायन्वय चित्तं हे ति, रित्तन यो कयो हति)।