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________________ -और म० बुद्ध ] [८३ फलप्राप्तिकी इच्छाके किये जाते थे, और दूमरी ओर तपश्चरणके मध्य एक ' राजीनामा ' था।' यह भावित होता है कि म० बुद्धने अपने मतके सिद्धान्तोंकी आर्पता और वैज्ञानिकताकी ओर ध्यान ही नहीं दिया। उन्होंने सैद्धान्तिक विवेचनमें पडनेको एक झंझट समझा। बस उनका ध्येय एक मात्र वर्तमान जीवनकी पीडाके दारुण क्रन्दनसे लोगोंको हटानेका था। इसीलिये उन्होंने तपश्चरणको भी एक पीडोत्पादक अति समझा, और कहा कि:- “दुःख बुरा है और उससे बचना चाहिये। अति (Excess ) दुःख है । तप एक प्रकारकी अति है, और दुःखवर्धक है । उसके सहन करनेमें भी कोई लाभ नहीं है। वह फलहीन है। "- ( ERE. Vol. II P. 10). किन्तु म० बुद्धने तपश्चरण किस अनियमित ढंगसे किया था, यह हम देख चुके हैं । वह श्रावककी आवश्यक क्रियाओका अभ्यास किये विना ही साधुनीवनमे कमाल हासिल करना चाहते थे। आर्योंके उल्लष्ट ज्ञानकी तीव्र आकांक्षा रखकर-उसको पानेका निदान बॉधकर वह तपश्चरणका अभ्यास कररहे थे। इस दशामें तपश्चरण पूर्ण कार्यकारी नहीं हो सक्ता था । पर्वतकी शिखरपर पहुंचनेके लिये सीडियोंकी आवश्यक्ता है और फिर जब संतोपपूर्वक उन सीड़ियोंका सहारा लिया जायगा तब ही मनुष्य शिखिर पर पहुंच सक्ता है । मालूम पड़ता है कि म बुद्धने इस ओर ध्यान नहीं दिया । इस ही कारण वह उसके द्वारा पूर्णताको प्राप्त न कर सके । परन्तु तो भी उनका यह प्रयास बिल्कुल विफल नहीं गया " १." कॉन्फ्लुयन्स ऑफ ऑपोज़िटस' पृष्ठ १४९.
SR No.010165
Book TitleBhagavana Mahavira aur Mahatma Buddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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