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[ भगवान महावीर -
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डाली थी, वह वस्तुतः प्रारम्भमें एक सामयिक सुधारकी लहर ही थी ! वास्तवमे म० बुद्धका 'मध्य मार्ग' 'जिसका प्रतिपादन उन्होंने सर्व प्रथम बनारसमे किया था । एक तरहसे हिन्दुओंकी जाति व्यवस्था और जैनियोकी कठिन तपश्चर्याकि विरोधके सिवा और कुछ न था । कमसे कम प्रारम्भमें तो वह एक सैद्धांतिक धर्म नहीं था । इसकी घोषणा निम्नरूपमें म० बुद्धने स्वयं की थी:हे भिक्षुओ, दो ऐसी अति हैं जिनसे गृहत्यागियोको बचना चाहिये । यह दो अति क्या हैं ? एक आमोद प्रमोदमय जीवन; वह जीवन जो केवल इन्द्रियजनित सुख और वासना के लिये हो; यह नीच बनानेवाला है । इन्द्रियजनित, उपेक्षाके योग्य और लाभरहित है और अन्य तपश्चरणमय जीवन है; यह पीडा - मय उपेक्षा योग्य और लाभरहित है । इन दोनो अतिसे बचनेपर हे भिक्षुओ, तथागतको 'मध्यमार्ग ' का ज्ञान प्राप्त हुआ है; जो बुद्धि, ज्ञान, शाति, सम्बोधि, और निर्वाणका कारण है । ""
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इम कथनसे स्पष्ट है कि म० बुद्धने उस समय प्रचलित मतमतान्तरोमें स्वय 'माध्यमिक' वनकर एक 'मझोला' - मध्यम का मत स्थापित किया था । इसमें उनका पूर्ण लक्ष्य अपने लिये एवं उन सबके लिये, जो उनके मतको माननेके लिये तैयार थे, किमी रीतिमे भी पीडाका अन्त कर देना था । इसलिये यथार्थमें
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1 मध्यमार्ग ' एक ओर तो कर्मयोग के रूप में प्रचलित अनियमित सांसारिक साधुजीवनके, जिसमें सत्र ही सांसारिक कार्य विना
१. महाग्न १६१०२. मि. कीथको 'बुद्धिस्ट फिॉसफी
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