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[ भगवान महावीर
भगवान महावीर उस सुवर्ण अवसरपर केवलज्ञानी हो गये। साक्षात् तीर्थकर बन गये । तीनो लोककी चराचर वस्तुयें उनके ज्ञाननेत्र में झलकने लगी । वे सर्वज्ञ हो गये । त्रिलोकवदनीय बन गये । ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मोंका उनके अभाव हो गया, इसलिये वे ससारमें ही साक्षात् परमात्मा होगये - सयोग केवली वन गये । उस समयसे एक क्षणके लिये भी उनका ज्ञान मन्द न पडा । वह ज्योका त्यो प्रकाशमान रहा और यूं ही हमेशा रहेगा । यही दिव्यजीवन है । परमोत्कृष्ट प्रकाश है ! साक्षात् ज्ञान, शांति और सुख है ।
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जिससमय भगवान महावीर सर्वज्ञ हुये, उस समय संसार में अलौकिक घटनायें घटित होने लगीं, जिससे भगवानको सर्वज्ञताका लाभ हुआ जानकर देवलोकके इन्द्र और देवतागण वहा उनके निकट आनन्दोत्सव मनाने आये थे । भगवानकी वन्दना उन्होने
अनेक प्रकारकी थी । हम भी उस दिव्य अवसरका स्मरण करके मन, वचन, कायकी विशुद्धता से भगवान के पवित्र ज्ञानवर्द्धक चरणोंमें नतमस्तक होते है ।
उसी समय इन्द्रने भगवानका सभाभवन - समवशरण रचदिया था, जिसकी विभूतिका वर्णन जैन ग्रन्थोमें खूब मिलता है । *इसी समवशरणकी गधकुटीमें अंतरीक्ष विराजमान होकर भगवान महावीर सर्व जीवोंको समान रीतिसे कल्याणकारी उपदेश देते थे । . इस समवशरण में १२ कोठे थे, जिनमें ऋषिगणके उपरांत स्त्रियोको आसन मिलता था । इनके बाद पुरुष और तिर्यंचोंके लिये स्थान १. पूषन २. महावीरचरित्र पृ० २६० - २६७