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-और म० बुद्ध]
[८७ नियत था। इस रीतिसे भगवानका उपदेश तिर्यचोंतकको होता था । वस्तुतः भगवानके दिव्य उपदेशसे पशुओंको अपने प्राणोका भय चला गया था । वे सुरक्षित और अभय हो गए थे। इस ही दैवी समवशरण सहित भगवान सर्वत्र विहार करते थे । इस विहारमें उनके साथ चतुर्निकायक संघ और मुख्य गणधर भी रहते थे। भगवानके सर्व प्रथम शिष्य और मुख्य गणधर वेदपारांगत प्रख्यात् ब्राह्मण इन्द्रभूति गौतम थे। भगवान महावीरने सनातन सत्यका उपदेश सर्व प्रथम इन्हीको दिया था। इनको मनःपर्ययज्ञानकी प्राप्ति हुई थी और इन्होंने ही मुख्य गणधरके पदपर विराजमान होकर भगवानकी द्वादशाङ्ग वाणीकी रचना की थी।
भगवान महावीरका उपदेश सनातन यथार्थ सत्यके सिवा और कुछ न था। उन्होंने अपनी सर्वज्ञता द्वारा सर्व वस्तुओंका यथार्थरूप विवेचित किया था इसलिये वस्तुस्थितिके अनुरूपमें ही उनका उपदेश था। उन्होने किसी नवीन मतकी स्थापना नहीं, की थी, बल्कि प्राचीन जैनधर्मको पुनः जीवित किया था। जैनधर्मका अस्तित्व उनसे भी पहिले विद्यमान था; परन्तु भगवान महावीरके समयमे उसको विशेष प्रधानता प्राप्त नहीं थी, इसलिये भगवान महावीरके समयानुसार उसका पुनः निरूपण हुआ था । यह सनातन धर्म अव्यावाध सर्व सुखकारी और अमर जीवनको प्रदान करनेवाला था । जिस तरह वस्तुकी मर्यादा थी उसी तरह उसमें बताई गई थी। यही धर्म आज जैनधर्मके नामसे विख्यात है।
१. उत्तरपुराण पृष्ठ ६१४ भौर जैनसुत्र (S. B. E.) भाग २ पृष्ठ ४१ नोट २. २. उत्तरपुराण पृष्ठ ६१६.