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[भगवान महावीर ब्रह्म होते हैं जो शिल्पादि कलाओमें निपुण होते हैं और इस निपुणतासे वे सम्पत्ति एकत्रित करते हैं । यही लोग वैश्य नामसे प्रगट होते हैं । अन्ततः ऐसे भी नीच प्रतिके ब्रह्म हैं जो आखेट खेलते हैं। इसलिये वे लुद्दया सुद्द कहलाने लगते हैं । इसप्रकार प्राकृत चार वर्ण उत्पन्न हो जाते है। यद्यपि मूलमें वह एक ही जाति ब्रह्मरूप होते हैं। इन्हींमेसे जो गृह त्यागकर जंगलका वास गृहण करते हैं, वे श्रमण कहलाते हैं । इसतरह संसार-प्रवाह चल जाता है। उपरान्त नियत समयमे पुनः अग्निद्वारा पृथ्वीका नाश होता है और इसी ढंगसे सृष्टि होती है। इसीतरह नियत समयमें अग्नि, जल और वायुसे नाश नियमानुसार होता रहता है; जिसका विशद विवरण बौद्ध ग्रन्थो अथवा Manual of Buddhismसे जानना चाहिये।
इसप्रकार म० बुद्धने इस पृथ्वीका नाश और उत्पादक्रम बतलाया था। इसमें भी जैन सहशता बहुत कुछ दृष्टि पड़ रही है। जैनशास्त्रोमें कहा गया है कि प्रत्येक अवसर्पिणी अन्तिम कालके अन्त समयमें (भरत और ऐरावत क्षेत्रोंमें ही) पानी सब सुख जाता है-शरीरकी भाति नष्ट हो जाता है। इस समय सब प्राणियोंका प्रलय हो जाता है। केवल थोडेसे जीव गंगा, सिंधु
और विजयाई पर्वतकी वेदिकापर विश्राम पाते है। यह लोग मछली, मेढक आदि खाकर रहते हैं । तथापि अन्य दुराचारी जीव छोटे २ विलोंमे घुस जाते है । साथ ही यह ध्यान रहे कि जैनधर्म
और अग्निका लोप पाचवे ही कालमें हो चुक्ता है। तदनंतर सात दिनतक अग्निकी वर्षा, सात दिनतक गीत जलकी, सात दिनतक सारे पानीकी, सात दिनतक विपकी, सात दिनतक दुस्सह अग्निकी,