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[ भगवान महावीरम० बुद्धसे कहता है कि "महाराज, एक दीर्घकाल पहिले जब अमण और ब्राह्मण एवं अन्य आचार्य, एकत्रित होकर परस्पर मिलते थे, तब एकवार ये सन्थागारमें बैठे थे कि विषय ध्यानका छिड़ गया और अन्ततः यह प्रश्न अगाड़ी आया, 'फिर महाशयो; उपयोग अथवा संज्ञा (Consciousness) का अन्त किसतरह हो जाता है ? इसके उत्तरमें पोत्थपाद वे सब विवरण पेश करता है निनको विविधमतप्रवर्तकोंने बतलाया था। उनमें एक इसप्रकार है
"इसपर एक अन्यने कहा कि यह ऐसे नहीं होसक्तानसे कि आप कहते है । उपयोग अथवा संज्ञा, महाशयो ! मनुष्यकी आत्मा है । यह आत्मा ही है जो आती और जाती है । जब एक मनुप्यमें आत्मा आनाती है तब वह उपयोग-संज्ञामय होनाता है
और जब वह चली जाती है तब वह उपयोग अथवा संज्ञारहित हो जाता है।" इसतरह एक अन्यलोग उपयोगकीव्याख्या करते हैं।' *
अब यह हमको मालम ही है कि नसिद्धान्तके अनुसार आत्मा उपयोगमई पदार्थ है और उसीके आने जानेपर मनुप्यका पौगलिक शरीर संज्ञा या चेतनामय और संज्ञा या चेतना रहित होता है । इस अवस्थामें यहां बहुत कम स्थान संशयको रह नाता है कि जिस व्यक्तिने इस सिद्धान्तका प्रतिपादन किया था वह जैन ही था और यह बाद म० बुद्धसे एक दीर्घकाल पहिले हुआ था, इसलिए इससे भी जैनधर्मका अस्तित्व म० बुद्धसे बहुत पहलेका प्रमाणित होता है।
एक अन्य सुत्तन्तमें कहा गया है कि निगन्य नातपुत्त * दीपनिकाय ( P. T. S.) भाग १. पृ. १७९ ।