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-और म० बुद्ध
[२३१ (भगवान महावीर) के अनुसार निगन्थके भाव ग्रन्थियोंसे मुक्तके हैं.।' सो ठीक ही है; बाह्याभ्यन्तर परिग्रहसे रहित मुनि होते ही हैं । वे ही निर्ग्रन्थ (निगन्थ) कहलाते हैं । अन्यत्र कहा गया है कि वे अन्योंकी अपेक्षा तपश्चरणमें सरलता रखते थे। सचमुच पंचाग्नितपना, उल्टे लटकना इत्यादि कायदण्डरूपके तपको जैन हेय दृष्टिसे-देखते हैं और उसको 'बालतप' अथवा 'मिथ्यातप' ठहराते हैं, यह हम पहिले ही देख चुके हैं। इसलिए बौद्धोंका यह कथन ठीक ही है । अस्तु:___अब पाठकगण ! आइये, बौद्धोंके 'विनयपिटकपर भी एक दृष्टि डाल लें । विनयपिटकमें प्रख्यात् 'महावग्ग' ग्रन्थ है । इसमें एक कथानक भगवान महावीरके सम्बन्धमें है। उससे जैनधर्मकी व्यापकता उस समय जो थी वह प्रकट है । यह बात आधुनिक विद्वानोंको भी मान्य है कि भगवान महावीरके सर्वज्ञ होनेपर सर्व प्राणियोको हितकर उनका धर्मोपदेश पूर्णरीतिसे वजिदेश और मगधमें व्याप्त होगया. था। लिच्छवियोंमें उनके उपासक अधिक संख्यामें थे और उनमें ऐसे भी प्रभावशाली मनुष्य थे जो वैशालीमें उच्च और प्रतिष्ठित पदोंपर नियुक्त थे । यह बात स्वयं बौद्ध ग्रन्थोके विवरणोंसे ही प्रमाणित है | अस्तु; उक्त महावग्गमें एक स्थलपर कहा गया है कि सीह (सिंह) नामक लिच्छवियोका सेनापति भी निगन्य नातपुत्त (भगवान महावीर)का शिष्य था । सन्थागारमें समण गौतमकी प्रशंसा लिच्छवियोमें होते सुनकर इस
१. Dialogues of Buddha, Vol, 11, pp. 74 75.' २. पूर्व पृष्ट २२१. ३. हिस्टॉरीकल ग्लीनिन्गेस पृष्ठ ८३. ४. महावग्ग (S. B. B Vol. XVII.)-पृष्ठ ११९,