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- और म० बुद्ध ]
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भी ठीक है। इसप्रकार उक्त बौद्ध उद्धरणका अभिप्राय स्पष्ट हो जाता है उपरान्त 'महालीसुत्त' में बौद्धधर्म के दस 'अव्यक्तनी' बातोश विवरण है अर्थात् उन सिद्धान्तोका जिनपर बुद्धने अपना कोई अंत प्रकट नहीं किया है । इन अव्यक्त बातोमें एक यह भी हैं कि 'आत्मा वही है जो अरीर है अथवा भिन्न है ?' यह प्रश्न मनदिस्स परिव्राजक (Wanderol) और दारुपात्तिक (काष्ट कमण्डल सहित मनुष्य ) के शिष्य जालियने उपस्थित किये थे । वह जालिय और उनके गुरु हमें जैनमुनि प्रतिभाषित होते हैं; क्योंकि जैन मुनियोंके पास सदैव काष्टका कमण्डलु और पीछी होती है। तथा यह प्रश्न भी जैन सिद्धान्तकी अपेक्षा महत्वका | इसके श्रद्वान पर ही आत्मोन्नति निर्भर है । जेनसिद्धान्तमें यह 'भेदविज्ञान' के नाम से विख्यात है । इसलिये जालिय और उनके गुरुका नैनमुनि होना स्पष्ट है ।
फिर 'कस्सपसीहनाद' सुत्तमें जो जैन मुनियोंकी क्रियाओंका उल्लेख है, सो उसका विवेचन हम मूल पुस्तकमें पहले और अन्यत्र कर चुके है इसलिये यहां उसको दुहराना ठीक नहीं है । इसके बाद ' पोत्यपाद' सुच है । इसमें समण ' पोत्थपाद '
१. दीर्घनिकाय (P. T..S.) भाग १ पृष्ठ १५९. मूल इस प्रकार :- "एक समयम् भगवा कोसाम्बीयम् विहरति घोसितारामे । अथ खो द्वे पव्वजिता मन्दिस्तो च परिव्याजको जालियो च दारुपत्तिक- अन्तेचाती येन भगवातेन उपसंस्कमित्वा भगवता सद्विम् सम्मोदिसु, सम्मोदनीयम् कथम् सारणीयम् वीति सारेत्वा एकमन्तम् असु । एकमन्वम् थिता खो द्वे पब्बजिता भगवन्तम् एवद अवोचुम्ः 'किन नु खो आप गोतम तम् जीवम् तम् सरीरम् उदाहु भन्नम् जीवम् अन्नम् सरीरनति ? 2