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[भगवान महावारजुत्ताहारविहारो रहित कसाओ हवे समणो॥ ४२ ॥
भावार्थ-'इसलोक परलोककी इच्छारहित, कपायरहित व योग्य आहारविहार सहित साधु होता है ।' श्री पूज्यपादस्वामीजी भी अपने 'इष्टोपदेश' ग्रन्थमें निम्न श्लोकोंद्वारा मुनिके उक्त विशेषणोंका प्रायः समर्थन करते हैं:_ 'अभवञ्चित्तविक्षेप एकाते तत्त्वसंस्थितिः।
अभ्यस्येदभियोगेन योगी तत्वं निजात्मनः ॥३६॥
भावार्थ-जिसके मनमें किसी प्रकारका विक्षेप उत्पन्न नहीं होता अर्थात् निसका मन थिर है और जो आत्मध्यानमे स्थिर होचुका है, ऐसे ही साधुको एकान्त स्थानमें बैठकर अपनी आमाका अविरल ध्यान करना चाहिये।' अगाडी और बतलाया है कि
"ब्रुवन्नापि न हि ब्रूने गच्छन्नपि न गच्छति । स्थिरीकृतात्मतत्वस्तु पच्यन्नपि न पश्यति ॥ ४१॥ किमिदं कीदृशं कस्य कस्मारकेस विशेषयन् । खदेहमपि नावैति योगी योगपरायणः ॥ ४२॥"
भावार्थ-'जो अपनी आत्माके ज्ञानमें खूब स्थिर है, ऐसा ही योगी बोलते भी नहीं बोलता है, चलने हुए भी नही चलता है और देखते हुए भी नहीं देखता है । ऐसा योगी जो अपने आत्मखरूपकी प्राप्तिमें सलग्न है वह अपने शरीर तकके अस्तित्वसे विज्ञ नहीं रहता है। वह आत्मा क्या है ? उसका स्वभाव क्या है ? उसका स्वामी कौन है ? इत्यादि प्रश्नोंसे अछूता बना शात रहता है। इन उद्धरणोसे स्पष्ट है कि जिन विशेषणोंका व्यवहार चौद्ध पुस्तकमे क्यिा गया है वह नेन शास्त्रोके अनुसार