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- और म० बुद्ध ]
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'गवत्तो - जिसका मन अन्तको पहुंच गया है अर्थात् जिसने
अपने उद्देश्यको पा लिया है ।"
यतत्तो - जिसका मन संयमित है ।
थितत्तो - जिसका मन खूब थिर होगया है ।'
अतएव इन भावोंको व्यक्त करनेवाले ये विशेषणोंका जैन मुनियोंकी प्रख्यातिके लिये उस समय प्रचलित होना बिल्कुल संभव है; किन्तु यह अवश्य है कि उपलब्ध जैन साहित्य में हमें इनका व्यवहार कहीं नज़र नहीं पडा है । शायद प्रयत्नशील होकर खोज करनेपर अगाध जैनसाहित्यमें इनका पता चल जावे ! इतनेपर भी यह स्पष्ट है कि जो भाव इन शब्दोंका बतलाया गया उसीके अनुसार जैनशास्त्रोंमें जैनमुनियोंका स्वरूप निर्दिष्ट किया गया है । देखिये ईसाकी प्रथम शताव्दिके विद्वान् कुन्दकुन्दाचार्य इस विषयमें निरूपण करते हैं:
" जधजादरूवजादं उप्पाडिद केसमंसुगं सुद्धं । रहिदं हिंसादीदो अप्पाड़िकम्पं हवदि लिंगं ॥ ५ ॥ मुच्छारंभविजुत जुत्तं उवजोग जोग सुद्धीहिं । लिगं ण परावेक्षं अणभव कारणं जो एहं ॥ ६ ॥
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प्रवचनसार
भावार्थ- 'मुनिलिंग नग्न, सिर व डाढ़ी केशरहित, शुद्ध, हिंसादि रहित, शृंगार रहित, ममता आरम्भ रहित, उपयोग व योगकी शुद्धि सहित, परद्रव्यकी अपेक्षा रहित, मोक्षका कारण होता है ।' तथापि और भी कहा है :
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'इहलोग णिरावेक्खो अप्पदिवद्धो परम्मिलोयम्मि ।