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[ भगवान महावीरहैं ही। इस तरह यह दूसरा विशेषण भी दोनो स्थानोंपर एक समान मिलता है। तीसरा विशेषण बौद्धशास्त्रमें बतलाया है कि सब पापको उनने धो डाला है ' इसका भाव आभ्यन्तर परिग्रहसे भी वे रहित है, यही है । जैनमुनि बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकारके परिग्रहोंसे रहित होते हैं । आभ्यन्तरपरिग्रहमी जिनके नहीं है. उनके पापका भभाव ही होगा, पाप उनके निकट छू भी नहीं सत्ता । यही बात उपरोक्त जैन श्लोकमें 'अपरिग्रही' विशेषणसे जाहिर कीगई है। चौथा और अन्तिम विशेषण बौद्धग्रन्थमें "पापवासनाको रोककर पूर्ण हुये जीवन व्यतीत करना बतलाया है। जीवनको ज्ञान, ध्यान, तपश्चरणमें लगानेसे ही मुनि अपने पूर्णपनेको प्राप्त होता है । शांत ज्ञान-ध्यानमय अवस्थामें पापाश्रवका होना असंभव है। वहां संवर ही संभाव्य है । इसतरह चौथा विशेषण भी दोनो स्थलोंपर एकसा ही है। अतएव बौद्धग्रंथके उक्त उल्लेखका भाव वही है जो उक्त दि. जैन श्लोकमें बतलाया गया है। इसप्रकार इनका भाव श्वे०की मान्यताके अनुसार भगवान पार्श्वनाथके चार व्रत नहीं हो सकते । खेताम्बरोंके इस कथनकी पुष्टि उपरोक्त गैद्ध उद्धरणसे होती बतलाई जाती है। परन्तु अब हम देखते है कि यह मिथ्या है और श्वेताम्बरोके इस कथनका कोई आधार शेष नहीं है।
अब रही धात उक्त उद्धरणमें व्यवहृत 'गतनो', 'यतत्तो' और 'थितत्तो' शब्दोंकी सो बौद्धाचार्य 'सुमगलविलासिनी' नामक टीकाने उनका भाव निम्नप्रकार स्पष्ट करते है:-'
१ हिस्टोरीकल ग्लीनिन्गस पृष्ठ ८१ ।