________________
- भौर म० बुद्ध ]
[ २२५
-
,
इसमें तपस्वी अथवा मुनि वह बतलाया गया है जो विषयोकी आशा और आकांक्षा से रहित हो, ( विषयेषु सम्वनितादिष्वाशा आकांक्षा तस्या वशमधीनता, तदतीतो विषयाकांक्षा रहितः 1); निरारम्भ हो, ( परित्यक्तकृप्यादि व्यापारः । ); अपरिग्रही हो, ( बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहितः ।) और ज्ञानध्यानमय तपको धारण करे हुये तपोरत्न ही हो, (ज्ञानध्यानतपांस्येव रत्नानि यस्य एतद् - गुणविशिष्टो यः स तपस्त्री गुरु: 'प्रशस्यते ' मध्यते) । यहां भी निर्ग्रन्थ मुनिके चार ही विशेषण बतलाये गये हैं । अब इनकी तुलना जरा उपरोक्त बौद्ध उद्धरणसे करके देखें कि वस्तुतः क्या इन्हीं का उल्लेख इसमें किया गया है ? वौद्ध उद्धरणमे पहिले कहा गया है कि एक निर्ग्रन्थ मुनि सब प्रकारके जलखे विलग रहता है । इसका भाव यही है कि वह आरंभी आदि सब प्रकारकी हिंसा से दूर रहता है । जैन मुनि अपने निमित्त जल भी स्वयं ग्रहण नही करते: जिस समय वे आहारके निमित्त श्रावकके यहां पहुंचते हैं, उस समय श्रावक स्वय ही उनके कमण्डलुको प्रासुक जलसे भर देता है । इसलिए यहापर बौद्धग्रन्थ उनकी निरारम्भ अवस्थाको व्यक्त करता है, जैसा कि उपरोक्त जैन श्लोकमें भी स्वीकार किया गया है । केवल अन्तर इतना है कि बौद्धग्रन्धमें इसको पहले गिना गया है और जैन श्लोकमें दूसरे नम्बरपर, परन्तु इस क्रम अन्तरसे मूल भावमें कोई अन्तर उपस्थित नही होता । उपरात बौद्ध उद्धरणमे बतलाया है कि वे 'सब पापसे दूर रहते हैं' । यह ठीक ही है । उक्त श्लोक में पहिले ही उनको 'विपयाशावशातीतो ' बता दिया है । विषय-वासनायें ही पाप है और वह उनसे रहित
१५
-