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[भगवान महावार'इस कठिन उद्धरणमें गोरख धन्धेकेसे पेच नजर पड़ रहे हैं वह संभवतः निगन्य ( भगवान महावीर ) के उपदेशकमकी नकल उपहासरूपमें प्रकट करनेके प्रयत्न है। जॉनरलीसाहबने इसके साधारण भावको ग्रहण अवश्य किया है, परन्तु उनका अनुवाद बहुत स्वतंत्र है और दो शब्दोंके सम्बन्धमे अयथार्थ है
और उससे भाषाकी उस विचित्रताका दिग्दर्शन नहीं होता जैसा वह मूलमें है । बारनफ साहवने जो इसका भाव प्रकट किया है वह विल्कुल विषयान्तर है । इस ' चतुर्यामसंवर' में पहिला तो
का विशेष प्रख्यात नियम जलको ग्रहण न करना है जिसमें वे जीव खयाल करते हैं । (मिलिन्द २,८५-९१). प्रा० जैकोबी साहबने (जैनसूत्र २ भूमिका २३ ) इनको भगवान पार्श्वनाथके चार व्रत खयाल किये हैं परन्तु यह कभी भी नहीं होसक्ते क्योकि यह उपरोक्तसे बिल्कुल भिन्न है।"
इस तरह इस कथनसे यह स्पष्ट है कि पाश्चात्य विद्वान् अभीतक बौद्धशास्त्रके इस जैन उल्लेखका एक स्पष्ट भाव नहीं बतला सके है अतएव आइये पाठकगण हम इस उलझी गुत्थीको सुलझानेका किञ्चित् प्रयास कर लें। जैन शास्त्रोपर दृष्टि डालनेसे हमें श्रीमद्भगवतसमन्तभद्राचार्यके प्रख्यात ग्रंथ 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' में एक जैनमुनिका स्वरूप इस तरह बतलाया हुआ मिलता है (अथेदानी श्रद्धानगोचरस्य तपोभृतः स्वरूपं प्ररूपयन्नाह)-'
"विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः ।
ज्ञानध्यानतपोरलस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥१०॥" १ मा० प्र० पृष्ठ ८.