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-और म० बुद्ध
[२२३ और जब वह इस चतुर्यामसंवरसे युक्त है, तब इसीलिये वह निगन्थो, गतत्तो, यतत्तो और थितत्तो कहलाते हैं।'
ठीक इस ही प्रकारके उल्लेख दीघनिकाय, अडतरनिकाय और मिलिन्दपन्हमें भी आये हैं । यहां निर्ग्रन्थ (जैनमुनि) के साधु जीवनका महत्व प्रदर्शित किया गया है । इसपर प्राच्यविद्याविशारदोंमें विशेष मतभेद प्रचलित है। कोई इसका भाव कुछ लगाते हैं और कोई कुछ । सचमुच विधर्मी विद्वानोंके लिए यह सुगम नहीं है कि वह किसी धर्मकी मान्यताको सहन समझ सकें तो भी उनके उद्योग सराहनीय हैं । इसमें संशय नहीं कि बौद्धग्रन्थमें जो इस तरह क्लिष्ट और अस्पष्ट रूपमें इस उत्तरको अंकित किया गया है, वह भगवान महावीरकी दिव्यध्वनिके प्रति उपहास भावको प्रकट करता है । डॉ० दिस डेविड्स भी यही समझते हैं
और वे इस विषयमे अन्य पाश्चात्य विद्वानोके भावार्थोपर विवेचन करते हुए लिखते हैं:
-बारी-बारिता
एवम् खो
१ मूल इस प्रकार है.-"एवम् दुत्त भन्ते निगन्ठो नातपुत्ता मम् एतद् अवाचः 'इध महाराज निगन्ठो चातु-याम-सवर-सवुतो होति । कथं च मह राज निगन्ठो चातु-याम-सबर-संवुतो होति ? इध महाराज निगन्ठो सम-वारी-वारितोच होति, सच-वारी-युतो च, सब-यारीधतो च, सम-धारी-पुठो च । एवम् खो महाराज निगन्ठो चातु-यामसवर-वना होति । यो खो महाराज निगन्ठो एवम् चातु-यामसंवर-सवुनी होति, भयम् बुचवि महाराज निगन्ठो गतत्तो च यतत्तो च थितनो चाति ।' इत्यम् खो मे भन्ते निगन्ठो नातपुत्तो सन्दिथिकम् सामनफलम् पुढो समानो चातु-याम-संवरम् व्याकसि ।...... दीघनिकाय (P. T. S.) भाग १ पृ० ५७-५८ ।
नगन्ठो एवम
च यतत्तो