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________________ -और म० बुद्ध] [१९५ वह शरीररक्षाके निमित्त ग्रहण कर लेता है । तथापि इस अवस्थामें भी अज्ञातावस्थामें जो हिंसा होती है उसके लिए वे मुनिगण प्रतिक्रमणादि करते हैं । आचार्य अमितगति यह भावना इस तरह प्रकट करते हैं:'एकेन्द्रियाद्या यदि देव देहिनः, प्रमादतः संचरता इतस्तः। क्षता विभिन्ना मिलिना निपीडिना, तदस्तु मिथ्या दुरनुष्ठितं तदा ॥५॥ __ भावार्थ-यत्रतत्र विचरण करते हुए प्रमादवश यदि कोई हिसा हुई हो या किसी प्राणीको दुःख पहुंचा हो, अथवा उसको अनिष्ट संयोग मिला हो तो उस एक या अधिक इन्द्रियवाले प्राणीको उक्त प्रकार पीड़ा पहुंचानेका यह दुष्कृत्य दूरहो। इस प्रकार जैनसिद्धांतमें अज्ञात अवस्थाकी हिसा भी पापबंधका कारण मानी गई है और उपाली इसी दृष्टिसे उसका प्रतिपादन म० बुद्धके निकट करता है। किन्तु म बुद्ध जैन अहिंसाकी इस व्यापकताको स्वीकार नहीं करते हैं, यह हम पहिले ही देख चुके हैं । वह केवल जानबूझकर किसीको मारने या पीड़ा पहुंचानेको ही हिसा मानते हैं । श्वेताम्बरोंके सूत्रकृताङ्गमें बुद्धकी इस मान्यताका खण्डन किया गया है। वहां एक बौद्ध कहता है कि यदि कोई व्यक्ति धोखेमें किसी प्राणीको मारदे और उसका आहार बौद्ध अमणोंको दे तो वे इसे स्वीकार करलेंगे क्योंकि उस प्राणीको मारनेके भाव तो उस व्यक्तिके थे ही नही । इसलिए इसमे हिसा भी नहीं समझना चाहिये। तथापि यदि कोई व्यक्ति १. मूलाचार पृष्ठ १९७-१९८ । २. सामा काठ ५13 जैनसूत्र (S B.E.) भाग २ पृष्ठ ४१४-४१६. --
SR No.010165
Book TitleBhagavana Mahavira aur Mahatma Buddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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