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[ भगवान महावीर
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निर्जीव वस्तुमें एक प्राणीकी कल्पना करके उसका घात करे तो वह हिसा कही जायगी और बही पापका कारण है । उचित शब्दों द्वारा वहां बौद्धोंकी इस व्याख्याका विरोध किया गया है। सचमुच म० बुद्ध अपने एकान्तमतकी अपेक्षा केवल एक दृष्टिसे ही यहां हिसाका प्रतिपादन कर रहे हैं । वह मन, वचन, काय द्वारा जो हिसा होती है, उसको उसी दशामें पापमय समझते हैं, जिस समय वह व्यक्ति जानबूझकर उसको कररहा हो । जैन मान्यता इसके प्रतिकूल है। उसके अनुसार यह एकदेशी अहिंसा है, जैसे कि हम देख चुके हैं । अतएव जैन सिद्धान्तमें मन, वचन, कायिक तीन प्रकार के डन्ड पापबंधके कारण बताये है । प्रमादवश कायिक दन्ड जैसे चलते फिरते चींटी आदिका मरना भी पापबंधका कारण है । उपाली इन तीनो दण्डों का उल्लेख करता है परन्तु बुद्ध इसको स्वीकार नहीं करते । अन्ततः कहा गया है कि उपाली बुद्धके उपदेश से प्रतिबुद्ध हो गया । इसमे कहातक तथ्य है, यह हम कह नहीं सक्ते । जैन शास्त्रोंमें उपालीका उछेख हमारे देखने में नहीं आया है तथापि यह स्पष्ट है कि जैनधर्मका अहिंसावाद भगवान महावीर के समय से ही वैसा है जैसा कि आज उसे हम पारहे है ।
इसके अतिरिक्त अन्यत्र जैनियोंकी यह मान्यता बताई गई है कि व्यक्तिको अपना स्वार्थ साधना चाहिये, फिर चाहे मातापिताकी भी हत्या क्यों न करनी पड़े ! यह जैन मान्यता के प्रतिकूल है, उसके अनुसार बिल्कुल मिथ्या है। मात्रम होता है यहां
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१. मनिकाय भाग ११४३५२, २. जातक भाग ५ १४ ૧૨૨ મૌ ફિલ્ટરીનિZY ૮૨.