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-और 'म बुद्ध
[१९७ पर बुद्ध नैनियोंके इस उपदेशको व्यक्त कररहे हैं कि मुमुक्षुको सब बातोंको गौण करके अपना आत्महित सबसे पहिले साधन करना चाहिये । इसका यह अर्थ नहीं है कि वह अपने मातापिताके प्राणोंतककी परवा न करे । ऐसा यदि वह करेगा तो वह अपने अहिंसावतके विरुद्ध नायगा। इस अवस्थामें बुद्ध जैनियोंपर इस मान्यताके कारण उसी डालको काटनेका लाञ्छन आरोपित नहीं कर सक्ते जो स्वयं उनकी छाया देती हो। जैनदृष्टिसे यह पल्ले दर्जेकी कृतघ्नता है। __तथापि उपालीमुत्तके अन्तमें कहा गया है कि दीघतपस्सीको उपालीके बौद्ध होनेके समाचारों पर विश्वास नहीं हुआ। वह निगन्य नातपुत्तके पास गया और उपालीके चावत उनसे सब कहा। इसपर वह संघ सहित उपालीके निकट गये और उसे समझाने लगे, पर वह न माना।' यह कथन भी कुछ अटपटा है। एक श्रावकके लिये, जो कोई विशेष प्रभावशाली व्यक्ति भी नहीं था, उसके निकट भगवान महावीर गये हों! यह वर्णन जैन मान्यताके विरुद्ध है । तीर्थकरावस्था में वे भगवान प्राकृतरूपमें रागद्वेष और वाञ्छासे रहित होकर उपदेश देते थे। इसलिये उनका वहां जाना केवल नैनियोंकी मान्यताके विपरीत नहीं है, बल्कि प्रकृत अयुक्त है । अतएव बौद्ध अन्धका यह कथन मिथ्या प्रतीत होता है। जन शास्त्रों में ऐसा उल्लेख नहीं मिलता जिससे यह प्रकट हो कि भगवान सर्वज्ञावस्थामें किसीके गृहादिको गये हों, पत्युत उनका विहार सबै संघसहित होता था।
• सिमनिाग भाग १ पृष्ठ ३01-20७.