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[ भगवान महावीरउपरोक्त दीघतपस्सी निर्ग्रन्थ मुनि बताये गये हैं और पहिले इन्हींसे म० बुद्धका वार्तालाप हुआ था और इनके कहनेपर ही उपाली भी बुद्धसे उक्त प्रकार बातचीत करने गया था। दीघतपस्सीके सम्बन्धमें कहा गया है कि " जब नालन्दाके आम्रबनमें म० बुद्ध ठहरे हुये थे उस समय आहारोपरान्त दीघतपस्सी नामक एक निग्रन्थ (मुनि) उनके निकट जाकर उपस्थित हुआ। बुद्धके कहनेपर वह एक नीचे आसनपर बैठा और परस्पर अभिवादन किया। उपरान्त बुद्धने पूछा, 'पापकर्म करनेके कितने द्वार है और पाप क्तिने है ?" इसके उत्तरमें उन्होने कहा, 'हमारे निकट पाप नहीं बल्कि डन्ड मुख्य है। तब बुद्धने पूछा, 'तो निर्ग्रन्थ कितने प्रकारके 'डन्ड' बतलाते हैं ? निम्रन्थ (मुनि) ने उत्तर दिया, 'डन्ड तीन प्रकारके है। कायडन्ड, वचनडन्ड और मनडन्ड । फिर बुद्धने प्रश्न किया, 'क्या- यह तीनो एक दूसरेसे भिन्न हैं ?' मुनिने कहा, हां, वे भिन्न है।' इसपर बुद्धने पूछा कि 'इन तीनोमें सबसे अधिक पापपूर्ण कौनसा है ?' उत्तरमें कहा गया कि 'निगन्योंके अनुसार कायडन्ड अधिक पापपूर्ण है । इसके उपरान्त उन मुनिने बुद्धसे पूछा कि तुम कितने प्रकारका डन्ड बतलाते हो। इसपर बुद्धने उत्तर दिया कि 'मैं डन्डका प्रतिपादन नहीं करता। मै.कम्म (कर्म-Deed) का उपदेश देता हूं।' यह सुनकर निग्रंथ मुनिने कहा कि 'तो तुम कायक्रम, वचिकम्म और मनोकम्म उसी तरह मानते हो जिस तरह हम कायडन्डो, वच्डिन्टो और मनोडन्डो मानते है। ठीक है, परन्तु इन तीनों में अधिक पापपूर्ण किसको स्वीकार करते हो ' दुद्धने वहा कि 'हम मनोकामको अधिक पाप