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- और म० युद्ध ]
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राजगृहमें गये थे तो वहाके 'सुप्पतित्थ' नामक मदिरमें ठहरे थे।' इसके उपरांत फिर कभी भी उनका उल्लेख हमे इस या ऐसे मंदिर में ठहरनेका नही मिलता है। इस मंदिरका नाम जो 'सुप्पतित्य' है, जो उसका सम्बंध किमी ' तित्थिय' मतप्रवर्तकसे होना चाहिये, परन्तु हम देखते है कि उस समयके प्रख्यात् छ' मतप्रवर्तकों में इस तरहका कोई नाम नहीं मिलता ! हां, जन नीर्थकरों में एक सुपार्श्वनाथनी अवश्य हुये है और उनके संक्षिप्त नामकी अपेक्षा उनके मूल नायकत्वका मंदिर अवश्य ही 'सुप्पतित्थ' का मंदिर कहला सक्ता है। जैन तीर्थकरोंके नामका उल्लेख ऐमे सप्तिरूपमें होता था, यह हमें जन शास्त्रों के उल्लेग्बो में मिलता है । 'दर्शनसार ' ग्रन्थ में 'विपरीतमत' की उत्पत्ति बतलाते हुये आचार्य लिखते है:" मुव्नयतित्थे उज्झो खीरकदंबुत्ति युद्धसम्मत्तो ।" इसमें बाबीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथजीका नामोल्लेख केवल 'सुव्यय' के रूपमें किया गया है । इसी तरह लेक व्यवहारतः संक्षेपमें सुपार्श्वनाथनीका नामोल्लेख 'सुप्प' के रूप में किया जासक्ता है । इस रीतिसे जिस 'सुप्पतित्थ' के मदिरमें म० बुद्ध पहिले पहिल ठहरे थे, वह जैन मंदिर ही था । + और उसमें उसके बाद
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१ महायुग १-२२-१३ ( S. B. E. पृष्ठ १४४ ) में स्पष्ट लिखा है कि मन्त्र पहिले ही जब अपने धर्मका प्रचार करने आये तो राजगृह में लठोपनमें 'सुप्यति' के मंदिरमें ठहरे। यहा से निय बिम्बसार ने उनका उपदेश सुना तो उनके लिए वेलुयनमें एक आराम' चनकर दिया। उस समय इस प्रकार सातवें तीर्थंकर श्री सुपार्श्वयजीका मन्दिर विद्यमान होना, जैन तीर्थकरोंकी ऐतिहासिकता और जनधर्मकी विशेष प्राचीनताका द्योतक है ।